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ठloi
वाचना प्रमुख
आचार्य तुलसी
सम्पादक-विवेचक मुनि नथमल
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ठाणं
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भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण-शताब्दी के उपलक्ष में
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ठाणं (मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण)
वाचना प्रमुख
आचार्य तुलसी
संपादक-विवेचक मुनि नथमल
प्रकाशक
जैन विश्व भारती
लाडनूं (राजस्थान)
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प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान)
प्रबन्ध सम्पादक श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन (जै० वि० भा०)
प्रथम संस्करण महावीर जन्म-तिथि विक्रम संवत् २०३३
पृष्ठ १०६०
मूल्य
रुपये
मुद्रक
मॉडर्न प्रिंटर्स के-३०, नवीन शाहदरा, दिल्ली-११००३२
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THĀŅAM
(Text, Sanskrit Rendering & Hindi Version With Notes)
Vāçanā Pramukh ACHARYA TULSI
Editor and Commentator MUNI NATHMAL
PUBLISHER
JAIN VISHVA BHARATI
LADNUN (RAJASTHAN)
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Publisher
Jain Vishva Bharati Ladnun (Rajasthan)
Managing Editor
Shreechand Rampuria
Director:
Agama and Sahitya Prakashan
First Edition 1976
Pages: 1090
Price: Rs.
Printers Modern Printers
K-30, Naveen Shahdara, Delhi-110032
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समर्पण
पुट्ठो वि पण्णापुरिसो सुदक्खो, आणापहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से ॥
विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं । सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसने आगम-दोहन कर-कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सध्यान लीन चिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से।
पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।।
जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ।।
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अन्तस्तोष
अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है; उस कलाकार का, जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का, जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुत्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझ केन्द्रमान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया । अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूँ, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं । संक्षेप में यह संविभाग इस प्रकार है :
संपादक - विवेचक : मुनि नथमल
सहयोगी: मुनि सुखलाल
: मुनि श्रीचन्द्र
: मुनि दुलहराज
: मुनि दुलीचन्द 'दिनकर'
: मुनि हीरालाल
संस्कृत - छाया
"1
31
22
21
संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूँ और कामना करता हूँ कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने ।
आचार्य तुलसी
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प्रकाशकीय
'ठाणं तृतीय अंग है। जैनों के द्वादशाङ्गों में विषय की दृष्टि से इसका बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामान्य गणना से इसमें कम-से-कम १२०० विषयों का वर्गीकरण है; भेद-प्रभेद की दृष्टि से इसके द्वारा लाखों विषयों की ओर दष्टि जाती है।
'ठाणं' में विषय-सामग्री दस स्थानों में विभक्त है। प्रथम स्थान में संख्या में एक-एक विषयों की सूची है। दूसरे स्थान में दो-दो विषयों का संकलन है। तीसरे में संख्या में तीन-तीन विषयों की परिगणना है। इस तरह उत्तरोत्तर क्रम से दसवें स्थान में दस-दस तक के विषयों का प्रतिपादन हुआ है। इस एक अङ्ग का परिशीलन कर लेने पर हजारों विविध प्रतिपाद्यों के भेद-प्रभेदों का गंभीर ज्ञान प्राप्त हो जाता है। व्यापकता की दृष्टि से इसका विषय ज्ञान के अनगिनत विविध पहलुओं का स्पर्श करता है। भारतीय ज्ञान-गरिमा और सौष्ठव का इससे बड़ा अच्छा परिचय प्राप्त होता है।
इस अंग की प्रतिपादन शैली का बौद्ध पिटक अंगुत्तर निकाय में अनुकरण देखा जाता है। इसके परिशीलन से ठाणं के अनेक विषयों का स्पष्टीकरण होता है।
विज्ञान के एक विद्यार्थी के नाते यह कहने में जरा भी हिचकिचाहट का बोध नहीं होता कि इस अंग में वस्तु-तत्त्व के प्रांगण में ऐसे अनेक सार्वभौम सिद्धान्तों का संकलन है जो आधुनिक विज्ञान जगत में मूलभूत सिद्धान्तों के रूप में स्वीकृत हैं।
हर ज्ञान-पिपासु और अभिसन्धित्सु व्यक्ति के लिए यह अत्यन्त हर्ष का ही विषय होगा कि ज्ञान का एक विशाल सपुट संशोधित मूल पाठ, संस्कृत छायानुवाद एवं प्रांजल हिन्दी अनुवाद और विस्तृत टिप्पणों से अलंकृत होकर उनके सम्मुख उपस्थित हो रहा है। जैन विश्व भारती ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के प्रकाशन का सौभाग्य प्राप्त कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करती है।
परम श्रद्धेय आचार्य श्री तुलसी एवं उनके इंगित-आकार पर सब कुछ नयौछावर कर देने के लिए प्रस्तुत मुनिवृन्द की यह समवेत उपलब्धि आगमों के हिन्दी रूपान्तरण के क्षेत्र में युग-कृति है। बहुमुखी प्रवृत्तियों के केन्द्र तपोमूर्ति आचार्य श्री तुलसी ज्ञान-क्षितिज के देदीप्यमान् सूर्य है और उनका मुनि-मण्डल ज्योतिर्मय नक्षत्रों का प्रकाशपुंज, यह श्रमसाध्य प्रस्तुतीकरण से अपने-आप स्पष्ट है।
आचार्यश्री ने विविध पहलुओं से आगम-सम्पादन के कार्य को हाथ में लेने की घोषणा २०११ की चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को की। इसके पूर्व ही श्रीचरणों में विनम्र निवेदन रहा-आपके तत्वावधान में आगमों का सम्पादन और अनुवाद हो-यह भारत के सांस्कृतिक अनुवाद की एक मूल्यवान कड़ी के रूप में अपेक्षित है। यह एक अत्यन्त स्थायी कार्य होगा, जिसका लाभ एक-दो-तीन नहीं, अचिन्त्य भावी पीढ़ियों को प्राप्त होता रहेगा।
मुझे हर्ष है कि आगम ग्रन्थों के ऐसे प्रकाशनों के साथ मेरी मनोकामना फलवती हो रही है।
मुनि श्री नथमलजी तेरापंथ संघ और आचार्य श्री तुलसी के अप्रतिम मेधावी श्रमण और शिष्य हैं। उनका श्रम पद-पद पर मुखरित हो रहा है। आचार्य श्री तुलसी की दीर्घ पैनी दृष्टि और नेतृत्व एवं मुनि श्री नथमल जी की सृष्टि
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सौष्ठव -यह मणिकांचन योग है । अन्तस्तोष, भूमिका और सम्पादकीय में अन्य मुनियों के सहयोग का स्मरण हुआ है।
जहाँ तक मेरी परिक्रमा का प्रश्न है, मैं तीन संतों का नामोल्लेख किए बिना नहीं रह सकता-मुनि श्री दुलहराज जी, हीरालालजी और सुमेरमलजी। मुनि श्री दुलहराजजी आरम्भ से अन्त तक अपनी अनन्य कलात्मक दृष्टि से कार्य को निहारते और निखारते रहे हैं, मुनि श्री हीरालाल जी अथक परिश्रम करते हुए अशुद्धियों के आस्रव को रोकते रहे हैं, मुनि श्री सुमेरमलजी तो ऐसे सजग प्रहरी रहे हैं जिन्होंने कभी आलस्य की नींद नहीं लेने दी। . दुरूह कार्य सम्पन्न हो पाया, इसकी आनन्दानुभूति हो रही है। प्रकाशन में सामान्य विलम्ब हुआ, उसके लिए तो क्षमा-प्रार्थना ही है। केवल इतना स्पष्ट कर दूं कि वह आलस्य अथवा प्रमाद पर आधारित नहीं है ।
श्री देवीप्रसाद जायसवाल मेरे अनन्य सहयोगी रहे हैं। ग्रन्थों के प्रकाशन-कार्य और प्रफ के संशोधन आदि विविध श्रमसाध्य कार्यों में उनके सहयोग से मेरा परिश्रम काफी हल्का रहा।
श्री मन्नालाल जी बोरड़ भी प्रूफ-संशोधन में सहयोगी रहे हैं।
माडर्न प्रिन्टर्स के निर्देशक श्री रघुवीरशरण बंसल एवं संचालक श्री अरुण बंसल के सौजन्य ने कृति को सुन्दर रूप दे पाने में जो सहयोग प्रदान किया है, उसके लिए उन्हें तथा प्रेस के सम्बन्धित कर्मचारियों के प्रति धन्यवाद व्यक्त करना नहीं भूल सकता।
जैन विश्व भारती के पदाधिकारी गण भी परोक्ष भाव से मेरे सहभागी रहे हैं। उनके प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ। आशा है, जैन विश्व भारती का यह प्रकाशन सभी के लिए उपादेय सिद्ध होगा।
दिल्ली महावीर जन्म-तिथि (चैत्र शुक्ला १३) वि० सं० २०३३
श्रीचन्द रामपुरिया
निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन
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भूमिका
जैन आगम चार वर्गों में विभक्त हैं—१. अंग, २. उपांग, ३. मूल और ४. छेद। यह वर्गीकरण बहुत प्राचीन नहीं है। विक्रम की १३-१४ वीं शताब्दी से पूर्व इस वर्गीकरण का उल्लेख प्राप्त नहीं है। नंदी सूत्र में दो वर्गीकरण प्राप्त होते हैंपहला वर्गीकरण-१. गमिक-दृष्टिवाद
२. अगमिक---कालिकश्रत-आचारांग आदि । दूसरा वर्गीकरण-१. अंगप्रविष्ट
२. अंगबाह्य । अंग बारह हैं—१. आचार, २. सूत्रकृत्, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, ८. अन्तकृतदशा, ६. अनुत्तरोपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरणदशा, ११. विपाकश्रुत, १२. दृष्टिवाद।
भगवान महावीर की वाणी के आधार पर गौतम आदि गणधरों ने अंग-साहित्य की रचना की। अंगों की संख्या बारह है, इसलिए उन्हें द्वादशाङ्गी कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र उसका तीसरा अंग है। इसका नाम 'स्थान' [प्रा० ठाणं] है। इसमें एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव और पुद्गल के विविध भाव वर्णित हैं, इसलिए इसका नाम 'स्थान' रखा गया है।
संख्या के अनुपात से एक द्रव्य के अनेक विकल्प करना, इस आगम की रचना का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है । उदाहरणस्वरूप प्रत्येकशरीर की दृष्टि से जीव एक है। संसारी और मुक्त इस अपेक्षा से जीव दो प्रकार के हैं, अथवा ज्ञानचेतना और दर्शनचेतना की दृष्टि से वह द्विगुणात्मक है। कर्म-चेतना, कर्मफल-चेतना और ज्ञान-चेतना की दृष्टि से वह त्रिगुणात्मक है । अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इस निपदी से युक्त होने के कारण वह त्रिगुणात्मक है। गतिचतुष्टय में संचरण शील होने के कारण वह चार प्रकार का है। पारिणामिक तथा कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय जनित भावों के कारण वह पंचगुणात्मक है । मृत्यु के उपरान्त वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अध:-- इन छहों दिशाओं में गमन करता है, इसलिए उसे षड़विकल्पक कहा जाता है। उसकी सत्ता सप्तभंगी के द्वारा स्थापित की जाती है
१. स्यात् अस्त्येव जीवः-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा जीव है ही। २. स्यात् नास्त्येव जीव:-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा जीव नहीं ही है।
१. (क) नन्दी, सूत्र ८२ : ठाणेणं एगा इयाए एगुत्तरियाए बुड्ढीए दसट्टाणगविवड्ढियाणं भावाणं परवणया आघविज्जति । (ख) कसायपाहुड, भाग १, पृ० १२३ :
ठाणं णाम जीवपुद्गलादीणमेगादिएगत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि । २. ठाणं, १।१७ :
एगे जीवे पाडिक्कएणं सरीरएणं । ३. ठाणं, २।४०६:
दुविहा सव्व जीवा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धा चेव, असिद्धा चेव ।
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३. स्यात् अवक्तव्य एव जीव:-अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों एक साथ नहीं कहे जा सकते। इस अपेक्षा से जीव अवक्तव्य ही है।
४. स्यात् अस्त्येव जीवः, स्यात् नास्त्येव जीवः-अस्तित्व और नास्तित्व की क्रमिक विवक्षा से जीव है ही और नहीं ही है।
इस प्रकार अस्तित्व धर्म की प्रधानता और अवक्तव्य, नास्तित्व धर्म की प्रधानता और अवक्तव्य तथा अस्तित्व और नास्तित्व की क्रम-विवक्षा और अवक्तव्य-ये तीन सांयोगिक भंग बनते हैं। इस सप्तभंगी से निरूपित होने के कारण जीव सात विकल्प वाला है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ कर्मों से युक्त होने के कारण जीव आठ विकल्प वाला है।
पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियइन विविध कार्यों में उत्पत्तिशील होने के कारण वह नौ प्रकार का है। वनस्पतिकाय के दो विकल्प होते हैं-साधारण वनस्पति- काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय । उक्त आठ स्थानों तथा द्विविध वनस्पतिकाय में उत्पत्तिशील होने के कारण वह दश प्रकार का है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में संख्यात्मक दृष्टिकोण से जीव, अजीव आदि द्रव्यों की स्थापना की गई है।
प्रस्तुत सूत्र में भूगोल, खगोल तथा नरक और स्वर्ग का भी विस्तृत वर्णन है। इसमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य भी उपलब्ध होते हैं। बौद्धपिटकों में जो स्थान अंगुत्तरनिकाय का है वही स्थान अंग-साहित्य में प्रस्तुत सूत्र का है।
प्रस्तुत सूत्र में संख्या के आधार पर विषय संकलित हैं, अतः यह नाना विषय वाला है। एक विषय का दूसरे विषय से सम्बन्ध नहीं खोजा जा सकता। द्रव्य, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, आचार, मनोविज्ञान, संगीत आदि विषय किसी क्रम के बिना पाठक के सम्मुख प्रस्तुत होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में केशी-गौतम का एक संवाद-प्रकरण है। केशी ने गौतम से पूछा-"जो चातुर्याम-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और जो यह पंच-शिक्षात्मक-धर्म है उसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है। एक ही उद्देश्य के लिए हम चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेधाविन् ! धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें सन्देह कैसे नहीं होता?"२ केशी के प्रश्न की पृष्ठभूमि में जो तथ्य है उसका स्पष्टीकरण प्रस्तुत सूत्र में मिलता है। चतुर्थ स्थान के एक सूत्र में यह निरूपित है-भरत और ऐरवत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम को छोड़कर शेष बाईस अर्हन्त भगवान् चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं। वह इस प्रकार है
सर्व प्राणातिपात से विरमण करना। सर्व मृषावाद से विरमण करना। सर्व अदत्तादान से विरमण करना। सर्व बाह्य-आदान से विरमण करना।
प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र धारण के तीन प्रयोजन बतलाए गए हैं-लज्जानिवारण, जुगुप्सानिवारण और शीत आदि से बचाव । वस्त्र का विधान होने पर भी वस्त्र-त्याग को प्रशंसनीय बतलाया गया है। पांचवें स्थान में कहा है-पांच कारणों से निर्वस्त्र होना प्रशस्त है-१. उसके प्रतिलेखना अल्प होती है। २. उसका लाघव प्रशस्त होता है। ३. उसका
१. कसायपाहुड, भाग १, पृष्ठ १२३ :
एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिओ। चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य॥६४॥ छक्कायक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो।
अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दसट्ठाणिओ भणिओ ॥६५॥ २. उत्तरज्झयणाणि, २३३२३,२४॥ ३. ठाणं, ४११३६,१३७। ४. ठाणं, ३१३४७ ।
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रूप (वेष ) वैश्वासिक होता है । ४. उसका तप अनुज्ञात – जिनानुमत होता है । ५. उसके विपुल इन्द्रिय - निग्रह होता है ।"
भगवान् महावीर के समय में श्रमणों के अनेक संघ विद्यमान थे। उनमें आजीवकों का संघ बहुत शक्तिशाली था । वर्तमान में उसकी परंपरा विच्छिन्न हो चुकी है। उसका साहित्य भी लुप्त हो चुका है। जैन साहित्य में उस परम्परा के विषय में कुछ जानकारी मिलती है। प्रस्तुत सूत्र में भी आजीवकों की तपस्या के विषय में एक उल्लेख मिलता है ।"
प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के समकालीन और उत्तरकालीन- दोनों प्रकार के प्रसंग और तथ्य संकलित हैं । जहां धर्म का संगठन होता है वहाँ व्यवहार होता है। जहां व्यवहार होता है वहां विचारों की विविधता भी होती है । विचारों की विविधता और स्वतन्त्रता का इतिहास नया नहीं है । भगवान् महावीर के समय में भी जमालि ने वैचारिक भिन्नता प्रदर्शित की थी। उनकी उत्तरकालीन परम्परा में भी वैचारिक भिन्नता प्रकट करने वाले कुछ व्यक्ति हुए। ऐसे सात व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। उन्हें निन्हव कहा गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं- जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल ।
इसी प्रकार नौवें स्थान में भगवान् महावीर के नौ गणों का उल्लेख है । उनके नाम इस प्रकार हैं—गोदासगण, उत्तरबलि सहगण, उद्देहगण, चारणगण, उद्दवाइयगण, विस्सवाइयगण, कामड्डियगण, माणवगण, कोडियगण । *
ये सब भगवान् महावीर के निर्वाण के उत्तरकालीन हैं। इन उत्तरवर्ती तथ्यों का आगमों के संकलन - काल में समावेश किया गया। प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान-मीमांसा का भी लंबा प्रकरण मिलता है। इसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो भेद किए गए हैं। प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं— केवलज्ञान और नो- केवलज्ञान - अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान । परोक्ष ज्ञान के दो प्रकार हैं-आभिनिबोधिज्ञान और श्रुतज्ञान।' भगवती सूत्र में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये विभाग नहीं हैं। ज्ञान के पाँच प्रकारों का वर्गीकरण प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो विभागों में होता है । यह विभाग नंदी सूत्र में तथा उत्तरवर्ती समग्र प्रमाण व्यवस्था में समादृत हुआ है ।
रचनाकार
अंगों की रचना गणधर करते हैं। इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि गणधरों के द्वारा जो ग्रन्थ रचे गए उनकी संज्ञा अंग है। उपलब्ध अंग सुधर्मास्वामी की बाचना के हैं । सुधर्मास्वामी भगवान् महावीर के अनन्तर शिष्य होने के कारण उनके समकालीन हैं, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का रचनाकाल ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी है । आगम-संकलन के समय अनेक सूत्र संकलित हुए हैं। इसलिए संकलन - काल की दृष्टि से इसका समय ईसा की चौथी शताब्दी है ।
कार्य संपूति-
प्रस्तुत आगम की समग्र निष्पत्ति में अनेक मुनियों का योग रहा है। उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं कि उनकी कार्यशक्ति और अधिक विकसित हो ।
इसकी निष्पत्ति का बहुत कुछ श्रेय शिष्य मुनि नथमल को है क्योंकि इस कार्य में अर्हनश वे जिस मनोयोग से लगे हैं, उसी से यह कार्य सम्पन्न हो सका है। अन्यथा यह गुरुतर कार्य बड़ा दुरूह होता। इनकी वृत्ति मूलतः योगनिष्ठ होने से मन की एकाग्रता सहज बनी रहती है। आगम का कार्य करते-करते अन्तर्रहस्य पकड़ने में इनकी मेधा
१. ठाण ५२०१ ।
२. ठाणं ४३५० ।
३. ठाणं, ७।१४० ।
४. ठाणं २६ ।
५. ठाणं २६६, ८७ ।
६. ठाणं, २।१०० ।
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काफी पैनी हो गई है। विनयशीलता, श्रम-परायणता और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव ने इनको प्रगति में बड़ा सहयोग दिया है। यह वृत्ति इनको बचपन से ही है। जब से मेरे पास आए, मैंने इनकी इस वृत्ति में क्रमशः वर्धमानता ही पाई है। इनकी कार्य-क्षमता और कर्तव्यपरता ने मुझे बहुत सन्तोष दिया है।
मैंने अपने संघ के ऐसे शिष्य साधु-साध्वियों के बल-बूते पर ही आगम के इस गुरुतर कार्य को उठाया है। अब मुझे विश्वास हो गया है कि मेरे शिष्य साधु-साध्वियों के निःस्वार्थ, विनीत एवं समर्पणात्मक सहयोग से इस बहत कार्य को असाधारणरूप से सम्पन्न कर सकूँगा।
भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के अवसर पर उनकी वाणी को राष्ट्रभाषा हिन्दी में जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव होता है।
आचार्य तुलसी
जयपुर २०३२, निर्वाण शताब्दी वर्ष
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सम्पादकीय
आगम-सम्पादन की प्रेरणा
वि० सं० २०११ का वर्ष और चैत्र मास । आचार्य श्री तुलसी महाराष्ट्र की यात्रा कर रहे थे। पूना से नारायणगांव की ओर जाते-जाते मध्यावधि में एक दिन का प्रवास मंचर में हुआ। आचार्यश्री एक जैन परिवार के भवन में ठहरे थे। वहां मासिक पत्रों की फाइलें पड़ी थीं। गृह-स्वामी की अनुमति ले, हम लोग उन्हें पढ़ रहे थे। सांझ की वेला, लगभग छः बजे होंगे । मैं एक पत्र के किसी अंश का निवेदन करने के लिए आचार्यश्री के पास गया। आचार्यश्री पन्नों को देख रहे थे। जैसे ही मैं पहुंचा, आचार्यश्री ने 'धर्मदूत' के सद्यस्क अंक की ओर संकेत करते हुए पूछा-"यह देखा कि नहीं?" मैंने उत्तर में निवेदन किया-"नहीं, अभी नहीं देखा।" आचार्यश्री बहुत गम्भीर हो गए। एक क्षण रुककर बोले-"इसमें बौद्ध-पिटकों के सम्पादन की बहुत बड़ी योजना है। बौद्धों ने इस दिशा में पहले ही बहुत कार्य किया है और अब भी बहुत कर रहे हैं। जैन-आगमों का सम्पादन वैज्ञानिक पद्धति से अभी नहीं हुआ है और इस ओर अभी ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है।" आचार्यश्री की वाणी में अन्तर-वेदना टपक रही थी, पर उसे पकड़ने में समय की अपेक्षा थी।
आगम-सम्पादन का संकल्प
रात्रि-कालीन प्रार्थना के पश्चात् आचार्यश्री ने साधुओं को आमंत्रित किया। वे आए और वन्दना कर पंक्तिबद्ध बैठ गए। आचार्यश्री ने सायं-कालीन चर्चा का स्पर्श करते हुए कहा-“जैन आगमों का कायाकल्प किया जाए, ऐसा संकल्प उठा है। उसकी पूर्ति के लिए कार्य करना होगा। बोलो, कौन तैयार है ?"
सारे हृदय एक साथ बोल उठे-"सब तैयार हैं ?"
आचार्यश्री ने कहा-"महान कार्य के लिए महान् साधना चाहिए। कल ही पूर्व तैयारी में लग जाओ, अपनीअपनी रुचि का विषय चुनो और उसमें गति करो।"
मंचर से विहार कर आचार्यश्री संगमनेर पहुंचे। पहले दिन वैयक्तिक बातचीत होती रही। दूसरे दिन साधुसाध्विरों की परिषद् बुलाई गई। आचार्यश्री ने परिषद् के सम्मुख आगम-संपादन के संकल्प की चर्चा की। सारी परिषद् प्रफुल्ल हो उठी। आचार्यश्री ने पूछा-"क्या इस संकल्प को अब निर्णय का रूप देना चाहिए ?"
समलय से प्रार्थना का स्वर निकला-"अवश्य, अवश्य ।" आचार्यश्री औरंगाबाद पधारे। सुराना भवन, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (वि० सं० २०११), महावीर जयन्ती का पुण्य-पर्व । आचार्यश्री ने साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-इस चतुर्विध संघ की परिषद् में आगम-सम्पादन की विधिवत् घोषणा की।
आगम-सम्पादन का कार्यारम्भ
वि० सं० २०१२ श्रावण मास (उज्जन चातुर्मास) से आगम सम्पादन का कार्यारम्भ हो गया । न तो सम्पादन का कोई अनुभव और न कोई पूर्व तैयारी । अकस्मात् 'धर्मदूत' का निमित्त पा आचार्यश्री के मन में संकल्प उठा और उसे सबने शिरोधार्य कर लिया। चिन्तन की भूमिका से इसे निरी भावुकता ही कहा जाएगा, किन्तु भावुकता का मूल्य चिन्तन से कम नहीं है। हम अनुभव-विहीन थे, किन्तु आत्म-विश्वास से शून्य नहीं थे। अनुभव आत्म-विश्वास का अनुगमन करता है, किन्तु आत्म-विश्वास अनुभव का अनुगमन नहीं करता।
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(२०)
प्रथम दो-तीन वर्षों में हम अज्ञात दिशा में यात्रा करते रहे। फिर हमारी सारी दिशाएं और कार्य-पद्धतियां निश्चित व सूस्थिर हो गईं । आगम-सम्पादन की दिशा में हमारा कार्य सर्वाधिक विशाल व गुरुतर कठिनाइयों से परिपूर्ण है, यह कहकर मैं स्वल्प भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। आचार्यश्री के अदम्य उत्साह व समर्थ प्रयत्न से हमारा कार्य निरन्तर गतिशील हो रहा है। इस कार्य में हमें अन्य अनेक विद्वानों की सद्भावना, समर्थन व प्रोत्साहन मिल रहा है। मुझे विश्वास है कि आचार्यश्री की यह वाचना पूर्ववर्ती वाचनाओं से कम अर्थवान् नहीं होगी।
सम्पादन का कार्य सरल नहीं है-यह उन्हें सुविदित है, जिन्होंने उस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य और भी जटिल है, क्योंकि उनकी भाषा और भावधारा आज की भाषा और भावधारा से बहुत व्यवधान पा चुकी है। इतिहास की यह अपवाद-शून्य गति है कि जो विचार या आचार जिस आकार में आरब्ध होता है, वह उसी आकार में स्थिर नहीं रहता। या तो वह बड़ा हो जाता है या छोटा । यह ह्रास और विकास की कहानी ही परिवर्तन की कहानी है। और कोई भी आकार ऐसा नहीं है, जो कृत है और परिवर्तनशील नहीं है। परिवर्तनशील घटनाओं, तथ्यों, विचारों और आचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का आग्रह मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है। सत्य का केन्द्र-बिन्दु यह है कि जो कृत है, वह सब परिवर्तनशील है। अकृत या शाश्वत भी ऐसा क्या है, जहां परिवर्तन का स्पर्श न हो। इस विश्व में जो है, वह वही है जिसकी सत्ता शाश्वत और परिवर्तन की धारा से सर्वथा विभक्त नहीं है।
शब्द की परिधि में बंधने वाला कोई भी सत्य क्या ऐसा हो सकता है, जो तीनों कालों में समान रूप से प्रकाशित रह सके ? शब्द के अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता है-भाषा-शास्त्र के इस नियम को जानने वाला यह आग्रह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज वही अर्थ सही है, जो आज प्रचलित है। 'पाषण्ड' शब्द का जो अर्थ आगम-ग्रन्थों और अशोक के शिलालेखों में है, वह आज के श्रमण साहित्य में नहीं है। आज उसका अपकर्ष हो चुका है । आगम साहित्य के सैकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज अपने मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं। इस स्थिति में हर चिन्तनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के सम्पादन का काम कितना दुरूह है।
मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अत: वह किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देता कि वह दुरूह है। यदि यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की संभावना नष्ट ही नहीं हो जाती किन्तु आज जो प्राप्त है, वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवांगी टीकाकार (अभयदेव सूरि) के सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं। उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है
१. सत् सम्प्रदाय (अर्थ-बोध की सम्यक् गुरु-पम्परा) प्राप्त नहीं है। २. सत् ऊह (अर्थ की आलोचनात्मक कृति या स्थिति) प्राप्त नहीं है। ३. अनेक वाचनाएँ (आगमिक अध्यापन की पद्धतियां) हैं। ४. पुस्तकें अशुद्ध हैं। ५. कृतियाँ सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गंभीर है। ६. अर्थ विषयक मतभेद भी है। इन सारी कठिनाइयों के उपरान्त भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे कुछ कर गये।
कठिनाइयां आज भी कम नहीं हैं, किन्तु उनके होते हुए भी आचार्य श्री तुलसी ने आगम-सम्पादन के कार्य को अपने हाथों में ले लिया। उनके शक्तिशाली हाथों का स्पर्श पाकर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है तो भला आगम-साहित्य, जो स्वयं प्राणवान है, उसमें प्राण-संचार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात यह है कि आचार्यश्री ने उसमें प्राण-संचार मेरी
१. स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति पलोक, १,२ :
सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणा-मदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्याद्, मतभेदाश्च कुत्रचित् ।।
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( २१ )
और मेरे सहयोगी साधु-साध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है। सम्पादन-कार्य में हमें आचार्यश्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं है किन्तु मार्ग-दर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त है। आचार्यवर ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता के लिए अपना पर्याप्त समय दिया है । उनके मार्ग-दर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का संबल पा हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ हुए हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ ठाणं का सानुवाद संस्करण है। आगम साहित्य के अध्येता दोनों प्रकार के लोग हैं, विद्वद्जन और साधारण जन । मूल पाठ के आधार पर अनुसंधान करने वाले विद्वानों के लिए मूल पाठ का सम्पादन अंगसुत्ताणि भाग १ में किया गया। प्रस्तुत संस्करण में मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और टिप्पण हैं और टिप्पणों के सन्दर्भस्थल भी उपलब्ध है।
प्रस्तुत ग्रन्य की भूमिका बहुत ही लघुकाय है। हमारी परिकल्पना है कि सभी अंगों और उपांगों की बृहद् भूमिका एक स्वतन्त्र पुस्तक के रूप में हो।
संस्कृत छाया
संस्कृत छाया को हमने वस्तुत: छाया रखने का ही प्रयत्न किया है। टीकाकार प्राकृत शब्द की व्याख्या करते हैं अथवा उसका संस्कृत पर्यायान्तर देते हैं। छाया में वैसा नहीं हो सकता।
हिन्दी अनुवाद और टिप्पण
'ठाणं' का हिन्दी अनुवाद मूलस्पर्शी है। इसमें कोरे शब्दानुवाद की-सी विरसता और जटिलता नहीं है तथा भावानुवाद जैसा विस्तार भी नहीं है। सूत्र का आशय जितने शब्दों में प्रतिबिम्बित हो सके, उतने ही शब्दों की योजना करने का प्रयत्न किया गया है। मूल शब्दों की सुरक्षा के लिए कहीं-कहीं उनका प्रचलित अर्थ कोष्ठकों में दिया गया है। सूत्रगत-हार्द की स्पष्टता टिप्पणों में की गई है। वि० सं० २०१७ के चैत्र में अनुवाद कार्य शुरू हुआ। आचार्यश्री बाडमेर की यात्रा में पधारे और हम लोग जोधपुर में रहे। आचार्यश्री जोधपुर पहुंचे तब तक, तीन मास की अवधि में, हमारा अनुबाद कार्य सम्पन्न हो गया। उस समय कुछ विशिष्ट स्थलों पर टिप्पण लिखे।
व्यापक स्तर पर टिप्पण लिखने की योजना भविष्य के लिए छोड़ दी गई। वर्षों तक वह कार्य नहीं हो सका । अन्यान्य आगमों के कार्य में होने वाली व्यस्तता ने इस कार्य को अवकाश नहीं दिया। वि० सं० २०२७ रायपुर में मुनि दुलहराजजी ने अवशिष्ट टिप्पण लिखे और प्रस्तुत सूत्र का कार्य पूर्णतः सम्पन्न हो गया। किन्तु कोई ऐसा ही योग रहा कि प्रस्तुत आगम प्रकाश में नहीं आ सका। भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के वर्ष में जैन विश्व भारती ने अंगसूत्ताणि के तीन भागों के साथ इसका प्रकाशन भी शुरू किया। वे तीन भाग प्रकाशित हो गए। इसके प्रकाशन में अवरोध आते गए। न जाने क्यों ? पर यह सच है कि अवरोधों की लम्बी यात्रा के बाद प्रस्तुत ग्रन्थ जनता तक पहुंच रहा है। इस सम्पादन में हमने जिन ग्रन्थों का उपयोग किया है उनके लेखकों के प्रति हम हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
प्रस्तुत सम्पादन में सहयोगी
प्रस्तुत आगम के अनुवाद और टिप्पण-लेखन में मुनि सुखलाल जी, मुनि श्रीचन्द्रजी और मुख्यतया मुनि दुलहराजजी ने बड़ी तत्परता से योग दिया है । इसकी संस्कृत छाया में मुनि दुलीचन्दजी 'दिनकर' का योगदान रहा है। मुनि हीरालाल जी ने संस्कृत छाया, प्रति-शोधन आदि प्रवृत्तियों में अथक परिश्रम किया है। विषयानुक्रम और प्रयुक्त-ग्रन्थ सूची मुनि टून राज जी ने तैयार की है। विशेषनामानुक्रम का परिशिष्ट मुनि हीरालालजी ने तैयार किया है।
अंगसुत्ताणि' भाग १ में प्रस्तुत सूत्र का संपादित पाठ प्रकाशित है। इसलिए इस संस्करण में पाठान्तर नहीं दिए गए हैं। पाठान्तरों तथा तत्संबंधी अन्य सूचनाओं के लिए 'अंगसुत्ताणि' भाग १ द्रष्टव्य है। प्रस्तुत सूत्र के पाट-संपादन में मूनि सुदर्शनजी, मुनि मधुकरजी और मुनि हीरालालजी सहयोगी रहे हैं।
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इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक साधुओं की पवित्र अंगुलियों का योग है। आचार्यश्री के वरदहस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं, फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं, जिनका इस कार्य में योग है और आशा करता हूं कि वे इस महान कार्य के अग्रिम चरण में और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे।
आगमों के प्रबन्ध-सम्पादक श्री श्री चन्दजी रामपुरिया तथा स्वर्गीय श्री मदनचन्दजी गोठी का भी इस कार्य में निरन्तर सहयोग रहा है।
आदर्श साहित्य संघ के संचालक व व्यवस्थापक स्वर्गीय श्री हनतमलजी सुराना व जयचन्दलालजी दफ्तरी का भी अविरल योग रहा है। आदर्श साहित्य संघ की सहयुक्त सामग्री ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। एक लक्ष्य के लिए समान गति से चलने वालों की सम-प्रवृत्ति में योगदान की परम्परा का उल्लेख व्यवहार-पूर्ति मात्र है । वास्तव में यह हम सबका पवित्र कर्तव्य है और उसी का हम सबने पालन किया है।
आचार्यश्री प्रेरणा के अनन्त स्रोत हैं। हमें इस कार्य में उनकी प्रेरणा और प्रत्यक्ष योग दोनों प्राप्त हैं इसलिए हमारा कार्य-पथ बहुत ऋजु हुआ है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर मैं कार्य की गुरुता को बढ़ा नहीं पाऊँगा। उनका आशीर्वाद दीप बनकर हमारा कार्य-पथ प्रकाशित करता रहे, यही हमारी आशंसा है।
सुजानगढ़ २०३३ चैत्र महावीर जन्म-जयन्ती
-मुनि नथमल
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पहला स्थान
१. आदि-सूत्र
२८. प्रकीर्णक पद
६-१४. नौ तत्त्वों में से परस्पर प्रतिपक्षी छह तत्त्वों का
निर्देश
१५-१८. प्रकीर्णक पद
१९-२१. जीव की प्रवृत्ति के तीन स्रोत २२-२३. त्रिपदी के दो अंग
विषय-सूची
२४. चित्तवृत्ति
२५-२८. जीवों का भव-संसरण
२६-३२. ज्ञान के विविध पर्याय
३३. सामान्य अनुभूति
३४-३५. कर्मों की स्थिति का घात और विपाक का
मंदीकरण
३६. चरमशरीरी का मरण ३७. एकत्व का हेतु निर्लिप्तता
३८. जीव और दुःख का सम्बन्ध ३९-४०. अधर्म और धर्मं प्रतिमा
४१-४३. मन, वचन और काया की एक क्षणवर्तिता
४४. पुरुषार्थवाद का कथन
४५-४७. मोक्ष मार्ग का उल्लेख
४८-५०. तीन चरमसूक्ष्म
२४८. जम्बूद्वीप का विवरण २४. महावीर का निर्वाण २५०. अनुत्तरोपपातिक देवों की ऊंचाई २५१-२५३. तीन नक्षत्र और उनके तारा २५४-२५६. पुद्गल-पद
१. द्विपदावतार पद
२ ३७. क्रियापद - प्राणी की मुख्य प्रवृत्तियों का संकलन ३८. गर्हा के प्रकार
३६. प्रत्याख्यान के प्रकार
४०. मोक्ष की उपलब्धि के दो साधन - विद्या और
दूसरा स्थान
चरण
४१-६२. आरंभ (हिंसा) और अपरिग्रह से अप्राप्य तथ्यों का निर्देश,
६३-७३. श्रुति और ज्ञान ( आत्मानुभव) से प्राप्त होने वाले तथ्यों का निर्देश
७४. कालचक्र
७५. उन्माद और उसका स्वरूप
७६-७८. अर्थ - अनर्थदंड
७६ -८५. सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के विविध प्रकार ८६-६६. प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रकार
१००-१०६. परोक्षज्ञान के प्रकार
५१-५४. कर्ममुक्त अवस्था की एकता
५५-६०. पुद्गल के लक्षण, कार्य, संस्थान और पर्याय का १०७ १०६. श्रुत और चारित्र धर्म के प्रकार
प्रतिपादन
११०-१२२. सराग और वीतराग संयम के प्रकार
१२३-१३७. पांच स्थावर जीव - निकायों का सूक्ष्म बादर, पर्याप्त अपर्याप्त तथा परिणत अपरिणत की अपेक्षा से वर्णन
१-१०८. अठारह पाप-स्थान
१०६ १२६. अठारह पाप-विरमण
१२७-१४०. अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के विभाग
१४१-१६४. चौबीस दंडकों का कथन
१३८. द्रव्य पद
१६५ - १६६. चौबीस दण्डकों में भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक १३६ - १४३. पांच स्थावर - गतिसमापन्नक और अगति१७०-१८५. चौबीस दंडकों का दृष्टिविधान
१८६-१६०. चौबीस दंडकों में कृष्ण-शुक्लपक्ष की चर्चा ११-२१३. चौबीस दण्डकों में लेश्या
२१४-२२६. पन्द्रह प्रकार के सिद्ध
२३०-२४७. पुद्गल और स्कन्धों के विषय में विविध चर्चा
समापन्नक
१४४. द्रव्यपद
१४५-१४६. पांच स्थावर - अनंतरावगाढ़ और परंपरावगाढ़
१५०. द्रव्यपद १५१. काल
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( २४ ) १५२. आकाश
२७४-२७५. वृत्तवैताढ्य पर्वतों और वहां रहने वाले देवों का १५३-१५४. नैरथिक और देवताओं के दो शरीर-कर्मक
वर्णन और वैक्रिय
२७६-२७७. वक्षार पर्वतों का विवरण १५५. स्थावर जीवनिकाय के दो शरीर-कर्मक और २७८. दीर्घवेताढ्य पर्वतों का विवरण औदारिक (हाड़-मांस रहित)
२७६-२८०. दीर्घवैताढ्य पर्वत की गुफाओं और तत्रस्थित १५६-१५८. विकलेन्द्रिय जीवों के दो शरीर-कर्मक और
देवों का विवरण औदारिक (हाड़-मांस-रक्तयुक्त) २८१-२८६. वर्षधरसर्वतों के कूट (शिखर) १५६-१६०.तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय तथा मनुष्य के दो शरीर--- २८७-२८६ वर्षधरपर्वतों पर स्थित द्रह और देवियों का कर्मक और औदारिक (हाड़, मांस, रक्त, स्नायु
वर्णन तथा शिरायुक्त)
२६०-२६३. वर्षधरपर्वतों से प्रवाहित महानदियां १६१. अन्तरालगति में जीवों के शरीर
२६४-३००. मन्दर पर्वत की विभिन्न दिशाओं में स्थित १६२-१६३. जीवों के शरीर की उत्पत्ति और निष्पत्ति के
प्रपातद्रह कारण
३०१-३०२. मन्दर पर्वत की विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित १६४-१६६. जीव-निकाय के भेद
महानदियां १६७-१६६. दो दिशाओं में करणीय कार्य
३०३-३०५. दो कोटी-कोटी सागरोपम की स्थितिवाले काल
और क्षेत्र १७०-१७२. पाप कर्म का वेदन कहां?
३०६-३०८. भरत और ऐरवत क्षेत्र के मनुष्यों की ऊंचाई १७३-१७६. गति-आगति
और आयु १७७-१९२. दंडक-मार्गणा
३०६-३११. शलाकापुरुष के वंश १९३-२००. समुद्घात या असमुद्धात की अवस्था में अवधि
३१२-३१५. शलाकापुरुषों की उत्पत्ति ___ ज्ञान का विषय-क्षेत्र
३१६-३२०. विभिन्न क्षेत्रों के मनुष्य कैसे काल का अनुभव २०१-२०८. इन्द्रिय का सामान्य विषय और संभिन्नश्रोतो
करते हैं ? लब्धि
३२१-३२२. जम्बूद्वीप में चांद और सूर्य को संख्या २०६-२११. एक शरीरी, दो शरीरी देव
३२३. विविध नक्षत्र २१२-२१६. शब्द और उसके प्रकार
३२४. नक्षत्रों के देव २२०. शब्द की उत्पत्ति के हेतु
३२५. अठासी महाग्रह २२१-२२५. पुद्गलों के संहनन, भेद आदि के कारण
३२६. जम्बूद्वीप की वेदिका की ऊंचाई २२६-२३३. पुद्गलों के प्रकार
३२७. लवण समुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ २३४-२३८. इन्द्रिय-विषय और उनके भेद-प्रभेद
३२८. लवण समुद्र की वेदिका की ऊंचाई २३६-२४२. आचार और उनके भेद-प्रभेद
३२६-३४६. धातकीषण्डद्वीप के क्षेत्र, वृक्ष, वर्षधर पर्वत आदि २४३-२४८. बारह प्रतिमाओं का निर्देश
का वर्णन २४६. सामायिक के प्रकार
३४७-३५१. पुष्करवरद्वीप का वर्णन २५०-२५३. परिस्थिति के अनुसार जन्म-मरण के लिए विविध ३५२. सभी द्वीपों और समुद्रों की वेदिका की ऊंचाई शब्दों का प्रयोग
३५३.३६२. भवनपति देवों के इन्द्र २५४-२५८. मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के गर्भ-सम्बन्धी ३६३-३७८. व्यन्त र देवों के इन्द्र जानकारी
३७६. ज्योतिष देवों के इन्द्र २५६-२६१. कायस्थिति और भवस्थिति किसके ? ३८०-३८४. वैमानिक देवों के इन्द्र २६२-२६४. दो प्रकार का आयुष्य और उसके अधिकारी ३८५. महाशुक्र और सहस्रार कल्प के विमानों का वर्ण २६५. कर्म के दो प्रकार
३८६. ग्रंबेयक देवों की ऊंचाई २६६. पूर्णायु किसके ?
३८७-३८६. काल-जीव और अजीव का पर्याय और उसके २६७. अकालमृत्यु किसके ?
भेद-प्रभेद २६८-२७१. भरत, ऐरवत आदि का विवरण
३६०-३६१. ग्राम-नगर आदि तथा छाया-आतप आदि जीव२७२-२७३. वर्षधर पर्वतों का वर्णन
अजीव दोनों
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३६२. दो राशि
३३. कर्मबंध के प्रकार
३४. पाप-कर्म-बंध के कारण ३६. पाप कर्म की उदीरणा
३६. पाप कर्म का वेदन
३७. पाप कर्म का निर्जरण
३९८-४०२. आत्मा का शरीर से बहिर्गमन कैसे ?
४०३ - ४०४. क्षयोपशम से प्राप्त आत्मा की अवस्थाएँ
४०५. औपमिक काल - पल्योपम और सागरोपम का कालमान
४०६-४०७. समस्त जीव- निकायों में क्रोध आदि तेरह पापों की उत्पत्ति के आधार पर प्रकारों का निर्देश ४०८. संसारी जीवों के प्रकार ४०१-४१०. जीवों का वर्गीकरण ४११-४१३. श्रमण-निर्ग्रन्थों के अप्रशस्त मरणों का निर्देश ४१४-४१६. प्रशस्त मरणों का निर्देश और भेद-प्रभेद ४१७. लोक की परिभाषा
४१८. लोक में अनन्त क्या ? ४१६. लोक में शाश्वत क्या ? ४२०-४२१. बोधि और बुद्ध के प्रकार ४२२-४२३. मोह और मूढ़ के प्रकार ४२४-४३१. कर्मों के प्रकार
४३२-४३४. मूर्छा के प्रकार ४३५-४३७. आराधना के प्रकार ४३८-४४१. आठ तीर्थंकरों के वर्ण
४४२. सत्यप्रवाद पूर्व की विभाग संख्या
४४३-४४६. चार नक्षत्रों की तारा- संख्या ४४७. मनुष्यक्षेत्र के समुद्र
४४. सातवीं नरक में उत्पन्न चक्रवर्ती ४४९. भवनवासी देवों की स्थिति ४५०-४५३. प्रथम चार वैमानिक देवों की स्थिति ४५४. सौधर्म और ईशान कल्प में देवियां ४५५. तेजोलेश्या से युक्त देव
४५६-४६०. परिचारणा ( मैथुन) के विविध प्रकार और उनसे संबंधित वैमानिक कल्पों का कथन ४६१-४६२. पुद्गलों का पाप कर्म के रूप में चय, उपचय आदि का कथन ४६३-४६४. पुद्गल-पद
( २५ )
तीसरा स्थान
१-३. इन्द्रों के प्रकार
४६. विक्रिया (विविध रूप-संपादन) के प्रकार
७. संख्या की दृष्टि से नैरयिकों के प्रकार
८. एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष जीवों के संख्या की दृष्टि से प्रकार
६. तीन प्रकार की परिचारणा
१०. मैथुन के प्रकार
११. मैथुन को कौन प्राप्त करता है ?
१२. मैथुन का सेवन कौन करता है ?
१३. योग ( प्रवृत्ति) के प्रकार
१४. प्रयोग के प्रकार
१५. करण ( प्रवृत्ति के साधन ) के प्रकार १६. करण (हिंसा) के प्रकार
१७-२०. अल्प, दीर्घ (अशुभ-शुभ) आयुष्यबन्ध के कारण २१-२२. गुप्ति के प्रकार और उनके अधिकारी का निर्देश २३. अगुप्ति के प्रकार और उनके अधिकारी का निर्देश
२४-२५- दण्ड (दुष्प्रवृत्ति) के प्रकार और उनके अधिकारी २६. गर्दा के प्रकार
२७. प्रत्याख्यान के प्रकार
२८. वृक्षों के प्रकार और उनसे मनुष्य की तुलना २- ३१. पुरुष का विभिन्न दृष्टिकोणों से निरूपण ३२-३५. उत्तम, मध्यम और जघन्य पुरुषों के प्रकार ३६-३८. मत्स्य के प्रकार
३६-४१. पक्षियों के प्रकार
४२-४७. उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के प्रकार ४६-५०. स्त्रियों के प्रकार
५१-५३. मनुष्यों के प्रकार
५४-५६. नपुंसकों के प्रकार
५७. तिर्थक्योकि जीवों के प्रकार
५८-६८. संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट लेश्याएं और उनके अधिकारी
६६. ताराओं के चलित होने के कारण
७०. देवों के विद्युत्प्रकाश करने के तीन कारण ७१. देवों के गर्जारव करने के तीन कारण ७२-७३. मनुष्य लोक में अंधकार और प्रकाश होने के हेतु
७४-७५. देवलोक में अन्धकार और प्रकाश होने के हेतु ७६-७८. देवताओं का मनुष्य लोक में आगमन, समवाय और कलकल ध्वनि के तीन-तीन हेतु ७६-८०. देवताओं का तत्क्षण मनुष्य लोक में आने के
कारण
८१. देवताओं का अभ्युत्थित होने के कारण
८२. देवों के आसन चलित होने के कारण
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८३. देवों के सिंहनाद करने के हेतु
१४०-१४२. लोक के प्रकार ८४. देवों के चेलोत्क्षेप करने के हेतु
१४३-१६०. देव-परिषदों का निर्देश ८५. देवों के चैत्यवृक्षों के चलित होने के हेतु १६१-१७२. याम (जीवन की अवस्था) के प्रकार और उनमें ८६. लोकान्तिक देवों का तत्क्षण मनुष्यलोक में आने प्राप्तव्य तथ्यों का निर्देश के कारण
१७३-१७५. वय के प्रकार और उनमें प्राप्तव्य तथ्यों का ८७. माता-पिता, स्वामी और धर्माचार्य के उपकारों
निर्देश का ऋण और उससे उऋण होने के उपाय १७६-१७७. बोधि और बुद्ध के प्रकार ८८. संसार से पार होने के हेतु
१७८-१७६. मोह और मूढ़ के प्रकार ८९-६२. कालचक्र के भेद
१८०-१८३. प्रव्रज्या के प्रकार १३. स्कंध से संलग्न पुद्गल के चलित होने के कारण १८४. नोसंज्ञा से उपयुक्त निर्ग्रन्थों के प्रकार १४. उपधि के प्रकार तथा उसके स्वामी
१८५. संज्ञा और नोसंज्ञा से उपयुक्त निर्ग्रन्थों के प्रकार ६५. परिग्रह के प्रकार तथा उसके अधिकारी
१८६. शैक्ष की भूमिकाएं और उनका कालमान ६६. प्रणिधान के प्रकार और उसके अधिकारी
१८७. स्थविरों के प्रकार और अवस्था की दृष्टि से ६७-६८. सुप्रणिधान के प्रकार और उसके अधिकारी
उनका कालमान ६६. दुष्प्रणिधान के प्रकार और उसके अधिकारी
१८८. मन की तीन अवस्थाएं १००-१०३. योनि के प्रकार और अधिकारी
१८६-३१४. विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य की विभिन्न १०४. तृणवनस्पति जीवों के प्रकार
मानसिक दशाओं का वर्णन १०५-१०६. भरत और ऐरवत के तीर्थ
३१५. शीलहीन पुरुष के अप्रशस्त स्थान १०७. महाविदेह क्षेत्र के चक्रवर्ती-विजय के तीर्थ
३१६. शीलयुक्त पुरुष के प्रशस्त स्थान १०८. धातकीषंड तथा अर्धपुष्करवरद्वीप के तीर्थ ३१७. संसारी जीव के प्रकार १०६-११६. विभिन्न क्षेत्रों में आरों का कालमान, मनुष्यों ३१८. जीवों का वर्गीकरण __ की ऊंचाई और आयुपरिमाण
३१६. लोक-स्थिति के प्रकार ११७-११८. शलाकापुरुषों का वंश
३२०. तीन दिशाएं ११६-१२०. शलाकापुरुषों की उत्पत्ति ।
३२१-३२५. जीवों की गति, आगति आदि की दिशाएं १२१. पूर्ण आयु को भोगने वालों का निर्देश (इनकी ३२६. वस जीवों के तीन प्रकार-तेजस्कायिक, वायुअकाल मृत्यु नहीं होती)
___ कायिक तथा द्वीन्द्रिय आदि १२२. अपने समय की आयु से मध्यम आयु को भोगने ३२७. स्थावर जीवों के तीन प्रकार--पृथ्वी, अप् और वालों का निर्देश
वनस्पति १२३. बादर तेजस्कायिक जीवों की स्थिति ३२८-३३३. समय, प्रदेश और परमाणु-इन तीनों के १२४. बादर वायुकायिक जीवों की स्थिति
अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य आदि का कथन १२५. विविध धान्यों की उत्पादक शक्ति का कालमान ३३४. तीनों के अप्रदेशत्व का प्रतिपादन १२६-१२८. नरकावास की स्थिति
३३५. तीनों के अविभाजन का प्रतिपादन १२६-१३०. प्रथम तीन नरकावासों में वेदना
३३६. दुःख-उत्पत्ति के हेतु और निवारण सम्बन्धी १३१-१३२. लोक में तीन सम हैं
संवाद १३३. उदकरस से परिपूर्ण समुद्र
३३७. दुःख अकृत्य, अस्पृश्य और अक्रियमाणकृत है१३४. जलचरों से परिपूर्ण समुद्र
इसका निरसन १३५. सातवीं नरक में उत्पन्न होने वालों का निर्देश ३३८-३४०. मायावी का माया करके आलोचना आदि न १३६ सर्वार्थ सिद्ध विमान में उत्पन्न होने वालों का
करने के कारणों का निर्देश निर्देश
३४१-३४३. मायावी का माया करके आलोचना आदि करने १३७. विमानों के वर्ण
के कारणों का निर्देश १३८. देवों के शरीर की ऊंचाई।
३४४. श्रुतधारी पुरुषों के प्रकार १३६. यथाकाल पढ़ी जाने वाली प्रज्ञप्तियां
३४५. तीन प्रकार के वस्त्र
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( २७ )
३४६. तीन प्रकार के पात्र
३६०-३६१. कर्मभूमि ३४७. वस्त्र-धारण के कारणों का निर्देश
३६२-३६४. व्यवहार की क्रमिक भूमिकाओं का निर्देश ३४८. आत्मरक्षक-अहिंसा के आलम्बन ३६५-३६६. विभिन्न दृष्टिकोणों से व्यवसाय का वर्गीकरण ३४६. विकटदत्तियों के प्रकार
४००. अर्थ-प्राप्ति के उपाय ३५०. सांभोगिक को विसांभोगिक करने के कारण ४०१. पुद्गलों के प्रकार ३५१. अनुज्ञा के प्रकार
४०२. नरक की विप्रतिष्ठिता और उसकी अपेक्षा ३५२. समनुज्ञा के प्रकार
४०३-४०६. मिथ्यात्व (असमीचीनता) के भेद-प्रभेद ३५३. उपसंपदा के प्रकार
४१०.धर्म के प्रकार ३५४. विहान (पद-त्याग) के प्रकार
४११. उपक्रम के प्रकार ३५५. वचन के प्रकार
४१२. वैयावृत्य के प्रकार ३५६. अवचन के प्रकार
४१३. अनुग्रह के प्रकार ३५७. मन के प्रकार
४१४. अनुशिष्टि के प्रकार ३५८. अमन के प्रकार
४१५. उपालम्भ के प्रकार ३५६. अल्पवृष्टि के कारण
४१६. कथा के प्रकार ३६०. महावृष्टि के कारण
४१७. विनिश्चय के प्रकार ३६१. देवता का मनुष्य-लोक में नहीं आ सकने के ४१८. श्रमण-माहन की पर्युपासना का फल कारण
४१६-४२१. प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार के आवास के प्रकार ३६२. देवता का मनुष्य-लोक में आ सकने के कारण ४२२-४२४. प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार के संस्तारक के प्रकार ३६३. देवता के स्पृहणीय स्थान
४२५-४२८. काल के भेद-प्रभेद ३६४. देवता के परिताप करने के कारणों का निर्देश ४२६. वचन के प्रकार ३६५. देवता को अपने च्यवन का ज्ञान किन हेतुओं ४३०. प्रज्ञापना के प्रकार
४३१. सम्यक् के प्रकार ३६६. देवता के उद्विग्न होने के हेतु
४३२-४३३. चारित्न की विराधना और विशोधि ३६७. विमानों के संस्थान
४३४.४३७. आराधना और उसके भेद-प्रभेद ३६८. विमानों के आधार
४३८. संक्लेश के प्रकार ३६६. विमानों के (प्रयोजन के आधार पर) प्रकार ४३६. असंक्लेश के प्रकार ३७०-३७१. चौबीस दंडकों में दृष्टियां
४४०-४४७. ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अतिक्रम, व्यतिक्रम, ३७२. दुर्गति के प्रकार
अतिचार और अनाचार का वर्णन ३७३. सुगति के प्रकार
४४८. प्रायश्चित्त के प्रकार ३७४. दुर्गत के प्रकार
४४६-४५०. अकर्मभूमियां, ३७५. सुगत के प्रकार
४५१-४५४. मंदरपर्वत के दक्षिण तथा उत्तर के क्षेत्र और ३७६-३७८. विविध तपस्याओं में विविध पानकों का निर्देश
वर्षधर पर्वत ३७६. उपहृत भोजन के प्रकार
४५५-४५६. महाद्रह और तवस्थित देवियां ३८०. अवगृहित भोजन के प्रकार
४५७-४६२. महानदियां और अन्तर्नदियां ३८१. अवमोदरिका के प्रकार
४६३. धातकीषण्ड तथा पुष्करवर द्वीप में स्थित क्षेत्र ३८२. उपकरण अवमोदरिका ३८३. अप्रशस्त मनःस्थिति
४६४. पृथ्वी के एक भाग के कंपित होने के हेतु ३८४. प्रशस्त मनःस्थिति
४६५. सारी पृथ्वी के चलित होने के हेतु ३८५. शल्य के प्रकार
४६६. किल्बिषिक देवों के प्रकार और आवास-स्थल ३८६. विपुल तेजोलेश्या के अधिकारी
४६७-४६६. देव-स्थिति ३८७. त्रैमासिक भिक्षुप्रतिमा ।
४७०. प्रायश्चित्त के प्रकार ३८८-३८६. एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा की फलश्रुति
४७१. अनुद्घात्य (गुरु प्रायश्चित्त) के कार्य
आदि
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( २८ ) ४७२. पाराञ्चित (दसवें) प्रायश्चित्त के अधिकारी ५३०. अर्हत् धर्म और अर्हत शांति का अन्तराल काल
४७३. अनवस्थाप्य (नौवें) प्रायश्चित्त के अधिकारी ५३१. निर्वाण-गमन कब तक? ४७४-४७५. प्रव्रज्या आदि के लिए अयोग्य
५३२-५३३. अर्हत् मल्ली और अहंत पापर्व के साथ मुंडित ४७६. अध्यापन के लिए अयोग्य
होने वालों की संख्या ४७७. अध्यापन के लिए योग्य
५३४. श्रमण महाबीर के चौदहपूर्वी की संपदा ४७८.४७६. दुर्बोध्य-सुबोध्य का निर्देश
५३५. चक्रवर्ती सीर्थकर ४८०. मांडलिक पर्वत
५३६-५३६. ग्रेवेयक विमानों के प्रस्तट ४८१. अपनी-अपनी कोटि में सबसे बड़े कौन ?
५४०. पापकर्म रूप में निर्वतित पुद्गल ४८२. कल्पस्थिति (आचार मर्यादा) के प्रकार ५४१-५४२. पुद्गल-पद
४८३. नरयिकों के शरीर ४८४-४८५. देवों के शरीर
चौथा स्थान ४८६-४८७. स्थावर तथा विकलेन्द्रिय जीवों के शरीर
१. अन्तक्रिया के प्रकार, स्वरूप और उदाहरण ४८८-४६३. विभिन्न अपेक्षाओं से प्रत्यनीक का वर्गीकरण २-११. वृक्ष के उदाहरण से मनुष्य की विविध अव४६४.४६५. माता-पिता से प्राप्त अंग
स्थाओं का निरूपण ४६६. श्रमण के मनोरथ
१२-२१. ऋजु और वक्रता के आधार पर मनुष्य की ४६७. श्रावक के मनोरथ
विविध अवस्थाएं ४६८. पुद्गल-प्रतिघात के हेतु
२२. प्रतिमाधारी मुनियों की भाषा ४६६. चक्षुष्मान् के प्रकार
२३. भाषा के प्रकार ५००. ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक्लोक को कब और कैसे २४-३३. शुद्ध-अशुद्ध वस्त्र के उदाहरण से मनुष्य की जाना जा सकता है?
विविध अवस्थाओं का निरूपण ५०१. ऋद्धि के प्रकार
३४. पुत्रों के प्रकार ५०२. देवताओं की ऋद्धि
३५-४४. मनुष्य की सत्य-असत्य के आधार पर विविध ५०३. राजाओं की ऋद्धि
__अवस्थाएं ५०४. गणी की ऋद्धि
४५-५४. शुचि-अशुचि वस्त्र के उदाहरण से पुरुष की मन:५०५. गौरव
स्थिति का प्रतिपादन ५०६. अनुष्ठान के प्रकार
५५. कली के प्रकारों के आधार पर मनुष्य का ५०७. स्वाख्यात धर्म का स्वरूप
निरूपण ५०८. निवृत्ति के प्रकार
५६. घुणों के प्रकारों के आधार पर याचकों तथा ५०६. विषयासक्ति के प्रकार
उनकी तपस्या का निरूपण ५१०. विषय-सेवन के प्रकार
५७. तृणवनस्पति के प्रकार ५११. निर्णय के प्रकार
५८. अधुनोपपन्न नरयिक का मनुष्य लोक में न आ ५१२. जिन के प्रकार
सकने के कारण ५१३. केवली के प्रकार
५६. साध्वियों की संघाटी के प्रकार ५१४. अर्हन्त के प्रकार
६०. ध्यान के प्रकार ५१५-५१८. लेश्या-वर्णन
६१-६२. आर्तध्यान के प्रकार और लक्षण ५१६-५२२. मरण के भेद-प्रभेद
६३-६४. रौद्रध्यान के प्रकार और लक्षण ५२३. अश्रद्धावान् निर्ग्रन्थ की अप्रशस्तता के हेतु ६५-६८. धर्म्यध्यान के प्रकार, लक्षण, आलंबन आदि ५२४. श्रद्धावान् निर्ग्रन्थ की प्रशस्तता के हेतु
६६-७२. शुक्लध्यान के प्रकार, लक्षण आदि ५२५. पृथ्वियों के वलय
७३. देवताओं की पद-व्यवस्था ५२६. विग्रहगति का काल-प्रमाण
७४. संवास के प्रकार ५२७. क्षीणमोह अर्हन्त
७५. कषाय के प्रकार ५२८-५२६. नक्षत्रों के तारा
७६-८३. क्रोध आदि कषायों की उत्पत्ति के हेतु
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८४-२१. क्रोध आदि कषायों के प्रकार ३२- ९५. कर्म - प्रकृतियों का चय आदि
१०२. सत्य के प्रकार
१०३. असत्य के प्रकार
१०४. प्रणिधान के प्रकार
६८. प्रतिमा ( विशिष्ट साधना ) के प्रकार
६- १००. अस्तिकाय
१०१. पक्व और अपक्व के उदाहरण से पुरुष के वय १६०-१९३ प्रतिसंलीन- अप्रतिसंलीन
औरत का निरूपण
१०५-१०६. सुप्रणिधान और दुष्प्रणिधान के प्रकार
(RE)
१०७. प्रथम मिलन और चिर सहवास के आधार पर पुरुषों के प्रकार
२३६-२४०. हाथियों के प्रकार और स्वरूप प्रतिपादन के आधार पर पुरुषों का निरूपण
२४१-२४५. विकथाओं के प्रकार और भेद-प्रभेद २४६-२५०. कथाओं के प्रकार और भेद-प्रभेद
१०८-११०. वर्ज्य के आधार पर पुरुषों के प्रकार
१११-११५. लोकोपचार विनय के आधार पर पुरुषों के २५१-२५३. कृशता और दृढ़ता के आधार पर पुरुषों की
प्रकार
मनः स्थिति का निरूपण
११६-१२०. स्वाध्याय-भेदों के आधार पर पुरुषों के प्रकार १२१-१२२. लोकपाल
१२३. वायुकुमार के प्रकार १२४. देवताओं के प्रकार १२५. प्रमाण के प्रकार
१२६- १२७. महत्तरिकाएं १२८-१२६. देवताओं की स्थिति १३०. संसार के प्रकार
१३१. दृष्टिवाद के प्रकार १३२-१३३. प्रायश्चित्त के प्रकार १३४. काल के प्रकार १३५. पुद्गल का परिणाम
१३६-१३७. चातुर्याम धर्म १३८-१३६. दुर्गति और सुगति के प्रकार १४०-१४१. दुर्गत और सुगत के प्रकार १४२-१४४. सत्कर्म और उनका क्षय करने वाले १४५. हास्य की उत्पत्ति के हेतु
१४६. अन्तर के प्रकार
१८७. कूटागार शालाओं के उदाहरण से स्त्रियों की अवस्थाओं का निरूपण
१८८. अवगाहना के प्रकार
१८६. अंगबाह्य प्रज्ञप्तियां
१९४-२१०. दीन-अदीन के आधार पर पुरुषों के प्रकार २११-२२८. आर्य-अनार्य के आधार पर पुरुषों के प्रकार २२६-२३५. वृषभों के प्रकार तथा उनके आधार पर पुरुषों का निरूपण
२५४. विशिष्ट ज्ञान दर्शन की उत्पत्ति में बाधक तत्त्व २५५. विशिष्ट ज्ञान दर्शन की उत्पत्ति में साधक तत्त्व २५६. आगम स्वाध्याय के लिए वर्जित तिथियां २५७. आगम स्वाध्याय के लिए वर्जित संध्याएं २५८. स्वाध्याय का काल
२५६. लोकस्थिति
२६०. पुरुष के प्रकार
२६१-२६३. स्व-पर के आधार पर पुरुषों की विभिन्न
प्रवृत्तियां
२६४. गर्दा के कारण
२६५. स्व पर निग्रह के आधार पर पुरुषों का वर्गीकरण २६६. ऋजु-वक्र मार्गों के आधार पर पुरुषों का वर्गीकरण
२६७-२६८. क्षेम-अक्षेम मार्गों के आधार पर पुरुषों का वर्गीकरण
२६. शंखों के प्रकार और पुरुषों के स्वभाव का वर्णन
२७०. धूमशिखा के प्रकार और स्त्रियों के स्वभाव का वर्णन
१४७. मृतकों के प्रकार
१४८. दोष सेवन की दृष्टि से पुरुषों के प्रकार १४-१८२. विभिन्न देवों की अग्रमहिषियां
१८३. गोरस की विकृतियां
१८४. स्नेहमय विकृतियां १८५. महाविकृतियां
१८६. कूटागार के उदाहरण से पुरुषों की अवस्थाओं २७५-२७७. तमस्काय के विभिन्न नाम का निरूपण
२७१-२७२. अग्निशिखा और वातमंडलिका के प्रकारों के आधार पर स्त्रियों के स्वभाव का वर्णन
२७३. वनपण्ड के प्रकारों के आधार पर पुरुषों के स्वभाव का वर्णन
२७४. निर्ग्रन्थी के साथ आलाप संलाप की स्वीकृति
२७८. तनस्कारा द्वारा आवृत कल्प ( देवलोक ) २७६. पुरुषों के प्रकार
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________________
२८०-२८१. सेनाओं के प्रकार और उनके आधार पर पुरुषों का वर्णन
२८२. माया के प्रकार और तद्गत प्राणी के उत्पत्तिस्थल का निर्देश
२८३. स्तम्भ के प्रकार और मान से उनकी तुलना तथा मानी के उत्पत्ति-स्थलों का निर्देश २८४. वस्त्र के प्रकार और लोभ से उनकी तुलना तथा लोभी के उत्पत्ति-स्थलों का निर्देश
२८५. संसार के प्रकार
२६६. आयुष्य के प्रकार
२८७. उत्पत्ति के प्रकार
३५३. अकिञ्चनता के प्रकार
३५४. रेखाओं के आधार पर क्रोध के प्रकार तथा उनमें अनुप्रविष्ट जीवों के उत्पत्ति-स्थल का निर्देश
३५५. उदक के आधार पर जीवों के परिणामों का वर्गीकरण
३५६. पक्षियों से मनुष्यों की तुलना
३५७-३६०. प्रीति- अप्रीति के आधार पर पुरुषों के प्रकार ३६१. वृक्षों के प्रकार और पुरुष
३६२. भारवाही के आश्वास-स्थल ३६३. उदित-अस्तमित
३००. 'एक' के प्रकार
३०१. अनेक के प्रकार ३०२. सर्व के प्रकार
३६४. युग्म ( राशि विशेष) के प्रकार ३६५-३६६. नैरयिकों तथा अन्य जीवों के युग्म
३६७. शूर के प्रकार
३०३. मानुषोत्तर पर्वत के कूट ३०४-३० ६. विभिन्न क्षेत्रों में कालचक्र
३६८. उच्च-नीच पद ३६६-३७०. जीवों की लेश्याएं
३०७. अकर्मभूमियां, वैताद्यपर्वत और तत्रस्थित देव ३७१ ३७४. युक्त अयुक्त यान के आधार पर पुरुषों का
वर्गीकरण
३०८. महाविदेह क्षेत्र के प्रकार ३००-३१४ वर्षधर और वक्षस्कार पर्वत
२८८-२८०. आहार के प्रकार २६०-२६९. कर्मों की विभिन्न अवस्थाएं
३१५. शलाका पुरुष ३१६. मन्दर पर्वत के वन
( ३० )
३१७. पण्डक वन की अभिषेक - शिलाएं
३१८. मन्दरपर्वत की चूलिका की चौड़ाई ३१. धातकीपण्ड तथा पुष्करवर द्वीप का वर्णन
३२०. जम्बूद्वीप के द्वार, चौड़ाई तथा तत्त्रस्थित देव ३२१-३२८. अन्तद्वीप तथा तलस्थित विचित्र प्रकार के
मनुष्य
३२६. महापाताल और तवस्थित देव ३३०-३३१. आवास पर्वत
३३२-३३४. ज्योतिष-चक्र
३३५. लवण समुद्र के द्वार, चौड़ाई तथा तनस्थित देव ३३६. धातकीपण्ड के वलय का विस्तार ३३७. धातकीपण्ड तथा अर्धपुष्करवर द्वीप के क्षेत्र ३३८. अञ्जन पर्वतों का वर्णन
३३. सिद्धायतनों का वर्णन
३५१. संयम के प्रकार
३५२ . त्याग के प्रकार
३७५-३७८. युग्म के आधार पर पुरुषों का वर्गीकरण ३७९. सारथि से तुलित पुरुष
३८०- ३८७. युक्त अयुक्त घोड़े हाथी के आधार पर पुरुषों का वर्गीकरण
३८८. पथ उत्पथ पद
३८६. रूप और शील के आधार पर पुरुषों का प्रकार ३६०-४१०. जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत और शील के आधार पर पुरुष के प्रकार
४११. फलों के आधार पर आचार्य के प्रकार ४१२-४१३. वैयावृत्त्य (सेवा) के आधार पर पुरुषों के
प्रकार
१४. अर्थकर ( कार्यकर्ता ) और मान के आधार पर पुरुषों के प्रकार
४१५-४१८. गण और मान आदि के आधार पर पुरुषों के
प्रकार
४१६-४२१. धर्म के आधार पर पुरुषों के प्रकार ४२२-४२३. आचार्य के प्रकार
३४०-३४३. नन्दा पुष्करिणियों तथा दधिमुख-पर्वतों का ४२४-४२५. अन्तेवासी के प्रकार
वर्णन
३४४-३४८. रतिकर पर्वतों का वर्णन
३४९. सत्य के प्रकार
३५०. आजीवकों के तप के प्रकार
४२६-४२७. महाकर्म- अल्पकर्म के आधार पर श्रमण श्रमणी के प्रकार
४२८-४२६. महाकर्म- अल्पकर्म के आधार पर श्रावक-श्राविका के प्रकार
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४३०-४३२. श्रमणोपासकों के प्रकार और स्थिति
४६७. इन्द्रियों के विषय ४३३-४३४. देवता का मनुष्यलोक में आ सकने और न आ ४६८. अलोक में न जाने के हेतु सकने के कारण
४६६-५०३. ज्ञात (दृष्टान्त, हेतु आदि) के प्रकार ४३५-४३६. मनुष्यलोक में अंधकार और उद्योत होने के हेतु ५०४. हेतु के प्रकार ४३७-४३८. देवलोक में अंधकार और उद्योत होने के हेतु ५०५. गणित के प्रकार
४३६. देवताओं का मनुष्यलोक में आगमन के हेतु ५०६. अधोलोक में अधंकार के हेतु ४४०. देवोत्कलिका के हेतु
५०७. तिर्यक्लोक में उद्योत के हेतु ४४१. देव-कहकहा के हेतु
५०८. ऊर्ध्वलोक में उद्योत के हेतु ४४२.४४३. देवताओं के तत्क्षण मनुष्यलोक में आने के हेतु ५०६. प्रसर्पण के हेतु ४४४. देवताओं का अभ्युत्थान के हेतु
५१०-५१३. नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं के ४४५. देवों के आसन-चलित होने के कारण
आहार का प्रकार ४४६. देवों के सिंहनाद के हेतु
५१४. आशीविष के प्रकार और उनका प्रभाव-क्षेत्र ४४७. देवों के चेलोत्क्षेप के कारण
५१५. व्याधि के प्रकार ४४८. चैत्यवृक्ष चलित होने के कारण
५१६. चिकित्सा के अंग ४४६. लोकान्तिक देवों का मनुष्यलोक में आने के हेतु ५१७. चिकित्सकों के प्रकार ४५०. दुःखशय्या
५१८-५२२. व्रणों के आधार पर पुरुषों के प्रकार ४५१. सुखशय्या
५२३-५२६. श्रेय और पापी के आधार पर पुरुषों के प्रकार ४५२-४५३. वाचनीय-अवाचनीय
५२७-५२८. आख्यायक, चिंतक और उञ्छजीवी के आधार ४५४. आत्मभर, परंभर
पर पुरुषों के प्रकार ४५५-४५६. दुर्गत और सुगत
५२६. वृक्ष की विक्रिया के प्रकार ४६०-४६२. तम और ज्योति के आधार पर पुरुषों के प्रकार ५३०-५३२. वादि-समवसरण ४६३-४६५. परिज्ञात-अपरिज्ञात के आधार पर पुरुषों का ५३३-५४०. मेघ के आधार पर पुरुषों के प्रकार वर्गीकरण
५४१-५४३. आचार्यों के प्रकार ४६६. लौकिक और पारलौकिक प्रयोजन के आधार ५४४. भिक्ष के प्रकार पर पुरुषों के प्रकार
५४५-५४७. गोलों के प्रकार ४६७. हानि-वृद्धि के आधार पर पुरुषों के प्रकार ५४८. पत्रक के आधार पर पुरुषों के प्रकार ४६८-४७६. घोड़ों के विभिन्न गुणों के आधार पर पुरुषों के ५४६. चटाई के आधार पर पुरुषों के प्रकार प्रकार
५५०. चतुष्पद जानवर ४८०.प्रव्रज्या के आधार पर पुरुषों के प्रकार
५५१. पक्षियों के प्रकार ४८१. एक लाख योजन के सम-स्थान
५५२. क्षुद्र प्राणियों के प्रकार ४८२. पैतालीस लाख योजन के सम-स्थान
५५३. पक्षियों के आधार पर भिक्षुओं के प्रकार ४८३-४८५. ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक्लोक में द्विशरीरी का ५५४-५५५. निष्कृष्ट-अनिष्कृष्ट पुरुषों के प्रकार नामोल्लेख
५५६-५५७. बुध-अबुध पुरुषों के प्रकार ४८६. सत्त्व के आधार पर पुरुषों के प्रकार
५५८. आत्मानुकंपी-परानुकंपी ४८७-४६०. विभिन्न प्रतिमाएं
५५६-५६५. संवास (मैथुन) के प्रकार ४६१. जीव के सहवर्ती शरीर
५६६. अपध्वंस के प्रकार ४६२. कार्मण से संयुक्त शरीर
५६७. आसुरत्व कर्मोपार्जन के हेतु ४६३. लोक में व्याप्त अस्तिकाय
५६८. आभियोगित्व कर्मोपार्जन के हेतु ४६४. लोक में व्याप्त अपर्याप्तक बादरकायिक जीव ५६६. सम्मोहत्व कर्मोपार्जन के हेतु ४६५. प्रदेशाग्र से तुल्य
५७०. देवकिल्बिषिकत्व कर्मोपार्जन के हेतु ४६६. जीवों का वर्गीकरण जिनका एक शरीर दृश्य ५७१-५७७. प्रव्रज्या के प्रकार नहीं होता
५७८-५८२. संज्ञाएं और उनकी उत्पत्ति के हेतु
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५८३. कामभोग के प्रकार
५८४-५८७. उत्तान और गंभीर के आधार पर पुरुषों के
प्रकार
५८-५६६. तैराकों के प्रकार
५०-५६४. पूर्ण रिक्त कुंभ के आधार पर पुरुषों के प्रकार ५६५. चरित्र के आधार पर पुरुषों के प्रकार ५६६. मधु विष कुंभ के आधार पर पुरुषों के प्रकार ५६७०६०१. उपसर्गों के भेद-प्रभेद ६०२-६०४. कर्मों के प्रकार
६०५. संघ के प्रकार ६०६. बुद्धि के प्रकार ६०७. मति के प्रकार ६०८६०६. जीवों के प्रकार ६१०-६११. मित्र अमित्र
६१२-६१३. मुक्त अमुक्त ६१४-६१५. जीवों की गति आगति ६१६-६१७. संयम असंयम ६१८ ६२०. विभिन्न प्रकार की क्रियाएं ६२१. विद्यमान गुणों के विनाश के हेतु ६२२. विद्यमान गुणों के दीपन के हेतु ६२३-६२६. शरीर की उत्पत्ति और निष्पन्नता के हेतु
६२७. धर्म के द्वार
६२८. नरक योग्य कर्मार्जन के हेतु
६२. तिर्यक्योनि योग्य कर्मार्जन के हेतु ६३०. मनुष्य योग्य कर्मार्जिन के हेतु ६३१. देवयोग्य कर्मार्जिन के हेतु
६३२. वाद्य के प्रकार
६३३. नाट्य के प्रकार
६३४. गेय के प्रकार
६३५. माला के प्रकार ६३६. अलंकार के प्रकार
६३७. अभिनय के प्रकार
६३८. विमानों का वर्ण ६३९. देव-शरीर की ऊंचाई
६४०-६४१. उदक के गर्भ और उनके हेतु
६४२. स्त्री गर्भ के प्रकार और उनके हेतु
६४३. पहले पूर्व की चूलावस्तु
६४४. काव्य के प्रकार
६४५. नैरयिकों के समुद्घात
६४६. वायु के समुद्घात
६४७. अरिष्टनेमि के चौदहपूर्वी शिष्यों की संख्या ६४८. महावीर के वादीशिष्यों की संख्या
( ३२ )
६४-६५१. देवलोक के संस्थान
६५२. एक दूसरे से भिन्न रस वाले समुद्र ६५३. आवर्ती के आधार पर कषाय का वर्गीकरण और उनमें मरने वाले जीवों का उत्पत्ति स्थल ६५४-६५६. नक्षत्रों के तारे
६५७-६५८. पाप कर्मरूप में निर्वर्तित पुद्गल ६५-६६२. पुद्गल पद
पांचवां स्थान
१. महाव्रत
२. अणुव्रत
३. वर्ण
४. रस
५. कामगुण के प्रकार ६-१०. आसक्ति के हेतु ११-१५. इन्द्रिय-विषयों के विविध परिणाम
१६. दुर्गति के हेतु
१७. सुगति के हेतु
१८. प्रतिमा के प्रकार
१६ २०. स्थावरकाय और उसके अधिपति
२१. तत्काल उत्पन्न होते-होते अवधिदर्शन के विचलित होने के हेतु
२२. तत्काल उत्पन्न होते-होते केवलज्ञान-दर्शन के विचलित न होने के हेतु
२३-२४. शरीरों के वर्ण और रस
२५०३१. शरीर के प्रकार और उनके वर्ण तथा रस
३२. दुर्गम स्थान
३३. सुगम स्थान ३४-३५. दस धर्म
३६-४३. विविध प्रकार का बाह्य तप करने वाले मुनि ४४-४५. दस प्रकार का वैयावृत्त्य
४६. सांभोगिक को विसांभोगिक करने के हेतु
४७. पारांचित प्रायश्चित्त के हेतु
४८. विग्रह के हेतु
४६. अविग्रह के हेतु
५०. निषद्या के प्रकार
५१. संबर के स्थान
५२. ज्योतिष्क के प्रकार ५३. देव के प्रकार
५४. परिचारणा के प्रकार
५५-५६. अग्रमहिषियों के नाम
५७-६७. देवों की सेनाएं और सेनापति
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६८-६६. देव-देवियों की स्थिति
७०. स्खलन के प्रकार ७१. आजीव (जीविका) के प्रकार ७२. राजचिन्ह ७३. छद्मस्थ द्वारा परीषह सहने के हेतु
७४. केवली द्वारा परीषह सहने के हेतु ७५-७८. हेतुओं के प्रकार ७६.८२. अहेतुओं के प्रकार
८३. केवली के अनुत्तर स्थान ८४-६७. तीर्थकरों के पंचकल्याणकों के नक्षत्र ____६८. महानदी उत्तरण के हेतु ६E-१००. चातुर्मास में विहार करने के हेतुओं का निर्देश
१०१. अनुद्घातिक (गुरु) प्रायश्चित्त के हेतु १०२. अन्तःपुर प्रवेश के हेतु
१०३. बिना सहवास गर्भ-धारण के हेतु १०४-१०६. सहवास से भी गर्भ-धारण न होने के हेतु
१०७. श्रमण-श्रमणी के एकत्रवास के हेतु १०८. अचेल श्रमण का सचेल श्रमणी के साथ रहने के
हेतु १०६. आश्रव के प्रकार ११०. सवर के प्रकार
१११. दंड (हिंसा) के प्रकार ११२-१२२. क्रियाओं के प्रकार
१२३. परिज्ञा के प्रकार
१२४. व्यवहार के प्रकार और उनकी प्रस्थापना १२५-१२७. सुप्त-जागृत
१२८. कर्म रजों के आदान के हेतु १२६. कर्म-रजों के वमन के हेतु
१३०. भिक्षु-प्रतिमा में दत्तियां १३१-१३२. उपघात और विशोधि के प्रकार
१३३. दुर्लभ बोधिकत्व कर्मोपार्जन के हेतु १३४. सुलभ बोधिकत्व कर्मोपार्जन के हेतु १३५. प्रतिसंलीन के प्रकार
१३६. अप्रतिसंलीन के प्रकार १३७-१३८. संवर-असंवर के प्रकार
१३६. संयम (चारित्र) के प्रकार १४०-१४५. संयम-असंयम के प्रकार
१४६. तृणवनस्पति के प्रकार १४७. आचार के प्रकार १४८. आचारकल्प (निशीथ) के प्रकार
१४६. आरोपणा के प्रकार १५०-१५३. वक्षस्कार पर्वत
१५४-१५५. महाद्रह
१५६. वक्षस्कार पर्वतों का परिमाण १५७. धातकीषण्ड तथा अर्धपुष्करवर द्वीप में वक्षस्कार
पर्वत १५८. समयक्षेत्र १५६-१६३. ऋषभ, भरत, बाहुबली, ब्राह्मी और सुन्दरी की
अवगाहना १६४. सुप्त मनुष्य के विबुद्ध होने के हेतु १६५. श्रमण द्वारा श्रमणी को सहारा देने के हेतु १६६. आचार्य तथा उपाध्याय के अतिशेष १६७. आचार्य तथा उपाध्याय का गणापक्रमण करने
के हेतु १६८. ऋद्धिमान मनुष्यों के प्रकार १६६-१७४. पांच अस्तिकायों का विस्तृत वर्णन
१७५. गति के प्रकार १७६. इन्द्रियों के विषय
१७७. मुण्ड के प्रकार १७८-१८०. अधो, ऊध्वं तथा तिर्यक्लोक में बादर जीवों के
प्रकार १८१. बादर तेजस्कायिक जीवों के प्रकार १८२. बादर वायुकायिक जीवों के प्रकार
१८३. अचित्त वायुकाय के प्रकार १८४-१८६. निर्ग्रन्थों के प्रकार और उनके भेद
१६०. साधु-साध्वियों के वस्त्रों के प्रकार १६१. रजोहरण के प्रकार १६२. निधास्थान १६३. निधि के प्रकार १६४. शौच के प्रकार १६५. छद्मस्थ तथा केवली के ज्ञान की इयत्ता १६६. सबसे बड़े महानरकावास १६७. महाविमान १६८. सत्त्व के आधार पर पुरुषों के प्रकार १६६. मत्स्यों की तुलना में पुरुषों के प्रकार २००. वनीपकों के प्रकार २०१. अचेलक के प्रशस्त होने के हेतु २०२. उत्कल (उत्कट) के प्रकार २०३. समितियां
२०४. संसारी जीवों के प्रकार २०५-२०७. जीवों की गति-आगति २०८. कषाय और गति के आधार पर जीवों का
वर्गीकरण २०६. मटर आदि धान्यों की योनि (उत्पादक शक्ति)
का कालमान
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( ३४ )
२१०-२१३. संवत्सरों के प्रकार और उनके भेद
२१४. आत्मा का शरीर से बहिर्गमन करने के मार्ग २१५. छेदन के प्रकार २१६. आनन्तर्य के प्रकार २१७. अनन्त के प्रकार २१८. ज्ञान के प्रकार २१६. ज्ञानावरणीय कर्म के प्रकार २२०. स्वाध्याय के प्रकार २२१. प्रत्याख्यान के प्रकार २२२. प्रतिक्रमण के प्रकार २२३. सूत्रों के अध्यापन का हेतु २२४. श्रुत-अध्ययन के हेतु २२५. विमानों के वर्ण २२६. विमानों की ऊंचाई
२२७. देव-शरीर की ऊंचाई २२८-२२६. कर्म-पुद्गलों का वर्ण-रस २३०-२३१. भरत क्षेत्र में गंगा और सिन्ध में मिलने वाली
महानदियां २३२-२३३. ऐरबतक्षेत्र की महानदियां
२३४. कुमारावस्था में प्रवजित तीर्थकर २३५. चमरचंचा की सभाएं २३६. इन्द्र की सभाएं २३७. पांच तारों वाले नक्षत्र
२३८. पाप-कर्मरूप में निर्वतित पुद्गल २३६-२४०. पुद्गल पद
१७. सुख के प्रकार १८. असुख के प्रकार १६. प्रायश्चित्त के प्रकार २०. मनुष्य के प्रकार २१. ऋद्धिमान् पुरुषों के प्रकार
२२. अनृद्धिमान् पुरुषों के प्रकार २३-२६. काल के भेद-प्रभेद तथा मनुष्यों की ऊंचाई और
___ आयु-परिमाण ३०. संहनन के प्रकार ३१. संस्थान के प्रकार ३२. अनात्मवान् के लिए अहित के हेतु
३३. आत्मवान् के लिए हित के हेतु ३४-३५. आर्य मनुष्य
३६. लोकस्थिति के प्रकार ३७-४०. दिशाएं और उनमें गति-आगति ४१-४२. आहार करने और न करने के कारणों का निर्देश
४३. उन्माद-प्राप्ति के हेतु
४४. प्रमाद के प्रकार ४५-४६. प्रमाद और अप्रमाद युक्त प्रतिलेखना के प्रकार ४७-४६. लेश्याएं ५०-५१. अग्रमहिषियां
५२. देवस्थिति ५३-५४. महत्तरिकाएं ५५-५८. अग्रमहिषियां ५६-६०. सामानिक देव ६१-६४. सांब्यावहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद-प्रभेद ६५-६६. बाह्य और आभ्यन्तर तप के भेद
६७. विवाद के अंग ६८. क्षुद्र प्राणियों के प्रकार
६६. गोचरचर्या के प्रकार ७०-७१. अतिनिकृष्ट महानरकावास
७२. विमान-प्रस्तट ७३-७५. नक्षत्र
७६. कुलकर की ऊंचाई ७७. राजा भरत का राज्यकाल ७८. अर्हत् पार्श्व के वादियों की संख्या ७६. बासुपूज्य के साथ प्रवजित होने वालों की संख्या
८०. चन्द्रप्रभ अर्हत् का छद्मस्थकाल ८१-८२. त्रीन्दिय जीवों के प्रति संयम-असंयम
८३. अकर्मभूमियां ८४. जम्बूद्वीप के क्षेत्र ८५. वर्षधर पर्वत
छठा स्थान १. गण-धारण करने वाले पुरुषों के गुणों का निर्देश २. श्रमण द्वारा श्रमणी को सहारा देने के हेतु ३. कालप्राप्त सार्मिक का अन्त्य-कर्म ४. छद्मस्थ और केवली के ज्ञान की इयत्ता ५. असंभव-कार्य ६ जीवनिकाय के प्रकार ७. तारों के आकार वाले ग्रह
८. संसारी जीवों के प्रकार ९-१०. जीवों की गति-आगति ११. ज्ञान के आधार पर जीवों के प्रकार १२. तणवनस्पतिकायिक जीवों के प्रकार १३. दुर्लभ स्थान १४. इन्द्रियों के विषय १५. संवर के प्रकार १६. असंवर के प्रकार
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८६-८७. कूट
महाद्रह और तत्रस्थित देवियां
४. महानदियां और अन्तर्नदियां
६५. ऋतुएं
६६. अवमरात
२७. अतिरात्र
८. अर्थावग्रह के प्रकार
६६. अवधिज्ञान के प्रकार
१००. अवचन के प्रकार
१०१. कल्प के प्रस्तार ( प्रायश्चित्त के विकल्प )
१०२. कल्प के परिमं
१०३. कल्पस्थिति के प्रकार
१०४ १०६. महावीर का अपानक छट्टभक्त १०७. विमानों की ऊंचाई
१०८. देवों के शरीर की ऊंचाई
१०६. भोजन का परिणाम
११०. विष का परिणाम
१११. प्रश्न के प्रकार
११२ ११५. उपपात का विरहकाल ११६. आयुष्य-बंध के प्रकार
११७-११८. सभी जीवों का आयुष्य-बन्ध
११६- १२३. विभिन्न जीवों के परभव के आयुष्य का बंध
१२४. भाव के प्रकार
१२५. प्रतिक्रमण के प्रकार १२६-१२७. नक्षत्रों के तारे
१२८. पाप कर्मरूप में निर्वर्तित १२६-१३२. पुद्गल-पद
पुद्गल
सातवां स्थान
१. गण के अपक्रमण करने के हेतु
२. विभंगज्ञान के प्रकार और उनके विषय
स्थान
८- १०. प्रतिमाएं
११-१२. आयारचूला १३. प्रतिमा
३. योनियों के प्रकार
४-५. जीवों की गति आगति
६-७. आचार्य तथा उपाध्याय के संग्रह तथा असंग्रह
१४-२२. अधोलोक स्थिति
२३-२४. अधोलोक की पृथिवियों के नाम-गोल २५. बादर वायुकाय के प्रकार २६. संस्थान
( ३५ )
२७. भयस्थान
२८. छद्मस्थता के हेतु २६. केवली की पहचान ३०-३७. गोत्र और उनके भेद ३८. नयों के प्रकार
३६. स्वरों के प्रकार
४०. स्वर-स्थान
४१. जीव- निश्रित स्वर
४२. अजीव - निश्रित स्वर
४३. स्वरों के लक्षण
४४. स्वरों के ग्राम
४५-४७. ग्रामों की मूच्र्च्छनाएं
४८. स्वर-मंडल की विविध जानकारी ४६. कायक्लेश
५०-६०. विभिन्न द्वीपों के क्षेत्र, वर्षधर पर्वत तथा महानदियाँ
६१-६२. कुलकरों के नाम
६३. कुलकरों की भार्याएं
६४. कुलकरों के नाम
६५. कुलकरों के वृक्ष ६६. दंडनीतियां
६७-६८. चक्रवर्ती के एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय रत्न
६९-७०. दुःषमा और सुसमाकाल को जानने के हेतु
७१. संसारी जीवों के प्रकार
७२. आयुष्य भेद के हेतु
७३. जीवों के प्रकार
७४. ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती
७५. तीर्थंकर मल्ली के साथ प्रव्रजित होने वालों का निर्देश
७६. दर्शन के प्रकार
७७. छद्मस्थ वीतराग की कर्म - प्रकृतियां
७८. छद्मस्थ और केवली का सर्वभाव से जाननादेखना
७६. महावीर का संहनन, संस्थान और ऊंचाई ८०. विकथा के प्रकार
८१. आचार्य और उपाध्याय के अतिशेष ८२-८३. संयम और असंयम के प्रकार ८४-८५. आरंभ-अनारंभ के प्रकार ८६-८७. सारंभ - असारंभ के प्रकार ८८. समारंभ - असमारंभ के प्रकार ६०. धान्यों की योनि स्थिति ६१. वायुकाय की स्थिति
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६२-६३. तीसरी-चौथी नरकपृथ्वी में उत्पन्न नैरयिकों
की स्थिति ६४-६६. अग्रमहिषियां ६७-६६. देव-स्थिति १००-१०१. देवों के निश्रित देवता १०२-१०४. देव-स्थिति
१०५.विमानों की ऊंचाई १०६-१०६. देवों के शरीर की ऊंचाई ११०-१११. नंदीश्वरद्वीप
११२. श्रेणियों के प्रकार ११३..१२२. देवताओं की सेना और सेनाधिपति १२३-१२८. देवताओं के कच्छ आदि से संबंधित विविध
जानकारी १२६. वचन-विकल्प के प्रकार १३०-१३७. विनय और उसके भेद-प्रभेद १३८-१३६. समुद्घात १४०-१४२. प्रवचन-निन्हव, उनके धर्माचार्य और नगर १४३-१४४. वेदनीय कर्म के अनुभाव
१४५. महानक्षत्र के तारे १४६. पूर्वद्वारिक नक्षत्र १४७. दक्षिगद्वारिक नक्षत्र १४८. पश्चिमद्वारिक नक्षत्र
१४६. उत्तरद्वारिक नक्षत्र १५०-१५१. वक्षस्कार पर्वतों के कूट
१५२. द्वीन्द्रिय जीवों की कुल-कोटि
१५३. पाप-कर्मरूप में निर्वतित पुद्गल १५४-१५५. पुद्गल-पद
१८. आलोचना (प्रायश्चित्त) देने वाले के गुणों का
निर्देश १६. स्वयं के दोषों की आलोचना करने वाले के गुण २०. प्रायश्चित्त के प्रकार २१. मद के प्रकार २२. अक्रियावादियों के प्रकार २३. महानिमित्त के प्रकार २४. वचन-विभक्ति के प्रकार २५. छद्मस्थ और केवली का सर्वभाव से जानना
देखना २६. आयुर्वेद के प्रकार २७-३०. अग्रमहिषियां
३१. महाग्रह
३२. तृणवनस्पति के प्रकार ३३-३४. चतुरिन्द्रिय जीवों से सम्बन्धित संयम-असंयम
३५. सूक्ष्म के प्रकार ३६. भरत चक्रवर्ती के पुरुष युग ३७. अर्हत् पार्श्व के गण ३८. दर्शन के प्रकार ३६. औपमिक काल के प्रकार ४०. अरिष्टनेमि से आठवें पुरुषयुग तक युगान्तर
भूमि का निर्देश ४१. महावीर द्वारा प्रवजित राजे
४२. आहार के प्रकार ४३.४४. कृष्णराजि ४५-४७. लोकान्तिक विमान, देव और स्थिति ४८-५१. मध्य प्रदेश
५२. अर्हत् महापद्म द्वारा प्रवजित होने वाले राजे ५३. वासुदेव कृष्ण की अग्रमहिषियां ५४. वीर्यप्रवाद पूर्व की वस्तु और चूलिका वस्तु
५५. गति के प्रकार ५६-६०. द्वीप और समुद्रों का परिमाण
६१. काकणिरत्न का संस्थान
६२. मगध देश के योजन का परिमाण ६३-६८. जंबूद्वीप, धातकीषण्ड और अर्द्ध पुष्करद्वीप से
संबंधित विविध जानकारी १६-१००. महत्तरिकाएं १०१. तिर्यञ्च और मनुष्य -दोनों के उत्पन्न होने
योग्य देवलोकों का निर्देश १०२-१०३. इन्द्र और उनके पारियानिक विमान
१०४.प्रतिमा १०५-१०६. विभिन्न दृष्टियों से जीवों का वर्गीकरण
आठवां स्थान १. एकलविहार-प्रतिमा-संपन्न अनगार के गुण २. योनिसंग्रह के प्रकार ३-४. गति-आगति ५-८. कर्मबंध ६-१०. मायावी की अनालोचना-आलोचना
११. संवर के प्रकार १२. असंवर के प्रकार १३. स्पर्श के प्रकार १४. लोकस्थिति के प्रकार १५. गणि की संपदा १६. महानिधि का आधार और ऊंचाई १७. समिति की संख्या
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१०७. संयम के प्रकार १०८. अधोपृथिवियों के नाम १०६. ईषद् प्राग्भारा पृथ्वी का परिमाण ११०. ईषद् प्राग्भारा पृथ्वी के पर्यायवाची नाम १११. आठ स्थानों में प्रमाद नहीं करना ११२. विमानों की ऊंचाई ११३. अर्हत् अरिष्टनेमि की वादि-संपदा ११४. केवली समुदघात का काल-परिमाण और स्वरूप
निर्देश ११५. महावीर की अनुत्तरोपपतिक देवलोक में उत्पन्न
_होने वालों की संख्या ११६. वानव्यंतर देवों के प्रकार ११७. वानव्यंतर देवों के चैत्यवृक्ष ११८. रत्नप्रभा पृथ्वी से ज्योतिषचक्र की दूरी ११६. चन्द्रमा के साथ प्रमर्द योग करने वाले नक्षत्र १२०. जम्बूद्वीप के द्वारों की ऊंचाई
१२१. सभी द्वीप-समुद्रों के द्वारों की ऊंचाई १२२-१२४. कर्मों की बंध-स्थिति
१२५. त्रीन्द्रिय जीवों की कुलकोटियां
१२६. पाप-कर्म रूप में निर्वतित पुद्गल १२७-१२८. पुद्गल-पद
२४. शरीर के नौ स्रोत २५. पुण्य के प्रकार २६. पाप के प्रकार २७. पापश्रुत-प्रसंग २८. नपुणिक-वस्तु (विविध विधाओं में दक्ष पुरुष)
का निर्देश २६. महावीर के गण ३०. नवकोटि परिशुद्ध भिक्षा ३१. अग्रमहिषियां ३२. अग्रमहिषियों की स्थिति ३३. ईशान कल्प में देवियों की स्थिति
३४. देवनिकाय ३५-३७. देवताओं के देवों की संख्या ३८-३६. ग्रेवेयक विमानों के प्रस्तट और उनके नाम
४०. आयुपरिमाण ४१. भिक्षु-प्रतिमा
४२. प्रायश्चित्त के प्रकार ४३-५८. विविध पर्वतों के कूट (शिखर)
५६. अर्हत् पार्श्व का संहनन, संस्थान और ऊंचाई ६०. महावीर के तीर्थ में तीर्थंकर नामगोत्र कर्म का
उपार्जन करने वालों का नाम-निर्देश ६१. भावी तीर्थकर ६२. अर्हत् महापद्म का अतीत और अनागत ६३. चन्द्रमा के पृष्ठभाग से योग करने वाले नक्षत्र ६४. विमानों की ऊंचाई ६५. विमलवाहन कुलकर की ऊंचाई ६६. अर्हत् ऋषभ का तीर्थ-प्रर्वतन ६७. द्वीपों का आयाम-विष्कंभ ६८. शुक्र की वीथियां
६६. नो-कषायवेदनीय कर्म के प्रकार ७०-७१. कुलकोटियां
७२. पाप-कर्मरूप में निर्वतित पुद्गल ७३. पुद्गल-पद
दसवां स्थान १.लोकस्थिति के प्रकार
२. शब्दों के प्रकार ३-५. संभिन्नश्रोतोलब्धि के सूत्र ६. अच्छिन्न पुद्गलों के चलित होने के हेतु
७. क्रोध की उत्पत्ति के कारण ८-६. संयम और असंयम १०.संवर के प्रकार ११. असंवर के प्रकार
नौवां स्थान १. सांभोगिक को विसांभोगिक करने के हेतु
२. ब्रह्मचर्य (आचारांग सूत्र) के अध्ययन ३-४. ब्रह्मचर्य की गुप्ति और अगुप्ति के प्रकार ५. अर्हत् सुमति का अन्तराल काल ६. तत्त्वों का नाम निर्देश ७. संसारी जीवों के प्रकार ५-६. गति-आगति १०. जीवों के प्रकार ११. जीवों की अवगाहना १२. संसार १३. रोगोत्पत्ति के कारण
१४. दर्शनावरणीय कर्म के प्रकार १५-१६. चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्र
१७. रत्नप्रभा पृथ्वी से तारों की दूरी
१८. मत्स्यों की लम्बाई १९-२०. बलदेव वासुदेव के माता-पिता आदि
२१. महानिधियों का विष्कंभ २२. नव निधियों का वर्णन २३. विकृतियां
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१२. अहं की उत्पत्ति के साधन १३. समाधि के कारण १४. असमाधि के प्रकार १५. प्रव्रज्या के प्रकार १६. श्रमण-धर्म १७. वैयावृत्य के प्रकार १८. जीव परिणाम के प्रकार १६. अजीव परिणाम के प्रकार २०. अंतरिक्ष से संबंधित अस्वाध्याय के प्रकार
२१. औदारिक-अस्वाध्याय २०-२३. पंचेन्द्रिय प्राणियों से संबंधित संयम-असंयम
२४. सूक्ष्मों के प्रकार २५-२६. मंदर पर्वत की दक्षिण-उत्तर की महानदियाँ
२७. भरत क्षेत्र की राजधानियां २८. राजधानियों से प्रवजित होने वाले राजे
२६. मंदर पर्वत का परिमाण ३०-३१. दिशाएं और उनके नाम
३२. लवण समुद्र का गोतीर्थ विरहित क्षेत्र
३३. लवण समुद्र की उदगमाला का परिमाण ३४-३५. महापाताल और क्षुद्रपाताल ३६-३७. धातकीषण्ड और पुष्करवरद्वीप के मंदर पर्वत
का परिमाण ३८. वृत्तवताय पर्वत का परिमाण ३६. जम्बूद्वीप के क्षेत्र ४०. मानुषोत्तर पर्वत का विष्कंभ ४१. अंजन पर्वत का परिमाण ४२. दधिमुख पर्वत का परिमाण ४३. रतिकर पर्वत का परिमाण ४४. रुचकवर पर्वत का परिमाण ४५. कुंडल पर्वत का परिमाण
४६. द्रव्यानुयोग के प्रकार ४७-६१. उत्पाद पर्वतों का परिमाण
६२. बादर बनस्पतिकाय के शरीर की अवगाहना ६३-६४. जलचर-थलचर जीवों के शरीर की अवगाहना ६५. अर्हत् संभव और अहंत अभिनंदन का अन्तराल
काल ६६. अनन्त के प्रकार ६७-६८. उत्पाद पूर्व और अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के
अधिकार ६६. प्रतिसेवना के प्रकार ७०. आलोचना के दोष ७१. आत्मदोष की आलोचना करने वाले के गुण
७२. आलोचना देने वाले के गुण ७३. प्रायश्चित्त के प्रकार ७४. मिथ्यात्व के प्रकार ७५. अर्हत् चन्द्रप्रभ का आयुष्य ७६. अर्हत् धर्म का आयुष्य ७७. अर्हत् नमी का आयुष्य ७८. पुरुषसिंह वासुदेव का आयुष्य ७६. अर्हत् नेमी की ऊंचाई और आयुष्य
८०. वासुदेव कृष्ण की ऊंचाई और आयुष्य ८१-८२. भवनवासी देवों के प्रकार और उनके चैत्यवृक्ष
८३. सुख के प्रकार ८४. उपघात के प्रकार ८५. विशोधि के प्रकार ८६. संक्लेश के प्रकार ८७. असंक्लेश के प्रकार ५८. बल के प्रकार ८६. भाषा के प्रकार ६०. मृषा के प्रकार ६१. सत्यामृषा के प्रकार ६२. दृष्टिवाद के नाम ६३. सत्य के प्रकार ६४. दोषों के प्रकार ६५. विशेष के प्रकार ६६. शुद्ध वाचानुयोग के प्रकार १७. दान के प्रकार १८. गति के प्रकार ६६. मुंड के प्रकार १००. संख्यान (संख्या) के प्रकार १०१. प्रत्याख्यान के प्रकार १०२. सामाचारी १०३. महावीर के स्वप्न
१०४. रुचि के प्रकार १०५-१०७. संज्ञाएं
१०८. नैरयिकों की वेदना के प्रकार १०६. छद्मस्थ और केबली का सर्वभाव से जानना
देखना ११०-१२०. दस दसाएँ (ग्रन्थ विशेष) और उनके अध्ययनों
का नाम-निर्देश १२१. अवसर्पिणी का कालमान १२२. उत्सपिणी का कालमान १२३. अनन्तर और परंपर के आधार पर जीवों का
वर्गीकरण
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Ou
( ३६ ) १२४. पंकप्रभा के नरकावास
१५०. इन्द्रों के पारियानिक विमान १२५-१२७. रत्नप्रभा, पंकप्रभा और धूमप्रभा में उत्पन्न १५१. भिक्षु-प्रतिमा नैरयिको की स्थिति
१५२-१५३. संसारी जीव १२८. भवनवासी देवों की जघन्य स्थिति
१५४. शतायुष्य के आधार पर दस दशाएं १२९. बादर बनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट १५५. तृणवनस्पति के प्रकार स्थिति
१५६. विद्याधर श्रेणी का विष्कंभ १३०. वानव्यंतर देवों की जघन्य स्थिति
१५७. आभियोग श्रेणी का विष्कंभ १३१. ब्रह्मलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति
१५८. ग्रैवेयक विमानों की ऊंचाई १३२. लांतक देवों की जघन्य स्थिति
१५६. तेज से भस्म करने के कारण १३३. भावी कल्याणकारी कर्म के हेतु
१६०. अच्छेरक (आश्चर्य) १३४. आशंसा (तीव्र इच्छा) के प्रकार
१६१-१६३. विभिन्न कंडों का बाहल्य १३५. धर्म के प्रकार
१६४. द्वीप-समुद्रों का उत्सेध १३६. स्थविरों के प्रकार
१६५. महाद्रह का उत्सेध १३७. पुनों के प्रकार
१६६. सलिल कुंड का उत्सेध १३८. केवली के दस अनुत्तर
१६७. सीता-सीतोदा महानदी का उत्सेध १३६. कुराओं की संख्या, महाद्रुम और देव १६८-१६६. नक्षत्रों का मंडल १४०-१४१. दुस्समा और सुसमा को जानने के हेतु
१७०. ज्ञान की वृद्धि करने वाले नक्षत्र १४२. कल्पवृक्ष
१७१-१७२. तिर्यञ्च जीवों की कुलकोटियां १४३-१४४. अतीत और आगामी उत्सर्पिणी के कुलकर १७३. पाप-कर्मरूप में निर्वतित पुद्गल १४५-१४७. वक्षस्कार पर्वत
१७४-१७८. पुद्गल-पद १४८. इन्द्राधिष्ठित देवलोक
परिशिष्ट-१ विशेषानुक्रम १४६. इन्द्र
परिशिष्ट-२ प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची
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पढमं ठाणं
प्रथम स्थान
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आमुख
स्थानांग संख्या-निबद्ध आगम है। इसमें समग्र प्रतिपाद्य का समावेश एक से दस तक की संख्या में हुआ है। इसी आधार पर इसके दस अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में एक से सम्बन्धित विषय प्रतिपादित हैं।
प्रतिपादन और नयदृष्टि
एक और अनेक सापेक्ष हैं। इनकी विचारणा नयदृष्टि से की जाती है। संग्रहनय अभेददृष्टि है। उसके द्वारा जब हम वस्तुतत्त्व का विचार करते हैं, तब भेद अभेद से आवृत हो जाता है । व्यवहारनय भेददृष्टि है। उसके द्वारा वस्तुतत्त्व का विचार करने पर अभेद भेद से आवृत हो जाता है। प्रस्तुत अध्ययन में वस्तुतत्त्व का संग्रहनय की दृष्टि से विचार किया गया है। तीसरे अध्ययन में दण्ड के तीन प्रकार बतलाए गए हैं और प्रस्तुत अध्ययन के अनुसार दण्ड एक है। ये दोनों सूत्र परस्पर विरोधी नहीं हैं, किन्तु सापेक्ष दृष्टि से प्रतिपादित हैं।
आत्मा एक है। यह एकत्व द्रव्य की दृष्टि से है । जम्बूद्वीप एक है। यह एकत्व क्षेत्र की दृष्टि से है।
एक समय में एक ही मन होता है। यह काल-सापेक्ष एकत्व का प्रतिपादन है। एक समय में मन की दो प्रवृत्तियां नहीं होती, इसलिए यह एकत्व काल की दृष्टि से है ।
शब्द एक है। यह एकत्व भाव (पर्याय, अवस्था-भेद) की दृष्टि से है। शब्द पुद्गल का एक पर्याय है। प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चारों दृष्टियों से वस्तुतत्त्व का विमर्श किया गया है।
विषय-वस्तु
प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य तत्त्ववाद (द्रव्यानुयोग) है। कुछ सूत्र आचार (चरण-करणानुयोग) से भी सम्बन्धित हैं।
भगवान महावीर अकेले ही निर्वाण को प्राप्त हुए थे। इस ऐतिहासिक तथ्य को सूचना भी प्रस्तुत अध्ययन में मिलती है।
इसमें कालचक्र और ज्योतिश्चक्र सम्बन्धी सूत्र भी उपलब्ध हैं। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में अनेक विषय संगृहीत हैं।
रचना-शैली
प्रस्तुत अध्ययन के अधिकांश सूत्र विशेषण और वर्णन रहित हैं। जम्बूद्वीप का लम्बा वर्णन किया है। वह समूचे अध्ययन के रचनाक्रम से भिन्न-सा प्रतीत होता है। किन्तु प्रस्तुत स्थान में वर्णन अनावश्यक नहीं है। अभयदेव सूरी ने उसकी सार्थकता बतलाते हुए लिखा है-"उक्त वर्णन वाला जम्बूद्वीप एक ही है। इस वर्णन से भिन्न आकार वाले जम्बूद्वीप
बहुत हैं।"११
१.११३ २. १२ ३. १२४८ ४. ११४१ ५. ११५५ ६.११०६-१२६
७. १२४३ ८. १११२७-१४० ६. १५२५१-२५३ १०. १।२४८ ११. स्थानांगवृत्ति,पन्न ३३:
उत्तरविशेषणश्च जम्बूद्वीप एक एव, अन्यथा अनेकेपि ते सन्तीति ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान १ : आमुख
स्थान या अध्ययन ?
स्थानांग के विभाग अधिकांशतया स्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं। वृत्तिकार ने उन्हें 'अध्ययन' भी कहा है। प्रत्येक अध्ययन में एक ही संख्या के लिए स्थान है, इसलिए अध्ययन का नाम स्थान रखना भी उचित है। प्रस्तुत विभाग को प्रथम स्थान या प्रथम अध्ययन दोनों कहा जा सकता है।
निक्षेप
प्रस्तुत अध्ययन का आकार छोटा है। इसका कारण विषय का संक्षेप है। इसके अनेक विषयों का विस्तार अग्रिम अध्ययनों में मिलता है । आधार-संकलन की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
१ स्थानांगबृत्ति, पत्न३: तत्र च दशाध्ययनानि।
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पढमं ठाणं : प्रथम स्थान
१. सुयं मे आउसं ! तेणं भगवता
एवमक्खायं.
संस्कृत छाया श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवं आख्यातम्
हिन्दी अनुवाद १. आयुष्मान् ! मैंने सुना, भगवान् ने ऐसा कहा है
अस्तिवाद-पदम्
अस्थिवाय-पदं २. एगे आया। ३. एगे दंडे। ४. एगा किरिया। ५. एगे लोए। ६. एगे अलोए। ७. एगे धम्मे। ८. एगे अहम्मे। ९. एगे बंधे। १०. एगे मोक्खे। ११. एगे पुण्णे। १२. एगे पावे। १३. एगे आसवे। १४. एगे संवरे। १५. एगा वेयणा। १६. एगा णिज्जरा।
एक आत्मा । एको दण्डः । एका क्रिया। एको लोकः। एको ऽलोकः। एको धर्मः। एकोऽधर्मः। एको बन्धः। एको मोक्षः। एक पुण्यम्। एकं पापम्। एक आश्रवः। एक: संवरः। एका वेदना। एका निर्जरा।
अस्तिवाद-पद २. आत्मा' एक है। ३. दण्ड एक है। ४. क्रिया' (प्रवृत्ति) एक है। ५. लोक एक है। ६. अलोक एक है। ७. धर्म' (धर्मास्तिकाय) एक है। ८. अधर्म (अधर्मास्तिकाय) एक है। ६. वन्ध एक है। १०. मोक्ष एक है। ११. पुण्य" एक है। १२. पाप" एक है। १३. आस्रव एक है। १४. संवर" एक है। १५. वेदना" एक है। १६. निर्जरा" एक है।
प्रकीर्णक-पदम् एको जीवः प्रत्येककेन शरीरकेण ।
प्रकीर्णक-पद १७. प्रत्येक शरीर में जीव एक है।
एका जीवानां अपर्यादाय विकरणम।
पइण्णग-पदं १७. एगे जीवे पाडिक्कएणं
सरीरएणं। १८. एगा जीवाणं अपरिआइत्ता
विगुव्वणा। १६. एगे मणे। २०. एगा वई। २१. एगे काय-वायामे।
एक मनः। एका वाक। एक: काय-व्यायामः।
१८. अपर्यादाय (बाह्य पुद्गलों को ग्रहण
किये बिना होने वाली विक्रिया) एक है। १६. मन एक है। २०. वचन" एक है। २१. कायव्यायाम" एक है।
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ठाणं (स्थान) २२. एगा उप्पा। २३. एगा वियती। २४. एगा वियच्चा। २५. एगा गती। २६. एगा आगती। २७. एगे चयणे। २८. एगे उववाए। २६. एगा तक्का। ३०. एगा सण्णा। ३१. एगा मण्णा। ३२. एगा विण्णू। ३३. एगा वेयणा। ३४. एगे छेयणे। ३५. एगे भेयणे। ३६. एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं। ३७. एगे संसुद्धे अहाभूए पत्ते।
एक उत्पादः। एका वितिः। एका विगताएं। एका गतिः। एका आगतिः । एक च्यवनम् । एक उपपातः । एकः तर्कः। एका संज्ञा। एका मतिः। एको विज्ञः। एका वेदना। एक छेदनम्। एकं भेदनम्। एक मरणं अन्तिमशारीरिकाणाम् ।। एकः संशुद्धः यथाभूतः पात्रम् ।
स्थान १ : सूत्र २२-४४ २२. उत्पत्ति एक है। २३. विगति" (विनाश) एक है। २४. विशिष्ट चित्तवृत्ति एक है। २५. गति" एक है। २६. आगति एक है। २७. च्यवन" एक है। २८. उपपात एक है। २६. तर्क" एक है। ३०. संज्ञा एक है। ३१. मनन" एक है। ३२. विद्वत्ता एक है। ३३. वेदना" एक है। ३४. छेदन एक है। ३५. भेदन एक है। ३६. अन्तिमशरीरी" जीवों का मरण एक है। ३७. जो संशुद्ध यथाभूत" और पात्र है, वह
३८. एगे दुक्खे जीवाणं एगभूए।
एकं दुःखं जीवानां एक भूतम् ।
३८. प्रत्येक जीव का दुःख एक और एकभूत
३६. एगा अहम्मपडिमा, जं से एका अधर्म-प्रतिमा यत् तस्याः आत्मा ३६. अधर्मप्रतिमा एक है, जिससे आत्मा आया परिकिलेसति। परिक्लिश्यते ।
परिक्लेश को प्राप्त होता है। ४०. एगा धम्मपडिमा, जं से एका धर्म-प्रतिमा यत् तस्याः आत्मा ४०. धर्मप्रतिमा" एक है, जिससे आत्मा आया पज्जवजाए। पर्यवजातः ।
पर्यवजात होता है (ज्ञान आदि की विशेष
शुद्धि को प्राप्त होता है)। ४१. एगे मणे देवासुरमणुयाणं एकं मनः देवासुरमनुजानां तस्मिन् ४१. देव, असुर और मनुष्य जिस समय तंसि तंसि समयंसि। तस्मिन् समये।
चिंतन करते हैं, उस समय उनके एक मन
होता है।" ४२. एगा वई देवासुरमणुयाणं एका वाक् देवासुरमनुजानां तस्मिन् ४२. देव, असुर और मनुष्य जिस समय बोलते तंसि तंसि समयंसि। तस्मिन् समये।
हैं, उस समय उनके एक वचन होता है।" ४३. एगे काय-वायामे देवासुर- एक: काय-व्यायाम: देवासुरमनुजानां ४३. देव, असुर और मनुष्य जिस समय कायमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि। तस्मिन् तस्मिन् समये।
व्यापार करते हैं, उस समय उनके एक
कायव्यायाम होता है।" ४४. एगे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय- एक उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार- ४४. देव, असुर और मनुष्यों के एक समय में
पुरिसकार-परक्कमे देवासुर- पराक्रम: देवासुरमनुजानां तस्मिन् एक ही उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषमणुयाणं तंसि तंसि समयसि। तस्मिन् समये ।
कार अथवा पराक्रम होता है।
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स्थान १: सूत्र ४५-७६
ठाणं (स्थान) ४५. एगे णाणे। ४६. एगे दंसणे। ४७. एगे चरित्ते। ४८. एगे समए। ४६. एगे पएसे। ५०. एने परमाणू। ५१. एगा सिद्धी। ५२. एगे सिद्ध। ५३. एगे परिणिव्वाणे। ५४. एगे परिणिवुए।
एक ज्ञानम्। एकं दर्शनम्। एक चरित्रम्। एकः समयः । एक: प्रदेशः। एकः परमाणुः । एका सिद्धिः। एक: सिद्धः। एक परिनिर्वाणम् । एकः परिनिर्वृतः।
४५. ज्ञान" एक है। ४६. दर्शन एक है। ४७. चरित्र" एक है। ४८. समय एक है। ४६. प्रदेश एक है। ५०. परमाणु एक है। ५१. सिद्धि एक है। ५२. सिद्ध एक है। ५३. परिनिर्वाण एक है। ५४. परिनिर्वत एक है।
पोग्गल-पदं ५५. एगे सद्दे। ५६. एगे रूवे। ५७. एगे गंधे। ५८. एगे रसे। ५६. एगे फासे। ६०. एगे सुब्भिसद्दे। ६१. एगे दुन्भिसद्दे। ६२. एगे सुरूवे। ६३. एगे दुरूवे। ६४. एगे दोहे। ६५. एगे हस्से। ६६. एगे वट्टे। ६७. एगे तंसे। ६८. एगे चउरंसे। ६६. एगे पिहले। ७०. एगे परिमंडले। ७१. एगे किण्हे। ७२. एगे णीले। ७३. एगे लोहिए। ७४. एगे हालिद्दे । ७५. एगे सुक्किल्ले। ७६. एगे सुभिगंधे।
पुद्गल-पदम् एकः शब्दः । एक रूपम् । एको गन्धः । एको रसः। एकः स्पर्शः। एकः सुशब्दः । एकः दुःशब्दः। एकं सुरूपम् । एक दूरूपम् । एको दीर्घः । एको ह्रस्वः । एको वृत्तः । एक: व्यस्रः। एक: चतुरस्त्रः। एकः पृथुलः । एकः परिमण्डलः। एकः कृष्णः। एको नीलः । एको लोहितः। एको हारिद्रः। एकः शुक्लः । एकः सुगन्धः।
पुद्गल-पद ५५. शब्द एक है। ५६. रूप एक है। ५७. गंध" एक है। ५८. रस एक है। ५६. स्पर्श एक है। ६०. शुभ-शब्द" एक है। ६१. अशुभ-शब्द" एक है। ६२. शुभ-रूप एक है। ६३. अशुभ-रूप एक है। ६४. दीर्घ एक है। ६५. ह्रस्व एक है। ६६. वृत्त एक है। ६७. त्रिकोण" एक है। ६८. चतुष्कोण एक है। ६६. विस्तीर्ण एक है। ७०. परिमण्डल" एक है। ७१. कृष्ण" एक है। ७२. नील एक है। ७३. लोहित एक है। ७४. हारिद्र" एक है। ७५. शुक्ल एक है। ७६. शुभ-गंध एक है।
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ठाणं (स्थान)
स्थान १ : सूत्र ७७-१०८
७७. एगे दुन्भिगंधे। ७८. एगे तित्ते। ७६. एगे कडुए। ८०. एगे कसाए। ८१. एगे अंबिले। ८२. एगे महुरे। ८३. एगे कक्खडे । ८४. 'एगे मउए। ८५. एगे गरुए। ८६. एगे लहुए। ८७. एगे सोते। ८८. एगे उसिणे। ८६. एगे गिद्धे। ६०. एगे लुक्खे।
एको दुर्गन्धः। एक: तिक्तः । एक: कटुकः। एक: कषायः। एक अम्लः । एको मधुरः । एक: कर्कशः। एको मृदुकः। एको गुरुकः। एको लघुकः। एक: शीतः । एकः उष्णः । एक: स्निग्धः। एको रूक्षः ।
७७ .अशुभ-गंध एक है। ७८. तीता एक है। ७६. कडुआ" एक है। ८०. कसैला" एक है। ८१. आम्ल (खट्टा) एक है। ८२. मधुर एक है। ८३. कर्कश एक है। ८४. मृदु एक है। ८५. गुरु एक है। ८६. लघु एक है। ८७. शीत एक है। ८८. उष्ण एक है। ८९. स्निग्ध एक है। ६०. रूक्ष एक है।
अट्ठारसपाव-पदं ६१. एगे पाणातिवाए। ६२. “एगे मुसावाए। ६३. एगे अदिण्णादाणे। ६४. एगे मेहुणे । ६५. एगे परिग्गहे। ६६. एगे कोहे। ६७. 'एगे माणे। ६८. एगा माया । ६६. एगे लोभे। १००. एगे पेज्जे। १०१. एगे दोसे। १०२. 'एगे कलहे। १०३. एगे अब्भक्खाणे। १०४. एगे पेसुण्णे । १०५. एगे परपरिवाए। १०६. एगा अरतिरती। १०७. एगे मायामोसे। १०८. एगे मिच्छादसणसल्ले ।
अष्टादशपाप-पदम् एक: प्राणातिपातः। एको मृषावादः। एक अदत्तादानम् । एक मैथुनम्। एकः परिग्रहः । एकः क्रोधः । एक: मानः । एका माया। एको लोभः। एकः प्रेयान् । एको दोषः । एकः कलहः। एक अभ्याख्यानम्। एक पैशुन्यम्। एकः परपरिवादः। एका अरतिरतिः। एका मायामृषा। एक मिथ्यादर्शनशल्यम्।
अष्टादशपाप-पद ६१. प्राणातिपात एक है। ६२. मृषावाद एक है। ६३. अदत्तादान एक है। ६४. मैथुन एक है। ६५. परिग्रह एक है। ६६. क्रोध एक है। ६७. मान एक है। ६८. माया एक है। ६६. लोभ एक है। १००. प्रेम एक है। १०१. द्वेष एक है। १०२. कलह एक है। १०३. अभ्याख्यान एक है। १०४. पैशुन्य एक है। १०५. परपरिवाद एक है। १०६. अरति-रति एक है। १०७. मायामृषा" एक है। १०८. मिथ्यादर्शनशल्य एक है।
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ठाणं (स्थान)
स्थान १ : सूत्र १०६-१३८
अट्ठारसपाव-वेरमण-पदं १०६. एगे पाणाइवाय-वेरमणे। ११०. 'एगे मसावाय-वेरमणे। १११. एगे अदिण्णादाण-वेरमणे। ११२. एगे मेहुण-वेरमणे। ११३. एगे परिग्गह-वेरमणे । ११४. एगे कोह-विवेगे। ११५. 'एगे माण-विवेगे। ११६. एगे माया-विवेगे। ११७. एगे लोभ-विवेगे। ११८. एगे पेज्ज-विवेगे। ११६. एगे दोस-विवेगे। १२०. एगे कलह-विवेगे। १२१. एगे अब्भक्खाण-विवेगे। १२२. एगे पेसुण्ण-विवेगे। १२३. एगे परपरिवाय-विवेगे। १२४. एगे अरतिरति-विवेगे। १२५. एगे मायामोस-विवेगे। १२६. एगे मिच्छादसणसल्ल-विवेगे।
अष्टादशपाप-विरमण-पदम् एक प्राणातिपात-विरमणम् । एक मृषावाद-विरमणम् । एकं अदत्तादान-विरमणम् । एक मैथुन-विरमणम्। एकं परिग्रह-विरमणम् । एकः क्रोध-विवेकः । एको मान-विवेकः । एको माया-विवेकः । एको लोभ-विवेकः । एकः प्रेयो-विवेकः । एको दोष-विवेकः। एकः कलह-विवेकः । एकोऽभ्याख्यान-विवेकः । एकः पैशुन्य-विवेकः। एक: परपरिवाद-विवेकः । एकोऽरतिरति-विवेकः। एको मायामृषा-विवेकः । एको मिथ्यादर्शनशल्य-विवेकः ।
अष्टादशपाप-विरमण-पद १०६. प्राणातिपात-विरमण एक है। ११०. मृषावाद-विरमण एक है। १११. अदत्तादान-विरमण एक है। ११२. मैथुन-विरमण एक है। ११३. परिग्रह-विरमण एक है। ११४. क्रोध-विवेक एक है। ११५. मान-विवेक एक है। ११६. माया-विवेक एक है। ११७. लोभ-विवेक एक है। ११८. प्रेम-विवेक एक है। ११६. द्वेष-विवेक एक है। १२०. कलह-विवेक एक है। १२१. अभ्याख्यान-विवेक एक है। १२२. पैशुन्य-विवेक एक है। १२३. परपरिवाद-विवेक एक है। १२४. अरति-रति-विवेक एक है। १२५. मायामृषा-विवेक एक है। १२६. मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक एक है।
ओसप्पिणी-उस्सप्पिणी-पदं १२७. एगा ओसप्पिणी। १२८. एगा सुसम-सुसमा। १२६. 'एगा सुसमा। . १३०. एगा सुसम-दूसमा।
१३१. एगा दूसम-सुसमा। १३२. एगा दूसमा । १३३. एगा दूसम-दूसमा। १३४. एगा उस्स प्पिणी। १३५. एगा दुस्सम-दुस्समा। १३६. 'एगा दुस्समा। १३७. एगा दुस्सम-सुसमा। १३८. एगा सुसम-दुस्समा।
अवपिणी-उत्सर्पिणी-पदम् एका अवसप्पिणी। एका सुषम-सुषमा। एका सुषमा। एका सुषम-दुष्षमा। एका दुष्षम-सुषमा। एका दुष्षमा। एका दुष्षम-दुष्षमा। एका उत्सर्पिणी। एका दुष्षम-दुष्षमा। एका दुष्षमा। एका दुष्षम-सुषमा। एका सुषम-दुष्षमा।
अवसर्पिणी-उत्सपिणी-पद १२७. अवसर्पिणी एक है। १२८. सुषमसुषमा एक है। १२६. सुषमा एक है। १३०. सुषमदुषमा एक है। १३१. दुषमसुषमा एक है। १३२. दुषमा एक है। १३३. दुषमदुषमा एक है। १३४. उत्सपिणी एक है। १३५. दुषमदुषमा एक है। १३६. दुषमा एक है। १३७. दुषमासुषमा एक है। १३८. सुषमदुषमा एक है।
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ठाणं (स्थान)
१३६. एगा सुसमा । १४०. एगा सुसम सुसमा ।
चवीस दंडग-पदं
१४१. एगा रइयाणं वग्गणा ।
१४२. एगा असुरकुमाराणं वग्गणा । १४३. "एगा नागकुमाराणं जग्गणा । १४४. एगा सुवणकुमाराणं वग्गणा । १४५. एगा विज्जुकुमाराणं वग्गणा : १४६. एगा अग्गिकुमाराणं वग्गणा । १४७. एगा दीवकुमाराणं वग्गणा । १४८. एगा उदहिकुमाराणं वग्गणा । १४६. एगा दिसाकुमाराणं वग्गणा । १५०. एगा वायुकुमाराणं वग्गणा । १५१. एगा थणियकुमाराणं वग्गणा । १५२. एगा पुढविकाइयाणं वग्गणा । १५३. एगा आउकाइयाणं वग्गणा । १५४. एगा उकाइयाणं वग्गणा । १५५. एगा वाउकाइयाणं वग्गणा । १५६. एगा artasarsari
वग्गणा ।
१५७. एगा बेइंदियाणं वग्गणा । १५८. एगा तेइंदियाणं वग्गणा । १५६. एगा चउरदियाणं वग्गणा । १६०. एगा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं
वग्गणा ।
१६१. एगा मणुस्साणं वग्गणा । १६२. एगा वाणमंतराणं वग्गणा । १६३. एगा जोइ सियाणं वग्गणा । १६४. एगा वेमाणियाणं वग्गणा ।
भव- अभव- सिद्धिय-पदं १६५. एगा भवसिद्धियाणं वग्गणा । १६६. एगा अभवसिद्धियाणं वग्गणा ।
एका सुपमा ।
एका सुषम-सुषमा ।
१०
चतुविशतिदण्डक-पदम्
एका नैरयिकाणां वर्गणा । एका असुरकुमाराणां वर्गणा । एका नागकुमाराणां वर्गणा । एका सुपर्णकुमाराणां वर्गणा । एका विद्युत्कुमाराणां वर्गणा । एका अग्निकुमाराणां वर्गणा । एका द्वीपकुमाराणां वर्गणा । एका उदधिकुमाराणां वर्गणा । एका दिक्कुमाराणां वर्गणा । एका वायुकुमाराणां वर्गणा । एका स्तनितकुमाराणां वर्गणा । एका पृथिवीकायिकानां वर्गणा । एका अपकायिकानां वर्गणा । एका तेजस्कायिकानां वर्गणा । एका वायुकायिकानां वर्गणा । एका वनस्पतिकायिकानां वर्गणा ।
एका द्वीन्द्रियाणां वर्गणा । एका त्रीन्द्रियाणां वर्गणा । एका चतुरिन्द्रियाणां वर्गणा । एका पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां वर्गणा ।
एका मनुष्याणां वर्गणा । एका वानमन्तराणां वर्गणा । एका ज्योतिका वर्गणा 1 एका वैमानिकानां वर्गणा ।
भव अभव-सिद्धिक-पदम् एका भवसिद्धिकानां वर्गणा । एका अभवसिद्धिकानां वर्गणा ।
स्थान १ : सूत्र १३६-१६६
१३६. सुषमा एक है ।
१४०. सुषमसुषमा एक है ।
चतुविशतिदण्डक पद
१४१. नारकीय जीवों की वर्गणा एक है।" १४२. असुरकुमार देवों की वर्गणा एक है। १४३. नागकुमार देवों की वर्गणा एक है। १४४. सुपर्णकुमार देवों की वर्गणा एक है। १४५. विद्युत्कुमार देवों की वर्गणा एक है। १४६. अग्निकुमार देवों की वर्गणा एक है। १४७. द्वीपकुमार देवों की वर्गणा एक है। १४८. उदधिकुमार देवों की वर्गणा एक है। १४६. दिशाकुमार देवों की वर्गणा एक है। १५०. वायुकुमार देवों की वर्गणा एक है। १५१. स्तनितकुमार देवों की वर्गणा एक है। १५२. पृथ्वीका यिक जीवों की वर्गणा एक है। १५३. अकायिक जीवों की वर्गणा एक है। १५४. तेजस्कायिक जीवों की वर्गणा एक है। १५५. वायुकायिक जीवों की वर्गणा एक है। १५६. वनस्पतिकायिक जीवों की वर्गणा एक है ।
१५७. द्वीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है। १५८. नीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है। १५६. चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है। १६०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की
वर्गणा एक है।
१६१. मनुष्यों की वर्गणा एक है।
१६२. वानमंतर देवों की वर्गणा एक है। १६३. ज्योतिष्क देवों की वर्गणा एक है। १६४. वैमानिक देवों की वर्गणा एक है।
भव भव सिद्धिक पद १६५. भवसिद्धिकर जीवों की वर्गणा एक है। १६६. अभवसिद्धिक" जीवों की वर्गणा एक है।
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ठाणं (स्थान)
१६७. एगा भवसिद्धियाणं णेरइयाणं
वग्गणा ।
१६८. एगा अभवसिद्धियाणं गेरइयाणं
वग्गणा ।
१६६. एवं जाव एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा । एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं
वग्गणा ।
दिट्टि - पदं
१७०. एगा वग्गणा ।
१७१. एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा ।
१७२. एगा
सम्मा मिच्छद्दिट्ठियाणं
१७७. एगा
समद्दिट्टिया
मिच्छद्दिद्वियाणं
पुढविकाइयाणं वग्गणा ।
१७८. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं ।
११
एका भवसिद्धिकानां
वर्गणा
1
एका अभवसिद्धिकानां वर्गणा ।
स्थान १ : सूत्र १६७-१८०
नैरयिकाणां १६७. भवसिद्धिक नारकीय जीवों की वर्गणा एक है।
नैरयिकाणां १६८. अभवसिद्धिक नारकीय जीवों की वर्गणा एक है।
१६६. इसी प्रकार भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक वैमानिक तक के सभी दण्डकों की वर्गणा एक है।
एवं यावत् एका भवसिद्धिकानां वैमानिकानां वर्गणा ।
एका अभवसिद्धिकानां वैमानिकानां वर्गणा ।
वग्गणा ।
है ।
१७३. एगा सम्मद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं एका सम्यग्दृष्टिकानां नैरयिकाणां । १७३. सम्यकदृष्टि नारकीय जीवों की वर्गणा
वरगणा ।
वर्गणा ।
एक है।
१७४. एगा मिच्छद्दिट्टिया णं णेरइयाणं एका मिथ्यादृष्टिकानां नैरयिकाणां १७४ मिथ्यादृष्टि नारकीय जीवों की वर्गणा वर्गणा ।
वग्गणा । १७५. एगा
सम्मामिच्छद्दि द्वियाणं एका रइयाणं वग्गणा । १७६. एवं जाव थणियकुमाराणं
एक है। १७५. सम्यक्मिथ्यादृष्टि नारकीय जीवों की वर्गणा एक है।
१७६. इसी प्रकार असुरकुमार से स्तनितकुमार
वग्गणा ।
तक के सम्यकदृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यक मिथ्यादृष्टि देवों की वर्गणा एकएक है ।
मिथ्यादृष्टिकानां पृथिवी १७७. पृथ्वीकायिक मिथ्यादृष्टि जीवों की
दृष्टि-पदम्
एका सम्यग्दृष्टिकानां वर्गणा ।
एका मिध्यादृष्टिकानां वर्गणा । २७१. मिथ्यादृष्टि जीवों की वर्गणा एक है। एका सम्यग्मिथ्यादृष्टिकानां दर्गणा । १७२. सम्यक्मिथ्यादृष्टि जीवों की वर्गणा एक
सम्यग्मिथ्यादृष्टिकानां
नरकाणां वर्गणा ।
एवं यावत् स्तनितकुमाराणां वर्गणा ।
दृष्टि-पद
१७०. सम्यकदृष्टि जीवों की वर्गणा एक है।
एका कायिकानां वर्गणा ।
एवं यावत् वनस्पतिकायिकानाम् ।
एक है।
१७८. इसी प्रकार अकायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीवों की वर्गणा एक-एक है।
१७६. एगा सम्मद्दिट्टियाणं बेइंदियाणं एका सम्यग्दृष्टिकानां द्वीन्द्रियाणां १७६. सम्यकदृष्टि द्वीन्द्रिय जीवों की वर्गणा
वर्गणा ।
एक है।
वग्गणा ।
१८०. एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं बेइंदियाणं एका मिथ्यादृष्टिकानां द्वीन्द्रियाणां १५० मिध्यादृष्टि हीन्द्रिय जीवों की वर्गणा
वर्गणा ।
एक है।
वग्गणा ।
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ठाणं (स्थान)
१२
स्थान १ : सूत्र १८१-१९३
१८१. "एगा सम्मद्दिट्ठियाणं तेइंदियाणं एका सम्यग्दृष्टिकानां त्रीन्द्रियाणां १८१. सम्यकदृष्टि त्रीन्द्रिय जीवो की वर्गणा
वर्गणा ।
एक है।
वग्गणा
१८२. एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं तेइंदियाणं एका मिथ्यादृष्टिकानां त्रीन्द्रियाणां १८२. मिथ्यादृष्टि तीन्द्रिय जीवों की वर्गणा
वर्गणा ।
वग्गणा ।
सम्मद्दिट्ठियाणं
चउरिदियाणं वग्गणा । १८४. एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं चउर दियाणं वग्गणा ।
१८५. सेसा जहा णेरइया जाव
एगा
सम्मा मिच्छद्दिट्ठयाणं वेमाणियाणं वग्गणा ।
१८३. एगा
कण्ह - सुक्क पक्खिय-पदं १८६. एगा कण्हपक्खियाणं वग्गणा ।
कृष्ण- शुक्ल - पाक्षिक पद
१८६. कृष्ण - पाक्षिक" जीवों की वर्गणा एक है ।
एका शुक्लपाक्षिकाणां वर्गणा ।
१८७. शुवल- पाक्षिक" जीवों की वर्गणा एक है ।
१८८. एगा कण्हपक्खियाणं णेरइयाणं एका कृष्णपाक्षिकाणां नैरयिकाणां १८८. कृष्ण- पाक्षिक नारकीय जीवों की वर्गणा
वग्गणा ।
वर्गणा ।
एक है।
१८६. एगा सुक्कपक्खियाणं णेरइयाणं एका शुक्लपाक्षिकाणां नैरयिकाणां १८६. शुक्ल पाक्षिक नारकीय जीवों की वर्गणा
वर्गणा ।
एक है ।
एवम् -- चतुर्विंशतिदण्डकः भणितव्यः । १९०. इसी प्रकार शेष सभी कृष्ण-पाक्षिक और शुक्ल - पाक्षिक दण्डकों की वर्गणा एक
एक है।
१८७ एगा सुक्कपक्खियाणं वग्गणा ।
वग्गणा ।
१०. एवं - चउवीसदंडो भाणियव्वो ।
लेसा - पदं
१६१. एगा कण्हलेसाणं वग्गणा ।
१६२. एगा णीललेसाणं वग्गणा ।
१६३. एगा काउलेसाणं वग्गणा ।
एक है।
एका सम्यग्दृष्टिकानां चतुरिन्द्रियाणां १८३. सम्यकदृष्टि चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गणा वर्गणा । एक है।
एका मिथ्यादृष्टिकानां चतुरिन्द्रियाणां १८४. मिथ्यादृष्टि चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गा वर्गणा ।
एक है।
शेषा यथा नैरयिका यावत् एका सम्यग्मिथ्यादृष्टिकानां वैमानिकानां वर्गणा ।
१८५. सम्यकदृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यक्मिथ्यादृष्टि शेष दण्डकों (पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों ) की वर्गणा एक-एक है।
कृष्ण- शुक्ल - पाक्षिक-पदम् एका कृष्णपाक्षिकाणां वर्गणा ।
लेश्या-पदम्
एका कृष्णलेश्यानां वर्गणा ।
एका नीललेश्यानां वर्गणा ।
एका कापोतले श्यानां वर्गणा ।
लेश्या - पद
१९१. कृष्णलेश्या" वाले जीवों की वर्गणा एक है।
१६२. नीललेश्या" वाले जीवों की वर्गणा एक है।
१६३. कापोतलेश्या" वाले जीवों की वर्गणा एक है।
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ठाणं (स्थान)
१३
स्थान १ : सूत्र १९४-२०४
१६४. एगा तेउलेसाणं वग्गणा।
एका तेजोलेश्यानां वर्गणा।
१६४. तेजोलेश्या वाले जीवों की वर्गणा
एक है। १६५. पद्मलेश्या वाले जीवों की वर्गणा
१६५. एगा पम्ह[म्म ? ]लेसाणं एका पद्मलेश्यानां वर्गणा।
वग्गणा। १६६. एगा सुक्कलेसाणं वग्गणा। एका शुक्ललेश्यानां वर्गणा।
१६६. शुक्ललेश्या" वाले जीवों की वर्गणा
१६७. एगा कण्हलेसाणं णेरइयाणं एका कृष्णलेश्यानां नैरयिकाणां १६७. कृष्णलेश्या वाले नारकीय जीवों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। १९८. 'एगा णीललेसाणं णेरइयाणं एका नीललेश्यानां नैरयिकाणां वर्गणा। १९८. नीललेश्या वाले नारकीय जीवों की वरगणा।
वर्गणा एक है। १६६. एगा काउलेसाणं णेरइयाणं एका कापोतलेश्यानां नैरयिकाणां १६९. कापोतलेश्या वाले नारकीय जीवों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। २००. एवं-जस्स जइ लेसाओ- एवम-यस्य यति लेश्या: - २००. इसी प्रकार जिनमें जितनी लेश्याएं होती
भवणवइ-वाणमंतर-पुढवि-आउ- भवनपति-वानमन्तर-पृथिव्यब्-वनस्पति- हैं (उनके अनुपात से उनकी एक-एक वणस्सइकाइयाणं च चत्तारि कायिकानां च चतसः लेश्याः, तेजोवायु- वर्गणा है)। लेसाओ, तेउ-वाउ-बेइंदिय- द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां तिस: भवनपति, वानमंतर, पृथ्वी, जल और तेइंदिय-चरिदियाणं तिण्णि लेश्याः, पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकानां वनस्पतिकायिक जीवों में प्रथम चार लेसाओ, पंचिदिय-तिरिक्ख- मनुष्याणां षडलेश्याः, ज्योतिष्काणां लेश्याएं होती हैं। अग्नि, वायु, द्वीन्द्रिय, जोणियाणं मणुस्साणं छल्लेसाओ, एका तेजोलेश्याः, वैमानिकानां तिसः वीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में प्रथम जोतिसयाणं एगा तेउलेसा, उपरितनलेश्याः ।
तीन लेश्याएं होती हैं । पञ्चेन्द्रियवेमाणियाणं तिण्णि
तिर्यग्योनिज और मनुष्यों के छहों उवरिमलेसाओ।
लेश्याएं होती हैं। ज्योतिष्क देवों के एक तेजोलेश्या होती है। वैमानिक देवों के
अन्तिम तीन लेश्याएं होती हैं। २०१. एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं एका कृष्णलेश्यानां भवसिद्धिकानां २०१. कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक जीवों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। २०२. एगा कण्हलेसाणं अभवसिद्धियाणं एका कृष्णलेश्यानां अभवसिद्धिकानां २०२. कृष्णलेश्या वाले अभवसिद्धिक जीवों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। २०३. एवं-छसुवि लेसासु दो दो पयाणि एवम्-षट्ष्वपि लेश्यासु द्वौ द्वौ पदौ २०३. इसी प्रकार छहों (कृष्ण, नील, कापोत, भाणियवाणि। भणितव्यौ।
तेजः, पद्म और शुक्ल) लेश्या वाले भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीवों की
वर्गणा एक-एक है। २०४. एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं एका कृष्णलेश्यानां भवसिद्धिकानां २०४. कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक नारकीय रइयाणं वग्गणा। नैरयिकाणां वर्गणा।
जीवों की वर्गणा एक है।
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१४
ठाणं (स्थान)
स्थान १ : सूत्र २०५-२२१ २०५. एगा कण्हलेसाणं अभवसिद्धियाणं एका कृष्णलेश्यानां अभवसिद्धिकानां २०५. कृष्णलेश्या वाले अभवसिद्धिक नारकीय परइयाणं वग्गणा। नैरयिकाणां वर्गणा।
जीवों की वर्गणा एक है। २०६. एवं-जस्स जति लेसाओ तस्स एवम्-यस्य यति लेश्याः तस्य तावत्यः २०६. इसी प्रकार जिनके जितनी लेश्याएं होती
ततिथाओ भाणियवाओ जाव भणितव्याः यावत् वैमानिकानाम् । हैं, उनके अनुपात से भवसिद्धिक और वेमाणियाणं।
अभवसिद्धिक वैमानिक पर्यन्त सभी
दण्डकों की वर्गणा एक-एक है। २०७. एगा कण्हलेसाणं सम्मदिट्ठियाणं एका कृष्णलेश्यानां सम्यग्दृष्टिकानां २०७. कृष्णलेश्या वाले सम्यक्दृष्टिक जीवों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। २०८. एगा कण्हलेसाणं मिच्छद्दिट्ठियाणं एका कृष्णलेश्यानां मिथ्यादृष्टिकानां २०८. कृष्णलेश्या वाले मिथ्यादृष्टिक जीवों की वग्गणा। वर्गणा।
__ वर्गणा एक है। २०६. एगा कण्हलेसाणं सम्मामिच्छ- एका कृष्णलेश्यानां सम्यगमिथ्या- २०६. कृष्णलेश्या वाले सम्यमिथ्यादृष्टिक द्दिट्ठियाणं वग्गणा। दप्टिकानां वर्गणा।
जीवों की वर्गणा एक है। २१०. एवं-छसुवि लेसासु जाव एवम्-षट्प्वपि लेश्यासु यावत् २१०. इसी प्रकार कृष्ण आदि छहों लेश्या वाले वेमाणियाणं जेसि जइ दिट्ठीओ। वैमानिकानां यस्मिन् यति दृष्टयः। वैमानिक पर्यन्त सभी जीवों में, जिन
जीवों में जितनी दृष्टियां होती हैं, उनके
अनुपात से उनकी एक-एक वर्गणा है। २११. एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाणं एका कृष्णलेश्यानां कृष्णपाक्षिकाणां २११. कृष्णलेश्या वाले कृष्ण-पाक्षिक जीवों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। २१२. एगा कण्हलेसाणं सुक्कपविखयाणं एका कृष्णलेश्यानां शुक्लपाक्षिकाणां २१२. कृष्णलेश्या वाले शुक्ल-पाक्षिक जीवों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। २१३. जाद वेमाणियाणं जस्स जति यावत् वैमानिकानां यस्य यति लेश्याः। २१३. इसी प्रकार जिनमें जितनी लेश्याएं होती लेसाओ।
हैं, उनके अनुपात से कृष्ण-पाक्षिक और एए अष्ट्र, चउबीसदंडया। एते अष्ट, चतुर्विशतिदण्डकाः।
शुक्ल-पाक्षिक जीवों की वर्गणा एक-एक है। ये ऊपर बताए हुए चौबीस दण्डकों की वर्गणा के आठ प्रकरण हैं।
सिद्ध-पदं
सिद्ध-पदम् २१४. एगा तित्थसिद्धाणं वग्गणा। एका तीर्थसिद्धानां वर्गणा। २१५. एगा अतित्थसिद्धाणं वग्गणा। एका अतीर्थसिद्धानां वर्गणा। २१६. 'एगा तित्थगरसिद्धाणं वग्गणा। एका तीर्थकरसिद्धानां वर्गणा। २१७. एगा अतित्थगरसिद्धाणं वगणा। एका अतीर्थकरसिद्धानां वर्गणा। २१८. एगा सयंबुद्ध सिद्धाणं वागणा। एका स्वयंबुद्धसिद्धानां वर्गणा। २१६. एगा पत्तेयबुद्ध सिद्धाणं वग्गणा। एका प्रत्येकबुद्धसिद्धानां वर्गणा। २२०. एगा बृद्धबोहियसिद्धाणं वग्गणा। एका बुद्धबोधितसिद्धानां वर्गणा। २२१. एगा इत्थीलिंगसिद्धाणं वग्गणा। एका स्त्रीलिङ्गसिद्धानां वर्गणा।
सिद्ध-पद २१४. तीर्थ-सिद्धो" की वर्गणा एक है। २१५. अतीथ-सिद्धो की वर्गणा एक है। २१६. तीर्थङ्कर-सिद्धों की वर्गणा एक है। २१७. अतीर्थङ्कर-सिद्धो की वर्गणा एक है। २१८. स्वयंबुद्ध-सिद्धों की वर्गणा एक है। २१६. प्रत्येकबुद्ध-सिद्धों की वर्गणा एक है। २२०. बुद्धबोधित-सिद्धो" की वर्गणा एक है। २२१. स्त्रीलिंग-सिद्धो की वर्गणा एक है।
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स्थान १ : सूत्र २२२-२३४ २२२. पुरुषलिंग-सिद्धों की वर्गणा एक है। २२३. नपुंसकलिंग-सिद्धों की वर्गणा एक है।
ठाणं (स्थान)
१५ २२२. एगा पुरिलिगसिद्धाणं वग्गणा। एका पुरुषलिङ्गसिद्धानां वर्गणा। २२३. एगा गपुंसकलिंगसिद्धाणं एका नपुंसकलिङ्गसिद्धानां वर्गणा।
वग्गणा। २२४. एगा सलिंगसिद्धाणं वग्गणा। एका स्वलिङ्गसिद्धानां वर्गणा। २२५. एगा अण्णलिंगसिद्धाणं वग्गणा। एका अन्यलिङ्गसिद्धानां वर्गणा। २२६. एगा गिहिलिंगसिद्धाणं वग्गणा एका गृहिलिङ्गसिद्धानां वर्गणा। २२७. एगा एक्क सिद्धाणं वग्गणा। एका एकसिद्धानां वर्गणा। २२८. एगा अणिक्कसिद्धाणं वग्गणा। २२६. एगा अपढमसमयसिद्धाणं वग्गणा, एका अप्रथमसमयसिद्धानां वर्गणा,
एवं-जाव अणंतसमयसिद्धाणं एवम्-यावत् अनन्तसमयसिद्धानां वग्गणा।
वर्गणा।
२२४. स्वलिंग-सिद्धों की वर्गणा एक है। २२५. अन्यलिंग-सिद्धों की वर्गणा एक है। २२६. गृहिलिंग-सिद्धों की वर्गणा एक है। २२७ एक-सिद्धों१२ की वर्गणा एक है। २२८. अनेक-सिद्धो की वर्गणा एक है। २२६. दूसरे समय के सिद्धों की वर्गणा एक है।
इसी प्रकार तीसरे, चौथे यावत् अनन्त समय के सिद्धों की वर्गणा एक-एक है।
पोग्गल-पदं पुद्गल-पदम्
पुद्गल-पद २३०. एगा परमाणुपोग्गलाणं वग्गणा, एका परमाणुपुद्गलानां वर्गणा, २३०. परभाणु-पुद्गलों की वर्गणा एक है। इसी
एवं-जाव एगा अणंतपएसियाणं एवम्-यावत् एका अनन्तप्रदेशिकानां प्रकार द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् अनन्तखंधाणं वग्गणा। स्कन्धानां वर्गणा।
प्रदेशी स्कंधों की वर्गणा एक-एक है। २३१. एगा एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं एका एकप्रदेशावगाढानां पुद्गलानां २३१. एक प्रदेशावगाढ पुद्गलों की वर्गणा एक
वग्गणा जाव एगा असंखज्जपए- वर्गणा यावत् एका असंखेयप्रदेशाव- है। इसी प्रकार दो, तीन यावत् असंख्यसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा। गाढानां पुदगलानां वर्गणा।
प्रदेशावगाढ पुद्गलों की वर्गणा एक
एक है। २३२. एगा एगसमयठितियाणं एका एकसमयस्थितिकानां पुद्गलानां २३२. एक समय की स्थिति वाले पुद्गलों की
पोग्गलाणं वग्गणा जाव वर्गणा यावत् एका असंखेयसमय- वर्गणा एक है। इसी प्रकार दो, तीन एगा असंखेज्जसमय ठितियाणं स्थितिकानां पुद्गलानां वर्गणा। यावत् असंख्य-समय की स्थिति वाले पोग्गलाणं वग्गणा।
पुद्गलों की वर्गणा एक-एक है। २३३. एगा एगगुणकालगाणं पोग्गलाणं एका एकगुणकालकानां पुद्गलानां २३३. एक गुण काले पुद्गलों की वर्गणा एक
वग्गणा जाव एगा वर्गणा यावत् एका असंखय- है। इसी प्रकार दो या तीन यावत् असंखेज्जगुणकालगाणं पोग्गलाणं गुणकालकानां पुद्गलानां वर्गणा, असंख्य गुण काले पुद्गलों की वर्गणा वग्गणा,
एका अनन्तगुणकालकानां पुद्गलानां एक-एक है। अणंतगुणकालगाणं वर्गणा।
अनन्त गुण काले पुद्गलों की वर्गणा पोग्गलाणं वागणा।
एक है। २३४. एवं-वण्णा गंधा रसा फासा एवम्-वर्णा गन्धा रसाः स्पर्शा २३४. इसी प्रकार सभी वर्ण, गन्ध, रस और
भाणियव्वा जाव एगा अणंतगुण- भणितव्याः यावत् एका अनन्तगुण- स्पर्शो के एक गुण वाले यावत् अनन्त लुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणा। रूक्षाणां पुद्गलानां वर्गणा।
गुण रूक्ष स्पर्श वाले पुद्गलों की वर्गणा एक-एक है।
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ठाणं (स्थान)
स्थान १ : सूत्र २३५-२४८ २३५. एगा जहाणपएसियाणं खंधाणं एका जघन्यप्रदेशिकानां स्कन्धानां २३५. जघन्य-प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा एक वगणा।
वर्गणा। २३६. एगा उक्कस्सपएसियाणं खंधाणं एका उत्कर्षप्रदेशिकानां स्कन्धानां २३६. उत्कृष्ट-प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा एक वग्गणा।
वर्गणा। २३७. एगा अजहण्णुक्कस्सपएसियाणं एका अजघन्योत्कर्षप्रदेशिकानां स्कंधानां २३७. मध्यम (न जघन्य, न उत्कृष्ट) प्रदेशी खंधाणं वग्गणा। वर्गणा।
स्कन्धों की वर्गणा एक है। २३८. 'एगा जहण्णोगाहणगाणं खंधाणं एका जघन्यावगाहनकानां स्कन्धानां २३८. जघन्य अवगाहना वाले स्कन्धों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। २३९. एगा उक्कोसोगाहणगाणं खंधाणं एका उत्कर्षावगाहनकानां स्कन्धानां २३६. उत्कृष्ट अवगाहना वाले स्कन्धों की वग्गणा। वर्गणा।
वर्गणा एक है। २४०. एगा अजहण्णुक्कोसोगाहणगाणं एका अजघन्योत्कर्षावगाहनकानां २४०. मध्यम (न जघन्य, न उत्कृष्ट) अवगाहना खंधाणं वग्गणा। स्कन्धानां वर्गणा।
वाले स्कन्धों की वर्गणा एक है। २४१. एगा जहण्णठितियाणं खंधाणं एका जघन्यस्थितिकानां स्कन्धानां २४१. जघन्य स्थिति वाले स्कन्धों की वर्गणा वग्गणा।
वर्गणा। २४२. एगा उक्कस्सठितियाणं खंधाणं एका उत्कर्ष स्थितिकानां स्कन्धानां २४२. उत्कृष्ट स्थिति वाले स्कन्धों की वर्गणा वग्गणा।
वर्गणा। २४३. एगा अजहण्णुक्कोसठितियाणं एका अजघन्योत्कर्षस्थितिकानां २४३. मध्यम (न जघन्य, न उत्कृष्ट) स्थिति खंधाणं वग्गणा। स्कन्धानां वर्गणा।
वाले स्कन्धों की वर्गणा एक है। २४४. एगा जहण्णगुणकालगाणं खंधाणं एका जघन्यगणकालकानां स्कन्धानां २४४. जघन्य गुण काले स्कन्धों की वर्गणा वग्गणा।
वर्गणा। २४५. एगा उपकस्सगुणकालगाणं
लकानां स्कन्धानां २४५. उत्कृष्ट गुण काले स्कन्धों की वर्गणा खंधाणं वग्गणा। वर्गणा।
एक है। २४६. एगा अजहण्णुक्कस्सगुणकालगाणं एका अजघन्योत्कर्षगुणकालकानां २४६. मध्यम (न जघन्य, न उत्कृष्ट) गुण काले दंधाणं वग्गणा। स्कन्धानां वर्गणा।
स्कन्धों की वर्गणा एक है। २४७. एवं-वण्ण-गंध-रस-फासाणं एवम-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शानां वर्गणा २४७. इसी प्रकार शेष सभी वर्ण, गन्ध, रस
वग्गणा भाणियवा जाव भणितव्याः यावत् एका अजघन्योत्कर्ष- और स्पर्शों के जघन्यगुण,उत्कृष्टगुण और एगा अजहण्णुक्कस्सगुणलुक्खाणं गुणरूक्षाणां पुद्गलानां (स्कन्धानां ?) मध्यम (न जघन्य, न उत्कृष्ट) गुण वाले पोग्गलाणं (खंधाणं?) वग्गणा। वर्गणा।
पुद्गलों(स्कन्धों?)की वर्गणाएक-एक है।
वग
जंबुद्दोव-पदं जम्बूद्वीप-पदम्
जम्बूद्वीप-पद २४८. एगे जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं एको जंबूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां २४८. सब द्वीपों और समुद्रों में जम्बूद्वीप नाम
'सव्वन्भंतराए सव्वखुड्डाए, वट्टे सर्वाभ्यन्तरकः सर्वक्षुद्रकः, वृत्तः का एक द्वीप है। वह सब द्वीपसमुद्रों के तेल्लापूयसंठाणसंठिए, बट्टे तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, वृत्त: रथ- मध्य में है। वह सबसे छोटा है। वह रहचक्कवालसंठाणसंठिए, वट्टे चक्रवालसंस्थानसंस्थितः, वृत्तः पुष्कर- तेल के पूडे के संस्थान जैसा, रथ के
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ठाणं (स्थान)
पुक्खरकण्णियासंठाणसं ठिए, वट्टे पडिपुण्णचंद संठाणसंठिए,
एगं
जो सय सहसं
विक्खभेणं,
आयाम
कणिकासंस्थानसंस्थितः, वृत्तः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः, एकं योजनशतसहस्र आयामविष्कम्भेण त्रीणि तिष्णि योजनशतसहस्राणि षोडषसहस्राणि द्वे जोयणसहस्सा इं सोलस- च सप्तविंशति योजनशतं त्रयश्च क्रोशाः सहस्साइं दोणि य सत्तावीसे अष्टाविशति च धनुः शतं त्रयोदशांगुलानि जोयणसए तिष्णि य कोसे अर्धाङ्गुलं च किचिद्विशेषाधिकः अट्ठावीसं च धणुस परिक्षेपेण । तेरसगुलाई अर्द्धगुलगं च fafa विसेसाहिए पक्खिवेणं ।
महावीर - निव्वाण-पदं २४६. एगे समणे भगवं महावीरे इमीसे ओप्पणी चवीसा तित्थगराणं चरमतित्थयरे सिद्धे बुद्धे ते अंतगडे परिणिव्वुर्डे सव्वदुक्खपणे ।
देव-पदं
२५०. अणुत्तरोववाइया णं देवा
एवं रण उड़ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ।
णक्खत्त-पदं
२५१. अद्दाणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते । २५२. चित्ताणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते । २५३. सातिणक्खत्तं एगतारे पण्णत्ते ।
१७
पण्णत्ता ।
२५५. एगसमयठितिया
अनंता पण्णत्ता | २५६. एगगुणकालगा पोग्गला अनंता पण्णत्ता जाव एगगुणलुक्खा पोग्गला अनंता पण्णत्ता ।
महावीर - निर्वाण-पदम्
एकः श्रमणः भगवान् महावीरः अस्यां अवसर्पिण्यां चतुर्विंशते स्तीर्थकराणां चरमतीर्थकरः सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्व दुःखप्रक्षीणः ।
नक्षत्र-पदम्
आर्द्रा नक्षत्रं एकतारं प्रज्ञप्तम् । चित्रानक्षत्रं एकतारं प्रज्ञप्तम् । स्वातिनक्षत्रं एकतारं प्रज्ञप्तम् ।
२४६.
स्थान १ : सूत्र २४-२५६
चक्के के संस्थान जैसा, कमल की कणिका के संस्थान जैसा तथा प्रतिपूर्ण चन्द्र के संस्थान जैसा वृत्त है। वह एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है । उसकी परिधि तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, अट्ठाईस धनुष, तेरह अंगुल और अर्द्धाङ गुल से कुछ अधिक है ।
देव-पदम्
देव-पद
अणुत्तरोपपातिका देवा एक रत्नि ऊर्ध्वं २५० अनुत्तरोपपातिक देवों की ऊंचाई एक उच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः । हाथ की होती है।
महावीर - निर्वाण-पद
इस अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थकरों में चरम तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर अकेले ही सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिवृत और सब दुःखों से रहित हुए।
पोग्गल - पदं
पुद्गल-पदम्
पुद्गल - पद
२५४. एगपदेसोगाढा पोग्गला अनंता एकप्रदेशावगाढा : पुद्गला अनन्ता: २५४. एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल अनन्त हैं ।
नक्षत्र - पद
२५१. आर्द्रा नक्षत्र का तारा एक है। २५२. चित्रा नक्षत्र का तारा एक है। २५३. स्वाति नक्षत्र का तारा एक है।
प्रज्ञप्ताः ।
पोग्गला एकसमयस्थितिका: पुद्गला अनन्ता: २५५. एक समय स्थिति वाले पुद्गल अनन्त हैं ।
प्रज्ञप्ताः । एकगुणकालकाः पुद्गला अनन्ता: प्रज्ञप्ताः यावत् एकगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ताः प्रज्ञप्ताः ।
२५६. एक गुण काले पुद्गल अनन्त हैं । इसी प्रक. र शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शोके एक गुण वाले पुद्गल अनन्त अनन्त हैं।
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टिप्पणियाँ स्थान-१
१-आत्मा (सू० २): जैन पद्धति के अनुसार आगम-सूत्र का प्रतिपादन और उसकी व्याख्या नय दृष्टि के आधार पर की जाती है। प्रस्तुत सूत्र संग्रहनय की दृष्टि से लिखा गया है। जैन तत्त्ववाद के अनुसार आत्मा अनंत हैं। संग्रहनय अनंत का एकत्व में समाहार करता है। इसीलिए अनंत आत्माओं का एक आत्मा के रूप में प्रतिपादन किया गया है। अनुयोगद्वार (सू० ६०५) में तीन प्रकार की वक्तव्यता बतलाई गई है
१. स्वस मयवक्तव्यता-जैन दृष्टिकोण का प्रतिपादन। २. परसमयवक्तव्यता-जैनेतर दृष्टिकोण का प्रतिपादन।
३. स्वसमय-परसमयवक्तव्यता-जैन और जैनेतर दोनों दृष्टिकोणों का एक साथ प्रतिपादन। नंदी सूवगत स्थानांग के विवरण में बतलाया गया है। स्थानांग में स्वसमय की स्थापना, परसमय की स्थापना और स्वसमय-परसमय की स्थापना की जाती है। इसके आधार पर जाना जा सकता है कि स्थानांग में तीनों प्रकार की वक्तव्यताएं हैं।
___'एगे आया' यह सूत्र उभयवक्तव्यता का है। अनुयोगद्वारचूणि में इस सूत्र की जैन और वेदान्त दोनों दृष्टिकोणों से व्याख्या की गई है। जैन-दृष्टि के अनुसार उपयोग (चेतना का व्यापार) सब आत्मा का सदृश लक्षण है, अतः उपयोग (चेतना का व्यापार) की दृष्टि से आत्मा एक है । वेदान्त-दृष्टि के अनुसार आत्मा या ब्रह्म एक है।
इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में स्वसमय और परसमय दोनों स्थापित हैं।
जैन आगमों में आत्मा की एकता और अनेकता दोनों प्रतिपादित हैं। भगवान् महावीर की दृष्टि में उपनिषद् का एकात्मवाद और सांख्य का अनेकात्मवाद दोनों समन्वित हैं। उस समन्वय के मूल में दो नय हैं-संग्रह और व्यवहार। संग्रह अभेद-प्रधान और व्यवहार भेद-प्रधान नय है। संग्रहनय के अनुसार आत्मा एक है और व्यवहारनय के अनुसार आत्मा अनन्त हैं। आत्मा की इस एकानेकात्मकता का प्रतिपादन भगवान् महावीर के उत्तरकाल में भी होता रहा है। आचार्य अकलंक ने नाना ज्ञान-स्वभाव की दृष्टि से आत्मा की अनेकता और चैतन्य के एक स्वभाव की दृष्टि से उसकी एकता का प्रतिपादन कर उसके एकानेकात्मक स्वरूप का प्रतिपादन किया है। सांख्य-दर्शन के महान् आचार्य ईश्वर कृष्ण ने अनेकात्मवाद के समर्थन में तीन तत्त्व प्रस्तुत किये हैं
१-जन्म, मरण और करण (इंद्रिय) की विशेषता सब जीवों का एक साथ जन्म लेना, एक साथ मरना और एक
साथ इन्द्रियविकल होना दृष्ट नहीं है।
१. नंदीसून, ८३ :
ससमए ठाविज्जई, परसमए ठाविज्जई, ससमयपरसमएठाविज्जई। २. अनुयोगद्वारचूणि, पृ. ८६ : एवं उभयसमयवक्तव्यतास्वरूपमपीच्छति जधा ठाणांगे 'एगे आता' इत्यादि, परसमयव्यवस्थिता ब्रुवति
एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते प्रतिष्ठितः ।
एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ स्वसमयव्यवस्थिताः पुनः ब्रुवंति उपयोगादिकं सव्वजीवाण सरिसं लक्खणं अतो सवभिचारिपरसमयबत्तव्वया स्वरूपेण ण
घडति, श्वेताश्वरउपनिषद् (६।११) में एक आत्मा का निरूपण इस प्रकार हैएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।। ३. स्वरूपसंबोधन, श्लोक ६:
नाना ज्ञानस्वभावत्वात् एकोऽनेकोपि नैव सः ।।
चेतनकस्वभावत्वात्-एकानेकारमको भवेत् ।। ४. सांख्यकारिका, १८:
जन्ममरणकरणाना, प्रतिनियमात् अयुगपत् प्रवृत्तेश्च पुरुषबहुत्वं सिद्ध, गुण्यविपर्ययाच्चैव ।।
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ठाणं (स्थान)
१६
स्थान १ : टि० २-३
२-अयुगपत् प्रवृत्ति-सब जीवों में एक साथ एक प्रवृत्ति का न होना। ३-निगुण का विपर्यय-सत्व, रजस् और तमस् का विपर्यय होना, सब जीवों में उनकी एकरूपता का न होना।
जैन आगमों में नानात्मवाद के समर्थन में जो तर्क दिये गए हैं उनमें से कुछ वे हैं, जिनकी तुलना सांख्यदर्शन के तर्कों से की जा सकती है ; और कुछ उनसे भिन्न हैं । जैन आगमों में प्रस्तुत तर्क वर्गीकृत रूप में पांच हैं
१-एक व्यक्ति के दुःख को दूसरा व्यक्ति अपने में संक्रान्त नहीं कर सकता। २-एक व्यक्ति के द्वारा कृत कर्म के फल का दूसरा व्यक्ति प्रतिसंवेदन-अनुभव नहीं कर सकता। ३- मनुष्य अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है-सब न एक साथ जन्म लेते हैं और न एक साथ मरते हैं। ४–परित्याग और स्वीकार प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना होता है। ५-क्रोध आदि का आवेग, संज्ञा, मनन, विज्ञान और वेदना प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी होती है।
इन व्यक्तिगत विशेषताओं को देखते हुए एक समष्टि आत्मा को स्वीकार करने में अनेक सैद्धान्तिक बाधाएं उपस्थित होती हैं।
वेदान्त के आचार्यों ने प्रत्यग्-आत्मा को अपारमार्थिक सिद्ध करने में जो तर्क दिये हैं, वे बहुत समाधानकारक नहीं हैं।
२-दण्ड (सू०३):
दण्ड दो प्रकार का होता है-द्रव्य दण्ड और भाव दण्ड । द्रव्य दण्ड-लाठी आदि मारक सामग्री। भाव दण्ड के तीन प्रकार हैं
१. मनोदण्ड-मन की दुष्प्रवृत्ति । २. वाक्-दण्ड-वचन की दुष्प्रवृत्ति।
३. काय-दण्ड-शरीर की दुष्प्रवृत्ति। सूत्रकृतांग सूत्र में क्रिया के १३ स्थान बतलाये गये हैं। वहां पांच स्थानों पर दण्ड शब्द का प्रयोग हुआ है-अर्थ दण्ड, अनर्थ दण्ड, हिंसा दण्ड, अकस्मात् दण्ड और दृष्टिविपर्यास दण्ड। यहां दण्ड शब्द हिंसा के अर्थ में प्रयुक्त है। विशेष जानकारी के लिए देखें उत्तराध्ययन, अ० ३१ श्लोक ४ के दण्ड शब्द का टिप्पण।
३-क्रिया (सू० ४) :
क्रिया का सामान्य अर्थ प्रवृत्ति है। आगम साहित्य में इसका अनेक अर्थों में प्रयोग हुआ है। संदर्भ के अनुसार क्रिया का प्रयोग सत्प्रवृत्ति और असत्प्रवृत्ति-दोनों के अर्थ में मिलता है। प्रथम आचारांग (११५) में चार प्रकार के वादों का उल्लेख है। उनमें एक क्रियावाद है। भगवान महावीर स्वयं क्रियावादी थे। दार्शनिक जगत् में यह एक प्रश्न था कि आत्मा अक्रिय है या सक्रिय ? कुछ दार्शनिक आत्मा को अक्रिय या निष्क्रिय मानते थे। भगवान् महावीर आत्मा को सक्रिय मानते थे।
इस विश्व में ऐसी कोई वस्तु नहीं हो सकती, जिसमें क्रियाकारित्व न हो। वस्तु की परिभाषा इसी आधार पर की गई है। वस्तु वही है ,जिसमें अर्थक्रिया की क्षमता है। जिसमें अर्थक्रिया की क्षमता नहीं है, वह अवस्तु है। यहां 'क्रिया' का प्रयोग वस्तु की अर्थक्रिया (स्वाभाविक क्रिया) के अर्थ में नहीं है, किन्तु वह विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में है।
दूसरे स्थान (सू० २-३७) में क्रिया के वर्गीकृत प्रकार मिलते हैं।
१. सूत्रकृतांग, २।११५१:
अण्णस्स दुक्खं अण्णो णो परियाइयइ अण्णेण कतं अण्णो णो पडिसंवेदेइ, पत्तेयं जायर, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं चयइ, पत्तेयं उववज्जइ, पत्तेयं झंझा, पत्तेयं सपणा, पत्तेयं मण्णा, पत्तेयं विष्ण, पत्तेयं वेदणा।
२. सूत्रकृतांग, रारा। ३. सूत्रकृतांग, ११।१३:
कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुब्वं न विज्जइ। एवं अकारओ अप्पा, ते उ एवं पगम्भिया ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान १: टि०४-१६
४-७-लोक, अलोक, धर्म, अधर्म (सू० ५-८):
आकाश लोक और अलोक, इन दो भागों में विभक्त है। जिस आकाश में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-ये पांचों द्रव्य मिलते हैं, उसे लोक कहा जाता है और जहां केवल आकाश ही होता है, वह अलोक कहलाता है।
लोक और अलोक की सीमा रेखा धर्म (धर्मास्तिकाय) और अधर्म (अधर्मास्तिकाय) के द्वारा होती है। धर्म का लक्षण गति और अधर्म का लक्षण स्थिति है'। जीव और पुद्गल की गति धर्म और स्थिति अधर्म के आलम्बन से होती है।
८-१३-बंध यावत् संवर (सू० ६-१४) :
संख्यांकित छह सूत्रों (९-१४) में नव तत्त्वों में से परस्पर प्रतिपक्षी छह तत्त्वों का निर्देश किया गया है।
बन्धन के द्वारा आत्मा के चैतन्य आदि गुण प्रतिबद्ध होते हैं । मोक्ष आत्मा की उस अवस्था का नाम है, जिसमें आत्मा के चैतन्य आदि गुण मुक्त हो जाते हैं, इसलिए बंध और मोक्ष में परस्पर प्रतिपक्षभाव है।
पुण्य के द्वारा जीव को सुख की अनुभूति होती है और पाप के द्वारा उसे दुःख की अनुभूति होती है, इसलिए पुण्य और पाप में परस्पर प्रतिपक्षभाव है।
आश्रव कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है और संवर उनका निरोध करता है, इसलिए आश्रव और संवर में परस्पर प्रतिपक्षभाव है। दूसरे स्थान (सू०१) में इनका प्रतिपक्षी युगल के रूप में उल्लेख मिलता है।
१४-१५-वेदना, निर्जरा (सू० १५-१६) :
__ प्रस्तुत स्थान में वेदना शब्द का दो स्थानों (१५वे सूत्र में और ३३३ सूत्र में) पर उल्लेख हुआ है। तेतीसवें सूत्र में वेदना का अर्थ अनुभूति है। यहां उसका अर्थ कर्मशास्त्रीय परिभाषा से संबद्ध है। निर्जरा नौ तत्त्वों में एक तत्त्व है। वेदना उसका पूर्वरूप है। पहले कर्म-पुद्गलों की वेदना होती है, फिर उनकी निर्जरा होती है। वेदना का अर्थ है स्वभाव से या उदीरणाकरण के द्वारा उदय क्षण में आए हुए कर्म-पुद्गलों का अनुभव करना। निर्जरा का अर्थ है अनुभूत कर्म-पुद्गलों का पृथक्करण और आत्मशोधन।
१६-जीव (सू० १७):
आत्मा और जीव पर्यायवाची शब्द हैं। भगवती सूत्र (२०१७) में जीव के तेईस नाम बतलाए गए हैं। उनमें पहला नाम जीव और दशवां नाम आत्मा है। सामान्य दृष्टि से ये पर्यायवाची शब्द हैं, किन्तु विशेष दृष्टि (समभिरूढनय की दृष्टि) से कोई भी शब्द दूसरे शब्द का पर्यायवाची नहीं होता। इस दृष्टि से आत्मा और जीव में अर्थ-भेद है। आत्मा का अर्थ हैअपने चैतन्य आदि गुणों और पर्यायों में सतत परिणमन करने वाला चेतनतत्त्व।
जीव का अर्थ है---शरीर और आयुष्य को धारण करने वाला चेतनतत्त्व ।
एगे आया (११२) में आत्मा का निर्देश देह-मुक्त चेतनतत्त्व के अर्थ में और प्रस्तुत सूत्र में जीव का निर्देश देह-बद्ध चेतनतत्त्व के अर्थ में हआ प्रतीत होता है।
१. स्थानांग, २११५२:
विहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा
लोगागासे चेव, अलोगागासे चेव । २. (क) उत्तराध्ययन, २८१७:
धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगो त्ति पन्नतो, जिणेहि वरदंसिहि ॥ (ख) उत्तराध्ययन, ३६।२: जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ।।
३. उत्तराध्ययन, २८1९:
गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो। ४. भगवती, २०१७
जीवत्यिकायस्स गं भंते ! केवइया अभिवयणा पण्णता? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा-जीवेत्ति वा... आयाति बा। भगवती २।१५: जम्हा जीवे जीवेति जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा जोवेति बत्तव्वं सिया।
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ठाणं (स्थान)
२१
स्थान १ : टि० १७-२१
प्रस्तुत सूत्र में जीव के एकत्व का हेतु प्रत्येक शरीर बतलाया गया है। जैनतत्त्ववाद के अनुसार मुक्त और बद्धदोनों प्रकार के चेतनतत्त्व संख्या-परिमाण की दृष्टि से अनन्त हैं, किन्तु यहां जीव का एकत्व संख्या की दृष्टि से विवक्षित नहीं है। एक चेतन से दूसरे चेतन को व्यवच्छिन्न करने वाला शरीर है। यह एक जीव है-यह इकाई शरीर के द्वारा ही अभिज्ञात होती है। अतः इसी दृष्टि से जीव का एकत्व विवक्षित है। इसकी तुलना वेदान्त-सम्मत प्रत्यग् आत्मा से होती है। उसके अनुसार परमार्थदृष्टि से आत्मा एक है, जिसे विश्वग् आत्मा कहा जाता है और व्यवहार-दृष्टि से आत्मा अनेक हैं, जिन्हें प्रत्यग् आत्मा कहा जाता है।
वेदान्त का दृष्टिकोण अद्वैतपरक है। अतः उसके आचार्य प्रत्यग आत्मा को मानते हुए भी आत्मा के नानात्व को स्वीकार नहीं करते। उनका सिद्धान्त है कि प्रत्यग् आत्माओं का अस्तित्व विश्वग् आत्मा से निष्पन्न होता है। जो वस्तु जिससे अस्तित्व (आत्म-लाभ) को प्राप्त करती है वह उससे भिन्न नहीं हो सकती, जैसे-मिट्टी से अस्तित्व पाने वाले घट आदि उससे भिन्न नहीं हो सकते' । इसी प्रकार समुद्र से अस्तित्व पाने वाले तरङ्ग आदि उससे भिन्न नहीं हो सकते।
जैनदर्शन के अनुसार भी आत्मा एक और अनेक ये दोनों सम्मत हैं, किन्तु एक आत्मा से अनेक आत्माएं निष्पन्न होती हैं, यह जैनदर्शन को मान्य नहीं है। चैतन्य के सादृश्य की दृष्टि से आत्मा एक है और चैतन्य की विभिन्न स्वतंत्र इकाइयों और देह-बद्धता के कारण वे अनेक हैं। दोनों अभ्युपगम दूसरे और प्रस्तुत सूत्र (१७) से फलित होते हैं।
१७-११-मन, वचन, कायव्यायाम (सू०१६-२१) :
जीव की प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं—मन, वचन और काय। इन तीनों को एक शब्द में योग कहा जाता है। आगम साहित्य में इनमें से प्रत्येक के साथ भी योग शब्द का प्रयोग मिलता है।
आगम-साहित्य में प्रायः काययोग शब्द का प्रयोग किया गया है। काय-व्यायाम शब्द का प्रयोग दो बार इसी स्थान (११२१,४३) में हुआ है। बौद्धसाहित्य में सम्यग व्यायाम शब्द का प्रयोग प्राप्त है। उस समय में सामान्यप्रवृत्ति के अर्थ में भी व्यायाम शब्द का प्रयोग किया जाता था, ऐसा उक्त उद्धरणों से प्रतीत होता है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में व्यायाम शब्द का प्रयोग काय की एक विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में रूढ़ है।
२०-२१-उत्पत्ति, विगति (सू० २२-२३) :
जैन तत्त्ववाद के अनुसार विश्व की व्याख्या त्रिपदी के द्वारा की गई है। त्रिपदी के तीन अंग हैं-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य । उत्पाद और व्यय-ये दोनों परिवर्तन और ध्रौव्य वस्तु के स्थायित्व का सूचक है। इन दो सूत्रों में त्रिपदी के दो अंगों-उत्पाद और व्यय का निर्देश है-ऐसा अभयदेव सूरि का अभिमत है।
उन्होंने 'वियती' पद की व्याख्या में एक विकल्प भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि 'विगती' पद की व्याख्या विकृति आदि भी की जा सकती है, किन्तु इससे पहले सूत्र में उत्पाद का उल्लेख है, उसी के आधार पर उसकी व्याख्या व्यय की गई हैं।
१. कठोपनिषद्, ४।११ २. माण्डूक्यकारिकाभाष्य, ३५१७-१८ :
अस्माकं अद्वतदृष्टिः। ३. बृहदारण्यकभाष्य, ३१५:
यस्य च यस्मादात्मलाभो भवति, स तेन अविभक्तो दृष्टः,
यथा घटादीनि मृदा। ४. शांकरभाष्य, ब्रह्मसूत्र, २।१।१३ :
न च समुद्रात् उदकात्मनोऽनन्यत्वेपि तद्विकाराणां फेनतरंगादीनां इतरेतरभावापत्ति भवति । न च तेषां इतरेतरभावाना
पत्तावपि समुद्रात्मनोऽन्यत्व भवति । ५. तत्वार्थसूत्र, ६१:
कायवाङ्मनःकर्म योगः।
६. स्थानांग, ३६१३ : तिबिहे जोगे पण्णते, तं जहा
मणजोगे वइजोगे कायजोगे। ७. दीघनिकाय, पृ० १६७ । ८. चरक, सूत्रस्थान, प्र०७, श्लोक ३१:
लाघवं कर्मसामयं, स्थैयं क्लेशसहिष्णुता।
दोषक्षयोग्निवृद्धिश्च, व्यायामादुपजायते ॥ १. स्थानांगवृत्ति, पत्र १९:
'उप्प' त्ति प्राकृतत्वादुत्पादः, स चैक एकसमये एकपर्यायापेक्षया, नहि तस्य युगपदुत्पादव्ययादिरस्ति, अनपेक्षितत द्विशेषकपदार्थतया वैकोऽसाविति ।। 'विषई' त्ति विगतिविगमः, सा चैकोत्पादवदिति विकृतिविगतिरित्यादिव्याख्यान्तरमप्युचितमायोज्यम्, अस्माभिस्तु उत्पादसूत्रानुगुण्यतो व्याख्यातमिति ।
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ठाणं (स्थान)
२२
स्थान १ : टि० २२-३०
बाईसवें सूत्र में 'उप्पा' पद है। अभयदेव सूरि ने प्राकृत भाषा का विशेष प्रयोग मानकर उसका अर्थ उत्पाद किया है । इसका अर्थ उत्पाद किया इसीलिए उन्होंने 'विगती' पद का अर्थ व्यय किया । 'उप्पा' एक स्वतन्त्र शब्द है । तब उसका उत्पाद रूप मानकर उसकी व्याख्या करने का अर्थ समझ में नहीं आता। 'उप्पा' शब्द 'ओप्पा' का रूपान्तर प्रतीत होता है । ह्रस्वीकरण होने पर 'ओप्पा' का 'उप्प' बना है। 'ओप्पा' का अर्थ है शाण आदि पर मणि आदि का घर्षण करना' ।
इस अर्थ के संदर्भ में 'उप्पा' का अर्थ परिकर्म होना चाहिए। इसका प्रतिपक्ष है विकृति ।
विकृति की संभावना अभयदेव सूरि ने भी प्रकट की है। किन्तु पांचवें स्थान के दो सूत्रों का अवलोकन करने पर यहां 'उप्पा' का अर्थ उत्पाद और 'विगति' का अर्थ व्यय ही संगत लगता है ।
२२ - विशिष्ट चित्तवृत्ति (सू० २४ ) :
अभयदेव सूरि ने 'वियच्चा' शब्द का अर्थ मृत शरीर किया है। 'वि' का अर्थ विगत और 'अच्चा' का अर्थ शरीरविगताच अर्थात् मृतशरीर । इसका दूसरा संस्कृत रूप 'विवर्चा' मानकर दो अर्थ किए हैं-- विशिष्ट उपपत्ति की पद्धति और विशिष्टभूषा' ।
अर्चा का एक अर्थ चित्तवृत्ति (लेश्या) भी है । विगताच अथवा मृत जीव की अर्चा- यह अर्थ सहज प्राप्त नहीं है। विशिष्ट चित्तवृत्ति - यह अर्थ सहज प्राप्त है। इसलिए हमने यही अर्थ मान्य किया है।
२३- २६ - गति, आगति, च्यवन, उपपात (सू० २५-२८ ) :
गति, आगति, च्यवन और उपपात - यहां ये चारों शब्द पारिभाषिक हैं।
गति - जीव का वर्तमान भव से आगामी भव में जाना ।
आगति - जीव का पूर्वभव से वर्तमान भव में आना ।
च्यवन-ऊपर से गिरकर नीचे आना । ज्योतिष्क और वैमानिक देव आयुष्य पूर्ण कर ऊपर से नीचे आकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनका मरण च्यवन कहलाता है ।
उपपात - देव और नारकों का जन्म उपपात कहलाता है'।
२७-३० तर्क, संज्ञा, मनन, विद्वत्ता ( सू० २६-३२) :
इन चार सूत्रों (२६-३२) में ज्ञान के विविध पर्यायों का निरूपण किया गया है—
तर्क - ईहा से उत्तरवर्ती और अवाय (निर्णय) से पूर्ववर्ती विमर्श को तर्क कहा जाता है, जैसे- यह सिर को खुजला रहा है, इसलिए यह पुरुष होना चाहिए। यह तर्क की आगमिक व्याख्या है'। तर्क का एक अर्थ न्यायशास्त्रीय भी है। परोक्ष प्रमाण के पांच प्रकारों में तीसरा प्रकार तर्क है। इसका अर्थ है— उपलब्धि और अनुपलब्धि से उत्पन्न होने वाला व्याप्तिज्ञान तर्क कहलाता है'।
१. देशीनाममाला १।१४८ :
एलबिलो घणिओसहा अधम्मरोरप्पिएस एक्कमु हो ।
घोली कुलपरिपाडी ओज्झमचोक्खम्मि विमलणे ओप्पा ॥ टि० ओप्पा शाणादिना मण्यादेर्मार्जनम् ॥
२. स्थानांग, ५।२१५, २१६ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १६:
वियच्च ति विगतेः प्रागुक्तत्वादिह विगतस्य विगमवतो जं वस्य मृतस्येत्यर्थः अर्चा-शरीरं विगताच, प्राकृतत्वादिति, विवर्चा वा - विशिष्टोपपत्तिपद्धति विशिष्टभूषा वा ।
४. सूत्रकृतांग, १/१५/१६ वृत्ति, पत्र २६७ :
अर्चा- लेश्यान्तःकरणपरिणतिः ।
५. स्थानांग, २।२५० ।
६. स्थानांगवृत्ति पत्र १६:
तर्कणं तक्कों – विमर्शः अवायात् पूर्वा इहाया उत्तरा प्राय: शिरः कण्डूयनादय पुरुषधर्म्मा इह घटन्त इति सम्प्रत्ययरूपा । ७. प्रमाणनयतत्वालोकालंकार, ३०७ :
उपलम्भानुपलम्भसंभवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसंबन्धाद्यालम्बनं इदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याकारं संवेदनमूहापरनामा तर्कः ।
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ठाणं (स्थान)
२३
स्थान १ : टि०३१-३३
संज्ञा-इसके दो अर्थ होते हैं-प्रत्यभिज्ञान और अनुभति । नंदीसूत्र में मति (आभिनिबोधिक) ज्ञान का एक नाम संज्ञा निर्दिष्ट है। उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इन्हें एकार्थक माना है । मलय गिरि तथा अभयदेव सूरि दोनों ने संज्ञा का अर्थ व्यञ्जनावग्रह के बाद होनेवाली एक प्रकार की मति किया है । अभयदेव सूरि ने इसका दूसरा अर्थ अनुभूति भी किया है । इस अर्थ में प्रयुक्त संज्ञा के दस प्रकार दसवें स्थान में बतलाए गए हैं। किन्तु यहां तर्क, मनन और विज्ञान के साथ प्रयुक्त तथा नंदी में मतिज्ञान के एक प्रकार के रूप में निर्दिष्ट होने के कारण संज्ञा का अर्थ मतिज्ञान का एक प्रकार - प्रत्यभिज्ञान ही होना चाहिए। प्रत्यभिज्ञान का अर्थ उत्तरवर्ती न्यायग्रन्थों में इस प्रकार किया गया है
मनन-वस्तु के सूक्ष्म धर्मों का पर्यालोचन करनेवाली बुद्धि आलोचना या अभ्युपगम ।
विज्ञता या विज्ञान-अभयदेव सूरि ने 'विन्नु' शब्द का अर्थ विद्वान् या विज्ञ किया है, और वैकल्पिक रूप में विद्वता या विज्ञता किया है । श्रुत-निश्रित मतिज्ञान के चार प्रकार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अवाय का अर्थ हैविमर्श के बाद होने वाला निश्चय । उसके पांच पर्यायवाची नाम हैं। उनमें पांचवां नाम विज्ञान है । आचार्य मलयगिरि के अनुसार जो ज्ञान निश्चय के बाद होनेवाली धारणा को तीव्रतर बनाने में निमित्त बनता है, वह विज्ञान है। प्रस्तुत विषय में 'विन्नु' शब्द का यही अर्थ उपयुक्त प्रतीत होता है। स्थानांग के तीसरे स्थान में ज्ञान के पश्चात् विज्ञान का उल्लेख मिलता है। वहां अभयदेव सूरि ने विज्ञान का अर्थ हेयोपादेय का विनिश्चय किया है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि विज्ञान का अर्थ निश्चयात्मक ज्ञान है।
३१–वेदना (सू० ३३) :
वेदना-प्रस्तुत स्थान में वेदना शब्द का दो स्थानों पर उल्लेख है एक पन्द्रहवें सूत्र में और दूसरा तेतीसवें सूत्र में । पन्द्रहवें सूत्र में वेदना का प्रयोग कर्म का अनुभव करने के अर्थ में हुआ है, और यहां उसका प्रयोग पीड़ा अथवा सामान्य अनुभूति के अर्थ में हुआ है।
३२-३३-छेदन, भेदन (सू० ३४-३५):
छेदन-भेदन-छेदन का सामान्य अर्थ है टुकड़े करना और भेदन का सामान्य अर्थ है विदारण करना। कर्मशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार छेदन का अर्थ है-कर्मों की स्थिति का घात करना-उदीरणा के द्वारा कर्मों की दीर्घ स्थिति को कम करना।
भेदन का अर्थ है-कर्मों के रस का घात करना-उदीरणा के द्वारा कर्मों के तीव्र विपाक को मंद करना।
१. नंदी, सूत्र ५४, गा०६ :
ईहाअपोहवोमंसा, मम्गणा य गवेसणा ।
सण्णा सई मई पण्णा, सत्वं आभिणिबोहियं ।। २. तत्त्वार्थसूत्र, १११३
मति स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम् । ३. क-नंदीवृत्ति, पन १८७ :
संज्ञान संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः । ख-स्थानांगवृत्ति, पन्न १६ :
संज्ञानं संज्ञा व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मति विशेषः । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४७ :
आहारभयायपाधिका वा चेतना संज्ञा । ५. स्थानांग, १०1१०५। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र १९:
एगा विन्नु ति विद्वान् विज्ञो वा तुल्यबोधत्वादेक इति, स्त्रीलिंगत्वं प्राकृतत्वात् च उत्पाद (स्य) उप्पावत्, लुप्त भावप्रत्ययत्वाद्वा एका विद्वत्ता विज्ञता वेत्यर्थः ।
७. नंदी, सून ३६ । ८. नंदी, सूत्र ४७ । ६. नंदीवृत्ति, पत्र १७६ :
विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं-क्षयोपशमविशेषादेवावधारितार्थ
विषय एव तीनतरघारणाहेतुर्बोधविशेषः । १०. स्थानांग, ३.४१८। ११. स्थानांगवृत्ति, पत्र १४६ :
विज्ञानम् --अर्थादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चयः । १२. देखें १४, १५ का टिप्पण १३. स्थानांगवत्ति, पत्र १९:
प्राग्वेदना सामान्यकर्मानुभवलक्षणोक्ता इह तु पीडालक्षणव । १४. स्थानांगवृत्ति, पन १६ :
छेदनं कर्मण. स्थितिपातः, भेदनं तु रसधात इति ।
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ठाणं (स्थान)
२४
स्थान १: टि० ३४-३६
३४-अन्तिम शरीरी (सू० ३६) :
प्रत्येक प्राणी के दो प्रकार के शरीर होते हैं-स्थल और सूक्ष्म । मृत्यु के समय स्थूलशरीर छूट जाता है, किन्तु सूक्ष्मशरीर नहीं छूटता। जब तक सूक्ष्मशरीर रहता है, तब तक जन्म और मरण का चक्र चलता रहता है। सूक्ष्मशरीर से छुटकारा विशिष्ट साधना से मिलता है। जिस व्यक्ति का सूक्ष्मशरीर विलीन हो जाता है, वह अन्तिमशरीरी होता है। स्थूलशरीर की प्राप्ति का निमित्त सूक्ष्मशरीर बनता है। उसके विलीन हो जाने पर शरीर प्राप्त नहीं होता, इसीलिए वह अन्तिमशरीरी कहलाता है । उसका मरण भी अन्तिम होने के कारण एक होता है। वह फिर जन्म धारण भी नहीं करता इसीलिए उसका मरण भी नहीं होता।
३५-संशुद्ध यथाभूत (सू० ३७) :
प्रस्तुत सूत्र में एकत्व का हेतु संख्या नहीं, किन्तु निर्लेपता या सहाय-निरपेक्षता है। जो व्यक्ति संशुद्ध होता हैजिसका चरित्र दोष-मुक्त होता है, जो यथाभूत-शक्ति सम्पन्न होता है और जो पात्र-अतिशायी ज्ञान आदि गुणों का आथयी होता है, वह अकेला अर्थात् निर्लिप्त या सहाय-निरपेक्ष होता है।
३६-एकभूत (सू० ३८):
दुःख जीवों के साथ अग्नि और लोह की भांति लोलीभूत या अन्योन्य प्रविष्ट होता है, इसलिए उसे एक भूत कहा है । जैन सांख्यदर्शन की भांति दुःख को बाह्य नहीं मानता।
३७-३८–प्रतिमा (सू० ३९-४०) :
प्रतिमा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं१. तपस्या का विशेष मानदण्ड । २. साधना का विशेष नियम । ३. कायोत्सर्ग। ४. मूर्ति। ५. प्रतिबिंब।
यहां उक्त अर्थों में से प्रतिबिंब का अर्थ ही अधिक संगत प्रतीत होता है। अधर्मप्रतिमा अर्थात् मन पर होनेवाला अधर्म का प्रतिबिंब । यही आत्मा के लिए क्लेश का हेतु बनता है। धर्मप्रतिमा अर्थात् मन पर होनेवाला धर्म का प्रतिबिंब । यही आत्मा के लिए शुद्धि का हेतु बनता है।
३६--एक मन (सू० ४१) :
एक क्षण में मानसिक ज्ञान एक ही होता है--यह सिद्धान्त जैन-दर्शन को आगम-काल से ही मान्य रहा है। नैयायिकवैशेषिक-दर्शन में भी यह सिद्धान्त सम्मत है। इस सिद्धान्त के समर्थन में दोनों के हेतु भी समान हैं । जैन-दर्शन के अनुसार एक क्षण में दो उपयोग (ज्ञान-व्यापार) एक साथ नहीं होते, इसलिए एक क्षण में मानसिक ज्ञान एक ही होता है। एक आदमी नदी में खड़ा है, नीचे से उसके पैरों को जल की ठंडक का संवेदन हो रहा है और ऊपर से सिर को धूप की उष्णता का संवेदन हो रहा है। इस प्रकार एक व्यक्ति एक ही क्षण में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शों का संवेदन करता है, किन्तु वस्तुतः यह सही नहीं है । क्षण और मन की सूक्ष्मता के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक ही क्षण में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शों का संवेदन करता है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। जिस क्षण में शीत-स्पर्श का अनुभव होता है, उस क्षण में मन शीत-स्पर्श की अनुभूति में ही व्याप्त रहता है, इसलिए उसे उष्ण-स्पर्श की अनुभूति नहीं हो सकती और जिस क्षण में वह उष्ण-स्पर्श की अनुभूति में व्याप्त रहता है, उस क्षण उसे शीत-स्पर्श की अनुभूति नहीं हो सकती। १. स्थानांगवृत्ति, पत्न २० : एकत्वं च तस्यकोपयोगत्वात् जीवानाम् ।
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ठाणं (स्थान)
२५
स्थान १ : टि० ४०-४१
एक क्षण में दो ज्ञानों और दो अनुभूतियों के न होने का कारण मन की शक्ति का सीमित विकास होना है'। नयायिक - वैशेषिक दर्शन के अनुसार एक क्षण में एक ही ज्ञान और एक ही क्रिया होती है, इसलिए मन एक है' । न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम तथा वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद मन की एकता के सिद्धान्त के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मन अणु है । यदि मन अणु नहीं होता, तो प्रतिक्षण मनुष्य को अनेक ज्ञान होते । वह अणु है, इसलिए वह एक क्षण में ही इन्द्रिय के साथ संयोग स्थापित कर सकता है। इन्द्रिय के साथ उसका संयोग हुए बिना ज्ञान होता नहीं, इसलिए वह एक क्षण में एक ही ज्ञान कर सकता है ।
४० - एक वचन ( सू० ४२ ) :
मानसिक ज्ञान की भांति एक क्षण में एक ही वचन होता है। प्रस्तुत सूत्र के छठे स्थान में छह असम्भव क्रियाएं बतलाई गई हैं । उनमें तीसरी काल की क्रिया यह है कि एक क्षण में कोई भी प्राणी दो भाषाएं नहीं बोल सकता" । जैन न्याय में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग इसी सिद्धान्त के आधार पर किया गया। वस्तु अनंतधर्मात्मक होती है। एक क्षण में उसके एक धर्म का ही प्रतिपादन किया जा सकता है। शेष अनंतधर्म अप्रतिपादित रहते हैं । इसका तात्पर्य यह होता है कि मनुष्य वस्तु के एक पर्याय का प्रतिपादन कर सकता है, किन्तु समग्र वस्तु का प्रतिपादन नहीं कर सकता। इस समस्या को सुलझाने के लिए 'स्यात्' शब्द का सहारा लिया गया।
' स्यात् ' शब्द इस बात का सूचक है कि प्रतिपाद्यमान धर्म को मुख्यता देकर और शेष धर्मों की उपेक्षा करें, तभी तुवाच्य होती है । एक साथ अनेक धर्मों की अपेक्षा से वस्तु अव्यक्तव्य हो जाती है । सप्तभंगी का चतुर्थ भंग इसी आधार पर बनता है ।
४१ – शरीर ( सू० ४३ ) :
शरीर पौद्गलिक है । वह जीव की शक्ति के योग से क्रिया करता है। उसके पांच प्रकार हैं
१. औदारिक — अस्थिचर्ममय शरीर ।
२. वैक्रिय - विविध रूप निर्माण में समर्थ शरीर ।
३. आहारक - योगशक्ति से प्राप्त शरीर ।
४. तेजस - तेजोमय शरीर ।
५. कार्मण -- कर्ममय शरीर ।
इन्हें संचालित करनेवाली जीव की शक्ति को काययोग कहा जाता है। एक क्षण में काययोग एक ही होता है । उपयोग (ज्ञान का व्यापार) एक क्षण में दो नहीं हो सकता, किन्तु काया की प्रवृत्ति एक क्षण में दो हो सकती हैं। यहां उसका निषेध नहीं है। यहां एक क्षण में दो काययोगों का निषेध है । क्योंकि जिस जीव-शक्ति से औदारिकशरीर का संचालन होता है, उसी से वैक्रियशरीर का संचालन नहीं हो सकता। उसके लिए कुछ विशिष्ट शक्ति की अपेक्षा होती है । इस दृष्टि से जब एक काययोग सक्रिय होता है, तब दूसरा काययोग क्रियाशील नहीं हो सकता ।
१. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, ४/४६ :
तद् द्विभेदमपि प्रमाणमात्मीयप्रतिबन्ध कापगम विशेषस्वभाव
रूप सामर्थ्यतः प्रतिनियतमर्थमवद्योतयति ।
२. (क) न्यायदर्शन, ३।२।६०-६२ :
ज्ञानायोगपद्यादेकं मनः । न युगपदनेकक्रियोपलब्धेः । अलातचक्रदर्शनवत्तदुपलब्धि राशुसञ्चारात् ।
(ख) वैशेषिकदर्शन, ३।२।३:
प्रयत्नायोगपद्यान ज्ञानायोगपद्याच्चकम् ।
३. (क) न्यायदर्शन, ३१२६२ :
तदभावादणु मनः । (ख) यथोक्तहेतुत्वाच्चाणु । ४. न्यायदर्शन, ३२२२६ : क्रमवृत्तित्वादयुगपद् ग्रहणम् । ५. स्थानांग, ६।५ :
एसमए णं वा दो भासाओ भसित्तए ।
६. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, ४।१६ :
स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः ।
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ठाणं (स्थान)
४२ - ( सू० ४४ ) :
भगवान् महावीर पुरुषार्थवादी थे । वे उत्थान आदि को कार्य सिद्धि के लिए आवश्यक मानते थे। आजीवक सम्प्रदाय के आचार्य नियतिवादी थे । वे कार्य सिद्धि के लिए उत्थान आदि को आवश्यक नहीं मानते थे और अपने अनुयायीगण को यही पाठ पढ़ाते थे। भगवान् महावीर ने सद्दालपुत्र से पूछा -- ये तुम्हारे बर्तन उत्थान आदि से बने हैं या अनुत्थान आदि से ?
२६
इसके उत्तर में सद्दालपुत्र ने कहा- भंते ! ये बर्तन अनुत्थान आदि से बने हैं। सब कुछ नियत है, इसलिए उत्थान आदि का कोई प्रयोजन नहीं है'। इस पर भगवान ने कहा – सद्दालपुत्र ! कोई व्यक्ति तुम्हारे बर्तन को फोड़ डालता है, उसके साथ तुम कैसा व्यवहार करते हो ?
सद्दालपुत्र - भंते ! मैं उसे दण्डित करता हूं ।
भगवान् -- सद्दालपुत्र ! सब कुछ नियत है, उत्थान आदि का कोई अर्थ नहीं है, तब तुम उस व्यक्ति को किसलिए दण्डित करते हो? ?
इस संवाद से भगवान् का पुरुषार्थवादी दृष्टिकोण स्पष्ट होता है। उत्थान आदि का शब्दार्थ इस प्रकार है
उत्थान - उठना, चेष्टा करना ।
कर्म - भ्रमण आदि की क्रिया ।
बल- शरीर-सामर्थ्यं ।
वीर्य - जीव की शक्ति, आन्तरिक सामर्थ्यं ।
पुरुषकार - पौरुष आत्मोत्कर्ष ।
पराक्रम-कार्य-निष्पत्ति में सक्षम प्रयत्न ।
स्थान १ : टि० ४२-४८
४३-४५ - ज्ञान, दर्शन, चरित्र ( सू० ४५-४७ ) :
ज्ञान, दर्शन और चरित्र - ये तीनों मोक्ष मार्ग हैं। उमास्वति ने इसी आधार पर 'सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग (तत्त्वार्थ सूत्र १1१ ) यह प्रसिद्ध सूत्र लिखा था। उत्तराध्ययन (२८/२ ) में तप को भी मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है। यहां उसका उल्लेख नहीं है। वह वस्तुतः चरित्र का ही एक प्रकार है, इसलिए वह यहां विवक्षित नहीं है।
४६-४८- समय, प्रदेश, परमाणु ( सू० ४८-५० ) :
विश्व में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं--सूक्ष्म और स्थूल । सापेक्ष दृष्टि से अनेक पदार्थं सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूपों में होते हैं, किन्तु चरमसूक्ष्म और चरमस्थूल निरपेक्ष दृष्टि से होते हैं। निर्दिष्ट तीन सूत्रों में चरमसूक्ष्म का निरूपण किया गया है । काल का चरमसूक्ष्म भाग समय कहलाता है। यह काल का अन्तिम खण्ड होता है। इसे फिर खण्डित नहीं किया जा सकता । वस्तु का चरमसूक्ष्म भाग प्रदेश कहलाता है ।
यह वस्तु का अविभक्त अंतिम खंड होता है। पुद्गल द्रव्य का चरमसूक्ष्म भाग परमाणु कहलाता है। इसे विभक्त नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिकों ने परमाणु का विखण्डन किया है, किन्तु जैन- दृष्टि से उसका विखण्डन नहीं होता । परमाणु दो प्रकार के होते हैं - निश्चयपरमाणु और व्यवहारपरमाणु है ।
१. उवासगदसाओ, ७।२३, २४
२. उवासगदसाम्रो, ७।२५, २६ ।
३. अनुयोगद्वार ३६६ : से किं तं परमाणू ?
व्यवहारपरमाणु भी बहुत सूक्ष्म होता है। वह साधारणतया चक्षुगम्य नहीं होता। उसका विखण्डन हो सकता है, किन्तु निश्चयपरमाणु विखण्डित नहीं हो सकता । भगवती में चार प्रकार के परमाणु बतलाए गए हैं- द्रव्यपरमाणु, क्षेत्रपरमाणु, कालपरमाणु और भावपरमाणु। इसमें समय को कालपरमाणु कहा गया है।
परमाणु दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सुहुमे य वावहारिए य ४. भगवती, २०१४० |
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ठाणं (स्थान)
२७
स्थान १ : टि० ४६-८७
तीसरे स्थान में समय, प्रदेश और परमाणु को अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य, अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य बतलाया गया है।
४६-८४-शब्द,.. रूक्ष (सू० ५५-६०) :
निर्दिष्ट सूत्रों (५५-६०) में पुद्गल के लक्षण, कार्य, संस्थान और पर्याय का प्रतिपादन किया गया है। रूप, गंध,रस और स्पर्श-ये चार पुद्गल के लक्षण हैं । शब्द पुद्गल का कार्य है। जैन दर्शन वैशेषिक दशन की भांति शब्द को आकाश का गुण व नित्य नहीं मानता। उसके अनुसार पौद्गलिक होने के कारण वह अनित्य है। दूसरे स्थान में शब्द की उत्पत्ति के दो कारण बतलाए गए हैं-संघात और भेद । जब पुद्गल संहति को प्राप्त होते हैं, तब शब्द की उत्पत्ति होती है, जैसेघंटा का शब्द । जब पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं, तब शब्द की उत्पत्ति होती है, जैसे-बांस के फटने का शब्द।
दीर्घ, ह्रस्व, वृत्त (गेंद की तरह गोल), त्रिकोण, चतुष्कोण, विस्तीर्ण और परिमंडल (वलयाकार)-ये पुद्गल के संस्थान हैं। कृष्ण, नील आदि पुद्गल के लक्षणों का विस्तार है।
८५-मायामृषा (सू० १०७) :
मायामृषा-मायायुक्त असत्य को मायामृषा कहा जाता है। कुछ व्याख्याकारों ने इसका अर्थ वेश बदलकर लोगों को ठगना किया है।
८६-८७–अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी (सू० १२७-१३४) :
काल अनादि अनन्त है। इस दृष्टि से वह निविभाग है, किन्तु व्यावहारिक उपयोगिता की दृष्टि से उसके अनेक वर्गीकरण किए गए हैं । उसका एक वर्गीकरण काल-चक्र है। उसके दो विभाग हैं-अवसर्पिणी और उत्सपिणी। इन दोनों के रथ-चक्र के आरों की भांति छह-छह आरे हैं । अवसर्पिणी के छह आरे ये हैं
१. सुषम-सुषमा--एकान्त सुखमय । २. सुषमा--सुखमय । ३. सुषम-दुषमा-सुख-दुःखमय । ४. दुषम-सुषमा-दुःख-सुखमय । ५. दुषमा-दुःखमय। ६. दुषम-दुषमा-एकान्त दुःखमय ।
उत्सर्पिणी के छह आरे ये हैं१. दुषम दुषमा-एकान्त दुःखमय । २. दुषमा-दुःखमय । ३. दुषम-सुषमा-दुःख-सुखमय। ४. सुषम-दुषमा-सुख-दुःखमय । ५. सुषमा-सुखमय । ६. सुषम-सुषमा-एकान्त सुखमय ।
अवसर्पिणी में वर्ण, गन्ध आदि गुणों की क्रमशः हानि और उत्सर्पिणी में उनकी क्रमशः वृद्धि होती है।
१. स्थानांग, ३ ॥३२८-३३५ । २. उत्तराध्ययन, २८।१२। ३. स्थानांग, २।२२० ।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्न २४:
मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्वान्मायामोसं, दोषद्वययोगः, इदं च मानमृषादिसंयोगदोषोपलक्षणं, वेषान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये ।
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ठाणं (स्थान)
२८
स्थान १ : टि०८८-६८
८८-नारकीय (सू० १४१) :
(११२१३) में चौबीस दंडकों का उल्लेख है। दण्डक का अर्थ है-समान जाति वाले जीवों का वर्गीकरण। संसार के सभी जीवों को चौबीस वर्गों में विभक्त किया गया है। यहां उन चौबीस वर्गों के नाम दिए गए हैं।
८६-६०-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक (सू० १६५-१६६) :
संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं१. भवसिद्धिक-जिसमें मुक्त होने की योग्यता हो। २. अभदसिद्धिक-जिसमें मुक्त होने की योग्यता न हो। भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक की भेद रेखा अनादि है।
६१-६२-कृष्ण-पाक्षिक, शुक्ल-पाक्षिक (सू० १८६-१८७) :
मोक्ष की प्रक्रिया बहुत लम्बी है, उसमें आनेवाली बाधाओं को अनेक काल-चरणों में पार किया जाता है । कृष्ण और शुक्ल-ये दोनों पक्ष उसी शृंखला के काल-चरण हैं । जब तक जिस जीव की मोक्ष की अवधि निश्चित नहीं होती, तब तक वह कृष्ण पक्ष की कोटि में होता है और उस अवधि की निश्चितता होने पर जीव शुक्ल पक्ष की कोटि में आ जाता है। इसी कालावधि के आधार पर प्रस्तुत दोनों पक्षों की व्याख्या की गई है। जो जीव अपार्ध पुद्गलपरावर्त तक संसार में रहकर मुक्त होता है, वह शुक्ल-पाक्षिक और इससे अधिक अवधि तक संसार में रहनेवाला कृष्ण-पाक्षिक कहलाता है।
यद्यपि अपार्ध पुद्गल परावर्त बहुत लम्बा काल है, फिर भी निश्चितता के कारण उसका कम महत्त्व नहीं है। शुक्लपक्ष की स्थिति प्राप्त होने पर ही आध्यात्मिक विकास के द्वार खुलते हैं, इस दृष्टि से भी उसका बहुत महत्त्व है।
६३-६८-लेश्या (सू० १६१-१९६) :
विचार और पुद्गल द्रव्य में गहरा सम्बन्ध है । जिस प्रकार के पुद्गल गृहीत होते हैं, उसी प्रकार की विचारधारा का निर्माण होता है। हर प्राणी के आस-पास पुद्गलों का एक वलय होता है। उनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, और वे प्रशस्त एवं अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं। प्रशस्त वर्ण, गंध, रस और स्पर्शवाले पुद्गल प्रशस्त विचार उत्पन्न करते हैं तथा अप्रशस्त वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गल अप्रशस्त विचार उत्पन्न करते हैं। लेश्या को उत्पन्न करनेवाले पुद्गलों में गंध आदि के होने पर भी उनमें विशेषता वर्णों (रंगों) की होती है, ऐसा उनके नामकरण से प्रतीत होता है। लेश्याओं का नामकरण रंगों के आधार पर किया गया है। रंगों का हमारे जीवन तथा चिंतन पर बहुत बड़ा प्रभाव है। इस तथ्य को प्राचीन एवं आधुनिक सभी तत्त्वविदों और मानसशास्त्रियों ने मान्यता दी है। उक्त विवरण के संदर्भ में हम लेश्या को इस भाषा में बांध सकते हैं - विचारों को उत्पन्न करनेवाले पुद्गल लेश्या कहलाते हैं। उन पुद्गलों से उत्पन्न होनेवाले विचार भी लेश्या कहलाते हैं। हमारे शरीर का वर्ण तथा शरीर के आस-पास निर्मित होनेवाला पौद्गलिक आभा-वलय भी लेश्या कहलाता है। इस प्रकार अनेक अर्थ लेश्या शब्द के द्वारा अभिहित किए गए हैं।
प्राचीन आचार्यों ने योग परिणाम को लेश्या कहा है।
१. अनुयोगद्वार, २८८ :
अणाइ-पारिणामिए–धम्मत्यिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्यिकाए पोग्गलत्यिकाए अद्धासमए लोए अलोए
भवसिद्धिया अभवसिद्धिया। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६ :
कृष्णपाक्षिकेतरयोर्लक्षणं"जेसिमबड्डो पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण किण्हपक्खीआ ।।".
३. स्थानांगवृत्ति, पत्न २६ :
लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, यदाह--"श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्यः" तथा कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य पात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ।। इति, इयं च शरीरनामकर्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात्, योगस्य च शरीरनामकर्मपरिणति विशेषत्वात् यत उक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-'योगपरिणामो लेश्या' ।
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ठाणं (स्थान)
२६
स्थान १:टि० ६६-११३
योग तीन हैं-काययोग, वचनयोग और मनोयोग । लेश्या के पुद्गलों का ग्रहणात्मक सम्बन्ध काययोग से होता है, क्योंकि सभी प्रकार की पुद्गल-वर्गणाओं का ग्रहण और परिणमन उसी (काययोग) के द्वारा होता है और उनका प्रभावात्मक सम्बन्ध मनोयोग से होता है, क्योंकि काययोग द्वारा गृहीत पुद्गल मन के विचारों को प्रभावित करते हैं । इस परिभाषा के अनुसार विचारों की उत्पत्ति में निमित्त बननेवाले पुद्गल तथा उनसे उत्पन्न होनेवाले विचार ही लेश्या कहलाते हैं। किंतु भगवती, प्रज्ञापना आदि सूत्रों से शारीरिक वर्ण और आभा-वलय व तैजस-वलय भी लेश्या के रूप में फलित होते हैं, अतः 'योगपरिणामो लेश्या'; यह लेश्या की सापेक्ष परिभाषा है, किन्तु परिपूर्ण परिभाषा नहीं है। इस तथ्य को स्मृति में रखना आवश्यक है—प्रशस्त और अप्रशस्त पुद्गलों के द्वारा हमारी विचार-परिणति होती है और शरीर के आसपास निर्मित आभा-वलय हमारी विचार-परिणति का प्रतिबिंब होता है।
प्रस्तुत सूत्र के तीसरे स्थान में लेश्या के गंध आदि के आधार पर दो वर्गीकरण किए गए हैं। प्रथम वर्गीकरण में प्रथम तीन लेश्याएं हैं-- कृष्ण, नील और कापोत । दूसरे वर्गीकरण में अग्रिम तीन लेश्याएं हैं-तेजः, पद्म और शुक्ल । देखिए -यन्त्र
प्रथम वर्गीकरण
द्वितीय वर्गीकरण
अनिष्ट गंध दुर्गतिगामिनी संक्लिष्ट अमनोज्ञ अविशुद्ध अप्रशस्त शीत-रूक्ष
इष्ट गंध सुगतिगामिनी असंक्लिष्ट मनोज्ञ विशुद्ध प्रशस्त स्निग्ध-उष्ण
६९-११३-सिद्ध (सू० २१४-२२८) :
५२वें सूत्र में सिद्ध की एकता का प्रतिपादन किया गया है और यहां उनके पन्द्रह प्रकार बतलाए गए हैं। जीव दो प्रकार के होते हैं-सिद्ध और संसारी' । कर्मबंधन से बंधे हुए जीव संसारी और कर्ममुक्त जीव सिद्ध कहलाते हैं।
सिद्धों में आत्मा का पूर्ण विकास हो चुकता है, अतः आत्मिक विकास की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। इस अभेद की दृष्टि से कहा गया है कि सिद्ध एक हैं। उनमें भेद का प्रतिपादन पूर्वजन्म के विविध सम्बन्ध-सूत्रों के आधार पर किया गया है--
१. तीर्थ सिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना के पश्चात् तीर्थ में दीक्षित होकर सिद्ध होते हैं, जैसे ऋषभदेव के गणधर ऋषभसेन आदि।
२. अतीर्थसिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना के पहले सिद्ध होते हैं, जैसे-मरुदेवी माता। ३. तीर्थंकरसिद्ध-जो तीर्थकर के रूप में सिद्ध होते हैं, जैसे-ऋषभ आदि। ४. अतीर्थंकरसिद्ध-जो सामान्य केवली के रूप में सिद्ध होते हैं। ५. स्वयंबुद्धसिद्ध-जो स्वयं बोधि प्राप्त कर सिद्ध होते हैं। ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो किसी एक बाह्य निमित से प्रबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं। ७. बुद्धबोधितसिद्ध-जो आचार्य आदि के द्वारा बोधि प्राप्त कर सिद्ध होते हैं।
१. स्थानांग, ३५१५,५१६ । २. उत्तराध्ययन, ३६।४८ ।
संसारत्था य सिद्धा य । दुविहा जीवा वियाहिया।
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ठाणं (स्थान)
स्थान १:टि० ११३
८. स्त्रीलिङ्गसिद्ध-जो स्त्री के शरीर से सिद्ध होते हैं। ६. पुरुषलिङ्गसिद्ध-जो पुरुष के शरीर से सिद्ध होते हैं। १०. नपुंसकलिङ्गसिद्ध-जो कृत नपुंसक के शरीर से सिद्ध होते हैं। ११. स्वलिङ्गसिद्ध-जो निर्ग्रन्थ के वेश में सिद्ध होते हैं। १२. अन्यलिङ्गसिद्ध-जो निम्रन्थेतर भिक्षु के वेश में सिद्ध होते हैं। १३. गृहलिङ्गसिद्ध-जो गृहस्थ के वेश में सिद्ध होते हैं। १४. एकसिद्ध-जो एक समय में एक सिद्ध होता है। १५. अनेकसिद्ध-जो एक समय में दो से लेकर उत्कृष्टतः एक सौ आठ तक एक साथ सिद्ध होते हैं।
इन पन्द्रह भेदों के छह वर्ग बनते हैं। प्रथम वर्ग से यह ध्वनित होता है कि आत्मिक निर्मलता प्राप्त हो तो संघबद्धता और संघ मुक्तता-दोनों अवस्थाओं में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
दूसरे वर्ग की ध्वनि यह है कि आत्मिक निर्मलता प्राप्त होने पर हर व्यक्ति सिद्धि प्राप्त कर सकता है, फिर वह धर्म-संघ का नेता हो या उसका अनुयायी।
तीसरे वर्ग का आशय यह है कि बोधि की प्राप्ति होने पर सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, फिर वह (बोधि) किसी भी प्रकार से प्राप्त हुई हो।
चौथे वर्ग का हार्द यह है कि स्त्री और पुरुष दोनों शरीरों से यह सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
पांचवें वर्ग से यह ध्वनित होता है कि आत्मिक निर्मलता और वेशभूषा का घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं है। साधना की प्रखरता प्राप्त होने पर किसी भी वेश में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
छठा वर्ग सिद्ध होने वाले जीवों की संख्या और समय से सम्बद्ध है।
वेदान्त का अभिमत यह है कि मुक्तजीव ब्रह्मा के साथ एक-रूप हो जाता है, इसलिए मुक्तावस्था में संख्याभेद नहीं होता। उपनिषद् का एक प्रसंग है
महर्षि नारद ने सनत्कुमार से पूछा-मुक्त जीव किसमें प्रतिष्ठित है ? सनत्कुमार ने कहा-वह स्वयं की महिमा में अर्थात् स्वरूप में प्रतिष्ठित है।
इसका तात्पर्य यह है कि वह ब्रह्म के साथ एकरूप है । जैन-दर्शन आत्म-स्वरूप की दृष्टि से सिद्धों में भेद का प्रति-- पादन नहीं करता, किन्तु संख्या की दृष्टि से उनकी अनेकता का प्रतिपादन करता है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्तजीवों में कोई वर्गभेद नहीं है, जिससे कि एक कोई आत्मा प्रतिष्ठापक बनी रहे और दूसरी सब आत्माएं उसमें प्रतिष्ठित हो जाएं। एक ब्रह्म या ईश्वर हो तथा दूसरी मुक्त आत्माएं उसमें विलीन हों, यह सम्मत नहीं है । सब मुक्त आत्माओं का स्वतंत्र अस्तित्व है। उनकी समानता में कोई अन्तर नहीं है।
गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-भगवन् ! सिद्ध कहां प्रतिष्ठित होते हैं ? भगवान ने कहा-मुक्तजीव लोक के अंतिम भाग में प्रतिष्ठित होते हैं।
एक मुक्तजीव दूसरे मुक्तजीव में प्रतिष्ठित नहीं होता, इसीलिए भगवान ने अपने उत्तर में उनकी क्षेत्रीय प्रतिष्ठा का उल्लेख किया है।
१. छान्दोग्य उपनिषद्, ७।२४।१:
स भगवः कस्मिन् प्रतिष्ठित इति । स्वे महिम्नि यदि वा न महिम्नीति।
२. बोवाइय, सूत्र १९५:
कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? (गाथा १) लोयग्गे य पइट्ठिया । (गाथा २)
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बीअं ठाण
द्वितीय स्थान
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प्रस्तुत स्थान में दो की संख्या से संबद्ध विषय वर्गीकृत हैं। जैन न्याय का तर्क है कि जो सार्थक शब्द होता है, वह प्रतिपक्ष होता है । इसका आधार प्रस्तुत स्थान का पहला सूत्र है। इसमें बताया गया है“जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं"
आमुख
जैनदर्शन द्वैतवादी है। उसके अनुसार चेतन और अचेतन दो मूल तत्त्व हैं। शेष सब इन्हीं के अवान्तर प्रकार हैं। जैनदर्शन अनेकान्तवादी है । इसलिए वह केवल द्वैतवादी नहीं है। वह अद्वैतवादी भी है। उसकी दृष्टि में केवल द्वैत और केवल अद्वैतवाद की संगति नहीं है । इन दोनों की सापेक्ष संगति है। कोई भी जीव चैतन्य की मर्यादा से मुक्त नहीं है। अतः चैतन्य की दृष्टि से जीव एक है। अचैतन्य की दृष्टि से अजीव भी एक है। जीव या अजीव कोई भी द्रव्य अस्तित्व की मर्यादा से मुक्त नहीं है । अतः अस्तित्व की दृष्टि से द्रव्य एक है। इस संग्रह्नय से अद्वैत सत्य है ।
चेतन में अचैतन्य और अचेतन में चैतन्य का अत्यन्ताभाव है। इस दृष्टि से द्वैत सत्य है ।
पहले स्थान में अद्वैत और प्रस्तुत स्थान में द्वैत का प्रतिपादन है। पहले स्थान में उद्देशक नहीं है। इसमें चार उद्देशक । आकार में भी यह पहले से बड़ा है।
प्रस्तुत स्थान का प्रथम सूत्र सम्पूर्ण स्थान की संक्षिप्त रूपरेखा है। शेष प्रतिपादन उसी का विस्तार है । उदाहरण के लिए दो से तीस सूत्र तक क्रियाओं का वर्गीकरण है। वह प्रथमं सूत्र के आस्रव का विस्तार है। इसी प्रकार अन्य विषयों की योजना की जा सकती है।
मोक्ष के साधनों के विषय में अनेक धारणाएं प्रचलित हैं। कुछ दार्शनिक विद्या को मोक्ष का साधन मानते हैं, तो कुछ दार्शनिक आचरण को । जैनदर्शन का दृष्टिकोण अनेकान्तवादी है, इसलिए वह न केवल विद्या को मोक्ष का साधन मानता है और न केवल आचरण को । वह दोनों के समन्वितरूप को मोक्ष का साधन मानता है । कुछ विद्वानों का मत है कि जैनदर्शन का अपना कुछ नहीं है। उसने दूसरे दर्शनों के सिद्धान्तों का समन्वय कर अपने दर्शन का प्रसाद खड़ा किया है। जैनदर्शन का आकार-प्रकार देखने पर इस प्रकार का मत फलित होना बहुत कठिन नहीं है। किन्तु यह वस्तु सत्य से परे है । कोई भी दर्शन सर्वात्मना दूसरों का ऋणी होकर अपने अस्तित्व को मौलिकता व महानता प्रदान नहीं कर सकता । जैनदर्शन का जगत् के अध्ययन का अपना मौलिक दृष्टिकोण है। उसका नाम अनेकान्त है। उस दृष्टिकोण के कारण वह विरोधी प्रतीत होने वाली विभिन्न विचारधाराओं का समन्वय कर सकता है, करता है और उसने अतीत में ऐसा किया है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जैनदर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का समन्वय हो सकता है और हुआ है।
+
भगवान् महावीर की दृष्टि में सारी समस्याओं का भूल था हिंसा और परिग्रह । उनका दृढ़ अभिमत था कि जो व्यक्ति हिंसा और परिग्रह की वास्तविकता को नहीं जानता, वह न धर्म सुन सकता है, न बोधि को प्राप्त कर सकता है और न सत्य का साक्षात्कार ही कर सकता है ।
हिंसा और परिग्रह का त्याग करने पर ही व्यक्ति सही अर्थ में धर्म सुनता है, बोधि को प्राप्त करता है और सत्य का अनुभव करता है ।
आगम- साहित्य में प्रमाण के दो वर्गीकरण मिलते हैं - एक स्थानांग और दूसरा नंदी का । स्थानांग का वर्गीकरण
१. २।४०
२. २।४१-५१
३. २।५२-६२
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: आमुख
नंदी के वर्गीकरण से प्राचीन प्रतीत होता है। इसमें सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष का उल्लेख नहीं है। प्रत्यक्ष के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं-केवलज्ञान प्रत्यक्ष और नो-केवल ज्ञान प्रत्यक्ष ।
नो-केवलज्ञान प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं--अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान । नंदी के अनुसार प्रत्यक्ष के दो प्रकार ये हैंइन्द्रिय प्रत्यक्ष और नो-इन्दिय प्रत्यक्ष । नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान।
स्थानांग के केवलज्ञान प्रत्यक्ष और नो-केवलज्ञान प्रत्यक्ष इन दोनों का समावेश नंदी के नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष में होता है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष का अभ्युपगम जैनप्रमाण के क्षेत्र में उत्तरकालीन विकास है। उत्तरवर्ती जैन तर्कशास्त्रों में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
स्थानांग सूत्र संख्या-प्रधान होने के कारण संकलनात्मक है। इसलिए इसमें तत्त्व, आचार, क्षेत्र, काल आदि अनेक विषय निरूपित हैं। कहीं अतिरिक्त संख्या का दो में प्रकारांतर से निवेश किया गया है। उदाहरण के लिए आचार के प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं। आचार के पांच प्रकार हैं-ज्ञानआचार, दर्शनआचार, चरित्र आचार, तपआचार और वीर्यआचार । प्रस्तुत स्थान में इनका निरूपण इस प्रकार है
नो-ज्ञानाचार के दो प्रकार—दर्शनाचार, नो-दर्शनाचार। नो-दर्शनाचार के दो प्रकार-चरित्राचार, नो-चरित्राचार । नो-चरित्राचार के दो प्रकार–तपआचार, वीर्यआचार।
विविध विषयों के अध्ययन की दृष्टि से यह स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
३. २२३६-२४२
१. ८६-१०६ २. नंदी ३-६
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बीअं ठाणं : पढमो उद्देसो
मल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
दुपओआर-पदं
द्विपदावतार-पदम् १. जदत्थि णं लोगे तं सव्वं यदऽस्ति लोके तत् सर्वं द्विपदावतारम्, दुपओआरं, तं जहा
तद्यथाजीवच्चेव अजीवच्चेव। जीवाश्चैव अजीवाश्चैव। तसच्चेव थावरच्चेव।
त्रसाश्चैव स्थावराश्चैव । सजोणियच्चेव अजोणियच्चेव। सयोनिकाश्चैव अयोनिकाश्चैव। साउयच्चेव अणाउयच्चेव। सायुष्काश्चैव अनायुष्काश्चैव । सइंदियच्चेव अणिदियच्चेव । सेन्द्रियाश्चैव अनिन्द्रियाश्चेव । सवेयगा चेव अवेयगा चेव। सवेदकाश्चैव अवेदकाश्चैव। सरूवी चेव अरूवी चेव । सरूपिणश्चैव अरू पिणश्चैव। सपोग्गला चेव अपोग्गला चेव। सपुद्गलाश्चैव अपुद्गलाश्चैव । संसारसमावण्णमा चेव
संसारसमापन्नकाश्चैव असंसारसमावण्णगा चेव । असंसारसमापन्नकाश्चैव । सासया चेव असासया चेव । शाश्वताश्चैव अशाश्वताश्चैव । आगासे चेव णोआगासे चेव । आकाशं चैव नो-आकाशं चैव । धम्मे चेव अधम्मे चेव । धर्मश्चैव अधर्मश्चैव । बंधे चेव मोक्खे चेव। बंधश्चैव मोक्षश्चैव। पुण्णे चेव पावे चेव।
पुण्यं चैव पापं चैव। आसवे चेव संवरे चेव। आश्रवश्चैव संवरश्चैव। वेयणा चेव णिज्जरा चेव। वेदना चैव निर्जरा चैव।
द्विपदावतार-पद १. लोक में जो कुछ है, वह सब द्विपदावतार
[दो-दो पदों में अवतरित होता है,जीव और अजीव। वस और स्थावर। सयोनिक और अयोनिक। आयु-सहित और आयु-रहित । इन्द्रिय-सहित और इन्द्रिय-रहित । वेद-सहित और वेद-रहित। रूप-सहित और रूप-रहित। पुद्गल-सहित और पुद्गल-रहित । संसार समापन्नक [संसारी] असंसार समापन्नक [सिद्ध] । शाश्वत और अशाश्वत। आकाश और नो-आकाश। धर्म और अधर्म। बन्ध और मोक्ष। पुण्य और पाप। आस्रव और संवर। वेदना और निर्जरा।
किरिया-पदं
क्रिया-पदम् २. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे किये प्रज्ञप्ते, तद्यथाजहाजीवकिरिया चेव,
जीवक्रिया चैव, अजीवकिरिया चेव ।
अजीवक्रिया चैव।
क्रिया-पद २. क्रिया दो प्रकार की है
जीव क्रिया-जीव की प्रवृत्ति। अजीव क्रिया-पुद्गल समुदाय का कर्म रूप में परिणत होना।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ३-८ ३. जीवकिरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जीवक्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ३. जीव क्रिया दो प्रकार की हैजहासम्मतकिरिया चेव। सम्यक्त्वक्रिया चैव,
सम्यक्त्व क्रिया-सम्यक् क्रिया। मिच्छत्तकिरिया चेव। मिथ्यात्वक्रिया चैव।
मिथ्यात्व क्रिया-मिथ्या क्रिया । ४. अजीवकिरिया दुविहा पण्णत्ता, तं अजीवक्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ४. अजीव क्रिया दो प्रकार की है
जहाइरियावहिया चेव, ऐपिथिकी चैव,
ऐर्यापथिकी-वीतराग के होनेवाला
कर्मबन्ध । संपराइगा चेव । सांपरायिकी चैव।
सांपरायिकी-कषाय-युक्त जीव के होने
वाला कर्मबन्ध। ५. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
५. क्रिया दो प्रकार की हैजहाकाइया चेव, कायिकी चैव,
कायिक-काया की प्रवृत्ति। अहिगरणिया चेव। आधिकरणिकी चैव।
आधिकरणिकी-शस्त्र आदि की
प्रवृत्ति। ६. काइया किरिया दुविहा पण्णता, कायिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, ६. कायिकी क्रिया दो प्रकार की हैतं जहा
तद्यथाअणुवरयकायकिरिया चेव, अन परतकायक्रिया चैव,
अनुपरतकायक्रिया-विरति-रहित व्यक्ति
की काया की प्रवृत्ति। दूपउत्तकायकिरिया चेव । दुष्प्रयुक्तकायक्रिया चैव ।
दुष्प्रयुक्तकायक्रिया-इन्द्रिय और मन के विषयों में आसक्त मुनि की काया की
प्रवृत्ति। ७. अहिगरणिया किरिया दुविहा आधिकरणिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, ७. आधिकरणिकी क्रिया दो प्रकार की हैपण्णत्ता, तं जहा
तद्यथासंजोयणाधिकरणिया चेव, संयोजनाधिकरणिकी चैव,
संयोजनाधिकरणिकी-पूर्व-निर्मित भागों को जोड़कर शस्त्र-निर्माण करने की
क्रिया। णिव्वत्तणाधिकरणिया चेव। निर्वर्तनाधिकरणिकी चैव ।
निर्वर्तनाधिकरणिकी-नये सिरे से शस्त्र
निर्माण करने की क्रिया"। ८. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
८. क्रिया दो प्रकार की हैजहापाओसिया चेव, प्रादोषिकी चैव,
प्रादोषिकी-मात्सर्य की प्रवृत्ति। पारियावणिया चेव। पारितापनिकी चैव।
पारितापनिकी-परिताप देने की प्रवृत्ति।
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ठाणं (स्थान)
३७
स्थान २ : सूत्र -१४
६. पाओसिया किरिया दुविहा प्रादोषिकी क्रिया द्विधा प्रज्ञप्ता, ६. प्रादोषिकी क्रिया दो प्रकार की हैपण्णत्ता,तं जहा
तद्यथाजीवपाओसिया चेव, जीवप्रादोषिकी चैव,
जीवप्रादोषिकी-जीव के प्रति होने
वाला मात्सर्य। अजीवपाओसिया चेव। अजीवप्रादोषिकी चैव।
अजीवप्रादोषिकी-अजीव के प्रति होने
वाला मात्सर्य"। १०. पारियावणिया किरिया दुविहा पारितापनिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, १०. पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की हैपण्णत्ता, तं जहा
तद्यथासहत्थपारियावणिया चेव, स्वहस्तपारितापनिकी चैव,
स्वहस्तपारितापनिकी-अपने हाथ से
स्वयं या दूसरे को परिताप देना। परहत्थपारियावणिया चेव। परहस्तपारितापनिकी चैव ।
परहस्तपारितापनिकी-दूसरे के हाथ से स्वयं या दूसरे को परिताप
दिलाना। ११. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
११. क्रिया दो प्रकार की है
जहा
तद्यथा
पाणातिवायकिरिया चेव, प्राणातिपातक्रिया चैव,
प्राणातिपातक्रिया-जीव-वध से होने
वाला कर्म-बंध। अपच्चक्खाणकिरिया चेव। अप्रत्याख्यानक्रिया चैव।
अप्रत्याख्यानक्रिया-अविरति से होने
वाला कर्म-बंध। १२. पाणातिवायकिरिया दुविहा पाणातिपातक्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, १२. प्राणातिपातक्रिया दो प्रकार की है
पण्णत्ता, तं जहासहत्थपाणातिवायकिरिया चेव, स्वहस्तप्राणातिपात क्रिया चैव, स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया--अपने हाथ
से अपने या दूसरे के प्राणों का अतिपात
करना। परहत्थपाणातिवायकिरिया चेव। परहस्तप्राणातिपातक्रिया चैव । परहस्तप्राणातिपातक्रिया--दूसरे के
हाथ से अपने या दूसरे के प्राणों का
अतिपात करवाना। १३. अपच्चक्खाणकिरिया
अप्रत्याखानक्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, १३. अप्रत्याख्यानक्रिया दो प्रकार की हैपण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजीवअपच्चक्खाणकिरिया चेव, जीवअप्रत्याख्यानक्रिया चैव,
जीवअप्रत्याख्यानक्रिया-जीवविषयक
अविरति से होनेवाला कर्म-बंध। अजीवअपच्चक्खाणकिरिया चेव। अजीवअप्रत्याख्यानक्रिया चैव।
अजीवअप्रत्याख्यानक्रिया-अजीवविषयक
अविरति से होनेवाला कर्म-बंध" । १४. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
१४. क्रिया दो प्रकार की है--- जहा
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(स्थान)
आरंभिया चेव, परिगहिया चेव । १५. आरंभिया
पण्णत्ता, तं जहा
जीवआरंभिया चेव,
३८
आरम्भिकी चैव, पारिग्रहिकी चैव ।
किरिया दुविहा आरम्भिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
तद्यथाजीवारम्भिकी चैव,
अजीवआरंभिया चेव ।
❤
१६. पारिग्गहिया किरिया दुविहा पारिग्रहिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
तद्यथा
पण्णत्ता, तं जहाजीवपारिगहिया चेव,
जीवपरिग्रहिकी चैव,
अजीवारिगहिया चेव ।
अजीवपारिग्रहिकी चैव ।
१७. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये, प्रज्ञप्ते, तद्यथा
जहाँमायावत्तिया चेव,
मायाप्रत्यया चैव,
अजीवारम्भिकी चैव ।
मिच्छादंसणवत्तिया चेव ।
मिथ्यादर्शनप्रत्यया चैव ।
१८. मायावत्तिया किरिया दुविहा मायाप्रत्यया क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
पण्णत्ता, तं जहा आयभाववकणता चेव,
तद्यथाआत्मभाववत्रता चैव,
परभाववंकणता चेव ।
परभाववक्रता चैव ।
प्रज्ञप्ता, तद्यथाऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया चैव,
स्थान २: सूत्र १५-१६
आरंभिकी- उपमर्दन की प्रवृत्ति ।
पारिग्रहिकी परिग्रह में प्रवृत्ति" ।
१५. आरंभिकी क्रिया दो प्रकार की है-
-
जीव- आरंभिकी— जीव के उपमर्दन की प्रवृत्ति ।
अजीव - आरंभिक -- जीवकलेवर, जीवा
कृति आदि के उपमर्दन की प्रवृत्ति" ।
१६. पारिग्रहिकी क्रिया दो प्रकार की है—
आत्मभाव वञ्चना--- अप्रशस्त आत्मभाव को प्रशस्त प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति ।
परभाव वञ्चना —— कूटलेख आदि के द्वारा दूसरों को छलने की प्रवृत्ति ।
१६. मिच्छादंसणवत्तया किरिया दुविहा मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया द्विविधा १६. मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की
पण्णत्ता, तं जहा
ऊणाइरियमिच्छादंसणवत्तिया
चेव,
जीवपारिग्रहिकी - सजीव परिग्रह में प्रवृत्ति |
अजीवपारिग्रहिकी - निर्जीव परिग्रह में प्रवृत्ति ।
१७. क्रिया दो प्रकार की है
मायाप्रत्यया - माया से होनेवाली प्रवृत्ति |
मिथ्यादर्शनप्रत्यया - मिथ्यादर्शन
होनेवाली प्रवृत्ति" ।
१८. मायाप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की है
है—
ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शनप्रत्यया - जिसमें तत्त्व के स्वरूप का न्यून या अधिक स्वीकार हो, जैसे शरीरव्यापी आत्मा को अंगुष्ठ प्रभाव या सर्वव्यापी स्वीकार
करना ।
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ठाणं (स्थान)
तव्वइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया
चेव ।
२०. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
जहा
दिट्टिया चेव,
दृष्टिजा चैव,
३६
तद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शनप्रत्यया चैव ।
पुट्ठिया चेव ।
स्पृष्टिजा चैव ।
२१. दिट्टिया किरिया दुविहा पण्णत्ता, दृष्टिजा क्रिया द्विविधा
तद्यथा
तं जहाजीवदिट्टिया चेव,
चैव
अजीव दिट्टिया चेव ।
सामंतोवणिवाइया चेव ।
अजीवदृष्टिजा चैव ।
२२. पुट्टिया किरिया दुविहा पण्णत्ता, स्पृष्टिजा क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
तं जहा
तद्यथा---
ट्ठिया
जीवस्पृष्टिजा चैव,
अजीवपुट्टिया चेव ।
अवस्पृष्टिजा चैव 1
२३. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं
द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
जहा पाडुच्चिया चेव,
प्रातीत्यिकी चैव,
सामन्तोपनिपातिकी चैव ।
प्रज्ञप्ता,
२४. पाडुच्चिया किरिया दुविहा प्रातीत्यिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
पण्णत्ता, त जहा जीवपाडुच्चिया चेव,
तद्यथाजीवप्रातीत्यिकी चैव,
अजीवपाडुच्चिया चेव ।
अजीवप्रातीत्यिकी चैव ।
स्थान २ : सूत्र २०-२४ तद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शनप्रत्यया - सद्भूत पदार्थ के अस्तित्व का अस्वीकार, जैसे आत्मा है ही नहीं ।
२०. क्रिया दो प्रकार की है
दृष्टिजा - देखने के लिए होनेवाली गात्मक प्रवृत्ति ।
स्पृष्टिजा -- स्पर्शन के लिए होनेवाली रागात्मक प्रवृत्ति ।
२१. दृष्टिजा क्रिया दो प्रकार की है
जीवदृष्टिजा - सजीव पदार्थों को देखते के लिए होनेवाली रागात्मक प्रवृत्ति । अजीव दृष्टिजा - निर्जीव पदार्थों को देखने के लिए होनेवाली रागात्मक प्रवृत्ति " |
२२. स्पृष्टिजा क्रिया दो प्रकार की है
जीवस्पृष्टिजा --- जीव के स्पर्शन के लिए होनेवाली रागात्मक प्रवृत्ति । अजीवस्पृष्टिजा - अजीव के स्पर्शन के लिए होनेवाली रागात्मक प्रवृत्ति । २३. क्रिया दो प्रकार की है
प्रातीत्यिकी - बाह्यवस्तु के सहारे होनेवाली प्रवृत्ति । सामन्तोपनिपातिकी - अपने पास की वस्तुओं के बारे में जनसमुदाय की प्रतिक्रिया सुनने पर होनेवाली प्रवृत्ति" । २४. प्रातीत्यिकी क्रिया दो प्रकार की है
जीवप्रातीत्यिकी - जीव के सहारे होने वाली प्रवृत्ति ।
अजीवप्रातीत्यिकी - अजीव के सहारे होनेवाली प्रवृत्ति" ।
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ठाणं (स्थान)
२५. सामंतोवणिवाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहाजीवसामंतोवणिवाइया चेव,
अजीव सामंतोवणिवाइया चेव ।
अजीवसाहत्थिया चैव ।
किरिया
स्थान २ : २५-२६
सामन्तोपनिपातिकी क्रिया द्विविधा २५. सामन्तोपनिपातिकी क्रिया दो प्रकार की प्रज्ञप्ता, तद्यथाजीवसामन्तोपनिपातिकी चैव,
है
२६. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा—
जहा -
साहित्थिया चेव,
स्वास्तिकी चैव
सत्थिया चेव ।
सृष्टिकी चैव ।
२७. साहित्थिया किरिया दुविहा स्वाहस्तिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
तद्यथा-
पण्णत्ता, तं जहाजीवसाहत्थिया चेव,
जीवस्वास्तिकी चैव,
अजीवणेसत्थिया चेव ।
४०
अजीव सामन्तोपनिपातिकी चैव ।
२८. सत्थिया किरिया दुविहा नैसृष्टिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
तद्यथा
पण्णत्ता, तं जहाजीवणेस त्थिया चेव,
अजीवस्वास्तिकी चैव ।
सृष्टी
अजीवनैसृष्टिकी चैव ।
२६. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
जहाआणवणिया चेव,
आज्ञापनिका चैव,
वेयारणिया चेव ।
वैदारणिका चैव ।
जीवसामन्तोपनिपातिकी - अपने पास की सजीव वस्तुओं के बारे में जनसमुदाय की प्रतिक्रिया सुनने पर होनेवाली प्रवृत्ति । अजीवसामन्तोपनिपातिकी --- अपने पास की निर्जीव वस्तुओं के बारे में जनसमुदाय की प्रतिक्रिया सुनने पर होनेवाली प्रवृत्ति" ।
२६. क्रिया दो प्रकार की है
स्वास्तिकी - अपने हाथ से होनेवाली क्रिया |
सृष्टिकी - किसी वस्तु के फेंकने से होनेवाली क्रिया" |
२७. स्वास्तिकी क्रिया दो प्रकार की है
जीवस्वास्तिकी - अपने हाथ में रहे
हुए जीव के द्वारा किसी दूसरे जीव को मारने की क्रिया । अजीवस्वाहस्तिकी - अपने हाथ में रहे हुए निर्जीव शस्त्र के द्वारा किसी दूसरे जीव को मारने की क्रिया" ।
२८. सृष्टिकी क्रिया दो प्रकार की है
जीवन सृष्टिकी - जीव को फेंकने से होनेवाली क्रिया ।
अजीव सृष्टिकी - अजीव को फेंकने से होनेवाली क्रिया ।
२६. क्रिया दो प्रकार की है
आज्ञापनी - आज्ञा देने से होनेवाली क्रिया |
वैदारिणी - स्फोट से होनेवाली क्रिया ।
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ठाणं (स्थान)
४१
३०. आणवणिया किरिया दुविहा आज्ञापनिका क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
तद्यथा— जीवाज्ञापनिका चैव,
पण्णत्ता, तं जहाजीवआणवणिया चेव,
अजीवआणवणिया चेव ।
३१. वेयारणिया किरिया दुविहा वैदारणिका क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
पण्णत्ता, तं जहाजीववेयारणिया चेव,
तद्यथाजीववैदारणिका चैव,
अजीववैदारणिका चैव ।
किरियाओ पण्णत्ताओ द्वे क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
अनाभोगप्रत्यया चैव,
अजीववेयारणिया चेव ।°
३२. दो
तं जहाअणाभोगवत्तिया चेव,
अणवकखवत्तिया चेव ।
अणाउत्तपमज्जणता चेव ।
३३. अणाभोगवत्तिया किरिया दुविहा अनाभोगप्रत्यया क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता,
तद्यथा
पण्णत्ता, तं जहा अणाउत्तआइयणता चेव,
अनायुक्तादानता चैव,
अनायुक्ताप्रमार्जनता चैव ।
३४. अणवखव त्तिया किरिया दुविहा अनवकाङ्क्षाप्रत्यया क्रिया द्विविधा
पण्णत्ता, तं जहाआयसरीरअणवकखवत्तिया चेव,
परसरीरअणवकखव त्तिया चेव ।
अजीवाज्ञापनिका चैव ।
३५. दो कि रियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा
अनवकाङ्क्षाप्रत्यया चैव ।
प्रज्ञप्ता, तद्यथाआत्मशरीरानवकाङ्क्षाप्रत्यया चैव,
परशरीरानवकाङ्क्षाप्रत्यया चैव ।
क्रिये प्रज्ञप्ते, तद्यथा
स्थान २ : सूत्र ३०-३५
३०. आज्ञापनी क्रिया दो प्रकार की है-
जीवआज्ञापनी — जीव के विषय में आज्ञा देने से होनेवाली क्रिया । अजीव आज्ञापनी अजीव के विषय में आज्ञा देने से होनेवाली क्रिया ।
३१. वेदारिणी क्रिया दो प्रकार की है---
जीववदारिणी - जीव के स्फोट से होने
वाली क्रिया ।
अजीव वैदारिणी - अजीव के स्फोट से होनेवाली क्रिया ।
३२. क्रिया दो प्रकार की है
अनाभोगप्रत्यया - असावधानी से होनेवाली क्रिया ।
अनवकांक्षाप्रत्यया अपेक्षा न रखकर ( परिणाम की चिता किये बिना ) की जानेवाली क्रिया ।
३३. अनाभोगप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की है—
अनायुक्त आदानता - असावधानी वस्त्र आदि लेना ।
अनायुक्त प्रमार्जनता - असावधानी से पात्र आदि का प्रमार्जन करना ।
३४. अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की
से
आत्मशरीरअनवकांक्षाप्रत्यया अपने शरीर की अपेक्षा न रखकर की जानेवाली क्रिया । परशरीरअनवकांक्षाप्रत्यया दूसरे के शरीर की अपेक्षा न रखकर की जानेवाली क्रिया" |
३५. क्रिया दो प्रकार की है
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४२
ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र ३६-३६ पेज्जवत्तिया चेव, प्रेयःप्रत्यया चैव,
प्रेयःप्रत्यया--प्रेयस् के निमित्त से होने
वाली क्रिया। दोसवत्तिया चेव। द्वेषप्रत्यया चैव।
दोषप्रत्यया-द्वेष के निमित्त से होने..
वाली क्रिया। ३६. पेज्जवत्तिया किरिया दुविहा प्रेयःप्रत्यया क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, ३६. प्रेयःप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की हैपण्णत्ता, तं जहा
तद्यथामायावत्तिया चेव, मायाप्रत्यया चैव,
मायाप्रत्यया। लोभवत्तिया चेव। लोभप्रत्यया चैव।
लोभप्रत्यया। ३७. दोसवत्तिया किरिया दुविहा द्वेषप्रत्यया क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, ३७. दोषप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की है - पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाकोहे चेव, माणे चेव। क्रोधश्चैव, मानश्चैव।
क्रोधप्रत्यया। मानप्रत्यया"।
गरहा-पदं
गर्हा-पदम् ३८. दुविहा गरिहा पण्णत्ता तं जहा- द्विविधा गर्दा प्रज्ञप्ता, तद्यथामणसा वेगे गरहति,
मनसा वैकः गर्हते, वयसा वेगे गरहति।
वचसा वैकः गहते। अहवा- गरहा दुविहा पण्णत्ता, अथवा---गर्दा द्विविधा प्रज्ञप्ता, तं जहा
तद्यथादोहं वेगे अद्धं गरहति, दीर्घ वैकः अद्ध्वानं गर्हते, रहस्सं वेगे अद्धं गरहति। ह्रस्वं वैक: अद्ध्वानं गर्हते।
गर्हा-पद ३८. गर्दा दो प्रकार की है
कुछ लोग मन से गर्दा करते हैं। कुछ लोग वचन से गर्दा करते हैं। अथवा-गर्दा दो प्रकार की है
कुछ लोग दीर्घकाल तक गर्दा करते हैं। कुछ लोग अल्पकाल तक गर्दा करते हैं ।
पच्चक्खाण-पदं प्रत्याख्यान-पदम
प्रत्याख्यान-पद ३६. दुविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं द्विविधं प्रत्याख्यानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ३६. प्रत्याख्यान दो प्रकार का है
जहामणसा वेगे पच्चक्खाति, मनसा वैकः प्रत्याख्याति,
कुछ लोग मन से प्रत्याख्यान करते हैं। वयसा वेगे पच्चक्खाति। वचसा वैक: प्रत्याख्याति ।
कुछ लोग वचन से प्रत्याख्यान करते हैं। अहवा-पच्चक्खाणे दुविहे अथवा–प्रत्याख्यानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, अथवा-प्रत्याख्यान दो प्रकार का हैपण्णत्ते, तं जहा
तद्यथादोहं वेगे अद्धं पच्चक्खाति, दीर्घ वैकः अद्ध्वानं प्रत्याख्याति, कुछ लोग दीर्घकाल तक प्रत्याख्यान
करते हैं। रहस्सं वेगे अद्धं पच्चक्खाति। ह्रस्वं वैकः अद्ध्वानं प्रत्याख्याति । कुछ लोग अल्पकाल तक प्रख्यात्यान
करते हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ४०-४७
विज्जाचरण-पदं विद्याचरण-पदम्
विद्याचरण-पद ४०. दोहिं ठाणेहं संपण्णे अणगारे द्वाभ्यां स्थानाभ्यां सम्पन्नः अनगारः ४०. विद्या और चरण" (चरित्र) इन दो
अणादीयं अणवयग्गं दोहमद्धं अनादिकं अनवदनं दीर्धाद्ध्वानं स्थानों से सम्पन्न अनगार अनादि-अनंत चाउरंतं संसारकतारं वीति- चातुरन्तं संसारकान्तारं व्यतिव्रजेत, प्रलंब मार्गवाले तथा चार अन्तवाले वएज्जा, तं जहातद्यथा
संसार-रूपी कान्तार को पार कर जाता विज्जाए चेव, चरणेण चेव। विद्यया चैव, चरणेन चैव।
है-मुक्त हो जाता है।
आरंभ-परिग्गह-पदं आरम्भ-परिग्रह-पदम्
आरम्भ-परिग्रह-पद ४१. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो ४१. आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को
णो केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज केवलिप्रज्ञप्तं धर्म लभेत श्रवणतया, जाने और छोडे बिना आत्मा केवलीसवणयाए, तं जहातद्यथा
प्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन पाता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ४२. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो ४२. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों के णो केवलं बोधि बुझज्जा, केवलां बोधि बुध्येत, तद्यथा
जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्धतं जहा
बोधि का अनुभव नहीं करता। आरंभे चेव, परिगहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ४३. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ४३. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को
णो केवलं मुंडे भवित्ता अगारामो मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां जाने और छोडे बिना आत्मा मुंड होकर, अणगारियं पन्वइज्जा, तं जहा- प्रव्रजेत्, तद्यथा
घर को छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता प्रारंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव।
(साधुपन) को नहीं पाता। ४४. 'दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ४४. आरम्भ और परिग्रह--इन दो स्थानों को
णो केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, ब्रह्मचर्यवासमावसेत्, तद्यथा- जाने और छोडे बिना आत्मा सम्पूर्ण तं जहा
ब्रह्मचर्यवास (आचार) को प्राप्त नहीं आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव ।
करता। ४५. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलेन ४५. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को णो केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, संयमेन संयच्छेत्, तद्यथा
जाने और छोडे बिना आत्मा सम्पूर्ण तं जहा
संयम के द्वारा संयत नहीं होता । आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ४६. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को ४६. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलेन जाने और छोडे बिना आत्मा सम्पूर्ण णो केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, संवरेण संवृणुयात्, तद्यथा
संवर के द्वारा संवत नहीं होता। तं जहा
आरंभे चेव, परिग्गहे चेव । आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ४७. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ४७. आरम्भ और परिग्रह-इन दोस्थानों को
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ठाणं (स्थान)
४४
स्थान २: सूत्र ४८-५५ णो केवलमाभिणिबोहियणाणं आभिनिबोधिकज्ञानं उत्पादयेत्, जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध उप्पाडेज्जा, तं जहातद्यथा
आभिनिबोधिकज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ४८. दो ठाणाइंअपरियाणेत्ता आया णो द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ४८. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, श्रुतज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा
को जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध तं जहा
श्रुतज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ४६. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ४६. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों णो केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, अवधिज्ञानं उत्पादयेत् तद्यथा
को जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध तं जहा
अवधिज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चै, परिग्रहांश्चैव । ५०. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ५०. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों
णो केवलं मणपज्जवणाणं उप्पा- मनःपर्यवज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा- को जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध डेज्जा, तं जहा
मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भाश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ५१. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ५१. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों जो केवलं केवलणाणं उप्पाडेज्जा, केवलज्ञानं उत्पादयेत, तद यथा
को जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध तं जहा
केवलज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव । आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ५२. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलिप्रज्ञप्तं ५२. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों
केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज धर्म लभेत श्रवणतया, तद्यथा- को जानकर और छोडकर आत्मा केवलीसवणयाए, तं जहा
प्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ५३. 'दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय प्रात्मा केवलां बोधि ५३. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं बोधि बुझज्जा, तं जहा- बुध्येत, तद्यथा
को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। बोधि का अनुभव करता है। ५४. दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं मुण्डो ५४. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को
केवलं मुंडे भवित्ता अगारामो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजेत्, जानकर और छोडकर आत्मा मुंड होकर, अणगारियं पब्वइज्जा, तं जहा- तद्यथा
घर छोडकर सम्पूर्ण अनगारिता(साधुपन) आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव।
को पाता है। ५५. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं ५५ .आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, ब्रह्मचर्यवासमावसेत्, तद्यथा
जानकर और छोड़कर आत्मा सम्पूर्ण तं जहा
ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव ।
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४५
ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र ५६-६३ ५६. दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलेन संय- ५६. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, मेन संयच्छेत्, तद्यथा--
को जानकर और छोडकर आत्मा सम्पूर्ण तं जहा
संयम के द्वारा संयत होता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ५७. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलेन संव- ५७. आरम्भ और परिग्रह--इन दो स्थानों केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, रेण संवृणुयात्, तद्यथा
को जानकर और छोडकर आत्मा सम्पूर्ण तं जहा
संवर के द्वारा संवृत होता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ५८. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय. आत्मा केवलं ५८. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को
केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पा- आभिनिबोधिकज्ञानं उत्पादयेत् । जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध डेज्जा, तं जहातद्यथा
आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ५६. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय प्रात्मा केवलं श्रुत- ५६. आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, ज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा
को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध तं जहा
श्रुतज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव।। ६०. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं ६०. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, अवधिज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा
को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध तं जहा
अवधिज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ६१. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं मन:- ६१. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा पर्यवज्ञानं उत्पादयेत, तदयथा
को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध तं जहा
मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ६२. दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं ६२. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं केवलणाणं उप्पाडेज्जा. केवलज्ञानं उत्पादयेत, तद्यथा
को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध तं जहा
केवलज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव ।
सोच्चा-अभिसमेच्च-पदं श्रुत्वा-अभिसमेत्य-पदम्
श्रुत्वा-अभिसमेत्य-पद ६३. दोहि ठाणेहिं आया केवलिपण्णत्तं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां प्रात्मा केवलिप्रज्ञप्तं ६३. सुनने और जानने-इन दो स्थानों से
धम्मं लभेज्ज सवणयाए, तं जहा- धर्म लभेत श्रवणतया, तद्यथासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चैव। श्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव।
आत्मा केवलीप्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है।
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ori (स्थान)
४६
स्थान २ : सूत्र ६४-७३
६४. दोहि ठाणेह आया केवलं बोधि द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलां बोधि ६४. सुनने और जानने-इन दो स्थानों से
आत्मा विशुद्ध-बोधि का अनुभव
बुज्भेज्जा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ६५. दोहि ठाणेहिं आया केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइज्जा, त जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ६६. दोहि ठाणेहिं आया केवलं बंभचेर वासमावसेज्जा, तं जहा - सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ६७. दोहि ठाणेह आया केवलं संजमेणं संजमेज्जा तं जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ६८. दोहि ठाणेहिं आया केवलं संवरेणं संवरेज्जा, तं जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ६६. दोहिं ठाणेह आया केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ७०. दोहिं ठाणेह आया केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ७१. दोहि ठाणेहिं आया केवलं ओहि गाणं उप्पाडेज्जा, तं जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ७२. दोहि ठाणेह आया केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा,
तं जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव । ७३. दोहि ठाणेह आया केवलं केवलणाणं उप्पाडेज्जा तं जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव ।°
बुध्येत तद्यथाश्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजेत् तद्यथा
श्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं ब्रह्मचर्यवासमावसेत्, तद्यथा - श्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं संयमेण संयच्छेत्, तद्यथाश्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं संवरेणं संवृणुयात्, तद्यथा - श्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं आभिनिबोधिकज्ञानं उत्पादयेत्,
तद्यथा
श्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं श्रुतज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथाश्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं अवधिज्ञानं उत्पादयेत् तद्यथाश्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव ।
द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं मनः पर्यवज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथाश्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव ।
द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलं केवलज्ञानं उत्पाद्येत्, तद्यथाश्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव ।
करता है ।
६५. सुनने और जानने – इन दो स्थानों से आत्मा मुंड होकर, घर छोडकर, सम्पूर्ण अनगारिता ( साधुपन) को पाता है ।
६६. सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करता है ।
६७. सुनने और जानने इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण संयम के द्वारा संत होता है।
६८. सुनने और जानने — इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण संवर के द्वारा संवृत होता: है ।
६६. सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है ।
७०. सुनने और जानने-—- इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध श्रुतज्ञान को प्राप्त करता है ।
७१. सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्तः करता है।
७२. सुनने और जानने – इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध मनः पर्यवज्ञान को प्राप्त करता है ।
७३. सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध केवलज्ञान को प्राप्तः करता है।
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ठाणं (स्थान)
४७
स्थान २ : सूत्र ७४-७७
कालचक्क-पदं
कालचक्र-पदम् ७४. दो समाओ पण्णत्ताओ, तंजहा- द्वे समे प्रज्ञप्ते, तद्यथा
कालचक्र-पद ७४. समा (कालमर्यादा) दो प्रकार की
ओसप्पिणी समा चेव,
अविसर्पिणी समा चैव,
अवसर्पिणी समा-इसमें वस्तुओं के रूप, रस, गन्ध, आयु आदि का क्रमशः ह्रास होता है। उत्सर्पिणी समा- इसमें वस्तुओं के रूप, रस, गन्ध, आयु आदि का क्रमशः विकाम होता है।
उस्सप्पिणी समा चेव।
उत्सपिणी समा चैव।
उम्माय-पदं ७५. दुविहे उम्माए पण्णत्ते, तं जहा
जक्खाएसे चेव,
उन्माद-पदम् द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, तद्यथायक्षावेशश्चैव,
मोहणिज्जस्स चेव कम्मस्स मोहनीयस्य चैव कर्मणः उदयेन। उदएणं।
तत्र योऽसौ यक्षावेश:, स सुखवेद्यतत्थ णं जे से जक्खाएसे, से णं तरकश्चैव सुखविमोच्यतरकश्चैव। सुहवेयतराए चेव सुहविमोयत- तत्र योऽसौ मोहनीयस्य कर्मणः उदयेन, राए चेव ।
स दुःखवेद्यतरकश्चैव दुःखविमोच्यतत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स तरकश्चैव । कम्मस्स उदएणं, से णं दुहवेयतराए चेव दुहविमोयतराए चेव।
उन्माद-पद ७५. उन्माद दो प्रकार का होता है
यक्षावेश-शरीर में यक्ष के आविष्ट होने से उत्पन्न। मोहनीय-कर्म के उदय से उत्पन्न । जो यक्षावेशजनित उन्माद है वह मोहजनित उन्माद की अपेक्षा सुख से भोगा जाने वाला और सुख से छूट सकने वाला होता है। जो मोहजनित उन्माद है वह यक्षावेशजनित उन्माद की अपेक्षा दुःख से भोगा जाने वाला और दुःख से छूट सकने वाला होता है।
दंड-पदं दण्ड-पदम्
दण्ड-पद ७६. दो दंडा पण्णत्ता, तं जहाद्वौ दण्डौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा
७६. दण्ड दो प्रकार का होता हैअट्ठादंडे चेव, अर्थदण्डश्चैव,
अर्थदण्ड। अणट्ठादंडे चेव। अनर्थदण्डश्चैव।
अनर्थदण्ड। ७७. णेरइयाणं दो दंडा पण्णत्ता, नैरयिकाणां द्वौ दण्डौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ७७. नैरयिकों के दो दण्ड होते हैं ---
तं जहाअट्ठादंडे य, अर्थदण्डश्च,
अर्थदण्ड । अणट्ठादंडे य। अनर्थदण्डश्च ।
अनर्थदण्ड।
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४८
स्थान २ : सूत्र ७८-८४
ठाणं (स्थान) ७८. एवं चउवीसादंडओ
वेमाणियाणं।
जाव
यावत्
एवम्-चतुर्विंशतिदण्डकः वैमानिकानाम् ।
७८. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभ
दण्डकों में दो दण्ड होते हैंअर्थदण्ड, अनर्थदण्ड।
दसण-पदं दर्शन-पदम्
दर्शन-पद ७६. दुविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा- द्विविधं दर्शनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ७६. दर्शन दो प्रकार का हैसम्मईसणे चेव, सम्यग्दर्शनञ्चैव,
सम्यग्दर्शन। मिच्छादसणे चेव। मिथ्यादर्शनञ्चैव।
मिथ्यादर्शन। ८०. सम्मसणेदुविहे पण्णत्ते, तंजहा- सम्यग्दर्शनं द्विविधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा- ८०. सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है - णिसग्गसम्मइंसणे चेव, निसर्गसम्यग्दर्शनञ्चैव,
निसर्गसम्यग्दर्शन-आन्तरिक दोषों की शुद्धि होने पर किसी बाह्य निमित्त के बिना सहज ही प्राप्त होनेवाला
सम्यग्दर्शन। अभिगमसम्मइंसणे चेव। अभिगमसम्यग्दर्शनञ्चैव।
अभिगमसम्यग्दर्शन-उपदेश आदि निमित्तों से प्राप्त होनेवाला
सम्यग्दर्शन। ५ ८१. णिसग्गसम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते, निसर्गसम्यग्दर्शनं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ८१. निसर्गसम्यग्दर्शन दो प्रकार का हैतं जहा
तद्यथापडिवाइ चेव, प्रतिपाती चैव,
प्रतिपाती-जो वापस चला जाए । अपडिवाइ चेव। अप्रतिपाती चैव।
अप्रतिपाती-जो वापस न जाए। ८२. अभिगमसम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते, अभिगमसम्यग्दर्शनं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ८२. अभिगमसम्यग्दर्शन दो प्रकार का हैतं जहा
तद्यथापडिवाइचेव, प्रतिपाती चैव,
प्रतिपाती। अपडिवाइ चेव। अप्रतिपाती चैव।
अप्रतिपाती। ८३. मिच्छादसणे दुविहे पण्णत्ते, तं मिथ्यादर्शनं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ८३. मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है - जहा
तद्यथाअभिग्गहियमिच्छादसणे चेव, आभिग्रहिकमिथ्यादर्शनञ्चैव,
आभिग्नहिक-विपरीत सिद्धान्त के
आग्रह से उत्पन्न। अणभिग्गहियमिच्छादसणे चेव। अनाभिग्रहिकमिथ्यादर्शनञ्चैव । अनाभिग्रहिक-सहज या गुण-दोष की
परीक्षा किये बिना उत्पन्न ।" ८४. अभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे आभिग्रहिकमिथ्यादर्शनं द्विविधं ८४. आभिग्रहिकमिथ्यादर्शन दो प्रकार का हैपण्णत्ते, तं जहा
प्रज्ञप्तम्, तद्यथासपज्जवसिते चेव, सपर्यवसितञ्चैव,
सपर्यवसित-सान्त। अपज्जवसिते चेव। अपर्यवसितञ्चैव ।
अपर्यवसित-अनन्त ।"
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४६
ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ८५-६१ ८५. अणभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे अनाभिग्रहिकमिथ्यादर्शनं द्विविधं ८५. अनाभिग्रहिकमिध्यादर्शन दो प्रकार का
पण्णत्ते, तं जहा-सपज्जव सिते प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-सपर्यवसितञ्चैव, हैचेव, अपज्जवसिते चेव। अपर्यवसितञ्चैव।
सपर्यवसित, अपर्यवसित।
णाण-पदं ज्ञान-पदम
ज्ञान-पद ८६. दुविहे गाणे पण्णत्ते, तं जहा- द्विविधं ज्ञानं प्रज्ञप्तम् तद्यथा--- ८६. ज्ञान दो प्रकार का हैपच्चक्खे चेव, परोक्खे चेव। प्रत्यक्षञ्चैव, परोक्षञ्चैव ।
प्रत्यक्ष, परोक्ष ।५१ ८७. पच्चक्खे णाणे दुविहे पण्णत्ते, तं प्रत्यक्षं ज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ८७. प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का हैजहा—केवलणाणे चेव, तद्यथा-केवलज्ञानञ्चैव,
केवलज्ञान। णोकेवलणाणे चेव। नोकेवलज्ञानञ्चैव ।
नोकेवलज्ञान । १८. केवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं केवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ८८. केवलज्ञान दो प्रकार का हैजहा—भवत्थकेवलणाणे चेव, भवस्थकेवलज्ञानञ्चैव,
भवस्थकेवलज्ञान-संसारी जीवों का सिद्ध केवलणाणे चेव । सिद्धकेवलज्ञानञ्चैव।
केवलज्ञान । सिद्धकेवलज्ञान-मुक्त
जीवों का केवलज्ञान। ८६. भवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, भवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ८६. भवस्थकेवलज्ञान दो प्रकार का है-- तं जहातद्यथा
सयोगिभवस्थकेवलज्ञान। सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, सयोगिभवस्थकेवलज्ञानञ्चैव,
अयोगिभवस्थकेवलज्ञान। अजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव। अयोगिभवस्थकेवलज्ञानञ्चैव । ६०. सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ६०. सयोगिभवस्थकेवलज्ञान दो प्रकार का है
पण्णत्ते, तं जहा—पढमसमय- तद्यथा—प्रथमसमयसयोगिभवस्थ- प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान । सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, केवलज्ञानञ्चैव, अप्रथमसमयसयोगि- अप्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान । अपढमसमयसजोगिभवत्थकेवल- भवस्थकेवलज्ञानञ्चैव। णाणे चेव। अहवा-चरिमसमयसजोगि- अथवा चरमसमयसयोगिभवस्थ
अथवा-चरमसमयसयोगिभवस्थकेवलभवत्थकेवलणाणे चेव, केवलज्ञानञ्चैव,
ज्ञान। अचरिमसमयसजोगिभवत्थ- अचरमसमयसयोगिभवस्थकेवल
अचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान । केवलणाणे चेव।
ज्ञानञ्चैव। ६१. 'अजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे अयोगिभवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं १. अयोगिभवस्थकेवलज्ञान दो प्रकार का
पण्णत्ते, तं जहा—पढमसमय- प्रज्ञप्तम्, तद्यथाअजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, प्रथमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानञ्चैव, प्रथमसमयअयोगिभवस्थकेवलज्ञान । अपढमसमयअजोगिभवत्थकेवल- अप्रथमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञान- अप्रथमसमयअयोगिभवस्थकेवलज्ञान । णाणे चेव।
ञ्चै व। अहवा-चरिमसमयअजोगिभवत्थ- अथवा चरमसमयायोगिभवस्थकेवल- अथवा-चरमसमयअयोगिभवस्थकेवलकेवलणाणे चेव,
ज्ञानञ्चैव,
ज्ञान।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र ६२-१०० अचरिमसमयअजोगिभवत्थकेवल- अचरमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञान- अचरमसमयअयोगिभवस्थकेवलज्ञान । णाणे चेव ।
ञ्चैव। ६२. सिद्ध केवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं सिद्धकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ६२. सिद्धकेवलज्ञान दो प्रकार का है
जहा—अणंतरसिद्धकेवलणाणे तद्यथा—अनन्तरसिद्धकेवलज्ञानञ्चव, अनन्तरसिद्धकेवलज्ञान । चेव, परंपरसिद्धकेवलणाणे चेव। परम्परसिद्धकेवलज्ञानञ्चैव ।
परम्परसिद्धकेवलज्ञान। ६३. अणंतरसिद्ध केवलणाणे दुविहे अनन्तरसिद्धकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ६३. अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान दो प्रकार का हैपण्णत्ते, तं जहातद्यथा
एकअनन्तरसिद्ध केवलज्ञान। एक्काणंतरसिद्धकेवलणाणे नेव, एकानन्तरसिद्धकेवलज्ञानञ्चैव,
अनेकअनन्तरसिद्धकेवलज्ञान । अणेक्काणंतरसिद्ध केवलणाणे चेव। अनेकानन्तरसिद्धकेवलज्ञानञ्चैव । ६४. परंपरसिद्ध केवलणाणे दुविहे परम्परसिद्धकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ६४. परम्परसिद्धकेवलज्ञान दो प्रकार का पण्णत्ते, तं जहा
तद्यथाएक्कपरंपरसिद्ध केवलणाणे चेव, एकपरम्परसिद्धकेवलज्ञानञ्चैव,
एकपरम्परसिद्धकेवलज्ञान । अणेक्कपरंपरसिद्ध केवलणाणेचेव। अनेकपरम्परसिद्धकेवलज्ञानञ्चैव । अनेकपरम्परसिद्धकेवलज्ञान । ६५. णोकेवलणाणे दुविहे पण्णते, तं नोकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ६५. नोकेवलज्ञान दो प्रकार का हैजहा—ओहिणाणे चेव, तद्यथा—अवधिज्ञानञ्चैव,
अवधिज्ञान । मणपज्जवणाणे चेव। मनःपर्यवज्ञानञ्चैव ।
मनःपर्यवज्ञान। ६६. ओहिणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं अवधिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६६. अवधिज्ञान दो प्रकार का हैजहा-भवपच्चइए चेव, भवप्रत्ययिकञ्चैव,
भवप्रत्ययिक-जन्म के साथ उत्पन्न खओवस मिए चेव। क्षायोपशमिकञ्चैव।
होने वाला। क्षायोपशमिक-ज्ञानावरण
कर्म के क्षयउपशम से उत्पन्न होनेवाला। ६७. दोण्हं भवपच्चइए पण्णत्ते, तं जहा- द्वयोर्भवप्रत्ययिकं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६७. दो के भवप्रत्ययिक होता है
देवाणं चेव, जेरइयाणं चेव। देवानाञ्चैव, नैरयिकाणाञ्चैव। देवताओं के, नैरयिकों के। ६८. दोण्हं खओवसमिए पण्णत्ते, तं द्वयोः क्षायोपशमिक प्रज्ञप्तम्, ६८. दो के क्षायोपशमिक होता हैजहा--मणुस्साणं चेव, तद्यथा- मनुष्याणाञ्चैव,
मनुष्यों के। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव। पञ्चेन्द्रियतिर्यंचों के। EE. मणपज्जवणाणे दुविहे पण्णत्ते, मनःपर्यवज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ६६. मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का हैतंजहा—उज्जुमति चेव, तद्यथा-ऋजुमति चैव,
ऋजमति–मानसिक चिन्तन के पुद्गलों विउलमति चेव। विपुलमति चैव।
को सामान्य रूप से जाननेवाला ज्ञान । विपुलमति-मानसिक चिन्तन के पुद्गलों की विविध पर्यायों को विशेष रूप से
जाननेवाला ज्ञान। १००. परोक्खे णाणे दुविहे पण्णत्ते, तं परोक्षं ज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा- १००. परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का हैजहा—आभिणिबोहियणाणे चेव, आभिनिबोधिकज्ञानञ्चैव,
आभिनिबोधिकज्ञान। सुयणाणे चेव। श्रुतज्ञानञ्चैव।
श्रुतज्ञान।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र १०१-११० १०१. आभिणिबोहियणाणे दुविहे आभिनिबोधिकज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, १०१. आभिनिबोधिकज्ञान दो प्रकार का हैपण्णत्ते, तंजहा—सुयणिस्सिए चेव, तद्यथा-श्रुतनिश्रितञ्चैव,
श्रुतनिश्रित। असुयणिस्सिए चेव। अश्रुतनिश्रितञ्चैव ।
अश्रुतनिधित। १०२. सुयणिस्सिए दुविहे पण्णत्ते, तं श्रुतनिश्रितं द्विविधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा- १०२. श्रुतनिश्रित दो प्रकार का हैजहा—अत्थोग्गहे चेव, अर्थावग्रहश्चैव,
अर्थावग्रह। वंजणोग्गहे चेव। व्यञ्जनावग्रहश्चैव ।
व्यञ्जनावग्रह । १०३. असुयणिस्सिते 'दुविहे पण्णत्ते, अश्रुतनिश्रितं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, १०३. अश्रुतनिश्रित दो प्रकार का हैतं जहा—अत्थोग्गहे चेव, तद्यथा—अर्थावग्रहश्चैव,
अर्थावग्रह। वंजणोग्गहे चेव । व्यञ्जनावग्रहश्चैव।
व्यञ्जनावग्रह। १०४. सुयणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- श्रुतज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १०४. श्रुतज्ञान दो प्रकार का हैअंगपविट्ठ चेव, अङ्गप्रविष्टञ्चैव,
अंगप्रविष्ट । अंगबाहिरे चेव। अङ्गबाह्यञ्चैव।
अंगबाह्य। १०५. अंगबाहिरे दुविहे पण्णत्ते, तं अङ्गबाह्य द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १०५. अंगबाह्य दो प्रकार का हैजहा—आवस्सए चेव, आवश्यकञ्चैव,
आवश्यक । आवस्सयवतिरित्ते चेव। आवश्यकव्यतिरिक्तञ्चैव ।
आवश्यकव्यतिरिक्त। १०६. आवस्सयवतिरित्ते दुविहे पण्णत्ते, आवश्यकव्यतिरिक्तं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, १०६. आवश्यकव्यतिरिक्त दो प्रकार का हैतं जहा—कालिए चेव, तद्यथा-कालिकञ्चैव,
कालिक-जो दिन-रात के प्रथम और उक्कालिए चेव। उत्कालिकञ्चैव।
अन्तिम प्रहर में ही पढा जा सके। उत्कालिक-जो अकाल के सिवाय सभी प्रहरों में पढ़ा जा सके।
धम्म-पदं धर्म-पदम्
धर्म-पद १०७. दुविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा- द्विविधः धर्मः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १०७. धर्म दो प्रकार का हैसुयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव। श्रुतधर्मश्चैव, चरित्रधर्मश्चैव ।
श्रुतधर्म, चारित्रधर्म। १०८. सुयधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- श्रुतधर्मः द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा- १०८. श्रुतधर्म दो प्रकार का है
सुत्तसुयधम्मे चेव, अत्थसुयधम्मे चेव। सूत्रधुतधर्मश्चैव, अर्थश्रुतधर्मश्चैव। सूत्रश्रुतधर्म, अर्थश्रुतधर्म। १०६. चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं चरित्रधर्मः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १०६. चारित्रधर्म दो प्रकार का हैजहा–अगारचरित्तधम्मे चेव, अगारचरित्रधर्मश्चैव,
अगार (गृहस्थ) का चारित्रधर्म । अणगारचरित्तधम्मे चेव। अनगारचरित्रधर्मश्चैव।
अनगार (मुनि) का चारित्रधर्म । संजम-पदं संयम-पदम्
संयम-पद ११०. दुविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा- द्विविधः संयमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ११०. संयम दो प्रकार का हैसरागसंजमे चेव, सरागसंयमश्चैव,
सरागसंयम। वीतरागसंजमे चेव। वीतरागसंयमश्चैव।
वीतरागसंयम।
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५२
ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र १११-११४ १११. स रागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं सरागसंयमः द्विविधः प्रज्ञप्तः, १११. सरागसंयम दो प्रकार का हैजहा-- तद्यथा
सूक्ष्मसंपरायसरागसंयम। सुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव, सूक्ष्मसंपरायसरागसंयमश्चैव,
बादरसंपरायसरागसंयम। बादरसंपरायसरागसंजमे चेव।। बादरसंपरायसरागसंयमश्चैव । ११२. सुहमसंपरायसरागसंजमे दुविहे सूक्ष्मसंपरायसरागसंयमः द्विविधः ११२. सूक्ष्मसंपरायसरागसंयम दो प्रकार का पण्णत्ते, तं जहा
प्रज्ञप्त: तद्यथापढमसमयसुहमसंपरायसराग- प्रथमसमयसूक्ष्मसंपरायसराग
प्रथमसमयसूक्ष्मसंपरायसरागसंयम । संजमे चेव,
संयमश्चैव, अपढमसमयसुहमसंपरायसराग- अप्रथमसमयसूक्ष्मसंपरायसराग
अप्रथमसमयसूक्ष्मसंपरायसरागसंयम। संजमे चेव।
संयमश्चैव। अहवा---चरिमसमयसुहुमसंपराय- अथवा–चरमसमयसूक्ष्मसंपराय
अथवा-चरमसमयसूक्ष्मसंपरायसरागसरागसंजमे चेव, अचरिमसमय- सरागसंयमश्चैव,
संयम। सुहमसंपरायसरागसंजमे चेव। अचरमसमयसूक्ष्मसंपरायस राग
अचरमसमयसूक्ष्मसंपरायसरागसंयम । संयमश्चैव। अहवा–सुहुमसंपरायसरागसंजमे अथवा—सूक्ष्मसंपरायसरागसंयमः अथवा-सूक्ष्मसंपरायसरागसंयम दो दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
प्रकार का हैसंकिलेसमाणए चेव, संक्लिश्यमानकश्चैव,
संक्लिश्यमान। विसुज्झमाणए चेव। विशुद्धयमानकश्चैव।
विशुद्धयमान। ११३. बादरसंपरायसरागसंजमे दुविहे बादरसंपरायसरागसंयमः द्विविधः ११३. बादरसंपरायस रागसंयम दो प्रकार का
पण्णत्ते, तं जहा—पढमसमयबादर- प्रज्ञप्तः, तद्यथा- प्रथमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे चेव, संपरायसरागसंयमश्चैव,
प्रथमसमयबादरसंपरायसरागसंयम। अपढमसमयबादरसंपरायसराग- अप्रथमसमयबादरसंपरायसराग
अप्रथमसमयबादरसंपरायसरागसंयम । संजमेचेव।
संयमश्चैव। अहवा---चरिमसमयबादरसंपराय- अथवा चरमसमयवादरसंपराय
अथवा-चरमसमयबादरसंपरायसरागसरागसंजमे चेव, सरागसंयमश्चैव,
संयम। अचरिमसमयबादरसंपरायसराग- अचरमसमयबादरसंपरायस राग
अचरमसमयबादरसंपरायसरागसंयम । संजमे चेव ।
संयमश्चैव। अहवा-बायरसंपरायसरागसंजमे अथवा—बादरसंपरायसरागसंयमः अथवा-बादरसंपरायसरागसंयम दो दुविहे पण्णत्ते, तं जहाद्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
प्रकार का हैपडिवातिए चेव, अपडिवातिए चेव। प्रतिपातिकश्चैव, अप्रतिपातिकश्चैव । प्रतिपाती, अप्रतिपाती। ११४. वीयरागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं वीतरागसंयमः द्विविधः प्रज्ञप्तः, ११४. वीतरागसंयम दो प्रकार का हैजहातद्यथा
उपशान्तकषायवीतरागसंयम । उवसंतकसायवीयरागसंजमे चेव, उपशान्तकषायवीतरागसंयमश्चैव, क्षीणकषायवीतरागसंयम । खीणकसायवीयरागसंजमे चेव। क्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव ।
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५३
संयम।
ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ११५-११८ ११५. उवसंतकसायवीयरागसं उपशान्तकषायवीतरागसंयमः द्विविध: ११५. उपशान्तकषायवीतरागसंयम दो प्रकार पण्णत्ते, तं जहा
प्रज्ञप्तः, तद्यथापढमसमयउवसंतकसायवीय- प्रथमसमयोपशान्तकषायवीतराग
प्रथमसमयउपशान्तकषायवीतरागसंयम । रागसंजमे चेव,
संयमश्चैव, अपढमसमयउवसंतकसायवीय- अप्रथमसमयोपशान्तकषायवीतराग- अप्रथमसमय उपशान्तकषायवीतरागरागसंजमे चेव।
संयमश्चैव। अहवा-चरिमसमयउवसंत- अथवा-चरमसमयोपशान्तकषाय
अथवा-चरमसमयउपशान्तकषायकसायवीयरागसंजमे चेव, वीतरागसंयमश्चैव,
वीतरागसंयम। अचरिमसमयउवसंतकसाय- अचरमसमयोपशान्तकषायवीतराग- अचरमसमय उपशान्तकषायवीतरागवीयरागसंजमे चेव। संयमश्चैव।
संयम। ११६. खीणकसायवीयरागसंजमे दुविहे क्षीणकषायवीतरागसंयमः द्विविधः ११६. क्षीणकषायवीतरागसंयम दो प्रकार पण्णत्ते, तं जहाप्रज्ञप्तः, तद्यथा
का हैछउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे छद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव, छमस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम । चेव, केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे केवलक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव । केवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम ।
चेव। ११७. छउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे छद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयमः ११७. छद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम दो दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
प्रकार का हैसयंबुद्धछउमत्थखीणकसाय- स्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकषायवीतराग- स्वयंबुद्धछयस्थक्षीणकषायवीतरागवीतरागसंजमे चेव, संयमश्चैव,
संयम। बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसाय- बुद्धबोधितछद्मस्थक्षीणकषायवीतराग- बुद्धबोधितछास्थक्षीणकषायवीतरागवीतरागसंजमे चेव, संयमश्चैव।
संयम। ११८. सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीत- स्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकषायवीतराग- ११८. स्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकषायवीतराग
रागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- संयमः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- संयम दो प्रकार का हैपढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीण- प्रथमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकषाय- प्रथमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकषायकसायवीतरागसंजमे चेव, वीतरागसंयमश्चैव,
वीतरागसंयम। अपढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीण- अप्रथमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीण- अप्रथमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकषायकसायवीतरागसंजमे चेव। कषायवीतरागसंयमश्चैव।
वीतरागसंयम। अहवा-चरिमसमयसयंबुद्ध- अथवा-चरमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थ- अथवा-चरमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थछउमत्थखीणकसायवीतरागसंजमे क्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव,
क्षीणकषायवीतरागसंयम।
चेव,
अचरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीण- अचरमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकसायवीतरागसजमे चेव। कषायवीतरागसंयमश्चैव,
अचरमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम।
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ठाणं (स्थान)
११६. बुद्ध बोहियछउ मत्थखीणकसायवीतरागसंजमे दुविहे पण्णत्ते,
तं जहा
पढमसमयबुद्ध बोहियछउ मत्थखीणकसायवीतरागसंजमे चेव, अपढसमय बुद्ध बोहियछउ मत्थखीणक सायवीतराग संजमे चेव । अहवा - चरिमसमयबुद्धबो हियछउमत्थखीणक सायवीय रागसंजमे चेव, अचरिमसमयबुद्धबोहियछउ - मत्थखी कसायवीय रागसंजमे चेव । १२०. केव लिखी कसायवीय रागसंजमे
दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सजोगिकेव लिखीणकसायवीयराग
संजमे चेद,
स्थान : सूत्र ९१६-१२२
बुद्धबोधितछद्मस्थ क्षीणकषायवीतराग- ११६. बुद्धबोधित छद्यस्थक्षीणकषायवीतरागसंयमः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथासंयम दो प्रकार का है
५४
प्रथमसमय बुद्धबोधित छद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव ।
अप्रथमसमयबुद्धबोधितछद्द्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव । अथवा चरमसमयबुद्धबोधितछद्द्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव, अचरमसमयबुद्धबोधितछद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव ।
केवलक्षीणकषायवीतरागसंयमः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - सयोगिकेव लिक्षीणकषायवीतराग
संयमश्चैव ।
अजोगिकेव लिखी कसायवीय राग- अयोगिकेव लिक्षीणकषायवीतराग
संजमे चेव ।
संयमश्चैव । सयोगिकेवलिक्षीणकषायवीतरागसंयमः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाप्रथमसमयसयोगिकेवलिक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव, अप्रथमसमयसयोगिकेवलिक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव । अथवा चरमसमयसयोगिकेवलिक्षीण
१२१. सजोगिकेव लिखीणकसायवीय रागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहापढमसमयसजो गिकेवलिखीणकसायवीय रागसंजमे चेव, अपढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव । अहवा - चरिमसमयसजोगिकेवलि खीणकसायवीय रागसंजमे चेव, अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीय रागसंजमे चेव । १२२. अजोगिकेव लिखीणकसायवीयरागसंज दुविहे पण्णत्ते, तं जहापढमसमयअजोगिकेव लिखीणकसायवीय रागसंजमे चेव, अपढमसमयअजोगिकेव लिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव ।
कषायवीतरागसंयमश्चैव, अचरमसमयसयोगिकेवलिक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव |
प्रथमसमयबुद्धबोधितछद्मस्थक्षीणकषाय
वीतरागसंयम ।
अप्रथमसमयबुद्धबोधितछद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम |
अथवा – चरमसमयबुद्धबोधित
छद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम । अचरमसमय बुद्धबोधित छद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम |
अयोगकेवली क्षीणकषायवीतरागसंयम ।
१२१. सयोगी केवली क्षीणकषाय वीतरागसंयम
दो प्रकार का है
प्रथमसमयसयोगी केवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम ।
अप्रथम समय सयोगकेवली क्षीणकषायवीतरागसंयम ।
अथवा — चरमसमय सयोगीकेवली
क्षीणकषायवीतरागसंयम । अचरमसमय सयोगी केवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम । अयोगिकेवलिक्षीणकषायवीत रागसंयमः १२२. अयोगी केवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम
दो प्रकार का है -
प्रथमसमयअयोगी केवलीक्षीणकषाय
द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाप्रथमसमयायोगिकेवलिक्षीणकषायवीतरागसंयमश्चैव, अप्रथमसमयायोगिकेवलिक्षीणकषाय
वीतरागसंयम |
अप्रथमसमयअयोगकेवलीक्षीणकषाय
वीतरागसंयमश्चैव ।
वीतरागसंयम ।
१२०. केवल क्षीणकषायवीतरागसंयम दो प्रकार का है
सयोगकेवली क्षीणकषायवीतरागसंयम ।
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स्थान २: सूत्र १२२-१३३
ठाणं (स्थान)
अहवा–चरिमसमयअजोगिकेवलि- अथवा–चरमसमयायोगिकेवलिक्षीणखीणकसायवीयरागसंजमे चेव, कषायवीतरागसंयमश्चैव, अचरिमसमयअजोगिकेवलि- अचरमसमयायोगिकेवलिक्षीणकषायखीणकसायवीयरागसंजमे चेव। वीतरागसंयमश्चैव।
अथवा-चरमसमयअयोगीकेवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम। अचरमसमयअयोगीकेवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम।
जीव-णिकाय-पदं जीव-निकाय-पदम्
जोव-निकाय-पद १२३. दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः पृथिवीकायिका: प्रज्ञप्ता: १२३. पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के हैं
जहा-सुहमा चेव, बायरा चेव। तद्यथा-सूक्ष्माश्चैव, बादराश्चैव। सूक्ष्म और बादर । १२४. 'दुविहा आउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः अप्कायिकाः प्रज्ञप्ताः १२४. अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं
जहा—सुहमा चेव, बायरा चेव। तद्यथा—सूक्ष्माश्चैव, बादराश्चैव। सूक्ष्म और बादर। १२५. दुविहा तेउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः तेजस्कायिकाः प्रज्ञप्ताः १२५. तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के हैं
जहासुहुमा चेव, बायरा चेव। तद्यथा-सूक्ष्माश्चैव, बादराश्चैव। सूक्ष्म और बादर। १२६. दुविहा वाउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः वायुकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १२६. वायुकायिक जीव दो प्रकार के हैं
जहा-सुहमा चेव, बायरा चेव। तद्यथा—सूक्ष्माश्चैव, बादराश्चैव। सूक्ष्म और बादर । १२७. दुविहा वणस्सइकाइया पण्णता, तं द्विविधा: वनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १२७. वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं
जहा–सुहुमा चेव, बायरा चेव। तद्यथा-सूक्ष्माश्चैव, बादराश्चैव। सूक्ष्म और बादर। १२८. दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः पृथिवीकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १२८. पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा—पज्जत्तगा चेव, तद्यथा-पर्याप्तकाश्चैव,
पर्याप्तक और अपर्याप्तक । अपज्जत्तगा चेव।
अपर्याप्तकाश्चव। आउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधा अप्कायिकाः प्रज्ञप्ताः , १२६. अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा—पज्जत्तगा चेव, तद्यथा-पर्याप्तकाश्चैव,
पर्याप्तक और अपर्याप्तक। अपज्जत्तगा चेव।
अपर्याप्तकाश्चैव।
द्विविधाः तेजस्कायिका: प्रज्ञप्ताः, १३०. तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा—पज्जत्तगा चेव, तद्यथा-पर्याप्तकाश्चैव,
पर्याप्तक और अपर्याप्तक। अपज्जत्तगा चेव।
अपर्याप्तकाश्चैव। १३१. दुविहा वाउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः वायुकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १३१. वायुकायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा-पज्जत्तगा चेव, तदयथा पर्याप्तकाश्चैव,
पर्याप्तक और अपर्याप्तक। अपज्जत्तगा चेव।
अपर्याप्तकाश्चैव । १३२. दुविहा वणस्सइकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः वनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः १३२. वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा–पज्जत्तगा चेव, तद्यथा-पर्याप्तकाश्चैव,
पर्याप्तक और अपर्याप्तक । अपज्जत्तगा चेव ।
अपर्याप्तकाश्चैव । १३३. दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः पृथिवीकायिका: प्रज्ञप्ताः, १३३. पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के हैं
परिणत-बाह्य हेतुओं से जो अन्य रूप जहा—परिणया चेव, तद्यथा-परिणताश्चैव,
में बदल गया हो-निर्जीव हो गया हो। अपरिणया चेव। अपरिणताश्चैव।
अपरिणत।
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ठाणं (स्थान)
५६
१३४. "दुविहा आउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः अप्कायिका: जहा - परिणया चेव. अपरिणया चेव ।
तद्यथा— परिणताश्चैव, अपरिणताश्चैव ।
१३५. दुविहा ते काइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः तेजस्कायिका: जहा - परिणया चेव, तद्यथा परिणताश्चैव, अपरिणताश्चैव ।
अपरिणया चेव ।
स्थान २ : सूत्र ९३४ - १४२
प्रज्ञप्ताः १३४. अष्कायिक जीव दो प्रकार के हैं
परिणत और अपरिणत ।
प्रज्ञप्ताः, १३५. तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के हैंपरिणत और
अपरिणत ।
१३६. दुविहा वाउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः वायुकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १३६. वायुकायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा - परिणया चेव,
परिणत और
तद्यथा— परिणताश्चैव, अपरिणताश्चैव ।
अपरिणया चेव ।
१३७. दुविहा वणस्सइकाइया पण्णत्ता, तं जहा - परिणया चेव.
परिणया चैव ।
दव्व-पदं
द्रव्य-पदम्
१३८. दुविहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधानि द्रव्याणि तद्यथा परिणतानि चैव, अपरिणतानि चैव ।
परिणता चेव,
अपरिणता चेव ।
जीव-णिकाय-पदं
१३६. दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं जहा - गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव ।
१४० दुविहा आउकाइया पण्णत्ता, तं जहा - गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव । १४१. दुविहा तेउकाइया पण्णत्ता, तं जहा - गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव ।
१४२. दुविहा वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा - गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव ।
अपरिणत ।
द्विविधाः वनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः १३७. वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैंतद्यथा परिणताश्चैव,
परिणत और
अपरिणत ।
अपरिणताश्चैव ।
प्रज्ञप्तानि,
जीव-निकाय-पदम्
द्विविधाः पृथिवीकायिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा — गतिसमापन्नकाश्चैव, अगतिसमापन्नकाश्चैव ।
द्विविधाः अप्कायिका: तद्यथा— गतिसमापन्नकाश्चैव, अगतिसमापन्नकाश्चैव ।
प्रज्ञप्ताः,
द्विविधाः तेजस्कायिका: प्रज्ञप्ताः तद्यथा— गतिसमापन्नकाश्चैव, अगतिसमापन्नकाश्चैव ।
द्रव्य-पद
१३८. द्रव्य दो प्रकार के होते हैं---
परिणत – बाह्य हेतुओं से जिसका
रूपान्तर हुआ हो । अपरिणत ।
जीवनिकाय-पद
१३६. पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के हैं--- गतिसमापन्नक - एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय अन्तराल गति में वर्तमान । अगतिसमापन्नक - वर्तमान जीवन में स्थित |
१४०. अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं
गतिसमापन्नक |
अगतिसमापन्नक |
१४१. तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के हैं—
गतिसमापन्नक |
अगतिसमापन्नक |
द्विविधाः वायुकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १४२. वायुकायिक जीव दो प्रकार के हैंतद्यथा गतिसमापन्नकाश्चैव, अगतिसमापन्नकाश्चैव ।
गतिसमापन्नक |
अगतिसमापन्नक |
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र १४३-१५० १४३. दुविहा वणस्सइकाइया पण्णत्ता, द्विविधाः वनस्पतिकायिका: प्रज्ञप्ताः, १४३. वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं
तं जहा—गतिसमावण्णगा चेव, तद्यथा—गतिसमापन्नकाश्चैव, गतिसमापन्नक। अगतिसमावण्णगा चेव। अगतिसमापन्नकाश्चैव।
अगतिसमापन्नक।
दव्व-पदं १४४. दुविहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहा
गतिसमावण्णगाचेव, अगतिसमावण्णगा चेव ।
द्रव्य-पदम्
द्रव्य-पद द्विविधानि द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि, १४४. द्रव्य दो प्रकार के हैंतद्यथा—गतिसमापन्नकानि चैव, गतिसमापन्नक-गमन में प्रवृत्त। अगतिसमापन्नकानि चैव।
अगतिसमापन्नक-अवस्थित।
जीव-णिकाय-पदं जीव-निकाय-पदम्
जीव-निकाय-पद १४५. दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधा: पृथिवीकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १४५. पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा—अणंतरोगाढा चेव, तद्यथा-अनन्तरावगाढाश्चैव,
अनंतरावगाढ-वर्तमान समय में किसी परंपरोगाढा वेव। परम्परावगाढाश्चैव ।
आकाशदेश में स्थित। परम्परावगाढ-दो या अधिक समयों से
किसी आकाशदेश में स्थित। १४६. 'दुविहा आउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः अप्कायिकाः प्रज्ञप्ताः, १४६. अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा-अणंतरोगाढा चेव, तयथा-अनन्तरावगाढाश्चैव.
अनंतरावगाढ। परंपरोगाढा चेव। परम्परावगाढाश्चैव।
परम्परावगाढ। १४७. दुविहा तेउकाइया पण्णता, तं द्विविधाः तेजस्कायिकाः प्रज्ञप्ताः, १४७. तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा-अणंतरोगाढा चेव। तदयथा-अनन्तरावगाढाश्चैव.
अनंतरावगाढ। परंपरोगाढा चेव। परम्परावगाढाश्चैव।
परम्परावगाढ । १४८. दुविहा वाउकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधा: बायुकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १४८. वायुकायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा-अणंतरोगाढा चेव, तद्यथा--अनन्तरावगाढाश्चैव,
अनंतरावगाढ । परंपरोगाढा चेव। परम्परावगाढाश्चैव।
परम्परावगाढ। १४६. दुविहा वणस्सइकाइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः वनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १४६. वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैंजहा अणंतरोगाढा चेव, तद्यथा-अनन्तरावगाढाश्चैव,
अनंतरावगाढ। परंपरोगाढा चेव। परम्परावगाढाश्चैव।
परम्परावगाढ़।
दव्वं-पदं १५०. दुविहा दवा पण्णत्ता, तं जहा
अणंतरोगाढा चेव, परंपरोगाढा चेव।
द्रव्य-पदम्
द्रव्य-पद द्विविधानि द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि, १५०. द्रव्य दो प्रकार के हैंतद्यथा-अनन्तरावगाढानि चैव,
अनंतरावगाढ। परम्परावगाढानि चैव।
परम्परावगाढ।
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५८
स्थान २ : सूत्र १५१-१५७
ठाणं (स्थान) १५१. दुविहे काले पण्णत्ते, तं जहा
ओसप्पिणीकाले चेव,
उस्सप्पिणीकाले चेव। १५२. दुविहे आगासे पण्णत्ते तं जहा
लोगागासे चेव। अलोगागासे चेव ।
द्विविधः कालः प्रज्ञप्तः, तदयथा- १५१. काल दो प्रकार का हैअवसप्पिणीकालश्चैव,
अवसर्पिणीकाल। उत्सप्पिणीकालश्चैव।
उत्सपिणीकाल। द्विविधः प्राकाशः प्रज्ञप्तः, तदयथा- १५२. आकाश दो प्रकार का हैलोकाकाशश्चैव,
लोकाकाश और अलोकाकाशश्चैव।
अलोकाकाश।
सरीर-पदं शरीर-पदम्
शरीर-पद १५३. णेरइयाणं दो सरीरगा पण्णत्ता, नैरयिकाणां द्वे शरीरके प्रज्ञप्ते, १५३. नैरयिकों के दो शरीर होते हैंतं जहा अभंतरगे चेव, तद्यथा-आभ्यन्तरकञ्चैव,
आभ्यन्तर शरीर-कर्मक (सब शरीरों बाहिरगे चेव। बाह्यकञ्चैव।
का हेतुभूत शरीर)। अब्भंतरए कम्मए, आभ्यन्तरकं कर्मक,
बाह्य शरीर-वक्रिय। बाहिरए देउविए। बाह्यकं वैक्रियम्। १५४. 'देवाणं दो सरीरगा पण्णता, तं देवानां द्वे शरीरके प्रज्ञप्ते, तदयथा- १५४. देवों के दो शरीर होते हैंजहा—अब्भंतरगे चेव, आभ्यन्तरकञ्चैव,
आभ्यन्तर शरीर-कर्मक। बाहिरगे चेव। बाह्यकञ्चैव।
बाह्य शरीर–वैक्रिय। अब्भंतरए कम्मए,
आभ्यन्तरकं कर्मक, बाहिरए वेउव्विए।
बाह्यकं वैक्रियम्। १५५. पुढविकाइयाणं दो सरीरगा पृथिवीकायिकानां द्वे शरीरके प्रज्ञप्ते, १५५. पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवो अभंतरगे चेव, बाहिरगे चेव। आभ्यन्तरकञ्चव, बाह्यकञ्चैव। के दो-दो शरीर होते हैंअन्भंतरगे कम्मए, आभ्यन्तरकं कर्मक,
आभ्यन्तर शरीर-कर्मक। बाहिरगे ओरालिए जाव वणस्स- बाह्यक औदारिकम् यावत् वनस्पतिका- बाह्य शरीर-औदारिक। इकाइयाणं।
यिकानाम् । १५६. बेइंदियाणं दो सरीरा पण्णत्ता, द्वीन्द्रियाणां द्वे शरीरे प्रज्ञप्ते, तद्यथा--- १५६. दो इन्द्रिय वाले जीवों के दो शरीर होते तं जहा
आभ्यन्तरकञ्चैव, बाह्यकञ्चैव। हैं-आभ्यन्तर शरीर-कर्मक। अब्भंतरए चेव, बाहिरए चेव। आभ्यन्तरकं कर्मक, अस्थिमांसशोणित- बाह्य शरीर-हाड़, मांस और रक्तयुक्त अन्भंतरगे कम्मए, अद्विमंससोणि- बद्धं बाह्यक औदारिकम् ।
औदारिक।५९ तबद्धे बाहिरए ओरालिए। १५७. "तेइंदियाणं दो सरीरा पण्णत्ता, त्रीन्द्रियाणां द्वे शरीरे प्रज्ञप्ते, तद्यथा- १५७. तीन इन्द्रिय वाले जीवों के दो शरीर होते तं जहा—अभंतरए चेव, आभ्यन्तरकञ्चैव,
हैं-आभ्यन्तर शरीर-कर्मक। बाहिरए चेव। बाह्यकञ्चैव।
बाह्य शरीर-हाड़, मांस और रक्तयुक्त अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंस- आभ्यन्तरकं कर्मक, अस्थिमांसशोणित- औदारिक।" सोणितबद्धे बाहिरए ओरालिए। बद्धं बाह्यक औदारिकम्।
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ठाणं (स्थान)
१५८. चउरदियाणं दो सरीरा पण्णत्ता, तं जहा - अभंतरए चेव, बाहिरए चैव ।
अन्तरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणितबद्धे बाहिरए ओरालिए ।° १५६. पंचिदियति रिक्खजोणियाणं दो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहाअन्तरए चेव, बाहिरए चेव ।
अभंतरगे कम्मए, असिसोणियव्हारु छिराबद्धे बाहिरए ओरालिए ।
१६०. "मनुस्साणं दो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा - अभंतरए चेव, बाहिरए चेव ।
अभंतर कम्मए, असिसोणियहरु छिराबद्धे बाहिरए ओरालिए । १६१. विग्गहगइसमावण्णगाणं णेरइयाणं
दो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-तेयए चेव, कम्मए चैव । निरंतरं जाव वेमाणियाणं । १६२. रइयाणं दोहि ठार्णोह सरीरु
प्पत्ती सिया, तं जहारागेण चेव, दोसेण चैव जाव वेमाणियाणं । १६३. रइयाणं
सरीरगे पण्णत्ते, तं जहारागव्वित्तिए चेव,
दोस व्विति चेव जाव वेमाणियाणं ।
दुट्ठाणणिव्वत्तिए
काय-पदं
१६४. दो काया पण्णत्ता, तं जहातसकाए चेव, थावरकाए चेव ।
५६
चतुरिन्द्रियाणां द्वे शरीरे प्रज्ञप्ते, तद्यथा—आभ्यन्तरकञ्चैव, बाह्यकञ्चैव ।
काय-पदम्
द्वौ काय प्रज्ञप्तौ तद्यथा— सकायश्चैव, स्थावर कायश्चैव ।
स्थान २ : सूत्र १५८-१६४
१५८. चार इन्द्रिय वाले जीवों के दो शरीर होते
हैं
आभ्यन्तरक कर्मक, अस्थिमांसशोणितबद्धं बाह्यकं औदारिकम् । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां द्वे शरीरके प्रज्ञप्ते, तद्यथा
आभ्यन्तरकञ्चैव, बाह्यकञ्चैव । आभ्यन्तरकं कर्मकं, अस्थिमांसशोणितस्नायुशिराबद्धं
बाह्यकं श्रदारिकम् ।
मनुष्याणां द्वे शरीरके प्रज्ञप्ते, तद्यथा - १६०. मनुष्यों के दो शरीर होते हैंआभ्यन्तरकञ्चैव,
आभ्यन्तर शरीर — कर्मक |
बाह्यकञ्चैव ।
बाह्य शरीर-हाड, मांस, रक्त, स्नायु और शिरायुक्त औदारिक।
आभ्यन्तरकं कर्मकं, अस्थिमांसशोणितस्नायुशिराबद्धं बाह्यकं औदारिकम् ।
विग्रहगतिसमापन्नानां नैरयिकाणां शरीर प्रज्ञप्ते, तद्यथातैजसञ्चैव, कर्मकञ्चैव । निरन्तरं यावत् वैमानिकानाम् । नैरयिकाणां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां शरीरोत्पत्तिः स्यात्, तद्यथारागेण चैव दोषेण चैव
१६१. विग्रहगति" समापन्न नैरयिकों तथा वैमानिक पर्यंत सभी दण्डकों के जीवों के दो-दो शरीर होते हैंतैजस और कर्मक |
१६२. नैरयिकों तथा वैमानिक पर्यंत सभी
rushi के जीवों के दो-दो स्थानों से शरीर की उत्पत्ति ( आरम्भ मात्र) होती हैराग से और द्वेष से ।
यावत् वैमानिकानाम् ।
नैरयिकाणां द्विस्थाननिर्वर्तितं शरीरकं १६३. नैरयिकों तथा वैमानिक पर्यंत सभी
प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— रागनिर्वर्तितञ्चैव
दण्डकों के जीवों के दो-दो स्थानों से शरीर की निष्पत्ति (पूर्णता ) होती है
दोषनिर्वर्तितञ्चैव
राग से और द्वेष से ।
यावत् वैमानिकानाम् ।
आभ्यन्तर शरीर - कर्मक |
बाह्य शरीर - हाड, मांस और रक्तयुक्त औदारिक ।
१५६. पांच इन्द्रिय वाले तिर्यञ्चों के दो शरीर होते हैं
आभ्यन्तर शरीर – कर्मक |
बाह्य शरीर-हाड, मांस, रक्त, स्नायु
और शिरायुक्त औदारिक । "
काय-पद
१६४. काय दो प्रकार के हैं -
तसकाय और स्थावरकाय ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र १६५-१६६
१६५. तसकाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- त्रसकायः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १६५. नसकाय दो प्रकार के हैंभवसिद्धिए चेव, भवसिद्धिकश्चैव,
भवसिद्धिक-मुक्ति के लिए योग्य। अभवसिद्धिए चेव। अभवसिद्धिकश्चैव।
अभवसिद्धिक-मुक्ति के लिए अयोग्य । १६६. थावरकाए दुविहे पण्णत्ते, तं स्थावरकायः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १६६. स्थावरकाय दो प्रकार के हैंजहा-भवसिद्धिए चेव, भवसिद्धिकश्चैव,
भवसिद्धिक और अभवसिद्धिए चेव। अभवसिद्धिकश्चैव।
अभवसिद्धिक।
करें।
दिसादुगे करणिज्ज-पदं दिशाद्विके करणीय-पदम्
दिशाद्विक में करणीय-पद १६७. दो दिसाओ अभिगिझ कप्पति द्वे दिशे अभिगृह्य कल्पते निर्ग्रन्थानां १६७. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां पूर्व और उत्तर
णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रव्राजयितुम्-- इन दो दिशाओं की ओर मुंह कर प्रव्रजित पवावित्तए
प्राचीनाञ्चैव, पाईणं चेव, उदीणं चेव। उदीचीनाञ्चैव। १६८. 'दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पति द्वे दिशे अभिगृह्य कल्पते निर्ग्रन्थानां १६८. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां पूर्व और उत्तर णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीण वा- वा निर्ग्रन्थीनां वा
इन दो दिशाओं की ओर मुंह करमुंडावित्तए सिक्खावित्तए मुण्डयितुं शिक्षयितुं उपस्थापयितुं मुंडित करें,शिक्षा दें,महाव्रतों में आरोपित उवट्ठावित्तए संभुंजित्तए संभोजयितुं संवासयितुं स्वाध्यायमुद्देष्टुं करें,भोजन-मंडली में सम्मिलित करें, संवासित्तए सज्झायमुद्दिसित्तए स्वाध्यायं समुद्देष्टुं स्वाध्यायं अनुज्ञातुं
संस्तारक-मंडली में सम्मिलित करें, सज्झायं समुद्दिसित्तए आलोचयितुं प्रतिक्रमितुं निन्दितुं गर्हितुं
स्वाध्याय का उद्देश दें, स्वाध्याय का सज्झायमणुजाणित्तए आलोइत्तए व्यतिवर्तयितुं विशोधयितुं अकरणतया समुद्देश दें, स्वाध्याय की अनुज्ञा दें, पडिक्कमित्तए णिदित्तए गरहित्तए अभ्युत्थातुं यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म आलोचना करें, प्रतिक्रमण करें, विउट्टित्तए विसोहित्तए प्रतिपत्तुम्
निदा करें, गर्दा करें, व्यतिवर्तन करें, अकरणयाए अब्भुत्तिए प्राचीनाञ्चैव, उदीचीनाञ्चैव । विशोधि करें, सावद्य-प्रवृत्ति न करने के अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म
लिए उठे, यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः पडिवज्जित्तए
कर्म स्वीकार करें। *पाईणं चेव, उदीणं चेव । १६६. दो दिसाम्रो अभिगिझ कप्पति द्वे दिशे अभिगृह्य कल्पते निर्ग्रन्थानां १६६. जो निम्रन्थ और निर्ग्रन्थियां अपश्चिम
णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा वा निर्ग्रन्थीनां वा अपश्चिम- मारणान्तिक-संलेखना की आराधना से अपच्छिम-मारणंतियसलेहणा- मारणान्तिकसंलेखना-जोषणा
युक्त हैं, जो भक्त-पान का प्रत्याख्यान जूसणा-जूसिवाणं भत्तपाणपडिया- जूषितानां भक्तपानप्रत्याख्यातानां कर चुके हैं, जो प्रायोपगत अनशन से इक्खिताणं पाओवगताणं कालं प्रायोपगतानां कालं अनवकाङ्क्षतां युक्त हैं, जो मरणकाल की आकांक्षा नहीं अणवकखमाणाणं विहरित्तए, तं विहर्तु, तद्यथा
करते हुए विहर रहे हैं, वे पूर्व और उत्तर जहा -- पाईणं चेव, उदीणं चेव। प्राचीनाञ्चैव उदीचीनाञ्चैव । इन दो दिशाओं की ओर मुंह कर रहें।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र १७०-१७४
बीओ उद्देसो
वेदणा-पदं वेदना-पदम्
वेदना-पद १७०.जे देवा उडोववण्णगा कप्पोव- ये देवा ऊदोपपन्नकाः कल्पोपपन्नका: १७०. ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न देव, जो कल्प में
वण्णगा विमाणोववण्णगा चारोव- विमानोपपन्नका: चारोपपन्नकाः उपपन्न हैं, जो विमान में उपपन्न हैं,जो वण्णगा चार द्वितिया गतिरतिया चारस्थितिकाः गति रतिका: गतिसमा- चार में उपपन्न हैं, जो चार में स्थित गतिसमावण्णगा, तेसि णं देवाणं पन्नका:, तेषां देवानां सदा समितं यत् हैं, जो गतिशील और सतत गति वाले सता समितं जे पावे कम्मे कज्जति, पापं कर्म क्रियते, तत्रगताअपि एके हैं, उन देवों के सदा, समित (परिमित) तत्थगतावि एगतिया वेदणं वेदनां वेदयन्ति, अन्यत्रगताअपि एके जो पाप कर्म का बन्ध होता है, कई देव वेदेति, अण्णत्थगतावि एगतिया वेदनां वेदयन्ति ।
उसका उसी भव में वेदन करते हैं और वेअणं वेदेति।
कई उसका वेदन भवान्तर में करते हैं। १७१. जेरइयाणं सता समियं जे पावे नैरयिकाणां सदा समितं यत् पापं कर्म १७१. नैरयिक तथा द्वीन्द्रिय से तिर्यंचपञ्चेन्द्रिय
कम्मे कज्जति, तत्थगतावि क्रियते, तत्रगताअपि एके वेदनां तक के दण्डकों के सदा, समित (परिमित) एगतिया वेयणं वेदेति, अण्णत्थ- वेदयन्ति, अन्यत्रगताअपि एके वेदनां जो पाप-कर्म का बंध होता है, कई उसका गतावि एगतिया वेयणं वेदेति वेदयन्ति ।
उसी भव में वेदन करते हैं और कई जाव पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं। यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्। उसका वेदन भवान्तर में करते हैं। १७२. मणुस्साणं सता समितं जे पावे मनुष्याणां सदा समितं यत् पापं कर्म १७२. मनुष्यों के सदा समित (परिमित) जो
कम्मे कज्जति, इहगतावि एगतिया क्रियते, इहगताअपि एके वेदनां वेद- पाप-कर्म का बंध होता है, कई मनुष्य वेयणं वेयंति, अण्णत्थगतावि यन्ति, अन्यत्रगताअपि एके वेदनां वेद- उसका इसी भव में वेदन करते हैं और एगतिया वेयणं वेयंति । मणुस्स- यन्ति । मनुष्यवर्जाः शेषा एकगमाः। कई उसका वेदन भवान्तर में करते हैं। वज्जा सेसा एक्कगमा।
गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम्
गति-आगति-पद १७३. णेरइया दुगलिया दुयागतिया नैरयिका द्विगतिका व्यागतिकाः १७३. नरयिक जीवों की दो गति और दो पण्णत्ता, तं जहा—णेरइए प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
आगति होती हैं। नरक में उत्पन्न होने रइएसु उववज्जमाणे मणुस्सेहितो नैरयिक: नैरयिकेषु उपपद्यमान: वाले जीववा पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो मनुष्येभ्यो वा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनि- मनुष्य अथवा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वा उववज्जेज्जा। __ केभ्यो वा उपपद्येत।
से आकर उत्पन्न होते हैं। से चेव णं से णेरइए णेरइयत्तं स चैव असौ नैरयिक: नैरयिकत्वं । नैरयिक नारक अवस्था को छोड़करविप्पजहमाणे मणस्सत्ताए वा विप्रजहत मनुष्यतया वा पञ्चेन्द्रिय- मनुष्य अथवा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनि पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ताए वा तिर्यग्योनिकतया वा गच्छेत् ।
में जाते हैं। गच्छेज्जा। १७४. एवं असुरकुमारावि । एवम्-असुरकुमारा अपि। १७४. असुरकुमार आदि देवों की दो गति और
णवरं-से चेव णं से असुरकुमारे नवरं—स चैव असौ असुरकुमार: दो आगति होती हैं-देव गति में उत्पन्न
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र १७५-१७६
असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे असुरकुमारत्वं विप्रजहत् मनुष्यतया होने वाले जीव मनुष्य अथवा पञ्चेन्द्रिय, मणुस्सत्ताए वा तिरिक्ख- वा तिर्यग्योनिकतया वा गच्छेत् । तिर्यच योनि से आकर उत्पन्न होते हैं। जोणियत्ताए वा गच्छेज्जा। एवं- एवम् – सर्वदेवाः ।
वे देव अवस्था को छोड़कर मनुष्य अथवा सव्वदेवा।
तिर्यञ्च योनि में जाते हैं। १७५. पुढविकाइया दुगतिया दुयागतिया पृथिवीकायिका द्विगतिका द्वयागतिकाः १७५. पृथ्वीका यिक जीवों की दो गति और दो
पण्णता, तं जहा—पुढविकाइए प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—पृथिवीकायिकः आगति होती हैंपुढविकाइएस् उववज्जमाणे पृथिवीकायिकेष उपपद्यमानः पृथिवी- पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने वाले जीव पुढविकाइएहितो वा णो पुढवि- कायिकेभ्यो वा नो पृथिवीकायिकेभ्यो पृथ्वीकाय अथवा अन्य योनियों से आकर काइएहितो वा उववज्जेज्जा। वा उपपद्येत ।।
उत्पन्न होते हैं। से चेव णं से पुढविकाइए स चैव असौ पृथिवीकायिकः पृथिवी- वे पृथ्वी की अवस्था को छोड़कर पृथ्वीपुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे कायिकत्वं विप्रजहत् पृथिवीकायिकतया काय अथवा अन्य योनियों में जाते हैं। पुढविकाइयत्ताए वा णो पुढवि- वा नो पृथिवीकायिकतया वा गच्छेत् ।
का इयत्ताए वा गच्छेज्जा। १७६. एवं—जाव मणुस्सा। एवम्-यावत् मनुष्याः । १७६. अप्काय से मनुष्य तक के सभी दण्डकों की
दो गति और दो आगति होती हैंवे अपने-अपने काय से अथवा अन्य योनियों से आकर उत्पन्न होते हैं। वे अपनी-अपनी अवस्था को छोड़कर, अपने-अपने काय में अथवा अन्य योनियों
में जाते हैं।
दंडग-मग्गणा-पदं दण्डक-मार्गणा-पदम्
दण्डक-मार्गणा-पद १७७. दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७७. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों
भवसिद्धिया चेव, अभवसिद्धिया भवसिद्धिकाश्चैव, अभवसिद्धिकाश्चैव के दो-दो प्रकार हैंचेव जाव वेमाणिया। यावत वैमानिकाः ।
भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक। १७८. दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७८. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों जहा-अणंतरोववण्णगा चेव, अनन्तरोपपन्नकाश्चैव,
के दो-दो प्रकार हैंपरंपरोववण्णगा चेव जाव परम्परोपपन्नकाश्चैव
अन्तरोपपन्नक। वेमाणिया। यावत वैमानिकाः।
परम्परोपपन्नक। १७६. दुविहा जेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७६. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों जहा—गतिसमावण्णगा चेव, गतिसमापन्नकाश्चैव,
के दो-दो प्रकार हैं-गतिसमापन्नक"-- अगतिसमावण्णगा चेव अगतिसमापन्नकाश्चैव
अपने-अपने उत्पत्ति स्थान की ओर जाते जाव वेमाणिया। यावत् वैमानिकाः।
हुए । अगतिसमापन्नक-अपने-अपने भव में स्थित।
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ठाणं (स्थान)
१८०. दुविहा रइया पण्णत्ता, तं जहा - पढमसमओववण्णगा चेव, अपढसमओववणगा चेव
जाव वेमाणिया ।
१८१. दुविहा णेरड्या पण्णत्ता, तं जहा - आहारगा चैव,
अणाहारगा चेव ।
एवं जाव वेमाणिया । १८२. दुविहारइया पण्णत्ता, जहा - उस्सासगा चेव, गोउस्सासगा चेव
जाव वेमाणिया ।
जहा - पज्जत्तगा चेव,
अपज्जत्तगा चैव
नोउच्छ्वासक - जिनके उच्छ्वासपर्याप्त पूर्ण न हुई हो ।
१८३. दुविहा णेरड्या पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १८३. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डक
जहा – सइंदिया चेव,
के दो-दो प्रकार हैं
अणिदिया चेव
सइन्द्रिय ।
जाव वेमाणिया ।
यावत् वैमानिकाः ।
अनिन्द्रिय ।
१८४. दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १८४. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों
के दो-दो प्रकार हैं
६३
स्थान २ : सूत्र १८०-१८७
द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १८०. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों प्रथमसमयोपपन्नकाश्चैव, के दो-दो प्रकार हैंअप्रथमसमयोपपन्नकाश्चैव
प्रथमसमयोपपन्नक |
यावत् वैमानिकाः ।
अप्रथमसमयोपपन्नक |
द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १८१. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डको आहार काश्चैव के दो-दो प्रकार हैं—
अनाहारकारचैव ।
आहारक ।
एवम् — यावत् वैमानिकाः ।
अनाहारक
तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा — १८२. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों के दो-दो प्रकार हैं- उच्छ्वासक -----
उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त ।
जाव वेमाणिया ।
१८५. दुविहा रइया पण्णत्ता, तं जहा - सण्णी चेव, असण्णी चेव ।
एवं - पंचेंदिया सव्वे विलदिय वज्जा जाव वाणमंतरा ।
मिच्छद्दिट्टिया चेव । एगिदियवज्जासव्वे |
उच्छ्वासकाश्चैव,
नोउच्छ्वास काश्चैव यावत् वैमानिकाः ।
सेन्द्रियाश्चैव, अनिन्द्रियाश्चैव
पर्याप्तकाश्चैव, अपर्याप्तकाश्चैव
पर्याप्तक ।
यावत् वैमानिकाः ।
अपर्याप्तक ।
द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १८५. विकलेन्द्रियों को छोड़कर नैरयिक से संज्ञिनश्चैव, असंज्ञिनश्चैव 1 वानमन्तर तक के सभी दण्डकों के दो-दो प्रकार हैं
एवम् – पञ्चेन्द्रियाः सर्वे विकलेन्द्रियवर्जाः यावत् वानमन्तराः ।
संज्ञी, असंज्ञी । "
पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा — १८६. एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिक आदि सभी
१८६. दुविहा णेरइया
जहा - भासगा चेव,
दण्डकों के दो-दो प्रकार हैं
अभासगा चेव ।
भाषक - भाषापर्याप्ति-युक्त ।
एवमेगिदियवज्जासच्वे ।
एवं एकेन्द्रियवर्जाः सर्वे ।
अभाषक - भाषापर्याप्ति-रहित ।
१८७. दुविहारइया पण्णत्ता, तं जहा — द्विविधा नेरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १८७. एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिक आदि सभी
समद्दियाव
दण्डकों के दो-दो प्रकार हैं
भाषकाश्चैव,
अभाषकाश्चैव ।
सम्यग्दृष्टिकाश्चैव,
मिथ्यादृष्टिकाश्चैव ।
एकेन्द्रियवर्णाः सर्वे ।
सम्यग्दृष्ट |
मिथ्यादृष्टि |
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ठाणं (स्थान)
६४
स्थान २ : सूत्र १८८-१९३
१८८. दुविहा रइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नै रयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १८८. नैरयिक आदि सभी दण्डकों के दो-दो जहा परित्तसंसारिता चेव, परीतसंसारिकाश्चैव,
प्रकार हैं--परीतसंसारी-वे जीव अणंतसंसारिता चेव अनन्तसंसारिकाश्चैव
जिनके भव सीमित हो गए हों। जाव वेमाणिया। यावत् वैमानिकाः।
अनन्तसंसारी-वे जीव जिनके भव
सीमित न हों। १८६. दुविहा गेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १८६. नैरयिक दो प्रकार के हैंजहासंख्येयकालस्थितिकाश्चैव,
संख्येयकालसमय की स्थिति वाले। संखेज्जकालसमयट्टितया चेव, असंख्येयकालस्थितिकाश्चैव।
असंख्येयकालसमय की स्थिति वाले। असंखेज्जकालसमयट्ठितिया चेव। एवम् –पञ्चेन्द्रियाः एकेन्द्रियविक- इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय एवं-पंचेंदिया एगिदियविलि- लेन्द्रियवर्जाः यावत् वानमन्तराः। को छोड़कर वानमन्तर पर्यन्त सभी दियवज्जा जाव वाणमंतरा।
पञ्चेन्द्रिय जीव दो-दो प्रकार के हैं। १६०. दुविहा गेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १६०. नैरयिक आदि सभी दण्डकों के दो-दो जहा-सुलभबोधिया चेव, सुलभबोधिकाश्चैव,
प्रकार हैं-सुलभवोधिक, दुलभबोधिया चेव दुर्लभबोधिकाश्चैव
दुर्लभबोधिक। जाव वेमाणिया।
यावत् वैमानिकाः। १६१. दुविहा गेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नै रयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १६१. नरयिक आदि सभी दण्डकों के दो-दो जहा-कण्हपक्खिया चेव, कृष्णपाक्षिकाश्चैव,
प्रकार हैंसुक्कपक्खिया चेव शुक्लपाक्षिकाश्चैव
कृष्णपाक्षिक शुक्लपाक्षिक। जाव वेमाणिया।
यावत् वैमानिकाः। १९२. दुविहा गेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- १६२. नैरयिक आदि सभी दण्डकों के दो-दो जहा—चरिमा चेव, चरमाश्चैव,
प्रकार हैं-चरम, अचरिमा चेव अचरमाश्चैव
अचरम । जाव वेमाणिया।
यावत् वैमानिकाः।
आहोहि-णाण-दसण-पदं अधोऽवधि-ज्ञान-दर्शन-पदम् अधोऽवधि-ज्ञान-दर्शन-पद १९३. दोहि ठाणेहिं आया अहेलोगं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा अधोलोकं १९३. दो स्थानों से आत्मा अधोलोक को जानताजाणइ पासइ, तं जहाजानाति पश्यति, तद्यथा
देखता है१. समोहलेणं चेव अप्पाणेणं आया १. समवहतेन चैव आत्मना आत्मा वैक्रिय आदि समुद्घात करके आत्मा अहेलोगं जाणइ पासइ, अधोलोकं जानाति पश्यति,
अवधिज्ञान से अधोलोक को जानता
देखता है। २. असमोहतेणं चेव, अप्पाणेणं २. असमवहतेन चैव आत्मना वैक्रिय आदि समुद्घात न करके भी आया अहेलोगं जाणइ पासइ। आत्मा अधोलोकं जानाति आत्मा अवधिज्ञान से अधोलोक को पश्यति।
जानता-देखता है। १,२. आहोहि समोहतासमोहतेणं १,२. अधोवधिः समवहताऽ सम- अधोवधि (नियत क्षेत्र को जानने वाला
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र १६३-१९६ चेव अप्पाणेणं आया अहेलोगं वहतेन चैव आत्मना आत्मा अवधिज्ञानी) वैक्रिय आदि समुद्धात जाणइ पासइ। अधोलोकं जानाति पश्यति ।
करके या किए बिना भी अवधिज्ञान
से अधोलोक को जानता-देखता है। १६४. 'दोहि ठाहिं आया तिरियलोगं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा तिर्यग्लोकं १६४. दो स्थानों से आत्मा तिर्यग्लोक को जाणइ पासइ, तं जहा- जानाति पश्यति, तद्यथा
जानता-देखता है१. समोहतेणं चेव अप्पाणेणं १. समवहतेन चैव आत्मना आत्मा । वैक्रिय आदि समुद्घात करके आत्मा आया तिरियलोगं जाणइ पासइ, तिर्यग्लोकं जानाति पश्यति,
अवधिज्ञान से तिर्यग्लोक को जानता
देखता है। २.असमोहतेणं चेव अप्पाणणं २.असमवहतेन चैव आत्मना आत्मा वैक्रिय आदि समुद्घात न करके भी आया तिरियलोग जाणइ पासइ। तिर्यग्लोकं जानाति पश्यति । आत्मा अवधिज्ञान से तिर्यगलोक को
जानता-देखता है। १,२. आहोहि समोहतासमोहतेणं १,२. अधोऽवधिः समवहतासमवहतेन ।
अधोवधि (नियत क्षेत्र को जानने वाला चेव अप्पाणणं आया तिरियलोगं चैव आत्मना आत्मा तिर्यगलोक अवधिज्ञानी) वैक्रिय आदि समुद्घात जाणइ पासइ। जानाति पश्यति ।
करके या किए बिना भी अवधिज्ञान
से तिर्यगलोक को जानता-देखता है। १६५. दोहि ठाणेहिं आया उडलोगं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा ऊर्ध्वलोकं १६५. दो स्थानों से आत्मा ऊर्ध्वलोक को जाणइ पासइ, तं जहा- जानाति पश्यति, तद्यथा
जानता-देखता है। १. समोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया १. समवहतेन चैव आत्मना आत्मा । वैक्रिय आदि समुद्घात करके आत्मा उड्डलोगं जाणइ पासइ, ऊर्ध्वलोकं जानाति पश्यति,
अवधिज्ञान से ऊर्ध्वलोक को जानता
देखता है। २. असमोहतेणं चेव अप्पाणेणं २. असमवहतेन चैव आत्मना आत्मा
वैक्रिय आदि समुद्घात न करके भी आया उड्डलोगं जाणइ पासइ। ऊर्ध्वलोकं जानाति पश्यति ।
आत्मा अवधिज्ञान से ऊर्ध्वलोक को
जानता-देखता है। १,२. आहोहि समोहतासमोहतेणं १,२. अधोऽवधिः समवहतासमवहतेन अधोवधि (नियत क्षेत्र को जानने वाला चेव अप्पाणेणं आया उड्डलोगं चैव आत्मना आत्मा ऊर्ध्वलोकं जानाति अवधिज्ञानी) वैक्रिय आदि समुद्घात जाणइ पासइ। पश्यति।
करके या किए बिना भी अवधिज्ञान
से ऊर्ध्वलोक को जानता-देखता है। १६६. दोहि ठाणेहि आया केवलकप्पं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलकल्पं १६६. दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण लोक का लोगं जाणइ पासइ, तं जहा- लोकं जानाति पश्यति, तद्यथा
जानता-देखता है१. समोहतेणं चेव अप्पाणेणं १. समवहतेन चैव आत्मना आत्मा
वैक्रिय आदि समुद्घात करके आत्मा आया केवलकप्पं लोगं जाणइ केवलकल्पं लोकं जानाति पश्यति,
अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक को जानतापासइ,
देखता है२. असमोहतेणं चेव अप्पाणेणं २. असमवहतेन चैव आत्मना
वैक्रिय आदि समुद्घात न करके भी आया केवलकप्पं लोगं जाणइ आत्मा केवलकल्पं लोकं जानाति
आत्मा अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक को
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ठाणं (स्थान)
पासइ ।
१,२. आहोहि समोहतासमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ | °
जाणइ पासइ, तं जहा१. विउव्वितेणं चेव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणइ पासइ,
१७. दोहि ठाणेह आता अहेलोगं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा अधोलोकं जानाति पश्यति, तद्यथा१. विकृतेन चैव आत्मना आत्मा अधोलोकं जानाति पश्यति,
२. अविउव्वितेणं चैव अप्पाणं आता अहेलोगं जाणइ पासइ ।
१२. आहोहि विव्विया विजव्वितेणं चैव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणइ पासइ ।
१८. दोहि ठाणेह आता तिरियलोगं जाणइ पासइ, त जहा१. विउव्वितेणं चैव अप्पाणेणं आता तिरियलोगं जाणइ पासइ,
२. अविउव्वितेणं चैव अप्पाणेणं आता तिरियलोगं जाणइ पासइ ।
१२. आहोहि विजव्विया विउव्वितेणं चैव अप्पाणेणं आता तिरियलोगं जाणइ पासइ । १६६. दोहि ठाणेह आता उड्डलोगं जाणइ पास, तं जहा— १. विउव्विणं चेव अप्पाणेणं आता उडलोगं जाणइ पास, २. अविउन्वितेणं चैव अप्पाणेणंआता उडलोगं जाणइ पासइ ।
६६
पश्यति । १,२. अधोऽवधिः
समवहतासमवह
तेन चैव आत्मना आत्मा केवलकल्पं लोकं जानाति पश्यति ।
२. अविकृतेन चैव आत्मना आत्मा अधोलोकं जानाति पश्यति ।
१२. अधोऽवधि विकृताऽविकृतेन चैव आत्मना आत्मा अधोलोकं जानाति पश्यति ।
द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा तिर्यग्लोकं जानाति पश्यति, तद्यथा१. विकृतेन चैव आत्मना आत्मा तिर्यग्लोकं जानाति पश्यति,
२. अविकृतेन चैव आत्मना आत्मा तिर्यग्लोकं जानाति पश्यति ।
१२. अधोऽवधि विकृताऽविकृतेन चैव आत्मना आत्मा तिर्यग्लोकं जानाति पश्यति ।
द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा ऊर्ध्वलोकं जानाति पश्यति, तद्यथा१. विकृतेन चैव आत्मना आत्मा ऊर्ध्वलोकं जानाति पश्यति, २. अविकृतेन चैव आत्मना आत्मा ऊर्ध्वलोकं जानाति पश्यति ।
स्थान २ : सूत्र १६६-१६६
जानता देखता है।
अधोवधि (नियत क्षेत्र को जानने वाला अवधिज्ञानी) वैक्रिय आदि समुद्घात करके या किए बिना भी अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक को जानता देखता है। १६७. दो स्थानों से आत्मा अधोलोक को
जानता-देखता है
वैक्रियशरीर का निर्माण कर लेने पर आत्मा अवधिज्ञान से अधोलोक को जानता देखता है । वैयशरीर का निर्माण किए बिना भी आत्मा अवधिज्ञान से अधोलोक को जानता देखता है । अधोवधि वैक्रियशरीर का निर्माण करके या उसका निर्माण किए बिना भी अवधिज्ञान से अधोलोक को जानता देखता है। १९८. दो स्थानों से आत्मा तिर्यगुलोक को जानता देखता है
वैक्रियशरीर का निर्माण कर लेने पर आत्मा अवधिज्ञान से तिर्यग्लोक को जानता देखता है। वैक्रियशरीर का निर्माण किए बिना भी आत्मा अवधिज्ञान से तिर्यगुलोक को जानता देखता है । अधोवधि वैयिशरीर का निर्माण करके या उसका निर्माण किए बिना भी अवधिज्ञान से तिर्यग्लोक को जानता देखता है। १६६. दो स्थानों से आत्मा ऊर्ध्वलोक को
जानता देखता है - वैक्रियशरीर का निर्माण कर लेने पर आत्मा अवधिज्ञान से ऊर्ध्वलोक को जानता देखता है। वैक्रियशरीर का निर्माण किए बिना भी आत्मा अवधिज्ञान से ऊर्ध्वलोक को जानता देखता है।
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ठाणं (स्थान)
१,२. आहो हि विउब्वियाविउव्वितेणं चेव अप्पाणेणं आता उलोगं जाणइ पास |
२००. दोहिं ठाणेह आता केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ, तं जहा - १. विउव्वितेणं चैव अप्पाणेणं आता केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ,
२. अविउध्वितेणं चैव अप्पाणेणं आता केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ ।
१,२. आहोहि विजव्विया विअव्वितेणं चैव अप्पाणेणं आता केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ ।°
६७
१२. अधोऽवधि विकृताऽविकृतेन चैव आत्मना आत्मा ऊर्ध्वलोकं जानाति पश्यति ।
अग्घाति, तं जहा
देसेण वि आया गंधाई अग्घाति, सव्वेणवि आया गंधाई अग्घाति ।
द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलकल्पं लोकं जानाति पश्यति, तद्यथा१. विकृतेन चैव आत्मना आत्मा केवलकल्पं लोकं जानाति पश्यति,
२. अविकृतेन चैव आत्मना आत्मा केवलकल्पं लोकं जानाति पश्यति ।
देसेण सव्वेण पदं
देशेन सर्वेण पदम्
२०१. दोहि ठाणेहिं आया सद्दाई सुणेति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा तं जहा - शृणोति तद्यथादेशेनापि आत्मा शब्दान् शृणोति, सर्वेणापि आत्मा शब्दान् शृणोति ।
देसेण वि आया सद्दाई सुणेति, सव्वेण वि आया सद्दाई सुणेति ।
१२. अधोऽवधि विकृताऽविकृतेन चैव आत्मना आत्मा केवलकल्पं लोकं जानाति पश्यति ।
देशेन सर्वेण पद
शब्दान् २०१. दो प्रकार से आत्मा शब्दों को सुनता
है—
शरीर के एक भाग से भी आत्मा शब्दों को सुनता है।
समूचे शरीर से भी आत्मा शब्दों को सुनता है।
t
२०२. दोहिं ठाणेह आया रुवाई पास, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा रूपाणि २०२. दो प्रकार से आत्मा रूपों को देखता है—
तं जहा - देसेणवि आया रुवाई पासइ, Hoda आया रुवाई पसाइ ।
शरीर के एक भाग से भी आत्मा रूपों को देखता है ।
पश्यति, तद्यथा
देशेनापि आत्मा रूपाणि पश्यति, सर्वेणापि आत्मा रूपाणि पश्यति ।
स्थान २ : सूत्र १६६-२०३ अधोवधि वैक्रियशरीर का निर्माण करके या उसका निर्माण किए बिना भी अवधिज्ञान से ऊर्ध्वलोक को जानतादेखता है ।
२००. दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण लोक को जानता-देखता है—
समूचे शरीर से भी आत्मा रूपों को देखता है।
२०३. दोहि ठाणेहि आया गंधाई द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा गन्धान् २०३. दो प्रकार से आत्मा गंधों को सूंघता है—
शरीर के एक भाग से भी आत्मा गंधों को सूचता है।
समूचे शरीर से भी आत्मा गंधों को सूंघता है।
आजिघ्रति, तद्यथा
देशेनापि आत्मा गन्धान् आजिघ्रति, सर्वेणापि आत्मा गन्धान् आजिघ्रति ।
वैक्रियशरीर का निर्माण कर लेने पर आत्मा अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक को जानता देखता है ।
वैशिरीर का निर्माण किए बिना भी आत्मा अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक को जानता देखता है।
अधोवध वैक्रियशरीर का निर्माण करके या उसका निर्माण किए बिना भी अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक को जानतादेखता है।
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ari (स्थान)
६८
देति, तं जहा
२०४. दोहि ठाणेह आया रसाई आसा द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा आस्वादयति, तद्यथादेशेनापि आत्मा रसान् आस्वादयति, सर्वेणापि आत्मा रसान् आस्वादयति ।
देसेणवि आया रसाई आसादेति, सव्वेणवि आया रसाई आसादेति ।
२०५. दोहि ठाणेह आया फासाइं पडि- द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा स्पर्शान् २०५. दो प्रकार से आत्मा स्पर्शो का प्रति
संवेदन करता है—
संवेदेति, तं जहादेसेण वि आया फासाई पडिसंवेदेति, सव्वेणवि आया फासाई पडिसंवेदेति ।
शरीर के एक भाग से भी आत्मा स्पर्शो का प्रतिसंवेदन करता है । "
विकुव्वति परियारेति, 'भासं भासति', आहारेति, परिणामेति, वेदेति, णिज्जरेति ।
समूचे शरीर से भी आत्मा स्पर्शो का प्रतिसंवेदन करता है ।
२०६. दोहि ठाणेहिं आया ओभासति द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा अवभासते, २०६. दो प्रकारों से आत्मा अवभास करता
तं जहा
है - शरीर के एक भाग से भी आत्मा अवभास करता है ।
सेवि आया ओभासति, सव्वेणवि आया ओभासति ।
२०७. एवं पभासति,
स्थान २ : सूत्र २०४ - २०८
रसान् २०४. दो प्रकार से आत्मा रसों का आस्वाद लेता है—शरीर के एक भाग से भी आत्मा रसों का आस्वाद लेता है ।
तं जहा
सेवि देवे सद्दा सुति, सव्वेणवि देवे सद्दाई सुणेति जाव णिज्जरेति ।
प्रतिसंवेदयति, तद्यथादेशेनापि आत्मा स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति, सर्वेणापि आत्मा स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति ।
समूचे शरीर से भी आत्मा अवभास करता है।
२०७. इसी तरह दो प्रकारों से शरीर के एक भाग से भी और समूचे शरीर से भी आत्मा-प्रभास करता है, वैक्रिय करता है, मैथुन सेवन करता है, भाषा बोलता है, आहार करता है, उसका परिणमन करता है, उसका अनुभव करता है, उसका उत्सर्ग करता है ।
२०८. दोहि ठाणेहिं देवे सद्दाई सुणेति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां देवः शब्दान् शृणोति, २०८. दो स्थानों से देव शब्द सुनता है
शरीर के एक भाग से भी देव शब्द सुनता है।
समूचे शरीर से भी देव शब्द सुनता है। इसी प्रकार दो स्थानों से शरीर के एक भाग से भी और समूचे शरीर से भी देव - प्रभास करता है, वैक्रिय करता है, मैथुन सेवन करता है, भाषा बोलता है, आहार करता है, उसका परिणमन करता है, उसका अनुभव करता है, उसका उत्सर्ग करता है ।
तद्यथा
देशेनापि आत्मा अव भासते, सर्वेणापि आत्मा अवभासते ।
समूचे शरीर से भी आत्मा रसों का आस्वाद लेता है।
एवम् प्रभासते, विकुरुते, परिचारयति, भाषां भाषते, आहरति, परिणामयति, वेदयति, निर्ज्जरयति ।
तद्यथा—
देशेनापि देवः शब्दान् शृणोति, सर्वेणापि देवः शब्दान् शृणोति यावत् निर्जरयति ।
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ठाणं (स्थान)
सरीर-पदं
२०६. मरुया देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा – एगसरीरी चेव, दुसरीरी चेव ।
२१०. एवं किण्णरा किंपुरिसा गंधव्वा कुमारा सुवणकुमारा श्रग्गिकुमारा वायुकुमारा ।
२११·
देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा एगसरीरी चेव, दुसरीरी चेव ।
सद्द-पदं
२१२. दुविहे सद्दे पण्णत्ते, तं जहा
भासास चेव, गोभासासद्दे चेव । २१३. भासासद्द दुविहे पण्णत्ते, तं जहा अक्खर संबद्धे चेव, अक्खर संबद्धे चैव ।
२१४. णोभासास
दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—आउज्जसद्दे चेव, उज्ज चेव । २१५. आउज्जसद्दे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—तते चेव, वितते चैव । २१६. तते दु विहे पण्णत्ते, तं जहाघणे व सुसिरे चैव । २१७. वितते दु विहे पण्णत्ते, तं जहाघणे व सुसिरे चेव ।
६६
शरीर-पदम्
मरुतो देवा द्विविधाः तद्यथा— एकशरीरिणश्चैव, द्विशरीरिणश्चैव ।
एवम् - किन्नराः किंपुरुषाः, गन्धर्वाः नागकुमाराः सुपर्णकुमाराः, अग्निकुमाराः, वायुकुमाराः ।
प्रज्ञप्ताः,
देवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाएकशरीरिणश्चैव द्विशरीरिणश्चैव ।
J
स्थान २ : सूत्र २०६-२१७
शरीर-पद
२०६. मरूत् देव" दो प्रकार के हैं
एक शरीर वाले । दो शरीर वाले ।
२१०. इसी प्रकार - किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व, नागकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वायुकुमार ये देव दो-दो प्रकार के हैंएक शरीर वाले, दो शरीर वाले ।
२११. देव दो प्रकार के हैं
एक शरीर वाले, दो शरीर वाले ।
तइओ उद्देसो
शब्द-पद
शब्द-पदम् द्विविधः शब्दः प्रज्ञप्तः, तद्यथाभाषाशब्दश्चैव, नोभाषाशब्दश्चैव । भाषाशब्दः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— अक्षरसंबद्धश्चैव
२१२. शब्द दो प्रकार का हैभाषा-शब्द, नोभाषा-शब्द ।
२१३. भाषा शब्द दो प्रकार का है— अक्षर संबद्ध - वर्णात्मक | नोअक्षर संबद्ध ।
नोअक्षरसंबद्धश्चैव ।
नोभाषाशब्दः द्विविध: प्रज्ञप्तः, २१४ नोभाषा-शब्द दो प्रकार का हैतद्यथा—आतोद्यशब्दश्चैव,
आतोधशब्द,
नोआतोद्यशब्दश्चैव । नोआतोधशब्द | आतोद्यशब्दः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - २१५. आतोद्य शब्द दो प्रकार का है— ततश्चैव, विततश्चैव । तत, वितत ।
ततः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-घनश्चैव शुषिरश्चैव । विततः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— घनश्चैव शुषिरश्चैव ।
२१६. तत शब्द दो प्रकार का हैघन, शुषिर
२१७. वितत शब्द दो प्रकार का हैघन, शुषिर ।
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ठाणं (स्थान)
७०
स्थान २ : सूत्र २१८-२२४ २१८. णोआउज्जसद्दे दुविहे पण्णत्ते, नोआतोद्यशब्द: द्विविधः प्रज्ञप्तः, २१८. नोआतोद्य शब्द दो प्रकार का हैतं जहा तद्यथा
भूषणशब्द नोभूषणशब्द। भूसणसद्दे चेव, णोभूसणसद्दे चेव। भूषणशब्दश्चैव, नोभूषणशब्दश्चैव । २१९. णोभूसणसद्दे दुविहे पण्णत्ते, नोभूषणशब्दः द्विविध: प्रज्ञप्तः, २१६. नोभूषणशब्द दो प्रकार का हैतं जहातद्यथा--
तालशब्द लतिकाशब्द। तालसद्दे चेव, लत्तिआसद्दे चेव। तालशब्दश्चैव, लतिकाशब्दश्चैव । २२०. दोहि ठाणेहि सदुप्पाते सिया, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां शब्दोत्पातः स्यात्, २२०. दो कारणों से शब्द की उत्पत्ति होती हैतं जहातद्यथा
जब पुद्गल संहति को प्राप्त होते हैं साहण्णंताणं चेव पोग्गलाणं संहन्यमानानां चैव पुद्गलानां तब शब्द की उत्पत्ति होती है, जैसेसदुप्पाए सिया, शब्दोत्पातः स्यात्,
घड़ी का शब्द । जब पुद्गल भेद को भिज्जंताणं चेव पोग्गलाणं भिद्यमानानां चैव पुद्गलानां प्राप्त होते हैं तब शब्द की उत्पत्ति सदुप्पाए सिया। शब्दोत्पातः स्यात् ।
होती है, जैसे—बांस के फटने का शब्द।
पोग्गल-पदं पुद्गल-पदम्
पुद्गल-पद २२१. दोहि ठाणेहिं पोग्गला साहणंति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्गलाः संहन्यन्ते, २२१. दो स्थानों से पुद्गल संहत होते हैंतं जहातद्यथा
स्वयं-अपने स्वभाव से पुद्गल संहत सई वा पोग्गला साहणंति, स्वयं वा पुद्गला: संहन्यन्ते,
होते हैं। परेण वा पोग्गला साहणंति। परेण वा पुद्गला संहन्यन्ते । दूसरे निमित्तों से पुद्गल संहत होते हैं। २२२. दोहि ठाणेहि पोग्गला भिज्जति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्गला भिद्यन्ते, २२२. दो स्थानों से पुद्गलों का भेद होता हैतं जहातद्यथा
स्वयं-अपने स्वभाव से पुद्गलों का भेद सई वा पोग्गला भिज्जंति, स्वयं वा पुद्गला भिद्यन्ते,
होता है । दूसरे निमित्तों से पुद्गलों का परेण वा पोग्गला भिज्जंति। परेण वा पुद्गला भिद्यन्ते ।
भेद होता है। २२३. दोहि ठाणेहि पोग्गला परिपडंति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्गलाः परिपतन्ति, २२३. दो स्थानों से पुद्गल नीचे गिरते हैंतं जहातद्यथा
स्वयं-अपने स्वभाव से पुद्गल नीचे सई वा पोग्गला परिपडंति, स्वयं वा पुद्गलाः परिपतन्ति,
गिरते हैं। परेण वा पोग्गला परिपडंति। परेण वा पुद्गलाः परिपतन्ति । दूसरे निमित्तों से पुद्गल नीचे गिरते हैं। २२४. 'दोहि ठाणेहि पोग्गला परिसडंति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पूदगलाः परिशटंति, २२४. दो स्थानों से पुद्गल विकृत होकर नीचे तं जहातद्यथा
गिरते हैंसई वा पोग्गला परिसडंति, स्वयं वा पुद्गलाः परिशटंति,
स्वयं-अपने स्वभाव से पुद्गल विकृत परेण वा पोग्गला परिसडंति। परेण वा पुद्गलाः परिशटंति । होकर नीचे गिरते हैं । दूसरे निमित्तों
से पुद्गल विकृत होकर नीचे गिरते
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २: सूत्र २२५-२३३ २२५. दोहि ठाणेहं पोग्गला विद्धसंति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्गलाः विध्वंसते, २२५. दो स्थानों से पुद्गल विध्वंस को प्राप्त तं जहातद्यथा
होते हैंसई वा पोग्गला विद्धंसंति, स्वयं वा पुद्गलाः विध्वंसते,
स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल विध्वंस परेण वा पोग्गला विद्धंसंति। परेण वा पुद्गलाः विध्वंसंते।
को प्राप्त होते हैं। दूसरे निमित्तों से पुद्गल विध्वंस को प्राप्त होते
२२६. दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, त जहा द्विविधाः पदगलाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- २२६. पुद्गल दो प्रकार के हैंभिण्णा चेव, भिण्णा चैव। भिन्नाश्चैव, अभिन्नाश्चैव ।
भिन्न, अभिन्न । २२७. दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधाः पदगलाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा- २२७. पुद्गल दो प्रकार के हैंभेउरधम्मा चेव, भिदुरधर्माणश्चैव,
भिदुर धर्मवाले, णोभेउरधम्मा चेव। नोभिदुरधर्माणश्चैव।
नोभिदुर धर्मवाले। २२८. दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, ते जहा- द्विविधाः पदगला: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २२८. पुद्गल दो प्रकार के हैंपरमाणुपोग्गला चेव, परमाणुपुद्गलाश्चैव,
परमाणु पुद्गल, णोपरमाणुपोग्गला चेव। नोपरमाणुपुद्गलाश्चैव ।
नोपरमाणु पुद्गल (स्कन्ध)। २२६. दुविहा पोग्गला पण्णता, त जहा- द्विविधाः पूदगलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २२६. पुद्गल दो प्रकार के हैंसुहुमा चेव, बायरा चेव। सूक्ष्माश्चैव, बादराश्चैव ।
सूक्ष्म बादर। २३०. दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधाः पदगलाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- २३०. पुद्गल दो प्रकार के हैंबद्धपासपुट्ठा चेव, बद्धपार्श्वस्पष्टाश्चैव,
बद्धपार्श्वस्पृष्ट, णोबद्ध पासपुट्ठा चेव। नोबद्धपार्श्वस्पृष्टाश्चैव।
नोबद्धपार्श्वस्पृष्ट ।" २३१. दुविहा पोग्गला पण्णता, तं जहा- द्विविधाः पुदगलाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- २३१. पुद्गल दो प्रकार के हैंपरियादितच्चेव, पर्यादत्ताश्चैव,
पर्यादत, अपरियादितच्चेव। अपर्यादत्ताश्चैव।
अपर्यादत। २३२. दुविहा पोग्गला पण्णता, ते जहा- द्विविधाः पदगलाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- २३२. पुद्गल दो प्रकार के हैंअत्ता चेव, आत्ताश्चैव,
आत्त-जीव के द्वारा गृहीत, अणत्ता चेव। अनात्ताश्चैव ।
अनात्त--जीव के द्वारा अगृहीत । २३३. दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधाः पदगलाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- २३३. पुद्गल दो प्रकार के हैंइट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव । इष्टाश्चैव, अनिष्टाश्चैव।
अनिष्ट । •कता चेव, अकता चेव।
अकान्त। कान्ताश्चैव, अकान्ताश्चैव। पिया चेव, अपिया चेव। प्रियाश्चैव, अप्रियाश्चैव।
अप्रिय। मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मनोज्ञाश्चैव, अमनोज्ञाश्चैव ।
मनोज्ञ, अमनोज्ञ। मणामा चेव, अमणामा चेव ।
मन 'आमा' श्चैव, अमन 'आमा' श्चैव। मन के लिए प्रिय, मन के लिए अप्रिय ।
कान्त,
प्रिय,
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ठाणं (स्थान)
७२
स्थान २ : सूत्र २३४-२३८
आत्त,
इष्ट, कान्त,
प्रिय,
प्रिय,
इंदिय-विसय-पदं इन्द्रिय-विषय-पदम्
इन्द्रिय-विषय-पद २३४. दुविहा सद्दा पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधाः शब्दाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- २३४. शब्द दो-दो प्रकार के हैंअत्ता चेव, अणत्ता चेव।। आत्ताश्चैव, अनात्ताश्चैव।
अनात्त। 'इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव । इष्टाश्चैव, अनिष्टाश्चैव।
अनिष्ट। कंता चेव, अकंता चेव। कान्ताश्चैव, अकांताश्चैव ।
अकान्त। पिया चेव, अपिया चेव। प्रियाश्चैव, अप्रियाश्चैव।
अप्रिय । मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मनोज्ञाश्चैव, अमनोज्ञाश्चैव ।
मनोज्ञ, अमनोज्ञ । मणामा चेव, अमणामा चेव । मन 'आमा' श्चैव, अमन 'आमा' श्चैव।। मन के लिए प्रिय, मन के लिए अप्रिय। २३५. दुविहा रूवा पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधानि रूपाणि प्रज्ञप्तानि. तदयथा- २३५. रूप दो-दो प्रकार के हैंअत्ता चेव, अणत्ता चेव। आत्तानि चैव, अनात्तानि चैव ।
आत्त, अनात्त। 'इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव। इष्टानि चैव, अनिष्टानि चैव ।
इष्ट, अनिष्ट। कंता चेव, अकंता चेव। कांतानि चैव, अकांतानि चैव ।
कान्त, अकान्त। पिया चेव, अपिया चेव। प्रियानि चैव, अप्रियानि चैव।
अप्रिय । मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मनोज्ञानि चैव, अमनोज्ञानि चैव। मनोज्ञ, अमनोज्ञ ।
मणामा चेव, अमणामा चेव। मन 'आमानि' चैव, अमन 'आमानि' चैव। मन के लिए प्रिय, मन के लिए अप्रिय । २३६. 'दुविहा गंधा पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधाः गंधाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- २३६. गन्ध दो-दो प्रकार के हैंअत्ता चेव, अणत्ता चेव। आत्ताश्चैव, अनात्ताश्चैव ।
आत्त, अनात्त। इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव। इष्टाश्चैव, अनिष्टाश्चैव ।
अनिष्ट। कंता चेव, अकंता चेव। कांताश्चैव, अकांताश्चैव ।
जकान्त। पिया चेव, अपिया चेव । प्रियाश्चैव, अप्रियाश्चैव।
प्रिय, अप्रिय। मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मनोज्ञाश्चैव, अमनोज्ञाश्चैव ।
मनोज्ञ, अमनोज्ञ। मणामा चेव, अमणामा चेव। मन 'आमा' श्चैव, अमन 'आमा' श्चैव। मन के लिए प्रिय, मन के लिए अप्रिय । २३७. दविहा रसा पण्णत्ता, तं जहा.- द्विविधाः रसाः प्रज्ञप्ताः , तदयथा- २३७. रस दो-दो प्रकार के हैंअत्ता चेव, अणत्ता चेव। आत्ताश्चैव, अनात्ताश्चैव।
आत्त, अनात्त। इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव। इष्टाश्चैव, अनिष्टाश्चैव।
अनिष्ट । कंता चेव, अकंता चेव। कांताश्चैव, अकांताश्चैव ।
कान्त, अकान्त। पिवा चेव, अपिया चेव । प्रियाश्चैव, अप्रियाश्चैव।
प्रिय, अप्रिय। मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव।। मनोज्ञाश्चैव, अमनोज्ञाश्चैव।
मनोज्ञ, अमनोज्ञ । मणामा चेव, अमणामा चेव ।। मन 'आमा' श्चैव, अमन 'आमा' श्चैव।। मन के लिए प्रिय, मन के लिए अप्रिय।
सा पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधाः स्पर्शाः प्रज्ञप्ता:, तदयथा- २३८. स्पर्श दो-दो प्रकार के हैंअत्ता चेव, अणत्ता चेव। आत्ताश्चैव, अनात्ताश्चैव।
आत्त, अनात्त। इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव। इष्टाश्चैव, अनिष्टाश्चैव ।
इष्ट, अनिष्ट। कंता चेव, अकंता चेव। कांताश्चैव, अकांताश्चैव ।
कान्त,
इष्ट,
कान्त,
अकान्त।
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ठाणं (स्थान)
७३
स्थान २ : सूत्र २३६-२४८
पिया चेव, अपिया चेव। मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मणामा चेव, अमणामा चेव ।
प्रियाश्चैव, अप्रियाश्चैव। मनोज्ञाश्चैव, अमनोज्ञाश्चेव । मन 'आमा' श्चैव, अमन 'आमा' श्चैव।
प्रिय, अप्रिय मनोज्ञ, अमनोज्ञ मन के लिए प्रिय, मन के लिए अप्रिय ।
आयार-पदं आचार-पदम्
आचार-पद २३६. दविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा- द्विविध: आचारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- २३६. आचार दो प्रकार का है
णाणायारे चेव, णोणाणायारे चेव। ज्ञानाचारश्चैव, नोज्ञानाचारश्चैव । ज्ञानाचार, नोज्ञानाचार"। २४०. णोणाणायारे दुविहे पण्णत्ते, नोज्ञानाचारः द्विविध: प्रज्ञप्तः, २४०. नोज्ञानाचार दो प्रकार का हैतं जहा—दसणायारे चेव, तद्यथा-दर्शनाचारश्चैव,
दर्शनाचार णोदसणायारे चेव। नोदर्शनाचारश्चैव।
नोदर्शनाचार"। २४१. णोदसणायारे दुविहे पण्णत्ते, नोदर्शनाचार: द्विविधः प्रज्ञप्तः, २४१. नोदर्शनाचार दो प्रकार का हैतं जहा...चरित्तायारे चेव, तद्यथा-चरित्राचारश्चैव,
चरित्राचार णोचरित्तायारे चेव। नोचरित्राचारश्चैव ।
नोचरित्राचार । २४२. णोचरित्तायारे दुविहे पण्णत्ते, नोचरित्राचारः द्विविधः प्रज्ञप्तः, २४२. नोचरित्राचार दो प्रकार का हैतं जहातवायारे चेव, तद्यथा-तपआचारश्चैव,
तप:आचार वीरियायारे चेव। वीर्याचारश्चैव।
वीर्याचार ।
पडिमा-पदं
प्रतिमा-पदम् २४३. दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा
तं जहा—समाहिपडिमा चेव, समाधिप्रतिमा चैव, उवहाणपडिमा चेव।
उपधानप्रतिमा चैव। २४४. दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा
तं जहा—विवेगपडिमा चेव, विवेकप्रतिमा चैव,
विउसग्गपडिमा चेव। व्युत्सर्गप्रतिमा चैव। २४५. दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा
जहा—भद्दा चेव, सुभद्दा चेव। भद्रा चैव, सुभद्रा चैव। २४६. दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा
तं जहा....महाभद्दा चेव, महाभद्रा चैव, सर्वतोभद्रा चैव।
सव्वतोभद्दा चेव। २४७. दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा
जहा—खुड्डिया चेव मोयपडिमा, क्षुद्रिका चैव 'मोय' प्रतिमा, महल्लिया चेव मोयपडिमा। महती चैव 'मोय' प्रतिमा।
प्रतिमा-पद २४३. प्रतिमा दो प्रकार की है
समाधिप्रतिमा
उपधानप्रतिमा। २४४. प्रतिमा दो प्रकार की है
विवेकप्रतिमा
व्युत्सर्गप्रतिमा। २४५. प्रतिमा दो प्रकार की है
भद्रा, सुभद्रा । ०२ २४६. प्रतिमा दो प्रकार की है
महाभद्रा०३
सर्वतोभद्रा। २४७. प्रतिमा दो प्रकार की है
क्षुद्रकप्रस्रवणप्रतिमा महत्प्रस्रवणप्रतिमा।०६
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ठाणं (स्थान)
७४
स्थान २ : सूत्र २४८-२५६
२४८. दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा
जहा—जवमझा चेव चंदपडिमा, यवमध्या चैव चंद्रप्रतिमा, वइरमज्झा चेव चंदपडिमा। वज्रमध्या चैव चंद्रप्रतिमा।
२४८. प्रतिमा दो प्रकार की है
यवमध्याचन्द्रप्रतिमा वज्रमध्याचन्द्रप्रतिमा।०८
सामाइय-पदं २४६. दुविहे सामाइए पण्णत्ते, तं जहा
अगारसामाइए चेव, अणगारसामाइए चेव।
सामायिक-पदम्
सामायिक-पद द्विविध: सामायिकः प्रज्ञप्तः, तदयथा- २४६. सामायिक दो प्रकार का हैअगारसामायिकश्चैव,
अगारसामायिक अनगारसामायिकश्चैव।
अनगारसामायिक ।
जन्म-मरण-पदं जन्म-मरण-पदम्
जन्म-मरण-पद २५०. दोण्हं उववाए पण्णत्ते, तं जहा- द्वयोरुपपातः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
२५०. दो का उपपात होता हैदेवाणं चेव, गेरइयाणं चेव। देवानाञ्चैव, नारकाणाञ्चैव । देवताओं का, नैरयिकों का। २५१. दोण्हं उव्वट्टणा पण्णत्ता, तं जहा- द्वयोरुद्वर्तना प्रज्ञप्ता, तद्यथा- २५१. दो का उद्वर्तन" होता हैरइयाणं चेव, नैरयिकाणाञ्चैव,
नरयिकों का भवणवासीणं चेव। भवनवासिनाञ्चैव।
भवनवासी देवताओं का। २५२. दोण्हं चयणे पण्णत्ते, तं जहा- द्वयोश्च्यवनं प्रज्ञप्तं, तद्यथा- २५२. दो का च्यवन" होता हैजोइसियाणं चेव, ज्योतिष्काणाञ्चैव,
ज्योतिष्कदेवों का वेमाणियाणं चेव। वैमानिकानाञ्चैव ।
वैमानिकदेवों का। २५३. दोण्हं गब्भवक्कंती पण्णत्ता, द्वयोर्गर्भावक्रान्तिः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २५३. दो की गर्भ-अवक्रान्ति होती हैतं जहा—मणुस्साणं चेव, मनुष्याणाञ्चैव,
मनुष्यों की पंचें दियतिरिक्खजोणियाणं चेव। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की।
गब्भत्थ-पदं गर्भस्थ-पदं
गर्भस्थ-पद २५४. दोण्हं गब्भत्थाणं आहारे पण्णत्ते, द्वयोर्गर्भस्थयोराहारः प्रज्ञप्तः, २५४. दो गर्भ में रहते हुए आहार लेते हैंतं जहा.-मणुस्साणं चेव, तद्यथा—मनुष्याणञ्चैव,
मनुष्य पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च। २५५. दोण्हं गब्भत्थाणं वुड्डी पण्णत्ता, तं द्वयोर्गर्भस्थयोवृद्धिः प्रज्ञप्ता, २५५. दो की गर्भ में रहते हुए वृद्धि होती हैजहा...मगुस्साणं चेव, तद्यथा-मनुष्याणाञ्चैव,
मनुष्यों की पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की। २५६. 'दोण्हं गब्भत्थाणं -णिवुड्डी द्वयोर्गर्भस्थयो:-निवृद्धिः विकरणम् २५६. दो की गर्भ में रहते हुए हानि, विक्रिया,
विगुव्वणा गतिपरियाए समुग्धाते गतिपर्यायः समुद्घातः कालसंयोगः । गतिपर्याय, समुद्घात, कालसंयोग, गर्भ कालसंजोगे आयाती मरणे° आयाति मरणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- से निर्गमन और मृत्यु होती हैपण्णत्ते, तं जहा—मणुस्साणं चेव, मनुष्याणाञ्चैव,
मनुष्यों की पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव । पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र २५७-२६६
२५७. दोन्हं छविपव्वा पण्णत्ता, तं द्वयोरछविपर्वाणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— २५७. दो के चर्मयुक्त पर्व (सम्धि-बन्धन) होते जहा मणुस्सा चेव, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चेव ।
मनुष्याणाञ्चैव, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव । शुक्रशोणितसंभवौ
हैं— मनुष्यों के पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के
२५८. दो सुक्कसोणितसंभवा पण्णत्ता,
द्वौ
२५८. दो शुक्र और रक्त से उत्पन्न होते हैं
तं
मनुष्य
जहा - मणुस्सा चेब, पंचिदियतिरिक्खजोणिया चेव ।
तद्यथा— मनुष्याश्चैव, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चैव ।
पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च |
ठिति-पदं
२५६. दुविहा ठिती पण्णत्ता, तं जहाकार्यद्विती चैव,
भवतिट्ठी चैव ।
२६१. दोन्हं भवट्टिती पण्णता, तं जहादेवाणं चेव, णेरइयाणं चेव ।
आउय-पदं
२६२. दुविहे आज पण्णत्ते, तं जहा अद्धाउए चेव, भवाउए चेव । २६३. दोन्हं अद्धाउए पण्णत्ते, तं जहामस्साणं चेव,
पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चेव ।
२६४. दोन्हं भवाउए पण्णत्ते, तं जहादेवाणं चेव, णेरइयाणं चेव ।
कम्म-पदं
२६५. दुविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहापदेसकम्मे चेव, graat aa |
२६६. दो अहाउयं पार्लेति, तं जहादेवच्चेव, रइयच्चेव ।
७५
भवस्थिति - एक ही जन्म की स्थिति । १४
२६०. दोहं कार्यट्टिती पण्णत्ता, तं द्वयोः काय स्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा— २६०. दो के कार्यस्थिति होती है—
जहा मसाणं चेव, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चेव ।
मनुष्याणाञ्चैव पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव । द्वयोर्भवस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-देवानाञ्चैव नैरयिकाणाञ्चैव ।
प्रज्ञप्तौ,
स्थिति-पदम्
द्विविधा स्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथाकाय स्थितिश्चैव,
भवस्थितिश्चैव ।
आयु:-पदम्
द्विविधं श्रायुः प्रज्ञप्तम्, तद्यथावायुश्चैव भवायुश्चैव । द्वयोरध्वायुः प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— मनुष्याणाञ्चैव, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव । द्वयोर्भवायुः प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— देवानाञ्चैव, नैरयिकाणाञ्चैव ।
कर्म-पदम्
द्विविधं कर्म प्रज्ञप्तम्, तद्यथाप्रदेशकर्म चैव, अनुभावकर्म चैव ।
द्वौ यथायुः पालयतः, तद्यथादेवश्चैव, नैरयिकश्चैव ।
स्थिति-पद
२५६. स्थिति दो प्रकार की है
काय स्थिति — एक ही काय (जाति) में निरन्तर जन्म लेना |
मनुष्यों के पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के ।
२६१. दो के भवस्थिति होती है
देवताओं के, नैरयिकों के ।
आयु-पद
२६२. आयुष्य दो प्रकार का है-
अवायुष्य, भवायुष्य । १५ २६३. दो के अद्ध्वायुष्य होता हैमनुष्यों के
पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों के । २६४. दो के भवायुष्य होता हैदेवताओं के, नैरयिकों के ।
कर्म-पद
२६५. कर्म दो प्रकार का है
प्रदेशकर्म, अनुभावकर्म । ११६
११७
२६६. दो यथायु (पूर्णायु) का पालन करते हैं— देव, नैरयिक |
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : सूत्र २६७-२७०
२६७. दोन्हं आउय-संवट्टए पण्णत्ते, तं द्वयोरायुः - संवर्त्तकः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - २६७. दो के आयुष्य का संवर्त्तन"" (अकाल
जहा मगुस्साणं चेव,
मनुष्याणाञ्चैव पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्चैव ।
मरण) होता है -- मनुष्यों के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के
पंचेंदियति रिक्खजोणियाणं चेव ।
खेत्त-पदं
२६८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर- दाहिने गं दो वासा पण्णत्ता - बहुसमतुल्ला अविसेस - मणाणत्ता अण्णमण्णं णातिवद्धति आयाम विक्खंभ-संठाण-परिणाहेणं, तं जहा भरहे चेव, एरवए चेव । भरतं चैव, ऐरवतं चैव ।
२६६. एवमेएणमभिलावेणं
हेमवते चेव, हेरण्णवते चेव । हरिवासे चेव, रम्मयवासे चेव ।
२७०. जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं दो खेत्ता पण बहुसमतुल्ला अविसेस मणाणत्ता अण्णमण्णं णातिवट्टेति आयाम - विक्खंभ- संठाण-परिणाहेणं, तं जहा - godविदेहे चेव, अवरविदेहे चेव ।
क्षेत्र-पदम्
क्षेत्र - पद
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर- २६८. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तरदक्षिणे द्वे वर्षे प्रज्ञप्तेदक्षिण में दो क्षेत्र हैंबहुसमतुल्ये अविशेषे अनानात्वेअन्योन्यं नातिवर्तते आयाम - विष्कम्भसंस्थान- परिणाहेन, तद्यथा
भरत-दक्षिण में, ऐरवत-उत्तर में ।
दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं । नगर-नदी आदि की दृष्टि से उनमें कोई विशेष ( भेद) नहीं है। कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से उनमें नानात्व नहीं है । वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते।
२६. इसी प्रकार हैमवत, हैरण्यवत, हरि और रम्यकक्षेत्र की स्थिति भी भरत और ऐरवत के समान है—
हैमवत हरि
} दक्षिण में ।
उत्तर में ।
एवमेतेनअभिलापेन—
हैमवतं चैव, हैरण्यवतं चैव । हरिवर्षं चैव, रम्यकवर्षं चैव ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्य - पाश्चात्ये द्वे क्षेत्रे प्रज्ञप्तेबहुसमतुल्ये अविशेषे अनानात्वे अन्योन्यं नातिवर्तेते आयामविष्कम्भ - संस्थान - परिणाहेन,
तद्यथा
पूर्वविदेहश्चैव, अपरविदेहश्चैव ।
हैरण्यवत
रम्यक
२७० जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्वपश्चिम में दो क्षेत्र हैंपूर्वविदेह — पूर्व में ।
अपरविदेह — पश्चिम में ।
वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं । नगर-नदी आदि की दृष्टि से उनमें कोई विशेष ( भेद ) नहीं है । कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से उनमें नानात्व नहीं है। वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते ।
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७७
ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र २७१-२७२ २७१. जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर- २७१. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तरउत्तर-दाहिणे णं दो कुराओ दक्षिणे द्वौ कुरू प्रज्ञप्तौ--
दक्षिण में दो कुरु हैं-देवकुरु-दक्षिण में। पण्णत्ताओ—बहुसमतुल्लाओ जाव, बहुसमतुल्यौ यावत्,
उत्तरकुरु-उत्तर में । वे दोनों क्षेत्रदेवकुरा चेव, उत्तरकुरा चेव। देवकुरुश्चैव,
प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं। नगरउत्तरकुरुश्चैव।
नदी आदि की दृष्टि से उनमें कोई विशेष तत्थ णं दो महतिमहालया महा- तत्र द्वौ महातिमहान्तौ माद्रुमौ । (भेद) नहीं है । कालचक्र के परिवर्तन की दुमा पण्णत्ताप्रज्ञप्तौ
दृष्टि से उनमें नानात्व नहीं है । वे बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता बहुसमतुल्यौ अविशेषौ अनानात्वौ लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में अण्णमण्णं णाइवटुंति आयाम- अन्योन्यं नातिवर्तेते आयाम- एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते। विक्खंभुच्चत्तोव्वेह-संठाण- विष्कम्भोच्चत्वोद्वेध-संस्थान-परिणा- वहां (देवकुरु में) कूटशाल्मली और परिणाहेणं, तं जहाहेन, तद्यथा
सुदर्शना जम्बू नाम के दो अतिविशाल कूडसामली चेव, जंबू चेव कूटशाल्मली चैव, जम्बू चेव सुदर्शना। महाद्रुम हैं। वे दोनों प्रमाण की दृष्टि से सुदंसणा।
तत्र द्वौ देवौ महधिकौ महाद्युतिको सर्वथा सदृश हैं। उनमें कोई विशेष (भेद) तत्थ णं दो देवा महड्डिया ___ महानुभागौ महायशसौ महाबलौ महा- नहीं है। कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि *महज्जुइया महाणुभागा महायसा सोख्यौ पल्योपमस्थितिको परिवसतः, से उनमें नानात्व नहीं है। वे लम्बाई, महाबला महासोक्खा पलि- तद्यथा--
चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई, संस्थान और ओवमद्वितीया परिवसंति तं, गरुडश्चैव वेणदेवः,
परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं जहा_गरुले चेव वेणुदेवे, अणाढिते अनादृतश्चैव, जम्बूद्वीपाधिपतिः । करते। उन पर महान् ऋद्धि वाले, महान् चेव जंबुद्दीवाहिवती।
द्युति वाले, महान् शक्ति वाले, महान् यश वाले, महान् बल वाले, महान् सुख को भोगने वाले और एक पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं-कूट शाल्मली पर सुपर्णकुमार जाति का वेणुदेव और सुदर्शना
पर जम्बूद्वीप का अधिकारी 'अनादृत देव'। पव्वय-पदं २७२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर- २७२. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तरउत्तर-दाहिणे णं दो वासहर- दक्षिणे द्वौ वर्षधरपर्वतौ प्रज्ञप्तौ
दक्षिण में दो वर्षधर पर्वत हैं-क्षुल्लहिमपव्वया पण्णत्ता
बहुसमतुल्यौ अविशेषौ अनानात्वौ वान्–दक्षिण में। शिखरी-उत्तर में। बहसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्योन्यं नातिवर्तेते आयाम
वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा अण्णमण्णं णातिवटैंति आयाम- विष्कम्भोच्चत्वोद्वेध-संस्थान-परिणा- सदृश हैं। उनमें कोई विशेष (भेद) नहीं विक्खंभुच्चत्तोव्वेह-संठाण- हेन तद्यथा
है। कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से परिणाहेणं, तं जहाक्षुल्लहिमवाँश्चैव, शिखरी चैव,
उनमें नानात्व नहीं है। वे लम्बाई, चौड़ाई, चुल्लहिमवंते चेव, सिहरिच्चेव।
ऊंचाई, गहराई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते।
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ठाणं (स्थान)
७८
स्थान २ : सूत्र २७३-२७५
२७३. एवं—महाहिमवंते चेव, रुप्पिच्चेब। एबम्-महाहिमवांश्चैव, रुक्मी चैव। २७३. इसी प्रकार महाहिमवान्, रुक्मी, निषध एवं_णिसढे चेव, णीलवंते चेव। एवम्-निषधश्चैव, नीलवाश्चैव । और नीलवान् पर्वत की स्थिति क्षुल्लहिम
वान् और शिखरी के समान हैमहाहिमवान्, निषध-दक्षिण में ।
रुक्मी, नीलवान-उत्तर में। २७४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर- २७४. जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में
उत्तर-दाहिणे णं हेमवत- दक्षिणे हैमवत-हैरण्यवतयोः वर्षयोः द्वौ हैमवत क्षेत्र में शब्दापाती नाम का वृत्त हेरण्णवतेसु वासेसु दो वट्टवेयड- वृत्तवैताढ्यपर्वतौ प्रज्ञप्तौ
वैताढय पर्वत है और उत्तर में ऐरण्यवत पव्वता पण्णत्ता—बहुसमतुल्ला बहुसमतुल्यौ अविशेषौ अनानात्वौ । क्षेत्र में विकटापाती नाम का वृत्त वैताढ्य अविसेसमणाणत्ता 'अण्णमण्णं अन्योन्यं नातिवर्तते आयाम- पर्वत है। णातिवटुंति आयाम-विक्खं- विष्कम्भोच्चत्वोद्वेध-संस्थान-परिणाहेन, वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा भुच्चत्तोब्वेह-संठाण-परिणाहेणं तं तद्यथा
सदृश हैं। उनमें कोई विशेष (भेद) नहीं जहा
शब्दापाती चैव, विकटापाती चैव । है। कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से उनमें सद्दावाती चेव, वियडावाती चेव। तत्र द्वौ देवौ महद्धिको नानात्व नहीं है। वे लम्बाई, चौड़ाई, तत्थ णं दो देवा महिड्डिया जाव यावत् पल्योपमस्थितिको परिवसतः, ऊंचाई, गहराई, संस्थान और परिधि में पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तं तद्यथा
एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते। जहा-साती चेव, पभासे चेव। स्वातिश्चैव, प्रभासश्चैव।
उन पर महान् ऋद्धि वाले यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं—शब्दापाती पर स्वातीदेव और
विकटापाती पर प्रभासदेव। २७५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर- २७५. जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में
उत्तर-दाहिणे णं हरिवास- दक्षिणे हरिवर्ष-रम्यकयोः वर्षयोः द्वौ हरि क्षेत्र में गन्धापाती नाम का वृत्त रम्मएसु वासेसु दो वट्टवेयड्पव्वया वृत्तवैताढ्यपर्वतौ प्रज्ञप्तौ
वैताढ्य पर्वत है और उत्तर में रम्यक् पण्णत्ता-बहुसमतुल्ला जाव, तं बहुसमतुल्यौ यावत्, तद्यथा
क्षेत्र में माल्यवत्पर्याय नाम का वृत्त जहा_गंधावाती चेव, गंधापाती, चैव, माल्यवत्पर्यायश्चैव । वैताढ्य पर्वत है। मालवंतपरियाए चेव। तत्र द्वौ देवो महििद्धको यावत् वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा तत्थ णं दो देवा महिडिया जाव पल्योपमस्थितिको परिवसतः, सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तद्यथा
ऊंचाई, गहराई, संस्थान और परिधि में तं जहा...अरुणे चेव, पउमे चेव। अरुणश्चैव, पद्मश्चैव।
एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते। उन पर महान् ऋद्धिवाले यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं--गंधापाती पर अरुणदेव । माल्यवत्पर्याय पर पद्मदेव।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र २७६-२७६ २७६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे २७६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं देवकुराए कुराए देवकुरौ कुरौ पूर्वापरस्मिन् पार्वे, में देवकुरु के पूर्व पार्श्व में सौमनस और पुव्वावरे पासे, एत्थ णं आस- अत्र अश्व-स्कन्धक-सदृशौ अर्धचन्द्र- पश्चिम पार्श्व में विद्युत्प्रभ नाम के दो क्खंधगसरिसा अद्धचंद-संठाण- संस्थान-संस्थितौ द्वौ वक्षस्कारपर्वतौ वक्षार पर्वत हैं। वे अश्वस्कंध के सदृश संठिया दो वक्खारपव्वया प्रज्ञप्तौ
(आदि में निम्न तथा अन्त में उन्नत) और पण्णत्ताबहुसमतुल्यौ यावत्, तद्यथा
अर्द्धचन्द्र के आकार वाले हैं। बहुसमतुल्ला जाव, तं जहा- सौमनसश्चैव, विद्युत्प्रभश्चैव । वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सोमणसे चेव विज्जुप्पभे चेव।
सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई, संस्थान और परिधि में
एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते। २७७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे २७७. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में
उत्तरे णं उत्तरकुराए कुराए उत्तरकुरौ कुरौ पूर्वापरस्मिन् पार्वे, उत्तरकुरु के पूर्व पार्श्व में गन्धमादन पुव्वावरे पासे, एत्थ णं आस- अत्र अश्व-स्कन्धक-सदृशौ अर्धचन्द्र- और पश्चिम पार्श्व में माल्यवत् नाम के क्खंधगसरिसा अद्धचंद-संठाण- संस्थान-संस्थितौ द्वौ वक्षस्कारपर्वतौ दो वक्षार पर्वत हैं। वे अश्वस्कंध के संठिया दो वक्खारपव्वया पण्णत्ता- प्रज्ञप्तौ-बहुसमतुल्यौ यावत्,
सदृश (आदि में निम्न तथा अन्त में बहुसमतुल्ला जाव, तं जहा- तद्यथा---
उन्नत) और अर्द्धचन्द्र के आकार वाले गंधमायणे चेव, मालवंते चेव। गन्धमादनश्चैव, माल्यवांश्चैव ।
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं । यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई, संस्थान और परिधि में
एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते। २७८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर- २७८. जम्बूद्वीप द्वीप में दो दीर्घ वैताढ्य पर्वत हैं
उत्तर-दाहिणे णं दो दोहवेयड- दक्षिणे द्वौ दीर्घवैताढ्यपर्वतौ प्रज्ञप्तौ-- मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग-भरत में। पव्वया पण्णत्ता—बहुसमतुल्ला बहुसमतुल्यौ यावत् तद्यथा
मन्दर पर्वत के उत्तर भाग-ऐरवत् में। जाव, तं जहाभारतश्चैव दीर्घवैताढ्यः,
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा भारहे चेव दीहवेयड्डे, ऐरवतश्चैव दीर्घवैताढ्यः ।
सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, एरवते चेव दोहवेयड्ड।
ऊंचाई, गहराई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते।
गुहा-पदं
गुहा-पदम्
गुहा-पद २७६. भारहए णं दीहवेयड्ढे दो गुहाओ भारतके दीर्घवैताढ्ये द्वे गुहे प्रज्ञप्ते– २७६. भरत के दीर्घ वैताढ्य पर्वत में तमिस्रा पपणत्ताओ
बहुसमतुल्ये अविशेषे अनानात्वे और खण्ड प्रपात नाम की दो गुफाएं हैं। बहुसमतुल्लाओ अविसेस- अन्योऽन्यं नातिवर्तेते आयाम- वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा मणाणलाओ अण्णमण्णं णाति- विष्कम्भोच्चत्व-संस्थान-परिणाहेन, सदृश हैं। उनमें कोई विशेष (भेद) नहीं
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र २८०-२८३ वटुंति आयाम-विक्खंभुच्चत्त- तद्यथा-तमिस्रगुहा चैव,
है। कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से संठाण-परिणाहणं, तं जहा- खण्डक-प्रपातगुहा चैव।
उनमें नानात्व नहीं है। वे लम्बाई, चौड़ाई, तिमिसगुहा चेव,
तत्र द्वौ देवौ महद्धिको यावत् । ऊंचाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे खंडगप्पवायगुहा चेव। पल्योपमस्थितिको परिवसतः, का अतिक्रमण नहीं करतीं। तत्थ णं दो देवा महिड्डिया जाव तद्यथा
वहां महान् ऋद्धि वाले यावत् एक पलिओवमद्वितीया परिवसंति, कृतमालकश्चैव, नृत्तमालकश्चैव । पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते तं जहा
हैं-तमिस्रा में-कृतमालक देव और कयमालए चेव, गट्टमालए चेव।
खण्ड प्रपात में-नृत्तमालक देव। २८०. एरवए णं दीहवेयड्ड दो गुहाओ ऐरवते दीर्घवैताढ्ये द्वे गुहे प्रज्ञप्ते- २८०. ऐरवत के दीर्घ वैताढ्य पर्वत में तमिस्रा पण्णत्ताओ.—जाव, तं जहा- यावत्, तद्यथा
और खण्ड प्रपात नाम की दो गुफाएं हैं। कयमालए चेव, णट्टमालए चेव। कृतमालकश्चैव, नृत्तमालकश्चैव। वहां दो देव रहते हैं
तमिस्रा में-कृतमालक देव खण्ड प्रपात में-नृत्तमालक देव ।
कूड-पदं
कूट-पदम्
कूट-पद २८१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य २८१. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
दाहिणेणं चुल्लहिमवंते वासहर- दक्षिणे क्षुल्लहिमवति वर्षधरपर्वते द्वे में क्षुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत के दो कूट पन्वए दो कूडा पण्णत्ता- कूटे प्रज्ञप्ते
[शिखर] हैं—क्षुल्लहिमवान् कूट और बहुसमतुल्ला जाव विक्खंभुच्चत्त- बहुसमतुल्ये यावत् विषकम्भोच्चत्व- वैश्रमण कूट। संठाण-परिणाहेणं, तं जहा- संस्थान- परिणाहेन, तद्यथा
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा चुल्ल हिमवंतकूडे चेव, क्षुल्लहिमवत्कूटञ्चैव,
सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, वेसमणकूडे चेव। वैश्रमणकूटञ्चैव।
ऊंचाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे
का अतिक्रमण नहीं करते। २८२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्स पर्वतस्य दक्षिणे २८२. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं महाहिमवंते वासहर- महाहिमवति वर्षधरपर्वते द्वे कूटे में महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के दो पव्वए दो कूडा पण्णत्ता—बहुसम- प्रज्ञप्ते—बहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथा- कूट हैं—महाहिमवान् कूट, वैडूर्य कूट। तुल्ला जाव, तं जहा- महाहिमवत्कूटञ्चैव, वैडूर्यकूटञ्चव। वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा महाहिमवंतकडे चेव,
सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, वेरुलियकूडे चेव।
ऊंचाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे
का अतिक्रमण नहीं करते। २८३. एवं-णिसढे वासहरपव्वए दो एवम्-निषधे वर्षधरपर्वते द्वे कुटे २८३. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण कूडा पण्णत्ता—बहुसमतुल्ला जाव, प्रज्ञप्ते-बहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथा--
में निषध-वर्षधर पर्वत के दो कुट हैंतं जहा–णिसढकूड
निषधकूटञ्चैव, रुचकप्रभकूटञ्चैव। निषध कूट, रुचक प्रभ कूट। रुयगप्पभे चेव।
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा
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ठाणं (स्थान)
२८४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं णीलवंते वासहरपव्वए दो कडा पण्णत्ता बहुमतुल्ला जाव, तं जहा—णीलवंतकडे चैव, वदंसणकडे चैव ।
२८५. एवं मि वासहरपव्वए दो कूडा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला जाव, तं जहा रुप्पिकडे चेव, मणिकंचणकूडे चेव ।
२८६. एवं सिहरमि वासहरपन्वते दो कूडा पण्णत्ता - बहुसमतुल्ला जाव, तं जहा — सिहरिकूडे चेव, तिगछिकूडे चेव ।
महादह-पदं
२८७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर- दाहिणे णं चुल्ल हिमवंत - सिहरीसु वासहरपव्वसु दो महद्दहा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णं णातिवट्टेति आयाम विक्खंभउव्वेह संठाण-परिणाहेणं, तं जहा - पउमद्दहे चेव, पोंडरीयद्द हे चैव ।
८१
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे नीलवति वर्षधरपर्वते द्वे कूटे प्रज्ञप्तेबहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथा— नीलवत्कूटञ्चैव, उपदर्शन कूटञ्चैव ।
एवम् रुक्मिणि वर्षधरपर्वते द्वे कूटे प्रज्ञप्ते - बहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथारुक्मिकूटञ्चैव, मणिकाञ्चनकूटञ्चैव ।
एवम् — शिखरिणि वर्षधरपर्वते द्वे कूटे प्रज्ञप्ते - बहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथाशिखिरिकूटञ्चैव, तिगिञ्छिकूटञ्चैव ।
महाद्रह-पदम् जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणे क्षुल्लहिमवच्छिखरिणोः वर्षधरपर्वतयोः द्वौ महाद्रहौ प्रज्ञप्ती - बहुसमतुल्यौ अविशेषौ अनानात्वौ अन्योन्यं नातिवर्तते आयामविष्कम्भोद्वेध संस्थान - परिणाहेन, तद्यथापद्मद्रहश्चैव पुण्डरीकद्र हश्चैव ।
स्थान २ : सूत्र २८४-२८७
सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते । २८४. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में नीलवान् वर्षधर पर्वत के दो कूट हैंनीलवान् कूट, उपदर्शन कूट । वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे अतिक्रमण नहीं करते । २८५. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में रुक्मी वर्षधर पर्वत के दो कूट हैंरुक्मी कूट, मणिकाञ्चन कूट । वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते ।
२८६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में शिखरी वर्षधर पर्वत के दो कूट हैंशिखरी कूट, तिगिछि कूट ।
दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, संस्थान और परिधि में एक रे दूर.. का अतिक्रमण नहीं करते ।
२८७.
महाद्रह-पद
जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में क्षुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर पद्मद्रह और उत्तर में शिखरी वर्षधर पर्वत पर पौंडरीक द्रह नाम के दो महान् द्रह हैंवे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं। उनमें कोई विशेष (भेद ) नहीं है | कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से उनमें कोई नानात्व नहीं है। वे लम्बाई,
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र २८८-२६१
तत्थ णं दो देवयाओ महिड्डियाओ तत्र द्वे देवते महर्धिके यावत् । चौड़ाई, गहराई संस्थान और परिधि में जाव पलिओवमद्वितीयाओ परि- पल्योपमस्थितिके परिवसतः तद्यथा- एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते। वसंति तं जहाश्रीश्चैव, लक्ष्मीश्चैव।
वहां महान् ऋद्धि वाली यावत् एक सिरी चेव, लच्छी चेव।
पल्योपम की स्थिति वाली दो देवियां रहती हैं
पद्मद्रह में श्री, पौंडरीकद्रह में लक्ष्मी। २८८. एवं—महाहिमवंत-रुप्पीसु एवम्-महाहिमवत् रुक्मिणोः वर्षधर- २८८, जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण वासहरपव्वएसु दो महदहा पर्वतयोः द्वौ महाद्रहौ प्रज्ञप्तौ
में महाहिमवान् वर्षधर पर्वत पर महापण्णत्ता—बहुसमतुल्ला जाव, तं बहुसमतुल्यौ यावत्, तद्यथा
पद्मद्रह और उत्तर में रुक्मी वर्षधर पर्वत पर जहा—महापउमद्दहे चेव, महापद्मद्रहश्चैव,
महापौंडरीकद्रह नाम के दो महान् द्रह हैं। महापोंडरीयद्दहे चेव। महापुण्डरीकद्रहश्चैव ।
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा तत्थ णं दो देवताओ हिरिच्चेव तत्र द्वे देवते ह्रीश्चैव, बुद्धिश्चैव । सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, बुद्धिच्चेव।
गहराई, संस्थान और परिधि में एकदूसरे का अतिक्रमण नहीं करते। वहां दो देवियां रहती हैं--महापद्मद्रह में ह्री और
महापौंडरीक द्रह में बुद्धि। २८६. एवं—णिसढ-णीलवंतेसु तिगि- एवम् –निषध-नीलवतोः तिगिञ्छिद्रह- २८६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण छिद्दहे चेव, केसरिदहे चेव। श्चैव केसरीद्रहश्चैव।।
में निषध वर्षधर पर्वत पर तिगिछिद्रह तत्थ णं दो देवताओ धिती चेव, तत्र द्वे देवते धृतिश्चैव, कीर्तिश्चैव ।
और उत्तर में नीलवान् वर्षधर पर्वत पर कित्ती चेव।
केसरीद्रह नाम के दो महान् द्रह हैं यावत् वहां एक पल्योपम की स्थिति वाली दो देवियां रहती हैंतिगिछि द्रह में धृति, केसरी द्रह में कीति ।
महाणदी-पदं महानदी-पदम्
महानदी-पद २६०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे २६०. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में
दाहिणे णं महाहिमवंताओ वासहर- महाहिमवतः वर्षधरपर्वतात् महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के महापद्मद्रह पव्वयाओ महापउमद्दहाओ दहाओ महापद्मद्रहात् द्रहात् द्वे महानद्यौ । से रोहित। और हरिकान्ता नाम की दो दो महाणईओ पवहंति, तं जहा.- प्रवहतः, तद्यथा
महानदियां प्रवाहित होती हैं। रोहियच्चेव, हरिकंतच्चेव। रोहिता चैव, हरिकान्ता चैव । २६१. एवं—णिसढाओ वासहरपव्वताओ एवम्-निषधात् वर्षधरपर्वतात् २६१. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
तिगिछिद्दहाओ दहाओ दो तिगिञ्छिद्र हात् द्रहात् द्वे महानद्यौ में निषध वर्षधर पर्वत के तिगिछि द्रह से महाणईओ पवहंति, तं जहा- प्रवहतः, तद्यथा
हरित् और सीतोदा नाम की दो महाहरिच्चेव, सीतोदच्चेव। हरिच्चैव, शीतोदा चैव।
नदियां प्रवाहित होती हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र २६२-२६७ २९२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे २६२. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर
उत्तरे णं णीलवंताओ वासहर- नीलवतः वर्षधरपर्वतात् केशरीद्रहात् में नीलवान् वर्षधर पर्वत के केसरीद्रह से पव्वताओ केसरिद्दहाओ दहाओ द्रहात् द्वे महानद्यौ प्रवहतः तद्यथा- सीता और नारीकान्ता नाम की दो महादो महाणईओ पवहंति, तं जहा- शीता चैव, नारीकान्ता चैव।
नदियां प्रवाहित होती हैं। सीता चेव, णारिकता चेव। २९३. एवं रुप्पीओ वासहरपवताओ एवम्-रुक्मिणः वर्षधरपर्वतात् २६३. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में
महापोंडरीयद्दहाओ दहाओ दो महापुण्डरीकद्रहात् द्रहात् द्वे महानद्यौ रुक्मी वर्षधर पर्वत के महापौंडरीक द्रह महाणईओ पवहंति, तं जहा- प्रवहतः, तद्यथा
से नरकान्ता और रूप्यकूला नाम की दो णरकंता चेव, रुप्पकला चेव। नरकान्ता चैव, रूप्यकूला चैव । महानदियां प्रवाहित होती हैं।
पवाय-दह-पदं प्रपात-द्रह-पदम्
प्रपात-द्रह-पद २६४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे २६४. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में
दाहिणणं भरहे वासे दो पवायदहा भरते वर्षे द्वौ प्रपातद्रहौ प्रज्ञप्तौ- भरत क्षेत्र में दो प्रपात द्रह हैंपण्णत्ता—बहुसमतुल्ला, तं जहा— बहुसमतुल्यौ, तद्यथा
गंगाप्रपातद्रह, सिन्धुप्रपातद्रह । गंगप्पवायद्दहे चेव, गङ्गाप्रपातद्रहश्चैव,
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सिंधुप्पवायद्दहे चेव। सिन्धुप्रपातद्रहश्चैव।
सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, गहराई,संस्थान और परिधि में एक-दूसरे
का अतिक्रमण नहीं करते। २६५. एवं–हेमवए वासे दो पवायदहा एवम्-हैमवते वर्षे द्वौ प्रपातद्रहौ २६५. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में
पण्णत्ता-बहुसमतुल्ला, तं प्रज्ञप्तौ-बहुसमतुल्यौ, तद्यथा- हैमवत क्षेत्र में दो प्रपात द्रह हैंजहा–रोहियप्पायहहे चेव, रोहितप्रपातद्रहश्चैव,
रोहितप्रपातद्रह, रोहितांशप्रपातद्रह। रोहियंसप्पवायदहे चेव। रोहितांशप्रपातद्रहश्चैव ।
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का
अतिक्रमण नहीं करते। २६६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे २६६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं हरिवासे वासे दो हरिवर्षे वर्षे द्वौ प्रपातद्रहौ प्रज्ञप्तौ- में 'हरि' क्षेत्र में दो प्रपातद्रह हैंपवायदहा पण्णत्ता—बहुसमतुल्ला, बहुसमतुल्यौ, तद्यथा
हरित्प्रपातद्रह, हरिकान्तप्रपातद्रह । तं जहा—हरिपवायदहे चेव, हरित्प्रपातद्रहश्चैव,
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा हरिकंतप्पवायदहे चेव। हरिकान्तप्रपातद्रहश्चैव।
सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का
अतिक्रमण नहीं करते। २६७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर- २६७. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर.. उत्तर-दाहिणे णं महाविदेहे दक्षिणे महाविदेहे वर्षे द्वौ प्रपातद्रही दक्षिण में महाविदेह क्षेत्र में दो प्रपात
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ठाणं (स्थान)
वासे दो पायद्दहा पण्णत्ताबहुसमतुल्ला जाव, तं जहा
वा सोपवायचेव ।
२६८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स
उत्तरे णं रम्मए वासे दो पव्वाय हा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला जाव, तं जहारकंतप्पवायद्दहे चेव, किंतवायचेव ।
२६६. एवं - हेरण्णवते वासे दो पवायद्दहा पण्णत्ता - बहुसमतुल्ला जाव, तं जहा - सुवण कूलप्पवायद्दहे चेव, रुपकूलपवा चेव ।
३००. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं एरवए वासे दो पवाय हा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला जाव, तं जहा रतवाहे चेव, राव पवायचेव ।
महानदी -पदं
३०१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं भरहे वासे दो महाणईओ पण्णत्ताओबहुसम - तुल्लाओ जाव, तं जहागंगा चेव, सिंधू चेव ।
स्थान २ : सूत्र २६८-३०१
ग्रह हैं - सीताप्रपातग्रह, सीतोदाप्रपातद्रह । वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते ।
२१८. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में रम्यक क्षेत्र में दो प्रपातद्रह हैंनरकान्ताप्रपातद्रह, नारीकान्ताप्रपातद्रह । वे दोनों क्षेत्र - प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते ।
एवम् - हैरण्यवते वर्षे द्वौ प्रपातद्रहौ २६६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर प्रज्ञप्तौ — बहुसमतुल्यौ यावत्, में हैरण्यवत क्षेत्र में दो प्रपात द्रह हैंतद्यथा—स्वर्णकूलप्रपातद्रहश्चैव, सुवर्णकूलप्रपातद्रह, रूप्यकूलप्रपातद्रह । रूप्यकूलप्रपातद्रहश्चैव । वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चोड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते।
३०० जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में
ऐरवत क्षेत्र में दो प्रपात द्रह हैंरक्तापातद्रह, रक्तवतीप्रपातद्रह | वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, संस्थान और परिधि में एकदूसरे का अतिक्रमण नहीं करते ।
८४
प्रज्ञप्ती - बहुसमतुल्यौ यावत् तद्यथाशीतापातद्रहश्चैव शीतोदप्रपातद्रहरचैव ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे रम्यके वर्षे द्वौ प्रपातद्रहौ प्रज्ञप्ती - बहुसमतुल्यौ यावत्, तद्यथा--- नरकान्तप्रपातद्रहरचैव, नारीकान्तप्रपातद्रहश्चैव ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे ऐरवते वर्षे द्वौ प्रपात हौ प्रज्ञप्ती - बहुसमतुल्यौ यावत्, तद्यथारक्ताप्रपातद्रहश्चैव, रक्तवतीप्रपातद्रहश्चैव ।
महानदी -पदम्
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे भरते वर्षे द्वे महानद्यौ प्रज्ञप्तेबहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथागङ्गा चैव, सिन्धुश्चैव ।
महानदी -पद
३०१. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में भरत क्षेत्र में दो महानदियां हैं - गंगा, सिन्धू । वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करतीं ।
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ठाणं (स्थान)
८५
स्थान २ : सूत्र ३०२-३०८ ३०२. एवं—जहा पवातद्दहा, एवं गईओ एवम्-यथा प्रपातद्रहाः, एवं नद्यः ३०२. प्रपातद्रह की भांति नदियां वक्तव्य हैं।
भाणियवाओ जाव एरवए वासे भणितव्याः यावत् ऐरवते वर्षे द्वे दो महाणईओ पण्णत्ताओ- महानद्यौ प्रज्ञप्तेबहुसमतुल्लाओ जाव, तं जहा- बहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथारत्ता चेव, रत्तावती चेव। रक्ता चैव, रक्तवती चैव।
कालचक्क-पदं कालचक्र-पदम
कालचक्र-पद ३०३. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३०३. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
तीताए उस्स प्पिणीए सुसम- अतीतायां उत्सपिण्यां सुषमदुःषमायां में अतीत उत्सपिणी के सुषम-दुषमा आरे दूसमाए समाए दो सागरोवम- द्वे सागरोपमकोटिकोटीः कालः का काल दो कोटी-कोटी सागरोपम था।
कोडाकोडीओ काले होत्था। अभवत् । ३०४. 'जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३०४. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
इमीसे ओसप्पिणीए सुसमदूसमाए अस्यां अवसप्पिण्यां सुषमदुःषमायां में वर्तमान अवसर्पिणी के सुषम-दुषमा समाए दो सागरोवमकोडाकोडीओ समायांद्रे सागरोपमकोटिकोटी: काल: आरे का काल दो कोटी-कोटी सागरोपम काले पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः ।
कहा गया है। ३०५. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३०५. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सुसम- आगमिष्यन्त्यां उत्सपिण्यां सुषम- में आगामी उत्सर्पिणी के सुषम-दुषमा दूसमाए समाए दो सागरोवम- दुःषमायां समायां द्वे सागरोपमकोटि- आरे का काल दो कोटी-कोटी सागरोपम कोडाकोडीओ काले भविस्सति। कोटीः कालः भविष्यति।।
होगा। ३०६. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३०६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
तीताए उस्सप्पिणीए सुसमाए अतीतायां उत्सर्पिण्यां सुषमायां समायां में अतीत उत्सर्पिणी सुषमा नामक आरे समाए मणुया दो गाउयाई उड्डे मनुजाः द्वे गव्यूती ऊर्ध्व उच्चत्वेन में मनुष्यों की ऊंचाई दो गाऊ की और उच्चत्तेणं होत्था। दोण्णि य अभवन् । द्वे च पल्योपमे परमायुः उत्कृष्ट आयु दो पल्योपम की थी।
पलिओवमाइं परमाउंपालइत्था। अपालयन् । ३०७. एवमिमीसे ओसप्पिणीए जाव एवम् अस्यां अवसर्पिण्यां यावत् ३०७. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र पालयित्था। अपालयन् ।
में वर्तमान अवसर्पिणी के सुषमा नामक आरे में मनुष्यों की ऊंचाई दो गाऊ की
और उत्कृष्ट आयु दो पल्योपम की थी। ३०८. एवमागमेस्साए उस्सप्पिणीए एवम् आगमिष्यन्त्यां उत्सपिण्यां ३०८. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र जाव पालयिस्संति। यावत पालयिष्यन्ति।
में आगामी उत्सर्पिणी के सुषमा नामक आरे में मनुष्यों की ऊंचाई दो गाऊ की और उत्कृष्ट आयु दो पल्योपम की होगी।
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ठाणं (स्थान)
८६
स्थान २ : सूत्र ३०९-३१५
सलागा-पुरिस-वंस-पदं शलाका-पुरुष-वंश-पदम्
शलाका-पुरुष-वंश-पद ३०६. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३०६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
एगसमये एगजुगे दो अरहंतवंसा एकसमये एकयुगे द्वौ अर्हवंशो में एक समय में एक युग में अरहंतों के उपज्जिसु वा उप्पज्जंति वा उदपदिषातां वा उत्पद्यते वा दो वंश उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं उप्पज्जिस्संति वा। उत्पत्ष्येते वा।
और उत्पन्न होंगे। ३१०. जंबुद्दीवे दोवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३१०. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
एगसमये एगजुगे दो चक्कवट्टि- एकसमये एकयुगे द्वौ चक्रवत्ति वंशो में एक समय में एक युग में चक्रवतियों वंसा उप्पज्जिसु वा उप्पज्जति उदपदिषातां वा उत्पद्यते वा के दो वंश उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं वा उप्पज्जिस्संति वा। उत्पत्प्येते वा।
और उत्पन्न होंगे। ३११.जबडीवे दीवे भरहेरवएस वासेस जम्बद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३११. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
एगसमये एगजुगे दो दसारवंसा एकसमये एकयुगे द्वौ दसारवंशो में एक समय में एक युग में दसारों के उपज्जिस् वा उप्पज्जति वा उदपदिषातां वा उत्पद्यते व उत्पतष्येते दो वंश उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं उप्पज्जिस्संति वा। वा।
और उत्पन्न होंगे।
सलागा-पुरिस-पदं शलाका-पुरुष-पदम्
शलाका-पुरुष-पद ३१२. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३१२. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
एगसमये एगजुगे दो अरहंता एकसमये एकयुगे द्वौ अर्हन्तौ में एक समय में एक युग में दो अरहन्त उप्पज्जिसु वा उप्पज्जति वा उदपदिषातां वा उत्पद्यते वा उत्पत्ष्येते उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न उप्पज्जिस्संति वा। वा।
होंगे। ३१३. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयो: ३१३. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
एगसमये एगजुगे दो चक्कवट्टी एकसमये एकयुगे द्वौ चक्रवत्तिनौ में एक समय में एक युग में दो चक्रवर्ती उप्पज्जिसु वा उप्पज्जंति वा उदपदिषातां वा उत्पद्यते वा उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उप्पज्जिस्संति वा। उत्पत्ष्येते वा।।
उत्पन्न होंगे। ३१४. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयो. ३१४. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
एगसमये एगजुगे दो बलदेवा एकसमये एकयुगे द्वौ बलदेवौ में एक समय में एक युग में दो बलदेव उप्पज्जिसु वा उप्पज्जंति वा उदपदिषातां वा उत्पद्यते वा उत्पत्ष्येते उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न उप्पज्जिस्संति वा। वा।
होंगे। ३१५. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ३१५. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
एगसमये एगजुगे दो वासुदेवा एकसमये एकयुगे द्वौ वासुदेवौ में एक समय में एक युग में दो वासुदेव उपज्जिसु वा उप्पज्जंति वा उदपदिषातां वा उत्पद्येते वा उत्पत्ष्येते उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न उप्पज्जिस्संति वा।
होंगे।
वा।
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ठाणं (स्थान)
कालानुभव-पदं
३१६. जंबुद्दीवे दीवे दोसु कुरासु मणुया सया सुसमसुसममुत्तमं इड्डि पत्ता विहरति,
पच्चणुभवमाणा तं जहा देवकुराए चेव, उत्तरकुराए चेव ।
३१७. जंबुद्दीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया सया सुसममुत्तमं इड्डि पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरति तं जहा— हरिवासे चैव, रम्मगवासे चेव ।
३१८. जंबुद्दीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया सया सुसम सममुत्तममिड पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरति तं जहा – हेमवए चेव, हेरण्णवए च ।
३१६. जंबुद्दीवे दीवे दोसु खेत्ते मणुया सया दूसमसममुत्तममिड पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरति,
तं
जहा - पुब्वविदेहे चेव, अवरविदेहे चेव । ३२०. जंबुद्दीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया छव्विहंपि कालं पच्चणुभवमाणा विहरति, तद्यथा— भरहे चेव, एरवते चैव ।
चंद-सूर-पदं ३२१. जंबुद्दी
____
दो चंदा पभासिसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा ।
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कालानुभव-पदम्
कालानुभव-पद
जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः कुर्वो मनुजाः सदा ३१६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण सुषमसुषमोत्तमां रुद्धि प्राप्ताः और उत्तर के देवकुरु और उत्तरकुरु में प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति तद्यथा— रहने वाले मनुष्य सदा सुषम- सुषमा नाम देवकुरौ चैव, उत्तरकुरी चैव । के प्रथम आरे की उत्तम ऋद्धि का अनुभव करते हैं ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः वर्षयोः मनुजाः ३१७. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
सदा सुषमोत्तमां ऋद्धि प्राप्ताः प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति तद्यथा— हरिवर्षे चैव, रम्यकवर्षे चैव ।
हरि क्षेत्र तथा उत्तर में रम्यक् क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य सदा सुषमा नाम के दूसरे आरे की उत्तम ऋद्धि का अनुभव करते हैं ।
चन्द्र-सूर-पदम् जम्बूद्वीपे
द्वौ चन्द्रौ प्राभासिषातां वा प्रभासेते वा प्रभासिष्येते वा ।
३२२ दो सूरिआ तवसु वा तवंति वा द्वौ सूयौं अताप्तां वा तपतो वा ३२२. जम्बूद्वीप द्वीप में दो सूर्य तपे थे, तपते हैं
तविस्संति वा ।
तपिष्यतो वा ।
और तपेंगे।
स्थान २ : सूत्र ३१६-३२२
जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः वर्षयोः मनुजाः ३१८. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में हैमवत क्षेत्र में तथा उत्तर में हैरण्यवत क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य सदा 'सुषमदुः षमा' नाम के तीसरे आरे की उत्तम ऋद्धि का अनुभव करते हैं । ३१६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में
सदा सुषमदुःषमोत्तमां ऋद्धि प्राप्ताः प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति तद्यथा— हैमवते चैव, हैरण्यवते चैव ।
पूर्व विदेह तथा पश्चिम में अपर- विदेह क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य सदा 'दुःषम- सुषमा' नाम के चौथे आरे की उत्तम ऋद्धि का अनुभव करते हैं ।
३२०. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
भरत में और उत्तर- ऐरवत क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य छह प्रकार के काल"" का अनुभव करते हैं ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः क्षेत्रयोः मनुजाः सदा दुःषमसुषमोत्तमां ऋद्धि प्राप्ताः प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति तद्यथा— पूर्वविदेहे चैव, अपरविदेहे चैव । जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः वर्षयोः मनुजाः षड्विधमपि कालं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति तद्यथा भरते चैव, ऐरवते चैव ।
चन्द्र सूर-पद
३२१. जम्बूद्वीप द्वीप में दो चन्द्रमाओं ने प्रकाश किया था, करते हैं और करेंगे ।
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ठाणं (स्थान)
णक्खत्त-पदं
३२३. दो कित्तियाओ, दो रोहिणीओ, दो मग्गसिराओ, दो अद्दाओ, दो पुणव्वसू, दो पूसा,दो अस्सलेसाओ, दो महाओ, दो पुव्वाफग्गुणीओ, दोउत्तराफग्गुणीओ, दो हत्था, दो चित्ताओ, दो साईओ, दो विसाहाओ, दो अणुराहाओ, दो जेंट्ठाओ, दो मूला, दो पुव्वासाढाओ, दो उत्तरासाढाओ, दो अभिईओ, दो सवणा, दो धणिट्टाओ, दो सयभितया, दो पुग्दाभयाओ, दो उत्तराभद्दवयाओ, दो रेवतीओ, दो अस्सिणीओ, दो भरणीओ [ जोयं जोएंसु वा जोएंति वा जोइस्संति वा ? ] ।
वखत्तदेव पदं
३२४. दो अग्गी, दो पयावती, दो सोमा, दोरुद्दा, दो अदिती, दो बहस्सती, दो सप्पा, दो पिती, दो भगा, दोअज्जमा, दो सविता, दो तट्ठा, दो वाऊ, दो इंदग्गी दो मित्ता, दो इंदा, दो णिरती, दो आऊ, दो विस्सा, दो बह्मा, दो विषहू, दो वसू, दो वरुणा, दो अया, दो विविद्धी, दो पुस्सा, दो अस्सा, दो यमा ।
महग्गह-पदं
३२५. दो इंगालगा, दो वियालगा, दो लोहितक्खा, दो सणिच्चरा,
८८
नक्षत्र-पदम्
द्वे कृत्तिके, द्वे रोहिण्यौ द्वौ मृगशिरसौ, द्वे आहे, द्वो पुनर्वसू, द्वौ पुथ्यौ, द्वे अश्लेषे, द्वे मधे द्वे पूर्वफाल्गुन्यौ द्वे उत्तरफाल्गुन्यौ द्वौ हस्तौ द्वे चित्रे, द्वे स्वाती, द्वे विशाखे, द्वे अनुराधे, द्वे जेष्ठे, द्वौ मूलौ, द्वे पूर्वासाढे, द्वे उत्तराषाढे, द्वे अभिजितौ द्वौ श्रवणौ, द्वे धनिष्ठे, द्वौ शतभिषजौ, द्वे पूर्वभद्रपदे द्वे उत्तरभद्रपदे, द्वे रेवत्यौ द्वे अश्विन्यौ, द्वे भरण्यौ (योगं अजुयन् वा युञ्जन्ति वायोक्ष्यन्ति वा ? ) ।
नक्षत्रदेव-पदम्
द्वौ अग्नी, द्वौ प्रजापती, द्वौ सोमौ, द्वौ रुद्रौ द्वौ अदिती, द्वौ बृहस्पती, द्वौ सपौं, द्वौ पितरौ द्वौ भगौ, द्वौ अर्यमणौ, द्वौ सवितारौ द्वौ त्वष्टारौ द्वौ वायू, द्वौ इन्द्राग्नी, द्वौ मित्रौ द्वौ इन्द्रौ द्वौ निरुती, द्वे आप, द्वौ विश्वौ द्वौ ब्रह्माणी, द्वौ विष्णू, द्वौ वसू, द्वौ वरुणौ, द्वौ अजौ, द्वे विवृद्धी, द्वौ पूषणौ द्वौ अश्वौ द्वौ यमौ ।
महाग्रह-पदम्
द्वौ अङ्गारकौ द्वौ विकालको द्वौ लोहिताक्षौ द्वौ शनिश्चरौ द्वौ आहुतौ,
स्थान २ : सूत्र ३२३-३२५
नक्षत्र-पद
३२३. जम्बूद्वीप द्वीप में दो कृत्तिका, दो रोहिणी, दो मृगशिरा, दो आर्द्रा, दो पुनर्वसु, दो पुष्य, दो अश्लेषा, दो मघा, दो पूर्वफल्गुनी, दो उत्तरफल्गुनी, दो हस्त, दो चित्रा, दो स्वाति, दो विशाखा, दो अनुराधा, दो ज्येष्ठा, दो मूल, दो पूर्वाषाढा, दो उत्तराषाढा, दो अभिजित, दो श्रवण, दो धनिष्ठा, दो शत्रु भिषक् ( शतभिषा ), दो पूर्वाभाद्रपद, दो उत्तराभाद्रपद, दो रेवति, दो अश्विनी, दो भरणी – इन नक्षत्रों ने चन्द्रमा के साथ योग किया था, करते हैं। और करेंगे ।
नक्षत्रदेव - पद
३२४. नक्षत्रों के दो-दो देव हैं। उनके नाम इस
प्रकार हैं-दो अग्नि, दो प्रजापति, दो सोम, दो रुद्र, दो अदिति, दो बृहस्पति, दो सर्प, दो पितृदेवता, दो भग, दो अर्यमा, दो सविता, दो त्वष्टा, दो वायु, दो इन्द्राग्नि, दो मित्र, दो इन्द्र, दो निऋति, दो अप्, दो विश्व, दो ब्रह्म, दो विष्णु, दो वसु, दो वरुण, दो अज, दो विवृद्धि, ( अहिर्बुध्नीय), दो पूषन्, दो अश्व, दोयम
महाग्रह-पद ३२५. जम्बूद्वीप द्वीप में—
दो अंगारक, दो विकालक, दो लोहिताक्ष,
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ठाणं (स्थान)
८१
स्थान २: सूत्र ३२५
दो आहुणिया, दो पाहुणिया दो द्वौ प्राहुतौ, द्वौ कनौ, द्वौ कनकौ, द्वौ कणा, दोकणगा, दो कणकणगा, कनकनकौ, द्वौ कनकवितानकौ, द्वौ । दो कणगविताणगा, दो कणग- कनकसंतानको, द्वौ सोमौ, द्वौ सहितो, संताणगा, दो सोमा, दो सहिया, द्वौ आश्वासनौ, द्वौ कार्योपगौ, द्वौ दो आसासणा, दो कज्जोवगा, दो कर्बटकौ, द्वौ अजकरको, द्वौ दुन्दुभको, । कब्बडगा दो अयकरगा, दो द्वौ शङ्खौ द्वौ शङ्खवणौं, द्वौ शङ्खदुंदुभगा, दो संखा, दो संखवण्णा, वर्णाभौ, द्वौ कसौ, द्वौ कंसवौँ, द्वौ दो संखवण्णाभा, दो कंसा, दो कंसवर्णाभौ, द्वौ रुक्मिणौ, द्वौ रुक्माकंसवण्णा, दो कंसवण्णाभा, दो भासौ, द्वौ नीलो, द्वौ नीलाभासौ, द्वौ रुप्पी, दो रुप्पाभासा, दो णीला, भस्मानौ, द्वौ भस्माराशी, द्वौ तिलौ, द्वौ । दो, णीलोभासा, दो भासा, दो तिलपुष्पवणौं, द्वौ दकी, द्वौ दकपञ्चभासरासी दो तिला, दो तिलपुप्फ- वणों, द्वौ काकी, द्वौ कर्कन्धौ, द्वौ । वण्णा, दो दगा, दो दगपंचवण्णा, इन्द्राग्नी, द्वौ धूमकेतू, द्वौ हरी, द्वौ । दो काका, दो कक्कंधा, दो पिङ्गलौ, द्वौ बुद्धौ, द्वौ शुक्रौ, द्वौ इंदग्गी, दो धूमकेऊ, दो हरी, दो बृहस्पती, द्वौ राहू, द्वौ अगस्ती, द्वौ पिंगला, दो बुद्धा, दो सुक्का, दो मानवको, द्वौ काशौ, द्वौ स्पशौं,द्वौ धुरी, बहस्सती, दो राहू, दो अगत्थी, द्वौ प्रमुखौ, द्वौ विकटौ, द्वौ विसन्धी, दोमाणवगा, दो कासा, दो फासा, द्वौ णियल्लौ, द्वौ 'पइल्लौ', दोधुरा, दो पमुहा, दो वियडा, दो द्वौ 'जडियाइलगौ', द्वौ अरुणौ, द्वौ विसंधी, दो णियल्ला, दो पइल्ला, अग्निलौ, द्वौ कालौ, द्वौ महाकालको, दो जडियाइलगा, दो अरुणा, द्वौ स्वस्तिकौ, द्वौ सौवस्तिकौ, द्वौ दो अग्गिल्ला, दो काला, वर्द्धमानको, द्वौ प्रलम्बो, द्वौ नित्यादो महाकालगा, दो सोत्थिया, लोको, द्वौ नित्योद्योती, द्वौ स्वयंप्रभी, दो सोवत्थिया,दो वद्धमाणगा, दो द्वौ अवभासौ, द्वौ श्रेयस्करौ, द्वौ क्षेमपलंबा, दो णिच्चालोगा, दो करौ, द्वौ आभंकरो, द्वौ प्रभंकरो, णिच्चुज्जोता, दो सयंपभा, दो द्वौ अपराजितौ द्वौ अरजसौ,
ओभासा, दो सेयंकरा दो खेमंकरा, द्वौ अशोको, द्वौ विगतशोको, दो आभंकरा, दो पभंकरा, दो द्वौ विमली, द्वौ विततौ, द्वौ अपराजिता, दो अरया, दो असोगा, वित्रस्तौ, द्वौ विशालौ, द्वौ शालौ, द्वौ दो विगतसोगा, दो विमला, दो सुव्रतो, द्वौ अनिवृत्ती, द्वौ एकजटिनो, वितता, दो वितत्था, दो विसाला, द्वौ द्विजटिनौ, द्वौ करकरिको, द्वौ दो साला, दो सुव्वता, दो राजार्गलौ, द्वौ पुष्पकेतू, द्वौ भावकेतू अणियट्टी, दो एगजडी, दोदुजडी, (चारं अचरन् वा चरन्ति वा दो करकरिगा, दो रायग्गला, चरिष्यन्ति वा ? )।
दो शनिश्चर, दो आहुत, दो प्राहुत, दो कन, दो कनक, दो कनकनक, दो कनकवितानक, दो कनकसंतानक, दो सोम, दो सहित, दो आश्वासन, दो कार्योपग, दो कर्बटक, दो अजकरक, दो दुन्दुभक, दो शंख, दो शंखवर्ण, दो शंखवर्णाभ, दो कंस, दो कंसवर्ण, दो कंसवर्णाभ, दो रुक्मी, दो रुक्माभास, दो नील, दो नीलाभास, दो भस्म, दो भस्मराशि, दो तिल, दो तिलपुष्यवर्ण, दो दक, दा दकपञ्चवर्ण, दो काक, दो कर्कन्ध, दो इन्द्राग्नि, दो धूमकेतु, दो हरि, दो पिंगल, दो बुद्ध, दो शुक्र, दो बृहस्पति, दो राहु, दो अगस्ति, दो मानवक, दो काश, दो स्पर्श, दो धुर, दो प्रमुख, दो विकट, दो विसन्धि, दो णियल्ल, दो पइल्ल, दो जडियाइलग, दो अरुण, दो अग्निल, दो काल, दो महाकालक, दोस्वस्तिक, दो सौवस्तिक, दो वर्द्धमानक, दो प्रलंब, दो नित्यालोक, दो नित्योद्योत, दो स्वयंप्रभ, दो अवभास, दो श्रेयस्कर, दो क्षेमंकर, दो आभंकर, दो प्रभंकर दो अपराजित, दो अरजस्, दो अशोक, दो विगतशोक, दो विमल, दो वितत, दो वित्रस्त, दो विशाल, दो शाल, दो सुव्रत, दो अनिवृत्ति, दो एकजटिन्, दो जटिन्, दोकरकरिक, दो दोराजार्गल, दो पुष्यकेतु, दो भावकेतु। इन ८८ महाग्रहो" न चार किया था, करते हैं और करेंगे।
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स्थान २:३२५-३३०
ठाणं (स्थान)
दो पुप्फकेतू, दो भावकेऊ [चारं चरिसु वा चरंति वा चरिस्संति वा ?]।
जंबुद्दीव-वेइआ-पदं जम्बूद्वीप-वेदिका-पदम्
जम्बूद्वीप-वेदिका-पद ३२६. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स वेइआ दो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य वेदिका द्वे गव्यूती ३२६. जम्बूद्वीप द्वीप की वेदिका दो कोस ऊंची
गाउयाइं उड्ड । उच्चत्तेणं ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्ता। पण्णत्ता।
लवण-समुद्द-पदं लवण-समुद्र-पदम्
लवण-समुद्र-पद ३२७. लवणे णं समुद्दे दो जोयणसय- लवणः समुद्रः द्वे योजनशतसहस्र ३२७. लवण समुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ सहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः ।
(वलयाकार चौड़ाई) दो लाख योजन पण्णत्ते।
का है। ३२८. लवणस्स णं समुद्दस्स वेइया दो लवणस्य समुद्रस्य वेदिका द्वे गव्यूती ३२८. लवण समुद्र की वेदिका दो कोस ऊंची
गाउयाइं उड्ड उच्चत्तेणं ऊर्ध्व उच्चत्वेन प्रज्ञप्ता। पण्णत्ता।
धायइसंड-पदं धातकीषण्ड-पदम्
धातकीषण्ड-पद ३२६. धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धे णं धातकीषण्डे द्वीपे पौरस्त्याधै मन्दरस्य ३२६. धातकीषंड द्वीप के पूर्वाद्ध में मन्दर पर्वत
मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे पर्वतस्य उत्तर-दक्षिणे द्वे वर्षे प्रज्ञप्ते- के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र हैंणं दो वासा पण्णत्ता- बहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथा
भरत-दक्षिण में, ऐरवत---उत्तर में। बहुसमतुल्ला जाव, तं जहा- भरतं चैव, ऐरवतं चैव ।
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा भरहे चेव, एरवए चेव।
सदृश हैं यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का
अतिक्रमण नहीं करते। ३३०. एवं—जहा जंबुद्दीवे तहा एत्थवि एवम्—यथा जम्बूद्वीपे तथा अत्रापि ३३० इसी प्रकार जम्बूद्वीप द्वीप के प्रकरण में
भाणियव्वं जाव दोसु वासेसु भणितव्यं यावत् द्वयोः वर्षयोः मनुजाः आये हुए सूत्र २।२६६-३२० तक का मणुया छब्विहंपि कालं पच्चणु- षड्विधमपि कालं प्रत्यनुभवन्तो वर्णन यहां वक्तव्य है। विशेष इतना ही शवमाणा विहरंति, तं जहा- विहरन्ति, तद्यथा
है कि यहां वृक्ष दो हैं--कूट शाल्मली भरहे चेव, एरवए चेव। भरते चैव, ऐरवते चैव।
और धातकी। देव दो हैं-कूट शाल्मली वरं—कूडसामली चेव, धायई- नवरं- कूटशाल्मली चैव, पर गरुडकुमार जाति का वेणुदेव और रुक्खे चेव । देवा-गरुले चेव धातकीरुक्षश्चैव। देवौ गरुडश्चैव धातकी पर सुदर्शन देव। वेणदेवे, सुदंसणे चेव। वेणुदेवः, सुदर्शनश्चैव।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ३३१-३३५
३३१. धायइसंडे दोवे पच्चत्थिमद्धे णं धातकीषण्डे द्वीपे पाश्चात्याधै मन्दरस्य ३३१. धातकीषंडद्वीप के पश्चिमार्द्ध में मन्दर
मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे पर्वतस्य उत्तर-दक्षिणे द्वे वर्षे प्रज्ञप्ते- पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र हैंणं दो वासा पण्णत्ता-बहुसम- बहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथा
भरत-दक्षिण में, ऐरवत –उत्तर में। तुल्ला जाव, तं जहा- भरतं चैव, ऐरवतं चैव ।
वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा भरहे चेव, एरवए चेव ।
सदृश हैं यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का
अतिक्रमण नहीं करते। ३३२. एवं—जहा जंबुद्दीवे तहा एत्यवि एवम्—यथा जम्बूद्वीपे तथा अत्रापि ३३२. इसी प्रकार जम्बूद्वीप द्वीप के प्रकरण में
भाणियव्वं जाव छव्विहंपि कालं भणितव्यं यावत् षड्विधमपि कालं आये हुए सूत्र २।२६९-३२० तक का पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं प्रत्युनुभवन्तो विहरन्ति, तद्यथा- वर्णन यहां वक्तव्य है। विशेष इतना ही जहा—भ रहे चेव, एरवए चेव। भरते चैव, ऐरवते चैव।
है कि यहां वृक्ष दो हैं-कूटशाल्मली, और णवरंकूडसामली चेव महा- नवरं—कूटशाल्मली चैव महाधातकी- महाधातकी। देव दो हैं-कूटशाल्मली धायईरुक्खे चेव। देवा—गरुले रुक्षश्चैव । देवौ गरुडश्चैव वेणु देवः पर गरुडकुमार जाति का वेणुदेव, चेव वेणुदेवे पियदसणे चेव। प्रियदर्शनश्चैव ।
महाधातकी पर प्रियदर्शन देव । ३३३. धायइसंडे णं दीवे. धातकीषण्डे द्वीपे..
३३३. धातकीपंड द्वीप मेंदो भरहाई, दो एरवयाई, द्वे भरते, द्वे ऐरवते, द्वे हैमवते, भरत, ऐरवत,हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, दो हेमवयाई, दो हेरण्णवयाई, द्वे हैरण्यवते, द्वे हरिवर्षे, द्वे रम्यकवर्ष, पूर्वविदेह, अपरविदेह, देवकुरु, दो हरिवासाई, दो रम्मगदासाई, रम्यकवर्षे, द्वौ पूर्वविदेही, द्वौ अपर- देवकुरुमहाद्रुम, देवकुरुमहाद्रुमवासी देव, दो पव्वविदेहाई, दो अवर- विदेही, द्वौ देवकूरू, द्वौ देवकूरुमहाद्रमौ उत्तरकुरु, उत्तरकुरुमहाम, उत्तरकुरुविदेहाई, दो देवकुराओ, द्वौ देवकुरुमहाद्रुमवासिनौ देवौ, द्वौ महाद्रुमवासी देव-दो-दो हैं। दो देवकुरुमहदुमा, दो देवकुरुम- उत्तरकुरू, द्वौ उत्तरकुरुमहाद्रुमौ, द्वौ हदुमवासी देवा, दो उत्तरकुराओ, उत्तरकुरुमहाद्रुमवासिनी देवौ। दो उत्तरकुरुमहद्यमा, दो उत्तर
कुरुमहद्दुमवासी देवा। ३३४. दो चुल्लहिमवंता, दो महाहिम- द्वौ क्षुल्लहिमवन्तौ, द्वौ महाहिमवन्तौ, ३३४. क्षुल्लहिमवान्, महाहिमवान्, निषध,
वंता, दो णिसढा, दो णीलवंता, द्वौ निषधौ, द्वौ नीलवन्तौ, द्वौ रुक्मिणी, नीलवान्, रुक्मी और शिखरी---ये दो रुप्पी, दो सिहरी। द्वौ शिखरिणौ।
वर्षधर पर्वत दो-दो हैं। ३३५. दो सद्दावाती, दो सद्दावातिवासी द्वौ शब्दापातिनौ, द्वौ शब्दापाति- ३३५. शब्दापाती, शब्दापातिवासी स्वाति देव,
साती देवा, दो वियडावाती, वासिनौ स्वातिदैवौ, द्वौ विकटापातिनौ, विकटापाती, विकटापातिवासी प्रभास दो वियडावातिवासी पभासा द्वौ विकटापातिवासिनौ प्रभासौ दैवौ, देव, गंधापाती, गंधापातिवासी अरुण देवा, दो गंधावासी, दो गंधा- द्वौ गन्धापातिनौ, द्वौ गन्धापाति- देव, माल्यवत्पर्याय, माल्यवत्पर्यायवासी वातिवासी अरुणा देवा, दो माल- वासिनौ अरुणौ देवौ, द्वौ माल्यवत्- पद्म देव-ये वृत्तवताढ्य पर्वत तथा वंतपरियागा, दो मालवंत- पर्यायौ, द्वौ माल्यावत्पर्यायवासिनौ उन पर रहने वाले देव दो-दो हैं । परियागवासी पउमा देवा। पद्मौ देवौ ।
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ठाणं (स्थान)
६२
स्थान २ : सूत्र ३३६-३३६ ३३६. दो मालवंता, दो चित्तकूडा, द्वौ माल्यवन्तौ, द्वे चित्रकूटे, द्वे पक्ष्म- ३३६. माल्यवान्, चित्रकूट, पक्ष्मकूट, नलिनकूट,
दो पम्हकूडा, दो गलिणकूडा, कूटे, द्वे नलिनकूटे, द्वौ एकशैलौ, द्वे एकशैल, त्रिकूट, वैश्रमणकूट, अंजन, दो एगसेला, दो तिकडा, त्रिकूटे, द्वे वैश्रमणकूटे, द्वौ अञ्जनौ, द्वौ मातांजन, सौमनस, विद्युत्प्रभ, अंकावती, दो वेसमणकडा, दो अंजणा, माताञ्जनौ, द्वौ सोमनसौ, द्वौ विद्युत्- पक्ष्मावती, आसीविष, सुखावह, चन्द्र दो मातंजणा, दो सोमणसा, प्रभौ, द्वे अंकावत्यौ, द्वे पक्ष्मावत्यौ, द्वौ । पर्वत, सूर्य पर्वत, नाग पर्वत, देव पर्वत, दो विज्जुप्पभा, दो अंकावती, आसीविषौ, द्वौ सुखावहौ, द्वौ चन्द्र- गंधमादन, इषुकार पर्वत, दो पम्हावती, दो आसीविसा, पर्वतौ, द्वौ सूर्यपर्वतौ, द्वौ नागपर्वतो, क्षुल्लहिमवत्कूट, वैश्रमणकूट, दो सुहावहा, दो चंदपव्वता, द्वौ देवपर्वतौ, दो गन्धमादनौ, द्वौ महाहिमवत्कूट, वैडूर्यकूट, निषघकूट, दो सूरपव्वता, दो णागपव्वता, इषुकारपर्वतो, द्वे क्षुल्लहिमवत्कूटे, रुचककूट, नीलवत्कूट, उपदर्शनकूट, दो देवपव्वता, दो गंधमायणा, द्वे वैश्रमणकूटे, द्वे महाहिमवत्कूटे, द्वे रुक्मीकूट, मणिकांचनकूट, शिखरीकूट, दो उसुगारपव्वया, दो चुल्ल- वैडूर्यकूटे, द्वे निषधकूटे, द्वे रुचककूटे, तिगिछिकूट-ये सभी कूट दो-दो हैं। हिमवंतकूडा, दो वेसमणकूडा, द्वे नीलवत्कूटे, द्वे उपदर्शनकूटे, द्वे दो महाहिमवंतकूडा, दो वेरु- रुक्मिकूटे, द्वे मणिकाञ्चनकूटे, द्वे लियकूडा, दो णिसढकूडा, शिखरिकूटे, द्वे तिगिछिकूटे। दो रुयगकूला, दो णीलवंतकूडा, दो उवदंसणकूडा, दो रुप्पिकूडा, दो मणिकंचणकूडा, दो सिहरि
कूडा, दो तिगिछिकडा। ३३७. दो पउमद्दहा, दो पउमद्दह- द्वौ पद्मद्र हौ, द्वे पद्मद्रहवासिन्यौ श्रियौ ३३७. पद्मद्रह, पद्मद्रहवासिनी श्री देवी, वासिणीओ सिरीओ देवीओ, देव्यौ,
__ महापद्मद्रह, महापद्मद्रहवासिनी ह्री दो महापउमद्दहा, दो महापउम- द्वौ महापद्मद्र हौ, द्वे महापद्मद्रहवासि- देवी, तिगिछिद्रह, तिगिछिद्रहवासिनी दहवासिणीओ हिरीओ देवीओ, न्यौ ह्रियो देव्यौ,
धृति देवी, केशरीद्रह, केशरीद्रहवासिनी एवं जाव दो पुंडरीयद्दहा, एवं यावत् द्वौ पौण्डरीकद्रहौ, द्वे कीर्ति देवी, महापौंडरीकद्रह, महापौंडदो पोंडरीयद्दहवासिणीओ पौण्डरीकद्रहवासिन्यौ लक्ष्म्यौ देव्यौ।
रीकद्रहवासिनी बुद्धि देवी, पौंडरीकद्रह, लच्छीओ देवीओ।
पौंडरीकद्रहवासिनी लक्ष्मी देवी-ये सभी द्रह और द्रहवासिनी देवियां दो
दो हैं। ३३८. दो गंगप्पवायहहा जाव दो रत्ता- द्वौ गंगाप्रपातद्रहौ यावत् द्वौ रक्तवती- ३३८. गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितांश, हरित, वती पवातदहा। प्रपातद्रहौ।
हरिकान्त, सीता, सीतोदा, नरकान्त, नारीकान्त, सुवर्णकूल, रुप्यकूल,रक्त और
रक्तवती-ये सभी प्रपातद्रह दो-दो हैं। ३३९. दो रोहियाओ जाव दो रुप्प- द्वे रोहिते यावत् द्वे रुप्यकले, द्वे ३३६. रोहिता, हरिकान्ता, हरित, सीतोदा,
कुलाओ, दो गाहवतीओ, ग्राहवत्यौ, द्वे द्रहवत्यौ, द्वे पङ्कवत्यौ, द्वे सीता, नारीकान्ता, नरकान्ता, दो दहवतीओ, दो पंकवतीओ, तप्तजले, द्वे मत्तजले, द्वे उन्मत्तजले, रुप्यकूला, ग्राहवती, द्रहवती, पंकवती,
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ठाणं (स्थान)
६३
दो तत्तजलाओ, दो मत्तजलाओ, द्वे क्षीरोदे, द्वे सिंहस्रोतस्यों, द्वे अन्तर्वाहिन्यौ, द्वे उर्मिमालिन्यौ, द्वे फेनमालिन्यौ, द्वे गम्भीरमालिन्यौ ।
दो उम्मत्तजलाओ, दो खोरोयाओ, दो सीहसोताओ, दो अंतोवाहिणीओ, दो उम्मिमालिणीओ, दो फेणमालिणीओ, दो गंभीर मालिणीओ । ३४०. दो कच्छा, दो सुकच्छा, दो महा
कच्छा, दो कच्छावती, दो आवत्ता, दो मंगलावत्ता, दो पुक्खला, दो पुक्खलावई, दो वच्छा, दो सुवच्छा, दो 'महावच्छा, दो बच्छगावती, रम्मा, दो रम्मा, दो रमणिज्जा, दो मंगलावती, दो पम्हा, दो सुपम्हा, दो महपम्हा, दो पम्हगावती, दो संखा, दो णलिणा, दो 'कुमुया, दो सलिलावती, दो वप्पा, दो सुवप्पा, दो महावप्पा, दो वप्पगावती, दो
दो सुवग्गू, दो गंधिला
दो गंधिलावती ।
३४१. दो खेमाओ, दो खेमपुरीओ दो रिट्ठाओ, दो रिट्ठपुरीओ, दो खग्गीओ, दो मंजूसाओ, दो ओसधीओ, दो पोंड रिगिणीओ, दो सुसीमाओ, दो कुंडलाओ, दो अपराजियाओ, दो पभंकराओ, दो अंकावईओ, दो पम्हावईओ, दो सुभाओ, दो रयणसंचयाओ, दो आसपुराओ, दो सीहपुराओ, दो महापुराओ, दो विजयपुराओ, दो अवराजिताओ, दो अवराओ,
to h
वग्गू,
द्वौ कच्छौ, द्वौ सुकच्छौ, द्वौ महाकच्छी, द्वे कच्छकावत्यौ द्वौ आवत्तों, द्वौ मंगलावत्त, द्वौ पुष्कलौ, द्वे पुष्कलावत्यौ द्वौ वत्सौ द्वौ सुवत्सौ द्वौ महावत्सौ, द्वे वत्सकावत्यौ द्वौ रम्यौ, द्वौ रम्यकौ द्वौ रमणीयौ द्वे मंगलावत्यौ द्वे पक्ष्मणी, द्वे सुपक्ष्मणी, द्वे महापक्ष्मणी, द्वे पक्ष्मकावत्यौ द्वौ शंख, द्वौ नलिनौ द्वौ कुमुदौ, द्वे सलिलावत्यौ, द्वौ वप्रौ द्वौ सुवप्रो, द्वौ महावप्रौ, द्वे वप्रकावत्यौ द्वौ वल्गू, द्वौ सुवल्गू, द्वौ गान्धिलौ, द्वे गान्धिलावत्यौ ।
स्थान २ : सूत्र ३४० - ३४१
तप्तजला,
मत्तजला,
उन्मत्तजला,
क्षीरोदा, सिंहस्रोता, अन्तोमालिनी, उर्मिमालिनी, फेनमालिनी, गम्भीरमालिनी - ये सभी नदियां दो-दो हैं ।
३४०. कच्छ, सुकच्छ, महाकच्छ, कच्छुकावती, आवर्त, मंगलावर्त्त, पुष्कल, पुष्कलावती, वत्स, सुवत्स, महावत्स, वत्सकावती, रम्य, रम्यक, रमणीय, मंगलावती, पक्ष्म, सुपक्ष्म, महापक्ष्म, पक्ष्मकावती, शंख, नलिन, कुमुद, सलिलावती, वप्र, सुवप्र, महावप्र, वप्रकावती, वल्गु, सुवल्गु, गंधिल, गंधिलावती - ये बत्तीस विजयक्षेत्र दो-दो हैं ।
द्वे क्षेमे, द्वे क्षेमपुयौं, द्वे रिष्टे, द्वे रिष्टपुयौं, ३४१. क्षेमा, क्षेमपुरी, रिष्टा, रिप्टपुरी, खड्गी,
द्वे खड्यौ, द्वे मञ्जूषे, द्वे औषध्यौ, द्वे पौण्डरीकिण्यौ, द्वे सुसीमे, द्वे कुण्डले, द्वे अपराजिते, द्वे प्रभाकरे, द्वे अङ्कावत्यौ, द्वे पक्ष्मावत्यौ द्वे शुभे द्वे रत्नसंचये, द्वे अश्वपुय, द्वे सिंहपुर्यो, द्वे महापुर्यौ, द्वे विजयपुर्यौ, द्वे अपराजिते, द्वे अपरे, द्वे अशोके, द्वे विगतशोके, द्वे विजये, द्वे वैजयन्त्यौ, द्वे जयन्त्यौ, द्वे अपराजिते, द्वे चक्रपुर्यो, द्वे खङ्गपुय, द्वे अवध्ये, द्वे अयोध्ये ।
मंजूषा, औषधी, पौंडरीकिणी, सुसीमा, कुंडला, अपराजिता, प्रभाकरा, अंकावती, पक्ष्मावती, शुभा, रत्नसंचया, अश्वपुरी, सिहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अपराजिता, अपरा, अशोका, विगतशोका, विजया, वैजयंती, जयन्ती, अपराजिता, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अवध्या और अयोध्या - ये विजय-क्षेत्र की बत्तीस नगरियां दो-दो हैं ।
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ठाणं (स्थान)
दो असोयाओ, दो विगयसोगाओ, दो विजयाओ, दो वैजयंतीओ, दो जयंतीओ, दो अपराजियाओ, दो चक्कराओ, दो खग्गपुराओ, दो अवज्झाओं, दो अउज्झाओ। ३४२. दो भद्द सालवणा, दो णंदणवणा, दो सोमणसवणा, दो पंडगवणाई | ३४३. दों पंडुकंबल सिलाओ, दो अतिपंडुकंबल सिलाओ, दो रत्तकंबल - सिलाओ, दो अइरत्तकंबलसिलाओ ।
३४४. दो मंदरा, दो मंदरचूलिआओ। ३४५. धायइडस्स णं दीवस्स वेदिया
।
दो गाउयाई उड्डमुच्चत्तेणं पण्णत्ता ३४६. कालोदस्स णं समुद्दस्स वेइया दो गाउयाई उड्डू उच्चतेणं पण्णत्ता ।
पुक्खरवर-पदं
३४७. पुक्खरवर दीवडपुर स्थिमद्धे णं मंदरस पव्वयस्स उत्तर- दाहिणे णं दो वासा पण्णत्ता बहुसम - तुल्ला जाव, तं जहाभ रहे चेव, एरवए चेव ।
३४८. तहेव जाव
पण्णत्ताओ
देवकुरा चेव, उत्तरकुरा चेव । तत्थ णं दो महतिमहालया महद्दुमा पण्णत्ता, त जहाकूडसामली चेव, पउमरुक्खे चेव । देवा—गरुले चेव वेणुदेवे, पउमे चेव जाव छव्विहंपि कालं पच्चणुभवमाणाविहरति ।
६४
द्वे भद्रशालवने, द्वे नंदनवने, द्वे सौमन- ३४२. भद्रशालवन, नंदनवन, सौमनसवन और सवने, द्वे पण्डकवने । पंडकवन- ये वन दो-दो हैं ।
द्वे पाण्डुकम्बलशिले, द्वे अतिपाण्डुकम्बलशिले, द्वे रक्तकम्बलशिले, द्वे अतिरक्त कम्बलशिले ।
३४३. पांडुकंबलशिला, अतिपांडुकंबल शिला, रक्तकंबलशिला, अतिरक्त कंबल शिलापंडकवन की शिलाएं दो-दो हैं ।
द्वौ मन्दरौ द्वे मन्दरचूलिके ।
३४४. मन्दर और मन्दरचूलिका दो-दो हैं । धातकीषण्डस्य द्वीपस्य वेदिका द्वे ३४५. घातकीषंड द्वीप की वेदिका दो कोस ऊंची गव्यूती ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ता । कालोदस्य समुद्रस्य वेदिका द्वे गव्यूती ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्ता ।
पुष्करवर-पदम्
पुष्करवरद्वीपार्धपौरस्त्यार्थे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर दक्षिणे द्वे वर्षे प्रज्ञप्तेबहुसमतुल्ये यावत्, तद्यथाभरतं चैव, ऐरवतं चैव ।
दो कुराओ तथैव यावत् द्वौ कुरू प्रज्ञप्ती - देवकुरुश्चैव, उत्तरकुरुश्चैव । तत्र द्वौ महातिमहान्तौ महाद्रुमौ प्रज्ञप्तौ तद्यथाकूटशाल्मली चैव पद्मरुक्षश्चैव । देवौ — गरुडश्चैव वेणुदेवः, पद्मश्चैव यावत् षड्विधमपि कालं प्रत्यनुभवत विहरन्ति ।
स्थान २ : सूत्र ३४२-३४८
है |
३४६. कालोद समुद्र की वेदिका दो कोस ऊंची
है ।
पुष्करवर - पद
३४७. अर्द्ध पुष्करवर द्वीप के पूर्वार्द्ध में मन्दर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र हैंभरत - दक्षिण में, ऐरवत -उत्तर में । वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं यावत् वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते ।
३४८. इसी प्रकार जम्बूद्वीप द्वीप के प्रकरण में
आए हुए सूत्र २।२६६-२७१ तक का वर्णन यहां वक्तव्य है यावत् दो कुरु हैं -वहां दो विशाल महाद्रुम हैंकूटशाल्मली और पद्म ।
देव दो हैंकूटशाल्मली पर गरुड़ जाति का वेणुदेव, पद्म पर पद्म देव ।
छः प्रकार के काल का अनुभव करते हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ३४६-३५७ ३४६. पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धे णं पुष्करवरद्वीपार्धपाश्चात्याधै मन्दरस्य ३४६. अर्द्ध पुष्करवर द्वीप के पश्चिमाद्धं में
मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे पर्वतस्य उत्तर-दक्षिणे द्वे वर्षे प्रज्ञप्ते- मन्दर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र णं दो वासा पण्णत्ता तहेव तथैव नानात्वम्—कूटशाल्मली चैव, हैं-भरत-दक्षिण में, ऐरवत-उत्तर णाणत्तं कूडसामली चेव, महापद्मरुक्षश्चैव ।
में। इसी प्रकार जम्बूद्वीप के प्रकरण में महापउमरुक्खे चेव। देवो गरुडश्चैव वेणु देवः, पुण्डरीकश्चैव। आए हुए सूत्र २।२६८-३२० तक का देवा—गरुले चेव वेणुदेवे, पुंडरीए
वर्णन यहां वक्तव्य है। चेव ।
विशेष इतना ही है कि यहां दो विशाल महाद्रुम हैं-कूटशाल्मली, महापद्म । देव दो हैं-कूटशाल्मली पर गरुड जाति
का वेणुदेव, महापद्म पर पुण्डरीक देव । ३५०. पुक्खरवरदीवड्ड णं दीवे दो पुष्करवरद्वीपार्धे द्वीपे द्वे भरते, द्वे ३५० अर्द्ध पुष्करवर द्वीप में भरत, ऐरवत से
भरहाई, दो एरवयाइं जाव दो ऐरवते यावत् द्वौ मन्दरौ, द्वे मन्दर- मन्दर और मन्दरचूलिका तक के सभी मंदरा, दो मंदरचूलियाओ। चूलिके।
दो-दो हैं।
वेदिका-पदं वेदिका-पदम्
वेदिका-पद ३५१. पुक्खरवरस्स णं दीवस्स वेइया पुष्करवरस्य द्वीपस्य वेदिका द्वे गव्यूती ३५१. पुष्करवर द्वीप की वेदिका दो कोस ऊंची
दो गाउयाई उड्डमुच्चत्तेणं पण्णत्ता। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ता। ३५२. सर्वसिपि णं दीवसमुद्दाणं सर्वेषामपि द्वीपसमुद्राणां वेदिका द्वे ३५२. सभी द्वीपों और समुद्रों की वेदिका दो-दो
वेदियाओ दो गाउयाई उड्डमुच्च- गव्यूती ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ता। कोस ऊंची है। तेणं पण्णत्ताओ।
इंद-पदं इन्द्र-पदम्
इन्द्र-पद ३५३. दो असुरकुमारिदा पण्णत्ता, तं द्वौ असुरकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३५३. असुरकुमारों के इन्द्र दो हैंजहा—चमरे चेव, बली चेव। चमरश्चैव, बलिश्चैव।
चमर, बली। ३५४. दो णागकुमारिदा पण्णत्ता, तं द्वौ नागकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३५४. नागकुमारों के इन्द्र दो हैंजहा—धरणे चेव, भूयाणंदे चेव। धरणश्चैव, भूतानन्दश्चैव ।
धरण, भूतानन्द। ३५५. दो सुवण्णकुमारिदा पण्णत्ता, तं द्वौ सुपर्णकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३५५. सुपर्णकुमारों के इन्द्र दो हैंजहा.-वेणुदेवे चेव, वेणुदेवश्चैव, वेणुदालिश्चैव।
वेणुदेव, वेणुदाली। वेणुदाली चेव। ३५६. दो विज्जुकुमारिदा पण्णत्ता, तं द्वौ विद्युत्कुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३५६. विद्युत्कुमारों के इन्द्र दो हैंजहा—हरिच्चेव, हरिस्सहे चेव। हरिश्चैव, हरिसहश्चैव।
हरि, हरिसह । ३५७. दो अग्गिकुमारिंदा पण्णत्ता, तं द्वौ अग्निकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३५७. अग्निकुमारों के इन्द्र दो हैंजहा—अग्गिसिहे चेव, अग्निशिखश्चैव, अग्निमाणवश्चैव।
अग्निशिख, अग्निमानव । अग्गिमाणवे चेव।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ३५८-३७२ ३५८. दो दीवकुमारिदा पण्णता, तं द्वौ द्वीपकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३५८. द्वीपकुमारों के इन्द्र दो हैं___ जहा.-.पुण्णे चेव, विसिटु चेव। पूर्णश्चैव, विशिष्टश्चैव ।
पूर्ण, विशिष्ट । ३५६. दो उदहिकुमारिदा पण्णत्ता, तं द्वौ उदधिकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३५६. उदधिकुमारों के इन्द्र दो हैंजहा—जलकते चेव, जलकान्तश्चैव, जलप्रभश्चैव।
जलकान्त, जलप्रभ। जलप्पभेचेव। ३६०. दो दिसाकुमारिंदा पण्णत्ता, तं द्वौ दिशाकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६०. दिशाकुमारों के इन्द्र दो हैं
जहा—अमियगती चेव, अमितगतिश्चैव, अमितवाहनश्चैव। अमितगति, अमितवाहन ।
अमितवाहणे चेव। ३६१. दो वायुकुमारिदा पण्णत्ता, तं द्वौ वायुकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६१. वायुकुमारों के इन्द्र दो हैंजहा—वलंबे चेव, पभंजणे चेव। बेलम्बश्चैव, प्रभजनश्चैव।
बैलम्ब, प्रभंजन। ३६२. दो थणियकुमारिदा पण्णत्ता, तं द्वौ स्तनितकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६२. स्तनितकुमारों के इन्द्र दो हैंजहा-घोसे चेव, महाघोसे चेव। घोषश्चैव, महाघोषश्चैव।
घोष, महाघोष। ३६३. दो पिसाइंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ पिशाचेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६३. पिशाचों के इन्द्र दो हैंकाले चेव, महाकाले चेव। कालश्चैव, महाकालश्चैव।
काल, महाकाल। ३६४. दो भूइंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ भूतेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६४. भूतों के इन्द्र दो हैंसुरुवे चेव, पडिरूवे चेव। सुरूपश्चैव, प्रतिरूपश्चैव।
सुरूप, प्रतिरूप। ३६५. दो जक्खिंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ यक्षेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६५. यक्षों के इन्द्र दो हैंपुण्णभद्दे चेव, माणिभद्दे चेव। पूर्णभद्रश्चैव, माणिभद्रश्चैव।
पूर्णभद्र, माणिभद्र। ३६६. दो रसिदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ राक्षसेन्द्रौ प्रज्ञप्ती, तद्यथा- ३६६. राक्षसों के इन्द्र दो हैंभीमे चेव, महाभीमे चेव। भीमश्चैव, महाभीमश्चैव।
भीम, महाभीम। ३६७. दो किरिंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ किन्नरेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६७. किन्नरों के इन्द्र दो हैंकिण्णरे चेव, किंपुरिसे चेव। किन्नरश्चैव, किंपुरुषश्चैव ।
किन्नर, किंपुरुष। ३६८. दो किंपुरिसिंदा पण्णत्ता, तं द्वौ किंपुरुषेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६८. किंपुरुषों के इन्द्र दो हैंजहा-सप्पुरिसे चेव, सत्पुरुषश्चैव, महापुरुषश्चैव।
सत्पुरुष, महापुरुष। महापुरिसे चेव। ३६९. दो महोगिंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ महोरगेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३६६. महोरगों के इन्द्र दो हैं
अतिकाए चेव, महाकाए चेव। अतिकायश्चैव, महाकायश्चैव। अतिकाय, महाकाय। ३७०. दो गंधविदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ गन्धर्वेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७०. गन्धर्वो के इन्द्र दो हैंगीतरती चेव, गीयजसे चेव। गीतरतिश्चैव, गीतयशाश्चैव।
गीतरति, गीतयशा। ३७१. दो अणपण्णिंदा पण्णता, तं द्वौ अणपन्नेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७१. अणपन्नों के इन्द्र दो हैंजहा....सण्णिहिए चेव, सन्निहितश्चैव, सामान्यश्चैव।
सन्निहित, सामान्य। सामण्णे चेव। ३७२. दो पणपणिंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ पणपन्नेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७२. पणपन्नों के इन्द्र दो हैंधाए चेव, विहाए चेव। धाता चैव, विधाता चैव ।
धाता, विधाता।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : सूत्र ३७३-३८५
३७३. दो इसिवाइंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ ऋषिवादीन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७३. ऋषिवादियों के इन्द्र दो हैं
इसिच्चेव, इसिवालए चेव। ऋषिश्चैव, ऋषिपालकश्चैव । ऋषि, ऋषिपालक । ३७४. दो भूतवाइंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ भूतवादीन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७४. भूतवादियों के इन्द्र दो हैंइस्सरे चेव, महिस्सरे चेव। ईश्वरश्चैव, महेश्वरश्चैव ।
ईश्वर, महीश्वर । ३७५. दो कंदिदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ स्कन्देन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७५. स्कन्दकों के इन्द्र दो हैंसुवच्छे चेव, विसाले चेव। सुवत्सश्चैव, विशालश्चैव ।
सुवत्स, विशाल। ३७६. दो महाकदिदा पण्णता, तं जहा- द्वौ महास्कन्देन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७६. महास्कन्दकों के इन्द्र दो हैंहस्से चेव, हस्सरती चेव। हास्यश्चैव, हास्यरतिश्चैव ।
हास्य, हास्यरति। ३७७. दो कुंभडिदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ कुष्माण्डेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७७. कूष्माण्डकों के इन्द्र दो हैं. सेए चेव, महासेए चेव। श्वेतश्चैव, महाश्वेतश्चैव।
श्वेत, महाश्वेत । ३७८. दो पतइंदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वौ पतगेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- ३७८. पतगों के इन्द्र दो हैंपतए चेव, पतयवई चेव। पतगश्चव, पतगपतिश्चैव।
पतग, पतगपति। ३७९. जोइसियाणं देवाणं दो इंदा ज्योतिष्काणां देवानां द्वौ इन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, ३७६. ज्योतिषों के इन्द्र दो हैं-- पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
चन्द्र, सूर्य। चंदे चेव, सूरे चेव। चन्द्रश्चैव, सूरश्चैव। ३८०. सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु दो इंदा सौधर्मशानयोः कल्पयोः द्वौ इन्द्रौ ३८०. सौधर्म और ईशान कल्प के इन्द्र दो हैंपण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्तौ, तद्यथा
शक्र, ईशान। सक्के चेव, ईसाणे चेव। शक्रश्चैव, ईशानश्चैव। ३८१. सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु दो सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोः द्वौ इन्द्रौ ३८१. सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के इन्द्र दो इंदा पण्णत्ता, तं जहा--- प्रज्ञप्तौ, तद्यथा
हैं-सनत्कुमार, माहेन्द्र। सणंकुमारे चेव, माहिदे चेद। सनत्कुमारश्चैव, माहेन्द्र श्चैव । ३८२. बंभलोग-लंतएसु णं कप्पेसु दो ब्रह्मलोक-लान्तकयोः कल्पयोः द्वौ इन्द्रौ ३८२. ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के इन्द्र दो इंदा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तौ, तद्यथा
हैं—ब्रह्म, लान्तक। बंभे चेव, लंतए चेव। ब्रह्म चैव, लान्तकश्चैव । ३८३. महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु महाशुक्र-सहस्रारयोः कल्पयोः द्वौ इन्द्रौ ३८३. महाशुक्र और सहस्रार कल्प के इन्द्र दो दो इंदा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तौ, तद्यथा
हैं-महाशुक्र, सहस्रार। महासक्के चेव, सहस्सारे चेव। महाशुक्रश्चैव सहस्रारश्चैव। ३८४. आणत-पाणत-आरण-अच्चुतेसु णं आनत-प्राणत-आरण-अच्युतेषु कल्पेषु ३८४. आनत और प्राणत तथा आरण और कप्पेसु दो इंदा पण्णत्ता, तं द्वौ इन्द्रौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा
अच्युत कल्प के इन्द्र दो हैंजहा...पाणते चेव, अच्चुते चेव। प्राणतश्चैव, अच्युतश्चैव ।
प्राणत, अच्युत।
विमाण-पदं
विमान-पदम् ३८५. महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु महाशुक्र-सहस्रारयोः
विमाणा दुवण्णा पण्णत्ता, तं विमानानि द्विवर्णानि
विमान-पद कल्पयोः ३८५. महाशुक्र और सहस्रार कल्प में विमान प्रज्ञप्तानि, दो प्रकार के हैं—पीले, सफेद ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ३८६-३८६
जहा—हालिद्दा चेव, सुकिल्ला चेव।
तद्यथाहारिद्राणि चैव, शुक्लानि चैव।
देव-पदं देव-पदम्
देव-पद ३८६. गेविज्जगा णं देवा दो रयणीओ |वेयका देवा द्वे रत्नी ऊर्ध्वमुच्चत्वेन ३८६. अवेयक देवों की ऊंचाई दो रत्नि की है।
उडमुच्चत्तेणं पण्णता। प्रज्ञप्ताः ।
चउत्थो उद्देसो
जीवाजीव-पदं जीवाजीव-पदम्
जीवाजीव-पद ३८७. समयाति वा आवलियाति वा समयइति वा आवलिकाइति वा ३८७. समय और आवलिका
जीवाति या अजीवाति या जीवइति च अजीवइति च प्रोच्यते। ये जीव-अजीव दोनों हैं । १२२
पवुच्चति । ३८८. आणापाणूति वा थोवेति वा आनप्राणइति वा स्तोकइति वा ३८८. आनप्राण और स्तोक
जीवाति या अजीवाति या जीवइति च अजीवइति च प्रोच्यते। ये जीव-अजीव दोनों हैं।११
पवुच्चति। ३८६. खणाति वा लवाति वा जीवाति क्षणइति वा लवइति वा ३८६. क्षण और लव
या अजीवाति या पवुच्चति। जीवइति च अजीवइति च प्रोच्यते । एवं—मुहुत्ताति वा अहोरत्ताति एवम्-मुहूर्तइति वा अहोरात्रइति मुहूर्त और अहोरात्र वा पक्खाति वा मासाति वा वा पक्षइति वा मासइति वा पक्ष और मास उडूति वा अयणाति वा ऋतुइति वा अयनमिति वा ऋतु और अयन संवच्छराति वा जुगाति वा संवत्सरइति वा युगमिति वा संवत्सर और युग वाससयाति वा वाससहस्साइ वा वर्षशतमिति वा वर्षसहस्रमिति वा सौ वर्ष और हजार वर्ष वाससतसहस्साइ वा वासकोडीइ वर्षशतसहस्रमिति वा वर्षकोटिरिति वा लाख वर्ष और करोड़ वर्ष वा पुव्वंगाति वा पुव्वाति वा पूर्वाङ्गमिति वा पूर्वमिति वा पूर्वाङ्ग और पूर्व तुडियंगाति वा तुडियाति वा त्रुटिताङ्गमिति वा त्रुटितमिति वा त्रुटिताङ्ग और त्रुटित अडडंगाति वा अडडाति वा अटटाङ्गमिति वा अटटमिति वा अटटांग और अटट अववंगाति वा अववाति वा अववाङ्गमिति वा अववमिति वा अववांग और अवव हूहूअंगाति वा हूहूयाति वा हूहूकाङ्गमिति वा हूहूकमिति वा हूहूकांग और हूहूक उप्पलंगाति वा उप्पलाति वा उत्पलाङ्गमिति वा उत्पलमिति वा उत्पलांग और उत्पल पउमंगाति वा पउमाति वा पद्माङ्गमिति वा पद्ममिति वा पद्मांग और पद्म णलिणंगाति वा णलिणाति वा नलिनाङ्गमिति वा नलिनमिति वा नलिनांग और नलिन
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ठाणं (स्थान)
६९
स्थान २: सूत्र ३६० अत्थणिकुरंगाति वा अत्थणि- अर्थनिकुराङ्गमिति वा अर्थनिकुरमिति अर्थनिकुरांग और अर्थनिकुर कुराति वा अउअंगाति वा वा अयुताङ्गमिति वा अयुतमिति वा अयुतांग और अयुत अउआति वा णउअंगाति वा नयुताङ्गमिति वा नयुतमिति वा नयुतांग और नयुत पउआति वा पउतंगाति वा प्रत्युताङ्गमिति वा प्रयुतमिति वा प्रयुतांग और प्रयुत पउताति वा चूलियंगाति वा चूलिकाङ्गमिति वा चूलिकाइति वा चूलिकांग और चूलिका चुलियाति वा सीसपहेलियंगाति शीर्षप्रहेलिकाङ्गमिति वा शीर्षप्रहेलिका- शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका वा सीसपहेलियाति वा पलिओ- इति वा पल्योपममिति वा सागरोपम- पल्योपम और सागरोपम वमाति वा सागरोवमाति वा मिति वा अवसर्पिणीति वा उत्सपिणीति अवसर्पिणी और उत्सपिणीओसप्पिणीति वा उस्स प्पिणीति वा_जीवइति च अजीवइति च ये सभी जीव-अजीव दोनों हैं। १२४ वा_जीवाति या अजीवाति या प्रोच्यते ।
पबच्चति। ३६०. गामाति वा णगराति वा ग्रामाइति वा नगराणीति वा निगमाइति ३६०. ग्राम और नगर
णिगमाति वा रायहाणीति वा वा राजधान्यइति वा खेटानीति वा । निगम और राजधानी खेडाति वा कब्बडाति वा कर्बटानीति वा मडम्बानीति वा खेट और कर्वट मडंबाति वा दोणमुहाति वा द्रोणमुखानीति वा पत्तनानीति वा मडंव और द्रोणमुख पट्टणाति वा आगराति वा आकराइति वा आश्रमाइति वा । पत्तन और आकर आसमाति वा संबाहाति वा संबाधाइति वा सन्निवेशाइति वा आश्रम और संवाह सण्णिवेसाइ वा घोसाइ वा घोषाइति वा आरामाइति वा सन्निवेश और घोष आरामाइ वा उज्जाणाति वा उद्यानानीति वा वनानीति वा आराम और उद्यान वणाति वा वणसंडाति वा वनषण्डाइति वा वाप्यइति वा वन और वनषंड वावीति वा पुक्खरणीति वा पुष्करिण्यइति वा सरांसीति वा । वापी और पुष्करिणी सराति दा सरपंतीति वा सर:पङ क्तयइति वा अवटाइति वा । सर और सरपंक्ति अगडाति वा तलागाति वा तडागा इति वा द्रहाइति वा नद्यइति वा कूप और तालाब दहाति वा णदीति वा पुढवीति वा पृथिव्यइति वा उदधयइति वा । द्रह और नदी उदहीति वा वातखंधाति वा वातस्कन्धाइति वा अवकाशान्तराणीति पृथ्वी और उदधि उवासंतराति वा वलयाति वा वा वलयाइति वा विग्रहाइति वा द्वीपाइति वातस्कन्ध और अवकाशान्तर विग्गहाति वा दीवाति वा वा समुद्राइति वा वेलाइति वा वेदिका- वलय और विग्रह समुद्दाति वा वेलाति वा इति वा द्वाराणीति वा तोरणानीति वा द्वीप और समुद्र वेइयाति वा दाराति वा नैरयिकाइति वा नैरयिकावासाइति वेला और वेदिका तोरणाति वा रइयाति वा वा यावत वैमानिकाइति वा द्वार और तोरण गैरइयावासाति वा जाव वैमानिकावासाइति वा कल्पाइति नरयिक और नैरयिकावास तथा वैमानिक वेमाणियाइ वा वेमाणियावासाइ वा कल्पविमानावासाइति वा तक के सभी दण्डक और उनके आवास वा कप्पाति वा कप्पविमाणा- वर्षाणीति वा वर्षधरपर्वताइति वा कल्प और कल्पविमानावास वासाति वा वासाति वा कुटानीति वा कुटागाराणीति वा वर्ष और वर्षधर-पर्वत
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ठाणं (स्थान)
वासरपव्वताति वा कूडाति वा कूडागाराति वा विजयाति वा रायहाणीति वा जीवाति या अजीवाति या पवुच्चति । ३६१. छायाति वा आतवाति वा दोसिणाति वा अंधकाराति वा ओमाणाति वा उम्माणाति वा अतियाणगिहाति वा उज्जाण - गिहाति वा अवलंबाति वा सणिप्पवाताति वा जीवाति या
अजीवाति या पवच्चइ । ३६२. दो रासी पण्णत्ता,
कम्म-पदं
३३. दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहापेज्जबंधे चेव, दोसबंधे चेव ।
३६४. जीवा णं दोहि ठाणेहि पावं कम्मं बंधंति, तं जहा - रागेण चेव, दोसेण चेव ।
३६५. जीवा णं दोहि ठाणेहि पावं कम्मं उदीरेंति, तं जहा--- अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चैव वेयणाए । ३६६. "जीवा णं दोहिं ठाणेह पावं कम्मं वेदेति, तं जहा — अभोवगमियाए चेव वेयणाए, वक्कमिया चैव वेणाए । ३६७. जीवा णं दोहि ठाणेह पावं कम्मं णिज्जरेंति, तं जहा - अभोवगमियाए चैव वेयणाए, sara मियाए चैव वेयणाए ।
१००
विजयाइति वा राजधान्यइति वाजीवइति च अजीवइति च प्रोच्यते ।
तं जहा
द्वौ राशी प्रज्ञप्तौ तद्यथा—
जीवरासी चेव, अजीवरासी चेव । जीवराशिश्चैव, अजीव राशिश्चैव ।
छायेति वा आतपइति वा ज्योत्स्नेति वा अन्धकारमिति वा अवमानमिति वा उन्मानमिति वा अतियानगृहाणीति वा उद्यानगृहाणीति वा अवलिम्बाइति वा सनिष्प्रवाता इति वाजीवइति च अजीवइति च प्रोच्यते ।
स्थान २ : सूत्र ३६१-३६७
कूट और कूटागार
विजय और राजधानी
ये सभी जीव-अजीव दोनों हैं । १२५
३६१. छाया और आतप
ज्योत्सना और अन्धकार
अवमान और उन्मान अतियानगृह" और उद्यानगृह अवलम्ब और सनिष्प्रवात २८ये सभी जीव-अजीव दोनों हैं।
३२. राशि दो हैं
जीवराशि, अजीवराशि ।
कर्म-पदम्
कर्म-पद
३६३. बन्ध दो प्रकार का है
द्विविधो बन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रेयोबन्धश्चैव दोषबन्धश्चैव । प्रेयो बन्ध, द्वेष बन्ध । जीवा द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पापं कर्म ३९४. जीव दो स्थानों से पाप कर्म का बन्ध बन्धन्ति, तद्यथा-करते हैं
रागेण चैव दोषेण चैव ।
राग से, द्वेष से ।
जीवा द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पापं कर्म ३६५. जीव दो स्थानों से पाप-कर्म की उदीरणा उदीरयन्ति, तद्यथाआभ्युपगमिक्या चैव वेदनया,
करते हैं- आभ्युपगमिकी ( स्वीकृत
तपस्या आदि) वेदना से, औपक्रमिकी ( रोग आदि ) वेदना से ।
औपक्रमिया चैव वेदनया ।
जीवा द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पापं कर्म ३६६. जीव दो स्थानों से पाप कर्म का वेदन वेदयन्ति तद्यथा— अभ्युपगमक्या चैव वेदनया,
करते हैं
आभ्युपगमिकी वेदना से,
औपक्रमिक्या चैव वेदनया ।
औपक्रमकी वेदना से । १२९
करते हैं
जीवा द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पापं कर्म ३६७. जीव दो स्थानों से पाप कर्म का निर्जरण निर्जरयन्ति तद्यथाआभ्युपगमिवया चैव वेदनया, औपaमिक्या चैव वेदनया ।
अभ्युपगमकी वेदना से, औपक्रमिक वेदना से ।
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ठाणं (स्थान)
१०१
स्थान २ : सूत्र ३६८-४०२
निर्याति,
अत्त-णिज्जाण-पदं ___ आत्म-निर्याण-पदम्
आत्म-निर्याण-पद ३६८. दोहि ठाणेहि आता सरीरं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा शरीरं ३६८. दो प्रकार से आत्मा शरीर का स्पर्श कर फुसित्ता णं णिज्जाति, तं जहा.- स्पृष्ट्वा निर्याति, तद्यथा
बाहर निकलती हैदेसेणवि आता सरीरं फुसित्ता णं देशेनापि आत्मा शरीरं स्पृष्ट्वा कुछेक प्रदेशों से आत्मा शरीर का णिज्जाति,
स्पर्श कर बाहर निकलती है, सम्वेणवि आता सरीरगं फुसित्ता सर्वेणापि आत्मा शरीरकं स्पृष्ट्वा । सब प्रदेशों से आत्मा शरीर का स्पर्श कर णं णिज्जाति । निर्याति।
बाहर निकलती है। ३६६. 'दोहि ठाणेहिं आता सरीरं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा शरीरं ३६६. दो प्रकार से आत्मा शरीर को स्फुरित फुरित्ता णं णिज्जाति, तं जहा- स्फोरयित्वा निर्याति, तद्यथा
(स्पन्दित) कर बाहर निकलती हैदेसेणवि आता सरीरं फुरित्ता णं देशेनापि आत्मा शरीरकं स्फोरयित्वा कुछेक प्रदेशों से आत्मा शरीर को स्फुरित णिज्जाति, निर्याति,
कर बाहर निकलती है, सव्वेणवि आता सरीरगं फुरित्ता सर्वेणापि आत्मा शरीरकं स्फोरयित्वा । सब प्रदेशों से आत्मा शरीर को स्फुरित णं णिज्जाति। निर्याति ।
कर बाहर निकलती है। ४००. दोहि ठाणेहिं आता सरीरं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा शरीरं ४००. दो प्रकार से आत्मा शरीर को स्फुटित फुडित्ता णं णिज्जाति, तं जहा- स्फोटयित्वा निर्याति, तद्यथा
(स्फोट-युक्त) कर बाहर निकलती हैदेसेणवि आता सरीरं फडित्ता णं देशेनापि आत्मा शरीरं स्फोटयित्वा कुछेक प्रदेशों से आत्मा शरीर को स्फुटित णिज्जाति, निर्याति,
कर बाहर निकलती है, सवेणवि आता सरीरगं फुडित्ता सर्वेणापि आत्मा शरीरकं स्फोटयित्वा । सब प्रदेशों से आत्मा शरीर को स्फुटित णं णिज्जाति। निर्याति ।
कर बाहर निकलती है। ४०१. दोहि ठाणेहिं आता सरीरं संवट्ट- द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा शरीरं ४०१. दो प्रकार से आत्मा शरीर को संवर्तित इत्ता णं णिज्जाति, तं जहा.. संवर्त्य निर्याति, तद्यथा
(संकुचित) कर बाहर निकलती हैदेसेणवि आता सरीरं संवट्टइत्ता देशेनापि आत्मा शरीरं संवर्त्य निर्याति, कुछेक प्रदेशों से आत्मा शरीर को णं णिज्जाति,
सर्वेणापि आत्मा शरीरक संवर्त्य संवर्तित कर बाहर निकलती है, सम्वेणवि आता सरीरगं संवट्ट- निर्याति ।
सब प्रदेशों से आत्मा शरीर को संवर्तित इत्ता णं णिज्जाति।
कर बाहर निकलती है। ४०२. दोहि ठाणेहि आता सरीरं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा शरीरं ४०२. दो प्रकार से आत्मा शरीर को निवर्तित णिवट्टइत्ता णं णिज्जाति, तं निवर्त्य निर्याति, तद्यथा
(जीव प्रदेशों से अलग) कर बाहर जहा
देशेनापि आत्मा शरीरं निवर्त्य निर्याति निकलती हैदेसेणवि आता सरीरं णिवट्टइत्ता सर्वेणापि आत्मा शरीरकं निवर्त्य कुछेक प्रदेशों से आत्मा शरीर को णं णिज्जाति, निर्याति।
निवर्तित कर बाहर निकलती है, सव्वेणवि आता सरीरगं णिवट्ट
सब प्रदेशों से आत्मा शरीर को निवर्तित . इत्ता णं णिज्जाति।
कर बाहर निकलती है।
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ठाणं (स्थान)
खय उवसम-पदं
४०३. दोहि ठाणेहिं आता केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, तं जहा -
खरण चेव, उवसमेण चेव । ४०४. दोहि ठाणेहिं श्राता
केवलं बोधि बुज्ज्जा, केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, केवलं बंभचेरवास मावसेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहाखरण चेव, उवसमेण चेव ।
संग्रहणी-गाहा—
१. जं जोयण विच्छिष्णं, पल्लं एगाहियप्परूदाणं । होज्ज निरंतर णिचितं, भरितं वालग्गकोडीणं ॥ २. वाससए वाससए,
mahan अवहडंमि जो कालो ।
१०२
क्षयोपशम-पदम्
क्षयोपशम-पद
द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा केवलिप्रज्ञप्तं ४०३. दो स्थानों से आत्मा केवलीप्रज्ञप्त धर्म को धर्मं लभेत श्रवणतया, तद्यथाक्षयेण चैव, उपशमेन चैव ।
सुन पाती है
भूत्वा
द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्माकेवल बोधि बुध्येत केवलं मुण्डो अनगारितां प्रव्रजेत्, केवलं ब्रह्मचर्यवासमावसेत्, केवलेन संयमेन संयच्छेत्, केवलेन संवरेण संवृणुयात्, केवलमाभिनिबोधिकज्ञानं उत्पादयेत्, केवलं श्रुतज्ञानं उत्पादयेत्, केवलं अवधिज्ञानं उत्पादयेत्, केवलं मनः पर्यवज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा
क्षयेण चैव, उपशमेन चैव
ओमिय-काल-पदं
औपमिक-काल-पदम्
४०५. दुविहे अद्धोमिए पण्णत्ते, तं द्विविधं अद्ध्वौपमिकं जहा पलिओमे चेव, तद्यथा—पल्योपमञ्चैव,
सागरोवमे चेव ।
सागरोपमञ्चैव ।
से किं तं पलिओवमे ? तत् किं पल्योपमम् ? पत्योपमम् —
पलिओव
अगारात्
स्थान २ : सूत्र ४०३-४०५
संग्रहणी-गाथा
१. यत् योजनविस्तीर्णं, पल्यं एकाहिक प्ररूढानाम् । भवेत् निरन्तरनिचितं, भरितं बालाकोटीनाम् ॥ २. वर्षशते वर्षशते, एकैकस्मिन् अपहृते यः कालः ।
कर्मपुद्गलों के क्षय से कर्मपुद्गलों के उपशम से
प्रज्ञप्तम्, ४०५ औपमिक
४०४. दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध बोधि का
अनुभव करती है—
मुंड होकर घर छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता - साधुपन को पाती है। सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करती है । सम्पूर्ण संयम के द्वारा संयत होती है। सम्पूर्ण संवर के द्वारा संवृत होती है । विशुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान को प्राप्त करती है ।
विशुद्ध श्रुतज्ञान को प्राप्त करती है ।
विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करती है। विशुद्ध मनः पर्यवज्ञान को प्राप्त करती हैक्षय से क्षयोपशम से । और उपशम से
औपमिक काल-पद
क्षयोपशम से
अद्धा काल दो प्रकार का
है - पल्योपम, सागरोपम ।
भंते ! पल्योपम किसे कहा जाता है ?
संग्रहणी-गाथा -
एक अनाज भरने का गड्ढा है। वह एक योजन लम्बा-चौड़ा है। उसमें एक से सात दिन के उगे हुए बालाग्रों के खण्ड ठूस-ठूंसकर भरे हुए हैं। सौ-सौ वर्षों से उनमें से एक-एक बालाग्रखण्ड निकाला जाता है। इस प्रकार उस
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ठाणं (स्थान)
सो कालो बोद्धवो,
उवमा एगस्स पल्लस्स ॥ ३. एएस पल्लाणं,
atrast हवेज्ज दस गुणिता ।
तं सागरोवमस्स उ,
एगस्स भवे परीमाणं ॥
पाव-पदं
४०६. दुविहेको पण्णत्ते, तं जहा
परपइट्टिए चेव ।
४०७ 'दुविहे माणे, दुविहा माया, दुविहे लोभ, दुविहे पेज्जे,
दोसे, दुविकल, अभवखाणे, दुवि सुण्णे,
दु विहे परपरिवार, दुविहा अरतिरती, मियामोसे,
दुमिच्छादंसणसल्ले पण्णत्ते, तं जहा - आयपइट्ठिए चेव, परपइट्ठिए चेव ।
१०३
सः कालः बोद्धव्यः,
उपमा एकस्य पल्यस्य ॥ ३. एतेषां पल्यानां कोटाकोटी भवेत् दश गुणिता । तत् सागरोपमस्य तु,
एकस्य भवेत् परिमाणम् ।।
तसा चेव, थावरा चेव ।
४०६. दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा- सिद्धा चेव, असिद्धा चेव ।
पाप-पदम्
द्विविधः क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— आत्मप्रतिष्ठितश्चैव, परप्रतिष्ठितश्चैव ।
द्विविधः मानः, द्विविधा माया, द्विविधः लोभः, द्विविधः प्रेयान्, द्विविधः दोषः, द्विविधः कलहः, द्विविधं अभ्याख्यानम्, द्विविधं पैशुन्यम्, द्विविधः परपरिवादः,
द्विविधा अरतिरतिः,
द्विविधा मायामृषा,
एवं रइयाणं जाव वैमाणि- एवं नैरयिकाणां यावत् वैमानिकानाम् ।
या ।
द्विविधं मिथ्यादर्शनशल्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— आत्मप्रतिष्ठतं चैव, परप्रतिष्ठतं चैव ।
जीवा:
स्थान २ : सूत्र ४०६-४०६
गड्ढे को खाली होने में जितना समय लगे उसे पल्योपमकाल कहा जाता है। दस कोटी-कोटी पत्योपम जितने काल को सागरोपमकाल कहा जाता है।
पाप-पद
४०६. क्रोध दो प्रकार का होता हैआत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित । १३२
जीव-पदं
जीव-पदम्
४०८. दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा द्विविधाः संसारसमापन्नका
पण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्ताः, तद्यथात्रसाश्चैव, स्थावराश्चैव ।
द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४०९. सब जीव दो प्रकार के होते हैंसिद्वाश्चैव, असिद्धाश्चैव । सिद्ध, असिद्ध |
४०७. मान दो प्रकार का, माया दो प्रकार की,
लोभ दो प्रकार का, प्रेम दो प्रकार का, द्वेष दो प्रकार का, कलह दो प्रकार का, अभ्याख्यान दो प्रकार का, पैशुन्य दो प्रकार का,
परपरिवाद दो प्रकार का, अरति रति दो प्रकार की, मायामृषा दो प्रकार की । मिथ्यादर्शनशल्य दो प्रकार का होता हैआत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित ।
इसी प्रकार नैरयिकों तथा वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों के जीवों के क्रोध आदि दो-दो प्रकार के होते हैं।
जीव-पद
४०८. संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं
बस, थावर ।
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ठाणं (स्थान)
१०४
स्थान २ : सूत्र ४१०-४१२ ४१०. दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः , ४१०. सब जीव दो-दो प्रकार के होते हैंजहा
तद्यथासइंदिया चेव, अणिदिया चेव। सेन्द्रियाश्चैव, अनिन्द्रियाश्चैव । सइन्द्रिय और अनिन्द्रिय। 'सकायच्चेव, अकायच्चेव। सकायाश्चैव, अकायाश्चैव ।
सकाय और अकाय । सजोगी चेव, अजोगी चेव। सयोगिनश्चैव, अयोगिनश्चैव ।
सयोगी और अयोगी। सवेया चेव, अवेया चेव। सवेदाश्चैव, अवेदाश्चैव।
सवेद और अवेद। सकसाया चेव, अकसाया चेव। सकषायाश्चैव, अकषायाश्चैव । सकषाय और अकषाय । सलेसा चेव, अलेसा चेव। सलेश्याश्चैव, अलेश्याश्चैव ।
सलेश्य और अलेश्य । णाणी चेव, अणाणी चेव। ज्ञानिनश्चैव, अज्ञानिनश्चैव ।
ज्ञानी और अज्ञानी। सागारोवउत्ता चेव, साकारोपयुक्ताश्चैव,
साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त । अणागारोवउत्ता चेव। अनाकारोपयुक्ताश्चैव ।
आहारक और अनाहारक। आहारगा चेव, अणाहारगा चेव । आहारकाश्चैव, अनाहारकाश्चैव । भाषक और अभाषक। भासगा चेव, अभासगा चेव। भाषकाश्चैव, अभाषकाश्चैव।
चरम और अचरम । चरिमा चेव, अचरिमा चेव। चरमाश्चैव, अचरमाश्चैव।
सशरीरी और अशरीरी। ससरीरी चेव, असरीरी चेव। सशरीरिणश्चैव, अशरीरिणश्चैव।
मरण-पदं मरण-पदम
मरण-पद ४११. दो मरणाई समणणं भगवता द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण ४११. श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के
महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नो नित्यं वणिते मरण श्रमण भगवान महावीर के णो णिच्चं वणियाइं जो णिच्चं नो नित्यं कीत्तिते नो नित्यं उक्ते नो द्वारा कभी भी वर्णित, कीर्तित, उक्त, कित्तियाई णो णिच्चं बुइयाइं नित्यं प्रशस्ते नो नित्य अभ्यनज्ञाते प्रशंसित और अनुमत नहीं हैंणो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्चं भवतः, तद्यथा
वलन्-परिषहों से वाधित होने पर जो अब्भणुण्णायाई भवंति, तं जहा.- वलन्मरणञ्चैव,
व्यक्ति संयम से निवर्तमान होते हैं, वलयमरणे चेव, वशार्त्तमरणञ्चैव।
उनका मरण। वशात-इन्द्रियों के वसट्टमरणे चेव।
अधीन बने हुए पुरुष का मरण । ४१२. एवं-णियाणमरणे चेव, एवम्-निदानमरणञ्चैव, ४१२. इसी प्रकार-निदानमरण, तब्भवमरणे चेव। तद्भवमरणं चैव।
तद्भवमरण गिरिपडणे चेव, गिरिपतनं चैव,
गिरिपतन-पहाड़ से गिरकर मरना तरुपडणे चेव। तरुपतनं चैव।
तरुपतन-वृक्ष से गिरकर मरना जलपवेसे चेव, जलप्रवेशश्चैव,
जलप्रवेश कर मरना जलणपवेसे चेव। ज्वलनप्रवेशश्चैव।
अग्निप्रवेश कर मरना विसभक्खणे चेव, विषभक्षणं चैव,
विषभक्षण कर मरना सत्थोवाडणे चेव। शस्त्रावपाटनं चैव।
शस्त्र से घात कर मरना।
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ठाणं (स्थान)
१०५
स्थान २: सूत्र ४१३-४१८
४१३. दो मरणाई 'समणेणं भगवता द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण ४१३. ये दो-दो प्रकार के मरण श्रमण निम्रन्थों
महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नो नित्यं वणिते के लिए श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा णो णिच्चं वणियाइं णो णिच्चं नो नित्यं कीर्तिते नो नित्यं उक्ते नो कभी भी वणित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित कित्तियाइं णो णिच्चं बुइयाइं नित्यं प्रशस्ते नो नित्यं अभ्यनुज्ञाते और अनुमत नहीं है। किन्तु शील-रक्षा णो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्चं भवतः । कारणे पुनः अप्रतिक्रुष्टे, आदि प्रयोजन होने पर वे अनुमत भी हैंअब्भणुण्णायाइं भवंति । कारणे तद्यथा-वैहायसञ्चैव,
वैहायस–फांसी लेकर मरना। पुण अप्पडिकुट्ठाई, तं जहा- गृद्धस्पृष्टञ्चैव ।
गृद्धस्पृष्ट-कोई व्यक्ति हाथी आदि वेहाणसे चेव, गिद्धप? चेव।
बृहत्काय वाले जानवरों के शव में प्रवेश कर शरीर का व्युत्सर्ग करता है, वहां गीध आदि पक्षी शव के साथ-साथ उस शरीर को भी नोंच डालते हैं। इस प्रकार
उसका मरण होता है। ४१४. दो मरणाई समणणं भगवया द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण ४१४. श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण
महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणिते नित्यं । श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा सदा णिच्चं वणियाइं 'णिच्चं कीर्त्तिते नित्यं उक्ते नित्यं प्रशस्ते नित्यं वणित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित और कित्तियाइं णिच्चं बुइयाइं णिच्चं अभ्यनुज्ञाते भवतः, तद्यथा
अनुमत हैंपसत्थाई णिच्चं अन्भणुण्णाताई प्रायोपगमनञ्चैव,
प्रायोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान । भवंति, तं जहा
भक्तप्रत्याख्यानञ्चैव। पाओवगमणे चेव,
भत्तपच्चक्खाणे चेव। ४१५. पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं प्रायोपगमनं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ४१५. प्रायोपगमन दो प्रकार का होता हैजहा—णीहारिमे चेव, निर्हारि चैव, अनिर्हारि चैव ।
निर्हारि, अनिर्हारि। अणीहारिमे चेव। नियम अप्रतिकर्म।
प्रायोपगमन नियमतः अप्रतिकर्म होता है। णियमं अपडिकम्मे। ४१६. भत्तपच्चक्खा
भक्तप्रत्याख्यानं द्विविधं प्रज्ञप्तम, ४१६. भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का होता हैतं जहाणीहारिमे चेव, तद्यथा
नियरि, अनिर्हारि। अणीहारिमे चैव। निर्हारि चैव, अनिर्हारि चैव।
भक्तप्रत्याख्यान नियमतः सप्रतिकर्म होता णियमं सपडिकम्मे। नियम सप्रतिकर्म।
लोग-पदं ४१७. के अयं लोगे?
जीवच्चेव, अजीवच्चेव । ४१८. के अणंता लोगे?
जीवच्चेव, अजीवच्चेव ।
लोक-पदम् को यं लोकः? जीवाश्चैव, अजीवाश्चैव। के अनन्ता लोके? जीवाश्चैव, अजीवाश्चैव।
लोक-पद ४१७. भंते ! यह लोक क्या है ?
जीव और अजीव ही लोक है। ४१८ भंते ! लोक में अनन्त क्या है ?
जीव और अजीव।
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ठाणं (स्थान)
१०६
स्थान २: सूत्र ४१६-४२८
. ४१६. के सासया लोगे ?
जीवच्चेव, अजीवच्चेव।
के शाश्वता लोके? जीवाश्चैव, अजीवाश्चैव।
४१६ भंते ! लोक में शाश्वत क्या है ?
जीव और अजीव।
बोधि-पदं
बोधि-पदम् ४२०. दुविहा बोधी पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधा बोधिः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
णाणबोधी चेव, दंसणबोधी चेव। ज्ञानबोधिश्चैव, दर्शनबोधिश्चैव । ४२१. दुविहा बुद्धा पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधाः बुद्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
पाणबुद्धा चेव, दंसणबुद्धा चेव। ज्ञानबुद्धाश्चैव, दर्शनबुद्धाश्चैव।
बोधि-पद ४२०. बोधि दो प्रकार की है
ज्ञान-बोधि, दर्शन-बोधि। ४२१. बुद्ध दो प्रकार के हैं
ज्ञानबुद्ध, दर्शनबुद्ध।
मोह-पदं मोह-पदम्
मोह-पद ४२२. 'दुविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहा- द्विविधो मोहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ४२२. मोह दो प्रकार का है
णाणमोहे चेव, सणमोहे चेव। ज्ञानमोहश्चैव, दर्शनमोहश्चैव। ___ ज्ञानमोह, दर्शनमोह। ३० ४२३. दुविहा मूढा पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधाः मूढाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- ४२३. मूढ दो प्रकार के हैं
णाणमूढा चेव, दंसणमूढा चेव । ज्ञानमूढाश्चैव, दर्शनमूढाश्चैव । ज्ञानमूढ, दर्शनमूढ । कम्म-पदं कर्म-पदम्
कर्म-पद ४२४. णाणावरणिज्जे कम
ज्ञानावरणीयं कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम, ४२४. ज्ञानावरणीय कर्म दो प्रकार का हैपण्णत्ते, तं जहातद्यथा
देशज्ञानावरणीय, सर्वज्ञानावरणीय। देसणाणावरणिज्जे चेव, देशज्ञानावरणीयञ्चैव,
सवणाणावरणिज्जे चेव । सर्वज्ञानावरणीयञ्चैव। ४२५. दरिसणावरणिज्जे कम्मे दुविहे दर्शनावरणीयं कर्म द्विविध प्रज्ञप्तम्, ४२५. दर्शनावरणीय कर्म दो प्रकार का हैपण्णत्ते, तं जहा-- तद्यथा
देशदर्शनावरणीय, सर्वदर्शनावरणीय । देसदरिसणावरणिज्जे चेव, देशदर्शनावरणीयञ्चैव,
सव्वदरिसणावरणिज्जे चेव। सर्वदर्शनावरणीयञ्चैव । ४२६. वेयणिज्जे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, वेदनीयं कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ४२६. वेदनीयकर्म दो प्रकार का हैतं जहा—सातावेयणिज्जे चेव, तद्यथा-सातवेदनीयञ्चैव,
सातवेदनीय, असातवेदनीय। असातावेयणिज्जे चेव। असातवेदनीयञ्चैव। ४२७. मोहणिज्जे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, मोहनीयं कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ४२७. मोहनीयकर्म दो प्रकार का है
तं जहा—दसणमोहणिज्जे चेव, तद्यथा-दर्शनमोहनीयञ्चैव, दर्शनमोहनीय, चरित्नमोहनीय ।
चरित्तमोहणिज्जे चेव। चरित्रमोहनीयञ्चैव । ४२८. आउए कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं आयु: कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ४२८ आयुष्यकर्म दो प्रकार का है
जहा-अद्धाउए चेव, अद्ध्वायुश्चैव, भवायुश्चैव। अद्ध्वायुष्य-कायस्थिति की आयु भवाउए चेव।
भवायुष्य-उसी जन्म की आयु।१२६
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : सूत्र ४२६-४३७
४२६. णामे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- नाम कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ४२६. नामकर्म दो प्रकार का है
सुभणामे चेव, असुभणामे चेव। शुभनाम चैव, अशुभनाम चैव। शुभनाम, अशुभनाम। ४३०. गोत्ते कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं गोत्रं कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ४३०. गोत्र कर्म दो प्रकार का है
जहा—उच्चागोते चेव, उच्चगोत्रञ्चैव, नीचगोत्रञ्चैव। उच्चगोत्र, नीचगोत्र ।
णीयागोते चेव । ४३१. अंतराइए कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं अन्तरायिकं कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, ४३१. अन्तराय कर्म दो प्रकार का है
जहा—पडुप्पण्णविणासिए चेव, तद्यथा—प्रत्युत्पन्नविनाशितं चैव, प्रत्युत्पन्न-विनाशित-वर्तमान में प्राप्त पिहति य आगामिपहं चेव। पिधत्ते च आगामिपथं चैव।
वस्तु का विनाश करने वाला, भविष्य में होने वाले लाभ के मार्ग को रोकने वाला।
मुच्छा -पदं मूर्छा-पदम्
मूर्छा-पद ४३२. दुविहा मुच्छा पणत्ता, तं जहा- द्विविधा मूर्छा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ४३२. मूर्छा दो प्रकार की है-प्रेयस्प्रत्ययापेज्जवत्तिया चेव,
प्रेयोवृत्तिका चैव, दोषवृत्तिका चैव। प्रेम के कारण होने वाली मूर्छा, दोसवत्तिया चेव।
द्वेषप्रत्यया-द्वेष के कारण होने वाली
मूर्छा। ४३३. पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा प्रेयोवृत्तिका मूर्छा द्विविधा प्रज्ञप्ता, ४३३. प्रेयस्प्रत्यया मूर्छा दो प्रकार की है
पण्णत्ता, तं जहा—माया चेव, तद्यथा—माया चैव, लोभश्चैव। माया, लोभ।
लोभेचेव। ४३४. दोसवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णत्ता, दोषवृत्तिका मूर्छा द्विविधा प्रज्ञप्ता, ४३४. द्वेषप्रत्यया मूर्छा दो प्रकार की है
तं जहा—कोहे चेव, माणे चेव। तद्यथा--क्रोधश्चैव, मानश्चैव । क्रोध, मान।
आराहणा-पदं आराधना-पदम्
आराधना-पद ४३५. दुविहा आराहणा पण्णत्ता, तं द्विविधा आराधना प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ४३५. आराधना दो प्रकार की हैजहा—धम्मियाराहणा चेव, धार्मिक्याराधना चैव,
धार्मिकी आराधना-धार्मिकों के द्वारा केवलिआराहणा चेव। कैवलिक्याराधना चैव।
की जाने वाली आराधना, कैवलिकी आराधना केवलियों के
द्वारा की जाने वाली आराधना। ४३६. धम्मियाराहणा दुविहा पण्णत्ता, धार्मिक्याराधना द्विविधा प्रज्ञप्ता, ४३६. धार्मिकी आराधना दो प्रकार की हैतं जहा—सुयधम्माराहणा चेव, तद्यथा-श्रुतधर्माराधना चैव,
श्रुतधर्म की आराधना, चरित्रधम्माराहणा चेव। चरित्रधर्माराधना चैव।
चरित्नधर्म की आराधना। ४३७. केवलिआराहणा दविहा पण्णता, कैलिक्याराधना द्विविधा प्रज्ञप्ता. ४३७. कैवलिकी आराधना दो प्रकार की हैतं जहा—अंतकिरिया चेव, तद्यथा—अन्तक्रिया चैव,
अन्तक्रिया, कल्पविमानोपपत्तिका । कप्पविमाणोववत्तिा चेव। कल्पविमानोपपत्तिका चैव ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: सूत्र ४३८-४४७
तित्थगर-वण्ण-पदं तीर्थकर-वर्ण-पदम्
तीर्थकर-वर्ण-पद ४३८. दो तित्थगरा णीलुप्पलसमा द्वौ तीर्थकरौ नीलोत्पलसमौ वर्णेन ४३८. दो तीर्थंकर नीलोत्पल के समान नीलवर्ण वणेणं पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तौ, तद्यथा
वाले थेमुणिसुव्वए चेव, अरिढणेमी चेव। मुनिसुव्रतश्चैव, अरिष्टनेमिश्चैव। मुनिसुव्रत, अरिष्टनेमी। ४३६. दो तित्थगरा पियंगुसामा वण्णेणं, द्वौ तीर्थकरो प्रियङ्गुश्यामौ वर्णेन ४३६. दो तीर्थंकर प्रियङ गु-कांगनी के समान पण्णत्ता, तं जहा—मल्ली चेव, प्रज्ञप्तौ, तद्यथा—मल्ली चैव,
श्यामवर्ण वाले थेपासे चेव । पार्श्वश्चैव।
मल्लीनाथ, पार्श्वनाथ। ४४०. दो तित्थगरा पउमगोरा वण्णेणं द्वौ तीर्थकरौ पद्मगौरौ वर्णेन प्रज्ञप्तौ, ४४०. दो तीर्थंकर पद्म के समान गौरवर्ण वाले पण्णत्ता, तं जहा—पउमप्पहे चेव, तद्यथा-पद्मप्रभुश्चैव,
थे-पद्मप्रभु, वासुपूज्य। वासुपुज्जे चेव।
वासुपूज्यश्चैव। ४४१. दो तित्थगरा चंदगोरा वणेणं द्वौ तीर्थकरौ चन्द्रगौरौ वर्णेन प्रज्ञप्तौ, ४४१. दो तीर्थकर चन्द्र के समान गौरवर्ण वाले
पण्णत्ता, तं जहा—चंदप्पभे चेव, तद्यथा—चन्द्रप्रभश्चैव, पुष्पदन्तश्चैव। थे-चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त । पुष्पदंते चेव।
पुव्ववत्थु-पदं
पूर्ववस्तु-पदम् ४४२. सच्चप्पवायपुवस्स णं दुवे वत्थू सत्यप्रवादपूर्वस्य द्वे वस्तुनी प्रज्ञप्ते।
पण्णत्ता।
पूर्ववस्तु-पद ४४२. सत्यप्रवाद पूर्व के दो वस्तु-विभाग हैं।
नक्षत्र-पदम् दुतारे पूर्वभाद्रपदानक्षत्रं द्वितारं प्रज्ञप्तम्।
नक्षत्र-पद ४४३. पूर्वभाद्रपद नक्षत्र के दो तारे हैं ।
दुतारे
उत्तरभाद्रपदानक्षत्रं द्वितारं प्रज्ञप्तम्
४४४. उत्तरभाद्रपद नक्षत्र के दो तारे हैं।
णक्खत्त-पदं ४४३. पुव्वाभद्दवयाणक्खत्ते
पण्णत्ते। ४४४. उत्तराभवयाणक्खत्ते
पण्णत्ते। ४४५. 'पुव्वफग्गुणीणक्खत्ते
पण्णत्ते। ४४६. उत्तराफग्गुणीणखत्ते
पण्णत्ते ।
दुतारे पूर्वफल्गुनीनक्षत्रं द्वितारं प्रज्ञप्तम्।
४४५. पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे हैं।
दुतारे उत्तरफल्गुनीनक्षत्रं द्वितारं प्रज्ञप्तम्। ४४६. उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे हैं।
समुद्द-पदं
समुद्र-पदम्
समुद्र-पद ४४७. अंतो णं मणुस्सखेत्तस्स दो समुद्दा अन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य द्वौ समुद्रौ प्रज्ञप्तौ, ४४७. मनुष्यक्षेत्र के मध्य में दो समुद्र हैं
पण्णत्ता, तं जहा—लवणे चेव, तद्यथा—लवणश्चैव, कालोदश्चैव। . लवण, कालोद । कालोदे चेव।
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ठाणं (स्थान)
कालमासे कालं किच्चा आहेसत्तमाए पुढवीए अपइट्ठाणे गरए इयत्ताए उववण्णा, तं जहा— भूमे चेव, बंभदत्ते चैव ।
चक्क पर्द
चक्रवत्ति-पदम्
चक्रवत्ति-पद
४४८. दो चक्कवट्टी अपरिचत्तकामभोगा द्वौ चक्रवत्तिनो अपरित्यक्तकामभोगौ ४४८. दो चक्रवर्ती काम-भोगों को छोड़े बिना,
कालमासे कालं कृत्वा अधः सप्तमायां पृथिव्यां अप्रतिष्ठाने नरके नैरयिकत्वाय उपपन्नौ, तद्यथा— सुभूमश्चैव, ब्रह्मदत्तश्चैव ।
मरणकाल में मरकर नीचे की ओर सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुएसुभूम, ब्रह्मदत्त" ।
देव-पदं
४४६. असुरिदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । ४५०. सोहम्मे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । ४५१. ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ।
४५२. सणकुमारे कप्पे देवाणं जहणणं दो सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । ४५३. माहिदे कप्पे देवाणं जहणणं साइरेगाई दो सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ।
४५४. दोसु कप्पेसु कप्पित्थियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सोहम्मे चेव, ईसा चैव ।
४५५. दोसु कप्पेसु देवा तेउलेस्सा पण्णत्ता, तं जहासोहम्मे चेव, ईसाणे चेव । ४५६. दोसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा पण्णत्ता, तं जहासोहम्मे चेव, ईसाणे चेव । ४५७. दो कप्पे देवा फासपरियारगा पण्णत्ता, तं जहा— सकुमारे चेव, माहिंदे चेव ।
१०६
देव-पदम्
असुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिनां देवानां उत्कर्षेण देशोने द्वे पल्योपमे स्थितिः
देव- पद
प्रज्ञप्ता ।
४४९. असुरेन्द्र वजित १४१ भवनवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो पल्योपम से कुछ कम है । सौधर्मे कल्पे देवानां उत्कर्षेण द्वे ४५०, सौधर्म कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । दो सागरोपम की है। ईशाने कल्पे देवानां उत्कर्षेण सातिरेके द्वे सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
४५१. ईशान कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक है।
स्थान २ : सूत्र ४४८-४५७
सनत्कुमारे कल्पे देवानां जघन्येन द्वे ४५२. सनत्कुमार कल्प में देवों की जघन्य सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । स्थिति दो सागरोपम की है। माहेन्द्रे कल्पे देवानां जघन्येन सातिरेके द्वे सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
४५३. माहेन्द्र कल्प में देवों की जघन्य स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक है ।
द्वयोः कल्पयोः कल्पस्त्रियः प्रज्ञप्ताः, ४५४. दो कल्पों में कल्प - स्त्रियां [देवियां ] होती तद्यथा— सोधर्मे चैव, ईशाने चैव । हैं - सौधर्म में, ईशान में ।
द्वयोः कल्पयोः देवाः तेजोलेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— सौधर्मे चैव, ईशाने चैव ।
द्वयोः कल्पयोः देवाः कायपरिचारकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा सौधर्मे चैव, ईशाने चेव ।
द्वयोः कल्पयोः देवा: स्पर्शपरिचारकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—सनत्कुमारे चैव, माहेन्द्रे चैव ।
४५५. दो कल्पों में देव तेजोलेश्या से युक्त होते
हैं-सोधर्म में, ईशान में ।
४५६. दो कल्पों में देव काय परिचारक [ संभोग करने वाले ] होते हैंसौधर्म में, ईशान में ।
४५७. दो कल्पों में देव स्पर्श- परिचारक [देवी के स्पर्श मात्र से वासना पूर्ति करने वाले ] होते हैं - सनत्कुमार में, माहेन्द्र में ।
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ठाणं (स्थान)
४५८. दोसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा पण्णत्ता, तं जहाबंभलोगे चेव, लंतगे चेव ।
४५. दो कप्पे देवा सद्दपरियारगा पण्णत्ता, तं जहा - महासुक्के चेव, सहस्सारे चेव ।
४६०. दो इंदा मणपरियारगा पण्णत्ता, तं जहा-- पाणए चेव, अच्चु चेव ।
पावकस्म -पदं
४६१. जीवाणं दुट्ठाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा तसकायणिव्वत्तिए चेव, थावर काय णिव्वत्तिए चेव ।
४६२. 'जीवा णं दुद्वाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए - उवचिणि वा उवचिति वा उवचिणिस्संति वा, बंधिसु वा बंधेति वा बंधिस्संति वा, उदीरिंसु वा उदीरेति वा उदीरिस्संति वा, वेद वा वेदेति वा वेदिति वा, णिज्जरसु वा णिज्जरेंति वा णिज्ज रिस्संति वा, "तं जहातसकायव्वित्तिए चेव, थावर काय णिव्वत्तिए चेव ।
११०
स्थान २: सूत्र ४५८-४६२
द्वयोः कल्पयोः देवाः रूपपरिचारकाः ४५८. दो कल्पों में देव रूप- परिचारक [देवी का रूप देखकर वासना पूर्ति करने वाले ] होते हैं
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
ब्रह्मलोके चैव, लान्तके चैव ।
ब्रह्मलोक में, लांतक में ।
द्वयोः कल्पयोः देवाः शब्दपरिचारकाः ४५६. दो कल्पों में देव शब्द-परिचारक [M शब्द सुनकर वासना पूर्ति करने वाले ] होते हैं-
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
महाशु चैव, सहस्रारे चैव ।
द्वौ इन्द्रौ मनः परिचारकौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा— प्राणते चैव, अच्युते चैव ।
पापकर्म-पदम्
जीवाः द्विस्थाननिर्वर्तितान् पुद्गलान् पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा तद्यथात्रसकायनिर्वत्ततांश्च, स्थावर कायनिवृत्तितांश्च ।
महाशुक्र में, सहस्रार में ।
४६०. दो इन्द्र मनः परिचारक [ संकल्प मात्र से वासना पूर्ति करने वाले ] होते हैंप्राणत, अच्युत ।
पापकर्म-पद
४६१. जीवों ने द्वि-स्थान निर्वर्तित पुद्गलों का पाप कर्म के रूप में चय किया है. करते हैं। और करेंगे
aसकाय निर्वर्तित-तसकाय के रूप में उपार्जित पुद्गलों का,
स्थावरकाय निर्वर्तित— स्थावरकाय के रूप में उपार्जित पुद्गलों का ।
जीवाः द्विस्थाननिर्वत्तितान् पुद्गलान् ४६२. जीवों ने द्वि-स्थान निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्मतया— पाप-कर्म के रूप में
उपाचैषुः वा उपचिन्वन्ति वा उपचेष्यन्ति वा अभान्त्सुः वा बध्नन्ति वा बन्त्स्यन्ति वा, उदैरिषुः वा उदीरयन्ति वा उदीरयिष्यन्ति वा अवेदिषुः वा वेदयन्ति वा वेदयिष्यन्ति वा निरजरिषुः वा निर्जरयन्ति वा निर्जरयिष्यन्ति वा, तद्यथा—त्रसकायनिर्वत्तितांश्च, स्थावरकायनिर्वत्तितांश्च ।
उपचय किया है, करते हैं और करेंगे । बन्धन किया है, करते हैं और करेंगे । उदीरण किया है, करते हैं और करेंगे। वेदन किया है, करते हैं और करेंगे। निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगेaeकाय निर्वर्तित स्थावरकाय निर्वर्तित।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : सूत्र ४६३-४६५
पोग्गल-पदं पुद्गल-पदम्
पुद्गल-पद ४६३. दुपएसिया खंधा अणंता द्विप्रादेशिकाः स्कन्धाः अनन्ताः ४६३. द्वि-प्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं। पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । ४६४. दुपदेसोगाढा पोग्गला अणंता द्विप्रदेशावगाढाः पुद्गलाः अनन्ताः ४६४. द्वि-प्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त हैं। पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । ४६५. एवं जाव दुगुणलुक्खा पोग्गला एवं यावत् द्विगुणरूक्षाः पुद्गलाः ४६५. इसी प्रकार दो समय की स्थिति वाले अणंता पण्णत्ता। अनन्ताः प्रज्ञप्ताः।
और दो गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं, तथा शेष सभी वर्ण तथा गन्ध, रस और स्पर्शी के दो गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं।
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टिप्पणियाँ स्थान-२
१-वेद सहित (सू० १)
वेद का शाब्दिक अर्थ है अनुभूति । प्रस्तुत प्रकरण में वेद का अर्थ है-काम-वासना की अनुभूति । वेद के तीन प्रकार हैं-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद।
पुरुषवेद-स्त्री के प्रति होने वाली भोगानुभूति । स्त्रीवेद-पुरुष के प्रति होने वाली भोगानुभूति । नपुंसकवेद-स्त्री और पुरुष दोनों के प्रति होने वाली भोगानुभूति ।
पुरुष में पुरुष के प्रति, स्त्री के प्रति और नपुंसक के प्रति विकार भावना हो सकती है, इसलिए पुरुष में तीनों ही वेद होते हैं । स्त्री और नपुंसक के लिए भी यही बात है।
२-रूप सहित (सू०१)
हजारों-हजारों वर्ष पहले [सुदूर अतीत में ] यह प्रश्न चर्चा का विषय रहा है कि जगत् जो दृश्यमान है, वही है या उसके अतिरिक्त भी है। जैन, बौद्ध, वैदिक आदि सभी दर्शनों में इस प्रश्न पर चिन्तन हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में जनदर्शन का चिन्तन है कि दृश्यमान जगत् रूपी और अरूपी दोनों हैं। संस्थान, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श सहित वस्तु को रूपी कहा जाता है। जिसमें संस्थान आदि न हो वह अरूपी होता है । वैदिक दर्शन ने भी जगत् को मूर्त और अमूर्त माना है।'
३–नो आकाश (सू० १)
'नो' शब्द के दो अर्थ होते हैं१. निषेध। २. भिन्नार्थ।
निषेधार्थक 'नो' शब्द के द्वारा वस्तु का सर्वथा निषेध द्योतित होता है । भिन्नार्थक 'नो' शब्द के द्वारा उस वस्तु से भिन्न वस्तुओं का अस्तित्व द्योतित होता है।
प्रस्तुत प्रकरण में 'नो' शब्द का दूसरा अर्थ इष्ट है । अतः 'नो आकाश' के द्वारा आकाश के अतिरिक्त पांच द्रव्यों-- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय का प्रतिपादन किया गया है।
१. (क) शतपथब्राह्मण, १४१५।३।१:
द्वे एव ब्रह्मणो रूपे मूर्तञ्चवाऽमूर्तञ्च । (ख) बृहदारण्यक, २।३।१:
द्वे वा व ब्रह्मणो रूपे मूर्तञ्चवाऽमूर्तञ्च । (ग) विष्णुपुराण, १।२२।५३:
द्वे रूपे ब्रह्मणो रूपे, मूर्तञ्चामूर्तमेव च ।
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ठाणं (स्थान)
४-५ - धर्म-अधर्म (सू० १ )
धर्मास्तिकाय - जीव और पुद्गल की गति का उदासीन किन्तु अनिवार्य माध्यम । अधर्मास्तिकाय — जीव और पुद्गल की स्थिति का उदासीन किन्तु अनिवार्य माध्यम ।
६-४१ - क्रिया ( सू० २-३७ )
प्रस्तुत आलापक में प्राणी की मुख्य-मुख्य सभी प्रवृत्तियां संकलित हैं । प्राणी जगत् में सर्वाधिक प्रवृत्तिशील मनुष्य है। उसकी मुख्य प्रवृत्तियां तीन हैं— कायिक, वाचिक और मानसिक । प्रयोजन के आधार पर इनके अनेक रूप बन जाते हैं। जीवन का अनिवार्य प्रश्न है जीविका। उसके लिए मनुष्य आरम्भ और परिग्रह की प्रवृत्ति करता है। आरम्भ और परिग्रह की प्रवृत्ति के साथ सुरक्षा का प्रश्न उपस्थित होता है। उसके लिए शस्त्र निर्माण की प्रवृत्ति विकसित होती है।
मनुष्य में मानसिक आवेग होते हैं । सामाजिक जीवन में उन्हें प्रस्फुट होने का अवसर मिलता है। एक मनुष्य का किसी के साथ प्रेयस् का सम्बन्ध होता है और किसी के साथ द्वेष-पूर्ण । इस प्रवृत्ति चक्र में वह किसी के प्रति अनुरक्त होता है और किसी को परितप्त करता है। किसी को शरण देता है और किसी का हनन करता है ।
११३
मनुष्य कुछ प्रवृत्तियां ज्ञानवश करता है और कुछ अज्ञानवश कुछ आकांक्षा से प्रेरित होकर करता है और कुछ आकस्मिक ढंग से कर लेता है ।
२. अनर्थदण्ड
३. हिंसादण्ड
मनुष्य अज्ञान या मोह की अवस्था में असमीचीन प्रवृत्ति करता है । सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर वह उनसे निवृत्त होता है । निवृत्ति-काल में प्रमाद और आलस्य द्वारा बाधा उपस्थित किए जाने पर वह फिर असमीचीन प्रवृत्ति करता है । इस प्रकार आत्यन्तिक निवृत्ति के पूर्व प्रवृत्ति का चक्र चलता रहता है। प्रस्तुत प्रकरण में प्रवृत्ति की प्रेरणा, प्रकार और परिणाम - तीनों उपलब्ध होते हैं। अप्रत्याख्यान, आकांक्षा और प्रेयस् - ये प्रवृत्ति की प्रेरणाएं हैं। ईर्यापथिक और सांपरायिक - ये कर्म-बंध उसके परिणाम हैं। इनके मध्य में उसके प्रकार संगृहीत हैं। प्रवृत्तियों का इतना बड़ा संकलन कर सूत्रकार ने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की अवस्थाओं का एक सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है।
प्रथम स्थान के चौथे सून के टिप्पण में क्रिया के विषय में संक्षिप्तसा लिखा गया है । प्रस्तुत प्रकरण में उसके वर्गीकरणों पर विस्तार से विचार-विमर्श करना है ।
क्रिया के तीन वर्गीकरण मिलते हैं। प्रथम वर्गीकरण सूत्रकृतांग का है। उसमें तेरह क्रियाएं निर्दिष्ट हैं'१. अर्थदण्ड
८. अध्यात्म ( मन ) प्रत्ययिक
६. मानप्रत्ययिक
१०. मित्रद्वेषप्रत्ययिक
४. अकस्मात् दण्ड
५. दृष्टिदोषदण्ड
६. मृषाप्रत्ययिक
७. अदत्तादानप्रत्ययिक
स्थान २ : टि०
१. सूत्रकृतांग, २२२ ।
२. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।६ :
अव्रत कषायेन्द्रियक्रियाः पञ्च चतुः पञ्च पञ्चविशति संख्याः
पूर्वस्य भेदाः ।
११. मायाप्रत्ययिक
१२. लोभप्रत्ययिक १३. ऐर्यापथिक
० ४-४१
दूसरा वर्गीकरण प्रस्तुत सूत्र ( स्थानांग ) का है। इसमें क्रियाओं के मुख्य और गौण भेद बहत्तर हैं । तीसरा वर्गीकरण तत्त्वार्थ सूत्र का है। उसमें पचीस क्रियाओं का निर्देश है'। वे इस प्रकार हैं
(१) सम्यक्त्व ( २ ) मिथ्यात्व ( ३ ) प्रयोग ( ४ ) समादान ( ५ ) ईर्यापथ ( ६ ) काय ( ७ ) अधिकरण
३. तत्त्वार्थ सूत्रभाष्य, ६।६ ।
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ठाणं (स्थान)
११४
स्थान २ : टि० ४१
(८) प्रदोष ( 8 ) परितापन (१०) प्राणातिपात ( ११ ) दर्शन ( १२ ) स्पर्शन (१३) प्रत्यय ( १४ ) समन्तानुपात (१५) अनाभोग (१६) स्वहस्त ( १७ ) निसर्ग (१८) विदारण ( १६ ) आनयन (२०) अनवकांक्षा (२१) आरम्भ (२२) परिग्रह ( २३ ) माया (२४) मिथ्यादर्शन (२५) अप्रत्याख्यान ।
प्रज्ञापना का बाईसवां पद क्रिया-पद है । उसमें कुछ क्रियाओं पर विस्तार से विचार किया गया है। भगवती सूत्र के अनेक स्थलों में क्रिया का विवरण मिलता है, जैसे-- भगवती शतक १, उद्देशक २ शतक ८, उद्देशक ४ ; शतक ३, उद्देशक ३ ।
प्रस्तुत वर्गीकरण पर समीक्षात्मक अर्थ-मीमांसा
जीव क्रिया और अजीवक्रिया- ये दोनों क्रिया के सामान्य प्रकार हैं। इनके द्वारा सूत्रकार यह बताना चाहते हैं कि क्रियाकारित्व जीव और अजीव दोनों का समान धर्म है। प्रस्तुत प्रकरण में वही अजीव क्रिया विवक्षित है, जो जीव के निमित्त से अजीव (पुद्गल) का कर्मबंध के रूप में परिणमन होता है।
पचीस क्रिया के वर्गीकरण में इन दोनों क्रियाओं का उल्लेख नहीं है । जीव क्रिया के दो भेद - सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया वहां उल्लिखित हैं। अभयदेव सूरि ने सम्यक्त्वक्रिया का अर्थ तत्त्व में श्रद्धा करना और मिथ्यात्वक्रिया का अर्थ तत्त्व में श्रद्धा करना किया है।' आचार्य अकलंक ने सम्यक्त्वक्रिया का अर्थ सम्यक्त्ववधिनीप्रवृत्ति और मिथ्यात्व क्रिया का अर्थ मिथ्यात्व हेतुकप्रवृत्ति किया है।'
ऐर्यापथिकी – ईर्यापथ शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध दोनों के साहित्य में मिलता है। बौद्धपिटकों में कायानुपश्यानु का दूसरा प्रकार ईर्यापथ है । उसकी व्याख्या इस प्रकार हैं
फिर भिक्षुओ ! भिक्षु जाते हुए 'जाता हूं' -- जानता है । बैठे हुए 'बैठा हूं' – जानता है। सोये हुए 'सोया हूं' - जानता है । जैसे-जैसे उसकी काया अवस्थित होती है, वैसे ही उसे जानता है। इसी प्रकार काया के भीतरी भाग में कायानुपश्यी हो विहरता है; काया के बाहरी भाग में कायानुपश्यी विहरता है। काया के भीतरी और बाहरी भागों में कायानुपश्यी विहरता है । काया में समुदय - ( = उत्पत्ति) धर्म देखता विहरता है, काया में व्यय - ( = विनाश) धर्म देखता विहरता है, काया में समुदय-व्ययधर्म देखता विहरता है ।
भगवती सूत्र में उल्लिखित एक चर्चा से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के युग में ईर्यापथिकी और सांपरायिकी क्रिया का प्रश्न अनेक धर्म-सम्प्रदायों में चर्चित था । भगवान् से पूछा गया - भंते! अन्यतीर्थिक यह मानते हैं कि एक ही समय में एक जीव ऐर्यापथिकी और सांपरायिकी दोनों क्रियाएं करता है, क्या यह सही है ?
भगवान् ने कहा- यह सही नहीं है। मैं इसे इस प्रकार कहता हूं कि जिस समय एक जीव ऐर्यापथिकी क्रिया करता है उस समय वह सांपरायिकी क्रिया नहीं करता है और जिस समय वह सांपरायिकी क्रिया करता है उस समय वह ऐर्याथिक क्रिया नहीं करता। एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है।'
जीवाभिगम सूत्र में सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्वक्रिया के विषय में भी इसी प्रकार की चर्चा मिलती है। वहां भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि एक समय में दो क्रियाएं नहीं की जा सकतीं।"
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों विरोधी क्रियाएं हैं। इसलिए वे दोनों एक समय में नहीं की जा सकतीं। ऐर्यापथिकी क्रिया उस जीव के होती है जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ विच्छिन्न हो जाते हैं। सांपरायिकी क्रिया उस जीव के होती है, जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ विच्छिन्न नहीं होते ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७ :
सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया सम्यक्त्वक्रिया, एवं मिध्यात्वक्रियाऽपि नवरं मिथ्यात्वम् अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापारएव ।
२. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५:
चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया सम्यक्त्व
क्रिया । अन्यदेवतास्तवनादिरूपा मिथ्यात्वहेतुका प्रवृत्तिमिथ्यात्व क्रिया ।
३. दीर्घनिकाय, पृ० १६१ ।
४.
भगवती, १/४४४, ४४५
५. जीवाभिगम, प्रतिपत्ति ३, उद्देशक २ ।
६. भगवती, ७ २०, २१, ७ १२५, १२६ ।
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ठाणं (स्थान)
११५
स्थान २ : टि० ४१
ऐर्याथिक क्रिया केवल शुभयोग के कारण होती है'। बौद्धों के कायानुपश्यनागत ईर्यापथ का स्वरूप भी लगभग ऐसा ही है। सांपरायिकी क्रिया - यह कषाय और योग के कारण होती है।'
इन दोनों क्रियाओं में जीव का व्यापार निश्चित रूप से रहता है, किन्तु कर्म-बंध की दो अवस्थाओं पर प्रकाश के लिए जीव के व्यापार को गौण मानकर इन्हें अजीव क्रिया कहा गया है'।
कर्म -बंध की दृष्टि से क्रिया के सभी प्रकारों का ऐर्यापथिकी और सांपरायिकी - इन दो प्रकारों में समावेश हो जाता है।
ऐर्यापथिकी क्रिया - वीतराग के होने वाला कर्म-बंध ।
सांप रायिकी क्रिया — कषाय युक्त जीव के होने वाला कर्म-बंध ।
कायिकी क्रिया - शरीर की प्रवृत्ति से होने वाली क्रिया कायिकीक्रिया है । यह इसका सामान्य शब्दार्थ है । इसकी परिभाषा इसके दो प्रकारों से निश्चित होती है। इसके दो प्रकार ये हैं-
अनुप र काय क्रिया और दुष्प्रयुक्तकाय क्रिया ।
अविरत व्यक्ति (भले फिर वह मिथ्यादृष्टि हो या सम्यकदृष्टि ) कर्म-बंध की हेतुभूत कायिक प्रवृत्ति करता है वह अनुप र कायिकी क्रिया है । स्थानांग, भगवती और प्रज्ञापना की वृत्तियों का यह अभिमत हैं । हरिभद्र सूरि का मत इससे . भिन्न है । उनके अनुसार अनुपरत कायिकीक्रिया मिथ्यादृष्टि के शरीर से होने वाली क्रिया है और दुष्प्रयुक्तकायिकीक्रिया प्रमत्तसंयति के शरीर से होने वाली क्रिया है। यदि अनुपरतकायिकीक्रिया मिथ्यादृष्टि के ही मानी जाए तो अविरतसम्यक्दृष्टि देश विरति के लिए कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता, इसलिए यही अर्थ संगत लगता है कि मिथ्यादृष्टि अविरतसम्यक्दृष्टि और देशविरति की कायिकी क्रिया अनुपरतकायिकी क्रिया और प्रमत्तसंयति की कायिकी क्रिया दुष्प्रयुक्तकायिकीक्रिया है ।
आचार्य अकलंक ने कायिकीक्रिया का अर्थ प्रद्वेष-युक्त व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला शारीरिक उद्यम किया है ।
अधिकरिणी की क्रिया - इस प्रवृत्ति का सम्बन्ध शस्त्र आदि हिंसक उपकरणों के संयोजन और निर्माण से है । इसके दो प्रकार हैं
संयोजनाधिकरणिकी - पूर्वनिर्मित शस्त्र आदि के पुर्जों का संयोजन करना ।
निर्वर्तनाधिकरणिकी शस्त्र आदि का नए सिरे से निर्माण करना । तत्त्वार्थवृत्ति के अनुसार इसका अर्थ है - हिंसक उपकरणों का ग्रहण करना'। इस अर्थ में प्रस्तुत क्रिया के दोनों प्रकार सूचित नहीं हैं।
प्रादोषिकी क्रिया — स्थानांगवृत्तिकार ने प्रदोष का अर्थ मत्सर किया है। उससे होने वाली क्रिया प्रादोषिकी कहलाती हैं' । आचार्य अकलंक के अनुसार प्रदोष का अर्थ क्रोधावेश है" । क्रोध अनिमित्तक होता है और प्रदोष निमित्त
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७:
यत्केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातावेदनीयकर्म्मतया
अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं सा ऐर्यापथिकी क्रिया ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७:
संपराया : - कषाया स्तेषु भवा सांपरायिकी ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७ :
(क) इह जीवव्यापारेऽप्यजीव प्रधानत्वविवक्षयाऽजी व क्रियेयमुक्ता, कर्म्मविशेषो वैर्यापथिकी क्रियोच्यते ।
(ख) सा (सांपरायिकी) ह्यजीवस्य पुद्गलराशेः कर्मतापरिणतिरूपा जीवव्यापारस्याविवक्षणादजीवक्रियेति ।
४. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८ ।
(ख) भगवती, ३।१३५; वृत्ति, पत्र १८१ ।
(ग) प्रज्ञापना, पद २२, वृत्ति ।
५. तत्त्वार्थ सूत्रवृत्ति, ६६ :
काय क्रिया द्विविधा — अनुपरतकाय क्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया, आधा मिध्यादृष्टे : द्विताया प्रमत्तसंयतस्य । ६. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५ :
प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिकी क्रिया ।
७. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८ ॥
८. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५ :
हिसोप करणादानादाधिकरणिकीक्रिया ।
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८ :
प्रद्वेषो - मत्सरा स्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी । १०. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५ :
क्रोधावेशात् प्रादोषिकी क्रिया ।
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ठाणं (स्थान)
११६
स्थान २ : टि० ४१
वान होता है। यह क्रोध और प्रदोष में भेद बतलाया गया है। इसके दो प्रकार हैं
जीवप्रादोषिकी-जीव सम्बन्धी प्रदोष से होने वाली क्रिया। अजीवप्रादोषिकी-अजीव सम्बन्धी प्रदोष से होने वाली क्रिया।
स्थानांग वृत्तिकार ने अजीव प्रादोषिकी क्रिया का जो अर्थ किया है उससे प्रदोष का अर्थ क्रोधावेश ही फलित होता है। अजीव के प्रति मात्सर्य होना स्वाभाविक नहीं है। इसीलिए वृत्तिकार ने लिखा है कि पत्थर से ठोकर खाने वाला व्यक्ति उसके प्रति प्रदुष्ट हो जाता है, यह अजीवप्रादोषिकीक्रिया है।
पारितापनिकी क्रिया-दूसरे को परितापन (ताडन आदि दुःख) देने वाली क्रिया पारितापनिकी कहलाती है। इसके दो प्रकार हैं
स्वहस्तपारितापनिकी-अपने हाथों अपने या पराए शरीर को परिताप देना। परहस्तपारितापनिकी-दूसरे के हाथों अपने या पराए शरीर को परितापन देना। प्राणातिपातक्रिया के दो प्रकार हैंस्वहस्तप्राणातिपातक्रिया--अपने हाथों अपने प्राणों या दूसरे के प्राणों का अतिपात करना। परहस्तप्राणातिपात क्रिया-दूसरे के हाथों अपने या पराए प्राणों का अतिपात करना।
अप्रत्याख्यानक्रिया का वृत्तिकार ने अर्थ नहीं किया है। इसके दो प्रकारों का अर्थ किया है । उससे अप्रत्याख्यानक्रिया का यह अर्थ फलित होता है-जीव और अजीव सम्बन्धी अप्रत्याख्यान से होने वाली प्रवृत्ति । तत्त्वार्थवातिक में इसकी कर्मशास्त्रीय व्याख्या मिलती है-संयमघाती कर्मोदय के कारण विषयों से निवृत्त न होना अप्रत्याख्यानक्रिया है।
आरम्भिकीक्रिया-यह हिंसा-सम्बन्धी क्रिया है। जीव और अजीव दोनों इसके निमित्त बनते हैं । वृत्तिकार ने अजीव आरंभिकी क्रिया का आशय स्पष्ट किया है। उनके अनुसार जीव के मृत शरीरों, पिष्ट आदि से निर्मित जीवाकृतियों या वस्त्र आदि में हिंसक प्रवृत्ति हो जाती है।'
पारिग्रहिकी क्रिया-वृत्तिकार के अनुसार यह क्रिया जीव और अजीव के परिग्रह से उत्पन्न होती है। तत्त्वार्थवार्तिक में इसकी व्याख्या कुछ भिन्न प्रकार से की गई है। उसके अनुसार पारिग्रहिकी क्रिया का अर्थ है-परिग्रह की सुरक्षा के लिए होने वाली प्रवृत्ति।
स्थानांगवृत्ति में मायाप्रत्ययाक्रिया के दो अर्थ किए गए हैं१. माया के निमित्त से होने वाली कर्म-बंध की क्रिया। २. माया के निमित्त से होने वाला व्यापार।'
तत्त्वार्थवातिककार ने ज्ञान दर्शन और चारित्र सम्बन्धी प्रवंचना को मायाक्रिया माना है, किन्तु व्यापक अर्थ में प्रत्येक प्रकार की प्रवंचना माया होती है। ज्ञान, दर्शन आदि को उदाहरण के रूप में ही समझा जाना चाहिए।
मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया का अर्थ स्थानांगवृत्ति और तत्त्वार्थवार्तिक में बहुत भिन्न है। स्थानांगवृत्ति के अनुसार मिथ्यादर्शन (मिथ्वात्व) के निमित्त से होने वाली प्रवृत्ति मिथ्यादर्शन क्रिया है।' तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार मिथ्यादर्शन
१. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८ :
अजीवे-पाषाणादौ स्खलितस्य प्रद्वेषादजीवप्राद्वेषिकीति । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५:
संयमघातिकर्मोदयवशाद निवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३८:
यच्चाजीवान् जीवकडेवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्च
वस्त्रादीन् वा आरभमाणस्य सा अजीवारम्भिकी। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८:
जीवाजीवपरिग्रहप्रभवत्वात् तस्याः ।
६. तत्त्वार्थवातिक, ६।५:
परिग्रहाविनाशार्था पारिग्राहिकी। ७. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३८:
माया-शाठ्यं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया
व्यापारस्य वा सा तथा । ८. तत्त्वार्थवातिक, ६।५ :
ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया। ६. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३८:
मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथा।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : टि० ४१ की क्रिया करने वाले व्यक्ति को प्रशंसा आदि के द्वारा समर्थन देना, जैसे-तू अच्छा कार्य कर रहा है-मिथ्यादर्शन क्रिया है।
इन दोनों अर्थों में तत्त्वार्थवार्तिक का अर्थ अधिक स्पष्ट होता है। दृष्टिजा और स्पृष्टिजा इन दोनों क्रियाओं के स्थान में तत्त्वार्थवातिक में दर्शनक्रिया और स्पर्शनक्रिया-ये दो क्रियाएं प्राप्त हैं। स्थानांगवृत्ति के अध्ययन से ऐसा लगता है कि इनकी अर्थपरम्परा वृत्तिकार के सामने स्पष्ट नहीं रही है। उन्होंने इन दोनों के अनेक अर्थ किए हैं, जैसेदृष्टिजा दृष्टि से होने वाली क्रिया। वृत्तिकार ने इसका दूसरा अर्थ दृष्टिका किया है। इसका अर्थ है दृष्टि के निमित्त से होने वाली क्रिया । दर्शन के लिए जो गतिक्रिया होती है अथवा दर्शन से जो कर्म का उदय होता है वह दृष्टिजा या दृष्टिका कहलाता है। इसी प्रकार पुट्ठिया के भी उन्होंने पृष्टिजा, पृष्टिका, स्पृष्टिजा और स्पृष्टिका-ये चार अर्थ किए हैं।'
तत्त्वार्थवातिक में दर्शनक्रिया और स्पर्शनक्रिया के अर्थ बहुत स्पष्ट मिलते हैं। दर्शनक्रिया-राग के वशीभूत होकर प्रमादी व्यक्ति का रमणीय रूप देखने का अभिप्राय । स्पर्शनक्रिया-प्रमादवश छूने की प्रवृत्ति।'
तत्त्वार्थवातिक में प्रातीत्यिकीक्रिया का उल्लेख नहीं है। उसमें प्रात्यायिकीक्रिया उल्लिखित है। लगता है कि पडुच्च का ही संस्कृतीकरण प्रत्यय किया गया है। प्रात्यायिकीक्रिया का अर्थ है, नए-नए कलहों को उत्पन्न करना।
सामन्तोपनिपातिकीक्रिया का अर्थ स्थानांगवत्ति और तत्त्वार्थवातिक में आपाततः बहुत ही भिन्न लगता है। स्थानांगवृत्ति के अनुसार सामन्तोपनिपात-जनमिलन में होने वाली क्रिया सामन्तोपनिपातिकी है।
तत्त्वार्थवातिककार ने इसका अर्थ किया है-स्त्री-पुरुष, पशु आदि से व्याप्त स्थान में मलोत्सर्ग करना समन्तानुपातक्रिया है। तत्त्वार्थवातिक में मलोत्सर्ग करने की बात कही है वह प्रस्तुत क्रिया की व्याख्या का एक उदाहरण हो सकता है। स्थानांगवृत्ति में जीवसामन्तोपनिपातिकी और अजीवसामान्तोपनिपातिकी का अर्थ किया है-अपने आश्रित बैल आदि जीव तथा रथ आदि अजीव पदार्थों की जनसमूह से प्रशंसा सुन खुश होना। यह भी एक उदाहरण प्रतीत होता है। वस्तुतः प्रस्तुत क्रिया का आशय यह होना चाहिए कि जीव, अजीव आदि द्रव्यसमूह के संपर्क से होने वाली मानसिक उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति अथवा उनके प्रतिकूल आचरण ।
हरिभद्र सूरि ने समन्तानुपातक्रिया का अर्थ किया है-स्थण्डिल आदि में भक्त आदि विसर्जित करने की क्रिया। यह भी एक उदाहरण के द्वारा उसकी व्याख्या की गई है।
स्वास्तिकी और नेसृष्टिकी क्रिया की व्याख्या दोनों (तत्त्वार्थवातिक और स्थानांगवृत्ति) में समान नहीं है। स्थामांगवृत्ति के अनुसार स्वहस्तक्रिया का अर्थ है-अपने हाथ से निष्पन्न किया। वृत्तिकार ने नेसृष्टिकीक्रिया के दो अर्थ किए हैं---फेंकना और देना।
१. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५:
अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभिढयति
यथा साधु करोषीति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। २, स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६ :
दृष्टेर्जाता दृष्टिजा अथवा दृष्टं-दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिका-दर्शनार्थ या गतिक्रिया, दर्शनाद् वा यत्कर्मोदेति सा दृष्टिजा दृष्टिका वा, तथा 'पुट्ठिया चेव' त्ति पृष्टि:-पृच्छा ततो जाता पृष्टिजा प्रश्नजनितो व्यापारः, अथवा पृष्टं-प्रश्नः वस्तु वा तदस्ति कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिकेति, अथवा स्पृष्टि: स्पर्शनं ततो जाता
स्पृष्टिजा, तथैव स्पष्टिकाऽपीति । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५:
रागार्दीकृतत्वात् प्रमादिनः रमणीयरूपालोकनाभिप्रायो दर्शनक्रिया । प्रमादवशात् स्पृष्टव्यसञ्चेतनानुबन्धः स्पर्शन किया।
४. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५:
अपूर्वाधिकरणोत्पादनात् प्रात्ययिकी क्रिया। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६ :
समन्तात्-सर्वत उपनिपातो-जनमीलकस्तस्मिन् भवा सामन्तोपनिपातिकी। ६. तत्त्वार्थवातिक, ६।५:
स्त्रीपुरुषपशुसंपातिदेशे अन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपात
क्रिया। ७. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६ :
कस्यापि षण्डो रूपवानस्ति तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तो
पनिपातिकीति । ८. तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति, ६।६:
समन्तानुपातक्रिया स्थण्डिलादो भक्तादित्याग क्रिया । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६:
स्वहस्तेन निर्वत्ता स्वाहस्तिको।
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ठाणं (स्थान)
स्थान २: टि० ४१
तत्त्वार्थवातिक और सर्वार्थसिद्धि में नैसृष्टिकीक्रिया के स्थान में निसर्गक्रिया का उल्लेख है । वृत्तिकार ने भी नैसृष्टिकी का वैकल्पिक अर्थ निसर्ग किया है। इस आधार पर नेसग्गिया (नैसर्गिकी) पाठ का भी अनुमान किया जा सकता है।' तत्त्वार्थवातिक में स्वहस्तक्रिया का अर्थ है-दूसरे के द्वारा करने योग्य क्रिया को स्वयं करना। निसर्गक्रिया का अर्थ हैपापादान आदि प्रवृत्ति के लिए अपनी सम्मति देना। अथवा आलस्यवश प्रशस्त क्रियाओं को न करना । श्लोकवार्तिक में भी इसके ये दोनों अर्थ मिलते हैं।
उक्त क्रियाओं के अग्रिम वर्ग में दो क्रियाएं निर्दिष्ट हैं-आज्ञापनिका और वेदारिणी। वैदारिणीक्रिया का दोनों ग्रन्थों में अर्थभेद है, किन्तु आज्ञापनिकाक्रिया में शब्द और अर्थ दोनों का महान भेद है। वृत्तिकार ने 'आणवणिया' पाठ के दो अर्थ किए हैं-आज्ञा देना और मंगवाना।
- तत्त्वार्थवार्तिक में इसके स्थान पर आज्ञाव्यापादिकाक्रिया उल्लिखित है। इसका अर्थ है-चारित्र मोह के उदय से आवश्यक आदि क्रिया करने में असमर्थ होने पर शास्त्रीय आज्ञा का अन्यथा निरूपण करना।
वैदारिणीक्रिया की व्याख्या देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि वृत्तिकार के सामने उसकी निश्चित अर्थ-परंपरा नहीं रही है। इसीलिए उन्होंने विदारण, विचारण और वितारण-इन तीन शब्दों के द्वारा उसकी व्याख्या की है। और 'वेयारणिया' इस पाठ के आधार पर उक्त तीनों शब्दों के द्वारा उसकी व्याख्या की जा सकती है। तत्त्वार्थभाष्य तथा उसकी सभी व्याख्याओं में विदारणक्रिया का उल्लेख मिलता है। और उसका अर्थ किया गया है-दूसरों के द्वारा आचरित निंदनीयकर्म का प्रकाशन । यहां विदारण का अर्थ स्फोट है। इसका तात्पर्य है—गुप्त बात का विस्फोट करना। यह अर्थ विचारण शब्द के द्वारा ही किया जा सकता है।
स्थानांगवत्ति में अनाभोगप्रत्ययाक्रिया का केवल शाब्दिक अर्थ मिलता है। अनाभोगप्रत्ययाक्रिया-अज्ञान के निमित्त से होने वाली क्रिया। इसका आशय तत्त्वार्थस्त्र की व्याख्याओं में मिलता है। अप्रमाजित और अदृष्टभूमि में शरीर, उपकरण आदि रखना अनाभोगप्रत्ययाक्रिया है।
वृत्तिकार ने शाब्दिक व्याख्या से संतोष इसलिए माना है कि उसका आशय मूलसूत्र से ही स्पष्ट हो जाता है। सूत्र पाठ में प्रस्तुत क्रिया के दो भेद निर्दिष्ट हैं। उनमें प्रथम भेद का अर्थ है-असावधानीपूर्वक उपकरण आदि उठाना और द्वितीय भेद का अर्थ है-असावधानीपूर्वक प्रमार्जन करना। इनमें निक्षेप-उपकरण आदि रखने का अर्थ समाहित नहीं है। उसे आदान के द्वारा गृहीत करना सूत्रकार को विवक्षित है-ऐसी संभावना की जा सकती है।
अनवकांक्षाप्रत्ययाक्रिया की व्याख्या वृत्तिकार ने सूत्रपाठ के आधार पर की है। उसका आशय है-स्व या पर शरीर से निरपेक्ष होकर किया जाने वाला क्षतिकारीकर्म । तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्याओं में इसका अर्थ भिन्न मिलता है। उनके
१. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३६ :
निसर्जनं निसृष्टं, क्षेपणमित्यर्थः, तत्र भवा तदेव वा नैसृष्टिकी,
निसृजतो यः कर्मबन्धः इत्यर्थः, निसर्ग एव । २. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५ :
यां परेण निर्वत्या क्रियां स्वयं करोति सा स्वहस्तक्रिया । ३. तत्त्वार्थवातिक, ६५:
पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया। आलस्याद्वा
प्रशस्तक्रियाणामकरणम् । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५:
पापप्रवृत्ता बन्येषामभ्यनुज्ञानमात्मना ।
स्यान्निसर्गक्रियालस्याद्कृति र्वा सुकर्मणाम् ।। ५. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३६ :
आज्ञापनस्य-आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी सेवाज्ञापनिका तज्ज, कर्मबन्धः, आदेशनमेव वेति, आनायनं वा आनायनी।
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६ :
विदारणं विचारणं वितारणं वा स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद वैदा
रिणीत्यादि वाच्यमिति। ७. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५:
पराचरित सावद्यादिप्रकाशनं विदारण क्रिया। ८. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४० :
अनाभोग:-अज्ञानं प्रत्ययो-निमित्त यस्याः सा तथा। ६. (क) तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५ :
अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादि निक्षेपोऽनाभोग क्रिया। (ख) तत्त्वार्थसूत्र, ६६ भाष्यानुसारिणी टीका :
अनाभोगक्रिया अप्रत्यवेक्षिता प्रमाजिते देशे शरीरोपकरणनिक्षेपः। १०. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६ :
अनवकांक्षा-स्वशरीराधनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकांक्षाप्रत्यया।
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ठा. (स्थान)
११६
अनुसार इसका अर्थ है— शठता और आलस्य के कारण शास्त्रोपदिष्ट विधि-विधानों का अनादर करना' ।
क्रियाओं के तुलनात्मक अध्ययन से दो निष्कर्ष हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं
१. क्रियाओं के व्याख्यान की दो परम्परा रही हैं । एक परम्परा आगमिक व्याख्या के परिपार्श्व की है, जिसका अनुसरण स्थानांग के वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने किया है और दूसरी परम्परा तत्त्वार्थभाष्य के आधार पर विकसित हुई है। इस परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के आचार्य लगभग एक रेखा पर चले हैं। सर्वार्थसिद्धि के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी, तत्त्वार्यवार्तिक के कर्ता आचार्य अकलङ्क श्लोकवार्तिक के कर्ता आचार्य विद्यानंद – ये तीनों दिगम्बर आचार्य हैं। इनका एक रेखा पर चलना आश्चर्य की बात नहीं, किन्तु तत्त्वार्थटीका के कर्ता हरिभद्र सूरि और भाष्यानुसारिणीटीका के कर्ता सिद्धसेन गणी – ये दोनों श्वेताम्बर आचार्य हैं, फिर भी इन्होंने व्याख्या की एकरूपता का निर्वाह किया है । सिद्धसेन गणी ने तत्त्वार्थ की व्याख्याओं का अनुसरण करते हुए भी स्थानांगंवृत्तिगत व्याख्या के प्रति जागरूक रहे हैं।
२. तत्त्वार्थवार्तिक में पचीस क्रियाओं के नाम निर्देश हैं, वे स्थानांग निर्दिष्ट नामों से कहीं-कहीं भिन्न भी हैं, जैसे— स्थानांग
तत्त्वार्थ सूत्र
जीवक्रिया
सम्यक्त्व, मिथ्यात्व
ईर्याथ
कायिकीक्रिया
आधिकरिणिकीक्रिया
प्रादोषिकीक्रिया
पारितापिकीक्रिया
प्राणातिपातिकीक्रिया
अप्रत्याख्यानक्रिया
अजीव क्रिया
कायिकी क्रिया
अधिकरणिकी क्रिया
प्रादोषिकीक्रिया
पारितापनिकी क्रिया
प्राणातिपातक्रिया
अप्रत्याख्यानक्रिया
आरम्भिकीक्रिया
पारिग्रहिकी क्रिया
मायाप्रत्ययाक्रिया
मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया
दृष्टिजाकिया
स्पृष्टिजाक्रिया
प्रातीत्यिकी क्रिया
सामन्तोपनिपातिकी क्रिया
स्वास्तिकी क्रिया
नैसृष्टिकी क्रिया
आज्ञापनिका क्रिया
वैदारिणी क्रिया
अनवकांक्षाप्रत्ययाक्रिया
अनाभोगप्रत्ययाक्रिया
प्रेयस् प्रत्ययाक्रिया दोषप्रत्ययाक्रिया
X
X
१. ( क ) तत्त्वार्थवार्तिक, ६ ५:
शाठ्यालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादर :
आरम्भक्रिया
पारिग्रहिकी क्रिया
मायाक्रिया
मिथ्यादर्शन क्रिया
दर्शनक्रिया
स्पर्शनक्रिया
प्रात्यायिकीक्रिया
सामन्तानुपात क्रिया
स्वाहस्तक्रिया
निसर्गक्रिया
स्थान २ : टि० ४१
आज्ञाव्यापादिकाक्रिया
विदारणक्रिया
अनाकांक्षाक्रिया
अनाभोगक्रिया
X X समादान
प्रयोग
taraiक्षत्रिया |
(ख) तत्त्वार्थ सूत्र, ६६, भाष्यानुसारिणी टीका ।
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ठाणं (स्थान)
४२ --- (सू० ३८ )
गर्हा का अर्थ है - दुश्चरित के प्रति कुत्सा का भाव। यह प्रायश्चित्त का एक प्रकार है। साधन की अपेक्षा से गर्दा के
दो भेद हैं
१२०
१. मानसिक गर्दा ।
२. वाचिक गर्दा ।
किसी के मन में गर्दा के भाव जागते हैं और कोई वाणी के द्वारा गर्दा करते हैं ।
काल की अपेक्षा से भी उसके दो प्रकार होते हैं
१. दीर्घकालीन गर्हा ।
२. अल्पकालीन ग |
सूत्रकार ने तीसरे स्थान में गर्हा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रकार निर्देशित किया है। वह है काय का प्रतिसंहरण | इसका अर्थ है - दुबारा अकरणीय कार्य में प्रवृत्त न होना। कोई आदमी अकरणीय की गर्हा भी करता जाए और उसका आचरण भी करता जाए, यह वस्तुतः गर्हा नहीं है । वास्तविक गर्हा है - अकरणीय का अनावरण' ।
४३ विद्या और चरण (सू० ४० )
मोक्ष की उपलब्धि के साधनों के विषय में सब दार्शनिक एकमत नहीं रहे हैं। ज्ञानवादी दार्शनिकों ने ज्ञान को मोक्ष का साधन माना है, और क्रियावादी दार्शनिकों ने क्रिया को और भक्तिमार्ग के अनुयायियों ने भक्ति को । जैनदर्शन अनेकान्तवादी है, इसलिए वह ऐकान्तिक दृष्टि से न ज्ञानवादी है, न क्रियावादी है और न भक्तिवादी ही । उसके मतानुसार ज्ञान, किया और भक्ति का समन्वय ही मोक्ष का साधन है। प्रस्तुत सूत्र में विद्या और चरण इन दो शब्दों के द्वारा उसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।
उत्तराध्ययन (२८१२) में मोक्ष के चार मार्ग बतलाए गए हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । इन्हें क्रमशः ज्ञानयोग, भक्तियोग, आचारयोग और तपोयोग कहा जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में मार्ग चतुष्टयी का संक्षेप है। विद्या में ज्ञान और दर्शन तथा चरण में चारित्र और तप समाविष्ट होते हैं। उमास्वाति का प्रसिद्ध सूत - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः - इन्हीं दोनों के आधार पर संचरित है।
स्थान २ : टि० ४२ - ५०
४४-५० ( सू० ७६-८५ )
दर्शन का सामान्य अर्थ होता है- दृष्टि, देखना। उसके पारिभाषिक अर्थ दो होते हैं, सामान्यग्राहीबोध और
तत्त्वरुचि ।
बोध दो प्रकार का होता है
१. विशेषग्राही, २. सामान्यग्राही ।
विशेषग्राही को ज्ञान और सामान्यग्राही को दर्शन कहा जाता है।
प्रस्तुत प्रकरण में दर्शन का अर्थ तत्त्वरुचि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दर्शन दो प्रकार का होता है
१. सम्यग्दर्शन -- वस्तु सत्य के प्रति यथार्थश्रद्धा ।
२. मिथ्यादर्शन -- वस्तु सत्य के प्रति अयथार्थ श्रद्धा ।
उत्पत्ति की दृष्टि से सम्यक दर्शन दो प्रकार का होता है
१. निसर्ग सम्यक दर्शन - आत्मा की सहज निर्मलता से उत्पन्न होने वाला ।
१. स्थानांग, ३।२६ ।
२. सम्मतिप्रकरण २।१ जं सामण्णग्गहणं, दंसणमेयं विसेसियं णाणं ।
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ठाणं (स्थान)
१२१
स्थान २ : टि० ५१
२. अभिगमसम्यक्दर्शन-शास्त्र अध्ययन अथवा उपदेश से उत्पन्न होने वाला। ये दोनों प्रतिपाती और अप्रतिपाती दोनों प्रकार के होते हैं । मिथ्यादर्शन भी दो प्रकार का होता है१. आभिग्रहिक-आग्रहयुक्त। २. अनाभिनहिक-सहज ।
कुछ व्यक्ति आग्रही होते हैं। वे जिस बात को पकड़ लेते हैं उसे छोड़ना नहीं चाहते। कुछ व्यक्ति आग्रही नहीं होते किन्तु अज्ञान के कारण किसी भी बात पर विश्वास कर लेते हैं। प्रथम प्रकार के व्यक्ति न केवल मिथ्यादर्शन वाले होते हैं किन्तु उनमें अयथार्थ के प्रति आग्रह भी उत्पन्न हो जाता है। उनकी सत्यशोध की दृष्टि विलुप्त हो जाती है। वे जो मानते हैं उससे भिन्न सत्य हो सकता है, इस सम्भावना को वे स्वीकार नहीं करते।
दूसरे प्रकार के व्यक्तियों में स्व-सिद्धान्त के प्रति आग्रह नहीं होता, इसलिए उनमें सत्य-शोध की दृष्टि शीघ्र विकसित हो सकती है।
आग्रह और अज्ञान-ये दोनों काल-परिपाक और समुचित निमित्तों के मिलने पर दूर हो सकते हैं और उनके न मिलने पर वे दूर नहीं होते, इसीलिए उन्हें सपर्यवसित और अपर्यवसित दोनों कहा गया है।
निसर्गसम्यगदर्शन जैसे सहज होता है, वैसे अनाभिग्रहिकमिथ्यादर्शन भी सहज ही होता है। अभिगमसम्यग्दर्शन उपदेश या अध्ययन से प्राप्त होता है, वैसे ही आभिग्रहिकमिथ्यादर्शन भी उपदेश या अध्ययन से प्राप्त होता है। इन दोनों में स्वरूप-भेद है, किन्तु उत्पन्न होने की प्रक्रिया दोनों की एक है।
५१-प्रत्यक्ष-परोक्ष (सू० ८६)
इन्द्रिय आदि साधनों की सहायता के बिना जो ज्ञान केवल आत्ममात्रापेक्ष होता है, वह 'प्रत्यक्ष ज्ञान' कहलाता है। अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-ये तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं।
इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान परोक्ष होता है । मति, श्रुत-ये दो ज्ञान परोक्ष हैं ।
स्वरूप की अपेक्षा सब ज्ञान स्पष्ट होता है। प्रमाण के स्पष्ट और अस्पष्ट ये लक्षण बाहरी पदार्थों की अपेक्षा से किए जाते हैं। बाह्य पदार्थों का निश्चय करने के लिए जिसे दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती, वह ज्ञान स्पष्ट कहलाता है
और जिसे ज्ञानान्तर की अपेक्षा रहती है, वह अस्पष्ट । परोक्ष प्रमाण में दूसरे ज्ञान की आवश्यकता रहती है, जैसे-स्मृतिज्ञान धारण की अपेक्षा रखता है, प्रत्यभिज्ञान अनुभव और स्मृति की, तर्क व्याप्ति की, अनुमान हेतु की तथा आगम शब्द और संकेत आदि की अपेक्षा रखता है, इसलिए वह अस्पष्ट है। दूसरे शब्दों में जिसका ज्ञेय पदार्थ निर्णय काल में छिपा हुआ रहता है, उस ज्ञान को अस्पष्ट या परोक्ष कहते हैं। जैसे-स्मृति का विषय स्मृतिकर्ता के सामने नहीं रहता। प्रत्यभिज्ञान का भी 'वह' इतना विषय अस्पष्ट रहता है। तर्क में निकालकलित साध्य-साधन अर्थात् त्रिकालीन सर्व धूम और अग्नि प्रत्यक्ष नहीं रहते। अनुमान का विषय अग्निमान प्रदेश सामने नहीं रहता। आगम के विषय मेरु आदि अस्पष्ट रहते हैं।
अवग्रह आदि को आत्ममानापेक्ष न होने के कारण जहां परोक्ष माना जाता है, वहां उसके मति और श्रुत-ये दो भेद किए जाते हैं और जहां लोक-व्यवहार से अवग्रह आदि को सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष की कोटि में रखा जाता है, वहां परोक्ष के स्मृति आदि पांच भेद किए जाते हैं।
आगम-साहित्य में ज्ञान का वर्गीकरण दो प्रकार का मिलता है। एक वर्गीकरण नन्दीसूत्र का और दूसरा वर्गीकरण
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ठाणं (स्थान)
१२२
स्थान २: टि०५१
स्थानांग का है। स्थानांग में ज्ञान का वर्गीकरण इस प्रकार है
ज्ञान
1
प्रत्यक्ष
परोक्ष
केवलज्ञान
नो-केवलज्ञान
अवधिज्ञान
मनःपर्यवज्ञान
भवप्रत्ययिक क्षायोपशमिक ऋजुमति विपुलमति
आभिनिबोधिक
श्रुतज्ञान
श्रुतनिश्रित
अश्रुतनिश्रित
अंग प्रविष्ट
अंगबाह्य
अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह
आवश्यक
आवश्यक व्यतिरिक्त
कालिक
उत्कालिक
नंदी सूत्र में ज्ञान का वर्गीकरण इस प्रकार है
ज्ञान
प्रत्यक्ष
परोक्ष
इन्द्रिय प्रत्यक्ष
नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष
श्रोनेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय
अवधिज्ञान
मनःपर्यवज्ञान
केवलज्ञान
भवप्रत्ययिक
क्षायोपशमिक ऋजुमति
विपुलमति
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ठाणं (स्थान)
१२३
स्थान २: टि०५२
परोक्ष
आभिनिबोधिक
श्रुतज्ञान
श्रुतनिश्रित
अश्रुतनिश्रित
औत्पत्तिको वैनायकी कार्मिको
औत्पत्तिकी
वैनयिकी
कार्मिकी
परिणामिकी
पारिणामिकी
अवग्रह
ईहा
अवाय धारणा
अर्थावग्रह
व्यञ्जनावग्रह
श्रोनेन्द्रियव्यञ्जन० चक्षु०
घ्राणे
रसने
स्पर्शने.
श्रोत्रे ईहा
चक्षु० ईहा
घ्राणे० ईहा
जिह्व० ईहा
स्पर्श० ईहा
नोइंदिय ईहा
इसी प्रकार अवाय और धारणा के प्रकार हैं।
५२ (सू० १०१)
श्रुत-निश्रित-जो विषय पहले श्रुत शास्त्र के द्वारा ज्ञात हो, किन्तु वर्तमान में श्रुत का आलम्बन लिये बिना ही उसे जानना श्रुत-निथित अभिनिबोधिकज्ञान है, जैसे-किसी व्यक्ति ने आयुर्वेदशास्त्र का अध्ययन कर यह जाना कि निफला से कोष्ठ बद्धता दूर होती है। जब कभी वह कोष्ठ बद्धता से ग्रस्त होता है तब उसे त्रिफला-सेवन की बात सूझ जाती है। उसका यह ज्ञान श्रुत-निश्रित आभिनिबोधिकज्ञान है।
अश्रुत-निश्रित--जो विषय श्रुत के द्वारा नहीं किन्तु अपनी सहज विलक्षण-बुद्धि के द्वारा जाना जाए वह अश्रुतनिश्रित आभिमनिबोधिकज्ञान है।
नंदी में जो ज्ञान का वर्गीकरण है, उसके अनुसार श्रुत-निश्रित आभिनिबोधिकज्ञान के २८ प्रकार हैं।' तथा अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान के ४ प्रकार हैं
औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कामिकी और पारिणामिकी।
१. नंदीसूत्र, ४०-४६ । २. नंदीसूत्र, ३६।
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ठाणं (स्थान)
५३-५४ (सू० १०२-१०३ )
अवग्रह इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान क्रम में पहला अंग है । अनिर्देश्य (जिसका निर्देश न किया जा सके ) सामान्य धर्मात्मक अर्थ के प्रथम ग्रहण को अर्थावग्रह कहा जाता है' । अर्थ शब्द के दो अर्थ हैं- द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य और विशेष । अर्थावग्रह का विषय किसी भी शब्द के द्वारा कहा नहीं जा सकता। इसमें केवल 'वस्तु है' का ज्ञान होता है। इससे वस्तु के स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया आदि की शाब्दिक प्रतीति नहीं होती ।
उपकरण इन्द्रिय के द्वारा इन्द्रिय के विषयभूत द्रव्यों के ग्रहण को व्यञ्जनावग्रह कहा जाता है। क्रम की दृष्टि से पहले व्यञ्जनावग्रह, फिर अर्थावग्रह होता है। अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों का होता है जबकि व्यञ्जनावग्रह चार इन्द्रियों का होता है । चक्षु और मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता । उत्तरवर्ती न्याय ग्रन्थों में व्यञ्जनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह का उल्लेख किया गया है। नंदी तथा प्रस्तुत सूत्र से उसका व्युत्क्रम मिलता है। यह किस दृष्टि से किया गया, इस विषय में वृत्तिकार ने चर्चा नहीं की है, फिर भी वृत्ति से यह फलित होता है कि अर्थावग्रह प्रत्यक्ष को मुख्य मानकर सूत्रकार ने उसे प्रथम स्थान दिया है । नंदी के अनुसार अवग्रह आदि केवल श्रुत निश्रित मति के ही प्रकार हैं। स्थानांग के अनुसार अवग्रह hai ( श्रुतनिश्रित और अश्रुत निश्रित) का होता है । वृत्तिकार ने अश्रुत निश्रित मति के दो प्रकार बतलाए हैं
१. श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उत्पन्न ।
२. औत्पत्तिकी आदि बुद्धि-चतुष्टय |
प्रथम प्रकार में अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह दोनों होते हैं। दूसरे प्रकार में केवल अर्थावग्रह होता है, क्योंकि व्यञ्जनवग्रह इन्द्रिय-आश्रित होता है। बुद्धि-चतुष्टय मानस ज्ञान है, इसलिए वहां व्यञ्जनावग्रह नहीं होता" । व्यञ्जनावग्रह की इस अव्यापकता और गौणता को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने प्राथमिकता अर्थावग्रह को दी ऐसी सम्भावना की जा सकती है।
५५ - सूक्ष्म - बादर ( सू० १२३ )
१२४
अर्थावग्रह निर्णयोन्मुख होता है, तब यह प्रमाण माना जाता है और जब निर्णयोन्मुख नहीं होता तब वह अनध्यवसाय - अनिर्णायक ज्ञान कहलाता है ।
अर्थावग्रह के दो भेद और हैं—नैश्चयिक और व्यावहारिक । नैश्चयिक अर्थावग्रह का कालमान एक समय और व्यावहारिक अर्थावग्रह का कालमान अन्तर्मुहूर्त्त माना गया है । अर्थावग्रह के छः प्रकार प्रस्तुत आगम ( ६६८ ) में बतलाए गए हैं।
सूक्ष्म का अर्थ है छोटा और बादर का अर्थ है स्थूल ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७ :
अयंते-अधिगम्यतेऽय्यंते वा अन्विष्यत इत्यर्थः, तस्य सामान्यरूपस्य अशेषविशेष निरपेक्षा निर्देश्यस्य रूपादेरव ग्रहणं -- प्रथमपरिच्छेदनमर्थावग्रह इति ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७ :
व्यज्यतेऽनेनार्थ: प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं तच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादित्वपरिणत द्रव्यसंघातो वा ततश्च व्यञ्जनेन उपकरणेन्द्रियेण शब्दादित्वपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहो, व्यञ्जनावग्रह इति ।
३. नंदी सूत्र ४० :
स्थान २ : टि० ५३-५५
से कि तं उग्गहे ?
उहे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा -
अग
जय ।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७ :
अर्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहभेदेनाश्रुत निश्रितमपि द्विधैवेति, इदं च श्रोत्रादिप्रभवमेव, यत्तु औत्पत्तिक्याद्यश्रुतनिश्रितं तत्रार्थावग्रहः सम्भवति, यदाह
किह पडिकुक्कुडहीणो, जुज्झे बिबेण उग्गहो ईहा । कि सुसिलिट्ठमवाओ, दप्पणसंकेत बिबंति ॥
न तु व्यञ्जनावग्रहः, तस्येन्द्रियाश्रितत्वात् बुद्धीनां तु मानसत्वात् ततो बुद्धिभ्योऽन्यत्त व्यञ्जनावग्रहो मन्तव्य इति ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३५१ ।
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ठाणं (स्थान)
१२५
स्थान २: टि० ५६-६३
यहां सूक्ष्म और बादर आपेक्षिक नहीं है, जैसे चने की तुलना में गेहूं सूक्ष्म और राई की तुलना में वह स्थूल होता है। यहां सूक्ष्मता और स्थूलता कर्मशास्त्रीय परिभाषा द्वारा निश्चित है। जिन जीवों के सूक्ष्मनामकर्म का उदय होता है वे सूक्ष्म और जिन जीवों के बादरनामकर्म का उदय होता है वे बादर कहलाते हैं । सूक्ष्म जीव समूचे लोक में व्याप्त होते हैं और बादर जीव लोक के एक भाग में रहते हैं। सूक्ष्म जीव इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं होते। बादर जीव इन्द्रियों तथा बाह्य उपकरण-सामग्री द्वारा गृहीत होते हैं। ५६ पर्याप्तक-अपर्याप्तक (सू० १२८)
जन्म के आरम्भ में प्राप्त होने वाली पौद्गलिक शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। वे छः हैं । जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों से युक्त होते हैं वे पर्याप्तक कहे जाते हैं।
जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न कर पाए हों, वे अपर्याप्तक कहे जाते हैं।
५७ परिणत, अपरिणत (सू० १३३)
प्रस्तुत छः सूत्रों में परिणत और अपरिणत का तत्त्व समझाया गया है। परिणत का अर्थ है-वर्तमान परिणति (पर्याय) से भिन्न परिणति में चले जाना और अपरिणत का अर्थ है- वर्तमान परिणति में रहना । इनमें पूर्ववर्ती पांच सूत्रों का सम्बन्ध पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय से है और छठे सूत्र का सम्बन्ध द्रव्य मात्र से है। पृथ्वीकाय आदि परिणत और अपरिणत दोनों प्रकार के होते हैं- इसका अर्थ है कि वे सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार के होते हैं।
५८-६३ (सू० १५५-१६०)
शारीरिक दृष्टि से जीव छः प्रकार के होते हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । विकासक्रम के आधार पर वे पांच प्रकार के होते हैं
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंरेन्द्रिय ।
इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान शरीर-रचना से सम्बन्ध रखता है। जिस जीव में इन्द्रिय और मानसज्ञान की जितनी क्षमता होती है, उसी के आधार पर उनकी शरीर-रचना होती है और शरीर-रचना के आधार पर ही उस ज्ञान की प्रवत्ति होती है। प्रस्तुत आलापक में शरीर-रचना और इन्द्रिय तथा मानसज्ञान के विकास का सम्बन्ध प्रदर्शित है
जीव
बाह्य शरीर (स्थूल शरीर)
इन्द्रिय ज्ञान
१. एकेन्द्रिय-(पृथिवी, अप्, तेजस्, (औदारिक)
स्पर्शनज्ञान वायु, वनस्पति) २. द्वीन्द्रिय
औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) । ३. त्रीन्द्रिय
औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) | घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान ४. चतुरिन्द्रिय
औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) चक्ष, घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान ५. पंचेन्द्रिय (तियंच)
औदारिक (अस्थिमांस शोणित स्नायु । श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान
शिरायुक्त) ६. पंचेन्द्रिय (मनुष्य)
औदारिक (अस्थिमांस शोणित स्नायु श्रोत्र, चक्ष, घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान शिरायुक्त)
१. उत्तराध्ययन, ३६।७८ :
सुहुमा सवलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा।
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ठाणं (स्थान)
१२६
स्थान २: टि०६४-६५
६४– विग्रहगति (सू० १६१)
जीव की एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय बीच में होने वाली गति दो प्रकार की होती है-ऋजु और विग्रह (वक्र)।
ऋजु गति एक समय की होती है । मृत जीव का उत्पत्ति-स्थान विश्रेणि में होता है तब उसकी गति विग्रह (वक्र) होती है । इसीलिए वह दो से लेकर चार समय तक की होती है। जिस विग्रहगति में एक घुमाव होता है उसका कालमान दो समय का, जिसमें दो घुमाव हों उसका कालमान तीन समय का और जिसमें तीन घुमाव हों उसका कालमान चार समय का होता है।
६५ (सू० १६८)
प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द विवेचनीय हैं । वे ये है१. शिक्षा-इसके दो प्रकार हैंग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा। ग्रहणशिक्षा-सूत्र और अर्थ का ग्रहण करना। आसेवनशिक्षा-प्रतिलेखन आदि का प्रशिक्षण लेना। २. भोजनमंडली–प्राचीनकाल में साधुओं के लिए सात मंडलियां होती थीं'
१. सूत्रमंडली। २. अर्थमंडली। ३. भोजनमंडली। ४. कालप्रतिलेखनमंडली। ५. आवश्यक (प्रतिक्रमण) मंडली। ६. स्वाध्यायमंडली।
७. संस्तारकमंडली। ३. उद्देश-यह अध्ययन तुम्हें पढ़ना चाहिए-गुरु के इस निर्देश को उद्देश कहा जाता है।
४. समुद्देश-शिष्य भली-भाँति पाठ पढ़कर गुरु को निवेदित करता है। गुरु उस समय उसे स्थिर, परिचित करने का निर्देश देते हैं । यह निर्देश समुद्देश कहलाता है।
५. अनुज्ञा-पढ़े हुए पाठ के स्थिर परिचित हो जाने पर शिष्य फिर उसे गुरु को निवेदित करता है । इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर गुरु उसे सम्यक् प्रकार से धारण करने और दूसरों को पढ़ाने का निर्देश देते हैं । इस निर्देश को अनुज्ञा कहा जाता है।
६. आलोचना-गुरु को अपनी भूलों का निवेदन करना। ७. व्यतिवर्तन-अतिचारों के क्रम का विच्छेदन करना।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५२ :
विग्रहगतिः-वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात् । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५३ । ३. प्रवचनसारोद्धार, पत्र १६६ । ४. अनुयोगद्वारवृत्ति, पत्र ३ :
इदमध्ययनादि त्वया पठितव्यमिति गुरुवचनविशेष उद्देशः।
५. अनुयोगद्वारवृत्ति, पत्र ३ :
तस्मिन्नेव शिष्येण अहीनादिलक्षणोपेतेऽधीते गुरो निवेदिते स्थिरपरिचितं कुर्विदमिति गुरुचक्नविशेष एव
समुद्देशः । ६. अनुयोगद्वारवृत्ति, पन्न ३ :
तथा कृत्वा गुरोनिवेदिते सम्यगिदं धारयाभ्यांश्वाध्यापयेति तद्वचनविशेष एवानुज्ञा।
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ठाणं (स्थान)
१२७
स्थान २:टि० ६६-७६
६६ प्रायोपगत अनशन (सू० १६६)
प्रायोपगत अनशन-देखें, उत्तराध्ययन, ३०/१२-१३ का टिप्पण।
६७ कल्प में उपपन्न (सू० १७०)
सौधर्म से लेकर अच्युत तक के बारहदेवलोक कल्प कहलाते हैं। इनमें स्वामी, सेवक आदि का कल्प (व्यवस्था) होता है, इसलिए इनमें उपपन्न होने वाले देवों को कल्पोपपन्न कहा जाता है।
६८ विमान में उपपन्न (सू० १७०)
नववेयक और पांच अनुत्तरविमान में उपपन्न होने वाले देव कल्पातीत होते हैं। इनमें स्वामी, सेवक आदि का कल्प नहीं होता, अतएव वे कल्पातीत कहलाते हैं । ये सब अवलोक में होते हैं।
६६ चार में उपपन्न (सू ० १७०)
चार का अर्थ है-ज्योतिश्चक्र। इसमें उत्पन्न होने वाले देवों को चारोपपन्न कहा जाता है।
७० चार में स्थित (सू० १७०)
समयक्षेत्र के बाहर रहने वाले ज्योतिष्क देव ।
७१ गतिशील (सू० १७०)
समयक्षेत्र के भीतर रहने वाले ज्योतिष्क देव ।
७२ मनुष्यों के (सू० १७२)
___ सूत्रकार स्वयं मनुष्य है, अतः उन्होंने मनुष्य के सूत्र में 'तत्थ' के स्थान में 'इह' का प्रयोग किया है। ७३ तिर्यंच (सू० १७४)
यहां पंचेन्द्रिय का ग्रहण इसलिए नहीं किया गया है कि देव अपने स्थान से च्युत होकर पृथ्वी, अप् और वनस्पतिइन एकेन्द्रिय योनियों में भी जा सकते हैं।
७४-७५ गतिसमापनक-अगतिसमापन्नक (सू० १७६)
गति का अर्थ होता है—जाना। यहां गति शब्द का अर्थ है, जीव का एक भव से दूसरे भव में जाना। गतिसमापन्नक-अपने-अपने उत्पत्ति-स्थान की ओर जाते हुए। अगतिसमापन्नक-अपने-अपने भव में स्थित ।
७६ (सू० १८१)
आहार तीन प्रकार के होते हैं१. ओजआहार। २. लोमआहार। ३. प्रक्षेपआहार (कवलआहार)।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि० ७७
उत्पत्ति के समय सर्वप्रथम जो आहार ग्रहण करता है उसे ओज आहार कहते हैं । यह आहार सब अपर्याप्तक
जीव लेते हैं ।
शरीर के रोमकूपों के द्वारा बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किया जाता है, उसे लोम आहार कहते हैं। यह सभी जीवों के द्वारा लिया जाता है ।
कवल के द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है, उसे प्रक्षेप या कवल आहार कहते हैं । एकेन्द्रिय, देव और नरक के जीव कवल आहार नहीं करते। शेष सभी ( मनुष्य और तिर्यंच) जीव कवल आहार करते हैं।
जो जीव तीन आहारों में से किसी भी आहार को लेता है वह आहारक और जो किसी भी आहार को नहीं लेता वह अनाहारक होता है।
सिद्ध अनाहारक होते हैं । संसारी जीवों में अयोगी केवली अनाहारक होते हैं। सयोगी केवली समुद्घात के समय तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारक होते हैं ।
मोक्ष में जाने वाले जीव अन्तरालगति के समय सूक्ष्म तथा स्थूल सब शरीरों से मुक्त होते हैं, अतः उन्हें आहार लेने की आवश्यकता नहीं होती। संसारी जीव सूक्ष्म शरीर सहित होते हैं, अतः उन्हें आहार की आवश्यकता होती है।
ऋजुगति करने वाले जीव जिस समय में पहला शरीर छोड़ते हैं, उसी समय में दूसरे जन्म में उत्पन्न होकर आहार लेते हैं । किन्तु वक्रगति करने वाले जीवों की दो समय की एक घुमाव वाली, तीन समय की दो घुमाव वाली और चार समय की तीन घुमाव वाली वक्रगति में अनाहारक स्थिति पाई जाती है। दो समय वाली वक्रगति में पहला समय अनाहारक और दूसरा समय आहारक होता है। तीन समय वाली वक्रगति में पहला और दूसरा समय अनाहारक और तीसरा समय आहारक होता है । चार समय वाली वक्रगति में दूसरा और तीसरा समय अनाहारक तथा पहला और चौथा समय आहारक होता है।
७७ - ( सू० १८५) विकलेन्द्रिय
सामान्यतः विकलेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का ही ग्रहण होता है, किन्तु यहाँ एकेन्द्रिय का भी ग्रहण किया गया है। यहां 'विकल' शब्द 'अपूर्ण' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस सूत्र में संज्ञी और असंज्ञी का कथन पूर्वजन्म की अवस्था की प्रधानता से हुआ है। जो असंज्ञी जीव नारक आदि के रूप में उत्पन्न होते हैं वे अपनी पूर्वावस्था के कारण असंज्ञी कहे जाते हैं। असंज्ञी जीव नारक से व्यन्तर तक के दंडकों में ही उत्पन्न होते हैं, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में नहीं होते ।
संज्ञ
दसवें स्थान में संज्ञा के दस प्रकार बतलाए गए हैं। उन संज्ञाओं के कारण सभी जीव संज्ञी होते हैं, किन्तु यहां संज्ञी संज्ञाओं के सम्बन्ध से विवक्षित नहीं है। यहां संज्ञी का अर्थ समनस्क है । इस संज्ञा का सम्बन्ध कालिकोपदेशिकी संज्ञा से है | नंदी सूत्र में तीन प्रकार के संज्ञी निर्दिष्ट हैं-
कालिकोपदेशेन संज्ञी, हेतुवादोपदेशेन संज्ञी, दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी' । प्रस्तुत प्रकरण में कालिकोपदेशेन संज्ञी विवक्षित है । जिस व्यक्ति में ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श प्राप्त होता है, वह कालिकोपदेशेन संज्ञी होता है । कोपदेशिकी संज्ञा के द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमान वैकालिक ज्ञान होता है, इसलिए इसकी मूल संज्ञा दीर्घकालिकी है। हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीव इष्ट विषय में प्रवृत्त और अनिष्ट विषय में निवृत्त होते हैं, अतः उनका ज्ञान वर्तमाना
१. नंदी, सूत्र ६१ :
से कि तं सणि सुयं ?
सष्णिसुयं तिविहं पण्णत्तं तं जहा
कालिओवरसेणं हे वएसेणं दिट्ठिवाओवसएसेणं ।
२. नंदी, सूत्र ६२ :
से किं तं कालिओवएसेणं ?
कालिओवएसेणं - जस्स णं अत्थि ईद्दा, अपोहो, मग्गणा, गवसणा, चिन्ता, वीमंसा -- सेणं सण्णीति लब्भइ ।
३. नंदीवृत्ति पत्र १८६ :
इह दीर्घकालिक संज्ञा कालिकीति व्यपदिश्यते आदिपदलोपादुपदेशेनमुपदेशः – कथनमित्यर्थः दीर्घकालिक्या उपदेश: दीर्घकालिक्युपदेशः ।
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ठाणं (स्थान)
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वलम्बी होता है । ज्ञान की विशिष्टता के आधार पर दीर्घकालिकी संज्ञा का नाम मनोविज्ञान है' ।
७८ (सू० १८६)
ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की स्थिति असंख्येय काल की होती है अतः इस आलापक में उन्हें छोड़ा गया है।
७६ अधोवधि (सू० १६३ )
अवधि ज्ञान के ११ द्वार हैं-भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर, बाह्य, देश, सर्व, वृद्धि, हानि, प्रतिपाति और अप्रतिपाति ।
इन ग्यारह द्वारों में देश और सर्व दो द्वार हैं। देशावधि का अर्थ है --अवधि ज्ञान द्वारा प्रकाशित वस्तुओं के एक देश (अंश) को जानना ।
सर्वावधि का अर्थ है-अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित वस्तुओं के सर्व देश (सभी अंशों) को जानना' ।
प्रज्ञापना (पद ३३) में अवधिज्ञान के ये दो प्रकार मिलते हैं -- देशावधि और सर्वावधि । जयधवला में अवधिज्ञान के तीन भेद किए गए हैं- देशावधि, परमावधि और सर्वावधि | देशावधि से परमावधि और परमावधि से सर्वावधि का विषय व्यापक होता है | आचार्य अकलंक के अनुसार परमावधि का सर्वावधि में अन्तर्भाव होता है, अतः वह सर्वावधि की तुलना में देशावधि ही है । इस प्रकार अवधि के मुख्य भेद दो ही हैं - देशावधि और सर्वावधि |
अधोवधि देशावधि का ही एक नाम है। देशावधि परमावाध व सर्वावधि से अधोवर्ती कोटि का होता है, इसलिए यहां देशraft के लिए अवधि का प्रयोग किया गया है। अधोवधिज्ञान जिसे प्राप्त होता है उसे भी अधोवधि कहा गया है। अवधि का फलितार्थ होता है, नियत क्षेत्र को जानने वाला अवधिज्ञानी' ।
८०
( सू० १६६ )
वृत्तिकार ने केवलकल्प के तीन अर्थ किए हैं।
केवलकल्प- १. अपना कार्य करने की सामर्थ्य के कारण परिपूर्ण ।
२. केवलज्ञान की भांति परिपूर्ण ।
३. सामयिकभाषा ( आगमिक संकेत) के अनुसार केवलकल्प अर्थात् परिपूर्ण' ।
प्रस्तुत प्रसंग में यह बताया गया है कि अधोवधि पुरुष सम्पूर्ण लोक को जानता देखता है ।
तत्त्वार्थवार्तिक में भी देशावधि का क्षेत्र जघन्यतः उत्सेधांगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्टतः सम्पूर्ण लोक लाया गया है ।
१. नंदी चूर्ण, पृ० ३४ :
साय संज्ञा मनोविज्ञानं ।
स्थान २ : टि० ७८-८०
२. समवायांगवृत्ति पत्र १७४ |
३. कषायपाहुड भाग १, पृ० १७ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक १।२३ :
सर्वशब्दस्य साकल्य वाचित्वात् द्रव्यक्षेत्रकाल भावैः सर्वावधेरन्तः पाती परमावधिः, अतः परमावधि रपि देशावधिरेवेति द्विविध एवावधि - सर्वावधि देशावधिश्च ।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५७ :
यत्कारोऽवधिरस्येति यथावधिः, प्रादिदीर्घत्वं प्राकृत
त्वात् परमावधेर्वाऽधोवत्यर्वाधियस्म सोऽधोऽवधिरात्मानियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी ।
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५७ :
केवलः परिपूर्णः स चासौ स्वकार्यं सामर्थ्यात् कल्पश्च केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा केवलकल्पः समयभाषया परिपूर्णः ।
७. तत्त्वार्थवार्तिक १।२२:
उत्सेधाङ्ग लासंख्येयभागक्षेत्रो देशावधि जंघन्यः । उत्कृष्टः कृत्स्नलोक: ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि०८१-८८
प्राण
८१-८६ (सू० २०१-२०६)
वृत्तिकार ने 'देशेन शृणोति' और सर्वेण शृणोति' की साधना और विषय के आधार पर अर्थ-योजना की है। जिसका एक कान उपहत होता है वह देशेन सुनता है और जिसके दोनों कान स्वस्थ होते हैं वह सर्वेण सुनता है। शेष इन्द्रियों के लिए निम्न यंत्र द्रष्टव्य हैंदेशेन
सर्वण स्पर्शन एक भाग से स्पर्श करना
सम्पूर्ण शरीर से स्पर्श करना रसन जीभ के एक भाग से चखना
सम्पूर्ण जीभ से चखना एक नथुने से सूंघना
दोनों नथुनों से सूंघना चक्षु एक आंख से देखना
दोनों आंखों से देखना देशेन और सर्वेण का अर्थ इन्द्रियों की नियतार्थग्रहणशक्ति और संभिन्नश्रोतोलब्धि के आधार पर भी किया जा सकता है।
सामान्यतः इन्द्रियों का कार्य निश्चित होता है। सुनना श्रोत्रेन्द्रिय का कार्य है। देखना चक्षु इन्द्रिय का कार्य है। सूंघना घ्राण इन्द्रिय का कार्य है । स्वाद लेना रसनेन्द्रिय का कार्य है और स्पर्श ज्ञान करना स्पर्शनेन्द्रिय का कार्य है। जिसे संभिन्न श्रोतोलब्धि प्राप्त होती है उसके लिए इन्द्रियों की अर्थग्रहण की प्रतिनियतता नहीं रहती। वह एक इन्द्रिय से सब इन्द्रियों का कार्य कर सकता है-आंखों से सुन सकता है, कान से देख सकता है, स्पर्श से सुन सकता है, देख सकता है, सूंघ सकता है, एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों का कार्य कर सकता है। आवश्यकणिकार ने लिखा है कि संभिन्न श्रोतोलब्धिसंपन्न व्यक्ति शरीर के एक देश से पांचों इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण कर लेता है।'
उन्होंने दूसरे स्थान पर यह लिखा है कि संभिन्न श्रोतोलब्धिसंपन्न व्यक्ति शरीर के किसी भी अंगोपांग से सब विषयों को ग्रहण कर सकता है।
विषय की दृष्टि से देशेन सुनने का अर्थ है, श्रव्य शब्दों में से अपूर्णशब्दों को सुनना और सर्वेण सुनने का अर्थ है श्रव्यशब्दों में से सब शब्दों को सुनना। यहां दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं, फिर भी सूत्र का प्रतिपाद्य संभिन्न श्रोतोलब्धि की जानकारी देना प्रतीत होता है।
८७ (सू० २०६)
मरुत्देव लोकान्तिक देव हैं। ये एक शरीरी और दो शरीरी दोनों प्रकार के होते हैं। भवधारणीय शरीर की अपेक्षा अथवा अन्तरालगति में सूक्ष्म शरीर की अपेक्षा उनको एक शरीरी कहा गया है। भवधारणीय और उत्तरवैक्रियशरीर की अपेक्षा दो शरीरी कहा गया है।
८८ (सू० २१०)
किन्नर, किंपुरुष और गन्धर्व-ये तीन वानमंतर जाति के देव हैं। नागकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार-ये भवनपति देव हैं । वृत्तिकार के अनुसार ये भेद व्यवच्छेद
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५७ :
देशेन च शृणोत्येकेन श्रोत्रेणकश्रोत्नोपघाते सति, सर्वेण वाजुपहतधोनेन्द्रियो, यो वा सम्भिन्नश्रोतोऽभिधानलन्धियुक्तः
स सर्वेरिन्द्रियः शृणोतीति सर्वेणेति व्यपदिश्यते । २. आवश्यकचूणि, पृ०६८:
संभिन्न सोयरिद्धी नाम जो एगत्तरेण वि सरीर देसेण पंच वि इंदियविसए उवलभति सो संभिन्नसोय त्ति भन्नति ।
३. आवश्यकचूणि, पृ०७०:
एगेण वा इंदिएणं पंच वि इंदियत्त्थे उवलभति, अहवा
सव्वेहि अंगोवंहिं। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५८ :
देशतोऽपि शृणोति विवक्षितशब्दानां मध्ये कांश्चिच्छणोतीति,
'सर्वेणापी' ति सर्वतश्च सामस्त्येन, सर्वानवेत्यर्थः । ५. तत्त्वार्थराजवातिक, ४१२६ :
,
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ठाणं (स्थान)
१३१
स्थान २ : टि०८६-६०
के लिए नहीं, किन्तु समानजातीय भेदों के उपलक्षण हैं । इसीलिए अनन्तर सूत्र में सामान्यतः देवों के दो प्रकार बतलाए हैं।
८६ (सू० २१२-२१६)
शब्द
भाषा शब्द
नो भाषा शब्द
अक्षर संबद्ध
नो अक्षर संबद्ध
आतोद्य
नो आतोद्य
तत
भूषण
नो भूषण
घन
शुषिर
घन
शुषिर
ताल
लतिका
भाषा शब्द-जीव के वाक्-प्रयत्न से होने वाला शब्द । नो भाषा शब्द-वाक्-प्रयत्न से भिन्न शब्द । अक्षर संबद्ध शब्द-वों के द्वारा व्यक्त होने वाला शब्द। नो अक्षर संबद्ध शब्द-अवर्णों के द्वारा होने वाला शब्द । अतोद्य शब्द-बाजे आदि का शब्द। नो आतोद्य शब्द-बांस आदि के फटने से होने वाला शब्द । तत शब्द-तार वाले बाजे-वीणा, सारंगी आदि से होने वाला शब्द । वितत शब्द-तार-रहित बाजे से होने वाला शब्द । तत घन शब्द-झांझ जैसे बाजे से होने वाला शब्द । तत शुषिर शब्द-वीणा से होने वाला शब्द । वितत घन शब्द-भाणक का शब्द। वितत शुषिर शब्द-नगाड़े, ढोल आदि का शब्द । भूषण शब्द-नूपुर आदि से होने वाला शब्द । नो भूषण शब्द-भूषण से भिन्न शब्द ताल शब्द-ताली बजाने से होने वाला शब्द । लतिका शब्द-(१) कांसी का शब्द ।
(२) लात मारने से होने वाला शब्द ।'
६० (सू० २३०)
बद्धपार्श्वस्पृष्ट-जो पुद्गल शरीर के साथ गाढ सम्बन्ध किए हुए हों, वे बद्ध कहलाते हैं और जो शरीर से चिपके रहते हैं, वे पुद्गल पार्श्वस्पृष्ट कहलाते हैं।
घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय--इन तीनों इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य पुद्गल 'बद्धपार्श्वस्पृष्ट' होते हैं।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५८, ५६ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि०६१-१०८
नो बद्ध-पार्श्वस्पृष्ट-श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य पुद्गल 'नोबद्धपार्श्वस्पृष्ट' होते हैं। ६१ (सू० २३१)
पर्यादत्त-जो पुद्गल विवक्षित अवस्था को पार कर चुके हैं । अपर्यादत्त-जो पुद्गल विवक्षित अवस्था में हैं।
६२-६५ (सू० २३६-२४२)
पांचवें स्थान (सूत्र १४७) में आचार के पांच प्रकार बतलाए गए हैं-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपआचार और वीर्याचार । प्रस्तुत चार सूत्रों (२३६-२४२) में द्विस्थानक पद्धति से उन्हीं का उल्लेख है।
देखें-(५११४७ का टिप्पण)।
६६-१०८ प्रतिमा (सू० २४३-२४८)
प्रस्तुत ६ सूत्रों में बारह प्रतिमाओं का निर्देश है। चतुर्थ स्थान (४१६६-६८) में तीन वर्गों में इसका निर्देश प्राप्त है। पांचवें स्थान (५।१८) में केवल पांच प्रतिमाएं निर्दिष्ट हैं-भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा और भद्रोत्तरा।
समवायांगसूत्र में उपासक के लिए ग्यारह और भिक्षु के लिए बारह प्रतिमाएं निर्दिष्ट हैं। वहां पर वैयावृत्त्य कर्म की ६१ प्रतिमाएं तथा ६२ प्रतिमाएं नाम-निर्देश के बिना निर्दिष्ट हैं। इस सूचि के अवलोकन से पता चलता है कि जैन साधना-पद्धति में प्रतिमाओं का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । वृत्तिकार ने प्रतिमा का अर्थ प्रतिपत्ति, प्रतिज्ञा या अभिग्रह किया है। शाब्दिक मीमांसा करने पर इसका अर्थ साधना का मानदण्ड प्रतीत होता है। साधना की भिन्न-भिन्न पद्धतियां और उनके भिन्न-भिन्न मानदण्ड होते हैं। उन सबका प्रतिमा के रूप में वर्गीकरण किया गया है। इनमें से कुछ प्रतिमाओं का अर्थ प्राप्त होता है और कुछ की अर्थ-परम्परा विस्मृत हो चुकी है। वृत्तिकार ने सुभद्राप्रतिमा के विषय में लिखा है कि उसका अर्थ उपलब्ध नहीं है।' उपलब्ध अर्थ भी मूलग्राही हैं, यह कहना कठिन है। वृत्तिकार ने समाधिप्रतिमा के दो प्रकार किए हैं -श्रुतसमाधिप्रतिमा और चरित्रसमाधिप्रतिमा।' उपधानप्रतिमा-उपधान का अर्थ है तपस्या। भिक्षु की १२ प्रतिमाओं और श्रावक की ११ प्रतिमाओं को उपधान
प्रतिमा कहा जाता है। विवेकप्रतिमा-प्रस्तुत प्रतिमा भेदज्ञान की प्रक्रिया है । इस प्रतिमा के अभ्यासकाल में आत्मा और अनात्मा का विवेचन किया जाता है। इसका अभ्यास करने वाला क्रोध, मान, माया और लोभ की भिन्नता का अनुचिंतन (ध्यान) करता है। ये आत्मा के सर्वाधिक निकटवर्ती अनात्म तत्त्व हैं। इनका भेदज्ञान पुष्ट होने पर वह बाह्यवर्ती संयोगों की भिन्नता का अनुचिंतन करता है। बाह्य संयोग के मुख्य प्रकार तीन हैं-१. गण (संगठन), २. शरीर, ३. भक्तपान ।' इनका भेदज्ञान पुष्ट होने पर वह व्युत्सर्ग की भूमिका में चला जाता है।
१. समवाओ, ११११, १२।१। २. समवाओ, ६१।१। ३. समवाओ, ६१ तथा देखें समवाओ, पृ०२७३-२७४ का - टिप्पण। ४. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१ :
प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञेतियावत् । (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र १८४ :
प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः ।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१:
सुभद्राऽप्येवंप्रकारैव सम्भाव्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तेति । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१ :
समाधानं समाधिः-प्रशस्तभावलक्षणः तस्य प्रतिमा समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता द्विभेदा-श्रुतसमाधिप्रतिमा
सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा च। ७. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१:
विवेकः-त्यागः, स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानां गणशरीरभक्तपानादीनामनुचितानां तत्प्रतिपत्तिविवेकप्रतिमा।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि० १०८
विवेकप्रतिमा की तुलना योगसूत्र की विवेकख्याति से होती है। महर्षि पतञ्जलि ने इसे हानोपाय बतलाया है।'
व्युत्सर्गप्रतिमा-यह प्रतिमा विसर्जन की प्रक्रिया है। विवेकप्रतिमा के द्वारा हेय वस्तुओं का भेदज्ञान पुष्ट होने पर उनका विसर्जन करना ही व्युत्सर्गप्रतिमा है।
औपपातिक सूत्र में व्युत्सर्ग के सात प्रकार बतलाए गए हैं१. शरीरव्युत्सर्ग--कायोत्सर्ग, शिथिलीकरण। २. गणव्युत्सर्ग-विशिष्ट साधना के लिए एकल विहार का स्वीकार। ३. उपाधिव्युत्सर्ग-वस्त्र आदि उपकरणों का विसर्जन । ४. भक्तपानव्युत्सर्ग--भक्तपान का विसर्जन। ५. कषायव्युत्सर्ग-क्रोध, मान, माया और लोभ का विसर्जन । ६. संसारव्युत्सर्ग-संसार-भ्रमण के हेतुओं का विसर्जन । ७. कर्मव्युत्सर्ग-कर्म-बन्ध के हेतुओं का विसर्जन। भद्राप्रतिमा-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर-इन चारों दिशाओं में चार-चार प्रहर तक कायोत्सर्ग करना।
भगवान महावीर ने सानुलष्ठि ग्राम के बाहर जाकर भद्राप्रतिमा स्वीकार की। उसकी विधि के अनुसार भगवान ने प्रथम दिन पूर्व दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। रात भर दक्षिण दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। दूसरे दिन पश्चिम दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। दूसरी रात्रि को उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। इस प्रकार षष्ठ भक्त (दो उपवास) के तप तथा दो दिन-रात के निरन्तर कायोत्सर्ग द्वारा भगवान् ने भद्राप्रतिमा सम्पन्न की।
सुभद्राप्रतिमा-इस प्रतिमा की साधना-पद्धति वृत्तिकार के समय से पहले ही विच्छिन्न हो गई थी।
महाभद्रप्रतिमा-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में एक-एक अहोरात्र तक कायोत्सर्ग करना। इसका कालमान चार दिन-रात का होता है। दशमभक्त (चार दिन के उपवास) से यह प्रतिमा पूर्ण होती है। भद्राप्रतिमा के अनन्तर ही भगवान् ने महाभद्रा प्रतिमा की आराधना की थी।
सर्वतोभद्राप्रतिमा-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर-इन चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं तथा ऊर्ध्व और अध:-- इन दशों दिशाओं में एक-एक अहोरात्र तक कायोत्सर्ग करना । ऊर्ध्व दिशा के कायोत्सर्ग काल में ऊर्ध्वलोक में अवस्थित द्रव्यों का ध्यान किया जाता है। इसी प्रकार अधो दिशा के कायोत्सर्ग काल में अधोलोक में अवस्थित द्रव्य ध्यान के विषय बनते हैं। इस प्रतिमा का कालमान १० दिन-रात का है। यह २२ भक्त (दस दिन का उपवास) से पूर्ण होती है। भगवान महावीर ने इस प्रतिमा की भी आराधना की थी।
यह प्रतिमा दूसरी पद्धति से भी की जाती है। इसके दो भेद हैं-क्षुद्रिकासर्वतोभद्रा और महतीसर्वतोभद्रा । इसमें एक उपवास से लेकर पांच उपवास किए जाते हैं। इसकी पूर्ण प्रक्रिया ७५ दिवसीय तपस्या से पूर्ण होती है। और पारणा के दिन २५ होते हैं । कुल मिलाकर १०० दिन लगते हैं। इसकी स्थापना-विधि इस प्रकार है--
१. योगदर्शन २०२६
विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः । २. आवश्यकनियुक्ति, ४६५, ४६६ :
सावत्थी वासं चित्ततवो साणुलट्ठि बहिं ।
पडिमाभद्द महाभद्द सव्वओभद्द पढमिआ चउरो। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१ :
सुभद्राप्येवं प्रकारैव संभाव्यते अदृष्टत्त्वेन तु नोक्ता। ४. आवश्यकनियुक्तिअवचूणि, पृ० २८६ :
महाभद्रायां पूर्वदिश्येकमहोरात्रं, एवं शेषदिश्वपि, एषा दशमेन पूर्यते।
५. आवश्यकनियुक्ति, ४६६ । ६. आवश्यकनियुक्तिअवणि, पु० २८६ :
सर्वतोभद्रायां दशस्वपि दिवेकैकमहोरात्रं, तवोर्वदिशमधिकृत्य यदा कायोत्सर्ग कुरुते तदोवलोकव्यस्थितान्येव कानिचिछव्याणि ध्यायति, अधोदिशि त्वधोव्यवस्थितानि,
एवमेषा द्वाविंशतिभक्तेन समाप्यते। ७. आवश्यकनियुक्ति, ४६६ । ८. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७८ :
___सर्वतोभद्रा तु प्रकारान्तरेणाप्युच्यते, द्विधेयं-शुद्रिका महती च, तत्राद्या चतुर्थादिना द्वादशावसानेन पञ्चसप्ततिदिनप्रमाणेन तपसा भवति ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि०१०८
।
आदि में १ की और अन्त में ५ की स्थापना कीजिए । शेष संख्या को भर दीजिए। दूसरी पंक्ति में प्रथम पंक्ति के मध्य को आदि मानकर क्रमशः भर दीजिए। तीसरी पंक्ति में दूसरी पंक्ति के मध्य को आदि मानकर क्रमशः भर दीजिए । इस पद्धति से पांचों पंक्तियों को भर दीजिए। इसका यन्त्र इस प्रकार है
२
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७८ :
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६ :
१
४
७
३
६
२
१
५
३
५
२
४
२
५
१
२
कोष्ठक में जो अंक संख्या है उसका अर्थ है उतने दिन का उपवास । प्रत्येक तप के बाद पारणा आता है, जैसेपहले उपवास, फिर पारणा, फिर दो दिन का उपवास, फिर पारणा । इस पद्धति से ७५ दिन का तप और २५ दिन का पारणा होता है ।
महतीसर्वतोभद्रा – इसमें यह चतुर्थभक्त (उपवास) से लेकर ७ दिन के तप किए जाते हैं । इसकी पूर्ण प्रक्रिया १६६ दिवसीय तप से पूर्ण होती है और पारणा के दिन ४६ लगते हैं। कुल मिलाकर २४५ दिन लगते हैं। इसकी स्थापनापद्धति इस प्रकार है
आदि में एक और अन्त में ७ के अंक की स्थापना कीजिए । बीच की संख्या क्रमशः भर दीजिए। उससे आगे की पंक्ति में पहले की पंक्ति का मध्य अंक लेकर अगली पंक्ति के आदि में स्थापित कर दीजिए। फिर क्रमशः संख्या भर दीजिए । इस प्रकार सात पंक्तियां भर दीजिए। यन्त्र इस प्रकार है
४
७
३
६
एगाई पंचते ठविडं, मज्झं तु आइमणुपति । उचिकमेण य सेसे, जाण लहं सव्वओभद्दं ॥
४
१
३
३
६
२
५
१
४
७
५
महती तु चतुर्थादिना षोडशावसानेन षण्णवत्यधिकदिन
२
४
१
४
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لله
३
६
२
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१
१
३
५
५
१
४
७
३
२
५
२
४
१
३
६
२
५
१
४
७
B
७
३
शतमानेन भवति ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७९ :
६
२
५
१
૪
एगाई सत्तंते, ठविडं मज्झ च आदिमणुषंति । उचियकमेण य, सेसे जाण महं सम्वबोमहं ||
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स्थान २: टि० १०८
अंक संख्या का अर्थ है उतने दिन का तप । इसकी विधि पूर्ववत् है।
क्षुद्रिकाप्रस्रवणप्रतिमा, महतीप्रस्रवणप्रतिमा-प्रस्तुत सूत्र में इनका केवल नामोल्लेख है। व्यवहारसूत्र के नवें उद्देशक में इनकी पद्धति निर्दिष्ट है । व्यवहार-भाष्य में इनका विस्तृत विवेचन है। उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से विचार किया गया है।
द्रव्यत:-प्रस्रवण पीना। क्षेत्रतः-गांव से बाहर रहना । कालतः-दिन में, अथवा रात्रि में, प्रथम निदाघ-काल में अथवा अन्तिम निदाधकाल में। स्थानांग के वृत्तिकार ने कालतः शरद् और निदाघ दोनों समयों का उल्लेख किया है।' व्यवहारभाष्य में प्रथमशरद् का उल्लेख मिलता है।
भावतः-स्वाभाविक और इतर प्रस्रवण । प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि स्वाभाविक को पीता है और इतर को छोड़ता है । कृमि तथा शुक्रयुक्त प्रस्त्रवण इतर प्रस्रवण होता है।
स्थानांग वृत्तिकार ने भावतः की व्याख्या में देव आदि का उपसर्ग सहना ग्रहण किया है। यदि यह प्रतिमा खा कर की जाती है तो ६ दिन के उपवास से समाप्त हो जाती है और न खाकर की जाती है तो ७ दिन के उपवास से पूर्ण होती है।
इस प्रतिमा की सिद्धि के तीन लाभ बतलाए गए हैं१. सिद्ध होना। २. महद्धिक देव होना। ३. रोगमुक्त होकर शरीर का कनक वर्ण हो जाना। प्रतिमा पालन करने के बाद आहार-ग्रहण की प्रक्रिया इस प्रकार निर्दिष्ट हैप्रथम सप्ताह में गर्म पानी के साथ चावल। दूसरे सप्ताह में यूष-मांड। तीसरे सप्ताह में विभाग उष्णोदक और थोड़े से मधुर दही के साथ चावल । चतुर्थ सप्ताह में दो भाग उष्णोदक और तीन भाग मधुर दही के साथ चावल । पांचवें सप्ताह में अर्द्ध उष्णोदक और अर्द्ध मधुर दही के साथ चावल । छठे सप्ताह में निभाग उष्णोदक और दो भाग मधुर दही के साथ चावल। सातवें सप्ताह में मधुर दही में थोड़ा सा उष्णोदक मिलाकर उसके साथ चावल । आठवें सप्ताह में मधुर दही अथवा अन्य जूषों के साथ चावल ।
सात सप्ताह तक रोग के प्रतिकूल न हो वैसा भोजन दही के साथ किया जा सकता है । तत्पश्चात् भोजन का प्रतिबंध समाप्त हो जाता है । महतीप्रस्रवणप्रतिमा की विधि भी क्षुद्रिकाप्रस्रवणप्रतिमा के समान ही है। केवल इतना अन्तर है कि जब वह खा-पीकर स्वीकार की जाती है तब वह ७ दिन के उपवास से पूरी होती है अन्यथा वह आठ दिन के उपवास से।
यवमध्यचन्द्रप्रतिमा, वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा-प्रस्तुत सूत्र में इनका केवल नामोल्लेख है। व्यवहार के दसवें उद्देशक में इनकी पद्धति निर्दिष्ट है । व्यवहार भाष्य में इनका विस्तृत विवेचन है।
___ यवमध्यचन्द्रप्रतिमा-इस चन्द्रप्रतिमा में मध्यभाग यव की तरह स्थूल होता है इसलिए इसको यवमध्यचन्द्रप्रतिमा कहते हैं। इसका भावार्थ है जिसका आदि-अन्त कृश और मध्य स्थूल हो वह प्रतिमा।
१. स्थानांगवृत्ति, पन्न ६१:
कालत: शरदि निदाधे वा प्रतिपद्यते। २. व्यवहारभाष्य,६।१०७ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्न ६१:
भावतस्तु दिव्याद्युपसर्गसहनमिति । ४. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ६, भाष्यगाथा ८८-१०७ ।
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स्थान २ : टि० १०८
इस प्रतिमा में स्थित मुनि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक कवल आहार लेता है और क्रमशः एक-एक कवल बढ़ाता हुआ शुक्ल पक्ष की पूर्णिका को १५ कवल आहार लेता है। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४ कवल आहार लेकर क्रमशः एक-एक कवल घटाता हुआ अमावस्या को उपवास करता है।
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा
इस चन्द्रप्रतिमा में मध्यभाग वज्र की तरह कृश होता है इसलिए इसको वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा कहते हैं । इसका भावार्थ है - जिसका आदि-अन्त स्थूल और मध्य कृश हो वह प्रतिमा ।
इस प्रतिमा में स्थित मुनि कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४ कवल आहार लेकर क्रमशः एक-एक कवल घटाता हुआ अमावस्या को उपवास करता है। इसी प्रकार शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक कवल आहार लेकर क्रमशः एक-एक कवल बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को १५ कवल आहार लेता है ।'
इन प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाला मुनि व्युत्सृष्टकाय और व्यक्तदेह होता है । व्युत्सृष्टकाय का अर्थ है-वह रोगातंक उत्पन्न होने पर शरीर का प्रतिकर्म नहीं करता ।
त्यक्तदेह का अर्थ है - वह बन्धन, रोधन, हनन और मारण का निवारण नहीं करता ।
इस प्रकार उक्त प्रतिमाओं को स्वीवार करने वाला मुनि जो भी परिषह और उपसर्ग उत्पन्न होते हैं उन्हें समभाव से सहन करता है ।
भद्रोत्तर प्रतिमा - यह प्रतिमा दो प्रकार की है— क्षुद्रिका भद्रोत्तरप्रतिमा और महतीभद्रोत्तरप्रतिमा ।
क्षुद्रिका भद्रोत्तरप्रतिमा - यह द्वादशभक्त (पांच दिन के उपवास) से प्रारम्भ होती है और इसमें अधिकतम तप विशतिभक्त (नो दिन के उपवास) का होता है। इसमें तप के कुल १७५ दिन होते हैं और २५ दिन पारणा के लगते हैं। कुल मिलाकर २०० दिन लगते हैं । इसकी स्थापना विधि इस प्रकार है- प्रथम पंक्ति के आदि में ५ का अंक स्थापित कीजिए और अन्त में का अंक स्थापित कीजिए । बीच की संख्या क्रमशः भर दीजिए। पूर्व की पंक्ति के मध्य अंक को अगली पंक्ति
के आदि में स्थापित कीजिए, फिर क्रमशः भर दीजिए। इस क्रम से पांचों पंक्तियां भर दीजिए।' इसका यन्त्र इस प्रकार है
६
५
७
६
5
८
५
७
७
१. व्यवहार सूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ३, वृत्ति पत्र २ । २. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६ :
बातिय पतिय सिभियरोगायके हि तत्थ पुट्ठोवि । न कुणइ परिकम्मंसो, किंचिवि वोस देहो उ ॥ ३. व्यवहार सूत्र, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६ :
बंधेज्ज व संभेज्जव, कोई व हणेज्ज अहव मारेज्ज । वारेइ न सो भयवं, चियत्तदेहो अपडिबुद्धो ॥
ह
६
८
८
५
७
ε
५.
कोष्ठक में जो अंक संख्या है उसका अर्थ है उतने दिन का उपवास ।
&
६
६
६
८
महतीभद्रोत्तरप्रतिमा
यह प्रतिमा द्वादशभक्त (५ दिन के उपवास) से प्रारम्भ होती है और इस में अधिकतम तप चतुर्विंशतिभक्त
५
७
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६ :
भद्रोत्तर प्रतिमा द्विधा - क्षुल्लिका महती च तव आद्या द्वादशादिना विशान्तेन पञ्चसप्तत्यधिकदिनशतप्रमाणेन तपसा भवति पारणक दिनानि पञ्चविंशतिरिति । ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६ :
पंचाईय नवते, ठबिउं मज्झं तु आदिमणपति । उचियकमेण य, सेसे जाणह भद्दोत्तरं खुडुं ॥
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स्थान २ : टि० १०६-११२
( ११ दिन के उपवास ) होता है। इस प्रतिमा में ३६२ दिन का तप होता है और ४६ दिन पारणा के लगते हैं। कुल मिलाकर ४४१ दिन लगते हैं। इसकी स्थापना विधि इस प्रकार है
प्रथम पंक्ति के आदि में ५ का अंक स्थापित कीजिए और अन्त में ११ का अंक स्थापित कीजिए। बीच की संख्या क्रमशः भर दीजिए। अगली पंक्ति के आदि में पूर्व पंक्ति का मध्य अंक स्थापित कर उसे क्रमशः भर दीजिए। इसी क्रम से सातों पंक्तियां भर दीजिए । '
इसका यन्त्र इस प्रकार है
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११
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१०
६
w
६
ε
५
८
११
७
१०
७
१०
६
က
५
८
११
८
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६ :
महती तु द्वादशादिना चतुर्विंशतितमान्तेन द्विनवत्यधिक दिनशतत्त्रयमानेन तपसा भवति । पारणक दिनान्ये कोनपञ्चाशदिति ।
११
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१०
६
w
५
אל
w
५
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७
१०
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&
५
८
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७
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७
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२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६ :
६
w
कोष्ठक में जो अंक हैं उनका अर्थ है-उतने दिन का उपवास ।
१०६-११२ उपपात, उद्वर्तन, च्यवन, गर्भ अवक्रान्ति ( सू० २५० - २५३ )
प्रस्तुत चार सूत्रों में जन्म और मृत्यु के लिए परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। जैसे - देव और नारक जीवों का जन्म गर्भ से नहीं होता । वे अन्तर्मुहूर्त्त में ही अपने पूर्ण शरीर का निर्माण कर लेते हैं । इसलिए उनके जन्म को उपपात कहा जाता है।
नैरयिक और भवनवासी देव अधोलोक में रहते हैं। वे मरकर ऊपर आते हैं, इसलिए उनके मरण को उद्वर्तन कहा जाता है ।
५
ज्योतिष्क और वैमानिक देव ऊर्ध्वंस्थान में रहते हैं । वे आयुष्य पूर्ण कर नीचे आते हैं, इसलिए उनके मरण को च्यवन कहा जाता है।
IS
5
पंचादिगारसंते, ठविडं मज्झं तु आइमणुपति । उचियकमेण य, सेसे महई भद्रोत्तरं जाण ॥
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि० ११३-११६
मनुष्य और तिर्यञ्च गर्भ से पैदा होते हैं, इसलिए उनके गर्भाशय में उत्पन्न होने को गर्भ - अवक्रान्ति कहा
जाता है ।
११३ (सू०२५६ )
प्रस्तुत सूत्र में मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के गर्भ की अवस्था उनके गर्भ में रहते हुए उसकी गतिविधियों, गर्भ से निष्क्रमण और मृत्यु की अवस्था का वर्णन है ।
निवृद्धि - वात, पित आदि दोषों के द्वारा होने वाली शरीर की हानि ।
विक्रिया -- जिन्हें वैक्रिय लब्धि प्राप्त हो जाती है, वे गर्भ में रहते हुए भी उस लब्धि के द्वारा विभिन्न शरीरों की रचना कर लेते हैं ।
गतिपर्याय- वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं
१. गति का सामान्य अर्थ है जाना ।
२. इसका दूसरा अर्थ है - वर्तमानभव से मरकर दूसरे भव में जाना ।
३. गर्भस्थ मनुष्य और तिर्यंच का वैक्रिय शरीर के द्वारा युद्ध के लिए जाना। यहां गति के उत्तरवतीं दो अर्थ विशेष सन्दर्भों में किए गए हैं।
कालसंयोग — देव और नैरयिक अन्तर्मुहूर्त में पूर्णांग हो जाते हैं, किन्तु मनुष्य और तिर्यंच काल-क्रम के अनुसार अपने अंगों का विकास करते हैं- विभिन्न अवस्थाओं में से गुजरते हैं ।
आयाति - गर्भ से बाहर आना ।
११४ ( सू० २५-२६१ )
जीव एक जन्म में जितने काल तक जीते हैं उसे 'भव स्थिति' और मृत्यु के पश्चात् उसी जीव-निकाय के शरीर में उत्पन्न होने को 'काय स्थिति' कहा जाता है ।
मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लगातार सात-आठ जन्मों तक मनुष्य और तिर्यञ्च हो सकते हैं। इसलिए उनके काय स्थिति और भवस्थिति - दोनों होती हैं। देव और नैरयिक मृत्यु के अनन्तर देव और नैरयिक नहीं बनते, इसलिए उनके केवल भवस्थिति होती है, कार्यस्थिति नहीं होती ।
११५ (सू० २६२)
जो लगातार कई जन्मों तक एक ही जाति में उत्पन्न होता रहता है, उसकी पारम्परिक आयु को अद्धव- आयुष्य या कास्थिति का आयुष्य कहा जाता है। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के जीव उत्कृष्टतः असंख्यकाल तक अपनी-अपनी योनि में रह सकते हैं । वनस्पतिकाय अनन्तकाल तक तीन विकलेन्द्रिय संख्यात वर्षों तक और पंचेन्द्रिय सात या आठ जन्मों तक अपनी-अपनी योनि में रह सकते हैं। '
जिस जाति में जीव उत्पन्न होता है उसके आयुष्य को भव-आयुष्य कहा जाता है ।
११६ (०२६५)
कर्म-बंध की चार अवस्थाएं होती हैं- प्रकृति, स्थिति, अनुभाव ( भाग) और प्रदेश' । प्रस्तुत सूत्र में इनमें से दो अवस्थाए प्रतिपादित हैं। प्रदेश- कर्म का अर्थ है - कर्म परमाणुओं की संख्या का परिमाण । अनुभावकर्म का अर्थ है, कर्म की फल देने की शक्ति ।
कर्म का उदय दो प्रकार का होता है-प्रदेशोदय और विपाकोदय। जिस कर्म के प्रदेशों (पुद्गलों) का ही वेदन
१. देखें उत्तराध्ययन १०१५ से १३
२. उत्तराध्ययन, अध्ययन ३३ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि० ११७-१२१ होता है, रस का नहीं होता उसे प्रदेशकर्म कहते हैं।
जिस कर्म के बंधे हुए रस के अनुसार वेदन होता है उसे अनुभावकर्म कहते हैं। वृत्तिकार ने यहां प्रदेशकर्म और अनुभावकर्म का यही (उदय सापेक्ष ) अर्थ किया है । किन्तु यहां कर्म की दो मूल अवस्थाओं का अर्थ संगत होता है, तब फिर उसकी उदय अवस्था का अर्थ करने की अपेक्षा ज्ञात नहीं होती।
११७ (सू० २६६)
समुच्चयदृष्टि से विचार करने पर आयुष्य के दो रूप फलित होते हैं—पूर्णआयु और अपूर्णआयु । देव और नरयिक ये दोनों पूर्णआयु वाले होते हैं। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपूर्णआयु वाले भी होते हैं। इनमें असंख्येय वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच और मनुष्य तथा उत्तम पुरुष और चरम शरीरी मनुष्य पूर्णआयु वाले ही होते हैं। इनका यहां निर्देश नहीं है।
११८ आयुष्य का संवर्तन (सू० २६७)
सातवें स्थान (७७२) में आयुःसंवर्तन के सात कारण निर्दिष्ट हैं।
११६ काल (सू० ३२०)
छठे स्थान (६।२३) में ६ प्रकार के काल का निर्देश मिलता है-सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम-दुःषमा, दुःषमसुषमा, दुषमा, दुःषम-दुःषमा। १२० नक्षत्र (सू० ३२४)
यजुर्वेद के एक मंत्र में २७ नक्षत्रों को गन्धर्व कहा है। इससे यह प्रतीत होता है कि उस समय २७ नक्षत्रों की मान्यता थी। अथर्ववेद (अध्याय संख्या १६७) में कृत्तिकादि २८ नक्षत्रों का वर्णन है। इसी प्रकार तैत्तिरीयश्रुति में २७ नक्षत्रों के नाम, देवता, वन्दन और लिङ्ग भी बताए गए हैं। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का नाम छोड़ा गया है । नक्षत्रों का क्रम इस सूत्र के अनुसार ही है और देवताओं के नाम भी बहुलांश में मिलते-जुलते हैं।
१२१ (सू० ३२५)
तिलोयपण्णत्ती में ८८ नक्षत्रों के निम्नोक्त नाम हैं
बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि, काल, लोहित, कनक, नील, विकाल, केश, कवयव, कनकसंस्थान, दुन्दुभक रक्तनिभ, नीलाभास, अशोकसंस्थान, कंस, रूपनिभ, कसकवर्ण, शंखपरिणाम, तिलपुच्छ, शंखवर्ण, उदकवर्ण, पंचवर्ण, उत्पात, धूमकेतु, तिल, नभ, क्षारराशि, विजिष्णु, सदृश, सन्धि, कलेवर, अभिन्न, ग्रन्थि, मानवक, कालक, कालकेतु, निलय, अनय, विद्युज्जिह, सिंह, अलख, निर्दुःख, काल, महाकाल, रुद्र, महारुद्र, संतान, विपुल, सम्भव, सर्वार्थी, क्षेम, चन्द्र, निमन्त्र, ज्योतिषमान, दिशसंस्थित, विरत, वीतशोक, निश्छल, प्रलम्ब, भासुर, स्वयंप्रभ, विजय, वैजयन्त, सीमकर, अपराजित, जयंत, विमल, अभयंकर, विकस काष्ठी, विकट, कज्जली, अग्निज्वाल, अशोक, केतु, क्षीरस, अघ, श्रवण, जलकेतु, केतु, अन्तरद, एक संस्थान, अश्व, भावग्रह, महाग्रह ।
सर्यप्रज्ञप्ति में नील और नीलाभास ग्रह रुक्मी और रुक्माभास से पहले है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६३ :
प्रदेशा एव पुद्गला एव यस्य वेद्यन्ते न यथा बद्धो रसस्तत्प्रदेशमानतया वेद्यं कर्म प्रदेशकर्म, यस्य स्वनुभावो
यथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेद्यं कर्मानुभावकर्मेति । २. भारतीय ज्योतिष, नेमिचन्द्रकृत, पत्र ६६ ।
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ठाणं (स्थान)
१४०
१२२-१२४ (सू० ३८७-३८६)
का वास्तविक द्रव्य नहीं है । वह औपचारिक द्रव्य है । वस्तुतः वह जीव और अजीव दोनों का पर्याय है। इसीलिए उसे जीव और अजीव दोनों कहा गया है।
ऋग्देव १।१५५।६ में काल के ६४ अंश बतलाए गए हैं-संवत्सर, दो अयन, पांच ऋतु (हेमंत और शिशिर को एक मानकर ), १२ मास, २४ पक्ष, ३० अहोरात, आठ प्रहर और १२ राशियां ।
• जैन आगमों के अनुसार काल का सूक्ष्मतम भाग समय है। समय से लेकर शीर्ष प्रहेलिका तक का काल गण्यमान है, उसकी राशि अंकों में निश्चित है।
समय --- काल का सर्वसूक्ष्म भाग, जो विभक्त न हो सके, को समय कहा जाता है। इसे कमल - पत्र भेद के उदाहरण द्वारा समझाया गया है ।
एक-दूसरे से सटे हुए कमल के सौ पत्तों को कोई बलवान व्यक्ति सुई से छेदता है, तब ऐसा ही लगता है कि सब पत्ते साथ ही छिद गए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। जिस समय पहला पत्ता छिदा उस समय दूसरा नहीं। इस प्रकार सबका छेदन क्रमशः होता है ।
दूसरा उदाहरण जीर्ण वस्त्र के फाड़ने का है -
एक कला कुशल युवा और बलिष्ठ जुलाहा जीर्ण-शीर्ण वस्त्र या साड़ी को इतनी शीघ्रता से फाड़ डालता है कि दर्शक को ऐसा लगता है मानो सारा वस्त्र एक साथ फाड़ डाला। किन्तु ऐसा होता नहीं। वस्त्र अनेक तंतुओं से बनता है। जब तक ऊपर के तंतु नहीं फटते तब तक नीचे के तंतु नहीं फट सकते । अतः यह निश्चित है कि वस्त्र के फटने में काल-भेद होता है। वस्त्र अनेक तंतुओं से बनता है। प्रत्येक तंतु में अनेक रोएं होते हैं। उनमें भी ऊपर का रोआं पहले छिंदता है । तब कहीं उसके नीचे का रोआं छिंदता है । अनन्त परमाणुओं के मिलन का नाम संघात है। अनन्त संघातों का एक समुदाय और अनन्त समुदायों की एक समिति होती है। ऐसी अनन्त समितियों के संगठन से तंतु के ऊपर का एक रोआं बनता है । इन सबका छेदन क्रमशः होता है। तंतु के पहले रोएं के छेदन में जितना समय लगता है, उसका अत्यन्त सूक्ष्म अंश यानी असंख्यातवां भाग 'समय' कहलाता है। वर्तमान विज्ञान के जगत् में काल की सूक्ष्म-मर्यादा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। उनमें से एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है । वर्कशायर ( इंग्लैंड) के ऐल्डरमेस्टन अस्त्र - अनुसंधान केन्द्र में एक ऐसा कैमरा बनाया गया है, जो एक सेकंड में ५ करोड़ चित्र खींच लेता है ।
असंख्येय समय -- आवलिका ।
स्थान २ : टि० १२२-१२४
संख्यात आवलिका ( एक उच्छ्वास- निःश्वास )
आन प्राण ।
रोग -रहित स्वस्थ व्यक्ति को एक उच्छ्वास और एक निःश्वास में जो समय लगता है उसको 'आन प्राण' कहते हैं । सात प्राण (सात उच्छ्वास - निःश्वास ) -- स्तोक ।
सात स्तोक लव |
सतहत्तर लव (३७७३ उच्छ्वास - निःश्वास ) - मुहूर्त |
३० मुहूर्त - अहोरात्र |
१५ अहोरात्र - पक्ष ।
२ पक्ष मास ।
२ मास ऋतु ।
३ ऋतु-अयन ।
२ अयन - संवत्सर ।
५ संवत्सर - युग ।
२० युग - शतवर्ष ।
१० शतवर्ष -- सहस्रवर्ष ।
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ठाणं (स्थान)
१०० सहस्रवर्ष - शत सहस्रवर्षं ।
८४ लाख वर्ष - पूर्वाङ्ग ।
८४ लाख पूर्वाङ्ग–पूर्व ।
८४ लाख पूर्व - त्रुटितांग |
८४ लाख त्रुटितांग - त्रुटित ।
८४ लाख वुटित - अटटांग |
८४ लाख अटटांग - अटट ।
८४ लाख अटट- अयवांग ।
८४ लाख अयवांग — अथव ।
८४ लाख अयव - हूहूकांग ।
८४ लाख हूहूकांग - हूहूक ।
८४ लाख हूहूक -- उत्पलांग |
८४ लाख उत्पलांग-उत्पल ।
८४ लाख उत्पल - पद्मांग ।
८४ लाख पद्मांग - पद्म ।
८४ लाख पद्म नलिनांग ।
८४ लाख नलिनांग - नलिन ।
८४ लाख नलिन -अच्छनिकुरांग' ।
८४ लाख अच्छनि कुरांग — अच्छनिकुर ।
८४ लाख अच्छनिकुर - अयुतांग |
८४ लाख अयुतांग - अयुत ।
८४ लाख अयुत - नयुतांग |
८४ लाल नयुतांग - नयुत ।
८४ लाख नयुत -- प्रयुतांग ।
८४ लाख प्रयुतांग - प्रयुत ।
८४ लाख प्रयुत - चूलिकांग ।
१४१
८४ लाख चूलिकांग - चूलिका ।
८४ लाख चूलिका - शीर्ष प्रहेलिकांग |
८४ लाख शीर्षप्रहेलिकांग - शीर्षपहेलिका ।
जैनों में लिखी जाने वाली सबसे बड़ी संख्या शीर्षप्रहेलिका है, जिससे ५४ अंक और १४० शून्य होते हैं । १९४ कात्मक संख्या सबसे बड़ी संख्या है।
शीर्षप्रहेलिका अंकों में इस प्रकार है---
७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७६७३५६९६७५६९६४०६२१८६६६८४८०८०१८३२९६ इसके आगे १४०
शून्य होते हैं ।
वीरनिर्वाण के ८२७- ८४० वर्ष बाद मथुरा और वल्लभी में एक साथ दो संगीतियां हुई थीं । माथुरी वाचना के
१. अनुयोगद्वारसूत्र की टीका तथा लोकप्रकाश (सर्ग २९, श्लोक २९) में अर्थनिपुरांग और अर्थनिपुर संख्या स्वीकार की है।
स्थान २ : टि० १२४
२. काललोकप्रकाश, २८।१२ :
शीर्ष प्रहेलिकाङ्का: स्युश्चतुर्णवतियुक्शतं । अङ्कस्थानाभिद्याश्चेमाः श्रित्वा माथुरवाचनाम् ।।
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ठाणं (स्थान)
१४२
स्थान २: टि० १२५ अध्यक्ष नागार्जुन थे और वलभी वाचना के अध्यक्ष स्कंदिलाचार्य थे।
वलभी वाचना में २५० अंकों की संख्या मिलती है। इसका उल्लेख ज्योतिष्करंड में हुआ है। उसके कर्ता वलभी वाचना की परम्परा के आचार्य हैं, ऐसा आचार्य मलय गिरि ने कहा है। उसमें काल के नाम इस प्रकार हैं
लतांग, लता, महालतांग, महालता, नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पद्मांग, पद्म, महापद्मांग, महापद्म, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रुटितांग, महात्रुटित, अडडांग, अडड, महाअडडांग, महाअडड, ऊहांग, ऊह, महाऊहांग, महाऊह, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका।
प्रत्येक संख्या पूर्व संख्या को ८४ लाख से गुणा करने से प्राप्त होती है। शीर्षप्रहेलिका में ७० अंक (१८७६५५१७६५५०११२५६५४१६००६६६६८१३४३०७७०७९७४६५४६४२६१६७७७४७६५७२५७३४५७१८६८१६) और १८० शून्य अर्थात् २५० अंक होते हैं।
शीर्षप्रहेलिका की यह संख्या अनुयोगद्वार में दी गई संख्या से नहीं मिलती। जीव और अजीव पदार्थों के पर्यायकाल के निमित्त से होते हैं। इसलिए इसे जीव और अजीव दोनों कहा गया है।
संख्यातकाल शीर्षप्रहेलिका से आगे भी है, किन्तु सामान्य ज्ञानी के लिए व्यवहार्य शीर्षप्रहेलिका तक ही है इसलिए आगे के काल को उपमा के माध्यम से निरूपित किया गया है। पल्योपम, सागरोपम, अवप्पिणी, उत्सप्पिणी-ये औपम्यकाल के भेद हैं।
___ शीर्षप्रहेलिका तक के काल का व्यवहार प्रथम पृथ्वी के नारक, भवनपति, व्यन्तर तथा भरत-ऐरवत में सुषमदुःषमा आरे के पश्चिम भागवर्ती मनुष्यों और तिर्यचों के आयुष्य को मापने के लिए किया जाता है।
यजुर्वेद १७।२ में १ पर १२ शुन्य रखकर दस खर्व तक की संख्या का उल्लेख है। वहां शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रय त, अबंद, न्यबंद, समुद्र, अन्त, परार्द्ध तक का उल्लेख है। उस गणितशास्त्र में महासंख तक की संख्या का व्यवहार होता है। वे २० अंक इस प्रकार हैं-इकाई, दस, शत, सहस्र, दससहस्र, लक्ष, दस लक्ष, करोड़, दस करोड़, अरब, दस अरब, खरब, दस खरब, नील, दस नील, पद्म, दस पद्म, संख, दस संख, महा संख।
१२५ (सू० ३६०)
ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आकर, आश्रम, संवाह, सन्निवेश और घोषये शब्द बस्ती के प्रकार हैं। ग्राम-ग्राम शब्द के अनेक अर्थ हैं
१. जो बुद्धि आदि गुणों को ग्रसित करे अथवा जहां १८ प्रकार के कर लगते हों। २. जहां कर लगते हो।
१. लोकप्रकाश सर्ग २६, श्लोक २१ के बाद पृ० १४४ :
ज्योतिष्करंडवृत्तौ श्रीमलयगिरिपूज्या इति स्माहुः-- "इह स्कंदिलाचार्यप्रवृत्तौ (प्रतिपत्तौ) दुःषमानुभावतो दुभिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुभिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्ती द्वयोः स्थानयोः संघमेलकोऽभवत् तद्यथा-- एको बलभ्यामेको मथुरायां । तव च सूत्रार्थ—संघटने परस्परं वाचनाभेदो जातो, विस्मृतयो हि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेद इति न काचिद् अनुपपत्तिः, तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानी वर्तमानं माथुर---वाचनानुगतं, ज्योतिष्करंड सूत्रकर्ता चाचार्यों वालभ्यस्तत इदं संख्यानप्रतिपादनं बालभ्यवाचनानुगतमिति नास्यानुयोगद्वारादिप्रतिपादितसख्यास्थानः
सह विसदृशत्वमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति । २. स्थानांगवृत्ति पत्र ८२॥ ३. (क) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ :
सति गुणान् गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामितिग्रामः । (ख) दशवकालिकहारिभद्रो टीका, पन १४७ :
असति बुद्ध यादीन् गुणानिति ग्रामः । ४. (क) निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ :
करादियाण गम्मो गामो। (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८२ :
करादिगम्या ग्रामाः ।
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ठाणं (स्थान)
१४३
३. जिसके चारों ओर कांटों की बाड़ हो अथवा मिट्टी का परकोटा हो ।'
४. कृषक आदि लोगों का निवासस्थान ।
नगर - १. जिसमें कर नहीं लगता हो ।
२. जो राजधानी हो । *
प्रकरण में नगर और राजधानी दोनों का उल्लेख है। राजधानी हों या न हों । राजधानी वह होती है जहां निगम - व्यापारियों का गांव ।"
अर्थ- शास्त्र में राजधानी के लिए नगर या दुर्ग और साधारण कस्बों के लिए ग्राम शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत इससे जान पड़ता है कि नगर बड़ी बस्तियों का नाम है, भले फिर वे से राज्य का संचालन होता है ।
राजधानी- १. वह बस्ती जहां राजा रहता हो । २. जहां राजा का अभिषेक हुआ हो । ३. जनपद का मुख्य नगर ।'
खेट - जिसके चारों ओर धूलि का प्राकार हो ।'
कर्बट - १. पर्वत का ढलान । "
२. कुनगर ।"
चूर्णिकार ने कुनगर का अर्थ किया- जहां क्रय-विक्रय न होता हो । १२
३. बहुत छोटा सन्निवेश । "
४. जिले का प्रमुख नगर ।"
५. वह नगर जहां बाजार हो । "
दसर्वकालिक की चूर्णियों में कर्बट का मूल अर्थ माया, कूटसाक्षी आदि अप्रामाणिक या अनैतिक व्यवसाय होता हो - किया है ।"
१. दशवेकालिक: एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ २२० ।
२. उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति पत्र ६०५ ।
३. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८२ :
नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि ।
(ख) दशवैकालिकहा रिभद्री टीका, पत्र १४७ : नास्मिन् करो विद्यते इति नकरम् ।
(ग) निशीथचूर्णि भाग ३, पृष्ठ ३४७ : ण केरा जत्थ तं नगरं । (घ) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ । ४. लोकप्रकाश, सर्ग ३१, श्लोक ६ : नगरे राजधानी स्यात् ।
५. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८२ :
निगमा: - वणिग्निवासाः । (ख) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ :
निगमयन्ति तस्मिन्ननेकविधभाण्डानीति निगमः ।
(ग) निशीथचूर्ण, भाग ३, पृष्ठ ३४६ : वर्णिय वग्गो जत्थ वसति तं णेगमं ।
६. निशीथचूर्णि भाग ३, पृष्ठ ३४६ :
जत्थ राया वसति सा रायहाणी ।
७. स्थानांगवृत्ति पत्र ८२-८३ :
स्थान २ : टि० १२५
राजधान्यो - यासु राजानोऽभिषिच्यन्ते ।
८. उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ ।
६. ( क ) निशीथचूर्णि भाग ३, पृष्ठ ३४६ :
खेड नाम धूलीपागार परिक्खित्तं ।
(ख) स्थानांवृत्ति, पत्र ८३
खेटानि - धूलिप्राकारोपेतानि । (ग) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ ।
9. A Sanskrit English Dictionary, p. 259,
by Sir Monier Williams.
११. (क) निशीथचूर्णि भाग ३, पृष्ठ ३४६ :
कुण कव्व
(ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ :
कटानि-कुनगराणि । १२. दशर्वकालिकजिन दासचूर्णि पृष्ठ ३६० । १३. ( क ) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति पत्र ६०५ ।
(ख) दशवेकालिक हारिभद्रीटीका, पत्र २७५ । १४. A Sanskrit English Dictionary, p. 259,
by Sir Monier Williams. १५. दशर्वकालिक: एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ २२० । १६. जिनदासचूर्णि पृष्ठ ३६० ।
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ठाणं (स्थान)
१४४
स्थान २: टि०१२५
मडंब-मडंब के तीन अर्थ किए गए हैं
१. जिसके एक योजन तक कोई दूसरा गांव न हो।' २. जिसके ढाई योजन तक कोई दूसरा गांव न हो।
३. जिसके चारों ओर आधे योजन तक गांव न हो। द्रोणमुख-१. जहां जल और स्थल दोनों निर्गम और प्रवेश के मार्ग हों।
उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने इसके लिए भृगुकच्छ और ताम्रलिप्ति का उदाहरण दिया है। २. समुद्र के किनारे बसा हुआ गांव, ऐसा गांव जिसमें जल और स्थल से पहुंचने के मार्ग हों।
३. ४०० गांवों की राजधानी।। पत्तन-(क)-जलपत्तन-जलमध्यवर्ती द्वीप ।
(ख)-स्थलपत्तन-निर्जलभूभाग में होने वाला। उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने जलपत्तन के प्रसंग में काननद्वीप और स्थलपत्तन के प्रसंग में मथुरा का उदाहरण
प्रस्तुत किया है। आकर-१. सोना, लोहे आदि की खान।'
२. खान का समीपवर्ती गांव, मजदूर-बस्ती।' आश्रम-१. तापसों का निवासस्थान।
२.तीर्थ-स्थान ।१ संवाह.-१. जहां चारों वर्गों के लोगों का अति मात्रा में निवासह २
२. पहाड़ पर बसा हुआ गांव, जहां किसान समभूमि से खेती करके धान्य को रक्षा के लिए ऊपर की भूमि में ले
जाते हैं।" सन्निवेश-१. याना से आए हुए मनुष्यों के रहने का स्थान ।
२. सार्थ और कटक का निवास स्थान ।" घोष-आभीर-बस्ती।१६
१. निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ :
जोयणभतरे जस्स गामादी णत्थि तं मडंबं । २. उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ :
मडम्बानि सर्वतोऽद्धंयोजनात् परतोऽवस्थितग्रामाणि । ४. (क) निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ : ।
दोणि मुहा जस्स तं दोषणमुहं जलेण वि थलेण वि
भंडमागच्छति । (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ । ५. उत्तराध्ययनबृहद् वृत्ति, पत्र ६०५ । ६. कौटिलीय अर्थशास्त्र २२
चतुःशतग्राम्यो द्रोणमुखम्। ७. (क) निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ ।
(ख) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ ।
(ग) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ । ८. (क) निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ :
सुवण्णादि आगारो। (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ :
लोहाद्युत्पत्तिभूमयः ।
६. उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ । १०. (क) निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ ।
(ख) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ । ११. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ । । १२. उत्तराध्ययनंबृहवृत्ति, पत्र ६०५ । १३. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्न ८३ :
समभूमौ कृषि कृत्वा येषु दुर्गभूमिभूतेषु धान्यानि कृषि
बलाः संवहन्ति रक्षार्थमिति । (ख) निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ :
अण्णत्थ किसि करेत्ता अन्नत्थ वोढुं वसंति तं संबाह
भण्णति । १४. (क) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ ।
(ख) निशीथचूणि, भाग ३, पृ० ३४६-३४७ । १५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ :
सार्थकटकादेः । १६. (क) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पन ६०५ । (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ :
घोषा-गोष्ठानि ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि० १२६-१२८
आराम-जहां विविध प्रकार के वृक्ष और लताएं होती हैं और जहां कदली आदि के प्रच्छन्नगृह निर्मित होते हैं और जहां
दम्पतियों की क्रीड़ा के लिए प्रच्छन्नगृह निर्मित होते हैं, उसे आराम कहा जाता है।' उद्यान-वह स्थान जहां लोग गोठ (Picnic) आदि के लिए जाते हों और जो ऊंचाई पर बना हुआ हो।' वन-जहां एक जाति के वृक्ष हों।' वनखण्ड-जहां अनेक जाति के वृक्ष हों।
वापी, पुष्करिणी, सर, सरपंक्ति, कूप, तालाब, द्रह और नदी–प्रस्तुत प्रकरण में जलाशयों के इतने शब्द व्यवहृत हुए हैं। वापी, पुष्करिणी-ये दोनों एक ही कोटि के जलाशय हैं, इनमें वापी चतुष्कोण और पुष्करिणी वृत्त होती है।
वृत्तिकार ने पुष्करिणी का एक अर्थ पुष्करवती–कमल-प्रधान जलाशय किया है।" सर-सहज बना हुआ। तडाग-जो ऊंचा और लम्बा खोदा हुआ हो।'
अभिधानचिन्तामणि में सर और तडाग दोनों को पर्यायवाची माना है। यहां एक ही प्रसंग में दोनों नाम आए हैं, इससे लगता है इनमें कोई सूक्ष्मभेद अवश्य है। 'सर' सहज बना हुआ होता है और तडाग-ऊंचा तथा लम्बा खोदा हुआ होता है। सरपंक्ति-सरों की श्रेणी। द्रह-नदियों का निम्नतर प्रदेश । वातस्कंध-घनवात, तनुवात आदि वातों के स्कंध । अवकाशान्तर---धनवात आदि वात स्कंधों के नीचे वाला आकाश । वलय-पृथ्वी के चारों ओर घनोदधि, घनवात, तनुवात आदि का वेष्टन । विग्रह-लोक नाडी के घुमाव। वेला–समुद्र के जल की वृद्धि। कूटागार-शिखरों पर रहे हुए देवायतन। विजय-महाविदेह के क्षेत्र, कच्छादि क्षेत्र, जो चक्रवर्ती के लिए विजेतव्य ।
इनमें जीव-अजीव दोनों व्याप्त हैं, इसलिए ये जीव-अजीव दोनों हैं ।
१२६-१२८ अतियानगृह, अवलिंब, सनिष्प्रवात (सू० ३६१) अतियानगृह
अतियान का अर्थ है नगर-प्रवेश । वृत्तिकारने ३।५०३ की वृत्ति में यही अर्थ किया है। नगर-प्रवेश करते समय
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ :
आरामा-विविधवृक्षलतोपशोभिताः कदल्यादिप्रच्छन्नगृहेषु स्त्रीसहितानां पुंसां रमणस्थानभूता इति । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८३ :
उद्यानानि पत्रपुष्पफलच्छायोपगादिवृक्षोपशोभितानि बहुजनस्य विविधवेषस्पोन्नतमानस्य भोजनार्थ यान-गमनं
येष्विति। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्न८३ :
वनानोत्येकजातीयवृक्षाणि । ४. स्थानांगवृत्ति , पत्र ८३ :
बनखण्डा:-अनेकजातीयोत्तमवृक्षाः । ५. स्थानांगवत्ति, पत्र ८३ :
वापी चतुरस्रा पुष्करिणी वृत्ता पुष्करवती वेति ।
६. उपासकदशावृत्ति, हस्तलिखित, पन ८ :
सरः स्वभावनिष्पन्न । ७. उपासकदशावृत्ति, हस्तलिखित, पत्न ८ :
खननसंपन्नमुत्तान विस्तीर्णजलस्थानं । ८. (क) निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ :
सरपंती वा एगं महाप्रमाणं सर, ताणि चेव बहूणि
पंतीठियाणि पत्तेयबाहुजुत्ताणि सरपंती। ६. उपासकदशावृत्ति , हस्तलिखित, पत्र :
नद्यादीनां निम्नतरः प्रदेशः। १०. स्थानांगवृत्ति, पन १६२ :
अतियानं नगरप्रवेशः।
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स्थान २ : टि० १२६-१३१
जो घर सबसे पहले आते हैं, वे अतियानगृह कहलाते हैं। प्राचीनकाल में प्रवेश और निर्गम के द्वार भिन्न-भिन्न होते थे। ये घर प्रवेश-द्वार के समीपवर्ती होते थे। अलिब और सनिष्प्रवात
वृत्तिकार ने इनका कोई अर्थ नहीं किया है। उन्होंने यह सूचना दी है कि इनका अर्थ रूढ़ि से जान लेना चाहिए।'
अवलिव का दूसरा प्राकृतरूप 'ओलिब' हो सकता है। दीमक का एक नाम ओलिभा है। यदि वर्णपरिवर्तन माना जाए तो अवलिब का अर्थ दीमक का ढह हो सकता है और यदि पाठ-परिवर्तन की सम्भावना मानी जाए तो ओलिंद पाठ की कल्पना की जा सकती है । इसका अर्थ होगा बाहर के दरवाजे का प्रकोष्ठ । अतियानगृह और उद्यानगृह के अनन्तर प्रकोष्ठ का उल्लेख प्रकरण-संगत भी है। सनिष्प्रवात
सणिप्पवाय के संस्कृत रूप दो किए जा सकते हैं१. शनैःप्रपात। २. सनिष्प्रवात ।
शनैःप्रपात का अर्थ धीमी गति से पड़ने वाला झरना और सनिष्प्रवात का अर्थ भीतर का प्रकोष्ठ (अपवरक) होता है। प्रकरणसंगति की दृष्टि से यहां सनिष्प्रवात अर्थ ही होना चाहिए। अभिधानराजेन्द्र में 'सण्णिप्पवाय' पाठ मिलता है। इसका अर्थ किया गया है-संज्ञी जीवों के अवपतन का स्थान । यदि 'सण्णि' शब्द को देशी भाषा का शब्द मानकर उसका अर्थ गीला किया जाए तो प्रस्तुत पाठ का अर्थ गीलाप्रपात भी किया जा सकता है।
१२६ (सू० ३६६)
वेदना दो प्रकार की होती है-आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी । अभ्युपगम का अर्थ है-अंगीकार। हम सिद्धान्ततः कुछ बातों का अंगीकार करते हैं । तपस्या किसी कर्म के उदय से नहीं होती, किन्तु अभ्युपगम के कारण की जाती है । तपस्या काल में जो वेदना होती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है, स्वीकृत वेदना है।
उपक्रम का अर्थ है-कर्म की उदीरणा का हेतु । शरीर में रोग होता है, उससे कर्म की उदीरणा होती है, इसलिए वह उपक्रम है-कर्म की उदीरणा का हेतु है। उपक्रम के निमित्त से होने वाली वेदना को औपक्रमिकी वेदना कहा जाता है।'
१३० (सू० ४०३)
___ आत्मा का स्वरूप कर्म परमाणुओं से आवृत्त रहता है। उनके उपशम, क्षय-उपशम और क्षय से वह (आत्मस्वरूप) प्रकट होता है।
क्षय और उपशम ये दोनों स्वतन्त्र अवस्थाएं हैं । क्षय-उपशम में दोनों का मिश्रण है। इसमें उदयप्राप्त कर्म के क्षय और उदयप्राप्त का उपशम ये दोनों होते हैं, इसलिए क्षय-उपशम कहलाता है। इस अवस्था में कर्म के विपाक की अनुभूति नहीं होती।
१३१ (सू० ४०५)
जो काल उपमा के द्वारा जाना जाता है, उसे औपमिक काल कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है--पल्योपम और
१. स्थानांगवत्ति, पत्र ८३:
अवलिंबा सणिप्पवाया य रूढितोऽवसेया इति । २. पाइयसहमहष्णवो। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८४ :
अभ्युपगमेन-अङ्गीकरणेन निर्वृत्ता तत्र वा भवा
आभ्युपगमिकी तया-शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदनयापीडया उपक्रमेण-कर्मोदीरणकारणेन नित्ता तत्र वा भवा
औपक्रमिकी तया-ज्वरातीसारादिजन्यया । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८५।
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स्थान २ : टि० १३१
सागरोपम। जिसको पल्य ( धान्य मापने की गोलाकार प्याली) की उपमा से उपमित किया जाता है उसे पल्योपम कहते हैं। जिसको सागर की उपमा से उपमित किया जाता है उसे सागरोपम कहते हैं ।
पल्योपम के तीन भेद हैं- उद्धारपत्योपम, अद्धापल्योपम और क्षेत्रपल्योपम। इनमें से प्रत्येक के बादर (संव्यवहार ) और सूक्ष्म- ये दो-दो भेद होते हैं ।
बादरउद्धारपत्योपम
कल्पना कीजिए एक पत्थ है। वह एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा है। इस योजन का परिमाण उत्सेध आंगुल से है । उस पल्य की परिधि तीन योजन से कुछ अधिक है। शिर मुंडन के बाद एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालों के अग्रभाग से उस पल्य को पूर्ण भरा जाए । पल्य को बालों से इतना ठूस कर भरा जाए, जिसमें न अग्नि प्रवेश कर सके और न वायु उन बालों को उड़ा सके। अधिक निचित होने के कारण उसमें अग्नि और वायु प्रवेश नहीं पा सकती। प्रति समय एक-एक बालाग्र को निकालें । जितने समय में वह पल्य पूर्णतया खाली हो जाए, उस समय को बादर ( व्यावहारिक) उद्धारपल्योपम कहा जाता है । वे बालाग्र चर्म चक्षुओं के द्वारा ग्राह्य और प्ररूपणा करने में व्यवहारतः उपयोगी होते हैं इसलिए इसे व्यावहारिक भी कहा जाता है । व्यवहार के माध्यम से सूक्ष्म का निरूपण सरलता से हो जाता है।
सूक्ष्मउद्धारपत्योपम
बादरउद्धारपल्योपम में पल्य को वालों के अग्रभाग से भरा जाता है। यहां वैसे पल्य को बालों के असंख्य टुकड़े कर भरा जाए। प्रति समय एक-एक बालखण्ड को निकाला जाए। जितने समय में वह पल्य खाली हो उसको सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहा जाता है।
पल्य में बालाय संख्यात होते हैं। उनका उद्धार संख्येय काल में किया जा सकता है। इसलिए इसे उद्धारपत्योपम कहा जाता है।
बादरअद्धापल्योपम—
इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया बादरउद्धारपल्योपम के समान है । अन्तर केवल इतना ही है कि वहां प्रति समय एक-एक बाला को निकाला जाता है, यहां प्रति सौ वर्ष में एक-एक वालाग्र को निकाला जाता है। सुक्ष्मअद्धापल्योपम-
सूक्ष्म उद्धारपल्योपम की प्रक्रिया यहां होती है । अन्तर केवल इतना ही कि वहां प्रति समय एक-एक बालखंड को निकाला जाता है यहां प्रति सौ वर्ष में एक-एक बालखंड को निकाला जाता है ।
बादर क्षेत्रपल्योपम
बादरउद्धारपत्योपम में वर्णित पल्य के समान एक पल्य है। उसे शिर मुंडन के बाद एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालागों के असंख्यातवें भाग से भरा जाए।
बाला का असंख्यातवां भाग पनक ( फफूंदी) जीव के शरीर से असंख्यात गुने स्थान का अवगाहन करता है । प्रति समय बाल-खण्डों से स्पृष्ट एक-एक आकाश प्रदेश का उद्धार किया जाए। जितने समय में पल्य के सारे स्पृष्ट-प्रदेशों का उद्धार होता है, उस समय को बादरक्षेत्रपल्योपम कहा जाता है। बालाग्र खण्ड संख्येय होते हैं इसलिए उनके उद्धार में संख्ये वर्ष ही लगते हैं । सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम
इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया बादरक्षेत्रपल्योपम के समान है । अन्तर केवल इतना ही कि वहां बालाग्र खण्ड से स्पष्ट आकाश के प्रदेशों का उद्धार किया जाता है, लेकिन यहां वालाग्र खण्ड से स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों आकाश-प्रदेशों का उद्धार किया जाता है। इस प्रक्रिया में व्यावहारिक उद्धारपत्योपम काल से असंख्यगुण काल लगता है।
प्रश्न आता है - पाल्य को बालाग्र के खंडों से ठूंस कर भरा जाता है, फिर उसमें उनसे अस्पृष्ट आकाश-प्रदेश कैसे रह सकते हैं ?
उत्तर- आकाश-प्रदेश अति सूक्ष्म होते हैं इसलिए वे बाल-खंडों से भी अस्पृष्ट रह जाते हैं। स्थूल उदाहरण से इस
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तथ्य को समझा जा सकता है।
एक कोष्ठ कूष्मांड से पूर्ण भरा हुआ है। स्थूल दृष्टि में वह भरा हुआ प्रतीत होता है परन्तु उसमें बहुत छिद्र रहते हैं । उन छिद्रों में बिजोरे समा सकते हैं। बिजोरों के छिद्रों में बेल समा जाती है। बेल के छिद्रों में सरसों के दाने समा जाते हैं। सरसों के दानों में गंगा की मिट्टी समा सकती है। इस प्रकार भरे हुए कोष्ठक में भी स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम छिद्र रह जाते हैं ।
प्रश्न होता है— सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम में बालखण्डों से स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों आकाश-प्रदेशों का ग्रहण किया गया है । बादरक्षेत्रपल्योपम में बालखण्डों से स्पृष्ट आकाश-प्रदेश का ही ग्रहण किया गया है । जब स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों आकाश-प्रदेशों का ग्रहण किया गया है, तब केवल स्पृष्ट आकाश-प्रदेशों के ग्रहण का क्या प्रयोजन है ?
दृष्टिवाद में द्रव्यों के मान का उल्लेख है । उसमें से कई द्रव्य बालाग्र से स्पृष्ट आकाश-प्रदेशों से मापे जाते हैं और कई द्रव्य बाला से अस्पृष्ट आकाश-प्रदेशों से मापे जाते हैं। इसलिए इनकी भिन्न-भिन्न उपयोगिता है ।
सागरोपम
सागरोपम के तीन भेद हैं- उद्धारसागरोपम, अद्धासागरोपम और क्षेत्रसागरोपम । प्रत्येक के दो-दो भेद हैंबादर ( व्यावहारिक) और सूक्ष्म ।
करोड़ X करोड़ X १० = १०००००००००००००००
१ पद्म (१०००००००००००००००) पल्योपम का एक सागरोपम होता है। सागरोपम के सारे भेदों की व्याख्यापद्धति पत्योपम की भांति ही है।
१३३ (सू० ४१० )
१४८
१३२ ( सू० ४०६ )
इस सूत्र में सूत्रकार ने एक मनोवैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन किया है। एक समस्या दीर्घकाल से उपस्थित होती रही है कि क्रोध का सम्बन्ध मनुष्य के अपने मस्तिष्क से ही है या बाह्य परिस्थितियों से भी है। वर्तमान के वैज्ञानिक भी इस शोध में लगे हुए हैं । उन्होंने मस्तिष्क के वे बिन्दु खोज निकाले हैं, जहां क्रोध का जन्म होता है। डॉक्टर जोस० एम० आर० डेलगाडो ने अपने परीक्षणों द्वारा दूर शान्त बैठे बन्दरों के विद्युत्-धारा से उन विशेष बिन्दुओं को छूकर लड़वा दिया। यह विद्युत्-धारा के द्वारा मस्तिष्क के विशेष बिन्दु की उत्तेजना से उत्पन्न क्रोध है । इसी प्रकार अन्य बाह्य निमित्तों से भी मस्तिष्क का क्रोध बिन्दु उत्तेजित होता है और क्रोध उत्पन्न हो जाता है । यह पर प्रतिष्ठित क्रोध है । आत्म-प्रतिष्ठित अपने ही आन्तरिक निमित्तों से उत्पन्न होता है ।
स्थान २ : टि० १३२-१३५
देखें २।१५१ का टिप्पण |
१३४ मरण ( सू० ४११ )
मरण के प्रकारों की जानकारी के लिए देखें - उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन ५ का आमुख |
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ११
ज्ञानं मोहयति - आच्छादयतीति ज्ञानमोहो— ज्ञानावरणोदयः, एवं 'दंसणमोहे चेव' सम्यग्दर्शन मोहोदय इति ।
१३५ (सू० ४२२)
प्रस्तुत सुन में मोह के दो प्रकार बतलाए गए हैं। तीसरे स्थान ( ३।१७८) में इसके तीन प्रकार निर्दिष्ट हैंज्ञानमोह, दर्शनमोह और चारित्रमोह । वृत्तिकार ने ज्ञानमोह का अर्थ ज्ञानावतरण का उदय और दर्शनमोह का अर्थ सम्यग्दर्शन का मोहोदय किया है।' दोनों स्थलों में बोधि और बुद्ध के निरूपण के पश्चात् मोह और मूढ़ का निरूपण
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स्थान २: टि०१३६-१४०
है। इससे प्रतीत होता है कि मोह बोधि का प्रतिपक्ष है । यहां मोह का अर्थ आवरण नहीं किन्तु दोष है । ज्ञानमोह होने पर मनुष्य का ज्ञान अयथार्थ हो जाता है। दृष्टिमोह होने पर उसका दर्शन भ्रान्त हो जाता है। चरित्रमोह होने पर आचारमूढता उत्पन्न हो जाती है । चेतना में मोह या मूढता उत्पन्न करने का कार्य ज्ञानावरण नहीं, किन्तु मोह कर्म करता है।
१३६ (सू० ४२८)
देखें २।२५६-२६१ का टिप्पण।
१३७ (सू० ४३१)
उत्तराध्ययन सूत्र' (३३।१५) में अन्तराय कर्म के पांच प्रकार बतलाए गए हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । प्रस्तुत सूत्र में उसके दो प्रकार निर्दिष्ट हैं१. प्रत्युत्पन्न विनाशित—इसका कार्य है, वर्तमान लब्ध वस्तु को विनष्ट करना, उपहत करना। २. पिधत्ते आगामि पथ-इसका कार्य है, भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करना।
ये दोनों प्रकार अनन्तराय कर्म के व्यापक स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं, दानान्त राय आदि इसके उदाहरण मात्र हैं।
१३८ कैवलिको आराधना (सू० ४३५)
कैवलिकी आराधना का अर्थ है-केवली द्वारा की जाने वाली आराधना। यहां केवली शब्द के द्वारा श्रुतकेवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी-इन चारों का ग्रहण किया गया है।
श्रुतकेवली और केवली ये दो शब्द आगम-साहित्य में अनेक स्थानों में प्रयुक्त हैं, परन्तु अवधिकेवली और मनःपर्यवकेवली इनका प्रयोग विशेष नहीं मिलता। केवल स्थानांग में एक जगह मिलता है। स्थानांग के तीसरे स्थानक में तीन प्रकार के जिन बतलाए गए हैं-अवधिजिन, मनःपर्यवजिन और केवलीजिन । जिस प्रकार अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी को प्रत्यक्षज्ञानी होने के कारण जिन कहा गया है उसी प्रकार उन्हें प्रत्यक्षज्ञानी होने के कारण केवली कहा गया है।
१३६ (सू० ४३७)
कैवलिकी आराधना दो प्रकार की होती है१. अन्तक्रिया-(देखें टिप्पण ४११)
२. कल्पविमानोपपत्तिका-प्रवेयक अनुत्तरविमान में उत्पन्न होने योग्य ज्ञान आदि की आराधना । यह श्रुतकेवली आदि के ही होती है।'
१४०-सुभूम (सू० ४४८)
परशुराम के पिता को कार्तवीर्य ने मार डाला। इससे परशुराम का क्रोध तीव्र हो गया और उसने युद्ध में कार्तवीर्य को मारकर उसका राज्य ले लिया। उस समय महारानी तारा गर्भवती थी। उसने वहां से पलायन कर एक आश्रम में शरण ली। एक दिन उसने पुत्र का प्रसव किया। उस बालक ने अपने दांतों से भूमि को काटा। इससे उसका नाम सुभूम रखा।
अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए परशुराम ने सात बार पृथ्वी को निःक्षत्रिय बना डाला। जिन राजाओं
१. उत्तराध्ययनसूत्र, ३३।१५ :
दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे बीरिए तहा ।
पंचविहमन्तराय, समासेण वियाहियं ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६३: ।
केवलिना-श्रुतावधिमनःपर्याय केवलज्ञानिनामिय कैवलिकी सा चासावाराधना चेति कैवलिक्याराधनेति ।
३. स्थानांग सूत्र ३१५१३ ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ६३ :
कल्पाश्च–सौधर्मादयो विमानानि च तदुपरिवत्तिअवेयकादीनि कल्पविमानानि तेषूपपत्तिः-उपपातो जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमानोपपत्ति का ज्ञानाद्याराधना, एष । च श्रुतकेवल्यादीनां भवति ।
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स्थान २ : टि० १४१
को वह मार डालता, उनकी दाढ़ाओं को एकत्रित कर रखता था। इस प्रकार दाढ़ाओं के ढेर लग गए।
सुभूम उसी आश्रम में बढ़ने लगा। मेघनाद विद्याधर ने उससे मित्रता कर ली। जब विद्याधर ने यह जाना कि सुभूम भविष्य में चक्रवर्ती होगा, तब उसने अपनी पुत्री पद्मश्री का विवाह उससे करना चाहा। इस निमित्त से वह वहीं रहने लगा।
एक बार परशुराम ने नैमित्तिक से पूछा-मेरा विनाश किससे होगा? नैमित्तिक ने कहा---'जो व्यक्ति इस सिंहासन पर बैठेगा और थाल में रखी हुई इन दाढ़ाओं को खा लेगा वही तुमको मारने वाला होगा।'
परशराम ने उस व्यक्ति की खोज के लिए एक उपाय ढंढ़ निकाला। उसने एक दानशाला खोल दी। वहां प्रत्येक आगंतुक को भोजन दिया जाने लगा। उसके द्वार पर एक सिंहासन रखा और उस पर दाढ़ाओं से भरा थाल रख दिया।
इस प्रकार युछ काल बीता । एक बार सुभूम ने अपनी माता से पूछा-मां ! क्या संसार इतना ही है (इस आश्रम जितना ही है)? या दूसरा भी है ? मां ने अपने पति की मृत्यु से लेकर घटित सारी घटनाएं उसे एक-एक कर बता दी। सुभूम का अहंभाव जाग उठा ! वह उसी क्षण आश्रम से चला और हस्तिनागपुर में आ पहुंचा। उसने एक परिव्राजक का रूप बनाया और परशुराम की दानशाला में दान लेने गया। वहां द्वार पर रखे हुए सिंहासन पर जा बैठा। उसका स्पर्श पाते ही वे दाढ़ाएं पकवान के रूप में परिणत हो गई। यह देख वहां के ब्राह्मणों ने उस पर प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया। विद्याधर मेघनाद के विद्या के बल से वे प्रहार उन्हीं पर होने लगे।
___ सुभूम विश्वस्त होकर भोजन करने लगा। वहां के ब्राह्मणों ने परशुराम से जाकर सारी बात कही। परशुराम का क्रोध जाग उठा । वह सन्नद्ध होकर वहां आया। उसने विद्याबल से अपने पशु को सुभूम पर फेंका।
सुभूम ने भोजन का थाल अपने हाथ में लिया। वह चक्र के रूप में परिणत हो गया। उसने उस चक्र को परशुराम पर फेंका। परशुराम का सिर कटकर धड़ से अलग हो गया।
सुभम का अभिमान और अधिक उत्तेजित हुआ और उसने इक्कीस बार भूमि को निःब्राह्मण बना डाला। मरकर वह नरक में गया।
१४१–ब्रह्मदत्त (सू० ४४८)
कांपिल्यपुर में ब्रह्म नाम का राजा राज्य करता था। उसकी भार्या का नाम चुलनी और पुत्र का नाम ब्रह्मदत्त था। जब राजा की मृत्यु हुई तब ब्रह्मदत्त की अवस्था छोटी थी। अतः राजा के मित्र कोशलदेश के नरेश दीर्घ ने राज्यभार संभाला और व्यवस्था में संलग्न हो गया। रानी चुलनी के साथ उसका अवैध सम्बन्ध हो गया। यह बात कुमार ब्रह्मदत्त ने अपने मंत्री धनु से जान ली। उसने प्रकारान्तर से यह बात अपनी मां चुलनी से कही। दीर्घ और चुलनी को इससे आघात पहुंचा। उन्होंने ब्रह्मदत्त को मारने का षड्यन्त्र रचा। किन्तु मन्त्री के पुत्र वरधनु की बुद्धि-कौशल से वह बच गया।
वाराणसी के राजा कटक से मिलकर ब्रह्मदत्त ने अनेक राजाओं को अपने पक्ष में कर लिया। जब सारी शक्ति जुट गई तब एक दिन कांपिल्यपुर पर चढ़ाई कर दी। राजा दीर्घ के साथ घमासान युद्ध हुआ। दीर्घ युद्ध में मारा गया। ब्रह्मदत्त वहाँ का राजा हो गया।
एक बार मधुकरी गीत नामक नाट्य-विधि को देखते-देखते उसे जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने पूर्वभव देखा और अपने महामात्य वरधनु से कहा---'आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा'---इस श्लोकार्द्ध का सर्वत्र प्रसार करो और यह घोषणा करो कि जो कोई इसकी पूर्ति करेगा उसे आधा राज्य दिया जाएगा।
कांपिल्यपुर के बाहर मनोरम नामक कानन में एक मुनि ध्यानस्थ खड़े थे। वहां एक रहट चलाने वाला व्यक्ति घोषित श्लोकार्द्ध को बार-बार दुहराने लगा। मुनि ने कायोत्सर्ग सम्पन्न किया और ध्यानपूर्वक श्लोकार्द्ध को सुना। उन्हें मारी घटनाए स्मृत हो गई। उन्होंने उस श्लोक की पूर्ति करते हुए कहा
'एषा नोः षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः।। रहट चलाने वाले ने ये दोनों चरण एक पत्ते पर लिख दिए और दौड़ा-दौड़ा वह राज्यसभा में पहुंचा। श्लोक का अवशिष्ट भाग सुनाया। सुनते ही राजा मूच्छित हो गया। सचेत होने पर वह कानन में आया और अपने भाई को मुनि देश में देख गद्गद् हो गया।
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स्थान २ : टि० १४२-१४३
मुनि ने राजा को संसार की अनित्यता और भोगों की क्षणभंगुरता का उपदेश दिया और उसे प्रवजित हो जाने के लिए कहा। राजा ब्रह्मदत्त ने कहा-'मुने ! आपका कथन यथार्थ है। भोग आसक्ति पैदा करते हैं, यह मैं जानता हूं। किन्तु आर्य ! हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए वे दुर्जेय हैं। मेरा कर्म बंधन निकाचित है। पिछले भव में मैं चक्रवर्ती सनत्कुमार की अपार ऋद्धि को देखकर भोगों में आसक्त हो गया था। उस समय मैंने अशुभ निदान (भोग-संकल्प) कर डाला कि यदि मेरी तपस्या और संयम का फल है तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती बनें । इसका मैंने प्रायश्चित्त नहीं किया। उसी का यह फल है कि मैं धर्म को जानता हुआ भी काम-भोगों में मूच्छित हो रहा हूं। जैसे दलदल में फंसा हुआ हाथी स्थल को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता, वैसे ही काम-गुणों में फंसे हुए हम श्रमण-धर्म को जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं कर सकते।' मुनि राजा के गाढ़ मोहावरण को जान मौन हो गए।
राजा ब्रह्मदत्त बारहवां चक्रवर्ती हुआ। उसने अनुत्तर काम-भोगों का सेवन किया और अन्त में मरकर नरक में उत्पन्न हुआ।
१४२ असुरेन्द्र वजित (सू० ४४६)
असुरेन्द्र चमर और बली के सामानिक देवों की आयु भी उन्हीं के समान होती है, इसलिए चमर और बलि के साथ उनको भी वणित समझना चाहिए।
१४३ दो इन्द्र (सू० ४६०)
आनत और आरण तथा प्राणत और अच्युत--इन चारों देवलोकों के दो इन्द्र हैं। इसलिए चारों कल्पों के देवों का दो इन्द्रों में संग्रह किया है।
१. विस्तृत कथानक के लिए देखें
उत्त रज्झयणाणि तेरहवें अध्ययन का आमुख ।
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तइयं ठाणं
तृतीय स्थान
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आमुख
प्रस्तुत स्थान में तीन की संख्या से संबद्ध विषय संकलित हैं। यह चार उद्देशकों में विभक्त है। इसमें तात्त्विक विषयों के साथ-साथ साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक विषयों की अनेक विभंगियां मिलती हैं। उनमें मनुष्य की शाश्वत मनोभूमिकाओं तथा वस्तु-सत्यों का बहुत मार्मिक ढंग से उद्घाटन हुआ है। मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं--सुमनस्क, दुर्मनस्क और तटस्थ । प्रत्येक मनुष्य बोलता है पर बोलने की प्रतिक्रिया सबमें समान नहीं होती। कुछ मनुष्य बोलने के पश्चात् मन में सुख का अनुभव करते हैं, कुछ लोग दुःख का अनुभव करते हैं और कुछ लोग उक्त दोनों अनुभवों से मुक्त रहते हैं-तटस्थ रहते हैं। इस प्रकार की मनोभूमिका प्रत्येक प्रवृत्ति के परिणामकाल में पाई जाती है । इसी प्रकार कुछ लोग देकर मन में सुख का अनुभव करते हैं, कुछ लोग दुःख का अनुभव करते हैं और कुछ लोग उक्त दोनों अनुभवों से मुक्त रहते हैं।
कंजूस व्यक्ति नहीं देकर सुख का अनुभव करते हैं। संस्कृत कवि माघ जैसे व्यक्ति नहीं देकर दुःख का अनुभव करते हैं। कुछ व्यक्ति उपेक्षाप्रधान स्वभाव के होते हैं, वे न देकर सुख-दुःख किसी का भी अनुभव नहीं करते।
जो लोग सात्त्विक और हित-मित भोजन करते हैं, वे खाने के बाद सुख का अनुभव करते हैं। जो लोग अहितकर या मात्रा में अधिक खा लेते हैं, वे खाने के बाद दुःख का अनुभव करते हैं। साधक व्यक्ति खाने के बाद सुख-दुःख का अनुभव किए बिना तटस्थ रहते हैं।
है, वे लोग युद्ध करने के बाद मन में सुख का अनुभव करते हैं। इस मनोवृत्ति के सेनापतियों और राजाओं के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
जिनके मन में करुणा का स्रोत प्रवाहित होता है, वे लोग युद्ध करने के बाद दुःख का अनुभव करते हैं। सम्राट अशोक का अन्तःकरण युद्ध के बीभत्स दृश्य से द्रवित हो गया था। कलिंग-विजय के बाद उनका करुणाई मन कभी युद्ध-रत नहीं हुआ।
जो लोग युद्ध में वेतन पाने के लिए संलग्न होते हैं, वे युद्ध के पश्चात् सुख या दुःख का अनुभव नहीं करते। प्रस्तुत आलापक में इस प्रकार की विभिन्न मनोवृत्तियों का विश्लेषण किया गया है।
प्रस्तुत स्थान में कहीं-कहीं संवाद भी संकलित हैं। कुछ सूत्र छेदसूत्र विषयक भी हैं। मुनि तीन पात्र रख सकता है। वह तीन कारणों से वस्त्र धारण कर सकता है। दशवकालिक में वस्त्र-धारणा के दो कारण निर्दिष्ट हैं-संयम और लज्जानिवारण । उत्तराध्ययन में वस्त्र-धारणा के तीन कारण निर्दिष्ट हैं-लोक-प्रतीति, संयम-यात्रा का निर्वाह और ग्रहण-स्वयं मुनित्व की अनुभूति। यहां तीन कारण ये निर्दिष्ट हैं-लज्जानिवारण, जुगुप्सानिवारण और परिषहनिवारण।"
१.३१२२५ २.३२३७ ३.३।२४० ४.३१२४३ ५. ३२६७ ६.३१३३६, ३३७
८. दसवेआलियं ६।१६
जं पि बत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं ।
तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरति य ।। ६. उत्तरज्झयणाणि २३।३२
पच्चयत्थं च लोमस्स नाणा बिहविगप्पणं ।
जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पमओयणं । १०.३१३४७
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ठाणं (स्थान)
१५६
स्थान ३ : आमुख
इनमें 'जुगुप्सा का निवारण' यह नया हेतु है । लज्जा स्वयं की अनुभूति है । जुगुप्सा लोकानुभूति है । लोक नग्नता से घृणा करते थे। यह इससे ज्ञात है। भगवान् महावीर को नग्नता के कारण कई कठिनाइयां झेलनी पड़ी। आचारांगचूर्णिकार ने यह स्पष्ट किया है।
प्रस्तुत स्थान में कुछ प्राकृतिक विषयों का संकलन भी मिलता है, जो उस समय की धारणाओं का सूचक है, जैसेअल्पवृष्टि और महावृष्टि के तीन-तीन कारणों का निर्देश ।'
व्यवसाय के आलापक में लौकिक, वैदिक और सामयिक तीनों व्यवसाय निरूपित हैं। उसमें त्रिवर्ग [ अर्थ, धर्म और काम] और अर्धयोनि [साम, दंड और भेद ] जैसे विषय उल्लिखित हैं। वैदिक व्यवसाय के लिए ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद-ये तीन ही उल्लिखित हैं। अथर्ववेद इन तीनों से उद्धृत है। मूलतः वेद तीन ही हैं । इस प्रकार अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएं प्रस्तुत स्थान में मिलती हैं। विषयों की विविधता के कारण इसे पढ़ने में रुचि और ज्ञान, दोनों परिपुष्ट होते हैं।
१. ३।३५६, ३६०
२. ३।३६५-४००
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तइयं ठाणं : पढमो उद्देसो
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
इंद-पदं १. तओ इंदा पण्णत्ता, तं जहा
णामिदे, ठवणिदे, दविदे।
इन्द्र-पदम
इन्द्र-पद त्रयः इन्द्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १. इन्द्र तीन प्रकार के हैं-१. नामइन्द्रनामेन्द्रः, स्थापनेन्द्रः, द्रव्येन्द्रः ।
केवल नाम से इन्द्र, २. स्थापनाइन्द्रकिसी वस्तु में इन्द्र का आरोपण,
३. द्रव्यइन्द्र-भूत या भावी इन्द्र। त्रयः इन्द्राः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-ज्ञानेन्द्रः, २. इन्द्र तीन प्रकार के हैंदर्शनेन्द्रः, चरित्रेन्द्रः।
१. ज्ञानइन्द्र २. दर्शनइन्द्र ३. चरित्रइन्द्र । त्रयः इन्द्रा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा देवेन्द्रः, ३. इन्द्र तीन प्रकार के हैंअसुरेन्द्रः, मनुष्येन्द्रः ।
१. देव इन्द्र २. असुरइन्द्र ३. मनुष्यइन्द्र ।
२. तओ इंदा पण्णत्ता, तं जहा
णाणिदे, सणिदे, चरित्तिदे। ३. तओ इंदा पण्णत्ता, तं जहा
देविदे, असुरिंदे, मणुस्सिदे।
विकुव्वणा-पदं विकरण-पदम्
विकरण-पद ४. तिविहा विकुव्वणा पण्णत्ता, तं त्रिविधं विकरणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ४. विक्रिया तीन प्रकार की होती हैजहा—बाहिरए पोग्गलए बाह्यान् पुद्गलकान् पर्यादाय-एक १. बाह्य पुद्गलों को ग्रहण कर की जाने परियादित्ता—एगा विकुव्वणा, विकरणम्, बाह्यान् पुद्गलान् अपर्या
वाली, बाहिरए पोग्गले अपरियादित्ता- दाय-एक विकरणम्, बाह्यान्।
२. बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना एगा विकुब्वणा, बाहिरए पोग्गले पुद्गलान् पर्यादायापि अपर्यादायापि- की जाने वाली, परियादित्तावि अपरियादित्तावि- एक विकरणम् ।
३. बाह्य पुद्गलों के ग्रहण और अग्रहण एगा विकुव्वणा।
दोनों के द्वारा की जाने वाली। ५. तिविहा विकुव्वणा पण्णत्ता, तं त्रिविधं विकरणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-- ५. विक्रिया तीन प्रकार की होती है
जहा—अब्भंतरए पोग्गले आभ्यन्तरिकान् पुद्गलान् पर्यादाय- १. आन्तरिक पुद्गलों को ग्रहण कर की परियादित्ता—एगा विकुम्वणा, एकं विकरणम्, आभ्यन्तरिकान् जाने वाली, अभंतरए पोग्गले अपरियादित्ता- पुद्गलान् अपर्यादाय—एकं विकरणम्, २. आन्तरिक पुद्गलों को ग्रहण किए एगा विकुव्वणा, अब्भंतरए पोग्गले आभ्यन्तरिकान् पुद्गलान् पर्यादायापि बिना की जाने वाली, परियादित्तावि अपरियादित्तावि. अपर्यादायापि_एक विकरणम । ३. आन्तरिक पुद्गलों के ग्रहण और एगा विकुव्वणा।
अग्रहण दोनों के द्वारा की जाने वाली।
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ठाणं (स्थान)
१५८
जहा --
६. तिविहा विकुव्वणा पण्णत्ता, तं त्रिविधं विकरणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— बाह्याभ्यन्तरिकान् पुद्गलान् पर्यादाय एकं विकरणम्, बाह्याभ्यन्तरिकान् पुद्गलान् अपर्यादाय एकं विकरणम्, बाह्याभ्यन्तरिकान् पुद्गलान् पर्यादायापि अपर्यादायापिएक
बाहिर अंतरए पोग्गले परियादत्ताएगा विकुव्वा, बाहिर अंतरए पोग्गले अपरियादित्ता - एगा विकुव्वा, बाहिर भंतरए पोग्गले परियादित्तावि अपरियादित्तावि एगा
विकरणम् ।
विकुव्वणा ।
संचित-पदं
संचित-पदम्
७. तिविहा णेरइया पण्णत्ता, तं त्रिविधाः नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
जहा
कतिसंचिताः,
अकतिसंचिताः,
अवक्तव्यकसंचिताः ।
कतिसंचिता,
अवत्तव्वगसंचिता ।
८. एवमेगिदियवज्जा जाव वेमा - एवमेकन्द्रियवर्जाः यावत् वैमानिकाः ।
णिया ।
अतिसंचिता,
परियारणा-पदं
परिचारणा पण्णत्ता,
६. तिविहा परियारणा पण्णत्ता, तं त्रिविधा जहा --
तद्यथा—
१. एको देवः अन्यान् देवान्, अन्येषां देवानां देवीश्च अभियुज्य अभियुज्य परिचारयति, आत्मीया देवी: अभियुज्य अभियुज्य परिचारयति आत्मानमेव आत्मना विकृत्य - विकृत्य परिचारयति ।
१. एगे देवे अण्णे देवे, अण्णास देवाणं देवीओ अ अभिजुंजियअभिजुंजिय परियारेति, अप्पणिज्जिआओ देवीओ अभिजुंजिय- अभिजुंजिय परियारेति, अप्पाणमेव अप्पणा विउब्विय विउब्विय परियारेति । २. एगे देवे णो अण्णे देवे, णो अण्णास देवाणं देवीओ अभिजुंजिय- अभिजुंजिय परियारेति, अपणिज्जिआओ देवीओ अभिजुंजिय- अभिजुंजिय परियारेइ,
परिचारणा-पदम्
२. एको देवः नो अन्यान् देवान्, नो अन्येषां देवानां देवी: अभियुज्यअभियुज्य परिचारयति, आत्मीया देवीः अभियुज्य अभियुज्य परिचारयति, आत्मानमेव आत्मना विकृत्य-विकृत्य
स्थान ६ : सूत्र ६-६
६. विक्रिया तीन प्रकार की होती है१. बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण कर की जाने वाली, २. बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना की जाने वाली,
३. बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों के ग्रहण और अग्रहण के द्वारा की जाने वाली ।
संचित पद
७. नैरयिक तीन प्रकार के हैं
१. कतिसंचित -- संख्यात,
२. अकतिसंचित -- असंख्यात,
३. अवक्तव्य संचित - एक । '
८. इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक देवों तक के सभी दण्डकों के तीनतीन प्रकार हैं।
परिचारणा- पद
2. परिचारणा तीन प्रकार की है
९. कुछ देव अन्य देवों तथा अन्य देवों की देवियों का आश्लेष कर-कर परिचारणा करते हैं, कुछ देव अपनी देवियों का आश्लेष कर-कर परिचारणा करते हैं, कुछ देव अपने बनाये हुए विभिन्न रूपों से परिचारणा करते हैं ।
२. कुछ देव अन्य देवों तथा अन्य देवों की देवियों का आश्लेष कर-कर परिचारणा नहीं करते, अपनी देवियों का आश्लेष कर-कर परिचारणा करते हैं, अपने बनाये हुए विभिन्न रूपों से परिचारणा
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ठाणं (स्थान)
१५६
स्थान ३ : सूत्र १०-१५
करते हैं।
अप्पाणमेव अप्पणा विउव्विय- परिचारयति । विउब्विय परियारेति। ३. एगे देवे णो अण्णे देवे, णो ३. एको देवः नो अन्यान् देवान, नो अण्णेसि देवाणं देवीओ अभि- अन्येषां देवानां देवी: अभियुज्यजुंजिय-अभिमुंजिय परियारेति, अभियुज्य परिचारयति, नो आत्मीया णो अप्पणिज्जिताओ देवीओ देवीः अभियुज्य-अभियुज्य अभिमुंजिय-अभिमुंजिय परिया- परिचारयति, आत्मानमेव आत्मना रेति, अप्पाणमेव अप्पाणं विकृत्य-विकृत्य परिचारयति । विउविय-विउन्विय परियारेति ।
३. कुछ देव अन्य देवों तथा अन्य देवों की देवियों से आश्लेष कर-कर परिचारणा नहीं करते, अपनी देवियों का भी आश्लेष कर-कर परिचारणा नहीं करते, केवल अपने बनाये हुए विभिन्न रूपों से परिचारणा करते हैं।
मेहुण-पदं मैथुन-पदम्
मैथुन-पद १०. तिविहे मेहुणे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधं मैथुनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १०. मैथुन तीन प्रकार का है
दिवे, माणुस्सए, तिरिक्खजोणिए। दिव्यं, मानुष्यक, तिर्यग्योनिकम्।। १. दिव्य, २. मानुष्य, ३. तिर्यक्योनिक। ११. तओ मेहुणं गच्छंति, तं जहा- त्रयो मैथुनं गच्छन्ति, तद्यथा- ११. तीन मैथुन को प्राप्त करते हैं
देवा, मणुस्सा, तिरिक्खजोणिया। देवाः, मनुष्याः, तिर्यग्योनिका: । १. देव, २. मनुष्य, ३. तिर्यञ्च। १२. तओ मेहुणं सेवंति, तं जहा- त्रयो मैथुनं सेवन्ते, तद्यथा- १२. तीन मैथुन को सेवन करते हैंइत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः।
१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक।
जोग-पदं योग-पदम्
योग-पद १३. तिविहे जोगे पणत्ते, तं जहा- त्रिविधो योगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा.... १३. योग' तीन प्रकार का है--
मणजोगे, वइजोगे, कायजोगे। मनोयोगः, वाग्योगः, काययोगः। १. मनोयोग, २. वचनयोग, ३. काययोग। एवं_णेरइयाणं विलिदिय- एवम_नैरयिकाणां विकलेन्द्रिय- विकलेन्द्रियों (एक, दो, तीन, चार इन्द्रियों वज्जाणं जाव वेमाणियाणं। वर्जानां यावत् वैमानिकानाम् ।
वाले जीवों) को छोड़कर शेष सभी दण्डकों
में तीनों ही योग होते हैं। १४. तिविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १४. प्रयोग तीन प्रकार का है
मणपओगे, वइपओगे, कायपओगे। मनःप्रयोगः, वाक्प्रयोग, कायप्रयोगः । १. मनःप्रयोग, २. वचनप्रयोग, जहा जोगो विलिदियवज्जाणं यथा योगो विकलेन्द्रियवर्जानां यावत् ३. कायप्रयोग। जाव तहा पओगोवि। तथा प्रयोगोऽपि।
विकलेन्द्रियों (एक, दो, तीन, चार इन्द्रियों वाले जीवों) को छोड़कर शेष सभी दण्डकों में तीनों ही प्रयोग होते हैं।
करण-पदं करण-पदम्
करण-पद १५. तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधं करणं प्रज्ञप्तम् तद्यथा- १५. करण तीन प्रकार का है
मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे। मनःकरणं, वाक्करणं, कायकरणम् । १. मनःकरण, २. वचनकरण,३. कायकरण।
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ठाणं (स्थान)
१६०
स्थान ३: सूत्र १६-१६ एवं—विलिदियवज्ज जाव एवम् — विकलेन्द्रियवर्ज यावत् वैमानि- विकलेन्द्रियों (एक, दो, तीन, चार इन्द्रियों वेमाणियाणं। कानाम् ।
वाले जीवों) को छोड़कर शेष सभी
दण्डकों में तीनों ही करण होते हैं। १६. तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधं करणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १६. करण तीन प्रकार का है
आरंभकरणे, संरंभकरणे, समारंभ- आरम्भकरणं, संरम्भकरणं, समारम्भ- १. आरंभ (वध) करण, करणे । णिरंतरं जाव करणम् । निरन्तरं यावत् २. सरंभ (वध का संकल्प) करण, वेमाणियाणं । वैमानिकानाम् ।
३. समारंभ (परिताप) करण। -ये सभी दण्कों में होते हैं।
आउय-पगरण-पदं आयुष्क-प्रकरण-पदम्
आयुष्क-प्रकरण-पद १७. तिहि ठाणेहि जीवा अप्पाउयत्ताए त्रिभिः स्थानः जीवा अल्पायुष्कतया १७. तीन प्रकार से जीव अल्पआयुप्यकर्म का कम्म पगरति, तं जहा- कम प्रकुवान्त, तद्यथा
बन्धन करते हैंपाणे अतिवातित्ता भवति, प्राणान् अतिपातयिता भवति,
१. जीवहिंसा से, मुसं वइत्ता भवति, मृषा वदिता भवति,
२. मृषावाद से, तहारूवं समणं वा माहणं वा तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा अस्पशु- ३. तथारूप श्रमण माहन को अस्पर्शक अफासुएणं अणेसणिज्जेण असण- केन अनेषणीयेन अशनपानखादिम
तथा अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य पाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता स्वादिमेन प्रतिलाभयिता भवति-इति- का प्रतिलाभ (दान) करने से। भवति—इच्चेतेहिं तिहि ठाहिं एतैः त्रिभिः स्थानः जीवा अल्पायुष्क
इन तीन प्रकारों से जीव अल्पआयुष्यजीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंति। तया कर्म प्रकुर्वन्ति ।
कर्म का बन्धन करते हैं। १८. तिहि ठाणेहि जीवा दीहाउयत्ताए त्रिभिः स्थानः जीवा दीर्घायुष्कतया १८. तीन प्रकार से जीव दीर्घआयुष्यकर्म का कम्मं पगरेंति, तं जहा- कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा--
बन्धन करते हैंजो पाणे अतिवातित्ता भवइ, नो प्राणान् अतिपातयिता भवति, १. जीव-हिंसा न करने से, णो मुसं वइत्ता भवइ, नो मृषा वदिता भवति,
२. मृषावाद न बोलने से, तहारूवं समणं वा माहणं वा तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा ३. तथारूप श्रमण माहन को प्रासुक तथा फासएणं एसणिज्जेणं असण- स्पर्शकेन एषणीयेन अशनपानखादिम- एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य का पाणखाइमसाइमेणं पडिलाभत्ता स्वादिमेन प्रतिलाभयिता भवति- प्रतिलाभ (दान) करने से। भवइ–इच्चेतेहि तिहि ठाणेहि इतिएतैः त्रिभिः स्थानः जीवाः दीर्घा- इन तीन प्रकारों से जीव दीर्घआयुष्यजीवा दोहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति । युष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति ।
कर्म का बन्धन करते हैं। १६. तिहि ठाणेहि जीवा असुभदीहा- त्रिभिः स्थानः जीवाः अशुभदीर्घायुष्क
उयत्ताए कम्मं पगरेति, तं जहा- तया कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा- १६. तीन प्रकार से जीव अशुभदीर्घआयुष्यपाणे अतिवातित्ता भवइ, प्राणान् अतिपातयिता भवति, कर्म का बंधन करते हैंमुसं वइत्ता भवइ, मृषा वदिता भवति,
१. जीव-हिंसा से, तहारूवं समणं वा माहणं वा तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा २. मृषावाद से,
हीलित्वा निन्दित्वा खिसयित्वा ३. तथारूप श्रमण माहन की अवहेलना
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ठाणं (स्थान)
स्थान ३ : सूत्र २०-२३ होलित्ता णिदित्ता खिसित्ता गहित्वा अवमान्य अन्यतरेण अमनोजेन । निन्दा, अवज्ञा, गर्हा और अपमान कर गरहित्ता अवमाणित्ता अण्णयरेणं अप्रीतिकारकेण अशनपानखादिम- किसी अमनोज्ञ तथा अप्रीतिकर, अशन, अमणुणेणं अपीतिकारतेणं स्वादिमेन प्रतिलाभयिता भवति- पान, खाद्य, स्वाद्य का प्रतिलाभ (दान) असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला- इतिएतैः त्रिभिः स्थानः जीवा करने से। भेत्ता भवइ—इच्चेतेहिं तिहिं अशुभदीर्घायुष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति । इन तीन प्रकारों से जीव अशुभदीर्घठाणेहिं जीवा असुभदोहाउयत्ताए
आयुष्यकर्म का बन्धन करते हैं। कम्मं पगरेंति। २०. तिहि ठाणेहि जीवा सुभदीहा- त्रिभिः स्थानः जीवाः शुभदीर्घायुष्क- २०. तीन प्रकार से जीव शुभदीर्घआयुष्यकर्म
उयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा— तया कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा- का बंधन करते हैंणो पाणे अतिवातित्ता भवइ, नो प्राणान् अतिपातयिता भवति, १. जीव-हिंसा न करने से, णो मुसं वदित्ता भवइ, नो मृषा वदिता भवति,
२. मृषावाद न बोलने से, तहारूवं समणं वा माहणं वा तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा । ३. तथा रूप श्रमण माहन को वंदना, वंदित्ता णमंसित्ता सक्कारित्ता वन्दित्वा नमस्कृत्य सत्कृत्य नमस्कार कर, उनका सत्कार, सम्मान सम्माणित्ता कल्लागं मंगलं देवतं सम्मान्य कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं कर, कल्याण कर, मंगल-देवरूप तथा चेतितं पज्जुवासेत्ता मणुण्णेणं पर्युपास्य मनोज्ञेन प्रीतिकारकेण चैत्यरूप की पर्युपासना कर, उन्हें मनोज्ञ पीतिकारएणं असणपाणखाइम- अशनपानखादिमस्वादिमेन प्रतिलाभ- तथा प्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य साइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ- यिता भवति—इतिएतैः त्रिभिः स्थानः का प्रतिलाभ (दान) करने से । इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा जीवाः शुभदीर्घायुष्कतया कर्म इन तीन प्रकारों से जीव शुभदीर्घआयुष्यसुहदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेति । प्रकुर्वन्ति ।
कर्म का बन्धन करते हैं।
गुत्ति-अगुत्ति-पदं गुप्ति-अगुप्ति-पदम्
गुप्ति-अगुप्ति-पद २१. तओ गुत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा.- तिस्रः गुप्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—मनो- २१. गुप्ति" तीन प्रकार की है—१. मनोगुप्ति,
मणगुत्ती, वइगुत्ती, कायगुत्ती। गुप्तिः, वाग्गु प्तिः, कायगुप्तिः। २. वचनगुप्ति, ३. कायगुप्ति । २२. संजयमणुस्साणं तओ गुत्तीओ संयतमनुष्याणां तिस्रः गुप्तयः प्रज्ञप्ताः, २२. संयत मनुष्य के तीनों ही गुप्तियां होती
पण्णताओ, तं जहा- तद्यथा—मनोगुप्तिः, वाग्गुप्तिः, हैं—१. मनोगुप्ति, २. वचनगुप्ति, मणगुत्ती, वइगुत्ती, कायगुत्ती। कायगुप्तिः ।।
३. कायगुप्ति। २३. तओ अगुत्तीओ पण्णत्ताओ, तं तिस्रः अगुप्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २३. अगुप्ति तीन प्रकार की है
जहा—मणअगुत्ती, वइअगुत्ती, मनोऽगुप्तिः, वागऽगुप्तिः, कायाऽगुप्तिः। १. मनअगुप्ति, २. वचनअगुप्ति, कायअगुत्ती।
एवम्-नैरयिकाणां यावत् स्तनित- ३. कायअगुप्ति। एवं—णेरइयाणं जाव थणिय- कुमाराणां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां नरयिक, दस भवनपति, पञ्चेन्द्रियकुमाराण पंचिदियतिरिक्ख- असंयतमनुष्याणां वानमन्तराणां तिर्यञ्चयौनिक, असंयत मनुष्य, वानजोणियाणं असंजतमणुस्साणं ज्योतिष्काणां वैमानिकानाम् । मंतर, ज्योतिषी तथा वैमानिक देवों में वाणमंतराणं जोइसियाणं
तीनों ही अगुप्तियां होती हैं। वेमाणियाणं ।
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ठाणं (स्थान)
दंड-पदं
२४. तओ दंडा पण्णत्ता, तं जहा-मणदंडे, वइदंडे, कायदंडे । २५. रइयाणं तओ दंडा पण्णत्ता, तं जहा-मणदंडे, वइदंडे, कायदंडे । विदियवज्जं जाव वेमाणियाणं
दण्डः, वाग्दण्डः, कायदण्डः । नैरयिकाणां त्रयो दण्डाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - मनोदण्डः, वाग्दण्डः, कायदण्डः ।
।
विकलेन्द्रियवर्जं यावत् वैमानिकानाम् ।
अहवा गरहा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा
दीपेगे अद्धं गरहति,
रहस्पेगे अद्धं गरहति, कार्यपेगे पडिसाहरति पावाणं कम्माणं अकरणयाए ।
गरहा-पदं
गर्हा-पदम्
२६. तिविहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा— त्रिविधा गर्दा प्रज्ञप्ता, तद्यथा—
मनसा वा एकः गर्हते,
सा वेगे रहत वयसा वेगे गरहति,
वचसा वा एकः गर्हते,
कायसा वेगे गरहति – पावाणं कायेन वा एकः गर्हते पापानां कर्मणां
कम्माणं अकरणयाए ।
अकरणतया ।
अथवा गर्दा त्रिविधा प्रज्ञप्ता,
पच्चक्खाण-पदं
२७. तिविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा - माणसा वेगे पच्चक्खाति, वयसा वेगे पच्चक्खाति, कायसा वेगे पच्चक्खाति● पावाणं कम्माणं अकरणयाए । अहवा_पच्चक्खाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहादीपेगे अर्द्ध पच्चक्खाति,
१६२
दण्ड-पदम्
दण्ड- पद
यो दण्डाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा मनो- २४. दण्ड तीन प्रकार का है
तद्यथा—
दीर्घमप्येकः अद्ध्वानं गर्हते, ह्रस्वमप्येकः अद्ध्वानं गर्हते, कायमप्येकः प्रतिसंहरति — पापानां कर्मणां अकरणतया ।
प्रत्याख्यान-पदम्
त्रिविधं प्रत्याख्यानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथामनसा वैकः प्रत्याख्याति,
रहस्संपेगे अद्धं पच्चक्खाति, कायंपेगे पडिसाहरति — पावाणं कायमप्येकः
वचसा वैकः प्रत्याख्याति,
कायेन वैकः प्रत्याख्याति पापानां कर्मणां अकरणतया । अथवा — प्रत्याख्यानं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा दीर्घमप्येकः
अद्ध्वानं
प्रत्याख्याति,
ह्रस्वमप्येकः अद्ध्वानं प्रत्याख्याति, प्रतिसंहरतिपापानां
स्थान ३ : सूत्र २४ -२७
१२
१. मनोदंड, २. वचनदंड, ३ . कायदंड । " २५. नैरयिकों में तीन दण्ड होते हैं
१. मनोदण्ड, २. वचनदण्ड, ३. कायदण्ड । विकलेन्द्रिय (एक, दो, तीन, चार इन्द्रिय वाले) जीवों को छोड़कर वैमानिक देवों तक के सभी दण्डकों में तीनों ही दण्ड होते हैं ।
ग-पद
२६. गर्हा तीन प्रकार की है—
१. कुछ लोग मन से गर्दा करते हैं,
२. कुछ लोग वचन से गर्हा करते हैं,
३. कुछ लोग काया से गर्दा करते हैं, दुबारा पाप कर्मों में प्रवृत्ति नहीं करते । अथवा गर्हा तीन प्रकार की है
१. कुछ लोग दीर्घकाल तक पाप कर्मों से ग करते हैं, २. कुछ लोग अल्पकाल तक पाप कर्मों से गर्हा करते हैं, ३. कुछ लोग काया को प्रति संहत ( संवृत ) करते हैं, दुबारा पाप कर्मों में प्रवृत्ति नहीं करते । "
प्रत्याख्यान - पद
२७. प्रत्याख्यान (त्याग) तीन प्रकार का है१. कुछ जीव मन से प्रत्याख्यान करते हैं, २. कुछ जीव वचन से प्रत्याख्यान करते हैं, ३. कुछ जीव काया से प्रत्याख्यान करते हैं, दुबारा पाप कर्मों में प्रवृत्ति नहीं करते । अथवा प्रत्याख्यान तीन प्रकार का है१. कुछ जीव दीर्घकाल तक पाप कर्मों का प्रत्याख्यान करते हैं, २. कुछ जीव अल्पकाल तक पाप कर्मों का प्रत्याख्यान करते हैं, ३. कुछ जीव काया को प्रतिसंहृत
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ठाणं (स्थान)
१६३
स्थान ३ : सूत्र २८-३४
कम्माणं अकरणयाए।
कर्मणां अकरणतया।
करते हैं, दुबारा पाप-कर्मों में प्रवृत्ति नहीं करते।
उपकार-पदं
उपकार-पदम् २८. तओ रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयो रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
पत्तोवगे, पुप्फोवगे, फलोवगे। पत्रोपगः, पुष्पोपगः, फलोपगः । एवामेव तओ पुरिसजाता पण्णत्ता, एवमेव त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तं जहा—पत्तोवारुक्खसमाणे, तद्यथा-पत्रोपगरुक्षसमानः, पुप्फोवारुक्खसमाणे, पुष्पोपगरुक्षसमानः, फलोवारुक्खसमाणे।
फलोपगरुक्षसमानः ।
उपकार-पद २८. वृक्ष तीन प्रकार के होते हैं-१. पत्रों
वाले, २. पुष्पों वाले, ३. फलों वाले। इसी प्रकार पुरुष भी तीन प्रकार के होते हैं-१. कुछ पुरुष पत्रों वाले वृक्षों के समान होते हैं—अल्प उपकारी, २. कुछ पुरुष पुष्पों वाले वृक्षों के समान होते हैं—विशिष्ट उपकारी, ३. कुछ पुरुष फलों वाले वृक्षों के समान होते हैं—विशिष्टतर उपकारी।३५
पुरिसजात-पदं पुरुषजात-पदम्
पुरुषजात-पद २६. तओ पुरिसज्जाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा—णामपुरिसे, ठवणपुरिसे, तद्यथा
१. नामपुरुष, २. स्थापनापुरुष, दव्वपुरिसे।
नामपुरुषः, स्थापनापुरुषः, द्रव्यपुरुषः। ३. द्रव्यपुरुष ।" ३०. तओ पुरिसज्जाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहाणाणपुरिसे, सणपुरिसे, तद्यथा
१.ज्ञानपुरुष, २. दर्शनपुरुष, चरित्तपुरिसे।
ज्ञानपुरुषः, दर्शनपुरुषः, चरित्रपुरुषः। ३. चरित्नपुरुष।" ३१. तओ पुरिसज्जाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा वेदपुरिसे, चिधपुरिसे, वेदपुरुषः, चिन्हपुरुषः, अभिलापपुरुषः। १. वेदपुरुष, २. चिह्नपुरुष, अभिलावपूरिसे।
३. अभिलापपुरुष। ३२. तिविहा पुरिसा पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधाः पुरुषाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- ३२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
उत्तमपुरिसा, मज्झिमपुरिसा, उत्तमपुरुषाः मध्यमपुरुषाः, १. उत्तमपुरुष, २. मध्यमपुरुष, जहण्णपुरिसा। जघन्यपुरुषाः ।
३. जघन्यपुरुष । ३३. उत्तमपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तं उत्तमपुरुषाः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, ३३. उत्तम-पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा—धम्मपुरिसा, भोगपुरिसा, तद्यथा
१. धर्मपुरुष–अहंत, कम्मपुरिसा।
२. भोगपुरुष-चक्रवर्ती, धम्मपुरिसा अरहंता, भोगपुरिसा धर्मपुरुषाः अर्हन्तः, भोगपुरुषाः चक्र- ३. कर्मपुरुष-वासुदेव।"
चक्कवट्टी, कम्मपुरिसा वासुदेवा। वर्तिनः, कर्मपुरुषाः वासुदेवाः। ३४. मज्झिमपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, मध्यमपुरुषाः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, ३४. मध्यम-पुरुष तीन प्रकार के हैं
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ठाणं (स्थान)
तं जहा उग्गा, भोगा, राइण्णा ।
३५. जहण्णपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा -
दासा, भयगा, भाइलगा ।
मच्छ-पदं
३६. तिविहा मच्छा पण्णत्ता, तं जहा— अंडया, पोयया, संमुच्छिमा ।
३७. अंडया मच्छा तिविहा पण्णत्ता, तं
जहा इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा । ३८. पोतया मच्छा तिविहा पण्णत्ता, तं
जहा - इत्थी, पुरिसा, णपुंसंगा ।
पक्खि-पदं
३६. तिविहा पक्खी पण्णत्ता, तं जहा— अंडया, पोयया, संमुच्छिमा । ४०. अंडया पक्खी तिविहा पण्णत्ता, तं
जहा - इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा । ४१. पोयया पक्खी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा ।
परिसप्प - पदं
४२. "तिविहा उरपरिसप्पा पण्णत्ता, तं जहा - अंडया, पोयया, संमुच्छिमा । ४३. अंडया उरपरिसप्पा तिविहा
पण्णत्ता, तं जहा— इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा।
१६४
तद्यथा— उग्रा:, भोजाः, राजन्याः ।
जघन्यपुरुषाः त्रिविधा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— दासाः, भूतकाः, भागिनः ।
मत्स्य-पदम्
त्रिविधाः मत्स्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअण्डजाः, पोतजाः, सम्मूच्छिमाः ।
अण्डजाः मत्स्याः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः । पोतजाः मत्स्याः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः ।
पक्षि-पदम्
त्रिविधाः पक्षिणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— अण्डजाः, पोतजा:, सम्मूर्छिमाः । अण्डजाः पक्षिणः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः । पोतजाः पक्षिणः त्रिविधाः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—स्त्रियः, :, पुरुषाः, नपुंसकाः ।
परिसर्प-पदम्
त्रिविधा उरः परिसर्पाः
तद्यथा
अण्डजाः, पोतजाः, सम्मूच्छिमाः । अण्डजाः उरः परिसर्पाः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः ।
प्रज्ञप्ताः,
स्थान ३ : सूत्र ३५-४३
१. उग्र - आरक्षक,
२. भोज - गुरुस्थानीय,
३. राजन्य - वयस्य । "
३५. जधन्य पुरुष तीन प्रकार के होते हैं१. दास, २. भूतक— नौकर १३. भागीदार । २२
मत्स्य पद
३६. मत्स्य तीन प्रकार के होते हैं
१. अंडज - अंडे से पैदा होने वाले,
२. पोतज - बिना आवरण के पैदा होने
वाले - ह्वेल मछली आदि । ३. संमूच्छिम" - सहज संयोगों से पैदा होने वाले ।
३७. अंडज मत्स्य तीन प्रकार के होते हैं—
१. स्त्री, २, पुरुष, ३. नपुंसक । ३८. पोतज मत्स्य तीन प्रकार के होते हैं१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक ।
पक्षि-पद
३६. पक्षी तीन प्रकार के होते हैं
१. अंडज, २. पोतज, ३. संमूच्छिम | ४०. अंडज पक्षी तीन प्रकार के होते हैं
१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक । ४१. पोतज पक्षी तीन प्रकार के होते हैं१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक ।
परिसर्प-पद
४२. उरपरिसर्प " तीन प्रकार के होते हैं१. अंडज, २. पोतज, ३. संमूच्छिम |
४३. अंडज उरपरिसर्प तीन प्रकार के होते हैं१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक
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ठाणं (स्थान)
१६५
४४. पोयया उरपरिसप्पा तिविहा पोतजाः उरः परिसर्पाः
पण्णत्ता, तं जहा
इत्थी, पुरिसा, पुंगा । ४५. तिविहा भुजपरिसप्पा पण्णत्ता, तं
जहा - अंडया, पोयया, संमुच्छिमा । तद्यथा—
इत्थी, पुरिसा, पुंगा । ४७. पोयया भुजपरिसप्पा तिविहा
पण्णत्ता, त जहा
इत्थी, पुरिसा, पुंगा ।°
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः । त्रिविधाः भुजपरिसर्पाः
..अण्डजाः, पोतजाः, सम्मूर्च्छिमाः ।
४६. अंडया भुजपरिसप्पा तिविहा अण्डजाः भुजपरिसर्पाः त्रिविधाः
पण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः । भुजपरिसर्पाः
पोतजाः
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः ।
पुरिस-पदं
५१. तिविहा पुरिसा पण्णत्ता, तं जहा— तिरिक्खजोणियपुरिसा, मणुस्स पुरिसा, देवपुरिसा । ५२. तिरिक्खजोणियपुरिसा तिविहा पण्णत्ता तं जहा — जलचरा,
थलचरा, खहचरा ।
इत्थी - पदं
४८. तिविहाओ इत्थोओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तिरिक्खजोणित्थीओ, मस्सित्थीओ, देवित्थओ । ४६. तिरिक्खजोणीओ इत्थीओ
तिविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहाजलचरीओ, थलचरीओ, खहचरीओ।
५०. मणुसित्थीओ
तिविहाओ
पण्णत्ताओ, तं जहाकम्मभूमियाओ, अकम्मभूमियाओ, आन्तरद्वीपिकाः ।
अंतरदीविगाओ।
त्रिविधा:
प्रज्ञप्ताः,
त्रिविधा:
प्रज्ञप्ताः,
मनुष्यस्त्रियः त्रिविधा: तद्यथा— कर्मभूमिजाः, अकर्मभूमिजाः,
पुरुष-पदम्
त्रिविधाः पुरुषाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथातिर्यग्योनिकपुरुषाः, मनुष्यपुरुषाः,
देवपुरुषाः । तिर्यग्योनिकपुरुषाः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—जलचराः, स्थलचराः, खेचराः ।
स्थान ३ : सूत्र ४४-५२
i
स्त्री-पदम्
स्त्री- पद
त्रिविधाः स्त्रियः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— तिर्यग्योनिस्त्रियः, मनुष्य स्त्रियः,
४८. स्त्रियां तीन प्रकार की होती हैं१. तिर्यक्ोनिक स्त्री २. मनुष्यस्त्री, देवस्त्रियः । ३. देवस्त्री । तिर्यग्योनिकाः स्त्रियः त्रिविधा: ४६ तिर्यक्योनिकस्त्रियां तीन प्रकार की प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— होती हैं
जलचर्य:, स्थलचर्यः, खेचर्यः ।
१. जलचरी, २. स्थलचरी, ३. खेचरी ।
४४. पोतज उरपरिसर्प तीन प्रकार के होते हैं—
१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक ।
४५. भुजपरिसर्प " तीन प्रकार के होते हैं१. अंडज, २. पोतज, ३. संमूच्छिम |
४६. अंडज भुजपरिसर्प तीन प्रकार के होते
हैं
१. स्त्री, २. पुरुष, ६. नपुंसक । ४७. पोतज भुजपरिसर्प तीन प्रकार के होते
हैं
१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक
५०. मनुष्य स्त्रियां तीन प्रकार की होती हैं
१. कर्मभूमिजा, २. अकर्मभूमिजा, ३. अन्तद्वपजा । २६
पुरुष-पद
५१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. तिर्यक्ोनिकपुरुष, २. मनुष्यपुरुष, ३. देवपुरुष ।
५२. तिर्यक्ोनिकपुरुष तीन प्रकार के होते हैं - १. जलचर, २. स्थलचर,
३. खेचर ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ३: सूत्र ५३-६१ ५३. मणुस्सपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तं मनुष्यपुरुषा: त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, ५३. मनुष्यपुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा—कम्मभूमिया, अकम्म- तद्यथा-कर्मभूमिजाः, अकर्मभूमिजाः, १. कर्मभूमिज, २. अकर्मभूमिज, भूमिया, अंतरदीवगा। आन्तरद्वीपकाः।
३. अन्तीपज।
पा
णपुंसग-पदं नपुंसक-पदम्
नपुंसक-पद ५४. तिविहा णपुंसगा पण्णत्ता, तं त्रिविधाः नपुंसकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५४. नपुंसक तीन प्रकार के होते हैं
जहा—णेरइयणपुंसगा, तिरिक्ख- नैरयिकनपुंसकाः, तिर्यग्योनिकनपुंसकाः, १. नरयिकनपुंसक, २. तिर्यक्योनिकजोणियणपुंसगा, मणुस्सणपुंसगा। मनुष्यनपुंसकाः।
नपुंसक, ३. मनुष्यनपुंसक। ५५. तिरिक्खजोणियणपुंसगा तिविहा तिर्यग्योनिकनपुंसकाः त्रिविधाः ५५. तिर्यकयोनिक नपुंसक तीन प्रकार के पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होते हैंजलयरा, थलयरा, खहयरा। जलचराः, स्थलचराः, खेचराः। १. जलचर, २. स्थलचर, ३. खेचर। ५६. मणुस्सणपुंसगा तिविधा पण्णत्ता, मनुष्यनपुंसकाः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, ५६. मनुष्यनपुंसक तीन प्रकार के होते हैं
तं जहा—कम्मभूमिगा, अकम्म- तद्यथा—कर्मभूमिजा:, अकर्मभूमिजाः, १. कर्मभूमिज, २. अकर्मभूमिज, भूमिगा, अंतरदीवगा। आन्तरद्वीपकाः।
३. अन्तीपज।
तिरिक्खजोणिय-पदं तिर्यग्योनिक-पदम्
तिर्यग्योनिक-पद ५७. तिविहा तिरिक्खजोणिया पण्णत्ता, त्रिविधा: तिर्यग्योनिकाः प्रज्ञप्ताः, ५७. तिर्यक्योनिक जीव तीन प्रकार के होते
तं जहा—इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। तद्यथा—स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः। हैं-१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक। लेसा-पदं लेश्या-पदम्
लेश्या-पद ५८. गेरइयाणं तओ लेसाओ नैरयिकाणां तिस्र: लेश्याः प्रज्ञप्ताः, ५८. नरयिकों में तीन लेश्याएं होती हैं
पण्णत्ताओ, तं जहा- तद्यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, कण्हलेसा, णीललेसा, काउलेसा। कापोतलेश्या।
३. कापोतलेश्या। ५६. असुरकुमाराणं तओ लेसाओ असुरकुमाराणां तिस्रः लेश्याः संक्लिष्टाः ५६. असुरकुमार के तीन लेश्याएं संक्लिष्ट संकिलिट्ठाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होती हैं-१. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ___ कण्हलेसा, णीललेसा, काउलेसा। कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या। ३. कापोतलेश्या । ६०. एवं—जाव थणियकुमाराणं। एवम्—यावत् स्तनितकुमाराणाम्। ६०. इसी प्रकार स्तनितकुमार तक के सभी
भवनपति देवों के तीन लेश्याएं संक्लिष्ट
होती हैं। ६१. एवं—पुढविकाइयाणं आउ- एवम्—पृथिवीकायिकानां अब्-वनस्पति- ६१. इसी प्रकार पृथ्वीकायिक", अप्कायिक, वणस्सतिकाइयाणवि। कायिकानामपि।
वनस्पतिकायिक जीवों के भी तीन लेश्याएं संक्लिष्ट होती है१. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या।
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ठाणं (स्थान)
१६७
स्थान ३ : सूत्र ६२-६६ ६२. तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं । दि- तेजस्कायिकानां वायुकायिकानां ६२. तेजस्कायिक", वायुकायिक, द्वीन्द्रिय,
याणं तेंदियाणं चरिदिआणवि द्वीन्द्रियाणां त्रीन्द्रियाणां चतुरिन्द्रि- त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में तीन तओ लेस्सा, जहा णेरइयाणं। याणामपि तिस्रः लेश्याः, यथा नैर- लेश्याएं होती हैं--१. कृष्णलेश्या, यिकाणाम् ।
२. नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या। ६३. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तओ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां तिस्रः ६३. पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक जीवों के तीन
लेसाओ संकिलिट्ठाओ पण्णत्ताओ, लेश्याः संक्लिष्टाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- लेश्याएं संक्लिष्ट होती हैंतं जहा
कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या। १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, कण्हलेसा, गोललेसा, काउलेसा।
३. कापोतलेश्या। ६४. पाँचदियतिरिक्खजोणियाणं तओ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां तिस्रः ६४. पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक जीवों के तीन
लेसाओ असंकिलिट्ठाओ लेश्याः असंक्लिष्टाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- लेश्याएं असंक्लिष्ट होती हैंपण्णत्ताओ, तं जहा. तेउलेसा, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। १. तेजोलेश्या, २. पद्मलेश्या, पम्हलेसा, सुक्कलेसा।
३. शुक्ललेश्या। ६५. 'मणुस्साणं तओ लेसाओ मनुष्याणां तिस्रः लेश्याः संक्लिष्टा: ६५. मनुष्यों के तीन लेश्याएं संक्लिष्ट होती
संकिलिट्ठाओ पण्णत्ताओ, तं जहा– प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—कृष्णलेश्या, नील- हैं-१. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, कण्हलेसा, णीललेसा, काउलेसा। लेश्या, कापोतलेश्या।
३. कापोतलेश्या। ६६. मणुस्साणं तओ लेसाओ असंकि- मनुष्याणां तिस्रः लेश्या: असंक्लिष्टाः ६६. मनुष्यों के तीन लेश्याएं असंक्लिष्ट होती लिट्ठाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
हैं-१. तेजोलेश्या, २. पद्मलेश्या, तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। ३. शुक्ललेश्या।
६७. वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं। वानमन्तराणां यथा असुरकुमाराणाम् । ६७. वानमंतरों के तीन लेश्याएं संक्लिष्ट
होती हैं-१. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या,
कापोतलेश्या। ६८. वेमाणियाणं तओ लेस्साओ वैमानिकानां तिस्रः लेश्याः प्रज्ञप्ताः, ६८. वैमानिक देवों के तीन लेश्याएं होती हैंपण्णत्ताओ, तं जहा तेउलेसा, तद्यथा
१. तेजोलेश्या, २. पद्मलेश्या, पम्हलेसा, सुक्कलेसा। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। ३. शुक्ललेश्या ।
तारारूव-चलण-पदं तारारूप-चलन-पदम्
तारारूप-चलन-पद ६९. तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेज्जा, त्रिभिः स्थानैः तारारूपं चलेत, तद्यथा- ६६. तीन कारणों से तारा चलित होते हैं
तं जहा—विकुब्वमाणे वा, विकुर्वाणं वा, परिचारयमाणं वा, १. वैक्रिय रूप करते हुए, २. परिचारणा परियारेमाणे वा,
स्थानाद् वा स्थानं संक्रमत-तारारूपं करते हुए, ३. एक स्थान से दूसरे स्थान ठाणाओ वा ठाणं संकममाणे- चलेत् ।
में संक्रमण करते हुए। तारारूवे चलेज्जा।
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ठाणं (स्थान)
१६८
स्थान ३ : सूत्र ७०-७४
देवविक्किया-पदं देवविक्रिया-पदम्
देवविक्रिया-पद ७०. तिहि ठाणेहि देवे विज्जुयारं त्रिभिः स्थानैः देवः विद्युत्कारं कुर्यात्, ७०. तीन कारणों से देव विद्युत्कार (विद्युत्
करेज्जा, तं जहा—विकुव्वमाणे वा, तद्यथा-विकुर्वाणे वा, परिचारयमाणे प्रकाश) करते हैंपरियारेमाणे वा,
वा, तथारूपस्य श्रमणस्य वा महानस्य १. वैक्रिय रूप करते हुए, २. परिचारणा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा ऋद्धि द्युतिं यशः बलं वीर्यं पुरुष- करते हुए, ३. तथारूप श्रमण माहन के वा इंड्डि जुति जस बलं वीरियं कारपराक्रमं उपदर्शयमानः-देवः । सामने अपनी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, पुरिसक्कारपरक्कम उवदंसेमाणे- विद्युत्कारं कुर्यात् ।
वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम का उपदेवे विज्जुयारं करेज्जा।
दर्शन करते हुए। ७१. तिहि ठाणेहि देवे थणियसदं त्रिभिः स्थानः देवः स्तनितशब्दं कुर्यात्, ७१. तीन कारणों से देव गर्जारव करते हैंकरेज्जा, तं जहा-विकुव्वमाणे वा, तद्यथा-विकुर्वाणे वा,
१.वैक्रिय रूप करते हुए, २. परिचारणा 'परियारेमाणे वा, परिचारयमाणे वा,
करते हुए, ३. तथारूप श्रमण माहन के तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स तथारूपस्य श्रमणस्य वा महानस्य वा सामने अपनी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वा इंड्डि जुति जसं बलं वीरियं ऋद्धि द्युति यशः बलं वीर्यं पुरुषकार- वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम का उपपुरिसक्कारपरक्कम उवदंसेमाणे- पराक्रम उपदर्शयमान:
दर्शन करते हुए। देवे थणियसदं करेज्जा। देवः स्तनितशब्दं कुर्यात् ।
अंधयार-उज्जोयाइ-पदं अन्धकार-उद्योतादि-पदम्
अन्धकार-उद्योतआदि-पद ७२. तिहिं ठाणेहिं लोगंधयारे सिया, तं त्रिभिः स्थानः लोकान्धकारं स्यात्, ७२. तीन कारणों से मनुष्यलोक में अंधकार जहा
तद्यथा-अर्हत्सु व्यवच्छिद्यमानेषु, __ होता हैअरहतेहि वोच्छिज्जमाणेहि, अर्हत्प्रज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने, १. अर्हन्तों के व्युच्छिन्न (मुक्त) होने पर, अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, पूर्वगते व्यवच्छिद्यमाने।
२. अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म के व्युच्छिन्न होने पर, पुव्वगते वोच्छिज्जमाणे।
३. पूर्वगत (चतुर्दश पूर्वो) के व्युच्छिन्न
होने पर। ७३. तिहिं ठाणेहि लोगुज्जोते सिया, तं त्रिभिः स्थानः लोकोद्योतः स्यात्, ७३. तीन कारणों से मनुष्यलोक में उद्योत जहा—अरहतेहिं जायमाणेहि, तद्यथा-अर्हत्सु जायमानेषु,
होता है-१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, अरहंतेहिं पव्वयमाणेहि, अर्हत्सु प्रवजत्सु, अर्हतां ज्ञानोत्पाद- २. अर्हन्तों के प्रवजित होने के अवसर पर, अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु। महिमसु ।
३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के
उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर। ७४. तिहि ठाणेहि देवंधकारे सिया, तं त्रिभिः स्थान: देवान्धकारं स्यात्, ७४. तीन कारणों से देवलोक में अंधकार
जहा-अरहंतेहि वोच्छिज्जमाणेहि, तद्यथा—अर्हत्सु व्यच्छिद्यमानेषु, होता है-१. अर्हन्तों के ब्युच्छिन्न होने पर, अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, अर्हत्प्रज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने, २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म के व्युच्छिन्न होने पुत्वगते वोच्छिज्जमाणे। पूर्वगते व्यवच्छिद्यमाने।
पर, ३. पूर्वगत का विच्छेद होने पर।
.
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ठाणं (स्थान)
७५. तिहि ठाणेह देवज्जोते सिया, तं जहा - अहंतेहि जायमाणेह, अरहंतेहि पव्वयमाणे, अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु ।
७६. तिहि ठाणेहिं देवसण्णिवाए सिया, तं जहा -अरहंतेहिं जायमार्णोह, अरहंतेहि पव्वयमाणे, अरहंताणं णाणुष्पायमहिमासु ।
ठाणे देवलिया सिया, तं जहा - अरहंतेहिं जायमार्णोह, अरहंतेहि पव्वयमाणेहिं, अरहंताणं णाणुष्पायमहिमासु ।
७७. •
७६. तिहि ठाणेहि देविदा माणुसं लोगं हव्वमागच्छति, तं जहा - अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंत पव्वयमाणे, अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु ।
८०. एवं सामाणिया, तायत्तीसगा, लोगपाला देवा, अग्गमहिसीओ देवीओ, परिसोववण्णगा देवा, अणियाहिवई देवा, आयरक्खा देवा माणुस लोगं हव्वमा गच्छति,
१६६
त्रिभिः स्थानैः देवोद्योतः स्यात्, तद्यथा— अर्हत्सु जायमानेषु, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, अर्हता ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
७८. तिहि ठाणे देवकहकहए सिया, त्रिभिः स्थानैः देव ' कहकहक': स्यात्, तं जहा - अरहंतेहि जायमार्णोह, तद्यथा— अर्हत्सु जायमानेषु अरहंतेहि पव्वयमाणेहिं अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, अरहंताणं णाणुपायमहिमासु । अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
त्रिभिः स्थानैः देवसन्निपातः स्यात्, तद्यथा— अर्हत्सु जायमानेषु, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु
अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
त्रिभिः स्थानैः देवोत्कलिका स्यात्, तद्यथा— अर्हत्सु जायमानेषु, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
त्रिभिः स्थान: देवेन्द्राः मानुषं लोकं अर्वाक् आगच्छन्ति, तद्यथा— अर्हत्सु जायमानेषु अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
एवम् सामानिकाः, तावत्त्रिंशकाः, लोकपाला देवाः, अग्रमहिष्यो देव्यः, परिषदुपपन्नका देवाः, अनिकाधिपतयो देवा:, आत्मरक्षका देवाः मानुषं लोकं अर्वाक् आगच्छन्ति, तद्यथा—
स्थान ३ : सूत्र ७५-८०
७५. तीन कारणों से देवलोक में उद्योत होता है - १. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर । ७६. तीन कारणों से देव सन्निपात [ मनुष्य
लोक में आगमन ] होता है
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों
के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों
को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर ।
७७. तीन कारणों से देवोत्कलिका [देवताओं का समवाय ] होता है
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों
के प्रव्रजित होने के अवसर पर,
३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर । ७८. तीन कारणों से देवकहकहा [ कलकल
afa ] होता है - १. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३ अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर ।
७६. तीन कारणों से देवेन्द्र तत्क्षण मनुष्यलोक में आते हैं - १. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रब्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर ।
८०. इसी प्रकार सामानिक", तावत्त्रिशक", लोकपाल देव, अग्रमहिषी देवियां, सभासद, सेनापति तथा आत्मरक्षक देव तीन कारणों से तत्क्षण मनुष्य-लोक में आते हैं - १. अर्हन्तों का जन्म होने पर,
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ठाणं (स्थान)
१७०
स्थान ३ : सूत्र ८१-८५
'तं जहा—अरहंतेहिं जायमाहिं, अर्हत्सु जायमानेषु, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर अरहंतेहि पन्वयमाणेहि, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु।
पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु ।'
होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले
महोत्सव पर। ८१. तिहि ठाणेहि देवा अब्भुट्ठिज्जा, तं त्रिभिः स्थानैः देवाः अभ्युत्तिष्ठेयुः, ८१. तीन कारणों से देव अपने सिंहासन से
जहा—अरहंतेहिं जायमाणेहि, तद्यथा-अर्हत्सु जायमानेषु, अभ्युत्थित होते हैं-१. अर्हन्तों का जन्म 'अरहंतेहिं पव्वयमाहिं, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु,
होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु। अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमासु ।
अवसर पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने
वाले महोत्सव पर। ८२. 'तिहिं ठाणेहि देवाणं आसणाई त्रिभिः स्थानः देवानां आसनानि चलेयुः, ८२. तीन कारणों से देवों के आसन चलित चलेज्जा, तं जहा
तद्यथा—अर्हत्सु जायमानेषु, होते हैं-१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, अरहंतेहिं जायमार्गोह, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु,
२. अर्हन्तों के प्रवजित होने के अवसर अरहंतेहि पव्वयमाहि, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु ।
होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले
महोत्सव पर। ८३. तिहिं ठाणेहिं देवा सीहणायं त्रिभिः स्थान: देवाः सिंहनादं कुर्यः, ८३. तीन कारणों से देव सिंहनाद करते हैंकरेज्जा, तं जहा- तद्यथा-अर्हत्सु जायमानेषु,
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, अरहतेहि जायमाणेहि, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु,
२. अर्हन्तों के प्रवजित होने के अवसर अरहंतेहि पव्वयमाहि, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु ।
होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले
महोत्सव पर। ८४. तिहिं ठाणेहि देवा चेलुक्खेवं त्रिभिः स्थानैः देवाः चेलोतक्षेपं कुर्यः, ८४. तीन कारणों से देव चलोत्क्षेप करते हैंकरेज्जा, तं जहा
तद्यथा-अर्हत्सु जायमानेषु, १. अर्हन्तों का जन्म होने पर, अरहंतेहि जायमाणेहि,
२. अर्हन्तों के प्रवजित होने के अवसर अरहंतेहि पव्वयमाहि, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु।
होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले
महोत्सव पर। ८५. तिहि ठाणेहि देवाणं चेइयरुक्खा त्रिभिः स्थानः देवानां चैत्यरुक्षाः ८५. तीन कारणों से देवताओं के चैत्यवृक्ष चलेज्जा, तं जहा
चलेयुः तद्यथा...अर्हत्सु जायमानेषु, । चलित होते हैं-१. अर्हन्तों का जन्म होने अरहंतेहिं 'जायमाणेहि, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु,
पर, २. अर्हन्तों के प्रवृजित होने के अवसर अरहंतेहिं पव्वयमार्गोह, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु।
पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु।
होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर।
अहेत्स प्रतज
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : सूत्र ८६-८७ ८६. तिहि ठाणेहि लोगंतिया देवा त्रिभिः स्थानः लोकान्तिका देवा: मानुषं ८६. तीन कारणों से लोकान्तिक" देव तत्क्षण
माणुसं लोगं हव्वमागच्छेज्जा, तं लोकं अर्वाक् आगच्छेयुः, तद्यथा- मनुष्यलोक में आते हैं-१. अर्हन्तों का जहा—अरहंतेहिं जायमाणेहि, अर्हत्सु जायमानेषु, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रवजित होने अरहंतेहिं पव्वयमाणेहि, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु ।
के अवसर पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु।
उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर।
दुप्पडियार-पदं दुष्प्रतिकार-पदम्
दुष्प्रतिकार-पद ८७. तिण्हं दुप्पडियारं समणाउसो ! तं त्रिविधं दुष्प्रतिकारं आयुष्मन्! श्रमण!, ८७. भगवान् ने कहा-आयुष्मान श्रमणो ! जहा—अम्मापिउणो, भट्टिस्स, तद्यथा—अम्बापितुः, भर्तुः,
तीन पद दुष्प्रतिकार हैं-उनसे ऊर्ऋण धम्मायरियस्स। धर्माचार्यस्य।
होना दुःशक्य है-१. मातापिता, २. भर्ता
पालन-पोषण करने वाला, ३. धर्माचार्य । १. संपातोवि य णं केइ पुरिसे (१) संप्रातरपि च कश्चित् पुरुषः । १. कोई पुत्र अपने माता-पिता का प्रात:अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहि अम्बापितरं शतपाकसहस्रपाकाभ्यां काल में शतपाक", सहस्रपाक तेलों से तेल्लेहि अन्भंगेत्ता, सुरभिणा तैलाभ्यां अभ्यज्य, सुरभिना गन्धाटकेन मर्दन कर, सुगन्धित चूर्ण से उबटन कर, गंधट्टएणं उठनट्टित्ता, तिहिं उदगेहि उद्वर्त्त य, त्रिभिः उदकैः मज्जयित्वा, गंधोदक, शीतोदक तथा उष्णोदक से मज्जावेत्ता, सव्वालंकारविभूसियं सर्वालङ्कारविभूषितं कृत्वा, मनोज्ञं स्नान करवा कर, सर्वालंकारों से उन्हें करेत्ता, मणुण्णं थालीपागसुद्धं स्थालीपाकशुद्धं अष्टादशव्यञ्जनाकुलं विभूषित कर, अठारह प्रकार के स्थालीअट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भोया- भोजनं भोजयित्वा यावज्जीवं पृष्ठ्य- पाक-शुद्ध व्यञ्जनों से युक्त भोजन वेत्ता जावज्जीवं पिट्ठिवडेंसियाए वतंसिक्या परिवहेत्, तेनाऽपि तस्य करवा कर, जीवन-पर्यन्त कांवर [बहंगी] परिवहेज्जा, तेणावि तस्स अम्मा- अम्बापितु: दुष्प्रतिकारं भवति । में उनका परिवहन करे तो भी वह उनके पिउस्स दुप्पडियारं भवइ।
उपकारों से ऊऋण नहीं हो सकता। अहे णं से तं अम्मापियर केबलि- अथ स तं अम्बापितरं केवलिप्रज्ञप्ते वह उनसे तभी ऊर्ऋण हो सकता है पण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्ण- धर्म आख्याय प्रज्ञाप्य प्ररूप्य स्थापयिता जबकि उन्हें समझा-बुझाकर, प्रबुद्ध कर, वइत्ता परूवइत्ता ठावइता भवति, भवति, तेनैव तस्य अम्बापितुः सुप्रति- विस्तार से बताकर केवलीप्रज्ञप्त धर्म में तेणामेव तस्स अम्मापि उस्स कारं भवति आयुष्मन् ! श्रमण ! स्थापित करता है। सुप्पडियारं भवति समणाउसो ! २. केइ महच्चे दरिदं समुक्क- (२) कश्चित् महा! दरिद्रं समुत्कर्ष- २. कोई अर्थपति किसी दरिद्र का धन सेज्जा। तए णं से दरिद्दे समुक्कि? येत् । ततः स दरिद्रः समुत्कृष्ट: सन् आदि से समुत्कर्ष करता है। संयोगवश समाणे पच्छा पुरं चणं विउल- पश्चात् पुरश्च विपुलभोगसमिति- कुछ समय बाद या शीघ्र ही वह दरिद्र भोगसमितिसमण्णागते यावि समन्वागतश्चापि विहरेत् ।
विपुल भोगसामग्री से युक्त हो जाता है विहरेज्जा।
और वह अर्थपति किसी समय दरिद्र तए णं से महच्चे अण्णया कयाइ ततः स महार्चः अन्यदा कदापि दरिद्री- होकर सहयोग की कामना से उसके पास दरिद्दीहूए समाणे तस्स दरिद्दस्स भूतः सन् तस्य दरिद्रस्य अन्तिके अर्वाक् आता है। उस समय वह भूतपूर्व दरिद्र
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ठाणं (स्थान)
अंतिए हव्वमागच्छेज्जा । तणं से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समविदलयमाणे तेणावि तस्स दुप्पडियारं भवति । अहेणं से तं भट्ट केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परुवइता ठावइता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस सुप्प डियारं भवति [ समणाउसो !? ] • ३. केति तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा सिम्म कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णे ।
तए णं से देवे तं धम्मायरियं भिक्खाओ वा साओ सुभिक्खं देसं साहरेज्जा, कंताराओ वा णिक्कंतारं करेज्जा, दोहका लिएणं वा रोगातं अभिभूतं समाणं विमोएज्जा, तेणावि तस्स धम्मायरियस दुप्पडियारं भवति । अहे णं से तं धम्मायरियं केवलि - पण्णत्ताओ धम्माओ भट्ट समाणं भुज्जोवि केवलिपण्णत्ते धम्मे
आघवइत्ता
●पण्णवइत्ता परबत्ता ठावइता भवति, तेणामेव तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियारं भवति
[समणाउसो ! ? ] |
संसार-वीईवयण-पदं
८८. तिहि ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं
१७२
आगच्छेत् ।
ततः सः दरिद्रः तस्मै भर्त्रे सर्वस्वमपि ददत् तेनापि तस्य दुष्प्रतिकारं भवति ।
अथ स तं भर्त्तारं केवलिप्रज्ञप्ते धर्मे आख्याय प्रज्ञाप्य प्ररूप्य स्थापयिता भवति, तेनैव तस्य भर्तुः सुप्रतिकारं भवति [ आयुष्मान् ! श्रमण ! ? ]
३. कश्चित् तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्य धार्मिकं सुवचनं श्रुत्वा निशम्य कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपन्नः ।
ततः स देवः तं धर्माचार्य दुर्भिक्षात् वा देशात् सुभिक्षं देशं संहरेत्, कान्तारात् वा निष्कान्तारं कुर्यात्, दीर्घकालिकेन वा रोगातङ्कन अभिभूतं सन्तं विमोचयेत् तेनापि तस्य धर्माचार्यस्य दुष्प्रतिकारं भवति ।
अथ स तं धर्माचार्य केवलिप्रज्ञप्तात् धर्मात् भ्रष्टं सन्तं भूयोपि केवलप्रज्ञप्ते धर्मे आख्याय प्रज्ञाप्य प्ररूप्य स्थापयिता भवति, तेनैव तस्य धर्माचार्यस्य सुप्रतिकारं भवति [ आयुष्मन् ! श्रमण ! ? ] ।
संसार-व्यतिव्रजन-पदम्
त्रिभिः स्थानैः सम्पन्नः अनगारः अनादिकं अनवदग्रं दीर्घाध्वानं
स्थान ३ : सूत्र ८८
अपने स्वामी को सब कुछ अर्पण करके भी उसके उपकारों से ऊर्ऋण नहीं हो
सकता ।
वह उससे तभी ऊर्ऋऋण हो सकता है जबकि उसे समझा-बुझाकर, प्रबुद्ध कर, विस्तार से बताकर केवलीप्रज्ञप्त धर्म में स्थापित करता है।
३. कोई व्यक्ति तथारूप श्रमण-माहन के पास एक भी आर्य तथा धार्मिक वचन सुनकर, अवधारण कर, मृत्युकाल में मरकर, किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है। किसी समय वह धर्माचार्य को अकाल-ग्रस्त देश से सुभिक्ष देश में संहृत कर देता है, जंगल से बस्ती में ले आता है। या लम्बी बीमारी तथा आतंक [ सद्योघाती रोग ] से अभिभूत बने हुए को विमुक्त कर देता है, तो भी वह धर्माचार्य के उपकार से ऊर्ऋऋण नहीं हो सकता ।
वह उससे तभी ऊर्ऋण सकता है जबकि कदाचित् उसके केवलीप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाने पर उसे समझाबुझाकर, प्रबुद्ध कर, विस्तार से बताकर पुनः केवलीप्रज्ञप्त धर्म में स्थापित कर देता है।
संसार - व्यतिव्रजन पद
८. तीन स्थानों से सम्पन्न अनगार अनादि अनंत अतिविस्तीर्ण चातुर्गतिक संसार
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स्थान ३ : सूत्र ८६-६३
ठाणं (स्थान)
१७३ चाउरतं संसारकतार वीईवएज्जा, चातुरन्तं संसारकान्तारं व्यतिव्रजेत् तं जहा—अणिदाणयाए, तद्यथा—अनिदानतया, दिदिसंपण्णयाए, जोगवाहियाए। दृष्टिसम्पन्नतया, योगवाहितया ।
कांतार से पार हो जाता है१. अनिदानता–भोग-प्राप्ति के लिए संकल्प नहीं करने से, २. दृष्टिसम्पन्नतासम्यग्दृष्टि से, ३. योगवाहिता योग का वहन करने या समाधिस्थ रहने से ।
कालचक्क-पदं कालचक्र-पदम्
कालचक्र-पद ८६.तिविहा ओसप्पिणी पण्णत्ता, तं त्रिविधा अवप्पिणी प्रज्ञप्ता, तदयथा- ८६. अवसर्पिणी तीन प्रकार की होती हैजहाउत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या।
१. उत्कृष्ट, २. मध्यम, ३. जघन्य । उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। ६०. "तिविहा सुसम-सुसमा- त्रिविधा सुषम-सुषमा- ६०. सुषमसुषमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा सुसमात्रिविधा सुषमा
सुषमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा सुसम-दूसमात्रिविधा सुषम-दुष्षमा
सुषमदुष्षमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा दूसभ-सुसमा- त्रिविधा दुष्षम-सुषमा
दुष्षमसुषमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा दूसमात्रिविधा दुष्षमा
दुष्षमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा इसम-दूसमा पण्णत्ता, त' त्रिविधा दुष्पम-दुष्षमा प्रज्ञप्ता, दुष्षमदुष्षमा तीन प्रकार की होती हैजहातद्यथा
१. उत्कृष्ट, २. मध्यम, ३. जघन्य । उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या । ६१.तिविहा उस्सप्पिणी पण्णत्ता,तं त्रिविधा उत्सप्पिणी प्रज्ञप्ता,
६१. उत्सर्पिणी तीन प्रकार की होती हैजहातद्यथा
१. उत्कृष्ट, २. मध्यम, ३. जघन्य । उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा।
उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या। ६२. °तिविहा दुस्सम-दुस्समा- त्रिविधा दुष्षम-दुष्षमा
६२. दुष्षमदुष्षमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा दुस्समात्रिविधा दुष्षमा
दुष्षमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा दुस्सम-सुसमा- त्रिविधा दुष्षम-सुषमा
दुष्षमसुषमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा सुसम-दुस्समा- त्रिविधा सुषम-दुष्षमा
सुषमदुष्षमा तीन प्रकार की होती है-- तिविहा सुसमात्रिविधा सुषमा
सुषमा तीन प्रकार की होती हैतिविहा सुसम-सुसमा पण्णता, त्रिविधा सुषम-सुषमा प्रज्ञप्ता,
सुषमसुषमा तीन प्रकार की होती हैतं जहा
तद्यथा...उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या। १. उत्कृष्ट, २. मध्यम, ३. जघन्य । उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा।
अच्छिण्ण-पोग्गल-चलण-पदं अच्छिन्न-पुद्गल-चलन-पदम् अच्छिन्न-पुद्गल-चलन-पद ६३. तिहि ठाणेहिं अच्छिण्णे पोग्गले त्रिभिः स्थानः अच्छिन्नः पुद्गलः चलेत्, ६३. अच्छिन्न पुद्गल [स्कंध संलग्न पुद्गल] चलेज्जा, तं जहा-
तद्यथा-आह्रियमाणो वा पुद्गल: चलेत्, तीन कारणों से चलित होता हैआहारिज्जमाणे वा पोग्गले विक्रियमाणो वा पुद्गलः चलेत्, १. जीवों द्वारा आकृष्ट होने पर चलित
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स्थान ३ : सूत्र ६४-६६
ठाणं (स्थान)
१७४ चलेज्जा, विकुब्वमाणे वा पोग्गले स्थानात् वा स्थानं संक्रम्यमाणः पुद्गल: चलेज्जा, ठाणाओ वा ठाणं चलेत् । संकामिज्जमाणे पोग्गले चलेज्जा।
होता है, २. विक्रियमाण होने पर चलित होता है, ३. एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रमित किए जाने पर चलित होता है।
उपधि-पदं उपधि-पदम्
उपधि-पद मी पण्णते, तं जहा- त्रिविध उपधिः प्रज्ञप्तः, तदयथा- ६४. उपधि तीन प्रकार की होती हैकम्मोवही, सरीरोवही, कर्मोपधिः, शरीरोपधिः,
१. कर्मउपधि, २. शरीरउपधि, बाहिरभंडमत्तोवही। बाह्यभाण्डामत्रोपधिः ।
३. वस्व-पाव आदि बाह्य उपधि । एवं असरकमाराणं भाणियव्वं। एवम_असरक माराणां भणितव्यमः । एकेन्द्रिय तथा नैरयिकों को छोड़कर एवं-एगिदियणेरइयवज्ज जाव एवम्—एकेन्द्रियनैरयिकवर्ज यावत् । सभी दण्डकों के तीन प्रकार की उपधि वेमाणियाणं। वैमानिकानाम् ।
होती है। अहवा.-तिविहे उवधी पण्णत्ते, अथवा-त्रिविध उपधिः प्रज्ञप्तः, अथवा-उपधि तीन प्रकार की होती तं जहा—सचित्ते, अचित्ते, मीसए। तद्यथा-सचित्तः, अचित्तः, मिश्रकः । । है-१. सचित्त, २. अचित्त, ३. मिश्र। एवं_णेरइयाणं णिरंतरं जाव एवम_नैरयिकाणां निरंतरं यावत् सभी दण्डकों के तीन प्रकार की उपधि वेमाणियाणं। वैमानिकानाम् ।
होती है।
परिग्गह-पदं परिग्रह-पदम्
परिग्रह-पद ६५. तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः परिग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ६५. परिग्रह तीन प्रकार का होता हैकम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे। कर्मपरिग्रहः, शरीरपरिग्रहः,
१. कर्मपरिग्रह, २. शरीरपरिग्रह, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे। बाह्यभाण्डामत्रपरिग्रहः ।
३. वस्त्र-पात्र आदि वाह्य परिग्रह। एवं असुरकुमाराणं । एवम्- असु रकमाराणाम् ।
एकेन्द्रिय तथा नैरयिकों को छोड़कर सभी एवं एगिदियणेरइयवज्जं जाव एवम् —एकेन्द्रियनैरयिकदर्ज यावत् दण्डकों के तीन प्रकार का परिग्रह होता वेमाणियाणं।
वैमानिकानाम्। अहवा....तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, अथवा-विविधः परिग्रहः प्रज्ञप्त:, अथवा-परिग्रह तीन प्रकार का होता तं जहा—सचित्ते, अचित्ते, मीसए। तद्यथा—सचित्तः, अचित्तः, मिश्रकः । है-१. सचित्त, २. अचित्त, ३. मिश्र । एवं_णेरइयाणं निरंतरं जाव एवम_नैरयिकाणां निरंतरं यावत सभी दण्डकों के तीन प्रकार का परिग्रह वेमाणियाणं। वैमानिकानाम् ।
होता है।
पणिहाण-पदं प्रणिधान-पदम्
प्रणिधान-पद ६६. तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधं प्रणिधानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६६. प्रणिधान तीन प्रकार का होता हैमणपणिहाणे, वयपणिहाणे, मनःप्रणिधानं, वचःप्रणिधानं ।
१. मनप्रणिधान, २. वचनप्रणिधान, कायपणिहाणे। कायप्रणिधानम् ।
३. कायप्रणिधान। एवं_पंचिदियाणं जाव वेमाणि- एवम् पञ्चेन्द्रियाणां यावत्
सभी पञ्चेन्द्रिय दण्डकों में तीनों प्रणियाणं। वैमानिकानाम् ।
धान होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ३ : सूत्र ६७-१०३
६७. तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं त्रिविधं सुप्रणिधानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६७. सुप्रणिधान तीन प्रकार का होता है
जहा—मणसुप्पणिहाणे, मनःसुप्रणिधानं, वचःसुप्रणिधानं, १. मनसुप्रणिधान, २. वचनसुप्रणिधान, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। कायसप्रणिधानम् ।
३. कायसुप्रणिधान। १८. संजयमणुस्साणं तिविहे सुप्पणि- संयतमनुष्याणां त्रिविधं सुप्रणिधानं ६८. संयत मनुष्यों के तीन सुप्रणिधान होते
हाणे पण्णत्ते, तं जहा.- प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-मनःसुप्रणिधानं, मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, वचःसुप्रणिधानं, कायसुप्रणिधानम्। १. मनसुप्रणिधान, २. वचनसुप्रणिधान, कायसुप्पणिहाणे।
३. कायसुप्रणिधान। ६६. तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं त्रिविधं दुष्प्रणिधानं प्रज्ञप्तम् तद्यथा- ६९. दुष्प्रणिधान तीन प्रकार का होता है
जहा—मणदुप्पणिहाणे, मनोदुष्प्रणिधानं, वचोदुष्प्रणिधानं, १. मनदुष्प्रणिधान, २. वचनदुष्प्रणिधान, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे। कायदुष्प्रणिधानम् ।
३. कायदुष्प्रणिधान। एवं—चिदियाणं जाव वेमाणि- एवम्—पञ्चेन्द्रियाणां यावत्
सभी पञ्चेन्द्रिय दण्डकों में तीनों दुष्पणियाणं । वैमानिकानाम् ।
धान होते हैं।
जोणि-पदं योनि-पदम्
योनि-पद १००. तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-- १००. योनि [ उत्पत्ति स्थान] तीन प्रकार की सीता, उसिणा, सीओसिणा। शीता, उष्णा, शीतोष्णा।
होती है-१. शीत, २. उष्ण, ३. शीतोष्ण। एवं एगिदियाणं विलिदियाणं एवम् – एकेन्द्रियाणां विकलेन्द्रियाणां तेजस्कायजित एकेन्द्रिय, विकलेतेउकाइयवज्जाणं समुच्छिमपंच- तेजस्कायिकवर्जानां सम्मच्छिम- न्द्रिय, संमूर्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च तथा दियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिम- पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां सम्मूच्छिम- संमूर्छिममनुष्य के तीनों ही प्रकार की मणुस्साण य। मनुष्याणां च।
योनियां होती हैं। १०१. तिविहा जोणी पण्णत्ता, तंजहा- त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १०१ योनि तीन प्रकार की होती हैसचित्ता, अचित्ता, मीसिया। सचित्ता, अचित्ता, मिश्रिता।
१. सचित्त, २. अचित्त, ३. मिश्र । एवं-एगिदियाणं विलिदियाणं एवम्—एकेन्द्रियाणां विकलेन्द्रियाणां एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संमूच्छिमसंमुच्छिमचिदियतिरिक्खजोणि- सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च तथा संमूच्छिमयाणं समुच्छिममणुस्साण य। सम्मूच्छिममनुष्याणां च ।
मनुष्यों में तीनों ही प्रकार की योनियां
होती हैं। १०२. तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १०२. योनि तीन प्रकार की होती है-- संवुडा, वियडा, संवुडवियडा। संवृता, विवृता, संवृतविवृता।
१. संवृत-संकड़ी, २. विवृत-चौड़ी, ३. संवृतविवृत-कुछ संकड़ी तथा कुछ
चौड़ी। १०३. तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १०३. योनि तीन प्रकार की होती है
कुम्मुण्णया, संखावत्ता, वंसीवत्तिया। कूर्मोन्नता, शंखावर्ता, वंशीपत्रिकाः। १. कूर्मोन्नत-कछुए के समान उन्नत, १. कुम्मुण्णया णं जोणी उत्तम- १. कूर्मोन्नता योनिः उत्तमपुरुष- २. संखावर्त-शंख के समान आवर्त पुरिसमाऊणं कुम्मुण्णयाते णं मातृणाम् । कूर्मोन्नतायां योनौ त्रिविधा [घुमाव] वाली ; ३. वंशीपत्रिका
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ठाणं (स्थान)
१७६
स्थान ३ : सूत्र १०४-११५
जोणिए तिविहा उत्तमपुरिसा गभं उत्तमपुरुषा: गर्भ अवक्रामन्ति, वक्कमंति, तं जहा—अरहंता, तद्यथा—अर्हन्तः, चक्रवर्तिनः, चक्कवट्टी, बलदेववासुदेवा। बलदेववासुदेवाः ।
२. संखावत्ता णं जोणी २. शंखावर्ता योनिः स्त्रीरत्नस्य । इत्थीरयणस्स । संखावत्ताए णं शंखावर्तीयां योनौ बहवो जीवाश्च जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला य पुद्गलाश्च अवक्रामन्ति, व्युतकामन्ति, वक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, च्यवन्ते, उत्पद्यन्ते, नो चैव निष्पद्यन्ते । उववज्जति, णो चेवणं णिप्फज्जति। ३. वंसीवत्तित्ता णं जोणी ३. वंशीपत्रिका योनिः पृथग्जनस्य ।। पिहज्जणस्स । वंसीवत्तिताए णं वंशीपत्रिकायां योनौ बहवः पृथग्जनाः । जोणीए बहवे पिहज्जणा गभं गर्भ अवक्रामन्ति। वक्कमंति।
बांस की जाली के पत्रों के आकार वाली। १. कूर्मोन्नत योनि उत्तम पुरुषों की मात्रा के होती है। कूर्मोन्नत योनि से तीन प्रकार के उत्तम पुरुष पैदा होते हैं१. अर्हन्त, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेववासुदेव। २. शंखावर्त योनि स्त्री-रत्न की होती है। शंखावर्त योनि में अनेक जीव तथा पुद्गल उत्पन्न और नष्ट होते हैं तथा नष्ट और उत्पन्न होते हैं, किन्तु निष्पन्न नहीं होते। ३. वंशीपत्रिका योनि सामान्य-जनों की माता के होती है। वंशीपत्रिका योनि में अनेक सामान्य-जन पैदा होते हैं।
तणवणस्सइ-पदं तृणवनस्पति-पदम्
तृणवनस्पति-पद १०४. तिविहा तणवणस्सइकाइया त्रिविधाः तृणवनस्पतिकायिकाः १०४. तृणवनस्पतिकायिक जीव तीन प्रकार
पण्णत्ता,तं जहा-संखेज्जजीविका, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—संख्येयजीविकाः, के होते हैं-१. संख्यात जीव वाले ताल असंखज्जजीविका, अणंतजीविका। असंख्येयजीविकाः, अनन्तजीविकाः । से बंधे हुए फूल, २. असंख्यात जीव
वाले-वृक्ष के मूल, कंद, स्कंध, त्वक् शाखा और प्रबाल। ३. अनंत जीव वाले-फफूंदी आदि।
तित्थ-पदं १०५. जबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तओ
तित्था पण्णत्ता, तं जहा—मागहे,
वरदामे, पभासे। १०६. एवं एरवएवि।
तीर्थ-पदम्
तीर्थ-पद जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे त्रयः तीर्थाः १०५. जम्बूद्वीप द्वीप के भारत क्षेत्र में तीन प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
तीर्थ हैंमागधः, वरदाम, प्रभासः ।
१. मागध, २. वरदाम, २. प्रभास । एवम्-ऐरवतेऽपि ।
१०६. इसी प्रकार ऐरवत क्षेत्र में भी तीन
तीर्थ हैं
१. मागध, २. वरदाम, ३. प्रभास । जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे एकैकस्मिन् १०७. जम्बूद्वीप द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में एकचक्रवत्तिविजये त्रयः तीर्थाः प्रज्ञप्ताः, एक चक्रवर्ती-विजय में तीन-तीन तीर्थ हैंतद्यथा—मागधः, वरदामः, प्रभासः । १. मागध, २. वरदाम, ३. प्रभास ।
१०७. जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे
एगमेगे चक्कवट्टिविजये तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहामागहे, वरदामे, पभासे।
जहा
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ठाणं (स्थान)
१०८. एवं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमदेवि, पच्चत्थिमद्धेवि ।
पुक्खरवरदीवद्धे पुरत्थिमद्धेवि, पच्चत्थिमद्धेवि ।
कालचक्क - पदं
१०६. जबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमाए समाए तिष्णि सागरोवमकोडा
१७७
स्थान ३ : सूत्र ९०८-११४
एवम् धातकीषण्डे द्वीपे पौरस्त्यार्धेऽपि १०८. इसी प्रकार धातकीपंड नामक द्वीप के पाश्चात्यार्थेऽपि । पूर्वार्ध तथा पश्चिमार्ध में, अर्ध पुष्करवर द्वीप के पूर्वार्ध तथा पश्चिमार्ध में भी तीन-तीन तीर्थ हैं
पुष्करवरद्वीपार्धे पौरस्त्यार्धेऽपि, पाश्चात्यार्धेऽपि ।
१. मागध, २. वरदाम, ३. प्रभास ।
कालचक्र-पदम्
काल:
जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः अतीतायां उत्सर्पिण्यां सुषमायां समायां तिस्रः सागरोपमकोटिकोटी: अभवत् । जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः अस्यां अवसपियां सुषमायां समायां तिस्रः सागरोपमकोटिकोटी: काल:
ओका हत्था । ११०. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु इमीसे ओसप्पिणीए सुसमाए समाए तिष्णि सागरोवमकोडा - कोडीओ काले पण्णत्ते । १११. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सुसमाए समाए तिष्णि सागरोवमकोडाकोडीओ काले भविस्सति ।
११२. एवं धायइसंडे पुरत्थिमद्धे पच्चथिमद्धेवि ।
एवं पुवखरवरदीवद्धे पुरस्थिमद्धे पच्चfत्थमद्धेवि कालो भाणियव्वो ।
११३. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः तीताए उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए अतीतायां उत्सर्पिण्यां सुषमसुषमायां समाए मणुया तिष्णि गाउयाई समायां मनुजाः तिस्रः गव्यूतीः ऊर्ध्वं उ उच्चतेणं होत्था । तिष्णि उच्चत्वेन अभवन् । त्रीणि पल्योपमानि पलिओ माई परमाउं पालइत्था । परमायुः अपालयन् । ११४. एवं - इमीसे ओसप्पिणीए, एवम् — अस्यां अवसर्पिण्याम्, आगमिस्साए उस्सप्पिणीए । आगमिष्यन्त्यां उत्सर्पिण्याम् ।
प्रज्ञप्तः ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः आगमिष्यन्त्यां उत्सर्पिण्यां सुषमायां समायां तिस्रः सागरोपमकोटिकोटी: कालः भविष्यति ।
एवम् पुष्करवरद्वीपार्धे पौरस्त्यार्धे पाश्चात्यार्धेऽपि कालः भणितव्यः ।
कालचक्र पद
१०९. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र में अतीत उत्सर्पिणी के सुषमा नाम के आरे का काल तीन कोटी कोटी सागरो
एवम् धातकीषण्डे पौरस्त्यार्धे पाश्चा- ११२. इसी प्रकार धातकीषंड तथा अर्ध पुष्करवर त्यार्धेऽपि । द्वीप के पूर्वार्ध तथा पश्चिमार्ध में भी उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के सुषमा आरे का काल तीन कोटी-कोटी सागरोपम होता है ।
११३. जम्बूद्वीप द्वीप में भरत और ऐरवत क्षेत्र में अतीत उत्सर्पिणी के सुषमसुषमा नाम के आरे में मनुष्यों की ऊंचाई तीन गाऊ की और उनकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम की थी।
पम था ।
११०. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी के सुषमा नाम के आरे का काल तीन कोटी-कोटी सागरोपम कहा गया है।
१११. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्र
में आगामी उत्सर्पिणी के सुषमा नाम के आरे का काल तीन कोटी कोटी सागरोपम होगा ।
११४. इसी प्रकार वर्तमान अवसर्पिणी तथा आगामी उत्सर्पिणी में भी ऐसा जानना चाहिए ।
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ठाणं (स्थान)
१७८
स्थान ३ : सूत्र ११५-१२१ ११५ जंबुद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरासु जम्बूद्वीपे द्वीपे देवकुरूत्तरकुर्वो: मनुजाः ११५. जम्बूद्वीप द्वीप में देवकुरु और उत्तरकुरु
मणुया तिण्णि गाउआई उड्ड तिस्रः गव्यूतीः ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः। में मनुष्यों की ऊंचाई तीन गाऊ की ओर उच्चत्तेणं पण्णत्ता। तिण्णि त्रीणि पल्योपमानि परमायुः पालयन्ति। उनकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम की पलिओवमाई परमाउं पालयंति ।
होती है। ११६. एवं—जाव पुक्खरवरदीवद्ध- एवम्-यावत् पुष्करवरद्वीपार्ध- ११६. इसी प्रकार धातकीषंड तथा अर्धपुष्करपच्चत्थिमद्धे । पाश्चात्याधै।
वर द्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में जानना चाहिए।
सलागा-पुरिस-वंस-पदं शलाका-पुरुष-वंश-पदम्
शलाका-पुरुष-वंश-पद ११७. जंबुद्दीवे दोवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ११७. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र तथा ऐरवत
एगमेगाए ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीए एकैकस्यां अवसपिण्युत्सपिण्यां त्रयः क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणी तथा उत्सपिणी तओ बंसाओ उपज्जिसु वा वंशाः उदपदिषत वा उत्पद्यन्ते वा में तीन वंश उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं उप्पज्जंति वा उप्पज्जिस्संति वा, उत्पत्स्यन्ते वा, तद्यथा-अर्हवंशः, तथा उत्पन्न होंगेतं जहा—अरहंतवंसे, चक्कवट्टिवंसे, चक्रवत्तिवंशः, दशारवंशः ।
१. अर्हन्त-वंश, २. चक्रवर्ती-वंश, दसारवंसे।
३. दशार-वंश । ११८. एवं...जाव पुक्खरवरदीवद्धपच्च- एवम्-यावत् पकरवरद्वीपार्ध- ११८. इसी प्रकार धातकीषण्ड तथा पुष्करवर त्थिमद्धे । पाश्चात्यार्धे।
द्वीपाधं के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में तीन वंश उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं तथा उत्पन्न होंगे।
सलागा-पुरिस-पदं शलाका-पुरुष-पदम्
शलाका-पुरुष-पद ११६. जंबुद्दोवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः ११६. जम्बूद्वीप द्वीप में भरत क्षेत्र तथा ऐरवत
एगमेगाए ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीए एकैकस्यां अवसपिण्युत्सपिण्यां त्रयः क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणी तथा उत्सपिणी तओ उत्तमपुरिसा उपज्जिसु वा उत्तमपुरुषाः उदपदिषत वा उत्पद्यन्ते में तीन उत्तम पुरुष उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न उप्पज्जति वा उप्पज्जिस्संति वा, वा उत्पत्स्यन्ते वा, तद्यथा-अर्हन्तः, होते हैं तथा उत्पन्न होंगेतं जहा—अरहंता, चक्कवट्टी, चक्रवर्तिनः, बलदेववासुदेवाः।
१. अर्हन्त, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेवबलदेववासुदेवा।
वासुदेव। १२०. एवं—जाव पुक्खरवरद्वीवद्धपच्च- एवम्---यावत् पुष्करवरद्वीपार्धपाश्चा- १२०. इसी प्रकार धातकीषण्ड तथा अर्धपुष्करथिमद्धे । त्याध।
वर द्वीप के पूर्वाधं और पश्चिमार्ध में जानना चाहिए।
आउय-पदं १२१. तओ अहाउयं पालयंति, तं जहा-
आयुः-पदम् त्रयः यथायु: पालयन्ति, तद्यथा-
आयुः-पद १२१. तीन अपनी पूर्ण आयु का पालन करते हैं
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ठाणं (स्थान)
अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेव - अर्हन्तः, चक्रवर्तिनः, बलदेव वासुदेवाः ।
वासुदेवा ।
१२२. तओ मज्झिममाउयं पालयंति, तं जहा—अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेववासुदेवा ।
१२३. बायर उकाइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि राई दियाई ठिती पण्णत्ता । १२४. बायरवाकाइयाणं उक्कोसेणं तिष्णि वाससहस्सा ठिती पण्णत्ता
जोणि-ठिइ-पदं
१२५. अह भंते ! सालीणं वीहीणं गोधूमाणां जवाणं जवजवाणं एतेसि णं धण्णाणं कोट्टाउत्ताणं पहलाउत्ताणं मंच उत्ताणं मालाउत्ताणं ओलित्ताणं वित्ताणं लंछियाणं मुद्दियाणं विहिताणं केवइयं कालं जोणी संचिट्ठति ? जहणणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं तिणि संवच्छराई । तेण परं जोणी पमिलायति । तेण परं जोणी पविद्धसति । तेण परं जोणी विद्वंसति । तेण परं बीए अबीए भवति । तेण परं जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते ।
णरय-पदं
१२६. दोच्चाए णं सक्करपभाए पुढवीए रइयाणं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । १२७. तच्चाए णं वालुयप्पभाए पुढवीए जहणणं णेरइयाणं तिण्णि सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ।
१७६
त्रयः मध्यममायुः पालयन्ति तद्यथा— अर्हन्तः, चक्रवर्तिनः, बलदेववासुदेवाः ।
बादरतेजस्कायिकानां उत्कर्षेण त्रीणि रात्रिदिवानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । बादरवायुकायिकानां उत्कर्षेण त्रीणि । वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
योनि -स्थिति-पदम्
अथ भगवन् ! शालीनां व्रीहीणां गोधूमानां यवानां यवयवानां एतेषां धान्यानां कोष्ठागुप्तानां पल्यागुप्तानां मञ्चागुप्तानां मालागुप्तानां अवलिप्तानां लिप्तानां लाञ्छितानां मुद्रितानां पिहितानां कियन्तं कालं योनिः संतिष्ठते ? जघन्येन अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षेण त्रीणि संवत्सराणि । तेन परं योनिः प्रम्लायति । तेन परं योनिः प्रविध्वंसते । तेन परं योनिः विध्वंसते । तेन परं बीजं अबीजं भवति । तेन परं योनिव्यवच्छेदः प्रज्ञप्तः ।
1
नरक-पदम्
द्वितीयायां शर्कराप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां उत्कर्षेण त्रीणि सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तृतीयां वालुकाप्रभायां पृथिव्यां जघन्येन नैरयिकाणां त्रीणि सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
स्थान ३ : सूत्र १२२-१२७
१. अर्हन्त, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेववासुदेव ।
१२२. तीन मध्यम ( अपने समय की आयु से मध्यम) आयु का पालन करते हैं१. अर्हन्त, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेववासुदेव
१२३. बादर तेजस्कायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन रात-दिन की है। १२४. बादर वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष की है।
योनि -स्थिति-पद
१२५. भगवन् ! शाली, ब्रीहि, गेहूं, जौ तथा
ara अन्नों को कोठे, पत्य", मचान और माल्य" में डालकर उनके द्वारदेश को ढक देने, लीप देने, चारों ओर से लीप देने, रेखाओं से लांछित कर देने तथा मिट्टी से मुद्रित कर देने पर उनकी योनि ( उत्पादक शक्ति) कितने काल तक रहती है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त " तथा उत्कृष्ट तीन वर्ष । उसके बाद योनि म्लान हो जाती है, विध्वस्त हो जाती है, क्षीण हो जाती है, बीज बीज हो जाता है, योनि का विच्छेद हो जाता है ।
नरक-पद
१२६. दूसरी नरकपृथ्वी - शर्करा प्रभा के नरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है ।
१२७. तीसरी नरकपृथ्वी - बालुका प्रभा के नैरयिकों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की है।
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ठाणं (स्थान)
१२८. पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिण्णि रियावास सय सहस्सा
पण्णत्ता ।
१२६. तिसु णं पुढवीसु णेरइयाणं उसिणवेयणा पण्णत्ता, तं जहापढमाए, दोच्चार, तच्चाए । १३०. तिसु णं पुढवीसु णेरइया उसिणari पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा पढमाए, दोच्चाए, तच्चाए ।
सम-पदं
सम-पदम्
१३१. तओ लोगे समा सपक्खं सपड - त्रीणि लोके समानि सपक्षं सप्रतिदिक् दिसि पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्तानि तद्यथा - अप्रतिष्ठानो नरकः, अप्पट्टाणे णरए, जंबुद्दीवे दीवे, जम्बूद्वीपं द्वीप, सर्वार्थसिद्धं विमानम् । सवसिद्धे विमाणे ।
सीमंतए णं णरए,
समयवखेत्ते, ईसीप भारा पुढवी ।
१३२. तओ लोगे समा सर्पाक्ख सपड - त्रीणि लोके समानि सपक्षं सप्रतिदिक् प्रज्ञप्तानि तद्यथा— सीमन्तकः नरकः, समयक्षेत्रं, ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी ।
दिसि पण्णत्ता, तं जहा -
समुद्द-पदं
१३३. तओ समुद्दा पगईए उदगरसेणं पण्णत्ता, तं जहा कालोदे,
क्खरोदे, सयंभुरमणे ।
१३४. तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता, तं जहा लवणे,
कालोदे, सयंभुरमणे ।
१८०
स्थान ३ : सूत्र १२८-१३५
पञ्चम्यां धूमप्रभायां पृथिव्यां त्रीणि १२८. पांचवीं नरकपृथ्वी - धूम प्रभा में तीन निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ।
लाख नरकावास हैं ।
उववाय-पदं
१३५. तओ लोगे णिस्सीला णिन्वता णिग्गुणा णिम्मेरा णिपच्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाए पुढवीए
तिसृषु पृथिवीषु नैरयिकाणां उष्णवेदना प्रज्ञप्ता, तद्यथा— प्रथमायां, द्वितीयायां, तृतीयायाम् । तिसृषु पृथिवीषु नैरयिका उष्णवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति तद्यथा— प्रथमायां द्वितीयायां तृतीयायाम् ।
१२६. प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय नरक भूमियों में नैरयिकों के उष्ण वेदना होती है।
उपपात-पदम्
त्रयः लोके निःशीलाः निर्व्रताः निर्गुणाः निर्मर्यादाः निष्प्रत्याख्यानपोषधोपवासाः कालमासे कालं कृत्वा अधः सप्तमायां पृथिव्यां अप्रतिष्ठाने नरके नैरयिकतया
१३० प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय नरक भूमियों नैरयिक उष्ण-वेदना का अनुभव करते
हैं ।
सम-पद
-
१३१. लोक में तीन समान, सपक्ष तथा प्रतिदिश हैं". १. अप्रतिष्ठा ननरकावास, २. जम्बूद्वीप द्वीप, ३. सर्वार्थसिद्ध विमान |
समुद्र-पदम्
समुद्र - पद
त्रयः समुद्राः प्रकृत्या उदकरसेन प्रज्ञप्ता, १३३. तीन समुद्र प्रकृति से ही उदकरस से परितद्यथा— कालोदः, पुष्करोदः, पूर्ण हैं - १. कालोदधि, २. पुष्करोदधि,
१३२. लोक में तीन समान, सपक्ष तथा सप्रतिदिश है - १. सीमंतकनरकावास, २. समयक्षेत्र, २. ईषत्प्राग्भारापृथ्वी । २
स्वयंभू रमणः ।
३. स्वयंभूरमण ।
त्रयः समुद्राः बहुमत्स्यकच्छपाकीर्णाः १३४. तीन समुद्र बहुत मत्स्यों व कछुओं से प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— लवणः, कालोदः, आकीर्ण हैं - १. लवण, २. कालोदधि, स्वयंभू रमणः । ३. स्वयंभूरमण ।
उपपात-पद
१३५. लोक में ये तीन — जो दुःशील, अविरत,
निर्गुण, अमर्यादित, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से रहित हैं— मृत्यु -काल में मरकर सातवीं अप्रतिष्ठान नरकभूमि में
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ठाणं (स्थान)
अप्पतिट्ठाणे णरए णेरइयत्ताए
उववज्जंति, तं जहा
रायाणो, मंडलीया, जय महारंभा कोडंबी । १३६. तओ लोए सुसीला सुव्वया सग्गुणा समेरा सपच्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा सच्वट्टसिद्धे विमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति तं जहारायाणो परिचत्तकामभोगा, सेणावती, पसत्थारो ।
विमाण-पदं
१३७. बंभलोग लंतएसु णं कप्पेसु विमाणा तिवण्णा पण्णत्ता, तं जहा कोण्हा, पीला, लोहिया ।
देव-पदं
१३८. आणयपाणया रणच्च तेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जसरीरगा उक्कोसेणं तिष्णि रयणीओ उड्डू उच्चत्तेणं पण्णत्ता ।
पण्णत्ति-पदं
१३६. तओ पण्णत्तीओ कालेणं अहिज्जंति, तं जहा चंदपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, दीवसागरपण्णत्ती ।
१८१
उपपद्यन्ते, तद्यथाराजानः, माण्डलिकाः, ये महारम्भाः कौटुम्बिनः ।
त्रयः लोके सुशीलाः सुव्रताः सगुणाः समर्यादाः सप्रत्याख्यानपोषधोपवासाः कालमासे कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धे विमाने देवतया उपपत्तारो भवन्ति, तद्यथा— राजानः परित्यक्तकामभोगाः, सेनापतयः प्रशास्तारः ।
देव-पदम्
आनतप्राणतारणाच्युतेषु कल्पेषु देवानां भवधारणीयशरीरकाणि उत्कर्षेण तिस्रः रत्नीः ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि ।
प्रज्ञप्ति-पदम्
तिस्रः प्रज्ञप्तयः कालेन अधीयन्ते, तद्यथा चन्द्र प्रज्ञप्तिः, सूरप्रज्ञप्तिः, द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः ।
स्थान ३ : सूत्र १३६-१३६
विमान - पद
विमान-पदम् ब्रह्मलोक-लांतकयोः कल्पयोः विमानानि १३७. ब्रह्मलोक तथा लांतक देवलोक में विमान त्रिवर्णानि प्रज्ञप्तानि तद्यथातीन वर्णों के होते हैंकृष्णानि नीलानि, लोहितानि ।
१. कृष्ण, २. नील, ३. रक्त ।
नरयिक के रूप में उत्पन्न होते हैं
१. राजा - चक्रवर्ती आदि, २. माण्डलिक राजा, ३. महारम्भ करने वाला
१३६. लोक में ये तीन - जो सुशील, सुव्रत,
सगुण, मर्यादित, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास सहित हैं —-मृत्यु काल में मरकर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवता के रूप में उत्पन्न होते हैं
१. कामभोगों को त्यागने वाला राजा, २. सेनापति, ३. प्रशास्ता मंत्री ।
देव- पद
१३८. आनत, प्राणत, आरण तथा अच्युत देव
लोकों के देवों के भवधारणीय शरीर की ऊंचाई उत्कृष्टतः तीन रत्नि की है।
प्रज्ञप्ति-पद
१३६. तीन प्रज्ञप्तियां यथाकाल पढ़ी जाती हैं१. चन्द्रप्रज्ञप्ति २. सूर्यप्रज्ञप्ति,
३. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ।"
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ठाणं (स्थान)
स्थान ३: सूत्र १४०-१४८
१८२ बीओ उद्देसो
लोग-पदं
लोक-पदम् १४०. तिविहे लोगे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः लोकः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
णामलोगे, ठवणलोगे, दव्वलोगे। नामलोकः, स्थापनालोकः, द्रव्यलोकः। १४१. तिविहे लोगे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः लोकः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
णाणलोगे,दसणलोगे, चरित्तलोगे। ज्ञानलोकः, दर्शनलोकः, चरित्रलोकः । १४२. तिविहे लोगे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः लोकः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-
उड्डलोगे, अहोलोगे, तिरियलोगे। ऊर्ध्वलोकः, अधोलोकः, तिर्यग्लोकः।
लोक-पद १४०. लोक तीन प्रकार का है—१. नामलोक,
२. स्थापनालोक ३. द्रव्यलोक । १४१. लोक तीन प्रकार का है
१. ज्ञानलोक, २. दर्शनलोक, चरित्रलोक। १४२. लोक तीन प्रकार का है-१. ऊर्ध्वलोक,
२, अधोलोक, ३. तिर्यक्लोक ।
परिसा-पदं परिषद्-पदम्
परिषद्-पद १४३. चमरस्स गं असुरिंदस्स असुर- चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य १४३. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के तीन
कुमाररण्णो तओ परिसाओ तिस्रः परिषदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- परिषदें"हैंपण्णत्ताओ, तं जहासमिता, चण्डा, जाता।
१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। समिता, चंडा, जाया। आभ्यन्तरिकी समिता,
आन्तरिक परिषद् का नाम समिता है, अभितरिता समिता, माध्यमिकी चण्डा, बाहिरिकी जाता। मध्यम परिषद् का नाम चण्डा है, मज्झिमिता चंडा, बाहिरिता
बाह्य परिषद् का नाम जाता है । जाया। १४४. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुर- चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य १४४. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के सामा
कमाररणो सामाणिताणं देवाणं सामानिकानां देवानां तिस्रः परिषदः निक देवों के तीन परिषदें हैंतओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। जहा–समिता जहेव चमरस्स। समिता यथैव चमरस्य । १४५. एवं तावत्तीसगाणवि।
एवम् तावत्रिंशकानामपि।
१४५. इसी प्रकार असुरेन्द्र, असुरकुमारराज
चमर के तावत्त्रिंशकों के तीन परिषदें
हैं-१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। १४६. लोगपालाणं तुंबा, तुडिया, लोकपालानाम्-तुम्बा, त्रुटिता, पर्वा । १४६. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के लोकपवा।
पालों के तीन परिषदें हैं
१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा । १४७. एवं_अग्गमहिसीणवि। एवम् अग्रमहिषीणामपि । १४७. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर की अग्र
महिषियों के तीन परिषदें हैं
१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा । १४८. बलिस्सवि एवं चेव जाव अग्ग- बलिनोपि एवं चैव यावत अग्रमहिषी- १४८. वैरोचनेन्द्र, वैरोचनराज बली तथा उसके महिसीणं। णाम् ।
सामानिकों और तावत्तिशकों के तीनतीन परिषदें हैं
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ठाणं (स्थान)
१८३
स्थान ३ : सूत्र १४६-१५७
१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। उसके लोकपालों तथा अग्रमहिषियों के भी तीन-तीन परिषदें हैं
१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा । १४६. धरणस्स य सामाणिय-तावत्ती- धरणस्य च सामानिक-तावत्त्रिंशकानां १४६. नागेन्द्र, नागकुमारराज धरण तथा सगाणं च समिता, चंडा, जाता। च_समिता, चण्डा, जाता।
उसके सामानिकों और तावत्तिज्ञाकों के तीन-तीन परिषदें हैं
१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। १५०. लोगपालाणं अग्गमहिसीणं- लोकपालानां अग्रमहिषीणाम्
१५०. नागेन्द्र, नागकुमारराज धरण के लोकईसा, तुडिया, दढरहा। ईषा, त्रुटिता, दृढरथा।
पालों तथा अग्रमहिषियों के भी तीन-तीन परिषदें हैं
१. ईषा, २. त्रुटिता, ३. दृढ़रथा। १५१. जहा धरणस्स तहा सेसाणं भवण- यथा धरणस्य तथा शेषाणां भवनवासि- १५१. शेष भवनवासी देवों का क्रम धरण की वासीणं । नाम् ।
तरह ही है। १५२.कालस्स णं पिसाडंदस्स पिसाय- कालस्य पिशाचेन्द्रस्य पिशाचराजस्य १५२. पिशाचेन्द्र, पिशाचराज काल के तीन
रणो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तिस्रः परिषदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- परिषदें हैंतं जहा.-ईसा, तुडिया, दढरहा। ईषा, त्रुटिता, दृढ रथा।
१. ईषा, २. त्रुटिता, ३. दृढ़रथा। १५३. एवं—सामाणिय-अग्गमहिसीणं। एवम् – सामानिकाऽग्रमहिषीणाम्। १५३. इसी प्रकार उनके सामानिकों और अग्र
महिषियों के भी तीन-तीन परिषदें हैं
१. ईषा, २. त्रुटिता, ३. दृढ़रथा। १५४. एवं—जाव गीयरतिगीयजसाणं। एवम्—यावत् गीतरतिगीतयशसोः। १५४. इसी प्रकार गंधर्वेन्द्र गीतरति और गीत
यशा तक के सभी वानमन्तर देवेन्द्रों के तीन-तीन परिषदें हैं
१. ईषा, २. त्रुटिता, ३. दृढ़रथा। १५५. चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिस- चन्द्रस्य ज्योतिरिन्द्रस्य ज्योतीराजस्य १५५. ज्योतिषेन्द्र, ज्यौतिषराज चन्द्र के तीन
रणोतओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तिस्रः परिषद: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- परिषदें हैंतं जहा—तुंबा, तुडिया, पव्वा। तुम्बा, त्रुटिता, पर्वा ।
१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा । १५६. एवं—सामाणिय-अग्गमहिसीणं। एवम् —सामानिकाऽग्रमहिषीणाम् । १५६. इसी प्रकार उसके सामानिकों तथा अग्र
महिषियों के तीन-तीन परिषदें हैं
१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा । १५७. एवं.-सूरस्सवि।
एवम् —सूरस्यापि।
१५७. ज्यौतिषेन्द्र, ज्योतिषराज सूर्य के तीन
परिषदें हैं१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा । इसी प्रकार उसके सामानिकों तथा अग्र
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ठाणं (स्थान)
१८४
स्थान ३ : सूत्र १५८-१६२
महिषियों के तीन-तीन परिषदें हैं
१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा। १५८. सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो शत्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य तिस्रः १५८. देवेन्द्र, देवराज शक्र के तीन परिषदें हैंतओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं परिषदः प्रज्ञप्ताः, तदयथा
१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। जहा_समिता, चंडा, जाया। समिता. चण्डा, जाता। १५६. एवं-जहा चमरस्स जाव अग्ग- एवम् यथा चमरस्य यावत् अग्र- १५६. इसी प्रकार देवेन्द्र, देवराज शक्र के महिसीणं। महिषीणाम् ।
सामानिकों तथा तावत्त्रिंशकों के तीनतीन परिषदें हैं१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। उसके लोकपालों तथा अग्रमहिषियों के तीन-तीन परिषदें हैं
१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा। १६०. एवं_जाव अच्चतस्स लोग- एवम यावत् अच्यूतस्य लोकपाला- १६० इसी प्रकार देवेन्द्र, देवराज ईशान के तीन पालाणं । नाम्।
परिषदें हैं१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। उसके सामानिकों तथा तावत्त्रिंशकों के तीन-तीन परिषदें हैं१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। उसके लोकपालों तथा अग्रमहिषियों के तीन-तीन परिषदें हैं१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा । इसी प्रकार सनत्कुमार से लेकर अच्युत तक के देवेन्द्रों, सामानिकों तथा तावत्त्रिंशकों के तीन-तीन परिषदें हैं१. समिता, २. चण्डा, ३. जाता। उनके लोकपालों के तीन-तीन परिषदें हैं-१. तुम्बा, २. त्रुटिता, ३. पर्वा ।
जाम-पदं याम-पदम्
याम-पद १६१. तओ जामा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः यामाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १६१- याम" तीन हैं-१. प्रथम याम, पढमे जामे, मज्झिमे जामे, प्रथमः यामः, मध्यमः यामः,
२. मध्यम याम, ३. पश्चिम याम । पच्छिमे जामे।
पश्चिमः यामः । १६२. तिहिं जामेहि आता केवलिपण्णत्तं त्रिभिः यामैः आत्मा केवलिप्रज्ञप्तं धर्म १७२. तीनों ही यामों में आत्मा केबलीप्रज्ञप्त धम्म लभेज्ज सवणयाए, तं जहा- लभेत श्रवणतया, तद्यथा
धर्म का श्रवण लाभ करता है---
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ठाणं (स्थान)
पढमे जामे मज्झिमे जामे, प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
पच्छिम जामे ।
१६३. तिहि जाहि आया केवलं बोधि बुझेज्जा, तं जहा — पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे । १६४. तिहि जामेहिं आया केवलं मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, तं जहा—पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे । १६५. तिहिं जामेहिं आया केवलं बंभचेर वासमावसेज्जा, तं जहापढमे जामे मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे ।
उप्पाडेज्जा, तं जहा
पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे ।
१७०. तिहिं जामेहिं आया केवलं ओहि
गाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा - पढमे जामे मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे ।
१८५
त्रिभिः यामैः आत्मा केवलां बोधि बुध्येत तद्यथा प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
त्रिभिः यामैः आत्मा केवलं मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजेत् तद्यथा— प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
१६६. तिहि जामेहिं आया केवलेणं
संजमेणं संजमेज्जा, तं जहा - पढमे जामे मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे ।
१६७. तिहिं जामेहिं आया केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, तं जहापढमे जामे मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे ।
१६८. तिहि जामेहिं आया केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा— पढमे जामे मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे ।
१६६. तिहिं जामेहि आया केवलं सुयणाणं त्रिभिः यामैः आत्मा केवलं श्रुतज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा—प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
त्रिभिः यामै: आत्मा केवलं ब्रह्मचर्य - वासमावसेत्, तद्यथा— प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
त्रिभिः यामै: आत्मा केवलेन संयमेन संयच्छेत्, तद्यथा—प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
त्रिभिः यामै: आत्मा केवलेन संवरेण संवृणुयात्, तद्यथा प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
त्रिभिः यामैः आत्मा केवलमाभिनिबोधिकज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा— प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
त्रिभिः यामैः आत्मा केवल अवधिज्ञानं उत्पादयेत् तद्यथा प्रथमे यामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे ।
स्थान ३ : सूत्र १६३-१७०
१. प्रथम याम में २. मध्यम याम में, ३. पश्चिम याम में ।
१६३. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध बोधि
लाभ करता है - १. प्रथम याम में,
२. मध्यम याम में, ३ . पश्चिम याम में । १६४. तीनों ही यामों में आत्मा मुण्ड होकर
अगार से विशुद्ध अनगारत्व में प्रव्रजित होता है - १. प्रथम याम में,
२. मध्यम याम में, ३ . पश्चिम याम में । १६५. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध ब्रह्मचर्य
वास करता है - १. प्रथम याम में, २. मध्यम याम में, ३. पश्चिम याम में ।
१६६. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध संयम
से संयत होता है - १. प्रथम याम में, २. मध्यम याम में, ३ . पश्चिम याम में ।
१६७. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध संवर से
संवृत होता है - १. प्रथम याम में, २. मध्यम याम में, ३ . पश्चिम याम में ।
१६८. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान को प्राप्त करता है१. प्रथम याम में, २. मध्यम याम में, ३. पश्चिम याम में ।
१६६. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध श्रुतज्ञान
को प्राप्त करता है - १. प्रथम याम में, २. मध्यम याम में, ३ . पश्चिम याम में ।
१७०. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करता है१. प्रथम याम में, २. मध्यम याम में, ३. पश्चिम याम में ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ३ : सूत्र १७१-१७५
१७१. तिहिं जामेहिं आया केवलं मण- त्रिभिः यामैः आत्मा केवलं मनःपर्यवज्ञानं १७१. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध
पज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा- उत्पादयेत्, तद्यथा--प्रथमे यामे, मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त करता हैपढमे जामे, मज्झिमे जामे, मध्यमे याम, पश्चिमे यामे ।
१. प्रथम याम में, २. मध्यम याम में, पच्छिमे जामे।
३. पश्चिम याम में। १७२. तिहि जाहि आया केवलं केवल- त्रिभिः यामैः आत्मा केवलं केवलज्ञानं १७२. तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध केवल
णाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा- उत्पादयेत्, तद्यथा—प्रथम यामे, ज्ञान को प्राप्त करता हैपढमे जामे, मज्झिमे जामे, मध्यमे यामे, पश्चिमे यामे।
१. प्रथम याम में, २. मध्यम याम में, पच्छिमे जामे।
३. पश्चिम याम में।
वय-पदं वयः-पदम्
वय-पद १७३. तओ वया पण्णत्ता, तं जहा- त्रीणि वयांसि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- १७३. वय तीन हैं-१. प्रथम वय,
पढमे वए, मज्झिमे वए, प्रथमं वयः, मध्यमं वयः, पश्चिमं वयः। २. मध्यम वय, ३. पश्चिम वय ।
पच्छिमे वए। १७४. तिहि वएहि आया केवलिपण्णत्तं त्रिभिः वयोभिः आत्मा केवलिप्रज्ञप्तं १७४. तीनों ही वयों में आत्मा केवली-प्रज्ञप्त
धम्मं लभेज्ज सवणयाए, तं जहा- धर्म लभेत श्रवणतया, तद्यथा- धर्म का श्रवण-लाभ करता हैपढमे वए, मज्झिमे वए, प्रथमे वयसि, मध्यम वयसि, पश्चिमे १. प्रथम वय में, २. मध्यम वय में, पच्छिमे वए। वयसि।
३. पश्चिम वय में। १७५. 'तिहि वहि आया
त्रिभिः वयोभिः आत्मा
१७५. तीनों ही वयों में आत्मा विशुद्ध-बोधि का केवलं बोधिं बुज्झज्जा, केवलां बोधि बुध्येत,
अनुभव करता हैकेवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ केवलं मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां मुण्ड होकर घर छोड़कर सम्पूर्ण अनगाअणगारियं पव्वइज्जा, प्रव्रजेत्,
रिता-साधुपन को पाता है। केवलंबंभचेरवासमावसेज्जा, केवलं ब्रह्मचर्यवासमावसेत्,
सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करता है केवलेणं संजमेणं संजमज्जा, केवलेन संयमेन संयच्छेत्,
सम्पूर्ण संयम के द्वारा संयत होता है केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलेन संवरेण संवृणुयात्,
सम्पूर्ण संवर के द्वारा संवृत होता है केवलमाभिणिबोहियणाणं केवलमाभिनिबोधिकज्ञानं उत्पादयेत्, विशुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान को प्राप्त उप्पाडेज्जा, केवलं श्रुतज्ञानं उत्पादयेत्,
करता है केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं अवधिज्ञानं उत्पादयेत्,
विशुद्ध श्रुतज्ञान को प्राप्त करता है केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं मनःपर्यवज्ञानं उत्पादयेत्, विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करता है केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा. केवलं केवलज्ञानं उत्पादयेत
विशुद्ध मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त करता है केवलं केवलणाणं उप्पाडेज्जा, तद्यथा_प्रथम वयसि, मध्यम वयसि, विशुद्ध केवलज्ञान को प्राप्त करता हैतं जहा...पढमे वए, पश्चिमे वयसि ।
१. प्रथम वय में, २. मध्यम वय में, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए।
३. पश्चिम वय में।
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ठाणं (स्थान)
१८७
स्थान ३ : सूत्र १७६-१८३
बोधि-पदं
बोधि-पदम् १७६. तिविधा बोधी पण्णता, तं जहा.- त्रिविधा बोधिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- णाणबोधी, सणबोधी,
ज्ञानबोधिः, दर्शनबोधिः, चरित्रबोधिः। चरित्तबोधी। १७७. तिविहा बुद्धा पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधाः बुद्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
णाणबुद्धा, दंसणबुद्धा, चरित्तबुद्धा। ज्ञानबुद्धाः, दर्शनबुद्धाः, चरित्रबुद्धाः।
बोधि-पद १७६. बोधि तीन प्रकार की है
१. ज्ञान बोधि, २. दर्शन बोधि,
३. चरित्र वोधि । १७७. बुद्ध तीन प्रकार के होते हैं
१. ज्ञान बुद्ध, २. दर्शन बुद्ध, ३. चरित्र बुद्ध।
मोह-पदं
मोह-पदम् १७८. 'तिविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः मोहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
णाणमोहे, सणमोहे, चरित्तमोहे। ज्ञानमोहः, दर्शनमोहः, चरित्रमोहः। १७६. तिविहा मूढा पण्णत्ता, तं जहा- विविधाः मूढाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
णाणमूढा, दंसणमूढा, ज्ञानमूढाः, दर्शनमूढाः, चरित्रमूढाः। चरित्तमूढा ।
मोह-पद १७८. मोह तीन प्रकार का है—१. ज्ञान मोह,
३. दर्शन मोह, ३. चरित्र मोह।" १७६. मूढ तीन प्रकार के होते हैं- १. ज्ञान मूढ,
२. दर्शन मूढ, ३. चरित्र मूढ ।
पव्वज्जा-पदं प्रव्रज्या-पदम्
प्रव्रज्या-पद १८०. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं त्रिविधा प्रवज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १८०. प्रव्रज्या तीन प्रकार की होती है
जहा—इहलोगपडिबद्धा, इहलोकप्रतिबद्धा, परलोकप्रतिबद्धा, १. इहलोक प्रतिबद्धा-ऐहलौकिक सुखों परलोगपडिबद्धा, दुहतो [लोग?] द्वय [लोक ? ] प्रतिबद्धा।
की प्राप्ति के लिए की जाने वाली, पडिबद्धा।
२. परलोक प्रतिबद्धा-पारलौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली, ३. उभयतः प्रतिबद्धा-दोनों के सुखों की
प्राप्ति के लिए की जाने वाली। १८१. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा- विविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १८१. प्रव्रज्या तीन प्रकार की होती है
पुरतोपडिबद्धा, मग्गतोपडिबद्धा, पुरतःप्रतिबद्धा, 'मग्गतो' [पृष्ठतः] १. पुरतः प्रतिबद्धा, २. पृष्ठतः प्रतिबद्धा, दुहओपडिबद्धा। प्रतिबद्धा, द्वयप्रतिबद्धा।
३. उभयतः प्रतिबद्धा। १८२. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं त्रिविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १८२. प्रव्रज्या तीन प्रकार की होती है
जहा तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, तोदयित्वा, प्लावयित्वा, वाचयित्वा । १. तोदयित्वा-कष्ट देकर दी जाने वाली बुआवइत्ता।
२. प्लावयित्वा-दूसरे स्थान में ले जाकर दी जाने वाली, ३. वाचयित्वा
बातचीत करके दी जाने वाली। १८३. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं त्रिविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १८३. प्रव्रज्या तीन प्रकार की होती हैजहा_ओवातपव्वज्जा, अवपातप्रव्रज्या,
१. अवपात प्रव्रज्या-गुरु सेवा से प्राप्त,
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ठाणं (स्थान)
१८८
स्थान ३ : सूत्र १८४-१८७
अक्खातपव्वज्जा, संगारपब्वज्जा। आख्यातप्रव्रज्या, सङ्गरप्रव्रज्या।
२. आख्यात प्रव्रज्या"-उपदेश से प्राप्त, ३. संगर प्रव्रज्या-परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध होकर ली जाने वाली।"
णियंठ-पदं निर्ग्रन्थ-पदम्
निर्ग्रन्थ-पद १८४. तओ णियंठा णोसण्णोवउत्ता त्रयः निर्ग्रन्थाः नोसंज्ञोपयुक्ताः प्रज्ञप्ताः, १८४. तीन प्रकार के निर्ग्रन्थ नोसंज्ञा से उपयुक्त
पण्णता, तं जहा—पुलाए, णियंठे, तद्यथा-पुलाकः, निर्ग्रन्थः, स्नातकः ।। होते हैं-आहार आदि की चिन्ता से सिणाए।
मुक्त होते हैं१. पुलाक-पुलाक लब्धि उपजीवी, २. निर्ग्रन्थ-मोहनीय कर्म से मुक्त,
३. स्नातक-घात्य कर्मों से मुक्त। १८५. तओ णियंठा सण्ण-पोसण्णोवउत्ता त्रयः निर्ग्रन्थाः संज्ञा-नोसंज्ञोपयुक्ताः १८५. तीन प्रकार के निर्ग्रन्थ संज्ञा और नोसंज्ञा पण्णत्ता, तं जहा—बउसे, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--बकुशः,
दोनों से उपयुक्त होते हैं-आहार आदि पडिसेवणाकुसीले, कसायकुसीले। प्रतिषेवणाकुशीलः, कषायकुशीलः । की चिन्ता से युक्त भी होते हैं और मुक्त
भी होते हैं-१. बकुश-चरित्र में धब्बे लगाने वाला, २. प्रतिषेवणाकुशीलउत्तर गुणों में दोष लगाने वाला, ३. कपायकुशील-कषाय से दूषित चरित्र वाला।
सेहभूमी-पदं शैक्षभूमी-पदम्
शैक्षभूमी-पद १८६. तओ सेहभूमीओ पण्णत्ताओ, तं तिस्रः शैक्षभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १८६. तीन शैक्ष-भूमियां हैंजहा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या।
१. उत्कृष्ट, ३. मध्यम, ३. जघन्य। उक्कोसा छम्मासा, मज्झिमा उत्कर्षा षड्मासा, मध्यमा चतुर्मासा, उत्कृष्ट छह महीनों की, मध्यम चार चउमासा, जहण्णा सत्तराईदिया। जघन्या सप्तरात्रिंदिवम् ।
महीनों की, जघन्य सात दिन-रात की।
थेरभूमी-पदं स्थविरभूमी-पदम्
स्थविरभूमी-पद १८७. तओ थेरभूमीओ पणत्ताओ, तं तिस्रः स्थविरभूमय: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १८७. तीन स्थविर-भूमियां हैंजहा-जातिथेरे, सुयथेरे, जातिस्थविरः, श्रुतस्थविरः,
१. जाति-स्थविर, २. श्रुत-स्थविर, परियायथेरे। पर्यायस्थविरः ।
३. पर्याय-स्थविर।
साठ वर्षों का हाने पर श्रमण-निर्ग्रन्थ सट्ठिवासजाए समणे णिग्गंथे षष्ठिवर्षजातः श्रमणः निर्ग्रन्थः जातिथेरे, ठाणसमवायधरेणंसमणे जातिस्थविरः, स्थानसमवायधरः श्रमणः
जाति-स्थविर होता है।
स्थान और समवायांग का धारक णिग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए निर्ग्रन्थः श्रुतस्थविरः, विंशतिवर्षपर्यायः
श्रमण-निर्ग्रन्थ श्रुत-स्थविर होता है। णं समणे णिग्गंथे परियायथेरे। श्रमणः निर्ग्रन्थः पर्यायस्थविरः ।
बीस वर्ष से साधुत्व पालने वाला श्रमणनिर्ग्रन्य पर्याय-स्थविर होता है।
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ठाणं (स्थान)
गंता - अगंता-पदं
१८८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा सुमणे, दुम्मणे, णोसुमणे
म
१८६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा गंता णामेगे सुमणे भवति, ताणामेगे दुम्मणे भवति, गंता णामेगे णोसुमणे णोदुम्मणे भवति ।
१६०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहाजामीतेगे सुमणे भवति, जामीतेगे दुम्मणे भवति, जामीतेगे
गोमणे - गोदुम्मणे
भवति ।
१८६
गत्वा - अगत्वा-पदम्
गत्वा-अगत्वा-पद
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- १८८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंसुमनाः, दुर्मनाः, नोसुमनाःनोदुर्मनाः ।
१. सुमनक, २. दुर्मनस्क, ३. नोसुमनस्क -नोदुर्मनस्क । १८६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष जाने के बाद सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष जाने के बाद दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाने के बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। १०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - गत्वा नामैकः सुमनाः भवति, गत्वा नामकः दुर्मनाः भवति, गत्वा नामकः नोसुमनाः- नोदुर्मनाः भवति ।
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा यामीत्येकः सुमनाः भवति, यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, यामीत्येकः नोसुमनाः- नोदुर्मनाः भवति ।
११. 'तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, जहा -
तद्यथा
यास्यानीत्येकः सुमनाः भवति, यास्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, यास्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः भवति ।
जाइस्सामीतेगे सुमणे भवति, जाइस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, जाइस्सामीतेगे णोसुमणेदुम् भवति । १६२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - अगंता णामेगे सुमणे भवति, अगंता णामेगे दुम्मणे भवति, अगंता णामेगे णोसुमणे णोदुम्मणे भवति १६३. तओ पुरिसजाता पण्णत्ता तं जहा ण जामि एगे सुमणे भवति, जामि एगे दुम्मणे भवति, जामि एगे गोमणे - गोदुम्मणे भवति ।
1
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - अगत्वा नामैकः सुमनाः भवति, अगत्वा नामकः दुर्मनाः भवति, अगत्वा नामैकः नोसुमनाः- नोदुर्मनाः भवति ।
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-
न याम्येकः सुमनाः भवति, न याम्येकः दुर्मनाः भवति, न याम्येकः
भवति ।
नो सुमनाः- नोदुर्मना
स्थान ३ : सूत्र १८८-१६३
१. कुछ पुरुष जाता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष जाता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं ।
१९१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष जाऊंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष जाऊंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाऊंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न होते हैं ।
दु
१९२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष न जाने पर सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न जाने पर दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष न जाने पर न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं । १९३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष न जाता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न जाता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष न जाता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
१६० १६४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,- जहा.
तद्यथाण जाइस्सामि एगे सुमणे भवति, न यास्याम्येकः सुमना: भवात, ण जाइस्सामि एगे दुम्मणे भवति, न यास्याम्येक: दुर्मनाः भवति, ण जाइस्सामि एगे जोसुमणे- न यास्याम्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मना: णोदुम्मणे भवति ।
भवति।
स्थान ३ : सूत्र १९४-१६६ १६४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष नहीं जाऊंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २.कुछ पुरुष नहीं जाऊंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष नहीं जाऊंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
आगंता-अणागंता-पदं आगत्य-अनागत्य-पदम्
आगत्य-अनागत्य-पद १९५. 'तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १६५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा-आगंता णामेगे सुमणे भवति, तद्यथा—आगत्य नामैकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष आने के बाद सुमनस्क होते आगंता णामेगे दुम्मणे भवति, आगत्य नामकः दुर्मनाः भवति, हैं, २. कुछ पुरुष आने के बाद दुर्मनस्क आगंता णामेगे जोसुमणे- आगत्य नामैकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः होते हैं, ३. कुछ पुरुष आने के बाद न णोदुम्मणे भवति। भवति।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं । १९६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १९६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा—एमीतेगे सुमणे भवति, तद्यथा—एमीत्येकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष आता हूं इसलिए सुमनस्क एमीतेगे दुम्मणे भवति, एमीत्येक: दुर्मनाः भवति,
होते हैं, २. कुछ पुरुष आता हूं इसलिए एमीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे एमीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष आता हूं भवति। भवति।
इसलिए न सुमनस्क होते हैं, और न
दुर्मनस्क होते हैं। १९७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १६७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा_एस्सामीतेगे समणे भवति, तदयथा-एष्यामीत्येकः समनाः भवति. १. कुछ पुरुष आऊंगा इसलिए सुमनस्क एस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, एष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष आऊंगा इसलिए एस्सामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे एष्यामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष आऊंगा भवति । भवति।
इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न
दुर्मनस्क होते हैं। १९८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १६८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष न आने पर सुमनस्क होते हैं, अणागंता णामेंगे सुमणे भवति, अनागत्य नामैक: सुमनाः भवति, २. कुछ पुरुष न आने पर दुर्मनस्क होते हैं, अणागंता णामेगे दुम्मणे भवति, अनागत्य नामैकः दुर्मनाः भवति, ३. कुछ पुरुष न आने पर न सुमनस्क होते अणांगता णामेगे णोसुमणे- अनागत्य नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः हैं और न दुर्मनस्क होते हैं । णोदुम्मणे भवति।
भवति। १६६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १६६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा-ण एमीतेगे सुमणे भवति, तद्यथा-नैमीत्येकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष न आता हूं इसलिए ण एमीतेगे दुम्मणे भवति, नमीत्येकः दुर्मनाः भवति,
सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न आता हूं
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ठाणं (स्थान)
ण एमीतेगे णोसुमणे- णोदुम्मणे
भवति ।
२०० तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
जहा -
ण एस्सामीतेगे सुमणे भवति,
एस्सामीतेगे दुम्मणे भवति,
ण एस्सामीतेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवति ।
चिट्टित्ता-अचिट्ठित्ता-पदं
२०१. तअ पुरिसजाया पण्णत्ता तं
जहा - चिट्टित्ता णामेगे सुमणे भवति, चिट्टित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, चिट्ठित्ता णामेगे णोसुमणेगोदुम्मणे भवति । २०२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा — चिट्ठामीतेगे सुमणे भवति, चिट्ठामीतेगे दुम्मणे भवति, चिट्ठामीतेगे णोसुमणे णोदुम्मणे भवति ।
१६१
नैमीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः भवति ।
२०४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा— अचिट्ठिता णामेगे सुमणे भवति, अचिट्ठित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अचिट्ठित्ता णामेगे णोसुमणेगोदुम्मणे भवति ।
तद्यथा
नैष्यामीत्येकः सुमनाः भवति,
नैष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, नैष्यामीत्येकः नोसुमनाः- नोदुर्मनाः भवति ।
स्थित्वा-अस्थित्वा-पदम्
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा— तिष्ठामीत्येकः सुमनाः भवति, तिष्ठामीत्येकः दुर्मनाः भवति, तिष्ठामीत्येकः नोसुमनाः- नोदुर्मनाः भवति । २०३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, जहा - चिट्ठिस्सामीतेगे सुमणे भवति, चिट्ठामोतेगे दुम्मणे भवति, चिट्ठस्सामीतेगे णोसुमणे
दुम्मणे भवति ।
तद्यथा—
स्थित्वा नामैकः सुमनाः भवति, स्थित्वा नामकः दुर्मनाः भवति, स्थित्वा नामैकः नो सुमनाः- नोदुर्मनाः भवति ।
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा—
स्थास्यामीत्येकः सुमनाः भवति, स्थास्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, स्थास्यामीत्येकः नोसुमनाः- नोदुर्मनाः भवति
1
स्थान ३ : सूत्र २०० - २०४
इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष न आता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं। और न दुर्मनस्क होते हैं ।
२००. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष न आऊंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न आऊंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष न आऊंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
स्थित्वा - अस्थित्वा पद
२०१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष ठहरने के बाद सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष ठहरने के बाद दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ठहरने के बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं ।
२०२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष ठहरता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष ठहरता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ठहरता हूं, इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न होते हैं ।
दु
२०३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष ठहरूंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष ठहरूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ठहरूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं ।
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - २०४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंअस्थित्वा नामैकः सुमनाः भवति, अस्थित्वा नामकः दुर्मनाः भवति, अस्थित्वा नामैक: नोसुमनाःनोदुर्मनाः भवति ।
१. कुछ पुरुष न ठहरने पर सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न ठहरने पर दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष न ठहरने पर न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
२०५. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
जहा -
तद्यथा-
न तिष्ठामीत्येकः सुमनाः भवति,
ण चिट्ठामीतेगे सुमणे भवति, ण चिट्ठामीतेगे दुम्मणे भवति, चिट्ठामीणो सुमणेदुम्मणे भवति ।
न तिष्ठामीत्येकः दुर्मनाः भवति, न तिष्ठामीत्येकः नोसुमनाःनोदुर्मनाः भवति ।
२०६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा
जहा -
ण चिट्ठिस्सामीतेगे सुमणे भवति, ण चिट्ठिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, ण चिट्ठिस्सामीतेगे णोसुमणे -
भव ।
१६२
न स्थास्यामीत्येकः सुमनाः भवति, न स्थास्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, न स्थास्यामीत्येकः नोसुमनाःनोदुर्मनाः भवति ।
णिसत्ता-अणिसित्ता-पदं
२०७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा
णिसिइत्ता णामेगे सुमणे भवति, णिसिइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, णिसित्ता णामेगे णोसुमणेदुम्मणे भवति ।
२०८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा णिसीदामीतेगे सुमणे भवति, णिसीदामीतेगे दुम्मणे भवति, सिदामतेगे णोसुम-णोदुम्मणे भवति,
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - निषीदामीत्येकः सुमनाः भवति, निषीदामीत्येक: दुर्मनाः भवति, निषीदामीत्येकः नोसुमनाः - नोदुर्मनाः भवति ।
२०६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
निषद्य-अनिषद्य-पदम्
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा—
निषद्य नामैकः सुमनाः भवति, निषद्य नामैक: दुर्मनाः भवति, निषद्य नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः भवति ।
जहा - तद्यथा— णिसीदिस्सा मीतेगे सुमणे भवति, निषत्स्यामीत्येकः सुमनाः भवति, णिसीदिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, निषत्स्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, णिसीदिस्सामीतेगे णोस मणे- निषत्स्यामीत्येकः नोसुमनाः -नोदुर्मनाः णोदुम्मणे भवति भवति । २१०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
।
जहा -
अणिसिइत्ता णामेगे सुमणे भवति, अनिषद्य नामैकः सुमनाः भवति,
स्थान ३ : सूत्र २०५ - २१०
१०५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं-
१. कुछ पुरुष न ठहरता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न ठहरता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष न ठहरता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
२०६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं—
१. कुछ पुरुष न ठहरूंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न ठहरूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष न ठहरूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दु होते हैं ।
निषद्य - अनिषद्य-पद
२०७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष बैठने के बाद सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष बैठने के बाद दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष बैठने के बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २०८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं—
१. कुछ पुरुष बैठता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष बैठता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष बैठता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मन होते हैं।
२०६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष बैठूंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष बैठूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष बैठूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मन होते हैं।
२१०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष न बैठने पर सुमनस्क होते
हैं, २. कुछ पुरुष न बैठने पर दुर्मनस्क
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हैं।
ठाणं (स्थान)
१६३
स्थान ३: सूत्र २११-२१५ अणिसिइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अनिषद्य नामैक: दुर्मनाः भवति, होते हैं, ३. कुछ पुरुष न बैठने पर न अणिसिइत्ता णामेगे णोसुमणे- अनिषद्य नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते णोदुम्मणे भवति।
भवति । २११. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २११. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष न बैठता हूं इसलिए सुमण णिसीदामीतेगे सुमणे भवति, न निषीदामीत्येकः सुमनाः भवति, नस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न बैठता हूं ण णिसीदामीतेगे दुम्मणे भवति, न निषीदामीत्येकः दुर्मनाः भवति, इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ण णिसीदामीतेगे जोसुमणे- न निषीदामीत्येकः नोसुमना:-नोदुर्मना: न बैठता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं णोदुम्मणे भवति । भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २१२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष नहीं बैठूगा इसलिए सुमण णिसोदिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न निषत्स्यामीत्येकः सुमनाः भवति, नस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष नहीं बैठेगा ण णिसीदिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न निषत्स्यामीत्येक: दुर्मनाः भवति, इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ण णिसीदिस्सामीतेगे जोसुमणे- न निषत्स्यामीत्येक: नोसुमनाः- नहीं बैठेगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं णोदुम्मणे भवति । नोदुर्मना: भवति ।
और न दुर्मनस्क होते हैं।
हंता-अहंता-पदम् हत्वा-अहत्वा-पदम्
हत्वा-अहत्वा-पद २१३. तओ पुरिसजाया पणत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा—हता णामगे सुमणे भवति, तद्यथा-हत्वा नामैकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष मारने के बाद सुमनस्क होते हंता णामेगे दुम्मणे भवति, हत्वा नामैक: दुर्मनाः भवति,
हैं, २. कुछ पुरुष मारने के बाद दुर्मनस्क हंता णामेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे हत्वा नामकः नोसुमना:-नोदुर्मनाः होते हैं, ३. कुछ पुरुष मारने के बाद न भवति। भवति।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २१४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा--
१. कुछ पुरुष मारता हूं इसलिए सुमनस्क हणामीतेगे सुमणे भवति, हन्मीत्येक: सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष मारता हूं इसलिए हणामीतेगे दुम्मणे भवति, __हन्मीत्येकः दुर्मनाः भवति,
दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष मारता हूं हणामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे हन्मीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति। भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २१५. तओ पुरिसजाया पणत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष मारूंगा इसलिए सुमनस्क हणिस्सामीतेगे सुमणे भवति, हनिष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष मारूंगा इसलिए हणिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, हनिष्यामीत्येक: दुर्मना: भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष मारूंगा हणिस्सामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे हनिष्यामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति। भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ३ : सूत्र २१६-२२१
२१६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा—अहंता णामेगे सुमणे भवति, तद्यथा-अहत्वा नामकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष न मारने पर सुमनस्क होते अहंता णामेगे दुम्मणे भवति, अहत्वा नामकः दुर्मनाः भवति, हैं, २. कुछ पुरुष न मारने पर दुर्मनस्क अहंता णामेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे अहत्वा नामक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः होते हैं, ३. कुछ पुरुष न मारने पर न भवति। भवति।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २१७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,तद्यथा- २१७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहान हन्मीत्येकः सुमनाः भवति,
१. कुछ पुरुष न मारता हूं इसलिए ण हणामीतेगे सुमणे भवति, न हन्मीत्येकः दुर्मना: भवति, . सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष न मारता ण हणामीतेगे दुम्मणे भवति, न हन्मीत्येक: नोसुमना:-नोदुर्मनाः हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ण हणामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे भवति ।
न मारता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २१८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष न मारूंगा इसलिए सुमनस्क ण हणिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न हनिष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष न मारूंगा इसलिए ण हणिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न हनिष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, दर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष न मारूंगा ण हणिस्सामीतेगे णोसुमणे- न हनिष्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न णोदुम्मणे भवति। भवति।
दुर्मनस्क होते हैं।
छिदित्ता-अछिदित्ता-पदं छित्त्वा-अछित्त्वा-पदम्
छित्त्वा-अछित्त्वा-पद २१६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष छेदन करने के बाद सुमनस्क छिदित्ता णामेगे सुमणे भवति, छित्त्वा नामकः सुमनाः भवति,
होते हैं, २. कुछ पुरुष छेदन करने के बाद छिदित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, छित्त्वा नामकः दुर्मनाः भवति,
दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष छेदन छिदित्ताणामेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे छित्त्वा नामकः नोसुमना:-नोदुर्मनाः करने के बाद न सुमनस्क होते हैं और न भवति । भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २२०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष छेदन करता हूं इसलिए छिदामीतेगे सुमणे भवति, छिनमीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष छेदन छिदामीतेगे दुम्मणे भवति, छिनमीत्येकः दुर्मनाः भवति, करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, छिदामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे छिनमीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः ३. कुछ पुरुष छेदन करता हूं इसलिए न भवति । भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २२१. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष छेदन करूंगा इसलिए सुमछिदिस्सामीतेगे सुमणे भवति, छेत्स्यामीत्येकः सुमनाः भवति, नस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष छेदन करूंगा
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : सूत्र २२२-२२६
छिदिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, छेत्स्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति,
इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष छिदिस्सामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे छेत्स्यामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः छेदन करूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं भवति। भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २२२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष छेदन न करने पर सुमनस्क छिदित्ता णामेगे सुमणे भवति, अछित्त्वा नामैकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष छेदन न करने पर अछिदित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अछित्त्वा नामैक: दुर्मना: भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष छेदन न अछिदित्ता णामेगे जोसुमणे- अछित्त्वा नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः करने पर न सुमनस्क होते हैं और न णोदुम्मणे भवति। भवति।
दुर्मनस्क होते हैं । २२३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष छेदन नहीं करता हूं इसलिए ण छिदामीतेगे सुमणे भवति, न छिनमीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष छेदन नहीं ण छिदामीतेगे दुम्मणे भवति, न छिनमीत्येकः दुर्मनाः भवति, करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ण छिदामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे न छिनमीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः ३. कुछ पुरुष छेदन नहीं करता हूं इसलिए भवति। भवति ।
न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते
२२४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष छेदन नहीं करूंगा इसलिए ण छिदिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न छेत्स्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष छेदन नहीं ण छिदिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न छेत्स्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ ण छिदिस्सामीतेगे जोसुमणे- न छेत्स्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुमनाः । पुरुष छेदन नहीं करूंगा इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति । भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
बूइत्ता-अबूइत्ता-पदं उक्त्वा-अनुक्त्वा-पदम्
उक्त्वा-अनुक्त्वा-पद २२५. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष बोलने के बाद सुमनस्क बू इत्ता णामेगे सुमणे भवति, उक्त्वा नामकः सुमनाः भवति,
होते हैं, २. कुछ पुरुष बोलने के बाद बूइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, उक्त्वा नामकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष बोलने के बूइत्ता णामेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे उक्त्वा नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क भवति। भवति।
होते हैं। २२६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष बोलता हूं इसलिए सुमनस्क बेमीतेगे सुमणे भवति, ब्रवीमीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष बोलता हूं इसलिए बेमीतेगे दुम्मणे भवति, ब्रवीमीत्येकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष बोलता हूं
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : सूत्र २२७-२३१ बेमीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे ब्रवीमीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति, भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २२७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २२७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहावक्ष्यामीत्येकः सुमनाः भवति,
१. कुछ पुरुष बोलूंगा इसलिए सुमनस्क बोच्छामीतेगे सुमणे भवति, वक्ष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति,
होते हैं, २. कुछ पुरुष बोलंगा इसलिए बोच्छामीतेगे दुम्मणे भवति, वक्ष्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष बोलूंगा बोच्छामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे भवति ।
इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २२८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-२२८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा
अनुक्त्वा नामकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष न बोलने पर सुमनस्क होते अबूइत्ता णामेगे सुमणे भवति, अनुक्त्वा नामैकः दुर्मनाः भवति, हैं, २. कुछ पुरुष न बोलने पर दुर्मनस्क अबू इत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अनुक्त्वा नामैक: नोसुमना:-नोदुर्मनाः होते हैं, ३. कुछ पुरुष न बोलने पर न अबूइत्ता णामेगे णोसुमणे- भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। णो दुम्मणे भवति । २२९. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- २२६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहान ब्रवीमीत्येकः सुमनाः भवति,
१. कुछ पुरुष बोलता नहीं हूं इसलिए ण बेमीतेगे सुमणे भवति, न ब्रवीमीत्येकः दुर्मनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष बोलता ण बेमीतेगे दुम्मणे भवति, न ब्रवीमीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः नहीं हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ ण बेमौतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे भवति ।
पुरुष बोलता नहीं हूं इसलिए न सुमनस्क भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २३०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २३०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा
न वक्ष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष नहीं बोलूंगा इसलिए सुमण बोच्छामीतेगे सुमणे भवति, न वक्ष्यामीत्येक: दुर्मनाः भवति, नस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष नहीं बोलूंगा ण बोच्छामीतेगे दुम्मणे भवति, न वक्ष्यामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ण बोच्छामीतेगे जोसुमणे- भवति ।
नहीं बोलूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं णोदुम्मणे भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं।
भासित्ता-अभासित्ता पदम् भाषित्वा-अभाषित्वा-पदम् भाषित्वा-अभाषित्वा-पद २३१. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणिपुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,तद्यथा- २३१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा
भाषित्वा नामैक: सुमना: भवति, १. कुछ पुरुष संभाषण करने के बाद सुमभासित्ता णामेगे सुमणे भवति, भाषित्वा नामकः दुर्मनाः भवति, नस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष संभाषण करने भासित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, भाषित्वा नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः के बाद दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष भासित्ता गामेगे जोसुमणे- भवति ।
संभाषण करने के बाद न सुमनस्क होते हैं णोदुम्मणे भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
१६७
स्थान ३ : सूत्र २३२-२३६ २३२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २३२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहाभाषे इत्येकः सुमना: भवति,
१. कुछ पुरुष संभाषण करता हूं इसलिए भासामीतेगे सुमणे भवति, भाषे इत्येकः दुर्मनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष संभाषण भासामीतेगे दुम्मणे भवति, भाषे इत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः करता हूं, इसलिए दुर्मनस्क होते हैं भासामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे भवति ।
३. कुछ पुरुष संभाषण करता हूं इसलिए भवति।
न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते
२३२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २३३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा
भाषिष्ये इत्येकः सुमनाः भवति, . १. कुछ पुरुष संभाषण करूंगा इसलिए भासिस्सामोतेगे सुमणे भवति, भाषिष्ये इत्येकः दुर्मनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष संभाषण भासिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, भाषिष्ये इत्येक: नोसुमना:-नोदुर्मनाः करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ भासिस्सामीतेगे जोसुमणे- भवति ।
पुरुष संभाषण करूंगा इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति ।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २३४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २३४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा
अभाषित्वा नामकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष संभाषण न करने पर अभासित्ता णामेगे सुमणे भवति, अभाषित्वा नामकः दुर्मना: भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष संभाषण अभासित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अभाषित्वा नामैकः नोसुमनाः-नोदुर्मना: न करने पर दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ अभासित्ता णामेगे जोसुमणे- भवति ।
पुरुष संभाषण न करने पर न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति ।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २३५. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २३५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा
न भाषे इत्येकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष संभाषण नहीं करता हूं ण भासामीतेगे सुमणे भवति, न भाषे इत्येक: दुर्मनाः भवति, इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष ण भासामीतेगे दुम्मणे भवति, न भाषे इत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः संभाषण नहीं करता हूं इसलिए दुर्मनस्क ण भासामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे भवति ।
होते हैं, ३. कुछ पुरुष संभाषण नहीं करता भवति।
हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न
दुर्भनस्क होते हैं। २३६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २३६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा--
१. कुछ पुरुष संभाषण नहीं करूंगा ण भासिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न भाषिष्ये इत्येकः सुमनाः भवति, इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष ण भासिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न भाषिष्ये इत्येक दुर्मनाः भवति, संभाषण नहीं करूंगा इसलिए दुर्मनस्क ण भासिस्सामीतेगे जोसुमणे- न भाषिष्ये इत्येकः नोसुमनाः-नो दुर्मनाः होते हैं, ३. कुछ पुरुष संभाषण नहीं णोदुम्मणे भवति । भवति ।
करूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
१६८
स्थान ३ : सूत्र २३७-२४२
दच्चा-अदच्चा-पदं दत्त्वा-अदत्त्वा--पदम्
दत्त्वा-अदत्त्वा-पद २३७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २३७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा—दच्चा णामेगे सुमणे भवति, तद्यथा-दत्त्वा नामकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष देने के बाद सुमनस्क होते हैं दच्चा णामेगे दुम्मणे भवति, दत्त्वा नामकः दुर्मनाः भवति, २. कुछ पुरुष देने के बाद दुर्मनस्क होते हैं, दच्चा णामेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे दत्त्वा नामकः नोसुमनाः-नोदुर्मना: ३. कुछ पुरुष देने के बाद न सुमनस्क होते भवति । भवति ।
हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २३८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २३८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा--
१. कुछ पुरुष देता हूं इसलिए सुमनस्क देमीतेगे सुमणे भवति, ददामीत्येक: सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष देता हूं इसलिए देमीतेगे दुम्मणे भवति, ददामीत्येकः दुर्मनाः भवति,
दुर्मनस्क होते हैं ३. कुछ पुरुष देता हूं देमीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे ददामीत्येकः नोसुमना:-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति। भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २३६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २३६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष देऊंगा इसलिए सुमनस्क दासामीतेगे सुमणे भवति, दास्यामीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष देऊंगा इसलिए दासामीतेगे दुम्मणे भवति, दास्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति,
दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष देऊंगा दासामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे दास्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति। भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २४०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २४०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष न देने पर सुमनस्क होते हैं, अदच्चा णामेगे सुमणे भवति, अदत्त्वा नामैक: सुमनाः भवति, २. कुछ पुरुष न देने पर दुर्मनस्क होते हैं, अदच्चा णामेगे दुम्मणे भवति, अदत्त्वा नामैक: दुर्मनाः भवति, ३. कुछ पुरुष न देने पर न सुमनस्क होते अदच्चा णामेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे अदत्त्वा नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। भवति ।
भवति । २४१. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानिः २४१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष देता नहीं हूं इसलिए ण देमीतेगे सुमणे भवति, न ददामीत्येक: सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष देता नहीं ण देमीतेगे दुम्मणे भवति, न ददामीत्येकः दुर्मनाः भवति, हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ण देमीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे न ददामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः देता नहीं हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं भवति । भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २४२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २४२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंतद्यथा
१. कुछ पुरुष नहीं देऊंगा इसलिए ण दासामीतेगे सुमणे भवति, न दास्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष नहीं
जहा
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ठाणं (स्थान)
१६६
स्थान २: सूत्र २४३-२४७
ण दासामीतेगे दुम्मणे भवति, न दास्यामीत्येक: दुर्मनाः भवति, ण दासामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे न दास्यामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः । भवति।
भवति ।
देऊंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष नहीं देऊंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
भुंजित्ता-अभुंजित्ता-पदम् भुक्त्वा-अभुक्त्वा-पदम्
भुक्त्वा-अभुक्त्वा-पद २४३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २४३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष भोजन करने के बाद भुंजित्ता णामेगे सुमणे भवति, भुक्त्वा नामकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, कुछ पुरुष भोजन करने भुंजित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, भुक्त्वा नामकः दुर्मनाः भवति, के बाद दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष भुंजित्ता णामेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे भुक्त्वा नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः भोजन करने के बाद न सुमनस्क होते हैं भवति । भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २४४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि, २४४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा। तद्यथा
१. कुछ पुरुष भोजन करता हूं इसलिए भुंजामीतेगे सुमणे भवति, भुनज्मीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष भोजन भुंजामीतेगे दुम्मणे भवति, भुनज्मीत्येकः दुर्मना: भवति,
करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ भुंजामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे भुनज्मोत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः पुरुष भोजन करता हूं इसलिए न सुमनस्क भवति । भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २४५. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २४५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष भोजन करूंगा इसलिए भुंजिस्सामीतेगे सुमणे भवति, भोक्ष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष भोजन भुंजिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, भोक्ष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति,
करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ भुंजिस्सामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे भोक्ष्यामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः पुरुष भोजन करूंगा इसलिए न सुमनस्क भवति। भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २४६. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २४६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं - जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष भोजन न करने पर सुमनस्क अजित्ता णामेगे सुमणे भवति, अभुक्त्वा नामकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष भोजन न करने पर अभुंजित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, ___ अभुक्त्वा नामकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष भोजन न अ जित्ता णामेगे, जोसुमणे- अभुक्त्वा नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः करने पर न सुमनस्क होते हैं और न णोदुम्मणे भवति। भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २४७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि, २४७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष भोजन नहीं करता हूँ इसण भुंजामीतेगे सुमणे भवति, न भुनज्मीत्येकः सुमनाः भवति, लिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष ण भुंजामीतेगे दुम्मणे भवति, न भुनज्मीत्येक: दुर्मना: भवति, भोजन नहीं करता हूँ इसलिए दुर्मनस्क ण भुंजामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे न भुनज्मीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः होते हैं, ३. कुछ पुरुष भोजन नहीं करता
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : सूत्र २४८-२५२
भवति। भवति।
हूँ इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न
दुर्मनस्क होते हैं। २४८. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २४८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष भोजन नहीं करूंगा इसलिए ण भुंजिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न भोक्ष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष भोजन ण भुंजिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न भोक्ष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, नहीं करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ण भुंजिस्सामीतेगे जोसुमणे- न भोक्ष्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः ३. कुछ पुरुष भोजन नहीं करूंगा इसलिए न णोदुम्मणे भवति । भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
लभित्ता-अलभित्ता-पदं लब्ध्वा-अलब्ध्वा-पदम्
लब्ध्वा -अलब्ध्वा -पद २४६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २४६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष प्राप्त करने के बाद सुमनस्क लभित्ता णामेगे सुमणे भवति, लब्ध्वा नामकः सुमनाः भवति,
होते हैं, २. कुछ पुरुष प्राप्त करने के बाद लभित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, लब्ध्वा नामकः दुर्मना: भवति,
दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष प्राप्त लभित्ता णामेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे लब्ध्वा नामैकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः करने के बाद न सुमनस्क होते हैं और न भवति। भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। २५०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजाताति प्रज्ञप्तानि, २५०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष प्राप्त करता हूँ इसलिए लभामीतेगे सुमणे भवति, लभे इत्येकः सुमनाः भवति,
सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष प्राप्त लभामीतेगे दुम्मणे भवति, लभे इत्येक: दुर्मनाः भवति,
करता हूँ इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, लभामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे लभे इत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः ३. कुछ पुरुष प्राप्त करता हूँ इसलिए न भवति। भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २५१. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा--
१. कुछ पुरुष प्राप्त करूंगा इसलिए लभिस्सामीतेगे सुमणे भवति, लप्स्य इत्येक: सुमनाः भवति,
सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष प्राप्त लभिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, लप्स्ये इत्येकः दुर्मनाः भवति, करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ लभिस्सामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे लप्स्ये इत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः पुरुष प्राप्त करूंगा इसलिए न सुमनस्क भवति। भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २५२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष प्राप्त न करने पर सुमनस्क अलभित्ता णामेगे सुमणे भवति, अलब्ध्वा नामकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष प्राप्त न करने पर अलभित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अलब्ध्वा नामैकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष प्राप्त न अलभित्ता णामेगे जोसुमणे- अलब्ध्वा नामक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः करने पर न सुमनस्क होते हैं और न णोदुम्मणे भवति। भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : सूत्र २५३-२५८
२५३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष प्राप्त नहीं करता हूं इसलिए ण लभामीतेगे सुमणे भवति, न लभे इत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष प्राप्त नहीं ण लभामीतेगे दुम्मणे भवति, न लभे इत्येक: दुर्मनाः भवति,
करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. ण लभामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे न लभे इत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः कुछ पुरुष प्राप्त नहीं करता हूं इसलिए न भवति। भवति ,
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २५४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा.तद्यथा
१. कुछ पुरुष प्राप्त नहीं करूंगा इसलिए ण लभिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न लप्स्ये इत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष प्राप्त नहीं ण लभिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न लप्स्ये इत्येक: दुर्मना: भवति, करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ ण लभिस्सामीतेगे जोसुमणे- न लप्स्ये इत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः पुरुष प्राप्त नहीं करूंगा इसलिए न णोदुम्मणे भवति । भवति।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
पिबित्ता-अपिबित्ता-पदं पीत्वा-अपीत्वा-पदम्
पीत्वा-अपीत्वा-पद २५५. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष पीने के बाद सुमनस्क होते पिबित्ता णामेगे सुमणे भवति, पीत्वा नामैकः सुमनाः भवति, हैं, २. कुछ पुरुष पीने के बाद दुर्मनस्क पिबित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, पीत्वा नामकः दुर्मनाः भवति, होते हैं ३. कुछ पुरुष पीने के बाद न पिबित्ता णामेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे पीत्वा नामकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। भवति ।
भवति। २५६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंतद्यथा
१. कुछ पुरुष पीता हूं इसलिए सुमनस्क पिबामीतेगे सुमणे भवति, पिबामीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष पीता हूं इसलिए पिबामीतेगे दुम्मणे भवति, पिबामीत्येकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष पीता हूं पिबामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे पिबामीत्येकः नोसुमना:-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति । भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २५७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष पीऊंगा इसलिए सुमनस्क पिबिस्सामीतेगे सुमणे भवति, पास्यामीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष पीऊंगा इसलिए पिबिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, पास्यामीत्येकः दुर्मना: भवति,
दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष पीऊंगा पिबिस्सामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे पास्यामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति । भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। २५८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष न पीने पर सुमनस्क होते हैं,
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : सूत्र २५६-२६३ अपिबित्ता णामेगे सुमणे भवति, अपीत्वा नामकः सुमनाः भवति, २. कुछ पुरुष न पीने पर दुर्मनस्क होते हैं, अपिबित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अपीत्वा नामकः दुर्मनाः भवति, ३. कुछ पुरुष न पीने पर न सुमनस्क होते अपिबित्ता णामेगे जोसुमणे- अपीत्वा नामकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। णोदुम्मणे भवति।
भवति । २५६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष नहीं पीता हूं इसलिए ण पिबामीतेगे सुमणे भवति, न पिबामीत्येकः सुमनाः भवति,
सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष नहीं पीता ण पिबामीतेगे दुम्मणे भवति, न पिबामीत्येकः दुर्मनाः भवति, हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ण पिबामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे न पिबामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः नहीं पीता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं भवति। भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २६०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष नहीं पीऊंगा इसलिए ण पिबिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न पास्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष नहीं ण पिबिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न पास्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, पीऊंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ ण पिबिस्सामीतेगे जोसुमणे- न पास्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः पुरुष नहीं पीऊंगा इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति । भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
सुइत्ता-असुइत्ता-पदं सुप्त्वा-असुप्त्वा-पदम्
सुप्त्वा-असुप्त्वा-पद २६१. तो पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २६१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहासुप्त्वा नामकः सुमनाः भवति,
१. कुछ पुरुष सोने के बाद सुमनस्क होते सुइत्ता णामेगे सुमणे भवति, सुप्त्वा नामकः दुर्मनाः भवति,
है, २. कुछ पुरुष सोने के बाद दुर्मनस्क सुइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, सुप्त्वा नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः होते हैं, ३. कुछ पुरुष सोने के बाद न सुइत्ता णामेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं । भवति । २६२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २६२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहास्वपिमीत्येकः सुमनाः भवति,
१. कुछ पुरुष सोता हूँ इसलिए सुमनस्क सुआमीतेगे सुमणे भवति, स्वपिमीत्येक: दुर्मनाः भवति,
होते हैं, २. कुछ पुरुष सोता हूँ इसलिए सुआमीतेगे दुम्मणे भवति, स्वपिमीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष सोता हूं सुआमीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे भवति ।
इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। २६३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष सोऊंगा इसलिए सुमनस्क सुइस्सामीतेगे सुमणे भवति, स्वप्स्यामीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष सोऊंगा इसलिए सुइस्सामीतेगे, दुम्मणे भवति, स्वप्स्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष सोऊंगा
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : सूत्र २६४-२६८ सुइस्सामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे स्वप्स्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति । भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। २६४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं - जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष न सोने पर सुमनस्क होते हैं, असुइत्ता णामेगे सुमणे भवति, असुप्त्वा नामकः सुमना: भवति, २. कुछ पुरुष न सोने पर दुर्मनस्क होते हैं, असुइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, असुप्त्वा नामक: दुर्मनाः भवति, ३ कुछ पुरुष न सोने पर न सुमनस्क होते असुइत्ता णामेगे जोसुमणे- असुप्त्वा नामक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। णोदुम्मणे भवति।
भवति । २६५. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष सोता नहीं हूं इसलिए ण सुआमीतेगे सुमणे भवति, न स्वपिमीत्येक: सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष सोता नहीं ण सुआमीतेगे दुम्मणे भवति, न स्वपिमीत्येकः दुर्मनाः भवति, हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष ण सुआमीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे न स्वपिमीत्येकः नोसुमना:-नोदुर्मनाः सोता नहीं हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं भवति। भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २६६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा--- तद्यथा
१. कुछ पुरुष नहीं सोऊंगा इसलिए ण सुइस्सामीतेगे सुमणे भवति, न स्वप्स्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष नहीं ण सुइस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न स्वप्स्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, सोऊंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ ण सुइस्सामीतेगे जोसुमणे- न स्वप्स्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः । पुरुष नहीं सोऊंगा इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति। भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
जुज्झित्ता-अजुज्झित्ता-पदं युद्ध्वा-अयुद्ध्वा-पदम्
युवा-अयुद्ध्वा-पद २६७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष युद्ध करने के बाद सुमनस्क जुज्झित्ता णामेगे सुमणे भवति, युद्ध्वा नामकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष युद्ध करने के बाद जुज्झित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, युद्ध्वा नामकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष युद्ध करने जुज्झित्ता णामेगे णोसुमणे- युद्ध्वा नामकः नोसुमना:-नोदुर्मनाः के बाद न सुमनस्क होते हैं और न णोदुम्मणे भवति। भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। २६८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानिः, २६८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष युद्ध करता हूं इसलिए जुज्झामीतेगे सुमणे भवति, युद्ध्ये इत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष युद्ध करता जुज्झामीतेगे दुम्मणे भवति, युद्ध्ये इत्येकः दुर्मनाः भवति,
हं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष जुज्झामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे युद्ध्ये इत्येक: नोसुमना:-नोदुर्मना: युद्ध करता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं भवति । भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : सूत्र २६६-२७४ २६९. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि तद्यथा-- २६६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा.योत्स्ये इत्येकः समनाः भवति,
१. कुछ पुरुष युद्ध करूंगा इसलिए जुज्झिस्सामीतेगे सुमणे भवति, योत्स्ये इत्येकः दुर्मनाः भवति,
सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष युद्ध करूंगा जुज्झिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, योत्स्ये इत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष जुझिस्सामीतेगे जोसुमणे- भवति।
युद्ध करूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं णोदुम्मणे भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २७०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि, २७०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष युद्ध न करने पर सुमनस्क अजुज्झित्ता णामेगे सुमणे भवति, अयुद्ध्वा नामकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष युद्ध न करने पर अजुज्झित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अयुद्ध्वा नामकः दुर्मना: भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष युद्ध न अजुज्झित्ता णामेगे जोसुमणे- अयुद्ध्वा नामैकः नोसुमनाः-नोदुर्मना: करने पर न सुमनस्क होते हैं और न णोदुम्मणे भवति । भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २७१. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष युद्ध नहीं करता हूं इसलिए ण जुज्झामीतेगे सुमणे भवति, न युद्ध्ये इत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष युद्ध नहीं ण जुज्झामीतेगे दुम्मणे भवति, न युद्ध्ये इत्येकः दुर्मना: भवति, करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ ण जुज्झामीतेगे णोसुमणे- न युद्ध्ये इत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः पुरुष युद्ध नहीं करता हूं इसलिए न णोंदुम्मणे भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २७२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष युद्ध नहीं करूंगा इसलिए ण जुज्झिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न योत्स्ये इत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष युद्ध नहीं ण जुझिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न योत्स्ये इत्येकः दुर्मनाः भवति, करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते है, ३. कुछ ण जुन्झिस्सामीतेगे जोसुमणे- न योत्स्ये इत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मना: पुरुष युद्ध नहीं करूंगा इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति । भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
भवति।
जइत्ता-अजइत्ता-पदं जित्वा-अजित्वा-पदम्
जित्वा-अजित्वा-पद २७३. तओ पुरिसजाया पण्णता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २७३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
जहा—जइत्ता णामेगे सुमणे भवति, जित्वा नामकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष जीतने के बाद सुमनस्क होते जइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, जित्वा नामैकः दुर्मनाः भवति, हैं, २. कुछ पुरुष जीतने के बाद दुर्मनस्क जइत्ता णामेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे जित्वा नामक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः होते हैं, ३. कुछ पुरुष जीतने के बाद न भवति । भवति।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २७४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जीतता हूं इसलिए सुमनस्क जिणामीतेगे सुमणे भवति, जयामीत्येकः सुमना: भवति,
होते हैं, २. कुछ पुरुष जीतता हूं इसलिए
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स्थान ३ : सूत्र २७५-२७६ जिणामीतेगे दुम्मणे भवति, जयामीत्येकः दुर्मनाः भवति,
दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष जीतता हूं जिणामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे जयामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न भवति। भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। २७५. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं। जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जीतूंगा इसलिए सुमनस्क जिणिस्सामीतेगे सुमणे भवति, जेष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष जीतूंगा इसलिए जिणिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, जेष्यामीत्येकः दुर्मना: भवति,
दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष जीतूंगा जिणिस्सामीतेगे जोसुमणे- जेष्यामीत्येक: नोसुमना:-नोदुर्मना: इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न णोदुम्मणे भवति । भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। २७६. तो पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष न जीतने पर सुमनस्क होते अजइत्ता णामेगे सुमणे भवति, अजित्वा नामकः सुमनाः भवति, हैं, २. कुछ पुरुष न जीतने पर दुर्मनस्क अजइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, अजित्वा नामैकः दुर्मनाः भवति, होते हैं, ३. कुछ पुरुष न जीतने पर न अजइत्ता णामेगे जोसुमणे- अजित्वा नामैकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। णोदुम्मणे भवति।
भवति। २७७. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जीतता नहीं हूं इसलिए ण जिणामीतेगे सुमणे भवति, न जयामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष जीतता ण जिणामीतेगे दुम्मणे भवति, न जयामीत्येकः दुर्मना: भवति, नहीं हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ ण जिणामीतेगे जोसुमणे- न जयामीत्येकः नोसुमना:-नोदुर्मनाः पुरुष जीतता नहीं हूं इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति। भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २७८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंतद्यथा
१. कुछ पुरुष नहीं जीतूंगा इसलिए ण जिणिस्सामीतेगे सुमणे भवति, न जेष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष नहीं ण जिणिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, न जेष्यामीत्येक: दुर्मना: भवति, जीतूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ ण जिणिस्सामीतेगे जोसुमणे- न जेष्यामीत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः पुरुष नहीं जीतूंगा इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति । भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
जहा
पराजिणित्ता-अपराजिणित्ता-पदं पराजित्य-अपराजित्य-पदम्। पराजित्य-अपराजित्य-पद २७६. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष पराजित करने के बाद पराजिणित्ता णामेगे सुमणे भवति, पराजित्य नामैकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष पराजित पराजिणित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, पराजित्य नामैकः दुर्मनाः भवति, करने के बाद दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पराजिणित्ता णामेगे णोसुमणे- पराजित्य नामक: नोसुमना:
पुरुष पराजित करने के बाद न सुमनस्क
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ठाणं (स्थान)
स्थान ३ : सूत्र २८०-२८४ णोदुम्मणे भवति । नोदर्मनाः भवति ।
हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २८०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २८०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष पराजित करता हूं इसलिए पराजिणामीतेगे सुमणे भवति, पराजये इत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष पराजित पराजिणामीतेगे दुम्मणे भवति, पराजये इत्येकः दुर्मनाः भवति, करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पराजिणामीतेगे जोसुमणे- पराजये इत्येक: नोसुमना:-नोदुर्मनाः पुरुष पराजित करता हूं इसलिए न णोदुम्मणे भवति । भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २८१. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २८१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष पराजित करूंगा इसलिए पराजिणिस्सामीतेगे सुमणे भवति, पराजेष्ये इत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष पराजित पराजिणिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, पराजेष्ये इत्येकः दुर्मनाः भवति, करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पराजिणिस्सामीतेगे जोसुमणे- पराजेध्ये इत्येक: नोसुमनाः-नोदुर्मनाः पुरुष पराजित करूंगा इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति । भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २८२. तओ पुरिसजाया पणत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २८२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातदयथा
१. कुछ पुरुष पराजित नहीं करने पर अपराजिणित्ता णामेगे सुमणे भवति, अपराजित्य नामकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष पराजित अपराजिणित्ताणामेगे दुम्मणे भवति, अपराजित्य नामैक: दुर्मनाः भवति, नहीं करने पर दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ अपराजिणित्ता णामेगे जोसुमणे- अपराजित्य नामैक: नोसुमना:-नोदुर्मनाः पुरुष पराजित नहीं करने पर न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति । भवति।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २८३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २८३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
___ न पराजये इत्येकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष पराजित नहीं करता हूं ण पराजिणामीतेगे सुमणे भवति, न पराजये इत्येकः दुर्मनाः भवति, इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष ण पराजिणामीतेगे दुम्मणे भवति, न पराजये इत्येक: नोसुमना:-नोदुर्मनाः पराजित नहीं करता हूं इसलिए दुर्मनस्क ण पराजिणामीतेगे णोसुमणे- भवति ।
होते हैं, ३. कुछ पुरुष पराजित नहीं करता णोदुम्मणे भवति।
हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न
दुर्मनस्क होते हैं। २८४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २८४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष पराजित नहीं करूंगा इसलिए ण पराजिणिस्सामीतेगे सुमणे न पराजेष्ये इत्येक: सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष पराजित भवति, न पराजेष्ये इत्येकः दुर्मनाः भवति,
नहीं करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. ण पराजिणिस्सामीतेगे दुम्मणे न पराजेष्ये इत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः कुछ पुरुष पराजित नहीं करूंगा इसलिए भवति, भवति ।
न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते ण पराजिणिस्सामीतेगे जोसुमणेणोदुम्मणे भवति ।
जहा
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ठाणं (स्थान)
२०७
स्थान ३ : सूत्र २८५-२८६
सुणेत्ता-असुणेत्ता-पदं श्रुत्वा-अश्रुत्वा-पदम्
श्रुत्वा-अश्रुत्वा-पद २८५. 'तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २८५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहा
शब्दं श्रुत्वा नामैकः सुमनाः भवति, १. कुछ पुरुष शब्द सुनने के बाद सुमनस्क सदं सुणेत्ता णामेगे सुमणे भवति, शब्दं श्रुत्वा नामकः दुर्मनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष शब्द सुनने के बाद सई सुणेत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, शब्दं श्रुत्वा नामैक: नोसुमनाः-नोदुर्मना: दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष शब्द सुनने सदं सुणेत्ता णामेगे जोसुमणे- भवति ।
के बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क णोदुम्मणे भवति।
होते हैं। २८६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २८६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शब्द सुनता हूं इसलिए सद सुणामीतेगे सुमणे भवति, शब्दं शृणोमीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष शब्द सद सुणामीतेगे दुम्मणे भवति, शब्दं शृणोमीत्येकः दुर्मना: भवति, सुनता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, सदं सुणामीतेगे जोसुमणे-णोदुम्मणे शब्दं शृणोमीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मना: ३. कुछ पुरुष शब्द सुनता हूं इसलिए न भवति । भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। २८७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २८७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंतद्यथा
१. कुछ पुरुष शब्द सुनूंगा इसलिए सदं सुणिस्सामीतेगे सुमणे भवति, शब्दं श्रोष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष शब्द सुनूंगा सदं सुणिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, शब्दं श्रोष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष सई सुणिस्सामीतेगे जोसुमणे- शब्दं श्रोष्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः । शब्द सुनूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं णोदुम्मणे भवति । भवति ।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २८८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २८८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं-- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शब्द नहीं सुनने पर सुमनस्क सदं असुणेत्ता णामेगे सुमणे भवति, शब्दं अश्रुत्वा नामकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष शब्द नहीं सुनने पर सदं असुणेत्ता णामेगे दुम्मणे शब्दं अश्रुत्वा नामकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष शब्द नहीं भवति,
शब्दं अश्रुत्वा नामकः नोसुमना:- सुनने पर न सुमनस्क होते हैं और न सई असुणेत्ता णामेगे जोसुमणे- नोदुर्मनाः भवति।
दुर्मनस्क होते हैं। णोदुम्मणे भवति। २८६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २८६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शब्द नहीं सुनता हूं इसलिए सदं ण सुणामीतेगे सुमणे भवति, शब्दं न शृणोमीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष शब्द नहीं सदं ण सुणामीतेगे दुम्मणे भवति, शब्दं न शृणोमीत्येकः दुर्मनाः भवति, सुनता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, सदं ण सुणामीतेगे णोसुमणे- शब्दं न शृणोमीत्येक: नोसुमनाः- ३. कुछ पुरुष शब्द नहीं सुनता हूं इसलिए गोदुम्मणे भवति । नोदुर्मनाः भवति।
न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
२०८
स्थान ३ : सूत्र २६०-२६४
२६०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शब्द नहीं सुनूंगा इसलिए सह ण सुणिस्सामीतेगे सुमणे भवति, शब्दं न श्रोष्यामीत्येक: सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष शब्द नहीं सह ण सुणिस्सामीतेगे दुम्मणे शब्दं न श्रोष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, सुनूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ भवति, शब्दं न श्रोष्यामीत्येक:
पुरुष शब्द नहीं सुनूंगा इसलिए न सई ण सुणिस्सामीतेगे जोसुमणे- नोदुमना: भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं । णोदुम्मणे भवति ।
पासित्ता-अपासित्ता--पदं दृष्ट्वा-अदृष्ट्वा-पदम्
दृष्ट्वा-अदृष्ट्वा-पद २६१. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं -- तद्यथा
१. कुछ पुरुष रूप देखने के बाद सुमनस्क रूवं पासित्ता णामेगे सुमणे भवति, रूपं दृष्ट्वा नामकः सुमनाः भवति, होते है, २. कुछ पुरुष रूप देखने के बाद रूवं पासित्ता णामेगे दुम्मणे भवति, रूपं दृष्ट्वा नामकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रूप देखने रूवं पासित्ता णामेगे जोसुमणे- रूपं दृष्ट्वा नामकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः । के बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क णोदुम्मणे भवति। भवति ।
होते हैं। २९२. तओ पुरिमजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष रूप देखता हूं इसलिए रूवं पासामीतेगे सुमणे भवति, रूपं पश्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष रूप देखता रूदं पासामीतेगे दुम्मणे भवति, रूपं पश्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रूवं पासामीतेगे जोसुमणे- रूपं पश्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः रूप देखता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं णोदुम्मणे भवति। भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। २६३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष रूप देखूगा इसलिए सुमनस्क रूवं पासिस्सामीतेगे सुमणे भवति, रूपं द्रक्ष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष रूप देखूगा इसलिए रूवं पासिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, रूपं द्रक्ष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रूप देखूगा रूवं पासिस्सामीतेगे जोसुमणे- रूपं द्रक्ष्यामीत्येकः नोसुमनाः-नोदुर्मनाः इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न णोदुम्मणे भवति। भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। २६४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष रूप न देखने पर सुमनस्क रूवं अपासित्ताणामेगे सुमणे भवति, रूपं अदृष्ट्वा नामकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष रूप न देखने पर रूवं अपासित्ता णामेगे दुम्मणे रूपं अदृष्ट्वा नामकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रूप न भवति,
रूपं अदृष्ट्वा नामैक: नोसुमना:- देखने पर न सुमनस्क होते हैं और न रूवं अपासित्ता णामेगे णोसुमणे- नोदुर्मनाः भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। णोदुम्मणे भवति।
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ri (स्थान)
२०६
स्थान ३ : सूत्र २६५-२६६
२६५. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २६५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष रूप नहीं देखता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष रूप नहीं देखता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रूप नहीं देखता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
जहा—
रूवं ण पासामीतेगे सुमणे भवति, रूवं ण पासामीतेगे दुम्मणे भवति, रूवं ण पासामीतेगे जोसुमणेदुम्मणे भवति ।
२६६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि तद्यथा—
जहा -
रूवं ण पासिस्सामीतेगे सुमणे रूपं न द्रक्ष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, भवति, रूपं न द्रक्ष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, रूवं ण पासिस्सामीतेगे दुम्मणे रूपं न द्रक्ष्यामीत्येकः नोसुमनाःभवति, दुर्मनाः भवति ।
रूवं ण पासिस्सामीतेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवति ।
तद्यथा
रूपं न पश्यामीत्येकः सुमनाः भवति, रूपं न पश्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, रूपं न पश्यामीत्येकः नोसुमनाःनोदुर्मनाः भवति ।
प्रज्ञप्तानि, २६६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं—
अग्घाइत्ता - अणग्घाइत्ता-पदं २७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं
जहा
गंध अग्घाइत्ता णामेगे सुमणे गन्धं घ्रात्वा नामैकः सुमनाः भवति, भवति, गन्धं घ्रात्वा नामकः दुर्मनाः भवति, गंध अग्घाइत्ता णामेगे दुम्मणे गन्धं घ्रात्वा नामैक: नोसुमनाःभवति, नोदुर्मनाः भवति ।
१. कुछ पुरुष रूप नहीं देखूंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष रूप नहीं देखूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रूप नहीं देखूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं ।
घ्रात्वा-अघ्रात्वा-पदम्
घ्रात्वा - अघ्रात्वा-पद
त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २६७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं— तद्यथा— १. कुछ पुरुष गंध लेने के बाद सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष गंध लेने के बाद दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष गंध लेने के बादन सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं ।
गंध अग्घइत्ता णामेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवति ।
२६८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि
जहा -
तद्यथा—
गंध अग्धामीतेगे सुमणे भवति, गंध अग्धामीतेगे दुम्मणे भवति, गंध अग्धामीतेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवति ।
गन्धं जिघ्रामीत्येकः सुमनाः भवति, गन्धं जिघ्रामीत्येकः दुर्मनाः भवति, गन्धं जिघ्रामीत्येकः नोसुमनाः- नोदुर्मनाः भवति ।
१. कुछ पुरुष गंध लेता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष गंध लेता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष गंध लेता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
२६६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २६६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंतद्यथा
जहा -
गंध अग्धाइस्सामीतेगे सुमणे गन्धं घ्रास्यामीत्येकः सुमनाः भवति, गन्धं घ्रास्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति,
१. कुछ पुरुष गंध लेऊंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष गंध लेऊंगा इसलिए दुर्मक होते हैं, ३. कुछ पुरुष गंध लेऊंगा
भवति,
पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २६८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं—
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ठाणं (स्थान)
२१०
स्थान ३ : सूत्र ३००-३०३ गंधं अग्धाइस्सामीतेगे दुम्मणे गन्धं घ्रास्यामीत्येक: नोसुमनाः- इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क भवति, नोदुर्मनाः भवति ।
होते हैं। गंध अग्घाइस्सामीतेगे जोसुमणे
णोदुम्मणे भवति। ३००. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३००. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष गंध नहीं लेने पर सुमनस्क गंधं अणग्घाइत्ता णामेगे सुमणे गन्धं अघ्रात्वा नामकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष गंध नहीं लेने पर भवति,
गन्धं अघ्रात्वा नामकः दर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष गंध नहीं गंधं अणग्घाइत्ता णामेगे दुम्मणे गन्धं अघ्रात्वा नामकः नोसुमना:- लेने पर न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क भवति, नोदुर्मनाः भवति ।
होते हैं। गंध अणग्याइत्ता णामेगे णोसुमणे
णोदुम्मणे भवति। ३०१. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०१. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष गंध नहीं लेता हूं इसलिए गंधं ण अग्धामीतेगे सुमणे भवति, गन्धं न जिघ्रामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष गंध नहीं गंधं ण अग्धामीतेगे दुम्मणे भवति, गन्धं न जिघ्रामीत्येक: दुर्मनाः भवति, लेता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ गंधं ण अग्धामीतेगे जोसुमणे- गन्धं न जिघ्रामीत्येकः नोसुमना:- पुरुष गंध नहीं लेता हूं इसलिए न सुमनस्क णोदुम्मणे भवति। नोदुर्मनाः भवति ।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। ३०२. तओपुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंगंधं ण अग्याइस्सामीतेगे सुमणे तद्यथा
१. कुछ पुरुष गंध नहीं लेऊंगा इसलिए भवति,
गन्धं न घ्रास्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष गंध नहीं गंधं ण अग्घाइस्सामीतेगे दुम्मणे गन्धं न घ्रास्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, लेऊंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ भवति,
___ गन्धं न घ्रास्यामीत्येकः नोसुमनाः- पुरुष गंध नहीं लेऊंगा इसलिए न सुमनस्क गंधं ण अग्घाइस्सामीतेगे णोसुमणे- नोदुर्मना: भवति ।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। णोदुम्मणे भवति ।
आसाइत्ता-अणासाइत्ता-पदं आस्वाद्य-अनास्वाद्य-पदम्
आस्वाद्य-अनास्वाद्य-पद ३०३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातयथा
१. कुछ पुरुष रस चखने के बाद सुमनस्क रसं आसाइत्ताणामेगे सुमणे भवति, रसं आस्वाद्य नामकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष रस चखने के बाद रसं आसाइत्ता णामेगे दुम्मणे रसं आस्वाद्य नामकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रस चखने भवति,
रसं आस्वाद्य नामैक: नोसुमना:- के बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क रसं आसाइत्ता णामेगे जोसुमणे- नोदुर्मनाः भवति ।
होते हैं। णोदुम्मणे भवति।
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ठाणं (स्थान)
२११
स्थान ३ : सूत्र ३०४-३०८
३०४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं-- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष रस चखता हूं इसलिए रसं आसादेमीतेगे सुमणे भवति, रसं आस्वादयामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष रस चखता रसं आसादेमीतेगे दुम्मणे भवति, रसं आस्वादयामीत्येक: दुर्मना: भवति, हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रसं आसादेमीतेगे जोसुमणे- रसं आस्वादयामीत्येक: नोसुमना:- रस चखता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं णोदुम्मणे भवति। नोदुर्मनाः भवति।
और न दुर्मनस्क होते हैं। ३०५. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०५. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंरसं आसादिस्सामीतेगे सुमणे तद्यथा
१. कुछ पुरुष रस चलूँगा इसलिए सुमनस्क भवति,
रसं आस्वादयिष्यामीत्येकः सुमनाः होते हैं, २. कुछ पुरुष रस चलूँगा इसलिए रसं आसादिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति,
दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रस चलूँगा भवति,
रसं आस्वादयिष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क रसं आसादिस्सामीतेगे जोसुमणे- रसं आस्वादयिष्यामीत्येक: नोसुमना:- होते हैं।
णोदुम्मणे भवति। नोदुर्मनाः भवति । ३०६. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं जहा- त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंरसं अणासाइत्ता णामेगे सुमणे तद्यथा
१. कुछ पुरुष रस न चखने पर सुमनस्क भवति,
रसं अनास्वाद्य नामैकः सुमनाः भवति, होते हैं, २. कुछ पुरुष रस न चखने पर रसं अणासाइत्ता णामेगे दुम्मणे रसं अनास्वाद्य नामैकः दुर्मनाः भवति, दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष रस न भवति,
रसं अनास्वाद्य नामैकः नोसुमना:- चखने पर न सुमनस्क होते हैं और न रसं अणासाइत्ता णामेगे जोसुमणे- नोदुर्मना: भवति ।
दुर्मनस्क होते हैं। णोदुम्मणे भवति । ३०७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०७. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष रस नहीं चखता हूं इसलिए रसं ण आसादेमीतेगे सुमणे भवति, रसं नास्वादयामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष रस नहीं रसंण आसादेमीतेगे दुम्मणे भवति, रसं नास्वादयामीत्येकः दुर्मनाः भवति, चखता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, रसं ण आसादेमीतेगे णोसुमणे- रसं नास्वादयामीत्येकः नोसुमना:- ३. कुछ पुरुष रस नहीं चखता हूं इसलिए णोदुम्मणे भवति। नोदुर्मनाः भवति ।
न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। ३०८. तओ पुरिसजाया पण्णता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०८. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष रस नहीं चलूँगा इसलिए रसं ण आसादिस्सामीतेगे सुमणे रसं नास्वादयिष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष रस नहीं भवति,
रसं नास्वादयिष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, चलूँगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं ३. कुछ रसं ण आसादिस्सामीतेगे दुम्मणे रसं नास्वादयिष्यामीत्येक: नोसुमना:- पुरुष रस नहीं चलूँगा इसलिए न सुमनरक भवति. नोदुर्मनाः भवति ।
होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। रसं ण आसादिस्सामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे भवति।
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ठाणं (स्थान)
फासेत्ता - अफासेत्ता-पदं स्पृष्ट्वा-अस्पृष्ट्वा-पदम् ३०६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा---
जहा -
फासं फासेत्ता णामेगे सुमणे भवति, फासं फासेत्ता णामेगे दुम्मणे भवति, फासं फासेत्ता णामेगे णोसुमणेदुम्मणे भवति ३१०. ओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
स्पर्शं स्पृष्ट्वा नामकः सुमनाः भवति, स्पर्श स्पृष्ट्वा नामैक: दुर्मनाः भवति, स्पर्शं स्पृष्ट्वा नामैकः नोसुमनाःनोदुर्मनाः भवति ।
I
जहा —
फासं फासेमीतेगे सुमणे भवति, फासं फासेमीतेगे दुम्मणे भवति, फासं फासेमीतेगे णोसुमणेगोदुम्मणे भवति ।
२१२
३११. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि
जहा -
फासंण फासेमीतेगे सुमणे भवति, फासं ण फासेमीतेगे दुम्मणे भवति, फासंण फासेमीतेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवति ।
तद्यथा-
स्पर्शं स्पृशामीत्येकः सुमनाः भवति, स्पर्श स्पृशामीत्येकः दुर्मनाः भवति, स्पर्शं स्पृशामीत्येकः नोसुमनाः- नोदुर्मनाः भवति ।
तद्यथा-
जहा - फासं फासिस्सामीतेगे सुमणे भवति, स्पर्शं स्प्रक्ष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, फाफा सिस्सा मीतेगे दुम्मणे भवति, स्पर्श स्प्रक्ष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, फासं फासिस्सामीतेगे णोसुमणे- स्पर्शं स्प्रक्ष्यामीत्येकः नोसुमनाःदुम्मणे भवति । नोदुर्मनाः भवति । ३१२. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, जहा -
तद्यथा
फासं अफासेत्ता णामेगे सुमणे स्पर्श अस्पृष्ट्वा नामकः सुमनाः भवति, भवति, स्पर्श अस्पृष्ट्वा नामैकः दुर्मनाः भवति, फासं अफासेत्ता णामेगे दुम्मणे स्पर्श अस्पृष्ट्वा नामकः नोसुमनाःभवति, नोदुर्मनाः भवति । फासं अकासेत्ता णामेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवति ।
३१३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा
स्पर्श न स्पृशामीत्येकः सुमनाः भवति, स्पर्श न स्पृशामीत्येकः दुर्मनाः भवति, स्पर्श न स्पृशामीत्येकः नोसुमनाःदुर्मनाः भवति ।
स्थान ३ : सूत्र ३०१-३१३
स्पृष्ट्वा -अस्पृष्ट्वा पद ३०६. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष स्पर्श करने के बाद सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष स्पर्श करने के बाद दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष स्पर्श करने के बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं ।
३१०. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष स्पर्श करता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष स्पर्श करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष स्पर्श करता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं । ३११. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष स्पर्श करूंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष स्पर्श करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष स्पर्श करूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं ।
३१२. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष स्पर्श न करने पर सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष स्पर्श न करने पर दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष स्पर्श न करने पर न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं ।
३१३. पुरुष तीन प्रकार के होते हैं
करता
१. कुछ पुरुष स्पर्श नहीं करता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष स्पर्श नहीं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ पुरुष स्पर्श नहीं करता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
२१३
स्थान ३ : सूत्र ३१४-३१८ ३१४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३१४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष स्पर्श नहीं करूंगा इसलिए फासं ण फासिस्सामीतेगे सुमणे स्पर्श न स्प्रक्ष्यामीत्येकः सुमनाः भवति, सुमनस्क होते हैं, २. कुछ पुरुष स्पर्श नहीं भवति,
स्पर्श न स्प्रक्ष्यामीत्येकः दुर्मनाः भवति, करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं, ३. कुछ फासं ण फासिस्सामीतेगे दुम्मणे स्पर्श न स्प्रक्ष्यामीत्येक: नोसुमना:- पुरुष स्पर्श नहीं करूंगा इसलिए न भवति, नोदुर्मना: भवति ।
सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। फासं ण फासिस्सामीतेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवति ।
गरहिअ-पदं गहित-पदम्
गहित-पद ३१५. तओ ठाणा णिसोलस्स णिव्वयस्स त्रीणि स्थानानि निःशीलस्य निर्वतस्य ३१५. शील, व्रत, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और
णिग्गुणस्स णिम्मेरस्स णिप्पच्च- निर्गुणस्य निर्मर्यादस्य निष्प्रत्याख्यान- पौषधोपवास से रहित पुरुष के तीन स्थान क्खाणपोसहोववासस्स गरहिता पोषधोपवासस्य गहितानि भवन्ति, गहित होते हैंभवंति, तं जहातद्यथा
१. इहलोक [वर्तमान] गर्हित होता है, अस्सि लोगे गरहिते भवइ, अयं लोको गहितो भवति,
२. उपपात देवलोक तथा नर्क का जन्म] उववाते गरहिते भवइ, उपपातो गहितो भवति,
गहित होता है, ३. आगामी जन्म [देवआयाती गरहिता भवइ ।। आजाति: गहिता भवति ।
लोक या नरक के बाद होने वाला मनुष्य या तिर्यञ्च का जन्म] गहित होता है।
पसत्थ-पदं प्रशस्त-पदम्
प्रशस्त-पद ३१६. तओ ठाणा सुसीलस्स सुव्वयस्स त्रीणि स्थानानि सुशीलस्य सुव्रतस्य ३१६. शील, व्रत, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और
सगुणस्स समेरस्स सपच्चक्खाण- सगुणस्य समर्यादस्य सप्रत्याख्यान- पौषधोपवास से युक्त पुरुष के तीन स्थान पोसहोववासस्स पसत्था भवंति, तं पोषधोपवासस्य प्रशस्तानि भवन्ति, प्रशस्त होते हैंजहातद्यथा
१. इहलोक प्रशस्त होता है, २. उपपात अस्सि लोगे पसत्थे भवति, अयं लोकः प्रशस्तो भवति,
प्रशस्त होता है, ३. आगामी जन्म [देवउववाए पसत्थे भवति, उपपातः प्रशस्तो भवति,
लोक या नरक के बाद होने वाला मनुष्य आजाती पसत्था भवति। आजातिः प्रशस्ता भवति।
जन्म] प्रशस्त होता है।
जीव-पदं जीव-पदम्
जीव-पद ३१७. तिविधा संसारसमावण्णगा जीवा विविधाः संसारसमापन्नकाः जीवाः ३१७. संसारी जीव तीन प्रकार के होते हैंपण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. स्त्री, २. पुरुष, ३. नपुंसक। इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः । ३१८. तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३१८. सब जीव तीन प्रकार के होते हैं
जहा—सम्मद्दिट्ठी, मिच्छाद्दिट्ठी, सम्यग्दृष्टयः, मिथ्यादृष्टयः, १. सम्यग्-दृष्टि, २. मिथ्या-दृष्टि,
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स्थान ३ : सूत्र ३१९-३२२
छाणं (स्थान)
२१४ सम्मामिच्छट्टिी।
सम्यमिथ्यादृष्टयः । अहवा-तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, अथवा-त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तं जहा—पज्जत्तगा, अपज्जत्तगा, तद्यथा-पर्याप्तकाः, अपर्याप्तकाः, णोपज्जत्तगा-णोऽपज्जत्तगा। नोपर्याप्तका:-नोअपर्याप्तकाः । 'परित्ता, अपरित्ता, णोपरित्ता- परीताः, अपरीताः, नोपरीता:णोऽपरित्ता । सुहुमा, बायरा, नोअपरीताः । सूक्ष्माः, बादराः, नोसूक्ष्मा:णोसुहुमा-णोबायरा। सण्णी, नोबादरा.। संज्ञिनः, असंज्ञिनः, । असण्णी, णोसण्णी-णोऽसण्णी। नोसंज्ञिनः-नोअसंज्ञिनः । भविनः, भवी, अभवी, णोभवी-णोऽभवी। अभविन:, नोभविनः-नोअभविनः ।
३. सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि। अथवा-सब जीव तीन प्रकार के होते हैं-१. पर्याप्त, २. अपर्याप्त, ३. न पर्याप्त न अपर्याप्त-सिद्ध । १. प्रत्येक शरीरी [एक शरीर में एक जीव वाला], २. साधारण शरीरी [एक शरीर में अनन्त जीव वाला], ३. न प्रत्येक शरीर न साधारण शरीर-सिद्ध। १. सूक्ष्म, २. बादर, ३. न सूक्ष्म न बादर-सिद्ध। १. संज्ञी-समनस्क, २. असंज्ञी-अमनस्क, ३. न संज्ञी न असंज्ञी-सिद्ध। १. भव्य, २. अभव्य, ३. न भव्य न अभव्य-सिद्ध।
लोगठिति-पदं लोकस्थिति-पदम्
लोकस्थिति-पद ३१६. तिविधा लोगठिती पण्णत्ता, तं त्रिविधा लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ३१६. लोक स्थिति तीन प्रकार की हैजहा—आगासपइट्ठिए वाते, आकाशप्रतिष्ठितो वातः,
१. आकाश पर वायु प्रतिष्ठित है, वातपतिट्ठिए उदही, वातप्रतिष्ठितः उदधिः,
२. वायु पर समुद्र प्रतिष्ठित है, उदहिपतिट्ठिया पुढवी। उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी।
३. समुद्र पर पृथ्वी प्रतिष्ठित है।
दिसा-पदं दिशा-पदम्
दिशा-पद ३२०. तओ दिसाओ पण्णत्ताओ, तं तिस्रः दिशः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३२०. दिशाएं तीन हैंजहा- उड्डा, अहा, तिरिया। ऊर्ध्वं, अधः, तिर्यक् ।
१. ऊवं, २. अधः, ३. तिर्यक् । ३२१. तिहिं दिसाहिं जीवाणं गती तिसृषु दिक्षु जीवानां गतिः प्रवर्तते- ३२१. तीन दिशाओं में जीवों की गति होती है-- पवत्ततिऊवं, अधः, तिरश्चि ।
१. ऊर्ध्व दिशि में, २. अधो दिशि में, उड्डाए, अहाए, तिरियाए।
३. तिर्यक् दिशि में। ३२२. 'तिहिं दिसाहि जीवाणं - तिसृषु दिक्षु जीवानां
३२२. तीन दिशाओं में जीवों की आगति, अवआगती वक्कंती आहारे वुड्डी आगतिः अवक्रान्ति: आहारः वृद्धि: क्रान्ति, आहार, वृद्धि, हानि, गति-पर्याय, णिवुड्डी गतिपरियाए समुग्धाते निवृद्धिः गतिपर्यायः समुद्घात: समुद्घात, काल-संयोग, दर्शनाभिगम, कालसंजोगे दंसणाभिगमे णाणा- कालसंयोगः दर्शनाभिगमः ज्ञानाभिगमः ज्ञानाभिगम, जीवाभिगम होता हैभिगमे जीवाभिगमे पण्णत्ते, तं जीवाभिगमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
१. ऊर्ध्व दिशि में, २. अधो दिशि में, जहा—उड्ढाए, अहाए, तिरियाए। ऊवं, अधः, तिरश्चि ।
३. तिर्यक् दिशि में।
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ठाणं (स्थान)
२१५
स्थान ३ : सूत्र ३२३-३३३
३२३. तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवा- तिसृषु दिक्षु जीवानां अजीवाभिगमः ३२३. तीन दिशाओं में जीवों का अजीवाभिगम भिगमे पण्णत्ते, तं जहा- प्रज्ञप्तः, तद्यथा
होता है-१. ऊर्ध्व दिशि में, उड्डाए, अहाए, तिरियाए। ऊर्ध्वं, अधः, तिरश्चि ।
२. अधो दिशि में, ३. तिर्यक् दिशि में। ३२४. एवं-पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं। एवम् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् । ३२४. इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनियों की
गति, आगति आदि तीनों ही दिशाओं में
होती है। ३२५. एवं—मणुस्साणवि । एवम्—मनुष्याणामपि। ३२५. इसी प्रकार मनुष्यों की गति, आगति
आदि तीनों ही दिशाओं में होती है।
तस-थावर-पदं त्रस-स्थावर-पदम्
त्रस-स्थावर-पद ३२६. तिविहा तसा पण्णता, तं जहा- त्रिविधा: त्रसाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३२६. वस" जीव तीन प्रकार के होते हैं
तेउकाइया, वाउकाइया, उराला तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, उदाराः १. तेजस्कायिक, २. वायुकायिक, तसा पाणा। त्रसाः प्राणाः।
३. उदार वस प्राणी-द्वीन्द्रिय आदि। ३२७. तिविहा थावरा पण्णत्ता, तं जहा.- त्रिविधाः स्थावराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३२७. स्थावर जीव तीन प्रकार के होते हैंपुढविकाइया, आउकाइया, पृथिवीकायिकाः, अप्कायिकाः,
१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, वणस्सइकाइया। वनस्पतिकायिकाः।
३. वनस्पतिकायिक।
अच्छेज्जादि-पदं
अच्छेद्यादि-पदम् ३२८. तओ अच्छेज्जा पण्णत्ता, तं जहा- त्रय: अच्छेद्या: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
समए, पदेसे, परमाणू। समयः, प्रदेशः, परमाणुः ।
३२९. 'तओ अभेज्जा पण्णत्ता तं जहा- त्रयः अभेद्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--
___समए, पदेसे, परमाणू। समयः, प्रदेशः, परमाणुः । ३३०. तओ अडझा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः अदाह्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
समए, पदेसे, परमाणू। समयः, प्रदेशः, परमाणुः । ३३१. तओ अगिज्झा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः अग्राह्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
समए, पदेसे, परमाणू। समयः, प्रदेशः, परमाणुः। ३३२. तओ अणड्डा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः अनर्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
समए, पदेसे, परमाणू। समयः, प्रदेशः, परमाणुः । ३३३. तओ अमज्झा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः अमध्याः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा-
समए, पदेसे, परमाणू। समयः, प्रदेशः, परमाणुः।
अच्छेद्यआदि-पद ३२८. तीन अच्छेद्य होते हैं
१. समय-काल का सबसे छोटा भाग, २. प्रदेश-निरंश देश; वस्तु का सबसे छोटा भाग, ३. परमाणु-पुद्गल का
सबसे छोटा भाग। ३२६. तीन अभेद्य होते हैं
१. समय, २. प्रदेश, ३. परमाणु। ३३०. तीन अदाह्य होते हैं
१. समय, २. प्रदेश, ३. परमाणु। ३३१. तीन अग्राह्य होते हैं
१. समय, २. प्रदेश, ३. परमाणु । ३३२. तीन अनर्ध होते हैं
१. समय, २. प्रदेश, ३. परमाणु। ३३३. तीन अमध्य होते हैं
१. समय, २. प्रदेश, ३. परमाणु ।
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ठाणं (स्थान)
३३४. तओ अपएसा पण्णत्ता तं जहासमए, पदे, परमाणु । ३३५. तओ अविभाइमा, पण्णत्ता तं जहा समए पदेसे, परमाणु ।
दुक्ख पदं
३३६. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी
किभया पाणा ? समणाउसो ! गोतमादी समणा णिग्गंथा समणं भगवं महावीरं उवसंकमंति, उवसंकमित्ता वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीणो खलु वयं देवाणुप्पिया ! एमट्ठ जाणामो वा पासामो वा । तं जदि णं देवाणुपिया ! एयम णो गिलायंति परिक हित्ताए, तमिच्छामो णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमट्ठ जाणित्तए । अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी दुक्खभया पाणा समणाउसो ! से णं भंते ! दुक्खे केण कडे ? जीवेणं कडे पमादेणं ।
से भंते ! दुक्ख कहं वेइज्जति ? तद् भन्ते ! दुःखं कथं वेद्यते ? अमाणं ।
अप्रमादेन ।
३३७. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्वंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परूवंति कहण्णं
२१६
त्रयः अप्रदेशाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथासमयः, प्रदेशः, परमाणुः । त्रयः अविभाज्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा समयः, प्रदेशः परमाणुः ।
दुःख-पदम्
आर्याः अयि ! श्रमणः भगवान् महावीर : गौतमादीन् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् आमन्त्र्य एवं अवादीत् किभयाः प्राणाः ? आयुष्मन्तः ! श्रमणाः ! गौतमादयः श्रमणाः निर्ग्रन्थाः श्रमणं भगवन्तं महावीरं उपसंक्रामन्ति, उपसंक्रम्य वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवं अवादिषु :न खलु वयं देवानुप्रियाः ! एतमर्थं जानीमो वा पश्यामो वा । तद् यदि देवानुप्रियाः ! एतमर्थ न ग्लायन्ति परिकथितुम्, तद् इच्छामो देवानुप्रियाणां अन्तिके एतमर्थं ज्ञातुम् ।
आर्याः अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः गौतमादीन् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् आमन्त्र्य एवं अवादीत्—
दुःखभयाः प्राणाः आयुष्मन्तः ! श्रमणाः ! तद्भन्ते ! दुःखं केन कृतम् ? जीवेन कृतं प्रमादेन ।
अन्ययूथिकाः भदन्त ! एवं आख्यान्ति एवं भाषन्ते एवं प्रज्ञापयन्ति एवं प्ररूपयन्ति कथं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां
स्थान ३ : सूत्र ३३४-३३७ ३३४. तीन अप्रदेश होते हैं
१. समय, २. प्रदेश, ३. परमाणु । ३३५. तीन अविभाज्य होते हैं
१. समय, २. प्रदेश, ३. परमाणु ।
दुःख-पद
३३६. आर्यो ! श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित कर कहा-
आयुष्मान् ! श्रमणो ! जीव किससे भय खाते हैं ?
गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् महावीर के निकट आए, निकट आकर वन्दन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर बोले
देवानुप्रिय ! हम इस अर्थ को नहीं जान रहे हैं, नहीं देख रहे हैं। यदि देवानुप्रिय को इस अर्थ का परिकथन करने में खेद न हो तो हम देवानुप्रिय के पास इसे जानना चाहेंगे ।
आर्यो ! श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित कर कहा
आयुष्मान् ! श्रमणो ! जीव दुःख से भय खाते हैं ।
तो भगवान् ! दुःख किसके द्वारा किया गया है ?
जीवों के द्वारा अपने प्रमाद से ।
तो भगवान् ! दुःखों का वेदन [ क्षय ] कैसे होता है ?
जीवों के द्वारा, अपने ही अप्रमाद से । ३३७. भन्ते ! कुछ अन्य यूथक सम्प्रदाय [दूसरे
सम्प्रदाय वाले ] ऐसा आख्यान करते हैं, भाषण करते हैं, प्रज्ञापन करते हैं,
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ori (स्थान)
समणाणं णिग्गंथाणं किरिया क्रिया क्रियते ? कज्जति ?
पुच्छति ।
से एवं वत्तव्वं सिया ?
अकिच्चं दुक्खं, असं दुक्खं, अकज्ज माणकडे दुक्खं, अकट्टु अकट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेतित्ति वत्तव्वं । जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु ।
तत्थ जा सा कडा कज्जइ, णो तं पृच्छन्ति । पुच्छति ।
तत्थ जा सा कडा णो कज्जति, पृच्छन्ति । णतं पुच्छति ।
तत्थ जा सा अकडा णो कज्जति, पृच्छन्ति । जो तं पुच्छति ।
तत्र या सा अकृता क्रियते, तत् पृच्छन्ति ।
तत्थ जा सा अकडा कज्जति, तं तस्यैवं वक्तव्यं स्यात् ? अकृत्यं दुःखं, अस्पृष्टं दुःखं, अक्रियमाणकृतं दुःखं, अकृत्वा - अकृत्वा प्राणाः भूताः जीवाः सत्त्वाः वेदनां वेदयन्ति इति वक्तव्यम् । ये ते एवं अवोचन् मिथ्या ते एवं अवोचन् ।
अहं पुनः एवं आख्यामि एवं भाषे एवं प्रज्ञापयामि एवं प्ररूपयामि – कृत्यं दुःखं, स्पृष्टं दुःखं, क्रियमाणकृतं दुःखं,
कृत्वा कृत्वा प्राणः भूताः जीवाः सत्त्वाः वेदनां वेदयन्ति इति वक्तव्यकं स्यात् ।
अहं पुण एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पण्णवेमि एवं परूवे किच्चं दुक्खं,
फुसं दुक्खं, कज्ज माणकडे दुक्खं, कट्ट-कट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंतित्ति वत्तव्वयं सिया ।
२१७
तत्र या सा कृता क्रियते, नो तत्
तत्र या सा कृता नो क्रियते, नो तत्
तत्र या सा अकृता नो क्रियते, नो तत्
स्थान ३ : सूत्र ३३७
प्ररूपण करते हैं कि क्रिया करने के विषय श्रमण-निर्ग्रन्थों का क्या अभिमत है ? जो की हुई होती है, उसका यहां प्रश्न नहीं है।
जो की हुई नहीं होती, उसका भी यहां प्रश्न नहीं है।
जो नहीं की हुई नहीं होती, उसका भी यहां प्रश्न नहीं है ।
किन्तु जो नहीं की हुई है, उसका यहां प्रश्न है। उनकी वक्तव्यता ऐसी है— १. दुःख अकृत्य है - आत्मा के द्वारा नहीं किया जाता, २ दुःख अस्पृश्य हैआत्मा से उसका स्पर्श नहीं होता, ३. दुःख अक्रियमाण-कृत है - वह आत्मा के द्वारा नहीं किए जाने पर होता है । उसे बिना किए ही प्राण भूत- जीव-सत्त्व उसका वेदन करते हैं। आयुष्मान ! श्रमणो ! जिन्होंने ऐसा कहा है उन्होंने मिथ्या कहा है। मैं ऐसा आख्यान करता हूं, भाषण करता हूं, प्रज्ञापन करता हूं, प्ररूपण करता हूं कि—
दुःख कृत्य है- आत्मा के द्वारा किया जाता है।
दुःख स्पृश्य है --- आत्मा से उसका स्पर्श होता है।
दुःख क्रियमाण-कृत है - वह आत्मा के
द्वारा किए जाने पर होता है।
उसे कर-कर के ही प्राण भूत जीव सत्त्व उसका वेदन करते हैं।
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ठाणं (स्थान)
आलोयणा-पदं
३३८. तिहि ठाणेहिं मायी मायं कट्टु आलज्जा णो पक्कि मेज्जा जो णिज्जा णो गरिहेज्जा णो विउज्जाणो विसोहेज्जा जो अकरणयाए अन्भुटु ज्जा अहारिहं पाच्तं तवोकम्मं पडिवज्जेज्जा, तं जहाaft वाहं, करेमि वाहं, करामि वाहं । ३३. तिहि ठाणेह मायी मायं कट्टु णो आलोएज्जा णो पडिक्कमेज्जा • णो णदेज्जा पो गरिहेज्जा णो विउज्जाणो विसोज्जा
अकरणयाए अभुट्टे जा णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जेज्जा, तं जहा
अकित्ती वा मे सिया,
अवण्णे वा मे सिया, अfिare वा मे सिया.
३४०. तिहि ठाणेह मायी मायं कट्टुडिक्कमेज्जा
आज णो णिज्जा णो गरिहेज्जा णो विउट्टेज्जा णो विसोहेज्जा
अकरणयाए अन्भुट्ठेज्जा णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जेज्जा, तं जहा - कित्ती वा मे परिहाइस्सति, जसे वा मे परिहाइस्सति, पूयासक्कारे वा मे परिहाइस्सति ।
२१८
इओ उद्देस
आलोचना-पदम्
त्रिभिः स्थानैः मायी मायां कृत्वा - नोआलोचयेत् नो प्रतिक्रामेत् नो निन्देत् नोगत नो व्यावर्तेत नो विशोधयेत् नो अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत नो यथार्ह प्रायश्चित्तं तपः कर्म प्रतिपद्येत, तद्यथा
अकार्षं वाहं करोमि वाह, करिष्यामि वाहं ।
त्रिभिः स्थान: मायी मायां कृत्वानो आलोचयेत् नो प्रतिक्रामेत् नो निन्देत् नोगत नो व्यावर्तेत नो विशोधयेत् नोकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत नो यथार्हं प्रायश्चित्तं तपः कर्म प्रतिपद्येत, तद्यथाअकीर्तिः वा मम स्यात्, अवर्णो वा मम स्यात्, अविनयो वा मम स्यात् ।
त्रिभिः स्थान: मायी मायां कृत्वा - नो आलोचयेत् नो प्रतिक्रामेत् नो निन्देत् नो गर्हेत नो व्यावर्तेत नो विशोधयेत् नो अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत नो यथार्हं प्रायश्चित्तं तपः कर्म प्रतिपद्येत, तद्यथा
कीर्तिः वा मम परिहास्यति, यशो वा मम परिहास्यति, पूजा सत्कारो वा मम परिहास्यति ।
स्थान ३ : सूत्र ३३८-३४०
आलोचना-पद
३३८. तीन कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, व्यावर्तन तथा विशुद्ध नहीं करता, फिर ऐसा नहीं करूंगा - ऐसा संकल्प नहीं करता और यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपः कर्म स्वीकार नहीं करता -- मैंने अकरणीय किया है, मैं अकरणीय कर रहा हूं, मैं अकरणीय करूंगा |
३३. तीन कारणों से मायावी माया करके
उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि नहीं करता, फिर ऐसा नहीं करूंगा -- ऐसा संकल्प नहीं करता और यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपः कर्म स्वीकार नहीं करतामेरी अकीर्ति होगी, मेरा अवर्ण होगा, दूसरों के द्वारा मेरा अविनय होगा ।
३४०. तीन कारणों से मायावी माया करके
उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि नहीं करता, फिर ऐसा नहीं करूंगा - ऐसा संकल्प नहीं करता और यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार नहीं करतामेरी कीर्ति कम होगी, मेरा यशः कम होगा, मेरा पूजा सत्कार कम होगा।
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मा
ठाणं (स्थान)
२१६
स्थान ३ : सूत्र ३४१-३४४ ३४१. तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु- त्रिभिः स्थानैः मायी मायां कृत्वा- ३४१. तीन कारणों से मायावी माया करके
आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा आलोचयेत् प्रतिकामेत् निन्देत् गर्हेत उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, 'णिदेज्जा गरिहेज्जा व्यावर्तेत विशोधयेत् अकरणतया गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, विउद्देज्जा विसोहेज्जा अभ्यत्तिष्ठेत यथाऽहं प्रायश्चित्तं तपःकर्म फिर ऐसा नहीं करूंगा—ऐसा संकल्प अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा प्रतिपद्येत, तद्यथा
करता है और यथोचित प्रायश्चित्त तथा अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म° मायिनः अयं लोकः गहितो भवति, तपःकर्म स्वीकार करता हैपडिवज्जेज्जा, तं जहा- उपपातः गहितो भवति,
मायावी का वर्तमान जीवन गहित हो माइस्स णं अस्सि लोगे गरहिए आजाति: गहिता भवति ।
जाता है, उपपात गहित हो जाता है, भवति,
आगामी जन्म [देवलोक या नरक के बाद उववाए गरहिए भवति,
होने वाला मनुष्य या तिर्यञ्च का जन्म] आयाती गरहिया भवति।
गहित हो जाता है। ३४२. तिहि ठार्गोह मायी मायं कटु- त्रिभिः स्थानः मायी मायां कृत्वा- ३४२. तीन कारणों से मायावी माया करके
आलोएज्जा 'पडिक्कमेज्जा आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निन्देत् गर्हेत उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, णिदेज्जा गरिहेज्जा
व्यावर्तेत विशोधयेत् अकरणतया गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, विउद्देज्जा विसोहेज्जा अभ्युत्तिष्ठेत यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म फिर ऐसा नहीं करूंगा-ऐसा संकल्प अकरणयाए अब्भुट्टेज्जा प्रतिपद्येत, तद्यथा
करता है और यथोचित प्रायश्चित्त तथा अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म अमायिन: अयं लोक: प्रशस्तो भवति, तपःकर्म स्वीकार करता हैपडिवज्जेज्जा, तं जहा_अमाइस्स उपपातः प्रशस्तो भवति,
ऋजु मनुष्य का वर्तमान जीवन प्रशस्त णं अस्सि लोगे पसत्थे भवति, आजातिः प्रशस्ता भवति ।
होता है, उपपात प्रशस्त होता है, उववाते पसत्थे भवति,
आगामी जन्म [देवलोक या नरक के बाद आयाती पसत्था भवति।
होने वाला मनुष्य जन्म प्रशस्त होता है। ३४३. तिहि ठाणेहि मायो मायं कटु- त्रिभिः स्थानः मायी मायां कृत्वा- ३४३. तीन कारणों से मायावी माया करके
आलोएज्जा 'पडिक्कमेज्जा आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निन्देत् गर्हेत उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, णिदेज्जा गरिहेज्जा व्यावर्तेत विशोधयेत् अकरणतया गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, विउद्देज्जा विसोहेज्जा अभ्युत्तिष्ठेत यथाऽहं प्रायश्चित्तं तपःकर्म । फिर ऐसा नहीं करूंगा-ऐसा संकल्प अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा प्रतिपद्येत, तद्यथा
करता है और यथोचित प्रायश्चित्त तथा अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म° ज्ञानार्थाय, दर्शनार्थाय, चरित्रार्थाय। तपःकर्म स्वीकार करता हैपडिवज्जेज्जा, तं जहा—णाणट्ठयाए,
ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए, दंसणट्ठयाए, चरित्तट्ठयाए।
चरित्र के लिए।
सुयधर-पदं श्रुतधर-पदम्
श्रुतधर-पद ३४४. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं त्रीणि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, ३४४. पुरुष तीन प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. सूत्रधर, २. अर्थधर, सुत्तधरे, अत्थधरे, तदुभयधरे। सूत्रधरः, अर्थधरः, तदुभयधरः । ३. तदुभय-सूत्रार्थधर।
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ठाणं (स्थान)
२२०
स्थान ३ : सूत्र ३४५-३४६
उपधि-पदं उपधि-पदम्
उपधि-पद ३४५. कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ३४५. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां तीन प्रकार के
वा तओ वत्थाई धारित्तए वा त्रीणि वस्त्राणि धतुवा परिधातुं वा, वस्त्र धारण कर सकते हैं और काम परिहरित्तए वा, तं जहा- तद्यथा
में ले सकते हैं-१. ऊन के, जंगिए, भंगिए, खोमिए। जाङ्गिक, भाषिक, क्षौमिकम्।
२. अलसी के, ३. रुई के। ३४६. कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ३४६. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां तीन प्रकार के
वा तओ पायाई धारित्तए वा त्रीणि पात्राणि धत्तुं वा परिधातुं वा, पात्र धारण कर सकते हैं—१. तुम्बा, परिहरित्तए वा, तं जहातद्यथा
२. काष्ठ पात्र, ३. मृत् पात्र। लाउयपादे वा, दारुपादे वा, अलाबुपात्रं वा, दारुपात्रं वा, मृत्तिकामट्टियापादे वा।
पात्रं वा। ३४७. तिहि ठाणेहि वत्थं धरेज्जा, तं त्रिभिः स्थानः वस्त्रं धरेत्, तद्यथा- ३४७. निग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां तीन कारणों से जहा— हिरिपत्तियं, ह्रीप्रत्ययं, जुगुप्साप्रत्ययं,
वस्त्र धारण कर सकते हैंदुगुंछापत्तियं, परीसहवत्तियं। परीषहप्रत्ययम् ।
१. लज्जा निवारण के लिए, २. जुगुप्सा [घृणा] निवारण के लिए, ३. परीषह निवारण के लिए।
आत्मरक्ष-पद
आयरक्ख-पदं ३४८. तओ आयरक्खा पण्णत्ता, तं
जहाधम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता भवति, तुसिणीए वा सिया, उद्वित्ता वा आताए एगंतमंतमवक्कमेज्जा।
आत्मरक्ष-पदम् त्रयः आत्मरक्षाः प्रज्ञप्ताः , तदयथा- धार्मिक्या प्रतिचोदनया प्रतिचोदिता भवति, तूष्णीको वा स्यात, उत्थाय वा आत्मना एकान्तमन्तं अवक्रामेत् ।
३४८. तीन आत्म-रक्षक होते हैं---
१. अकरणीय कार्य में प्रवृत्त व्यक्ति को धार्मिक प्रेरणा से प्रेरित करने वाला, २. प्रेरणा न देने की स्थिति में मौन रहने वाला, ३. मौन और उपेक्षा न करने की स्थिति में वहां से उठकर एकान्त में चले जाने
वाला।
वियड-दत्ति--पदं
विकट-दत्ति-पदम् ३४६. णिग्गंथस्स णं गिलायमाणस्स निर्ग्रन्थस्य ग्लायतः कल्प्यन्ते तिस्रः
कप्पंति तओ वियडदत्तीओ [दे० विकट] दत्तयः प्रतिग्रहीतुम्, पडिग्गाहित्तते, तं जहा
तद्यथा...उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या। उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा ।
विकट-दत्ति-पद ३४६. ग्लान निर्ग्रन्थ तीन प्रकार की विकट
दत्तियां ले सकता है१. उत्कृष्ट-पर्याप्त जल या कलमी चावल की कांजी, २. मध्यम-कई बार किन्तु अपर्याप्त जल या साठी चावल की कांजी,
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ठाणं (स्थान)
२२१
स्थान ३ : सूत्र ३५०-३५५
३. जघन्य-एक बार पीए उतना जल, तृण धान्य की कांजी या गर्म पानी।
विसंभोग-पदं विसम्भोग-पदम्
विसम्भोग-पद ३५०. तिहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे त्रिभिः स्थानः श्रमणः निर्ग्रन्थः साधर्मिकं ३५०. तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने साहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं साम्भोगिक वैसम्भोगिकं कुर्वन्
सार्मिक, सांभोगिक को विसंभोगिक करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा- नातिकामति, तद्यथा---
करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं सयं वा दटुं, सट्टयस्स वा णिसम्म स्वयं वा दृष्ट्वा, श्राद्धकस्य वा निशम्य, । करता--१. स्वयं किसी को सामाचारी तच्चं मोसं आउट्टति, चउत्थं णो तृतीयं मृषा आवर्तते, चतुर्थं नो के प्रतिकूल आचरण करते हुए देखकर, आउट्टति। आवर्तते।
२. श्राद्ध [विश्वास पात्र] से सुनकर, ३. तीन बार मृषा-[अनाचार] का प्रायश्चित्त देने के बाद चौथी बार प्रायश्चित्त विहित नहीं होने के कारण।
अणुण्णादि-पदं अनुज्ञादि-पदम्
अनुज्ञआदि-पद ३५१. तिविधा अणुण्णा पण्णत्ता, तं त्रिविधा अनुज्ञा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ३५१. अनुज्ञा तीन प्रकार की होती हैजहा. आयरियत्ताए,
आचार्यतया, उपाध्यायतया, गणितया। १. आचार्यत्व की, २. उपाध्यायत्व की, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए।
३. गणित्व की। ३५२. तिविधा समणुण्णा पण्णत्ता, तं त्रिविधा समनुज्ञा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ३५२. समनुज्ञा तीन प्रकार की होती है
जहा—आयरियत्ताए, आचार्यतया, उपाध्यायतया, गणितया। १. आचार्यत्व की, २. उपाध्यायत्व की, उवझायत्ताए, गणित्ताए।
३. गणित्व की। ३५३. 'तिविधा उवसंपया पण्णत्ता, तं त्रिविधा उपसंपदा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ३५३. उपसम्पदा तीन प्रकार की होती हैजहा.-आयरियत्ताए,
आचार्यतया, उपाध्यायतया, गणितया। १. आचार्यत्व की, २. उपाध्यायत्व की, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए।
३. गणित्व की। ३५४. तिविधा विजहणा पण्णत्ता, तं त्रिविधं विहानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ३५४. विहान तीन प्रकार का होता है
जहा—आयरियत्ताए, आचार्यतया, उपाध्यायतया, गणितया। १. आचार्यत्व का, २. उपाध्यायत्व का, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए।
३. गणित्व का।
वयण-पदं
वचन-पदम् ३५५. तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधं वचनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-
तव्वयणे, तदण्णवयणे, णोअवयणे। तद्वचनं तदन्यवचनं नोअवचनम् ।
वचन-पद ३५५. वचन तीन प्रकार का होता है
१. तद्वचन--विवक्षित वस्तु का कथन, २. तदन्यवचन-विवक्षित वस्तु से भिन्न वस्तु का कथन, ३. नोअवचन-शब्द का अर्थहीन व्यापार।
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ठाणं (स्थान)
३५६. तिविहे अवयणे पण्णत्ते, तं जहा— गोतदण्णवयणे,
णोतव्यणे, अवयणे
।
मण-पदं
३५७. तिविहे मणे पण्णत्ते, तं जहातम्मणे, तयण्णमणे, णोअमणे ।
३५८. तिविहे अमणे पण्णत्ते, तं जहागोतम्मणे, णोतयण्णमणे, अमणे ।
वुट्ट पर्द
३५६. तिहि ठाणे अप्पट्टीकाए सिया, तं जहा - १. तस्सि च णं देसंसि वा पदेसंसि वाणो बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताते वक्कमंति विक्कमंति चयंति उववज्जंति, २. देवा णागा जक्खा भूता णो सम्ममाराहिता भवंति, तत्थ समुट्ठियं उदगपोग्गलं परिणतं वासितुकामं अण्णं देसं साहरंति,
३. अभवद्दलगं च णं समुट्ठितं परिणतं वासितुकामं वाउकाए विधुत
२२२
त्रिविध अवचनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा...नोतद्वचनं, नोतदन्यवचनं, अवचनम् ।
मनः-पदम्
त्रिविधं मनः प्रज्ञप्तम्, तद्यथा--- तन्मनः, तदन्यमनः, नोअमनः ।
त्रिविधं अमनः प्रज्ञप्तम्, तद्यथानोतन्मनः, नोतदन्यमनः, अमनः ।
वृष्टि - पदम्
त्रिभिः स्थानैः अल्पवृष्टिकायः स्यात्,
तद्यथा—
१ तस्मिंश्च देशे वा प्रदेशे वा नो बहवः उदकयोनिका जीवाश्च पुद्गलाश्च उदकतया अवक्रामन्ति व्युत्क्रामन्ति च्यवन्ते उपपद्यन्ते,
२.
देवाः नागाः यक्षाः भूताः नो सम्यगाराधिता भवन्ति तत्र समुत्थितं उदकपुद्गलं परिणतं वर्षितुकामं अन्यं देशं संहरन्ति,
३. अभ्रबार्दलकं च समुत्थितं परिणतं वर्षितुकामं वायुकायः विधुनाति
इच्चेतेहि तिहि ठाणेह अप्पबुट्टि - इति एतैः त्रिभिः स्थान: अल्पवृष्टिकायः गाए सिया ।
स्यात् ।
स्थान ३ : सूत्र ३५६-३५६
३५६. अवचन तीन प्रकार का होता है
१. नोतद्वचन - विवक्षित वस्तु का अकथन, २. नोतदन्यवचन- विवक्षित वस्तु से भिन्न वस्तु का कथन, ३. अवचन - वचन - निवृत्ति ।
मनः-पद
३५७. मन तीन प्रकार का होता है
१. तन्मन - लक्ष्य में लगा हुआ मन,
२. तदन्यमन - अलक्ष्य में लगा हुआ मन, ३. नोअमन-मन का लक्ष्य हीन
व्यापार ।
३५८. अमन तीन प्रकार का होता है
१. नोतन्मन - लक्ष्य में नहीं लगा हुआ
मन, २. नोतदन्यमन - लक्ष्य में लगा
हुआ मन, ३. अमन-मन की अप्रवृत्ति ।
वृष्टि - पद
३५६. तीन कारणों से अल्प वृष्टि होती है
१. किसी देश या प्रदेश में [ क्षेत्र या स्वभाव से ] पर्याप्त मात्रा में उदकयोनिक जीव और पुद्गलों के उदक रूप में उत्पन्न और नष्ट तथा नष्ट और उत्पन्न होने से । २. देव, नाग, यक्ष या भूत सम्यक् प्रकार से आराधित न होने पर उस देश में समुत्थित वर्षा में परिणत तथा बरसने ही वाले उदक- पुद्गलों [मेघों] का उनके द्वारा अन्य देश में संहरण होने से ।
३. समुत्थित वर्षा में परिणत तथा बरसने ही वाले अभ्रवादलों के वायु द्वारा नष्ट होने से
इन तीन कारणों से अल्प वृष्टि होती है ।
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ठाणं (स्थान)
२२३
स्थान ३ : सूत्र ३६०-३६१ ३६०. तिहि ठाणेहिं महावट्ठीकाए सिया, त्रिभिः स्थानैः महावृष्टिकायः स्यात्, ३६०. तीन कारणों से महावृष्टि होती हैतं जहा-- तद्यथा
१. किसी देश या प्रदेश में [क्षेत्र स्वभाव १. तस्सि च णं देसंसि वा पदेसंसि १. तस्मिंश्च देशे वा प्रदेशे वा बहवः से] पर्याप्त मात्रा में उदकयोनिक जीव वा बहवे उदगजोणिया जीवा य उदकयोनिकाः जीवाश्च पुदगलाश्च और पुद्गलों के उदक रूप में उत्पन्न और पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति उदकत्वाय अवक्रामन्ति व्युत्क्रामन्ति नष्ट होने तथा नष्ट और उत्पन्न होने से, विउक्कमति चयंति उववज्जति, च्यवन्ते उपपद्यन्ते,
२. देव, नाग, यक्ष या भूत सम्यक् प्रकार २. देवा णागा जक्खा भूता २. देवा: नागाः यक्षाः भूताः सम्य
से आराधित होने पर अन्यत्र समुत्थित, सम्ममाराहिता भवंति, अण्णत्थ गाराधिता भवंति, अन्यत्र समुत्थितं वर्षा में परिणत तथा बरसने ही वाले समुट्ठितं उदगपोग्गलं परिणयं उदकपुद्गलं परिणतं वर्षितुकामं तं उदक-पुद्गलों का उनके द्वारा उस देश वासिउकामं तं देसं साहरंति, देशं संहरन्ति
में संहरण होने से, ३. अब्भवद्दलगं च णं समुट्ठितं ३. अभ्रबार्दलकं च समुत्थितं परिणतं ३. समुत्थित वर्षा में परिणत तथा बरसने परिणयं वासितुकामं णो वाउआए वर्षितुकामं नो वायुकायः विधुनाति
ही वाले अभ्रवादलों के वायु द्वारा नष्ट न विधुणति
होने सेइच्चेतेहि तिहिं ठाणेहि महावुट्टि- इति एतैः त्रिभिः स्थानः महावृष्टिकायः ।। इन तीन कारणों से महावृष्टि होती है। काए सिआ।
स्यात् ।
अहुणोववण्ण-देव-पदं अधुनोपपन्न-देव-पदम्
अधुनोपपन्न-देव-पद ३६१. तिहि ठाणेहं अहुणोववण्णे देवे त्रिभिः स्थानैः अधुनोपपन्न: देवः देव- ३६१. तीन कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न
देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं लोकेषु इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् देव शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता हब्वमागच्छित्तए, णो चेव णं आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति अर्वाग् है, किन्तु आ नहीं सकतासंचाएति हन्वमागच्छित्तए, तं आगन्तुम्, तद्यथाजहा१. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु १. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु १. देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव दिव्य दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामभोगेषु मूच्छितः गृद्धः ग्रथितः । कामभोगों में मूच्छित गृद्ध बद्ध तथा गढिते अन्झोववण्णे, से णं माणुस्सए अध्युपपन्नः, स मानुष्यकान् कामभोगान् आसक्त होकर मानवीय कामभोगों को न कामभोगे णो आढाति, णो परिया- नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अर्थ आदर देता है, न अच्छा जानता है, न णाति, णो अटुं बंधति, णो बध्नाति, नो निदानं प्रकरोति, नो प्रयोजन रखता, न निदान [उन्हें पाने का णियाणं पगरेति, णो ठिइपकप्पं स्थितिप्रकल्प प्रकरोति,
संकल्प] करता है और न स्थिति प्रकल्प पगरेति,
[उनके बीच रहने की इच्छा करता है, २. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु २. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु २. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामभोगेषु मूच्छितः गृद्धः ग्रथितः कामभोगों में मूच्छित गृद्ध बद्ध तथा गढिते अज्झोववण्णे, तस्स णं अध्युपपन्नः, तस्य मानुष्यकं प्रेम आसक्त देव का मानुष्य-प्रेम व्युच्छिन्न हो माणुस्सए पेम्मे वोच्छिण्णे दिव्वे व्युच्छिन्नं दिव्यं संक्रान्तं भवति, जाता है तथा उसमें दिव्य-प्रेम संक्रात हो संकते भवति,
जाता है।
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ठाणं (स्थान)
२२४
स्थान ३ : सूत्र ३६२ ३. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु ३. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु ३. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामभोगेषु मूच्छितः गृद्धः ग्रथितः । कामभोगों में मूच्छित, गृद्ध, बद्ध तथा गढिते अज्झोववण्णे, तस्स णं अध्युपपन्नः, तस्य एवं भवति—इदानीं । आसक्त देव सोचता है-मैं अभी मनुष्य एवं भवति—इण्हि गच्छं मुहत्तं गच्छामि मुहूर्तेन गच्छामि, तस्मिन् । लोक में जाऊं, मुहूर्त भर में जाऊं। इतने गच्छं, तेणं कालेणमप्पाउया काले अल्पायुषो मनुष्याः कालधर्मेण । में अल्पायुष्क" मनुस्य कालधर्म को प्राप्त मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता संयुक्ता भवन्ति
हो जाता हैभवंतिइच्चेतेहिं तिहि ठाणेहि अहुणो- इत्येतैः त्रिभिः स्थानैः अधुनोपपन्न: इन तीन कारणों से देवलोक में तत्काल ववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज देवः देवलोकात् इच्छेत् मानुषं लोकं उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए, णो अर्वाग् आगन्तुम्, न चैव शक्नोति अर्वाग् चाहता है, किन्तु अ नहीं सकता।
चेवणं संचाएति हव्वमागच्छित्तए। आगन्तुम् ।। ३६२. तिहि ठाणेहि अहुणोववण्णे देवे त्रिभिः स्थानः अधुनोपपन्न: देव: देव- ३६२. तीन कारणों से देवलोक में तत्काल
देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं लोकेषु इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् उत्पन्न देव शीध्र ही मनुष्य लोक में आना हब्वमागच्छित्तए, संचाएइ आगन्तुम्, शक्नोति अर्वाग् आगन्तुम्- चाहता है और आ भी सकता हैहव्वमागच्छित्तए१. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु १. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु । १. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते कामभोगेषु अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः कामभोगों में अमूच्छित, अमृद्ध, अबद्ध अगिद्धे अगढिते अणज्झोववण्णे, अनध्युपपन्नः, तस्य एवं भवति—अस्ति तथा अनासक्त देव सोचता है-मनुष्य तस्स णमेवं भवति—अत्थि णं मम मानुष्यके भवे आचार्य इति वा लोक में मेरे मनुष्य भव के आचार्य, मम माणुस्सए भवे आयरिएति उपाध्याय इति वा प्रवर्ती इति वा उपाध्याय, प्रवर्तक", स्थविर", गणी", वा उवज्झाएति वा पवत्तीति स्थविर इति वा गणीति वा गणधर गणधर", गणावच्छेदक हैं, जिनके प्रभाव वा थेरेति वा गणीति वा इति वा गणावच्छेदक इति वा, येषां से मुझे यह इस प्रकार की दिव्य देवद्धि, गणधरेति वा गणावच्छेदेति वा, प्रभावेण मया इयं एतद्पा दिव्या दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव मिला है, जेसि पभावेणं मए इमा एतारूवा देवद्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः प्राप्त हुआ है, अभिसमन्वागत [भोग्य दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुती देवानुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः, अवस्था को प्राप्त हुआ है, अतः मैं जाऊं दिवे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभि- तद् गच्छामि तान् भगवत: वन्दे और उन भगवान् को वंदन करूं, नमस्कार समण्णागते, तं गच्छामि णं ते नमस्यामि सत्करोमि सम्मानयामि करूं, सत्कार करूं, सम्मान करूं तथा उन भगवते वदामि णमंसामि सक्का- कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं पर्युपासे, कल्याणकर, मंगल, ज्ञानस्वरूप देव की रेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं
पर्युपासना करूं। देवयं चेइयं पज्जुवासामि। २. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु २. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु २. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिए कामभोगेषु अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः कामभोगों में अमूच्छित, अगृद्ध, अबद्ध अगिद्धे अगढिते° अणज्झोववण्णे, अनध्युपपन्नः, तस्य एवं भवति
तथा अनासक्त देव सोचता है कि मनुष्य तस्स णं एवं भवति
भव में अनेक ज्ञानी, तपस्वी तथा अति
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ठाणं (स्थान)
एसणं माणुस्सए भवे णाणीति वा तवस्सीति वा अतिदुक्करदुक्करकार, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं° पज्जुवासामि । ३. अणवणे देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिए afra अगढिते अणभोववण्णे, तस्स णमेवं भवति अतिथ ण मम माणुस्सए भवे माताति वा "पियाति वा भायाति वा भगिणीति वा भज्जाति वा पुत्ताति वा धूयाति वा° सुहाति वा, तं गच्छामि णं ते सिमंतियं पाउन्भवामि, पातु ता मे इमं एताख्वं दिव्वं देवि दिव्वं देवजुत दिव्वं देवाणुभावं लद्धं पत्तं अभिसमण्णागयंsafe तिहि ठाणे अहुणोaaणे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छतए, संचाएति हव्वमागच्छित्तए ।
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एतस्मिन् मानुष्यके भवे ज्ञानीति वा तपस्वीति वा अतिदुष्कर- दुष्करकारकः, तद् गच्छामि तान् भगवतः वन्दे नमस्यामि तत्करोमि सम्मानयामि कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं पर्युपासे
३. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्नः, तस्य एवं भवति — अस्ति मम मानुष्यके भवे मातेति वा पितेति वा भ्रातेति वा भगिनीति वा भार्येति वा पुत्र इति वा दुहितेति वा स्नुषेति वा, तद् गच्छामि तेषां अन्तिकं प्रादुर्भवामि पश्यन्तु तावत् मम इमां एतद्रूपां दिव्यां देवद्धि दिव्यां देवद्युति दिव्यं देवानुभावं लब्धं प्राप्तं अभिसमस्वागतम् -
इत्येतैः त्रिभिः स्थानैः अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् आगन्तुम्, शक्नोति अर्वाग् आगन्तुम् ।
देवसम-दं ३६३. तओ ठाणाई देवे पीहेज्जा, तं त्रीणि जहा - तद्यथा
माणुसगं भवं आरिए खेत्ते जम्मं मानुष्यकं भवम् आर्ये क्षेत्रे जन्म, सुकुल पच्चायति । सुकुल प्रत्याजातिम् ।
३६४. तिहि ठाणेहं देवे परितप्पेज्जा, तं जहा - १. अहो ! णं मए संते बले संते वीरिए संते पुरिसक्कारपरक्कमे खेमंसि सुभिक्खंसि आयरिय
त्रिभिः स्थानैः देवः परितप्येत्, तद्यथा – १. अहो ! मया सति बले सति वीर्ये सति पुरुषकारपराक्रमे क्षेमे सुभिक्षे आचार्योपाध्याययोः विद्यमानयोः कल्यशरीरेण नो बहुकं श्रुतं अधीतम्
देवस्य मनःस्थिति-पदम्
स्थानानि देवः स्पृहयेत्,
स्थान ३ : सूत्र ३६३-३६४ दुष्कर तपस्या करने वाले हैं, अतः मैं जाऊं और उन भगवान् को वंदन करूं, नमस्कार करूं, सत्कार करूं, सम्मान करूं तथा उन कल्याणकर, मंगल, ज्ञान- स्वरूप देव की पर्युपासना करूं ।
३. देवलोक में तत्काल उत्पन्न दिव्य कामभोगों में अमूच्छित, अगृद्ध, अबद्ध तथा अनासक्त देव सोचता है- मेरे मनुष्य भव के माता, पिता, भ्राता, भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्र वधू हैं, अतः मैं उनके पास जाऊं और उनके सामने प्रकट होऊ, जिससे मेरी इस प्रकार की दिव्य देवद्ध, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव को - जो मुझे मिली है, प्राप्त हुई है, अभिसमन्वागत हुई है - देखें
इन तीन कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता है और आ भी सकता है।
देव मनःस्थिति पद ३६३. देव तीन स्थानों की स्पृहा करता है
१. मनुष्य भव की, २. आर्य क्षेत्र में जन्म की, ३. सुकुल में प्रत्याजाति - उत्पन्न होने की ।
तीन कारणों से देव परितप्त होता है१. अहो ! मैंने बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, क्षेम, सुभिक्ष तथा आचार्य और उपाध्याय की उपस्थिति तथा नीरोग शरीर के होते हुए भी श्रुत का पर्याप्त
३६४.
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ठाणं (स्थान)
२२६
स्थान ३ : सूत्र ३६५-३६६ उवज्झाएहि विज्जमाणेहि कल्ल
अध्ययन नहीं किया। सरीरेणं णो बहुए सुते अहीते, २. अहो ! णं मए इहलोगपडि- २. अहो ! मया इहलोकप्रतिबद्धेन २. अहो ! मैंने विषय-तृषित, इहलोक बद्धेणं परलोगपरंमुहेणं विसय- परलोकपराङ्मुखेन विषयतृषितेन नो में प्रतिबद्ध और परलोक से विमुख होकर, तिसितेणं णो दोहे सामण्णपरियाए दीर्घः श्रामण्यपर्यायः अनुपालितः धामण्य के दीर्घ पर्याय का पालन नहीं अणुपालिते,
किया। ३. अहो ! णं मए इड्डि-रस-साय- ३. अहो! मया ऋद्धि-रस-सात-गुरुकेण । ३. अहो ! मैंने ऋद्धि, रस, सात को बड़ा गरुएणं भोगासंसगिद्धणं णो विसुद्धे भोगाशंसागृद्धेन नो विशुद्धं चरित्रं । मानकर, अप्राप्त भोगों की अभिलाषा चरित्ते फासिते. स्पृष्टम्
और प्राप्त भोगों में गृद्ध होकर विशुद्ध इच्चेतेहि तिहि ठाणेहिं देवे इत्येतैः त्रिभिः स्थानैः देवः परितप्येत् । चरित्र का स्पर्श नहीं कियापरितप्पेज्जा।
इन तीन कारणों से देव परितप्त होता है। ३६५. तिहि ठाणेहि देवे चइस्सामित्ति त्रिभिः स्थानैः देवः च्यविष्ये इति ३६५. तीन हेतुओं से देव यह जान लेता है कि जाणइ, तं जहा- जानाति, तद्यथा
मैं च्युत होऊंगाविमाणाभरणाइं णिप्पभाई पासित्ता, विमानाभरणानि निष्प्रभाणि दृष्ट्वा, १. विमान के आभरण को निष्प्रभ कप्परुक्खगं मिलायमाणं पासित्ता, कल्पवृक्षक म्लायन्तं दृष्ट्वा, आत्मनः देखकर। अप्पणो तेयलेस्सं परिहायमाणि तेजोलेश्यां परिहीयामानां ज्ञात्वा- २. कल्प वृक्ष को मुर्शाया हुआ देखकर। जाणित्ता
३. अपनी तेजोलेश्या [कान्ति] को क्षीण इच्चेएहि तिहि ठाणेहिं देवे इति एतैः त्रिभिः स्थानः देवः च्यविष्ये होती हुई जानकरचइस्सामित्ति जाणइ। इति जानाति ।
इन तीन हेतुओं से देव यह जान लेता है --
मैं च्युत होऊंगा। ३६६. तिहि ठाणेहि देवे उन्वेगमा- त्रिभिः स्थानः देवः उद्वेगमागच्छेत्, ३६६. तीन कारणों से देव उद्वेग को प्राप्त होता गच्छेज्जा, तं जहा.-
तद्यथा१. अहो ! णं मए इमाओ एतारू- १. अहो ! मया अस्याः एतद्पायाः । १. अहो ! मुझे इस प्रकार की उपाजित, वाओ दिव्वाओ देविड्डीओ दिव्वाओ दिव्यायाः देवाः दिव्यायाः देवद्युत्याः प्राप्त तथा अभिसमन्वागत दिव्य देवधि, देवजुतीओ दिव्वाओ देवाणु- दिव्यात् देवानुभावात् लब्धायाः प्राप्तायाः दिव्य देवद्युति दिव्य देवानुभाव को छोड़ना भावाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमन्वागतायाः च्यवितव्यं पड़ेगा। अभिसमण्णागताओ चइयत्वं भविष्यति. भविस्सति, २. अहो ! णं मए माउओयं पिउ- २. अहो ! मया मातुः ओजः पितुः शुक्र २. अहो ! मुझे सर्वप्रथम माता के ओज सुक्कं तं तदुभयसंसट्ठ तप्पढमयाए तत् तदुभयसंसृष्टं तत्प्रथमतया आहारः तथा पिता के शुक्र के घोल का आहार आहारो आहारेयव्वो भविस्सति, आहर्त्तव्यः भविष्यति,
लेना होगा। ३. अहो ! णं मए कलमल- ३. अहो ! मया कलमल-जम्बालायां ३. अहो ! मुझे असुरभि-पंकवाले, अपवित्र, जंबालाए असुईए उव्वेयणियाए अशुचौ उद्वेजनीयायां भीमायां गर्भ- उद्वेजनीय और भयानक गर्भाशय में भीमाए गम्भवसहीए वसियव्वं वसत्यां वस्तव्यं भविष्यति
रहना होगा
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स्थान ३ : सूत्र ३६७-३६६
ठाणं (स्थान)
२२७ भविस्सइइच्चेएहि तिहि ठाणेहिं देवे उव्वेग- इति एतैः त्रिभिः स्थानैः देवः उद्वेगं मागच्छेज्जा।
आगच्छेत् ।
इन तीन कारणों से देव उद्वेग को प्राप्त होता है।
विमाण-पदं विमान-पदम्
विमान-पद ३६७. तिसंठिया विमाणा पण्णत्ता, तं त्रिसंस्थितानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, ३६७. विमान तीन प्रकार के संस्थान वाले होते जहा
तद्यथावट्टा, तंसा, चउरसा।
वृत्तानि, त्र्यस्राणि, चतुरस्राणि। १. वृत्त, २. त्रिकोण, ३. चतुष्कोण । १. तत्थ णं जे ते वट्टा विमाणा, १. तत्र यानि वृत्तानि विमानानि, तानि १. जो विमान वृत्त होते हैं वे पुष्करते णं पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिया पुष्करकणिकासंस्थानस्थितानि सर्वत: । कणिका [पद्म-मध्य-भाग] संस्थान से सव्वओ समंता पागार-परिक्खित्ता समन्नात् प्राकार-परिक्षिप्तानि एक- संस्थित होते हैं, सब दिशाओं और हुए एगदुवारा पण्णत्ता, द्वाराणि प्रज्ञप्तानि,
विदिशाओं में चाहारदिवारी से घिरे
होते हैं तथा उनके एक ही द्वार होता है। २. तत्थ णं जे ते तंसा विमाणा, २. तत्र यानि व्यस्राणि विमानानि, २. जो विमान त्रिकोण होते हैं, वे सिंघाड़े ते णं सिंघाडगसंठाणसंठिता तानि शगाटकसंस्थानसंस्थितानि द्वय- के संस्थान से संस्थित होते हैं, दो ओर से दुहतोपागार-परिक्खित्ता एगतो प्राकार-परिक्षिप्तानि एकतः वेदिका- चाहारदिवारी से घिरे हुए तथा एक वेइया-परिक्खित्ता तिदुवारा परिक्षिप्तानि त्रिद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, ओर से वेदिका से घिरे हुए होते हैं तथा पण्णत्ता,
उनके तीन द्वार होते हैं। ३. तत्थ णं जे ते चउरंसा ३. तत्र यानि चतुरस्राणि विमानानि, ३. जो विमान चतुष्कोण होते हैं, वे विमाणा, ते णं अक्खाडगसंठाण- तानि अक्षाटकसंस्थानसंस्थितानि सर्वतः अखाड़े के संस्थान से संस्थित होते हैं, संठिता सव्वतो समंता वेइया- समन्तात् वेदिका-परिक्षिप्तानि चतुर्दा- सब दिशाओं और विदिशाओं में वेदिकाओं परिक्खत्ता चउदुवारा पण्णत्ता। राणि प्रज्ञप्तानि ।
से घिरे हुए होते हैं तथा उनके चार द्वार
होते हैं। ३६८. तिपतिट्ठिया विमाणा पण्णत्ता, तं त्रिप्रतिष्ठितानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, ३६८. विमान त्रिप्रतिष्ठित होते हैंजहातद्यथा
१. घनोदधि-प्रतिष्ठित, घणोदधिपतिट्टिता, घनोदधिप्रतिष्ठितानि,
२. धनवात-प्रतिष्ठित, घणवातपइ द्विता। घनवातप्रतिष्ठितानि,
३. अवकाशांतर-[आकाश] प्रतिष्ठित । ओवासंतरपइ द्विता।
अवकाशान्तरप्रतिष्ठितानि । ३६६. तिविधा विमाणा पण्णत्ता, तं त्रिविधानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, ३६६. विमान तीन प्रकार के होते हैं
तद्यथा अवस्थितानि, विकृतानि, १. अवस्थित-स्थायी बास के लिए, अवद्विता वेउविता, पारियानिकानि।
२. विकृत-अस्थायी बास के लिए निर्मित पारिजाणिया।
३. पारियानिक-यात्रार्थ निर्मित ।
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ठाणं (स्थान)
२२८
स्थान ३ : सूत्र ३७०-३७८
दिट्ठि-पदं दृष्टि-पदम्
दृष्टि-पद ३७०. तिविधा जेरइया पण्णता, तं त्रिविधाः नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३७०. नैरयिक तीन प्रकार के होते हैंजहा—सम्मादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्यग्दृष्टयः, मिथ्यादृष्टयः,
१. सम्यग्-दृष्टि, २. मिथ्या-दृष्टि, सम्मामिच्छादिट्ठी। सम्यमिथ्यादृष्टयः ।
३. सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि । ३७१. एवं_विलिदियवज्ज जाव एवम्-विकलेन्द्रियवर्ज यावत ३७१. इसी प्रकार विकलेन्द्रियों को छोड़कर वेमाणियाणं। वैमानिकानाम् ।
सभी दण्डकों के तीन-तीन प्रकार हैं।
दुग्गति-सुगति-पदं दुर्गति-सुगति-पदम्
दुर्गति-सुगति-पद ३७२. तओ दुग्गतीओ पण्णत्ताओ, तं तिस्रः दुर्गतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३७२. दुर्गति तीन प्रकार की है
जहा—णेरइयदुग्गती, तिरिक्ख- नैरयिकदुर्गतिः, तिर्यग्योनिकदुर्गतिः, १. नरक दुर्गति, २. तिर्यक योनिक दुर्गति, जोणियदुग्गती, मणुयदुग्गती। मनुजदुर्गतिः ।
३. मनुज दुर्गति। ३७३. तओ सुगतीओ पण्णत्ताओ, तं तिनः सुगतयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- ३७३. सुगति तीन प्रकार की है
जहा—सिद्धसोगती, देवसोगती, सिद्धसुगतिः, देवसुगतिः, मनुष्यसुगतिः। १. सिद्ध सुगति, २. देव सुगति, मणुस्ससोगती।
३. मनुष्य सुगति । ३७४. तओ दुग्गता पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः दुर्गताः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- ३७४. दुर्गत तीन प्रकार के हैं
णेरइयदुग्गता, तिरिक्खजोणिय- नैरयिकदुर्गताः, तिर्यग्योनिकदुर्गताः, १. नैरयिक दुर्गत, २.तिर्यक-योनिक दुर्गत, दुग्गया, मणुस्सदुग्गता। मनुष्यदुर्गताः।
३. मनुष्य दुर्गत। ३७५. तओ सुगता पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः सुगताः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- ३७५. सुगत तीन प्रकार के हैं–१. सिद्ध-सुगत,
सिद्धसोगता, देवसुग्गता, सिद्धसुगताः, देवसुगताः, मनुष्यसुगताः। २. देव-सुगत, ३. मनुष्य-सुगत । मणुस्ससुग्गता।
तव-पाणग-पदं तपः-पानक-पदम्
तपः-पानक-पद ३७६. चउत्थभत्तियस्स णं भिक्खुस्स चतुर्थभक्तिकस्य भिक्षोः कल्पन्ते त्रीणि ३७६. चतुर्थभक्त [उपवास] वाला भिक्षु तीन कप्पंति तओ पाणगाइं पडिगा- पानकानि प्रतिग्रहीतुम्, तद्यथा
प्रकार के पानक ग्रहण कर सकता हैहित्तए, तं जहा
उत्स्वेदिम संसेकिमं तन्दुलधावनम् । १. उत्स्वेदिम-आटे का धोवन, उस्सेइमे संसेइमे चाउलधोवणे।
२. संसेकिम-सिझाए हुए केर आदि का
धोवन, ३. चावल का धोवन। ३७७. छट्ठभत्तियस्स णं भिक्खुस्स कप्पंति षष्ठभक्तिकस्य भिक्षोः कल्पन्ते त्रीणि ३७७. छट्ठभक्त [बेले की तपस्या] वाला भिक्षु
तओ पाणगाई पडिगाहित्तए, तं पानकानि प्रतिग्रहीतुम्, तद्यथा- तीन प्रकार के पानक ले सकता हैजहातिलोदकं, तुषोदकं, यवोदकम् ।
१. तिलोदक, २. तुषोदक, ३. यवोदक ! तिलोदए, तुसोदए, जवोदए। ३७८. अट्ठमभत्तियस्स णं भिक्खुस्स अष्टमभक्तिकस्य भिक्षोः कल्पन्ते ३७८. अट्ठभक्त [तेले की तपस्या] वाला भिक्षु
कप्पंति तओपाणगाइं पडिगाहित्तए, त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुम्, तद्यथा- तीन प्रकार के पानक ले सकता है
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1
ठाणं (स्थान)
तं जहा आयामए, सोवीरए, सुद्धविडे ।
पिडेसणा-पदं
३७९. तिविहे उवहडे पण्णत्ते, तं जहाफलिओ वहडे, सुद्धोवहडे ghar |
३८०. तिविहे ओग्गहिते पण्णत्ते, तं जहाजं च ओगिहति, जं च साहरति, जं च आसगंसि पक्खिदति ।
जहा -
उवगरणोमोयरिया, भत्तपाणो मोदरिया, भावोमोदरिया ।
३८२. उवगरणोमोदरिया
पण्णत्ता, त जहातं
२२६
आचामक, सौवीरकं, शुद्धविकटम् ।
णिग्गंथ - चरिया-पदं
३८३. तओ ठाणा णिग्गंथाण वा णिग्गं थीण वा अहियाए असुभाए
पिण्डैषणा-पदम्
त्रिविधं उपहृतं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाफलिकोपहृतं शुद्धोपहृतं संसृष्टोपहृतम् ।
त्रिविधं अवगृहीतं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— यच्च अवगृहाति यच्च संहरति, यच्च आस्यके प्रक्षिपति ।
तिविहा
उपकरणावमोदरिका त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा— एकं वस्त्रं, एक पात्रं,
एगे वत्थे, एगे पाते, चियत्तोव हि - 'चियत्त' [ सम्मत ] उपधि-स्वादनम् ।
साइज्जणया ।
ओमोयरिया-पदं
अवमोदरिका-पदम्
अवमोदरिका-पद
३८१. तिविधा ओमोयरिया पण्णत्ता, तं त्रिविधा अवमोदरिका प्रज्ञप्ता, तद्यथा - ३८१. अवमोदरिका - कम करने की वृत्ति तीन
प्रकार की होती है
१. उपकरण अवमोदरिका,
उपकरणावमोदरिका, भक्तपानावमोदरिका, भावावमोदरिका ।
निर्ग्रन्थ-चर्या-पदम्
त्रीणि स्थानानि निर्ग्रन्थानां वा निर्गन्थीनां वा अहिताय अशुभाय
स्थान ३ : सूत्र ३७६-३८३
१. आयामक अवस्रावण - ओसामन | २. सौवीरक- कांजी,
३. शुद्धविकट — उष्णोदक |
पिण्डेषणा- पद
३७६. उपहृत भोजन तीन प्रकार का होता है१. फलिकोपहृत – खाने के लिए थाली आदि में परोसा हुआ भोजन - अवगृहीत नाम की पांचवीं पिण्डेषणा ।
२. शुद्धोपहृत – खाने के लिए साथ में
लाया हुआ लेप रहित भोजन - अल्पलेपा
नाम की चौथी पिण्डेषणा ।
३. संसृष्टोपहृत खाने के लिए हाथ में उठाया हुआ भोजन |
३८०. अवगृहीत भोजन तीन प्रकार का होता है१. परोसने के लिए उठाया हुआ,
२. परोसा हुआ, ३. पुनः पाक-पात्र के मुंह में डाला हुआ ।
२. भक्तपान अवमोदरिका,
३. भाव अवमोदरिका - क्रोध आदि का परित्याग ।
३८२. उपकरण अवमोदरिका तीन प्रकार की होती है-- १. एक वस्त्र रखना,
२. एक पात्र रखना,
३. सम्मत उपकरण रखना ।
निर्ग्रन्थ-चर्या - पद
३५३. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षम [ अनुपयुक्तता ],
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ठाणं (स्थान)
२३०
स्थान ३: सूत्र ३८४-३८८ अखमाए अणिस्सेसाए अणाणु- अक्षमाय अनिःश्रेयसाय अनानुगामि- अनिःश्रेयस् तथा अनानुगामिता [अशुभ गामियत्ताए भवंति, तं जहा- कत्वाय भवन्ति, तं जहा
बन्धन] के हेतु होते हैंकअणता, कक्करणता, कूजनता, 'कर्करणता', अपध्यानता। १. कूजनता-आर्त स्वर करना, अवज्झाणता।
२. कर्कणरता-परदोषोद्भावन के लिए प्रलाप करना,
३. अपध्यानता-अशुभ चिन्तन करना। ३८४. तओठाणा णिग्गंथाण वा णिग्गं- त्रीणि स्थानानि निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां ३८४. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए तीन
थीण वा हिताए सुहाए खमाए वा हिताय शुभाय क्षमाय निःश्रेयसाय स्थान हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस तथा णिस्सेसाए आणुगामिअत्ताए भवंति, आनुगामिकत्वाय भवन्ति, तद्यथा- आनुगामिता के हेतु होते हैं- १. अकूजनता, तं जहा—अकूअणता, अकूजनता, 'अकर्करणता', अनपध्यानता। २. अकर्करणता, ३. अनपध्यानता। अकक्करणता, अणवज्झाणता।
सल्ल-पदं शल्य-पदम्
शल्य-पद ३८५. तओ सल्ला पण्णत्ता, तं जहा- त्रीणि शल्यानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३८५. शल्य तीन प्रकार का है-१. माया शल्य, मायासल्ले, णियाणसल्ले, मिच्छा- मायाशल्यं, निदानशल्यं
२. निदान शल्य, ३. मिथ्यादर्शन शल्य । दसणसल्ले।
मिथ्यादर्शनशल्यम्।
तेउलेस्सा -पदं तेजोलेश्या-पदम्
तेजोलेश्या-पद ३८६. तिहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे त्रिभिः स्थानैः श्रमणः निर्ग्रन्थः संक्षिप्त- ३८६. तीन स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ संक्षिप्त की
संखित्तविउलतेउलेस्से भवति, तं विपुलतेजोलेश्यो भवति, तद्यथा- हुई विपुल तेजोलेश्या वाले होते हैंजहा_आयावणताए, खंतिखमाए, आतापनया, क्षान्तिक्षमया,
१. आतापना लेने से, अपाणगेणं तवोकम्मेणं । अपानकेन तपःकर्मणा।
२. क्रोधविजयी होने के कारण समर्थ होते हुए भी क्षमा करने से, ३. जल रहित तपस्या करने से।
भिक्खुपडिमा-पदं भिक्षुप्रतिमा-पदम्
भिक्षुप्रतिमा-पद ३८७. तिमासियं णं भिक्खुपडिम त्रिमासिकी भिक्षुप्रतिमा प्रतिपन्नस्य ३८७. त्रैमासिक भिक्षु प्रतिमा से प्रतिपन्न
पडिवण्णस्स अणगारस्स कप्पंति अनगारस्य कल्पते तिस्रः दत्तीः भोजनस्य अनगार भोजन और पानी की तीन दत्तियां तओ दत्तीओ भोअणस्स पडिगा- प्रतिग्रहीतु, तिस्रः पानकस्य। ले सकता है।
हेत्तए, तओ पाणगस्स। ३८८. एगरातियं भिक्खुपडिमं सम्मं एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमां सम्यग् अननु- ३८८. एक रात्रि की बारहवीं भिक्षु-प्रतिमा का
अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे पालयतः अनगारस्य इमानि त्रीणि सम्यग् अनुपालन नहीं करने वाले भिक्षु तओ ठाणा अहिताए असुभाए स्थानानि अहिताय अशुभाय अक्षमाय के लिए तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षम,
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ठाणं (स्थान)
rary अणिस्साए अणाणु - अनिःश्रेयसाय गामियत्ता भवंति तं जहाउम्मायं वा लभिज्जा, दीहालियं वा रोगातंक पाउणेज्जा, केवलीपण्णत्ताओ वा धम्माओ
भंसेज्जा ।
कम्मभूमी - पदं
३६०. जंबुद्दीवे दीवे तओ कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहाभर, एरवए, महा विदेहे । ३६१. एवं—घायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे जाव पुक्खरवर दीवडपच्चत्थिमद्धे ।
अणगारस्स
३८. एगरातियं भिक्खुपडिमं सम्मं एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमां सम्यग् अनुपालयतः अनगारस्य त्रीणि स्थानानि हिताय शुभाय क्षमाय निःश्रेयसाय आनुगामिकत्वाय भवन्ति, तद्यथा— अवधिज्ञानं वा तस्य समुत्पद्येत, मनःपर्यवज्ञानं वा तस्य समुत्पद्येत, केवल
अपामा तओ ठाणा हिताए सुभाए खमाए णिस्साए आणुगामियत्ताए
भवंति तं जहाओहिणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवणाणे वा से समुपज्जेज्जा' ज्ञानं वा तस्य समुत्पद्येत । केवलणाणे वा से समुपज्जेज्जा ।
दंसण-पदं
३२. तिविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा सम्मद्दंसणे, मिच्छद्दंसणे, सम्मामिच्छस ।
३६३. तिविहा रुई पण्णत्ता, तं जहा सम्मरुई, मिच्छरुई, सम्मामिच्छरुई ।
२३१
अनानुगामिकत्वाय
भवन्ति तद्यथा उन्मादं वा लभेत, दीर्घकालिकं वा रोगातंक प्राप्नुयात्, केवलिप्रज्ञप्तात् वा धर्मात् भ्रश्येत् ।
कर्मभूमि-पदम्
जम्बूद्वीपे द्वीपे तिस्रः कर्मभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— भरतं, ऐरवतं, महाविदेहः ।
एवम् – धातकीपण्डे द्वीपे पौरस्त्यार्धे यावत् पुष्करवरद्वीपार्धपाश्चात्यार्थे ।
दर्शन-पदम्
त्रिविधं दर्शनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथासम्यग्दर्शनं, मिथ्यादर्शनं,
सम्यग्मिथ्यादर्शनम् ।
त्रिविधा रुचिः प्रज्ञप्ताः, तद्यथासम्यगुरुचिः, मिथ्यारुचिः, सम्यग्मिथ्यारुचिः ।
स्थान ३ : सूत्र ३८६-३६३
तथा अनानुगामिता के हेतु
अनिःश्रेयस होते हैं
१. या तो वह उन्माद को प्राप्त हो जाता है, २. या लम्बी बीमारी या आतंक से ग्रसित हो जाता है ।
३. या केवलीप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है ।
३८९. एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा का सम्यग् अनुपालन करने वाले भिक्षु के लिए तीन स्थान हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस् तथा आनुगामिता के हेतु होते हैं१. या तो उसे अवधि ज्ञान प्राप्त हो जाता है,
२. या मनः पर्यव ज्ञान प्राप्त हो जाता है, ३. या केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
कर्मभूमिपद
३९०. जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में तीन कर्म - भूमियाँ हैं—
१. भरत, २. ऐरवत, ३. महाविदेह । ३६१. इसी प्रकार धातकीषंड के पूर्वार्ध और
पश्चिमार्ध तथा अर्धपुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में तीन-तीन कर्म भूमियाँ हैं ।
दर्शन-पद
३६२. दर्शन तीन प्रकार का होता है
१. सम्यग्दर्शन, २. मिथ्यादर्शन, ३. सम्यग् - मिथ्यादर्शन ।
३६३. रुचि तीन प्रकार की होती हैं
१. सम्यगुरुचि, २. मिथ्यारुचि, ३. सम्यग् - मिथ्यारुचि ।
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ठाणं (स्थान)
२३२
स्थान ३ : सूत्र ३६४-४००
पओग-पदं
प्रयोग-पदम् ३६४. तिविधे पओगे पण्णते, तं जहा- त्रिविधः प्रयोग: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
सम्मपओगे, मिच्छपओगे, सम्यक् प्रयोगः, मिथ्याप्रयोगः, सम्मामिच्छपओगे।
सम्यग्मिथ्याप्रयोगः ।
प्रयोग-पद ३६४. प्रयोग तीन प्रकार का होता है
१. सम्यग्प्रयोग, २. मिथ्याप्रयोग, ३. सम्यमिथ्याप्रयोग।
ववसाय-पदं व्यवसाय-पदम्
व्यवसाय-पद ३६५. तिविहे ववसाए पण्णते, तं जहा- त्रिविधः व्यवसायः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-- ३६५. व्यवसाय तीन प्रकार का होता है
धार्मिक: व्यवसायः, अधार्मिक: व्यवसायः, १. धार्मिक व्यवसाय, ववसाए, धम्मियाम्मिए ववसाए। धार्मिकाधार्मिक: व्यवसायः ।
२. अधार्मिक व्यवसाय,
३. धार्मिकाधार्मिक व्यवसाय । अहवा-तिविधे ववसाए पण्णत्ते, अथवा-त्रिविधः व्यवसायः प्रज्ञप्तः, अथवा व्यवसाय तीन प्रकार का होता तं जहातद्यथा-प्रत्यक्षः, प्रात्ययिकः,
है-१. प्रत्यक्ष, पच्चक्खे, पच्चइए, आणुगामिए। आनुगामिकः ।
२.प्रात्ययिक-व्यवहार प्रत्यक्ष,
३. आनुगामिक–आनुमानिक । अहवा.—तिविधे ववसाए पण्णत्ते, अथवा—त्रिविधः व्यवसायः प्रज्ञप्तः, । अथवा-व्यवसाय तीन प्रकार का होता तं जहा—इहलोइए, परलोइए, तद्यथा-ऐहलौकिकः, पारलौकिकः, । है-१. इहलौकिक, २. पारलौकिक, इहलोइय-परलोइए। ऐहलौकिक-पारलौकिकः।
३. इहलौकिक-पारलोकिक । ३६६. इहलोइए ववसाए तिविहे पण्णत्ते, ऐहलौकिको व्यवसाय: त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ३६६. इहलौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का होता तं जहा—लोइए, बेइए, सामइए। तद्यथा-लौकिकः, वैदिकः, सामयिकः। है-१. लौकिक, २. वैदिक,
३. सामयिक-श्रमणों का व्यवसाय । ३९७. लोइए ववसाए तिविधे पण्णत्ते, तं लौकिको व्यवसायः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ३६७. लौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का होता
जहा—अत्थे, धम्मे, कामे। तद्यथा अर्थः, धर्मः, कामः। है-१. अर्थ, २. धर्म, ३. काम। ३९८. वेइए ववसाए तिविधे पण्णत्ते, तं वैदिकः व्यवसायः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ३६८. वैदिक व्यवसाय तीन प्रकार का होता है
जहा—रिव्वेदे, जउव्वेदे, सामवेदे। तद्यथा—ऋग्वेदः, यजुर्वेदः, सामवेदः। १. ऋग्वेद, २. यजुर्वेद, ३. सामवेद । ३६६. सामइए ववसाए तिविधे पण्णते सामयिकः व्यवसाय: त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ३६६. सामयिक व्यवसाय तीन प्रकार का होता तं जहा
तद्यथा-ज्ञानं, दर्शन, चरित्रम। है-१. ज्ञान, २. दर्शन, ३. चरित्र । णाणे, दंसणे, चरिते।
अत्थजोणी-पदं अर्थयोनि-पदम्
अर्थयोनि-पद ४००.तिविधा अत्थजोणी पण्णत्ता, तं त्रिविधा अर्थयोनिः प्रज्ञप्ता:, तदयथा- ४००. अर्थयोनि [अर्थ प्राप्ति के उपाय] तीन जहा—सामे, दंडे, भेदे। साम, दण्डः, भेदः।
प्रकार की होती है१. साम, २. दण्ड, ३. भेद।
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ठाणं (स्थान)
पोग्गल - पदं
पुद्गल-पदम्
पुद्गल - पद
४०१. तिविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं त्रिविधाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— ४०१. पुद्गल तीन प्रकार के होते हैंप्रयोगपरिणताः, मिश्रपरिणताः, विस्रसापरिणताः ।
१. प्रयोग - परिणत - जीव के द्वारा गृहीत पुद्गल,
२. मिश्र - परिणत – जीव के प्रयोग तथा
स्वाभाविक रूप से परिणत पुद्गल,
३. विस्रसा - स्वभाव से परिणत पुद्गल ।
जहा -
पओगपरिणता, मीसापरिणता, बीससापरिणता ।
जरग - पदं
४०२. तिपतिट्टिया गरगा पण्णत्ता, तं जहा - पुढ विपतिद्विता, आगास - पतिद्विता, आयपट्टिया | गम-संग्रह-ववहाराणं पुढवि पइट्टिया, उज्जुसुतस्स आगास पतिट्ठिया, तिहं सद्दणयाणं आयपतिट्टिया ।
मिच्छत्त-पदं
४०३. तिविधे मिच्छते पण्णत्ते, तं जहा -- अकिरिया, अविणए, अण्णाणे ।
४०४. अकिरिया तिविधा पण्णत्ता, तं जहा—पओग किरिया, समुदाणकिरिया, अण्णाणकिरिया ।
४०५. पओगकिरिया तिविधा पण्णत्ता, तं जहा मणपओग किरिया,
२३३
नरक-पदम्
नरक - पद
त्रिप्रतिष्ठिताः नरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४०२. नरक विप्रतिष्ठित है"पृथिवीप्रतिष्ठिताः, आकाशप्रतिष्ठिताः, आत्मप्रतिष्ठिताः । नैगम-संग्रह-व्यवहाराणां पृथिवी - प्रतिष्ठिताः, ऋजुसूत्रस्य आकाशप्रतिष्ठिताः, त्रयाणां शब्दनयानां आत्मप्रतिष्ठिताः ।
अक्रिया त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाप्रयोगक्रिया, समुदानक्रिया, अज्ञानक्रिया ।
स्थान ३ : सूत्र ४०१-४०५
प्रयोगक्रिया त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा मनः प्रयोगक्रिया, वाक्प्रयोगक्रिया,
मिथ्यात्व-पदम्
मिथ्यात्व - पद
त्रिविधं मिथ्यात्वं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा — ४०३. मिथ्यात्व ? असमीचीनता - तीन अक्रिया, अविनयः, अज्ञानम् ।
प्रकार का होता है
१. अक्रिया - असमीचीनक्रिया,
२. अविनय - असमीचीन संबंध विच्छेद,
३. अज्ञान - असमीचीन ज्ञान ।
१. पृथ्वी प्रतिष्ठित, २. आकाश प्रतिष्ठित, ३. आत्म प्रतिष्ठित ।
नगम संग्रह तथा व्यवहार-नय की अपेक्षा पृथ्वी प्रतिष्ठित हैं
ऋजु सूत्रनय की अपेक्षा से वे आकाश प्रतिष्ठित
तीन शब्द-नयों की अपेक्षा से वे आत्मप्रतिष्ठित हैं ।
४०४. अक्रिया " तीन प्रकार की होती है
१. प्रयोगक्रिया — मन, वचन और काया की प्रवृत्ति,
२. समुदानक्रिया-कर्म पुद्गलों का आदान ३. अज्ञानक्रिया -- असम्यग्ज्ञान की, प्रवृत्ति ।
४०५. प्रयोग क्रिया तीन प्रकार की होती है१. मनप्रयोग क्रिया,
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ठाणं (स्थान)
२३४
asuओग किरिया, कायपओग काय प्रयोगक्रिया ।
किरिया ।
४०६. समुदाणकिरिया तिविधा पण्णत्ता, तं जहा - अनंतर समुदाण किरिया, परंपरसमुदाणकिरिया, तदुभयसमुदाण किरिया । ४०७. अण्णाण किरिया तिविधा पण्णत्ता, तं जहा— मतिअण्णाणकिरिया, सुतअण्णाण किरिया,
विभंगअण्णाण किरिया । ४०८. अविणए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा— सच्चाई, निरालंबणता, णाणापेज्जदोसे |
देसण्णाणे, सव्वण्णाणे,
भावण्णाणे ।
४०. अण्णाणे तिविधे पण्णत्ते, तं जहा अज्ञानं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथादेशाज्ञानं, सर्वाज्ञानं, भावाज्ञानं ।
धम्मपदं
४१०. तिविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा सुयधम्मे, चरितम्मे,
अस्थिकामे ।
स्थान ३ : सूत्र ४०६-४११
२. वचनप्रयोग क्रिया,
३. कायप्रयोग क्रिया ।
समुदानक्रिया त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ४०६. समुदान क्रिया तीन प्रकार की होती हैअनन्तरसमुदानक्रिया, परम्परसमुदानक्रिया,
१. अनन्तरसमुदान क्रिया,
२. परम्परसमुदान क्रिया,
तदुभयसमुदानक्रिया |
३. तदुभयसमुदान क्रिया ।
४०७. अज्ञान क्रिया तीन प्रकार की होती है
अज्ञान क्रिया त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा मत्यज्ञानक्रिया, श्रुताज्ञानक्रिया, विभङ्गाज्ञानक्रिया |
१. मतिअज्ञान क्रिया,
२. श्रुतअज्ञान क्रिया,
३. विभंगअज्ञान क्रिया ।
अविनयः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— देशत्यागी, निरालम्बनता, नानाप्रयोदोषः ।
धर्म-पदम्
त्रिविधः धर्मः प्रज्ञप्तः, तद्यथाश्रुतधर्मः चरित्रधर्मः अस्तिकायधर्मः ।
उवक्कम-पदं
उपक्रम-पदम्
४११. तिविधे उवक्कमे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः उपक्रमः प्रज्ञप्तः तद्यथा—
४०८. अविनय तीन प्रकार का होता है
१. देश त्याग - देश को छोड़कर चले जाना,
२. निरालम्बन - समाज से अलग हो
जाना,
३. नानाप्रेयोद्वेषी - प्रेम और द्वेष का नाना रूप से प्रयोग करना, प्रिय के साथ प्रेम और अप्रिय के साथ द्वेष—इस सामान्य नियम का अतिक्रमण करना । ४०६. अज्ञान तीन प्रकार का होता है
१. देश अज्ञान -- ज्ञातव्य वस्तु के किसी एक अंश को न जानना,
२. सर्व अज्ञान - ज्ञातव्य वस्तु को सर्वतः न जानना,
३. भाव अज्ञान - वस्तु के ज्ञातव्य पर्यायों को न जानना ।
धर्म-पद
४१०. धर्म तीन प्रकार का होता है
१. श्रुत-धर्म, २. चरित्र धर्म, ३. अस्तिकाय धर्म ।
उपक्रम पद
४११. उपक्रम [ उपायपूर्वक आरम्भ ] तीन
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ठाणं (स्थान)
२३५
स्थान ३ : सूत्र ४१२-४१८ धम्मिए उवक्कमे, अधम्मिए धार्मिकः उपक्रमः, अधार्मिक: उपक्रमः, प्रकार का होता हैउवक्कमे, धम्मियाधम्मिए उवक्कमे धार्मिकाधामिक: उपक्रमः ।
१. धार्मिक-संयम का उपक्रम, २. अधार्मिक-असंयम का उपक्रम, ३. धार्मिकाधार्मिक-संयम और असंयम
का उपक्रम। अहवा-तिविधे उवक्कमे पण्णत्त, अथवा–त्रिविध: उपक्रमः प्रज्ञप्तः । अथवा-उपक्रम तीन प्रकार का होता तं जहा—आओवक्कमे, तद्यथा-आत्मोपक्रमः, परोपक्रमः, है-१. आत्मोपक्रम-अपने लिए, परोवक्कमे, तदुभयोवक्कमे। तदुभयोपक्रमः ।
२. परोपक्रम-दूसरों के लिए,
३. तदुभयोपक्रम-दोनों के लिए। ४१२. 'तिविधे वेयावच्चे पण्णते, तं त्रिविधं वैयावृत्त्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ४१२. वैयावृत्त्य तीन प्रकार का होता हैजहा._आयवेयावच्चे, परवेयावच्चे, आत्मवैयावृत्त्यं, परवेयावृत्त्यं,
१. आत्म-बैयावृत्त्य, २. पर-वैयावृत्त्य, तदुभयवेयावच्चे। तदुभयवैयावृत्त्यम् ।
३. तदुभय वैयावृत्त्य। ४१३. तिविधे अणुग्गहे पण्णत्ते तं जहा- त्रिविधः अनुग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ४१३. अनुग्रह तीन प्रकार का होता है
आयअणुग्गहे, परअणुग्गहे, आत्मानुग्रहः, परानुग्रहः, तदुभयानुग्रहः। १. आत्मानुग्रह, २. परानुग्रह, तदुभयअणुग्गहे।
३. तदुभयानुग्रह । ४१४. तिविधा अणुसट्ठी पण्णत्ता, तं त्रिविधा अनु शिष्टि: प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ४१४. अनुशिष्टि तीन प्रकार की होती है
जहा....आयअणुसट्टी, परअणुसट्ठी, आत्मानुशिष्टिः, परानुशिष्टिः, १. आत्मानुशिष्टि, २. परानुशिष्टि, तदुभयअणुसष्टी। तदुभयानु शिष्टि: ।
३. तदुभयानुशिष्टि। ४१५. तिविधे उवालंभे पण्णत्ते तं जहा- त्रिविधः उपालम्भः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ४१५. उपालम्भ तीन प्रकार का होता हैआओवालंभे, परोवालंभे, आत्मोपालम्भः, परोपालम्भः,
१. आत्मोपालम्भ, २. परोपालम्भ, तदुभयोवालंभे । तदुभयोपालम्भः ।
३. तदुभयोपालम्भ।
तिवग्ग-पदं त्रिवर्ग-पदम्
त्रिवर्ग-पद ४१६. तिविहा कहा पण्णत्ता, तं जहा... त्रिविधा कथा प्रज्ञप्ता, तद्यथा... ४१६. कथा तीन प्रकार की होती हैअत्थकहा, धम्मकहा, कामकहा। अर्थकथा, धर्मकथा, कामकथा।
१.अर्थ कथा, २. धर्म कथा, ३. कामकथा। ४१७. तिविहे विणिच्छए पण्णते, तं त्रिविधः विनिश्चयः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ४१७. विनिश्चय तीन प्रकार का होता हैजहा_अत्यविणिच्छए, अर्थविनिश्चयः, धर्मविनिश्चयः,
१. अर्थ विनिश्चय, २. धर्म विनिश्चय, धम्मविणिच्छए, कामविणिच्छए। कामविनिश्चयः ।
३. काम विनिश्चय । ४१८. तहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं तथारूपं भदन्त ! श्रमणं वा माहनं वा ४१८. भन्ते! तथारूप श्रमण-माहन की
वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पर्युपासमानस्य किंफला पर्युपासना ? पर्युपासना करने का क्या फल है ? पज्जुवासणया? सवणफला। श्रवणफला।
आयुष्मन् ! उसका फल है धर्म का श्रवण। से णं भंते ! सवणे किंफले? तद् भदन्त ! श्रवणं किंफलम् ?
भंते ! श्रवण का क्या फल है ? णाणफले। ज्ञानफलम्।
आयुष्मन् ! थवण का फल है ज्ञान।
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ठाणं (स्थान)
२३६
से णं भंते! णाणे किंफले ?
तद् भदन्त ! ज्ञानं किंफलम् ? विज्ञानफलम् ।
विण्णाणफले ।
● से णं भंते ! विष्णाणे किंफले ? तद् भदन्त ! विज्ञानं किंफलम् ?
पचखाणफले ।
से णं भंते ! पच्चक्खाणे किंफले ? संजमफले ।
से णं भंते ! संजमे किंफले ?
से णं भंते! अणण्हए किफले ?
तवफले ।
से णं भंते! तवे किंफले ?
वोदाफले ।
से णं भंते! वोदाणे किफले ? अकिरियफले ।
पडिमा - पदं
४१६. पडिमाप डिवण्णस्स णं अणगारस्स कष्पति तओ उवस्सया पडिलेहित्तए, तं जहा -
अहे आगमण हिंसि वा
अहे विsहिंसि वा अहे मूल हंस वा ।
प्रत्याख्यानफलम् ।
तद् भदन्त ! प्रत्याख्यानं किफलम् ? संयमफलम् ।
स भदन्त ! संयमः ! किंफलः ? अनाश्रवफलः ।
स भदन्त ! अनाश्रवः किंफलः ?
तपः फलः ।
तद् भदन्त ! तपः किंफलम् ?
साणं भंते ! अकिरिया किफला ? सा भदन्त ! अक्रिया किंफला ?
णिवाणफला ।
निर्वाणफला ।
से णं भंते ! णिव्वाणे किफले ? सिद्धिगइ-गमण- पज्जवसाण - फले समणाउसो !
तद् भदन्त ! निर्वाणं किंफलम् ? सिद्धिगति-गमन - पर्यवसान- फलं आयुष्मन् ! श्रमण !
व्यवदानफलम् ।
तद् भदन्त ! व्यवदानं किंफलम् ? अक्रियाफलम् ।
उत्थो उद्देसी
प्रतिमा-पदम्
प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते त्रयः उपाश्रयाः प्रतिलेखितुम्, तद्यथाअधः आगमनगृहे वा अधः विकटगृहे वा
अधः रुक्षमुलगृहे वा ।
स्थान ३ : सूत्र ४१६-४२०
भंते! ज्ञान का क्या फल है ? आयुष्मन् ! ज्ञान का फल है विज्ञान । भंते! विज्ञान का क्या फल है ? आयुष्मन् ! विज्ञान का फल है प्रत्याख्यान । भंते! प्रत्याख्यान का क्या फल है ? आयुष्मन् ! प्रत्याख्यान का फल है। संयम भंते! संयम का क्या फल है ? आयुष्मन् ! संयम का फल है अनाश्रव - कर्म निरोध । भंते ! अनाश्रव का क्या फल है ! आयुष्मन् ! अनाश्रव का फल है तप । भंते! तप का क्या फल है ? आयुष्मन् ! तप का फल है व्यवदान - निर्जरा |
भते ! व्यवदान का क्या फल है ?
आयुष्मन् ! व्यवदान का फल है अक्रियामन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध |
भंते! अक्रिया का क्या फल है ?
आयुष्मन् ! अक्रिया का फल है निर्वाण । भंते! निर्वाण का क्या फल है ? आयुष्मन् ! श्रमणो ! निर्वाण का फल है सिद्धिगति गमन ।
प्रतिमा-पद
४१६. प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार तीन प्रकार के आवासों का प्रतिलेखन [गवेषणा] कर सकता है
१. आगमन गृह - सभा, पौ आदि में,
२. विवृतगृह - खुले घर में,
३. वृक्ष के नीचे ।'
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ठाणं (स्थान)
४२०. •पडिमा पडिवण्णस्स णं अणगारस्स
कप्पंति तओ उवस्सया अणुण्णवेत्तए, तं जहा
अहे आगमण िहंस वा
अहे विsहिंसि वा
भूलगिहंसि वा ।
अहे ४२१. पडिमा पडिवण्णस्स णं अणगारस्स कति त उवस्सया उवाइणित्तए, तं जहा - अहे आगमण गिहंसि वा, अहे विsहिंसि वा, अहे रुक्खमूलगिहंसि वा । ४२२. पडिमा डिवण्णस्स णं अणगारस्स कति त संथारा पडिले हित्तए,
तं जहा - पुढविसिला, कट्ठसिला, अहाथमेव ।
४२३. 'पडिमा पडिवण्णस्स णं अणगारस्स कति त संथारा अणुण्णवेत्तए तं जहा - पुढ विसिला, कट्ठसिला, अहाथमेव ।
४२४. पडिमा पडिवण्णस्स णं अणगारस्स कति त संथारा उवाइणित्तए, तं जहा - पुढ विसिला, कटुसिला, अहाथमेव ।
काल-पदं
४२५. तिविहेकाले पण्णत्ते, तं जहातीए, पपणे, अणाए ।
४२६. तिविहे समए पण्णत्ते, तं जहातीते, पप्पणे, अणागए। ४२७. एवं आवलिया आणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते अहोरते जाव वाससत
२३७
प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते त्रयः उपाश्रयाः अनुज्ञातुम्, तद्यथा
अधः आगमन गृहे वा,
अधः विकटगृहे वा
अधः रुक्षमूलगृहे वा । प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते त्रयः उपाश्रयाः उपादातुम्, तद्यथाअधः आगमनगृहे वा,
: विकटगृहे वा अधः रुक्षमुलगृहे बा ।
प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते ४२२. प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार तीन प्रकार के त्रीणि संस्तारकाणि प्रतिलेखितुम्, संस्तारकों का प्रतिलेपन कर सकता हैतद्यथा— पृथिवीशिला, काष्ठशिला, १. पृथ्वी शिला, यथासंस्तृतमेव ।
२. काष्ठ शिला - तख्ता आदि ।
काल-पदम्
त्रिविधः कालः प्रज्ञप्तः, तद्यथाअतीतः प्रत्युत्पन्नः, अनागतः ।
स्थान ३ : सूत्र ४२१-४२७ ४२० प्रतिमा- प्रतिपन्न अनगार तीन प्रकार के स्थानों की अनुज्ञा [ आज्ञा ] ले सकता है
त्रिविधः समयः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— अतीतः, प्रत्युत्पन्नः, अनागतः । एवम् आवलिका आनप्राणः स्तोकः लवः मुहूर्तः अहोरात्रः यावत् वर्षशत
प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते त्रीणि संस्तारकाणि अनुज्ञातुम्, तद्यथापृथिवीशिला, काष्ठशिला, यथासंस्तृतमेव ।
प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते त्रीणि संस्तारकाणि उपादातुम्, तद्यथापृथिवीशिला, काष्ठशिला, यथासंस्तृतमेव ।
१. आगमन गृह में, २. विवृत गृह में, ३. वृक्ष के नीचे ।
४२१. प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार तीन प्रकार के स्थानों में रह सकता है -
१. आगमन गृह में, २. विवृत गृह में, ३. वृक्ष के नीचे ।
३. यथा-संस्तृत - घास आदि । ४२३. प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार तीन प्रकार के संस्तारकों की अनुज्ञा ले सकता है१. पृथ्वी शिला, २. काष्ठ शिला, ३. यथा-संस्तृत ।
४२४. प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार तीन प्रकार के संस्तारकों का उपयोग कर सकता है१. पृथ्वी शिला, २. काष्ठ शिला, ३. यथा-संस्तृत ।
काल-पद
४२५. काल तीन प्रकार का होता है-
१. अतीत- भूतकाल,
२. प्रत्युत्पन्न - वर्तमान ।
३. अनागत- भविष्य । ४२६. समय तीन प्रकार का है
१. अतीत, २. प्रत्युत्पन्न, ३. अनागत । ४२७ इसी प्रकार आवलिका आन-प्राण स्तोक,
लव, मुहूर्त, अहोरात्र यावत् लाखवर्ष,
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ठाणं (स्थान)
सहस्से ओसप्पिणी ।
२३८
पुव्वंगे पुव्वे जाव सहस्रं पूर्वाङ्ग पूर्वः यावत् अवसर्पिणी |
४२८. तिविधे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते, तं जहा तीते, पडुप्पण्णे, अणागते ।
वयण-पदं
४२६. तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहाएगवणे, दुवयणे, बहुवयणे । अहवा - तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहाइथिवणे, पुंवणे, णपुंगवयणे । अहवा - तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा
तीतवणे, पडुप्पण्णवणे, अणागयवयणे ।
नाणादीनं पण्णवणा-सम्म पदं ४३०. तिविहा पण्णवणा पण्णत्ता, तं जहा णाणपण्णवणा, दंसणपण्णवणा, चरिसपण्णवणा । ४३१. तिविधे सम्मे पण्णत्ते, तं जहाणाणसम्मे, दंसणसम्मे, चरितसम्मे।
उवघात विसोहि पदं
४३२. तिविधे उवघाते पण्णत्ते, तं जहा— उग्गमोवघाते, उप्पायणोवघाते, एसणोवघाते ।
त्रिविधः पुद्गलपरिवर्त्तः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - अतीतः, प्रत्युत्पन्नः, अनागतः ।
वचन-पदम्
त्रिविधं वचनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— एकवचन, द्विवचनं, बहुवचनम् । अथवा त्रिविधं वचनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथास्त्रीवचनं, पुंवचनं, नपुंसकवचनम् ।
ज्ञानादीनां प्रज्ञापना सम्यक् पदम् त्रिविधा प्रज्ञापना प्रज्ञप्ता तद्यथा— ज्ञानप्रज्ञापना, दर्शनप्रज्ञापना, चरित्रप्रज्ञापना |
अथवा - त्रिविधं वचनं प्रज्ञप्तम् तद्यथाअतीतवचनं, प्रत्युत्पन्नवचनं, अनागतवचनम् ।
त्रिविधं सम्यक् प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— ज्ञानसम्यक्, दर्शनसम्यक्, चरित्रसम्यक् ।
उपघात- विशोधि-पदम्
त्रिविधः उपघातः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— उद्गमोपघातः, उत्पादनोपघातः, एषणोपघातः ।
४३३. "तिविधा विसोही पण्णत्ता, तं त्रिविधा विशोधिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा उद्गमविशोधिः, उत्पादन विशोधिः,
जहा — उग्गमविसोही,
उपायण विसोही, एसणाविसोही । एषणाविशोधिः ।
स्थान ३ : सूत्र ४२८-४३३
पूर्वांग, पूर्व यावत् अवसर्पिणी तीनतीन प्रकार की होती हैं।"
४२८. पुद्गल परिवर्त तीन प्रकार का है१. अतीत, २. प्रत्युत्पन्न, ३. अनागत ।
वचन-पद
४२६. वचन तीन प्रकार का होता है
१. एकवचन, २. द्विवचन, ३. बहुवचन । अथवा - वचन तीन प्रकार का होता है१. स्त्रीवचन, २. पुरुषवचन.
३. नपुंसकवचन ।
अथवा - वचन तीन प्रकार का होता है१. अतीतवचन, २. प्रत्युत्पन्नवचन,
३. अनागतवचन ।
ज्ञान आदि की प्रज्ञापना- सम्यक् पद ४३०. प्रज्ञापना तीन प्रकार की होती है
१. ज्ञान प्रज्ञापना, २. दर्शन प्रज्ञापना, ३. चरित्र प्रज्ञापना ।
४३१. सम्यक् तीन प्रकार का होता है१. ज्ञान- सम्यक्, २. दर्शन सम्यक्, ३. चरित्र सम्यक् ।
उपघात- विशोधि-पद
४३२. उपघात [ चरित्र की विराधना ] तीन प्रकार की होती है
१. उद्गम उपघात,
२. उत्पादन उपघात,
३. एपणा उपघात । ५
४३३. विशोधि तीन प्रकार की होती है --
१. उद्गम की विशोधि
२. उत्पादन की विशोधि
३. एषणा की विशोधि ।
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ठाणं (स्थान)
आराहणा-पदं
आराधना-पदम्
४३४. तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तं त्रिविधा आराधना प्रज्ञप्ता, तद्यथा— ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चरित्राराधना |
जहा णाणाराहणा, दंसणा राहणा, चरिताराहणा । ४३५. णाणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा — उक्कोसा, मज्झिमा,
जहणा ।
४३६. "दंसणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा— उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा ।
४३७. चरिताराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा — उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा ।
संकिलेस असंकिलेस -पदं
४३८. तिविधे संकिलेसे पण्णत्ते तं जहा — णाणसं किलेसे, दंसणसं किलेसे,
दंसण असं किले से
चरितअसंकिले से |
astra-आदि-पदं
४४०. तिविधे अतिक्कमे पण्णत्ते, तं जहा णाणअतिक्क मे, दंसणअतिक्कमे चरित्तअतिक्कमे । ४४१. तिविधे वइक्कमे पण्णत्ते, तं जहा— tereasarमे, दंसणवइक्कमे, aftaar |
२३६
संक्लेश-असंक्लेश-पदम्
त्रिविधः संक्लेशः प्रज्ञप्तः तद्यथा— ज्ञानसंक्लेशः, दर्शनसंक्लेशः, चरित्र संक्लेशः ।
चरितसं किले से ।
४३६. 'तिविधे असंकिलेसे पण्णत्ते, तं त्रिविधः असंक्लेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथाजाणा असं किले से ज्ञानासंवलेशः, दर्शनासंक्लेशः, चरित्रासंक्लेशः ।
४४२. तिविधे अइयारे पण्णत्ते, तं जहाअइयारे, दंसणअइयारे, चरितअइयारे ।
आराधना-पद
४३४. आराधना तीन प्रकार की होती है—
१. ज्ञान आराधना, २. दर्शन आराधना, ३. चरित्र आराधना |
ज्ञानाराधना त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा ४३५. ज्ञान आराधना तीन प्रकार की होती हैउत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या । ९. उत्कृष्ट, २. मध्यम, ३ जघन्य ।
दर्शनाराधना त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा – ४३६. दर्शन आराधना तीन प्रकार की होती है-उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या ।
१. उत्कृष्ट, २. मध्यम, ३ जघन्य ।
चरित्राराधना त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा— उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या ।
स्थान ३ : सूत्र ४३४-४४२
अतिक्रम-आदि-पदम्
त्रिविधः अतिक्रमः प्रज्ञप्तः, तद्यथाज्ञानातिक्रमः, दर्शनातिक्रमः, चरित्रातिक्रमः ।
त्रिविधः व्यतिक्रमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— ज्ञानव्यतिक्रमः, दर्शनव्यतिक्रमः, चरित्र व्यतिक्रमः ।
त्रिविधः अतिचारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— ज्ञानातिचारः, दर्शनातिचारः, चरित्रातिचारः ।
४३७. चरित्र आराधना तीन प्रकार की होती है - १. उत्कृष्ट, २. मध्यम, ३. जघन्य ।
संक्लेश- असंक्लेश- पद ४३८. संक्लेश" तीन प्रकार का होता है
१. ज्ञान संक्लेश, २. दर्शन संक्लेश, ३. चरित्र संक्लेश ।
४३६. असंक्लेश तीन प्रकार का होता है
१. ज्ञान असंक्लेश, २. दर्शन असंक्लेश, ३. चरित्र असंक्लेश ।
अतिक्रम आदि पद
४४०. अतिक्रम " तीन प्रकार का होता है
१. ज्ञान अतिक्रम, २. दर्शन अतिक्रम, ३. चरित्र अतिक्रम |
४४१. व्यतिक्रम" तीन प्रकार का होता हैं१. ज्ञान व्यतिक्रम, २. दर्शन व्यतिक्रम, ३. चरित्र व्यतिक्रम |
४४२. अतिचार " तीन प्रकार का होता है१. ज्ञान अतिचार, २. दर्शन अतिचार, ३. चरित्र अतिचार |
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ठाणं (स्थान)
२४०
स्थान ३: सूत्र ४४३-४४६ ४४३. तिविधे अणायारे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः अनाचार: प्रज्ञप्त:, तद्यथा- ४४३. अनाचार" तीन प्रकार का होता हैणाणअणायारे, दंसणअणायारे, ज्ञानानाचारः, दर्शनानाचारः,
१. ज्ञान अनाचार, २. दर्शन अनाचार, चरित्तअणायारे। चरित्रानाचारः।
३. चरित्र अनाचार। ४४४. तिहमतिकमाणं आलोएज्जा त्रीन् अतिक्रमान्—आलोचयेत् प्रति- ४४४. तीन प्रकार के अतिक्रमों की
पडिक्कमेज्जा णिदेज्जा गरहेज्जा क्रामेत् निन्देत् गहेंत व्यावर्तेत विशो- आलोचना करनी चाहिए 'विउद्देज्जा विसोहेज्जा धयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत यथार्ह । प्रतिक्रमण करना चाहिए अकरणयाए अन्शुट्ठज्जा प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्येत, तदयथा- निन्दा करनी चाहिए अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म° ज्ञानातिक्रम, दर्शनाति क्रम,
गर्दा करनी चाहिए पडिवज्जेज्जा, तं जहा- चरित्रातिक्रमम् ।
व्यावर्तन करना चाहिए णाणातिक्कमस्स, सणातिक्कमस्सा
विशोधि करनी चाहिए चरित्तातिक्कमस्स।
फिर वैसा नहीं करने का संकल्प करना चाहिए यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए१. ज्ञानातिक्रम की, २. दर्शनातिक्रम की,
३. चरित्रातिक्रम की। ४४५. तिण्हं वइक्कमाणं-आलोएज्जा त्रीन् व्यतिक्रमान्—आलोचयेत् प्रति- ४४५. तीन प्रकार के व्यतिक्रमों की
पडिक्कमेज्जा णिदेज्जा गरहेज्जा कामेत् निन्देत् गर्हेत व्यावर्तेत विशोधयेत् आलोचना करनी चाहिए विउदृज्जा विसोहेज्जा अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत यथार्ह प्रतिक्रमण करना चाहिए अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा
प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्येत, तद्यथा- निन्दा करनी चाहिए अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं ज्ञानव्यतिक्रम, दर्शनव्यतिक्रम, गर्दा करनी चाहिए पडिवज्जेज्जा, तं जहा- चरित्रव्यतिक्रमम्।
व्यावर्तन करना चाहिए णाणवइक्कमस्स, सणवइक्कमस्स,
विशोधि करनी चाहिए चरित्तवइक्कमस्स।
फिर वैसा न करने का संकल्प करना चाहिए यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए१. ज्ञान व्यतिक्रम की, २. दर्शन व्यतिक्रम की,
३. चरित्र व्यतिक्रम की। ४४६. तिहमतिचाराणं
त्रीन् अतिचारान्—आलोचयेत् प्रति- ४४६. तीन प्रकार के अतिचारों कीआलोएज्जा पडिक्कमेज्जा क्रामेत् निन्देत् गर्हेत व्यावर्तेत विशोधयेत् आलोचना करनी चाहिए णिदेज्जा गरहेज्जा
अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत यथार्ह प्राय- प्रतिक्रमण करना चाहिए विउट्टेज्जा विसोहेज्जा श्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्येत, तद्यथा- निन्दा करनी चाहिए अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा ज्ञानातिचारं, दर्शनातिचारं,
गर्दा करनी चाहिए
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ठाणं (स्थान)
२४१
स्थान ३ : सूत्र ४४७-४४६ अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं चरित्रातिचारम् ।
व्यावर्तन करना चाहिए पडिवज्जेज्जा, तं जहा
विशोधि करनी चाहिए णाणातिचारस्स, दंसणातिचारस्स
फिर वैसा नहीं करने का संकल्प करना चरित्तातिचारस्स।
चाहिए यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए१.ज्ञानातिचार की, २. दर्शनातिचार की,
३. चरित्रातिचार की। ४४७. तिण्हमणायाराणं
त्रीन् अनाचारान्—आलोचयेत् प्रति- ४४७. तीन प्रकार के अनाचारों कीआलोएज्जा पडिक्कमेज्जा कामेत् निन्देत् गर्हेत व्यावर्तेत विशो- आलोचना करनी चाहिए णिदेज्जा गरहेज्जा
धयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत यथार्ह प्रतिक्रमण करना चाहिए विउद्देज्जा पिसोहेज्जा प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्येत, तद्यथा- निन्दा करनी चाहिए अकरणयाए अन्भुट्टज्जा ज्ञान-अनाचार, दर्शन-अनाचारं, गर्दा करनी चाहिए अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं चरित्र-अनाचारम् ।
व्यावर्तन करना चाहिए पडिवज्जेज्जा, तं जहा
विशोधि करनी चाहिए णाण-अणायारस्स,
फिर वैसा नहीं करने का संकल्प करना दसण-अणायारस्स,
चाहिए चरित्त-अणायारस्स।
यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए१. ज्ञान अनाचार की, २. दर्शन अनाचार की, ३. चरित्र अनाचार की।
पायच्छित्त-पदं प्रायश्चित्त-पदम्
प्रायश्चित्त-पद ४४८. तिविधे पायच्छित्ते पष्णते, तं त्रिविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ४४८. प्रायश्चित्त तीन प्रकार का होता है
जहा—आलोयणारिहे, आलोचनाह, प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयाहम्। १. आलोचना के योग्य, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे।
२. प्रतिक्रमण के योग्य, ३. तदुभय योग्य ।
अकम्मभूमी-पदं अकर्मभूमि-पदम्
अकर्मभूमि-पद ४४६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ४४६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं तओ अकम्मभूमीओ तिस्रः अकर्मभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- भाग में तीन अकर्मभूमियां हैंपण्णताओ, तं जहा–हेमवते, हैमवतं, हरिवर्ष, देवकुरुः।
१. हैमवत, २. हरिवर्ष, ३. देवकुरु । हरिवासे, देवकुरा।
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ठाणं (स्थान)
२४२
स्थान ३ : सूत्र ४५०-४५५ ४५०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे ४५०. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के उत्तर
उत्तरे णं तओ अकम्मभूमीओ तिस्रः अकर्मभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- भाग में तीन अकर्मभूमियां हैंपण्णताओ, तं जहा.
उत्तरकुरुः, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतम् । १. उत्तरकुरु, २. रम्यक्वर्ष, उत्तरकुरा, रम्मगवासे, हेरण्णवए।
३. ऐरण्यवत।
वास-पद वर्ष-पदम्
वर्ष-पद ४५१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ४५१. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं तओ वासा पण्णत्ता, तं त्रीणि वर्षाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- भाग में तीन बर्ष हैंजहा-भरहे, हेमवए, हरिवासे। भरतं, हैमवतं , हरिवर्षम् ।
१. भरत, २. हैमवत, ३. हरिवर्ष। ४५२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे ४५२. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के उत्तर
उत्तरे णं तओ वासा पण्णत्ता, तं त्रीणि वर्षाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- भाग में तीन वर्ष हैं-१. रम्यक् वर्ष, जहा—रम्मगवासे, हेरण्णवासे, रम्यकवर्ष, हैरष्यवतं, ऐरवतम् । २. हैरण्यवत. २. ऐरवत । एरवए।
वासहरपव्वय-पदं वर्षधरपर्वत-पदम्
वर्षधरपर्वत-पद ४५३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ४५३. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं तओ वासहरपवता त्रयः वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- भाग में तीन वर्षधर पर्वत हैं-- पण्णत्ता, तं जहा
क्षुल्लहिमवान्, महाहिमवान्, निषधः। १. क्षुल्लहिमवान्, चुल्ल हिमवंते, महाहिमवंते,
२. महाहिमवान्, ३. निषध। णिसढे। ४५४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्य जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे ४५४. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के उत्तर
उत्तरे णं तओ वासहरपव्वता त्रयः वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- भाग में तीन वर्षधर पर्वत हैंपण्णत्ता, तं जहा—णीलवंते, नीलवान्, रुक्मी, शिखरी।
१. नीलवान्, २. रुक्मी, ३. शिखरी। रुप्पी, सिहरी।
महादह-पदं महाद्रह-पदम्
महाद्रह-पद ४५५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ४५५. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के दक्षिणदाहिणे णं तओ महादहा पण्णत्ता, त्रयः महाद्र हाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा
भाग में तीन महाद्रह हैं-१. पद्मद्रह, तं जहा..पउमदहे, महापउमदहे, पद्मद्रहः, महापद्मद्रः, तिगिञ्छद्रहः । २. महापद्मद्रह, ३. तिगिंछद्रह । तिगिछदहे। तत्थ णं तओ देवताओ महिड्डियाओ तत्र तिस्रः देवताः महर्धिकाः यावत् वहां पर महधिक [यावत् ] पल्योपम की जाव पलिओवमद्वितीयाओ पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, स्थितिवाली तीन देवियां परिवास करती परिवसंति, तं जहा—सिरी, हिरी, तद्यथा-श्रीः, ह्री:, धृतिः । हैं-१. श्री, २. ह्रो, ३. धृति। धिती।
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२४३
स्थान ३: सूत्र ४५६-४६१
ठाणं (स्थान) ४५६. एवं—उत्तरे णवि, णवरं
केसरिदहे, महापोंडरीयदहे, पोंडरीयदहे। देवताओ-कित्ती, बुद्धी, लच्छी।
एवम-उत्तरे अपि, नवरं-केशरीद्रहः, ४५६. इसी प्रकार-जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर. महापुण्डरीकद्रहः, पुण्डरीकद्रहः । पर्वत के उत्तर में तीन द्रह हैंदेवता—कीत्तिः, बुद्धिः, लक्ष्मीः । १. केशरी द्रह, २. महापुण्डरीक द्रह,
३. पुण्डरीक द्रह। यहां तीन देवियां हैं१. कीति, २. बुद्धि, ३. लक्ष्मी।
महाणदो-पदं महानदी-पदम्
महानदी-पद ४५७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ४५७. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं चुल्ल हिमवंताओ क्षुल्लहिमवतःवर्षधरपर्वतात् पद्मद्रहात् में क्षुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से पद्मद्रह वासधरपक्वताओ पउमदहाओ महाद्रहात् तिस्रः महानद्यः प्रवहन्ति, नाम के महाद्रह से तीन महानदियां प्रवामहादहाओ तओ महाणदीओ तद्यथा-गङ्गा, सिन्धः, रोहितांशा। हित होती हैं-- पवहंति, तं जहा
१. गंगा, २. सिंधु ३. रोहितांशा। गंगा, सिंधू, रोहितंसा। ४५८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे ४५८. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के उत्तर में
उत्तरेणं सिहरीओ वासहरपव्वताओ शिखरिणःवर्षधरपर्वतात् पुण्डरीकद्रहात् शिखरी वर्षधर पर्वत के पुण्डरीक महाद्रह पोंडरीयद्दहाओ महादहाओ तओ महाद्रहात् तिस्रः महानद्यः प्रवहन्ति, से तीन महानदियां प्रवाहित होती हैंमहाणदीओ पवहंति, तं जहा- तद्यथा-सुवर्णकूला, रक्ता, रक्तवती। १. सुवर्णकूला, २. रक्ता, ३. रक्तवती।
सुवण्णकूला, रत्ता, रत्तवत्ती। ४५६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये ४५६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के पश्चिम
पुरथिमे णं सीताए महाणदीए शीतायाः महानद्याः उत्तरे तिस्रः में सीता महानदी के उत्तर भाग में तीन उत्तरे णं तओ अंतरणदीओ अन्तरनद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
अन्तर्नदियां प्रवाहित होती हैंपण्णत्ताओ, तं जहा- ग्राहवती, द्रहवती, पंकवती।
१. ग्राहावती, २. द्रहवती, ३. पंकवती। गाहावती, दहवती, पंकवती। ४६०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये ४६०. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के पूर्व में
पुरस्थिमे णं सीताए महाणदीए शीतायाः महानद्याः दक्षिणे तिस्रः सीता महानदी के दक्षिण भाग में तीन दाहिणे णं तओ अंतरणदीओ अन्तर्नद्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा
अन्तर्नदियां प्रवाहित होती हैंपण्णत्ताओ, तं जहा
तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला। १. तप्तजला, २. मत्तजला, तत्तजला, मत्तजला, उम्मत्तजला।
३. उन्मत्तजला। ४६१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ४६१. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के पश्चिम
पच्चस्थिमे णं सीतोदाए महाणईए पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः दक्षिणे में सीतोदा महानदी के उत्तर भाग में तीन दाहिणे णं तओ अंतरणदीओ तिस्रः अन्तरनद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- अन्तर्नदियां प्रवाहित होती हैंपण्णत्ताओ, तं जहा.
क्षीरोदा, सिंहस्रोताः, अन्तर्वाहिनी। १. क्षीरोदा, २. सिंहस्रोता, खीरोदा, सीहसोता, अंतोवाहिणी।
३. अन्तर्वाहिनी।
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ठाणं (स्थान)
२४४
स्थान ३ : सूत्र ४६२-४६४ ४६२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ४६२. जम्बुद्वीप द्वीप के मन्दर-पर्वत के पश्चिम
पच्चत्थिमे णं सीतोदाए महा- पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्यः उत्तरे में सीतोदा महानदी के दक्षिण भाग में णदीए उत्तरेणं तओ अंतरणदीओ तिस्रः अन्तरनद्यः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- तीन अन्तर्नदियां प्रवाहित होती हैंपणत्ताओ, तं जहाउमिमालिनी, फेनमालिनी,
१. मिमालिनी, २. फेनमालिनी, उम्मिमालिणी, फेणमालिणी, गम्भीरमालिनी ।
३. गम्भीरमालिनी। गंभीरमालिणी।
धायइसंड-पुक्खरवर-पदं धातकीषण्ड-पुष्करवर-पदम् धातकीषण्ड-पुष्करवर-पद ४६३. एवं...धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धेवि एवम् धातकीषण्डे द्वीपे पौरस्त्यार्धेऽपि ४६३. इसी प्रकार-धातकीषण्ड तथा अर्ध
अकम्मभूमीओ आढवेत्ता जाव अकर्मभूमीः आदृत्य यावत् अन्तर्गद्य- पुष्करवर द्वीप के पूर्वाधं और पश्चिमार्ध अंतरणदीओत्ति गिरवसेसं इति निरवशेष भणितव्यम् यावत् में तीन अकर्मभूमि आदि [३।४४६-४६२ भाणियव्वं जाव पुक्खरवरदीवड्ड- पुष्करवरद्वीपार्धपाश्चात्याधं तथैव सूत्र तक] शेष सभी विषय वक्तव्य हैं। पच्चत्थिमद्धे तहेव गिरवसेसं निरवशेषं भणितव्यम् । भाणियव्वं ।
भूकंप-पदं भूकम्प-पदम्
भूकम्प-पद ४६४. तिहि ठाणेह देसे पुढवीए चलेज्जा, त्रिभिः स्थानः देशः पृथिव्याः चलेत्, ४६४. तीन कारणों से पृथ्वी का देश [एक भाग] तं जहातद्यथा
चलित [कम्पित] होता है१. अहे णं इमीसे रयणप्पभाए १. अधः अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः १. इस रत्नप्रभा नाम की पृथ्वी के निचले पुडवीए उराला पोग्गला उदाराःपुद्गलाः नियतेयुः। ततः उदारा:
भाग में स्वभाव-परिणत स्थूल पुद्गल णिवतेज्जा। तते णं उराला पुद्गलाः निपतन्तः देशं पृथिव्याः आकर टकराते हैं। उनके टकराने से पृथ्वी पोग्गला णिवतमाणा देसं पुढवीए चालयेयुः,
का देश चलित हो जाता है। चालेज्जा, २. महोरगे वा महिड्डीए जाव २. महोरगो वा महधिको यावत् २. महर्धिक, महाद्युति, महाबल तथा महेसक्खे इमीसे रयणप्पभाए महेशाख्यः अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः महानुभाग महेश नाम के महोरगपुढवीए अहे उम्मज्ज-णिमज्जियं अधः उन्मग्न-निमग्निकां कुर्वत् देशं । व्यंतर देव रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे करेमाणे देसं पुढवीए चालेज्जा, पृथिव्याः चालयेत्,
उन्मज्जन निमज्जन करता हुआ पृथ्वी के
देश को चलित कर देता है। ३. णागसुवणाण वा संगामंसि ३. नागसुपर्णाणां वा संग्रामे वर्तमाने ३. नाग और सुपर्ण [भवनवासी] देवों वट्टमाणंसि देसं [देसे ? ] पुढबीए देशः पृथिव्याः चलेत्
के बीच संग्राम हो जाने से पृथ्वी का देश चलेज्जा
चलित हो जाता हैइच्चेतेहि तिहि ठाणेहिं देसे इति एतैः त्रिभिः स्थानः देशः पृथिव्याः इन तीन कारणों से पृथ्वी का देश चलित पुढवीए चलेज्जा। चलेत् ।
होता है।
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ठाणं (स्थान)
२४५
स्थान ३ : सूत्र ४६५-४६६
४६५. तिहि ठाणेहि केवलकप्पा पुढवी त्रिभिः स्थानैः केवलकल्पा पृथिवी ४६५. तीन कारणों से केवल - कल्पा --- प्रायः प्रायः
चलेज्जा, तं जहा
चलेत्, तद्यथा—
सारी ही पृथ्वी चलित होती है
१. अधः अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घनवातः 'क्षुभ्येत्' । ततः स घनवातः 'क्षुब्ध' सन् घनोदधि एजयेत् । ततः स घनोदधिः एजितः सन् केवलकल्पां पृथिवीं चालयेत्,
१. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के निचले भाग में घनवात उद्वेलित हो जाता है । घनवात के उद्वेलित होने से घनोदधि कम्पित जाता है। घनोदधि के कम्पित होने पर केवल कल्पा पृथ्वी चलित हो जाती है।
१. अधे णं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाते गुप्पेज्जा । तए णं से घणवाते गुविते समाणे घणोदहिमेएज्जा । तए णं से ariant एइएसमा केवलकप्पं पुढवि चालेज्जा,
२. देवे वा महिड्डिए जाव महेसक्ख तहारुवस्स समणस्स माहणस्स वाइड जुति जसं बलं वीरियं पुरिसक्कार परक्कम उवदंसेमाणे hamari पुढव चालेज्जा,
३. देवासुरसंगा मंसि वा वट्टमाणंसि ३. देवासुरसंग्रामे वा वर्तमाने केवलकेवलकप्पा पुढवी चलेज्जा- कल्पा पृथिवी चलेत् —
२. देवो वा महर्षिको यावत् महेशाख्यः तथारूपस्य श्रमणस्य माहनस्य वा ऋद्धि द्युति यशः बलं वीर्य पुरुषकार-पराक्रमं उपदर्शयन् केवलकल्पां पृथिवीं चालयेत्,
इच्चे हि तिहि ठाणेह केवलकप्पा इति एतैः त्रिभिः स्थाने केवलकल्पा पुढवी चलेज्जा । पृथिवी चलेत् ।
देवकिल्बिषक-पदम्
देवfeoबसिय-पदं
४६६. तिविधा देवकिब्बिसिया पण्णत्ता, तं जहा — तिपलिओयमद्वितीया, तिसागरोवमद्वितीया, तेरससागरोवमद्वितीया ।
१. कहिं णं भंते! तिपलिओवमद्वितीया देवकिब्बिसिया
परिवसंति ?
उपि जोइसियाणं, हिट्ठिी सोहम्मीसासु कप्पेसु; एत्थ णं तिपलि - ओवमद्वितीया देवकब्बिसिया परिवसति ।
२. कहि णं भंते! तिसागरोवमद्वितीया
देवकिब्बिसिया
afafa fuक-पद
१. तीन पल्योपम की स्थिति वाले,
त्रिविधाः देवकिल्विषिकाः प्रज्ञप्ताः, ४६६ किल्बिषक देव तीन प्रकार के होते हैंतद्यथा— त्रिपल्योपमस्थितिकाः, त्रिसागरोपमस्थितिकाः, त्रयोदशसागरोपमस्थितिकाः ।
२. तीन सागरोपम की स्थिति वाले,
1
१. कुत्र भदन्त ! त्रिपल्योपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ?
३. तेरह सागरोपम की स्थिति वाले १. भन्ते ! तीन पल्योपम की स्थिति वाले किल्पक देव कहां परिवास करते हैं ?
उपरिज्योतिष्काणां, अधः सौधर्मशानानां कल्पानां; अत्र त्रिपल्योपमस्थितिका: देव किल्विषिकाः परिवसन्ति ।
२. कुत्र भदन्त ! स्थितिकाः
त्रिसागरोपमदेवकिल्विषिका:
२. कोई महद्धिक, महाद्युति, महाबल तथा महानुभाग महेश नामक देव तथारूप श्रमण-माहन को अपनी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार तथा पराक्रम का उपदर्शन करने के लिए केवल-कल्पा पृथ्वी को चलित कर देता है ।
३. देवों तथा असुरों के परस्पर संग्राम छिड़ जाने से केवल कल्पा पृथ्वी चलित हो जाती है
इन तीन कारणों से केवलकल्पा पृथ्वी चलित होती है।
आयुष्मन् ! ज्योतिषी देवों से ऊपर तथा सौधर्म और ईशान देवलोक से नीच, यहां तीन पल्योपम की स्थिति वाले किल्विपिक देव परिवास करते हैं ।
२. भन्ते ! तीन सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषक देव कहां परिवास
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स्थान ३ : सूत्र ४६७-४७१
ठाणं (स्थान)
२४६ परिवसंति ?
परिवसन्ति ? उप्पि सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं, उपरि सौधर्मेशानानां कल्पानां, अधः । हेट्ठि सणंकुमारमाहिदेसु कप्पेसु सनत्कुमारमाहेन्द्राणां कल्पानां, अत्र एत्थ णं तिसागरोवमद्वितीया त्रिसागरोपमस्थितिकाः देवकिल्बिषिका, देवकिब्बिसिया परिवसंति। परिवसन्ति ।
करते हैं ? आयुष्मन् ! सौधर्म और ईशान देवलोक से ऊपर तथा सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक से नीचे, यहां तीन सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव परिवास करते हैं। ३. भन्ते ! तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्बिषिक देव कहां परिवास करते
३. कहिं णं भंते ! तेरससागरोवम- ३. कुत्र भदन्त ! त्रयोदशसागरोपमद्वितीया देवकि ब्विसिया स्थितिकाः देवकिल्बिषिकाः परिवसन्ति? परिवसंति? उष्पि बंभलोगस्स कप्पस्स, हेट्ठि उपरि ब्रह्मलोकस्य कल्पस्य, अधः लंतगे कप्पे ; एत्थ णं तेरससागरो- लान्तकस्य कल्पस्य; अत्र त्रयोदशवमद्वितीया देवकि ब्बिसिया सागरोपमस्थितिकाः देवकिल्विपिकाः परिवसंति?
परिवसन्ति ।
आयुष्मन् ! ब्रह्मलोक देवलोक से ऊपर तथा लांतक देवलोक से नीचे, यहां तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव परिवास करते हैं।
देवठिति-पदं देवस्थिति-पदम
देवस्थिति-पद ४६७. सक्कस्स णं देविदस्स देवरगणो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देव राजस्य वाह्य- ४६७. देवेन्द्र देवराज शक्र के बाह्य परिषद् के
बाहिरपरिसाए देवाणं तिणि परिषदः देवानां त्रीणि पल्योपमानि देवों की स्थिति तीन पल्योपम की है।
पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ४६८. सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य आभ्यंतर- ४६८. देवेन्द्र देवराज शक्र के आभ्यन्तर परिषद
अब्भितरपरिसाए देवीणं तिणि परिषदः देवीनां त्रीणि पल्योपमानि की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता।
की है। ४६६. ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य बाह्य- ४६६. देवेन्द्र देवराज ईशान के वाह्य परिषद् की
बाहिरपरिसाए देवीणं तिण्णि परिषदः देवीनां त्रीणि पल्योपमानि देवियों की स्थिति तीन पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता।
पायच्छित्त-पदं प्रायश्चित्त-पदम्
प्रायश्चित्त-पद ४७०. तिविहे पायच्छित्ते पण्णते, त त्रिविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम, तदयथा-४७०. प्रायश्चित्त तीन प्रकार का होता हैजहाणाणपायच्छिते.
ज्ञानप्रायश्चित्तं, दर्शनप्रायश्चित्तं, १.ज्ञानप्रायश्चित्त, २. दर्शनप्रायश्चित्त, दसणपायच्छित्ते, चरित्रप्रायश्चित्तम् ।
३. चरित्रप्रायश्चित्त । चरित्तपायच्छित्ते। ४७१. तओ अणुग्घातिमा पण्णत्ता, तं त्रयः अनुद्घात्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४७१. तीन अनुदात्य [गुरु प्रायश्चित्त के
जहा-हत्थकम्मं करेमाणे, हस्तकर्म कुर्वन्, मैथुन सेवमानः, भागी होते हैं-१. हस्त कर्म करने वाला, मेहुणं सेवेमाणे, राईभोयणं रात्रिभोजनं भुजानः ।
२. मैथुन का सेवन करने वाला, भुंजमाणे।
३. रात्रि भोजन करने वाला।
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ठाणं (स्थान)
२४७
स्थान ३ : सूत्र ४७२-४७८ ४७२. तओ पारंचिता पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः पाराञ्चिताः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- ४७२. तीन पाराञ्चित [दशवें प्रायश्चित्त के
दुटू पारंचिते, पमत्ते पारंचिते, दृष्ट: पाराञ्चितः, प्रमत्तः पाराञ्चितः, भागी] होते हैं-१. दुष्टपाराञ्चित, अण्णमण्णं करेमाणे पारंचिते। अन्योन्यं कुर्वन् पाराञ्चितः ।
२. प्रमत्तपाराञ्चित-स्त्यानधि निद्रा वाला,
३. अन्योन्यमैथुन सेवन करने वाला। ४७३. तओ अवटुप्पा पण्णत्ता, तं जहा.-- त्रयः अनवस्थाप्या: प्रज्ञप्ताः, तदयथा- ४७३. तीन अनवस्थाप्य [नवें प्रायश्चित्त के
साहम्मियाणं तेणियं करेमाणे, सार्मिकाणां स्तन्यं कुर्वन्, अन्य- भागी] होते हैंअण्णधम्मियाणं तेणियं करेमाणे, धार्मिकाणां स्तन्यं कुर्वन्, हस्ततालं १. सामिकों की चोरी करने वाला, हत्थातालं दलयमाणे। ददत् ।
२. अन्यधार्मिकों की चोरी करने वाला, ३. हस्तताल देने वाला-मारक प्रहार करने वाला।
पव्वज्जादि-अजोग्ग-पदं प्रवज्यादि-अयोग्य-पदम्
प्रव्रज्या आदि-अयोग्य-पद ४७४. तओ णो कप्पंति पवावेत्तए, तं त्रयः नो कल्पन्ते प्रव्रजयितुम्, ४७४. तीन प्रव्रज्या के अयोग्य होते हैंजहा-पंडए, वातिए, कीवे। तद्यथा...पण्डकः, वातिकः, क्लीबः । १. नपुंसक,
२. वातिक-तीव्र वात रोगों से पीड़ित,
३. क्लीव-वीर्य-धारण में असक्त। ४७५. 'तओ णो कप्पंति -मुंडावित्तए त्रयः नो कल्पन्ते—मुण्डयितुं शिक्षयितुं ४७५. तीन-~-मुंडन, शिक्षण, उपस्थापन,
सिक्खावित्तए उवट्ठावेत्तए उपस्थापयितुं संभोजयितुं संवासयितुम्, संभोग और सहवास के अयोग्य होते हैंसंभुंजित्तए संवासित्तए, 'तं जहा- तद्यथा-पण्डकः, वातिकः, क्लीबः। १. नपुंसक, २. वातिक, ३. क्लीव । पंडए, वातिए, कोवे।
अवायणिज्ज-वायणिज्ज-पदं अवाचनीय वाचनीय-पदम् अवाचनीय-वाचनीय-पद ४७६. तओ अवायणिज्जा पण्णत्ता, तं त्रयः अवाचनीयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४७६. तीन वाचना देने [अध्यापन] के अयोग्य
जहा_अविणीए, विगतीपडिबद्धे, अविनीतः, विकृतिप्रतिबद्धः, अव्यव- होते हैं- १. अविनीत, अविओसवितपाहुडे। शमितत्राभृतः।
२. विकृति में प्रतिबद्ध-रसलोलुप, ३. अव्यवशमितप्राभृत-कलह को
उपशान्त न करने वाला। ४७७. तओ कप्पंति वाइत्तए, तं जहा- त्रयः कल्पन्ते वाचयितुम्, तद्यथा- ४७७. तीन वाचना के योग्य होते हैंविणीए, अविगतीपडिबद्धे, विनीतः, अविकृतिप्रतिबद्धः,
१. विनीत, २. विकृति में अप्रतिबद्ध, विओसवियपाहुडे। व्यवशमितप्राभृतः।
३. व्यवशमितप्राभृत।
दुसण्णप्प-सुसण्णप्प-पदं दुःसंज्ञाप्य-सुसंज्ञाप्य-पदम् दुःसंज्ञाप्य-सुसंज्ञाप्य-पद ४७८. तओ दुसण्णप्पा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः दुःसंज्ञाप्याः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- ४७८. तीन दुःसंज्ञाप्य-दुर्बोध्य होते हैं
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ठाणं (स्थान)
२४८
स्थान ३ : सूत्र ४७६-४८३ दुट्ठ , मूढे, वुग्गाहिते। दुष्टः, मूढः, व्युद्ग्राहितः।
१. दुष्ट, २. मूढ-गुण-दोष विवेकशून्य, ३. ब्युद्ग्राहित-कदाग्रही के द्वारा भड़
काया हुआ। ४७६. तओ सुसण्णप्पा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः सुसंज्ञाप्या: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४७६. तीन सुसंज्ञाप्य-सुबोध्य होते हैं
अदुट्ठ, अमूढे, अवुग्गाहिते। अदुष्टः, अमूढः, अव्युद्ग्राहितः । १. अदुष्ट, २. अमूढ, ३. अव्युद्ग्राहित ।
मंडलिय-पव्वय-पदं माण्डलिक-पर्वत-पदम्
माण्डलिक-पर्वत-पद ४८०. तओ मंडलिया पव्वता पण्णत्ता, तं त्रय माण्डलिकाः पर्वता: प्रज्ञप्ता:, ४८०. मांडलिक पर्वत तीन हैं
जहा—माणसुत्तरे, कुंडलवरे, तद्यथा—मानुषोत्तरः, कुण्डलवरः, १. मानुषोत्तर, २. कुण्डलवर, रुयगवरे। रुचकवरः।
३. रुचकवर।
महतिमहालय-पदं महामहत्-पदम्
महामहत-पद ४८१. तओ महतिमहालया पण्णत्ता, तं त्रयः महामहान्तः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- ४८१. तीन [अपनी-अपनी कोटि में] सबसे बड़े हैं
जहा-जंबुद्दीवए मंदरे मंदरेसु, जम्बूद्वीपगो मन्दरः मन्दरेषु, स्वयंभूरमण: १. मंदर पर्वतों में जम्बूद्वीप का मंदर-मेरु; सयंभूरमणे समुद्दे समुद्देसु, समुद्रः समुद्रेषु, ब्रह्मलोकः कल्पः । २. समुद्रों में स्वयंभूरमण, बंभलोए कप्पे कप्पेसु। कल्पेषु।
३. देवलोकों में ब्रह्मलोक।
कप्पठिति-पदं कल्पस्थिति-पदम्
कल्पस्थिति-पद ४८२.तिविधा कप्पठिती पण्णत्ता तं त्रिविधा कल्पस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-४८२. कल्पस्थिति [आचार-मर्यादा] तीन प्रकार जहा...सामाइयकप्पठिती, सामायिककल्पस्थितिः,
की होती है?-१. सामायिक कल्पस्थिति, छेदोवढावणियकप्पठिती, छेदोपस्थापनिककल्पस्थितिः,
२. छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति, णिव्विसमाणकप्पठिती। निविशमानकल्पस्थितिः ।
३. निविशमान कल्पस्थिति। अहवा–तिविहा कप्पद्विती अथवा त्रिविधा कल्पस्थितिः प्रज्ञप्ता, अथवा-कल्पस्थिति तीन प्रकार की पण्णता, तं जहा. तद्यथा-निविष्टकल्पस्थितिः,
होती है-१. निविष्ट कल्पस्थिति, णिविटुकप्पद्विती, जिणकप्पट्टिती, जिनकल्पस्थितिः, स्थविरकल्पस्थितिः । २.जिन कल्पस्थिति, थेरकप्पद्विती।
३. स्थविर कल्पस्थिति।
सरीर-पदं शरीर-पदम्
शरीर-पद ४८३. जरइयाणं तओ सरीरगा पण्णत्ता, नैरयिकाणां त्रीणि शरीरकाणि ४८३. नरयिकों के तीन शरीर होते हैंतं जहा
प्रज्ञप्तानि, तदयथा वैक्रियं, तैजसं. १. वैक्रिय-विविध क्रिया करने में समर्थवेउब्धिए, तेयए, कम्मए।
पुद्गलों से निष्पन्न शरीर, कर्मकम् ।
२. तेजस-जस-पुद्गलों से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर, ३. कार्मण-कर्म-पुद्गलों से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर।
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ठाणं (स्थान)
२४६
स्थान ३ : सूत्र ४८४-४६३ ४८४. असुरकुमाराणं तओ सरीरगा असुरकुमाराणां त्रीणि शरीरकाणि ४८४. असुरकुमारों के तीन शरीर होते हैं
पण्णता, तं जहावेउदिवए, प्रशप्तानि, तद्यथा—वैक्रियं, तैजसं, १. वैक्रिय, २. तेजस, ३. कार्मण । तेयए, कस्मए।
कर्मकम् । ४८५. एवं_सध्वेसि देवाणं। एवम्—सर्वेषां देवानाम् । ४८५. इसी प्रकार सभी देदों के ये तीन शरीर
होते हैं। ४८६. पुढविकाइमाणं तओ सरीरगा पृथिवीकायिकानां त्रीणि शरीरकाणि ४८६. पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते
पण्णता, तं जहा—ओरालिए, प्रज्ञप्तानि, तद्यथा—औदारिकं, तैजसं, हैं-१. औदारिक-स्थूल-पुद्गलों से तेयए, कम्मए। कर्मकम् ।
निष्पन्न अस्थिचर्ममय शरीर, २.तेजस,
३. कार्मण। ४८७. एवं—वाउकाइयवज्जाणं जाव एवम् वायुकायिकर्जानां यावत् ४८७. इसी प्रकार वायुकाय को छोड़कर चरिदियाणं । चतुरिन्द्रियाणाम् ।
चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीवों के तीन शरीर होते हैं।
पडिणीय-पदं प्रत्यनीक-पदम्
प्रत्यनीक-पद ४८८. गुरुं पडुच्च तओ परिणीया गुरुं प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, ४८८. गुरु की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीकर पण्णत्ता, तं जहातद्यथा_आचार्यप्रत्यनीकः,
[प्रतिकूल व्यवहार करने वाले होते आयरियपडिणीए,
उपाध्यायप्रत्यनीकः, स्थविरप्रत्यनीकः। हैं-१. आचार्य प्रत्यनीक, २. उपाध्याय उवज्कायपडिणीए, थेरपडिणीए।
प्रत्यनीक, ३. स्थविर प्रत्यनीक । ४८६. गति पञ्च्च तओ पडिणीया गति प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, ४८६. गति की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक होते पण्णत्ता, तं जहा- तद्यथा-इहलोकप्रत्यनीकः,
हैं-१. इहलोक प्रत्यनीक, २. परलोक इहलोगपडिणीए, परलोगपरिणीए, परलोकप्रत्यनीकः, द्वयलोकप्रत्यनीकः । प्रत्यनीक, ३. उभय प्रत्यनीक [इहलोक दुहओलोगपडिणीए।
और परलोक दोनों का प्रत्यनीक | ४६०. समूहं पडुच्च तओ परिणीया समूहं प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, ४६०. समूह की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक होते
पण्णता, तं जहा–कुलपडिणीए, तद्यथा—कुलप्रत्यनीकः, गणप्रत्यनीक:, हैं-१. कुल प्रत्यनीक २. गण प्रत्यनीक, गणपडिणीए, संघपडिपोए। संघप्रत्यनीकः ।
३. संघ प्रत्यनीक। ४६१. अणुकषं पडुच्च तओ पडिणीया अनुकम्पा प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीकाः ४६१. अनुकम्पा की दृष्टि से तीन प्रत्यनीक
पण्णत्ता, तं जहा—तवस्सिपडिणीए, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा तपस्विप्रत्यनोकः, होते हैं- १. तपस्वी प्रत्यनीक,
गिलाणपडिणीए, सेहपडिणीए। ग्लानप्रत्यनोकः, शैक्षप्रत्यनीकः । २. ग्लान प्रत्यनीक, ३. शैक्ष प्रत्यनीक । ४६२. भावं पडुच्च तओ पडिणीया भावं प्रतीत्य तत्रः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, ४६२. भाव की दृष्टि से तीन प्रत्यनीक होते हैं
पण्णता, तं जहा.—णाणपडिणीए, तद्यथा-ज्ञानप्रत्यनीकः, दर्शनप्रत्यनीकः, १. ज्ञान प्रत्यनीक, २. दर्शन प्रत्यनीक, दसणपडिणीए, चरित्तपडिगोए। चरित्रप्रत्यनीकः ।
३. चरित्र प्रत्यनीक। ४६३. सुयं पडुच्च तओ पडिणीया श्रुतं प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, ४६३. श्रुत की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक होते
पण्णत्ता, तं जहा—सुत्तपडिणीए, तद्यथा-सूत्रप्रत्यनीकः, अर्थप्रत्यनीकः, हैं-१. सूत्र प्रत्यनीक, २. अर्थ प्रत्यनीक, अत्थपडिणीए, तदुभयपडिणीए। तदुभयप्रत्यनीकः ।
३. तदुभय प्रत्यनीक।
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ठाणं (स्थान)
अङ्ग-पदम्
अङ्ग-पद
अंग-पदं ४४. तओ पितियंगा, पण्णत्ता, तं जहा—
त्रीणि पित्रङ्गानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - ४१४. तीन अंग पिता से प्राप्त [ वीर्य-परिणत ] अट्टी, अट्ठमिजा, समंसुरोमणहे । अस्थि, अस्थिमज्जा, होते हैं - १. अस्थि, २. मज्जा, ३. केश, दाढ़ी, रोम और नख ।
केशश्मश्रु रोमनखाः ।
त्रीणि मात्रङ्गानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-- ४६५. तीन अंग माता से प्राप्त [ रजः परिणत ] मांसं, शोणितं, मस्तुलिङ्गम् । होते हैं
१. मांस, २. शोणित, ३. मस्तिष्क ।
४६५. तओ माउयंगा पण्णत्ता, तं जहामंसे, सोणिते, मथुलिंगे ।
मणोरह-पदं
४९६. तिहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे
भवति, तं जहा
१. कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहिज्जिस्सामि ?
२. कया णं अहं एकल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरिस्सामि ?
३. कया
णं अहं अपच्छिम मारणं तियसंलेहणा - भूसणा-भूसिते भत्तपाणपडियाइ क्खिते पाओवगते कालं अणवकखमाणे विहरिस्सामि ?
एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणे निग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति ।
४६७. तिहि ठाणेहिं समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा -
१. कया णं अहं अप्पं वा बहुयं परिहं परिचस्सामि ? २. कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारितं पव्वइस्सामि ?
२५०
मनोरथ-पदम्
त्रिभिः स्थानैः श्रमणः निर्ग्रन्थः महानिर्जरः महापर्यवसानो भवति, तद्यथा
१. कदा अहं अल्पं वा बहुकं वा श्रुतं अध्येष्ये ?
२. कदा अहं उपसंपद्य विहरिष्यामि ?
एकलविहारप्रतिमां
३. कदा अहं अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना - जोषणा-जुष्टः भक्तपानप्रत्याख्यातः प्रायोपगतः कालं अनवकाङ्क्षन् विहरिष्यामि ?
एवं समनसा सवचसा सकायेन प्रकटयन् श्रमणः निर्ग्रन्थः महानिर्जर : महापर्य - वसानो भवति ।
त्रिभिः स्थानैः श्रमणोपासकः महानिर्जरः महापर्यवसानो भवति, तद्यथा
१. कदा अहं अल्पं वा बहुकं वा परिग्रहं परित्यक्षामि ?
२. कदा अहं मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यामि ?
स्थान ३ : सूत्र ४९४ -४६७
मनोरथ-पद
४९६. तीन स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा तथा महापर्यवसान" वाला होता है
१. कब मैं अल्प या बहुत श्रुत का अध्ययन करूंगा ?
२. कब मैं एकल विहार प्रतिमा का उपसंपादन कर विहार करूंगा ?
३. कब मैं अपश्चिम मारणांतिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर, भक्त पान का परित्याग कर, प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विहरण करूंगा ? इस प्रकार शोभन मन, वचन और काया से उक्तभावना व्यक्त करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ महानिर्जरा तथा महापर्यवसान वाला होता है।
४६७. तीन स्थानों से श्रमणोपासक महानिर्जरा तथा महापर्यवसान वाला होता है—
१. कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह का परित्याग करूंगा ?
२. कब मैं मुण्डित होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होऊंगा ।
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ठा (स्थान)
३. कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसंलेहणा - भूसणा-भूसिते भत्तपाणपडियाइ क्खिते पाओवगते कालं अणवकखमाणे विहरि - स्सामि ?
एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणोवासए महा - णिज्जरे महापज्जवसाणे भवति ।
पोग्गल पडघात - पदं ४६८. तिविहे पोग्गलपडिघाते पण्णत्ते, तं जहा - परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप पडिण्णिज्जा, लक्खत्ताए वा पहिण्णिज्जा, लोगते वा पहिण्णिज्जा ।
चक्खु पर्द
४६६. तिविहे चक्खू पण्णत्ते, तं जहाएगचक्खू, बिचक्खू, तिचक्खू । छउमत्थे णं मणुस्से एगचक्खू, देवे बिचक्खू,
तारूवे समणे वा माहणे वा उपण्णणाणदंसणधरे तिचक्खुत्ति वत्तव्वं सिया ।
२५१
३. कदा अहं अपश्चिममारणंतिकसंलेखना - जोषणा - जुष्टः भक्तपानप्रत्याख्यातः प्रायोपगतः कालं अनवकाङ्क्षन् विहरिष्यामि ?
एवं समनसा सवचसा सकायेन प्रकटयन् श्रमणोपासकः महानिर्जर : महापर्यंवसानो भवति ।
पुद्गलप्रतिघात-पदम्
त्रिविधः पुद्गलप्रतिघातः प्रज्ञप्तः तद्यथा— परमाणुपुद्गलः परमाणुपुद्गलं प्राप्य प्रतिहन्येत, रूक्षतया वा प्रतिहन्येत लोकान्ते वा प्रतिहन्येत ।
चक्षुः-पदम्
त्रिविधं चक्षुः प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— एकचक्षुः, द्विचक्षुः, त्रिचक्षुः । छद्मस्थः मनुष्यः एकचक्षुः, देवः द्विचक्षु, तथारूपः श्रमणो वा माहनो वा उत्पन्नज्ञानदर्शनधर: त्रिचक्षुः इति वक्तव्यं स्यात् ।
यदा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पद्यते, तत् तत्प्रथमतया ऊर्ध्वमभिसमेति,
ततः
स्थान ३ : सूत्र ४६८-५००
३. कब मैं अपश्चिम मारणांतिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर, भक्तपान का परित्याग कर, प्रायोपगमन अनशन कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विहरण करूंगा ?
इस प्रकार शोभन मन, वचन और काया से उक्त भावना करता हुआ श्रमणोपासक महानिर्जरा तथा महापर्यवसान वाला होता है।
पुद्गलप्रतिघात - पद
४६८. तीन कारणों से पुद्गल का प्रतिघात गतिस्खलन होता है
१. एक परमाणु पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गल से टकरा कर प्रतिहत हो जाता है, २. रूक्ष होकर प्रतिहत हो जाता है, ३. लोकांत तक जाकर प्रतिहत हो जाता है।
अभिसमागम-पदं
अभिसमागम-पदम्
अभिसमागम - पद
५००. तिविधे अभिसमागमे पण्णत्ते, तं त्रिविधः अभिसमागमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - ५००. अभिसमागम तीन प्रकार का होता है -
जहा -- उड्ड, अहं, तिरियं ।
ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक् ।
जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अतिसेसे णाणदंसणे समुपज्जति से णं तप्पढमताए
१. ऊर्ध्व, २. तिर्यक, ३. अधः । तथारूप श्रमण-माहन को जब अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त होता है तब वह पहले ऊर्ध्व लोक को जानता है, फिर तिर्यक
चक्षुः- पद
४१६. चक्षुष्मान तीन प्रकार के होते हैं
१. एक चक्षु, २. द्विचक्षु, ३. त्रि चक्षु । छद्मस्थ मनुष्य एक चक्षु होता है । देवता द्विचक्षु होते हैं। अतिशायी ज्ञान दर्शन को धारण करने वाला तथारूप श्रमण-माहन वि चक्षु होता है।
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स्थान ३: सूत्र ५०१-५०५
ठाणं (स्थान)
२५२ उडमभिसमेति, ततो तिरियं, तिर्यक्, ततः पश्चात् अधः । अधोलोकः ततो पच्छा अहे। अहोलोगे णं दुरभिगमः प्रज्ञप्तः आयुष्मन् ! श्रमण ! दुरभिगमे पण्णत्ते समणाउसो।
लोक को जानता है और उसके बाद अधोलोक को जानता है। आयुष्मन् श्रमणो ! अधोलोक सबसे अधिक दुरभिगम है।
इड्ढि -पदं ऋद्धि-पदम्
ऋद्धि-पद ५०१.तिविधा इड्री पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधा ऋद्धिः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५०१. ऋद्धि तीन प्रकार की होती हैदेविड्डी, राइड्डी, गणिड्डी। देवद्धि:, रायद्धि, गणिऋद्धिः । १. देवताओं की ऋद्धि, २. राजाओं की
ऋद्धि, ३. आचार्यों की ऋद्धि। ५०२. देविडी तिविहा पण्णता, तं जहा- देवद्धि: त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ५०२. देवताओं की ऋद्धि तीन प्रकार की होती
विमाणिड्डी, बिगुब्बणिड्डी, विमा द्धः, विकरणद्धिः, परिचारद्धिः । है-१. विमान ऋद्धि, २, दैक्रिय ऋद्धि, परियारणिड्डी।
३. परिचारण ऋद्धि। अहवा_देविडी तिविहा पण्णत्ता, अथवा_देवद्धिः त्रिविधा प्रज्ञप्ता, अथवा-देवताओं की ऋद्धि तीन प्रकार तं जहा–सचित्ता, अचित्ता, तद्यथा-सचित्ता अचित्ता मिश्रिता। की होती हैमीसिता।
१. सचित्त, २. अचित्त, ३. मिश्र। ५०३. राइट्टी तिविधा पण्णत्ता, तं जहा- राज्यद्धिः त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-- ५०३. राजाओं की ऋद्धि तीन प्रकार की होती रणो अतियाणिडी
राज्ञः अतिया द्ध:, राज्ञः निर्यादिः, है-१. अतियान ऋद्धि, २. निर्याण रण्णो णिज्जाणिड्डी, रण्णो बल- राज्ञः बल-वाहन-कोष-कोष्ठागारद्धिः। ऋषि", ३. सेना, वाहन, कोष और वाहण-कोस-कोट्ठागारिडी।
कोष्ठागार की ऋद्धि। अहवा–राइड्डी तिविहा पण्णता, अथवा राज्यद्धिः त्रिविधा प्रज्ञप्ता, अथवा-राजाओं की ऋद्धि तीन प्रकार तं जहा सचित्ता, अचित्ता, तदयथा-सचित्ता, अचित्ता, मिश्रिता। की होती हैमीसिता।
१. सचित्त, २. अचित्त, ३. मिश्र।
५०४. गणिड्डी तिविहा पण्णत्ता, तं गणिऋद्धिः त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ५०४. गणी की ऋद्धि तीन प्रकार की होती
जहा—णाणिड्डी, दंसणिड्डी, ज्ञानद्धिः, दर्शद्धिः, चरित्रद्धिः । है--१.ज्ञान की ऋद्धि,२. दर्शन की ऋद्धि, चरित्तिड्डी ।
३. चरित्र की ऋद्धि। अहवाग
हा पण्णत्ता, अथवा गणिऋद्धिः त्रिविधा प्रज्ञप्ता, अथवा-गणी की ऋद्धि तीन प्रकार की तं जहा—सचित्ता, अचित्ता, तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता, मिश्रिता। होती हैमीसिता।
१. सचित्त, २. अचित्त, ३. मिथ।
गारव-पदं गौरव-पदम्
गौरव-पद ५०५. तओ गारवा पण्णता, तं जहा- त्रीणि गौरवानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ५०५. गौरव तीन प्रकार का होता हैइड्रीगारवे, रसगारवे, सातागारवे। ऋद्धिगौरवं, रसगौरव, सातगौरवम् । १. ऋद्धि गौरव, २. रस गौरव, ३. सात
गौरव।
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ठाणं (स्थान)
करण-पदं
५०६. तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहाafter करणे, अम्मिए करणे, धमियाधम्मिए करणे |
सुक्खायधम्मपदं
५०७. तिविहे भगवता धम्मे पण्णत्ते, तं जहा— सुअधिज्झिते, सुज्झाइते, सुवसिते ।
जया सुअधिज्झितं भवति तदा सुज्झाइतं भवति,
जया सुज्झाइतं भवति तदा सुतवस्तिं भवति,
से सुअधिज्झिते सुज्झाइते सुतवस्तेि सुयक्खाते णं भगवता धम्पते ।
जहा - जाणू, अजाणू, वितिविच्छा ।
५१०. तिविधा परियावज्जणा पण्णत्ता,
तं जहा - जाणू, अजाण, वितिगिच्छा ।"
अंत-पदं
५११. तिविधे अंते पण्णत्ते, तं जहालोगते, वेयंते, समयंते ।
२५३
करण-पदम्
त्रिविधं करणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाधार्मिक करणं, अधार्मिकं करणं, धार्मिकाधार्मिकं करणम् ।
स्वाख्यातधर्म-पदम्
त्रिविधः भगवता धर्मः प्रज्ञप्तः तद्यथा स्वधीतं सुध्यातं सुतपस्थितम् ।
यदा स्वधीतं भवति तदा सुध्यातं भवति,
यदा सुध्यातं भवति तदा सुतपस्थितं भवति,
स स्वधीत सुध्यातः सुतपस्थितः स्वाख्यातः भगवता धर्मः प्रज्ञप्तः ।
जाणु-अजाणु-पद
ज्ञ-अज्ञ-पदम्
ज्ञ-अज्ञ-पद
५०८. तिविधा वावती पण्णत्ता, तं त्रिविधा व्यावृत्तिः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - ५०८. व्यावृत्ति [ निवृत्ति ] तीन प्रकार की होती ज्ञा, अज्ञा, विचिकित्सा । २. अज्ञानपूर्वक,
हैं - १. ज्ञानपूर्वक,
३. विचिकित्सापूर्वक ।
५०६. • तिविषा अज्झोववज्जणा पण्णत्ता, त्रिविधा अध्युपपादना प्रज्ञप्ता, तद्यथा— ५०६. अध्युपपादन [विषयासवित ] तीन प्रकार ज्ञा, अज्ञा, विचिकित्सा ।
तं जहा जाणू अजाण, वितिगिच्छा ।
का होता है - १. ज्ञानपूर्वक, २. अज्ञानपूर्वक, ३. विचिकित्सापूर्वक |
त्रिविधा पर्यापादना प्रज्ञप्ता, तद्यथा - ५१०. पर्यापादन] [ विषय सेवन ] तीन प्रकार का ज्ञा, अज्ञा, विचिकित्सा । होता है -- १. ज्ञानपूर्वक, २. अज्ञानपूर्वक, ३. विचिकित्सापूर्वक ।
अन्त-पदम्
त्रिविधः ग्रन्तः, प्रज्ञप्तः, तद्यथालोकान्तः, वेदान्तः, समयान्तः ।
स्थान ३ : सूत्र ५०६-५११
करण-पद
५०६. करण [ अनुष्ठान ] तीन प्रकार का होता है - धार्मिक करण, २. अधार्मिक करण, ३. धार्मिकाधार्मिक करण ।
स्वाख्यातधर्म-पद
५०७. भगवान् ने तीन प्रकार का धर्म प्ररूपित किया है - १. सु-अधीत, २. सु-ध्यात, ३. सु-तपस्थित - सु आचरित । जब धर्म सु-अधीत होता है तब वह सुध्यात होता है।
जब सुध्यात होता है तब सु-तपस्थित होता है ।
सु-अधीत सुध्यात और सु-तपस्थित धर्म की भगवान् ने प्रज्ञापना की है यही स्वाख्यात धर्म है ।"
अन्त- पद
५११ अन्त [ निर्णय ] तीन प्रकार का होता है१. लोकान्त - लौकिक शास्त्रों का निर्णय, २. वेदान्त -- वैदिक शास्त्रों का निर्णय, ३. समयान्त - श्रमण शास्त्रों का निर्णय ।
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ठाणं (स्थान)
२५४
स्थान ३ : सूत्र ५१२-५१८
जिन-पदम्
जिण-पदं
जिन-पद ५१२. तओ जिणा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः जिनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५१२. जिन तीन प्रकार के होते हैं
ओहिणाणजिणे, मणपज्जवणाण- अवधिज्ञानजिन:, मन:पर्यवज्ञानजिनः, १. अवधिज्ञानी जिन, जिणे, केवलणाणजिणे। केवलज्ञानजिनः।
२. मनःपर्यवज्ञानी जिन,
३. केवलज्ञानी जिन। ५१३. तओ केवली पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः केवलिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाओहिणाणकेवली,
अवधिज्ञान केवली. मनःपर्यवज्ञानकेवली. १. अवधिज्ञानी केवली, मणपज्जवणाणकेवली, केवलज्ञानकेवली।
२. मनःपर्यवज्ञानी केवली, केवलणाणकेवली।
३. केवलज्ञानी केवली। ५१४. तओ अरहा पण्णत्ता, तं जहा- त्रयः अर्हन्तः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५१४. अर्हन्त तीन प्रकार के होते हैंओहिणाणअरहा,
अवधिज्ञानाह, मनःपर्यवज्ञानाह, १. अवधिज्ञानी अर्हन्त, मणपज्जवणाणअरहा, केवलज्ञानाहम्।
२. मनःपर्यवज्ञानी अर्हन्त, केवलणाणअरहा।
४. केवलज्ञानी अर्हन्त।
लेसा-पदं लेश्या-पदम्
लेश्या -पद ५१५. तओ लेसाओ दुब्भिगंधाओ तिस्रः लेश्याः दुरभिगन्धाः प्रज्ञप्ताः, ५१५. तीन लेश्याएं दुरभि गंध वाली हैं
पण्णत्ताओ, तं जहा—कण्हलेसा, तद्यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, णीललेसा, काउलेसा। कापोतलेश्या।
३. कापोतलेश्या। ५१६. तओ लेसाओ सुब्भिगंधाओ तिस्रः लेश्याः सुरभिगन्धाः प्रज्ञप्ताः, ५१६. तीन लेश्याएं सुरभि गंध वाली हैं
पण्णत्ताओ, तं जहा तेउलेसा, तद्यथा तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ल- १. तेजोलेश्या, २. पद्मलेश्या, पम्हलेसा, सुक्कलेसा। लेश्या।
३. शुक्ललेश्या। ५१७. 'तओ लेसाओतिस्रः लेश्याः
५१७. तीन लेश्याएंदोग्गतिगामिणीओ, संकिलिट्टाओ, दुर्गतिगामिन्यः, संलिक्ष्टाः, अमनोज्ञाः, दुर्गतिगामिनी, संक्लिष्ट, अमनोज्ञ, अमणुण्णाओ, अविसुद्धाओ, अप्प- अविशुद्धाः, अप्रशस्ताः, शीत-रूक्षाः अविशुद्ध, अप्रशस्त, शीत-रूक्ष हैंसत्थाओ, सीत-लुक्खाओ पण्णत्ताओ, प्रज्ञप्ताः, तद्यथातं जहा—कण्हलेसा, णीललेसा, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या। १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, काउलेसा।
३. कापोतलेश्या। ५१८. तओ लेसाओतिस्रः लेश्या:
५१८. तीन लेश्याएंसोगतिगामिणीओ, असंकिलिट्ठाओ, सुगतिगामिन्यः, असंक्लिष्टाः, मनोज्ञाः सुगतिगामिनी, असंक्लिष्ट, मनोज्ञ, मणुण्णाओ, विसुद्धाओ, पसत्थाओ, विशुद्धाः, प्रशस्ताः
विशुद्ध, प्रशस्त, स्निग्ध-उष्ण हैंणिद्धण्हाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- स्निग्धोष्णाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथातेउलेसा पम्हलेसा, सुक्कलेसा तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या । १. तेजोलेश्या, २. पद्मलेश्या,
३. शुक्ललेश्या।
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ठाणं (स्थान)
२५५
स्थान ३ : सूत्र ५१६-५२३
मरण-पदं मरण-पदम्
मरण-पद ५१६. तिबिहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधं मरणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ५१६. मरण तीन प्रकार का होता हैबालमरणे, पंडियमरणे, बालमरणं, पण्डितमरणं,
१. बाल-मरण-असंयमी का मरण, बालपंडियमरणे। बालपण्डितमरणं।
२. पंडित-मरण-संयमी का मरण, ३. बाल-पंडित-मरण-संयमासंयमी का
मरण। ५२०. बालमरण तिविहे पण्णत्ते, तं बालमरणं त्रिविध प्रज्ञप्तम, तदयथा_ ५२०. बाल-मरण तीन प्रकार का होता हैजहा—ठितलेस्से, संकिलिट्ठलेस्से, स्थितलेश्य, संक्लिष्टलेश्य,
१. स्थितलेश्य, २. संक्लिष्टलेश्य, पज्जवजातलेस्से। पर्यवजातलेश्यम् ।
३. पर्यवजातलेश्य। ५२१. पंडियमरणे तिविहे पण्णत्ते, तं पण्डितमरणं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-५२१. पंडित-मरण तीन प्रकार का होता हैजहा–ठितलेस्से, असं किलिट्ठलेस्से, स्थित लेश्यं, असंक्लिष्टलेश्य,
१. स्थितलेश्य-स्थिर विशुद्ध लेश्या पज्जवजातलेस्से। पर्यवजातलेश्यम् ।
वाला । २. असंक्लिष्टलेश्य, ३. पर्यवजातलेश्य-प्रवर्धमान विशुद्ध
लेश्या वाला। ५२२. बालपंडियमरणे तिविहे पण्णत्ते, बालपण्डितमरणं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, ५२२. बाल-पंडित-मरण तीन प्रकार का होता
तं जहा-ठितलेस्से, तद्यथा-स्थितलेश्यं, असंक्लिष्टलेश्य, है-१. स्थितलेश्य-स्थिर लेश्या वाला, असंकिलिट्ठलेस्से, अपर्यवजातलेश्यम्।
२. असंक्लिष्टलेश्य, अपज्जवजातलेस्से।
६. अपर्यवजातलेश्य ।
असद्दहंतस्स पराभव-पदं अश्रद्दधानस्य पराभव-पदम् अश्रद्धावान् का पराभव ५२३. तओ ठाणा अव्ववसितस्स अहिताए त्रीणि स्थानानि अव्यवसितस्य अहिताय ५२३. अव्यवसित (अश्रद्धावान) निम्रन्थ के
असुभाए अखमाए अणिस्सेसाए अशुभाय अक्षमाय अनिःश्रेयसाय लिए तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षम, अणाणुगामियत्ताए भवंति तं अनानुगामिकत्वाय भवंति, तद्यथा- अनिःश्रेयस और अनानुगामिता के हेतु जहा
होते हैं१. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ १. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां । १. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे प्रवजित: नैर्ग्रन्थे प्रवचने शङ्कितः धर्म में प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन में संकिते कंखिते वितिगिच्छिते काइक्षितः विचिकित्सितः भेदसमापन्न: शकित, कांक्षित, विचिकित्सिक", भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे कलुषसमापन्न: नैर्ग्रन्थं प्रवचनं नो भेदसमापन्न०६ और कलुषसमापन्न"" णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो श्रद्धत्ते नो प्रत्येति नो रोचयति, तं होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा नहीं पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा परीषहाः अभियुज्य-अभियुज्य अभि- करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति, भवन्ति, नो स परीषहान् अभियुज्य- करता। उसे परीषह जूझ-जूझ कर णो से परिस्सहे अभिजंजिय- अभियुज्य अभिभवति।
अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझअभिमुंजिय अभिभवइ।
जूझ कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता।
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२५६
स्थान ३: सूत्र ५२४
ठाणं (स्थान)
२. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ २. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां । अणगारितं पव्वइए पंचहिं महन्द- प्रवजितः प्रञ्चसु महाव्रतेषु शङ्कितः । एहि संकिते कंखिते वितिगिच्छिते काङ्कित: विचिकित्सितः भेदसमापन्न: भेदसमावणे कलुससमावण्णे पंच कलुषसमापन्नः पञ्चमहाव्रतानि नो महव्वताई णो सद्दहति यो पत्ति- श्रद्धत्ते नो प्रत्येति नो रोचयति, तं यति णो रोएति, तं परित्सहा परीषहाः अभियुज्य-अभियुज्य अभिअभिमुंजिय-अभिजुजिय अभि- भवन्ति, नो स परीषहान् अभियुज्यभवंति, णो से परिस्सहे अभि- अभियुज्य अभिभवति। जुजिय-अभिजंजिय अभिभवति । ३. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ ३. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणि- प्रव्रजित: षट्सु जीवनिकायेषु शङ्कितः काएहिं 'संकिते कंखिते विति- काङ्कितः विचिकित्सितः भेदसमापन्न: गिच्छिते भेदसमावण्णे कलुस- कलुषसमापन्नः षड्जीवनिकायान् नो समावण्णे छ जीवणिकाए णो श्रद्धत्ते नो प्रत्येति नो रोचयति, तं सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, परीषहाः अभियुज्य-अभियुज्य अभितं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभि- भवन्ति, नो स परीषहान् अभियुज्यमुंजिय अभिभवंति, णो से परि- अभियुज्य अभिभवति । स्सहे अभिमुंजिय - अभिमुंजिय अभिभवइ।
२. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर पांच महाव्रतों में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सिक, भेद समापन्न और कलुष समापन्न होकर पांच महाव्रतों पर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता। उसे परीषह जूझ-जूझकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझ-जूझकर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता। ३. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर छ: जीव निकाय में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर छ: जीव निकाय पर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता। उसे परीषह जूझ-जूझ कर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता।
सद्दहंतस्स-विजय-पदं श्रद्दधानस्य विजय-पदम्
श्रद्धावान् की विजय ५२४. तओ ठाणा ववसियस्स हिताए त्रीणि स्थानानि व्यवसितस्य हिताय ५२४. व्यवस्थित निर्ग्रन्थ के लिए तीन स्थान
'सुभाए खमाए णिस्साए शुभाय क्षमाय निःश्रेयसाय आनुगामि- हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा- कत्वाय भवन्ति, तद्यथा
अनुगामिता के हेतु होते हैं१. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ १. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां १. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार अणगारियं पव्वइए णिगंथे प्रबजित: नैर्ग्रन्थे प्रवचने निःशङ्कितः धर्म में प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में पावयणे हिस्संकिते 'णिवखिते निष्काक्षित: निविचिकित्सितः नो निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सित, णिदिवतिगिच्छिते णो भेदसमावणे भेदसमापन्नः नो कलुषसमापन्नः नैर्ग्रन्थं अभेदसमापन और अकलुषसमापन्न होकर णो कलुससमावण्णे जिग्गंथ प्रवचनं श्रद्धत्ते प्रत्येति रोचयति, स निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति पाक्यणं सद्दहति पत्तियति रोएति, परीषहान् अभियुज्य-अभियुज्य अभि- करता है, रुचि करता है। वह परीषहों से से परिस्सहे अभिमुंजिय- भवति, नो तं परीषहाः अभियुज्य- जूझ-जूझकर उन्हें अभिभूत कर देता है, अभिजुजिय अभिभवति, णो तं अभियुज्य अभिभवन्ति ।
उसे परीषह जूझ-जूझकर अभिभूत नहीं परिस्सहाअभिमुंजिय-अभिजुजिय
कर पाते। अभिभवंति।
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ठाणं (स्थान)
२. से णं मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचहि महत्वहिं णिस्सकिए णिक्कंखिए ● णिव्विति गिच्छिते णो भेदसमा वण्णे णो कलुससमावण्णे पंच महव्वताइं सद्दहति पत्तियति ति से परि अभिजुंजियअभिजुंजिय अभिभवइ, जो तं परिस्सहा अभिजुंजिय- अभिजुंजिय अभिभवंति ।
३. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाहिं णिस्संकिते • णिक्कंखिते निव्विति गिच्छिते णो भेदसमा वणे णो कलुससमावणे छ जीवfuary सद्दहति पत्तियति रोएति, से परिस्सहे अभिजुंजियअभिजुंजिय अभिभवंति । णो तं परिसहा अभिजुंजिय- अभिजुंजिय अभिभवति ।
पुढवी- वलय-पदं
५२५. एगमेगाणं पुढवी तिहि वलएहि सबओ समता संपरिक्खित्ता, तं जहा - घणोदधिवलएणं,
२५७
कलुष
२. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः सन् पञ्चसु महाव्रतेषु निःशङ्कितः निष्काङ्क्षितः निर्विचिकित्सितः नो भेदसमापन्नः नो समापन्नः पञ्च महाव्रतानि श्रद्धत्ते प्रत्येति रोचयति, स परीषहान् अभियुज्य अभियुज्य अभिभवति, नो तं परीषहाः अभियुज्य अभियुज्य अभिभवन्ति ।
३. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः षट्सु afrat निःशङ्कितः निष्काङ्क्षितः निर्विचिकित्सितः नो भेदसमापन्नः नो कलुषसमापन्नः पड़ जीवनिकायान् श्रद्धत्ते प्रत्येति रोचयति, स परीषहान् अभियुज्य अभियुज्य अभिभवति, नो तं परीषहाः अभियुज्य अभियुज्य अभिभवन्ति ।
पृथिवी - वलय-पदम्
एकैका पृथिवी त्रिभिः वलयैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ता, तद्यथा— धनोदधिवलयेन, घनवातवलयेन,
घणवातवरणं, तणुवायबलएणं । तनुवात वलयेन ।
farmers-पदं
विग्रह-गति-पदम्
नैरयिका:
५२६. रयाणं उक्कोसेणं तिसमइएणं विग्गणं उववज्जति । एगिदियवज्जं जाव वैमाणियाणं । एकेन्द्रियवर्ज यावत् वैमानिकानाम् ।
विग्रहेण उत्पद्यन्ते ।
स्थान ३ : सूत्र ५२५-५२६ २. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर पांच महाव्रतों में निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सित, अभेदसमापन्न और अकलुषसमापन्न होकर पांच महाव्रतों में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है । वह परीषहों से जूझ- जूझकर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह जूझ- जूझकर अभिभूत नहीं कर पाते।
३. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर छः जीव निकायों में निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सित अभेदसमापन और अकलुष समापन्न हो कर छः जीव निकायों में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है, वह परीषहों से जूझ - जूझकर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह जूझ - जूझकर अभिभूत नहीं कर पाते।
पृथ्वी वलय-पद
५२५. सभी पृथ्वियां तीन वलयों से सर्वतः परिक्षिप्त ( घिरी हुई ) हैं -
१. घनोदधि वलय से,
२. घनवात वलय से,
३. तनुवात वलय से ।
विग्रह-गति-पद
उत्कर्षेण विसामयिकेन ५२६. एकेन्द्रिय को छोड़कर नरयिकों से वैमानिक देवों तक के सभी दण्डकों के जीव उत्कृष्ट रूप में तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
२५८
स्थान ३ : सूत्र ५२७-५३४
खीणमोह-पदं क्षीणमोह-पदम्
क्षीणमोह-पद ५२७ खीणमोहस्स णं अरहओ तओ क्षीणमोहस्य अर्हतः त्रीणि सत्त्कर्माणि ५२७. क्षीणमोह अर्हन्त के तीन कर्माश [कर्म
कम्मंसा जुगवं खिज्जति, तं युगपत् क्षीयन्ते, तद्यथा-ज्ञानावरणीयं, प्रकृतियां] एक साथ क्षीण होते हैं-- जहा—णाणावरणिज्जं, दर्शनावरणीयं, आन्तरायिकम् । १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, दंसणावरणिज्ज, अंतराइयं ।
३.अन्तराय।
णक्खत्त-पदं नक्षत्र-पदम्
नक्षत्र-पद ५२८. अभिईणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। अभिजिद् नक्षत्रं त्रितारकं प्रज्ञप्तम् । ५२८. अभिजित् नक्षत्र के तीन तारे हैं। ४२६. एवं—सवणे, अस्सिणी, भरणी, एवम्-श्रवणः, अश्विनी, भरणी, ५२६. इसी प्रकार श्रवण, अश्विनी, भरणी, मगसिरे, पूसे, जेट्ठा। मृगशिरः, पुष्यः, ज्येष्ठा।
मृगसर, पुष्य तथा ज्येष्ठा नक्षत्र के भी तीन-तीन तारे हैं।
तित्थकर-पदं तीर्थकर-पदम्
तीर्थकर-पद ५३०. धम्माओ णं अरहाओ संती अरहा धर्माद् अर्हतः शान्तिः अर्हन् त्रिषु ५३०. अर्हत् शान्ति अर्हत् धर्म के पश्चात् तीन
तिहिं सागरोवमेहि तिचउभाग- सागरोपमेषु त्रिचतुर्भागपल्योपमोनकेषु सागरोपम में से चौथाई भाग कम पलिओवमऊणएहि वोतिक्कतेहि व्यतिक्रान्तेषु समुत्पन्नः ।
पल्योपम के बीत जाने पर समुत्पत्ल हुए। समुप्पण्णे। ५३१. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य यावत् ५३१. श्रमण भगवान् महावीर के बाद तीसरे
जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ तृतीयं पुरुषयुगं युगान्तकरभूमिः। पुरुष युग जम्बू स्वामी तक युगान्तकरजुगंतकरभमी।
भूमि-निर्वाण गमन का क्रम रहा है। ५३२. मल्ली णं अरहा तिहिं पुरिससएहिं मल्ली अर्हन् त्रिभिः पुरुषशतैः सार्धं ५३२. अर्हत् मल्ली तीन सौ पुरुषों के साथ
सद्धि मुंडे भवित्ता 'अगाराओ मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां मुण्डित होकर अगार धर्म से अनगार धर्म अणगारियं पव्वइए। प्रवजितः ।
में प्रवजित हुए। ५३३. पासे णं अरहा तिहिं पुरिससरहिं पार्श्वः अर्हन् त्रिभिः पुरुषशतैः सार्धं मुण्डो ५३३. इसी प्रकार अर्हत् पार्श्व तीन सौ पुरुषों के
सद्धि मुंडे भवित्ता अगाराओ भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः । साथ मुण्डित होकर अगार धर्म से अनगार अणगारियं पव्वइए।
धर्म में प्रवजित हुए। ५३४. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य त्रीणि ५३४. श्रमण भगवान् महावीर के तीन सौ शिष्य तिण्णि सया चउद्दसपुव्वीणं अजि- शतानि चतुर्दशपुविणां अजिनानां जिन
चौदह पूर्वधर थे, जिन नहीं होते हुए भी
जिन के समान थे, सर्वाक्षर-सन्निपाती १० णाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर- संकाशानां सर्वाक्षरसन्निपातिनां जिना
तथा जिन भगवान् की तरह अवितथ सण्णिवातीणं जिणा [जिणाणां?] [जिनानां ? ] इव अवितथं व्याकुर्वा
व्याकरण करने वाले थे। यह भगवान् इव अवितहं वागरमाणाणं णानां उत्कर्षिका चतुर्दशपुविसंपदा महावीर के उत्कृष्ट चतुर्दश पूर्वी शिष्यों उक्कोसिया चउद्दसपुस्विसंपया अभवत् ।
की सम्पदा थी। हुत्था ।
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ठाणं (स्थान)
५३५. तओ तित्थयरा चक्कवट्टी होत्या, तं जहा -संती, कुंथू, . अरो ।
५३६.
विज्ज-विमाण-पदं
५३६. तओ
विज्ज - विमाण - पत्थडा पण्णत्ता, तं जहाटिम विज्ज- विमाण - पत्थडे, मज्झिम - विज्ज विमाण - पत्थडे, उवरिम- गेविज्ज- विमाण-पत्थडे । ५३७. हिट्टिम - विज्ज- विमाण-पत्थडे
तिविहे पण्णत्ते, तं जहा -- हेट्टिम - हे टिम विज्ज- विमाणपत्थडे, हेमि-मज्झिम - विज्ज विमाणपत्थडे,
हेट्ठिम उवरिम-विज्ज विमाणपत्थडे ।
५३८. मज्झिम-गे विज्ज-विमाण-पत्थडे, तिविहे पण्णत्ते, तं जहामज्झिम- हेट्टिम - विज्ज-विमाण
प्रज्ञप्तः, तद्यथा
मध्यम- अधस्तन ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः
पत्थडे,
मध्यम- मध्यम-ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः,
मज्झिम-मज्झिम- गे विज्ज- विमाण- मध्यम-उपरितन-ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः । पत्थडे,
मज्झिम-उवरिम-विज्ज-विमाण
पत्थडे । उवरिम-विज्ज- विमाण- पत्थडे तिविहे पण्णत्ते, तं जहाउवरिम हेट्ठिम-गे विज्ज- विमाणपत्थडे,
२५६
त्रयः तीर्थकरा चक्रवर्तिनः अभवन्, तद्यथा— शान्तिः कुन्थुः, अरः ।
पत्थडे,
उवरिम उवरिम-गे विज्ज-विमाण
पत्थडे ।
ग्रैवेयक-विमान-पदम्
त्रयः ग्रैवेयक -विमान- प्रस्तटाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— अधस्तन ग्रैवेयक-विमानप्रस्तटः, मध्यम-ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः, उपरितन-ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः ।
उपरितन-ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— उपरितन- अधस्तन ग्रैवेयक-विमानप्रस्तटः, उपरितन-मध्यम-ग्रैवेयक-उवरिम-मज्झिम- गेविज्ज-विमाण- विमान प्रस्तटः, उपरितन - उपरितन
ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः ।
स्थान ३ : सूत्र ५३५-५३६
५३५. तीन तीर्थंकर चक्रवर्ती हुए१. शांति, २. कुंथु, ३. अर ।
ग्रैवेयक-विमान-पद
५३६. ग्रैवेयक विमान के तीन प्रस्तट हैं१. अधोग्रैवेयक विमान प्रस्तट,
२. मध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तट, ३. ऊर्ध्वग्रैवेयक विमान प्रस्तट ।
अधस्तन ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः त्रिविधः ५३७. अधोग्रैवेयक विमान प्रस्तट तीन प्रकार के
प्रज्ञप्तः, तद्यथा—- अधस्तन - अधस्तनग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः, अधस्तनमध्यम-ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः, अधस्तनउपरितन-ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तटः ।
मध्यम-ग्रैवेयक-विमान- प्रस्तट: विविधः ५३८. मध्यमग्रैवेयक विमान प्रस्तट तीन प्रकार
के हैं—
१. मध्यम - अधः ग्रैवेयक विमान प्रस्तट,
२. मध्यम - मध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तट,
३. मध्यम ऊर्ध्वग्रैवेयक विमान प्रस्तट ।
हैं
१. अधः - अधः ग्रैवेयक विमान प्रस्तट, २. अधो- मध्यमग्रैवेयक विमान प्रस्तट, ३. अध:- ऊर्ध्वग्रैवेयक विमान प्रस्तट ।
५३६. ऊर्ध्वग्रैवेयक विमान प्रस्तट तीन प्रकार के हैं
१. ऊर्ध्व - अधः ग्रैवेयक विमान प्रस्तट,
२. ऊर्ध्व - मध्यमग्रैवेयक विमान प्रस्तट,
३. ऊर्ध्व ऊर्ध्वग्रैवेयक विमान प्रस्तट ।
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ori (स्थान)
पावकम्म-पदं
५४०. जीवाणं तिट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिfण वा विर्णति वाचिणिस्संति वा, तं जहा - इथि वित्तिते, पुरिस निव्वत्तित्ते, पुंसग निव्वत्तिते । एवं जिण उवचिण-बंध
उदीर-वेद तह णिज्जरा चेव ।
५४१.
पोग्गल - पदं
तिपदेसिया खंधा अनंता पण्णत्ता ।
२६०
पापकर्म-पदम्
जीवाः त्रिस्थाननिर्वर्तितान् पुद्गलान् पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा तद्यथा—स्त्रीनिर्वर्तितान्, पुरुषनिर्वर्तितान्, नपुंसकनिर्वर्तितान्
एवम् चय उपचय-बन्ध
उदीर - वेदाः तथा निर्जरा चैव ।
५४२. एवं जाव तिगुणलुक्खा पोग्गला एवं यावत् त्रिगुणरूक्षाः अनंता पण्णत्ता ।
अनन्ताः प्रज्ञप्ताः ।
स्थान ३ : सूत्र ५४० - ५४२
पापकर्म-पद
५४०. जीवों ने त्रिस्थान - निर्वाचित पुद्गलों का कर्मरूप में चय किया है, करते हैं तथा करेंगे - १. स्त्री- निर्वार्तित पुद्गलों का, २. पुरुष निर्वार्तित पुद्गलों का,
३. नपुंसक - निर्वार्तित पुद्गलों का । इसी प्रकार जीवों ने त्रिस्थान - निर्वार्तित
पुद्गल-पदम्
पुद्गल-पद
त्रिप्रदेशिकाः स्कन्धा अनन्ताः प्रज्ञप्ताः । ५४१. त्रिप्रदेशी - [ तीन प्रदेश वाले ] स्कन्ध अनन्त हैं ।
पुद्गलों का कर्मरूप में उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन तथा निर्जरण किया है, करते हैं तथा करेंगे।
पुद् गलाः ५४२. इसी प्रकार तीन प्रदेशावगाढ तीन समय की स्थिति वाले और तीन गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं तथा शेष सभी वर्ण, गंध, रस और स्पर्शो के तीन गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं ।
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टिप्पणियाँ स्थान-३
१-विक्रिया (सूत्र ४) :
विक्रिया का अर्थ है-विविध रूपों का निर्माण या विविध प्रकार की क्रियाओं का सम्पादन । वह दो प्रकार की होती है—भवधारणीय [जन्म के समय होने वाली] और उत्तरकालीन । प्रस्तुत सूत्र में विक्रिया के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं
१. पर्यादाय, २. अपर्यादाय, ३. पर्यादाय-अपर्यादाय ।
भवधारणीय शरीर से अतिरिक्त रूपों का निर्माण [उत्तरकालीन विक्रिया बाह्यपुद्गलों का ग्रहण कर की जाती है, इसलिए उसकी संज्ञा पर्यादाय विक्रिया है।
भवधारणीय विक्रिया बाह्यपुद्गलों को ग्रहण किए बिना होती है, इसलिए उसकी संज्ञा अपर्यादाय विक्रिया है।
भवधारणीय शरीर का कुछ विशेष संस्कार करने के लिए जो विक्रिया की जाती है उसमें बाह्यपुद्गलों का ग्रहण और अग्रहण-दोनों होते हैं, इसलिए उसकी संज्ञा पर्यादाय-अपर्यादाय विक्रिया है।
वृत्तिकार ने विक्रिया का दूसरा अर्थ किया है-भूषित करना। बाह्यपुद्गलआभरण आदि लेकर शरीर को विभूषित करना पर्यादायविक्रिया होती है और बाह्यपुद्गलों का ग्रहण न करके केश, नख आदि को संवारना अपर्यादाय विक्रिया कहलाती है।
बाह्यपुद्गलों के लिए बिना गिरगिट अपने शरीर को नाना रंगमय बना लेता है तथा सर्प फणावस्था में अपनी अवस्था को विशिष्ट रूप दे देता है।
२.-कतिसंचित (सूत्र ७):
कति शब्द का अर्थ है कितना। यहां वह संख्येय के अर्थ में प्रयुक्त है। यहां कति, अकति और अवक्तव्य ये तीन शब्द हैं। कति का अर्थ संख्या से है अर्थात् दो से लेकर संख्यात तक। अकति का अर्थ असंख्यात और अनन्त से है । अवक्तव्य का अर्थ एक से है, एक को संख्या नहीं माना जाता।
भगवतीसूत्र, शतक २०, उद्देशक १० के नौवें प्रश्न में बताया गया है कि नरकगति में नैरयिक एक साथ संख्यात उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति की समानता से बुद्धि द्वारा उनका संग्रह करके उन्हें कतिसंचित कहा है। नरकगति में नैरयिक असंख्यात भी एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन्हें अकतिसंचित भी कहा है। नरकगति में नैरयिक जघन्यतः एक ही उत्पन्न होता है, इसलिए उसे अवक्तव्यसंचित कहा है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में कति शब्द के स्थान पर कदी शब्द आया है। उसका अर्थ कृति किया गया है। इनकी व्याख्या भी भिन्न है। कृति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है जो राशि वगित होकर वृद्धि को प्राप्त होती है और अपने वर्ग में से अपने वर्ग के मूल को कम कर वर्ग करने पर वृद्धि को प्राप्त होती है उसे कृति कहते हैं।
एक संख्या वर्ग करने पर वृद्धि नहीं होती तथा उसमें से वर्गमूल के कम करने पर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है, इस कारण एक संख्या नोकृति है। दो संख्या का वर्ग करने पर चूंकि वृद्धि देखी जाती है अतः दो को नोकृति नहीं कहा जा सकता और चूंकि उसके वर्ग में से मूल को कम करके वगित करने पर वह वृद्धि को प्राप्त नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त राशि ही रहती है अत: दो कृति भी नहीं हो सकती, इसलिए दो संख्या अवक्तव्य है।
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ठाणं (स्थान)
२६२
स्थान ३ : टि० ३-५
तीन को आदि लेकर आगे की संख्या वगित करने पर चूंकि बढ़ती है और उसमें से वर्गमूल को कम करके पुनः वर्ग करने पर भी वृद्धि को प्राप्त होती है इस कारण उसे कृति कहा है।'
इस व्याख्या सेनो कृति -१, २, ३, ४, ५ अवक्तव्य कृति–२, ४, ६, ८, १० कृति-३, ४, ५,.... एक को आदि लेकर एक अधिक क्रम से वृद्धि को प्राप्त राशि नो कृतिसंकलना है। दो को आदि लेकर दो अधिक क्रम से वृद्धि को प्राप्त राशि अवक्तव्यसंकलना है।
तीन, चार, पांच आदि में अन्यतर को आदि करके उनमें ही अन्यतर के अधिक क्रम से वृद्धिगत राशि कृतिसंकलना है। इसकी स्थापना इस प्रकार है
नो कृतिसंकलना-१,२,३,४,५,६. आदि संख्यात असंख्यात । अवक्तव्यसंकलना-२,४,६,८,१०,१२."आदि संख्यात असंख्यात । कृतिसंकलना-३, ६, ६, १२, ४, ८, १२, १६, ५, १०, १५, २० आदि संख्यात असंख्यात ।
श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परा का यह अर्थ-भेद सचमुच आश्चर्यजनक है। कति और कृति दोनों का प्राकृत रूप कति या कदि बन सकता है।
३-एकेन्द्रिय (सूत्र ८):
एकेन्द्रिय में प्रतिसमय असंख्यात या [वनस्पति विशेष में ] अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। अत: वे अकतिसंचित ही होते हैं। इसलिए उनके तीन विकल्प नहीं होते।
४-परिचारणा (सूत्र ६) :
परिचारणा का अर्थ है-मैथुन का सेवन । तत्त्वार्थसूत्र में परिचारणा के अर्थ में प्रवीचार शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रवीचार पांच प्रकार का होता है
१. कायप्रवीचार-कायिक मैथुन । २. स्पर्शप्रवीचार-स्पर्श मात्र से होने वाली भोगतृप्ति। ३. रूपप्रवीचार-रूप देखने मात्र से होने वाली भोगतृप्ति । ४. शब्दप्रवीचार--शब्द सुनने मात्र से होने वाली भोगतृप्ति । ५. मनःप्रवीचार-संकल्प मात्र से होने वाली भोगतृप्ति। देखें ५।५४ का टिप्पण।
५-मैथुन (सूत्र १२):
वृत्तिकार ने स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षणों का संकलन किया है। उसके अनुसार स्त्री के सात लक्षण हैं१. योनि, २. मृदुता, ३. अस्थिरता, ४. मुग्धता, ५. क्लीवता, ६. स्तन, ७. पुरुष के प्रति अभिलाषा।
१. षट्खंडागम-वेदनाखण्ड-कृति अनुयोग द्वार। २. स्थानांगवृत्ति, पन १०० : परिचारणा देवमैथुनसेवा। ३. तत्त्वार्थसूत्र, ४।८ : कायप्रवीचारा आ ऐशानात् । ४. तत्त्वार्थसूत्र, ४१६:
शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-मन:-प्रवीचारा द्वयो ईयोः ।
५. स्थानांगवृत्ति, पन १००:
योनि मृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धत्वं क्लीबता स्तनो। पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ।।
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ठाणं (स्थान)
पुरुष के सात लक्षण ये हैं
१. लिङ्ग, २. कठोरता, ३. दृढ़ता, ४. पराक्रम, ५. दाढ़ी और मूंछ, ६. धृष्टता, ७. स्त्री के प्रति अभिलाषा । नपुंसक के लक्षण
१. स्तन और दाढ़ी-मूंछ ये कुछ अंशों में होते हैं, परन्तु पूर्ण विकसित नहीं होते ।
२. प्रज्वलित कामाग्नि ।
६-८ योग, प्रयोग, करण ( सू० १३-१५ ) :
योग शब्द के दो अर्थ हैं — प्रवृत्ति और समाधि । इनकी निष्पत्ति दो भिन्न-भिन्न धातुओं से होती है । सम्बन्धार्थक 'युज' धातु से निष्पन्न होने वाले योग का अर्थ है - प्रवृत्ति समाध्यर्थक युज् धातु से निष्पन्न होने वाले योग का अर्थ हैसमाधि । प्रस्तुत सूत्र में योग का अर्थ प्रवृत्ति है । उमास्वाति के अनुसार काय, बाङ और मन के कर्म का नाम योग है। जीव के तीन मुख्य प्रवृत्तियों -- कायिकप्रवृत्ति, वाचिकप्रवृत्ति और मानसिक प्रवृत्ति का सूत्रकार ने योग शब्द के द्वारा निर्देश किया है।
कर्मशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम तथा शरीरनामकर्म के उदय से होने वाला वीर्ययोग कहलाता है। भगवतीसूत्र में एक प्रसंग आता है।" वहां गौतम स्वामी ने पूछा- भंते! योग किससे उत्पन्न होता है ?
२. वही
भगवान - वीर्य से ।
गौतम - भंते! वीर्य किससे उत्पन्न होता है ?
भगवान् - शरीर से ।
गौतम - भंते! शरीर किससे उत्पन्न होता है ?
भगवान् जीव से ।
इस कर्मशास्त्रीय परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि योग जीव और शरीर के साहचर्य से उत्पन्न होने वाली
शक्ति है ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०० :
२६३
वृत्ति में उद्धृत एक गाथा में योग के पर्यायवाची नाम इस प्रकार हैं
१. योग २. वीर्य ३. स्थाम ४. उत्साह ५. पराक्रम ६. चेष्टा ७. शक्ति ८. सामर्थ्य ।
योग के अनन्तर प्रयोग का निर्देश है। प्रज्ञापना ( पद १६) के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि योग और प्रयोग दोनों एकार्थक हैं।
प्रयोग के अनन्तर सूत्रकार ने करण का निर्देश किया है। वृत्तिकार ने करण का अर्थ - मनन, वचन और स्पंदन की क्रियाओं में प्रवर्तमान आत्मा का सहायक पुद्गल समूह किया है।"
वृत्तिकार ने योग, प्रयोग और करण की व्याख्या करने के पश्चात् यह बतलाया है कि ये तीनों एकार्थक हैं। भगवती
मेहनं खरता दाढ्यं शौण्डीर्य श्मश्रुष्टता । स्त्रीका मितेति लिङ्गानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥
स्तनादिश्मश्रु केशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधा: प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ३. तवार्थसूत्र, ६।१ : कायवाङ, मनः कर्म योगः ।
४. भगवती सूत्र १।१४३ - १४५ :
स्थान ३ : टि० ६-८
से णं भंते! जोए कि पवहे ? गोमा ! वोरियप्पवहे ।
से णं भंते! वोरिए कि पवहे ?
गोमा ! सरोरप्यवहे |
से णं भंते! सरीरे कि पवहे ? गोयमा ! जीवप्पवहे ।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०१ :
जोगो वीरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्यन्ति य, जोगस्स हवंति पज्जाया ||
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०१ : क्रियते येन तत्करणं - मननादि - क्रियासु प्रवर्त्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा तथापरिणामवत्पुद्गल सङ्घात इति भावः ।
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ठाणं (स्थान)
२६४
स्थान ३: टि०६-११
में योग के पन्द्रह प्रकार बतलाए हैं। वे ही पन्द्रह प्रकार प्रज्ञापना में प्रयोग के नाम से तथा आवश्यक में करण के नाम से निर्दिष्ट हैं । अतः इन तीनों में अर्थ भेद का अन्वेषण आवश्यक नहीं है।'
६-(सू० १६) :
देखें ७/८४-८६ का टिप्पण। १०-(सू० १७) :
प्रस्तुत सूव के आलोच्य शब्द ये हैं१. तथारूप-जीवनचर्या के अनुरूप वेश वाला। २. माहन-अहिंसा का उपदेश देने वाला अहिंसक ।'
३. अस्पर्शक-यह अफासुय शब्द का अनुवाद है । प्राचीन व्याख्या-ग्रन्थों में फासुय का अर्थ प्रासुक (निर्जीव) और अफासुय का अर्थ अप्रासुक (सजीव) किया गया है। प्रस्तुत प्रकरण में वृत्तिकार ने भी यही अर्थ किया है।'
पण्डित बेचरदासजी ने फासुय का अर्थ स्पर्शक अर्थात् अभिलषणीय किया है। उन्होंने इसके समर्थन में जो तर्क दिए हैं, वे बुद्धिगम्य हैं।
४. अनेषणीय-गवेषणा के अयोग्य, अकल्पनीय, अग्राह्य । ५. अशन-पेट भर कर खाया जाने वाला आहार। ६. पान-कांजी तथा जल। ७. खाद्य-फल, मेवा आदि। ८. स्वाद्य-लौंग, इलायची आदि ।
११-गुप्ति (सू० २१):
गुप्ति का शाब्दिक अर्थ हैं-रक्षा। मन, वचन और काय के साथ योग होने पर इसका अर्थ होता है-मन, वचन और काय की अकुशल प्रवृत्तियों से रक्षा और कुशल प्रवृत्तियों में नियोजन । यह अर्थ सम्यक्प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर किया गया प्रतीत होता है। असम्यक् की निवृत्ति हुए बिना कोई भी प्रवृत्ति सम्यक् नहीं बनती, इस दृष्टि से सम्यक्प्रवृत्ति में गुप्ति का होना अनिवार्य माना गया है।
सम्यक्प्रवृत्ति से निरपेक्ष होकर यदि गुप्ति का अर्थ किया जाए तो इसका अर्थ होगा-निरोध । महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है-'चित्तवृत्ति निरोधो योग : (योगदर्शन १११) जैन-दृष्टि से इसका समानान्तर सूत्र लिखा जाए तो वह होगा 'चित्तवृत्ति निरोधो गुप्तिः'।
३. स्थानांगवृत्ति, पन्न १०३ : प्रगता असवः-असुमन्तः प्राणिनो
यस्मात् तत्प्रासुकं तन्निषेधादप्रासुर्क सचेतनमित्यर्थः । ४. रत्नमुनिस्मृतिग्रंथ, अध्याय २, पृष्ठ १०० । ५. स्थानांगवृत्ति, पन १०५, १०६ : गोपनं गुप्ति:-मनः प्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्तनमिति आह
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०१, १०२ : अथवा योगप्रयोगकरण
शब्दानां मन:प्रभूतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूवेष्वभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात्, तथाहि-योगः पञ्चदशविधः शतकादिषु व्याख्यात:, प्रज्ञापनायां त्वेवमेवायं प्रयोगशब्देनोक्तः, तथाहिकतिविहे णं भंते ! पओगे पण्णत्ते, गोतमा ! पण्णरसविहे इत्यादि, तथा आवश्यकेऽयमेव करणतयोक्तः, तथाहि___ झुंजणकरणं तिविहं, मणवतिकाए य मणसि सच्चाइ ।
सट्ठाणे तेसि भेओ, चउ चउहा सत्तहा चेव ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०३ : मा हन इत्याचष्टे यः परं स्वयं हनननिवृत्तः सन्निति स माहनो मूलगुणधरः ।
मणगुत्तिमाइयाओ, गुत्तीओ तिन्नि समयकेहिं । परियारेयररूवा, णिद्दिवाओ जो भणियं ।। समिओ णियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणमि भइयव्यो । कुसलवइमुईरंतो, जं बइगुत्तोऽबि समिओऽवि ।।
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ठाणं (स्थान)
२६५
स्थान ३ : टि० १२-१८
१२–दण्ड (सू० २४) :
देखें १।३ का टिप्पण।
१३-गर्दा (सू० २६) :
देखें २।३८ का टिप्पण।
१४–प्रत्याख्यान (सू० २७) :
छब्बीसवें सूत्र में गर्दा का उल्लेख है और प्रस्तुत सूत्र में प्रत्याख्यान का। गर्दा अतीत के अनाचरण का अनुताप है और प्रत्याख्यान भविष्य में अनाचरण का प्रतिषेध ।
१५-(सू० २८) :
प्रस्तुत सूत्र में पुरुप की वृक्ष से तुलना की गई है। इस तुलना का निमित्त उपकार की तरतमता है-यह वृत्तिकार ने निर्दिष्ट किया है । इस निर्देश को एक निदर्शन मात्र समझना चाहिए। तुलना के निमित्तों की संघटना अनेक दृष्टिकोणों से की जा सकती है।
पत्रयुक्त वृक्ष की अपेक्षा पुष्पयुक्त वृक्ष की सुषमा अधिक होती है और फलयुक्त वृक्ष उससे भी अधिक महत्त्व रखता है। पत्र छाया (शोभा) का, पुष्प सुगंध का और फल सरसता का प्रतीक है। छायासम्पन्न पुरुष की अपेक्षा वह पुरुष अधिक महत्त्व रखता है जिसके जीवन में गुणों की सुगन्ध होती है और उस पुरुष का और अधिक महत्त्व होता है, जिसके जीवन से गुणों का रस-निर्झर प्रवाहित होता रहता है।
किसी वृक्ष में पत्र, पुष्प और फल तीनों होते हैं। इस दुनियां में ऐसे पुरुष भी होते हैं, जिनके जीवन में गुणों की चमक, महक और सरसता–तीनों एक साथ मिलते हैं।
संत तुलसीदास जी ने रामायण में तीन प्रकार के पुरुषों का वर्णन किया है। कुछ पुरुष पाटल वृक्ष के समान होते हैं। पाटल के केवल फूल होते हैं फल नहीं। पाटल के समान पुरुष केवल कहते हैं, पर करते कुछ नहीं।
कुछ पुरुष आम्रवृक्ष के समान होते हैं। आम्र के फल और फूल दोनों होते हैं। आम्र के समान पुरुष कहते भी हैं और करते भी हैं।
___ कुछ पुरुष फनस वृक्ष के समान होते हैं। फनस के केवल फल होते हैं। फनस के समान पुरुष कहते नहीं किन्तु करते हैं।
१६-१८-(सू० २६-३१) :
निर्दिष्ट तीन सूत्रों में पुरुष का विभिन्न दृष्टिकोणों से निरूपण किया गया हैनामपुरुष-जिस सजीव या निर्जीव वस्तु का पुरुष नाम होता है, उसे नामपुरुष कहा जाता है। स्थापनापुरुष-पुरुष की प्रतिमा अथवा किसी वस्तु में पुरुष का आरोपण । द्रव्यपुरुष-पुरुषरूप में उत्पन्न होने वाला जीव या पुरुष का मृत शरीर। ज्ञानपुरुष-ज्ञानप्रधान पुरुष। दर्शनपुरुष-दर्शनप्रधान पुरुष ।
१. तुलसीरामायण लंकाकाण्ड पृ०६७३ :
जनिजल्पना करि सुजसु नासहि नीतिसुनहि करहि छमा । संसारमहं पुरुष त्रिविध पाटल, रसाल, पनस समा ।।
एक सुमनप्रद एक सुमनफल एक फलइ केवल लागहीं। एक कहहिं कहहि करहि अपर एक करहिं कहत न बागहीं।
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ठाणं (स्थान)
२६६
स्थान ३ : टि० १६-२६
चरित्रपुरुष-चरित्रप्रधान पुरुष । वेदपुरुष-पुरुष संबंधी मनोविकार का अनुभव करने वाला। यह स्त्री, पुरुष और नपुंसक-इन तीनों लिङ्गों में
हो सकता है। चिन्हपुरुष-दाढ़ी आदि पुरुष-चिन्हों से पहचाने जाने वाला अथवा पुरुषवेषधारी स्त्री आदि । अभिलाषपुरुष-लिंगानुशासन के अनुसार पुरुषलिंग से अभिहित होने वाला शब्द ।
१६-२२-(सू० ३२-३५) :
इन चार सूत्रों में पुरुषों की तीन श्रेणियां निरूपित हैं। प्रथम श्रेणी में धर्म, भोग और कर्म-इन तीनों के उत्तम पुरुपों का निरूपण है । द्वितीय और तृतीय श्रेणी में ऐसा निरूपण प्राप्त नहीं होता। द्वितीय श्रेणी के तीन पुरुषों का सम्बन्ध आवश्यक नियुक्ति के आधार पर ऋषभकालीन व्यवस्था के साथ जोड़ा जाता है। ऋषभ की राज्य-व्यवस्था में आरक्षक, उग्र, पुरोहित, भोज और वयस्य राजन्य कहलाते थे।'
भगवान महावीर के समय में भी उग्र, भोग और राजन्यों का उल्लेख मिलता है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि ये प्राचीन समय के प्रसिद्ध वंश हैं।
__ इस वर्गीकरण से यह पता चलता है कि आगम-रचनाकाल में दास, भूतक (कर्मकर) और भागिक-कुछ भाग लेकर खेती आदि का काम करने वाले लोग तीसरी श्रेणी में गिने जाते थे। इन प्राचीन मूल्यों में आज क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। वर्तमान मूल्यों के अनुसार भोगपुरुष चक्रवर्ती को उत्तमपुरुष और खेतीहर मजदूर को जघन्यपुरुष का स्थान नहीं दिया जा सकता।
२३–समूच्छिम (सू० ३६) :
वृत्तिकार ने सम्मूच्छिम का अर्थ अगर्भज किया है। समूच्छिम जीव गर्भ से उत्पन्न नहीं होते। वे लोक के किसी भी भाग में उत्पन्न हो जाते हैं। वे जहाँ उत्पन्न होते हैं वहीं पुद्गलसमूह को आकृष्ट कर अपने देह की समन्ततः (चारों ओर से) मूर्च्छना (शारीरिक अवयवों की रचना) कर लेते हैं।' २४-२५-उरः परिसर्प, भुजपरिसर्प (सू० ४२-४५) :
परिसर्प का अर्थ होता है-चलने वाला प्राणी। वह दो प्रकार का होता है-- १. उरः परिसर्प-पेट के बल रेंगने वाला, जैसे-सर्प आदि । २. भजपरिसर्प-भजा के बल चलने वाला, जैसे-नेवला आदि।
२६-(सू० ५०):
१. कर्मभूमि-कृषि आदि कर्म द्वारा जीविका चलाई जाए, उस प्रकार की भूमि कर्मभूमि कहलाती है। २. अकर्मभूमि-प्राकृतिक साधनों से जीविका चलाई जाए, उस प्रकार की भूमि अकर्मभूमि कहलाती है। ३. अन्तर्वीप-ये लवण समुद्र के अन्तर्गत हैं। इनमें उत्पन्न होने वाले क्रमशः कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज कहलाते हैं।
१. आवश्यक नियुक्ति, १९८:
उग्गा भोगा राइण्ण-खत्तिया संगहा भवे चउहा ।
आरक्ख गुरुवयंसा, सेसा जे खत्तिया ते उ ।। २. उवासगदसाओ, ७१३७ । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०८ : सम्मूर्छिमा अगर्भजा ।
४. तत्त्वार्थवातिक, २।३१ : त्रिषु लोकेपूर्वमधस्तिर्यक् च देहस्य
समन्ततो मूर्छन सम्मूर्छनम्-अवयवप्रकल्पनम्। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०८ : उरसा-बक्षसा परिसप्पन्तीति
उर:परिसर्पा:-सर्पादयस्तेऽपि भणितव्याः, तथा भुजाभ्यांबाहुभ्यां परिसप्पन्ति येते तथा नकुलादयः ।
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स्थान ३ : टि०२७-३५
२७-असुरकुमार के (सू० ५६) :
असूरकूमार आदि भवनपति देवों में चार लेश्याएं होती हैं, पर संक्लिष्ट लेश्याएँ तीन ही होती हैं। चौथी लेश्यातेजोलेश्या संक्लिष्ट नहीं है, इस दृष्टि से यहां तीन लेश्याएं बतलाई गई हैं।
२८-पृथ्वीकाय... (सू०६१) :
पृथ्वीकाय, अप्काय तथा वनस्पतिकाय में जीव देवगति से आकर उत्पन्न हो सकते हैं, उन जीवों में तेजोलेश्या भी प्राप्त होती है, किन्तु यह संक्लिष्टलेश्या का निरूपण है, इसलिए उनमें तीन ही लेश्याएं निरूपित की गई हैं।
२६ तेजस्कायिक... (सू० ६२) :
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित तेजस्कायिक आदि जीवों में तीन लेश्याएं ही प्राप्त होती हैं, अतः ५८वे सूत्र की भांति यहां भी संक्लिष्ट शब्द का प्रयोग अपेक्षित नहीं है।
३०-३२-सामानिक, तावत्रिशंक, लोकान्तिक (सू० ८०-८६) :
सामानिक-समृद्धि में इन्द्र के समकक्षदेव । तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार आज्ञा और ऐश्वर्य के सिवाय, स्थान, आयु, शक्ति, परिवार और भोगोपभोग आदि में यह इन्द्र के समान होते हैं। ये पिता, गुरु, उपाध्याय आदि के समान आदरणीय होते हैं।
तावतिशक-इन्द्र के मंत्री और पुरोहित स्थानीयदेव। लोकान्तिक-पांचवें देवलोक में रहने वाले देवों' की एक जाति ।
३३-३४-शतपाक, सहस्रपाक (सू०८७) : शतपाक-वृत्तिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं
१. सौ औषधिववाथ के द्वारा पकाया हुआ। २. सौ औषधियों के साथ पकाया गया। ३. सौ बार पकाया गया।
४. सौ रुपयों के मूल्य से पकाया गया। सहस्रपाक-वृत्तिकार ने इसके भी चार अर्थ किए हैं
१. सहस्र औषधिक्वाथ के द्वारा पकाया हुआ। २. सहस्र औषधियों के साथ पकाया गया। ३. सहस्र बार पकाया गया। ४. सहस्र रुपयों के मूल्य से पकाया गया।
३५-स्थालीपाक (सू०८७) :
अट्ठारह प्रकार के स्थालीपाक शुद्ध व्यञ्जन-स्थाली का अर्थ है पकाने की हंडिया। शब्दकोष' में इसके पर्यायवाची शब्द हैं-उरवा, पिठर, कुंड, चरु, कुम्भी।
___अट्ठारह प्रकार के व्यञ्जन ये हैं१. स्थानांगबृत्ति, पन्न १०६ : असुरकुमाराणां तु चतसृणां भावात् २. अभिधानचिंतामणि, १०१६ । संक्लिष्टा इति विशेषितं, चतुर्थी हि तेषां तेजोलेश्याऽस्ति, ३. प्रवचनसारोद्धार, द्वार २५६, गाथा ११-१७। किन्तु सा न संक्लिष्टेति ।
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स्थान ३ :टि० ३६
१. सूप २. ओदन ३. यवान्न-यब से बना हुआ परमान्न । ४. जलज-मांस ५. स्थलज-मांस ६. खेचर-मांस ७. गोरस ८. जष-जीरा आदि डाला हुआ मूंग का रस । ६. भक्ष्य-खाजा आदि। १०. गुडपर्पटिका-गुड़ की बनी हुई पपड़ी। ११. मूलफल-मूल अर्थात् अश्वगंधा आदि की जड़ें। फल-आम आदि। १२. हरित-आचारांग वृत्ति के अनुसार तन्दुलीयम [चौलाई, धूपारुह, वस्तुल [बथुआ], बदरक [बैर],
मार्जार, पादिका, चिल्ली [लाल पत्तों वाला वथुआ], पालक आदि हरित कहलाते हैं।
चरक के अनुसार हरितवर्ग में अदरक, जम्बीर (पुदीना वा तुलसी भेद), सुरस (तुलसी), अजवाइन, अजक (श्वेत तुलसी), सहिजन, शालेय (चाणक्य मूल), राई, गण्डीर (गण्डीर दो प्रकार का होता है-लाल और सफेद । लाल हरितवर्ग में है और सफेद साकवर्ग में), जलपिप्पली, तुम्बुरु (नेपाली धनियां) शृंगवेटी (अदरक सदृश आकृति वाली), भूतृण (गन्धतृण), खराश्वा (पारसी कयमानी), धनिया, अजमोदा, सुमुख (तुलसी भेद), गृजनक (गाजर), पलाण्डु (प्याज) और लशुन (लहसन) है।
१३. डाक-हींग, जीरा आदि मसाले डाली हुई बथुए जैसी पत्तियों की भाजी। १४. रसाला-दोपल घी, एकपल शहद, आधा आढक दही, २० काली मिर्च और १० पल खांड या गुड़-इनको
मिलाने से रसाला बनती है। इसे माजिता भी कहा जाता है । १५. पानमदिरा १६. पानीयजल १७. पानक-अंगूर आदि का पना। १८. शाक-तरोई आदि का शाक, जो छाछ के साथ पकाया जाता है।
३६—योगवाहिता (सू० ८८):
योगवहन करने वाले मुनि की चर्या को योगवाहिता कहा जाता है। योगवहन का शब्दानुपाती अर्थ है-चित्तसमाधि की विशिष्ट साधना , जैन-परम्परा में योगवहन की एक दूसरी पद्धति भी रही है। आगम-श्रुत के अध्ययनकाल में योगवहन किया जाता था। प्रत्येक आगम तपस्यापूर्वक पढ़ा जाता था। आगम के अध्येता मुनि के लिए विशेष प्रकार की चर्या निर्दिष्ट होती थी, जैसे
१. अल्पनिद्रा लेना। २. प्रथम दो प्रहरों में श्रुत और अर्थ का बार-बार अभ्यास करना। ३. अध्येतव्य ग्रंथ को छोड़कर नया ग्रंथ नहीं पढ़ना। ४. पहले जो कुछ सीखा हो उसे नहीं भुलाना। ५. हास्य, विकथा, कलह आदि न करना।
१. आचारांगनियुक्ति, १२६ : हरितानी–तन्दुलीय का घूयारह वस्तुल बदरक मार्जार पादिका चिल्ली पालक्यादीनि ।
२. चरकसूत्र, अ० २७, हरितवर्ग श्लोक १६३-१७३।
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६. धीमे-धीमे शब्दों में बोलना, जोर-जोर से नहीं बोलना ।
७. काम, क्रोध आदि का निग्रह करना ।
तपस्या की विधि प्रत्येक शास्त्र ग्रंथ के लिए निश्चित थी। इसकी जानकारी के लिए विधिप्रपा आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं ।
यह योगवहन की पद्धति भगवान् महावीर के समय में प्रचलित नहीं थी। उस समय के उल्लेखों में अंगों के अध्ययन का उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु योगवहन पूर्वक अध्ययन का उल्लेख नहीं मिलता। अध्ययन के साथ योगवहन की परम्परा भगवान् महावीर के निर्वाण के उत्तरकाल में स्थापित हुई प्रतीत होती है। यदि योगवाहिताका अर्थ श्रुत के अध्ययन के साथ की जाने वाली तपस्या या विशिष्ट चर्या हो तो यह उत्तरकालीन संक्रमण है । और, यदि इसका अर्थ चित्तसमाधि की विशिष्ट साधना हो तो इसे महावीरकालीन माना जा सकता है। प्रसंग की दृष्टि से दोनों अर्थ संगत हो सकते हैं।
३८-४०—पल्य, माल्य, अन्तर्मुहूर्त ( सू० १२५ )
३७ - प्रणिधान ( सू० १६) :
प्रणिधान का अर्थ है - एकाग्रता । वह केवल मानसिक ही नहीं होती वाचिक और कायिक भी होती है। एकाग्रता का उपयोग सत् और असत् दोनों प्रकार का होता है। इसी आधार पर प्रणिधान के सुप्रणिधान और दुष्प्रणिधान - ये दो भेद किए गए हैं।
४१ - ( सू० १२१ ) :
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार हैं
पल्य- बांस आदि से बनाई हुई टोकरी ।
माल्य - दूसरी मंजिल का मकान ।
अन्तर्मुहूर्त --- दो समय से लेकर अड़तालीस मिनट में से एक समय कम तक का कालमान ।
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के आशय इस प्रकार हैं
समान - प्रमाण की दृष्टि से एक लाख योजन।
सपक्ष - समश्रेणी की दृष्टि से सपक्ष- दाएं बाएं पार्श्व समान । सप्रतिदिश - विदिशाओं में सम ।
४२ - ( सू० १३२ ) :
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं
सीमांतक नरकावास - पहली नरकभूमि के पहले प्रस्तर का नरकावास ।
ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी - सिद्धशिला । इसका क्षेत्रफल पैंतालीस लाख योजन है ।
स्थान ३ :
१. नंदी सूत्र, ७८ ।
४३ - ( सू० १३९ ) :
प्रस्तुत सूत्र में तीन कालिक प्रज्ञप्ति सूत्रों का निरूपण है । नंदीसून में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति - इन दोनों को कालिक' तथा सूर्यप्रज्ञप्ति को उत्कालिक के वर्ग में समाविष्ट किया गया है। जयधवला में परिकर्म (दृष्टिवाद के प्रथम अंग) के पांच अर्थाधिकार निरूपित हैं-- चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्या
टि० ३७-४३
२. नंदीसूत ७७ ॥
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स्थान ३ : टि० ४४-४५
प्रज्ञप्ति । दृष्टिवाद कालिक सूत्र है, अतः इन प्रज्ञप्तियों का कालिक होना स्वतः प्राप्त है। श्वेताम्बर आगमों में प्रज्ञप्तिसुन्न दृष्टिवाद के अंग के रूप में निरूपित नहीं है, फिर भी पांच प्रज्ञप्ति सूत्रों की मान्यता रही है, यह वृत्ति से ज्ञात होता है । वृत्तिकार ने लिखा है कि यह तीसरा स्थान है, इसलिए इसमें तीन ही प्रज्ञप्तियों का उल्लेख है, व्याख्याप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का उल्लेख नहीं है।'
स्थानांग और नंदीसूत्र के इस परम्परा-भेद का आधार अभी अन्वेषणीय है।
४४–परिषद् (सू० १४३) :
इन्द्र की परिषद् निकटता की दृष्टि से तीन प्रकार की हैसमिता-आन्तरिक परिषद् । इसके सदस्य प्रयोजनवशात् इन्द्र के द्वारा बुलाने पर ही आते हैं। चंडा-मध्यमा परिषद् । इसके सदस्य इन्द्र के द्वारा बुलाने और न बुलाने पर भी आते हैं। जाता-बाह्यपरिषद् । इसके सदस्य इन्द्र के द्वारा बिना बुलाये ही आ जाते हैं। प्रकारान्तर से इसका यह भी अर्थ है-- १. जिनके सम्मुख प्रयोजन की पर्यालोचना की जाए वह आभ्यन्तर या समितापरिषद् है। २. जिनके सम्मुख पर्यालोचित विषय को विस्तार से बताया जाए वह मध्यमा या चंडापरिषद् है। ३. जिनके सम्मुख पर्यालोचित विषय का वर्णन किया जाए वह बाह्य या जातापरिषद् है।
४५-याम (सू० १६१):
यहां वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने 'याम' का अर्थ दिन और रात्रि का तृतीय भाग किया है। इससे आगे एक पाठ और है-तिहिं वतेहि आया केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए तं जहा-- पढमे वते, मज्झिमे वते, पच्छिमे वते (३।१६२) । प्रथम, मध्यम और पश्चिम-तीनों वय में धर्म की प्राप्ति होती है। आचारांग में भी धर्म प्रतिपत्ति के प्रसंग में ऐसा ही पाठ हैजामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आयरिया संबुज्झमाणा समुट्टिया
अर्थात् याम तीन हैं, जिनमें आर्य संबुद्ध होते हैं। आचारांगचूणि में 'जाम' और 'वय' को एकार्थक स्वीकार किया है। किन्तु स्थानांगसूत्र में 'जाम' और 'वय' के भिन्न पाठ हैं। फिर भी इससे आचारांगण का मत खण्डित नहीं होता। क्योंकि स्थानांग एक संग्राहक सूत्र है, इसीलिए इसमें सदृश पाठों का भी संकलन कर लिया गया है।
जाम का वयवाची अर्थ भी एक परम्परा का संकेत देता है।
उस समय संन्यास-विषयक यह प्रश्न प्रबल था कि किस अवस्था में संन्यास लेना चाहिए । वर्णाश्रम व्यवस्था में चतुर्थ आश्रम में संन्यास-ग्रहण का विधान था परन्तु भगवान् महावीर की मान्यता इससे भिन्न थी। वे दीक्षा के साथ वय का योग नहीं मानते थे। उन्होंने कहा-प्रथम, मध्यम और पश्चिम–तीनों ही वय धर्म-प्रतिपत्ति के लिए योग्य हैं। तीनों वयों का काल-मान इस प्रकार हैं---
प्रथम वय-८ वर्ष से ३० वर्ष तक। मध्यम वय-३० वर्ष से ६० वर्ष तक। पश्चिम वय-६० वर्ष से आगे।
१. कषायपाहुड, भाग १, पृ० १५० । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२० : व्याख्याप्रज्ञप्तिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिश्च
न विवक्षिता, विस्थानकानुरोधात् । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२२ : यामो रात्रंदिनस्य च चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धः तथाऽपोह विभाग एव विवक्षितः ।
४. आचारांग, १।।१।१५। ५. आचारांगचुणि, पत्र २४४ : जामोत्ति वा क्योत्ति वा एगट्ठा।
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स्थान ३ : टि० ४६-४६
इसलिए इस भूमिका से भी स्पष्ट होता है कि धर्म-प्रतिपत्ति के प्रसंग में जो 'जाम' शब्द आया है वह वय का ही द्योतक है, व्रत या काल-विशेष का नहीं।
४६–बोधि (सूत्र १७६) :
वृत्तिकार ने बोधि का अर्थ सम्यकबोध किया है। इस अर्थ में चारित्रबोधि नहीं हो सकता। वृत्तिकार ने इसका समाधान इस भाषा में दिया है-चारित्न बोधि का फल है, इसलिए अभेदोपचार से उसे बोधि कहा गया है। उन्होंने दूसरा तर्क यह प्रस्तुत किया है-ज्ञान और चारित्र-ये दोनों ही जीव के उपयोग हैं, इसलिए उन्हें बोधि शब्द के द्वारा अभिहित किया गया है।
आचार्य कुंदकुंद ने बोधि शब्द की सुन्दर परिभाषा दी है। जिस उपाय से सद्ज्ञान उत्पन्न होता है उस उपाय-चिंता का नाम बोधि है। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञानबोधि का अर्थ ज्ञानप्राप्ति की उपायचिंता, दर्शनबोधि का अर्थ दर्शनप्राप्ति की उपायचिता और चारिवबोधि का अर्थ चरित्र प्राप्ति की उपायचिंता फलित होता है।
बोधि शब्द बुघ धातु से निष्पन्न हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है-ज्ञान या विवेक । धर्म के सन्दर्भ में इसका अर्थ होता है-आत्मबोध या मोक्षमार्ग का बोध । आत्मा को जानना सम्यक्ज्ञान, आत्मा को देखना सम्यकदर्शन और आत्मा में रमण करना सम्यक् चारित्न है। एक शब्द में तीनों की संज्ञा आत्मबोध है। और, यह आत्मबोध ही मोक्ष का मार्ग है। यहाँ बोधि शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया गया है।
४७–मोह (सूत्र १७८) :
देखें २।४२२ का टिप्पण।
४८-दूसरे स्थान पर ले जाकर दी जाने वाली दीक्षा (सूत्र १८२) :
दशनपुर नगर के राजपुरोहित का नाम सोमदेव था। उसके पुत्र का नाम आर्यरक्षित और पत्नी का नाम रुद्रसोया था। आर्यरक्षित पाटलीपुत्र में जा चारों वेदों का सांगोपांग अध्ययन कर घर लौटे। माता के कहने पर वे दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए तोसलिपुत्र आचार्य के पास गए । उन दिनों आचार्य दशपुर नगर के इक्षुगृह में ठहरे हुए थे। आचार्य ने कहा-जो प्रवजित होता है उसी को दृष्टिवाद का अध्ययन कराया जाता है। क्या तुम दीक्षा लोगे ? आर्यरक्षित ने स्वीकारात्मक उत्तर दिया । आचार्य ने कहा-उसका अध्ययन क्रमपूर्वक कराया जायेगा। आर्यरक्षित ने कहा-हां, मैं उसका क्रमपूर्वक अध्ययन करूंगा। किन्तु मैं यहां प्रवजित होने में असमर्थ हूं। क्योंकि राजा का तथा दूसरे लोगों का मेरे पर बहुत बड़ा अनुराग है । प्रवजित हो जाने पर भी वे मुझे बलात् घर ले जा सकते हैं । अतः अन्यत्र कहीं जाकर दीक्षा प्रदान करें।
आचार्य तोसलिपुत्र आर्यरक्षित को लेकर अन्यत्र गए और उसको प्रवजित किया।
४६-उपदेश से ली जाने वाली दीक्षा (सूत्र १८३) :
आर्यरक्षित को प्रवजित हुए अनेक वर्ष हो चुके थे। एक बार उनके माता-पिता ने एक संदेश में कहा-क्या तुम हम सबको भूल गए? हम तो समझते थे कि तुम हमारे लिए प्रकाश करने वाले हो। तुम्हारे अभाव में यहाँ अन्धकार ही अन्धकार है । तुम शीघ्र घर आकर हमें सम्हाल लो। आर्यरक्षित अपने अध्ययन में तन्मय थे, अतः इस संदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया । तब माता-पिता ने अपने छोटे पुत्र फल्गुरक्षित को संदेश देकर भेजा । फल्गुरक्षित शीघ्र ही वहाँ गया और
१. स्यानांगवृत्ति, पत्र १२३ : बोधि:--सम्यक्त्वोधः।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२३ : इह च चारित्रं बोधिफलत्वात्
वोधिरुच्यते, जीवोपयोगरूपत्वाद्वा । ३. षट्प्राभूतादिसंग्रहः, पृष्ठ ४४०, द्वादशानुप्रेक्षा ८३ : उप्पज्जदि
सण्णाणं, जेण उबाएण तस्सुवायस्स चिता हवेइ बोही, अच्चत दुलह होदि। ४. पूरे कथानक के लिए देखें
आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, पत्र ३६४-३६६ ।
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स्थान ३ : टि० ५०-५२
करुण शब्दों में दशपुर आने के लिए आर्य रक्षित से कहा। आर्यरक्षित ने अपने गुरु वज्रस्वामी से पूछा । आचार्य ने कहाअभी नहीं, अध्ययन में वाधा मत डालो। आर्यरक्षित अध्ययन में पुनः संलग्न हो गए। फल्गुरक्षित ने कहा-भ्रात ! तुम घर चलो और अपने कुटुम्बियों को दीक्षित कर अपना कर्त्तव्य निभाओ । आर्यरक्षित ने कहा--- यदि सभी दीक्षित होना चाहते हैं तो पहले तुम प्रव्रज्या ग्रहण करो।'
फल्गुरक्षित ने तत्काल कहा - भगवान् ! मैं तैयार हूं। आप मुझे व्रत की दीक्षा दें। आर्यरक्षित ने उसे प्रव्रजित कर दिया।
५०- परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध हो ली जाने वाली दीक्षा (सूत्र १८३ )
देखें-- १०११५ के टिप्पण के अन्तर्गत मेतार्य का कथानक ।
५१ - ( सूत्र १८४ )
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं
पुलाक - यह एक प्रकार की तप-जनित शक्ति है। इसे प्राप्त करने वाला बहुत शक्ति सम्पन्न हो जाता है। इस शक्ति का प्रयोग करना मुनि के लिए निषिद्ध होता है। किन्तु कभी क्रुद्ध होने पर वह उसका प्रयोग करता है और उस शक्ति के द्वारा दंडों का निर्माण कर बड़ी से बड़ी सेना को हत-प्रहृत कर देता है ।"
घात्यकर्म - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घात्यकर्म कहलाते हैं ।
५२ - शैक्ष भूमियां (सूत्र १८६ )
शैक्ष का अर्थ है - शिक्षा प्राप्त करने वाला ' तत्त्वार्थवात्र्तिक के अनुसार जो मुनि श्रुतज्ञान की शिक्षा में तत्पर और सतत व्रतभावना में निपुण होता है, वह शैक्ष कहलाता है। * प्रस्तुत सूत्र से उसका अर्थ सामायिक चारित्र वाला मुनि, नवदीक्षित मुनि फलित होता है ।
शैक्षभूमि का अर्थ है - सामायिक चारित्र का अवस्था काल । दीक्षा के समय सामायिक चारित्र स्वीकार किया जाता है । उसमें सर्व सावद्य प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान होता है। उसके पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र अंगीकार किया जाता है। उसमें पांच महाव्रत और रात्रिभोजन-विरमणव्रत को विभागशः स्वीकार किया जाता है।
सामायिक चारित्र की तीन भूमियां ( कालमर्यादाएं) प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित हैं। छह महीनों के पश्चात् निश्चित रूप से छेदोपस्थानीय चारित्र स्वीकार करना होता है।
व्यवहारभाष्य में शैक्षभूमियों की प्राचीन परम्परा का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार — कोई मुनि प्रव्रज्या से पृथक होकर पुनः प्रव्रजित होता है, वह पूर्व विस्मृत सामाचारी आदि की एक सप्ताह में पुनः स्मृति या अभ्यास कर लेता है, इसलिए उसे सातवें दिन में उपस्थापित कर देना चाहिए। यह शैक्ष की जघन्य भूमिका है ।
कोई व्यक्ति प्रथम बार प्रव्रजित होता है, उसकी बुद्धि मंद है और श्रद्धा शक्ति भी मंद है, उसे सामाचारी व इंद्रियविजय का अभ्यास छह मास तक करना चाहिए। यह शैक्ष की उत्कृष्ट भूमिका है ।
मध्यस्तरीय बुद्धि और श्रद्धा वाले को सामाचारी व इंद्रियविजय का अभ्यास चार मास तक कराना चाहिए। यदि कोई भावनाशील श्रद्धा संपन्न और मेधावी व्यक्ति प्रव्रजित हो तो उसे भी सामाचारी व इंद्रियविजय का अभ्यास चार मास तक कराना चाहिए। यह शैक्ष की मध्यम भूमिका है ।"
१. परिशिष्टपर्व, सर्ग १३, पृष्ठ १०७, १०८ ।
२. देखें - विशेषावश्यकभाष्य ८०६ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२४ : शिक्षां वाऽधीत इति शैक्षः ।
४. तत्त्वार्थवार्तिक, ६२४ श्रुतज्ञानशिक्षणपरः अनुपरतव्रतभावनानिपुण: शैक्षक इति लक्ष्यते ।
५. व्यवहारभाष्य १०१५३, ५४ :
पुश्वोवपुराणे, करणजयट्ठा जहणियाभूमी । उनकोसा दुम्मेहं, पडुच्च असहाणं च ।। एमेव य मज्झमिया, अणहिज्जेते य सद्दहंते य । भाविय मेहाविस्तवि, करण जयट्ठा य मज्झमिया ॥
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स्थान ३ : टि० ५३-५७
५३ स्थविर (सूत्र १८७) :
देखें स्थान, १०।१३६ का टिप्पण। ५४-(सूत्र १८८):
सूत्र १८८ से ३१४ तक में मनुष्य की विभिन्न मानसिक दशाओं का चित्रण किया गया है। यहाँ मन की तीन अवस्थाएं प्रतिपादित हैं
१. सुमनस्कता-मानसिक हर्ष । २. दुर्मनस्कता-मानसिक विषाद । ३. मानसिक तटस्थता।
इन सूत्रों से यह फलित होता है कि परिस्थिति का प्रभाव सब मनुष्यों पर समान नहीं होता। एक ही परिस्थिति मानसिक स्तर पर विभिन्न प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करती हैं। उदाहरण के लिए युद्ध की परिस्थिति को प्रस्तुत किया जा सकता है
कुछ पुरुष युद्ध करता हूँ इसलिए सुमनस्क होते हैं। कुछ पुरुष युद्ध करता हूँ इसलिए दुर्मनस्क होते हैं।
कुछ पुरुष युद्ध करता हूँ इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। ५५- (सूत्र ३२२)
प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द ज्ञातव्य हैं-- १. अवक्रान्ति-उत्पन्न होना, जन्म लेना। २. हानि-यह निबुड्ढि (निवृद्धि) शब्द का अनुवाद है। गतिपर्याय और कालसंयोग :-देखें २।२५६ का टिप्पण समुद्घात : देखें ८।११४ का टिप्पण दर्शनाभिगम-प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा होने वाला बोध । ज्ञानाभिगम-प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा होने वाला बोध । जीवाभिगम-जीवबोध ।
५६-५७ -त्रस, स्थावर (सूत्र ३२६, ३२७)
पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पांच प्रकार के जीव स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहलाते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय--ये चार प्रकार के जीव त्रस नामकर्म के उदय से त्रस कहलाते हैं। यह स्थावर और त्रस की कर्मशास्त्रीय परिभाषा है । प्रस्तुत सूत्र [३२६, ३२७] तथा उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्ययन में स्थावर
और त्रस का वर्गीकरण भिन्न प्रकार से प्राप्त होता है। इस वर्गीकरण के अनुसार पृथ्वी, पानी और वनस्पति--ये तीन स्थावर हैं। अग्नि, वायु और उदार वसप्राणी-ये तीन त्रस हैं।
दिगम्बर परम्परा-सम्मत तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पांचों स्थावर हैं। श्वेताम्बर परम्परा-सम्मत तत्त्वार्थसूत्र में स्थावर और बस का विभाग प्रस्तुत सूत्र जैसा ही है।'
इन दोनों परम्पराओं में कोई विरोध नहीं है। वस दो प्रकार के होते हैं-गतिवस और लम्धिनस । जिनमें चलने
१. उत्तराध्ययन, ३६।६६ । २. उत्तराध्ययन, ३६।१०७ । ३. तत्त्वार्थसूत्र, २।१३ : पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावराः ।
४. तत्त्वार्थमूत्र, २०१३, १४ : पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः। तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च वसाः।
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स्थान ३ : टि० ५८-५९
की क्रिया होती है, वे गतित्रस बहलाते हैं। जो जीव इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट निवारण के लिए इच्छापूर्वक गति करते वे लब्धिनस कहलाते हैं। प्रथम परिभाषा के अनुसार अग्नि और वायु बस हैं, किन्तु दूसरी परिभाषा के अनुसार वे त्रस नहीं हैं। प्रस्तुत सूत्र (३२६) में उनकी गति को लक्ष्य कर उन्हें नस कहा गया है।
५८ (सू० ३३७) :
प्रस्तुत सूत्र का पूर्वपक्ष अकृततावाद है । आगम-रचनाशैली के अनुसार इसमें अन्ययूथिक शब्द का उल्लेख है, किन्तु इस वाद के प्रवर्तक का उल्लेख नहीं है। आगम साहित्य में प्रायः सभी वादों का अन्ययूथिक या अन्यतीथिक ऐसा मानते हैंइस रूप में प्रतिपादन किया गया है। बौद्ध पिटकों में विभिन्न वादों के प्रवर्तकों का प्रत्यक्ष उल्लेख मिलता है। दीघनिकाय के सामञ्जफल-सुत्त से पता चलता है कि प्रक्रुधकात्यायन अकृततावाद का प्रतिपादन करते थे। उसके अनुसार सुख और दुःख अकृत, अनिर्मित, अकूटस्थ और स्तंभवत् अचल हैं।
भगवान् महावीर का कोई मुनि या श्रावक प्रक्रुधकात्यायन के इस मत को सुनकर आया और उसने भगवान् से इस विषय में पूछा तब भगवान् ने उसे मिथ्या बतलाया और दु.ख कृत होता है, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
इसके पूर्ववर्ती सूत्र में भी दुःख कृत होता है, यह प्रतिपादित है।
ये दोनों संवादसूत्र किसी अन्य आगम के मध्यवर्ती अंश हैं। तीन की संख्या के अनुरोध से ये यहां संकलित किए गए, ऐसा प्रतीत होता है।
भगवान् बुद्ध ने इस अहेतुवाद की आलोचना की थी। अंगुत्तर-निकाय में इसका उल्लेख मिलता है
भिक्षुओ ! जिन श्रमण-ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख, दुःख या अदुखअसुख अनुभव करता है, वह सब बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के, उनके पास जाकर मैं उनसे प्रश्न करता हूंआयुष्मानो ! क्या सचमुच तुम्हारा यह मत है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख, दुःख या अदुख-असुख अनुभव करता है, वह सब बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के ?
मेरे ऐसा पूछने पर वे "हां" उत्तर देते हैं।
तब मैं उनसे कहता हूं- तो आयुष्मानो! तुम्हारे मत के अनुसार बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी प्राणी-हिंसा करने वाले होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी चोरी करने वाले होते हैं, विना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी अब्राह्मचारी होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी झूठ बोलने वाले होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी चुगलखोर होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी कठोर बोलने वाले होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी व्यर्थ बकवास करने वाले होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी लोभी होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी क्रोधी होते हैं तथा बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी मिथ्यादृष्टि वाले होते हैं। भिक्षुओ! इस अहेतुवाद, इस अकारणवाद को ही साररूप ग्रहण कर लेने से यह करना योग्य है, और यह करना अयोग्य है, इस विषय में संकल्प नहीं होता, प्रयत्न नहीं होता। जब यह करना योग्य है और यह करना अयोग्य है, इस विषय में ही यथार्थ-ज्ञान नहीं होता तो इस प्रकार के मूढ़-स्मृति असंयत लोगों का अपने-आप को धार्मिक-श्रमण कहना सहेतुक नहीं होता।
५६-(सू० ३४६) :
प्रस्तुत सूत्र अपवादसूत्र है । साधारणतया (उत्सर्ग मार्ग में ) मुनि के लिए मादक द्रव्यों का निषेध है । ग्लान अवस्था में आपवादिक मार्ग के अनुसार मुनि आसव आदि ले सकता है। प्रस्तुत सूत्र में उसकी मर्यादा का विधान है। दत्ति का अर्थ
१. तत्त्वार्थसूत्रभाष्यानुसारिणी टीका, २०१४ : वसत्वं च द्विविध क्रियातो लब्धितश्च ।
२. दीघनिकाय, १२, १० २१ । ३. अंगुत्तरनिकाय, भाग १,पृ० १७६-१८० ।
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स्थान ३ : टि० ६०-६४
है-अञ्जलि।' ग्लान अवस्था में भी मुनि तीन अञ्जलि से अधिक मादक द्रव्य नहीं ले सकता। निशीथसूत्र में ग्लान के लिए तीन अञ्जलि से अधिक मादक द्रव्य लेने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया है
जे भिक्खू गिलाणस्सट्टाए परं तिण्हं वियडदत्तीणं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।।
यह अपवाद सूत्र छेद सूत्रों की रचना के पश्चात् स्थानांगसूत्र में संक्रान्त हुआ, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उन्होंने विकट का अर्थ पानक और दत्ति का अर्थ एक धार में लिया जा सके उतना द्रव्य किया है। उन्होंने उत्कृष्ट, मध्य और जघन्य के अर्थ मात्रा और द्रव्य इन दोनों दृष्टियों से किए हैंउत्कृष्ट-(१) पर्याप्त जल, जिससे दिन-भर प्यास बुझाई जा सके।
(२) कलमी चावल की कांजी। मध्यम-(१) अपर्याप्त जल, जिससे कई बार प्यास बुझाई जा सके।
(२) साठी चावल की कांजी। जघन्य-(१) एक बार पिए उतना जल ।
(२) तृणधान्य की कांजी या गर्म पानी। वृत्तिकार ने अपने सामयिक वातावरण के अनुसार प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या की है, किन्तु 'गिलायमाणस्स' इस पाठ के सन्दर्भ में यह व्याख्या संगत नहीं लगती। पानक का विधान अग्लान के लिए भी है फिर ग्लान के लिए सूत्र रचना का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। दूसरी बात निशीय सूत्र के उन्नीसवें उद्देशक के सन्दर्भ में इस व्याख्या की संगति नहीं बिठाई जा सकती।
६०--सांभोगिक (सू० ३५०) :
देखो समवाओ १२१२ का टिप्पण । ६१-६४–अनुज्ञा, समनुज्ञा, उपसंपदा, विहान (सू० ३५१-३५४) :
इन चार सूत्रों में अनुज्ञा, समनुज्ञा, उपसंपदा और विहान-ये चार शब्द विमर्शनीय हैं।
आचार्य, उपाध्याय और गणी-ये तीनों साधुसंघ के महत्त्वपूर्ण पद हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार ये आचार्य या स्थविरों के अनुमोदन से प्राप्त होते थे। वह अनुमोदन सामान्य और विशिष्ट दोनों प्रकार का होता था। सामान्य अनुमोदन को अनुज्ञा और विशिष्ट अनुमोदन को समनुज्ञा कहा जाता था। अनुमोदनीय व्यक्ति असमग्र गुणयुक्त और समग्र गुणयुक्त दोनों प्रकार के होते थे। असमग्र गुणयुक्त व्यक्ति को दिए जाने वाले अधिकार को अनुज्ञा तथा समग्रगुणयुक्त व्यक्ति को दिये जाने वाले अधिकार को समनुज्ञा कहा जाता था।
प्राचीनकाल में ज्ञान, दर्शन और चारित की विशेष उपलब्धि के लिए अपने गण के आचार्य, उपाध्याय और गणी को छोड़कर दूसरे गण के आचार्य, उपाध्याय और गणी के शिष्यत्व स्वीकार करने की परम्परा प्रचलित थी। इसे उपसंपदा कहा जाता था।
१. निशीथचूणि, १९६५, भाग ४, पृ० २२१;
दत्तीए पमाणं पसती। २. निसोहज्झयण १९।५। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १३१ : तओ ति तिस्रः 'वियड' त्ति पानकाहार , तस्य दत्तय:-एकप्रक्षेपप्रदानरूपा: प्रतिग्रहीतुम् --आधयितु वेदनोपशमायेति, उत्कर्ष:-प्रकर्ष तद्योगादुत्कर्षा उत्कर्षतीति वोत्कर्षा उत्कृष्टेत्यर्थः, प्रचुरपानकलक्षणा, यया
दिनमपि यापयति, मध्यमा ततो हीना, जघन्या यया सकृदेव वितृष्णो भवति यापनामानं वा लभते, अथवा पानकविशेषादुत्कृष्टाद्यावाच्याः, तथाहि-कलमकाञ्जिकावश्रावणादे; द्राक्षापानकादेर्वा प्रथमा १ षष्ठिका [दि] काञ्जिकादेमध्यमा २ तृणधान्यकाञ्जिकादेष्णोदकस्य वा जघन्येति, देशकालस्वरचिविशेषाद्वोत्कर्षादि नेयमिति ।
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स्थान ३: टि० ६५-७८ ___ आचार्य, उपाध्याय और गणी भी विशिष्ट प्रजयोन उपस्थित होने पर अपने पद का त्याग कर देते थे। इसे विहान कहा जाता था।
६५-अल्पायुष्क (सू० ३६१) :
डा० बोरीक्लोसोन्सकी ने सोवियत अर्थ-पत्रिका में लिखा है---अन्तरिक्ष में पृथ्वी की अपेक्षा समय बहुत धीमी गति से बढ़ता है। यह तथ्य इसी तथ्य की ओर संकेत करता है कि देवता का मुहूर्त बीतता है और मनुष्य का जीवन ही बीत जाता है।
६६-७२-(सू० ३६२):
आचार्य-अर्थ की वाचना देने वाला-अनुयोगाचार्य । उपाध्याय-सूत्र पाठ की वाचना देने वाला। प्रवर्तक-वैयावृत्त्य तपस्या आदि में साधुओं की नियुक्ति करने वाला। स्थविर--संयम में अस्थिर होने वालों को पुन: स्थिर करने वाला। गणी-गणनायक। गणधर-साध्वियों के विहार आदि की व्यवस्था करने वाला।' गणावच्छेदक-प्रचार, उपाधि-लाभ आदि कारणों से गण से अन्यत्र विहार करने वाला।
७३-पानक (सू० ३७६) :
पानक को हिन्दी में पना कहा जाता है। प्राचीनकाल में आयुर्वेदिक-पद्धति के अनुसार द्राक्षा आदि अनेक द्रव्यों का पानक तैयार किया जाता था। यहां पानक शब्द धोबन तथा गर्म पानी के लिए भी प्रयुक्त किया गया है।
मूलाराधना' में पानक के छह प्रकार मिलते हैं१. स्वच्छ-उष्णोदक, सौवीर आदि। २. बहल-कांजी, द्राक्षारस तथा इमली का सार। ३. लेवड-लेपसहित (दही आदि)। ४. अलेवड-लेपरहित, मांड आदि । ५. ससिक्थ-पेया आदि। ६. असिक्थ-मंग का सूप आदि।
७४-७५–फलिकोपहृत, शुद्धोपहृत (सू० ३७६) :
फलिकोपहृत-कोई अभिग्रहधारी साधु उठाया हुआ लेता है, कोई परोसा हुआ लेता है और कोई पुनः पाकपात्र में डाला हुआ लेता है
देखें--आयारचूला १।१४५ ।
शुद्धोपहृत-देखें आयारचूला १।१४४ ७६-७८- (सू० ३६२-३९४) :
इन तीन सूत्रों में मनुष्यों के व्यवहार की कमिक भूमिकाओं का निर्देश है। मनुष्य में सर्वप्रथम दृष्टिकोण का निर्माण होता है। उसके पश्चात् उसमें रुचि या श्रद्धा उत्पन्न होती है। फिर वह कार्य करता है। इसका अर्थ होता है-दर्शनानुसारी१. विशेष जानकारी के लिए देखें वृहत्कल्पभाष्य ।
३. मूलाराधना, आश्वास २७०० । २. देखें-दसवेजालियं, ११।४७ का टिप्पण।
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स्थान ३ : टि० ७६
श्रद्धा और श्रद्धानुसारीप्रयोग। दृष्टिकोण यदि सम्यक होता है तो श्रद्धा और प्रयोग दोनों सम्यक होते हैं। उसके मिथ्या और मिश्रित होने पर श्रद्धा और प्रयोग भी मिश्रित होते हैं। १. सम्यकदर्शन मिथ्यादर्शन
सम्यमिथ्यादर्शन २. सम्यक्रुचि
मिथ्यारुचि
सम्यक्मिथ्यारुचि ३. सम्यक्प्रयोग मिथ्याप्रयोग
सम्यमिथ्याप्रयोग
७६–व्यवसाय (सू० ३६५) :
इन पांच सूत्रों का (३६५-३६६) विभिन्न व्यवसायों का उल्लेख है। व्यवसाय का अर्थ होता है--निश्चय, निर्णय और अनुष्ठान । निश्चय करने के साधनभूत ग्रन्थों को भी व्यवसाय कहा जाता है। प्रस्तुत पांच सूत्रों में विभिन्न दृष्टिकोणों से व्यवसाय का वर्गीकरण किया गया है।
प्रथम वर्गीकरण धर्म के आधार पर किया गया है। दूसरा वर्गीकरण ज्ञान के आधार पर किया गया है। इसे देखते ही वैशेषिकदर्शन-सम्मत तीन प्रमाणों की स्मृति हो आती है। वैशेषिक सम्मत प्रमाण :
प्रस्तुत वर्गीकरण १. प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष २. अनुमान
प्रात्ययिक-आगम ३. आगम
आनुगामिक-अनुमान वृत्तिकार ने प्रत्यक्ष और प्रात्ययिक के दो-दो अर्थ किए हैं। प्रत्यक्ष के दो अर्थ-यौगिक प्रत्यक्ष और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष । यहां ये दोनों अर्थ घटित होते हैं।
प्रात्ययिक के दो अर्थ१. इन्द्रिय और मन के योग से होने वाला ज्ञान (व्यावहारिक प्रत्यक्ष)। २. आप्तपुरुष के वचन से होने वाला ज्ञान ।
तीसरा वर्गीकरण वर्तमान और भावी जीवन के आधार पर किया गया है। मनुष्य के कुछ निर्णय वर्तमान जीवन की दृष्टि से होते हैं, कुछ भावी जीवन की दृष्टि से और कुछ दोनों की दृष्टि से। ये क्रमश: इहलौकिक, पारलौकिक और इहलौकिक-पारलौकिक कहलाते हैं।
चौथा वर्गीकरण विचार-धारा या शास्त्र-ग्रन्थों के आधार पर किया गया है। इस प्रकरण में मुख्यतः तीन विचारधाराएं प्रतिपादित हुई हैं-लौकिक, वैदिक और सामयिक।।
लौकिक विचारधारा के प्रतिपादक होते हैं--अर्थशास्त्री, धर्मशास्त्री (समाजशास्त्री) और कामशास्त्री। ये लोग अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र (समाजशास्त्र) और कामशास्त्र के माध्यम से अर्थ, धर्म (सामाजिक कर्त्तव्य) और काम के औचित्य तथा अनौचित्य का निर्णय करते हैं। सूत्रकार ने इसे लौकिक व्यवसाय माना है। इस विचारधारा का किसी धर्म-दर्शन से सम्बन्ध नहीं होता। इसका सम्बन्ध लोकमत से होता है।
वैदिक विचारधारा के आधारभूत ग्रन्थ तीन वेद हैं--ऋक्, यजु और साम । यहां व्यवसाय के निमित्तभूत ग्रन्थों को ही व्यवसाय कहा गया है।
वृत्तिकार ने सामयिक व्यवसाय का अर्थ सांख्य आदि दर्शना के समय (सिद्धान्त) से होने वाला व्यवसाय किया है। प्राचीनकाल में सांख्यदर्शन श्रमण-परम्परा का ही एक अंग रहा है। उसी दृष्टि के आधार पर वृत्तिकार ने यहाँ मुख्यता से सांख्य का उल्लेख किया है। सामयिक व्यवसाय के तीन प्रकारों का दो नयों से अर्थ किया जा सकता है।
ज्ञानव्यवसाय-ज्ञान का निश्चय या ज्ञान के द्वारा होने वाला निश्चय । दर्शनव्यवसाय-दर्शन का निश्चय । चरित्रव्यवसाय-चरित्र का निश्चय । दूसरे नय के अनुसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये श्रमणपरम्परा (या जैनशासन) के तीन मुख्य ग्रंथ माने जा सकते
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स्थान ३ : टि०८०
हैं। सूत्रकार ने किन ग्रन्थों की ओर संकेत किया है, यह उनकी उपलब्धि के अभाव में निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता; पर इस कोटि के ग्रंथों की परम्परा रही है, इसकी पुष्टि आचार्य कुंदकुंद के बोधप्राभृत, दर्शनप्राभूत और चरित्रप्राभूत से होती है। ३।५११ में तीन प्रकार के अन्त (निर्णय) बतलाए गए हैं, वे प्रस्तुत विषय से ही सम्बन्धित हैं।
८०-(सू० ४००):
प्रस्तुत सूत्र में साम, दण्ड और भेद-ये तीन अर्थयोनि के रूप में निर्दिष्ट हैं। चाणक्य ने शासनाधीन संधि और विग्रह के अनुष्ठानोपयोगी उपायों का निर्देश किया है । वे चार हैं-साम, उपप्रदातन, भेद और दण्ड ।' वृत्तिकार ने बताया है-किसी पाठ-परंपरा में दण्ड के स्थान पर प्रदान पाठ माना जाता है। इस पाठान्तर के आधार पर चाणक्य-निर्दिष्ट उपप्रदान भी इसमें आ जाता है।
चाणक्य ने साम के पांच, भेद के दो और दण्ड के तीन प्रकार बतलाए हैं। साम के पांच प्रकार
१. गुणसंकीर्तनं-स्तुति। २. सम्बन्धोपाख्यानं-सम्बन्ध का कथन करना। ३. परस्परोपकारसन्दर्शनं-परस्पर किए हुए उपकारों का वर्णन करना। ४. आपत्तिप्रदर्शनं भविष्य के सुनहले स्वप्न का प्रदर्शन करना।
५. आत्मोपनिधानं-सामने वाले व्यक्ति के साथ अपनी एकता प्रदर्शित करना। भेद के दो प्रकार
१. शंकाजननं-संदेह उत्पन्न कर देना।
२. निर्भर्त्सनं-भर्त्सना करना। दण्ड के तीन प्रकार
१. वध । २. परिक्लेश। ३. अर्थहरण ।
वृत्तिकार ने कुछ श्लोक उद्धृत किए हैं। उनके आधार पर साम के पांच, दण्ड और भेद के तीन-तीन तथा पाठान्तर के रूप में प्राप्त प्रदान के पांच प्रकार बतलाए हैं। साम के पांच प्रकार--
१. परस्परोपकारदर्शन । २. गुणकीर्तन । ३. सम्बन्धसमाख्यान । ४. आयतिसंप्रकाशन । ५. अर्पण। दण्ड के तीन प्रकार
१. वध । २. परिक्लेश । ३. धनहरण । भेद के तीन प्रकार
१. स्नेहरागापनयन-स्नेह, राग का अपनयन करना। २. संहर्षोत्पादन-स्पर्धा उत्पन्न करना । ३. संतर्जन-तर्जना देना।
१. कौटलीयाऽर्थशास्त्रम्, अध्याय ३१, प्रकरण २८, पृ० ८३ :
उपायाः सामोपप्रदानभेददण्डाः । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र १४१, १४२ : १. परस्परोपकाराणां, दर्शनं गुणकीर्त्तनम् ।
सम्बन्धस्य समाख्यान, मायत्याः संप्रकाशनम् ।। २. वाचा पेशलया साधु, तवाहमिति चार्पणम् । इति सामप्रयोगः, साम पञ्चविघं स्मृतम् ॥
३. वधश्चव परिक्लेशो, धनस्य हरणं तथा ।
इति दण्डविधानॉर्दण्डोऽपि निविधः स्मृतः ।। ४. स्नेहरागापनयन, संहर्षोत्पादनं तदा।
सन्तर्जनं च भेद दस्तु विविधः स्मृतः ।। ५. यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः, उत्तमाधममध्यमः ।
प्रतिदानं तथा तस्य, गृहीतस्यानुमोदनम् ।। ६. द्रव्यदानमपूर्वं च, स्वयंग्राहप्रवर्तनम् ।
देयस्य प्रतिमोक्षश्च, दानं पञ्चविघं स्मृतम् ।।
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स्थान ३ : टि०८१-८५
प्रदान के पांच प्रकार
१. धनोत्सर्ग-धन का विसर्जन। २. प्रतिदान-गृहीतधन का अनुमोदन । ३. अपूर्वद्रव्यदान-अपूर्वद्रव्य का दान करना। ४. स्वयंग्राहप्रवर्तन-दूसरे के धन के प्रति स्वयं ग्रहणपूर्वक प्रवर्तन करना। ५. देयप्रतिमोक्ष-ऋण चुकाना।
८१-(सू० ४०२):
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के आशय इस प्रकार हैंशुद्धतरदृष्टि से सभी वस्तुएं आत्म-प्रतिष्ठित होती हैं। शुद्धदृष्टि से सभी वस्तुएं आकाश-प्रतिष्ठित होती हैं। अशुद्धदृष्टि-लोक व्यवहार से सब वस्तुएं पृथ्वी प्रतिष्ठित होती हैं।
५२-मिथ्यात्व (सू० ४०३) :
प्रस्तुत सूत्र में मिथ्यात्व का प्रयोग मिथ्यादर्शन या विपरीततत्त्वश्रद्धान के अर्थ में नहीं है। यहां इसका अर्थ असमीचीनता है।
८३-(सू० ४०४) :
प्रस्तुत सूत्र में अक्रिया के तीन प्रकार बतलाए गए हैं और उनके प्रकारों में क्रिया शब्द का व्यवहार हुआ है । वृत्तिकार ने उसी का समर्थन किया है। ऐसा लगता है यहां अकार लुप्त है। प्रयोग क्रिया का अर्थ प्रयोग अक्रिया अर्थात् असमीचीन प्रयोगक्रिया होना चाहिए। वृत्तिकार ने देसणाण आदि तीनों पदों की देश अज्ञान और देशज्ञान-इन दोनों रूपों में व्याख्या की है। उनमें जैसे अकार का प्रश्लेष माना है, वैसे पओगकिरिया आदि पदों में क्यों नहीं माना जा सकता?
८४-(सू० ४२७) :
देखें १३८७-३८६ का टिप्पण।
८५-(सू० ४३२) :
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैंउद्गमउपघात-आहार की निष्पत्ति से सम्बन्धित भिक्षा-दोष, जो गृहस्थ द्वारा किया जाता है। उत्पादनउपघात-आहार के ग्रहण से सम्बन्धित भिक्षा-दोष, जो साधु द्वारा किया जाता है। एषणाउपघात-आहार लेते समय होने वाला भिक्षा-दोष, जो साधु और गृहस्थ दोनों द्वारा किया जाता है।
१. स्थानांगवृत्ति, पन १४३ : अक्रिया हि प्रशोभना क्रियवा
तोऽक्रिया त्रिविधेत्यभिधायापि प्रयोगेत्यादिना क्रियेवोक्ता। २. स्थानांगवृत्ति, पन १४४ : ज्ञानं हि द्रव्यपर्यायविषयो बोधस्तनिषेधोजानं तत्र विवक्षितद्रव्यं देशतो यदा न जानाति तदा
देशाज्ञानमकारप्रश्लेषात्, यदा च सर्वतस्तदा सर्वाज्ञानं, यदा विवक्षितपर्यायतो न जानाति तदा भावाज्ञानमिति, अथवा देशादिज्ञानमपि मिथ्यात्वविशिष्टमज्ञानमेवेति अकारप्रश्लेष विनापि न दोष इति ।
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ठाणं (स्थान)
२८०
स्थान ३ : टि०८६-६१
८६-(सू० ४३८) :
___ संक्लेश शब्द के कई अर्थ होते हैं, जैसे--असमाधि, चित्त की मलिनता, अविशुद्धि, अरति और रागद्वेष की तीव्र परिणति।
आत्मा की असमाधिपूर्ण या अविशुद्ध परिणामधारा से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पतन होता है, उनकी विशुद्धि नष्ट होती है, इसलिए उसे क्रमशः ज्ञानसंक्लेश, दर्शनसंक्लेश और चारित्रसंक्लेश कहा जाता है।
८७-६०-(सू० ४४०-४४३) :
ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आठ-आठ आचार होते हैं। उनके प्रतिकूल आचरण करने को अनाचार कहा जाता है। उसके चार चरण हैं। चतुर्थ चरण में वह अनाचार कहलाता है। उसका प्रथम चरण है प्रतिकूल आचरण का संकल्प, यह अतिक्रम कहलाता है। उसका दूसरा चरण है प्रतिकुल आचरण का प्रयत्न, यह व्यतिक्रम कहलाता है। उसका तीसरा चरण है प्रतिकूल आचरण का आंशिक सेवन, यह अतिचार कहलाता है। प्रतिकूल आचरण का पूर्णतः सेवन अनाचार की कोटि में चला जाता है।
६१-(सू० ४८२) : सामायिक कल्पस्थिति
यह कल्पस्थिति प्रथम तथा अंतिम तीर्थकर के समय में अल्पकाल की होती है तथा शेष बाईस तीर्थंकरों के समय में और महाविदेह में यावत्कथिक जीवन पर्यन्त तक होती है।
इस कल्प के अनुसार शय्यातरपिंडपरिहार, चातुर्यामधर्म का पालन, पुरुषज्येष्ठत्व तथा कृतिकर्म-ये चार आवश्यक होते हैं तथा श्वेतवस्त्र का परिधान, औद्देशिक (एक साधु के उद्देश्य से बनाए हुए) आहार का दूसरे सांभोगिक द्वारा अग्रहण, राजपिंड का अग्रहण, नियत प्रतिक्रमण, मास-कल्पविहार तथा पर्युषणाकल्प-ये वैकल्पिक होते हैं। छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति
यह कल्पस्थिति प्रथम तथा अन्तिम तीर्थकर के समय में ही होती है। इस कल्प के अनुसार उपरोक्त दस कल्पों का पालन करना अनिवार्य है।
निर्विशमान कल्पस्थिति, निविष्ट कल्पस्थिति
परिहारविशुद्धचरित्र में नव साधु एक साथ अवस्थित होते हैं। उनमें चार साधु पहले तपस्या करते हैं। उन्हें निर्विशमान कल्पस्थिति साधु कहा जाता है। चार साधु उनकी परिचर्या करते हैं तथा एक साधु आचार्य होते हैं । पूर्व चार साधुओं की तपस्या के पूर्ण हो जाने पर शेष चार साधु तपस्या करते हैं तथा पूर्व तपोभितप्त साधु उनकी परिचर्या करते हैं। उन्हें निविष्टकल्प कहा जाता है। दोनों दलों की तपस्या हो जाने के बाद आचार्य तपोवस्थित होते हैं और शेष आठों ही साधू उनकी परिचर्या करते हैं। नवों ही साधु जघन्यतः नवें पूर्व की तीसरी आचार नामक वस्तु तथा उत्कृष्टतः कुछ न्यून दस पूर्वो के ज्ञाता होते हैं।
निविंशमान साधुओं की कल्पस्थिति का क्रम निम्ननिर्दिष्ट रहता है-वे ग्रीष्म, शीत तथा वर्षाऋतु में जघन्य में क्रमश: चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त और अष्टमभक्त ; मध्यम में क्रमशः षष्ठभक्त, अष्टभक्त और दशमभक्त ; उत्कृष्ट में क्रमशः अष्टमभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त की तपस्या करते हैं। पारणा में भी साभिग्रह आयम्बिल की तपस्या करते हैं। शेष साधु भी इस चरित्रावस्था में आयम्बिल करते हैं। जिनकल्पस्थिति
विशेष साधना के लिए जो संघ से अलग होकर रहते हैं, उनकी आचार-मर्यादा को जिनकल्प स्थिति कहा जाता है।
१. देखें ५११४७ का टिप्पण।
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ठाणं (स्थान)
२८१
स्थान ३ : टि०६२
वे प्रतिदिन आयंबिल करते हैं, एकाकी रहते हैं, दस गुणोपेत स्थंडिल में ही उच्चार तथा जीर्ण वस्त्रों का परित्याग करते हैं, विशेष धति वाले होते है, भिक्षा तीसरे प्रहर में ग्रहण करते हैं, मासकल्पविहार करते हैं, एक गली में छह दिनों से पहले भिक्षा के लिए नहीं जाते तथा इनके ठहरने का स्थान एकान्त होता है। स्थविरकल्पस्थिति--
जो संघ में रहकर साधना करते हैं, उनकी आचारविधि को स्थविरकल्पस्थिति कहा जाता है। वे पठन-पाठन करते हैं, शिष्यों को दीक्षा देते हैं, उनका वास अनियत रहता है तथा वे दस सामाचारी का सम्यक अनुपालन करते हैं।
देखें ६।१०३ का टिप्पण
६२-प्रत्यनीक (सू० ४८८-४६३) :
प्रत्यनीक का अर्थ है प्रतिकूल । प्रस्तुत आलापक में प्रतिकूल व्यक्तियों के विभिन्न दृष्टियों से वर्गीकरण किए गए हैं।
प्रथम वर्गीकरण तत्त्व-उपदेष्ट या ज्येष्ठा की अपेक्षा से है। आचार्य और उपाध्याय तत्त्व के उपदेष्टा होते हैं। स्थविर तत्त्व के उपदेष्टा भी हो सकते हैं या जन्मपर्याय आदि से बड़े भी हो सकते हैं। जो व्यक्ति अवर्णवाद, छिद्रान्वेषण आदि के रूप में उनके प्रतिकूल व्यवहार करता है, वह गुरु की अपेक्षा से प्रत्यनीक होता है।
दूसरा वर्गीकरण जीवन-पर्याय की अपेक्षा से है। इहलोक और परलोक के दो-दो अर्थ किए जा सकते हैं-वर्तमान जीवनपर्याय और आगामी जीवनपर्याय तथा मनुष्य जीवन और तिर्यंचजीवन।
जो मनुष्य वर्तमान जीवन के प्रतिकूल व्यवहार करता है-पंचाग्नि साधक तपस्वी की भांति इंद्रियों को अज्ञानपूर्ण तप से पीड़ित करता है या इहलोकोपकारी भोग-साधनों के प्रति अविवेक पूर्ण व्यवहार करता है या मनुष्य जाति के प्रति निर्दय व्यवहार करता है, वह इहलोक प्रत्यनीक कहलाता है।
जो मनुष्य इंद्रियों के विषयों में आसक्त होता है या ज्ञान आदि लोकोत्तर गुणों के प्रति उपद्रवपूर्ण व्यवहार करता है या पशु-पक्षी जगत् के प्रति निर्दय व्यवहार करता है, वह परलोक प्रत्यनीक कहलाता है।
___ जो मनुष्य चोरी आदि के द्वारा इंद्रिय विषयों का साधन करता है या मनुष्य और तिर्यच दोनों जातियों के प्रति निर्दय व्यवहार करता है, वह उभयप्रत्यनीक कहलाता है ।
उक्त निरूपण से स्पष्ट होता है कि जैनधर्म इंद्रिय-संताप और इन्द्रिय-आसक्ति दोनों के पक्ष में नहीं है।
तीसरा वर्गीकरण समूह की अपेक्षा से है। कुल से गण और गण से संघ वृहत् होता है। ये लौकिक और लोकोत्तर दोनों पक्षों में होते हैं । जो मनुष्य इनका अवर्णवाद बोलता है, इन्हें विघटित करने का प्रयत्न करता है, वह कुल आदि का प्रत्यनीक होता है।
चौथा वर्गीकरण अनुकम्पनीय व्यक्तियों की अपेक्षा से है। तपस्वी (मासोपवास आदि तप करने वाला), ग्लान (रोग, वृद्धता आदि से असमर्थ) और शैक्ष (नव दीक्षित)-ये अनुकम्पनीय माने जाते हैं। जो मुनि इनको उपष्टम्भ नहीं देता, इनकी सेवा नहीं करता, वह तपस्वी आदि का प्रत्यनीक होता है।
पांचवां वर्गीकरण कर्मविलय-जनित पर्याय की अपेक्षा से है। जो व्यक्ति ज्ञान को समस्याओं की जड़ और अज्ञान को सुख का हेतु मानता है, वह ज्ञान-प्रत्यनीक होता है। इसी प्रकार दर्शन और चारित्न की व्यर्थता का प्रतिपादन करने वाला दर्शन और चरित्र का प्रत्यनीक होता है । इनकी वितथ व्याख्या करने वाला भी इनका प्रत्यनीक होता है।
छठा वर्गीकरण शास्त्र-ग्रन्थों की अपेक्षा से है। संक्षिप्त मूलपाठ को सूत्र, उसकी व्याख्या को अर्थ, पाठ और अर्थ मिश्रित रचना को तदुभय (सूत्रार्थात्मक) कहा जाता है। सूत्रपाठ का यथार्थ उच्चारण न करने वाला सूत्र-प्रत्यनीक और उसकी तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करने वाला अर्थ-प्रत्यनीक कहलाता है।
इस प्रतिकूलता का प्रतिपादन सूत्र और अर्थ की प्रामाणिकता नष्ट न हो, इस दृष्टि से किया गया प्रतीत होता । इस प्रकार के प्रयत्न का उल्लेख बौद्ध साहित्य में भी मिलता है
भगवान् बुद्ध ने कहा-भिक्षुओ! दो बातें सद्धर्म के नाश का, उसके अन्तर्धान का कारण होती है। कौन सी दो बातें ?
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ठाणं (स्थान)
२८२
स्थान ३: टि०६३-६६
पाली के शब्दों का व्यतिक्रम तथा उनके अर्थ का अनर्थ करना।
भिक्षुओ! पाली के शब्दों का व्यतिक्रम होने से उनके अर्थ का भी अनर्थ होता है। भिक्षुओ! ये दो बातें सद्धर्म के नाश का, उसके अन्तर्धान का कारण होती हैं।
भिक्षुओ ! दो बातें सद्धर्म की स्थिति का, उसके नाश न होने का, उसके अन्तर्धान न होने का कारण होती हैं। कौन सी दो बातें?
पाली के शब्दों का ठीक-ठीक क्रम तथा उनका सही-सही अर्थ । भिक्षुओ! पाली के शब्दों का क्रम ठीक-ठीक रहने से उनका अर्थ भी सही-सही रहता है। भिक्षुओ ! ये दो बातें सद्धर्म की स्थिति का, उसके नाश न होने का, उसके अन्तर्धान न होने का कारण होती हैं।'
६३-(सू. ४६६) :
महानिर्जरा-निर्जरा नवसद्भाव पदार्थों में एक पदार्थ है। इसका अर्थ है बंधे हुए कर्मों का क्षीण होना। कर्मों का विपुल मात्रा में क्षीण होना महानिर्जरा कहलाता है।
महापर्यवसान-इसके दो अर्थ होते हैं-समाधिमरण और अपुनर्मरण। जिस व्यक्ति के महानिर्जरा होती है वह समाधिपूर्ण मरण को प्राप्त होता है । यदि सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाती है तो वह अपुनर्मरण को प्राप्त होता है-जन्ममरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
एकल विहारप्रतिमादेखें-८१ का टिप्पण।
६४–प्रतियानऋद्धि (सू. ५०३) :
अतियान ऋद्धि-अतियान का अर्थ है नगर-प्रवेश। ऋद्धि का अर्थ है शोभा या सजावट । जब राजा या राजा के अतिथि आदि विशिष्ट व्यक्ति नगर में आते थे उस समय नगर के तोरण-द्वार सज्जित किए जाते थे, दुकानें सजाई जाती धी और राजपथ पर हजारों आदमी एकत्रित होते थे, इसे अतियानऋद्धि कहा जाता था।
६५---निर्याणऋद्धि (सू. ५०३) :
निर्याणऋद्धि-इसका अर्थ है नगर से निर्गमन के समय साथ चलने वाला वैभव । जब राजा आदि विशिष्ट व्यक्ति नगर से निर्गमन करते थे उस समय हाथी, सामन्त, परिवार आदि के लोग उनके साथ चलते थे।'
६६-(सू. ५०७)
प्रस्तुत मूत्र में धर्म के तीन अंगों-अध्ययन, ध्यान और तपस्या का निर्देश है । इनमें पौर्वापर्य का संबंध है । अध्ययन के बिना ध्यान और ध्यान के बिना तपस्या नहीं हो सकती। पहले हम किसी बात को अध्ययन के द्वारा जानते हैं, फिर उसके आशय का ध्यान करते हैं। चिंतन, मनन और अनुप्रेक्षा करते हैं। फिर उसका आचरण करते हैं । स्वाख्यात धर्म का यही श्रम है। भगवान् महावीर ने इसी क्रम का प्रतिपादन किया था। दूसरे स्थान में धर्म के दो प्रकार बतलाए गए हैं - श्रुतधर्म और चारित्रधर्म। यहां निर्दिष्ट तीन प्रकारों में से सु-अधीत और सु-ध्यात श्रुतधर्म के प्रकार हैं और सु-तपस्थित चरित्नधर्म का प्रकार है।
१. अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृ०६१। २. स्थानांगवृत्ति पन १६२ : अतियानं- नगरप्रवेश , तत्र ऋद्धिः
-तोरणहट्टशोभाजनसम्मदिलक्षणा ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १६२ : निर्यानं–नगरान्निर्गमः, तत्र ऋद्धिः
हस्ति कल्पनसामन्तपरिवारादिका । ४. स्थानांग २।१०७१
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ठाणं (स्थान)
६७-६६--- जिन, केवली, अर्हत् (सू० ५१२ - ५१४)
इन तीन सूत्रों में जिन, केवली और अर्हत के तीन-तीन विकल्प निर्दिष्ट हैं । अर्हत् और जिन ये दोनों शब्द जैन और दोनों के साहित्य में प्रयुक्त हैं । केवली शब्द का प्रयोग मुख्यतः जैन साहित्य में मिलता है।
ज्ञान की दृष्टि से दो प्रकार के मनुष्य होते हैं
१. परोक्षज्ञानी २. प्रत्यक्षज्ञानी ।
जो मनुष्य इंद्रियों के माध्यम से ज्ञेय वस्तु को जानते हैं, वे परोक्षज्ञानी होते हैं। प्रत्यक्षज्ञानी इंद्रियों का आलम्बन लिए बिना ही ज्ञेय वस्तु को जान लेते हैं । वे अतीन्द्रियज्ञानी भी कहलाते हैं। यहां प्रत्यक्षज्ञानी या अतीन्द्रियज्ञानी को ही जिन, केवली और अहं कहा गया है।
१००
- ( सू० ५२० ) :
जिस समय कृष्ण आदि अशुद्ध लेश्याएं न शुद्ध होती हैं और न अधिक संक्लिष्टता की ओर बढ़ती है, उस समय स्थितलेश्य मरण होता है । कृष्णलेश्या वाला जीव मरकर कृष्णलेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता हैं, तब यह स्थिति होती है।
२८३
संक्लिष्ट लेश्य
जब अशुद्ध लेश्या अधिक संक्लिष्ट होती जाती है, तब संक्लिष्टलेश्यमरण होता है । नील आदि लेश्या वाला जीव मरकर जब कृष्णलेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता है तब यह स्थिति होती है ।
पर्यवजातलेश्य --
अशुद्धलेश्या जब शुद्ध बनती जाती है, तत्र पर्यवजातमरण होता है । कृष्ण या नीललेश्या वाला जीव जब मरकर कापोतलेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता है, तब यह स्थिति होती है ।
१०२ - ( सू० ५२३ ) :
स्थान ३ : टि० ६७-१०३
१०१ - ( सू० ५२२ ) :
प्रस्तुत सूत्र में दूसरा [असंक्लिष्टलेश्य ] और तीसरा [ अपर्यवजातलेश्य ] — ये दोनों भेद केवल विकल्प रचना की दृष्टि से ही है।
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं
अक्षम -- असंगतता ।
अनानुगामिकता -- अशुभअनुबंध, अशुभ की शृंखला ।
शंकित - ध्येय या कर्तव्य के प्रति संशयशील ।
१०३ - विग्रहगति ( सू० ५२६ )
:
देखें -- २०१६१ का टिप्पण ।
कांक्षित - ध्येय या कर्त्तव्य के प्रतिकूल सिद्धान्तों की आकांक्षा करने वाला ।
विचिकित्सित - ध्येय या कर्त्तव्य से प्राप्त होने वाले फल के प्रति संदेह करने वाला ।
भेदसमापन्न - संदेहशीलता के कारण ध्येय या कर्त्तव्य के प्रति जिसकी निष्ठा खंडित हो जाती है, वह भेदसमापन्न
कहलाता है।
कलुषसमापन्न – संदेहशीलता के कारण ध्येय या कर्तव्य को अस्वीकार कर देता है, वह कलुषसमापन्न
कहलाता हैं ।
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२८४
स्थान ३ : टि० १०४-१०५
ठाणं (स्थान) १०४-मल्ली (सू० ५३२) :
देखें-७।७५ का टिप्पण।
१०५–सर्वाक्षरसन्निपाती (सू० ५३४) :
अक्षरों के सन्निपात [संयोग] अनन्त होते हैं । जिसका श्रुतज्ञान प्रकृष्ट हो जाता है, वह अक्षरों के सव सन्निपातों को जानने लग जाता है। इस प्रकार का ज्ञानी व्यक्ति सर्वाक्षरसन्निपाती कहलाता है। इसका तात्पर्य होता है सम्पूर्णवाङमय का ज्ञाता या सम्पूर्ण प्रतिपाद्य विषयों का परिज्ञाता।
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चउत्थं ठाणं
चतुर्थ स्थान
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आमुख
प्रस्तुत स्थान में चार की संख्या से संबद्ध विषय संकलित हैं। यह स्थान चार उद्देशकों में विभक्त है। इस वर्गीकरण में तात्त्विक, भौगोलिक, मनोवैज्ञानिक और प्राकृतिक आदि अनेक विषयों की अनेक चतुर्भगियां मिलती हैं। इसमें वृक्ष, फल, वस्त्र आदि व्यावहारिक वस्तुओं के माध्यम से मनुष्य की मनोदशा का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है, जैसे
कुछ वृक्ष मूल में सीधे रहते हैं परन्तु ऊपर जाकर टेढ़े बन जाते हैं और कुछ सीधे ही ऊपर बढ़ जाते हैं। कुछ वृक्ष मूल में भी सीधे नहीं होते और ऊपर जाकर भी सोधे नहीं रहते, और कुछ मूल में सीधे न रहने वाले ऊपर जाकर सीधे बन जाते हैं।
व्यक्तियों का स्वभाव भी इसी प्रकार का होता है । कुछ व्यक्ति मन से सरल होते हैं और व्यवहार में भी सरल होते हैं। कुछेक व्यक्ति सरल हृदय के होने पर भी व्यवहार में कुटिलता करते हैं। मन में सरल न रहने वाले भी बाह्य परिस्थितिवश सरलता का दिखावा करते हैं। कुछ व्यक्ति अन्तर में कुटिल होते हैं और व्यवहार में भी कुटिलता दिखाते हैं।
विचारों की तरतमता व पारस्परिक व्यवहार के कारण मन की स्थिति सबकी, सब समय समान नहीं रहती। जो व्यक्ति प्रथम मिलन में सरस दिखाई देते हैं, वे आगे चलकर अपनी नीरसता का परिचय दे देते हैं। कुछ लोग प्रथम मिलन में इतने सरस नहीं दीखते परन्तु सहवास के साथ-साथ उनकी सरसता भी बढ़ती जाती है। कुछ लोग प्रारम्भ से लेकर अंत तक सरस ही रहते हैं। कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिनमें प्रारम्भ मिलन से लेकर सहवास तक कभी सरसता के दर्शन नहीं होते।
व्यक्ति की योग्यता अपनी होती है। कुछ व्यक्ति अवस्था में छोटे होकर भी शांत होते हैं तो कुछ बड़े होकर भी शांत नहीं होते। छोटी अवस्था में शांत नहीं होने वाले मिलते हैं तो कुछ अवस्था के परिपाक में भी शांत रहते हैं।
इस स्थान में सूत्रकार ने प्रसंगवश कुछ कथा-निर्देश भी किए हैं। अन्तक्रिया के सूत्र (४१) में चार कथाओं के निर्देश मिलते हैं, जैसे(१) भरत चक्रवर्ती
(३) सम्राट सनत्कुमार (२) गजसुकुमाल
(४) मरुदेवा वृत्तिकार ने भी अनेक स्थलों पर कथाओं और घटनाओं की योजना की है। सूत्र में बताया गया है कि पुत्र चार प्रकार के होते हैं(१) पिता से अधिक
(३) पिता से हीन (२) पिता के समान
(४) कुल के लिए अंगारे जैसा वृत्तिकार ने इस सूत्र को लौकिक और लोकोत्तर उदाहरणों द्वारा इसकी स्पष्टता को है-ऋषभ जैसा पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति को बढ़ाता है तो कण्डरीक जैसा पुत्र कुल की सम्पदा को ही नष्ट कर देता है। महायश जैसा पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति को बनाए रखता है तो आदित्ययश जैसा पुत्र अपने पिता की तुलना में अल्प वैभववाला होता है।
आचार्य सिंहगिरि की अपेक्षा वज्रस्वामी ने अपनी गण-सम्पदा को बढ़ाया तो कुलबालक ने उदायी राजा को मारकर गण की प्रतिष्ठा को गंवा दिया। यशोभद्र ने शय्यंभव की सम्पदा को यथावस्थित रखा तो भद्रबाहु स्वामी को तुलना में स्थूलभद्र को ज्ञान-गरिमा कम हो गई।
१.४११२ २.४।१०७
३.४।१०१ ४. ४.३४
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ठाणं (स्थान)
२८८
स्थान ४: आमुख
भगवान महावीर सत्य के साधक थे। उन्होंने जनता को सत्य की साधना दी, किन्तु बाहरी उपकरणों का अभिनिवेश नहीं दिया। प्रस्तुत स्थान में उनकी सत्य-संधित्सा के स्फुलिंग आज भी सुरक्षित हैं
(१) कुछ पुरुष वेश का त्याग कर देते हैं पर धर्म का त्याग नहीं करते। (२) कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं पर वेश का त्याग नहीं करते । (३) कुछ पुरुष धर्म का भी त्याग कर देते हैं और वेश का भी त्याग कर देते हैं। (४) कुछ पुरुष न धर्म का त्याग करते हैं और न वेश का ही त्याग करते हैं। (१) कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं पर गणसंस्थिति का त्याग नहीं करते। (२) कुछ पुरुष गणसंस्थिति का त्याग कर देते हैं पर धर्म का त्याग नहीं करते। (३) कुछ पुरुष धर्म का भी त्याग कर देते हैं और गणसंस्थिति का भी त्याग कर देते हैं। (४) कुछ पुरुष न धर्म का त्याग करते हैं और न गणसंस्थिति का ही त्याग करते हैं।'
साधारणतया सत्य का संबंध वाणी से माना जाता है, किन्तु व्यापक धारणा में उसका संबंध मन, वाणी और काय तीनों से होता है। प्रस्तुत स्थल में सत्य का ऐसा ही व्यापक स्वरूप मिलता है, जैसे
काया की ऋजुता भाषा को ऋजुता भावों की ऋजुता अविसंवादिता-कथनी और करनी की समानता।
प्रस्तुत स्थान में व्यावहारिक विषयों का भी यथार्य चित्रण मिलता है। इस जगत् में विभिन्न मनोवृत्ति वाले लोग होते हैं। यह विभिन्नता किसी युग-विशेष में ही नहीं होती, किन्तु प्रत्येक युग में मिलती है। सूत्रकार के शब्दों में पढ़िए
कुछ पुरुष आम्रप्रलम्वकोरक के समान होते हैं जो सेवा करने वाले का उचित समय में उचित उपकार करते हैं।
कुछ पुरुष तालप्रलम्वकोरक के समान होते हैं जो दीर्घकाल से सेवा करने वाले का उचित उपकार करते हैं परन्तु बड़ी कठिनाई से।
कुछ पुरुष वल्लीप्रलम्बकोरक के समान होते हैं जो सेवा करने वाले का सरलता से शीघ्र ही उपकार कर देते हैं।
कुछ पुरुष मेषविषाणकोरक के समान होते हैं जो सेवा करने वाले को केवल मधुर वचनों के द्वारा प्रसन्न रखना चाहते हैं, लेकिन उपकार कुछ नहीं करते।'
इस प्रकार विविध विषयों से परिपूर्ण यह स्थान वास्तव में ही ज्ञान-सम्पदा का अक्षय कोश है।
३.४१५५
१. ४।४१९, ४२० २. ४११०२
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चउत्थं ठाणं : पढमो उद्देसो
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
अंतकिरिया-पदं अन्तक्रिया-पदम्
अन्तक्रिया-पद १. चत्तारि अंतकिरियाओ, पण्णत्ताओ, चतस्रः अन्तक्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १. अन्त क्रिया' चार प्रकार की होती है---- तं जहा
१. प्रथम अन्तक्रिया--- १. तत्थ खलु इमा पढमा अंत- १. तत्र खलु इयं प्रथमा अन्तक्रिया- कोई पुरुष अल्प कर्मों के साथ मनुष्य किरिया
अल्पकर्मप्रत्यायातश्चापि भवति। स जन्म को प्राप्त होता है। वह मुण्ड होकर अप्पकम्मपच्चायाते यावि भवति। मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां । घर छोड़ अनगार रूप में प्रव्रजित होता से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ प्रव्रजित: संयमबहुल: संवरबहुल: है। वह संयम-बहुल, संवर-बहुल और अणगारियं पव्वइए संजमबहुले समाधिबहुल: रूक्षः तीरार्थी उपधानवान् समाधि-बहुल होता है। वह रूखा, तीर संवरबहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी दुःखक्षपः तपस्वी।
का अर्थी, उपधान करने वाला, दुःख को उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी।
खपाने वाला और तपस्वी होता है। तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति, तस्य नो तथाप्रकारं तपो भवति, नो । उसके न तो तथाप्रकार का घोर तप होता णो तहप्पगारा वेयणा भवति। तथाप्रकारा वेदना भवति ।
है और न तथाप्रकार की घोर वेदना तहप्पगारे पुरिसज्जाते दीहेणं तथाप्रकार: पुरुषजातः दीर्घेण पर्यायेण होती है। परियाएणं सिज्झति बुज्झति सिध्यति बुद्ध्यते मुच्यते परिनिर्वाति इस श्रेणि का पुरुष दीर्घ-कालीन मुनिमुच्चति परिणिव्वाति सव्व- सर्वदुःखानां अन्तं करोति, यथा—स पर्याय के द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और दक्खाणमंतं करेइ, जहा से भरहे भरत: राजा चातरन्तचक्रवर्ती
परिनिर्वात होता है तथा सब दुःखों का राया चाउरंतचक्कवट्टीप्रथमा अन्तक्रिया।
अन्त करता है। इसका उदाहरण चातुरन्त पढमा अंतकिरिया।
चक्रवर्ती सम्राट भरत' है। यह पहली अल्पकर्म के साथ आए हुए तथा दीर्घकालीन मुनि-पर्याय वाले पुरुष की
अन्तक्रिया है। २. अहावरा दोच्चा अंतकिरिया- २. अथापरा द्वितीया अन्तक्रिया
२. दूसरी अन्तक्रियामहाकम्मपच्चायाते यावि भवति। महाकर्मप्रत्यायातश्चापि भवति । स कोई पुरुष बहुत कर्मों के साथ मनुष्य जन्म से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां को प्राप्त होता है। वह मुण्ड होकर घर अणगारियं पव्वइए संजमबहुले प्रवजितः संयमबहुलः संवरबहुलः छोड़ अनगार रूप में प्रवजित होता है। संवरबहुले 'समाहिबहुले लूहे समाधिबहुलः रूक्षः तीरार्थी उपधानवान् वह संयम-बहुल, संवर-बहुल और समाधितोरट्ठी' उवहाणदं दुक्खक्खवे दुःखक्षपः तपस्वी।
बहुल होता है। वह रूखा, तीर का अर्थी, तवस्सी ।
उपधान करने वाला, दुःख को खपाने
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स्थान ४: सूत्र १
ठाणं (स्थान)
२६० तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति, तस्य तथाप्रकारं तपो भवति, तहप्पगारा वेयणा भवति। तथाप्रकारा वेदना भवति । तहप्पगारे पुरिसजाते णिरुद्धणं तथाप्रकारः पुरुषजातः निरुद्धेन पर्यायेण परियाएणं सिझति 'बुज्झति सिध्यति बुद्ध्यते मुच्यते परिनिर्वाति मुच्चति परिणिव्वाति सव्व- सर्वदुःखानां अन्तं करोति, यथा-स दुक्खाणमंतं करेति, जहा- गजसुकुमालः अनगार:से गयसूमाले अणगारे
द्वितीया अन्तक्रिया। दोच्चा अंतकिरिया।
३. अहावरा तच्चा अंतकिरिया- ३. अथापरा तृतीया अन्तक्रियामहाकम्मपच्चायाते यावि भवति। महाकर्मप्रत्यायातश्चापि भवति । स से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां अणगारियं पव्वइए 'संजमबहुले प्रव्रजितः संयमबहुलः संवरबहुलः संवरबहुले समाहिबहुले लूहे समाधिबहुलः रूक्षः तीरार्थी उपधानवान् तोरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे दुःखक्षपः तपस्वी। तबस्सी।
वाला और तपस्वी होता है। उसके तथाप्रकार का धोर तप और तथाप्रकार की घोर वेदना होती है। इस श्रेणि का पुरुष अल्पकालीन मुनिपर्याय के द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वात होता है तथा सब दुखों का अन्त करता है। इसका उदाहरण गजसुकुमाल' है। यह दूसरी महाकर्म के साथ आए हुए तथा अल्पकालीन मुनिपर्याय वाले पुरुष की अन्तक्रिया है। ३. तीसरी अन्तक्रियाकोई पुरुष बहुत कर्मों के साथ मनुष्य-जन्म को प्राप्त होता है। वह मुण्ड होकर घर छोड़ अनगार रूप में प्रवजित होता है। वह संयम-बहुल, संवर-बहुल और समाधिबहुल होता है। वह रूखा, तीर का अर्थी, उपाधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला और तपस्वी होता है। उसके तथाप्रकार का घोर तप और तथा प्रकार की घोर वेदना होती है। इस श्रेणिका पुरुष दीर्घकालीन मुनिपर्याय के द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वात होता है तथा सब दुःखों का अन्त करता है। इसका उदाहरण चातुरन्त चक्रवर्ती सम्राट सनत्कुमार है। यह तीसरी महाकर्म के साथ आए हुए तथा दीर्घकालीन मुनिपर्याय वाले पुरुष की अन्तक्रिया है। ४. चौथी अन्तक्रियाकोई पुरुष अल्प कर्मों के साथ मनुष्य-जन्न को प्राप्त होता है। वह मुण्ड होकर घर छोड़ अनगार रूप में प्रजित होता है। वह संयम-बहुल, संवर-बहुल और समाधि
तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति, तस्य तथाप्रकारं तपो भवति, तहप्पगारा वेयणा भवति, तथाप्रकारा वेदना भवति। तहप्पगारे पुरिसजाते. दोहेणं तथाप्रकारः पुरुषजातः दीर्पण पर्यायेण परियाएणं सिझति' बुज्झति सिध्यति बुद्ध्यते मुच्यते परिनिर्वाति मुच्चति परिणिव्वाति सव्व- सर्वदुःखानां अन्तं करोति, यथा—स दुक्खाणमंतं करेति, जहा—से सनत्कुमारः राजा चातुरन्तचक्रवर्तीसणंकुमारे राया चाउरंतचक्कवट्टी- तृतीया अन्तक्रियातच्चा अंतकिरिया।
४. अहावरा चउत्था अंतकिरिया- ४. अथापरा चतुर्थी अन्तक्रियाअप्पकम्मपच्चायाते यावि भवति। अल्पकर्मप्रत्यायातश्चापि भवति। स । से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां । अणगारियं° पव्वइए संजमबहुले प्रव्रजितः संयमबहुलः संवरबहुल: 'संवरबहुले समाहिबहुले लूहे समाधिवहुलः रूक्षः तीरार्थी उपधानवान्
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स्थान ४ : सूत्र २
ठाणं (स्थान)
२६१ तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे दुःखक्षपः तपस्वी। तबस्सी ।
तस्य नो तथाप्रकारं तपो भवति, तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति, नो तथाप्रकारा वेदना भवति । णो तहप्पगारा वेयणा भवति। तथाप्रकार: पुरुषजातः निरुद्धेन पर्यायेण तहप्पगारे पुरिसजाए णिरुद्धणं सिध्यति बुद्ध्यते मुच्यते परिनिर्वाति परियाएणं सिज्झति 'बुज्झति सर्वदुःखानां अन्तं करोति, यथा—सा मुच्चति परिणिव्वाति° सव्व- मरुदेवा भगवतीदुक्खाणमंतं करेति, जहा—सा चतुर्थी अन्तक्रिया । मरुदेवा भगवतीचउत्था अंतकिरिया।
बहुल होता है । वह रूखा, तीर का अर्थी, उपधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला और तपस्वी होता है। उसके न तथाप्रकार का घोर तप होता है और न तथाप्रकार की घोर वेदना होती है। इस श्रेणि का पुरुष अल्पकालीन मुनिपर्याय के द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वात होता है तथा सब दुःखों का अन्त करता है। इसका उदाहरण भगवती मरुदेवा है। यह चौथी अल्प कर्म के साथ आए हुए तथा अल्पकालीन मुनिपर्याय वाले पुरुष की अन्तक्रिया है।
उण्णत-पणत-पदं
उन्नत-प्रणत-पदम् २. चत्तारि रक्खा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा
उण्णते णाममेगे उण्णते, उन्नतो नामैकः उन्नतः, उण्णते णाममेगे पणते, उन्नतो नामैकः प्रणतः, पणते णाममेगे उण्णते, प्रणतो नामैक: उन्नतः, पणते णाममेगे पणते। . प्रणतो नामकः प्रणतः ।
उन्नत-प्रणत-पद २. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं१. कुछ वृक्ष शरीर से भी उन्नत होते हैं और जाति से भी उन्नत होते हैं, जैसे--- शाल, २. कुछ वृक्ष शरीर से उन्नत, किन्तु जाति से प्रणत होते हैं, जैसे-नीम, ३. कुछ वृक्ष शरीर से प्रणत, किन्तु जाति से उन्नत होते हैं, जैसे-अशोक, ४. कुछ वृक्ष शरीर से भी प्रणत होते हैं
और जाति से भी प्रणत होते हैं, जैसे-खैर। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-१. कुछ पुरुष शरीर से भी उन्नत होते हैं और गुणों से भी उन्नत होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से उन्नत, किन्तु गुणों से प्रणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से प्रणत, किन्तु गुणों से उन्नत होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से भी प्रणत होते हैं और गुणों से भी प्रणत होते हैं।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाता एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाउण्णते णाममेगे उण्णते, उन्नतो नामैक: उन्नतः, 'उण्णते णाममेगे पणते, उन्नतो नामैकः प्रणतः, पणते णाममेगे उण्णते, प्रणतो नामैक: उन्नतः, पणते णाममेगे पणते। प्रणतो नामैक: प्रणतः ।
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स्थान ४ : सूत्र ३-४
ठाणं (स्थान)
२६२ ३. चत्तारि रुवखा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
उण्णते णाममेगे उण्णतपरिणते, उन्नतो नामैक: उन्नतपरिणत:, उण्णते णाममेगे पणतपरिणते, उन्नतो नामैकः प्रणतपरिणतः, पणते णाममेगे उण्णतपरिणते, प्रणतो नामैकः उन्नतपरिणतः, पणते णाममेगे पणतपरिणते। प्रणतो नामकः प्रणतपरिणतः ।
३. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ वृक्ष शरीर से उन्नत और उन्नतपरिणत होते हैं, अनुन्नतभाव को (अशुभ रस आदि) को छोड़, उन्नतभाव (शुभरस आदि) में परिणत होते हैं, २. कुछ वृक्ष शरीर से उन्नत, किन्तु प्रणतपरिणत होते हैं-~-उन्नतभाव को छोड़ अनुन्नतभाव में परिणत होते हैं, ३. कुछ वृक्ष शरीर से प्रणत और उन्नतभाव में परिणत होते हैं, ४. कुछ वृक्ष शरीर से प्रणत और प्रणतभाव में परिणत होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहाउण्णते णाममेगे उण्णतपरिणते, "उण्णते णाममेगे पणतपरिणते, पणते णाममेगे उण्णतपरिणते, पणते णाममेगे पणतपरिणते।
एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाउन्नतो नामैक: उन्नतपरिणतः, उन्नतो नामैक: प्रणतपरिणतः, प्रणतो नामैक: उन्नतपरिणतः, प्रणतो नामकः प्रणतपरिणतः ।
१. कुछ पुरुष शरीर से उन्नत और उन्नतरूप में परिणत होते हैं-अनुन्नतभाव (अवगुण) को छोड़, उन्नतभाव (गुण) में परिणत होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से उन्नत, किन्तु प्रणतरूप में परिणत होते हैं-उन्नतभाव को छोड़, अनुन्नतभाव में परिणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से प्रणत, किन्तु उन्नतरूप में परिणत होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से प्रणत और प्रणतरूप में परिणत होते हैं। ४. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ वृक्ष शरीर से उन्नत और उन्नतरूप वाले होते हैं, २. कुछ वृक्ष शरीर से उन्नत, किन्तु प्रणत-रूप वाले होते हैं, ३ कुछ वृक्ष शरीर से प्रणत, किन्तु उन्नत-रूप वाले होते हैं, ४. कुछ वृक्ष शरीर से प्रणत और प्रणत. रूप वाले होते हैं।
४. चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
उण्णते णाममेगे उण्णतरूवे, उन्नतो नामैकः उन्नतरूपः, 'उण्णते णाममेगे पणतरूवे, उन्नतो नामैक: प्रणतरूपः, पणते गाममेगे उण्णतरूवे, प्रणतो नामैक: उन्नतरूपः, पणते णाममेगे पणतरूवे। प्रणतो नामैकः प्रणतरूपः ।
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ठाणं (स्थान)
२६३
स्थान ४ : सूत्र ५-७ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष शरीर से उन्नत और उण्णते णाममेगे उण्णतरूवे, उन्नतो नामैक: उन्नतरूपः,
उन्नतरूप वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष 'उण्णते णाममेगे पणतरूवे, उन्नतो नामैकः प्रणतरूपः,
शरीर से उन्नत, किन्तु प्रणतरूप वाले पण्णते णाममेगे उण्णतरूवे, प्रणतो नामैक: उन्नतरूपः,
होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से प्रणत, पणते णाममेगे पणतरूवे। प्रणतो नामैक: प्रणतरूपः ।
किन्तु उन्नतरूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से प्रणत और प्रणतरूप वाले
होते हैं। ५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उण्णते णाममेगे उण्णतमणे, उन्नतो नामैकः उन्नतमनाः,
उन्नतमन वाले होते हैं-उदार होते हैं। उण्णते णाममेगे पणतमणे, उन्नतो नामैकः प्रणतमनाः,
२. कुछ पुरुष ऐश्वयं से उन्नत, किन्तु प्रणतपणते णाममेगे उण्णतमणे, प्रणतो नामैकः उन्नतमनाः,
मन वाले होते हैं--अनुदार होते हैं। पणते णाममेगे पणतमणे। प्रणतो नामैकः प्रणतमनाः ।
३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नतमन वाले होते हैं-उदार होते हैं। ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत
मन वाले होते हैं-अनुदार होते हैं। ६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नतउण्णते णाममेगे उण्णतसंकप्पे, उन्नतो नामैकः उन्नतसंकल्पः,
संकल्प वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य उण्णते णाममेगे पणतसंकप्पे, उन्नतो नामैकः प्रणतसंकल्पः, से उन्नत, किन्तु प्रणतसंकल्प वाले होते हैं, पणते णाममेगे उण्णतसंकप्पे, प्रणतो नामैक: उन्नतसंकल्प:, ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु पणते णाममेगे पणतसंकप्पे। प्रणतो नामकः प्रणतसंकल्पः । उन्नतसंकल्प वाले होते हैं,
४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत
संकल्प वाले होते हैं । ७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नतउष्णते णाममेगे उण्णतपण्णे, उन्नतो नामैक: उन्नतप्रज्ञः,
प्रज्ञा वाले होते हैं, उण्णते णाममेगे पणतपण्णे, उन्नतो नामैक: प्रणतप्रज्ञः,
२. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु पणते णाममेगे उग्णतपण्णे, प्रणतो नामकः उन्नतप्रज्ञः,
प्रणतप्रज्ञा वाले होते हैं, पणते णाममेगे पणतपणे। प्रणतो नामैक: प्रणतप्रज्ञः ।
३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रगत, किन्तु उन्नतप्रज्ञा वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणतप्रज्ञा वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
२६४
5. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
जहा -
तद्यथा—
उष्णते णाममेगे उष्णत दिट्ठी, उष्णते णाममेगे पणत दिट्ठी,
उन्नतो नामकः उन्नतदृष्टिः, उन्नतो नामैकः प्रणतदृष्टिः, प्रणतो नामकः उन्नतदृष्टिः, प्रणतो नामकः प्रणतदृष्टिः ।
पणते णाममेगे उष्णत दिट्ठी, पणते णाममेगे पणत दिट्ठी ।
६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा
उन्नतो नामैकः उन्नतशीलाचारः, उन्नतो नामैकः प्रणतशीलाचारः, प्रणतो नामैकः उन्नतशीलाचारः, प्रणतो नामकः प्रणतशीलाचारः ।
जहा -
उष्णते णाममेगे उण्णतसीलाचारे, उष्णते णाममेगे पणतसीलाचारे, पणते णाममेगे उण्णतसीलाचारे, पणते णाममेगे पणतसीलाचारे ।
१०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा—
उन्नतो नामैकः उन्नतव्यवहारः, उन्नतो नामैकः प्रणतव्यवहारः, प्रणतो नामकः उन्नतव्यवहारः, प्रणतो नामकः प्रणतव्यवहारः ।
जहा -
उष्णते णाममेगे उण्णतववहारे, उष्णते णाममेगे पणतववहारे, पणते णाममेगे उण्णतववहारे, पणते णाममेगे पणतववहारे ।
जहा --
उष्णते णाममेगे उष्णतप रक्कमे, उष्णते णाममेगे पणतपरक्कमे, पणते णाममेगे उण्णतपरक्कमे पणते नाममेगे पणतपरक्कमे ।
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत - व्यवहार वाले होते हैं,
२. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु प्रणतव्यवहार वाले होते हैं,
३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नत व्यवहार वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणतव्यवहार वाले होते हैं । ४
११. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ११. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत - पराक्रम वाले होते हैं,
२. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु प्रणतपराक्रम वाले होते हैं । ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नतपराक्रम वाले होते हैं।
४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणतपराक्रम वाले होते हैं । "
तद्यथाउन्नतो नामैकः उन्नत पराक्रमः, उन्नतो नामकः प्रणतपराक्रमः, प्रणतो नामकः उन्नतपराक्रमः, प्रणतो नामकः प्रणतपराक्रमः ।
स्थान ४ : सूत्र ८-११
८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं - १. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नतदृष्टि वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु प्रणतदृष्टि वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नतदृष्टि वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणतदृष्टि वाले होते हैं। " ६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नतशीलाचार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु प्रणतशीलाचार वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नतशीलाचार वाले होते हैं,
४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणतशीलाचार वाले होते हैं। "
१०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
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स्थान ४ : सूत्र १२-१३
उज्जु-वंक-पदं
ऋजु-वक्र-पदम् १२. चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
उज्जू णाममेगे उज्जू, ऋजुः नामकः ऋजुः, उज्जू णाममेगे वंके, ऋजुः नामैकः वक्र:, 'वंके णाममेगे उज्ज, वको नामैक: ऋजुः, वंके णाममेगे वंके।
वक्रो नामैकः वक्रः।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाउज्जू णाममेगे उज्जू, ऋजुः नामैक: ऋजुः, 'उज्जू णाममेगे वंके, ऋजुः नामैक: वक्रः, वंके णाममेगे उज्जू, वक्रो नामैक: ऋजुः, वंके णाममेगे वंके।
वक्रो नामैक: वक्रः।
ऋजु-वक्र-पद १२. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ वृक्ष शरीर से भी ऋजु होते हैं और कार्य से भी ऋजु होते हैं-ठीक समय पर फल देने वाले होते हैं, २. कुछ वृक्ष शरीर से ऋजु किन्तु कार्य से वक्र होते हैं-ठीक समय पर फल देने वाले नहीं होते, ३. कुछ वृक्ष शरीर से वक्र, किन्तु कार्य से ऋजु होते हैं, ४. कुछ वृक्ष शरीर से भी वक्र होते हैं और कार्य से भी वक्र होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-१. कुछ पुरुष शरीर की चेष्टा से भी ऋजु होते हैं और प्रकृति से भी ऋजु होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर की चेष्टा से ऋजु होते हैं, किन्तु प्रकृति से वक्र होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर की चेष्टा से वक्र होते हैं, किन्तु प्रकृति से ऋजु होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर की चेष्टा से भी वक्र होते हैं
और प्रकृति से भी वक्र होते हैं।१६ १३. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ वृक्ष शरीर से ऋजु और ऋजुपरिणत होते हैं, २. कुछ वृक्ष शरीर से ऋजु, किन्तु वक्र-परिणत होते हैं, ३. कुछ वृक्ष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजु-परिणत होते हैं, ४. कुछ वृक्ष शरीर से वक्र और वक्र-परिणत होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं--१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजु-परिणत होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु, किन्तु वक्र-परिणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से वक्र किन्तु ऋजुपरिणत होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से वक्र और वक्र-परिणत होते हैं।
१३. चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा
उज्जू णाममेगे उज्जुपरिणते, उज्जू णाममेगे वंकपरिणते, वंके गाममेगे उज्जुपरिणते, वंके णाममेगे वंकपरिणते ।
चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाऋजुः नामक: ऋजुपरिणतः, ऋजुः नामैक: वक्रपरिणतः, वक्रो नामक: ऋजुपरिणतः, वक्रो नामैक: वक्रपरिणतः।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाउज्जू गाममेगे उज्जपरिणते, ऋजुः नाभैकः ऋजुपरिणतः, उज्जू णाममेगे वंकपरिणते, ऋजु: नामैक: वक्रोपरिणतः, वंके णाममेगे उज्जपरिणते, वक्रो नामैक: ऋजुपरिणतः, वके णाममेगे वंकपरिणते। वक्रो नामैक: वक्रपरिणतः ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र १४-१७ १४. चत्तारि रुक्खा पण्णता, तं जहा- चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १४. वृक्ष चार प्रकार के होते हैंउज्जू णाममेरो उज्जुरूवे, ऋजु: नामैकः ऋजुरूपः,
१. कुछ वृक्ष शरीर से ऋजु और ऋजुउज्जू णाममेगे वंकावे, ऋजुः नामैक: वक्ररूपः,
रूप वाले होते हैं, २. कुछ वृक्ष शरीर से वंके णाममेगे उज्जुरुवे, वक्रो नामैक: ऋजुरूपः,
ऋजु, किन्तु वक्र-रूप वाले होते हैं, वंके णाममेगे वंकरूवे। वको नामैक: वक्ररूपः ।
३. कुछ वृक्ष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजुरूप वाले होते हैं, ४. कुछ वृक्ष शरीर से
वक्र और वक्र-रूप वाले होते हैं।। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष चार प्रकार के होते हैंपण्णत्ता, तं जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजुउज्जू णाममेगे उज्जुरूवे, ऋजुः नामैक: ऋजुरूपः,
रूप वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से उज्जू णाममेगे वंकरूवे, ऋजुः नामैक: वक्ररूपः,
ऋजु, किन्तु वक्र-रूप वाले होते हैं, वंके णाममेगे उज्जुरूवे, वक्रो नामैकः ऋजुरूपः,
३. कुछ पुरुष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजुवंके णाममेगे वंकरूवे। वक्रो नामैकः वक्ररूपः।
रूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से
वक्र और वक्र-रूप वाले होते हैं। १५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातयथा
१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजुउज्जू णाममेगे उज्जुमणे, ऋजुः नामैकः ऋजुमनाः,
मन वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से उज्जू णाममेगे वंकमणे, ऋजुः नामैकः वक्रमनाः,
ऋजु, किन्तु वक्र-मन वाले होते हैं, वंके णाममेगे उज्जुमणे, वक्रो नामैकः ऋजुमनाः,
३. कुछ पुरुष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजुवंके णाममेगे वंकमणे। वक्रो नामैकः वक्रमनाः।
मन वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से
वक्र और वक्र-मन वाले होते हैं। १६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा--
१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजुउज्जू णाममेगे उज्जुसंकप्पे, ऋजुः नामैकः ऋजुसंकल्पः,
संकल्प वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर उज्जू णाममेगे वंकसंकप्पे, ऋजुः नामैकः वक्रसंकल्पः,
से ऋजु, किन्तु वक्र-संकल्प वाले होते हैं, वंके णाममेगे उज्जुसंकप्पे, वक्रो नामकः ऋजुसंकल्पः,
३. कुछ पुरुष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजुवंके णाममेगे वंकसंकप्पे। वक्रो नामैकः वसंकल्पः।
संकल्प वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर
से वक्र और वक्र-संकल्प वाले होते हैं। १७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजु
प्रज्ञा वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से उज्जू णाममेगे उज्जपण्णे, ऋजुः नामैकः ऋजुप्रज्ञः,
ऋजु, किन्तु वक्र-प्रज्ञा वाले होते हैं, ३. कुछ उज्जू णाममेगे वंकपण्णे, ऋजुः नामैकः वक्रप्रज्ञः,
पुरुष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजु-प्रज्ञा वाले बंके णाममेगे उज्जपण्णे, वक्रो नामैक: ऋजुप्रज्ञः,
होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से वक्र और वंके णाममेगे वंकपण्णे । वक्रो नामैक: वक्रप्रज्ञः ।
वक्र-प्रज्ञा वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र १८-२२ १८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजुउज्जू णाममेगे उज्जुदिट्ठी, ऋजुः नामैक: ऋजुदृष्टिः,
दृष्टि वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से उज्जू णाममेगे वंकदिट्ठी, ऋजुः नामैक: वक्रदृष्टिः,
ऋजु, किन्तु वक्र-दृष्टि वाले होते हैं, वंके णाममेगे उज्जुदिट्ठी, वक्रो नामैक: ऋजुदृष्टि:,
३. कुछ पुरुष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजुवंके णाममेगे वंकदिट्ठी। वक्रो नामक: वक्रदृष्टिः ।
दृष्टि वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से
वक्र और वक्र-दृष्टि वाले होते हैं । १६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजुउज्जू णाममेगे उज्जुसीलाचारे, ऋजुः नामक: ऋजुशीलाचारः, शीलाचार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष उज्जू णाममेगे वंकसीलाचारे, ऋजु: नामैक: वक्रशीलाचारः, शरीर से ऋजु, किन्तु वक्र-शीलाचार वाले वंके णाममेगे उज्जुसीलाचारे, वक्रो नामैक: ऋजुशीलाचारः, होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से वक्र, किन्तु वंके णाममेगे वंकसीलाचारे। वक्रो नामैक: वक्रशीलाचारः । ऋजु-शीलाचार वाले होते हैं, ४. कुछ
पुरुष शरीर से वक्र और वक्र-शीलाचार
वाले होते हैं। २०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजुउज्जू णाममेगे उज्जुववहारे, ऋजु: नामैक: ऋजुव्यवहारः, व्यवहार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर उज्जू णाममेगे वंकववहारे, ऋजु: नामैक: वक्रव्यवहारः, से ऋजु, किन्तु वक्र-व्यवहार वाले होते हैं, वंके णाममेगे उज्जुववहारे, वक्रो नामैक: ऋजुव्यवहारः,
३. कुछ पुरुष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजुवंके णाममेगे वंकववहारे। वक्रो नामैक: वक्रव्यवहारः । व्यवहार वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर
से वक्र और वक्र-व्यवहार वाले होते हैं। २१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से ऋजु और ऋजुउज्जू णाममेगे उज्जुपरक्कमे, ऋजु: नामैक: ऋजुपराक्रमः, पराक्रम वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर उज्जू णाममेगे वंकपरक्कमे, ऋजु: नामैक: वक्रपराक्रमः, से ऋजु, किन्तु वक्र-पराक्रम वाले होते हैं, वंके णाममेगे उज्जुपरक्कमे, वक्रो नामैक: ऋजुपराक्रमः, ३. कुछ पुरुष शरीर से वक्र, किन्तु ऋजुवंके णाममेगे वंकपरक्कमे। वक्रो नामैक: वक्रपराक्रमः । पराक्रम वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर
से वक्र और वक्र-पराक्रम वाले होते हैं।
भासा-पदं भाषा-पदम्
भाषा-पद २२. पडिमापडिवण्णस्स णं अणगारस्स प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते २२. भिक्षुप्रतिमाओं को अंगीकार करने वाला कप्पंति चत्तारि भासाओ भासित्तए, चतस्रः भाषाः भाषितुं, तद्यथा
मुनि चार विषयों से सम्बन्धित भाषा तं जहा—जायणी, पुच्छणी, याचनी, प्रच्छनी, अनुज्ञापनी,
बोल सकता है—१. याचनी-याचना से
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ठाणं (स्थान)
अणुण्णवणी, पुटुस्स वागरणी ।
२३. चत्तारि भासाजाता पण्णत्ता, तं जहासच्चमेगं भासज्जायं, बीयं मोसं, तइयं सच्चमोसं, चउत्थं असच्चमोसं ।
सुद्धे णामं एगे सुद्धे,
• सुद्धे णामं एगे असुद्धे,
अद्धेा गेसुद्धे, अद्धे णामं एगे असुद्धे ।
२६८
२५. चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहा सुद्ध णामं एगे सुद्धपरिणए, सुद्धे णामं एगे असुद्धपरिणए, असुद्धे नाम एगे सुद्धपरिणए, असुद्धे णामं एगे असुद्ध परिणए ।
पृष्टस्य व्याकरणी ।
सुद्ध असुद्ध पर्द
शुद्ध-अशुद्ध-पदम्
शुद्ध-अशुद्ध-पद
२४. चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहा चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— २४. वस्त्र चार प्रकार के होते हैं
सुद्धे णामं एगे सुद्धे,
सुद्धे मंगे अद्धे,
असुद्ध णामं एगे सुद्धे,
अणाम एगे असुद्धे ।
१. कुछ वस्त्र प्रकृति से भी शुद्ध होते हैं और स्थिति से भी शुद्ध होते हैं, २. कुछ वस्त्र प्रकृति से शुद्ध, किन्तु स्थिति से अशुद्ध होते हैं, ३. कुछ वस्त्र प्रकृति से अशुद्ध, किन्तु स्थिति से शुद्ध होते हैं, ४. कुछ वस्त्र प्रकृति से भी अशुद्ध होते हैं और स्थिति से भी अशुद्ध होते हैं ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - १. कुछ पुरुष जाति से भी शुद्ध होते हैं और गुण से भी शुद्ध होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध, किन्तु गुण से अशुद्ध होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु गुण से शुद्ध होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से भी अशुद्ध होते हैं और गुण से अशुद्ध होते हैं।"
चत्वारि भाषाजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - सत्यमेकं भाषाजातं, द्वितीयं मृषा, तृतीयं सत्यमृषा, चतुर्थ असत्यामृषा ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि
पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा— शुद्धो नामकः
शुद्धः,
शुद्धो नामैकः अशुद्धः, अशुद्धो नामेकः शुद्धः, अशुद्धो नामैकः अशुद्धः ।
शुद्ध नामैकं शुद्धं,
शुद्धं नामैकं अशुद्धं,
अशुद्धं नामैकं शुद्धं, अशुद्धं नामैकं अशुद्धं ।
1
स्थान ४ : सूत्र २३-२५
सम्बन्ध रखने वाली भाषा, २. प्रच्छनीमार्ग आदि तथा सूत्रार्थ के प्रश्न से सम्बन्धित भाषा, ३. अनुज्ञापनी - स्थान आदि की आज्ञा लेने से सम्बन्धित भाषा, ४. पृष्ट व्याकरणी - पूछे हुए प्रश्नों का प्रतिपादन करने वाली भाषा । २३. भाषा के चार प्रकार हैं
१. सत्य ( यथार्थ), २. मृषा (अयथार्थ),
३. सत्य - मृषा (सत्य-असत्य का मिश्रण ),
४. असत्य-अमृषा (व्यवहार भाषा) ।"
चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - २५. वस्त्र चार प्रकार के होते हैं—
शुद्धं नामैकं शुद्धपरिणतं, शुद्धं नामैकं अशुद्धपरिणतं, अशुद्धं नामैकं शुद्धपरिणतं, अशुद्धं नामैकं अशुद्धपरिणतं ।
१. कुछ वस्त प्रकृति से शुद्ध और शुद्धपरिणत होते हैं, २. कुछ वस्त्र प्रकृति से शुद्ध, किन्तु अशुद्ध- परिणत होते हैं, ३. कुछ
प्रकृति से अशुद्ध, किन्तु शुद्ध - परिणत होते हैं, ४. कुछ वस्त्र प्रकृति से अशुद्ध और अशुद्ध-परिणत होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
२६६
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा—
शुद्धो नामैकः शुद्धपरिणतः, शुद्धो नामकः अशुद्धपरिणतः, अशुद्धो नामकः शुद्धपरिणतः, अशुद्धो नामकः अशुद्धपरिणतः । चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— शुद्धं नामैकं शुद्धरूपं, शुद्धं नामैकं अशुद्धरूपं, अशुद्धं नामैकं शुद्धरूपं, अशुद्धं नामैकं अशुद्धरूपं । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा-
स्थान ४ : सूत्र २६-२८
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - १. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध और शुद्धपरिणत होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-परिणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु शुद्ध-परिणत होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध और अशुद्ध-परिणत होते हैं। २६. वस्त्र चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ वस्त्र प्रकृति से शुद्ध और शुद्धरूप वाले होते हैं, २. कुछ वस्त्र प्रकृति से शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-रूप वाले होते हैं, ३. कुछ वस्त्र प्रकृति से अशुद्ध, किन्तु शुद्धरूप वाले होते हैं, ४. कुछ वस्त्र प्रकृति से अशुद्ध और अशुद्ध रूप वाले होते हैं । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - १. कुछ पुरुष प्रकृति से शुद्ध और शुद्ध रूप वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष प्रकृति से शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-रूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष प्रकृति से अशुद्ध, किन्तु शुद्धरूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष प्रकृति से अशुद्ध और अशुद्ध रूप वाले होते हैं ।
२७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
सुद्धे णामं एगे सुद्धपरिणए,
सुद्धे णामं एगे असुद्ध परिणए, असुद्धे णामं एगे सुद्धपरिणए, असुद्धे णामं एगे असुद्ध परिणए । २६. चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहासुद्धे णामं एगे सुद्धरूवे, सुद्धे णामं एगे असुद्धरूवे, असुद्धे णामं एगे सुद्धरूवे, अद्धे णामं एगे असुद्धरूवे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया, पण्णत्ता, तं जहासुद्धे णामं एगे सुद्धरूबे, सुद्धे णामं एगे असुद्धरूवे, असुद्धे णामं एगे सुद्धरूवे, अशुद्धे णामं एगे असुद्ध ।
जहा -
सुद्धे णामं एगे सुद्धमणे, • सुद्धे णामं एगे असुद्ध मणे,
असुद्धे णामं एगे सुद्धमणे, असुद्धे णामं एगे अद्धमणे ।
सुद्धे णामं एगे असुद्ध कप्पे, अद्धे णामं एगे सुद्ध कप्पे, असुद्धे णामं एगे असुद्ध कप्पे,
शुद्धो नामैकः शुद्धरूपः, शुद्धो नामैकः अशुद्धरूपः, अशुद्धो नामैकः शुद्धरूपः, अशुद्धो नामैकः अशुद्धरूपः ।
२८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि
जहा
तद्यथा—
सुद्धे णामं एगे सुद्धसंकप्पे,
शुद्धो नामैकः शुद्धसंकल्पः, शुद्धो नामैकः अशुद्धसंकल्पः, अशुद्धो नामैकः शुद्धसंकल्पः, अशुद्धो नामैकः अशुद्धसंकल्पः ।
तद्यथा
शुद्धो नामैकः शुद्धमनाः, शुद्धो नामैकः अशुद्धमनाः,
अशुद्धो नामैकः शुद्धमनाः, अशुद्धो नामैकः अशुद्धमनाः ।
१. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध और शुद्ध-मन वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-मन वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु शुद्ध-मन वाले होते हैं, ४ कुछ पुरुष जति से अशुद्ध और अशुद्ध-मन वाले होते हैं ।
पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध और शुद्धसंकल्प वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-संकल्प वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु शुद्धसंकल्प वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध और अशुद्ध संकल्प वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३००
स्थान ४ : सूत्र २६-३३ २६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध और शुद्धसुद्धे णामं एगे सुद्धपण्णे, शुद्धो नामकः शुद्धप्रज्ञः,
प्रज्ञा वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से सुद्धे णाम एगे असुद्धपण्णे, शुद्धो नामैक: अशुद्धप्रज्ञः,
शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-प्रज्ञा वाले होते हैं, असुद्धे णामं एगे सुद्धपण्णे, अशुद्धो नामैकः शुद्ध प्रज्ञः,
३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु शुद्धअसुद्धे णाम एगे असुद्धपण्णे।। अशुद्धो नामैकः अशुद्धप्रज्ञः ।
प्रज्ञा वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से
अशुद्ध और अशुद्ध-प्रज्ञा वाले होते हैं। ३०. चत्तारि पुरि सजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा - तद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध और शुद्धसुद्धे णामं एगे सुद्धदिट्ठी, शुद्धो नामैकः शुद्धदृष्टिः, दृष्टि वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से सुद्धे णामं एगे असुद्ध दिट्ठी, शुद्धो नामकः अशुद्धदृष्टिः, शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-दृष्टि वाले होते हैं, असुद्धे णामं एगे सुद्धदिट्ठी, अशुद्धो नामकः शुद्धदृष्टिः,
३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु शुद्धअसुद्धे णामं एगे असुद्ध दिट्ठी। अशुद्धो नामैक: अशुद्धदृष्टिः । दृष्टि वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से
अशुद्ध और अशुद्ध-दृष्टि वाले होते हैं। ३१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि, ३१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध और शुद्धसुद्धे णामं एगे सुद्धसीलाचारे, शुद्धो नामैकः शुद्धशीलाचारः, शीलाचार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति सुद्धे णामं एगे असुद्धसीलाचारे, शुद्धो नामैक: अशुद्धशीलाचारः, से शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-शीलाचार वाले होते असुद्धे णाम एगे सुद्धसीलाचारे, अशुद्धो नामैक: शुद्धशीलाचारः, हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु असुद्धे णाम एगे असुद्ध सीलाचारे। अशुद्धो नामैकः अशुद्धशीलाचारः। शुद्ध- शीलाचार वाले होते हैं, ४. कुछ
पुरुष जाति से अशुद्ध और अशुद्ध
शीलाचार वाले होते हैं। ३२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध और शुद्धसुद्धे णामं एगे सुद्धववहारे, शुद्धो नामैक: शुद्धव्यवहारः, व्यवहार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति सुद्धे णामं एगे असुद्धववहारे, शुद्धो नामैक: अशुद्धव्यवहारः,
से शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-व्यवहार वाले होते हैं, असुद्धे णामं एगे सुद्ध ववहारे, अशुद्धो नामैक: शुद्धव्यवहारः, ३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु शुद्धअसुद्धे णामं एगे असुद्धववहारे। अशुद्धो नामैक: अशुद्धव्यवहारः। व्यवहार वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति
से अशुद्ध और अशुद्ध-व्यवहार वाले होते हैं। ३३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से शुद्ध और शुद्धसुद्धे णामं एगे सुद्धपरक्कमे, शुद्धो नामैकः शुद्धपराक्रमः,
पराक्रम वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति सुद्धे णाम एगे असुद्धपरक्कमे, शुद्धो नामैकः अशुद्धपराक्रमः,
से शुद्ध, किन्तु अशुद्ध-पराक्रम वाले होते हैं,
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३०१
स्थान ४: सूत्र ३४-३७
ठाणं (स्थान)
असुद्धे णाम एगे सुद्धपरक्कमे, असुद्धे णाम एगे असुद्धपरक्कमे।
अशुद्धो नामैकः शुद्धपराक्रमः, अशुद्धो नामैक: अशुद्धपराक्रमः ।
३. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध, किन्तु शुद्धपराक्रम वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अशुद्ध और अशुद्ध-पराक्रम वाले होते हैं।
सुत-पदं
३४. चत्तारि सुता पण्णत्ता, तं जहा-
अतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगाले।
सुत-पदम् चत्वारः सुता: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- अतिजात, अनुजातः, अवजातः, कुलाङ्गारः।
सुत-पद ३४. पुत्र चार प्रकार के होते हैं
१. अतिजात-पिता से अधिक, २. अनुजात-पिता के समान, ३. उपजात-पिता से हीन, ४. कुलांगार-कुल के लिए अंगारे जैसा, कुल दूषक।
सच्च-असच्च-पदं सत्य-असत्य-पदम्
सत्य-असत्य-पद ३५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष पहले भी सत्य होते हैं और सच्चे णाम एगे सच्चे, सत्यो नामकः सत्यः,
बाद में भी सत्य होते हैं, २. कुछ पुरुष सच्चे णामं एगे असच्चे, सत्यो नामैक: असत्यः,
पहले सत्य, किन्तु बाद में असत्य होते हैं, असच्चे णाम एगे सच्चे, असत्यो नामैक: सत्यः,
३. कुछ पुरुष पहले असत्य, किन्तु बाद में असच्चे णामं एगे असच्चे । असत्यो नामकः असत्यः ।
सत्य होते हैं, ४. कुछ पुरुष पहले भी असत्य
होते हैं और बाद में भी असत्य होते हैं। ३६. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंतं जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य-परिणत सच्चे णाम एगे सच्चपरिणते, सत्यो नामैकः सत्यपरिणतः, होते है, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्यसच्चे णाम एगे असच्चपरिणते, सत्यो नामैकः असत्यपरिणतः,
परिणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष असत्य, असच्चे णामं एगे सच्चपरिणते, असत्यो नामकः सत्यपरिणतः,
किन्तु सत्य-परिणत होते हैं, ४. कुछ पुरुष असच्चे णामं एगे असच्चपरिणते। असत्यो नामैकः असत्यपरिणतः ।
असत्य और असत्य-परिणत होते हैं। ३७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य-रूप वाले सच्चे णामं एगे सच्चरूवे, सत्यो नामैकः सत्यरूपः
होते हैं, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्यसच्चे णामं एगे असच्चरूवे, सत्यो नामकः असत्यरूपः,
रूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष असत्य, असच्चे णामं एगे सच्चरूवे, असत्यो नामैकः सत्यरूपः,
किन्तु सत्य-रूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष असच्चे णामं एगे असच्चरूवे। असत्यो नामैक: असत्यरूपः।
असत्य और असत्य-रूप वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३०२
स्थान ४ : सूत्र ३८-४२
३८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ३८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य-मन वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्यमन वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष असत्य, किन्तु सत्य-मन वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष असत्य और असत्य मन वाले होते हैं। ३९. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
जहा -
सच्चे णामं एगे सच्चमणे, सच्चे णामं एगे असच्चमणे, असच्चे णामं एगे सच्चमणे, असच्चे णामं एगे असच्त्रमणे । ३६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं
जहा -
सच्चे णामं एगे सच्चसंकप्पे, सच्चे णामं एगे असच्च संकप्पे, असच्चे णामं एगे सच्च संकप्पे, असच्चे णामं एगे असच्चसंकप्पे ।
४०. चत्तारि पुरिसजाया, पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
जहा -
तद्यथा—
सच्चे णामं एगे सच्चपण्णे, सच्चे णामं एगे असच्चपणे, असच्चे णामं एगे सच्चपणे, असच्चे णामं एगे असच्चपण्णे ।
तद्यथा
सत्यो नामकः सत्यमनाः, सत्यो नामकः असत्यमनाः, असत्यो नामैकः सत्यमनाः, असत्यो नामकः असत्यमनाः । चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा—
सत्यो नामकः सत्यसंकल्पः, सत्यो नामकः असत्यसंकल्पः, असत्यो नामैकः सत्यसंकल्प:, असत्यो नामकः असत्यसंकल्पः ।
जहा
सच्चे णामं एगे सच्च दिट्ठी, सच्चे णामं एगे असच्च दिट्ठी, असच्चे णामं एगे सच्च दिट्ठी, असच्चे णामं एगे असच्च दिट्ठी ।
सत्यो नामकः सत्यप्रज्ञः, सत्यो नामकः असत्यप्रज्ञः, असत्यो नामकः सत्यप्रज्ञः असत्यो नामकः असत्यप्रज्ञः ।
४९. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातनि प्रज्ञप्तानि ४१. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य-दृष्टि वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्यदृष्टि वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष असत्य, किन्तु सत्य - दृष्टि वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष असत्य और असत्य - दृष्टि वाले होते हैं ।
तद्यथा
सत्यो नामकः सत्यदृष्टिः, सत्यो नामकः असत्यदृष्टि:,
असत्यो नामकः सत्यदृष्टिः, असत्यो नामैकः असत्यदृष्टिः ।
४२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
जहा -
तद्यथा—
सच्चे णामं एगे सच्चसीलाचारे, सत्यो नामकः सत्यशीलाचारः, सच्चे णामं एगे असच्चसीलाचारे, सत्यो नामैकः असत्यशीलाचारः, असच्चे णामं एगे सच्चसीलाचारे, असत्यो नामकः सत्यशीलाचारः, असच्चे णामं एगे असच्चसीलाचारे । असत्यो नामैकः असत्यशीलाचारः ।
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य संकल्प वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्य-संकल्प वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष असत्य, किन्तु सत्य संकल्प वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष असत्य और असत्य संकल्प वाले होते हैं ।
४०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य प्रज्ञा वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्यप्रज्ञा वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष असत्य, किन्तु सत्य - प्रज्ञा वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष असत्य और असत्य - प्रज्ञा वाले होते
हैं ।
४२. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य - शीलाचार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्य- शीलाचार वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष असत्य, किन्तु सत्य - शीलाचार वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष असत्य और असत्यशीलाचार वाले होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
३०३
स्थान ४ : सूत्र ४३-४५ ४३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य-व्यवहार सच्चे णामं एगे सच्चववहारे, सत्यो नामकः सत्यव्यवहारः,
वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु सच्चे णामं एगे असच्चववहारे, सत्यो नामैक: असत्यव्यवहारः,
असत्य-व्यवहार वाले होते हैं, ३. कुछ असच्चे णाम एगे सच्चववहारे, असत्यो नामैकः सत्यव्यवहारः,
पुरुष असत्य, किन्तु सत्य-व्यवहार वाले असच्चे णामं एगे असच्चववहारे। असत्यो नामकः असत्यव्यवहारः। होते हैं, ४. कुछ पुरुष असत्य और असत्य
व्यवहार वाले होते हैं। ४४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष सत्य और सत्य-पराक्रम सच्चे णाम एगे सच्चपरक्कमे, सत्यो नामैकः सत्यपराक्रमः,
वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सत्य, किन्तु सच्चे णाम एगे असच्चपरक्कमे, सत्यो नामैक: असत्यपराक्रमः,
असत्य-पराक्रम वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष असच्चे णामं एगे सच्चपरक्कमे, असत्यो नामकः सत्यपराक्रमः,
असत्य, किन्तु सत्य-पराक्रम वाले होते हैं, असच्चेणाम एगे असच्चपरक्कमे। असत्यो नामक: असत्यपराक्रमः । ४. कुछ पुरुष असत्य और असत्य-पराक्रम
वाले होते हैं।
सुचि-असुचि-पदं शुचि-अशुचि-पदम्
शुचि-अशुचि-पद ४५. चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ४५. वस्त्र चार प्रकार के होते हैंसुई णामं एगे सुई, शुचि नामैकं शुचि,
१. कुछ वस्त्र प्रकृति से भी शुचि होते हैं सुई णामं एगे असुई, शुचि नामकं अशुचि,
और परिष्कृत होने के कारण भी शुचि 'असुई णामं एगे सुई, अशुचि नामैकं शुचि,
होते हैं, २. कुछ वस्त्र प्रकृति से शुचि, असुई णाम एगे असुई। अशुचि नामकं अशुचि।
किन्तु अपरिष्कृत होने के कारण अशुचि होते हैं, ३. कुछ वस्त्र प्रकृति से अशुचि, किन्तु परिष्कृत होने के कारण शुचि होते हैं, ४. कुछ वस्त्र प्रकृति से अशुचि होते हैं और अपरिष्कृत होने के कारण भी
अशुचि होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष शरीर से भी शुचि सुई णाम एगे सुई, शुचिर्नामैकः शुचिः,
होते हैं और स्वभाव से भी शुचि होते हैं, 'सुई णाम एगे असुई, शुचिर्नामैकः अशुचिः,
२. कुछ पुरुष शरीर से शुचि, किन्तु असुई णाम एगे सुई, अशुचिर्नामैकः, शुचिः
स्वभाव से अशुचि होते हैं, ३. कुछ पुरुष असुई णामं एगे असुई। अशुचिर्नामकः अशुचिः।
शरीर से अशुचि, किन्तु स्वभाव से शुचि होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से भी अशुचि होते हैं और स्वभाव से भी अशुचि होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३०४
स्थान ४ : सूत्र ४६-४८ ४६. चत्तारि वत्था पण्णत्ता,तं जहा- चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ४६. वस्त्र चार प्रकार के होते हैंसुई णामं एगे सुइपरिणते, शुचि नामक शुचिपरिणतं,
१. कुछ वस्त्र प्रकृति से शुचि और शुचिसुई णामं एगे असुइपरिणते, शुचि नामक अशुचिपरिणतं,
परिणत होते हैं, २. कुछ वस्त्र प्रकृति से असुई णाम एगे सुइपरिणते, अशुचि नामैक शुचिपरिणतं, शुचि, किन्तु अशुचि-परिणत होते हैं, असुई णाम एगे असुइपरिणते। अशुचि नामैकं अशुचिपरिणतम् । ३. कुछ वस्त्र प्रकृति से अशुचि, किन्तु
शुचि-परिणत होते हैं, ४. कुछ वस्त्र प्रकृति
से अशुचि और अशुचि-परिणत होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और सुई णाम एगे सुइपरिणते, शुचिर्नामकः शुचिपरिणतः, शुचि-परिणत होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर सुई णाम एगे असुइपरिणते, शुचिर्नामैक: अशुचिपरिणतः, से शुचि, किन्तु अशुचि-परिणत होते हैं, असुई णामं एगे सुइपरिणते, अशुचिर्नामकः शुचिपरिणतः, ३. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि, किन्तु असुई णामं एगे असुइपरिणते। अशुचिर्नामकः अशुचिपरिणतः । शुचि-परिणत होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर
से अशुचि और अशुचि-परिणत होते हैं। ४७. चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तदयथा- ४७. वस्त्र चार प्रकार के होते हैंसुई णाम एगे सुइरूवे, शुचि नामैकं शुचिरूपं,
१. कुछ वस्त्र प्रकृति से शुचि और शुचिसुई णाम एगे असुइरूवे, शुचि नामैकं अशु चिरूपं,
रूप वाले होते हैं, २. कुछ वस्त्र प्रकृति से असुई णामं एगे सुइरूवे,
शुचि, किन्तु अशुचि-रूप वाले होते हैं, अशुचि नामक शुचिरूपं,
३. कुछ वस्त्र प्रकृति से अशुचि, किन्तु असुई णाम एगे असुइरूवे। अशुचि नामैकं अशुचिरूपम् ।
शुचिरूप वाले होते हैं, ४. कुछ वस्त्र प्रकृति
से अशुचि और अशुचि-रूप वाले होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और सुई णामं एगे सुइरूवे, शुचिर्नामैकः शुचिरूपः,
शुचि-रूप वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सुई णाम एगे असुइरूवे, शुचिर्नामक: अशुचिरूपः,
शरीर से शुचि, किन्तु अशुचि-रूप वाले असुई णामं एगे सुइरूवे,
होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि, अशुचिर्नामैकः शुचिरूपः,
किन्तु शुचि-रूप वाले होते हैं, ४. कुछ असुई णाम एगे असुइरूवे। अशुचिर्नामकः अशुचिरूपः ।
पुरुष शरीर से अशुचि और अशुचि-रूप
वाले होते हैं। ४८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और शुचिसुई णामं एगे सुइमणे, शुचिर्नामैकः शुचिमनाः,
मन वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर सुई णामं एगे असुइमणे, शुचिर्नामैक: अशुचिमनाः, से शुचि, किन्तु अशुचि-मन वाले होते हैं, असुई णामं एगे सुइमणे, अशुचिर्नामकः शुचिमनाः, ३. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि, किन्तु असुई णामं एगे असुइमणे। अशुचिर्नामैक: अशुचिमना:। शुचि मन वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर
से अशुचि और अशुचि मन वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३०५
स्थान ४ : सूत्र ४६-५२ ४६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और शुचिसुई णामं एगे सुइसंकप्पे, शुचिर्नामैकः शुचिसंकल्पः,
संकल्प वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर सुई णाम एगे असुइसंकप्पे, शुचिर्नामक: अशुचिसंकल्पः,
से शुचि, किन्तु अशुचि-संकल्प वाले होते असुई णामं एगे सुइसंकप्पे, अशचिर्नामकः शचिसंकल्पः, हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि, किन्तु असुई णाम एगे असुइसंकप्पे। अशुचिर्नामैक: अशुचिसंकल्पः । शुचि-संकल्प वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष
शरीर से अशुचि और अशुचि-संकल्प वाले होते हैं।
५०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और शुचिसुई णामं एगे सुइपण्णे, शुचिर्नामकः शुचिप्रज्ञः, प्रज्ञा वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर सुई णाम एगे असुइपण्णे, शुचिर्नामैकः अशुचिप्रज्ञः,
से शुचि, किन्तु अशुचि-प्रज्ञा वाले होते हैं, असुई णामं एगे सुइपण्णे, अशुचिर्नामकः शुचिप्रज्ञः, ३. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि, किन्तु असुई णाम एगे असुइपण्णे। अशुचिर्नामैक: अशुचिप्रज्ञः । शुचि-प्रज्ञा वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष
शरीर से अशुचि और अशुचि-प्रज्ञा वाले होते हैं।
५१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और शुचिसुई णाम एगे सुइदिट्टी, शुचिर्नामैकः शुचिदृष्टिः,
दृष्टि वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर सुई णामं एगे असुइदिठ्ठी, शुचिर्नामकः अशुचिदृष्टि:,
से शुचि, किन्तु अशुचि-दृष्टि वाले होते हैं, असुई णाम एगे सुइदिट्टी, अशुचिर्नामकः शुचिदृष्टिः, ६. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि,किन्तु शुचिअसुई णामं एगे असुइदिट्ठी। अशुचिर्नामैक: अशुचिदृष्टिः । दृष्टि वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से
अशुचि और अशुचि-दृष्टि वाले होते हैं।
५२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और शुचिसुई णाम एगे सुइसीलाचारे, शुचिर्नामैकः शुचिशीलाचारः, शीलाचार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सुई णाम एगे असुइसीलाचारे, शुचिर्नामैकः अशुचिशीलाचारः, शरीर से शुचि, किन्तु अशुचि-शीलाचार असुई णाम एगे सुइसीलाचारे, अशुचिर्नामैकः शुचिशीलाचारः, वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से असुई णाम एगे असुइसोलाचारे। अशुचिर्नामैक: अशुचिशीलाचारः । अशुचि, किन्तु शुचि-शीलाचार वाले होते
हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि और अशुचि-शीलचार वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३०६
स्थान ४ : सूत्र ५३-५६ ५३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा...
१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और शुचिसुई णामं एगे सुइववहारे, शुचिर्नामैकः शुचिव्यवहारः, व्यवहार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष सुई णामं एगे असुइववहारे, शुचिर्नामैक: अशुचिव्यवहारः, शरीर से शुचि, किन्तु अशुचि-व्यवहार असुई णाम एगे सुइववहारे, अशुचिर्नामकः शुचिव्यवहारः, वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से असुई णामं एगे असुइववहारे। अशुचिर्नामैक: अशुचिव्यवहारः । अशुचि, किन्तु शुचि-व्यवहार वाले होते
हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि और
अशुचि-व्यवहार वाले होते हैं। ५४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से शुचि और शुचिसुई णामं एगे सुइपरक्कमे, शुचिर्नामकः शुचिपराक्रमः, पराक्रम वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर सुई णामं एगे असुइपरक्कमे, शुचिर्नामकः अशुचिपराक्रमः, से शुचि, किन्तु अशुचि-पराक्रम वाले होते असुई णामं एगे सुइपरक्कमे, अशुचिर्नामैकः शुचिपराक्रमः, हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से अशुचि, किन्तु असुई णाम एगे असुइपरक्कमे। अशुचिर्नामकः अशुचिपराक्रमः । शुचि-पराक्रम वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष
शरीर से अशुचि और अशुचि-पराक्रम वाले होते हैं।
कोरव-पदं कोरक-पदम्
कोरक-पद ५५. चत्तारि कोरवा पण्णता, तं जहा- चत्वारि कोरकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ५५. कली चार प्रकार की होती है
अंबपलबकोरवे, तालपलंबकोरवे, आम्रप्रलम्बकोरकं, तालप्रलम्बकोरकं, १. आम्र-फल की कली, २. ताड़-फल की वल्लिपलबकोरवे,
वल्लीप्रलम्बकोरक, मेढ़ विषाणाकोरकम्। कली, ३. बल्लि-फल की कली, ४. मेषमेंढविसाणकोरवे।
शृंग के फल की कली। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं--१. कुछ पुरुष आम्र-फल की कली अंबपलबकोरवसमाणे, आम्रप्रलम्बकोरकसमानः,
के समान होते हैं, २. कुछ पुरुष ताड़-फल तालपलबकोरवसमाणे, तालप्रलम्बकोरकसमानः,
की कली के समान होते हैं, ३. कुछ पुरुष वल्लिपलबकोरवसमाणे, वल्लीप्रलम्बकोरकसमानः,
बल्लि-फल की कली के समान होते हैं, मेंढविसाणकोरवसमाणे। मेविषाणाकोरकसमानः ।
४. कुछ पुरुष मेष-शृंग के फल की कली के समान होते हैं।
भिक्खाग-पदं
भिक्षाक-पदम् ५६. चत्तारि घुणा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः घुणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
तयक्खाए, छल्लिक्खाए, त्वकखादः, छल्लीखादः, काष्ठखादः, कटक्खाए, सारक्खाए।
सारखादः।
भिक्षाक-पद ५६. धुण चार प्रकार के होते हैं
१. त्वचा-बाहरी छाल को खाने वाले, २. छाल-त्वचा के भीतरी भाग को
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ठाणं (स्थान)
एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता, एवमेव चत्वारः भिक्षाका : प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा—
तं जहातक्खायसमाणे, 'छल्लिक्खायसमाणे,
खासमा,
सारक्खायसमाणे ।
णं
१. तयक्खायसमाणस्स भिक्खागस्स सारखायसमाणे तवे पण्णत्ते ।
२. सारक्खायसमाणस्स
णं
भिक्arita arraायसमाणे तवे पण्णत्ते ।
३. छल्लिक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स कटुक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते ।
४. कटुक्खायसमाणस्स णं भिक्खा
गस्स छल्लिक्खायसमाणे तवे
पण्णत्ते ।
३०७
अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंबीया ।
त्वक्खादसमानः, छल्लीखादसमानः, काष्ठखादसमानः, सारखादसमानः । १. त्वक्खादसमानस्य भिक्षाकस्य सारखादसमानं तपः प्रज्ञप्तम् । २. सारखादसमानस्य भिक्षाकस्य त्वक्खादसमानं तपः प्रज्ञप्तम् । ३. छल्ली खादसमानस्य भिक्षाकस्य काष्ठखादसमा नं तपः प्रज्ञप्तम् । ४. काष्ठखादसमानस्य भिक्षाकस्य छल्लीखादसमानं तपः प्रज्ञप्तम् ।
तणवणस्सइ-पदं
तृणवनस्पति-पदम्
तृणवनस्पति-पद
५७. चउव्विहा तणवणस्स तिकाइया चतुर्विधाः तृणवनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः, ५७. तृण वनस्पति कायिक चार प्रकार के
पण्णत्ता, तं जहा
होते हैं - १. अग्रबीज - कोरण्ट आदि । इनके अग्रभाग ही बीज होते हैं अथवा ब्रीहि आदि इनके अग्रभाग में बीज होते हैं, २. मूल बीज - उत्पल, कंद आदि। इनके मूल ही बीज होते हैं, ३. पर्वबीज - इक्षु आदि । इनके पर्व ही बीज होते हैं,
तद्यथाअग्रबीजा:, मुलबीजा:, पर्वबीजा:, स्कन्धबीजाः ।
स्थान ४ : सूत्र ५७
खाने वाले, ३. काठ को खाने वाले, ४. सार - [ काठ के मध्य भाग ] को खाने वाले 1
इसी प्रकार भिक्षु भी चार प्रकार के होते
हैं - १. कुछ भिक्षु त्वचा को खाने वाले घुण के समान प्राप्त आहार करने वाले होते हैं, २. कुछ भिक्षु छाल को खाने वाले घुण के समान - रूक्ष आहार करने वाले होते हैं, ३. कुछ भिक्षु काठ को खाने वाले घुण के समान - दूध, दही आदि विगयों को आहार न करने वाले होते हैं, ४. कुछ भिक्षु सार को खाने वाले घुण के समानविगयों से परिपूर्ण आहार करने वाले होते हैं।
१. जो भिक्षु त्वचा को खाने वाले घुण के समान होते हैं, उनके सार को खाने वाले घुण के समान तप होता है, २. जो भिक्षु सार को खाने वाले घुण के समान होते हैं, उनके त्वचा को खाने वाले घुण के समान तप होता है, ३. जो भिक्षु छाल को खाने वाले घुण के समान होते हैं, उनके काठ को खाने वाले घुण के समान तप होता है, ४. जो भिक्षु काठ को खाने वाले घुण के समान होते हैं, उनके छाल को खाने वाले घु के समान तप होता है। "
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ठाणं (स्थान)
अहुणोववण्ण-रइय-पदं
५८. चउहि ठाणेहि अहुणोववण्णे रइए णिरयलोगंसि इच्छेज्जा माणसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, जो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए — १. अणोववणे णेरइए णिरयलोगंसि समुब्भूयं वेयणं वेयमाणे इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छत्तए, णो चेवणं संचाएति हव्वमागच्छत्तए । २. अणोववण्णे णेरइए णिरयलोगं सिणिरय पालेहि भुज्जो - भुज्जो अहिट्टिज्जमाणे इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, जो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए ३. अहुणोववणे णेरइए णिरयवे णिज्जंस कम्मंस अक्खीणंसि अवेइयंसि अणिज्जिण्णंसि इच्छेज्जा माणसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, जो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए ४. अणोववणे रइए णिरयाअसि कम्मंस अक्खीणंसि अवे इयंसि अणिज्जिणंसि इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छत्तए णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छत्तएइच्चेतेहि चहि ठाणेह अहुणो ववण्णे णेरइए णिरयलोगंसि इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए ।
३०८
अधुनोपपन्न-नैरयिक-पदम् चतुभिः स्थानैः अधुनोपपन्नः नैरयिकः निरयलोके इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति अर्वाग् आगन्तुम्—
१. अधुनोपपन्नः नैरयिकः निरयलोके समुद्भूतां वेदनां वेदयन् इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति अर्वाग् आगन्तुम्
२. अधुनोपपन्नः नैरयिकः निरयलोके नरकपाले भूयः - भूयः अधिष्ठीयमानः इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् आगन्तुम् नो चैव शक्नोति अर्वाग् आगन्तुम्
३. अधुनोपपन्नः नैरयिकः निरयवेदनीये कर्मणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्जीर्णे इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति अर्वाग् आगन्तुम्
४. अधुनोपपन्नः नैरयिकः निरयायुषे कर्मणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्जीर्णे इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति अर्वाग् आगन्तुम्—
इति एतैः चतुभिः स्थानैः अधुनोपपन्नः नैरयिकः निरयलोके इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति अर्वाग् आगन्तुम् ।
स्थान ४ : सूत्र ५८
४. स्कन्ध - बीज - सल्लकी आदि। इनके स्कन्ध ही वीज होते हैं।
अधुनोपपन्न-नरयिक- पद
५८. नरक लोक में तत्काल उत्पन्न नैरयिक चार कारणों से शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता है, किन्तु आ नहीं सकता
१. तत्काल उत्पन्न नैरयिक नरक लोक में होने वाली पीड़ा अनुभव करता है तब वह शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता है, किन्तु आ नहीं सकता,
२. तत्काल उत्पन्न नैरयिक नरक लोक में नरकपालों द्वारा बार-बार आक्रान्त होने पर शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता है, किन्तु आ नहीं सकता,
३. तत्काल उत्पन्न नैरयिक शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता है, किन्तु नरक में भोगने योग्य कर्मों के क्षीण हुए बिना, उन्हें भोगे बिना, उनका निर्जरण हुए बिना आ नहीं सकता, ४. तत्काल उत्पन्न नैरयिक शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता है, किन्तु नरक सम्बन्धी आयुष्यकर्म के क्षीण हुए बिना, उसे भोगे बिना, उसका निर्जरण हुए बिना आ नहीं सकता
इन चार कारणों से नरकलोक में तत्काल उत्पन्न नैरयिक शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता है, किन्तु आ नहीं सकता ।
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ठाणं (स्थान)
३०६
स्थान ४ : सूत्र ५६-६२
संघाडी-पदं सङ धाटी-पदम्
सङ घाटी-पद ५६. कप्पंति णिग्गंथीणं चत्तारि संघा- कल्पन्ते निर्ग्रन्थीनां चतस्रः सङ घाट्यः ५६. निर्ग्रन्थियां चार संघाटियां रख व ओढ़ डीओ धारित्तए वा परिहरित्तए धत्तु वा परिधातुं वा, तद्यथा
सकती हैं-१. दो हाथ वाली संघाटीवा, तं जहा
एका द्विहस्तविस्तारा, द्वे त्रिहस्तविस्तारे, उपाश्रय में ओढ़ने के काम आती है, २. तीन एग दुहत्थवित्थारं, एका चतुर्हस्तविस्तारा।
हाथ विस्तार वाली एक संघाटी-भिक्षा दो तिहत्थवित्थारं,
लाए तब ओढ़ने के काम आती है, ३. तीन एग चउहत्थवित्थारं।
हाथ विस्तार वाली दूसरी संघाटीशौचार्थ जाए तब ओढ़ने के काम आती है, ४. चार हाथ विस्तार वाली संघाटीव्याख्यानपरिषदमें ओढ़नेके काम आती है
झाण-पदं ध्यान-पदम्
ध्यान-पद ६०. चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि ध्यानानि प्रज्ञप्तानि, तदयथा- ६०. ध्यान चार प्रकार का होता है
अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, आत्तं ध्यानं, रौद्रं ध्यानं, धर्म्य ध्यानं, १. आर्त, २. रौद्र, ३.धर्म्य, ४. शुक्ल।२३
धम्मे झाणे, सुक्के झाणे। शुक्लं ध्यानम्। ६१. अट्टे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं आतं ध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६१. आर्त ध्यान चार प्रकार का होता है
जहा१. अमणुण्ण-संपओग-संपउत्ते, १. अमनोज्ञ-संप्रयोग-सम्प्रयुक्तः, तस्य १. अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस तस्स विप्पओग-सति-समण्णागते विप्रयोग-स्मृति-समन्वागतश्चापि भवति [अमनोज्ञ विषय] के वियोग की चिन्ता यावि भवति
में लीन हो जाना, २. मणुण्ण-संपओग-संपउत्ते, तस्य २. मनोज्ञ-संप्रयोग-सम्प्रयुक्तः, तस्य २. मनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर विप्पओगसति-समण्णा-गते यावि अविप्रयोग-स्मृति-समन्वागतश्चापि उस [मनोज्ञ विषय के वियोग न होने भवति भवति
की चिन्ता में लीन हो जाना, ३. आतंक-संपओग-संपउत्ते, तस्स ३. आतङ्क-सम्प्रयोग-सम्प्रयुक्तः, तस्य ३. आतंक [सद्योघाती रोग] के संयोग विप्पओग-सति-समण्णागते यावि विप्रयोग-स्मृति-समन्वागतश्चापि भवति से संयुक्त होने पर उसके वियोग की भवति
चिन्ता में लीन हो जाना, ४. परिजुसित-काम-भोग-संपओग ४. परिजुष्ट-काम-भोग-संप्रयोग-सम्प्र- ४. प्रीति-कर काम-भोग के संयोग से संपउत्ते, तस्स अविप्पओग- युक्तः, तस्य अविप्रयोग-स्मृति-समन्वागत- संयुक्त होने पर उसके वियोग न होने की सति-समण्णागते यावि भवति। श्चापि भवति ।
चिन्ता में लीन हो जाना। ६२. अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि आतस्य ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि ६२. आर्त ध्यान के चार लक्षण हैंलक्खणा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. आक्रन्द करना, २. शोक करना, कंदणता, सोयणता, क्रन्दनता, शोचनता,
३. आंसू बहाना, ४. विलाप करना। तिप्पणता, परिदेवणता। तेपनता, परिदेवनता।
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जहा
ठाणं (स्थान)
३१०
स्थान ४: सूत्र ६३-६७ ६३. रोद्दे झाणे चउन्विहे पण्णत्ते, तं रौद्रं ध्यानं चतुविधं प्रज्ञप्तम्, ६३. रौद्र ध्यान चार प्रकार का होता हैतद्यथा
१. हिंसानुबन्धी-जिसमें हिंसा का अनुहिसाणुबंधि, मोसाणुबंधि, हिंसानुबन्धि, मृषानुबन्धि, स्तन्यानुबन्धि, बन्ध [ सतत प्रवर्तन ]हो, २. मृषानुबन्धीतेणाणुबंधि, सारक्खणाणुबंधि। संरक्षणानुबन्धि ।
जिसमें मृषा का अनुबंध हो, ३. स्तन्यानुबन्धी-जिसमें चोरी का अनुबन्ध हो, ४. संरक्षणानुबन्धी-जिसमें विषय के
साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध हो । ६४. रुखस्स णं झाणस्स चत्तारि रौद्रस्य ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि ६४. रौद्र ध्यान के चार लक्षण हैं
लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा उत्सन्नदोषः, १. उत्सन्नदोष-प्रायः हिंसा आदि में प्रवृत्त ओसण्णदोसे, बहुदोसे, बहुदोषः, अज्ञानदोषः, आमरणान्तदोषः। रहना, २. बहुदोष-हिंसादि की विविधअण्णाणदोसे, आमरणंतदोसे ।
प्रवृत्तियों में संलग्न रहना, ३. अज्ञानदोष-अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना, ४. आमरणान्तदोष-मरणान्तक
हिंसा आदि करने का अनुताप न होना। ६५. धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे धर्म्य ध्यानं चतुर्विधं चतुष्प्रत्यवतारं ६५. धर्म्य ध्यान चार प्रकार का है, वह चार पण्णत्ते, तं जहा
प्रज्ञप्तम्, तद्यथा—आज्ञाविचयं, पदों [स्वरूप, लक्षण, आलम्बन और आणाविजए, अवायविजए, अपायविचयं, विपाकविचयं,
अनुप्रेक्षा] में अवतरित होता है। उसके विवागविजए, संठाणविजए। संस्थानविच यम्।
चार प्रकार ये हैं-१. आज्ञा-विचयप्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त, २. उपाय-विचय-दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त, ३. विपाक-विचय-कर्मफलों के निर्णय में संलग्न चित्त, ४. संस्थान-विचय–विविध पदार्थों के
आकृति-निर्णय में संलग्न चित्त।२८ ६६. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि धर्म्यस्य ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि ६६. धर्म्य ध्यान के चार लक्षण हैंलक्खणा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. आज्ञा-रुचि-प्रवचन में श्रद्धा होना, आणारुई, णिसग्गरुई, आज्ञारुचि:, निसर्गरुचिः,
२. निसर्ग-रुचि-सहज ही सत्य में श्रद्धा सुत्तरुई, ओगाढरुई। सूत्ररुचिः, अवगाढरुचिः।
होना, ३. सूत्र-रुचि-सूत्र पढ़ने के द्वारा सत्य में श्रद्धा उत्पन्न होना, ४. अवगाढरुचि-विस्तृत पद्धति से सत्य में श्रद्धा
होना।
६७. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि धर्म्यस्य ध्यानस्य चत्वारि आलम्बनानि ६७. धर्म्य ध्यान के चार आलम्बन हैंआलंबणा पण्णत्ता, तं जहा.- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वाचना,
१. वाचना-पढ़ाना, २. प्रतिप्रच्छनावायणा, पडिपुच्छणा, प्रतिप्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा। शंका निवारण के लिए प्रश्न करना,
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उ (स्थान)
३११
स्थान ४ : सूत्र ६८-७२ परियट्टणा, अणुप्पेहा।
३. परिवर्तना-पुनरावर्तन करना,
४. अनुप्रेक्षा-अर्थ का चिन्तन करना। ६८. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणु- धर्म्यस्य ध्यानस्य चतस्रः अनुप्रेक्षाः ६८. धर्म्य ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं
प्पेहाओ पण्णताओ, तं जहा.- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकानुप्रेक्षा, १. एकत्वअनुप्रेक्षा--अकेलेपन का चिन्तन एगाणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, करना, २. अनित्यअनुप्रेक्षा--पदार्थों की असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा। संसारानुप्रेक्षा।
अनित्यता का चिन्तन करना, ३. अशरणअनुप्रेक्षा-अशरण दशा का चिन्तन करना, ४. संसारअनुप्रेक्षा-संसार
परिभ्रमण का चिन्तन करना।" ६६. सुक्के झाणे ची व्वहे वउप्पडो- शुक्लं ध्यानं चतुविधं चतुष्प्रत्यवतारं ६६. शुक्ल ध्यान के चार प्रकार हैं और वह आरे पण्णत्ते, तं जहा- प्रज्ञप्तम्, तद्यथा
चार पदों (स्वरूप, लक्षण, आलम्बन, पुहत्तवितक्के सवियारी, पृथक्त्ववितर्क सविचारि,
अनुप्रेक्षा) में अवतरित होता है। उसके एगत्तवितक्के अवियारी, एकत्ववितर्क अविचारि,
चार प्रकार ये हैं-१. पृथकत्ववितर्कसुहुमकिरिए अणियट्टी, सूक्ष्मक्रियं अनिवृत्ति,
सविचारी, २. एकत्ववितकअविचारी, समुच्छिण्णकिरिए अप्पडिवाती। समुच्छिन्नक्रियं अप्रतिपाति ।
३. सूक्ष्म क्रियअनिवृत्ति,
४. समुच्छिन्नक्रियअप्रतिपाति ।३२ ७०. सुक्कस्स गं झाणस्स चत्तारि शुक्लस्य ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि ७०. शुक्ल ध्यान के चार लक्षण हैंलक्खणा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. अव्यथ-क्षोभ का अभाव, अव्वहे, असम्मोहे, अव्यथं, असम्मोहः,
२. असम्मोह-सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढता विवेगे, विउस्सगे। विवेकः, व्युत्सर्गः।
का अभाव, ३. विवेक-शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान, ४. व्युत्सर्ग
शरीर और उपधि में अनासक्त भाव।" ७१. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि शुक्लस्य ध्यानस्य चत्वारि आलम्बनानि ७१. शुक्ल ध्यान के चार आलम्बन हैंआलंबणा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. शान्ति-क्षमा, २. मुक्ति-निर्लोभत , खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे। क्षान्तिः, मुक्तिः,
३. आर्जव-सरलता, ४. मार्दवआर्जवं, मार्दवम् । ७२. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि शुक्लस्य ध्यानस्य चतस्रः अनुप्रेक्षाः ७२. शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैंअणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ,तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. अनन्तवृत्तिताअनुप्रेक्षा-संसार परअणंतवत्तियाणुप्पेहा, अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा, विपरिणामानुप्रेक्षा, म्परा का चिन्तन करना, २. विपरिणामविप्परिणामाणुप्पेहा, अशुभानुप्रेक्षा, अपायानुप्रेक्षा। अनुप्रेक्षा-वस्तुओं के विविध परिणामों असुभाणप्पेहा, अवायाणुप्पेहा।
का चिन्तन करना, ३. अशुभअनुप्रेक्षापदार्थों की अशुभता का चिन्तन करना, ४. अपायअनुप्रेक्षा-दोषों का चिन्तन करना।
मृदुता।"
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ठाणं (स्थान)
३१२
स्थान ४ : सूत्र ७३-७६
देव-ठिड-पदं देव-स्थिति-पदम्
देव-स्थिति-पद ७३. चउब्विहा देवाण ठिती पण्णत्ता, चतुर्विधा देवानां स्थितिः प्रज्ञप्ता, ७३. देवताओं की स्थिति-(पदमर्यादा) चार तं जहातद्यथा
प्रकार की होती हैदेवे णाममेगे,
नामैकः,
१. देव--राजास्थानीय, २. देवदेवसिणाते णाममेगे, देवस्नातकः नामैकः,
स्नातक-अमात्य, ३. देव-युरोहितदेवपुरोहिते णाममेगे, देवपुरोहितः नामकः,
शान्तिकर्म करने वाला, ४. देव-प्रज्वलनदेवपज्जलणे णाममेगे। देवप्रज्वलनः नामकः ।
मंगल पाठक।
देवः
संवास-पदं
संवास-पदम् ७४. चउविहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संवास: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
देवे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं देवः नामकः देव्या साध संवासं गच्छेत्, गच्छेज्जा, देवे णाममेगे छवीए सद्धि देवः नामैकः छव्या साधं संवासं गच्छेत. संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे छविः नामैकः देव्या साधू संवासं गच्छेत्, देवीए सद्धि संवासं गच्छेज्जा, छवी छविः नामकः छव्या साध संवासं गच्छेत्। णाममेगे छवीए सद्धि संवासं गच्छेज्जा।
संवास-पद ७४. संवास (संभोग) चार प्रकार का होता
है-१. कुछ देव देवी के साथ संभोग करते हैं, २. कुछ देव नारी या तिर्यञ्चस्त्री के साथ संभोग करते हैं, ३. कुछ मनुष्य या तिर्यञ्च-देवी के साथ संभोग करते हैं, ४. कुछ मनुष्य या तिर्यञ्च मानुषी या तिर्यञ्च स्त्री के साथ संभोग करते हैं।
कसाय-पदं कषाय-पदम्
कषाय-पद ७५. चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः कषायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ७५, कषाय चार हैं-१. क्रोधकषाय,
कोहकसाए, माणकसाए, क्रोधकषायः, मानकषाय:, मायाकषायः, २. मानकषाय, ३. मायाकषाय, मायाकसाए, लोभकसाए। लोभकषायः।
४. लोभकषाय। एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणि- एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानि- नारिकों से लेकर वैमानिकों तक के सभी याणं। कानाम् ।
दण्डकों में चारों कषाय होते हैं। ७६. चउपति द्विते कोहे पण्णत्ते, तं चतुः प्रतिष्ठितः क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ७६. क्रोध चतुःप्रतिष्ठित होता हैजहा
आत्मप्रतिष्ठितः, परप्रतिष्ठितः, १. आत्मप्रतिष्ठित [स्व-विषयक]-जो आतपतिट्टिते, परपतिट्टिते, तदुभयप्रतिष्ठितः, अप्रतिष्ठितः । अपने ही निमित्त से उत्पन्न होता है, तदुभयपतिट्टिते, अपतिट्टिते।
२.परप्रतिष्ठित [पर-विषयक]-जो दूसरे एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणि- एवम् नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- के निमित्त से उत्पन्न होता है, याणं। नाम् ।
३. तदुभयप्रतिष्ठित--जो स्व और पर दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है, ४. अप्रतिष्ठित-जो केवल क्रोध-वेदनीय के उदय से उत्पन्न होता है, आक्रोश आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न नहीं होता।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४: सूत्र ७७-८२ ७७. 'चउपतिहिते माणे पण्णत्ते, तं चतुः प्रतिष्ठिता मानः प्रज्ञप्तः, ७७. मान चतुःप्रतिष्ठित होता हैजहातद्यथा
१. आत्मप्रतिष्ठित, २. परप्रतिष्ठित, आतपतिहिते, परपतिट्टिते, आत्मप्रतिष्ठितः, परप्रतिष्ठितः, ३. तदुभयप्रतिष्ठित, ४. अप्रतिष्ठित । तदुभयपतिट्टिते, अपतिट्टिते। तदुभयप्रतिष्ठितः, अप्रतिष्ठितः । यह चारों प्रकार का मान नारकों से लेकर एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवम् नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- वैमानिक तक के सभी खण्डों में प्राप्त नाम् ।
होता है। ७८. चउपतिद्विता माया पण्णत्ता, तं चतुः प्रतिष्ठिता मायाः प्रज्ञप्ता, ७८. माया चतुःप्रतिष्ठित होती हैजहातद्यथा
१. आत्मप्रतिष्ठित, २. परप्रतिष्ठित, आतपतिद्विता, परपतिट्ठिता, आत्मप्रतिष्ठिता, परप्रतिष्ठिता, ३. तदुभयप्रतिष्ठित, ४. अप्रतिष्ठित । तदुभयपतिहिता, अपतिट्ठिता। तदुभयप्रतिष्ठिता, अप्रतिष्ठिता। यह चारों प्रकार की माया नारकों से एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में नाम्।
प्राप्त होती है। ७६. चउपतिट्टिते लोभे पण्णत्ते, तं चतुः प्रतिष्ठितः लोभः प्रज्ञप्तः, ७६. लोभ चतुः प्रतिष्ठित होता हैजहातद्यथा
१. आत्मप्रतिष्ठित, २. परप्रतिष्ठित, आतपतिहिते, परपतिट्टिते, आत्मप्रतिष्ठितः, परप्रतिष्ठितः, ३. तदुभयप्रतिष्ठित, ४. अप्रतिष्ठित । तदुभयपतिट्ठिते, अपति ट्ठिते। तदुभयप्रतिष्ठितः, अप्रतिष्ठितः । यह चारों प्रकार का लोभ नारकों से लेकर एवं_णेरइयाणं जाव वेमाणि- एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- वैमानिक तक के सभी दण्डकों में प्राप्त याणं। नाम्।
होता है। ८०. चहि ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिता, चतुभिः स्थानः क्रोधोत्पत्तिः स्यात्, ८०. क्रोध की उत्पत्ति चार कारणों से होती तं जहातद्यथा
है--१. क्षेत्र--भूमि के कारण, खेत्तं पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा, क्षेत्रं प्रतीत्य, वास्तु प्रतीत्य,
२. वास्तु-घर के कारण, ३. शरीरसरीरं पडुच्चा, उहि पडुच्चा। शरीरं प्रतीत्य, उपधि प्रतीत्य । कुरूप आदि होने के कारण, ४. उपधिएवं-रइयाणंजाव वेमाणियाणं। एवम _नैरयिकाणां यावत वैमानिका- उपकरणों के नष्ट हो जाने के कारण। नाम् ।
नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में इन चार कारणों से क्रोध की
उत्पत्ति होती है। ८१. 'वहिं ठाणेहि माणुप्पत्ती सिता, चतुभिः स्थानः मानोत्पत्तिः स्यात्, ८१. मान की उत्पत्ति चार कारणों से होती तं जहातद्यथा
है-१. क्षेत्र के कारण, २. वस्तु के कारण, खेत्तं पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा, क्षेत्र प्रतीत्य, वास्तु प्रतीत्य,
३. शरीर के कारण, ४. उपधि के कारण। सरीरं पडुच्चा, उहि पडुच्चा। शरीरं प्रतीत्य, उपधि प्रतीत्य ।
नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी एवंणेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवम् नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- दण्डकों में इन चार कारणों से मान की नाम्।
उत्पत्ति होती है। ८२. चहि ठाणेहिं मायुप्पत्ती सिता, चतुभिः स्थानः मायोत्पत्तिः स्यात्, ८२. माया की उत्पत्ति चार कारणों से होती तं जहा
तद्यथा
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ठाणं (स्थान)
३१४
स्थान ४ : सूत्र ८३-८६ खेत्तं पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा, क्षेत्रं प्रतीत्य, वास्तु प्रतीत्य,
१. क्षेत्र के कारण, २.वस्तु के कारण, सरीरं पडुच्चा, उहि पडुच्चा। शरीरं प्रतीत्य, उपधि प्रतीत्य । ३. शरीर के कारण, ४. उपधि के कारण। एवं--णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी नाम् ।
दण्डकों में इन चार कारणों से माया की
उत्पत्ति होती है। ८३. चउहि ठाणेहि लोभुप्पत्ती सिता, चतुभिः स्थानैः लोभोत्पत्तिः स्यात्, ८३. लोभ की उत्पत्ति चार कारणों से होती जहातद्यथा
है-१. क्षेत्र के कारण, खेत्तं पडुच्चा, वत्थं पडुच्चा, क्षेत्रं प्रतीत्य, वास्तु प्रतीत्य,
२. वस्तु के कारण, ३. शरीर के कारण, सरीरं पडुच्चा, उहि पडुच्चा। शरीरं प्रतीत्य, उपधि प्रतीत्य ।
४. उपधि के कारण। एवं...णेरयाणं जाव वेमाणि- एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी याणं । नाम् ।
दण्डकों में इन चार कारणों से लोभ की
उत्पत्ति होती है। ८४. चउब्विधे कोहे पण्णत्ते, तं जहा- चतुविधः क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ८४. क्रोध चार प्रकार का होता हैअणंताणुबंधी कोहे, अनन्तानुबन्धी क्रोधः,
१. अनन्तानुबन्धी-इसका अनुबन्ध अपच्चक्खाणकसाए कोहे, अप्रत्याख्यानकषायः क्रोधः,
(परिणाम) अनन्त होता है, पच्चक्खाणावरणे कोहे, प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः,
२. अप्रत्याख्यानकषाय-विरति-मात्र का संजलणे कोहे। संज्वलनः क्रोधः।
अवरोध करने वाला, ३. प्रत्याख्यानाएवं—णेरइयाणं जाव वेमाणि- एवम् नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- वरण-सर्व-विरति का अवरोध करने याणं। नाम्।
वाला, ४. संज्वलन-यथाख्यात चरित्र का अवरोध करने वाला। यह चतुर्विध क्रोध नारकों से लेकर वैमानिक
तक के सभी दण्डकों में प्राप्त होता है। ८५. चउव्विधे माणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधः मानः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ८५. मान चार प्रकार का होता हैजहा—अणंताणुबंधी माणे, अनन्तानुबन्धी मानः,
१. अनन्तानुबन्धी, २. अप्रत्याख्यानकषाय, अपच्चक्खाणकसाए माणे, अप्रत्याख्यानकषायो मानः,
३. प्रत्याख्यानावरण, ४. संज्वलन । पच्चक्खाणावरणे माणे, प्रत्याख्यानावरणो मानः,
यह चतुर्विध मान नारकों से लेकर वैमासंजलणे माणे। संज्वलनो मानः ।
निक तक के सभी दण्डकों में प्राप्त होता एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवम् नैरयिकाणां यावत् वैमानिका
नाम् । ८६. चउम्विधा माया पण्णत्ता, तं चतुर्विधा माया प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ८६. माया चार प्रकार की होती हैजहा—अणंताणुबंधी माया, अनन्तानुबन्धिनी माया,
१. अनन्तानुबन्धिनी, २. अप्रत्याख्यानअपच्चक्खाणकसाया माया, अप्रत्याख्यानकषाया माया,
कषाय, ३. प्रत्याख्यानावरणा, पच्चक्खाणावरणा माया, प्रत्याख्यानावरणा माया,
४. संज्वलना। संजलणा
माया। संज्वलना माया।
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स्थान ४: सूत्र ८७-६१
ठाणं (स्थान)
३१५ एवं_णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानिका
नाम् ।
यह चतुर्विध माया नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में प्राप्त
होती है। ८७. लोभ चार प्रकार का होता है--
१. अनन्तानुबन्धी, २. अप्रत्याख्यानकषाय, ३. प्रत्याख्यानावरण, ४. संज्वलन । यह चतुर्विध लोभ नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में प्राप्त होता है।
८७. चउन्विधे लोभे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः लोभः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
अणंताणुबंधी लोभे, अनन्तानुबन्धी लोभः, अपच्चक्खाणकसाए लोभे, अप्रत्याख्यानकषायो लोभः, पच्चक्खाणावरणे लोभे, प्रत्याख्यानावरणो लोभः, संजलणे लोभे। संज्वलनो लोभः । एवं—णेरइयाणं जाव वेमा- एवम् नैरयिकाणां यावत् वैमानिकाणियाणं ।
नाम्। ८८. चउन्विहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाआभोगणिवत्तिते,
आभोगनिर्वतित:, अनाभोगनिर्वतितः, अणाभोगणिव्वत्तिते, उपशान्तः, अनुपशान्तः। उवसंते, अणुवसंते। एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानिका
नाम्।
८६. 'चउविहे माणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधः मानः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
जहा_आभोगणिव्वत्तिते, आभोगनिवर्तितः, अनाभोगनिर्वर्तितः, अणाभोगणिव्वत्तिते, उपशान्तः, अनुपशान्तः । उवसंते, अणुवसंते। एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानिका
नाम्। ६०. चउन्विहा माया पण्णत्ता, तं चतुर्विधा माया प्रज्ञप्ता, तद्यथा
आभोगनिर्वतिता, अनाभोगनिर्वतिता, आभोगणिव्वत्तिता,
उपशान्ता, अनुपशान्ता। अणाभोगणिव्वत्तिता, उवसंता, अणुवसंता। एवं-णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवम् - नैरयिकाणां यावत् वैमानिका-
नाम् । ६१. चउन्विहे लोभे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः लोभः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
८८. क्रोध चार प्रकार का होता है
१. आभोगनिर्वतित-स्थिति को जानने पर जो क्रोध निष्पन्न होता है, २. अनाभोगनिर्वतित-स्थिति को न जानने पर जो क्रोध निष्पन्न होता है, ३. उपशान्तक्रोध की अनुदयावस्था, ४. अनुपशान्तक्रोध की उदयावस्था। यह चतुर्विध क्रोध नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में प्राप्त
होता है। ८६. मान चार प्रकार का होता है
१. आभोगनिर्वतित, २. अनाभोगनिर्वतित, ३. उपशान्त, ४. अनुपशान्त। यह चतुर्विध मान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में प्राप्त
होता है। ६०. माया चार प्रकार की होती है
१. आभोगनिर्वतिता, २. अनाभोगनिर्वतिता, ३. उपशान्ता, ४. अनुपशान्ता। यह चतुविध माया नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में प्राप्त
होती है। ६१. लोभ चार प्रकार का होता है
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ठाणं (स्थान)
३१६
स्थान ४ : सूत्र ६२-६६
आभोगणिव्वत्तिते,
आभोगनिर्वतित:, अनाभोगनिवर्तितः, अणाभोगणिव्वत्तिते,
उपशान्तः, अनुपशान्तः । उवसंते, अणुवसंते। एवं—णेरइयाणं जाव वेमा- एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानिकाणियाणं।
नाम् ।
१. आभोगनिवंतित, २. अनाभोगनिर्वतित, ३. उपशान्त, ४. अनुपशान्त । यह चतुर्विध लोभ नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में प्राप्त होता है।
कम्मपगडि-पदं कर्मप्रकृति-पदम्
कर्मप्रकृति-पद १२. जीवा णं चहि ठाणेहिं अट्ठ जीवाश्चतुभिः स्थानः अष्टौ कर्मप्रकृतीः ६२. जीवों ने चार कारणों-क्रोध, मान, कम्मपगडीओ चिणिसु, तं जहा- अचैषुः, तद्यथा
माया और लोभ-से आठ कर्म-प्रकृतियों
का चय किया है। कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। क्रोधेन, मानेन, मायया, लोभेन।
इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों एवं—जाव वेमाणियाणं। एवम्—यावत् वैमानिकानाम् ।
ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय किया है। ६३. 'जीवा णं चहि ठाहिं अट्ठ जीवाश्चतुभिः स्थान: अष्टौ कर्मप्रकृतीः ६३. जीव चार कारणों- क्रोध, मान, माया कम्मपगडीओ चिणंति, तं जहा- चिन्वन्ति, तद्यथा
और लोभ-से आठ कर्म-प्रकृतियों का कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। क्रोधेन, मानेन, मायया, लोभेन । चय करते हैं। एवं—जाव वेमाणियाणं। एवम्—यावत् वैमानिकानाम् । इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डक
आठ कर्म-प्रकृतियों का चय करते हैं। १४. जीवा णं चउहि ठाणेहिं अट्ठ कम्म- जीवाश्चतुभिः स्थानः अष्टो कर्मप्रकृती: १४. जीव चार कारणों-क्रोध, मान, माया पगडीओ चिणिसंति, तं जहा- चेष्यन्ति, तद्यथा
और लोभ-से आठ कर्म-प्रकृतियों का कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। क्रोधेन, मानेन, मायया, लोभेन । चय करेंगे। एवं—जाव वेमाणियाणं । एवम्—यावत् वैमानिकानाम् । इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डक
आठ कर्म-प्रकृतियों का चय करेंगे। ६५. एवं उवचिणिसु उवचिणंति एवम्-उपाचैषुः उपचिन्वन्ति उपचेष्यन्ति ६५. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी उवचिणिस्संति।
दण्डकों ने आठ कर्म-प्रकृत्तियों का बंधिसु बंधति बंधिस्संति अभान्त्सुः बध्नन्ति, बन्सन्ति
उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और उदीरिसु उदोरिति उदीरिस्संति उदैरिषुः उदीरयन्ति उदीरयिष्यन्ति निर्जरा की थी, करते हैं और करेंगे। वेदेस वेदेति वेदिस्संति अवेदिषु वेदयन्ति वेदयिष्यन्ति णिज्जरसुणिज्जरति णिज्जरिस्संति निरजरिषुः निर्जरयन्ति निर्जरयिष्यन्ति जाव वेमाणियाणं।
यावत् वैमानिकानाम् ।
पडिमा-पदं
प्रतिमा-पदम् ६६. चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- जहा
समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, समाहिपडिमा, उवहाणपडिमा, विवेकप्रतिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा । विवेगपडिमा, विउस्सग्गपडिमा।
प्रतिमा-पद ६६. प्रतिमा चार प्रकार की होती है
१. समाधिप्रतिमा, २. उपधानप्रतिमा, ३. विवेकप्रतिमा, ४. व्युत्सर्गप्रतिमा।
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ठाणं (स्थान)
६७. चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं
जहा - भद्दा, सुभद्दा, महाभद्दा, सव्वतोभद्दा |
८. चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाक्षुद्रिका 'मोय' प्रतिमा,
महती 'मोय' प्रतिमा,
यवमध्या, वज्रमध्या ।
- खुड्डियामोयपडिमा
जहा - ख महल्लियामोयपडिमा
जवमज्झा, वइरमज्झा ।
अथिकाय-पदं
६६. चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पण्णत्ता, तं जहा - धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आiterrare, पोग्गलत्थकाए । १००. चत्तारि अत्थिकाया अरूविकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए ।
आम पक्क पर्द
१०१. चत्तारि फला पण्णत्ता, तं जहा— आमे णाममेगे आममहुरे, आमे णाममेगे पक्कमहुरे, पक्के णाममेगे आममहुरे, पक्के णाममेगे पक्कमहुरे ।
३१७
चतस्रः प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा ।
-पदम्
अस्तिकायाः अजीवकायाः
चत्वारः
प्रज्ञप्ताः, तद्यथाधर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः । चत्वारः अस्तिकाया: अरूपिकायाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा— धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायः ।
आम पक्व-पदम्
चत्वारि फलानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— आमं नामैकं आममधुरं, • आमं नामैकं पक्वमधुरं, पक्वं नामैकं आममधुरं, पक्वं नामैकं पक्वमधुरम् ।
तद्यथा-
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहाआमे णामगे आममहुरफलसमाणे, आम: नामैक: आममधुरफलसमानः, आमे णाममेगे पक्कमहुरफलसमाणे, आम: नामैकः पक्वमधुरफलसमानः, पक्के णाममेगे आममहुरफलसमाणे, पक्वः नामैक: आममधुरफलसमानः, पक्के णाममेगे पक्कमहुरफलपक्वः नामैकः पक्वमधुरफलसमानः । समाणे ।
स्थान ४ : सूत्र ९७ - १०१
६७. प्रतिमा चार प्रकार की होती है
१. भद्रा, २. सुभद्रा, ३. महाभद्रा, ४. सर्वतोभद्रा ।
६८. प्रतिमा चार प्रकार की होती है
१. क्षुल्लक प्रश्रवणप्रतिमा,
२. महत्प्रश्रवणप्रतिमा,
३. यवमध्या, ४. वज्रमध्या ।
अस्तिकाय-पद
६६. चार अस्तिकाय अजीव होते हैं१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय,
३. आकाशास्तिकाय,
४. पुद्गलास्तिकाय । १००. चार अस्तिकाय अरूपी होते हैं
१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४. जीवास्तिकाय ।
आम पक्व पद १०१. फल चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ फल अपक्व और अपक्व - मधुर होते हैं-थोड़े मीठे होते हैं, २. कुछ फल अपक्व और पक्व मधुर होते हैं - अत्यन्त मीठे होते हैं, ३. कुछ फल पक्व और अपक्व मधुर होते हैं-थोड़े मीठे होते हैं, ४. कुछ फल पक्व और पक्व - मधुर होते हैं - अत्यन्त मीठे होते हैं ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते है- १. कुछ पुरुष वय और श्रुत से अपक्व होते हैं और अपक्व - मधुर फल के समान होते हैं- अल्प उपशम वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष वय और श्रुत से अपक्व होते हैं और पक्व मधुर फल के समान होते हैं—प्रधान उपशम वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष वय और श्रुत से पक्व होते हैं और अप-मधुर फल के समान होते हैं - अल्प उपशम वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष वय और श्रुत से पक्त्र होते हैं और पक्व मधुर फल के समान होते हैं—प्रधान उपशम वाले होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र १०२-१०६
सच्च-मोस-पदं
सत्य-मृषा-पदम् १०२. चउविहे सच्चे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं सत्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-
काउज्जुयया, भासुज्जुयया, कायर्जुकता, भाषर्जुकता, भावर्जुकता, भावुज्जुयया, अविसंवायणाजोगे। अविसंवादनायोगः ।
सत्य-मृषा-पद १०२. सत्य चार प्रकार का होता है
१. काय-ऋजुता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाले काया के संकेत, २. भाषाऋजुता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाली वाणी का प्रयोग, ३. भाव-ऋजुतायथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाली मन की प्रवृत्ति, ४. अविसंवादनायोगअविरोधी, धोखा न देने वाली या प्रति
ज्ञात अर्थ को निभाने वाली प्रवृत्ति। १०३. असत्य चार प्रकार का होता है
१. काया की कुटिलता-यथार्थ को ढांकने वाला काया का संकेत, २. भाषा की कुटिलता--यथार्थ को ढांकने वाला वाणी का प्रयोग, ३. भाव की कुटिलतायथार्थ को छिपाने वाली मन की प्रवृत्ति, ४. विसंवादनायोग-विरोधी, धोखा देने वाली या प्रतिज्ञात अर्थ को भंग करने वाली प्रवृत्ति।
१०३. चउविहे मोसे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधा मृषा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-
कायअणुज्जुयया, भासअणुज्जुयया, कायानृजुकता, भाषानृजुकता, भावअणुज्जुयया,
भावानृजुकता, विसंवादनायोगः । विसंवादणाजोगे।
पणिधाण-पदं प्रणिधान-पदम्
प्रणिधान-पद १०४. चउन्विहे पणिधाणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधानि प्रणिधानानि प्रज्ञप्तानि, १०४. प्रणिधान चार प्रकार का होता है
जहा_मणिपणधाणे, वइपणिधाणे, तद्यथा—मनःप्रणिधानं, वाक्प्रणिधानं, १. मनप्रणिधान, २. वचनप्रणिधान, कायपणिधाणे, उवकरणपणिधाणे, कायप्रणिधानं, उपकरणप्रणिधानम, ३. कायप्रणिधान, ४. उपकरणप्रणिधान । एवं...णेरइयाणं पंचिदियाणं जाव एवम्-नैरयिकाणां पञ्चेन्द्रियाणां ये नारक आदि सभी पञ्चेन्द्रिय-दण्डकों वेमाणियाणं। यावत् वैमानिकानाम् ।
में प्राप्त होते हैं। १०५. चउव्विहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधानि सुप्रणिधानानि प्रज्ञप्तानि, १०५. सुप्रणिधान चार प्रकार का होता हैजहा—मणसुप्पणिहाणे, तद्यथा—मनःसुप्रणिधानं,
१. मनसुप्रणिधान, २. वचनसुप्रणिधान, 'वइसुप्पणिहाणे,कायसुप्पणिहाणे,° वाक्सुप्रणिधानं, कायसुप्रणिधानं, ३. कायसुप्रणिधान, उवगरणसुप्पणिहाणे। उपकरणसुत्रणिधानम् ।
४. उपकरणसुप्रणिधान। एवं-संजयमणुस्साणवि। एवम्-संयतमनुष्याणामपि।
ये चारों संयत मनुष्य के होते हैं । १०६. चउविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधानि दुष्प्रणिधानानि प्रज्ञप्तानि, १०६. दुष्प्रणिधान चार प्रकार का होता है। जहा—मणदुप्पणिहाणे, तद्यथा—मनःदुष्प्रणिधानं,
१. मनदुष्प्रणिधान, २. वचनदुष्प्रणिधान,
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ठाणं (स्थान)
३१६
asgfहाणे, कायदुपणिहाणे, ' वाक् दुष्प्रणिधानं, काय दुष्प्रणिधानं, उपकरणदुष्प्रणिधानम् ।
उवकरणपणिहाणे ।
एवं पंचिदियाणं जाव वेमाणि - एवम् – पञ्चेन्द्रियाणां यावत् वैमानि - याणं । कानाम् ।
जहा ---
आवातभद्दए णाममेगे, णो संवासभद्दए, संवासभद्दए णाममेगे, णो आवातभद्दए, एगे आवातभद्दवि, संवास भद्द एवि एगे जो आवातभद्दए, जो संवासभद्दए ।
आवात संवास-पदं
आपात -संवास-पदम्
आपात -संवास-पद
१०७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि १०७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष आपातभद्र होते हैं, संवासभद्र नहीं होते - प्रथम मिलन में भद्र होते हैं, चिर सहवास में भद्र नहीं होते, २. कुछ पुरुष संवासभद्र होते हैं, आपातभद्र नहीं होते, ३. कुछ पुरुष आपातभद्र भी होते हैं। और संवासभद्र भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न आपातभद्र होते हैं और न संवासभद्र होते हैं ।
तद्यथा—
आपात भद्रकः नामैकः, नो संवासभद्रकः, संवासभद्रकः नामैकः, नो आपातभद्रकः, एक: आपात भद्रकोऽपि, संवासभद्रकोऽपि, एकः नो आपातभद्रको, नो संवासभद्रकः ।
वर्ण्य-पदम्
वज्ज -पदं १०८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि जहा -
तद्यथा—
अपणो णाममेगे वज्जं पासति, णो परस्स, परस्स णाममेगे वज्जं पासति, णो अप्पणो, एगे अप्पणी वि वज्जं पासति परस्सवि, एगे णो अप्पणो वज्जं पासति, णों परस्स ।
आत्मनः नामकः वर्ज्यं पश्यति, नो परस्य, परस्य नामकः वयं पश्यति, नो आत्मनः, एक: आत्मनोऽपि वयं पश्यति, परस्यापि, एकः नो आत्मनः वर्ज्यं पश्यति, नो परस्य ।
१०६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि जहा -- तद्यथा—
अपणो णाममेगे वज्जं उदीरेइ, णो परस्स, परस्स णाममेगे वज्जं उदीरेइ, णो अप्पणी, एगे अप्पणी वि वज्जं उदीरेइ, परस्स वि, एगे णो अप्पणो वज्जं उदीरेइ, णो परस्स ।
स्थान ४ : सूत्र ९०७-१०६
वर्ण्य-पद
पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि १०८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
३. काय दुष्प्रणिधान,
४. उपकरणदुष्प्रणिधान ।
ये नारक आदि सभी पञ्चेन्द्रिय दण्डकों
प्राप्त होते हैं।
आत्मनः नामकः वयं उदीरयति, नो परस्य परस्य नामैकः वयं उदीरयति, नो आत्मनः एकः आत्मनोऽपि वर्ज्यं उदीरयति, परस्यापि, एकः नो आत्मनः वर्ज्यं उदीरयति, नो परस्य ।
पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि १०६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
९. कुछ पुरुष अपना वर्ण्य देखते हैं, दूसरे का नहीं, २. कुछ पुरुष दूसरे का वर्ज्य देखते हैं, अपना नहीं, ३. कुछ पुरुष अपना वयं देखते हैं और दूसरे का भी, ४. कुछ पुरुष न अपना वयं देखते हैं न दूसरे का ।
१. कुछ पुरुष अपने अवध की उदीरणा करते हैं, दूसरे के वर्ज्य की उदीरणा नहीं करते, २. कुछ पुरुष दूसरे के वयं की उदीरणा करते हैं, किन्तु अपने वर्ज्य की उदीरणा नहीं करते, ३. कुछ पुरुष अपने वर्ण्य की भी उदीरणा करते हैं और दूसरे के वर्ज्य की भी उदीरणा करते हैं, ४. कुछ पुरुष न अपने वयं की उदीरणा करते हैं। और न दूसरे के वर्ज्य की उदीरणा करते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
३२०
स्थान ४ : सूत्र ११०-११३
११०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ११०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
१. कुछ पुरुष अपने वर्ज्य का उपशमन करते हैं, किन्तु दूसरे के वर्ज्य का उपशमन नहीं करते हैं, २. कुछ पुरुष दूसरे के वर्ण्य का उपशमन करते हैं, किन्तु अपने वर्ण्य का उपशमन नहीं करते, ३. कुछ पुरुष अपने वर्ज्य का भी उपशमन करते हैं। और दूसरे के वर्ण्य का भी उपशमन करते
जहा. -
अप्पणी णाममेगे वज्जं उवसामेति, णो परस्स, परस्स णाममेगे वज्जं उवसामेति णो अप्पणो, एगे अप्पणो वि वज्जं उवसामेति, परस्स वि, एगे जो अप्पणो वज्जं उवसामेति णो परस्स ।
तद्यथा— आत्मनः नामकः वर्ज्यं उपशामयति, नो परस्य, परस्य नामैक: वर्ण्य उपशामयति, नो आत्मनः एकः आत्मनोऽपि वयं उपशामयति, परस्यापि, एक: नो आत्मनः वयं उपशामयति, नो परस्य ।
लोकोपचार- विनय-पदम्
तद्यथा—
लोगोपचार- विणय-पदं १११. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि जहा - अट्ठेति णामगे, णो अब्भुट्ठावेति, अट्ठावेति णाममेगे, णो अब्भुट्ट ेति, अति वि, अट्ठावेति वि, गेणो अन्भुट्ट ेति णो अब्भुट्टावेति
अभ्युत्तिष्ठते नामैकः, नो अभ्युत्थापयति, अभ्युत्थापयति, नामैकः, नो अभ्युत्तिष्ठते, एकः अभ्युत्तिष्ठतेऽपि, अभ्युत्थापयत्यपि, एकः नो अभ्युत्तिष्ठते, नो अभ्युत्थापयति ।
।
जहा -
वंदति णाममेगे, णो वंदावेति, वंदावेति णाममेगे, णो वंदति, एगे बंदति वि, वंदावेति वि, एगे णो वंदति णो वंदावेति ।° ११३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—सक्कारेइ णाममेगे, णो सक्कारावेइ, सक्कारावेइ णाममेगे, णो सक्कारेइ, एगे सक्कारेइ वि, सक्कारावेइ वि, एगे जो सक्कारेइ, णो सक्कारावेइ ।
११२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ११२. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष वंदना करते हैं, किन्तु करवाते नही, २. कुछ पुरुष वंदना करवाते हैं, किन्तु करते नहीं, ३. कुछ पुरुष वंदना करते भी हैं और करवाते भी हैं, ४. कुछ पुरुष न वंदना करते हैं और न करवाते हैं । ११३. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष सत्कार करते हैं, किन्तु करवाते नहीं, २. कुछ पुरुष सत्कार करते हैं, किन्तु करवाते नहीं, ३. कुछ पुरुष सत्कार करते भी हैं और करवाते भी हैं, ४. कुछ पुरुष न सत्कार करते हैं और न करवाते हैं ।
तद्यथावन्दते नामैकः, नो वन्दयते, वन्दयते नामैकः, नो वन्दते, एक: वन्दतेऽपि वन्दयते ऽपि, एक: नो वन्दते, नो वन्दयते । चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा
सत्करोति नामैकः, नो सत्कारयति, सत्कारयति नामैकः, नो सत्करोति, एकः सत्करोत्यपि सत्कारयत्यपि, एकः नो सत्करोति, नो सत्कारयति ।
हैं, ४. कुछ पुरुष न अपने वर्ज्य का उपशमन करते हैं और न दूसरे के वर्ज्य का उपशमन करते हैं ।
लोकोपचार - विनय-पद
१११. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष अभ्युत्थान करते हैं, किन्तु करवाते नहीं, २. कुछ पुरुष अभ्युत्थान करवाते हैं, किन्तु करते नहीं, ३. कुछ पुरुष अभ्युत्थान करते भी हैं और करवाते भी हैं, ४. कुछ पुरुष न अभ्युत्थान करते हैं। और न करवाते हैं ।
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ari (स्थान)
११४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि
जहा - सम्माणेति णाममेगे, णो सम्माणावेति, सम्माणावेति णाममेगे, णो सम्माणेति, एगे सम्माणेति वि, सम्माणावेति वि, एगे णो सम्माणेति णो सम्माणावेति ।
जहा .----.
पूएइ णाममेगे, णो पूयावेति, पूयावेति णाममेगे, णो पूएइ, एगे पूएइ वि, पूयावेति वि, एगे जो पूएइ, णो पूयावेति ।
सज्झाय-पदं
११६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि जहा -
ares णाममेगे, णो वायावेइ, वायावेइ णाममेगे, णो वाएइ, एगे वाes वि, वायावेइ वि, एगे णो वाएइ, णो वायावेइ ।
जहा - पडिच्छति णाममेगे, णो पडिच्छा वेति, पडिच्छावेति णाममेगे, जो पच्छिति, एगे पडिच्छति वि, पच्छिावेति वि, एगे णो पडिच्छति, णो पडिच्छावेति ।
३२१
पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ११४. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
तद्यथासम्मन्यते नामैकः, नो सम्मानयति, सम्मानयति नामैकः, नो सम्मन्यते, एकः सम्मन्यतेऽपि सम्मानयत्यपि, एक: नो सम्मन्यते, नो सम्मानयति ।
११५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ११५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष पूजा करते हैं, किन्तु करवाते नहीं, २. कुछ पुरुष पूजा करवाते हैं, किन्तु करते नहीं, ३. कुछ पुरुष पूजा करते भी हैं और करवाते भी हैं, ४. कुछ पुरुष न पूजा करते हैं और न करवाते हैं ।
जहा
पुच्छइ णाममेगे, णो पुच्छावेइ, पुच्छावेइ णाममेगे, णो पुच्छइ,
तद्यथा
पूजयते नामैकः, नो पूजापयते, पूजापयते नामैकः, नो पूजयते, एक: पूजयतेऽपि, पूजापयतेऽपि, एक: नो पूजयते, नो पूजापयते ।
स्वाध्याय-पदम्
१. कुछ पुरुष दूसरों को पढ़ाते हैं, किन्तु दूसरों से पढ़ते नहीं, २. कुछ पुरुष दूसरों से पढ़ते हैं, किन्तु दूसरों को पढ़ाते नहीं, ३. कुछ पुरुष दूसरों को पढ़ाते भी हैं और दूसरों से पढ़ते भी हैं, ४. कुछ पुरुष न दूसरों से पढ़ते हैं और न दूसरों को पढ़ाते हैं ।
११७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ११७ पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
स्थान ४ : सूत्र ११४-११८
तद्यथा--- वाचयति नामकः, नो वाचयते, वाचयते नामैकः, नो वाचयति, एकः वाचयत्यपि वाचयतेऽपि, एक: नो वाचयति, नो वाचयते ।
स्वाध्याय-पद
पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ११६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
तद्यथा-
प्रतीच्छति नामकः, नो प्रत्येषयति, प्रत्येषयति नामकः, नो प्रतीच्छति, एकः प्रतीच्छत्यपि, प्रत्येषयत्यपि, एकः नो प्रतीच्छति, नो प्रत्येषयति ।
१. कुछ पुरुष सम्मान करते हैं, किन्तु करवाते नहीं, २. कुछ पुरुष सम्मान करवाते हैं, किन्तु करते नहीं, ३. कुछ पुरुष सम्मान करते भी हैं और करवाते
भी हैं, ४. कुछ पुरुष न सम्मान करते हैं। और न करवाते हैं ।
तद्यथा—
पृच्छति नामैकः, नो प्रच्छयति प्रच्छयति नामैकः, नो पृच्छति,
११८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ११८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष प्रश्न करते हैं, किन्तु करवाते नहीं, २. कुछ पुरुष प्रश्न करवाते हैं, किन्तु करते नहीं, ३. कुछ पुरुष प्रश्न करते भी
१. कुछ पुरुष प्रतीच्छा ( उप सम्पदा) करते हैं, किन्तु करवाते नहीं, २. कुछ पुरुष प्रतीच्छा करवाते हैं, किन्तु करते नहीं, ३. कुछ पुरुष प्रतीच्छा करते भी हैं। और करवाते भी हैं, ४. कुछ पुरुष न प्रतीच्छा करते हैं और न करवाते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३२२
स्थान ४ : सूत्र ११६-१२२ एगे पुच्छइ वि, पुच्छावेइ वि, एकः पृच्छत्यपि, प्रच्छयत्यपि, हैं, और करवाते भी हैं, ४. कुछ पुरुष न
एगे णो पुच्छइ, णो पुच्छावेइ। एकः नो पृच्छति, नो प्रच्छयति । प्रश्न करते हैं और न करवाते हैं। ११६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ११६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष व्याकरण [उत्तरदाता] वागरेति णाममेगे, णो वागरावेति, व्याकरोति नामकः, नो व्याकारयति, करते हैं, किन्तु करवाते नहीं, २. कुछ वागरावेति णाममेगे, णो वागरेति, व्याकारयति नामैकः, नो व्याकरोति, पुरुष व्याकरण करवाते हैं, किन्तु करते एगे वागरेति वि, वागरावेति वि, एकः व्याकरोत्यपि, व्याकारयत्यपि, नहीं, ३. कुछ पुरुष व्याकरण करते भी हैं एगे णो वागरेति, णो वागरा- एकः नो व्याकरोति, नो व्याकारयति । और करवाते भी हैं, ४. कुछ पुरुष न वेति ।
व्याकरण करते हैं और न करवाते हैं। १२०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १२०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष सूत्रधर होते हैं, किन्तु अर्थसुत्तधरे गाममेगे, णो अत्थधरे, सूत्रधरः नामैकः, नो अर्थधरः, धर नहीं होते, २. कुछ पुरुष अर्थधर होते अत्थधरे णाममेगे, णो सुत्तधरे, अर्थधर: नामकः, नो सूत्रधरः, हैं, किन्तु सूत्रधर नहीं होते, ३. कुछ पुरुष एगे सुतधरे वि, अत्थधरे वि, एक: सूत्रधरोऽपि, अर्थधरोऽपि, सूत्रधर भी होते हैं और अर्थधर भी होते एगे णो सुत्तधरे, णो अत्थधरे। एकः नो सूत्रधरः, नो अर्थधरः । हैं, ४. कुछ पुरुष न सूत्रधर होते हैं और
न अर्थधर होते हैं।
लोगपाल-पदं लोकपाल-पदम्
लोकपाल-पद १२१. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुर- चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य १२१. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के चार
कुमाररण्णो चत्तारि लोगपाला चत्वारः लोकपालाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- लोकपाल होते हैं--१. सोम, २. यम, पण्णता, तं जहासोमः, यमः, वरुणः, वैश्रमणः ।
३. वरुण, ४. वैश्रवण। सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे। १२२. एवं बलिस्सवि_सोमे, जमे, एवम्—बलेरपि—सोमः, यमः, वैश्रमणः, १२२. इसी प्रकार बलि आदि के भी चार-चार वेसमणे, वरुणे। . वरुणः।
लोकपाल होते हैं
बलि के-सोम, यम, वैश्रवण, वरुण । धरणस्स-कालपाले कोलपाले धरणस्य-कालपाल:,
कोलपाल:, धरण के-कालपाल, कोलपाल, सेलसेलपाले संखपाले। शैलपालः, शङ्खपालः ।
पाल, शंखपाल। भूयाणंदस्स...कालपाले, कोलपाले, भूतानन्दस्य—कालपालः, कोलपालः, भूतानन्द के-कालपाल, कोलपाल, शंखसंखपाले, सेलपाले। शङ्खपालः, शैलपाल: ।
पाल, सेलपाल। वेणुदेवस्स-चित्ते, विचित्ते, चित्त- वेणुदेवस्य-चित्रः ,विचित्रः, चित्रपक्षः, वेणुदेव के-चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष, पक्ख, विचित्तपक्खे। विचित्रपक्षः ।
विचित्रपक्ष। वेणुदालिस्स-चित्ते, विचित्ते, वेणुदाले:-चित्रः, विचित्रः, वेणुदालि के-चित्र, विचित्र, विचित्रविचित्तपक्खे, चित्तपक्खे। विचित्रपक्षः, चित्रपक्षः।
पक्ष, चित्रपक्ष। हरिकंतस्स...पभे, सुप्पभे, पभकते, हरिकान्तस्य-प्रभः, सुप्रभः, प्रभकान्तः, हरिकान्त के-प्रभ, सुप्रभ, प्रभकान्त,
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स्थान ४ : सूत्र १२२
सुप्रभकान्त। हरिस्सह के-प्रभ, सुप्रभ, सुप्रभकान्त, प्रभकान्त । अग्निशिख के-तेज, तेजशिख, तेजस्कांत, तेजप्रभ। अग्निमाणव के--तेज, तेजशिख, तेजप्रभ, तेजस्कान्त। पूर्ण के-रूप, रूपांश, रूपकान्त, रूपप्रभ
विशिष्ट के-रूप, रूपांश, रूपप्रभ, रूप
कान्त ।
ठाणं (स्थान)
३२३ सुप्पभकते ।
सुप्रभकान्तः। हरिस्सहस्स-पभे, सुप्पभे, सुप्पभ- हरिसहस्य-प्रभः, सुप्रभः, सुप्रभकान्तः, । कंते, पभकते।
प्रभकान्तः । अग्गिसिहस्स-तेऊ, तेउ अग्निशिखस्य तेजः, तेज:शिखः, तेउकते, तेउप्पभे।
तेजस्कान्तः, तेजःप्रभः । अग्गिमाणवस्स–तेऊ, तेउसिहे, अग्निमाणवस्य तेजः, तेजःशिखः, तेउप्पभे, तेउकते।
तेजःप्रभः, तेजस्कान्तः । पुण्णस्स-रूबे, रूवंसे रूवकते, पूर्णस्य-रूपः, रूपांशः, रूपकान्तः, रू वप्पभे ।
रूपप्रभः। विसिटुस्स._रूवे, रूवंसे, रूवप्पभे, विशिष्टस्य-रूपः, रूपांशः, रूपप्रभः, रूवकते।
रूपकान्तः । जलकंतस्स–जले, जलरते, जलकते, जलकान्तस्य-जल:, जलरतः, जलकान्तः, जलप्पभे।
जलप्रभः । जलप्पहस्स–जले, जलरते, जलप्रभस्य-जलः, जलरतः, जलप्रभः, जलप्पहे, जलकते।
जलकान्तः । अमितगतिस्स—तुरियगती, खिप्प- अमितगते. त्वरितगतिः, क्षिप्रगतिः, गती, सोहगती, सीहविक्कमगती। सिंहगतिः, सिंहविक्रमगतिः । अमितवाहणस्स—तुरियगती, अमितवाहनस्य—त्वरितगतिः, क्षिप्रगतिः, खिप्पगति, सीहविक्कमगती, सिंहविक्रमगतिः, सिंहगतिः । सीहगती। वेलंबस्स_काले, महाकाले, अंजणे, बेलम्बस्य-कालः, महाकालः, अञ्जनः, रिट्ठ।
रिष्ट: । पभंजणस्स—काले, महाकाले, प्रभञ्जनस्य-कालः, महाकालः, रिष्टः, रिट्र, अंजणे।
अञ्जनः । घोसस्स—आवत्ते, वियावत्ते, घोषस्य—आवतः, व्यावतः, नन्द्यावर्त्तः, णंदियावत्ते, महाणंदियावत्ते। महानन्द्यावर्त्तः । महाघोसस्स..आवत्ते, वियावत्ते, महाघोषस्य—आवर्त्तः, व्यावतः, महामहाणं दियावत्ते, णंदियावत्ते। नन्द्यावर्त्तः, नन्द्यावर्त्तः । सक्कस्स—सोमे, जमे, वरुणे, शक्रस्य–सोमः, यमः, वरुणः, वेसमणे।
वैश्रमणः। ईसाणस्....सोमे, जमे, वेसमणे, ईशानख्य---सोमः, यमः, वैश्रमणः, वरुणे।
वरुणः । एवं-एगंतरिता जाव अच्चुतस्स। एवम्-एकान्तरिता: यावत् अच्युतस्य।
जलकान्त के–जल, जलरत, जलप्रभ, जलकान्त। जलप्रभ के-जल, जलरत, जलकान्त, जलप्रभ। अमितगति के त्वरितगति, क्षिप्रगति, सिंहगति, सिंहविक्रमगति । अमितवाहन के-त्वरितगति, क्षिप्रगति, सिंहविक्रमगति, सिंहगति।
वेलम्ब के–काल, महाकाल, अंजन, रिष्ट । प्रभञ्जन के-काल, महाकाल, रिष्ट, अंजन। धोष के-आवर्त, व्यावर्त, नन्दिकावर्त, महानन्दिकावर्त । महाघोष के--आवर्त्त, ब्यावर्त, महानन्दिकावर्त, नन्दिकावर्त। शक्र, सनत्कुमार, ब्रह्मलोक, शुक्र और आनत-प्रणत के इन्द्रों के-सोम, यम, वैश्रवण, वरुण। ईशान, माहेन्द्र लान्तक, सहस्रार और आरण-अच्युत के इन्द्रों के ---सोम, यम, वरुण, वैश्रवण।
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ठाणं (स्थान)
३२४
स्थान ४ : सूत्र १२३-१२६
देव-पदम्
देव-पदं
देव-पद १२३. चउव्विहा वाउकुमारा पण्णता, चतुर्विधाः वायुकुमाराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १२३. वायुकुमार चार प्रकार के होते हैंतं जहा
कालः, महाकालः, वेलम्ब, प्रभजनः। १. काल, २. महाकाल, ३. वेलम्ब, काले, महाकाले, वेलंबे, पभंजणे।
४. प्रभञ्जन। १२४. चउन्विहा देवा पण्णत्ता, तं जहा- चतुर्विधाः देवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १२४. देवता चार प्रकार के होते हैं
भवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, भवनवासिनः, वानमन्तराः, ज्योतिष्काः, १. भवनवासी, २. वानमन्तर, विमाणवासी। विमानवासिनः।
३. ज्योतिष्क, ४. विमानवासी।
पमाण-पदं
प्रमाण-पदम् १२५. चउन्विहे पमाणे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं प्रमाणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-
दवप्पमाणे, खेत्तप्पमाणे, द्रव्यप्रमाणं, क्षेत्रप्रमाणं, कालप्रमाणं, कालप्पमाणे, भावप्पमाणे। भावप्रमाणं।
प्रमाण-पद १२५. प्रमाण चार प्रकार का होता है
१. द्रव्य-प्रमाण-द्रव्य की माप, २. क्षेत्र-प्रमाण-क्षेत्र की माप, ३. काल-प्रमाण-काल की माप, ४. भाव-प्रमाण-प्रत्यक्ष आदि प्रमाण।
महत्तरिया-पदं महत्तरिका-पदम्
महत्तरिका-पद १२६. चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ चतस्रः दिशाकुमारीमहत्तरिकाः प्रज्ञप्ताः, १२६. दिक्कुमारियों की महत्तरिकाएं चार हैंपण्णत्ताओ, तं जहातद्यथा
१. रूपा, २. रूपांशा, ३. सुरूपा, रूया, रूयंसा, सुरुवा, रूयावती। रूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपवती। ४. रूपवती। १२७. चत्तारि विज्जुकुमारिमहत्तरि- चतस्रः विद्युत्कुमारीमहत्तरिकाः १२७. विद्युत्कुमारियों की महत्तरिकाएं चार याओ पण्णत्ताओ, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
हैं-१.चित्रा, २.चित्रकनका, चित्ता, चित्तकणगा, सतेरा, चित्रा, चित्रकनका, शतेरा, सौदामिनी। ३. सतेरा, ४. सौदामिनी। सोतामणी।
देव-ठिति-पदं देव-स्थिति-पदम्
देव-स्थिति-पद १२८. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो शत्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य मध्यम- १२८. देवेन्द्र देवराज शकेन्द्र के मध्यम-परिषद्
मझिमपरिसाए देवाणं चत्तारि परिषदः देवानां चत्वारि पल्योपमानि के देवों की स्थिति चार पल्योपम की पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता।
होती है। १२६. ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य मध्यम- १२६. देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र के मध्यम-परिषद्
मज्झिमपरिसाए देवीणं चत्तारि परिषदः देवीनां चत्वारि पल्योपमानि की देवियों की स्थिति चार पल्योपम की पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता।
होती है।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४: सूत्र १३०-१३२
संसार-पद
संसार-पदम् १३०. चउन्विहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संसारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
दव्वसंसारे, खेत्तसंसारे, द्रव्यसंसारः, क्षेत्रसंसारः, कालसंसारः, कालसंसारे, भावसंसारे। भावसंसारः।
संसार-पद १३०. संसार चार प्रकार का है
१. द्रव्य संसार-जीव और पुद्गलों का परिभ्रमण, २. क्षेत्र संसार--जीव और पुद्गलों के परिभ्रमण का क्षेत्र, ३. काल संसार-काल का परिवर्तन अथवा काल मर्यादा के अनुसार होने वाला जीवपुद्गलों का परिवर्तन, ४. भाव-संसारपरिभ्रमण की क्रिया।
दिट्टिवाय-पदं दृष्टिवाद-पदम्
दृष्टिवाद-पद १३१. चउविहे दिद्विवाए पण्णत्ते, तं चतुर्विधः दृष्टिवादः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १३१. दृष्टिवाद [बारहवां अंग] चार प्रकार जहा
परिकर्म, सूत्राणि, पूर्वगतः, अनुयोगः।। का है---१. परिकर्म-इसे पढ़ने से सूत्र परिकम्म, सुत्ताई,
आदि को समझने की योग्यता आ जाती है, पुव्वगए, अणुजोगे।
२. सूत्र-इसमें सब द्रव्यों और पर्यायों की सूचना मिलती है, ३. पूर्वगत-चतुर्दश पूर्व, ४. अनुयोग-इसमें तीर्थंकर आदि के जीवन-चरित्र प्रतिपादित होते हैं ।
पायच्छित्त-पदं प्रायश्चित्त-पदम्
प्रायश्चित्त-पद १३२. चउ विहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं चतुर्विधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १३२. प्रायश्चित्त चार प्रकार का होता हैजहा
ज्ञानप्रायश्चित्तं, दर्शनप्रायश्चित्तं, १. ज्ञानप्रायश्चित्त-ज्ञान के द्वारा चित्त णाणपायच्छित्ते, दंसणपायच्छित्ते, चरित्रप्रायश्चित्तं, व्यक्तकृत्य- की शुद्धि और पाप का नाश होता है, चरित्तपायच्छित्ते, वियत्तकिच्च- प्रायश्चित्तम् ।
इसलिए ज्ञान ही प्रायश्चित है, २. दर्शन पायच्छित्ते।
प्रायश्चित्त-दर्शन के द्वारा चित्त की शुद्धि और पाप का नाश होता है, इसलिए दर्शन ही प्रायश्चित्त है, ३. चरित्र प्रायश्चित्त-चरित्र के द्वारा चित्त की शुद्धि और पाप का नाश होता है, इसलिए चरित्र ही प्रायश्चित्त है, ४. व्यक्त-कृत्यप्रायश्चित्त--गीतार्थ मुनि जागरूकता पूर्वक जो कार्य करता है वह पाप-विशुद्धि कारक होता है, इसलिए वह प्रायश्चित्त है।
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ठाणं (स्थान)
३२६
स्थान ४ : सूत्र १३३-१३६ १३३. चउविहे पायच्छित्ते पण्णते, तं चतुर्विधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-- १३३. प्रायश्चित्त चार प्रकार का होता हैजहाप्रतिसेवनाप्रायश्चित्तं,
१. प्रतिषेवणा-प्रायश्चित्त-अकृत्य का पडिसेवणापायच्छित्ते, संयोजनाप्रायश्चित्तं,
सेवन करने पर प्राप्त होने वाला प्रायसंजोयणापायच्छित्ते, आरोवणा- आरोपणाप्रायश्चित्तं,
श्चित्त, २. संयोजना-प्रायश्चित्त-एक पायच्छित्ते, पलिउंचणापायच्छित्ते। परिकुञ्चनाप्रायश्चित्तम् ।
जातीय अनेक अतिचारों के लिए प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त, ३. आरोपणाप्रायश्चित्त-एक दोष का प्रायश्चित्त चल रहा हो, उस बीच में ही उस दोष को पुन -पुनः सेवन करने पर जो प्रायश्चित्त की अवधि बढ़ती है, ४. परिकुञ्चनाप्रायश्चित्त-अपराध को छिपाने का प्रायश्चित्त ।
काल-पदं
काल-पदम् १३४. चउविहे काले पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः कालः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
पमाणकाले, अहाउयनिव्वत्तिकाले, प्रमाणकालः, यथायुनिवृत्तिकाल:, मरणकाले, अद्धाकाले। मरणकालः, अद्ध्वाकालः ।
काल-पद १३४. काल चार प्रकार का होता है
१. प्रमाणकाल-काल के दिवस, रात्रि आदि विभाग, २. यथायुःनिवृत्तिकालआयुष्य के अनुरूप नरक आदि गतियों में रहने का काल, ३. मरणकाल-मृत्यु का समय, ४. अद्धाकाल-सूर्य की गति से पहचाना जाने वाला काल ।
पोग्गल-परिणाम-पदं १३५. चविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते
तं जहावण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणाम।
पुद्गल-परिणाम-पदम्
पुद्गल-परिणाम-पद चतुर्विधः पुद्गलपरिणामः प्रज्ञप्तः, १३५. पुद्गल का परिणाम चार प्रकार का होता तद्यथा
है--१. वर्णपरिणाम-वर्ण का परिवर्तन, वर्णपरिणामः, गन्धपरिणामः,
२. गंधपरिणाम-- गंध का परिवर्तन, रसपरिणाम:, स्पर्शपरिणामः ।
३. रसपरिणाम-रस का परिवर्तन, ४. स्पर्शपरिणाम-स्पर्श का परिवर्तन ।
चाउज्जाम-पदं चातुर्याम-पदम्
चातुर्याम-पद १३६. भरहेरवएसु णं वासेसु पुरिम- भरतैरावतयोः वर्षयोः पूर्व-पश्चिम- १३६. भरत और ऐरवत क्षेत्र में प्रथम और
पच्छिमवज्जा मज्झिमगा बावीसं वर्जाः मध्यमका: द्वाविशंति: अर्हन्तः अन्तिम को छोड़कर शेष बाईस अहंन्त अरहता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं भगवन्तः चातुर्यामं धर्म प्रज्ञापयन्ति, भगवान् चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं, पण्णवयंति, तं जहातद्यथा
वह इस प्रकार है
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ठाणं (स्थान)
३२७
स्थान ४: सूत्र १३७-१४२ सव्वाओ पाणातिवायाओ वेरमणं, सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणं, १. सर्व प्राणातिपात से विरमण करना, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सर्वस्माद् मृपावादाद् विरमणं, २. सर्व मृषावाद से विरमण करना, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमण, ३. सर्व अदत्तादान से विरमण करना,
सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं। सर्वस्माद् बहिस्तादादानाद् विरमणम्।। ४. सर्व बाह्य-आदान से विरमण करना। १३७. सव्वेसु णं महाविदेहेसु अरहंता सर्वेषु महाविदेहेषु अर्हन्त: भगवन्तः १३७. सब महाविदेह क्षेत्रों में अर्हन्त भगवान् भगवंतो चाउज्जामं धम्म पण्ण- चातुर्यामं धर्म प्रज्ञापयन्ति,
चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं, वह इस वयंति, तं जहा- तद्यथा
प्रकार हैसव्वाओ पाणातिवायाओ वेरमणं, सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणं, १. सर्व प्राणातिपात से विरमण करना। 'सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सर्वस्माद् मृषावादाद् विरमणं, २. सर्व मृषावाद से विरमण करना, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमणं, ३. सर्व अदत्त दान से विरमण करना, सव्वाओ बहिद्धादाणाओं वेरमणं। सर्वस्माद् बहिस्तादादानाद् विरमणम् । ४. सर्व बाह्य-आदान से विरमण करना।
दुर्गति-सुगति-पद १३८. दुर्गति चार प्रकार की होती है
१. नरयिक दुर्गति, २. तिर्यक्योनिक दुर्गति ३. मनुष्य दुर्गति, ४. देव दुर्गति ।
दुग्गति-सुगति-पदं दुर्गति-सुगति-पदम् १३८. चत्तारि दुग्गतिओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः दुर्गतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
जहा—णेरइयदुग्गती, नैरयिकदुर्गतिः, तिय निकदुर्गतिः, तिरिक्खजोणियदुग्गती, मनुष्यदुर्गतिः, देवदुर्गतिः ।
मणुस्सदुग्गती, देवदुग्गती। १३६. चत्तारि सो गईओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः सुगतयः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-
जहा-सिद्धसोग्गती, देवसोग्गती, सिद्धसुगतिः, देवसुगतिः, मनुजसुगतिः,
मणुयसोग्गती, सुकुलपच्चायाती। सुकुल प्रत्याजातिः । १४०. चत्तारि दुग्गता पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः दुर्गताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
रइयदुग्गता, तिरिक्खजोणिय- नैरयिकदुर्गताः, तिर्यग्योनिकदुर्गताः, दुग्गता, मणुयदुग्गता, देवदुग्गता। मनुजदुर्गताः, देवदुर्गताः ।
१३६. सुगति चार प्रकार की होती है
१. सिद्ध सुगति, २. देव सुगति,
३. मनुष्य सुगति, ४. सुकुल में जन्म। १४०. दुर्गत-दुर्गति में उत्पन्न होने वाले चार
प्रकार के होते हैं—१. नैरयिक दुर्गत, २. तिर्यक्योनिक दुर्गत, ३. मनुष्य दुर्गत,
४. देव दुर्गत । १४१. सुगत-सुगति में उत्पन्न होने वाले चार
प्रकार के होते हैं-१. सिद्ध सुगत, २. देव सुगत, ३. मनुष्य सुगत, ४. सुकुल में जन्म लेने वाला।
१४१. चत्तारि सुग्गता पण्णत्ता, तं चत्वारः सुगताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- जहा
सिद्धसुगताः, देवसुगताः, मनुजसुगताः, सिद्धसुग्गता, 'देवसुग्गता, सुकूलप्रत्याजाताः। मणुयसुग्गता सुकुलपच्चायाया।
कम्मंस-पदं सत्कर्म-पदम्
सत्कर्म-पद १४२. पढमसमय जिणस्स णं चत्तारि प्रथमसभयजिनस्य चत्वारि सत्कर्माणि १४२. प्रथम-समय के केवली के चार सत्कर्म कम्मंसा खीणा भवंति, तं जहा- क्षीणानि भवन्ति, तद्यथा
क्षीण होते हैं-१. ज्ञानवरणीय, णाणावरणिज्जं, सणावरणिज्ज, ज्ञानावरणीयं, दर्शनावरणीयं, मोहनीयं, २. दर्शनावरणीय, ३. मोहनीय, मोहणिज्ज, अंतराइयं । आन्तरायिकम् ।
४. आन्तरायिक ।
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ठाणं (स्थान)
३२८
स्थान ४: सूत्र १४३-१४६ १४३. उप्पण्णणाणदंसणधरे णं अरहा उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन् जिनः केवली १४३. उत्पन्न हुए केवल ज्ञान दर्शन को धारण
जिणे केवली चत्तारि कम्मसे चत्वारि सत्कर्माणि वेदयति, तद्यथा- करने वाले अर्हन्, जिन, केवली चार वेदेति, तं जहा.वेदनीयं, आयुः, नाम, गोत्रम् ।
सत्कर्मों का वेदन करते हैं-१. वेदनीय, वेदणिज्ज, आउयं, णाम, गोतं।
२. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र। १८४. पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि प्रथमसमयसिद्धस्य चत्वारि सत्कर्माणि १४४. प्रथम समय के सिद्ध के चार सत्कर्म एक कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं जहा.- युगपत् क्षीयन्ते, तद्यथा
साथ क्षीण होते हैं-१. वेदनीय, यणिज्जं, आउयं, णाम, गोतं। वेदनीयं, आयुः, नाम, गोत्रम् ।
२. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र।
हासुप्पत्ति-पदं हास्योत्पत्ति-पदम्
हास्योत्पत्ति-पद १४५. चउहि ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिया, चतुभिः स्थानः हास्योत्पत्तिः स्यात्, १४५. चार कारणों से हंसी आती हैतं जहातद्यथा
१. देखकर-विदूषक आदि की चेष्टाओं पासेत्ता, भासेत्ता,
दृष्ट्वा, भाषित्वा, श्रुत्वा, स्मृत्वा । को देखकर, २. बोलकर-किसी के सुणेत्ता, संभरेत्ता।
बोलने की नकल कर, ३. सुनकर-उस प्रकार की चेष्टाओं और वाणी को सुन कर, ४. यादकर-दृष्ट और श्रुत बातों को यादकर।
अंतर-पदं अन्तर-पदम्
अन्तर-पद १४६. चउविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं अन्तरं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १४६. अन्तर चार प्रकार का होता है
कटुतरे, पम्हंतरे, लोहंतरे, काष्ठान्तरं, पक्ष्मान्तरं, लोहान्तरं, १. काष्ठान्तर-काष्ठ का अन्तरपत्थरंतरे। प्रस्तरान्तरम् ।
रूप-निर्माण आदि की दृष्टि से, एवामेव इथिए वा पुरिसस्स वा एवमेव स्त्रियः वा पुरुषस्य वा
२. पक्ष्मान्तर-धागे से धागे का अन्तर
सुकुमारता आदि की दृष्टि से, चउविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं अन्तरं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा
३. लोहान्तर-लोहे से लोहे का अन्तरकटुतरसमाणे, पम्हंतरसमाणे, काष्ठान्तरसमानं, पक्ष्मान्तरसमानं, छेदन शक्ति की दृष्टि से, ४. प्रस्तरांतरलोहंतरसमाणे, पत्थरंतरसमाणे। लोहान्तरसमानं, प्रस्तरान्तरसमानम् ।
पत्थर से पत्थर का अन्तर-इच्छा पूर्ण करने की क्षमता [जैसे मणि] आदि की दृष्टि से। इसी प्रकार स्त्री से स्त्री का, पुरुष से पुरुष का अन्तर भी चार-चार प्रकार का होता है-१. काष्ठान्तर के समान-विशिष्ट पदवी आदि की दृष्टि से, २. पक्ष्मांतर के समान-बचन, सुकुमारता आदि की दृष्टि से, २. लोहान्तर के समान-स्नेह का छेदन करने आदि की दृष्टि से, ४. प्रस्तरांतर के समान-मनोरथ पूर्ण करने की क्षमता आदि की दृष्टि से ।
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ठाणं (स्थान)
३२६
स्थान ४ : सूत्र १४७-१५१
भयग-पदं भृतक-पदम्
भृतक-पद १४७. चत्तारि भयगा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः भृतकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १४७. मृतक चार प्रकार के होते हैंदिवसभयए, अत्ताभयए, दिवसभृतकः, यात्राभृतकः,
१. विवश-भृतक-प्रतिदिन का नियत उच्चत्तभयए, कब्बालभयए। उच्चत्वभृतकः, कब्बाडभृतकः ।
मूल्य लेकर काम करने वाला, २. यानाभृतक-यात्रा में सहयोग करने वाला, ३. उच्चता-भृतक-घण्टों के अनुपात से मूल्य लेकर काम करने वाला, ४. कब्बाडभृतक-हाथों के अनुपात से धन लेकर भूमि खोदने वाला।
पडिसेवि-पदं प्रतिषेवि-पदम्
प्रतिषेवि-पद १४८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १४८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
जहा.-संपागडपडिसेवी णामेगे, तद्यथा-सम्प्रकटप्रतिषेवी नामकः, १. कुछ पुरुष प्रकट में दोष सेवन करते हैं, णो पच्छण्णपडिसेवी, नो प्रच्छन्न प्रतिषेवी, प्रच्छन्नप्रतिषेवी किन्तु छिपकर नहीं करते, २. कुछ पुरुष पच्छण्णपडिसेवी णामेगे, णो संपा- नामकः, नो सम्प्रकटप्रतिषेवी, छिपकर दोष सेवन करते हैं, किन्तु प्रकट गडपडिसेवी, एक: सम्प्रकटप्रतिषेवी अपि,
में नहीं करते, ३. कुछ पुरुष प्रकट में भी एगे संपागडपडिसेवी वि, पच्छण्ण- प्रच्छन्नप्रतिषेवी अपि,
दोष सेवन करते हैं और छिपकर कर भी, पडिसेवीवि, एगे णो संपागडपडि- एक: नो सम्प्रकटप्रतिषेवी,
४. कुछ पुरुष न प्रकट में दोष सेवन करते सेवी, णो पच्छण्णपडिसेवी । नो प्रच्छन्नप्रतिषेवी।
हैं और न छिपकर ही।
अग्गमहिसी-पदं अग्रमहिषी-पदम्
अग्रमहिषी-पद १४६. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुर- चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकूमारराजस्य १४६. असुरेन्द्र, असुरराज चमर के लोकपाल
कुमाररणो सोमस्स महारण्णो सोमस्य महाराजस्य चतस्रः अग्रमहिष्यः महाराज सोम के चार अग्रमहिषियों होती चत्तारि अग्गमहिसीओपण्णताओ, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
हैं-१. कनका, २. कनकलता, तं जहा_कणगा, कणगलता, कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता, वसंधरा। ३. चित्रगुप्ता, ४. वसुन्धरा।
चित्तगुत्ता, वसुंधरा। १५०. एवं--जमस्स वरुणस्स वेसमणस्स। एवम्—यमस्य वरुणस्य वैश्रमणस्य । १५०. इसी प्रकार यम आदि के भी चार-चार
अग्रमहिषियां होती हैं। १५१. बलिस्स णं वइरोणिदस्स वइरो- बलेः वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य १५१. वैरोचनेन्द्र, वैरोचनराज बलि के लोक
यणरण्णो सोमस्स महारणो सोमस्य महाराजस्य चतस्रः अग्रमहिष्यः पाल महाराज सोम के चार अग्रमहिषियां चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होती हैं-१. मितका २. सुभद्रा, तं जहा—मितगा, सुभद्दा, विज्जुता, मितका, सुभद्रा, विद्युत्, अशनिः । ३. विद्युत, ४. अशनि। असणी।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र १५२-१६०
१५२. एवं जमस्स
१५२. इसी प्रकार यम आदि के चार-चार अग्रमहिपियां होती हैं
वरुणस्स ।
कालवालस्स
१५३. धरणस्स णं णागकुमारिदस्त धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमार - १५३. नागकुमारेन्द्र, नागकुमारराज धरणेन्द्र के नागकुमार रणो लोकपाल महाराज कालपाल के चार महारण्णो चत्तारि अग्गम हिसीओ अग्रमहिषियां होती हैं - १. अशोका, पण्णत्ताओ, तं जहा - असोगा, २. विमला, ३. सुप्रभा, ४. सुदर्शना ।
daमणस्स
विमला, सुपभा, सुदंसणा । १५४. एवं - जाव संखवालस्स ।
१५७. जहा धरणस्स एवं सव्वेंसि दाहि fणंद लोगपालाणं जाव घोसस्स ।
एवम् — यावत् शङ्खपालस्य ।
१५४. इसी प्रकार शंखपाल तक के भी चार-चार महिषियां होती हैं।
कालवालस्स
नागकुमाररण्णो महारण्णो चत्तारि अग्गर्माहसीओ पण्णत्ताओ, तं जहासुणंदा, सुभद्दा, सुजाता, सुमणा । ५१६. एवं_जाव सेलवालस्स ।
१५५. भूतानंदस्स णं णागकुमारिदस्स भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमार- १५५. नागकुमारेन्द्र, नागकुमारराज भूतानन्द के लोकपाल महाराज कालपाल के चार अग्रमहिषियां होती हैं - १. सुनन्दा, २. सुभद्रा, ३. सुजाता, ४. सुमना ।
१५८. जहा भूताणंदस्स एवं जाव महाघोसस्स लोगपालाणं ।
१५६. कालस्स णं पिसाई दस्स पिसाय
रण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा— कमला, कमलप्पभा, उप्पला, सुदंसणा । १६०. एवं महाकालस्सवि ।
३३०
एवम् — यमस्य वैश्रमणस्य वरुणस्य ।
राजस्य कालवालस्य महाराजस्य चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअशोका, विमला, सुप्रभा, सुदर्शना ।
राजस्य कालवालस्य महाराजस्य चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथासुनन्दा, सुभद्रा, सुजाता, सुमनाः ।
एवम् - यावत् सेलपालस्य ।
यथा धरणस्य एवं सर्वेषां दक्षिणेन्द्रलोकपालानां यावत् घोषस्य ।
१५६. इसी प्रकार सेलपाल तक के भी चारचार अग्रमहिषियां होती हैं। १५७. दक्षिण दिशा के आठ इन्द्र- वेणुदेव,
हरिकान्त, अग्नि शिख, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, वेलम्ब और घोष के लोकपालों के चार अग्रमहिषियां होती हैं१. अशोका, २. विमला, ३. सुप्रभा, ४. सुदर्शना ।
यथा भूतानन्दस्य एवं यावत् महाघोषस्य १५८. उत्तर दिशा के आठ इन्द्र - वेणुदालि लोकपालानाम् । हरिरसह, अग्नि मानव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभञ्जन और महाघोष के लोकपालों के चार अग्रमहिषियां होती हैं१. सुनंदा, २. सुभद्रा, ३. सुजाता, ४. सुमना ।
१५६. पिशाचेन्द्र, पिशाचराज, काल के चार अग्रमहिषियां होती हैं - १. कमला, २. कमलप्रभा, ३. उत्पला ४. सुदर्शना ।
कालस्य पिशाचेन्द्रस्य पिशाचराजस्य चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाकमला, कमलप्रभा उत्पला, सुदर्शना ।
एवम् — महाकालस्यापि ।
१६०. इसी प्रकार महाकाल के भी चार अग्रमहिषियां होती हैं ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र १६१-१७१ १६१. सुरुवस्स णं भूतिदस्स भूतरण्णो सुरूपस्य भूतेन्द्रस्य भूतराजस्य चतस्रः १६१. भूतेन्द्र भूतराज, सुरूप के चार अग्रमहि
चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- पियां होती हैं- १. रूपवती, २. बहुरूपा, तं जहा—रूववती, बहुरूवा, सुरूवा, रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा, सुभगा। ३. सुरूपा, ४. सुभगा।
सुभगा। १६२. एवं—पडिरूवस्सवि। एवम्-प्रतिरूपस्यापि।
१६२. इसी प्रकार प्रतिरूप के भी चार अग्रमहि
_ पियां होती हैं। १६३. पुण्णभद्दस्स णं जक्खिदस्स जक्ख- पूर्णभद्रस्य यक्षेन्द्रस्य यक्षराजस्य चतस्रः १६३. यक्षेन्द्र, यक्षराज, पूर्णभद्र के चार अग्ररण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
महिषियां होती हैं-१. पूर्णा, पण्णत्ताओ, तं जहा--पुण्णा, बहु- पूर्णा, वहुपूर्णिका, उत्तमा, तारका। २. बहुपूर्णिका, ३. उत्तमा, ४. तारका।
पुण्णिता, उत्तमा, तारगा। १६४. एवं_माणिभहस्सवि। एवम्-माणिभद्रस्यापि। १६४. इसी प्रकार माणिभद्र के भी चार अग्र
महिषियाँ होती हैं। १६५. भीमस्स णं रक्खसिदस्स रक्ख- भीमस्य राक्षसेन्द्रस्य राक्षसराजस्य १६५. राक्षसेन्द्र, राक्षसराज, भीम के चार अग्र
सरण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- महिषियां होती हैं-१. पद्मा, पण्णत्ताओ, तं जहा—पउमा, पद्मा, वसुमती, कनका, रत्नप्रभा। २. वसुमती, ३. कनका, ४. रत्नप्रभा ।
वसुमती, कणगा, रतणप्पभा। १६६. एवं—महाभीमस्सवि। एवम्-महाभीमस्यापि । १६६. इसी प्रकार महाभीम के भी चार
अग्रमहिषियां होती हैं। १६७. किण्णरस्य णं किरदस्स किन्नरस्य किन्नरेन्द्रस्य [किन्नर- १६७. किन्नरेन्द्र, किन्नराज, किन्नर के चार
[किण्णररण्णो ?] चत्तारि राजस्य ? ] चतस्र: अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, अग्रमहिषियां होती हैं--१. अवतंसा, अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं तद्यथा
२. केतुमती, ३. रतिसेना, ४. रतिप्रभा। जहा—वडेसा, केतुमती, रतिसेणा, अवतंसा, केतुमती, रतिसेना, रतिप्रभा।
रतिप्पभा। १६८. एवं—किपुरिसस्सवि। एवम्—किंपुरुषस्यापि।
१६८. इसी प्रकार किंपुरुष के भी चार अग्र
महिषियां होती हैं। १६६. सप्पुरिसस्स णं किंपुरिसिंदस्स सत्पुरुषस्य किंपुरुषेन्द्रस्य [किंपुरुष- १६६. किंपुरुषेन्द्र, किंपुरुषराज, सत्यपुरुष के चार
[किंपुरिसरण्णो ? ] चत्तारि अग्ग- राजस्य ? ] चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, अग्रमहिषियां होती हैं-१. रोहिणी, महिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- तद्यथा--
२. नवमिता, ३. ही, ४. पुष्पवती। रोहिणी, णवमिता, हिरी, रोहिणी, नवमिका, ह्रीः, पुष्पवती।
पुप्फवती। १७०. एवं—महापुरिसस्सवि। एवम्—महापुरुषस्यापि । १७०. इसी प्रकार महापुरुष के भी चार अग्र
महिषियां होती हैं। १७१. अतिकायस्स णं महोरगिदस्स अतिकायस्य महोरगेन्द्रस्य [महोरग- १७१. महोरगेन्द्र, महोरगराज, अतिकाय के
[महोरगरण्णो ?] चत्तारि राजस्य ? ] चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, चार अग्रमहिषियां होती हैं-१. भुजगा,
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३३२
ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र १७२-१८१ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं तद्यथा-भुजगा, भुजगवती, महाकक्षा, २. भुजगवती, ३. कक्षा, ४. स्फूटा। जहा.-भुयगा, भुयगावती महा- स्फुटा ।
कच्छा , फुडा। १७२. एवं_महाकायस्सवि। एवम् —महाकायस्यापि । १७२. इसी प्रकार महाकाय के भी चार अन
महिषियां होती हैं। १७३. गीतरतिस्स णं गंधव्यिदस्स गीतरतेः गन्धर्वेन्द्रस्य[गन्धर्वराजस्य? ] १७३. गन्धर्वेन्द्र, गन्धर्वराज, गीतरति के चार
[गंधव्वरण्णो ?] चत्तारि अग्ग- चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- अग्रमहिषियाँ होती हैं-१. सुघोषा, महिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- सुघोषा, विमला, सुस्वरा, सरस्वती। २. विमला, ३. सुस्वरा, ४. सरस्वती। सुघोसा, विमला, सुस्सरा,
सरस्सती। १७४. एवं...गीयजसस्सवि। एवम्—गीतयशसोऽपि ।
१७४. इसी प्रकार गीतयश के भी चार अग्र
महिषियां होती हैं। १७५. चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिस- चन्द्रस्य ज्योतीरिन्द्रस्य ज्योतीराजस्य १७५. ज्योतिषेन्द्र, ज्योतिषराज चन्द्र के चार
रण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ चतस्रः, अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- अग्रमहिषियां होती हैं---१. चन्द्रप्रभा, पण्णत्ताओ, तं जहा—चंदप्पभा, चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अचिमालिनी, २. ज्योत्स्नाभा, ३. अचिमालिनी, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा। प्रभंकरा।
४. प्रभंकरा। १७६. एवं—सूरस्सवि, णवरं- एवम्-सूरस्यापि, नवरं-सूरप्रभा, १७६. इसी प्रकार ज्योतिपेन्द्र ज्योतिषराज सूर्य
सूरप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, ज्योत्स्नाभा, अचिमालिनी, प्रभंकरा। के चार अग्रमहिषियां होती हैंपभंकरा।
१. सूर्यप्रभा, २. ज्योत्स्नाभा,
३. अचिमालिनी, प्रभंकरा। १७७. इंगालस्स णं महागहस्स चत्तारि अङ्गारस्य महाग्रहस्य चतस्रःअग्रमहिष्यः १७७. अंगार महाग्रह के चार अग्रमहिषियां
अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विजया, वैजयन्ती, होती हैं--१. विजया, २. वैजयंती, जहा—विजया, वेजयंती, जयंती, जयंती, अपराजिता।
३. जयंती, ४. अपराजिता। अपराजिया। १७८. एवं—सव्वेसि महगहाणं जाव एवम्-सर्वेषां महाग्रहाणां यावत् १७८. इसी प्रकार भावकेतु तक के सभी महाग्रहों भावकेउस्स। भावकेतोः ।
के चार-चार अग्रमहिषियां होती हैं। १७९. सक्कस्स णं देविदस्स देबरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य १७६. देवेन्द्र, देवराज, शक्र के लोकपाल महा
सोमस्स महारण्णो चत्तारि अग्ग- महाराजस्य चतस्रः अनमहिष्यः प्रज्ञप्ता, राज सोम के चार अग्रमहिषियां होती हैंमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- तद्यथा
१. रोहिणी, २. मदना, ३. चित्रा, रोहिणी, मयणा, चित्ता, सामा। रोहिणी, मदना, चित्रा, श्यामा। ४. सोमा । १८०. एवं. जाव वेसमणस्स। एवम्-यावत् वैश्रमणस्य। १८०. इसी प्रकार वैश्रमण तक के भी चार-चार
अग्रमहिषियां होती हैं। १८१. ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य १८१. देवेन्द्र, देवराज ईशान के लोकपाल महा
सोमस्स महारण्णो चत्तारि अग्ग- महाराजस्य चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, राज सोम के चार अग्रमहिषियां होती
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ठाणं (स्थान)
३३३
स्थान ४ : सूत्र १९२-१८६ महिसीओ पण्णताओ, तं जहा- तद्यथा—पृथ्वी, रात्री, रजनी, हैं-१. पृथ्वी, २. रात्री, ३. रजनी, पुढवी, राती, रयणी, विज्जू। विद्युत् ।
४. विद्युत् । १८२. एवं—जाव वरुणस्स।
एवम्-यावत् वरुणस्य ।
१२. इसी प्रकार वरुण तक के भी चार-चार
अग्रमहिषियां होती हैं।
विगति-पदं विकृति-पदम्
विकृति-पद १८३. चत्तारि गोरसविगतीओ पण्णत्ताओ, चतस्रः गोरसविकृतयः प्रज्ञप्ताः, १८३. गोरसमय विकृतियां चार हैं-१. दूध, तं जहा.. तद्यथा
२. दही, ३. घृत, ४. नवनीत । खीरं, दहि, सप्पि, णवणीतं। क्षीरं, दधि, सपिः, नवनीतम्। १८४. चत्तारि सिणेहविगतीओ पण्णत्ताओ, चतस्रः स्नेहविकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १८४. स्नेह (चिकनाई) मय विकृतियां चार तं जहाघतं, वसा, नवनीतम् ।
हैं-१. तैल, २. घृत, ३. वसा-चर्बी, तेल्लं, घयं, बसा, णवणीतं ।
४. नवनीत। १८५. चत्तारि महाविगतीओ पण्णत्ताओ, चतस्रः महाविकृतयः प्रज्ञप्ताः, तदयथा-१८५. महाबिकृतियां चार हैंतं जहा.मधु, मांस, मद्यं, नवनीतम् ।
१. मधु, २. मांस, ३. मद्य, ४, नवनीत । महुँ, मंसं, मज्जं, णवणीतं ।
गुत्त-अगुत्त-पदं १८६. चत्तारि कूडागारा यण्णत्ता, तं
गुत्ते णाम एगे गुत्ते, गुत्ते णाम एगे अगुत्ते, अगुत्ते णामं एगे गुत्ते, अगुत्ते णाम एगे अगुत्ते। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पण्णता, तं जहागुत्ते णामं एगे गुत्ते, गुत्ते णाम एगे अगुत्ते, अगुत्ते णाम एगे गुत्ते, अगुत्ते णामं एगे अगुत्ते।
गुप्त-अगुप्त-पदम्
गुप्त-अगुप्त-पद चत्वारि कूटागाराणि प्रज्ञप्तानि, १८६. कूटागार [शिखर सहित घर] चार प्रकार तद्यथा
के होते हैं-१. कुछ कूटागार गुप्त होकर
गुप्त होते हैं-परकोटे से घिरे हुए होते हैं गुप्तं नामैकं गुप्त,
और उनके द्वार भी बन्द होते हैं, २. कुछ गुप्त नामैक अगुप्त,
कूटागार गुप्त होकर अगुप्त होते हैंअगुप्तं नामैक गुप्त,
परकोटे से घिरे हुए होते हैं, किन्तु उनके अगुप्तं नामकः अगुप्तम् ।
द्वार बन्द नहीं होते, ३. कुछ कूटागार
अगुप्त होकर गुप्त होते-परकोटे से घिरे एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
हुए नहीं होते, किन्तु उनके द्वार बन्द होते तद्यथा
हैं, ४. कुछ कूटागार अगुप्त होकर अगुप्त गुप्तः नामैकः गुप्तः,
होते हैं-न परकोटे से घिरे हुए होते हैं गुप्तः नामकः अगुप्तः,
और न उनके द्वार ही बन्द होते हैं। अगुप्तः नामकः गुप्तः,
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते
हैं-१. कुछ पुरुष गुप्त होकर गुप्त होते हैंअगुप्तः नामैकः अगुप्तः ।
वस्त्र पहने हुए होते हैं और उनकी इन्द्रियां भी गुप्त होती हैं, २. कुछ पुरुष गुप्त होकर अगुप्त होते हैं-वस्त्र पहने हुए होते हैं, किन्तु उनकी इन्द्रियां गुप्त नहीं होती, ३. कुछ पुरुष अगुप्त होकर गुप्त होते हैंवस्त्र पहने हुए नहीं होते, किन्तु उनकी
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ठाणं (स्थान)
१८७. चत्तारि
कडागारसालाओ
पण्णत्ताओ, तं जहा
गुत्ता 'णाममेगा गुत्तदुवारा,
गुत्ता णाममेगा अगुत्तवारा, अगुत्ता नाममेगा गुत्तदुवारा, अगुत्ता णाममेगा अगुत्तदुवारा । एवमेव चत्तारित्थओ पण्णत्ताओ तं जहा
गुत्ता णाममेगा गुसिंदिया, गुत्ता णाममेगा अगुत्तिदिया, अगुत्ता णाममेगा गुत्तिदिया, अगुत्ता णाममेगा अगुत्तिदिया ।
३३४
चतस्रः कटागारशालाः तद्यथा—
गुप्ता नामका गुप्तद्वारा, गुप्ता नामका अगुप्तद्वारा, अगुप्ता नामका गुप्तद्वारा, गुप्ता नामका अगुप्तद्वारा । एवमेव चतस्रः स्त्रियः प्रज्ञप्ताः, तद्यथागुप्ता नामैका गुप्तेन्द्रिया, गुप्ता नामेका अगुप्तेन्द्रिया, अगुप्ता नामैका गुप्तेन्द्रिया, अगुप्ता नामका अगुप्तेन्द्रिया ।
प्रज्ञप्ताः, १८७. कूटागार शालाएं चार प्रकार की होती हैं - १. कुछ कूटागार शालाएं गुप्त और गुप्तद्वार वाली होती हैं, २. कुछ कूटागारशालाएं गुप्त, किन्तु अगुप्तद्वार वाली होती हैं, ३. कुछ कूटागार - शालाएं अगुप्त, किन्तु गुप्तद्वार वाली होती हैं, ४. कुछ कूटागार - शालाएं अगुप्त और अगुप्तद्वार वाली होती हैं।
पण्णत्ति-पदं
तद्यथा-
१८६. चत्तारि पण्णत्तीओ अंगबाहिरि याओ पण्णत्ताओ, तं जहाचंदपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, सूरप्रज्ञप्तिः, जंबुद्दीवपण्णत्ती, दीवसागरपण्णत्ती । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः, द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः ।
चन्द्रप्रज्ञप्तिः,
स्थान ४ : सूत्र १८७-१८६
इन्द्रियां गुप्त होती हैं, ४. कुछ पुरुष अगुप्त होकर अगुप्त होते हैं-न वस्त्र पहने हुए होते हैं और न उनकी इन्द्रियां ही गुप्त होती हैं।
ओगाहणा-पदं
अवगाहना-पदम्
अवगाहना-पद
१८८. चउव्विहा ओगाहणा पण्णत्ता, चतुविधा अवगाहना प्रज्ञप्ता, तद्यथा - १८८. अवगाहना चार प्रकार की होती है—
तं जहा -
द्रव्यावगाहना, क्षेत्रावगाहना,
कालावगाहना, भावावगाहना ।
दव्वगाहणा, खेत्तोगाहणा, कालोगाहणा, भावोगाहणा ।
१. द्रव्यावगाहना - - द्रव्यों की अवगाह्नाद्रव्यों के फैलाव का परिमाण, २. क्षेत्राव गाहना - क्षेत्र स्वयं अवगाहना है, ३. कालावगाहना - काल की अवगाहना, वह मनुष्यलोक में है, ४. भावावगाहनाआश्रय लेने की क्रिया ।
इसी प्रकार स्त्रियां भी चार प्रकार की होती हैं - १. कुछ स्त्रियां गुप्त और गुप्तइन्द्रिय वाली होती हैं, २. कुछ स्त्रियां गुप्त, किन्तु अगुप्तइन्द्रिय वाली होती हैं, ३. कुछ स्त्रियां अगुप्त, किन्तु गुप्त इन्द्रिय वाली होती हैं, कुछ स्त्रियां अगुप्त और अगुप्त इन्द्रिय वाली होती हैं ।
प्रज्ञप्ति-पदम्
प्रज्ञप्ति-पद
चतस्रः प्रज्ञप्तयः अङ्गबाह्याः प्रज्ञप्ताः, १८६. चार प्रज्ञप्तियां अंग बाह्य हैं
१. चन्द्रप्रज्ञप्ति, २. सूरप्रज्ञप्ति,
३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४. द्वीप सागरप्रज्ञप्ति ।
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ठाणं (स्थान)
पडिलीण- अपडिसंलीण-पदं
१६०. चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा कोहपडिलीणे, माणपडिली मायापडिसलीणे, लोभ पडिली ।
१६१. चत्तारि अपडिलीणा पण्णत्ता, तं जहा कोहअप डिलीणे,
• माणअप डिलीणे,
जहा -
दीणे णाममेगे दीणे,
दी णाममेगे अदोणे,
अदी णाममेगे दीणे, अदीणे णाममेगे अदीणे ।
३३५
जहा -
दीणे णाममेगे दीणपरिणते,
अप्रतिसंलीनाः प्रज्ञप्ता, १९१. चार अप्रतिसंलीन होते हैं
१. क्रोध अप्रति संलीन,
२. मानअप्रतिसंलीन,
मायाअपडलोणे,
३. मायाप्रति संलीन,
लोभ पडिली ।
४. लोभअप्रतिसंलीन ।
१६२. चत्तारि पडिलीणा पण्णत्ता, तं चत्वारः प्रतिसंलीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १६२. चार प्रतिसंलीन होते हैं
जहा पडली, वतिपडिलीणे, कायपडिलीणे, इंपिडिली ।
मनः प्रतिसंलीनः, वाक्प्रतिसंलीनः, कायप्रतिसंलीनः, इन्द्रियप्रतिसंलीनः ।
१६३. चत्तारि अपडिलीणा पण्णत्ता, तं जहा मअप डिलीणे,
'वतिअप डिसली,
कायअप डिली
इंदियअपडिली ।
बीओ उद्देस
प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन-पदम्
प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन-पद
चत्वारः प्रतिसंलीनाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - १६०. चार प्रतिसंलीन होते हैं- १. क्रोध प्रतिसंलीन, २. मानप्रतिसंलीन, ३. मायाप्रतिसंलीन, ४. लोभप्रतिसंलीन।"
क्रोधप्रतिसंलीनः, मानप्रति संलीनः, मायाप्रतिसंलीनः, लोभप्रतिसंलीनः ।
चत्वारः
तद्यथा---
क्रोधाप्रति संलीनः, मानाप्रतिसंलीनः,
मायाप्रति संलीनः, लोभाप्रतिसंलीनः ।
चत्वारः अप्रतिसंलीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मनोऽप्रतिसंलीनः, वागप्रति संलीनः, कायाऽप्रतिसंलीनः, इन्द्रियाऽप्रतिसंलीनः ।
स्थान ४ : सूत्र १६०-१६५
atr - अदीण-पदं
दीन-अदीन-पदम्
दीन- अदीन - पद
१६४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि १६४. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
तद्यथा—
दीनः,
दीनः नामैकः दीनः नामैक: अदीनः,
१. कुछ पुरुष बाहर से भी दीन और अन्तर में भी दीन होते हैं, २. कुछ पुरुष बाहर से दीन, किन्तु अन्तर में अदीन होते हैं, ३. कुछ पुरुष बाहर से अदीन, किन्तु अंतर में दीन होते हैं, ४. कुछ पुरुष बाहर से भी अदीन और अंतर में भी अदीन होते हैं।
१६५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि १६५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-
तद्यथा—
१. कुछ पुरुष दीन और दीन रूप में परिणत होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु
दीन: नामैक: दीनपरिणतः,
अदीनः नामैक: दीन:, अदीन: नामैकः अदीनः ।
१. मनप्रति संलीन, २. वचनप्रति संलीन, ३. काय प्रतिसंलीन, ४. इन्द्रियप्रति - संलीन।
१६३. चार अप्रतिसंलीन होते हैं
१. मनअप्रतिसंलीन, २. वचनप्रतिसंलीन, ३. काय अप्रतिसंलीन, ४. इन्द्रियअप्रतिसंलीन ।
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ठाणं (स्थान)
३३६
स्थान ४ : सूत्र १६६-२०० दोणे णाममेगे अदीणपरिणते, दीन: नामैकः अदीनपरिणतः,
अदीन रूप में परिणत होते हैं, ३. कुछ अदीणे णाममेगे दीणपरिणते, अदीन: नामैकः दीनपरिणतः,
पुरुष अदीन, किन्तु दीन रूप में परिणत अदीणे णाममेगे अदीणपरिणते। अदीन: नामैकः अदीनपरिणतः ।
होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीन और अदीन
रूप में परिणत होते हैं। १६६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १६६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन रूप वाले दोणे णाममेगे दीणरूवे, दीनः नामैक: दीनरूपः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दीणे णाममेगे अदीणरूवे, दीनः नामैकः अदीनरूपः,
रूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, अदीणे णाममेगे दीणरूवे, अदीन: नामैकः दीनरूपः,
किन्तु दीन रूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीणे णाममेगे अदीणरूवे। अदीन: नामैक: अदीनरूपः ।
अदीन और अदीन रूप वाले होते हैं। १६७. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुजातानि प्रज्ञप्तानि, १६७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन मन वाले दीणे णाममेगे दोणमणे, दीनः नामैकः दीनमनाः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दीणे णाममेगे अदीणमणे, दीन: नामैक: अदीनमना:,
मन वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, अदोणे णामभेगे दीणमणे, अदीन: नामैक: दीनमनाः,
किन्तु दीन मन वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदोणे णाममेगे अदीणमणे। अदीनः नामैकः अदीनमनाः ।
अदीन और अदीन मन वाले होते हैं। १९८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १६८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन संकल्प वाले दीणे णाममेगे दीणसंकप्पे, दीनः नामैकः दीनसंकल्पः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दोणे णाममेगे अदीणसंकप्पे, दीन: नामक: अदीनसंकल्पः,
संकल्प वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, अदीणे णाममेगे दीणसंकप्पे, अदीन: नामैकः दीनसंकल्पः, किन्तु दीन संकल्प वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदोणे णाममेगे अदीणसंकप्पे। अदीनः नामैक: अदीनसंकल्पः ।
अदीन और अदीन संकल्प वाले होते हैं। १६६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, १९६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन प्रज्ञा वाले दीणे णाममेगे दीणपण्णे, दीन: नामैक: दीनप्रज्ञः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दीणे णाममेगे अदीणपणे, दीनः नामैक: अदीनप्रज्ञः,
प्रज्ञा वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, अदीणे णाममेगे दीणपण्णे, अदीन: नामैक: दीनप्रज्ञः,
किन्तु दीन प्रज्ञा वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीणे णाममेगे अदीणपण्णे। अदीन: नामैक: अदीनप्रज्ञः ।
अदीन और अदीन प्रज्ञा वाले होते हैं। २००. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २००. पुरुष चार प्रकार के होते हैंतदयथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन दृष्टि वाले दीणे णाममेगे दीदिट्टी, दीन: नामैक: दीनदृष्टि:, होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दीणे णाममेगे अदीणदिट्ठी, दीन: नामकः अदीनदृष्टिः,
दृष्टि वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, अदीणे णाममेगे दोणदिट्ठी, अदीनः नामक: दीनदृष्टिः, किन्तु दीन दृष्टि वाले होते हैं, ४. कुछ अदीणे णाममेगे अदीणदिट्ठी। अदीन: नामैक: अदीनदृष्टिः । पुरुष अदीन और अदीन दृष्टि वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४: सूत्र २०१-२०५ २०१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातदयथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन शीलाचार दोणे णाममेगे दोणसीलाचारे, दीन: नामकः दीनशीलाचारः, वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु दीणे णाममेगे अदीणसीलाचारे, दीन: नामकः अदीनशीलाचारः, अदीन शीलाचार वाले होते हैं, ३. कुछ अदीणे णाममेगे दीणसीलाचारे, अदीन: नामैक: दीनशीलाचारः, पुरुष अदीन, किन्तु दीन शीलाचार वाले अदीणे णाममेगे अदीणसीलाचारे। अदीनः नामैक: अदीनशीलाचारः। होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीन और अदीन
शीलाचार वाले होते हैं। २०२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन व्यवहार दीणे णाममेगे दीणववहारे, दीन: नामकः दीनव्यवहारः, वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु दोणे णाममेगे अदीणववहारे, दीन: नामकः अदीनव्यवहारः, अदीन व्यवहार वाले होते हैं, ३. कुछ अदीणे णाममेगे दोणववहारे, अदीन: नामैकः दीनव्यवहारः, पुरुष अदीन, किन्तु दीन व्यवहार वाले अदीणे णाममेगे अदीणववहारे । अदीनः नामक: अदीनव्यवहारः । होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीन और अदीन
व्यवहार वाले होते हैं। २०३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन पराक्रम वाले दोणे णाममेगे दोणपरक्कमे, दीनः नामैक: दीनपराक्रमः, होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दोणे णाममेगे अदीणपरक्कमे, दीनः नामैक: अदीनपराक्रमः, पराक्रम वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, 'अदीणे णाममेगे दोणपरक्कमे, अदीनः नामकः दीनपराक्रमः, किन्तु दीन पराक्रम वाले होते हैं, ४. कुछ अदीणे णाममेगे अदीणपरक्कमे। अदीनः नामकः अदीनपराक्रमः । पुरुष अदीन और अदीन पराक्रम वाले
होते हैं। २०४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन वृत्ति वाले दोणे णाममेगे दोणवित्ती, दीन: नामकः दीनवृत्तिः, होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दीणे णाममेगे अदीणवित्ती, दीनः नामैक: अदीनवृत्तिः, वृत्ति वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, अदीणे णाममेगे दीणवित्ती, अदीन: नामकः दीनवृत्तिः, किन्तु दीन वृत्ति वाले होते हैं, ४. कुछ
अदीणे णाममेगे अदीणवित्ती। अदीन: नामैक: अदीनवृत्तिः । पुरुष अदीन और अदीन वृत्ति वाले होते हैं। २०५. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन जाति वाले दोणे णाममेगे दोणजाती, दीन: नामक: दीनजातिः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दीणे णाममेगे अदीणजाती, दीनः नामैक: अदीनजातिः,
जाति वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, अदीणे णाममेगे दीणजाती, अदीनः नामकः दीनजातिः,
किन्तु दीन जाति वाले होते हैं, ४. कुछ अदीणे णाममेगे अदीणजाती। अदीन: नामैकः अदीनजातिः ।
पुरुष अदीन और अदीन जाति वाले होते
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र २०६-२१० २०६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन भाषी होते हैं, दोणे णाममेगे दीणभासी, दीनः नामकः दीनभाषी,
२. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन भाषी दोणे णाममेगे अदीणभासी, दीनः नामैक: अदीनभाषी,
होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, किन्तु दीन अदीणे णाममेगे दीणभासी, अदीनः नामैकः दीनभाषी,
भाषी होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीन और अदीणे णाममेगे अदीणभासी।। अदीनः नामकः अदीनभाषी।
अदीन भाषी होते हैं। २०७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन अवभासी दीणे णाममेगे दीणोभासी, दीनः नामैकः दीनावभासी,
[दीन की तरह लगने वाले होते हैं, दोणे णाममेगे अदीणोभासी, दीनः नामैकः अदीनावभासी, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन अवभासी अदीणे णाममेगे दीणोभासी, अदीनः नामैकः दीनावभासी,
होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, किन्तु दीन अदीणे णाममेगे अदीणोभासी। अदीन: नामैक: अदीनावभासी।
अवभासी होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीन और
अदीन अवभासी होते हैं। २०८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन सेवी होते हैं, दीणे णाममेगे दीणसेवी, दीनः नामकः दीनसेवी,
२. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन सेवी दीणे णाममेगे अदीणसेवी, दीन: नामकः अदीनसेवी,
होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, किन्तु दीन अदीणे णाममेगे दीणसेवी, अदीनः नामैकः दीनसेवी,
सेवी होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीन और अदीणे णाममेगे अदीणसेवी। अदीनः नामकः अदीनसेवी।
अदीन सेवी होते हैं। २०६. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २०६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन पर्याय वाले दीणे णाममेगे दोणपरियाए, दीनः नामकः दीनपर्यायः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु अदीन दीणे णाममेगे अदीणपरियाए, दीन: नामैक: अदीनपर्यायः,
पर्याय वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अदीन, अदीणे णाममेगे दीणपरियाए, अदीनः नामकः दीनपर्यायः,
किन्तु दीन पर्याय वाले होते हैं, ४. कुछ अदीणे णाममेगे अदीणपरियाए। अदीन: नामक: अदीनपर्यायः ।
पुरुष अदीन और अदीन पर्याय वाले होते
२१०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दीन और दीन परिवार दीणे णाममेगे दीणपरियाले, दीन. नामैकः दीनपरिवारः, वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष दीन, किन्तु दीणे णाममेगे अदीणपरियाले, दीनः नामैक: अदीनपरिवारः, अदीन परिवार वाले होते हैं, ३. कुछ अदीणे णाममेगे दीणपरियाले, अदीनः नामैकः दीनपरिवारः,
पुरुष अदीन, किन्तु दीन परिवार वाले अदीणे णाममेगे अदीणपरियाले। अदीनः नामैक: अदीनपरिवारः ।
होते हैं, ४. कुछ पुरुष अदीन और अदीन परिवार वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३३६
स्थान ४: सूत्र २११-२१५
अज्ज-अणज्ज-पदं आर्य-अनार्य-पदम्
आर्य-अनार्य-पद २११. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २११. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से भी आर्य और गुण अज्जे णाममेगे अज्जे, आर्यः नामैक: आर्यः,
से भी आर्य होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति अज्जे णाममेगे अणज्जे, आर्यः नामैकः अनार्यः,
से आर्य, किन्तु गुण से अनार्य होते हैं, अणज्जे णाममेगे अज्जे, अनार्यः नामकः आर्यः,
३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु गुण अणज्जे णाममेगे अणज्जे। अनार्यः नामकः अनार्यः ।
से आर्य होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से
भी अनार्य और गुण से भी अनार्य होते हैं। २१२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जपरिणए, आर्यः नामैकः आर्यपरिणतः,
रूप में परिणत होते हैं, २. कुछ पुरुष अज्जे णाममेगे अणज्जपरिणए, आर्यः नामैकः अनार्यपरिणतः,
जाति से आर्य, किन्तु अनार्य रूप में परिअणज्जे णाममेगे अज्जपरिणए, अनार्यः नामैकः आर्यपरिणतः, णत होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, अणज्जे णाममेगे अणज्जपरिणए। अनार्यः नामैकः अनार्यपरिणतः । किन्तु आर्य रूप में परिणत होते हैं, ४. कुछ
पुरुष जाति से अनार्य और अनार्य रूप में
परिणत होते हैं। २१३. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जरूवे, आर्यः नामैक: आर्यरूपः,
रूप वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से अज्जे णाममेगे अणज्जरूवे, आर्यः नामैकः अनार्यरूपः,
आर्य, किन्तु अनार्य रूप वाले होते हैं, अणज्जे णाममेगे अज्जरूवे, अनार्यः नामैकः आर्यरूपः,
३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य अणज्जे णाममेगे अणज्जरूवे। अनार्यः नामैकः अनार्यरूपः ।
रूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से
अनार्य और अनार्य रूप वाले होते हैं। २१४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१४. पुरुष चार प्रका जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जमणे, आर्यः नामैक: आर्यमनाः,
मन वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से अज्जे णाममेगे अणज्जमणे, आर्यः नामैकः अनार्यमनाः,
आर्य, किन्तु अनार्य मन वाले होते हैं, अणज्जे णाममेगे अज्जमणे, अनार्य नामैकः आर्यमनाः,
३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य अणज्जे णाममेगे अणज्जमणे। अनार्यः नामैकः अनार्यमनाः ।
मन वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से
अनार्य और अनार्य मन वाले होते हैं। २१५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २१५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जसंकप्पे, आर्यः नामकः आर्यसंकल्पः, संकल्प वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति
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स्थान ४ : सूत्र २१६-२१६
से आर्य, किन्तु अनार्य संकल्प वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य संकल्प वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अनार्य और अनार्य संकल्प वाले होते हैं।
२१६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २१६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य प्रज्ञा वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से आर्य, किन्तु अनार्य प्रज्ञा वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य प्रज्ञा वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अनार्य और अनार्य प्रज्ञा वाले होते हैं।
२१७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २१७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य दृष्टि वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से आर्य, किन्तु अनार्य दृष्टि वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य दृष्टि वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अनार्य और अनार्य दृष्टि वाले होते हैं।
२१८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २१८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा - तद्यथाअज्जे णाममेगे अज्जसीलाचारे, आर्यः नामैक: आर्यशीलाचारः, अज्जे नाममेगे अणज्जसीलाचारे, आर्यः नामकः अनार्यशीलाचारः, अणज्जे णाममेगे अज्जसीलाचारे, अनार्यः नामैक: आर्यशीलाचार:, अणजे नाममेगे अणज्जसीलाचारे । अनार्यः नामैकः अनार्यशीलाचारः ।
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य शीलाचार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से आर्य, किन्तु अनार्य शीलाचार वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य शीलाचार वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अनार्य और अनार्य शीलाचार वाले होते हैं।
२१६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि २१६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
तद्यथा—
आर्यः नामैकः आर्यव्यवहारः, आर्यः नामैकः अनार्यव्यवहारः, अनार्यः नामैकः आर्य व्यवहारः, अनार्यः नामैकः अनार्यव्यवहारः ।
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य व्यवहार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से आर्य, किन्तु अनार्य व्यवहार वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य व्यवहार वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अनार्य और अनार्य व्यवहार वाले होते हैं ।
ठाणं (स्थान)
अज्जे णाममेगे अणज्जसंकध्पे, अणज्जे णाममेगे अज्जसं कप्पे, अणज्जे णाममेगे अणज्जसंकप्पे ।
जहा—
अज्जे णाममेगे अज्जपणे, अज्जे णाममेगे अणज्जपणे, अणज्जे जाममेगे अज्जपणे, अणज्जे णाममेगे अणज्जपणे ।
जहा -
अज्जे जाममेगे अज्जदिट्ठी, अज्जे णाममेगे अणज्जदिट्ठी, अणज्जे णाममेगे अज्जदिट्ठी, अणज्जे णाममेगे अणज्जदिट्ठी ।
जहा -
अज्जे णाममेगे अज्जववहारे, अज्जे णाममेगे अणज्जववहारे, अणज्जे णाममेगे अज्जववहारे, अगज्जे नाममेगे अणज्जववहारे ।
३४०
आर्यः नामैकः अनार्यसंकल्पः, अनार्यः नामैक: आर्यसंकल्पः, अनार्यः नामैकः अनार्य संकल्पः ।
तद्यथा
आर्यः नामैक: आर्यप्रज्ञः, आर्यः नामकः अनार्यप्रज्ञः,
अनार्यः नामैकः आर्यप्रज्ञः, अनार्यः नामैकः अनार्यप्रज्ञः ।
तद्यथा—
आर्यः नामैकः आर्यदृष्टिः, आर्यः नामैकः अनार्यदृष्टिः, अनार्यः नामैकः आर्यदृष्टिः, अनार्यः नामैकः अनार्यदृष्टिः ।
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ठाणं (स्थान)
३४१
स्थान ४ : सूत्र २२०-२२४ २२०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जपरकम्मे, आर्यः नामैकः आर्यपराक्रमः, पराक्रम वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति अज्जे णाममेगे अणज्जपरकम्मे, आर्यः नामैकः अनार्यपराक्रमः,
से आर्य, किन्तु अनार्य पराक्रम वाले अणज्जे णाममेगे अज्जपरकम्मे, अनार्यः नामैकः आर्यपराक्रमः, होते हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, अणज्जे णाममेगे अणज्जपरकम्मे। अनार्यः नामैकः अनार्यपराक्रमः । किन्तु आर्य पराक्रम वाले होते हैं, ४. कुछ
पुरुष जाति से अनार्य और अनार्य पराक्रम
वाले होते हैं। २२१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
३. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जवित्ती, आर्यः नामैक: आर्यवृत्तिः,
वृत्ति वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से अज्जे णाममेगे अणज्जवित्ती, आर्यः नामैक
आर्य, किन्तु अनार्य वृत्ति वाले होते हैं, अणज्जे णाममेगे अज्जवित्ती, अनार्यः नामकः आर्यवृत्तिः,
३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य अणज्जे णाममेगे अणज्जवित्ती। अनार्यः नामैकः अनार्यवृत्तिः ।
वृत्ति वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से
अनार्य और अनार्य वृत्ति वाले होते हैं। २२२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जजाती, आर्यः नामैकः आर्यजातिः,
जाति वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति अज्जे णाममेगे अणज्जजाती, आर्यः नामैकः अनार्यजातिः, से आर्य, किन्तु अनार्य जाति वाले होते हैं, अणज्जे णाममेगे अज्जजाती, अनार्यः नामैक: आर्यजातिः,
३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य अणज्जे णाममेगे अणज्जजाती। अनार्यः नामकः अनार्यजातिः । जाति वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से
अनार्य और अनार्य जाति वाले होते हैं । २२३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जभासी, आर्यः नामैकः आर्यभाषी,
भाषी होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से अज्जे णाममेगे अणज्जभासी, आर्यः नामैक: अनार्यभाषी,
आर्य, किन्तु अनार्य भाषी होते हैं, ३. कुछ अणज्जे णाममेगे अज्जभासी, अनार्य नामैक: आर्यभाषी,
पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य भाषी अणज्जे णाममेगे अणज्जभासी। अनार्यः नामैकः अनार्यभाषी।
होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अनार्य और
अनार्य भासी होते हैं। २२४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति में आर्य और आर्यअज्जे णाममेगे अज्जओभासी, आर्यः नामैक: आर्यावभाषी, अवभाषी [आर्य की तरह लगने वाले अज्जे णाममेगे अणज्जओभासी, आर्यः नामैकः अनार्यावभाषी, होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से आर्य, किन्तु
अनार्य अवभासी होते हैं, ३. कुछ पुरुष
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ठाणं (स्थान)
३४२
स्थान ४: सूत्र २२५-२२८ अणज्जे णाममेगे अज्जओभासी, अनार्यः नामकः आर्यावभाषी,
जाति से अनार्य, किन्तु आर्य अवभासी अणज्जे णाममेगे अणज्जओभासी। अनार्यः नामैकः अनार्यावभाषी।
होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से अनार्य
और अनार्य-अवभासी होते हैं। २२५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुजातानि प्रज्ञप्तानि, २२५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्यअज्जे णाममेगे अज्जसेवी, आर्यः नामकः आर्यसेवी,
सेवी होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से अज्जे णाममेगे अणज्जसेवी, आर्यः नामैकः अनार्यसेवी,
आर्य, किन्तु अनार्य-सेवी होते हैं, ३. कुछ अणज्जे णाममेगे अज्जसेवी, अनार्यः नामकः आर्यसेवी,
पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु आर्य-सेवी अणज्जे णाममेगे अणज्जसेवी। अनार्यः नामकः अनार्यसेवी।
होते हैं, ४. कुछ तुरुष जाति से अनार्य
और अनार्य-सेवी होते हैं। २२६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जपरियाए, आर्यः नामकः आर्यपर्यायः,
पर्याय वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति अज्जे णाममेगे अणज्जपरियाए, आर्यः नामकः अनार्यपर्यायः
से आर्य, किन्तु अनार्य पर्याय वाले होते अणज्जे णाममेगे अज्जपरियाए, अनार्यः नामैक: आर्यपर्यायः, हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु अणज्जे णाममेगे अणज्जपरियाए। अनार्यः नामैकः अनार्यपर्यायः । आर्य पर्याय वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष
जाति से अनार्य और अनार्य पर्याय वाले
होते हैं। २२७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और आर्य अज्जे णाममेगे अज्जपरियाले, आर्यः नामक: आर्यपरिवारः, परिवार वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति अज्जे णाममेगे अणज्जपरियाले, आर्यः नामकः अनार्यपरिवारः, से आर्य, किन्तु अनार्य परिवार वाले होते अणज्जे णाममेगे अज्जपरियाले, अनार्य नामैक: आर्यपरिवारः, हैं, ३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु अणज्जे णाममेगे अणज्जपरियाले। अनार्यः नामकः अनार्यपरिवारः । आर्य परिवार वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष
जाति से अनार्य और अनार्य परिवार वाले
होते हैं। २२८. चत्तारि पुरिसजाया पिण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २२८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति से आर्य और भाव से अज्जे णाममेगे अज्जभावे, आर्यः नामैक: आर्यभावः,
भी आर्य होते हैं, २. कुछ पुरुष जाति से अज्जे णाममेगे अणज्जभावे, आर्यः नामकः अनार्यभावः, आर्य, किन्तु भाव से अनार्य होते हैं, अणज्जे णाममेगे अज्जभावे, अनार्यः नामकः आर्यभावः,
३. कुछ पुरुष जाति से अनार्य, किन्तु भाव अणज्जे णाममेगे अणज्जभावे। अनार्यः नामैकः अनार्यभावः । से आर्य होते हैं, ४. कुछ पुरुष जाति से
अनार्य और भाव से भी अनार्य होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३४३
स्थान ४ : सूत्र २२६-२३१
जाति-पदं जाति-पदम्
जाति-पद २२६. चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं चत्वारः ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २२६. बृषभ चार प्रकार के होते हैंजहा—जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, जातिसम्पन्नः, कुलसम्पन्नः,
१. जाति-सम्पन्न, २. कुल-सम्पन्न, बलसंपण्णे, रूवसंपण्णे। बलसम्पन्नः, रूपसम्पन्नः ।
३. बल-सम्पन्न, ४. रूप-सम्पन्न । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. जाति-सम्पन्न, २. कुल-सम्पन्न, जातिसंपण्णे, 'कुलसंपण्णे, जातिसम्पन्नः, कुलसम्पन्नः,
३. बल-सम्पन्न, ४. रूप-सम्पन्न । बलसंपण्णे, रूवसंपण्णे। बलसम्पन्नः, रूपसम्पन्नः । २३०. चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं । चत्वारः ऋपभाः प्रज्ञप्ताः तदयथा... २३०. वृषभ चार प्रकार के होते हैंजहा
जातिसम्पन्नः नामकः, नो कुलसम्पन्नः, १. कुछ वृषभ जाति-सम्पन्न होते हैं, किन्तु जातिसंपण्णे णामं एगे, णो कुल- कुलसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, कुल-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ वृषभ संपण्णे, कुलसंपण्णे णामं एगे, णो एकः जातिसम्पन्नोऽपि, कुलसम्पन्नोऽपि, । कुल सम्पन्न होते हैं, किन्तु जाति-सम्पन्न जातिसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि, एकः नो जातिसम्पन्नः, नो कुल- नहीं होते, ३. कुछ वृषभ जाति-सम्पन्न कुलसंपण्णेवि, एगे णो जाति संपण्णेसम्पन्नः ।
भी होते हैं और कुल-सम्पन्न भी होते हैं, णो कुलसंपण्णे।
४. कुछ वृषभ न जाति-सम्पन्न होते हैं
और न कुल-सम्पन्न ही होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णता, तं जहा- तद्यथाजातिसंपण्णे णाममेगे, णो जातिसम्पन्नः नामकः, नो कुलसम्पन्नः, । १. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, किन्तु कुलसंपण्णे, कुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्नः नामकः, नो जातिसम्पन्नः, . कुल-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष कुलणो जातिसंपण्णे, एगे जाति- एकः जातिसम्पन्नोऽपि, कुलसम्पन्नोऽपि, । सम्पन्न होते हैं, किन्तु जाति-सम्पन्न नहीं संपण्णेवि, कुलसंपण्णेवि। एकः नो जातिसम्पन्नः, नो कुलसम्पन्नः।। होते, ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी एगे णो जातिसंपण्णे, णो कुलसंपण्णे ।
होते हैं और कुल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं
और न कुल-सम्पन्न ही होते हैं। २३१. चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २३१. वृषभ चार प्रकार के होते हैं
जातिसंपण्णे णाम एगे, णो बल- जातिसम्पन्नः नामैकः, नो बलसम्पन्नः, १. कुछ वृषभ जाति-सम्पन्न होते हैं, संपण्णे, बलसंपण्णे णामं एगे, बलसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्न:, किन्तु बल-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ णो जातिसंपण्णे, एगे जाति- एकः जातिसम्पन्नोऽपि, बलसम्पन्नोऽपि, वृषभ बल-सम्पन्न होते हैं, किन्तु जातिसंपण्णेवि, बलसंपण्णेवि, एगे णो एकः नो जातिसम्पन्नः, नोबलसम्पन्नः । सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ वृषभ जातिजातिसंपण्णे, णो बलसंपण्णे।
सम्पन्न भी होते हैं और बल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ वृषभ न जाति-सम्पन्न होते हैं और न बल-सम्पन्न ही होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र २३२-२३३ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, । इसी प्रकार पुरुष चार प्रकार के होते हैंपण्णत्ता, तं जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, जातिसंपण्णे णामं एगे, णो बल- जातिसम्पन्नः नामैकः, नो बलसम्पन्नः, किन्तु बल-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ संपण्णे, बलसंपण्णे णाम एगे, णो बलसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, पुरुष बल-सम्पन्न होते हैं, किन्तु जातिजातिसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, बलसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न नहीं होते हैं, ३. कुछ पुरुष जातिबलसंपण्णेवि, एगे णो जातिसंपण्णे, एकः नो जातिसम्पन्नः, नो बलसम्पन्नः।। सम्पन्न भी होते हैं और बल-सम्पन्न भी णो बलसंपण्णे।
होते हैं, ४. कुछ पुरुष न जाति-सम्पन्न
होते हैं और न बल-सम्पन्न ही होते हैं। २३२. चत्तारि उसभा, पण्णत्ता, तं चत्वार. ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २३२. वृषभ चार प्रकार के होते हैंजहा
जातिसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, १. कुछ वृषभ जाति-सम्पन्न होते हैं, किन्तु जातिसंपण्णे णामं एगे, णो रूपसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, रूप-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ वृषभ रूपरूवसंपण्णे, रूवसंपण्णे णामं एगे, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, किन्तु जाति-सम्पन्न नहीं णो जातिसंपण्णे, एगे जाति- एकः नो जातिसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः। होते, ३. कुछ वृषभ जाति-सम्पन्न भी संपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि, एगे णो
होते हैं और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, जातिसंपण्णे, णो रूवसंपण्णे।
४. कुछ वृषभ न जाति-सम्पन्न होते हैं
और न रूप-सम्पन्न ही होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष चार प्रकार के होते हैंपण्णत्ता, तं जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, किन्तु जातिसंपण्णे णामं एगे, णो रूव- जातिसम्पन्नः नामकः, नो रूपसम्पन्नः, रूप-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपसंपण्णे, रूवसंपण्णे णाम एगे, रूपसम्पन्नः नामकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, किन्तु जाति-सम्पन्न नहीं जो जातिसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, होते, ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते रूवसंपण्णेवि, एगे णो जाति- एकःनो जातिसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः। हैं और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ संपण्णे, णो रूवसंपण्णे।
पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं और न रूपसम्पन्न ही होते हैं।
कुल-पदं
कुल-पद
कुल-पदम् २३३. चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः ऋषभाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा- २३३. वृषभ चार प्रकार के होते हैं
कुलसंपण्णे णामं एगे, णो बल- कुलसम्पन्न: नामैकः, नो बलसम्पन्नः, १. कुछ वृषभ कुल-सम्पन्न होते हैं, किन्तु संपण्णे, बलसंपण्णे णामं एगे, बलसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः,
बल-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ वृषभ णो कुलसंपण्णे, एगे कुलसंपण्णेवि, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, बलसम्पन्नोऽपि, बल-सम्पन्न होते हैं किन्तु कुल-सम्पन्न बलसंपण्णेवि, एगे णो कुल- एकः नो कुलसम्पन्नः, नो बलसम्पन्नः । नहीं होते, ३. कुछ वृषभ कुल-सम्पन्न भी संपण्णे, णो बलसंपण्णे।
होते हैं और बल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ वृषभ न कुल-सम्पन्न होते हैं और न बल-सम्पन्न ही होते हैं।
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३४५
ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र २३४-२३५ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष चार प्रकार के होते हैंपण्णत्ता, तं जहा... तद्यथा
१. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, किन्तु कुलसंपण्णे णाम एगे, णो बल- कुलसम्पन्न: नामकः, नो बलसम्पन्नः, बल-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष बलसंपण्णे, बलसंपण्णे णामं एगे, णो बलसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, किन्तु कुल-सम्पन्न नहीं कुलसंपण्णे, एगे कुलसंपण्णेवि, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, बलसम्पन्नोऽपि, होते, ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते बलसंपण्णेवि, एगे णो कुलसंपण्णे, एक: नो कुलसम्पन्नः, नो बलसम्पन्नः । हैं और बल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ णो बलसंपण्णे।
पुरुष न कुल-सम्पन्न होते हैं और न बल
सम्पन्न ही होते हैं। २३४. चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः ऋषभाः प्रज्ञप्ता:, तदयथा- २३४. बृषभ चार प्रकार के होते हैं
कुलसंपण्णे णाम एगे, णो रूव- कुलसम्पन्न: नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, १. कुछ वृषभ कुल-सम्पन्न होते हैं, किन्तु संपण्ण, रूवसंपण्णे णाम एगे, णो रूपसम्पन्न: नामकः, नो कलसम्पन्न:, रूप-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ वृषभ रूपकुलसंपण्णे, एगे कुलसंपण्णेवि, एक: कुलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, किन्तु कुल-सम्पन्न नहीं रूवसंपण्णेवि, एगे णो कुलसंपण्णे, एक: नो कुलसम्पन्न:, नो रूपसम्पन्नः। होते, ३. कुछ वृषभ कुल-सम्पन्न भी होते णो रूवसंपण्णे।
हैं और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ वृषभ न कुल-सम्पन्न होते हैं और न रूप
सम्पन्न ही होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाकुलसंपण्णे णाम एगे, णो रूव- कुलसम्पन्नः नामकः, नो रूपसम्पन्नः,
१. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, किन्तु संपण्णे, रूवसंपण्णे णामं एगे, णो रूपसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः,
रूप-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूप
सम्पन्न होते हैं, किन्तु कुल-सम्पन्न नहीं कुलसंपण्णे, एगे कुलसंपण्णोवि, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि,
होते, ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते रूवसंपण्णेवि, एगे णो कुलसंपण्णे, एकः नो कुलसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः ।
हैं और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ णो रूवसंपण्णे।
पुरुष न कुल-सम्पन्न होते हैं और न रूपसम्पन्न ही होते हैं।
बल-पदं बल-पदम्
बल-पद २३५. चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २३५. बृषभ चार प्रकार के होते हैं
बलसंपण्णे णामं एगे, णो रूव- बलसम्पन्न: नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, १. कुछ बृषभ बल-सम्पन्न होते हैं, किन्तु संपण्णे, रूवसंपण्णे णामं एगे, रूपसम्पन्न: नामैकः, नो बलसम्पन्नः, रूप-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ बृषभ रूपगो बलसंपण्णे, एगे बलसंपण्णेवि, एक: बलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, किन्तु बल-सम्पन्न नहीं रूवसंपण्णेवि, एगे णो बलसंपण्णे, एक: नो बलसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः । होते, ३. कुछ वृषभ बल-सम्पन्न भी होते हैं जो रूवसंपण्णे।
और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ बृषभ न बल-सम्पन्न होते हैं और न रूप-सम्पन्न ही होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
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एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि पण्णत्ता, त जहातं प्रज्ञप्तानि तद्यथाबलसंपणे णामं एगे, णो रूव- बलसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, संपण्णे, रुवसंपणे णामं एगे, रूपसम्पन्नः नामैकः, नो बलसम्पन्नः, णो बलसंपण्णे, एगे बलसंपण्णेवि, एकः बलसम्पन्नोऽपि रूपसम्पन्नोऽपि, रुवसंपण्णेवि, एगे णो बलसंपण्णे, एकः नो बलसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः । णो रुवसंपणे ।
हत्थि - पदं
२३६. चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहाभद्दे, मंदे, मिए, संकिणे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया
पण्णत्ता, तं जहा -- भद्दे, मंदे, मिए, संकिणे ।
२३७. चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहाभद्दे णाममेगे भद्दमणे,
भद्दे णाममेगे मंदमणे,
भद्दे णाममेगे मियमणे, भद्दे णाममे संकिणमणे ।
२३८. चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहामंदे णाममेगे भद्दमणे,
हस्ति-पदम्
चत्वार: हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— भद्रः, मन्दः, मृगः, संकीर्णः । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा—
भद्रः, मन्दः, मृगः, संकीर्णः ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि
पण्णत्ता, तं जहा
भद्दे णाममेगे भद्दमणे,
प्रज्ञप्तानि तद्यथा— भद्रः नामैकः भद्रमनाः, भद्रः नामैकः मन्दमनाः,
भद्दे णामगे मंदमणे,
भद्दे णाममेगे मियगणे, भद्दे णाममेगे संकिणमणे ।
भद्रः नामैक: मृगमनाः, भद्रः नामैकः संकीर्णमनाः ।
चत्वारः हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाभद्रः नामैक: भद्रमनाः, भद्रः नामैकः मन्दमनाः,
भद्रः नामैक: मृगमनाः, भद्रः नामैकः संकीर्णमनाः ।
चत्वार: हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथामन्दः नामैक: भद्रमनाः,
स्थान ४ : सूत्र २३६-२३८
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - १. कुछ पुरुष बल सम्पन्न होते हैं, किन्तु रूप-सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूप सम्पन्न होते हैं, किन्तु बलसम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष बलसम्पन्न भी होते हैं और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न बल सम्पन्न होते हैं और न रूप सम्पन्न ही होते हैं।
हस्ति-पद
२३६. हाथी चार प्रकार के होते हैं
१. भद्र - धैर्य आदि गुणयुक्त, २. मंदधैर्य आदि गुणों की मंदता वाला, ३. मृग - भीरु, ४. संकीर्ण - जिसमें स्वभाव की विविधता हो ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं- १. भद्र, २. मंद ३. मृग, ४. संकीर्ण ।
२३७. हाथी चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ हाथी भद्र होते हैं और उनका मन भीभद्र होता है, २. कुछ हाथी भद्र होते हैं, किन्तु उनका मन मंद होता है, ३. कुछ हाथी भद्र होते हैं, किन्तु उनका मन मृग होता है, ४. कुछ हाथी भद्र होते
हैं, किन्तु उनका मन संकीर्ण होता है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - १. कुछ पुरुष भद्र होते हैं और उनका मन भी भद्र होता है, २. कुछ पुरुष भद्र होते हैं, किन्तु उनका मन मंद होता है, ३. कुछ पुरुष भद्र होते हैं, किन्तु उनका मन मृग होता है, ४. कुछ पुरुष भद्र होते हैं, किन्तु उनका मन संकीर्ण होता है। २३८. हाथी चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ हाथी मंद होते हैं, किन्तु उनका
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ठाणं (स्थान)
३४७
स्थान ४ : सूत्र २३६-२४० मंदे णाममेगे मंदमणे, मन्दः नामैकः मन्दमनाः,
मन भद्र होता है, २. कुछ हाथी मंद होते मंदे णाममेगे मियमणे, मन्द: नामैकः मृगमनाः,
हैं और उनका मन भी मंद होता है, मदे णाममेगे संकिण्णमण । मन्दः नामकः संकीर्णमनाः ।
३. कुछ हाथी मंद होते हैं, किन्तु उनका मन मृग होता है, ४. कुछ हाथी मंद होते
हैं, किन्तु उनका मन संकीर्ण होता है। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्तानि, तद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष मंद होते हैं, किन्तु मंदे णाममेगे भद्दमणे, मन्दः नामैकः भद्रमनाः,
उनका मन भद्र होता है, २. कुछ पुरुष 'मंदे णाममेगे मंदमणे, मन्द: नामैक: मन्दमनाः,
मंद होते हैं और उनका मन भी मंद होता मंदे णाममेगे मियमणे, मन्दः नामैक: मृगमनाः,
है, ३. कुछ पुरुष मंद होते हैं, किन्तु उनका मंदे णाममेगे संकिण्णमणे । मन्द: नामकः संकीर्णमनाः।
मन मृग होता है, ४. कुछ पुरुष मंद होते
हैं, किन्तु उनका मन संकीर्ण होता है । २३६. चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २३६. हाथी चार प्रकार के होते हैंमिए णाममेगे भद्दमणे, मृगः नामकः भद्र मनाः,
१. कुछ हाथी मृग होते हैं, किन्तु उनका मिए णाममेगे मंदमणे, मृगः नामैकः मन्दमनाः,
मन भद्र होता है, २. कुछ हाथी मृग होते मिए णाममेगे मियमणे, मृगः नामैक: मृगमनाः,
हैं, किन्तु उनका मन मंद होता है, मिए णाममेगे संकिण्णमणे। मृगः नामैकः संकीर्णमनाः ।
३. कुछ हाथी मृग होते हैं और उनका मन भी मृग होता है, ४. कुछ हाथी मृग होते
हैं, किन्तु उनका मन संकीर्ण होता है। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते एण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं—१. कुछ पुरुष मृग होते हैं, किन्तु मिए णाममेगे भद्दमणे, मृगः नामैक: भद्रमनाः,
उनका मन भद्र होता है, २. कुछ पुरुष 'मिए णाममेगे मंदमणे, मृगः नामकः मन्दमनाः,
मृग होते हैं, किन्तु उनका मन मंद होता मिए णाममेगे मियमणे, मगः नामक: मृगमना:,
है, ३. कुछ पुरुष मृग होते हैं और उनका मिए णाममेगे संकिण्णमणे। मगः नामैकः संकीर्णमनाः ।
मन भी मृग होता है, ४. कुछ पुरुष मृग
होते हैं, किन्तु उनका मन संकीर्ण होता है। २४०. चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २४०. हाथी चार प्रकार के होते हैंसंकिण्णे गाममेगे भद्दमणे, संकीर्णः नामैकः भद्र मनाः,
१. कुछ हाथी संकीर्ण होते हैं, किन्तु संकिण्णे णाममेगे मंदमणे, संकीर्णः नामैक. मन्दमनाः,
उनका मन भद्र होता है, २. कुछ हाथी संकिण्णे णाममेगे मियमणे, संकीर्णः नामैकः मृगमनाः,
संकीर्ण होते हैं, किन्तु उनका मन मंद संकिण्णे णाममेगे संकिण्णमणे। संकीर्णः नामैकः संकीर्णमनाः ।
होता है, ३. कुछ हाथी संकीर्ण होते हैं, किन्तु उनका मन मृग होता है, ४. कुछ हाथी संकीर्ण होते हैं और उनका मन भी संकीर्ण होता है।
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स्थान ४: सूत्र २४०
ठाणं (स्थान)
३४८ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथासंकिण्णे णाममेगे भद्दमणे, संकीर्णः नामकः भद्रमनाः, 'संकिण्णे णाममेगे मंदमणे, संकीर्णः नामैकः मन्दमनाः, संकिण्णे णाममेगे मियमणे, संकीर्णः नामकः मृगमनाः, संकिण्णे णाममेगे संकिण्णमणे।। संकीर्णः नामैकः संकीर्णमनाः।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-१. कुछ पुरुष संकीर्ण होते हैं, किन्तु उनका मन भद्र होता है, २. कुछ पुरुष संकीर्ण होते हैं, किन्तु उनका मन मंद होता है, ३. कुछ पुरुष संकीर्ण होते हैं, किन्तु उनका मन मृग होता है, कुछ पुरुष संकीर्ण होते हैं और उनका मन भी संकीर्ण होता है।
संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. मधुगुलिय-पिंगलक्खो, १. मधुगुटिक-पिङ्गलाक्षः, अणुपुब्व-सुजाय-दोहणंगूल्लो। अनुपूर्व-सुजात्-दीर्घलाङ्गलः। पुरओ उदग्गधीरो,
पुरत उदग्रधीरः, सव्वंगसमाधितो भद्दो ॥ सर्वाङ्गसमाहितः भद्रः॥ २. चल-बहल-विसम-चम्मो, २. चल-बहल-विषम-चर्मा, थूलसिरो थूलएण पेएण। स्थूलशिरा: स्थूलकेन पेचेन। थूलणह-दंत-वालो,
स्थूलनख-दन्त-बालः, हरिपिंगल-लोयणो मंदो॥ हरिपिङ्गल-लोचनः मन्दः ।। ३. तणुओ तणुयग्गीवो, ३. तनुकः तनुकग्रीवः, तणुयतओ तणुयदंत-णह-वालो। तनुकत्वक् तनुकदन्त-नख-बालः । भीरू तत्थुविग्गो,
भीरु: त्रस्तोद्विग्नः, तासी य भवे मिए णामं ॥ त्रासी च भवेत् मृगः नाम ।। ४. एतेसि हत्थीणं थोवा थोवं, ४. एतेषां हस्तिनां स्तोकं स्तोकं, तु जो अणुहरति हत्थी। तु यः अनुहरति हस्ती। रूवेण व सीलेण व,
रूपेण वा शीलेन वा, सो संकिण्णो त्ति णायवो॥ स संकीर्णः इति ज्ञातव्यः ।। ५. भद्दो मज्जइ सरए, ५. भद्र: माद्यति शरदि, मंदो उण मज्जते वसंतंमि। मन्दः पुनः माद्यति वसन्ते। मिउ मज्जति हेमंते, मृगः माद्यति हेमन्ते, संकिण्णो सव्वकालंमि॥ संकीर्ण: सर्वकाले ।।
संग्रहणी-गाथा जिसकी आंखें मधु-गुटिका के समान भूरापन लिए हुए लाल होती हैं, जो उचित काल-मर्यादा से उत्पन्न हुआ है, जिसकी धूछ लम्बी है, जिसका अगला भाग उन्नत है, जोधीर है, जिसके सब अंग प्रमाण और लक्षण से उपेत होने के कारण समाहित [सुव्यवस्थित ] हैं, उस हाथी को भद्र कहा जाता है। जिसकी चमड़ी शिथिल, स्थूल और वलियों [रेखाओं] से युक्त होता है, जिसका सिर और पुच्छ-मूल स्थूल होता है, जिसके नख, दांत और केश स्थल होते हैं तथा जिसकी आंखें सिंह की तरह भूरापन लिए हुए पीली होती है, उस हाथी को मंद कहा जाता है। जिसका शरीर, गर्दन, चमड़ी, नख, दांत और केश पतले होते हैं, जो भारु और त्रस्त [घबराया हुआ] और उद्विग्न होता है तथा जो दूसरों को त्रास देता है उस हाथी को मृग कहा जाता है। जिसमें उक्त हस्तियों के रूप और शील के लक्षण मिश्रित रूप में मिलते हैं उस हाथी को संकीर्ण कहा जाता है। भद्र के शरद् ऋतु में, मंद के बसंत ऋतु में, मृग के हेमन्त ऋतु में और संकीर्ण के सब ऋतुओं में मद झरता है।
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ठाणं (स्थान)
३४६
स्थान ४ : सूत्र २४१-२४५
भक्तक
विकहा-पदं विकथा-पदम्
विकथा-पद २४१. चत्तारि विकहाओ पण्णत्ताओ, चतस्रः विकथाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २४१. विकथा चार प्रकार की होती है
तं जहा—इत्थिकहा, भत्तकहा, स्त्रीकथाः, भक्तकथा, देशकथा, १. स्त्रीकथा, २. देशकथा, ३. भक्तकथा, देसकहा, रायकहा। राजकथा।
४. राजकथा। २४२. इत्थिकहा चउम्विहा पण्णत्ता, तं स्त्रीकथा चतूविधा प्रज्ञप्ता, तदयथा_
जहा_इत्थीणं जाइकहा, स्त्रीणां जातिकथा, स्त्रीणां कूलकथा, १. स्त्रियों की जाति की कथा, इत्थीणं कुलकहा, इत्थीणं रूवकहा, स्त्रीणां रूपकथा, स्त्रीणां नेपथ्यकथा। २. स्त्रियों के कुल की कथा, इत्थीणं णेवत्थकहा।
३. स्त्रियों के रूप की कथा,
४. स्त्रियों के वेशभूषा की कथा । २४३. भत्तकहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं
प्रज्ञप्ता, तद्यथा- २४३. भक्तकथा के चार प्रकार हैंजहा-भत्तस्स आवावकहा, भक्तस्य आवापकथा,
१. आवापकथा-रसोई की सामग्रीभत्तस्स णिवावकहा, भक्तस्य निर्वापकथा,
घृत, साग आदि की चर्चा करना, भत्तस्स आरंभकहा, भक्तस्य आरंभकथा,
२. निर्वापकथा-पक्व या अपक्वभत्तस्स णिट्ठाणकहा। भक्तस्य निष्ठानकथा।
अन्न व व्यञ्जन आदि की चर्चा करना, ३. आरंभकथा—इतनी सामग्री और इतना धन आवश्यक होगा- इस प्रकार की चर्चा करना, ४. निष्ठानकथाइतनी सामग्री और इतना धन लगा--
इस प्रकार की चर्चा करना। २४४. देसकहा चउन्विहा पण्णत्ता, तं देशकथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- २४४. देशकथा के चार प्रकार हैंजहा—देसविहिकहा, देशविधिकथा, देशविकल्पकथा,
१. देशविधिकथा-विभिन्न देशों में प्रचदेसविकप्पकहा, देसच्छंदकहा, देशच्छन्दकथा, देशनेपथ्यकथा। लित भोजन आदि बनाने के प्रकारों या देसणेवत्थकहा।
कानूनों की कथा करना, २. देशविकल्पकथा--विभिन्न देशों में अनाज की उपज, परकोटे, कुंए आदि की कथा करना, ३. देशच्छंदकथा-विभिन्न देशों के विवाह आदि से संबन्धित रीति-रिवाजों की कथा करना, ४. देशनेपथ्यकथाविभिन्न देशों के पहनावे की कथा
करना।४६ २४५. रायकहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं राजकथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- २४५. राजकथा के चार प्रकार हैंजहा_रण्णो अतियाणकहा, राज्ञः अतियानकथा,
१. राजा के अतियान-नगर आदि के रणो णिज्जाणकहा, राज्ञः निर्याणकथा,
प्रवेश की कथा करना, २. राजा के
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३५०
स्थान ४: सूत्र २४६-२४८
ठाणं (स्थान)
रण्णो बलवाहणकहा, रणो कोसकोट्ठागारकहा।
राज्ञः बलवाहनकथा, राज्ञः कोशकोष्ठागारकथा।
निर्याण-निष्क्रमण की कथा करना, ३. राजा की सेना और वाहनों की कथा करना, ४. राजा के कोश और कोष्ठागार-अनाज के कोठों की कथा करना।
कहा-पदं
कथा-पदम्
कथा-पद २४६. चउव्विहा कहा पण्णत्ता, तं जहा- चतुविधा कथा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- २४६. कथा चार प्रकार की होती है
अक्खेवणी, विक्खेवणी, आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी, १. आक्षेपणी-ज्ञान और चारित्र के प्रति संवेयणी, णिव्वेदणी। निर्वेदनी।
आकर्षण उत्पन्न करने वाली कथा, २. विक्षेपणी-सन्मार्ग की स्थापना करने वाली कथा, ३. संवेजनी-जीवन की नश्वरता और दुःखबहुलता तथा शरीर की अशुचिता दिखाकर वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा, ४. निवेदनी-कृत कर्मो के शुभाशुभ फल दिखला कर संसार
के प्रति उदासीन बनाने वाली कथा।" २४७. अक्खेवणी कहा चउन्विहा पण्णत्ता, आक्षेपणी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, २४७. आक्षेपणी कथा के चार प्रकार हैंतं जहातद्यथा
१. आचारआक्षेपणी-जिसमें आधार का आयारअक्खेवणी,
आचाराक्षेपणी, व्यवहाराक्षेपणी, निरूपण हो, २. व्यवहारआक्षेपणीववहारअक्खेवणी,
प्रज्ञप्त्याक्षेपणी, दृष्टिवादाक्षेपणी। जिसमें व्यवहार-प्रायश्चित्त का निरूपण्णत्तिअक्खेवणी,
पण है, ३. प्रज्ञप्तिआक्षेपणी-जिसमें दिद्विवातअक्खेवणी।
संशयग्रस्त श्रोता को समझाने के लिए निरूपण हो, ४. दृष्टिपातआक्षेपणीजिसमें थोता की योग्यता के अनुसार
विविध नयदृष्टियों से तत्त्व-निरूपण हो।" २४८. विक्खेवणी कहा चउब्विहा पण्णत्ता, विक्षेपणी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, २४८. विक्षेपणीकथा के चार प्रकार हैंतं जहा—ससमयं कहेइ, तद्यथा-स्वसमयं कथयति,
१. एक सम्यकदष्टि व्यक्ति-अपने ससमयं कहित्ता परसमयं कहेइ, स्वसमयंकथयित्त्वा परसमयं कथयति, । सिद्धान्त का प्रतिपादन कर फिर दूसरों परसमयं कहेत्ता ससमयं ठावइता परसमयं कथयित्वा स्वसमयं स्थापयिता
के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, भवति,
२. दूसरों के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर भवति,
फिर अपने सिद्धान्त की स्थापना करता सम्मावयं कहेइ, सम्मावायं कहेत्ता सम्यग्वादं कथयति, सम्यग्वादं कथ
है, ३. सम्यवाद का प्रतिपादन कर फिर मिच्छावायं कहेइ, यित्वा मिथ्यावादं कथयति,
मिथ्यावाद का प्रतिपादन करता है, मिच्छवायं कहेता सम्मावायं मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यगवादं ४. मिथ्यावाद का प्रतिपादन कर फिर ठावइता भवति। स्थापयिता भवति।
सम्यग्वाद की स्थापना करता है।"
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ठाणं (स्थान)
२४६. संवेयणी कहा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा
इहलोग संवेयणी, परलोगसंवेयणी, आतसरीरसंवेयणी, परसरीरसंवेयणी ।
३५१
स्थान ४ : सूत्र २४६ - २५०
संवेजनी कथा चतुविधा प्रज्ञप्ता, २४६. संवेजनी कथा के चार प्रकार हैं
तद्यथा—
१. इहलोकसंवेजनी - मनुष्य जीवन की असारता दिखाने वाली कथा, २. परलोकसंवेजनी - देव, तिर्यञ्च आदि के जन्मों की मोहमयता व दुःखमयता बताने वाली कथा, ३. आत्मशरीरसंवेजनी — अपने शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करने वाली कथा, ४. परशरीरसंवेजनी — दूसरे के शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करने वाली कथा । "
इहलोकसंवेजनी, परलोकसंवेजनी, आत्मशरीरसंवेजनी, परशरीरसंवेजनी ।
३५०. णिव्वेदणी कहा चव्विहा पण्णत्ता, निवेदनीकथा चतुर्विधा
तं जहा
तद्यथा—
प्रज्ञप्ता, २५० निवेदनी कथा के चार प्रकार हैं१. इहलोक में दुश्चीर्ण कर्म इसी लोक में दुःखमय फल देने वाले होते हैं, २. इहलोक में दुश्चीर्ण कर्म परलोक में दुःखमय फल देने वाले होते हैं, ३. परलोक में दुश्च कर्म इहलोक में दुःखमय फल देने वाले होते हैं, ४. परलोक में दुश्चीर्ण कर्म परलोक में ही दुःखमय फल देने वाले होते हैं।
१. इहलोगे दुच्चिण्णा कम्मा इह- १. इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि इहलोके लोगे दुहफल विवागसंजुत्ता भवंति, दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, २. इहलोगे दुच्चिरणा कम्मा पर- २. इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके लोगे दुफल विवागसंजुत्ता भवंति दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, ३. परलोगे दुच्चिण्णा कम्मा इह- ३. परलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि इहलोके लोगे दुफल विवागसंजुत्ता भवंति, दुःख दुःखफल विपाकसंयुक्तानि भवन्ति, ४. परलोगे दुच्चिण्णा कम्मा पर- ४. परलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके लोगे दुफल विवागसंजुत्ता भवंति । दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति । १. इहलोगे सुचिणा कम्मा इह- १. इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि इहलोके लोगे सुहफल विवागसंजुत्ता भवंति, सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, २. इहलोगे सुचिण्णा कम्मा पर- २. इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके लोगे सुहफल विवागसंजुत्ता भवंति, सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, ३. "परलोगे सुचिण्णा कम्मा इह - ३. परलोके सुचीर्णानि कर्माणि इहलोके लोगे सुहफल विवागसंजुत्ता भवंति, सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, ४. परलोगे सुचिण्णा कम्मा पर- ४. परलोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके लोगे सुहफल विवाग संजुत्ता भवंति । सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ।
१. इहलोक में सुचीर्ण कर्म इसी लोक में सुखमय फल देने वाले होते हैं, २. इहलोक में सुचीर्ण कर्म परलोक में सुखमय फल देने वाले होते हैं, ३. परलोक में सुचीर्ण कर्म इहलोक में सुखमय फल देने वाले होते हैं, ४. परलोक में सुचीर्ण कर्म परलोक में सुखमय फल देने वाले होते
हैं।
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ठाणं (स्थान)
३५२
स्थान ४ : सूत्र २५१-२५४
किस-दढ-पदं कृश-दृढ-पदम्
कृश-दृढ-पद २५१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से भी कृश होते हैं किसे णाममेगे किसे, कृशः नामकः कृशः, कृशः नामकः दृढः, और मनोबल से भी कृश होते हैं, २. कुछ किसे णाममेगे दढे, दृढः नामैकः कृशः, दृढः नामैक: दृढः ।। पुरुष शरीर से कृश होते हैं, किन्तु मनोबल दढे णाममेगे किसे,
से दृढ़ होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से दृढ़ दढे णाममेगे दढे।
होते हैं, किन्तु मनोबल से कृश होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से भी दृढ़ होते हैं
और मनोवल से भी दृढ़ होते हैं। २५२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष भावना से कृश होते हैं और किसे णाममेगे किससरीरे, कृश: नामैक: कृशशरीरः,
शरीर से भी कृश होते हैं, २. कुछ पुरुष किसे णाममेगे दढसरीरे, कृश: नामैकः दृढशरीरः,
भावना से कृश होते हैं, किन्तु शरीर से दढे णाममेगे किससरीरे, दृढः नामैक: कृशशरीरः,
दृढ़ होते हैं, ३. कुछ पुरुष भावना से दृढ़ दढे णाममेगे दढसरीरे। दृढः नामकः दृढशरीरः ।
होते हैं, किन्तु शरीर से कृश होते हैं, ४. कुछ पुरुष भावना से भी दृढ़ होते हैं
और शरीर से भी दृढ़ होते हैं। २५३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २५३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कृश शरीर वाले व्यक्तियों के ज्ञानकिससरीरस्स णाममेगस्स णाण- कृशशरीरस्य नामैकस्य ज्ञानदर्शनं दर्शन उत्पन्न होते हैं, किन्तु दृढ़ शरीर दसणे समुप्पज्जति, णो दढसरीरस्स, समुत्पद्यते, नो दृढशरीरस्य, वालों के नहीं होते, २. दृढ शरीर वाले दढसरीरस्स णाममेगस्स णाण- दृढशरीरस्य नामैकस्य ज्ञानदर्शनं । व्यक्तियों के ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते हैं, दंसणे समुप्पज्जति, समुत्पद्यते, नो कृशशरीरस्य,
किन्तु कृश शरीर वालों के नहीं होते. णो किससरीरस्स,
३. कृश शरीर वाले व्यक्तियों के भी ज्ञानएगस्सकिससरीरस्सविणाणदसणे एकस्य कृशशरीरस्यापि ज्ञानदर्शनं । दर्शन उत्पन्न होते हैं और दृढ़ शरीर वालों समुप्पज्जति, दढसरीरस्सवि, समुत्पद्यते, दृढशरीरस्यापि,
के भी होते हैं, ४. कृश शरीर वाले व्यएगस्स णो किससरीरस्सणाणदंसणे एकस्य नो कृशशरीरस्य ज्ञानदर्शनं । क्तियों के भी ज्ञान-दर्शन उत्पन्न नहीं होते समुप्पज्जति, णो दढसरीरस्स। समुत्पद्यते, नो दृढशरीरस्य ।
और दृढ़ शरीर वालों के भी नहीं होते।५३
अतिसेस-णाण-दसण-पदं अतिशेष-ज्ञान-दर्शन-पदम्
अतिशेष-ज्ञान-दर्शन-पद २५४. चहि ठाहिं णिग्गंथाण वा चतुभिः स्थानकैः निर्ग्रन्थानां वा २५४. चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों
णिग्गंथीण वा अस्सि समयंसि निर्ग्रन्थीनां वा अस्मिन समये अतिशेषं के अतिशायी ज्ञान और दर्शन तत्काल
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ठाणं (स्थान)
अतिसेसे पाणदंसणे समुप्पज्जि- ज्ञानदर्शनं समुत्पत्तुकाममपि न समुत्पद्येत, उकामेवि ण समुप्पज्जेज्जा, तं तद्यथा
स्थान ४ : सूत्र २५५ उत्पन्न होते-होते रुक जाते हैं
करते,
१. अभिक्खणं-अभिक्खणं इथिकहं १. अभीक्ष्णं-अभीक्ष्णं स्त्रीकथां भक्त- १. जो बार-बार स्त्री-कथा, देश-कथा, भत्तकह देसकहं रायकहं कहेत्ता कथां देशकथां राजकथां कथयिता भक्त-कथा और राज-कथा करते हैं, भवति, भवति,
२. जो विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा २. विवेगेण विउस्सग्गेणं णो २. विवेकेन व्युत्सर्गेण नो सम्यक्- आत्मा को सम्यक् प्रकार से भावित नहीं सम्ममप्पाणं भाविता भवति, आत्मानं भावयिता भवति, ३. पव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि णो ३. पर्वरात्रापरात्रकालसमये नो धर्म- ३. जो रात के पहले और पिछले भाग धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति, जागरिकां जागरिता भवति,
में धर्म जागरण नहीं करते, ४. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स ४. स्पर्गुकस्य एषणीयस्स उञ्छस्य ४. जो स्पर्शक [वांछनीय] एषणीय और सामुदाणियस्स णो सम्मं गवेसित्ता सामुदानिकस्य नो सम्यग् गवेषयिता उञ्छ५६ सामुदानिक भक्ष की सम्यक भवतिभवति
प्रकार से गवेषणा नहीं करतेइच्चेतेहि चउहि ठाणेहि णिग्गंथाण इति एतैः चतुभिः स्थानः निर्ग्रन्थानां वा । इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों वा णिग्गंथीण वा अस्सि समयंसि निर्ग्रन्थीनां वा अस्मिन् समये अतिशेषं । के अतिशायी ज्ञान और दर्शन तत्काल अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जि- ज्ञानदर्शनं समुत्पत्तुकाममपि नो उत्पन्न होते-होते रुक जाते हैं।
उकामेवि णो समुप्पज्जेज्जा। समुत्पद्येत । २५५. चहि ठाणेहि णिग्गंथाण वा चतुभिः स्थानः निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां २५५. चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों
णिग्गंथीण वा [अस्सि समयंसि?] वा (अस्मिन् समये ?) अतिशेष के तत्काल उत्पन्न होने वाले अतिशायी अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जिउ- ज्ञानदर्शनं समुत्पत्तु कामं समुत्पद्येत, ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हो जाते हैंकामे समुप्पज्जेज्जा, तं जहा- तद्यथा१. इत्थिकहं भक्तकहं देसकहं १. स्त्रीकथां भक्तकयां देशकथां राज- १. जो स्त्रीकथा, देशकथा, भक्तकथा और रायकहं णो कहेत्ता भवति, कथां नो कथयिता भवति,
राजकथा नहीं करते, २. विवेगेण विउस्सगेणं सम्म- २. विवेकेन व्युत्सर्गेण सम्यगआत्मानं २. जो विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा आत्मा मप्पाणं भावेत्ता भवति, भावयिता भवति,
को सम्यक् प्रकार से भावित करते हैं, ३. पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि ३. पूर्वरात्रापरात्रकालसमये धर्मजाग- ३. जो रात के पहले और पिछले भाग में धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति, रिका जागरिता भवति,
धर्म जागरण करते हैं, ४. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स ४. स्पर्शकस्य एषणीयस्स उञ्छस्य ४. जो स्पर्शक, एषणीय और उञ्छ सामुदाणियस्स सम्मं गवेसित्ता सामुदानिकस्य सम्यग् गवेषयिता सामुदानिक मैक्ष की सम्यक् प्रकार से भवति
गवेषणा करते हैंइच्चेतेहि चहि ठाणेहि णिग्गं- इति एतैः चतुभि स्थानः निर्ग्रन्थानां इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों थाण वा णिग्गंथीण वा' [अस्सि वा निर्ग्रन्थीनां वा (अस्मिन् समये ?) के तत्काल उत्पन्न होने वाले अतिशायी समयंसि ? | अतिसेसे णाणदंसणे अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पत्त कामं ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हो जाते हैं। समुप्पज्जिउकामे समुप्पज्जेज्जा। समुत्पद्येत।
भवति
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र २५६-२५६
सज्झाय-पदं स्वाध्याय-पदम्
स्वाध्याय-पद २५६. णो कप्पति णिग्गंथाण वा नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा २५६. चार महाप्रतिपदाओं--पक्ष की प्रथम
णिग्गंथीण वा वहिं महापाडि- चतसृषु महाप्रतिपत्सु स्वाध्यायं कत्तु, तिथियों में निम्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को वह सज्झायं करेत्तए, तं जहा- तद्यथा
आगम का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए
१. आषाढप्रतिप्रदा--आपाढी पूर्णिमा के आसाढपाडिवए, इंदमहपाडिवए, आषाढप्रतिपदि, इन्द्र महःप्रतिपदि, कत्तियपाडिवए,सगिम्हगपाडिवए। कात्तिकप्रतिपदि, सुग्रीष्मकप्रतिपदि। बाद की तिथि, सावन का प्रथम दिन,
२. इन्द्रमहप्रतिपदा-आश्विन पूर्णिमा के बाद की तिथि, कार्तिक का प्रथम दिन, ३. कातिक प्रतिपदा-कार्तिक पूर्णिमा के बाद की तिथि, मृगसर का प्रथम दिन, ४. सुग्रीष्म प्रतिपदा-चैत्री पूर्णिमा के
बाद की तिथि, बैसाख का प्रथम दिन । २५७. णो कप्पड णिग्गंथाण वा णिग्गं- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा २५७. निग्रंन्ध और निग्रन्थियों को चार संध्याओं
में आगम का स्वाध्याय नहीं करना थीण वा चहि संझाहिं सज्झायं चतसृषु संध्यासु स्वाध्यायं कत्तु, करेत्तए, तं जहा
चाहिएतद्यथापढमाए पच्छिमाए मज्झण्हे प्रथमायां पश्चिमायां मध्याह्ने
१. प्रथम सन्ध्या -सूर्योदय से पूर्व, अड्डरते। अर्धरात्र।
२. पश्चिम सन्ध्या-सूर्यास्त के पश्चात्,
३. मध्यान्ह सन्ध्या, ४. अर्धरात्री सन्ध्या। २५८. कप्पइणिग्गंथाण वा णिग्गंथीण कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा २५८.
२५८. निर्ग्रन्थ और निग्रंथियों को चार कालों वा चउक्कालं सज्झायं करेत्तए, चतुष्कालं स्वाध्यायं कत्तु , तद्यथा
में आगम का स्वाध्याय करना चाहिए
१. पूर्वाह्न में-दिन के प्रथम प्रहर में, तं जहा
पूर्वाह्न, अपराह्न, प्रदोषे, प्रत्यूषे । पुन्वण्हे अवरण्हे पओसे पच्चूसे।
२. अपराह्न में-दिन के अन्तिम प्रहर में, ३. प्रदोष में-रात्री के प्रथम प्रहर में, ४. प्रत्यूष में-रात्रि के अन्तिम प्रहर
लोगट्ठिति-पदं लोकस्थिति-पदम्
लोकस्थिति-पद २५६. चउब्विहा लोगद्विती पण्णता, तं चतुर्विधा लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता, २५९. लोकस्थिति चार प्रकार की हैजहा—आगासपतिट्ठिए वाते, तद्यथा-आकाशप्रतिष्ठितो वातः,
१. वायु आकाश पर प्रतिष्ठित है, वातपतिट्टिए उदधी, वातप्रतिष्ठितः उदधिः,
२. उदधि वायु पर प्रतिष्ठित है, उदधिपतिट्ठिया पुढवी, उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी,
३. पृथ्वी समुद्र पर प्रतिष्ठित है, पुढविपतिट्ठिया तसा थावरा पृथिवीप्रतिष्ठिता प्रसाः स्थावराः
४. वस और स्थावर प्राणी पृथ्वी पर पाणा। प्राणाः।
प्रतिष्ठित हैं।
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ठाणं (स्थान)
३५५
स्थान ४ : सूत्र २६०-२६३
पुरिस-भेद-पदं पुरुष-भेद-पदम्
पुरुष-भेद-पद २६०. चत्तारि पुरिसजाया पप्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा. तद्यथा
१. तथा-आदेश को मानकर चलने वाला, तहे णाममेगे, णोतहे णाममेगे, तथा नामैकः, नोतथो नामकः, २. नो तथ-अपनी स्वतन्त्र भावना से सोवत्थी णाममेगे, पधाणे णाममेगे। सौवस्तिको नामैक:, प्रधानो नामकः । चलने वाला, ३. सौवस्तिक-मंगल पाठक,
४. प्रधान-स्वामी।
आय-पर-पदं आत्म-पर-पदम्
आत्म-पर-पद २६१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष अपना अंत करते हैं, किन्तु आयंतकरे णाममेगे, णो परंतकरे, आत्मान्तकरः नामैकः, नो परान्तकरः, दूसरे का अंत नहीं करते, २. कुछ पुरुष परंतकरे णाममेगे, णो आयंतकरे, परान्तकरः नामकः, नो आत्मान्तकरः, दूसरे का अंत करते हैं, किन्तु अपना अंत एगे आयंतकरेवि, परंतकरेवि, एकः आत्मान्तकरोऽपि, परान्तकरोऽपि, नहीं करते, ३. कुछ पुरुष अपना भी अंत एगे णो आयंतकरे, णो परंतकरे। एकः नो आत्मान्तकरः, नो परान्तकरः। करते हैं और दूसरे का भी अंत करते हैं,
४. कुछ पुरुष न अपना अंत करते हैं और
न किसी दूसरे का अंत करते हैं। २६२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष अपने-आप को खिन्न करते हैं आयंतमे णाममेगे, णो परंतमे, आत्मतमः नामकः, नो परतमः, किन्तु दूसरे को खिन्न नहीं करते, २. कुछ परंतमे णाममेगे, णो आयंतमे, परतमः नामकः, नो आत्मतमः, पुरुष दूसरे को खिन्न करते हैं, किन्तु अपनेएगे आयंतमेवि, परंतमेवि, एकः आत्मतमोऽपि, परतमोऽपि, आप को खिन्न नहीं करते, ३. कुछ पुरुप एगे णो आयंतमे, णो परंतमे। एकः नो आत्मतमः, नो परतमः । अपने-आप को भी खिन्न करते हैं और
दूसरे को भी खिन्न करते हैं, ४. कुछ पुरुष न अपने को खिन्न करते हैं और न किसी
दूसरे को खिन्न करते हैं। २६३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २६३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष अपना दमन करते हैं, किन्तु आयंदमे णाममेगे, णो परंदमे, आत्मदमो नामैकः, नो परदमः, दूसरे का दमन नहीं करते, २. कुछ पुरुष परंदमे णाममेगे, णो आयंदमे, परदमो नामैकः, नो आत्मदमः, दूसरे का दमन करते हैं, किन्तु अपना दमन एगे आयंदमेवि, परंदमेवि, एक: आत्मदमोऽपि, परदमोऽपि, नहीं करते, ३. कुछ पुरुष अपना भी दमन एगे णो आयंदमे, णो परंदमे । एक: नो आत्मदमः, नो परदमः । करते हैं और दूसरे का भी दमन करते हैं,
४. कुछ पुरुष न अपना दमन करते हैं और न किसी दूसरे का दमन करते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३५६
स्थान ४ : सूत्र २६४-२६६
गरहा-पदं
गर्हा-पदम् २६४. चउन्विहा गरहा पण्णत्ता, तं चतुर्विधा गर्दा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- जहा
उवसंपद्ये इत्येका गर्दा, उवसंपज्जामित्तेगा गरहा, विचिकित्सामीत्येका गर्दा, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा, यत्किञ्चिदिच्छामीत्येका गर्दा, जंकिंचिमिच्छामित्तेगा गरहा, एवमपि प्रज्ञप्तका गरे । एवंपि पण्णत्तेगा गरहा।
गर्हा-पद २६४. गर्दा चार प्रकार की होती है
१. अपने दोष का निवेदन करने के लिए गुरु के पास जाऊं, इस प्रकार का विचार करना, २. अपने दोषों का प्रतिकार करूं उस प्रकार का विचार करना, ३. जो कुछ दोषाचरण किया वह मेरा कार्य मिथ्या हो-निष्फल हो, इस प्रकार कहना, ४. अपने दोष की गर्दा करने से भी उसकी शुद्धि होती है- ऐसा भगवान् ने कहा है इस प्रकार का चिन्तन करना।
अलमंथु-पदं अलमस्तु-पदम्
अलमस्तु-पद २६५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, २६५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष अपना निग्रह करने में समर्थ अप्पणो णाममेगे अलमंथू भवति, आत्मनः नामैक: अलमस्तु भवति, नो होते हैं, किन्तु दूसरे का निग्रह करने में जो परस्स, परस्य,
समर्थ नहीं होते, २. कुछ पुरुष दूसरे का परस्स णाममेगे अलमंथू भवति, परस्य नामैक: अलमस्तु भवति, नो निग्रह करने में समर्थ होते हैं, किन्तु अपना णो अप्पणो, आत्मनः,
निग्रह करने में नहीं, ३. कुछ पुरुष अपना एगे अप्पणोवि अलमंथू भवति, एक: आत्मनोऽपि अलमस्तु भवति, भी निग्रह करने में समर्थ होते हैं और परस्सवि, परस्यापि,
दूसरे का भी निग्रह करने में समर्थ होते हैं, एगे णो अप्पणो अलमंथू भवति, एकः नो आत्मनः अलमस्तु भवति, ४. कुछ पुरुष न अपना निग्रह करने में णो परस्स। नो परस्य।
समर्थ होते हैं और न दूसरे का निग्रह करने में समर्थ होते हैं।
उज्जु-वंक-पदं ऋजु-वक्र-पदम्
ऋजु-वक्र-पद २६६. चत्तारि मग्गा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः मार्गाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- २६६. मार्ग चार प्रकार के होते हैंउज्जू णाममेगे उज्जू, ऋजुः नामैकः ऋजुः,
१. कुछ मार्ग ऋजु लगते हैं और ऋजु ही उज्जू णाममेगे वंके, ऋजुः नामैक: वक्र:,
होते हैं, २. कुछ मार्ग ऋजु लगते हैं, किन्तु वंके णाममेगे उज्जू, वक्र: नामैकः ऋजः,
वास्तव में वक्र होते हैं, ३. कुछ मार्ग वक्र वंके णाममेगे वंके। वक्र: नामैक: वक्र: ।
लगते हैं, किन्तु वास्तव में ऋजु होते हैं, ४. कुछ मार्ग वक्र लगते हैं और वक्र हो होते हैं।
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स्थान ४: सूत्र २६७-२६५
ठाणं (स्थान)
३५७ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा.
तद्यथाउज्जू णाममेगे उज्जू,
ऋजुः नामैकः ऋजुः, उज्ज णाममेगे वंके,
ऋजुः नामैक: वक्र:, वंके णाममेगे उज्ज, वक्रः नामैक: ऋजुः, वंके णाममेगे के। वक्र: नामैक: वक्रः ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-१. कुछ पुरुष ऋजु लगते हैं और ऋजु ही होते हैं, २. कुछ पुरुष ऋजु लगते हैं, किन्तु वास्तव में वक्र होते हैं, ३. कुछ पुरुष वक्र लगते हैं, किन्तु वास्तव में ऋजु होते हैं, ४. कुछ पुरुष वक्र लगते हैं और वक्र ही होते हैं।
खेम-अखेम-पदं क्षेम-अक्षेम-पदम्
क्षेम-अक्षेम-पद २६७. चत्तारि मग्गा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः मागो: प्रज्ञप्ताः, तदयथा- २६७. मार्ग चार प्रकार का होता हैखेमे णाममेगे खेमे, क्षेमः नामक: क्षेमः,
१. कुछ मार्ग आदि में भी क्षेम [निरुपखेमे णाममेगे अखेमे, क्षेमः नामैक: अक्षेमः,
द्रव होते हैं और अन्त में भी क्षेम होते अखेमे णाममेगे खेमे, अक्षेम: नामैक: क्षेम,
हैं, २. कुछ मार्ग आदि में क्षेम होते हैं, अखेमे णाममेगे अखेमे। अक्षेमः नामैकः अक्षेमः।
किन्तु अन्त में अक्षम होते हैं, ३. कुछ मार्ग आदि में अक्षेम होते हैं और अन्त में क्षेम होते हैं, ४. कुछ मार्ग न आदि में
क्षेम होते हैं और न अन्त में क्षेम होते है। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष आदि में भी क्षेम होते खेमे णाममेगे खेमे, क्षेम: नामकः क्षेमः,
हैं और अन्त में भी क्षेम होते हैं, २. कुछ खेमे णाममेगे अखमे, क्षेमः नामैक: अक्षेमः,
पुरुष आदि में क्षेम होते हैं, किन्तु अन्त में अखेमे णाममेगे खेमे, अक्षेमः नामकः क्षेमः,
अक्षेम होते हैं, ३. कुछ पुरुष आदि में अखेमे णाममेगे अखेमे। अक्षेमः नामैक: अक्षेमः।
अक्षेम होते हैं, किन्तु अन्त क्षेम होते हैं, ४. कुछ पुरुष न आदि में क्षेम होते हैं और
न अन्त में क्षेम होते हैं। २६८. चत्तारि मग्गा पण्णता, तं जहा- चत्वार: मार्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २६८. मार्ग चार प्रकार का होता है-- खेमे णाममेगे खेमरूवे, क्षेमः नामैकः क्षेमरूपः,
१. कुछ मार्ग क्षेम और क्षेम रूप वाले होते खेमे णाममेगे अमरूवे, क्षेमः नामैक: अक्षेमरूपः,
हैं, २. कुछ मार्ग क्षेम और अक्षेम रूप अखेमे णाममेगे खेमरूवे, अक्षेमः नामैकः क्षेमरूपः,
वाले होते हैं, ३. कुछ मार्ग अक्षेम और अखेमे णाममेगे अखेमरूवे। अक्षेमः नामैक: अक्षेमरूपः ।
क्षेम रूप वाले होते हैं । ४. कुछ मार्ग
अक्षेम और अक्षेम रूप वाले होते हैं। एवामेव चत्तारि 'पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष क्षेम और क्षेम रूप खमे णाममेगे खेमरूवे, क्षेम: नामैक: क्षेमरूपः,
वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष क्षेम और
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स्थान ४ : सूत्र २६६-२७०
ठाणं (स्थान)
खेमे णाममेगे अखेमरूवे, अखेमे णाममेगे खेमरूवे, अखेमे णाममेगे अखेमरूवे।
क्षेम: नामैक: अक्षेमरूपः, अक्षेमः नामैक: क्षेमरूपः, अक्षेम: नामकः अक्षेमरूपः ।।
अक्षेम रूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अक्षेम और क्षेम रूप बाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अक्षेम और अक्षम रूप वाले होते हैं।
वाम-दाहिण-पदं वाम-दक्षिण-पदम्
वाम-दक्षिण-पद २६६. चत्तारि संवुक्का पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः शम्बूकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २६९. शंख चार प्रकार के होते हैं - वामे णाममेगे वामावत्ते, वामः नामकः वामावर्तः,
१. कुछ शंख वाम [टेढे ] और वामावर्त वामे णाममेगे दाहिणावत्ते, वामः नामैक: दक्षिणावर्तः,
[बाईं ओर घुमाव वाले होते हैं, २. कुछ दाहिणे णाममेगे वामावत्ते, दक्षिणः नामैक: वामावर्तः,
शंख वाम और दक्षिणावर्त [दाई ओर दाहिणे णाममेगे दाहिणावत्ते। दक्षिणः नामैक: दक्षिणावर्तः ।
घुमाव वाले होते हैं, ३. कुछ शख दक्षिण [सीधे] और वामावर्त होते हैं, ४. कुछ
शंख दक्षिण और दक्षिणावर्त होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष बाम और वामावर्त वामे णाममेगे वामावत्ते, वामः नामैक: वामावर्तः,
होते हैं-स्वभाव से भी वक्र होते हैं और वामे णाममेगे दाहिणावत्ते, वामः नामकः दक्षिणावर्तः,
प्रवृत्ति से भी वक्र होते हैं, २. कुछ पुरुष दाहिणे णाममेगे वामावत्ते, दक्षिणः नामकः वामावर्तः,
वाम और दक्षिणावर्त होते हैं स्वभाव दाहिणे णाममेगे दाहिणावत्ते। दक्षिणः नामैक: दक्षिणावर्तः ।
से वक्र होते हैं, किन्तु कारणवश प्रवृत्ति में सरल होते हैं, ३. कुछ पुरुष दक्षिण और दक्षिणावर्त होते हैं-स्वभाव से भी सरल होते हैं और प्रवृत्ति से भी सरल होते हैं, ४. कुछ पुरुष दक्षिण और वामावर्त होते हैं-स्वभाव से सरल होते हैं किन्तु
कारणवश प्रवृत्ति में वक्र होते हैं। २७०. चत्तारि धूमसिहाओ पण्णत्ताओ, चतस्रः धूमशिखाः प्रज्ञप्ताः, २७०. धूम-शिखा चार प्रकार की होती हैंतं जहातद्यथा
१. कुछ धूमशिखा वाम और वामावर्त वामा णाममेगा वामावत्ता, वामा नामैका वामावर्ता,
होती हैं, २. कुछ धूमशिखा वाम और वामा णाममेगा दाहिणावत्ता, वामा नामैका दक्षिणावर्ता,
दक्षिणावर्त होती हैं, ३. कुछ धूमशिखा दाहिणा णाममेगा वामावत्ता, दक्षिणा नामका वामावर्ता,
दक्षिण और दक्षिणावर्त होती हैं, ४. कुछ दाहिणा णाममेगा दाहिणावत्ता। दक्षिणा नामका दक्षिणावर्ता ।
धूमशिखा दक्षिण और वामावर्त होती हैं। एवामेव चत्तारि इत्थीओ एवमेव चतस्रः स्त्रियः प्रज्ञप्ताः, इसी प्रकार स्त्रियां भी चार प्रकार की पण्णत्ताओ, तं जहा. तद्यथा
होती हैं.-१. कुछ स्त्रियां बाम और वामा णाममेगा वामावत्ता, वामा नामका वामावर्ता, वामावर्त होती हैं, २. कुछ स्त्रियां वाम
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ठाणं (स्थान)
वामा णाममेगा दाहिणावत्ता, दाहिणा णाममेगा वामावत्ता, दाहिणा णाममेगा दाहिणावत्ता । २७१. चत्तारि अग्गिसिहाओ पण्णत्ताओ,
तं जहावामा णाममेगा वामावत्ता, वामा णाममेगा दाहिणावत्ता, दाहिणा णाममेगा वामावत्ता, दाहिणा णाममेगा दाहिणावत्ता । एवामेव चत्तारि इत्थओ पण्णत्ताओ, तं जहा
वामा णाममेगा वामावत्ता,
वामा णाममेगा दाहिणावत्ता, दाहिणा णाममेगा वामावत्ता, दाहिणा णाममेगा दाहिणावत्ता । २७२. चत्तारि वायमंडलिया पण्णत्ता, तं
जहा - वामा
णाममेगा वामावत्ता, वामा णाममेगा दाहिणावत्ता, दाहिणा णाममेगा वामावत्ता, दाहिणा णाममेगा दाहिणावत्ता ।
वामा णाममेगा वामावत्ता, वामा णाममेगा दाहिणावत्ता, दाहिणा णाममेगा वामावत्ता, दाहिणा णाममेगा दाहिणावत्ता । २७३. चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं
जहा -
वामे णाममेगे वामावत्ते, वामे णाममेगे दाहिणवत्ते, दाहिणे णाममेगे वामावत्ते, दाहिणे णाममेगे दाहिणावत्ते ।
३५६
वामा नामका दक्षिणावर्ता, दक्षिणा नामैका वामावर्ता, दक्षिणा नामैका दक्षिणावर्ता 1 चतस्रः अग्निशिखाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
वामा नामैका वामावर्ता, वामा नामैका दक्षिणावर्ता, दक्षिणा नामैका वामावर्ता, दक्षिणा नामैका दक्षिणावर्ता । एवमेव चतस्रः स्त्रियः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा—
एवामेव चत्तारि इत्थीओ एवमेव चतस्रः पण्णत्ताओ, तं जहा -
तद्यथा
वामा नामका वामावर्ता, वामा नामैका दक्षिणावर्ता, दक्षिणा नामैका वामावर्ता, दक्षिणा नामैका दक्षिणावर्ता । चतस्रः
तद्यथा
वामा नामैका वामावर्ता, वामा नामैका दक्षिणावर्ता, दक्षिणा नामैका वामावर्ता, दक्षिणा नामका दक्षिणावर्ता ।
वातमण्डलिकाः प्रज्ञप्ताः,
स्त्रियः प्रज्ञप्ताः,
वामा नामैका वामावर्ता, वामा नामैका दक्षिणावर्ता, दक्षिणा नामैका वामावर्ता, दक्षिणा नामैका दक्षिणावर्ता । चत्वारि वनषण्डानि प्रज्ञप्तानि
तद्यथा
वामं नामैकं वामावर्त, वामं नामैकं दक्षिणावर्त, दक्षिणं नामैकं वामावर्त, दक्षिणं नामैकं दक्षिणावर्तम् ।
स्थान ४ : सूत्र २७१-२७३ और दक्षिणावर्त होती हैं, ३. कुछ स्त्रियां दक्षिण और दक्षिणावर्त होती हैं, ४. कुछ स्त्रियां दक्षिण और वामावर्त होती हैं। " २७१. अग्निशिखा चार प्रकार की होती हैं
१. कुछ अग्निशिखा वाम और वामावर्त होती हैं, २. कुछ अग्निशिखा वाम और दक्षिणावर्त होती हैं, ३. कुछ अग्निशिखा दक्षिण और दक्षिणावर्त होती हैं, ४. कुछ अग्निशिखा दक्षिण और वामावर्त होती हैं । इसी प्रकार स्त्रियां भी चार प्रकार की होती हैं- १. कुछ स्त्रियां वाम और वामावर्त होती हैं, २. कुछ स्त्रियां वाम और दक्षिणावर्त होती हैं, ३. कुछ स्त्रियां दक्षिण और दक्षिणावर्त होती हैं, ४. कुछ स्त्रियां दक्षिण और वामावर्त होती हैं।" २७२. वातमंडलिका चार प्रकार की होती हैं
१. कुछ वातमंडलिका वाम और वामावर्त होती हैं, २. कुछ वातमंडलिका वाम और दक्षिणावर्त होती हैं, ३. कुछ वात मंडलिका दणिण और दक्षिणावर्त होती हैं। ४. कुछ वात मंडलिका दक्षिण और वामावर्त होती हैं।
इसी प्रकार स्त्रियां भी चार प्रकार की होती हैं - १. कुछ स्त्रियां वाम और वामावतं होती हैं, २. कुछ स्त्रियां वाम और दक्षिणावर्त होती हैं, ३. कुछ स्त्रियां दक्षिण और दक्षिणावर्त होती हैं, ४. कुछ स्त्रियां दक्षिण और वामावर्त होती हैं।" २७३. वनपण्ड [ उद्यान ] चार प्रकार के होते
हैं - १. कुछ वनषण्ड वाम और वामावर्त होते हैं, २. कुछ वनपण्ड वाम और दक्षिणावर्त होते हैं, ३. कुछ वनपण्ड दक्षिण और दक्षिणावर्त होते हैं, ४. कुछ वनपण्ड दक्षिण और वामावर्त होते हैं।
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स्थान ४ : सूत्र २७४-२७७
ठाणं (स्थान)
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, । पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथावामे णाममेगे वामावत्ते, वामः नामक: वामावर्तः वामे णाममेगे दाहिणावत्ते, वामः नामैक: दक्षिणावर्तः, दाहिणे णाममेगे वामावत्ते, दक्षिणः नामकः वामावर्तः, दाहिणे णाममेगे दाहिणावत्ते। दक्षिणः नामकः दक्षिणावर्तः ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-१. कुछ पुरुष वाम और वामावर्त होते हैं, २. कुछ पुरुष वाम और दक्षिणावर्त होते हैं, ३. कुछ पुरुष दक्षिण और दक्षिणावर्त होते हैं, ४. कुछ पुरुष दक्षिण और वामावर्त होते हैं।
णिग्गंथ-णिग्गंथी-पदं निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी-पदम्
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी-पद २७४. चउहि ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गंथि चतुभिः स्थानः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थी २७४. निर्ग्रन्थ चार कारणों से निर्ग्रन्थी के साथ
आलवमाणे वा संलवमाणे वा आलपन् वा संलपन् वा नातिकामति, आलाप-संलाप करता हुआ आचार का णातिक्कमंति, तं जहा- तद्यथा
अतिक्रमण नहीं करता१. पंथं पुच्छमाणे वा, १. पन्थानं पृच्छन् वा,
१. मार्ग पूछता हुआ, २. मार्ग बताता हुआ, २. पंथं देसमाणे वा, २. पन्थानं देशयन् वा,
३. अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य देता ३. असणं वा पाणं वा खाइम वा ३. अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं हुआ, ४. गृहस्थों के घर से अशन, पान, साइमं वा दलेमाणे वा, वा ददत् वा,
खाद्य और स्वाद्य दिलाता हुआ। ४. असणं वा पाणं वा खाइमं वा ४. अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं साइमं वा दलावेमाणे वा। वा दापयन् वा।
तमुक्काय-पदं तमस्काय-पदम्
तमस्काय-पद २७५. तमुक्कायस्स णं चत्तारि णामधेज्जा तमस्कायस्य चत्वारि नामधेयानि २७५. तमस्काय के चार नाम हैंपण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. तम, २. तमस्काय, ३. अंधकार, तमेति वा, तमुक्कातेति वा, तमइति वा, तमस्कायइति वा, ४. महाअंधकार।" अंधकारेति वा, महंधकारेति वा। अन्धकारभिति वा,महान्धकारमिति वा ।
२७६. तमुक्कायस्स णं चत्तारि णाम- तमस्कायस्य चत्वारि नामधेयानि २७६. तमस्काय के चार नाम हैंधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा.- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. लोकांधकार, २. लोकतमस, लोगंधगारेति वा, लोगतमसेति वा, लोकान्धकारमिति वा,लोकतमइति वा, ३. देवांधकार, ४. देवतमस।
देवंधगारेति वा, देवतमसेति वा। देवान्धकारमिति वा, देवतमइति वा। २७७. तमुक्कायस्स णं चत्तारि णाम- तमस्कायस्य चत्वारि नामधेयानि २७७. तमस्काय के चार नाम हैंधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. वातपरिघ, २. वातपरिपक्षोभ, वातफलिहेति वा, वातपरिघइति वा,
३. देवारण्य, ४. देवव्यूह। वातफलिहखोभेति वा, वातपरिपक्षोभइति वा, देवरण्णेति वा, देववूहेति वा। देवारण्यमिति वा,देवव्यूहइति वा ।
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ठाणं (स्थान)
३६१
स्थान ४: सूत्र २७८-२८० २७८. तमुक्काते णं चत्तारि कप्पे तमस्कायः चतुरः कल्पान् आवृत्य २७८. तमस्काय चार कल्पों को आवृत किए हुए आवरित्ता चिट्ठति, तं जहा- तिष्ठति, तद्यथा
हैं-१. सौधर्म, २. ईशान, सोधम्मीसाणं सणंकुमार-माहिंदं। सौधर्मेशानौ सनत्कुमार-माहेन्द्रौ । ३. सनत्कुमार, ४. माहेन्द्र।
दोस-पदं दोष-पदम्
दोष-पद २७६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, २७६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. प्रगट में दोष सेवन करने वाला, संपागडपडिसेवी णाममेगे, संप्रकटप्रतिषेवी नामैकः,
२. छिपकर दोष सेवन करने वाला, पच्छण्णपडिसेवी णाममेगे, प्रच्छन्नप्रतिषेवी नामकः,
३. इष्ट वस्तु की उपलब्धि होने पर पडुप्पण्णणंदी णाममेगे, प्रत्युत्पन्ननन्दी नामैकः,
आनन्द मनाने वाला, ४. दूसरों के चले णिस्सरणणंदी णाममेगे। निःसरणनन्दी नामकः ।
जाने पर आनन्द मनाने वाला अथवा अकेले में आनन्द मनाने वाला।
जय-पराजय-पदं जय-पराजय-पदम्
जय-पराजय-पद २८०. चत्तारि सेणाओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः सेनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २८०. सेना चार प्रकार की होती हैजहा
१. कुछ सेनाएं विजय करती हैं, किन्तु जइत्ता णाममेगा, णो पराजिणित्ता, जेत्री नामैका, नो पराजेत्री, पराजित नहीं होती, २. कुछ सेनाएं परापराजिणित्ता णाममेगा, णो जइत्ता, पराजेत्री नामैका, नो जेत्री,
जित होती हैं, किन्तु विजय नहीं पातीं, एगा जइत्तावि, पराजिणित्तावि, एका जेत्र्यपि, पराजेयपि,
३. कुछ सेनाएं कभी विजय करती हैं और एगाणो जइत्ता, णो पराजिणित्ता। एका नो जेत्री, नो पराजेत्री। कभी पराजित हो जाती हैं, ४. कुछ सेनाएं
न विजय ही करती हैं और न पराजित ही
होती हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा- तद्यथा...
हैं--१. कुछ पुरुष [कष्टों पर विजय जइत्ता णाममेगे, णो पराजिणित्ता, जेता नामैकः, नो पराजेता,
पाते हैं पर [उनसे] पराजित नहीं होतेपराजिणित्ता णाममेगे, णो जइत्ता, पराजेता नामकः, नो जेता, जैसे श्रमण भगवान् महावीर, २. कुछ एगे जइत्तावि, पराजिणित्तावि, एक: जेतापि, पराजेतापि,
पुरुष [कष्टों से पराजित होते हैं पर एगे णो जइत्ता, णो पराजिणित्ता। एक: नो जेता, नो पराजेता। [उनसे] विजय नहीं पाते-जैसे कुण्ड
रीक, ३. कुछ पुरुष [कष्टों पर] कभी विजय पाते हैं कौर कभी उनसे पराजित हो जाते हैं-जैसे शैलक राजर्षि, ४. कुछ पुरुष न [कष्टों पर] विजय ही पाते है और न [उनसे] पराजित ही होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३६२
स्थान ४ : सूत्र २८१-२८२
२८१. चत्तारि सेणाओ पण्णत्ताओ, तं चतन्त्रः सेनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २८१. सेना चार की प्रकार होती हैंजहाजित्वा नामैका जयति,
१. कुछ सेनाएं जीतकर जीतती हैं, जइत्ता णाममेगा जयइ, जित्वा नामैका पराजयते,
२. कुछ सेनाएं जीतकर भी पराजित होती जइत्ता णाममेगा पराजिणति, पराजित्य नामैका जयति,
हैं, ३. कुछ सेनाएं पराजित होकर भी पराजिणित्ता णाममेगा जयइ, पराजित्य नामैका पराजयते।
जीतती हैं, ४. कुछ सेनाएं पराजित होकर पराजिणित्ता णाममेगा पराजिणति।
पराजित होती हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि. इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा... तद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष जीतकर जीतते हैं, जइत्ता णाममेगे जयति, जित्वा नामैक: जयति,
२. कुछ पुरुष जीतकर भी पराजित होते जइत्ता णाममेगे पराजिणति, जित्वा नामैक: पराजयते,
हैं, ३. कुछ पुरुष पराजित होकर भी पराजिणित्ता णाममेगे जयति, पराजित्य नामैक: जयति,
जीतते हैं, ४. कुछ पुरुष पराजित होकर पराजिणित्ता णाममेगे पराजिणति। पराजित्य नामकः पराजयते ।
पराजित होते हैं।
माया-पदं माया-पदम्
माया-पद २८२. चत्तारि केतणा पण्णता, तं जहा- चत्वारि केतनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २८२. केतन [वक्र] चार प्रकार का होता है
वंसीमूलकेतणए, मेंढविसाणकेतणए, वंशीमूलकेतनकं, मेढ़विषाणकेतनकं, १. वशीमूल-बांस की जड़, २. मेषगोमुत्तिकेतणए, गोमूत्रिकाकेतनक,
विषाण-मेंढे का सींग, ३. गोमूत्रिकाअवलेहणियकेतणए। अवलेखनिकाकेतनकम्।
चलते बैल के मूत्र की धार, ४.अवलेखनिका
छिलते हुए बांस आदि की पतली छाल। एवामेव चउविधा माया पण्णत्ता, एवमेव चतुर्विधा माया प्रज्ञप्ता, इसी प्रकार माया भी चार प्रकार की होती तं जहातद्यथा
है-१. वंशीमूल के समान-अनन्तानुवसीमूलकेतणासमाणा, वंशीमूलकेतनसमाना,
बन्धी, २. मेषविषाण के समान-अप्रत्या'मेंढविसाणकेतणासमाणा, मेढविषाणकेतनसमाना,
ख्यानाबरण, ३. गो-मूत्रिका के समानगोमुत्तिकेतणासमाणा, गोमूत्रिकाकेतनसमाना,
प्रत्याख्यानावरण, ४. अवलेखनिका के अवलेहणियकेतणासमाणा। अवलेखनिकाकेतनसमाना।
समान-संज्वलन। १. वंसीमलकेतणासमाणं माय- १. वंशीमुलकेतनसमानां मायां अन- १. वंशीमूल के समान माया में प्रवर्तमान मणपवि जीवे कालं करेति. प्रविष्ट: जीवः कालं करोति. नैरयिकेप जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता है,
रइएसु उववज्जति, उपपद्यते, २. मेंढविसाणकेतणासमाणं माय- २. मेढ़विषाणकेतनसमानां मायां २. मेध-विषाण के समान माया में प्रवर्तमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, अनुप्रविष्ट: जीवः कालं करोति, तिर्यग्- मान जीव मरकर तिर्यक्योनि में उत्पन्न तिरिक्खजोगिएसु उववज्जति, योनिकेषु उपपद्यते,
होता है, ३. गोमुत्ति केतणासमाणं माय- ३. गोमूत्रिकाकेतनसमानां मायां अनु- ३. गो-मूत्रिका के समान माया में प्रवर्तमणुपविटु जीवे कालं करेति, प्रविष्ट: जीवः कालं करोति, मनुष्येषु मान जीव मरकर मनुष्य गति में उत्पन्न मणुस्सेसु उववज्जति, उपपद्यते,
होता है,
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ठाणं (स्थान)
३६३
स्थान ४: सूत्र २८३-२८४
४. अवलेहणिय केतणासमाणं ४. अवलेखनिकाकेतनसमानां मायां मायमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति', अनुप्रविष्ट: जीवः कालं करोति, देवेषु । देवेसु उववज्जति ।
उपपद्यते।
४. अवलेखनिका के समान माया में प्रवर्तमान जीव मरकर देवगति में उत्पन्न होता है।
माण-पदं मान-पदम्
मान-पद २८३. चत्तारि थंभा पण्णता, तं जहा- चत्वारः स्तम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २८३. स्तंभ चार प्रकार होता हैसेलथंभे, अट्टिथंभे, दारुथंभे। शैलस्तम्भः, अस्थिस्तम्भः, दारुस्तम्भः,
१. शैल-स्तंभ-पत्थर का खम्भा, तिणिसलतार्थभे। तिनिशलतास्तम्भः ।
२. अस्थि-स्तंभ-हाड का खम्भा, ३. दारु-स्तंभ-काठ का खम्भा, ४. तिनिशलता-स्तंभ-सीसम की जाति
के वृक्ष की लता [लकड़ी] का खम्भा। एवामेव चउविधे माणे पण्णते,तं एवमेव चतुर्विधः मानः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- इसी प्रकार मान भी चार प्रकार का होता जहा सेलथंभसमाणे,
शैलस्तम्भसमानः, अस्थिस्तम्भसमानः, है-१. शैल-स्तम्भ के समान-अनन्तानु•अट्रिथंभसमाणे, दारुथंभसमाणे, दारुस्तम्भसमानः,
बन्धी, २. अस्थि-स्तम्भ के समानतिणिसलतार्थभसमाणे। तिनिशलतास्तम्भसमानः ।
अप्रत्याख्यानावरण, ३. दारु-स्तम्भ के १. सेलथंभसमाणं माणं अणुपविट्ठ १. शैलस्तम्भसमानं मानं अनुप्रविष्ट: समान-प्रत्याख्यानावरण, ४. तिनिशजीवे कालं करेति, गैरइएसु जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु लता-स्तम्भ के समान-संज्वलन । उववज्जति, उपपद्यते,
१. शैल-स्तम्भ के समान मान में प्रवर्त२. अट्रिथंभसमाणं माणं अणु- २. अस्थिस्तम्भसमानं मानं अनुप्रविष्ट: मान जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता पविटू जीवे कालं करेति, जीवः कालं करोति, तिर्यग्योनिकेषु है, २. अस्थि-स्तम्भ के समान मान में तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, उपपद्यते,
प्रवर्तमान जीव मरकर तिर्यक्-योनि में ३. दारुथंभसमाणं माणं अणुपविट्ठ ३. दारुस्तम्भसमानं मानं अनुप्रविष्ट: उत्पन्न होता है, ३. दारु-स्तम्भ के समान जीवे कालं करेति, मणुस्सेसु जीवः कालं करोति, मनुष्येषु उपपद्यते, मान में प्रवर्तमान जीव मरकर मनुष्य उववज्जति,
गति में उत्पन्न होता है, ४. तिनिशलता४. तिणिसलताथंभसमाणं माणं ४. तिनिशलतास्तम्भसमानं मानं अनु- स्तम्भ के समान मान में प्रवर्तमान जीव अणपविट्र जीवे कालं करेति, प्रविष्ट: जीवः कालं करोति, देवेषु । मरकर देवगति में उत्पन्न होता है। देवेसु उववज्जति।
उपपद्यते।
लोभ-पदं लोभ-पदम्
लोभ-पद २८४. चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा.- २८४. वस्त्र चार प्रकार का होता हैकिमिरागरत्ते, कद्दमरागरत्ते, कृमिरागरक्तं, कर्दमरागरक्तं,
१. कृमिरागरक्त-कृमियों के रञ्जक खंजण रागरत्ते, हलिद्दरागरते। खञ्जनरागरक्त, हरिद्रारागरक्तं ।
रस में रंगा हुआ वस्त्र, २. कर्दमरागरक्त-कीचड़ से रंगा हुआ वस्त्र, ३.खञ्जनरागरक्त-काजल के रंग से रंगा हुआ वस्त्र, ४. हरिद्वारागरक्तहल्दी के रंग से रंगा हुआ वस्त्र ।
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स्थान ४: सूत्र २८५-२८७
ठाणं (स्थान)
एवामेव चउदिवधे लोभे पण्णत्ते, एवमेव चतुर्विध: लोभः प्रज्ञप्तः, तं जहा
तद्यथाकिमिरागरत्तवत्थसमाणे, कृमिरागरक्तवस्त्रसमानः, कद्दमरागरत्तवत्थसमाणे, कर्दभरागरक्तवस्त्रसमानः, खंजण रागरतवत्थसमाणे, खञ्जनरागरक्तवस्त्रसमानः, हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणे। हरिद्रारागरक्तवस्त्रसमानः । १. किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभ- १. कृमिरागरक्तवस्त्रसमानं लोभं अनुमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, प्रविष्ट: जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु णेरइएसु उववज्जइ, उपपद्यते, २. कद्दमरागरत्तवत्थसमाणं लोभ- २. कर्दमरागरक्तवस्त्रसमानं लोभं अनुमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, प्रविष्ट: जीवः कालं करोति, तिर्यग्तिरिक्खजोणितेसु उववज्जइ, योनिकेषु उपपद्यते, ३. खंजणरागरत्तवत्थसमाणं लोभ- ३. खञ्जनरागरक्तवस्त्रसमानं लोभं मणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, अनुप्रविष्ट: जीवः कालं करोति, मनुष्येषु मणुस्सेसु उववज्जइ, उपपद्यते, ४. हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणं लोभ- ४. हरिद्रारागरक्तवस्त्रसमानं लोभं मणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, देवेसु अनुप्रविष्ट: जीवः कालं करोति, देवेषु उववज्जइ।
उपपद्यते।
इसी प्रकार लोभ भी चार प्रकार का होता है-१. कृमिरागरक्त के समानअनन्तानुबन्धी, २. कर्दमरागरक्त के समान-अप्रत्याख्यानावरण, ३ खञ्जनरागरक्त के समान-प्रत्याख्यानावरण, ४. हरिद्वारागरक्त के समान-सज्वलन । १. कृमिरागरक्त के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता है, २. कर्दमरागरक्त के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव मरकर तिर्यक्-योनि में उत्पन्न होता है, ३. खञ्जनरागरक्त के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव मरकर मनुष्य गति में उत्पन्न होता है, ४. हरिद्रारागरक्त के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव मरकर देव गति में उत्पन्न होता
संसार-पद
संसार-पदम् २८५. चउदिवहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा- चतूविधः संसार: प्रज्ञप्तः, तद्यथा- रइयसंसारे,
नैरयिकसंसारः, तिर्यग्योनिकसंसारः, 'तिरिक्खजोणियसंसारे, मनुष्यसंसारः, देवसंसारः ।
मणुस्ससंसारे, देवसंसारे। २८६. चउठिवहे आउए पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं आयु: प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-
णेरइआउए, 'तिरिक्खजोणिआउए, नैरयिकायुः, तिर्यग्योनिकायुः, मणुस्साउए, देवाउए। मनुष्यायुः, देवायुः।
संसार-पद २८५. संसार [उत्पत्ति स्थान में गमन] चार
प्रकार का होता है-१. नरयिकसंसार, २. तिर्यक्योनिकसंसार, ३. मनुष्यसंसार,
४. देवसंसार । २८६. आयुष्य चार प्रकार का होता है...
१. नैरपिक-आयुष्य, २. तिर्यक्योनिक-आयुष्य,
३. मनुष्य-आयुष्य, ४. देव-आयुष्य । २८७. भव [ उत्पत्ति] चार प्रकार का होता है
१. नैरयिक भव, २. तिर्यक्-योनिक भव, ३. मनुष्य भव, ४. देव भव।
२८७. चउविहे भवे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः भवः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
णेरइयभवे, तिरिक्खजोणियभवे, नैरयिक भवः, तिर्यग्योनिकभवः, मणुस्सभवे , देवभवे। मनुष्यभवः, देवभवः।
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ठाणं (स्थान)
आहार -पदं २८८. चउव्विहे आहारे पण्णत्ते, तं जहाअसणे, पाणे, खाइ मे, साइमे ।
२८६. चउव्विहे आहारे पण्णत्ते, तं जहाउवक्खर संपण्णे, उवक्खडसं पण्णे, सभावसंपण्णे, परिजुसियसंपण्णे ।
कम्मावत्था-पदं
२०. चउब्विहे बंधे पण्णत्ते, तं जहापगतिबंध, ठितिबंध, अणुभावबंधे, पदेसबंधे ।
जहा -
बंधणक्कमे, उदीरणोवक्कमे,
उवसमणोवक्कमे
विपरिणामणोवक्कमे ।
३६५
आहार-पदम् चतुविधः आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— अशनं, पानं, खाद्यं, स्वाद्यम् ।
चतुर्विधः आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— उपस्करसम्पन्नः, उपस्कृतसम्पन्नः, स्वभावसम्पन्नः, पर्युषितसम्पन्नः ।
२१. चउवि उवक्कमे पण्णत्ते, तं चतुर्विधः उपक्रमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - बन्धनोपक्रमः, उदीरणोपक्रमः, उपशमनोपक्रमः, विपरिणामनोपक्रमः ।
कर्मावस्था-पदम्
चतुविधः बन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— प्रकृतिबन्धः, स्थितिबन्धः, अनुभावबन्ध:, प्रदेशबन्धः ।
स्थान ४ : सूत्र २८८-२६१
आहार-पद
२८८. आहार चार प्रकार का होता है
१. अशन - अन्न आदि,
२. पान - कांजी आदि.
३. खादिम - फल आदि,
४. स्वादिम-तम्बूल आदि । २६६. आहार चार प्रकार का होता है
१. उपस्कर -सम्पन्न - वधार से युक्त, मसाले डालकर छौंका हुआ, २. उपस्कृतसम्पन्न -- पकाया हुआ, ओदन आदि, ३. स्वभाव सम्पन्न - स्वभाव से पका हुआ, फल आदि, ४ पर्युषित-सम्पन्न - रात वासी रखने से जो तैयार हो ।
कर्मावस्था-पद २६०. बंध चार प्रकार का होता है-
१. प्रकृतिबंध कर्म - पुद्गलों का स्वभाव बंध, २. स्थिति-बंध - कर्म - पुद्गलों की काल मर्यादा का बंध, ३. अनुभाव-बंध-कर्म - पुद्गलों के रस का बंध, ४. प्रदेशबंध - कर्म- पुद्गलों के परमाणु-परिमाण का बंध।"
२६१. उपक्रम चार प्रकार का होता है
१. बंधन उपक्रम - बंधन का हेतुभुत जीववीर्य या बंधन का प्रारम्भ, २. उदीरणा उपक्रम - उदीरणा का हेतुभूत जीव- वीर्य या उदीरणा का प्रारम्भ, ३. उपशमन उपक्रम - उपशमन का हेतुभूत जीव- वीर्यं या उपशमन का प्रारम्भ, ४. विपरिणामन उपक्रम - विपरिणामन का हेतुभूत जीववीर्य या विपरिणामन का प्रारम्भ ।
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ठाणं (स्थान)
३६६
स्थान ४ : सूत्र २६२-२६८ २६२. बंधणोवक्कमे चउन्विहे पण्णत्ते, बन्धनोपक्रमः, चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, २६२. बंधन उपक्रम चार प्रकार का होता हैतं जहा—पगतिबंधणोवक्कमे, तद्यथा-प्रकृतिबन्धनोपक्रमः,
१. प्रकृतिबंधन उपक्रम, ठितिबंधणोवक्कमे, स्थितिबन्धनोपक्रमः,
२. स्थितिबंधन उपक्रम, अणुभावबंधणोवक्कमे, अनुभावबन्धनोपक्रमः,
३. अनुभावबंधन उपक्रम, पदेसबंधणोवक्कमे। प्रदेशबन्धनोपक्रमः।
४. प्रदेशबंधन उपक्रम। २६३. उदीरणोवक्कमे चउविहे पण्णत्ते, उदीरणोपक्रमः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, २६३. उदीरणा" उपक्रम चार प्रकार का होता
तं जहा—पगतिउदीरणोवक्कमे, तद्यथा- प्रकृत्युदीरणोपक्रमः, है-१. प्रकृतिउदीरणा उपक्रम, ठितिउदीरणोवक्कमे, स्थित्युदीरणोपक्रमः,
२. स्थितिउदीरणा उपक्रम, अणुभावउदीरणोवक्कमे, अनुभावोदीरणोपक्रमः,
३. अनुभावउदीरणा उपक्रम, पदेसउदीरणोवक्कमे। प्रदेशोदीरणोपक्रमः ।
४. प्रदेश उदीरणा उपक्रम। २६४. उवसामणोवक्कमे चउन्विहे उपशामनोपक्रमः, चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, २६४. उपशमन उपक्रम चार प्रकार का होता पण्णत्ते, तं जहातद्यथा
है-१. प्रकृतिउपशमन उपक्रम, पगतिउवसामणोवक्कमे, प्रकृत्युपशामनोपक्रमः,
२. स्थितिउपशमन उपक्रम, ठितिउवसामणोवक्कमे, स्थित्युपशामनोपक्रमः,
३. अनुभावउपशमन उपक्रम, अणुभावउवसामणोवक्कमे, अनुभावोपशामनोपक्रमः,
४. प्रदेश उपशमन उपक्रम । पदेसउवसामणोवक्कमे। प्रदेशोपशामनोपक्रमः। २६५. विप्परिणामणोवक्कमे चउविहे विपरिणामनोपक्रमः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, २६५. विपरिणामन' उपक्रम चार प्रकार का पण्णत्ते, तं जहातद्यथा
होता है-१. प्रकृतिविपरिणामन उपक्रम, पगतिविप्परिणामणोवक्कमे, प्रकृतिविपरिणामनोपक्रमः,
२. स्थिति विपरिणामन उपक्रम, ठितिविप्परिणामणोवक्कमे, स्थितिविपरिणामनोपक्रमः,
३. अनुभावविपरिणामन उपक्रम, अणुभावविप्परिणामणोवक्कमे, अनुभावविपरिणामनोपक्रमः,
४. प्रदेशविपरिणामन उपक्रम। पएसविप्परिणामणोवक्कमे। प्रदेशविपरिणामनोपक्रमः । २६६. चउन्विहे अप्पाबहुए पण्णत्ते, तं चतुर्विधं अल्पबहुत्वं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- २९६. अल्पबहुत्व चार प्रकार का होता है
जहा-पगतिअप्पाबहुए, प्रकृत्यल्पबहुत्वं, स्थित्यल्पबहुत्वं, १. प्रकृतिअल्पबहुत्व, ठितिअप्पाबहुए,
अनुभावाल्पबहुत्वं, प्रदेशाल्पबहुत्वम्। २. स्थितिअल्पबहुत्व, अणुभावअप्पाबहुए,
३. अनुभावअल्पबहुत्व, पएसअप्पाबहुए।
४. प्रदेशअल्पबहुत्व । २६७. चउन्विहे संकमे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संक्रमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- २६७. संक्रम" चार प्रकार का होता हैपगतिसंकमे, ठितिसंकमे, प्रकृतिसंक्रमः, स्थितिसंक्रमः,
१. प्रकृतिसंक्रम, २. स्थितिसंक्रम, अणुभावसंकमे, पएससंकमे। अनुभावसंक्रमः, प्रदेशसंक्रमः ।
३. अनुभावसंक्रम, ४.प्रदेशसंक्रम। २६८. चउविहे णिधत्ते पण्णत्ते, तं चतुर्विधं निधत्तं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- २६८. निधत्त चार प्रकार का होता हैजहाप्रकृतिनिधत्तं, स्थितिनिधत्तं,
१. प्रकृतिनिधत्त, २. स्थितिनिधत्त, पगतिणिवत्ते, ठितिणिधत्ते, अनुभावनिधत्तं, प्रदेशनिधत्तम् ।
३. अनुभावनिधत्त, ४. प्रदेशनिधत्त, अणुभावणिवत्ते, पएसणिधत्ते।।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र २६६-३०२ २६६. चउन्विहे णिगायिते पण्णत्ते, तं चतुर्विधं निकाचितं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा--. २६६. निकाचित चार प्रकार का होता है
जहा—पगतिणिगायिते, प्रकृतिनिकाचितं, स्थितिनिकाचितं, १. प्रकृति निकाचित, ठितिणिगायिते, अणुभावणिगायिते, अनुभावनिकाचितं, प्रदेशनिकाचितम् ।। २. स्थिति निकाचित, पएसणिगायिते ।
३. अनुभाव निकाचित, ४. प्रदेश निकाचित ।
संखा-पदं संख्या-पदम्
संख्या-पद ३०० चत्तारि एक्का पण्णता, तं जहा.- चत्वारि एकानि प्रज्ञप्तानि, तयथा- ३००. एक चार प्रकार का होता है--
दविएक्कए, माउएक्कए, द्रव्यैककं, मातृकैककं, पर्यायैककं, १. द्रव्य एक-द्रव्यत्व की दृष्टि से द्रव्य पज्जवेक्कए, संगहेक्कए, संग्रहैककम् ।
एक है, २. मातृका पद एक-सब नयों का बीजभूत मातृका पद [उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक त्रिपदी] एक है, २. पर्याय एक-पर्यायत्व की दृष्टि से पर्याय एक है, ४. संग्रह एक-संग्रह की दृष्टि से बहु में
भी एक वचन का प्रयोग होता है। ३०१. चत्तारि कती पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि कति प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३०१. कति [अनेक] चार प्रकार का होता है
दवितकती, माउयकती, द्रव्यकति, मातृकाकति, पर्यायकति, १. द्रव्य कति-द्रव्य-व्यक्ति की दृष्टि से पज्जवकती, संगहकती। संग्रहकति ।
द्रव्य अनेक हैं, २. मातृका कति-विविध नयों की दृष्टि से मातृका अनेक हैं, ३. पर्याय कति-पर्याय व्यक्ति की दृष्टि से पर्याय अनेक हैं, ४. संग्रह कति-अवा
न्तर जातियों की दृष्टि से संग्रह अनेक हैं। ३०२. चत्तारि सव्वा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि सर्वाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३०२. सर्व चार प्रकार का होता है
णामसव्वए, ठवणसव्वए, नामसर्वक, स्थापनासर्वकं, आदेशसर्वकं, १. नाम सर्व-किसी का नाम सर्व रख आएससव्वए, णिरवसेससव्वए। निरवशेषसर्वकम् ।
दिया वह, केवल नाम से सर्व होता है, २. स्थापना सर्व-किसी वस्तु में सर्व का आरोप किया जाए वह, स्थापना सर्व है, ३. आदेश सर्व-अपेक्षा की दृष्टि से सर्व, जैसे कुछ कार्य शेष रहने पर भी कहा जाता है सारा काम कर डाला, ४. निरवशेष सर्व-वह सर्व जिसमें कोई शेष न रहे, वास्तविक सर्व।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ३०३-३०७
कूड-पदं कूट-पदम्
कूट-पद ३०३. माणुसुत्तरस्स गं पव्वयस्स चउ- मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य चतुर्दिशि ३०३. मानुषोत्तर पर्वत के चारों दिशा कोणों में
दिसिं चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं चत्वारि कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- चार कूट हैं--१. रत्नकूट-दक्षिण-पूर्व में, जहा—रयणे, रतणुच्चए, रत्नं, रत्नोच्चयं, सर्वरत्नं, रत्नसंचयम। २. रत्नोच्चयकूट-दक्षिण-पश्चिम में, सव्वरयणे, रतणसंचए।
३. सर्व रत्नकूट-पूर्वोत्तर में, ४. रत्नसंचयकूट-पश्चिमोत्तर में ।
कालचक्क-पदं कालचक्र-पदम्
कालचक्र-पद ३०४. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरावतयोः वर्षयोः ३०४. जम्बूद्वीप द्वीप के भारत और ऐरवत क्षेत्रों
तीताए उस्स प्पिणीए सुसमसुसमाए अतीतायां उत्सपिण्यां सुषमसुषमायां में अतीत उत्सर्पिणी के 'सुषम-सुषमा' समाए चत्तारि सागरोवमकोडा- समायां चतस्रः सागरोपमकोटिकोटीः नामक आरे का कालमान चार कोडाकोडीओ कालो हुत्था। कालः अभवत् ।
कोडी सागरोपम था। ३०५. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरावतयोः वर्षयोः ३०५. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्रों
इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए अस्यां अवसपिण्णां सुषमसुषमायां में इस अवसर्पिणी के 'सुषम-सुषमा' नामक समाए चत्तारि सागरोवमकोडा- समायां चतस्रः सागरोपमकोटिकोटी: आरे का कालमान चार कोडाकोडी कोडीओ कालो पण्णत्तो। कालः प्रज्ञप्तः ।
सागरोपम था। ३०६. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरावतयोः वर्षयोः ३०६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्रों
आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सुसम- आगमिष्यन्त्यां उत्सपिण्यां सुषमसुषमायां में आगामी उत्सर्पिणी के 'सुषम-सुषमा' सुसमाए समाए चत्तारि सागरो- समायां चतस्रः सागरोपमकोटिकोटी: नामक आरे का कालमान चार कोडावमकोडाकोडीओ कालो भविस्सइ। कालः भविष्यति ।
कोडी सागरोपम होगा।
अकम्मभूमी-पदं अकर्मभूमि-पदम्
अकर्मभूमि-पद ३०७. जंबुद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरु- जम्बूद्वीपे द्वीपे देवकुरुत्तरकुरुवर्जाः ३०७. जम्बूद्वीप द्वीप में देवकुरु और उत्तरकुरु
वज्जाओ चत्तारि अकम्मभूमीओ चतस्रः अकर्मभमयः प्रज्ञप्ताः, तदयथा_ को छोड़कर चार अकर्म-भूमियां हैंपण्णत्ताओ, तं जहा–हेमवते, हैमवतं, हैरण्यवतं, हरिवर्ष,
१. हैमवत, २. हैरण्यवत, ३. हरिवर्ष, हेरणवते, हरिवरिसे, रम्मगवरिसे। रम्यकवर्षम् ।
४. रम्य गवर्ष। चत्तारि वट्टवेयडपव्वता पण्णता, चत्वारः वृत्तवैताढ्यपर्वता: प्रज्ञप्ताः, उनमें चार वैताढ्य पर्वत हैंतं जहा—सद्दावाती, वियडावाती, तद्यथा—शब्दापाती, विकटापाती, १. शब्दापाती, २. विकटापाती, गंधावाती, मालवंतपरिताते। गन्धापाती, माल्यवत्पर्यायः ।
३. गंधापाती, ४. माल्यवत्पर्याय । तत्थ णं चत्तारि देवा महिडिया तत्र चत्वारः देवा: महद्धिका यावत्
वहां पल्योपम की स्थिति वाले चार जाव पलिओवम द्वितीया परिवसंति, पल्योपमस्थितिका परिवसन्ति, तद्यथा- महद्धिक देव रहते हैं-१. स्वाति, तंजहा-साती पभासे अरुणे पउमे। स्वाति:, प्रभासः, अरुणः, पद्मः।
२. प्रभास, ३. अरुण, ४. पद्म।
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ठाणं (स्थान)
महाविदेह-पदं
३०८. जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा - पुन्नविदेहे, अबरविदेहे, देवकुरा,
उत्तरकुरा ।
पव्वय-पदं
३०. सवेवि णं णिसढणीलवंतवास - हरपव्वता चत्तारि जोयणसयाइं उडू उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउसयाई उणं पण्णत्ता । ३१०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीताए महानदीए उत्तरकूले चत्तारि वक्खा र पव्वया पण्णत्ता, तं जहाचित्तकूडे, पम्हकडे,
कूडे, एसे ।
३११. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीताए महानदीए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा तिकूडे, वेसमणकूडे, अंजणे, मातंजणे |
३१२. जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीओदाए महाणदीए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा अंकावती, पम्हावती, आसीविसे, सुहावहे । ३१३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओदाए महानदीए उत्तरकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा -
३६६
महाविदेह-पदम्
महाविदेह - पद
जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहः वर्षं चतुर्विधः ३०८. महाविदेह क्षेत्र के चार प्रकार हैं१. पूर्वविदेह, २. अपरविदेह, ३. देवकुरु, ४. उत्तरकुरु ।
प्रज्ञप्तः, तद्यथा—
पूर्वविदेहः, अपरविदेहः, देवकुरुः,
उत्तरकुरुः ।
पर्वत-पदम्
सर्वेऽपि निषधनीलवद्वर्षधरः पर्वताः चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन, चत्वारि गव्यूतिशतानि उद्वेधेन
प्रज्ञप्ताः ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये शीतायाः महानद्याः उत्तरकूले चत्वारः वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा
चित्रकूट:, पक्ष्मकूट:, नलिनकूट:, एकशैलः । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये शीतायाः महानद्या: दक्षिणकूले चत्वारः वक्षस्कार पर्वताः
प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा
त्रिकूट:, वैश्रमणकूट:, अञ्जनः,
माताञ्जनः ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः दक्षिणकूले चत्वारः वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अङ्कावती, पक्ष्मावती, आशीविषः, सुखावहः ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः उत्तरकूले चत्वारः वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
स्थान ४ : सूत्र ३०८-३१३
पर्वत - पद
३०९. सब निषध और नीलवत् वर्षधर पर्वतों की ऊंचाई चार सौ योजन की है और चार सौ कोस तक वे भूमि में अवस्थित हैं ।
३१०. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व भाग में और सीता महानदी के उत्तरकूल में चार वक्षस्कार पर्वत हैं—
१. चित्रकूट, २. पक्ष्मकूट, ३. नलिनकूट, ४. एकशैल ।
३११. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व भाग में और सीता महानदी के दक्षिणकूल में चार वक्षस्कार पर्वत हैं
१. त्रिकूट, २. वैश्रवणकूट, ३. अञ्जन,
४. माताञ्जन ।
३१२. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
भाग में और सीतोदा महानदी के दक्षिणकूल में चार वक्षस्कार पर्वत हैं
१. अंकावती, २. पक्ष्मावती, ३. आशीविष, ४ सुखावह ।
३१३. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
भाग में और सीतोदा महानदी के उत्तरकूल में चार वक्षस्कार पर्वत हैं
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ठाणं (स्थान)
चंदपव्वते, सूरपवते, देवपव्वते, नागपव्वते । ३१४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स ary विदिसासु चत्तारिवक्वार पव्वया पण्णत्ता, तं जहासोमणसे, विज्जुप्पभे, गंधमायणे, मालवंते ।
लागा - पुरिस-पदं
३१५. जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे जहण चत्तारि अरहंता चत्तारि arraट्टी चत्तारि बलदेवा चत्तारि वासुदेवा उपज्जिसु वा उत्पज्जंति वा उपज्जिस्संति वा ।
३१८. मंदरचूलिया णं उवरि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता ।
धायसंड-पुक्खरवर-पदं
३१६. एवं धायइसंडदीवपुर स्थिमद्धेवि कालं आदि करेत्ता जाव मंदर चूलियत्ति ।
३७०
चन्द्रपर्वतः, सुरपर्वतः, देवपर्वतः, नागपर्वतः ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य चतसृषु विदिशासु चत्वारः वक्षस्कारपर्वताः
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - सौमनसः, विद्युत्प्रभः, गन्धमादनः,
माल्यवान् ।
शलाका-पुरुष-पदम्
जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे जधन्यपदे चत्वारः अर्हन्तः चत्वारः चक्रवर्तिनः चत्वारः बलदेवाः चत्वारः वासुदेवाः उदपदिषतः वा उत्पद्यन्ते वा उत्पत्स्यन्ते
वा।
मंदर - पव्वय-पदं
३१६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वते चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहाभद्दसालवणे, णंदणवणे, सोमणसवणे, पंडगवणे । ३१७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वते पंडगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाओ पण्णत्ताओ, तं जहापंडुकंबलसिला, अइपंडुकंबलसिला, पाण्डुकम्बलशिला, अतिपाण्डुकम्बलशिला, रत्तकंबल सिला, अतिरक्तकंबल सिला। रक्तकम्बलशिला, अतिरक्तकम्बलशिला ।
मन्दर-पर्वत-पदम्
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरे पर्वते चत्वारि वनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— भद्रशालवनं, नन्दनवनं सौमनसवनं, पण्डकवनम् ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरे पर्वते पण्डगवने चतस्रः अभिषेकशिलाः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा
स्थान ४ : सूत्र ३१४-३१६
१. चन्द्रपर्वत २. सूरपर्यंत, ३. देवपर्वत, ४. नागपर्वत ।
३१४. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के चारों दिशा कोणों में चार वक्षस्कार पर्वत हैं
१. सौमनस्क २. विद्युत्प्रभ
३. गन्धमादन, ४. माल्यवान् ।
शलाका-पुरुष-पद
३१५. जम्बूद्वीप द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में कम से कम चार अर्हन्त, चार चक्रवर्ती, चार बलदेव और चार वासुदेव उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे।
मन्दर-पर्वत- पद
३१६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के चार वन हैं - १. भद्रशाल वन, २. नन्दन वन, ३. सौमनस वन, ४ पण्डक वन ।
३१७. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पण्डक वन में चार अभिषेक शिलाएं हैं१. पांडुकंबल शिला,
२. अतिपाण्डुकंबल शिला,
३. रक्तकंबल शिला,
४. अतिरक्तकंबल शिला ।
मन्दरचूलिका उपरि चत्वारि योजनानि ३१८. मन्दर पर्वत की चूलिका का ऊपरी विष्कंभ विष्कम्भेण प्रज्ञप्ता | [ चौड़ाई ] चार योजन का है ।
धातकीपण्ड - पुष्करवर पद
धातकीषण्ड- पुष्करवर-पदम् एवम् धातकीपण्डद्वीपपौरस्त्याद्धेऽपि - ३१६. इसी प्रकार धातकीपंड द्वीप के पूर्वार्ध कालं आदि कृत्वा यावत् मन्दरचूलिका और पश्चिमार्ध के लिए भी 'सुषम-सुषमा' इति ।
काल की स्थिति से लेकर मन्दर चूलिका
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स्थान ४ : सूत्र ३२०-३२१
ठाणं (स्थान)
३७१ एवं—जाव पुक्खरवरदीव- एवम्-यावत् पुष्करवरद्वीपपाश्चात्यार्धे पच्चत्थिमद्धे जाव मंदरचूलियत्ति- यावत् मन्दरचलिका इति
के ऊपरी विष्कभ (४३०४-३१८) तक का पाठ समझ लेना चाहिए। पुष्कर-वर-द्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध के लिए भी 'सुषम-सुषमा' काल की स्थिति से लेकर मन्दर-चूलिका के ऊपरी विष्कभ (४/३०४-३१८) तक का पाठ समझ लेना चाहिए।
संगहणी-गाहा १. जंबुट्टीवगआवस्सगं तु कालाओ चूलिया जाव। धायइसंडे पुक्खरवरे य पुवावरे पासे।
संग्रहणी-गाथा १. जम्बूद्वीपकावश्यकं तु कालात् चूलिका यावत्। धातकीषण्डे पुष्करवरे च पूर्वापरे पावें ॥
संग्रहणी-गाथा जम्बूद्वीप में काल[सुषम-सुषमा] से लेकर मन्दरचूलिका तक होने वाली आवश्यक वस्तुएं धातकीषण्ड और पुष्करवरद्वीप के पूर्वापर पावों में सबकी सब होती हैं।
दारं-पदं द्वार-पदम्
द्वार-पद ३२०. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चत्तारि जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य चत्वारि द्वाराणि ३२०. जम्बूद्वीप द्वीप के चार द्वार हैंदारा पण्णत्ता, तं जहा.- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. विजय. २. वैजयन्त, ३. जयन्त, विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते । विजयः, वैजयन्तः, जयन्त:, अपराजितः।
४. अपराजित। ते णं दारा चत्तारि जोयणाई तानि द्वाराणि चत्वारि योजनानि उनकी चौड़ाई चार योजन की है और विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं विष्कम्भेण, तावत्कं चैव प्रवेशेन उनका प्रवेश [मुख भी चार योजन का पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि ।
है, वहां पल्योपम की स्थिति वाले चार तत्य णं चत्तारि देवा महिड्डीया तत्र चत्वारः देवा महद्धिकाः यावत् महद्धिक देव रहते हैं-१. विजय, जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, पल्योपमस्थितिका: परिवसन्ति, २. वैजयन्त, ३. जयन्त, ४. अपराजित । तं जहा
तद्यथाविजते, वेजयंते, जयंते, विजयः, वैजयन्तः, जयन्तः, अपराजिते।
अपराजितः।
अंतरदीव-पदं अन्तर्वीप-पदम्
अन्तर्वीप-पद ३२१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ३२१. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के दक्षिण में
दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स वास- क्षुल्लहिमवतः वर्षधरपर्वतस्य चतसृषु क्षुल्लहिमवत् वर्षधर पर्वत के चारों दिक
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ठाणं (स्थान)
हरपव्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुदं तिष्ण-तिष्णि जोयणसयाई ओगाहित्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा - एगूरुयदीवे, आभासयदीवे, वसायिदीवे, गंगोलियदीवे । तेसु णं दीवेसु चउव्विहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा --
एगूरुया, आभासिया, साणिया, मंगोलिया ।
३२२. तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्द चारि चत्तारि जोयणसयाई ओगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता तं जहाहयकण्णदीवे, गयकण्णदीवे, गोकणदीवे, सक्कुलिकण्णदीवे । तेसु णं दीवेसु चउव्विधा मणुस्सा परिवति तं जहा
हयकण्णा, गयकण्णा,
गोण्णा, सक्कुलिकण्णा । ३२३. तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्दे पंच पंच जोयसणयाई ओगाहिता, एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा
समुहदीवे, मेंढमुहदीवे, अओमुहदीवे, गोमुहदी, ते षणं दोवेसु चव्विहा मणुस्सा 'परिवति, तं जहाआसमुहा, मेंढा, ओमुहा, गोहा।
३२४. तेति मं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्दे छ छ जोयणसयाई
३७२
विदिशासु लवणसमुद्रं त्रीणि त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य, अत्र चत्वारः अंतद्विपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— एकोरुकद्वीप:, आभाषिकद्वीप:, वैषाणिकद्वीपः, लाङ्गुलिकद्वीपः ।
तेषु द्वीपेषु चतुविधा: मनुष्याः परिवसन्ति, तद्यथा
एकोरुकाः, आभाषिकाः, वैपाणिका:, लाङ्गुलिकाः ।
तेषां द्वीपानां चतसृषु विदिशासु लवणसमुद्रं चत्वारि चत्वारि योजनशतानि अवगाह्य, अत्र चत्वारः अन्तपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाहयकर्णद्वीपे गजकर्णद्वीपः, गोकर्णद्वीपः, शष्कुलिकर्णद्वीपः ।
तेषु द्वीपेषु चतुविधा: मनुष्याः परिवसन्ति, तद्यथा - हयकर्णाः, गजकर्णाः, गोकर्णाः, शष्कुलिकर्णाः ।
तेषां द्वीपानां चतसृषु विदिशासु लवणसमुद्रं पञ्च पञ्च योजनशतानि अवगाह्य, अत्र चत्वारः अन्तद्वीपा : प्रज्ञप्ताः, तद्यथाआदर्शमुखद्वीपः, मेढमुखद्वीप:, अयोमुखद्वीपः, गोमुखद्वीपः । तेषु द्वीपेषु चतुर्विधाः मनुष्याः परिवसन्ति तद्यथाआदर्शमुखाः, मेढमुखाः, अयोमुखाः, गोमुखाः ।
तेषां द्वीपानां चतसृषु विदिशासु लवणसमुद्रं षट्पद् योजनशतानि अवगाह्य,
स्थान ४ : सूत्र ३२२-३२४ कोणों की ओर लवण समुद्र में तीन-तीन सौ योजन जाने पर चार अन्तद्वीप हैं१. एकोरुकद्वीप, २. आभाषिकद्वीप, ३. वैषाणिकद्वीप, ४. लांगुलिकद्वीप |
उनमें चार प्रकार के मनुष्य रहते हैंएकोरुक - एक साथल - घुटने की ऊपरी भाग वाले, आभाषिक - बोलने की अल्प क्षमता वाले या गूंगे, वैषणिक - सींग वाले, लांगुलिक - पूंछ वाले । ३२२. उन द्वीपों के चारों दिक्कोणों की ओर
लवण समुद्र में चार-चार सौ योजन जाने पर चार अन्तद्वीप हैं - १. ह्यकर्णद्वीप, २. गजकर्णद्वीप, ३. गोकर्णद्वीप, ४. शष्कुली द्वीप ।
उनमें चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं१. हयकर्ण - घोड़े के समान कान वाले, २. गजकर्ण - हाथी के समान कान वाले,
३. गोकर्ण - गाय के समान कान वाले, ४. शष्कुलीकर्ण -- पूड़ी जैसे कान वाले । ३२३. उन द्वीपों के चारों दिक्कोणों की ओर
लवण समुद्र में पांच-पांच सौ योजन जाने पर चार अन्तद्वीप हैं - १. आदर्शमुखद्वीप, २. मेपमुखद्वीप, ३. अयोमुखद्वीप, ४. गोमुखद्वीप ।
उनमें चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं
१. आदर्शमुख - आदर्श के समान मुंह वाले २. मेष- मुख -- मेघ के समान मुंह वाले, ३. अयो- मुख ।
४. गोमुख गो के समान मुंह वाले । ३२४, उन द्वीपों के चारों दिक्कांणों में लवण
समुद्र में छह-छह सौ योजन जाने पर चार
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ३२५-३२७ ओगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतर- अत्र चत्वारः अन्तर्वीपाः प्रज्ञप्ताः, अन्तर्वीप हैं--१. अश्वमुखद्वीप, दीवा पण्णत्ता, तं जहा- तद्यथा
२. हस्तिमुखद्वीप, ३. सिंहमुखद्वीप, आसमुहदीवे, हस्थिमुहदीवे, अश्वमुखद्वीपः, हस्तिमुखद्वीपः, ४. व्याघ्रमुखद्वीप। सीहमुहदीवे, वग्धमुहदीवे। सिंहमुखद्वीपः, व्याघ्रमुखद्वीपः। उनमें चार प्रकार के मनुष्य रहते हैंतेसु णं वीवेसु चउन्विहा मणुस्सा तेषु द्वीपेषु चतुर्विधाः मनुष्याः । १. अश्वमुख-घोड़े के समान मुंह वाले, "परिवसंति, तं जहा- परिवसन्ति, तद्यथा
२. हस्तिमुख-हाथी के समान मुंह वाले, आसमुहा, हत्थिमुहा, अश्वमुखाः, हस्तिमुखाः, सिंहमुखाः, ३. सिंहमुख-सिंह के समान मुंह वाले, सीहमुहा, वग्धमुहा। व्याघ्रमुखाः।
४. व्याघ्रमुख–बाघ के समान मुख वाले। ३२५. तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु तेषां द्वीपानां चतसृषु विदिशासु लवण- ३२५. उन द्वीपों के चारों दिक्कोणों की ओर
लवणसमुदं सत्त-सत्त जोयणसयाइं समुद्रं सप्त-सप्त योजनशतानि अवगाह्य, लवणसमुद्र में सात-सात सौ योजन जाने
ओगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतर- अत्र चत्वारः अन्तर्वीपाः प्रज्ञप्ताः, पर चार अन्तर्वीप हैंदीवा पण्णत्ता, तं जहा- तद्यथा
१. अश्वकर्णद्वीप, २.हस्तिकर्णद्वीप, आसकण्णदीवे, हत्थिकण्णदीवे, अश्वकर्णद्वीपः, हस्तिकर्णद्वीपः, ३. अकर्णद्वीप, ४. कर्णप्रावरणद्वीप। अकण्णदोवे, कण्णपाउरणदीवे। अकर्णद्वीपः, कर्णप्रावरणद्वीपः । उनमें चार प्रकार के मनुष्य रहते हैंतेसु णं दीवेसु चउब्विहा मणुस्सा तेषु द्वीपेषु चतुर्विधाः मनुष्या १. अश्वकर्ण-घोड़े के समान कान वाले, •परिवसंति, तं जहापरिवसन्ति, तद्यथा
२. हस्तिकर्ण-हाथी के समान कान वाले, आसकण्णा, हथिकण्णा, अश्वकर्णाः, हस्तिकर्णाः, अकर्णा, ३. अकर्ण-बहुत छोटे कान वाले, अकण्णा, कण्णपाउरणा। कर्णप्रावरणाः।
४. कर्णप्रावरण-विशाल कान वाले। ३२६. तेति णं दीवाणं चउसु विदिसासु तेषां द्वीपानां चतसृषु विदिशासु लवण- ३२६. उन द्वीपों के चारों दिक्कोणों की ओर
लवणसमुदं अट्ठ जोयणसयाइं समुद्रं अष्ट-अष्ट योजनशतानि अवगाह्य, लवणसमुद्र में आठ-आठ सौ योजन जाने ओगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतर- अत्र चत्वारः अन्तद्वीपाः प्रज्ञप्ताः, पर वहां चार अन्तर्वीप हैंदीवा पण्णत्ता, तं जहा- तद्यथा
१. उल्कामुखद्वीप, २. मेघमुखद्वीप, उक्कामुहदीवे, मेहमुहदीवे, उल्कामुखद्वीपः, मेघमुखद्वीपः, ३. विद्युत्मुखद्वीप, ४. विद्युत्दन्तद्वीप । विज्जुमुहदीवे, विजुदंतदीवे, विद्युन्मुखद्वीपः, विद्य दंतद्वीपः । उनमें चार प्रकार के मनुष्य रहते हैंतेसु णं दीवेसु चउदिवहा मणुस्सा तेषु द्वीपेषु चतुर्विधाः मनुष्याः १. उल्कामुख-उल्का के समान दीप्त मुंह 'परिवसंति, तं जहा- परिवसन्ति, तद्यथा
वाले, २. मेघमुख-मेघ के समान मुंह उक्कामुहा, मेहनुहा, उल्कामुखाः, मेघमुखाः, विद्युन्मुखाः, । वाले, ३. विद्युत्मुख–बिजली के समान विज्जुमुहा, विज्जुदंता। विद्यु दंताः।
दीप्त मुंह वाले, ४. विद्युत्दन्त-बिजली
के समान चमकीले दांत वाले। ३२७. तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु तेषां द्वीपानां चतसृषु विदिशासु लवण- ३२७. उन द्वीपों के चारों दिक्कोणों की ओर
लवणसमदृ णव-णव जोयणसयाई समद्रं नव-नव योजनशतानि अवगाह्य, लवण समुद्र में नौ-नौ सौ योजन जाने पर ओगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतर- अत्र चत्वारः अन्तर्वीपाः प्रज्ञप्ताः, चार अन्तर्वीप हैं-१. घनदन्तद्वीप, दीबा पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
२. लष्टदन्तद्वीप, ३. गूढदन्तद्वीप, ४. शुद्धदन्तद्वीप।
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ठाणं (स्थान)
३७४
स्थान ४ : सूत्र ३२८-३२६ घणदंतदीवे, लट्ठदंतदीवे, घनदन्तद्वीपः, लष्टदन्तद्वीपः,
उनमें चार प्रकार के मनुष्य रहते हैंगूढदंतदीवे, सुद्धदंतदीवे। गूढदन्तद्वीपः, शुद्धदन्तद्वीपः ।
१. घनदन्त--सघन दांत वाले, तेसु णं दीवेसु चउ विवहा मणुस्सा तेषु द्वीपेषु चतुर्विधा: मनुष्याः । २. लष्टदन्त-कमनीय दांत वाले, परिवसंति, तं जहापरिवसन्ति, तं जहा...
३. गूढदन्त-गूढ दांत वाले, घणदंता, लट्ठदंता, घनदन्ताः, लष्टदन्ताः, गढदन्ताः, ४. शुद्धदन्त-स्वच्छ दाँत वाले। गूढदंता, सुद्धदंता।
शुद्धदन्ताः । ३२८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे ३२८. जम्बूद्वीप द्वीप के भन्दर पर्वत के उत्तर में
उत्तरे णं सिहरिस्स वासहरपव्वयस्स शिखरिणः वर्षधरपर्वतस्य चतसृषु । शिखरी वर्षधर पर्वत के चारों दिक्कोणों चउसु विदिसासु लवणसमुह तिण्णि- विदिशासु लवणसमुद्रं त्रीणि-त्रीणि की ओर लवण-समुद्र में तीन-तीन सौ तिण्णि जोयणसयाई ओगाहेत्ता, योजनशतानि अवगाह्य, अत्र चत्वारः योजन जाने पर चार अन्तर्वीप हैंएत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा अन्तीपा: प्रज्ञप्ताः, तदयथा
१. एकोरुकद्वीप, २. आभाषिकद्वीप, पण्णत्ता, तं जहा-
एकोरुकट्टीपः, शेषं तथैव निरवशेष ३. वैषाणिकद्वीप, ४. लांगुलिकद्वीप। एगरुयदीवे, सेसं तहेव णिरवसेसं भणितव्यं यावत् शुद्धदन्ताः ।
जितने अन्तर्वीप और जितने प्रकार के भाणियव्वं जाव सुद्धदंता।
मनुष्य दक्षिण में हैं, उतने ही अन्तीप और उतने ही प्रकार के मनुष्य उत्तर में
महापायाल-पदं महापाताल-पदम्
महापाताल-पद ३२६. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बाहि- जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बाह्यात् ३२६. जम्बूद्वीप द्वीप की बाहरी वेदिका के अंतिम
रिल्लाओ वेइयंताओ चउदिसि वेदिकान्तात् चतुर्दिशि लवणसमुद्र भाग से चारों दिक्कोणों की ओर लवण लवणसमुदं पंचाणउई जोयण- पञ्चनवति योजनसहस्राणि अवगाह्य, समुद्र में पिचानबे हजार योजन जाने पर सहस्साई ओगाहेत्ता, एत्थ णं अत्र महातिमहान्तः महालञ्जरसंस्थान- चार महापाताल हैं। वे बहुत विशाल हैं महतिमहालता महालंजरसंठाण- संस्थिताः चत्वारः महापातालाः और उनका आकार बड़े घड़े जैसा है। संठिता चत्तारि महापायाला प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
उनक नाम ये हैपण्णत्ता, तं जहा
वडवामुख:, केतुकः, यूपकः, ईश्वरः। १. वड़वामुख (पूर्व में), वलयामहे, केउए,
२. केतुक (दक्षिण में), जूवए, ईसरे।
३. यूपक (पश्चिम में),
४. ईश्वर (उत्तर में)। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया तत्र चत्वारः देवाः महद्धिका यावत् । उनमें पल्योपम की स्थिति वाले चार जाव पलिओवमद्वितीया परि- पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, महद्धिक देव रहते हैंवसंति, तं जहातद्यथा
१. काल, २. महाकाल, काले, महाकाले, कालः, महाकाल:,
३. वेलम्ब, ४.प्रभञ्जन। वेलंबे, पभंजणे।
बेलम्बः, प्रभञ्जनः।
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ठाणं (स्थान)
३७५
स्थान ४: सूत्र ३३०-३३२
आवास-पव्वय--पदं आवास-पर्वत-पदम्
आवास-पर्वत-पद ३३०. जबुद्दीवस्स णं दोवस्त बाहि- जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बाह्यात् ३३०. जम्बूद्वीप द्वीप की बाहरी वेदिका के
रिल्लाओ वेइयंताओ चउद्दिसि वेदिकान्तात् चतुर्दिशि लवणसमुद्रं अन्तिम भाग से चारों दिककोणों की ओर लवणसमुई बायालीसं-बायालीसं द्वाचत्वारिशत्-द्वाचत्वारिंशत् योजन- लवणसमुद्र में बयालीस-बयालीस हजार जोयणसहस्साई ओगोहत्ता, एत्थ शतानि अवगाह्य, अत्र चतुर्णा वेलंधर- योजन जाने पर वेलंधर नागराजों के चार णं चउण्हं वेलंधर णागराईणं नागराजानां चत्वारः आवासपर्वता: आवास पर्वत हैंचत्तारि आवासपब्वत्ता पण्णत्ता, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. गोस्तूप, २. उदावभास, तं जहा
गोस्तूपः, उदावभासः, शवः, ३. शंख, ४. दकमीम। गोथभे, उदओभासे,
दकसीमः । संखे, दगसीमे। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया तत्र चत्वारः देवा महद्धिका: यावत् । उनमें पल्योपम की स्थिति वाले चार जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, महद्धिक देव रहते हैं-१. गोस्तूप, तं जहातद्यथा
२. शिव, ३. शंख, ४. मनःशिलाक। गोथूभे, सिवए, गोस्तूपः, शिवकः, शङ्खः, संखे, मणोसिलाए।
मनःशिलाकः । ३३१. जंबुद्दीवस्स णं दोवस्स बाहि- जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य वाह्यात् ३३१. जम्बूद्वीप द्वीप की बाहरी वेदिका के
रिल्लाओ वेइयंताओ चउसु विदि- वेदिकान्तात् चतसृषु विदिशासु लवण- अन्तिम भाग से चारों दिक्कोणों की ओर सासु लवणसमुदं बायालीसं- समुद्रं द्वाचत्वारिंशत्-द्वाचत्वारिंशत् लवण समुद्र में बयालीस-बयालीस हजार बायालीसं जोयणसहस्साई योजनशतानि अवगाह्म, अत्र चतुर्णा योजन जाने पर अनुवेलंधर नागराजों के ओगाहेत्ता, एत्थ णं चउण्हं अणु- अनुवेलंधरनागराजानां चत्वारः आवास- चार आवास पर्वत हैंवेलंधर णागराईणं चत्तारि पर्वताः प्रज्ञप्ता, तद्यथा---
१. कर्कोटक, २. विद्युत्प्रभ, आवासपवता पण्णत्ता, तं जहा- कर्कोटकः, विद्युत्प्रभः, कैलाश:, ३. कैलाश, ४. अरुणप्रभ । कक्कोडए,
अरुणप्रभः। केलासे, अरुणप्पभे। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया तत्र चत्वारः देवाः महद्धिका: यावत् उनमें पल्योपम की स्थिति वाले चार जाव पलिओवमट्टितीता परिवसंति, पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, महद्धिक देव रहते हैंतं जहा-- तद्यथा
१. कर्कोटक, २. कर्दमक, ३. कैलाश, कक्कोडए, कद्दभए,
कर्कोटकः, कर्दमकः, कैलाश:, केलासे, अरुणप्पभे। अरुणप्रभः।
४. अरुणप्रभा
ज्योतिष्पदम्
जोइस-पदं
ज्योतिष्पद ३३२. लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा लवणे समुद्रे चत्वारः चन्द्राः प्राभासिपत ३३२. लवण समुद्र में चार चन्द्रमाओं ने प्रकाश
पभासिसु वा पभासंति वा पभा- वा प्रभासन्ते वा प्रभासिष्यन्ते वा। किया था, करते हैं और करेंगे। सिस्संति वा।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ३३३-३३७ चतारि सूरिया तविसु वा तवंति चत्वारः सूर्याः अताप्सुः वा तपन्ते वा चार सूर्य तपे थे, तपते हैं और तपेंगे। वा तविस्संति वा। तपिष्यन्ति वा।
चार कृत्तिका यावत् चार भरणी तक चत्तारि कित्तियाओ जाव चत्तारि चतस्रः कृत्तिका:यावत चतस्रः भरण्यः । के सभी नक्षत्रों ने चन्द्रमा के साथ योग भरणीओ।
किया था, करते हैं और करेंगे। ३३३. चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा। चत्वारः अग्नयः यावत् चत्वारः यमाः। ३३३. इन नक्षत्रों के अग्नि यावत् यम
ये चार-चार देव हैं। ३३४. चत्तारि अंगारा जाव चत्तारि चत्वारः अङ्गारा: यावत् चत्वारः ३३४. चार अङ्गार यावत् चार भावकेतु तक भावके। भावकेतवः।
के सभी ग्रहों ने चार किया था, करते हैं और करेंगे।
दार-पदं
द्वार-पदम्
द्वार-पद ३३५. लवणस्स णं समुद्दस्स चत्तारि दारा लवणस्य समुद्रस्य चत्वारि द्वाराणि ३३५. लवण समुद्र के चार द्वार हैं--- पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. विजय, २. वैजयन्त, ३. जयन्त, विजए, वेजयंते, विजयः, वैजयन्तः, जयन्तः,
४. अपराजित । जयंते, अपराजिते। अपराजितः ।
उनकी चौड़ाई चार योजन की है तथा ते णं दारा चत्तारि जोयणाई तानि द्वाराणि चत्वारि योजनानि उनका प्रवेश [मुख भी चार योजन चौड़ा विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं विष्कम्भेण तावत्कं चैव प्रवेशेन है। उनमें पल्योपम की स्थिति वाले चार पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि।
महद्धिक देव रहते हैं-१. विजय, तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया तत्र चत्वारः देवाः महद्धिका: यावत् २. वैजयन्त, ३. जयन्त, ४. अपराजित । जाव पलिओवमट्ठितिया, परि- पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, वसंति तं जहा
तद्यथाविजए वेजयंते,
विजयः, वैजयन्तः, जयन्तः, अपराजितः । जयंते, अपराजिए।
का है।
धायइसंड-पुक्खरवर-पदं धातकीषण्ड-पुष्करवर-पदम् धातकीषण्ड-पुष्करवर-पद ३३६. धायइसंडे णं दीवे चत्तारि जोयण- धातकीषण्ड: द्वीपः चत्वारि योजनशत- ३३६. धातकीषण्ड द्वीप का चक्रवाल-विष्कंभ
सयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं सहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः। [वलय का विस्तार] चार लाख योजन
पण्णत्ते।। ३३७. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बहिया जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहिस्तात् चत्वारि ३३७. जम्बू द्वीप के बाहर [धातकीपण्ड तथा
चत्तारि भरहाई, चत्तारि भरतानि, चत्वारि ऐरवतानि। अर्ध पुष्करवर द्वीप में ] चार भरत और एरवयाई।
चार ऐरवत हैं। एवं जहा सदुदेसए तहेव णिर- एवं यथा शब्दोद्देशके तथैव निरवशेष
शब्दोद्देशक [दूसरे स्थान के तीसरे उद्दे
शक] में जो बतलाया है, वह यहां जान वसेसं भाणियव्वं जाव चत्तारि भणितव्यं यावत् चत्वारः मन्दराः चतस्रः
लेना चाहिए। [वहां जो दो-दो बताए गए मंदरा चत्तारि मंदरचूलियाओ। मन्दरचूलिकाः ।
हैं वे यहां चार-चार जान लेने चाहिए।
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ठाणं (स्थान)
गंदीसरवरदीव-पदं
३३८. नंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवाल विक्खंभस्स बहुमज्भदेस भागे चउद्दिसि चत्तारि अंजणगपव्वता पण्णत्ता, त जहापुरथिमिल्ले अंजणगपव्वते,
दाहिणिल्ले अंजणगपव्वते, पच्चत्थिमिले अंजणपव्वते, उत्तरिल्ले अंजणगपव्वते । ते णं अंजणगपव्वता चउरासीति जोयणसहस्साइं उड्डू उच्चतेणं, एगं जोयणसहस्सं उबेहेणं, मूले दसजोयणसहस्सा इं विक्खभेणं, तदनंतरं चणं मायाए-मायाए परिहायमाणा - परिहायमाणा उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं
पण्णत्ता ।
मूले इक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते परिवखेवेणं, उबर तिष्णि तिणि जोयणसहस्साइं एगं च बावट्ठ जोयणसतं परिक्खेवेणं ।
मूले विच्छण्णा मज् संखेत्ता उप्पि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्वअंजणमया अच्छा सहा लव्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला furiat furias-च्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणीया अभिरुवा पडिरूवा ।
३३. तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उर्वार बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा
पण्णत्ता ।
३७७
नन्दीश्वरवरद्वीप-पदम्
नन्दीश्वरवरद्वीप - पद
नन्दीश्वरवरस्य द्वीपस्य चक्रवाल- ३३८. नन्दीश्वरवर द्वीप के चक्रवाल- विष्कंभ के विष्कम्भस्य बहुमध्यदेशभागे चतुर्दिशि चत्वारः अञ्जनकपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
पौरस्त्यः अञ्जनकपर्वतः, दाक्षिणात्य : अञ्जनकपर्वतः,
अञ्जनकपर्वतः, अञ्जनकपर्वतः ।
पाश्चात्यः
उदीच्यः ते अञ्जनकपर्वताः चतुरशीति योजनसहस्राणि ऊर्ध्व उच्चत्वेन, एकं योजनसहस्र उद्वेधेन मूले दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेण तदनन्तरं च मात्रया मात्रया परिहीयमानाः-परिहीयमानाः उपरि एक योजन सहस्रं विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
मूले एकत्रिंशत् योजन सहस्राणि षट् च त्रिविशति योजनशतं परिक्षेपेण, उपरि त्रीणि त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्ठियोजनशतं परिक्षेपेण ।
स्थान ४ : सूत्र ३३८-३३६
मूले विस्तृताः मध्ये संक्षिप्ताः उपरि तनुका: गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वाञ्जनमया: अच्छा: श्लक्ष्णाः श्लक्ष्णाः घृष्टा: मृष्टाः नीरजसः निर्मला: निष्पङ्काः निष्कंकट - च्छायाः सप्रभाः समरीचिकाः सोद्योताः प्रासादीया: दर्शनीया अभिरूपा: प्रतिरूपाः ।
बहुमध्य देशभाग--ठीक बीच में चारों दिशाओं में चार अञ्जन पर्वत हैं
मूल में उनकी परिधि इकतीस हजार छः सौ तेइस योजन और ऊपरी भाग में तीन हजार एक सौ बासठ योजन की है। ये मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और अन्त में पतले हैं। उनका आकार गाय की पूंछ जैसा है । वे नीचे से ऊपर तक अञ्जन रत्नमय हैं । वे स्फटिक की भांति अच्छपारदर्शी हैं। वे चिकने, चमकदार, शाण पर घिसे हुए से, प्रमार्जनी से साफ किए हुए से, रज रहित, पंक रहित, निरावरण शोभा वाले, प्रभायुक्त, रश्मियुक्त, उद्योतयुक्त, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय हैं।
तेषां अञ्जनकपर्वतानां उपरि बहुसम - ३३९. उन अञ्जन पर्वतों के ऊपर अत्यन्त समरमणीयाः भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः । तल और रमणीय भूमि-भाग हैं। उनके
मध्य में चार सिद्धायतन हैं। वे एक सौ
१. पूर्वी अञ्जन पर्वत,
२. दक्षिणी अञ्जन पर्वत,
३. पश्चिमी अञ्जन पर्वत,
४. उत्तरी अञ्जन पर्वत ।
उनकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन की है । वे एक हजार योजन तक धरती में अवस्थित हैं। मूल में उनका विस्तार दस हजार योजन का है। वह क्रमशः घटतेघटते ऊपरी भाग में एक हजार योजन का रह जाता है |
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स्थान ४: सूत्र ३३६ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और बहत्तर योजन ऊपर की ओर ऊंचे हैं।
उन सिद्धायतनों की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं१. देव द्वार, २. असुर द्वार, ३. नाग द्वार, ४. सुपर्ण द्वार। उनमें चार प्रकार के देव रहते हैं१. देव, २. असुर ३. नाग, ४. सुपर्ण ।
उन द्वारों के आगे चार मुख-मण्डप
ठाणं (स्थान)
३७८ तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं तेषां बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभागे बहुमध्यदेशभागे चत्वारि सिद्धायत- चत्तारि सिद्धायतणा पण्णत्ता। नानि प्रज्ञप्तानि । ते णं सिद्धायतणा एगं जोयणसयं तानि सिद्धायतनानि एक योजनशतं आयामेणं, पण्णासं जोयणाई आयामेन, पञ्चाशत् योजनानि विक्खंभेणं, बावरिजोयणाई विष्कम्भेण, द्वासप्ततियोजनानि ऊध्वं उड्ड उच्चत्तेणं ।
उच्चत्वेन । तेसि णं सिद्धायतणाणं चउदिसि तेषां सिद्धायतनानां चतुर्दिशि चत्वारि चत्तारि दारा पप्णत्ता, तं जहा- द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- देवदारे, असुरदारे, देवद्वारं, असुरद्वारं, नागद्वारं, णागदारे, सुवण्णदारे। सुपर्णद्वारम्। तेसु णं दारेसु चउव्विहा देवा तेषु द्वारेषु चतुर्विधाः देवाः परिवसन्ति, परिवसंति, तं जहा
तद्यथादेवा, असुरा, गागा, सुवण्णा। देवाः, असुराः, नागाः, सुपर्णाः । तेसि णं दाराणं पुरतो चत्तारि तेषां द्वाराणां पुरतः चत्वारः मुखमण्डपाः मुहमंडवा पण्णता।
प्रज्ञप्ताः । तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ तेषां मुखमण्डपानां पुरतः चत्वारः चत्तारि पेच्छाधरमंडवा पण्णता। प्रेक्षागहमण्डपाः प्रज्ञप्ताः। तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं बहुमज्झ- तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां बहुमध्यदेशभागे देसभागे चत्तारि वइरामया चत्वारः वज्रमयाः अक्षवाटकाः अक्खाडगा पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । तेसि णं वइरामयाणं अक्खाडगाणं तेषां वज्रमयानां अक्षवाटकानां बहुमध्यबहुमज्झदेसभागे चत्तारि मणि- देशभागे चतस्रः मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः । पेढियातो पण्णत्ताओ। तासि णं मणिपेढिताणं उरि तासां मणिपीठिकानां उपरि चत्वारि चत्तारि सीहासणा पण्णता। सिंहासनानि प्रज्ञप्तानि। तेसि गं सिहासणाणं उरि चत्तारि तेषां सिंहासनानां उपरि चत्वारि विजयदूसा पण्णत्ता।
विजयदृष्याणि प्रज्ञप्तानि।। तेसि णं विजयदूतगाणं बहुमज्भ- तेषां विजयदूष्यकाणां बहुमध्यदेशभागे देसभागे चत्तारि बइरामया चत्वारि वज्रमयाः अंकुशाः प्रज्ञप्ताः। अंकूसा पण्णत्ता। तेसु णं वइरामएसु अंकसेसु तेषु वज्रमयेषुःअंकुशेषु चत्वारि कुम्भिचत्तारि कुंभिका मुत्तादामा कानि मुक्तादामानि प्रज्ञप्तानि । पण्णत्ता।
उन मुख-मण्डपों के आगे चार प्रेक्षागृह रंगशाला मण्डप हैं। उन प्रेक्षागृह-मण्डपों के मध्य-भाग में चार वज्रमय अक्षवाटक-प्रेक्षकों के लिए बैठने के आसन हैं। उन वज्रमय अक्षवाटकों के बीच में चार मणि-पीठिकाएं हैं।
उन मणिपीठिकाओं के ऊपर चार सिंहासन हैं। उन सिंहासनों के ऊपर चार विजयदुष्य-चंदवा हैं। उन विजयदूष्यों के मध्य भाग में चार वज्रमय अंकुश हैं।
उन वज्रमय अंकुशों पर कुंभिक [४०-४० मन के मोतियों की चार मालाएं लटक रही हैं।
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ठाणं (स्थान)
ते णं कुंभिका मुत्तादामा पत्तेयं पत्तेयं अण्णेहि तदद्धउच्चत्तपमाणमितेहि चहिं अद्धकुंभिक्केहि मुत्तादामेहिं सव्वतो सनंता संपरिक्खित्ता ।
तेसि णं पेच्छाघर मंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। तासि णं मणिपेढियाणं उर्वारं चारि चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता । तेसि णं चेइयथूभाणं पत्तेयं-पत्तेयं तेषां उद्दिचित्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ ।
तासि णं मणिपेढियाणं उर्बार चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईओ संपलियंकणिसण्णाओ भाभमुहाओ चिट्ठति तं जहा— रिसभा, वद्धमाणा, चंदाणणा, वारिसेणा ।
तेसि णं चेइयथूभाणं पुरतो चत्तारि मणिपेडियाओ पण्णत्ताओ । तासि णं मणिपेढियाणं उवरि चत्तारि चेइयरुक्खा पण्णत्ता । तेसि णं चेइयरुवखाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। तासि णं मणिदपेढियाणं उर्वारं चत्तारि महिंदज्या पण्णत्ता । ते सिणं महिंदज्झमाणं पुरओ उत्तारि दाओ क्खरिणीओ पण्णत्ताओ। तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउदिसि चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहापुरत्थमे णं, दाहिणे णं, पच्चत्थिमे णं, उत्तरे णं ।
३७६
तानि कुम्भिकानि मुक्तादामानि प्रत्येकंप्रत्येकं अन्यैः तदर्धोच्चत्व प्रमाणमात्रैः चतुभिः अर्धकुम्भिकैः मुक्तादामभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तानि ।
तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः चतस्रः मणिपीठिका: प्रज्ञप्ताः । तासां मणिपीठिकानां उपरि चत्वारःचत्वारः चैत्यस्तूपाः प्रज्ञप्ताः ।
चैत्यस्तूपानां प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्दिशि चतस्रः मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः ।
तासां मणिपीठिकानां उपरि चतस्रः जिनप्रतिमाः सर्वरत्नमय्यः संपर्यंकनिषण्णाः स्तूपाभिमुखाः तिष्ठन्ति, तद्यथा
ऋषभा, वर्धमाना, चन्द्रानना, वारिषेणा । तेषां चैत्यस्तूपानां पुरतः मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः । तासां मणिपीठिकानां उपरि चत्वारः चैत्यरुक्षाः प्रज्ञप्ताः ।
तेषां चैत्यरुक्षाणां पुरतः चतस्रः मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः ।
तासां मणिपीठिकानां उपरि चत्वारः महेन्द्रध्वजाः प्रज्ञप्ताः । तेषां महेन्द्रध्वजानां पुरतः चतस्रः नन्दाः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः । तासां पुष्करिणीनां प्रत्येकं - प्रत्येकं चतुर्दिशि चत्वारि वनषण्डानि प्रज्ञप्तानि,
चतस्रः
तद्यथा
पोरस्त्ये, दक्षिणे, पाश्चात्ये, उत्तरे ।
स्थान ४ : सूत्र ३३६
उन कुंभिक मुक्ता मालाओं में से प्रत्येक माला पर उनकी ऊंचाई से आधी ऊंचाई वाली तथा २०-२० मन के मोतियों की चार मालाएं चारों ओर लिपटी हुई
हैं ।
उन प्रेक्षागृह मण्डपों के आगे चार मणिपीठिकाएं हैं।
उन मणिपीटिकाओं पर चार चैत्यस्तूप हैं |
उन चैत्य- स्तूपों में से प्रत्येक पर चारों दिशाओं में चार-चार मणिपीठिकाएं हैं।
उन मणि पीठिकाओं पर चार जिन प्रतिमाएं हैं, वे सर्व रत्नमय, संपर्यंकासनपद्मासन की मुद्रा में अवस्थित हैं । उनका मुंह स्तूपों के सामने है । उनके नाम ये हैं - १. ऋषभा, २. वर्द्धमाना,
३. चन्द्रानना ४. वारिषेणा । उन चैत्यस्तूपों के आगे चार मणि पीठिकाएं हैं।
उन पर चार चैत्यवृक्ष हैं ।
उन चैत्य वृक्षों के आगे चार मणि पीठिकाएं हैं।
उन पर चार महेन्द्र [ महान् ] ध्वज हैं।
उन महेन्द्र ध्वजों के आगे चार नन्दापुष्करिणियां हैं।
उन पुष्करिणियों में से प्रत्येक के आगे चारों दिशाओं में चार वनपण्ड हैंपूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में, उत्तर में ।
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ठाणं (स्थान)
३८०
स्थान ४: सूत्र ३४०
संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
संग्रहणो-गाथा १. पुब्वे असोगवणं, १. पूर्वे अशोकवनं,
पूर्व में अशोकवन, दाहिणओ होइ सत्तवण्णवणं ।। दक्षिणे भवति सप्तपर्णवनम् । दक्षिण में सप्तपर्णवन, अवरे णं चंपगवणं, अपरे चम्पकवनं,
पश्चिम में चम्पकवन, चूतवणं उत्तरे पासे ॥ चूतवनमुत्तरे पावें ॥
उत्तर में आम्रवन। ४०. तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले अंजण- तत्र योसौ पौरस्त्यः अञ्जनकपर्वतः, ३४०. पूर्व के अञ्जन पर्वत की चारों दिशाओं
गपवते, तस्स णं चउद्दिसि चत्तारि तस्य चतुर्दिशि चतस्रः नन्दाः पुष्करिण्यः में चार नन्दा पुष्करिणियां हैंगंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णताओ, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. नन्दोत्तरा, २. नन्दा, ३. आनन्दा, तं जहा
नन्दोत्तरा, नन्दा, आनन्दा, नन्दिवर्धना। ४. नन्दिवर्धना। णंदुत्तरा, णंदा, आणंदा, णंदिवद्धणा। ताओ णं णंदाओ पुक्खरिणीओ ताः नन्दाः पुष्करिण्यः एक योजनशत- वे नन्दा पुष्करिणियां एक लाख योजन एग जोयणसयसहस्सं आयामेणं, सहस्र आयामेन, पञ्चाशत् योजन- लम्बी, पचास हजार योजन चौड़ी और पण्णासं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, सहस्राणि विष्कम्भेण, दशयोजनशतानि हजार योजन गहरी हैं। दसजोयणसताइं उन्वेहेणं। उद्वेधेन। तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तेयं- तासां पुष्करिणीनां प्रत्येक प्रत्येक उन नंदा पुष्करिणियों में से प्रत्येक के पत्तेयं चउद्दिसि चत्तारि तिसो- चतुर्दिशि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूप- चार दिशाओं में चार त्रि-सोपान पंक्तियां वाणपडिरूवगा पण्णत्ता। काणि प्रज्ञप्तानि । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं तेषां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पूरत: उन त्रि-सोपान पंक्तियों के आगे चार पुरतो चत्तारि तोरणा पण्णत्ता, चत्वारि तोरणानि प्रज्ञप्तानि,
तोरण द्वार हैंतं जहातद्यथा
१. पूर्व में, २. दक्षिण में, ३. पश्चिम में, पुरत्थिमे णं, दाहिणे णं, पौरस्त्ये, दक्षिणे, पाश्चात्ये, उत्तरे। ४. उत्तर में। पच्चत्थिमे णं, उत्तरे थे। तासि णं पुबखरिणीणं पत्तेयं-पत्तेयं तासां पुष्करिणीनां प्रत्येक प्रत्येक उन नन्दा पुष्करिणियों में से प्रत्येक चउद्दिसि चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, चतुर्दिशि चत्वारि वनषण्डानि प्रज्ञप्तानि, के चारों दिशाओं में चार वनषण्ड हैंतं जहातद्यथा
पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में, उत्तर में। पुरतो, दाहिणे णं, पुरतः, दक्षिणे, पाश्चात्ये, उत्तरे । पच्चत्थिमे णं, उत्तरे णं।
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ठाणं (स्थान)
३८१
स्थान ४ : सूत्र ३४१-३४२
संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
संग्रहणी-गाथा १. पुव्वे णं असोगवणं, १. पूर्वे अशोकवन,
पूर्व में अशोक बन, 'दाहिणओ होइ सत्तवण्णवणं। दक्षिणे भवति सप्तपर्णवनम् ।
दक्षिण में सप्तपर्ण वन, अवरे णं चंपगवणं, अपरे चम्पकवनं,
पश्चिम में चम्पक वन, चूयवणं उत्तरे पासे॥ चूतवनमुत्तरे पावें ॥
उत्तर में आम्रवन। तासि णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झ- तासां पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे उन नन्दा पुष्करिणियों के ठीक बीच देसभागे चत्तारि दधिमुहगपव्वया चत्वारः दधिमुखकपर्वताः प्रज्ञप्ताः। में चार दधिमुख पर्वत हैंपण्णत्ता। ते णं दधिमुहगपध्वया चउटुिं ते दधिमुखकपर्वताः चतुःषष्ठि योजन- वे दधिमुख पर्वत ६४ हजार योजन ऊंचे जोयणसहस्साइं उड्ड उच्चत्तेणं, सहस्राणि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन, एकं योजन- और हजार योजन गहरे हैं। वे नीचे, एग जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, सव्वत्थ सहस्रं उद्वेधेन, सर्वत्र समाः पल्यक- ऊपर और बीच में सब स्थानों में [चौड़ाई समा पल्लगसंठाणसंठिता; दस- संस्थानसंस्थिताः; दशयोजनसहस्राणि की अपेक्षा] समान हैं। उनकी आकृति जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं विष्कम्भेण, एकत्रिंशत् योजनसहस्राणि अनाज भरने के बड़े कोठे के समान एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च षट् च विविंशति योजनशतं परिक्षेपेण'; हैं। उनकी चौड़ाई दस हजार योजन की तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सर्वरत्नमयाः अच्छाः यावत् प्रतिरूपाः। है। उनकी परिधि ३१६२३ योजन की सव्वरयणामया अच्छा जाव
है। वे सर्व रत्नमय यावत् रमणीय पडिरूवा। तेसि णं दधिमुहगपन्वताणं उरि तेषां दधिमुखकपर्वतानां उपरि बहुसम- उन दधिमुख पर्वतों के ऊपर अत्यन्त बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा रमणीयाः भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः।। समतल और रमणीय भू-भाग हैं। पण्णत्ता। सेसं जहेव अंजणगपव्वताणं तहेव शेषं यथैव अञ्जनकपर्वतानां तथैव शेष वर्णन अंजन पर्वत के समान है। णिरवसेसं भाणियध्वं जाव चूतवणं निरवशेष भणितव्यम् यावत् चूतवनं उत्तरे पासे।
उत्तरे पावें। ३४१. तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले अंजणग- तत्र योसौ दाक्षिणात्यः अञ्जनकपर्वतः, ३४१. दक्षिण के अञ्जन पर्वत की चारों दिशाओं
पन्वते, तस्स णं चउदिसि चत्तारि तस्य चतुर्दिशि चतस्रः नन्दाः पुष्करिण्यः में चार नन्दा पुष्करिणियां हैंणंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--
१. भद्रा, २. विशाला, ३. कुमुदा, तं जहा.
भद्रा, विशाला, कुमुदा, पौण्डरीकिणी।। ४. पोंडरीकिणी। भद्दा, विसाला, कुमुदा, पोंडरीगिणी। ताओ णं णंदाओ पुक्खरिणीओ ता: नन्दाः पुष्करिण्यः एक योजन- शेष वर्णन पूर्व के अञ्जन पर्वत के समान एगं जोयणसयसहस्सं, सेसं तं चेव शतसहस्र, शेषं तच्चैव यावत् दधिमुखक- है। जाव दधिमुहगपन्वता जाव पर्वताः यावत् वनषण्डानि । वणसंडा।
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है।
ठाणं (स्थान)
३८२
स्थान ४ : सूत्र ३४३-३४४ ३४२. तत्थ णं जे से पच्चथिमिल्ले तत्र योसौ पाश्चात्यः अञ्जनकपर्वतः, ३४२. पश्चिम के अञ्जन पर्वत की चारों दिशाओं
अंजणगपव्वते, तस्स णं चउद्दिस तस्य चतुर्दिशि चतस्रः नन्दाः पुष्करिण्यः में चार नन्दा पुष्करिणियां हैं-- चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीओ प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. नंदिषेणा, २. अमोघा, पण्णत्ताओ, तं जहा—णंदिसेणा, नन्दिषेणा, अमोघा, गोस्तूपा, सुदर्शना। ३. गोस्तूपा, ४. सुदर्शना। अमोहा, गोथूभा, सुदंसणा। शेषं तच्चेव, तथैव दधिमुखपर्वताः, तथैव शेष वर्णन पूर्व के अञ्जन पर्वत के समान सेसं ते चेव, तहेव दधिमुहगपव्वता, सिद्धायतनानि यावत् वनषण्डानि।
तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंडा। ३४३. तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणग- तत्र योसौ उदीच्यः अञ्जनकपर्वतः, ३४३. उत्तर के अञ्चन पर्वत की चारों दिशाओं
पव्वते, तस्स णं चउद्दिसि चत्तारि तस्य चदुर्दिशि चतस्रः नन्दाः पुष्करिण्यः में चार नन्दा पुष्करिणियां हैंणंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विजया, वैजयन्ती, १. विजया, २. वैजयन्ती ३. जयन्ती, तं जहा- विजया, वेजयंती, जयन्ती, अपराजिता।
४. अपराजिता। जयंती, अपराजिता। ताओ णं गंदाओ पुक्खरिणीओ ताः नन्दा: पुष्करिण्यः एक योजनशत- शेष वर्णन पूर्व के अञ्जन पर्वत के समान एगं जोयणसयसहस्सं, सेसं तं चेव सहस्र, शेषं तच्चैव प्रमाणं, तथैव है। पमाणं, तहेव दधिमुहगपव्वता, दधिमुखकपर्वताः, तथैव सिद्धायतनानि
तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंडा। यावत् वनषण्डानि। ३४४. गंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्क- नन्दीश्वरवरस्य द्वीपस्य चक्रवाल- ३४४. नंदीश्वरवर द्वीप के चक्रवाल विष्कंभ
वालविक्खंभस्स बहुमज्भदेसभागे विष्कम्भस्य बहुमध्यदेशभागे चतसृषु [क्लय-विस्तार] के ठीक बीच में चारों चउसु विदिसासु चत्तारि रति- विदिशासु चत्वारः रतिकरकपर्वताः विदिशाओं में चार रतिकर पर्वत हैंकरगपव्वता पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. उत्तर पूर्व में-ईशानकोण में, उत्तरपुरस्थिमिल्ले रतिकरगपव्वए, उत्तरपौरस्त्यः रतिकरकपर्वतः, २. दक्षिण पूर्व में-आग्नेयकोण में, दाहिणपुरस्थिमिल्ले रतिक रगपव्दए, दक्षिणपौरस्त्यः रतिकरकपर्वतः,
३. दक्षिण पश्चिम में-नैऋत्यकोण में, दाहिणएच्चत्यिमिल्ले
दक्षिणपाश्चात्यः रतिकरकपर्वतः, ४. उत्तर पश्चिम में वायव्यकोण में । रतिकरगपव्वए,
उत्तरपाश्चात्यः रतिकरकपर्वतः। उत्तरपच्चथिमिल्ले रतिकरगपव्वए। ते णं रतिकरगपवता दस जोयण- ते रतिकरकपर्वताः दशयोजनशतानि वे रतिकर पर्वत हजार योजन ऊंचे सयाई उड्ड उच्चत्तेणं, दस गाउय- ऊर्ध्व उच्चत्वेन, दश गव्यूतिशतानि
और हजार कोस गहरे हैं। वे नीचे, ऊपर
और बीच में सब स्थानों में [चौड़ाई की सताई उव्वेहेणं; सव्वत्थ समा उदवेधेन, सर्वत्र समाः भल्लरिसंस्थान
अपेक्षा] समान हैं। उनकी आकृति झल्लरिसंठाणसंठिता; दस जोयण- संस्थिताः,दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेण, झल्लरी-[झांझ-मंजीरे के समान वर्तुलासहस्साई विक्खंभेणं, एक्कतीसं एकत्रिंशत् योजनसहस्राणि षट् च कार दो टुकड़ों से बना हुआ बाजा, जो जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे त्रिविशति योजनशतं परिक्षेपेण, सर्व
पूजा के समय बजाया जाता है ] के समान जोयणसते परिक्खेवेणं; सव्वर- रत्नमयाः अच्छा: यावत् प्रतिरूपाः।
है। उनकी चौड़ाई दस हजार योजन की
है। उनकी परिधि ३१६२३ योजन है। यणामया अच्छा जाव पडिरूवा।
वे सर्व रत्नमय यावत् रमणीय हैं।
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ठाणं (स्थान)
३८३
स्थान ४ : सूत्र ३४५-३४८ ३४५. तत्थ णं जे से उत्तरपुरथिमिल्ले तत्र योसौ उत्तरपौरस्त्यः रतिकरक- ३४५. उत्तर-पूर्व के रतिकर पर्वत की चारों
रतिकरगपब्बते, तस्स णं चउहिसि पर्वतः, तस्य चतुर्दिशि ईशानस्य दिशाओं में देवराज, देवेन्द्र ईशान की ईसाणस्स देविदस्त देवरण्णो देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणां अग्र- चारों पटरानियों-कृष्णा, कृष्णराजि,
उण्हमग्गमहिसीणं जंबुद्दीव- महिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाः चतस्रः । रामा और रामरक्षिता--के जम्बुद्वीप पमाणाओ चत्तारि रायहाणीओ राजधान्य: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
जितनी बड़ी चार राजधानियां हैंपण्णत्ताओ, तं जहा
नन्दोत्तरा, नन्दा, उत्तरकुरुः, देवकुरुः ।। १. नंदोत्तरा, २. नंदा, ३. उत्तरकुरा, णंदुत्तरा, गंदा,
कृष्णायाः, कृष्णराजिकायाः, रामाया:, ४. देवकुरा। उत्तरकुरा, देवकुरा।
रामरक्षितायाः। कण्हाए, कण्हराईए,
रामाए, रामरक्खियाए। ३४६. तत्थ णं जे से दाहिणपुर थिमिल्ले तत्र योसौ दक्षिणपौरस्त्यः रतिकरक- ३४६. दक्षिण-पूर्व के रतिकर पर्वत की चारों
रतिकरगपव्वते, तस्स णं चउद्दिसि पर्वतः, तस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य दिशाओं में देवराज, देवेन्द्र शक की चारों सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो देवराजस्य चतसृणां अग्रमहिषीणां । पटरानियों—पद्मा, शिवा, शची और चउण्हमग्गमहिसीणं जंबुद्दीव- जम्बूद्वीपप्रमाणाः चतस्रः राजधान्यः । अजू-के जम्बूद्वीप जितनी बड़ी चार पमाणाओ चत्तारि रायहाणीओ प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
राजधानियां हैंपण्णत्ताओ, तं जहा
समनाः, सौमनसा, अचिमालिनी, १. समना, २. सोमनसा, समणा, सोमणसा, मनोरमा।
३. अचिमालिनी, ४. मनोरमा। अच्चिमाली, मणोरमा। पद्मायाः, शिवायाः, शच्याः, अज्वाः । पउमाए, सिवाए,
सतीए, अंजूए। ३४७. तत्थ णं जे से दाहिणपच्चत्थि- तत्र योसौ दक्षिणपाश्चात्यः रतिकरक- ३४७. दक्षिण-पश्चिम के रतिकर पर्वत की चारों
मिल्ले रतिकरगपव्वते, तस्स णं पर्वतः, तस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य दिशाओं में देवेन्द्र, देवराज शक्र की चारों चउद्विसि सक्कस्स देविदस्स देवराजस्य चतसृणां अग्रमहिषीणां पटरानियों--अमला, अप्सरा, नवमिता देवरणो चउण्हमग्गमहिसीणं जम्बूद्वीपप्रमाणमात्राः चतस्रः राजधान्यः और रोहिणी—के जम्बूद्वीप जितनी बड़ी जंबुद्दीवपमाणमेत्ताओ चत्तारि प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
चार राजधानियां हैंरायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- भूता, भूतावतंसा, गोस्तूपा, सुदर्शना। १. भूता, २. भूतावतंसा, भूता, भूतवडेंसा, अमलायाः, अप्सरसः, नवमिकाया: ३. गोस्तूपा, ३. सुदर्शना। गोथूभा, सुदंसणा।
रोहिण्याः । अमलाए, अच्छराए,
णवमियाए, रोहिणीए। ३४८. तत्थ णं जे से उत्तरपच्चत्थिमिल्ले तत्र योसौ उत्तरपाश्चात्यः, रतिकरक- ३४८. उत्तर-पश्चिम में रतिकर पर्वत की चारों
रतिकरगपन्वते, तस्स णं चउद्दिसि- पर्वतः, तस्य चतुर्दिशि ईशानस्य दिशाओं में देवराज, देवेन्द्र ईशान की मीसाणस्स देविदस्स देवरण्णो देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणां अग्र- चारों पटरानियों—वसु, वसुगुप्ता, वसुचउण्हमग्गमहिसोणं जंबुद्दीवप्प- महिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणमात्राः चतस्रः मित्रा और वसुंधरा के जम्बूद्वीप जितनी
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ठाणं (स्थान)
३८४
स्थान ४ : सूत्र ३४६-३५३ बड़ी चार राजधानियां हैं१. रत्ना, २. रत्नोच्चया, ३. सर्वरत्ना, ४. रत्नसंचया।
माणमेत्ताओ चत्तारि रायहाणीओ राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा.. पण्णत्ताओ, तं जहा
रत्ना, रत्नोच्चया, सर्वरत्ना, रयणा, रतणुच्चया,
रत्नसंचया। सव्वरतणा, रतणसंचया। वस्वाः, वसुगुप्तायाः, वसुमित्रायाः, वसूए, वसुगुत्ताए,
वसुन्धरायाः । वसुमित्ताए, वसुंधराए।
सत्य-पद
सच्च-पदं ३४६. चउठिवहे सच्चे पण्णत्ते, तं जहा
णामसच्चे, ठवणसच्चे, दव्वसच्चे, भावसच्चे।
सत्य-पदम् चतुविधं सत्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथानामसत्यं, स्थापनासत्यं, द्रव्यसत्यं, भावसत्यम्।
३४६. सत्य के चार प्रकार हैं
१. नामसत्य, २. स्थापनासत्य, ३. द्रव्यसत्य, ४. भावसत्य ।
आजीविय-तव-पदं आजीविक-तपः-पदम्
आजीविक-तप-पद ३५०. आजीवियाणं चउब्धिहे तवे पण्णत्ते, आजीविकानां चतुविधं तपः प्रज्ञप्तम, ३५०. आजीविकों के तप के चार प्रकार हैंतं जहातद्यथा
१. उग्रतप-तीन दिन का उपवास, उग्गतवे, घोरतवे, रसणिज्जूहणता, उग्रतपः, घोरतपः, रसनियूहणं,
२. घोरतप, ३. रस-निर्यहण-घृत जिभिदियपडिसंलीणता। जिहन्द्रियप्रतिसंलीनता।
आदि रस का परित्याग, ४. जिह्वन्द्रिय प्रतिसलीनता-मनोज्ञ और अमनोज्ञ
आहार में राग-द्वेष रहित प्रवृत्ति। ३५१. चउविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा- चतविधः संयमः प्रज्ञप्तः, तदयथा- ३५१. संयम के चार प्रकार हैंमणसंजमे, वइसंजमे, मनःसंयमः, वाक्संयमः, कायसंयमः,
१. मन-संयम, २. वाक्-संयम, कायसंजमे, उवगरणसंजमे। उपकरणसंयमः।
३. काय-संयम, ४. उपकरण-संयम । ३५२. चउविधे चियाए पण्णत्ते, तं चतुर्विधः त्यागः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ३५२. त्याग के चार प्रकार हैंजहामनस्त्यागः, वाकत्यागः, कायत्यागः,
१. मन-त्याग, २. वाक्-त्याग, मणचियाए, वइचियाए, उपकरणत्यागः।
३. काय-त्याग, ४. उपकरण-त्याग । कायचियाए, उवगरणचियाए। ३५३. चउव्विहा अकिंचणता पण्णत्ता, चतुविधा अकिञ्चनता प्रज्ञप्ता, ३५३. अकिञ्चनता के चार प्रकार हैं--- तं जहातद्यथा
१. मन-अकिञ्चनता, मणकिचणता, वइकिंचणता, मनोऽकिञ्चनता, वागकिञ्चनता, २. वाक्-अकिञ्चनता, कायअकिंचणता, कायाऽकिञ्चनता,
३. काय-अकिञ्चनता, उवगरणअकिंचणता। उपकरणाऽकिञ्चनता।
४. उपकरण-अकिञ्चनता।
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ठाणं (स्थान)
३८५
स्थान ४: सूत्र ३५४-३५५
तइओ उद्देसो
क्रोध-पदम्
कोह-पदं
क्रोध-पदम् ३५४. चत्तारि राईओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः राजयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३५४. राजि [ रेखा] चार प्रकार की होती है--- जहापर्वतराजित, पृथिवीराजि:,
१. पर्वत-राजि, २. मृत्तिका-राजि, पव्वयराई, पुढविराई, बालुकाराजिः, उदकराजिः ।
३. बालुका-राजि, ४. उदक-राजि। वालुयराई, उदगराई। एवामेव चउन्विहे कोहे पण्णत्ते, एवमेव चतुर्विधः क्रोधः प्रज्ञप्त:, । इसी प्रकार क्रोध भी चार प्रकार का होता तं जहातद्यथा
है--१. पर्वत-राजि के समान----
अनन्तानुबन्धी, २. मृत्तिका-राजि के पव्वयराइसमाणे, पुढविराइसमाणे, पर्वतराजिसमानः, पथिवीराजिसमानः,
समान-अप्रत्याख्यानावरण, वालुयराइसमाणे, उदगराइसमाणे। बालुकाराजिसमानः, उदकराजिसमानः ।
३. वालुका-राजि के समान--प्रत्याख्यानावरण, ४. उदक-राजि के समान----
संज्वलन। १. पव्वय राइसमाणं कोहमणुपविट्ठ १. पर्वतराजिसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टो
१. पर्वत-राजि के समान क्रोध में अनुजीवे कालं करेइ, रइएसु जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु उपपद्यते,
प्रविष्ट [प्रवर्तमान ] जीव मरकर नरक में उववज्जति,
उत्पन्न होता है, २. पुढविराइसमाणं कोहमणुप्पविट्ठ २. पृथिवीराजिसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टो २. मृत्तिका-राजि के समान क्रोध में जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएसु जीवः कालं करोति, तिर्यग्योनिकेषु अनुप्रविष्ट जीव मरकर तिर्यञ्च योनि में उववज्जति, उपपद्यते,
उत्पन्न होता है, ३. वालुयराइसमाणं कोह- ३. बालुकाराजिसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टो ३. बालुका-राजि के समान क्रोध में मणुप्पविट्ठ जीवे कालं करेइ, जीवः कालं करोति, मनुष्येषु उपपद्यते, अनुप्रविष्ट जीव मरकर मनुष्य योनि में मणुस्सेसु उववज्जति,
उत्पन्न होता है, ४. उदगराइसमाणं कोहमणुपविट्ठ ४. उदकराजिसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टो ४. उदक-राजि के समान क्रोध में अनुजीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जति। जीवः कालं करोति, देवेषु उपपद्यते। प्रविष्ट जीव मरकर देवताओं में उत्पन्न
होता है।
भाव-पदं भाव-पदम्
भाव-पद ३५५. चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि उदकानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३५५. उदक चार प्रकार का होता है -
कद्दमोदए, खंजणोदए, कर्दमोदक, खजनोदकं, बालुकोदकं, १. कईम उदक, २. खञ्जन उदकवालुओदए, सेलोदए। शैलोदकम् ।
चिमटने वाला कीचड़, ३. बालुका उदक,
४. शैल उदक। एवामेव चउन्विहे भावे पण्णत्ते, एवमेव चतुर्विधः भावः प्रज्ञप्तः, । इसी प्रकार भाव [ रागद्वेषात्मक परिणाम ] तं जहातद्यथा
चार प्रकार का होता है--
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स्थान ४ : सूत्र ३६५
ठाणं (स्थान)
३८६ कद्दमोदगसमाणे, खंजणोदगसमाणे, कईमोदकसमानः, खजनोदकसमानः, वालुओदगसमाणे, सेलोदगसमाणे। वालुकोदकसमानः, शैलोदकसमानः ।
१. कद्दमोदगसमाणं भावमणु- १. कईमोदकसमानं भावं अनुप्रविष्टो पविट्ठ जीवे कालं करेइ, रइएसु जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु उपपद्यते, उववज्जति, २. खंजणोदगसमाणं भावमणु- २. खजनोदकसमानं भावं अनुप्रविष्टो पविट्ठ जीवे कालं करेइ, तिरिक्ख- जीवः कालं करोति, तिर्यग्योनिकेषु जोणिएसु उववज्जति, उपपद्यते, ३. वालुओदगसमाणं भावमणु- ३. वालुकोदकसमानं भावं अनुप्रविष्टो पविट्ठ जीवे कालं करेइ, मणुस्सेसु जीवः कालं करोति, मनुष्येषु उपपद्यते, उववज्जति, ४. सेलोदगसमाणं भावमणुपविट्ठ ४. शैलोदकसमानं भावं अनुप्रविष्टो जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जति। जीवः कालं करोति, देवेषु उपपद्यते ।
१. कर्दम उदक के समान, २. खञ्जन उदक के समान, ३. बालुका उदक के समान, ४. शैल उदक के समान। १. कर्दम-उदक के समान भाव में अनुप्रविष्ट जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता है, २. खजन-उदक के समान भाव में अनुप्रविष्ट जीव मरकर तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होता है, ३. बालुका-उदक के समान भाव में अनुप्रविष्ट जीव मरकर मनुष्ययोनि में उत्पन्न होता है, ४. शैल-उदक के समान भाव में अनुप्रविष्ट जीव मरकर देवताओं में उत्पन्न होता है।
रुत-रूव-पदं रुत-रूप-पदम्
रुत-रूप-पद ३५६. चत्तारि पक्खी पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः पक्षिणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३५६. पक्षी चार प्रकार के होते हैं
रुतसंपण्णे णाममेगे, णो रूवसंपण्णे, रुतसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, १. कुछ पक्षी स्वरसंपन्न होते हैं, पर रूपरुवसंपण्णे णाममेगे. णो रुतसंपण्णे, रूपसम्पन्नः नामकः, नो रुतसम्पन्नः, संपन्न नहीं होते, २. कुछ पक्षी रूपसंपन्न एगे रुतसंपण्णेवि, रूवसंपण्णवि. एकः रुतसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, होते हैं, पर स्वरसंपन्न नहीं होते, एगे णोरुतसंपण्णे, णो रूवसंपण्णे। एकः नो रुतसम्पन्न:, नो रूपसम्पन्नः । ३. कुछ पक्षी रूपसंपन्न भी होते हैं और
स्वरसंपन्न भी होते हैं, ४. कुछ पक्षी रूपसंपन्न भी नहीं होते और स्वरसंपन्न भी
नहीं होते। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
है-१. कुछ पुरुष स्वरसंपन्न होते हैं, पर रुतसंपण्णे णाममेगे, णो रूवसंपण्णे, रुतसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, रूपसंपन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपरुवसंपण्णे णाममेगे, णो रुतसंपण्णे, रूपसम्पन्न: नामकः, नो रुतसम्पन्नः, संपन्न होते हैं, पर स्वरसंपन्न नहीं होते, एगे रुतसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि, एकः रुतसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष रूपसंपन्न भी होते हैं और एगे णो रुतसंपण्णे, णो रूवसंपण्णे। एकः नो रुतसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः । स्वरसंपन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष रूप
संपन्न भी नहीं होते और स्वरसंपन्न भी नहीं होते।
तद्यथा
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ori (स्थान)
पत्तियअपत्तिय-पदं
३५७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -
पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेति, पत्तियं करेमीलेगे अप्पत्तियं करेति, अप्पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेति, अप्पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तियं करेति ।
३८७
प्रीतिक- अप्रीतिक-पदम् चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि
तद्यथा
प्रीतिकं करोमीत्येकः प्रीतिकं करोति, प्रीतिकं करोमीत्येकः अप्रीतिकं करोति, अप्रीतिकं करोमीत्येकः प्रीतिकं करोति, अप्रीतिकं करोमीत्येकः अप्रीतिकं करोति ।
जहा
पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं पवेसेति, पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तियं पवेसेति, अप्पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं प्रवेशयति, पवेसेति, अप्पत्तियं पवेसामीतेगे, अप्पत्तियं प्रवेशयति, पवेसेति ।
१. कुछ पुरुष प्रीति [ या प्रतीति ] करूं ऐसा सोचकर प्रीति ही करते हैं, २. कुछ पुरुष प्रीति करूं ऐसा सोचकर अत्रीति करते हैं, ३. कुछ पुरुष अप्रीति करूं ऐसा सोचकर प्रीति करते हैं, ४. कुछ पुरुष अप्रीति करूं ऐसा सोचकर अप्रीति ही करते हैं ।
३५८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ३५८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं --
तद्यथा
जहा - अध्यण्णो णाममेगे पत्तियं करेति, णो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं करेति, णो अप्पणी,
आत्मनः नामैकः प्रीतिकं करोति, नो परस्य,
१. कुछ पुरुष | जो स्वार्थी होते हैं ] अपने पर प्रीति [ या प्रतीति ] करते हैं दूसरों पर नहीं करते, २. कुछ पुरुष दूसरों पर प्रीति करते हैं अपने पर नहीं करते,
परस्य नामकः प्रीतिकं करोति, नो आत्मनः,
३. कुछ पुरुष अपने पर भी प्रीति करते हैं और दूसरों पर भी प्रीति करते हैं,
४
एगे अप्पणोवि पत्तियं करेति, एकः आत्मनोऽपि प्रीतिकं करोति, परस्सवि, परस्यापि, एगे जो अप्पणो पत्तियं करेति, एकः नो आत्मनः प्रीतिकं करोति, णो परस्स । नो परस्य । ३५६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ३५६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
- कुछ पुरुष अपने पर भी प्रीति नहीं करते तथा दूसरों पर भी प्रीति नहीं करते ।
१. कुछ पुरुष दूसरे के मन में प्रीति [ या विश्वास ] उत्पन्न करना चाहते हैं और वैसा कर देते हैं, २. कुछ पुरुष दूसरे के मन में प्रीति उत्पन्न करना चाहते हैं, किन्तु वैसा कर नहीं पाते, ३. कुछ पुरुष दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न करना चाहते हैं, किन्तु वैसा कर नहीं पाते, ४. कुछ पुरुष दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न करना चाहते हैं और वैसा कर देते हैं। "
३६०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
जहा -
तद्यथा
तद्यथा
प्रीतिकं प्रवेशयामीत्येकः प्रीतिकं प्रवेशयति,
प्रीतिकं प्रवेशयामीत्येकः अप्रीतिकं
अप्रीतिकं प्रवेशयामीत्येकः प्रीतिकं
अप्रीतिकं प्रवेशयामीत्येकः अप्रीतिकं प्रवेशयति ।
स्थान ४ : सूत्र ३५७-३६०
प्रीतिक- अप्रीतिक- पद ३५७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
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ठाणं (स्थान)
३८८
अपणो णाममेगे पत्तियं पवेसेति, आत्मनः नामकः प्रीतिकं प्रवेशयति, णो परस्स, नो परस्य, परस्स णाममेगे पत्तियं पवेसेति परस्य नामैकः प्रीतिकं प्रवेशयति, णो अप्पणी, नो आत्मनः,
एगे अप्पणोवि पत्तियं पवेसेति, एकः आत्मनोऽपि प्रीतिकं प्रवेशयति, परस्सवि, परस्यापि,
एगे जो अपणो पत्तियं पवेसेति, एकः नो आत्मनः प्रीतिकं प्रवेशयति, णो परस्स । नो परस्य ।
उपकार-पदं
३६१. चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं
जहा -
पत्तोवए, पुप्फोवए,
फलोवर, छायो ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा-
पण्णत्ता, तं जहा
पत्तोवाक्समाणे,
फोवाक्समाणे,
फलोवाक्समाणे,
छायोवारुखसमाणे ।
1
आसास-पदं
३६२. भारणं वहमाणस्स चत्तारि आसासा पण्णत्ता, तं जहा१. जत्थ णं अंसाओ अंसं साहरइ, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते, २. जत्थवि य णं उच्चारं वा पासवणं वा परिवेति तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते,
३. जत्थवि य णं णागकुमारावासंसि वा सुवण्णकुमारावासंसि वा वासं उवेति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते,
उपकार-पदम्
चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापत्रोपगः, पुष्पोपगः, फलोपगः, छायोपगः ।
पत्रोपगरुक्षसमानः, पुष्पोपगरुक्षसमानः,
फलोपगरुक्षसमानः, छायोपगरुक्षसमानः ।
स्थान ४ : सूत्र ३६१-३६२
१. कुछ पुरुष अपने मन में प्रीति [ या विश्वास ] का प्रवेश कर पाते हैं, पर दूसरों के मन में नहीं, २. कुछ पुरुष दूसरों के मन में प्रीति का प्रवेश कर पाते हैं, पर अपने मन में प्रीति का प्रवेश नहीं कर पाते, ३. कुछ पुरुष अपने मन में भी प्रीति का प्रवेश कर पाते हैं और दूसरों के मन में भी प्रीति का प्रवेश कर पाते हैं, ४. कुछ पुरुष न अपने मन में प्रीति का प्रवेश कर पाते हैं और न दूसरों के मन में भी प्रीति का प्रवेश कर पाते हैं।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं--- १. पत्तों वाले वृक्षों के समानसूत्र के दाता, २. फूलों वाले वृक्षों के समान - अर्थ के दाता, ३. फलों वाले वृक्षों के समान सूत्रार्थ का अनुवर्तन और संरक्षण करने वाले, ४. छाया वाले वृक्षों के समान सूत्रार्थ की सतत उपासना करने वाले । ५
आश्वास-पदम्
आश्वास-पद
भारं बहुमानस्य चत्वारः आश्वासाः ३६२. भारवाही के लिए चार आश्वास-स्थान प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
[विश्राम ] होते हैं
१. यत्र अंसाद् असं संहरति, तत्राऽपि च तस्य एकः आश्वासः प्रज्ञप्तः, २. यत्राऽपि च उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति, तत्रापि च तस्य एकः आश्वास: प्रज्ञप्तः,
१. पहला आश्वास तब होता है जब वह भार को एक कंधे से दूसरे कंधे पर रख लेता है,
३. यत्राऽपि च नागकुमारावासे वा सुपर्णकुमारावासे वा वासं उपैति तत्रापि च तस्य एकः आश्वासः प्रज्ञप्तः,
२. दूसरा आश्वास तब होता है जब वह लघुशंका या बड़ी शंका करता है, ३. तीसरा आश्वास तब होता है जब वह नागकुमार, सुपर्णकुमार आदि के आवासों में [ रात्रिकालीन ] निवास करता है,
उपकार-पद
३६१. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं
१. पत्तों वाले, २. फूलों वाले,
३. फलों वाले, ४. छाया वाले ।
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ठाणं (स्थान)
४. जत्थवि य णं आवकहाए चिट्ठति, वि य से एगे आसासे पण्णत्ते । एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पण्णत्ता, तं जहा१. जत्थवि य णं सीलव्वतगुणवत- वेरमणं - पच्चक्खाणपोसहवासाई पडवज्जति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते, २. जत्थवि य णं सामाइयं देसावगासिय सम्ममणुपाले, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते, ३. जत्थवि य णं चाउद्दसमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपाले, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते, ४. जत्थवि य णं अपच्छिममारणंतित संलेहणा-भूसणा-भू सिते भत्तपाणपडियाइ क्खिते पाओवगते कालमणवकखमाणे विहरति तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते ।
जहा—
उदितोदिते णाममेगे,
उदितत्थमिते णाममेगे,
अत्थमितोदिते णाममेगे, अत्थमितत्थमिते णाममेगे । भरहे राया चाउरतचक्कवट्टी णं उदितोदिते, बंभदत्ते णं राया चाउरतचक्कवट्टी उदितत्थमिते,
३८६
४. यत्रापि च यावत्कथाये तिष्ठति, तत्रापि च तस्य एकः आश्वासः प्रज्ञप्तः । एवमेव श्रमणोपासकस्य
चत्वारः
आश्वासाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. यत्रापि च शीलवत - गुणव्रत- विरमणप्रत्याख्यान- पोषधोपवासान् प्रतिपद्यते, तत्रापि च तस्य एकः आश्वासः प्रज्ञप्तः,
२. यत्रापि च सामायिकं देशावका शिकं सम्यगनुपालयति, तत्रापि च तस्य एकः
आश्वासः प्रज्ञप्तः,
३. यत्रापि च चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टापौर्णमासीषु प्रतिपूर्णं पोषधं सम्पनुपालयति, तत्रापि च तस्य एकः आश्वासः प्रज्ञप्तः,
४. यत्रापि च अपश्चिम-मारणान्तिकसंलेखना - जोषणा जुष्टः भक्तपानप्रत्याख्यातः प्रायोपगतः कालमनवकाङ्क्षन् विहरति, तत्रापि च तस्य एक:
आश्वासः प्रज्ञप्तः ।
उदित-अत्थमित-पदं
उदित-अस्तमित-पदम्
उदित-अस्तमित-पद
३६३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६३. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष उदितोदित होते हैं, प्रारम्भ में भी उन्नत तथा अन्त में भी उन्नत, जैसेचतुरंत चक्रवर्ती भरत, २. कुछ पुरुष उदितास्तमित होते हैं- प्रारम्भ में उदित तथा अंत में अनुदित, जैसे-चतुरंत चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त, ३. कुछ पुरुष अस्तमितोदित होते हैं- प्रारम्भ में अनुन्नत तथा अन्त में उन्नत जैसे – हरिकेशवल अनगार, ४. कुछ पुरुष अस्तमितास्तमित
तद्यथा-
उदितोदितः नामैकः,
उदीतास्तमितः नामैकः,
अस्तमितोदितः नामैकः, अस्तमितास्तमितः नामैकः । भरतो राजा चातुरन्त चक्रवर्ती उदितोदितः, ब्रह्मदत्तः राजा चातुरन्त - चक्रवर्त्ती उदितास्तमितः, हरिकेशबलः
स्थान ४ : सूत्र १६३
४. चौथा आवास तब होता है जब वह कार्य को संपन्न कर भारमुक्त हो जाता है। इसी प्रकार श्रमणोपासक [ श्रावक ] के लिए भी चार आश्वास होते हैं१. जब वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास को स्वीकार करता है, तब पहला आश्वास होता है,
२. जब वह सामायिक तथा देशावकाशिक व्रत का सम्यक् अनुपालन करता है तब दूसरा आश्वास होता है, ३. जब वह अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन परिपूर्ण दिन रात भर पोषध का सम्यक् अनुपालन करता है, तब तीसरा आश्वास होता है, ४. जब वह अन्तिम मारणांतिकसंलेखना की आराधना से युक्त होकर भक्त पान का त्याग कर प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार कर मृत्यु के लिए अनुत्सुक होकर विहरण करता है, तब चौथा आश्वास होता है।
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ठाणं (स्थान)
३६०
स्थान ४ : सूत्र ३६४-३६७ .
हरिएसबले णं अणगारे अत्थ- अनगारः अस्तमितोदितः, काल: मितोदिते, काले णं सोयरिये शौकरिक: अस्तमितास्तमितः । अत्थमितत्थमिते ।
होते हैं--प्रारम्भ में भी अनुन्नत तथा अन्त में भी अनुन्नत, जैसे-काल शौकरिक ।
जुम्म-पदं युग्म-पदम्
युग्म-पद ३६४. चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः युग्माः प्रज्ञप्ताः, तदयथा_ ३६४. युग्म [ राशि-विशे कडजुम्मे, तेयोए,
कृतयुग्मः, त्र्योजः, द्वापरयुग्मः, कल्योजः । १. कृत-युग्म-जिस राशि में से चार दावरजुम्मे, कलिओए।
चार निकालने के बाद शेष चार रहे, २. योज-जिस राशि में से चार-चार निकालने के बाद शेष तीन रहे, ३. द्वापरयुग्म-जिस राशि में से चार-चार निकालने के बाद शेष दो रहे, ४. कल्योजजिस राशि में से चार-चार निकालने के
बाद शेष एक रहे। ३६५. रइयाणं चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, नैरयिकाणां चत्वारः युग्माः प्रज्ञप्ताः, ३६५. नैरविकों के चार युग्म होते हैं--- तं जहातद्यथा
१. कृत-युग्म, २. योज, ३. द्वापर-युग्म, कडजुम्मे, तेओए,
कृतयुग्मः, योजः, द्वापरयुग्मः, कल्योजः। ४. कल्योज। दावरजुम्मे, कलिओए। ३६६. एवं—असुरकुमाराणं जाव थणिय- एवम्-असुरकुमाराणां यावत् ३६६. इसी प्रकार असुरकुमार से स्तनितकुमार स्तनितकुमाराणाम् ।
तक तथा पृथ्वी, अप, तेजस, वायु, वनएवं—पुढविकाइयाणं आउ-तेउ- एवम्—पृथिवीकायिकानां अप्-तेजस्- स्पति, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, वाउ-वणस्सतिकाइयाणं बंदियाणं वायु-वनस्पतिकायिकानां द्वीन्द्रियाणां पंचेन्द्रियतिर्यकयोनिज, मनुष्य, वानतेंदियाणं चरिदियाणं पंचिदिय- त्रीन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियाणां पञ्चेन्द्रिय- मन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-इन तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं तिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां वानमन्तर- सबके नैरयिकों की भांति चार-चार युग्म वाणमंतरजोइसियाणं वेमाणियाणं- ज्योतिष्कानां वैमानिकानां—सर्वेषां होते हैं। सव्वेसि जहा गैरइयाणं। यथा नै रयिकाणाम्। सूर-पदं शूर-पदम्
शर-पद ३६७. चत्तारि सूरा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः शूराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३६७. शूर चार प्रकार के होते हैंखंतिसूरे, तवसूरे,
क्षान्तिशूरः, तपःशूरः, दानशूरः, युद्धशूरः। १. शान्ति शूर, २. तपः शूर, दाणसूरे, जुद्धसूरे, क्षान्तिशूराः अर्हन्तः, तपःशूराः, अनगारा, ३. दान शूर, ४. युद्ध शूर। खंतिसूरा अरहंता, दानशूरो वैश्रमणः, युद्धशूरो वासुदेवः । अर्हन्त क्षान्ति शूर होते हैं, तवसूरा अणगारा,
अनगार तपः शूर होते हैं, दाणसूरे वेसमणे,
वैश्रमण दान शूर होता है, जुद्धसूरे वासुदेवे।
वासुदेव युद्ध शूर होता है।
कुमाराणं।
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ठाणं (स्थान)
जहा -
उच्चे णाममेगे उच्चच्छंदे, उच्चे णाममेगे णीयच्छंदे,
णीए णाममेगे उच्चच्छंदे, णीए णाममेगे णीयच्छंदे ।
उच्चणीय-पदं
उच्चनीच पदम्
उच्चनीच-पद
३६८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-
तद्यथा—
उच्चः नामैक: उच्चच्छन्दः, उच्चः नामैक: नीचच्छन्दः,
१. कुछ पुरुष शरीर - कुल आदि में उच्च होते हैं और उनके विचार भी उच्च होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर - कुल आदि से उच्च होते हैं पर उनके विचार नीचे होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर-कुल आदि से नीचे होते हैं पर उनके विचार उच्च होते
नीचः नामैक: उच्चच्छन्दः, नीचः नामैक: नीचच्छन्दः ।
हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर-कुल आदि से भी नीचे होते हैं और उनके विचार भी नीचे होते हैं । लेश्या-पद
लेश्या-पदम्
असुरकुमाराणां चतस्रः लेश्याः प्रज्ञप्ताः, ३६६. असुरकुमार देवताओं के चार लेश्याएं
होती हैं
१. कृष्ण लेश्या, २. नील लेश्या,
३. कापोत लेश्या, ४. तेजो लेश्या । ३७०. इसी प्रकार शेष भवनपति देवों, पृथ्वी
कायिक, अप्कायिक तथा वनस्पतिकायिक जीवों और वानमन्तर देवों इन सबके चार-चार लेश्याएं होती हैं ।
युक्त अयुक्त-पदम्
युक्त अयुक्त पद
चत्वारि यानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा ३७१. यान चार प्रकार के होते हैं
लेसा - पदं ३६९. असुरकुमाराणं चत्तारि लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा -
कण्हलेसा, नीललेसा,
काउलेसा, तेजसा । ३७०. एवं — जाव थणियकुमाराणं ।
एवं - पुढ विकाइयाणं आउवणस्सइ काइयाणं वाणमंतराणं सव्र्व्वेसि जहा असुरकुमाराणं । जुत्त- अजुत्त-पदं
३७१. चत्तारि जाणा पण्णत्ता, तं जहा जुत्ते णाममेगे जुत्ते,
जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते ।
३६१
तद्यथा—
कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या ।
एवम् — यावत् स्तनितकुमाराणाम् । एवम् पृथिवीकायिकानां अप्वनस्पतिकायिकानां वानमन्तराणां सर्वेषा यथा असुरकुमाराणाम् ।
युक्तं नामैकं युक्तं,
युक्तं नामैकं अयुक्तं, अयुक्तं नामैकं युक्तं, अयुक्तं नामैकं अयुक्तम् ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
पण्णत्ता, त जहा
तद्यथा—
जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुत्ते णाममे अजुत्ते,
युक्तः नामैकः युक्तः, युक्तः नामैक: अयुक्तः,
स्थान ४ : सूत्र ३६८-३७१
९. कुछ यान युक्त और युक्त-रूप वाले होते हैं - बैल आदि से जुड़े हुए होकर वस्त्राभरणों से सुशोभित होते हैं, २. कुछ यान युक्त होकर अयुक्त रूप वाले होते हैं, ३. कुछ यान अयुक्त होकर युक्त रूप वाले होते हैं, ४. कुछ यान अयुक्त होकर अयुक्त रूप वाले होते हैं ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते
हैं - १. कुछ पुरुष युक्त और युक्त रूप
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ठाणं (स्थान)
३६२
स्थान ४: सूत्र ३७२-३७४ अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अयुक्तः नामैक: युक्तः,
वाले होते हैं-गुणों से समृद्ध होकर
वस्त्राभरणों से भी सुशोभित होते हैं, अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते। अयुक्त: नामैक: अयुक्तः ।
२. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्त-रूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्त-रूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष
अयुक्त होकर अयुक्त-रूप वाले होते हैं। ३७२. चत्तारि जाणा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- ३७२. यान चार प्रकार के होते हैंजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, युक्तं नामैकं युक्तपरिणतं,
१. कुछ यान युक्त और युक्तपरिणत
होते हैं बैल आदि से जुड़े हुए होकर सामग्री जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते, युक्तं नामक अयुक्तपरिणतं,
के अभाव से सामग्री के भाव में परिणत अजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, अयुक्तं नामक युक्तपरिणतं,
हो जाते हैं २.कुछ यान युक्त होकर अयुक्त
परिणत होते हैं, ३. कुछ यान अयुक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते। अयुक्तं नामैक अयुक्तपरिणतं । होकर युक्तपरिणत होते हैं,४. कुछ मान
अयुक्त होकर अयुक्तपरिणत होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, युक्त: नामैक: युक्तपरिणतः, १. कुछ पुरुष युक्त और युक्तपरिणत होते जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते, युक्त: नामकः अयुक्तपरिणतः,
है-ध्यान आदि से समृद्ध होकर उचित
अनुष्ठान के अभाव से भाव में परिणत अजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, अयुक्तः नामकः युक्तपरिणतः, हो जाते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अजुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते। अयुक्तः नामकः अयुक्तपरिणतः ।
अयुक्तपरिणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्तपरिणत होते हैं, ४. कुछ पुरुष
अयुक्त होकर अयुक्तपरिणत होते है। ३७३. चत्तारि जाणा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३७३. यान चार प्रकार के होते हैं..... जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, युक्तं नामैक युक्तरूपं,
१. कुछ यान युक्त और युक्त-रूप वाले होते
है-बैल आदि से जुड़े हुए होकर वस्त्राभरणों जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, युक्तं नामैकं अयुक्तरूपं,
से सुशोभित होते हैं,२.कुछ यान युक्त होकर अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, अयुक्तं नामक युक्तरूपं,
अयुक्त-रूप वाले होते हैं,३.कुछ यान अयुक्त
होकर युक्त-रूप वाले होते हैं, ४.कुछ यान अजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे। अयुक्तं नामैकं अयुक्तरूपम्।
अयुक्त होकर अयुक्त-रूप वाले होते हैं । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष चार प्रकार के होते हैंपण्णत्ता, तं जहा
१. कूछ पुरुष युक्त और युक्त-रूप वाले तद्यथा
होते हैं-गुणों से समृद्ध होकर वस्त्राभरणों जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, युक्तः नामैक: युक्तरूपः,
से भी सुशोभित होते हैं, २. कुछ पुरुष जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, युक्त: नामक: अयुक्तरूपः,
युक्त होकर अयुक्त-रूप बाले होते है,
३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्त-रूप अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, अयुक्तः नामैक: युक्तरूपः,
वाले होते है, ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे। अयुक्तः नामैकः अयुक्तरूपः।
अयुक्त-रूप वाले होते हैं। ३७४. चत्तारि जाणा पण्णत्ता तं जहा- चत्वारि यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३७४. यान चार प्रकार के होते हैंजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, युक्तं नामैक युक्तशोभं,
१. कुछ यान युक्त और युक्त शोभा वाले जुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे,
होते हैं—बैल आदि से जुड़े हुए तथा युक्तं नामैकं अयुक्तशोभं,
दीखने में सुन्दर होते हैं, २. कुछ यान युक्त अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, अयुक्तं नामैकं युक्तशोभं,
होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ अजुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे। अयुक्तं नामकं अयुक्तशोभम्।
यान अयुक्त होकर युक्त शोभावाले होते, ४. कुछ यान अयुक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३६३
स्थान ४ : सूत्र ३७५-३७६
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, युक्तः नामकः युक्तशोभः, जुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे, युक्तः नामैक: अयुक्तशोभः, अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, अयुक्त: नामकः युक्तशोभः, अजुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे। अयुक्तः नामैक: अयुक्तशोभः ।
१. कुछ पुरुष युक्त और युक्त शोभा वाले होते हैं-धन आदि से समृद्ध होकर शोभा-सम्पन्न होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं।
३७५. चत्तारि जुग्गा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि यु ग्यानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- ३७५. युग्य [बैल, अश्व आदि की जोड़ी] चार जुत्ते णाममेगे जुत्ते, युक्तं नामैकं युक्तं,
प्रकार के होते हैंजुत्ते णाममेगे अजुत्ते, युक्तं नामैकं अयुक्त,
१. कुछ युग्य युक्त होकर युक्त होते हैंअजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अयुक्तं नामैक युक्तं,
बाह्य उपकरणों से युक्त होकर वेग से भी अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते। अयुक्तं नामैकं अयुक्तम् ।
युक्त होते हैं, २. कुछ युग्य युक्त होकर अयुक्त होते हैं, ३. कुछ युग्य अयुक्त होकर युक्त होते हैं, ४. कुछ युग्य अयुक्त होकर
अयुक्त होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं--१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त होते जुते गाममेगे जुत्ते, युक्त: नामैक: युक्तः,
हैं—सम्पदा से युक्त होकर वेग से भी जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, युक्त: नामैक: अयुक्तः,
युक्त होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अजुत्ते णाममेगे जुत्ते अयुक्तः नामकः युक्तः,
अयुक्त होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते। अयुक्तः नामैकः अयुक्तः।
होकर युक्त होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त
होकर अयुक्त होते हैं। ३७६. 'चत्तारि जुग्गा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि युग्यानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३७६. युग्य चार प्रकार के होते हैं--- जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, युक्तं नामक युक्तपरिणतं,
१. कुछ युग्य युक्त होकर युक्त-परिणत जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते, युक्तं नामक अयुक्तपरिणतं,
होते हैं, २. कुछ युग्य युक्त होकर अयुक्तअजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, अयुक्तं नामक युक्तपरिणतं,
परिणत होते हैं, ३. कुछ युग्य अयुक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते। अयुक्तं नामैकं अयुक्तपरिणतम् । होकर युक्त-परिणत होते हैं, ४. कुछ युग्य
अयुक्त होकर अयुक्त-परिणत होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा
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ठाणं (स्थान)
जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, जुते णामगे अजुत्तपरिणते, अजुत्ते णाममेगे जत्तपरिणते, अजुते णाममेगे अजुत्तपरिणते ।
३७७. चत्तारि जुग्गा पण्णत्ता, तं जहा— जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, जुत्ते णाममेगे अजुत्तरू वे, अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, अजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे ।
जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, अजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे ।
जुग्गा पण्णत्ता, तं जहाजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, जुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे, अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, अजुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे ।
३७८. चत्तारि
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा-
३६४
जुत्ते णाममेगे जुत्तसोमे, जुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे, अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, अ णामगे अजुत्तोभे ।°
युक्तः नामैक: युक्तपरिणतः, युक्तः नामैक: अयुक्तपरिणतः, अयुक्तः नामैकः युक्त परिणतः, अयुक्तः नामकः अयुक्तपरिणतः ।
चत्वारि युग्यानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - ३७७ युग्म चार प्रकार के होते हैं --
युक्तं नामैकं युक्तरूपं, युक्तं नामैकं अयुक्तरूपं,
अयुक्तं नामैकं युक्तरूपं, अयुक्तं नामैकं अयुक्तरूपम् ।
युक्तः नामैकः युक्तरूपः, युक्तः नामैक: अयुक्तरूपः, अयुक्तः नामकः युक्तरूपः, अयुक्तः नामैक: अयुक्तरूपः ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा
चत्वारि युग्यानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा युक्तं नामैकं युक्तशोभं, युक्तं नामैकं अयुक्तशोभ, अयुक्तं नामैकं युक्तशोभं, अयुक्तं नामकं अयुक्तशोभम् ।
तद्यथायुक्तः: नामैकः युक्तशोभः, युक्तः नामैक: अयुक्तशोभः, अयुक्तः नामैक: युक्तशोभः, अयुक्तः नामकः अयुक्तशोभः ।
स्थान ४ : सूत्र ३७७-३७८ १. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त-परिणत होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्तपरिणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्त-परिणत होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त-परिणत होते हैं ।
१. कुछ युग्य युक्त होकर युक्त रूप वाले होते हैं, २. कुछ युग्य युक्त होकर अयुक्त रूप वाले होते हैं, ३. कुछ युग्य अयुक्त होकर युक्त रूप वाले होते हैं, ४. कुछ युग्य अयुक्त होकर अयुक्त रूप वाले होते हैं ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त-रूप वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्तरूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्त रूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त रूप वाले होते हैं ।
३७८. युग्य चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ युग्य युक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, २. कुछ युग्य युक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ युग्य अयुक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, ४. कुछ युग्य अयुक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं---
१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
सारहि-पदं
३७६. चत्तारि सारही पण्णत्ता, तं जहाजोयावइत्ता णामं एगे, णो विजोयावइत्ता, विजोयावइत्ता णामं एगे, णो जोयावइत्ता,
एगे जोयावइत्तावि, विजोयावइत्तावि,
एगे णो जोयावइत्ता,
णो विजोयावइत्ता ।
३८०.
जुत्त- अजुत्त-पदं
चत्तारि
'हया पण्णत्ता,
जुत्ते णामगे जुत्ते, जुत्ते णाममे अजुत्ते,
अजुत्ते णाममेगे जुत्ते,
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
पण्णत्ता, तं जहा -
जोयावइत्ता णामं एगे,
णो विजोयावइत्ता, विजयावइत्ता णामं एगे, णो जोयावइत्ता,
एगे जोयावइत्तावि, विजयावइत्तावि,
एगे णो जोयावइत्ता, विजोयावइत्ता ।
णो
तं
अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया
पण्णत्ता, त जहातं जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुणा अजुत्ते,
अजुत्ते णामगे जुत्ते अजुत्ते णामगे अजुत्ते ।
जहा
३६५
सारथि -पदम्
चत्वारः सारथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— योजयिता नामकः, नो वियोजयिता, वियोजयिता नामैकः, नो योजयिता, एक: योजयितापि, वियोजयितापि, एक: नो योजयिता, नो वियोजयिता
1
तद्यथा-योजयिता नामैकः, नो वियोजयिता, वियोजयिता नामैकः, नो योजयिता, एक: योजयितापि, वियोजयितापि, एक: नो योजयिता, नो वियोजयिता ।
युक्त अयुक्त-पदम्
चत्वारः हयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथायुक्तः नामैकः युक्तः, युक्तः नामकः अयुक्तः,
अयुक्तः नामैक: युक्तः,
अयुक्तः नामैक: अयुक्तः । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा-
युक्तः नामकः युक्तः, युक्त: नामैक: अयुक्तः,
अयुक्तः नामैक: युक्तः, अयुक्तः नामैकः अयुक्त: ।
स्थान ४ : सूत्र ३७-३८०
सारथि - पद
३७६. सारथि चार प्रकार के होते हैं----
१. कुछ सारथि योजक होते हैं, किन्तु वियोजक नहीं होते बैल आदि को गाड़ी से जोड़ने वाले होते हैं पर मुक्त करने वाले
नहीं होते, २. कुछ सारथि वियो जक होते हैं, किन्तु योजक नहीं होते, ३. कुछ सारथि योजक भी होते हैं और वियोजक भी होते हैं, ४. कुछ सारथि योजक भी नहीं होते और वियोजक भी नहीं होते ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं—
१. कुछ पुरुष योजक होते हैं, किन्तु वियोक नहीं होते, २. कुछ पुरुष वियोजक होते हैं, किन्तु योजक नहीं होते, ३. कुछ पुरुष योजक भी होते हैं और वियोजक भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष योजक भी नहीं होते और वियोजक भी नहीं होते ।
युक्त - अयुक्त पद ३८०. घोड़े चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ घोड़े युक्त होकर युक्त ही होते हैं, २. कुछ घोड़े युक्त होकर भी अयुक्त होते हैं, ३. कुछ घोड़े अयुक्त होकर भी युक्त होते हैं, ४. कुछ घोड़े अयुक्त होकर अयुक्त ही होते हैं।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त ही होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर भी अयुक्त होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर भी युक्त होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त ही होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ३८१-३८३ ३८१. 'चत्तारि हया पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः हयाः प्रज्ञप्ताः;- तद्यथा- ३८१. घोड़े चार प्रकार के होते हैं
जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, युक्त: नामैक: युक्तपरिणतः, १. कुछ घोड़े युक्त होकर युक्त-परिणत जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते, युक्त: नामैक: अयुक्तपरिणतः, होते हैं, २. कुछ घोड़े युक्त होकर अयुक्तअजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, अयुक्तः नामक: युक्तपरिणतः, परिणत होते हैं, ३. कुछ घोड़े अयुक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते। अयुक्तः नामकः अयुक्तपरिणतः । होकर युक्त-परिणत होते हैं, ४. कुछ
घोड़े अयुक्त होकर अयुक्त-परिणत
होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, युक्त: नामैक: युक्तपरिणतः, १. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त-परिणत जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते, युक्त: नामैक: अयुक्तपरिणतः, होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्तअजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, अयुक्तः नामैकः युक्तपरिणतः, परिणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते। अयुक्तः नामकः अयुक्तपरिणतः । होकर युक्त-परिणत होते हैं, ४. कुछ
पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त-परिणत होते
३८२. चत्तारि हया पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः हयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३८२. घोड़े चार प्रकार के होते हैंजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, यूक्तः नामकः युक्तरूपः,
१. कुछ घोड़े युक्त होकर युक्त-रूप होते जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, युक्तः नामैक: अयुक्तरूपः,
हैं, २. कुछ घोड़े युक्त होकर अयुक्त-रूप अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, अयुक्तः नामैक: युक्तरूपः, होते हैं, ३. कुछ घोड़े अयुक्त होकर युक्तअजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे। अयुक्तः नामैक: अयुक्तरूपः। रूप होते हैं, ४. कुछ घोड़े अयुक्त होकर
अयुक्त-रूप होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, युक्तः नामकः युक्तरूपः, १. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त-रूप होते जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, युक्तः नामैक: अयुक्तरूपः, हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्तअजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, अयुक्तः नामकः युक्तरूपः,
रूप होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अजुत्ते णाममेगेअ जुत्तरूवे। अयुक्तः नामकः अयुक्तरूपः । युक्त-रूप होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त
होकर अयुक्त-रूप होते हैं। ३८३. चत्तारि हया पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः हयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३८३. घोड़े चार प्रकार के होते हैंजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, युक्तः नामकः युक्तशोभः,
१. कुछ घोड़े युक्त होकर युक्त शोभा
वाले होते हैं, २. कुछ घोड़े युक्त होकर जुत्ते णाममेगे अजुत्त सोभे, युक्तः नामकः अयुक्तशोभः,
अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ घोड़े अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, अयुक्तः नामैक: युक्तशोभः,
अयुक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, अजुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे। अयुक्तः नामैकः अयुक्तशोभः । ४. कुछ घोड़े अयुक्त होकर अयुक्त शोभा
वाले होते हैं।
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३६७
ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ३८४-३८५ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णता, तं जहा
तद्यथाजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, युक्त: नामैक: युक्तशोभः,
१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त-रूप वाले जुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे, युक्तः नामक: अयुक्तशोभः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्तअजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, अयुक्त: नामैक: युक्तशोभः,
रूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्त सोगे। अयुक्तः नामैक: अयुक्तशोभः ।
होकर युक्त-रूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त-रूप वाले
होते हैं। ३८४. चत्तारि गया पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः गजा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३८४. हाथी चार प्रकार के होते हैं.--. जुत्ते णासमेगे जुत्ते, युक्तः नामैकः युक्तः,
१. कुछ-हाथी युक्त होकर युक्त ही होते जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, युक्तः नामैक: अयुक्तः,
है, २. कुछ हाथी युक्त होकर भी अयुक्त अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अयुक्तः नामैकः युक्तः,
होते हैं, ३. कुछ हाथी अयुक्त होकर भी अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते। अयुक्तः नामकः अयुक्तः ।
युक्त होते हैं, ४. कुछ हाथी अयुक्त होकर
अयुक्त होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजुत्ते णाममेगे जुत्ते, युक्तः नामकः युक्तः,
१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त ही होते हैं, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, युक्त: नामैकः अयुक्तः,
२. कुछ पुरुष युक्त होकर भी अयुक्त होते अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अयुक्तः नामकः युक्तः,
हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर भी युक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते। अयुक्तः नामकः अयुक्तः ।
होते हैं. ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर
अयुक्त होते हैं। ३८५. 'चत्तारि गया पण्णत्ता तं जहा.- चत्वारः गजाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा- ३८५. हाथी चार प्रकार के होते हैं
जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, युक्त: नामैक: युक्तपरिणतः, १. कुछ हाथी युक्त होकर युक्तपरिणत जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते, युक्तः नामैक: अयुक्तपरिणतः, होते हैं, २. कुछ हाथी युक्त होकर अयुक्तअजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, अयुक्तः नामकः युक्तपरिणतः, परिणत होते हैं, ३. कुछ हाथी अयुक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते। अयुक्तः नामक: अयुक्तपरिणतः । होकर युक्तपरिणत होते हैं, ४. कुछ हाथी
अयुक्त होकर अयुक्तपरिणत होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णता, तं जहा
तद्यथाजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, युक्तः नामैक: युक्तपरिणतः, १ कुछ पुरुष युक्त होकर युक्तपरिणत जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते, युक्तः नामक: अयुक्तपरिणतः, होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्तअजुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, अयुक्तः नामैक: युक्तपरिणतः, परिणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त अजुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते। अयुक्तः नामैक: अयुक्तपरिणतः । होकर युक्तपरिणत होते हैं। ४. कुछ
पुरुष अयुक्त होकर अयुक्तपरिणत होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
३९८
स्थान ४ : सूत्र ३८६-३८८ ३८६. चत्तारि गया पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः गजाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४८६. हाथी चार प्रकार के होते हैंजुत्ते णामणेगे जुत्तरूवे, युक्त: नामक: युक्तरूपः,
१. कुछ हाथी युक्त होकर युक्त-रूप वाले जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, युक्तः नामैक: अयुक्तरूपः,
होते हैं, २. कुछ हाथी युक्त होकर अयुक्त
रूप वाले होते हैं, ३. कुछ हाथी अयुक्त अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, अयुक्त: नामकः युक्तरूपः,
होकर युक्त-रूप वाले होते हैं, ४. कुछ अजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे। अयुक्तः नामैक: अयुक्तरूपः।
हाथी अयुक्त होकर अयुक्त-रूप वाले
होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष चार प्रकार के होते हैंपण्णत्ता, तं जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त-रूप वाले जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, युक्तः नामकः युक्तरूपः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्तजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, युक्त: नामैक: अयुक्तरूपः,
रूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, अयुक्त: नामैकः युक्तरूपः, होकर युक्त-रूप वाले होते हैं, ४. कुछ अजुत्ते णाममेगे जजुत्तरूवे। अयुक्तः नामैक: अयुक्तरूपः । पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त-रूप वाले होते
३८७. चत्तारि गया पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः गजाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३८७. हाथी चार प्रकार के होते हैंजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, युक्त: नामकः युक्तशोभः,
१. कुछ हाथी युक्त होकर युक्त शोभा जुत्ते णाममेगे अजुत्त सोभे, युक्त: नामैकः अयुक्तशोभः,
वाले होते हैं, २. कुछ हाथी युक्त होकर अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, अयुक्तः नामैकः युक्तशोभः,
अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ हाथी अजुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे। अयुक्त: नामक: अयुक्तशोभः । अयुक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं,
४. कुछ हाथी अयुक्त होकर अयुक्त शोभा
वाले होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजुत्ते णामभेगे जुत्तसोभे, युक्तः नामैकः युक्तशोभः, १. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त शोभा जुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे, युक्तः नामकः अयुक्तशोभः, वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, अयुक्तः नामैक: युक्तशोभः,
अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुप अजुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे । अयुक्तः नामकः अयुक्तशोभः। अयुक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं,
४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं।
पंथ-उप्पह-पदं पथ-उत्पथ-पदम्
पथ-उत्पथ-पद ३८८. चत्तारि जुग्गारिता पण्णत्ता, तं चत्वारि युग्यऋतानि प्रज्ञप्तानि, ३८८. युग्य [ घोड़े आदि का जोड़ा] का ऋत जहातद्यथा
[गमन] चार प्रकार का होता हैपंथजाई णाममेगे, नो उप्पहजाई, पथयायि नामैकः, नो उत्पथयायि, १. कुछ युग्य मार्गगामी होते हैं, उन्मार्गउप्पहजाई णाममेगे, नो पंथजाई, उत्पथयायि नामक, नो पथयायि, गामी नहीं होते, २. कुछ युग्य उन्मार्ग
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ठाणं (स्थान)
एगे पंथजाईवि, उप्पहजाईवि, एगे जो पंथजाई, णो उप्पहजाई ।
रूव - सील-पदं
३८. चत्तारि पुष्पा पण्णत्ता, तं जहारुवसंपणे णाममेगे,
णो गंधपणे,
गंधपणे णाममेगे, णो रूवसंपणे, एगे रूवसंपण्णेवि, गंधसंपणे वि, एगे णो रूवसंपणे, णो गंधसंपण्णे ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
पण्णत्ता, त जहापंथजाई णाममेगे, जो उप्पहजाई, उपजाई णाममेगे, णो पंथजाई, एगे पंथजाईवि, उप्पहजाईवि, एगे णो पंथजाई, णो उप्पहजाई ।
३६६
णो सीलसंपणे, सीलसंपण्णे णाममेगे, णो रुवसंपणे, एगे रुवसंपण्णेवि, सोलसंपण्णेवि, एगे णो रुवसंपणे, णो सीलसंपण्णे ।
एकं पथयाय्यपि, उत्पथयाय्यपि, एकं नो पथयायी, नो उत्पथयायी ।
तद्यथापथयायी नामैकः, नो उत्पथयायी, उत्पथयायी नामैकः, नो पथयायी, एकः पथयाय्यपि, उत्पथयाय्यपि, एक: नो पथयायी, नो उत्पथयायी ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
पण्णत्ता, तं जहा - रुवसंपणे णाममेगे,
रूप-शील-पदम्
चत्वारि पुष्पाणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - रूपसम्पन्नं नामैकं, नो गन्धसम्पन्नं, गंधसम्पन्नं नामैक, नो रूपसम्पन्नं, एकं रूपसम्पन्नमपि, गन्धसम्पन्नमपि एकं नो रूपसम्पन्नं, नो गन्धसम्पन्नम् ।
तद्यथारूपसम्पन्नः नामैकः, नो शीलसम्पन्नः, शीलसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, एक: रूपसम्पन्नोऽपि, शीलसम्पन्नोऽपि, एक: नो रूपसम्पन्नः, नो शीलसम्पन्नः ।
स्थान ४ : सूत्र ३८६
गामी होते हैं, मार्गगामी नहीं होते, ३. कुछ युग्य मार्गगामी भी होते हैं और उन्मार्गगामी भी होते हैं, ४. कुछ युग्य मार्गगामी भी नहीं होते और उन्मार्ग गामी भी नहीं होते ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष मार्गगामी होते हैं, उन्मार्गगामी नहीं होते, २. कुछ पुरुष उन्मार्गगामी होते हैं, मार्गगामी नहीं होते, १३. कुछ पुरुष मार्गगामी भी होते हैं और उन्मार्गगामी भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न मार्गगामी होते हैं और न उन्मार्गगामी होते हैं ।
रूप- शील- पद
३८६. पुष्प चार प्रकार के होते हैं—
१. कुछ पुष्प रूप- सम्पन्न होते हैं, गन्धसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुष्प गन्धसम्पन्न होते हैं, रूप- सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुष्प रूप सम्पन्न भी होते हैं और गन्ध-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुष्प न रूप- सम्पन्न होते हैं और न गन्ध-सम्पन्न होते हैं।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष रूप सम्पन्न होते हैं, गन्धसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष गन्धसम्पन्न होते हैं, रूप-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष रूप सम्पन्न भी होते और गन्ध-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न रूप- सम्पन्न होते हैं और न गन्ध-सम्पन्न होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र ३६०-३६३
जाति-पदं जाति-पदम्
जाति-पद ३६०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, कुलजातिसंपण्णे णाममेगे, जातिसम्पन्नः नामकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष कुलणो कुलसंपण्णे, कूलसम्पन्नः नामकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, कुलसंपण्णे णाममेगे, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, कुलसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते हैं णो जातिसंपण्णे, एक: नो जातिसम्पन्नः, नो कुलसम्पन्नः। और कुल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे जातिसंपण्णेवि,
पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं और न कुलसंपण्णेवि,
कुल-सम्पन्न होते हैं। एगे णो जातिसंपण्णे,
णो कुलसंपण्णे। ३६१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, बलजातिसंपण्णे णाममेगे, जातिसम्पन्नः नामैकः, नो बलसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष बलणो बलसंपण्णे, बलसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, बलसंपण्णे णाममेगे, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, बलसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते हैं जो जातिसंपण्णे, एक: नो जातिसम्पन्नः, नो बलसम्पन्नः। और बल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे जातिसंपण्णेवि, बलसंपण्णेवि,
पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं और न एगे णोजातिसंपण्णे, णो बलसंपण्णे।
बल-सम्पन्न होते हैं।
३६२. 'चत्तारि पूरिसजाया पण्णत्ता तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६२. पुरुष चार प्रकार के होते हैं...... तद्यथा
१. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, रूपजातिसंपण्णे णाममेगे,
जातिसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपणो रूवसंपण्णे, रूपसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, रूवसंपण्णे णाममेगे, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि,
३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते हैं णो जातिसंपण्णे,
एकः नो जातिसम्पन्न:, नो रूपसम्पन्नः। और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे जातिसंपण्णेवि,
पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं और न रूवसंपण्णेवि,
रूप-सम्पन्न होते हैं। एगे णो जातिसंपण्णे,
णो रूवसंपण्णे। ३६३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा
तद्यथा
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ३४-३६६ १. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, श्रुतसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष श्रुतसम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष जाति सम्पन्न भी होते हैं और श्रुत-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न जाति सम्पन्न होते हैं और न श्रुत-सम्पन्न होते हैं ।
३६४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ३६४. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
तद्यथा
जातिसम्पन्नः नामैकः, नो शीलसम्पन्नः, शीलसम्पन्नः नामकः, नो जातिसम्पन्नः, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, शीलसम्पन्नोऽपिः, एक: नो जातिसम्पन्नः, नो शीलसम्पन्नः ।
९. कुछ पुरुष जाति सम्पन्न होते हैं, शीलसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष शीलसम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष जाति सम्पन्न भी होते हैं। और शील-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न जाति सम्पन्न होते हैं और न शील-सम्पन्न होते हैं ।
जातिसंपणे णाममेगे, णो सुसंपणे,
सुयसंपणे णाममेगे,
णो
जातिसंपण्णे,
एगे जातिसंपणेवि, सुयसंपण्णेवि, एगे जो जातिसंपणे,
णो सुयसंपणे !
जहा - जातिसंपण्णे णाममेगे णो सीलसंपणे,
सीलसंपणे णाममेगे,
णो जातिसंपणे, एगे जातिसंपणे वि, सोलसंपणेवि,
एगे जो जातिसंपणे,
णो सीलसंपण्णे ।
३६५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ३६५ पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
तद्यथा - जातिसम्पन्नः नामैकः,
नो चरित्र सम्पन्नः, चरित्र सम्पन्नः नामैकः,
१. कुछ पुरुष जाति सम्पन्न होते हैं, चरित्र सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष चरित्र सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते हैं और चरित्र सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न जाति सम्पन्न होते हैं और न चरित्र-सम्पन्न होते हैं ।
नो जातिसम्पन्नः, एक: जातिसम्पन्नोऽपि,
चरित्र सम्पन्नोऽपि, एक: नो जातिसम्पन्नः, नो चरित्र सम्पन्नः ।
जहा --
जातिसंपण्णे णाममेगे, चरित संपणे,
णो
चरितसंपणे णाममेगे,
४०१
जातिसम्पन्नः नामैकः, नो श्रुतसम्पन्नः, श्रुतसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, एकः जातिसम्पन्नोऽपि श्रुतसम्पन्नोऽपि, एकः नो जातिसम्पन्नः, नो श्रुतसम्पन्नः ।
णो
जातिसंपणे,
एगे जातिसंपण्णेवि, चरित्तसंपण्णेवि,
एगे णो जातिसंपणे,
णो चरितसंपणे । कुल- पदं
कुल-पदम्
कुल पद
३६. वत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
तद्यथा
कुलसम्पन्नः नामैकः, नो बलसम्पन्नः, बलसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, एकः कुलसम्पन्नोऽपि बलसम्पन्नोऽपि, एकः नो कुल सम्पन्नः, नो वलसम्पन्नः ।
जहा - कुल संपण्णे णाममेगे, णो बलसंपण्णे, बलसंपणे णाममेगे, णो कुलसंपण्णे, एगे कुलसंपण्णेवि, बलसंपण्णेवि, एगे णो कुल संपणे, णो बलसंपण्णे ।
1
१. कुछ पुरुष कुल सम्पन्न होते हैं, बलसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न होते हैं, कुल सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष कुल सम्पन्न भी होते हैं और बलसम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न कुलसम्पन्न होते हैं और न बल-सम्पन्न होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
४०२
स्थान ४: सूत्र ३६७-४०० ३६७. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, रूपकुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्न: नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपणो रूवसंपण्णे, रूपसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, । सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, रूवसंपण्णे णाममेगे, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते हैं और णो कुलसंपण्णे, एक: नो कूलसम्पन्न:, नो रूपसम्पन्नः । रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न एगे कुलसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि,
कुल-सम्पन्न होते हैं और न रूप-सम्पन्न एगे णो कुलसंपण्णे, णो रूवसंपण्णे ।
होते हैं।
३६८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, श्रुतकुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्नः नामैकः, नो श्रुतसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष श्रुतणो सुयसंपण्णे, श्रुतसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, सुयसंपण्णे णाममेगे, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, श्रुतसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते हैं णो कुलसंपण्णे, एकः नो कुलसम्पन्नः, नो श्रुतसम्पन्नः। और श्रुत-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे कुलसंपण्णेवि, सुयसंपण्णेवि,
पुरुष न कुल-सम्पन्न होते हैं और न श्रुतएगे णो कुलसंपण्णे, णो सुयसंपण्णे।
सम्पन्न होते हैं।
३६६. चतारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ३६६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, शीलकुलसंपण्णे णाममेगे,
कूलसम्पन्नः नामकः, नो शीलसम्पन्नः. सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष शीलणो सीलसंपण्णे, शीलसम्पन्न: नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, सीलसंपण्णे णाममेगे,
एकः कुलसम्पन्नोऽपि, शीलसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते हैं णो कुलसंपण्णे, एक: नो कुलसम्पन्नः, नो शीलसम्पन्नः। और शील-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे कुलसंपण्णेवि, सीलसंपण्णेवि,
पुरुष न कुल-सम्पन्न होते हैं और न शीलएगे णो कुलसंपण्णे, णो सीलसंपण्णे।
सम्पन्न होते हैं। या पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४००. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, चरित्नकुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्नः नामकः, नो चरित्रसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष चरित्रणो रित्तसंपण्णे, चरित्रसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, चरित्तसंपण्णे णाममेगे,
एकः कूलसम्पन्नोऽपि, चरित्रसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते हैं णो कुलसंपण्णे, एक: नो कुलसम्पन्नः, नो चरित्रसम्पन्नः। और चरित्र-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे कुलसंपण्णेवि, चरित्तसंपण्णेवि,
पुरुष न कुल-सम्पन्न होते हैं और न एगे णो कुलसंपण्णे णो चरित्तसंपण्णे
चरित्र-सम्पन्न होते हैं।
४००. चत्ता
.
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ठाणं (स्थान)
४०३
स्थान ४ : सूत्र ४०१-४०४
बल-पदं बल-पदम्
बल-पद ४०१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४०१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न होते हैं, रूपबलसंपण्णे णाममेगे,
बलसम्पन्न: नामैकः, नो रूपसम्पन्न:, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपणो रूवसपण्णे,
रूपसम्पन्न: नामैकः, नो बलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, बल-सम्पन्न नहीं होते, रूवसंपण्णे णाममेगे,
एक: बलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न भी होते हैं णो बलसंपण्णे,
एक: नो बलसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः । और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे बलसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि,
पुरुष न बल-सम्पन्न होते हैं और न रूपएगे णो बलसंपण्णे, णो रूवसंपण्णे ।
सम्पन्न होते हैं।
४०२. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं
जहाबलसंपण्णे णाममेगे, णो सुयसंपण्णे, सुयसंपण्णे णाममेगे, गो बलसंपण्णे, एगे बलसंपण्णेवि, सुयसंपण्णेवि, एगे णो बलसंपण्णे, णो सुयसंपण्णे ।
चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४०२. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-- तद्यथा
१. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न होते हैं, श्रुतबलसम्पन्नः नामकः, नो श्रुतसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष श्रुतश्रुतसम्पन्नः नामकः, नो बलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, बल-सम्पन्न नहीं होते, एक: बलसम्पन्नोऽपि, श्रुतसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न भी होते हैं और एक: नो बलसम्पन्नः, नो श्रुतसम्पन्नः । श्रुत-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न
बल-सम्पन्न होते हैं और न श्रुत-सम्पन्न होते हैं।
४०३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४०३. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न होते हैं, शीलबलसंपण्णे णाममेगे,
बलसम्पन्न: नामैकः, नो शीलसम्पन्न:, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष शीलणो सीलसंपण्णे, शोलसम्पन्न: नामैक:, नो बलसम्पन्न:, सम्पन्न होते हैं, बल-सम्पन्न नहीं होते, सीलसंपण्णे णाममेगे, एक: बलसम्पन्नोऽपि, शीलसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न भी होते हैं णो बलसंपण्णे,
एक: नो बलसम्पन्नः, नोशीलसम्पन्नः। और शील-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे बलसंपण्णेवि, सीलसंपण्णेवि,
पुरुष न बल-सम्पन्न होते हैं और न शीलएगे णो बलसंपणे, णो सोलसंपण्णे।
सम्पन्न होते हैं।
४०४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४०४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न होते हैं, चरित्रबलसंपण्णे णाममेगे, बलसम्पन्नः नामैकः
सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष चरित्रणो चरित्तसंपण्णे, नो चरित्रसम्पन्न:,
सम्पन्न होते हैं, बल-सम्पन्न नहीं होते,
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ori (स्थान)
चरितसंपणे णाममेगे, णो बलसंपणे,
एगे बलसंपणेवि, चरितसंपण्णेवि, एगेण बलसंपणे णो च रित्तसंपणे
जहा - वसंपणे णाममेगे, णो सुयसंपणे, सुयसंपणे णाममेगे,
णो रुवसंपणे, गेरूवसंपणेवि, सुयसंपण्णेवि, एगे जो रूवसंपणे णो सुयसंपण्णे
रूव--पदं
रूप-पदम्
रूप-पद
४०५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ४०५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
जहा - रुवसंपणे णाममेगे, णो सीलसंपण्णे, सीलसंपणे णाममेगे, णो रुवसंपणे, एगे रूवसंपण्णेवि, सोलसंपण्णेवि, एगे णो रूवसंपणे, णोसीलसंपण्णे ।
४०४
चरित्र सम्पन्नः नामैकः नो बलसम्पन्नः, एक: बलसम्पन्नोऽपि, चरित्रसम्पन्नोऽपि,
एकः नो बलसम्पन्नः, नो चरित्र सम्पन्नः ।
जहा - रूवसंपणे णाममेगे,
णो चरित्तसंपणे, चरितसंपणे णाममेगे, णो रुवसंपणे, गेरूवसंपणेवि, चरितसंपण्णेवि, एगे जो रुवसंपणे णो चरित्तसंपणे '
तद्यथा
रूपसम्पन्नः नामैकः, नो श्रुतसम्पन्नः श्रुतसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, एक: रूपसम्पन्नोऽपि श्रुतसम्पन्नोऽपि, नो रूपसम्पन्नः, नो श्रुतसम्पन्नः ।
एक:
४०६. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४०६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष रूप सम्पन्न होते हैं, शीलसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष शीलसम्पन्न होते हैं, रूप सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष रूप-सम्पन्न भी होते हैं और शील-सम्पन्न भी होते हैं, ४, कुछ पुरुष न रूप- सम्पन्न होते हैं और न शील-सम्पन्न होते हैं ।
तद्यथा---
रूपसम्पन्नः नामैकः, नो शीलसम्पन्नः, शीलसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, एकः रूपसम्पन्नोऽपि, शीलसम्पन्नोऽपि, एक: नो रूपसम्पन्नः, नो शीलसम्पन्नः ।
स्थान ४ : सूत्र ४०५-४०७ ३. कुछ पुरुष बल सम्पन्न भी होते हैं और चरित्र - सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न बल-सम्पन्न होते हैं और न चरित्र सम्पन्न होते हैं।
४०७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४०७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
१. कुछ पुरुष रूप- सम्पन्न होते हैं, चरित्रसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष चरित्रसम्पन्न होते हैं, रूप- सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष रूप सम्पन्न भी होते हैं और चरित्र सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न रूप-सम्पन्न होते हैं और न चरित्र-सम्पन्न होते हैं ।
तद्यथा— रूपसम्पन्नः नामैकः, नो चरित्र सम्पन्नः, चरित्र सम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, एक: रूपसम्पन्नोऽपि, चरित्रसम्पन्नोऽपि, एक: नो रूपसम्पन्नः, नो चरित्र सम्पन्नः ।
९. कुछ पुरुष रूप- सम्पन्न होते हैं, श्रुतसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष श्रुतसम्पन्न होते हैं, रूप-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष रूप- सम्पन्न भी होते हैं और श्रुत-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न रूप सम्पन्न होते हैं और न श्रुतसम्पन्न होते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
जहा - सुयपणे णाममेगे,
सीलपणे,
सु-पदं
श्रुत-पदम्
श्रुत-पद
४०८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४०८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
तद्यथा
१. कुछ पुरुष श्रुत- पम्पन्न होते हैं, शीलसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष शीलसम्पन्न होते हैं, श्रुत-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष श्रुत-सम्पन्न भी होते हैं और शील-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न श्रुत-सम्पन्न होते हैं और न शील-सम्पन्न होते हैं ।
एगे सुयसंपण्णेवि, सील संपणे वि,
एगे जो सुसंपणे, णो सीलसंपण्णे
।
४०६. 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ४०६ पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
जहा - संपणे णाममेगे, णो चरित्तसंपण्णे, चरितसंपणे णाममेगे,
९. कुछ पुरुष श्रुत-सम्पन्न होते हैं, चरिदसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष चरित्र - सम्पन्न होते हैं, श्रुत-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष श्रुत-सम्पन्न भी होते हैं और चरित - सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न श्रुत-सम्पन्न होते हैं और न चरित्रसम्पन्न होते हैं ।
सीलसंपणे णासमेगे, णो संपणे
णो सुयसंपणे, एगे सुयसंपण्णेवि चरितसंपण्णेवि, सुयसंपणे गो चरित्तसंपण्णे ।
णो चरित्तसंपणे,
चरितसंपणे णाममेगे, णो सील संपणे,
एगे सीलसंपणे वि, चरित्तसंपण्णेवि, गेण सीलपणे णो चरित्तसंपण्णे
४०५
आयरिय-पदं
४११. चत्तारि फला पण्णत्ता, तं जहा -- आमलगमहुरे, मुद्दियामहुरे, खीरमहुरे, खंडमहुरे
1
श्रुतसम्पन्नः नामैकः, नो शोलसम्पन्नः, शीलसम्पन्नः नामकः, नो श्रुतसम्पन्नः, एकः श्रुतसम्पन्नोऽपि शीलसम्पन्नोऽपि, एकः नो श्रुतसम्पन्नः, नो शीलसम्पन्नः ।
सोल-पदं
शील-पदम्
शील - पद
४१०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४१०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं— जहा -
सीलसंपण्णे णाममेगे,
१. कुछ पुरुष शील-सम्पन्न होते हैं, चरित्र सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष चरित्र सम्पन्न होते हैं, शील-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष शील-सम्पन्न भी होते हैं और चरित्र सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न शील-सम्पन्न होते हैं और न चरित्र सम्पन्न होते हैं ।
तद्यथाश्रुतसम्पन्नः नामैकः, नो चरित्र सम्पन्नः, चरित्रसम्पन्नः नामैकः, नो श्रुतसम्पन्नः, एकः श्रुतसम्पन्नोऽपि चरित्र सम्पनोऽपि, एकः नो श्रुतसम्पन्नः, नो चरित्र सम्पन्नः ।
तद्यथा— शीलसम्पन्नः नामैकः, नो चरित्र सम्पन्नः, चरित्र सम्पन्नः नामैकः, नो शीलसम्पन्नः, एकः शीलसम्पन्नोऽपि,
चरित्र सम्पन्नोऽपि,
एकः नो शीलसम्पन्नः, नो चरित्र सम्पन्नः ।
स्थान ४ : सूत्र ४०८-४११
आचार्य-पदम्
चत्वारि फलानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— आमलकमधुरः, मृद्वीकामधुरः, क्षीरमधुरः, खण्डमधुरः ।
आचार्य-पद
४११. फल चार प्रकार के होते हैं१. आंवले की तरह मधुर, २. द्राक्षा की तरह मधुर,
३. दूध की तरह मधुर, ४. शर्करा की तरह मधुर ।
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४०६
ठाणं (स्थान)
एवामेव चत्तारि आयरिया एवमेव चत्वारः आचार्याः प्रज्ञप्ताः, पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाआमलगमहुरफलसमाणे, आमलकमधुरफलसमानः, 'मुद्दियामहुरफलसमाणे, मृद्वीकामधुरफलसमान:, खीरमहुरफलसमाणे, क्षीरमधुरफलसमानः, खंडमहुरफलसमाणे।
खण्डमधुरफलसमानः ।
स्थान ४ : सूत्र ४१२-४१४ इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के होते हैं१. आमलक-मधुर फल के समान, २. द्राक्षा-मधुर फल के समान, ३. दूध-मधुर फल के समान, ४. शर्करा-मधुर फल के समान"।
वेयावच्च-पदं वैयावृत्त्य-पदम्
वैयावृत्त्य-पद ४१२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४१२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष अपनी सेवा करते हैं, दूसरों आतवेयावच्चकरे णाममेगे, आत्मवैयावृत्त्यकरः नामकः,
की नहीं करते, २. कुछ पुरुष दूसरों की णो परवेयावच्चकरे, नो परवैयावृत्त्यकरः,
सेवा करते हैं, अपनी नहीं करते, ३. कुछ परवेयावच्चकरे णाममेगे, परवैयावृत्त्यकरः नामैकः,
पुरुष अपनी सेवा भी करते हैं और दूसरों णो आतवेयावच्चकरे, नो आत्मवैयावृत्त्यकरः,
की भी करते हैं, ४. कुछ पुरुष न अपनी एगे आतवेयावच्चकरेवि, एक: आत्मवैयावृत्त्यकरोऽपि,
सेवा करते हैं और न दूसरों की करते परवेयावच्चकरेवि,
परवैयावृत्त्यकरोऽपि, एगे णो आतवेयावच्चकरे, एक: नो आत्मवैयावृत्त्यकरः, णो परवेयावच्चकरे।
नो परवैयावृत्त्यकरः। ४१३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४१३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दूसरों को सेवा देते हैं, लेते करेति णाममेगे वेयावच्चं, करोति नामैकः वैयावृत्त्यं, नो प्रतीच्छति, नहीं, २. कुछ पुरुष दूसरों को सेवा नहीं णो पडिच्छइ,
प्रतीच्छति नामैक: वैयावृत्त्यं, देते, लेते हैं, ३. कुछ पुरुष दूसरों को सेवा पडिच्छइ णाममेगे वेयावच्चं, नो करोति,
देते भी हैं और लेते भी हैं, ४. कुछ पुरुष णो करेति, एकः करोत्यपि वैयावृत्त्यं, प्रतीच्छत्यपि,
न दूसरों को सेवा देते हैं, और न लेते एगे करेति विवेयावच्चं, पडिच्छइवि, एकः नो करोत्यपि वैयावृत्त्यं, एगे णो करेति वेयावच्चं, नो प्रतीच्छति। णो पडिच्छइ। अट्ठ-माण-पदं अर्थ-मान-पदम्
अर्थ-मान-पद ४१४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४१४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष अर्थकर [कार्यकर्ता] होते अट्टकरे णाममेगे, णो माणकरे,
हैं, अभिमानी नहीं होते, २. कुछ पुरुष अर्थकरः नामैकः, नो मानकरः,
अभिमानी होते हैं, अर्थकर नहीं होते, माणकरे णाममेगे, णो अट्टकरे, मानकरः नामैकः, नो अर्थकरः,
३. कुछ पुरुष अर्थकर भी होते हैं और एगे अटुकरेवि, माणकरेवि, एकः अर्थकरोऽपि, मानकरोऽपि, अभिमानी भी होते हैं,४. कुछ पुरुष न अर्थएगे णो अट्टकरे, णो माणकरे। एकः नो अर्थकरः, नो मानकरः । कर होते हैं और न अभिमानी होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४०७
स्थान ५:सूत्र ४१५-४१८ ४१५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४१५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष गण के लिए कार्य करते हैं, गणटकरे णाममेगे, णो माणकरे, गणार्थकर: नामैकः, नो मानकरः, अभिमानी नहीं होते, २. कुछ पुरुष माणकरे णाममेगे, णो गणटुकरे, मानकरः नामकः, नो गणार्थकरः, अभिमानी होते हैं, गण के लिए कार्य एगे गणटकरेवि, माणकरेवि, एकः गणार्थकरोऽपि, मानकरोऽपि, नहीं करते, ३. कुछ पुरुष गण के लिए एगे णो गणट्ठकरे, णो माणकरे। एकः नो गणार्थकरः, नो मानकरः । कार्य भी करते हैं और अभिमानी भी होते
हैं, ४. कुछ पुरुष न गण के लिए कार्य
करते हैं और न अभिमानी होते हैं। ४१६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४१६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष गण के लिए संग्रह करते हैं, गणसंगहकरेणाममेगे, णो माणकरे, गणसंग्रहकर: नामकः, नो मानकरः,
अभिमानी नहीं होते, २. कुछ पुरुष माणकरेणाममेगे, णो गणसंगहकरे, मानकर: नामैकः, नो गणसंग्रहकरः,
अभिमानी होते हैं, गण के लिए संग्रह एगे गणसंगहकरेवि, माणकरेवि, एकः गणसंग्रहकरोऽपि, मानकरोऽपि,
नहीं करते, ३. कुछ पुरुष गण के लिए एगे णो गणसंगहकरे, गोमाणकरे। एकः नो गणसंग्रहकरः, नो मानकरः।
संग्रह भी करते हैं और अभिमानी भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न गण के लिए संग्रह करते हैं और न अभिमानी होते
४१७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि, ४१७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष गण की शोभा बढ़ाने वाले गणसोभकरेणाममेगे, णो माणकरे, गणशोभाकरः नामैकः, नो मानकरः, होते हैं, अभिमानी नहीं होते, २. कुछ माणकरे णाममेगे, णो गणसोभकरे, मानकरः, नामकः, नो गणशोभाकरः,
पुरुष अभिमानी होते हैं, गण की एगे गणसोभकरेवि, माणकरेवि, एकः गणशोभाकरोऽपि, मानकरोऽपि,
शोभा बढ़ाने वाले नहीं होते, ३. कुछ एगे णो गणसोभकरे, णो माणकरे। एकः नो गणशोभाकरः, नो मानकरः।
पुरुष गण की शोभा भी बढ़ाने वाले होते हैं और अभिमानी भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न गण की शोभा बढ़ाने वाले होते हैं
और न अभिमानी होते हैं। ४१८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४१८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष गण की शुद्धि करने वाले जहातद्यथा
होते हैं, अभिमानी नहीं होते, २. कुछ गणसोहिकरे णाममेगे, णो माणकरे, गणशोधिकरः नामैकः, नो मानकरः,
पुरुष अभिमानी होते हैं, गण की शुद्धि माणकरे णाममेगे, णो गणसोहिकरे, मानकरः नामैकः, नो गणशोधिकरः,
करने वाले नहीं होते, ३. कुछ पुरुष गण एगे गणसोहिकरेवि, माणकरेवि, एकः गणशोधिकरोऽपि, मानकरोऽपि, की शुद्धि करने वाले भी होते हैं और एगेणोगणसोहिकरे, णो माणकरे। एकः नो गणशोधिकरः, नो मानकरः । अभिमानी भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न
गण की शुद्धि करने वाले होते हैं और न अभिमानी ही होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
धम्म-पदं
४१६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं
जहा—
रूवं णाम मेगे जहति णो धम्मं, धम्मं णामगे जहति णो रूवं, एगे रूवंपि जहति, धम्मंपि, एगे जो रूवं जहति णो धम्मं ।
जहाधम्मं णाममे जहति णो गणसंठिति,
गणसंठिति णाममेगे जहति, णो धम्मं, एगे धम्मंवि जहति, गणसं ठितिवि, एगे णो धम्मं जहति णो गणसं ठिति ।
१. कुछ पुरुष देश का त्याग कर देते हैं, धर्म का त्याग नहीं करते, २. कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं, वेश का त्याग नहीं करते, ३. कुछ पुरुष वेश कभी त्याग कर देते हैं और धर्म का भी त्याग कर देते हैं, ४. कुछ पुरुष न वेश का त्याग करते हैं और न धर्म का त्याग करते हैं ।
४२०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४२०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं---
९. कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं, गण-संस्थिति [गण-मर्यादा] का त्याग नहीं करते, २. कुछ पुरुष गण संस्थिति का त्याग कर देते हैं, धर्म का त्याग नहीं करते, ३. कुछ पुरुष धर्म का भी त्याग कर देते हैं और गण संस्थिति का भी त्याग करते हैं, ४. कुछ पुरुष न धर्म का त्याग करते हैं और न गण-संस्थिति का त्याग करते हैं ।
४२१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ४२१. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ पुरुष प्रियधर्मा होते हैं, दृढधन नहीं होते, २. कुछ पुरुष दृदुधर्मा होते हैं, प्रियधर्मा नहीं होते, ३. कुछ पुरुष प्रिय धर्मा भी होते हैं और दृढ़वर्मा भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न प्रियधर्मा होते हैं और न दृढधर्मा होते हैं" ।
जहा -
furerमे णाममेगे, णो दढधम्मे, दधम्मे णाममेगे, जो पियधम्मे, एगे पियधम्मेवि, दढधम्मेवि, एगे जो पियधम्म, णो दढधम्मे ।
आयरिय-पदं
४२२. चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहापव्वावणायरिए णाममेगे, tagावणारिए,
४०८
धर्म-पद
धर्म-पदम्
चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि ४१६ पुरुष चार प्रकार के होते हैं
तद्यथा—
रूपं नामैक: जहाति, नो धर्म, धर्मं नामकः जहाति, नो रूपं, एक: रूपमपि जहाति, धर्ममपि, एक: नो रूपं जहाति, नो धर्मम् ।
तद्यथा-धर्म नामकः जहाति, नो गणसंस्थिति, गणसंस्थिति नामकः जहाति, नो धर्म, एक: धर्ममपि जहाति, गणसंस्थितिमपि, एक: नो धर्मं जहाति, नो गणसंस्थितिम् ।
स्थान ४ : सूत्र ४१६-४२२
तद्यथा---
प्रियधर्मा नामैकः, नो दृढधर्मा, धर्मा नामैकः, नो प्रियधर्मा, एक: प्रियधर्मापि दृढधर्मापि, एक: नो प्रियधर्मा, नो दृढधर्मा ।
आचार्य-पदम्
आचार्य-पद
चत्वारः आचार्याः प्रज्ञप्ताः तद्यथा— ४२२. आचार्य चार प्रकार के होते हैंप्रवाजनाचार्यः नामैकः,
नो
उपस्थापनाचार्यः,
१. कुछ आचार्य प्रव्रज्या देने वाले होते
हैं, किन्तु उपस्थापना [ महाव्रतों में आरोपित ] करने वाले नहीं होते,
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ठाणं (स्थान)
४०६
स्थान ४ : सूत्र ४२३-४२४ उवट्ठावणायरिए णाममेगे, उपस्थापनाचार्यः नामैकः,
२. कुछ आचार्य उपस्थापना करने वाले णो पव्वावणायरिए, नो प्रव्राजनाचार्यः,
होते हैं, किन्तु प्रव्रज्या देने वाले नहीं होते, एगे पव्वावणायरिएवि, एक: प्रव्राजनाचार्योऽपि,
३. कुछ आचार्य प्रव्रज्या देने वाले भी होते उवट्ठावणायरिएवि, उपस्थापनाचार्योऽपि,
हैं और उपस्थापना करने वाले भी होते हैं, एगे णो पव्वावणायरिए, एक: नो प्रव्राजनाचार्यः,
४. कुछ आचार्य न प्रव्रज्या देने वाले होते णो उवट्ठावणायरिएनो उपस्थापनाचार्यः --
हैं और न उपस्थापना करने वाले होते हैं धम्मायरिए। धर्माचार्यः।
यहां आचार्य धर्माचार्य की कक्षा के हैं।२ ४२३. चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं चत्वार: आचार्या. प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४२३. आचार्य चार प्रकार के होते हैं ---- जहा
उद्देशनाचार्यः नामकः, नो वाचनाचार्यः, १. कुछ आचार्य उद्देशनाचार्य [पढ़ने का उद्देसणायरिए णाममेगे, वाचनाचार्यः नामैकः, नो उद्देशनाचार्यः, आदेश देने वाले ] होते हैं, किन्तु वाचनाणो वायणायरिए,
एक: उद्देशनाचार्योऽपि, वाचनाचार्योऽपि, चार्य [पढ़ाने वाले ] नहीं होते, २. कुछ वायणायरिए णाममेगे, एक: नो उद्देशनाचार्यः, नो वाचनाचार्यः- आचार्य वाचनाचार्य होते हैं, किन्तु उद्देणो उद्देसणायरिए, धर्माचार्यः।
शनाचार्य नहीं होते, ३. कुछ आचार्य एगे उद्देसणायरिएवि,
उद्देशनाचार्य भी होते हैं और वाचनाचार्य वायणायरिएवि,
भी होते हैं, ४. कुछ आचार्य न उद्देशनाएगे णो उद्देसणायरिए,
चार्य होते हैं और न वाचनाचार्य होते हैं। णो वायणायरिए—धम्मायरिए।
यहां आचार्य धर्माचार्य की कक्षा के हैं।
अंतेवासि-पदं अन्तेवासि-पदम्
अन्तेवासि-पद ४२४. चत्तारि अंतेवासी पण्णता, तं चत्वारः अन्तेवासिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४२४. अन्तेवासी चार प्रकार के होते हैं--- जहाप्रव्राजनान्तेवासी नामैकः,
१. कुछ मुनि एक आचार्य के प्रबज्यापव्वावणंतेवासी णाममेगे, नो उपस्थापनान्तेवासी,
अन्तेवासी होते हैं, किन्तु उपस्थापनाणो उवट्ठावणंतेवासी, उपस्थापनान्तेवासी नामकः,
अन्तेवासी नहीं होते, २. कुछ मुनि एक उवट्ठावणंतेवासी णाममेगे, नो प्रव्राजनान्तेवासी,
आचार्य के उपस्थापना-अन्तेवासी होते हैं, जो पब्वावणंतेवासी, एक: प्रव्राजनान्तेवास्यपि,
किन्तु प्रव्रज्या-अन्नेवासी नहीं होते, एगे पव्वावणंतेवासीवि, उपस्थापनान्तेवास्यपि,
३. कुछ मुनि एक आचार्य के प्रवज्याउवट्ठावणंतेवासीवि, एक: नो प्रव्राजनान्तेवासी,
अन्तेवासी भी होते हैं और उपस्थापनाएगे णों पवावणंतेवासी, नो उपस्थापनान्तेवासी...
अन्तेवासी भी होते हैं, ४. कुछ मुनि एक णो उवट्ठावणंतेवासीधर्मान्तेवासी।
आचार्य के न प्रव्रज्या-अन्तेवासी होते हैं धम्मंतेवासी।
और न उपस्थापना-अन्तेवासी होने
यहां अन्तेवासी धर्मान्तेवासी की कक्षा के
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ठाणं (स्थान)
४१०
स्थान ४ : सूत्र ४२५-४२६
४२५. चत्तारि अंतेवासी पण्णत्ता, तं चत्वारः अन्तेवासिनः प्रज्ञप्ता:, तदयथा-४२५. अन्तेवासी चार प्रकार के होते हैं--- जहाउद्देशनान्तेवासी नामैकः,
१. कुछ मुनि एक आचार्य के उद्देशनाउद्देसणंतेवासी णाममेगे, नो वाचनान्तेवासी,
अन्तेवासी होते हैं, किन्तु वाचना-अन्तेणो वायणंतेवासी, वाचनान्तेवासी नामकः,
वासी नहीं होते, २. कुछ मुनि एक आचार्य वायणंतेवासी णामोंगे, नो उद्देशनान्तेवासी,
के वाचना-अन्तेवासी होते हैं, किन्तु णो उद्देसणंतेवासी, एक: उद्देशनान्तेवास्यपि,
उद्देशना-अन्तेवासी नहीं होते, ३. कुछ एगे उद्देसणंतेवासीवि, वाचनान्तेवास्यपि,
मुनि एक आचार्य के उद्देशना-अन्तेवासी वायणंतेवासीवि, एक: नो उद्देशनान्तेवासी,
भी होते हैं और वाचना-अन्तेवासी भी एगे णो उद्देसणंतेवासी, नो वाचनान्तेवासी.
होते हैं, ४. कुछ मुनि एक आचार्य के न णो वायणंतेवासी_धम्मंतेवासी। धर्मान्तेवासी।
उद्देशना-अन्तेवासी होते हैं और न वाचनाअन्तेवासी होते हैं। यहां अन्तेवासी धर्मान्तवासी की कक्षा के
महाकम्म-अप्पकम्म-णिग्गंथ-पदं महाकर्म-अल्पकर्म-निर्ग्रन्थ-पदम् महाकर्म-अल्पकर्म-निर्ग्रन्थ-पद ४२६. चत्तारि णिग्गंथा पण्णता, तं जहा- चत्वार: निर्ग्रन्थाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४२६. निर्ग्रन्थ चार प्रकार के होते हैं
१. रातिणिए समणे णिग्गंथे महा- १. रात्निक: श्रमणः निर्ग्रन्थः महाकर्मा १. कुछ रालिक" [दीक्षा-पर्याय में बड़े कम्मे, महाकिरिए अणायावी महाक्रियः अनातापी अशमितः धर्मस्य श्रमण निर्ग्रन्थ महाकर्मा, महाक्रिय, अनाअसमिते धम्मस्स अणाराधए अनाराधको भवति,
तापी [अतपस्वी और अमित होने के भवति,
कारण धर्म की सम्यक् आराधना करने
वाले नहीं होते, २. रातिणिए समणे णिग्गंथे अप्प- २. रात्निकः श्रमणः निर्ग्रन्थः अल्पकर्मा २. कुछ रात्निक श्रमण निर्ग्रन्थ अल्पकर्मा, कम्मे अप्पकिरिए आतावी समिए अल्पक्रियः आतापी शमितः धर्मस्य अल्पक्रिय, आतापी [तपस्वी] और धम्मस्स आराहए भवति, आराधको भवति,
शामित होने के कारण धर्म की सम्यक
आराधना करने वाले होते हैं, ३. ओमरातिणिए समणे णिग्गंथे ३. अवमरात्निकः श्रमणः निर्ग्रन्थः ३. कुछ अवमरालिक [दीक्षा पर्याय में महाकम्मे महाकिरिए अणातावी महाकर्मा महाक्रियः अनातापी अशमितः छोटे ] श्रमण-निर्ग्रन्थ महाकर्मा, महाक्रिय, असमिते धम्मस्स अणाराहए धर्मस्य अनाराधको भवति,
अनातापी और अमित होने के कारण धर्म भवति,
की सम्यक् आराधना करने वाले नहीं होते, ४. ओमरातिणिए समणे णिग्गंथे ४. अवमरात्निकः श्रमणः निर्ग्रन्थः अल्प
४. कुछ अवमरालिक श्रमण निर्ग्रन्थ अप्पकम्मे अप्पकिरिए आतावी कर्मा अल्पक्रियः आतापी शमितः धर्मस्य अल्पकर्मा, अल्पक्रिय, आतापी और शमित समिते धम्मस्स आराहए भवति। आराधको भवति ।
होने के कारण धर्म की सम्यक् आराधना करने वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४११
स्थान ४ : सूत्र ४२७-४२८
महाकम्म-अप्पकम्म-णिग्गंथी-पदं महाकर्म-अल्पकर्म-निर्ग्रन्थी-पदम् महाकर्म-अल्पकर्म-निर्ग्रन्थी-पद ४२७. चत्तारि णिग्गंथीओ पण्णत्ताओ, चतस्रः निर्ग्रन्थ्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४२७. निर्ग्रन्थियां चार प्रकार की होती हैं---
तं जहा१. रातिणिया समणी णिग्गंथी' १. रात्निकी श्रमणी निर्ग्रन्थी महाकर्मा १. कुछ रात्निक श्रमणी निर्ग्रन्थियां महामहाकम्मामहाकिरिया अणायावी महाक्रिया अनातापिनी अशमिता धर्मस्य कर्मा, महाक्रिय, अनातापी [अतपस्विनी] असमिता धम्मस्स अणाराधिया अनाराधिका भवति,
और अशमित होने के कारण धर्म की भवति,
सम्यक् आराधना करने वाली नहीं होती, २. रातिणिया समणी णिग्गंथी २. रात्निकी श्रमणी निर्ग्रन्थी अल्पकर्मा २. कुछ रात्निक श्रमणी निर्ग्रन्थियां अल्पअप्पकम्मा अप्पकिरिया आतावी अल्पक्रिया आतापिनी शमिता धर्मस्य कर्मा, अल्पक्रिय, आतापी [तपस्विनी] समिता धम्मस्स आराहिया आराधिका भवति,
और शमित होने के कारण धर्म की भवति,
सम्यक् आराधना करने वाली होती हैं, ३. ओमरातिणिया समणी णिग्गंथी ३. अवमरात्निका श्रमणी निर्ग्रन्थी महा- ३. कुछ अवमरानिक श्रमणी निर्ग्रन्थियां महाकम्मा महाकिरिया अणायावी कर्मा महाक्रिया अनातापिनी अशमिता महाकर्मा, महाक्रिय, अनातापी और असमिता धम्मस्स अणाराधिया धर्मस्य अनाराधिका भवति,
अशमित होने के कारण धर्म की सन्या भवति,
आराधना करने वाली नहीं होती, ४. ओमरातिणिया समणीणिग्गंथी ४. अवमरात्निका श्रमणी निर्ग्रन्थी अल्प- ४. कुछ अवमरात्निक श्रमणी निर्ग्रन्थियां अप्पकम्मा अप्पकिरिया आतावी कर्मा अल्पक्रिया आतापिनी शमिता अल्पकर्मा, अल्पक्रिय, आतापी और शमित समिता धम्मस्स आराहिया धर्मस्य आराधिका भवति।
होने के कारण धर्म की सम्यक् आराधना भवति ।
करने वाली होती हैं। महाकम्म-अप्पकम्म- महाकर्म-अल्पकर्म
महाकर्म-अल्पकर्मसमणोवासग-पदं श्रमणोपासक-पदम्
श्रमणोपासक-पद ४२८. चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं चत्वारः श्रमणोपासकाः प्रज्ञप्ताः, ३२८. श्रमणोपासक चार प्रकार के होते हैं-- जहा
तद्यथा१. राइणिए समणोवासए महा- १. रात्निकः श्रमणोपासकः महाकर्मा । १. कुछ रानिक श्रमणोपासक महाकर्मा, कम्मे 'महाकिरिए अणायावी महाक्रियः अनातापी अशमितः धर्मस्य महा क्रिय, अनातापी [अतपस्वी] और असमिते धम्मस्स अणाराधए अनाराधको भवति,
अशमित होने के कारण धर्म की सम्यक भवति,
आराधना करने वाले नहीं होते, २. राइणिए समणोवासए अप्प- २. रात्निकः श्रमणोपासक: अल्पकर्मा २. कुछ रात्निक श्रमणोपासक अल्पकर्मा, कम्मे अप्पकिरिए आतावी समिए अल्पक्रिय: आतापी शमितः धर्मस्य अल्पक्रिय, आतापी और शमित होने के धम्मस्स आराहए भवति, आराधको भवति,
कारण धर्म की सम्यक् आराधना करने वाले होते हैं,
जति
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४१२
ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ४२६-४३० ३. ओमराइणिए समणोवासए ३. अवमरात्निक: श्रमणोपासकः महा- ३. कुछ अवमरात्निक श्रमणोपासक महाकम्मे महाकिरिए अणातावी कर्मा महाक्रियः अनातापी अशमितः महाकर्मा, महाक्रिय, आनातापी और असमिते धम्मस्स अणाराहए धर्मस्य अनाराधको भवति,
अशमित होने के कारण धर्म की सम्यक् भवति,
आराधना करने वाले नहीं होते, ४. ओमराइणिए समणोवासए ४. अवमरात्निकः श्रमणोपासक: अल्प
४. कुछ अवमरात्निक श्रमणोपासक अल्पअप्पकम्मे अप्पकिरिए आतावी कर्मा अल्पक्रियः आतापी शमितः धर्मस्य कर्मा, अल्पक्रिय, आतापी और शमित समिते धम्मस्स आराहए भवति। आराधको भवति ।
होने के कारण धर्म की सम्यक् आराधना
करने वाले होते हैं। महाकम्म-अप्पकम्म- महाकर्म-अल्पकर्म
महाकर्म-अल्पकर्मसमणोवासिया-पदं श्रमणोपासिका-पदम्
श्रमणोपासिका-पद ४२६. चत्तारि समणोवासियाओ चतस्रः श्रमणोपासिकाः प्रज्ञप्ताः, ४२६. श्रमणोपासिकाएं चार प्रकार की होती पण्णत्ताओ, तं जहा
तद्यथा१. राइणिया समणोवासिता महा- १. रानिकी श्रमणोपासिका महाकर्मा १. कुछ रात्निक श्रमणोपासिकाएं महाकम्मा ‘महाकिरिया अणायावी महाक्रिया अनातापिनी अशमिता धर्मस्य कर्मा, महाक्रिय, अनातापी और अशमित असमिता धम्मस्स अणाराधिया अनाराधिका भवति,
होने के कारण धर्म की सम्यक् आराधना भवति,
करने वाली नहीं होती, २. राइणिया समणोवासिता २. रात्निकी श्रमणोपासिका अल्पकर्मा २. कुछ रात्निक श्रमणोपासिकाएं अप्पकम्मा अप्पकिरिया आतावी अल्पक्रिया आतापिनी शमिता धर्मध्य अल्पकर्मा, अल्पक्रिय, आतापी और समिता धम्मस्स आराहिया आराधिका भवति,
शमित होने के कारण धर्म की सम्यक् भवति,
आराधना करने वाली होती हैं, ३. ओमराइणिया समणोवासिता ३. अवमरात्निकी श्रमणोपासिका महा- ३. कुछ अवमरात्निक श्रमणोपासिमहाकम्मा महाकिरिया अणायावी कर्मा महाक्रिया अनातापिनी अशमिता काएं महाकर्मा, महाक्रिय, अनातापी और असमिता धम्मस्स अणाराधिया धर्मस्य अनाराधिका भवति,
अशमित होने के कारण धर्म की सम्यक् भवति,
आराधना करने वाली नहीं होती, ४. ओमराइणिया समणोवासिता ४. अवमरालिकी श्रमणोपासिका अल्प
४. कुछ अवमरात्निक श्रमणोपासिकाएं अप्पकम्मा अप्पकिरिया आतावी कर्मा अल्पक्रिया आतापिनी शमिता
अल्पकर्मा, अल्पक्रिय, आतापी और समिता धम्मस्स आराहिया धर्मस्य आराधिका भवति ।
शभित होने के कारण धर्म की सम्यक् भवति ।
आराधना करने वाली होती हैं। समणोवासग-पदं श्रमणोपासक-पदम्
श्रमणोपासक-पद ४३०. चत्तारि समणोवासगा पण्णता, तं चत्वारः श्रमणोपासका: प्रज्ञप्ता:. ४३०. श्रमणोपासक चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. माता-पिता के समान, अम्मापितिसमाणे, भातिसमाणे, अम्बापितृसमानः, भ्रातृसमानः,
२. भाई के समान, ३. मित्र के समान, मित्तसमाणे, सवत्तिसमाणे। मित्रसमानः, सपत्नीसमानः ।
४. सौत के समान"
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ठाणं (स्थान)
४१३
स्थान ४: सूत्र ४३१-४३३
४३१. चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं। चत्वारः श्रमणोपासकाः प्रज्ञप्ताः, ४३१. श्रमणोपासक चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. दर्पण के समान, २. पताका के समान, अद्दागसमाणे, पडागसमाणे, आदर्शसमानः, पताकासमानः, ३. स्थाणु-सूखे ठूठ के समान, खाणसमाणे, खरकंटयसमाणे। स्थाणुसमान: खरकण्टकसमानः।
४. तीखे कांटों के समान। ४३२. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य श्रमणो- ४३२. सौधर्म देवलोक में अरुणाभ-विमान में
समणोवासगाणं सोधम्मे कप्पे पासकानां सौधर्मे कल्पे अरुणाभे विमाने उत्पन्न, श्रमण भगवान महावीर के अरुणाभे विमाणे चत्तारि पलि- चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ताः । श्रमणोपासकों की स्थिति चार पल्योपम ओवमाई ठिती पण्णत्ता।
की है।
अहुणोववण्ण-देव-पदं अधुनोपपन्न-देव-पदम्
अधुनोपपन्न-देव-पद ४३३. चहि ठाणेहि अहुणोववण्णे देवे चतुभिः स्थानैः अधुनोपपन्नः देवः देव- ४३३. चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न
देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं लोकेषु इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् देव शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति अर्वाग् है, किन्तु आ नहीं सकतासंचाएति हव्वमागच्छित्तए, तं जहा- आगन्तुम् तद्यथा-- १. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु १. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु १. देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव दिवादिन्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामाभोगेषु मूच्छितो गृद्धो ग्रथितः काम-भोगों से मूच्छिन, गृद्ध, बद्ध बद्ध तथा गढिते अज्झोववण्णे, से णं अध्युपपन्नः, स मानुष्यकान् कामभोगान् आसक्त होकर मानवीय काम-भोगों को माणुस्सए कामभोगे णो आढाइ, नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अर्थ न आदर देता है, न अच्छा जानता है, न णो परियाणाति, णो अटुं बंधइ, बध्नाति, नो निदानं प्रकरोति, नो उनसे प्रयोजन रखता है, न निदान [उन्हें णो णियाणं पगरेति, णो ठिति- स्थितिप्रकल्प प्रकरोति,
पाने का संकल्प ] करता है और न स्थितिपगप्पं पगरेति,
प्रकल्प [उनके बीच रहने की इच्छा]
करता है, २. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु २. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु
२. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्यदिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामभोगेषु मूच्छित: गृद्धः ग्रथितः अध्यु- काम-भोगो में मूच्छित, गृद्ध तथा आसक्त गढिते अज्झोववण्णे, तस्स णं पपन्नः, तस्य मानुष्यकं प्रेम व्युच्छिन्नं देव का मानुष्य प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है माणुस्सए पेमे वोच्छिण्णे दिव्वे दिव्यं संक्रान्तं भवति,
तथा उसमें दिव्य प्रेम संक्रान्त हो जाता है, संकते भवति, ३. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु ३. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु ३. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य-काम दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामभोगेषु मूच्छितः गृद्ध: ग्रथितः भोगों में मूच्छित, गृद्ध, बद्ध तथा आसक्त गढिते अज्झोववण्णे, तस्स णं एवं अध्युपपन्नः, तस्य एवं भवति- इदानीं देव सोचता है---मैं अभी मनुष्य लोक भवति–इण्हि गच्छं मुहत्तेणं गच्छामि मुहूर्तेन गच्छामि, तस्मिन् में जाऊं, मुहर्त भर में जाऊं। इतने में गच्छं, तेणं कालेणमप्पाउया काले अल्पायुषः मनुष्याः कालधर्मेण अल्पायुष्क मनुष्य काल धर्म को प्राप्त हो मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता संयुक्ताः भवन्ति,
जाता है, भवंति,
,
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ठाणं (स्थान)
४१४ ४. अहणोक्वग्णे देवे देवलोगेसु ४. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामभोगेषु मूच्छितः गृद्धः ग्रथितः अध्युगढिते अज्झोववणे, तस्स णं पपन्नः, तस्य मानुष्यकः गन्धः प्रतिकूलः । माणुस्सए गंधे पडिकूले पडिलोमे प्रतिलोम: चापि भवति, ऊर्ध्वमपि च । यावि भवति, उड्ड पि य णं माणुस्सए मानुष्यकः गन्धः यावत् चत्वारि पञ्चगंधे जाव चत्तारि पंच जोयणसताई योजनशतानि अर्वाग् आगच्छतिहव्वमागच्छतिइच्चेतेहिं चउहि ठाणेहि अहुणोव- इत्येतैः चतुभिः स्थानः अधुनोपपन्नः वण्णे देवे देवलोएसु इच्छेज्ज देवः देवलोकेषु इच्छेत् मानुषं लोक माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, अर्वाग् आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति णो चेव णं संचाएति हव- अर्वाग् आगन्तुम् । मागच्छित्तए।
स्थान ४: सूत्र ४३४ ४. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्यकाम-भोगों में मूच्छित, गृद्ध, बद्ध तथा आ सक्त देव को मनुष्य लोक की गन्ध प्रतिकूल और प्रतिलोम लगने लग जाती है । मनुष्य लोक की गन्ध पांच सौ योजन की ऊंचाई तक आती रहती है।
इन चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्य लोक आना चाहता है, किन्तु आ नहीं सकता।
४३४. चहि ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे चतुभिः स्थानः अधुनोपपन्नः देव: देव- ४३४. चार कारणों से देवलोक में तत्काल
देवलोएसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं लोकेषु इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आना हव्वमागच्छित्तए, संचाएति हव्व- आगन्तुम्, शक्नोति अर्वाग्' आगन्तुम्, चाहता है और आ भी सकता हैमागच्छित्तए, तं जहा.. तद्यथा
१. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य१. अहुणोववण्णे देव देवलोगेसु १. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु काम-भोगों में अमूच्छित , अगृद्ध, अबद्ध दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते कामभोगेषु अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः तथा अनासक्त देव सोचता है—मनुष्य'अगिद्धे अगढिते अणज्झोववण्णे, अनध्युपपन्न:, तस्य एवं भवति लोक में मेरे मनुष्य भव के आचार्य, उपातस्स णं एवं भवति–अस्थि खलु अस्ति खलु मम मानुष्यके भवे आचार्य ध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर मम माणुस्सए भवे आयरिएति इति वा उपाध्याय इति वा प्रवर्ती इति तथा गणावच्छेदक हैं, जिनके प्रभाव से वा उवज्झाएति वा पवत्तीति वा वा स्थविरः इति वा गण इति वागणधर मुझे यह इस प्रकार की दिव्य देवद्धि, दिव्य थेरेति वा गणीति वा गणधरेति इति वा गणावच्छेदक इति वा, येषां देवद्युति और दिव्य देवानुभाव मिला है, वा गणावच्छेदेति वा, जेसि पभा- प्रभावेण मया इमा एतदरूपा दिव्या प्राप्त हुआ है, अभिसमन्वागत [भोग्य वेणं मए इमा एतारूवा दिव्वा देवद्धिः दिव्याः देवद्युतिः [दिव्यः अवस्था को प्राप्त हुआ है, अतः मैं जाऊं देविड्डी दिव्वा देवजुती [दिव्वे देवानु भावः ?] लब्ध: प्राप्त: अभि- और उन भगवान् को वंदन करूं, नमस्कार देवाणुभावे ?] लद्धे पत्ते अभि- समन्वागतः, तत् गच्छामि तान् भगवतः करूं, सत्कार करूं, सम्मान करूं तथा समण्णागते, तं गच्छामि णं ते वन्दे नमस्यामि सत्करोमि सम्मानयामि कल्याण कर, मंगल, ज्ञानस्वरूप देव की भगवते वंदामिणमंसामि सक्का- कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्यपासे, पर्युपासना करूं, रेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि,
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स्थान ४: सूत्र ४३४
२. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्यकाम-भोगों में अमूच्छित, अगृद्ध, अबद्ध, तथा अनासक्त देव सोचता है--पनुष्य भव में अनेक ज्ञानी, तपस्त्री तथा अतिदुष्कर तपस्या करने वाले हैं, अतः मैं जाऊं और उन भगवान् को वंदन करूं, नमस्कार करूं, सत्कार करूं, सम्मान करूं तथा कल्याण कर, मंगल, ज्ञानस्वरूप देव की पर्युपासना करूं,
ठाणं (स्थान)
४१५ २. अहुणोववण्णे देवे देवलोएस २. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु 'दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते कामभोगेषु अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः अगिद्धे अगढिते अणज्झोववण्णे, अनध्युपपन्नः, तस्य एवं भवतितस्स णमेवं भवति...एस णं अस्मिन् मानुष्यके भवे ज्ञानीति वा माणुस्सए भवे णाणीति वा तपस्वीति वा अतिदुष्कर-दुष्करकारकः, तवस्सीति वा अइदुक्कर-दुक्कर- तद् गच्छामि तान् भगवतः वन्दे, कारगे, तं गच्छामि गं ते भगवते नमस्यामि सत्करोमि सम्मानयामि वंदामि, 'णमसामि सक्कारेमि कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपासे, सम्माणेमि कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पज्जुवासामि, ३. अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु ३. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु । "दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते कामभोगेषु अमूच्छितः अगृद्ध: अग्रथितः । अगिद्धे अगढिते अणझोववण्णे, अनध्युपपन्नः, तत्य एवं भवतितस्स णमेवं भवति अस्थि णं मम अस्ति मम मानष्यके भवे मातेति वा माणस्सए भवे माताति वा पितेति वा भ्रातेति वा भगिनीति वा "पियाति वा भायाति वा भगि- भार्येति वा पुत्र इति वा दुहितेति वा णीति वा भज्जाति वा पुत्ताति वा स्नुषेति वा, तद् गच्छामि तेषां अन्तिकं धयाति वा सुण्हाति वा, तं प्रादुर्भवामि, पश्यन्त तावत मम इमां गच्छामि णं तेसिमंतियं पाउन्भ- एतद्रूपां दिव्यां देवद्धि दिव्यां देवद्युति वामि, पासंतु ता मे इममेतारूवं दिव्यं देवानुभावं ?] लब्धं प्राप्त दिव्वं देविट्टि दिव्वं देवजुति अभिसमन्यवागतम्, [दिव्यं देवाणुभावं ?] लद्धं पत्तं अभिसमण्णागतं, ४. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु ४. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु । 'दिब्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते कामभोगेषु अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः अगिद्धे अगढिते अणज्झोववण्णे, अनध्युपपन्नः, तस्य एवं भवतितस्स णमेवं भवति—अत्थि णं मम अस्ति मम मानुष्यके भवे मित्रमिति माणुस्सए भवे मित्तेति वा सहाति वा सखेति वा सुहृदिति वा सहाय इति वा सुहीति वा सहाएति वा संग- वा सङ्गतिकः इति वा, तेषां च अस्माभिः । इएति वा, तेसिं च णं अम्हे अन्योऽन्यं संकेत: प्रतिश्रुतः भवतिअण्णमण्णस्स संगारे पडिसुते यो मम पूर्व च्यवते स सम्बोधयितव्य:भवति...जो मे पुवि चयति से संबोहेतब्वे
३. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्यकामभोगों में अमूच्छित, अगृद्ध, अबद्ध तथा अनासक्त देव, सोचता है मेरे मनुष्य भव के माता, पिता, भ्राता, भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्र-वधू हैं, अत: मैं उनके पास जाऊं और उनके सामने प्रकट होऊ जिससे वे मेरी इस प्रकार की दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति
और दिव्य देवानुभाव को, जो मुझे मिला है, प्राप्त हुआ है, अभिसमन्वागत हुआ है-देखें,
४. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्यकाम-भोगों में अमूच्छित, अगृद्ध, अबद्ध तथा अनासक्त देव सोचता है--मनुष्यलोक में मेरे मनुष्य भव के मित्र, बालसखा, हितैषी, सहचर तथा परिचित हैं, जिनसे मैंने परस्पर संकेतात्मक प्रतिज्ञा की थी कि जो पहले च्युत हो जाए उसे दूसरे को संबोध देना है
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ठाणं (स्थान)
इच्चेतेहि चउहि ठाणेह अहुगोववण्णे देवे देवलोएस इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छितए संचाएति हव्वमागच्छित्तए ।
अंधार उज्जोयाइ - पदं ४३५. चहि ठाणेह लोगंधगारे सिया,
तं जहा
अरहंतेहि वोच्छिज्जमाणेह, अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, पुव्वगते वोच्छिज्जमाणे, जायतेजे वोच्छिज्जमाणे । ४३६. चहं ठाणेहिं लोउज्जोते सिया, तं जहाअरहंतेहिं जायमाणेहि, अरहंतेहि पव्वयमाणेह, अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु, अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु ।
तं जहाअरहंतेहि जायमाणेहि,
अरहंतेहिं पब्वयमाणेह अरहंताणं णाणुणायमहिमासु, अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु ।
४१६
इत्येतैः चतुर्भिः स्थानैः अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् आगन्तुं शक्नोति अग् आगन्तुम् ।
अन्धकार- उद्योतादि-पदम्
चतुभिः स्थानैः लोकान्धकारं स्यात्
तद्यथा
अर्हत्सु
व्यवच्छिद्यमानेषु
अर्हत्प्रज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने,
पूर्व
व्यवच्छिद्यमाने, व्यवच्छिद्यमाने ।
जाततेजसि
चतुभिः स्थानैः लोकोद्योतः स्यात्,
तद्यथा
अर्हत्सु जायमानेषु
अर्हत्सु प्रव्रजत्सु अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
स्थान ४: सूत्र ४३५-४३८ इन चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता है और आ भी सकता है।
अन्धकार - उद्योतादि-पद ४३५. चार कारणों से मनुष्य लोक में अन्धकार
होता है
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, २. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण महोत्सव पर ।
४३७. चउहि ठाणेहि देबंधगारे सिया, चतुभिः स्थानैः देवान्धकारं स्यात्, ४३७. चार कारणों से देवलोक में अन्धकार तं जहा -
होता है
तद्यथाअर्हत्सु अर्हत्प्रज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने,
व्यवच्छिद्यमानेषु
अरहंतेहि वोच्छिज्ज माणेहि, अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, पुव्वगते वोच्छिज्जमाणे, जायतेजे वोच्छिज्जमाणे । ४३८. चउहि ठाणेहिं देवज्जोते सिया,
पूर्वंग
व्यवच्छिद्यमाने, व्यवच्छिद्यमाने ।
जाततेजसि
चतुभिः स्थानैः देवोद्योतः स्यात्
तद्यथा—
अर्हत्सु जायमानेषु
अर्हत्सु प्रव्रजत्सु
अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
१. अर्हन्तों के व्युच्छिन्न होने पर,
२. अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म के व्युच्छिन्न होने
पर, ३. पूर्वगत [ चौदह पूर्वो ] के व्युच्छिन्न होने पर, ४. अग्नि के व्युच्छिन्न होने पर । ४३६. चार कारणों से मनुष्य लोक में उद्योत
होता है
१. अर्हन्तों के व्युच्छिन्न होने पर, २. अहंत प्रज्ञप्त धर्म के वच्छिन्न होने के अवसर पर, ३. पूर्वगत के व्युच्छिन्न होने पर, ४. अग्नि के व्युच्छिन्न होने पर । ४३८. चार कारणों से देवलोक में उद्योत होता
है---
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रब्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण महोत्सव पर ।
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ठाणं (स्थान)
४१७
स्थान ४: सूत्र ४३६-४४३ ४३६. चहि ठाणेहि देवसण्णिवाते सिया, चतुभिः स्थानः देवसन्निपातः स्यात्, ४३६. चार कारणों से देव-सन्निपात [ मनुष्यतं जहातद्यथा
लोक में आगमन होता हैअरहतेहिं जायमाहिं, अर्हत्सु जायमानेषु,
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों अरहतेहि पव्वयमाहिं, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु,
के प्रवजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु,
के केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में अरहताणं परिणिव्वाणन हिमासु। अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों
के परिनिर्वाण-महोत्सव पर । ४४०. चहि ठाणेहि देवुक्क लिया सिया, चतुभिः स्थानः देवोत्कलिका स्यात्, ४४०. चार कारणों से देवोत्कलिका [ देवताओं तं जहातद्यथा
का समवाय ] होता है---- अरहंतेहि अर्हत्सु जायमानेषु,
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों अरहंतेहिं पव्वयमार्गाह, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु,
के प्रवजित होने के अवसर पर ३. अर्हन्तों अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु,
को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में अरहताणं परिणिव्वाणमहिमासु। अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु,
किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों
के परिनिर्वाण-महोत्सव पर । ४४१. चहि ठाणेहि देवकहकहए सिया, चतुभिः स्थान: देव ‘कहकहकः' स्यात्, ४४१. चार कारणों से देव-कहकहा [ कलकलतं जहातद्यथा
ध्वनि होता हैअरहंतेहिं जायमाणेहि, अर्हत्सु जायमानेषु, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, १. अर्हन्ता का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों अरहंतेहि पव्वयमाणेहि, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु,
के प्रवजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में अरहताणं परिणिव्वाणमहिमासु।
किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों
के परिनिर्वाण-महोत्सव पर। ४४२. चहि ठाहिं देविदा माणुसं चतुभिः स्थानैः देवेन्द्राः मानुषं लोक ४४२. चार कारणों से देवेन्द्र तत्क्षण मनुष्यलोक लोग हन्वमागच्छंति, तं जहा- अर्वाग् आगच्छन्ति, तद्यथा
में आते हैंअरहंतेहिं जायमाणेह, अर्हत्सु जायमानेषु,
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों अरहंतेहि पव्वयमाहि, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु,
के प्रवजित होने के अवसर पर ३. अर्हन्तों अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु,
को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु। अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
किए जाने वाले महोत्सव पर, ४ अर्हन्तों
के परिनिर्वाण-महोत्सव पर। ४४३. एवं—सामाणिया, तायत्तीसगा, एवम् – सामानिकाः, तावत्रिंशकाः, ४४३. इसी प्रकार सामानिक, तावत्तिशक,
लोगपाला देवा, अग्गमहिसीओ लोकपाला देवा:, अग्रमहिष्यो देव्यः, लोकपाल देव, अग्रमहिषी देवियां, सभादेवीओ, परिसोववण्णगा देवा, परिषदुपपन्नका देवाः, अनीकाधिपतयो सद, सेनापति तथा आत्म-रक्षक देव चार अणियाहिवई देवा, आयरक्खा देवाः, आत्मरक्षका देवाः, मानुषं लोकं कारणों से तत्क्षण मनुष्य लोक में आते देवा माणुसं लोगं हव्वमागच्छंति, अर्वाग् आगच्छन्ति, तद्यथातं जहा
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ४४४-४४८
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तो के परिनिर्वाण महोत्सव पर
४४४. चह ठाणेहि देवा अब्भुद्विज्जा, चतुभिः स्थानैः देवाः अभ्युत्तिष्ठेयुः, ४४४. चार कारणों से देव अपने सिंहासन से
तद्यथा—
अभ्युत्थित होते हैं
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर,
अर्हत्सु जायमानेषु अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
अरहंतेहिं जायमाणे, अरहंतेहि पञ्चयमाणेह अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु, अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु ।
तं जहा - अरहंतेहिं जायमाणेहि, अरहंतेहि पव्वयमाणेह अरहंताणं णाणुपायमहिमासु, अरहंताणं परिणिव्वाण महिमासु ।
अरहंतेहि जाय माह
अरहंतेहिं पव्वयमाणह अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु, अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु ।
४१८
२. अर्हन्तोंके प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण महोत्सव पर ।
४४५. चउहि ठाणेहि देवाणं आसणाई चतुभिः स्थानं देवानां आसनानि ४४५. चार कारणों से देवों के आसन
होते हैं
चलेज्जा, तं जहा
चलेयुः, तद्यथा— अर्हत्सु जायमानेषु
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण - महोत्सव पर । ४४६. चार कारणों से देव सिंहनाद करते हैं-१. अर्हन्तों का जन्म होने पर,
४४६. चह ठाणे देवा सीहणायं चतुभिः स्थानैः देवाः सिंहनाद कुर्युः, करेज्जा, तं जहा
तद्यथा
अरहंतेहि जायमा
अर्हत्सु जायमानेषु
अरहंतेहि पव्वयमाणे, अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु, अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु । ४४७. चह ठाणेहिं देवा चेलुक्खेवं
अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, अर्हता ज्ञानोत्पादमहिमसु, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु । चतुभिः स्थानः देवाः चेलोत्क्षेपं कुर्युः,
२. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण - महोत्सव पर । ४४७. चार कारणों से देव चेलोत्क्षेप करते हैं— १. अर्हन्तों का जन्म होने पर,
तद्यथा—
करेज्जा, तं जहा अरहंतेहिं जायमाणेहि,
अर्हत्सु जायमानेषु
अरहंतेहि पव्वयमाणेहि, अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु, अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु । ४४८. चउहि ठाणेहि देवाणं चेइयरुक्खा चलेज्जा, तं जहा -
अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु, अर्हतां परिनिर्वाण महिमसु ।
२. अर्हन्तों के प्रब्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण महोत्सव पर ।
चतुभिः स्थानैः देवानां चैत्यरुक्षाः ४४८. चार कारणों से देवताओं के चैत्यवृक्ष चलेयुः, तद्यथा— चलित होते हैं
अर्हत्सु जायमानेषु
अर्हत्सु प्रव्रजत्सु
अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
अर्हत्सु प्रव्रजत्सु अर्हता ज्ञानोत्पादमहिमसु, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
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ठाणं (स्थान)
४१६
स्थान ४ : सूत्र ४४६-४५० अरहतेहिं जायमाणेहि, अर्हत्सु जायमानेषु,
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, अरहतेहि पव्वयमाणेहि, अर्हत्सुप्रव्रजत्सु,
२. अर्हन्तों के प्रजित होने के अवसर पर, अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु,
३. अहंन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के अरहताणं परिणिव्वाणमहिमासु। अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर,
४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण-महोत्सव पर। ४४६. चहि ठाणेहि लोगंतिया देवा चतुभिः स्थानः लोकान्तिकाः देवाः मानुषं ४४६. चार कारणों से लोकान्तिक देव तत्क्षण
माणुसं लोगं हव्वमागच्छेज्जा, तं लोकं अर्वाक् आगच्छन्ति, तद्यथा-- मनुष्य-लोक में आते हैंजहाअर्हत्सु जायमानेषु,
१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, अरहंतेहिं जायमाणेहि, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु,
२. अर्हन्तों के प्रबजित होने के अवसर पर, अरहतेहि पन्वयमाहि, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु,
३. अर्हन्तों को केवलज्ञान उत्पन्न होने के अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ।
उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु ।
४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण-महोत्सव पर । दुहसेज्जा -पदं दुःखशय्या-पदम्
दुःखशय्या-पद ४५०. चत्तारि दुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ, चतस्रः दुःखशय्याः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा- ४५०. चार दुःखशय्या हैं
तं जहा१. तत्थ खलु इमा पढमा १. तत्र खलु इमा प्रथमा दुःखशय्या
१. पहली दुःखशय्या यह हैदुहसेज्जास मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां
कोई व्यक्ति सुण्ड होकर अगार से अनसे णं मुंडे भवित्ता अगाराओ प्रवजित: नैर्ग्रन्थे प्रवचने शङ्कितः
गारत्व में प्रवजित होकर, निर्ग्रन्थ प्रवचन अणगारियं पन्वइए णिग्गंथे पाव- कांक्षितः विचिकित्सित: भेदसमापन्न:
में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते कलुषसमापन्नः निर्ग्रन्थं प्रवचनं नो समापन्न, फलुष-समापन्न होकर निर्ग्रन्थ भेयसमावणे कलुससमावण्णे श्रद्धत्ते नो प्रत्येति नो रोचते,
प्रवचन में श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति नैर्ग्रन्थं प्रवचनं अश्रद्दधानः अप्रतियन्
करता, रुचि नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ णो पत्तियति णो रोएइ, अरोचमानः मन: उच्चावचं नियच्छति, प्रवचन पर अश्रद्धा करता हुआ, अप्रतीति णिग्गंथं पावयणं असद्दहमाणे विनिघातमापद्यते—प्रथमा दुःखशय्या ।
करता हुआ, अरुचि करता हुआ, मानअपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं
सिक उतार-चढ़ाव और विनिघात [धर्मउच्चावयं णियच्छति, विणिघात
भ्रंशता] को प्राप्त होता है, मावज्जति–पढमा दुहसेज्जा। २. अहवारा दोच्चा दुहसेज्जा- २. अथापरा द्वितीया दुःखशय्या- २. दूसरी दुःखशय्या यह है-कोई से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व 'अणगारियं° पन्वइए सएणं अवजितः स्वेन लाभेन नो तुष्यति, में प्रवजित होकर अपने लाभ [भिक्षा में लाभेणं णो तुस्सति, परस्स लाभ- परस्य लाभमास्वादयति स्पृहयति
लब्ध आहार आदि] से सन्तुष्ट नहीं मासाएति पीहेति पत्थेति अभि- प्रार्थयति अभिलषति,
होकर दूसरे के लाभ का आस्वाद करता लसति,
है, स्पृहा करता है, प्रार्थना करता है,
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स्थान ४: सूत्र ४५०
ठाणं (स्थान)
४२० परस्स लाभमासाएमाणे पोहेमाणे परस्य लाभमास्वादयन् स्पृहयन् प्रार्थयन् । पत्थेमाणे° अभिलसमाणे मणं अभिलषन् मनः उच्चावचं नियच्छति, उच्चावयं णियच्छइ, विणिघात- विनिघातमापद्यते-द्वितीया दुःखशय्या। मावज्जति—दोच्चा दुहसेज्जा। ३. अहावरा तच्चा दुहसेज्जा... ३. अथापरा तृतीया दुःखशय्यासे णं मुंडे भवित्ता 'अगाराओ स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां अणगारियं पव्वइए दिव्वे प्रवजितः दिव्यान् मानुष्यकान् काममाणुस्सए कामभोगे आसाएइ भोगान् आस्वादयति स्पृह्यति प्रार्थयति •पोहेति पत्थेति अभिलसति, अभिलषति, दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसा- दिव्यान् मानुष्यकान् कामभोगान् एमाणे 'पोहेमाणे पत्थेमाणे आस्वादयन् स्पृहयन् प्रार्थयन् अभिलषन् अभिलसमाणे मणं उच्चावयं मनः उच्चावचं नियच्छति, विनिघातणियच्छति, विणिघातमावज्जति- मापद्यते—तृतीया दुःखशय्या । तच्चा दुहसेज्जा। ४. अहावरा चउत्था दुहसेज्जा- ४. अथापरा चतुर्थी दुःखशय्यासे णं मुंडे 'भवित्ता अगाराओ स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां अणगारियं पव्वइए, तस्स णं एवं प्रव्रजित:, तस्य एवं भवति—यदा अहं भवति-जया णं अहमगारवास- अगारवासमावसामि तदा अहं संबाधनमावसामि तदा णमहं संवाहण- परिमईन-गात्राभ्यङ्ग-गात्रोत्क्षालनानि परिमद्दण-गातभंग-गातुच्छोलणाइं लभे, यत्प्रभृति च अहं मुण्डो लभामि, जप्पभिई च णं अहं मुंडे भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः 'भवित्ता अगाराओ अणगारियं तत्प्रभृति च अहं संबाधन-परिमनपव्वइए तप्पभिई च णं अहं गात्राभ्यङ्ग-गात्रोत्क्षालनानि नो लभे। संवाहण- परिमद्दण-गातब्भंग - स संबाधन-परिमर्दन-गात्राभ्यङ्ग-गात्रोत्गातुच्छोलणाई णो लभामि। क्षालनानि आस्वादयति स्पृहयति से णं संवाहणं- परिमद्दण-गातभंग प्रार्थयति अभिलषति, गातुच्छोलणाई आसाएति पीहेति पत्थेति° अभिलसति, से णं संवाहण- परिमद्दण- स संबाधन-परिमर्दन-गात्राभ्यङ्ग-गात्रोत्गातभंग -गातुच्छोलणाई आसा- क्षालनानि आस्वादयन् स्पृहयन् प्रार्थयन् एमाणे पीहेमाणे पत्थेमाणे अभि- अभिलषन् मनः उच्चावचं नियच्छति, लसमाणे मणं उच्चावयं विनिघातमापद्यते-चतुर्थी दुःखशय्या। णियच्छति, विणिघातमावज्जतिचउत्था दुहसेज्जा।
अभिलाषा करता है, वह दूसरे के लाभ का आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ, मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिघात को प्राप्त होता है, ३. तीसरी दुःखशय्या यह है-कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रवजित होकर देवताओं तथा मनुष्यों के काम-भोगों का आस्वादन करता है, स्पृहा करता है, प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है, वह उनका आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिघात को प्राप्त होता है। ४. चौथी दुःखशय्या यह है-कोइ व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होने के बाद ऐसा सोचता है-जब मैं गृहवास में था संबाधन-मर्दन, परिमर्दन-उबटन, गात्राभ्यङ्ग-तेल आदि की मालिश, गात्रोत्क्षालन-स्नान आदि करता था पर जब से मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रवजित हुआ हूं संबाधन, परिमर्दन, गावाभ्यङ्ग तथा गात्रोत्क्षालन नहीं कर पा रहा हूं, ऐसा सोचकर वह संबाधन, परिमर्दन, गात्राभ्यङ्ग तथा गात्रोत्क्षालन का आस्वाद करता है, स्पृहा करता है, प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है, वह संबाधन, परिमर्दन, गानाभ्यङ्ग तथा गात्रोत्क्षालन का आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिघात को प्राप्त होता है।
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सुहसेज्जा-पदं
सुखशय्या-पदम्
सुखशय्या-पद
४५१. चत्तारि सुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ, चतस्रः सुखशय्याः प्रज्ञन्ताः, तद्यथा ४५१. सुखशय्या चार हैं---
तं जहा
१. तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा
से मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते णिक्कंखिते णिव्विति rिच्छिए णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं सद्द पत्तियइ रोए ति, णिग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पत्ति यमाणे रोएमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमा वज्जति पढमा सुहसेज्जा । २. अहावरा दोच्चा सुहसेज्जासे णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारयं पव्वइएसएणं लाभेणं तुस्सति परस्स लाभं णो आसाएति जो पीहेति णो पत्थेइ णो अभिलसति,
परस्त लाभमणासाएमाणे 'अपीहे माणे अपत्येमाणे अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं नियच्छति, णो विणिघातमावज्जति दोच्चा सुहसेज्जा ।
३. अहावरा तच्चा सुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए दिव्व - माणुस कामभोगेणो आसाएति 'णो पीहेति णो पत्थेति अभिलसति,
णो
४२१
१. तत्र खलु इमा प्रथमा सुखशय्यासमुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः नैर्ग्रन्थे प्रवचने निःशङ्कितः निष्कांक्षितः निर्विचिकित्सितः नो भेदसमापन्नः नो कलुषसमापन्नः नैर्ग्रन्थं प्रवचनं श्रद्धत्ते प्रत्येति रोचते,
नैर्ग्रन्थं प्रवचनं श्रद्दधानः प्रतियन् रोचमानः नो मनः उच्चावचं नियच्छति, नो विनिघातमापद्यते - प्रथमा
सुखशय्या | २. अथापरा द्वितीया सुखशय्यासमुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः स्वेन लाभेन तुष्यति परस्य लाभं नो आस्वादयति नो स्पृहयति नो प्रार्थयति नो अभिलषति,
परस्य लाभ अनास्वादयन् अस्पृहयन् अप्रार्थयन् अनभिलषन् नो मनः उच्चावचं नियच्छति, नो विनिघातमापद्यते द्वितीया सुखशय्या |
३. अथापरा तृतीया सुखशय्यासमुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः दिव्यमानुष्यकान् कामभोगान् नो आस्वादयति नो स्पृहयति नो प्रार्थयति नो अभिलषति,
स्थान ४ : सूत्र ४५१
१. पहली सुखशय्या यह है कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर, निर्ग्रन्थ प्रवचन में, निःशंक, निष्कांक्ष, निविचिकित्सित, अमेद समापन्न, अकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है, वह निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है,
२. दूसरी सुखशय्या यह है कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर अपने लाभ से सन्तुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता, वह दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है,
३. तीसरी सुखशय्या यह है कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर देवों तथा मनुष्यों के काम भोगों का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता, वह उनका आस्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ४५२ दिव्वमाणुस्सए कामभोगे अणासाए दिव्यमानुष्यकान् कामभोगान् अनास्वाद- करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, माणे 'अपोहेमाणे अपत्थेमाणे यन् अस्पृहयन् अन्नार्थयन् अनभिलषन् नो । अभिलाषा नहीं करता हुआ मन में समता अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं मनः उच्चावचं नियच्छति, नो विनिघात- को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो णियच्छति, णो विणिघात- मापद्यते-तृतीया सुखशय्या।
जाता है, मावज्जति...तच्चा सुहसेज्जा। ४. अहावरा च उत्था सुहसेज्जा- ४. अथापरा चतुर्थी सुखशय्या४. अ
४. चौथी सुखशय्या यह है—कोई से गं मुंडे 'भवित्ता अगाराओ स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां । व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व अणगारियं पत्रइए, तस्स णं एवं प्रवजितः, तस्य एवं भवति—यदि तावत्
में प्रवजित होने के बाद ऐसा सोचता भवति–जइ ताव अरहंता भगवंतो अर्हन्तो भगवन्तो हृष्टा: अरोगाः वलिकाः है-जब अर्हन्त भगवान् हृष्ट, नीरोग, हटा अरोगा बलिया कल्लसरीरा कल्यशरीराः अन्यतराणि उदाराणि बलवान् तथा स्वस्थ होकर भी कर्मक्षय अग्णयराई ओरालाई कल्लाणाई कल्याणानि विपुलानि प्रयतानि प्रगृही- के लिए उदार, कल्याण, विपुल, प्रयतविउलाई पयताई पग्गहिताई महा- तानि महानुभागानि कर्मक्षयकरणानि सुसंयत, प्रगृहीत, सादर स्वीकृत, महानुगुभागाई कम्मक्खयकरणाइं तवो- तपःकर्माणि प्रतिपद्यन्ते, किमङ्ग पुनरहं भाग--अमेय शक्तिशाली और कर्मक्षयकम्माइं पडिवज्जति, किमंग पुण आभ्युपगमिकौपक्रमिकों वेदनां नो कारी विचित्र तपस्याएं स्वीकृत करते हैं अहं अब्भोवगमिओवक्क मियं सम्यक् सहे क्षमे तितिक्षे अध्यासयामि ? तब मैं आभ्युपगमिकी तथा औपक्रमिकी वेयणं णो सम्मं सहामि खमामि
वेदना को ठीक प्रकार से क्यों न सहन तितिक्खेमि अहियासेमि ?
करता हूं। ममं व णं अभोवगमिओवक्कमियं मम च आभ्युपगमिकौपक्रमिकी यदि मैं आभ्युपगमिकी तथा औपक्रमिकी (वेयणं ?) सम्ममसहमाणस्स [वेदनां?] सम्यक्असहमानस्य अक्षम- की वेदना को ठीक प्रकार से सहन नहीं अक्खममाणस्स अतितिक्खमाणस्स मानस्य अतितिक्षमानस्य अनध्यासयतः करूंगा तो मुझे क्या होगा? अणहियासेमाणस्स कि मण्णे कि मन्ये क्रियते ? कज्जति ? एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति। एकान्तशः मम पापं कर्म क्रियते । मुझे एकान्ततः पाप कर्म होगा। ममं च णं अब्भोवगमिओ मम च आभ्युपगमिकौपऋमिकी यदि मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी 'वक्कमियं (वेयणं ?)° सम्म [वेदनां ? ] सम्यक् सहमानस्य क्षम- वेदना को ठीक प्रकार से सहन करूंगा तो सहमाणस्स 'खममाणस्स तितिक्खे. मानस्य तितिक्षमानस्य अध्यासयत: मुझे क्या होगा? माणस्स अहियासेमाणस्स कि कि मन्ये क्रियते ? मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति- एकान्तशः मे निर्जरा क्रियते
मुझे एकान्तत: निर्जरा होगी। चउत्था सुहसेज्जा।
चतुर्थी सुखशय्या। अवायणिज्ज-वायणिज्ज-पदं अवाचनीय-वाचनीय-पदम् अवाचनीय-वाचनीय-पद ४५२. चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता, चत्वारः अवाचनीयाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा-४५२. चार अवाचनीय-वाचना देने के अयोग्य तं जहा
होते हैं--
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स्थान ४ : सूत्र ४५३-४५७ अविणीए, विगइपडिबद्धे, अविनीतः, विकृतिप्रतिबद्धः,
१. अविनीत, २. विकृति-प्रतिबद्ध, अविओसवितपाहुडे, माई। अव्यवशमितप्राभृतः, मायी।
३. अव्यवशमित-प्राभृत, ४. मायावी । ४५३. चत्तारि वायणिज्जा पण्णत्ता, तं चत्वारः वाचनीयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४५३. चार वाचनीय होते हैं
जहाविणोते, अविगतिपडिबद्धे, विनीतः, अविकृतिप्रतिबद्धः,
१. विनीत, २. विकृति-अप्रतिबद्ध, विओसवितपाहुडे, अमाई। व्यवशमितप्राभृतः, अमायी।
३. व्यवशमित-प्राभृत, ४. अमायावी।
जहा.---
आय-पर-पदं आत्म-पर-पदम्
आत्म-पर-पद ४५४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४५४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातदयथा
१. कुछ पुरुष आत्मभर [अपने-आप को आतंभरे णाममेगे, णो परंभरे, आत्मम्भरि: नामकः, नो परम्भरिः, भरने वाले होते हैं, परंभर दूसरों को परंभरे णाममेगे, णो आतंभरे, परम्भरिः नामकः, नो आत्मम्भरिः, भरने वाले नहीं होते, २. कुछ पुरुष परंएगे आतंभरेवि, परंभरेवि, एक: आत्मम्भरिरपि, परम्भरिरपि, भर होते हैं, आत्मभर नहीं होते, ३. कुछ एगे णो आतंभरे, णो परंभरे। एक: नो आत्मम्भरिः, नो परम्भरिः। पुरुष आत्मभर भी होते हैं और परंभर
भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष आत्मभर भी
नहीं होते और परंभर भी नहीं होते। दुग्गत-सुग्गत-पदं दुर्गत-सुगत-पदम्
दुर्गत-सुगत-पद ४५५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं
चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४५५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं --- तद्यथा
१. कुछ पुरुष धन से भी दुर्गत-दरिद्र होते दुग्गए णाममेगे दुग्गए, दुर्गत: नामैकः दुर्गत:,
हैं और ज्ञान से भी दुर्गत होते हैं, २. कुछ दुग्गए णाममेगे सुग्गए, दुर्गत: नामकः सुगतः,
पुरुष धन से दुर्गत होते हैं, पर ज्ञान से सुग्गए णाममेगे दुग्गए, सुगतः नामकः दुर्गतः,
सुगत-समृद्ध होते हैं, ३. कुछ पुरुष धन से सुग्गए णाममेगे सुग्गए। सुगत: नामैकः सुगतः।
सुगत होते हैं, पर ज्ञान से दुर्गत होते हैं, ४. कुछ पुरुष धन से सुगत होते हैं और
ज्ञान से भी सुगत होते हैं। ४५६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४५६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दुर्गत और दुर्बत होते हैं, दुग्गए णाममेगे दुव्वए, दुर्गतः नामैक: दुव्रतः,
२. कुछ पुरुष दुर्गत और सुव्रत होते हैं, दुग्गए णाममेगे सुव्वए, दुर्गत: नामैक: सुव्रतः,
३. कुछ पुरुष सुगत और दुव्रत होते हैं, सुग्गए णाममेगे दुव्वए, सुगत: नामैकः दुर्वतः,
४. कुछ पुरुष सुगत और सुव्रत होते हैं। सुग्गए णाममेगे सुव्वए। सुगत: नामैक: सुव्रतः। ४५७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४५७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा
तद्यथा
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स्थान ४: सूत्र ४५८-४६१ दुग्गए णाममेगे दुप्पडिताणंदे, दुर्गत: नामैकः दुष्प्रत्यानन्दः, १. कुछ पुरुष दुर्गत और दुष्प्रत्यानंददुग्गए णाममेगे सुप्पडिताणंदे, दुर्गत: नामैक: सुप्रत्यानन्दः,
कृतघ्न होते हैं, २. कुछ पुरुष दुर्गत और सुग्गए णाममेगे दुप्पडिताणंदे, सुगतः नामैक: दुष्प्रत्यानन्दः,
सुप्रत्यानंद -- तृतज्ञ होते हैं, ३. कुछ पुरुष सुग्गए णाममेगे सुप्पडिताणंदे। सुगतः नामैक: सुप्रत्यानन्दः । सुगत और दुष्प्रत्यानंद—कृतघ्न होते हैं,
४. कुछ पुरुष सुगत और सुप्रत्यानंद-----
कृतज्ञ होते हैं। ४५८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४५८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दुर्गत और दुर्गतिगामी होते दुग्गए णाममेगे दुग्गतिगामी, दुर्गतः नामैकः दुर्गतिगामी,
हैं, २. कुछ पुरुष दुर्गत और सुगतिगामी दुग्गए णाममेगे सुग्गतिगामी, दुर्गतः नामकः सुगतिगामी,
होते हैं, ३. कुछ पुरुष सुगत और दुर्गतिसुग्गए णाममेगे दुग्गतिगामी, सुगतः नामैकः दुर्गतिगामी,
गामी होते हैं, ४. कुछ पुरुष सुगत और सुग्गए णाममेगे सुग्गतिगामी। सुगत: नामकः सुगतिगामी।
सुगतिगामी होते हैं। ४५६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४५६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष दुर्गत होकर दुर्गति को प्राप्त दुग्गए णाममेगे दुग्गति गते, दुर्गतः नामैकः दुर्गतिं गतः,
हुए हैं, २. कुछ पुरुष दुर्गत होकर सुगति दुग्गए णाममेगे सुग्गति गते, दुर्गत: नामैक: सुतिं गतः,
को प्राप्त हुए हैं, ३. कुछ पुरुष सुगत सुग्गए णाममेगे दुर्गात गते, सुगतः नामकः दुर्गतिं गतः,
होकर दुर्गति को प्राप्त हुए हैं, ४. कुछ सुग्गए णाममेगे सुग्गति गते। सुगतः नामैकः सुगति गतः।
पुरुष सुगत होकर सुगति को प्राप्त हुए
तम-जोति-पदं तमः-ज्योतिः-पदम्
तम-ज्योति-पद ४६०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष पहले भी तम-अज्ञानी होते तमे णाममेगे तमे, तमो नामैकः तमः,
हैं और पीछे भी तम-अज्ञानी ही होते हैं, तमे णाममेगे जोती,
२. कुछ पुरुष पहले तम होते हैं, पर पीछे तमो नामैकः ज्योतिः,
ज्योति-ज्ञानी हो जाते हैं, ३. कुछ पुरुष जोती णाममेगे तमे, ज्योति मैक: तमः,
पहले ज्योति होते हैं, पर पीछे तम हो जोती णाममेगे जोती। ज्योति मैकः ज्योतिः।
जाते हैं, ४. कुछ पुरुष पहले भी ज्योति
होते हैं और पीछे भी ज्योति ही होते हैं । ४६१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६१. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा-- तद्यथा
१. कुछ पुरुष तम और तमोबल-असदातमे णाममेगे तमबले, तमो नामैकः तमोबलः,
चारी होते हैं, २. कुछ पुरुष तम और
ज्योतिबल--सदाचारी होते हैं, ३. कुछ तमे णाममेगे जोतिबले, तमो नामैक: ज्योतिर्बलः,
पुरुष ज्योति और तमोबल होते हैं, जोती णाममेगे तमबले, ज्योति मैकः तमोबलः,
४. कुछ पुरुष ज्योति और ज्योतिबल जोती णाममेगे जोतीबले। ज्योति मैक: ज्योतिर्बलः।
होते हैं।
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स्थान ४ : सूत्र ४६२-४६५ ४६२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६२. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा...तद्यथा
१. कुछ पुरुष तम और तमोबल में अनुतमे णाममेगे तमबलपलज्जणे, तमो नामैक: तमोबलप्ररञ्जन:,
रक्त होते हैं, २. कुछ पुरुष तम और
ज्योतिबल में अनुरक्त होते हैं, ३. कुछ तमे णाममेगे जोतिबलपलज्जणे, तमो नामैक: ज्योतिर्बलप्ररञ्जनः,
पुरुष ज्योति और तपोबल में अनुरक्त जोती णाममेगे तमबलपलज्जणे, ज्योति मिकः तमोबलप्ररञ्जनः, होते हैं, ४. कुछ पुरुष ज्योति और ज्योतिजोती णाममेगे जोतिबलपलज्जणे। ज्योति मैकः ज्योतिर्बलप्ररञ्जनः। बल में अनुरक्त होते हैं।
परिणात-अपरिणात-पदं परिज्ञात-अपरिज्ञात-पदम्
परिज्ञात-अपरिज्ञात-पद ४६३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६३. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष परिज्ञातकर्मा होते हैं, पर परिण्णातकम्मे णाममेगे, परिज्ञातकर्मा नामैकः, नो परिज्ञातसंज्ञः, परिज्ञात संज्ञ नहीं होते-हिंसा आदि णो परिणातसण्णे,
परिज्ञातसंज्ञः नामैकः, नो परिज्ञातकर्मा, के परिहा होते हैं, पर अनासक्त नहीं परिणातसण्णे णाममेगे, एकः परिज्ञातकर्माऽपि, परिज्ञातसंज्ञोऽपि, होते, २. कुछ पुरुष परिज्ञातसंज्ञ होते हैं, णो परिण्णातकम्मे,
एक: नो परिज्ञातकर्मा, नो परिज्ञातसंज्ञः । पर परिज्ञात कर्मा नहीं होते ३. कुछ एगे परिण्णातकम्मेवि,
पुरुष परिज्ञातकर्मा भी होते हैं और परिण्णातसण्णेवि,
परिज्ञातसंज्ञ भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न एगे णो परिण्णातकम्मे,
परिज्ञातकर्मा होते हैं और न परिज्ञातसंज्ञ णो परिणातसण्णे।
ही होते हैं। ४६४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६४. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष परिज्ञातका होते हैं, परिण्णातकम्मे णाममेगे, परिज्ञातकर्मा नामकः,
पर परिज्ञातगृहवास नहीं होते, २. कुछ णो परिण्णातगिहावासे, नो परिज्ञातगृहावासः,
पुरुष परिज्ञातगृहवास होते हैं, पर परिपरिणातगिहावासे णाममेगे, परिज्ञातगृहावासः नामैकः,
ज्ञातकर्मा नहीं होते, ३. कुछ पुरुष णो परिण्णातकम्म, नो परिज्ञातकर्मा,
परिज्ञातकर्मा भी होते हैं और परिज्ञातएगे परिणातकम्मेवि, एकः परिज्ञातकर्माऽपि,
गृहवास भी होते हैं ४. कुछ पुरुष ने परिण्णात गिहावासेवि, परिज्ञातगृहावासोऽपि,
परिज्ञातकर्मा होते हैं और न परिज्ञातएगे णो परिणातकम्मे, एक: नो परिज्ञातकर्मा,
गृहवास ही होते हैं। णो परिण्णातगिहावासे। नो परिज्ञातगृहावासः। ४६५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-- जहा.तद्यथा
१. कुछ पुरुष परिज्ञातसंज्ञ होते हैं, पर परिण्णातसण्णे णाममेगे, परिज्ञातसंज्ञः नामैकः,
परिज्ञातगृहवास नहीं होते, २. कुछ पुरुष णो परिणातगिहावासे, नो परिज्ञातगृहावासः,
परिज्ञातगृहवास होते हैं, पर परिज्ञातसंज्ञ परिण्णातगिहावासे णाममेगे, परिज्ञातगृहावासः नामैकः,
नहीं होते, ३. कुछ पुरुष परिज्ञातसंज्ञ भी णो परिणातसणे, नो परिज्ञातसंज्ञः,
होते हैं और परिज्ञातगृहवास भी होते हैं,
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ठाणं (स्थान)
परिणावि
परिणामिहावासेवि एगे णो परिणातसणे, परिणातगिहावासे ।
जहा -
इहत्थे णामगे, णो परत्थे,
परत्थे णामगे, णो इहत्थे,
इथे
परत्थेवि
एगे जो इहत्थे, णो परत्थे ।
इत्थ-परत्थ-पदं
४६६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि
जहा -
णाम वति, एगेणं हायति, एगेणं णामगे वडृति, दोहि हायति,
दोहिं णाममेगे वद्धृति, एगेणं हायति,
दोह णामगे वडति, दोहि हायति ।
एक:
आइण्ण- खलुंक - पदं ४६८. चत्तारि पकथगा पण्णत्ता, तं जहा -
४२६
परिज्ञातसंज्ञोऽपि,
परिज्ञातगृहावासोऽपि, एक: नो परिज्ञातसंज्ञः,
नो परिज्ञातगृहावासः ।
इहार्थ- परार्थ-पदम्
- परार्थ-द
पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
तद्यथा
इहार्थ : नामैकः, नो परार्थः, परार्थः नामकः, नो इहार्थः, एक: इहार्थोऽपि परार्थोऽपि, एक: नो इहार्थ:, नो परार्थः ।
हाणि बुड्डि-पदं
हानि-वृद्धि-पदम्
हानि - वृद्धि - पद
४६७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४६७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं
तद्यथा—
एकेन नामकः वर्धते, एकेन हीयते, एकेन नामकः वर्धते, द्वाभ्यां हीयते, द्वाभ्यां नामकः वर्धते, एकेन हीयते, द्वाभ्यां नामकः वर्धते द्वाभ्यां हीयते ।
१. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं - ज्ञान से बढ़ते हैं, और मोह से हीन होते हैं, २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं ज्ञान से बढ़ते हैं, राग और द्वेष से हीन होते हैं, ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं-ज्ञान और संयम से बढ़ते हैं, मोह से हीन होते हैं, ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैंज्ञान और संयम से बढ़ते हैं, राग और द्वेष से हीन होते हैं" ।
स्थान ४ : सूत्र ४६६-४६८
४. कुछ पुरुष न परिज्ञातसंज्ञ होते हैं और न परिज्ञातगृहवास ही होते हैं।
१. कुछ पुरुष इहार्थ - लौकिक प्रयोजन वाले होते हैं, परार्थ -- पारलौकिक प्रयोजन वाले नहीं होते, २. कुछ पुरुष परार्थ होते हैं, इहार्थ नहीं होते, ३. कुछ पुरुष इहार्थ भी होते हैं और परार्थ भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न इहार्थ होते हैं। और न परार्थ ही होते हैं ।
आकीर्ण- खलुंक-पदम्
आकीर्ण- खलुंक- पद
चत्वारः प्रकन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— ४६८. घोड़े चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ घोड़े पहले भी आकीर्ण- वेगवान्
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ठाणं (स्थान)
४२७
स्थान ४ : सूत्र ४६६ आइण्णे णाममेगे आइण्णे, आकीर्णः नामैक: आकीर्णः,
होते हैं और पीछे भी आकीर्ण ही होते हैं, आइण्णे णाममेगे खलुंके, आकीर्णः नामैक: खलंकः,
२. कुछ घोड़े पहले आकीर्ण होते हैं, किन्तु खलुंके णाममेगे आइण्णे, खलुंक: नामैक: आकीर्णः,
पीछे खलुक-मंद हो जाते हैं, ३. कुछ घोड़े खलुके णाममेगे खलुके। खलुंक: नामैकः खलुंकः।
पहले खलुक होते हैं, किन्तु पीछे आकीर्ण हो जाते हैं, ४. कुछ घोड़े पहले भी खलुक
होते हैं और पीछे भी खलुक ही होते हैं । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाआइण्णे णाममेगे आइण्णे, आकीर्णः नामकः आकीर्णः,
१. कुछ पुरुष पहले भी आकीर्ण होते हैं 'आइण्णे णाममेगे खलुंके, आकीर्णः नामैकः खलुंकः,
और पीछे भी आकीर्ण ही होते हैं, २. कुछ खलुंके गाममेगे आइण्णे, खलंक: नामकः आकीर्णः,
पुरुष पहले आकीर्ण होते हैं, किन्तु पीछे खलुंके णाममेगे खलुंके। खलुंक: नामकः खलुकः ।
खलंक हो जाते हैं, ३. कुछ पुरुष पहले खलुक होते हैं, किन्तु पीछे आकीर्ण हो जाते हैं ४. कुछ पुरुष पहले भी खलंक
होते हैं और पीछे भी खलुक ही होते हैं। ४६४.चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता,तं चत्वारः प्रकन्थका:प्रज्ञप्ता:, तदयथा ४६६. घोड़े चार प्रकार के होते हैं--- जहा
१. कुछ घोड़े आकीर्ण होते हैं और आइण्णे णाममेगे आइण्णताए वहति, आकीर्णः नामैक: आकीर्णतया वहति, आकीर्णरूप में ही व्यवहार करते हैं, आइण्णे णाममेगे खलंकताए वह ति, आकीर्णः नामैकः खलुंकतया वहति, २. कुछ घोड़े आकीर्ण होते हैं, पर खलुंकखलुके णाममेगे आइण्णताए वहति, खलुकः नामैकः आकीर्णतया वहति, रूप में व्यवहार करते हैं, ३. कुछ घोड़े खलुके णाममेगे खलुंकताए वहति। खलुकः नामकः खलुकतया वहति । खलुक होते हैं, पर आकीर्णरूप में व्यवहार
करते हैं, ४. कुछ घोड़े खलंक ही होते हैं
और खलकरूप में ही व्यवहार करते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाआइपणे णाममेगे आइण्णताए वहति, आकीर्णः नामैक: आकीर्णतया वहति, १. कुछ पुरुष आकीर्ण होते हैं और आइण्णे णाममेगे खलुंकताए वहति, आकीर्णः नामकः खलुंकतया वहति, आकीर्णरूप में ही व्यवहार करते हैं खलुंके णाममेगे आइण्णताए वहति, खलंकः नामैक: आकीर्णतया वहति, २. कुछ पुरुष आकीर्ण होते हैं, पर खलुकखलुंके णाममेगे खलुंकताए वहति। खलुंक: नामकः खलुंकतया वहति । रूप में व्यवहार करते हैं, ३. कुछ पुरुष
खलुक होते हैं, पर आकीर्णरूप में व्यवहार करते हैं ४. कुछ पुरुष खलुक ही होते हैं और खलुकरूप में ही व्यवहार करते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४२८
स्थान ४ : सूत्र ४७०-४७१
जाति-पदं जाति-पदम्
जाति-पद ४७०. चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं चत्वारः प्रकन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४७०. घोड़े चार प्रकार के होते हैं-- जहा
१. कुछ घोड़े जाति-सम्पन्न होते हैं, कुल जातिसंपण्णे णाममेगे, जातिसम्पन्नः नामकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े कुलणो कुलसंपण्णे,
कूलसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, कुलसंपण्णे णाममेगे, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, कुलसम्पन्नोऽपि, कुछ घोड़े जाति-सम्पन्न भी होते हैं और णो जातिसंपण्णे,
एक: नो जातिसम्पन्नः, नो कूलसम्पन्नः । कुल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ घोड़े न एगे जातिसंपण्णेवि,
जाति-सम्पन्न होते हैं और न कुल-सम्पन्न कुलसंपण्णेवि,
ही होते हैं। एगे णो जातिसंपण्णे, णो कुलसंपण्णे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजातिसंपण्णे णाममेगे, जातिसम्पन्नः नामकः, नो कुलसम्पन्नः, १. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, कुलणो कुलसंपण्णे, कुलसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष कुलकुलसंपण्णे णाममेगे, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, कुलसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, णो जातिसंपण्णे,
एक: नो जातिसम्पन्नः, नो कूलसम्पन्नः। ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते हैं एगे जातिसंपण्णेवि,
और कुल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ कुलसंपण्णेवि,
पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं और न एगे णो जातिसंपण्णे,
कुल-सम्पन्न ही होते हैं। णो कुलसंपण्णे । ४७१. चत्तारि पकथगा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः प्रकन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४७१. घोड़े चार प्रकार के होते हैं--- जातिसंपण्णे णाममेगे
जातिसम्पन्नः नामकः, नो बलसम्पन्नः, १. कुछ घोड़े जाति-सम्पन्न होते हैं, बलणो बलसंपण्णे,
बलसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े बलबलसंपण्णे णाममेगे,
एक:जातिसम्पन्नोऽपि, बलसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, णो जातिसंपण्णे,
एक: नो जातिसम्पन्नः, नो बलसम्पन्नः। ३. कुछ घोड़े जाति-सम्पन्न भी होते हैं एगे जातिसंपण्णेवि,
और बल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ बलसंपण्णेवि,
घोड़े न जाति-सम्पन्न होते हैं और न बलएगे णो जातिसंपण्णे,
सम्पन्न ही होते है। णो बलसंपण्णे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा
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ठाणं (स्थान)
४२६
स्थान ४ : सूत्र ४७२-४७३ जातिसंपण्णे णाममेगे, जातिसम्पन्नः नामैकः, नो वलसम्पन्नः, १. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, बलणो बलसंपण्णे, बलसम्पन्नः नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष बलबलसंपण्णे णाममेगे,
एक: जातिसम्पन्नोऽपि,बलसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, णो जातिसंपण्णे,
एकः नो जातिसम्पन्नः, नो बलसम्पन्नः । ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते हैं एगे जातिसंपण्णेवि, बलसंपण्णेवि,
और बल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे णो जातिसंपणे,
पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं और न बलणो बलसंपण्णे।
सम्पन्न ही होते हैं। ४७२. चत्तारि [प? कथगा पण्णता, चत्वारः (प्र? )कन्थकाः प्रज्ञप्ताः, ४७२. घोड़े चार प्रकार के होते हैंतं जहातद्यथा
१. कुछ घोड़े जाति-सम्पन्न होते हैं, रूपजातिसंपण्णे णाममेगे, जातिसम्पन्न: नामकः नो रूपसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े रूपणो रूवसंपणे, रूपसम्पन्नः नामकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, रूवसंपण्णे णाममेगे,
एकः जातिसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ घोड़े जाति-सम्पन्न भी होते हैं णो जातिसंपण्णे,
एक: नो जातिसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः । और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे जातिसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि,
घोड़े न जाति-सम्पन्न होते हैं और न एगे णो जातिसंपण्णे,
रुप सम्पन्न ही होते हैं। णो रूवसंपण्णे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाजातिसंपण्णे णाममेगे,
जातिसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्न:, १. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, रूपणो रूवसंपण्णे, रूपसम्पन्नः नामकः, नो जातिसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपरूबसंपण्णे णाममेगे, एक: जातिसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, णो जातिसंपण्णे,
एक: नो जातिसम्पन्न:, नोरूपसम्पन्नः । ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते हैं एगे जातिसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि,
और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे णो जातिसंपण्णे,
पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं और न णो रूवसंपण्णे।
रूप-सम्पन्न ही होते हैं। ४७३. चत्तारि [प?] कंथगा पण्णत्ता, चत्वारः (प्र? )कन्थकाः प्रज्ञप्ताः, ४७३. घोड़े चार प्रकार के होते हैं-- तं जहातद्यथा
१. कुछ घोड़े जाति-सम्पन्न होते हैं, जयजातिसंपण्णे णाममेगे, जातिसम्पन्नः नामकः, नो जयसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े जयणो जयसंपण्णे,
जयसम्पन्नः नामकः, नो जातिसम्पन्न:, सम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, जयसंपण्णे णाममेगे, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, जयसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ घोड़े जाति-सम्पन्न भी होते हैं णो जातिसंपण्णे, एकः नो जातिसम्पन्नः नो जयसम्पन्नः । और जय-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे जातिसंपण्णेवि, जयसंपण्णेवि,
घोड़े न जाति-सम्पन्न होते हैं और न जयएगे णो जातिसंपण्णे,
सम्पन्न ही होते हैं। णो जयसंपण्णे।
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स्थान ४ : सूत्र ४७४-४७५
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते
ठाणं (स्थान)
४३० एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा...
तद्यथाजातिसंपण्णे नामेगे, जातिसम्पन्नः नामकः, नो जयसम्पन्नः, णो जयसंपण्णे, जयसम्पन्न: नामैकः, नो जातिसम्पन्नः, जयसंपण्णे नामंगे, एकः जातिसम्पन्नोऽपि, जयसम्पन्नोऽपि, णो जातिसंपण्णे, एक: नो जातिसम्पन्नः, नो जयसम्पन्नः । एगे जातिसंपण्णेवि, जयसंपण्णेवि, एगे णो जातिसंपण्णे, णो जयसंपण्णे।
१. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न होते हैं, जयसम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष जयसम्पन्न होते हैं, जाति-सम्पन्न नहीं होते, ३. कुछ पुरुष जाति-सम्पन्न भी होते हैं
और जय-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न जाति-सम्पन्न होते हैं और न जयसम्पन्न ही होते हैं।
कुल-पदं
कुल-पदम्
कुल-पद ४७४. चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः प्रकन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा.... ४७४. घोड़े चार प्रकार के होते हैं
कुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्न: नामकः, नो बलसम्पन्नः, १. कुछ घोड़े कुल-सम्पन्न होते हैं, बलणो बलसंपण्णे, बलसम्पन्न: नामैकः, नो कूलसम्पन्न:, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े बलबलसंपण्णे णाममेगे, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, बलसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, णो कुलसंपण्णे, एकः नो कुलसम्पन्नः, नो बलसम्पन्नः । ३. कुछ घोड़े कुल-सम्पन्न भी होते हैं एगे कुलसंपण्णेवि,बलसंपण्णेवि,
और बल-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे णो कुलसंपण्णे,
घोड़े न कुल-सम्पन्न होते हैं और न बलणो बलसंपण्णे।
सम्पन्न ही होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णता, तं जहा
तद्यथाकुलसंपण्णे णाममेगे,
कूलसम्पन्नः नामैकः, नो बलसम्पन्न:, १. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, बलणो बलसंपण्णे, बलसम्पन्नः नामकः, नो कूलसम्पन्न:,
सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुप बलबलसंपण्णे णाममेगे,
एक: कुलसम्पन्नोऽपि, बलसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, णो कुलसंपण्णे, एक: नो कूलसम्पन्नः, नो बलसम्पन्नः । ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते एगे कुलसंपण्णेवि, बलसंपण्णेवि,
हैं और बल-सम्पन्न भी होते हैं, एगे णो कुलसंपण्णे,
४. कुछ पुरुष न कुल-सम्पन्न होते हैं णो बलसंपण्णे।
और न बल-सम्पन्न ही होते हैं। ४७५. चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता,तं चत्वारः प्रकन्थका: प्रज्ञप्ताः , तदयथा- ४७५. घोड़े चार प्रकार के होते हैं - जहा
१. कुछ घोड़े कुल-सम्पन्न होते हैं, रूपकुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्न: नामकः, नो रूपसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े रूपणो रूवसंपण्णे, रूपसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं रूवसंपण्णे णाममेगे,
होते, ३. कुछ घोड़े कुल-सम्पन्न णो कुलसंपण्णे,
भी होते हैं और रूप-सम्पन्न भी
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४: सूत्र ४७६-४७७ एगे कुलसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, होते हैं, ४. कुछ घोड़े न कुल-सम्पन्न होते एगे णो कुल सपण्णे, एक: नो कुलसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः। हैं और न रूप-सम्पन्न ही होते हैं। णो रूवसंपण्णे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णता, तं जहा
तद्यथाकुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, १. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, रूपणो रूवसंपण्णे, रूपसम्पन्न: नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपरूवसंपण्णे णाममेगे, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, णो कुलसंपण्णे, एकः नो कुलसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः । ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते हैं और एगे कुलसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि,
रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न एगे णो कुलसंपण्णे,
कुल-सम्पन्न होते हैं और न रूप-सम्पन्न णो रूवसंपण्णे।
ही होते हैं। ४७६. चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं चत्वारः प्रकन्थकाः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-४७६. घोड़े चार प्रकार के होते है
१. कुछ घोड़े कुल-सम्पन्न होते हैं, जयकुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्न: नामैकः, नो जयसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े जयणो जयसंपण्णे,
जयसम्पन्नः नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, जयसंपण्णे णाममेगे,
एकः कुलसम्पन्नोऽपि, जयसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ घोड़े कुल-सम्पन्न भी होते हैं णो कुलसंपण्णे, एक: नो कूलसम्पन्नः, नो जयसम्पन्नः । और जय-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे कुलसंपण्णेवि, जयसंपण्णेवि,
घोड़े न कुल-सम्पन्न होते हैं और न जयएगे णो कुलसंपण्णे,
सम्पन्न ही होते हैं। णो जयसंपण्णे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णता, तं जहा
तद्यथाकुलसंपण्णे णाममेगे, कुलसम्पन्नः नामैकः, नो जयसम्पन्नः, १. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न होते हैं, जयणो जयसंपण्णे, जयसम्पन्न: नामैकः, नो कुलसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष जयजयसंपण्णे णाममेगे, एकः कुलसम्पन्नोऽपि, जयसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, कुल-सम्पन्न नहीं होते, णो कुलसंपण्णे, एकः नो कुलसम्पन्नः, नो जयसम्पन्नः। ३. कुछ पुरुष कुल-सम्पन्न भी होते हैं एगे कुलसंपण्णेवि, जयसंपण्णेवि,
और जय-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे णो कुलसंपण्णे,
पुरुष न कुल-सम्पन्न होते हैं और न णो जयसंपण्णे।
जय-सम्पन्न ही होते हैं।
बल-पदं ४७७. 'चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं
जहा
बल-पदम्
बल-पद चत्वारः प्रकन्थका: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४७७. घोड़े चार प्रकार होते हैं
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सणं (स्थान)
४३२
स्थान ४: सूत्र ४७८
बलसंपण्णे णाममेगे,
बलसम्पन्न: नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, १. कुछ घोड़े बल-सम्पन्न होते हैं, रूपणो रूवसंपण्णे, रूपसम्पन्न: नामकः, नो बलसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े रूपरूवसंपणे णाममेगे, एकः बलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, बल-सम्पन्न नहीं होते, णो बलसंपण्णे,
एक: नो बलसम्पन्नः नो रूपसम्पन्नः । ३. कुछ घोड़े बल-सम्पन्न भी होते हैं और एगे बलसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि,
रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ घोड़े न एगे णो बलसंपण्णे,
बल-सम्पन्न होते हैं और न रूप-सम्पन्न णो रूवसंपण्णे।
ही होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाबलसंपण्णे णाममेगे,
बलसम्पन्न: नामैकः, नो रूपसम्पन्न:, १. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न होते हैं, रूपणो रूवसंपण्णे, रूपसम्पन्नः नामकः, नो बलसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपख्वसंपण्णे णाममेगे,
एक: बलसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, बल-सम्पन्न नहीं होते, णो बलसंपण्णे,
एकः नो बलसम्पन्न: नो रूपसम्पन्नः । ३. कुछ पुरुष बल-सम्पन्न भी होते हैं एगे बलसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि,
और रूप-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ एगे णो बलसंपण्णे,
पुरुष न बल-सम्पन्न होते हैं और न रूपणो रूवसंपण्णे।
सम्पन्न ही होते हैं। ४७८. चत्तारि पकथगा पण्णत्ता, तं चत्वारः प्रकन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ४७८. घोड़े चार प्रकार के होते हैंजहा.
१. कुछ घोड़े बल-सम्पन्न होते हैं, जयबलसंपणे णाममेगे,
बलसम्पन्न: नामकः, नो जयसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े जयणो जयसंपण्ण,
जयसम्पन्न: नामैकः, नो बलसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, बल-सम्पन्न नहीं होते, जयसंपण्णे णाममेगे,
एक: बलसम्पन्नोऽपि, जयसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ घोड़े बल-सम्पन्न भी होते हैं और णो बलसंपण्णे,
एक: नो वलसम्पन्नः, नो जयसम्पन्नः । जय-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ घोड़े न एगे बलसंपण्णेवि, जयसंपण्णेवि,
बल-सम्पन्न होते हैं और न जय-सम्पन्न एगे णो बलसंपण्णे,
ही होते हैं। णो जयसंपण्णे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा.
तद्यथाबलसंपण्णे णाममेगे,
बलसम्पन्नः नामैकः, नो जयसम्पन्नः, १. कुछ पुरुष बल-संपन्न होते हैं, जयणो जयसंपण्णे,
जयसम्पन्नः नामैकः, नो बलसम्पन्नः, संपन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष जय-संपन्न जयसंपण्णे णाममेगे,
एक: बलसम्पन्नोऽपि, जयसम्पन्नोऽपि, होते हैं, बल-संपन्न नहीं होते। ३. कुछ णो बलसंपण्णे,
एक: नो बलसम्पन्नः, नो जयसम्पन्नः । पुरुष बल-संपन्न भी होते हैं, और जयएगे बलसंपण्णेवि, जयसंपण्णेवि,
संपन्न भी होते हैं। ४. कुछ पुरुष न बलएगे णो बलसंपण्णे,
संपन्न होते हैं और न जय-संपन्न ही होते णो जयसंपण्णे।
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ठाणं (स्थान)
४३३
स्थान ४: सूत्र ४७६-४८०
रूव-पदं रूप-पदम्
रूप-पद ४७९. चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं चत्वारः प्रकन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- ४७६. घोड़े चार प्रकार के होते हैंजहा
१. कुछ घोड़े रूप-सम्पन्न होते हैं, जयरूवसंपण्णे णाममेगे, रूपसम्पन्न: नामकः, नो जयसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ घोड़े जयणो जयसपण्णे,
जयसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, सम्पन्न होते हैं, रूप सम्पन्न नहीं होते, जयसंपण्णे णाममेगे, एकः रूपसम्पन्नोऽपि, जयसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ घोड़े रूप-सम्पन्न भी होते हैं और णो रूवसपण्ण,
एकः नो रूपसम्पन्नः, नो जयसम्पन्नः । जय-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ घोड़े न एगे रूवसंपण्णव, जयसंपण्णेवि,
रूप-सम्पन्न होते हैं और न जय-सम्पन्न एगे णो रूवसपण्णे,
ही होते हैं। णो जयसंपण्ण। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथारूवसंपण्णे णाममेगे, रूपसम्पन्न: नामकः, नो जयसम्पन्नः, १. कुछ पुरुष रूप-सम्पन्न होते है, जयणो जयसंपण्ण, जयसम्पन्नः नामकः, नो रूपसम्पन्नः, सम्पन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष जयजयसंपण्णे णाममेगे,
एकः रूपसम्पन्नोऽपि, जयसम्पन्नोऽपि, सम्पन्न होते हैं, रूप-सम्पन्न नहीं होते, णो रूवसंपण्णे,
एक: नो रूपसम्पन्नः, नो जयसम्पन्नः । ३. कुछ पुरुष रूप-सम्पन्न भी होते हैं और एगे रूवसंपण्णेवि, जयसंपण्णेवि,
जय-सम्पन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न एगे णो रूवसंपण्णे,
रूप-सम्पन्न होते हैं और न जय-सम्पन्न णो जयसंपण्णे।
ही होते हैं।
सीह-सियाल-पदं सिंह-शृगाल-पदम्
सिंह-शगाल-पद ४८०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४८०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं - जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष सिंहवृत्ति से निष्क्रांतसीहत्ताए णाममेगे णिक्खंते सिंहतया नामैक: निष्क्रान्तः सिंहतया प्रवजित होते हैं और सिंहवृत्ति से ही सोहत्ताए विहरइ, विहरति,
उसका पालन करते हैं, २. कुछ पुरुष सिंहसीहत्ताए णाममेगे णिक्खते सीया- सिहतया नामकः निष्कान्तः शृगालतया वृत्ति से निष्क्रान्त होत हैं और सियारवृत्ति लत्ताए विहरइ, विहरति,
से उसका पालन करते हैं, ३. कुछ पुरुष सीयालत्ताए णाममेगे णिक्खते शृगालतया नामकः निष्क्रान्तः सिंहतया सियारवृत्ति से निष्क्रान्त होते हैं और सीहत्ताए विहरइ, विहरति,
सिंहवृत्ति से उसका पालन करते हैं, सीयालत्ताए णाममेगे णिक्खंते शृगालतया नामकः निष्क्रान्तः ४. कुछ पुरुष सियारवृत्ति से निष्क्रान्त सीयालत्ताए विहर। शृगालतया विहरति,
होते हैं और सियारवृत्ति से ही उसका पालन करते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४३४
स्थान ४ : सूत्र ४८१-४८५
सम-पदं सम-पदम्
सम-पद ४८१. चत्तारि लोगे समा पण्णत्ता, तं चत्वारः लोके समाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-- ४८१. लोक में चार समान हैं (एक लाख योजन
जहाअपइट्ठाणे णरए, जंबुद्दीवे दीवे, अप्रतिष्ठानो नरकः, जम्बूद्वीपं द्वीपं, १. अप्रतिष्ठान नरक-सातवें नरक का
पालए जाणविमाणे, सम्वट्ठसिद्धे पालक यानविमानं, सर्वार्थसिद्धं महा- एक नरकावास, २. जम्बुद्वीप नामक द्वीप, - महाविमाणे। विमानम्।
३. पालक यान विमान-सौधर्मेन्द्र का
यात्राविमान ४. स्वार्थसिद्ध महाविमान। ४८२. चत्तारि लोगे समा सपक्खिं चत्वारः लोके समाः सपक्षं सप्रतिदिशं ४८२. लोक में चार समान (पैंतालीस लाख सपडिदिसि पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
योजन) समक्ष तथा सप्रतिदिश हैं--- सीमंतए णरए, समयक्खेत्ते, सीमान्तकः नरकः, समयक्षेत्रं,
१. सीमन्तक नरक-पहले नरक का उड्डुविमाणे, इसीपन्भारा पुढवी। उडुविमानं, ईषत्प्राग्भारा पृथिवी। एक नरकावास, २. समयक्षेत्र,
३. उडुविमान-सौधर्म कल्प के प्रथम प्रस्तर का एक विमान, ४. ईषद्-प्रागभारा पृथ्वी।
बिसरीर-पदं द्विशरीर-पदम्
द्विशरीर-पद ४८३. उद्दलोगे णं चत्तारि बिसरीरा ऊर्ध्वलाके चत्वारः द्विशरीराः प्रज्ञप्ताः, ४८३. ऊर्ध्व लोक में चार द्विशरीरी-दूसरे पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
जन्म में सिद्ध गतिगामी हो सकते हैंपुढविकाइया, आउकाइया, पृथ्वीकायिकाः, अप्कायिकाः, १. पृथ्वीकायिक जीव, २. अप्कायिक वणस्सइकाइया, वनस्पतिकायिकाः,
जीव, ३. वनस्पतिकायिक जीव, ४. उदार उराला तसा पाणा। उदाराः त्रसाः प्राणाः ।
बस प्राण---पञ्चेन्दिय जीव। ४८४. अहोलोगे णं चत्तारि बिसरीरा अधोलोके चत्वारः द्विशरीराः प्रज्ञप्ताः, ४८४. अधोलोक में चार द्विशरीरी हो सकते पण्णता, तं जहा
तद्यथा'पुढविकाइया आउकाइया, पृथ्वीकायिकाः, अप्कायिकाः,
१. पृथ्वीकायिक जीव, २. अप्कायिक वणस्सइकाइया, वनस्पतिकायिकाः,
जीव, ३. वनस्पतिकायिक जीव, ४. उदार उराला तसा पाणा। उदाराः त्रसाः प्राणाः ।
वस प्राण । ४८५.तिरियलोगे णं चत्तारि बिसरीरा तिर्यगलोके चत्वारः द्विशरीराः प्रज्ञप्ताः, ४८५. तिर्यक्लोक में चार द्विशरीरी हो सकते पण्णता, तं जहा.
तद्यथापुढविकाइया, आउकाइया, पृथ्वीकायिकाः, अप्कायिकाः,
१. पृथ्वीकायिक जीव २. अप्कायिक वणस्सइकाइया, वनस्पतिकायिकाः,
जीव ३. वनस्पतिकायिक जीव ४. उदार उराला तसा पाणा। उदाराः त्रसाः प्राणाः।
वस प्राण।
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ठाणं (स्थान)
जहा -
हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते ।
सत्त-पदं
सत्त्व-पदम्
सत्त्व-पद
४८६.
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ४८६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं—
१. ह्रीसत्त्व - विकट परिस्थिति में भी लज्जावश कायर न होने वाला २. ह्रीमनःसत्त्व - विकट परिस्थिति में भी मन में कायर न होने वाला
३. चलसत्त्व - अस्थिरसत्त्व वाला
४. स्थिरसत्त्व - सुस्थिरसत्त्व वाला " ।
पडिमा -पदं
४८७. चत्तारि
सेज्जपडिमाओ
४३५
पण्णत्ता, त जहा-
उब्विए, आहारए, तेयए, कम्मए । ४६२. चत्तारि सरीरमा कम्मुम्मीसगा
पण्णत्ता, तं जहाओरालिए, उदिए, आहारए, तेयए ।
पण्णत्ताओ ।
४८८. चत्तारि वत्थपडिमाओ पण्णत्ताओ। चतस्रः वस्त्रप्रतिमाः प्रज्ञप्ताः । ४८६. चत्तारि पायपडिमाओ पण्णत्ताओ। चतस्र: पात्रप्रतिमाः प्रज्ञप्ताः । ४६०. चत्तारि ठाणपडिमाओ पण्णत्ताओ। चतस्रः स्थानप्रतिमाः प्रज्ञप्ताः ।
फुड- पदं
४६३. चह अत्थिकाहि लोगे फुडे पण्णत्ते, तं जहामथिकाणं, अधम्मत्थिकाएणं, जीवत्थकाए, पुग्गलत्थकाएणं ।
तद्यथा-
होसत्त्वः, ह्रीमनः सत्त्वः, चलसत्त्वः, स्थिरसत्त्वः ।
सरीर-पदं
शरीर-पदम्
४६१. चत्तारि सरीरगा जीवफुडा चत्वारि शरीरकाणि जीवस्पृष्टानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— वैक्रिय, आहारकं, तैजसं, कर्मकम् ।
प्रतिमा-पदम्
चतस्रः शय्याप्रतिमाः प्रज्ञप्ताः ।
चत्वारि शरीरकाणि कर्मोन्मिश्रकाणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा---
औदारिक, वैक्रिय, आहारकं, तैजसम् ।
स्थान ४ : सूत्र ४८६-४६३
प्रतिमा-पद
४८७. चार शय्या प्रतिमाएं हैं।
४८८. चार वस्त्र प्रतिमाएं हैं। ४८६. चार पात्र प्रतिमाएं १०२ हैं । ४९०. चार स्थान प्रतिमाएं हैं।
शरीर-पद
४६१. चार शरीर जीवस्पृष्ट-- जीव के सहवर्ती
होते हैं ।
१. वैक्रिय २. आहारक ३. तैजस ४. कार्मण ।
४६२. चार शरीर कर्मउन्मिश्रक --- कार्मण शरीर से संयुक्त ही होते हैं-
१. औदारिक २. वैक्रिय ३. आहारक ४. तेजस १४ ।
स्पृष्ट-पदम्
स्पृष्ट- पद
चतुर्भिः अस्तिकायैः लोकः स्पृष्टः ४६३. चार अस्तिकायों से समूचा लोक स्पृष्ट---
व्याप्त है-- १. धर्मास्तिकाय से
प्रज्ञप्तः, तद्यथा— धर्मास्तिकायेन, अधर्मास्तिकायेन, जीवास्तिकायेन, पुद्गलास्तिकायेन ।
२. अधर्मास्तिकाय से ३. जीवास्तिकाय से ४. पुद्गलास्तिकाय से ।
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ठाणं (स्थान)
४३६
स्थान ४ : सूत्र ४९४-४६८ ४६४. चहि बादरकाएहि उववज्ज- चतुभिः बादरकायैः उपपद्यमानः लोकः ४६४. चार उत्पन्न होते हुए अपर्याप्तक बादरमाहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, तं स्पृष्टः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
कायिक जीवों से समूचा लोक स्पृष्ट हैजहा
१. पृथ्वीकायिक जीवों से २. अप्कायिक पुढविकाइएहि, आउकाइएहि, पृथ्वीकायिकैः, अप्कायिकः,
जीवों से ३. वायुकायिक जीवों से वाउकाइएहि, वणस्सइकाइएहि। वायुकायिकैः, वनस्पतिकायिकैः । ४. वनस्पतिकायिक जीवों से।
तुल्ल-पदं ४६५. चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता,
तं जहाधम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे।
तुल्य-पदम्
तुल्य-पद चत्वारः प्रदेशाग्रेण तुल्याः प्रज्ञप्ताः, ४६५. चार प्रदेशाग्र (प्रदेश-परिमाण) से तद्यथा
तुल्य हैं--असंख्य प्रदेशी हैंधर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय लोकाकाशः, एकजीवः ।
३. लोकाकाश ४. एक जीव ।
णो सुपस्स-पदं नो सुपश्य-पदम्
नो सुपश्य-पद ४६६. चउण्हमेगं सरीरं णो सुपस्सं चतुर्णा एक शरीरं नो सुपश्यं भवति, ४६६. चार काय के जीवों का एक शरीर सुपश्यभवइ, तं जहातद्यथा
सहज दृश्य नहीं होतापुढविकाइयाणं, आउकाइयाणं, पृथ्वीकायिकानां, अप्कायिकानां, १. पृथ्वीकायिक जीवों का २. अप्कायिक तेउकाइयाणं, वणस्सइकाइयाणं। तेजस्कायिकानां, वनस्पतिकायिकानाम। जीवों का ३. तेजस्कायिक जीवों का
४. साधारण वनस्पतिकायिक जीवों का।
इंदियत्थ-पदं इन्द्रियार्थ-पदम्
इन्द्रियार्थ-पद ४६७. चत्तारि इंदियत्था पुट्ठा वेदेति, चत्वारः इन्द्रियार्थाः स्पृष्टाः वेद्यन्ते, ४६७. चार इन्द्रिय-विषय इन्द्रियों से स्पृष्ट होने तं जहातद्यथा--
पर ही संवेदित किए जाते हैं--- सोइंदियत्थे, घाणिदियत्थे, श्रोत्रेन्द्रियार्थः, घ्राणेन्द्रियार्थः, १. श्रोत्रेन्द्रियविषय-शब्द जिभिदियत्थे, फासिदियत्थे। जिह्वन्द्रियार्थः, स्पर्शेन्द्रियार्थः । २. घ्राणेन्द्रियविषय-गंध
३. रसनेन्द्रियविषय-रस। ४. स्पर्शनेन्द्रियविषय---स्पर्श ।
अलोग-अगमण-पदं अलोक-अगमन-पदम्
अलोक-अगमन-पद ४६८. चहि ठाणेहिं जीवा य पोग्गला चतुभिः स्थानः जीवाश्च पुद्गलाश्च नो ४६८. चार कारणों से जीव तथा पुद्गल लोक
य णो संचाएंति बहिया लोगंता शक्नुवन्ति बहिस्तात् लोकान्तात् से बाहर गमन नहीं कर सकतेगमणयाए, तं जहागमनाय, तद्यथा
१. गति के अभाव से २. निरूपग्रहतागतिअभावेणं, णिरुवग्गयाए, गत्यभावेन, निरुपग्रहतया, रूक्षतया, गति तत्त्व का आलम्बन न होने से लुक्खताए, लोगाणुभावेणं। लोकानुभावेन ।
३. रूक्ष होने से ४. लोकानुभाव-लोक की सहज मर्यादा होने से।
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ठाणं (स्थान)
४३७
स्थान ४ : सूत्र ४६६-५०२
णात-पदं ज्ञात-पदम्
ज्ञात-पद ४६६. चउविहे णाते पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः ज्ञातः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ४६६. ज्ञात चार प्रकार के होते हैंआहरणे, आहरणतद्देसे, आहरणं, आहरणतद्देशः, आहरणतद्दोषः, ।
१. आहरण-सामान्य उदाहरण
२. आहरण तद्देश-एकदेशीय उदाहरण आहरणतद्दोसे, उवण्णासोवणए। उपन्यासोपनयः ।
३. आहरण तद्दोष–साध्यविकल आदि उदाहरण ४. उपन्यासोपनय-वादी के द्वारा कृत उपन्यास के विघटन के लिए प्रतिवादी द्वारा किया जाने वाला
विरुद्धार्थक उपनय। ५००. आहरणे चउविहे पण्णत्ते, तं आहारणं चतुर्विध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-- ५००. आहरण चार प्रकार का होता हैजहा.
१. अपाय-हेयधर्म का ज्ञापक दृष्टान्त अवाए, उवाए, ठवणाकम्मे, अपायः, उपायः, स्थापनाकर्म,
२. उपाय--ग्राह्य वस्तु के उपाय बताने
वाला दृष्टान्त ३. स्थापनाकर्मपडुप्पण्णविणासी। प्रत्युत्पन्नविनाशी।
स्वाभिमत की स्थापना के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला दृष्टान्त ४. प्रत्युत्पन्नविनाशी-उत्पन्न दूषण का परिहार करने के लिए प्रयुक्त किया जाने
वाला दृष्टान्त। ५०१. आहरणतद्देसे चउन्विहे पण्णत्ते, तं आहरणतद्देश: चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, ५०१. आहरण तद्देश चार प्रकार का होता हैजहातद्यथा
१. अनुशिष्टि-प्रतिवादी के मंतव्य के
उचित अंश को स्वीकार कर अनुचित अणुसिट्ठी, उवालंभे, अनुशिष्टिः, उपालम्भः, पृच्छा,
का निरसन करना पुच्छा, णिस्सावयणे। निःथावचनम् ।
२. उपालंभ-दूसरे के मत को उसकी ही मान्यता से दूषित करना ३. पृच्छा---प्रश्न-प्रतिप्रश्नों में ही पर मत को असिद्ध कर देना ४. निःश्रावचन--अन्य के बहाने अन्य
को शिक्षा देना। ५०२. आहरणतद्दोसे चउन्विहे पण्णत्ते,तं आहरणतद्दोषः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, ५०२. आहरणतद्दोष चार प्रकार का होता हैजहातद्यथा
१. अधर्मयुक्त-अधर्मबुद्धि उत्पन्न करने
वाला दृष्टांत अधम्मजुत्ते, पडिलोमे, अधर्मयुक्तः, प्रतिलोमः, आत्मोपनीतः,
२. प्रतिलोम-अपसिद्धान्त का प्रतिपादक अत्तोवणीते, दुरुवणीते। दुरुपनीतः।
दृष्टान्त अथवा 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' ऐसी प्रतिकूलता की शिक्षा देने वाला दृष्टान्त ३. आत्मोपनीत–परमत में दोष दिखाने के लिए दृष्टान्त प्रस्तुत किया जाए और उससे स्वमत दूषित हो जाए ४. दुरुपनीत-दोषपूर्णनिग मन वाला
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गणं (स्थान)
स्थान ४: सूत्र ५०३-५०५ ५०३. उवण्णासोवणए चउविहे पण्णत्ते, उपन्यासोपनयः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, ५०३. उपन्यासोपनय चार प्रकार का होता है-- तं जहातद्यथा
१. तदवस्तुक-बादी के द्वारा उपन्यस्त तव्वत्थुते, तदण्णवत्थुते, तद्वस्तुकः, तदन्यवस्तुकः, प्रतिनिभः, हेतु से उसका ही निरसन करना पडिणिभे, हेतू। हेतुः।
२. तदन्यवस्तुक---उपन्यस्तवस्तु से अन्य में भी प्रतिवादी की बात को पकड़कर उसे हरा देना ३. प्रतिनिभ-बादी के सदृश हेतु बनाकर उसके हेतु को असिद्ध कर देना। ४. हेतु हेतु बताकर अन्य के प्रश्न का समाधान कर देना।
हेउ-पदं हेतु-पदम्
हेतु-पद ५०४. हेऊ चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा- हेतुः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५०४. हेतु चार प्रकार के होते हैं
१. यापक-समययापक विशेषण बहुल जावए, थावए, वंसए, लूसए। यापकः, स्थापकः, व्यंसकः, लूषकः ।
हेतु-जिसे प्रतिवादी शीघ्र न समझ सके २. स्थापक-प्रसिद्ध व्याप्ति वालासाध्य को शीघ्र स्थापित करने वाला हेतु ३. व्यंसक-प्रतिवादी को छल में डालने वाला हेतु ४. लूषक-व्यंसक के द्वारा प्राप्त आपत्ति
को दूर करने वाला हेतु"। अहवा– हेऊ चउन्विहे पण्णत्ते, अथवा-हेतुः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः,
अथवा-हेतु चार प्रकार के होते हैंतं जहा—पच्चक्खे अणुमाणे तद्यथा—प्रत्यक्षं, अनुमानं, औपम्यं,
१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान, ओवम्मे आगमे। आगमः।
४. आगम। अहवा-हेऊ चउविहे पण्णत्ते, तं अथवा हेतु: चतुर्विधः प्रज्ञप्तः,
अथवा–हेतु चार प्रकार के होते हैंजहा
तद्यथाअत्थित्तं अत्थि सो हेऊ, अस्तित्वं अस्ति स हेतुः,
१. विधि-साधक विधि-हेतु, अत्थित्तं पत्थि सो हेऊ, अस्तित्वं नास्ति स हेतुः,
२. विधि-साधक
निषेध-हेतु, पत्थित्तं अस्थि सो हेऊ, नास्तित्वं अस्ति स हेतुः,
३. निषेध-साधक विधि-हेतु, णत्थित्तं णस्थि सो हेऊ। नास्तित्वं नास्ति स हेतुः ।
४. निषेध-साधक निषेध-हेतु १२
संखाण-पदं संख्यान-पदम्
संख्यान-पद ५०५. चउन्विहे संखाणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधं संख्यानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ५०५. संख्यान-गणित चार प्रकार का है
१. परिकर्म, २. व्यवहार, ३. रज्जु, परिकम्मं, ववहारे, रज्जू, रासी। परिकर्म, व्यवहारः, रज्जुः, राशिः। ४. राशि।
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ri (स्थान)
अंधगार - उज्जोय - पदं
५०६. अहोलागे णं चत्तारि अंधगारं करेंति, तं जहा णरगा, णेरइया, पावाई कम्माई, असुभा पोग्गला । ५०७. तिरियलोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति, तं जहा - चंदा, सूरा, मणी, जोती । ५०८. उड्डलोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति,
४३६
अन्धकार - उद्योत-पदम् अधोलोके चत्वारः अन्धकारं कुर्वन्ति तद्यथा नरकाः, नैरयिकाः, पापानि कर्माणि अशुभाः पुद्गलाः । तिर्यग्लोके चत्वारः उद्योतं कुर्वन्ति
तद्यथा
चन्द्राः, सूराः, मणयः, ज्योतिषः । उर्ध्वलोके चत्वारः उद्योतं कुर्वन्ति
तद्यथा
तं जहा -
देवा, देवीओ, विमाणा, आभरणा । देवाः, देव्यः, विमानानि, आभरणानि ।
उत्थी उद्देस
पसप्पगपदं
प्रसर्पक-पदम्
५०६. चत्तारि पसप्पगा पण्णत्ता, तं जहा अणुपणा भोगाणं
चत्वारः प्रसर्पकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— अनुत्पन्नानां भोगानां उत्पादयिता एकः उपात्ता एगे पसप्पए, प्रसर्पकः, yogपण्णाणं भोगाणं अविप्प - पूर्वोत्पन्नानां भोगानां अविप्रयोगेण एकः ओगेणं एगे पसप्पए, प्रसर्पकः, अण्णा सोक्खाणं उपाइत्ता अनुत्पन्नानां सौख्यानां उत्पादयिता एगे पसप्पए, एक: प्रसर्पकः,
gogcooणाणं सोक्खाणं अविप्प - पूर्वोत्पन्नानां सौख्यानां अविप्रयोगेण
ओगेणं एगे पसप्पए ।
एक: प्रसर्पकः ।
स्थान ४ : सूत्र ५०६-५१०
अन्धकार - उद्योत-पद
५०६. अधोलोक में चार अंधकार करते हैं
१. नरक, २. नैरयिक, ३. पाप-कर्म, ४. अशुभ पुद्गल ।
५०७ तिर्यक् लोक में चार उद्योत करते हैं१. चन्द्र, २. सूर्य, ३. मणि, ४. ज्योति - अग्नि ।
५०८. ऊर्ध्व लोक में चार उद्योत करते हैं— १. देव, २. देवियां, ३. विमान, ४. आभरण ।
प्रसर्पक - पद
५०६. प्रसर्पक चार प्रकार के होते हैं---
आहार - पद
आहार-पदम्
आहार पद
५१०. रइयाणं चव्विहे आहारे पण्णत्ते, नैरयिकाणां चतुर्विधः आहारः प्रज्ञप्तः, ५१०. नैरयिकों का आहार चार प्रकार का तं 'जहातद्यथा— इंगालोवमे, मुम्मुरोवमे,
होता है—
१. अंगारोपम -- अल्पकालीन दाहवाला,
अङ्गारोपमः, मुर्मुरोपम:, शीतलः, हिमशीतलः ।
सीतले,
हिमसीतले ।
२. मुर्मुरोपम --- दीर्घकालीन दाहवाला,
३. शीतल, ४. हिमशीतल ।
१. कुछ अप्राप्त भोगों की प्राप्ति के लिए सर्पण करते हैं, २. कुछ पूर्व प्राप्त भोगों के संरक्षण के लिए प्रसर्पण करते हैं, ३. कुछ अप्राप्त सुखों की प्राप्ति के लिए प्रसर्पण करते हैं, ४. कुछ पूर्व प्राप्त सुखों के संरक्षण के लिए प्रसर्पण करते हैं ।
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४४०
पुत्रमांसोपमः।
ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ५११-५१४ ५११. तिरिक्खजोणियाणं चउम्विहे तिर्यगयोनिकानां चतुर्विधः आहारः ५११. तिर्यचों का आहार चार प्रकार का होता आहारे पण्णत्ते, तं जहाप्रज्ञप्तः, तद्यथा
है.---१. कंकोपम---सुख भक्ष्य और सुजीर्ण, कंकोवमे, बिलोवमे, कङ्कोपमः, बिलोपमः, पाणमांसोपमः, २. विलोपम—जो चबाये बिना निगल पाणमंसोवमे, पुत्तमंसोवमे।
लिया जाता है, ३. पाणमांसोपमचण्डाल के मांस की भान्ति घृणित, ४. पुवमांसोपम-पुत्र मांस की भांति
दुःख भक्ष्य १३ ॥ ५१२. मणुस्साणं चउन्विहे आहारे पण्णत्ते, मनुष्याणां चतुर्विधः आहारः प्रज्ञप्तः, ५१२. मनुष्यों का आहार चार प्रकार का होता तं जहा
तदयथा... असणे, पाणे, खाइमे, साइमे। अशनं, पानं, खाद्यं, स्वाद्यम्।
१. अशन, २. पान, ३. खाद्य, ४.स्वाद्य । ५१३. देवाणं चउविहे आहारे पण्णत्ते, देवानां चतुर्विधः आहारः प्रज्ञप्तः, ५१३. देवताओं का आहार चार प्रकार का होता तं जहा
तद्यथावण्णमंते, गंधमंते, वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् स्पर्शवान् ।।
१. वर्णवान्, २. गंधवान्, ३. रसवान्, रसमंते, फासमते।
४. स्पर्शवान् ।
आसीविस-पदं आशीविष-पदम्
आशीविष-पद ५१४. चत्तारि जातिआसीविसा पण्णत्ता, चत्वारः जात्याशीविषाः प्रज्ञप्ताः, ५१४. जाति-आशीविष चार होते हैंतं जहातद्यथा
१. जाती-आशीविष वृश्चिक, २. जातीविच्छ्यजातिआसीविसे, वृश्चिकजात्याशीविषः,
आशीविष मेंढक, ३. जाती-आशीविष मंडुक्कजातिआसीविसे, मण्डुकजात्याशीविषः,
सर्प, ४. जाती-आशीविष मनुष्य । उरगजातिआसीविसे,
उरगजात्याशीविषः, मणुस्सजातिआसीविसे।
मनुष्यजात्याशीविषः । विच्छ्यजातिआसीविसस्स णं वृश्चिकजात्याशीविषस्य भगवन् ! भगवन् ! जाती-आशीविष वृश्चिक के भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते? कियान् विषयः प्रज्ञप्तः?
विष का प्रभाव कितने क्षेत्र में होता है? पभू णं विच्छ्यजातिआसीविसे प्रभुः वृश्चिकजात्याशीविषः अर्धभरत- गौतम ! जाती-आशीविष वृश्चिक अपने अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोदि विसेणं प्रमाणमात्रां बोन्दि विषेण विषपरिणतां
विष के प्रभाव से अर्धभरतप्रमाण शरीर
को (लगभग दो सौ तिरेसठ योजन) विसपरिणयं विसट्टमाणि करित्तए। विकसन्तीं कर्तुम् । विषयः तस्य विषपरिणत तथा विदलित कर सकता विसए से विसट्ठताए, णो चेव णं विषार्थतायाः, नो चैव संप्राप्त्या अकार्षुः
है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, पर
इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा।
तो कभी उपयोग किया है, न करता है करिस्संति वा।
और न कभी करेगा। मंडुक्कजातिआसीविसस्स 'णं मण्डुकजात्याशीविषस्य भगवन्। कियान् भगवन् ! जाती-आशीविष मंडक के विष भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ?° विषयः प्रज्ञप्तः ?
का प्रभाव कितने क्षेत्र में होता है ? पभू णं मंडुक्कजातिआसीविसे प्रभुः मण्डु कजात्याशीविषः भरतप्रमाण- गौतम ! जाती-आशीविष मंडुक अपने भरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं मात्रां बोन्दि विषेण विषपरिणतां विष के प्रभाव से भरतप्रमाण शरीर को
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ठाणं (स्थान)
४४१ विसपरिणयं विसट्टमाणि करित्तए। विकसन्तीं कर्तुम् । विषयः तस्य विसए से विसट्टताए, णो चेव णं विषार्थतायाः, नो चैव संप्राप्त्या अकार्ष: संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा। करिस्संति वा।
•उरगजातिआसीविसस्स णं भंते ! उरगजात्याशीविषस्य भगवन् ! कियान् केवइए विसए पण्णत्ते ? विषयः प्रज्ञप्तः ? पभू णं उरगजातिआसीविसे प्रभुः उरगजात्याशीविष: जम्बूद्वीपजंबुद्दीवपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं प्रमाणमात्रां बोन्दि विषेण विषपरिणतां 'विसपरिणयं विसट्टमाणि विकसन्तीं कर्तुम् । विषयः तस्य विषार्थकरित्तए। विसए से विसद्वताए, तायाः, नो चैव संप्राप्त्या अकार्षुः वा णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा। करेंति वा करिस्संति वा।
स्थान ४ : सूत्र ५१४-५१५ विषपरिणत तथा विदलित कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, पर इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा। भगवन् ! उरगजातीय आशीविप के विष का प्रभाव कितने क्षेत्र में होता है ? । गौतम! उरगजातीय आशीविष अपने विष के प्रभाव से जम्बूद्वीप प्रमाण (लाख योजन) शरीर को विषपरिणत तथा विदलित कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, पर इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा। भगवन् ! मनुष्यजातीय आशीविष के विष का प्रभाव कितने क्षेत्र में होता है ? गौतम ! मनुष्यजातीय आशीविष के विष का प्रभाव समय क्षेत्रामाण (पैंतालीस लाख योजन) शरीर को विषपरिणत तथा विदलित कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, पर इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा।
'मणुस्सजातिआसीविसस्स णं मनुष्यजात्याशीविषस्य भगवन् ! भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते?° कियान् विषयः प्रज्ञप्तः ? । पभू णं मणुस्सजातिआसीविसे प्रभुः मनुष्यजात्याशीविषः समयक्षेत्रसमयखेत्तपमाणमेत्तं बोंदि विरोणं प्रमाणमात्रां बोन्दि विषेण विषपरिणतां विसपरिणतं विसट्टमाणि करेत्तए। विकसन्तीं कर्तुम् । विषयः तस्य विषार्थविसए से विसट्ठताए, णो चेव णं तायाः, नो चैव संप्राप्त्या अकार्षुः वा । 'संपत्तीए करेंसुवा करति वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा। करिस्संति वा।
वाहि-तिगिच्छा-पदं व्याधि-चिकित्सा-पदम् ५१५. चउविहे वाही पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः व्याधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
वातिए, पित्तिए, सिभिए, वातिकः, पैत्तिकः, श्लैष्मिकः, सण्णिवातिए।
सान्निपातिकः।
व्याधि-चिकित्सा-पद ५१५. व्याधि चार प्रकार की होती है ---
१. वातिक-वायुविकार से होने वाली २. पैत्तिक----पित्तविकार से होने वाली ३. श्लैष्मिक---कफविकार से होने वाली ४. सान्निपातिक--तीनों के मिश्रण से होने वाली।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र ५१६-५२० ५१६. चउन्विहा तिगिच्छा पण्णत्ता, तं चतुर्विधा चिकित्सा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ५१६. चिकित्सा के चार अंग है
जहा—विज्जो, ओसधाई, आउरे, वैद्यः, औषधानि, आतुरः, परिचारकः। १. वैद्य २. औषध ३. रोगी परियारए।
४. परिचारक । ५१७. चत्तारि तिगिच्छगा पण्णत्ता, तं चत्वार: चिकित्सकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-५१७. चिकित्सक चार प्रकार के होते हैं-- जहा...आततिगिच्छए णाममेगे, आत्मचिकित्सकः नामैकः,
१. कुछ चिकित्सक अपनी चिकित्सा करते णो परतिगिच्छए, नो परचिकित्सकः,
हैं, दूसरों की नहीं करते २. कुछ परतिगिच्छए णाममेगे, परचिकित्सक: नामैकः,
चिकित्सक दूसरों की चिकित्सा करते हैं, णो आतति गिच्छए, नोआत्मचिकित्सकः,
अपनी नहीं करते ३. कुछ चिकित्सक अपनी एगे आततिगिच्छएवि, एक: आत्मचिकित्सकोऽपि,
भी चिकित्सा करते हैं और दूसरों की भी परतिगिच्छएवि, परचिकित्सकोऽपि,
करते हैं ४. कुछ चिकित्सक न अपनी एगे णो आततिगिच्छए, एक: नो आत्मचिकित्सकः,
चिकित्सा करते हैं और न दूसरों की ही णो परतिगिच्छए। नो परचिकित्सकः ।
करते हैं।
वणकर-पदं व्रणकर-पदम्
व्रणकर-पद ५१८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५१८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष रक्त निकालने के लिए व्रण--- वणकरे णाममेगे, णो वणपरिमासी, व्रणकरः नामैकः, नो व्रणपरामर्शी, घाव करते हैं, किन्तु उसका परिमर्श नहीं वणपरिमासी णाममेगे, णो वणकरे, व्रणपरामर्शी नामैकः, नो व्रणकरः, करते-उसे सहलाते नहीं २. कुछ पुरुष एगे वणकरेवि, वणपरिमासीवि, एकः व्रणकरोऽपि, व्रणपरामयपि,
व्रण का परिमर्श करते हैं, किन्तु व्रण नहीं एगे णो वणकरे, णो वणपरिमासी। एक: नो व्रणकरः, नो व्रणपरामर्शी। करते ३. कुछ पुरुष व्रण भी करते हैं
और उसका परिमर्श भी करते हैं ४. कुछ पुरुष न व्रण करते हैं और न उसका
परिमर्श करते हैं। ५१६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५१६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष व्रण करते हैं, किन्तु उसका वणकरे णाममेगे, णो वणसारक्खी, व्रणकर: नामैकः, नो व्रणसंरक्षी, संरक्षण-देखभाल नहीं करते २. कुछ पुरुष वणसारक्खी णाममेगे, णो वणकरे, व्रणसंरक्षी नामकः, नो व्रणकरः, व्रण का संरक्षण करते हैं, किन्तु व्रण नहीं एगे वणकरेवि, वणसारक्खीवि, एकः व्रणकरोऽपि, व्रणसंरक्ष्यपि, करते ३. कुछ पुरुष व्रण भी करते हैं और एगे णो वणकरे, णो वणसारक्खी। एकः नो व्रणकरः, नो व्रणसंरक्षी। उसका संरक्षण भी करते हैं ४. कुछ पुरुष
न वण करते हैं और न उसका संरक्षण
करते हैं। ५२०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५२०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा
तद्यथा
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ठाणं (स्थान)
वणकरे णाममेगे, णो वणसंरोही, वणसंरोही णाममेगे, जो वणकरे, एगे वणकरेवि, वणसंरोहीवि, एगे णो वणकरे, णो वणसंरोही ।
अंतबहि-पदं
५२१. चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहाअंतोसल्ले णाममेगे, णो बाहिसल्ले, बाहिसल्ले णाममेगे, णो अंतोसल्ले, एगे अंतोसल्लेवि, बाहिसल्ले वि, एगे णो अंतोसल्ले, णो बाहिसल्ले ।
५२२. चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहाअंत णाममेगे, णो बाहिंदु, बाहिंदु णाममेगे, णो अंतोदुट्ट े, एगे तो वि, बाहदुट्ट े वि, एगे जो अंतोदु णो बाहदुट्ठे ।
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व्रणकरः नामैकः, नो व्रणसंरोही, व्रणसंरोही नामैकः, नो व्रणकरः, एक: व्रणकरोऽपि, व्रणसंरोह्यपि, एकः नो व्रणकरः, नो व्रणसंरोही ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा—
पण्णत्ता, तं जहाअंतोसल्ले णाममेगे, णो बाहिसल्ले, बाहिसल्ले णामगे, णो अंतोसल्ले, एगे अंतोसल्ले वि, बाहिसल्ले वि एगे जो अंतोसल्ले, णो बाहिसल्ले ।
अन्तःशल्यः नामैकः, नो बहिःशल्यः, बहिःशल्यः नामैकः, नो अन्तःशल्य, एक: अन्तःशल्योऽपि बहिःशल्योऽपि, एकः नो अन्तःशल्यः, नो बहिः शल्यः ।
अन्तर्बहिः-पदम्
चत्वारः व्रणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— अन्तःशल्यं नामैक, नो बहिः शल्यं, बहिःशल्यं नामैक, नो अन्तःशल्यं, एकं अन्तःशल्यमपि बहिः शल्यमपि, एकं नो अन्तःशल्यं, नो बहिःशल्यम् ।
चत्वारि व्रणानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— अन्तर्दुष्टं नामैकः, नो बहिर्दुष्ट, बहिर्दुष्टं नामैकः, नो अन्तर्दुष्ट, एकं अन्तर्दुष्टमपि, बहिर्दुष्टमपि, एकं नो अन्तर्दुष्टं, नो बहिर्दुष्टम् ।
स्थान ४ : सूत्र ५२१-५२२
१. कुछ पुरुष व्रण करते हैं, किन्तु उसका संरोह नहीं करते -- उसे भरते नहीं २. कुछ पुरुष व्रण का संरोह करते हैं, किन्तु व्रण नहीं करते ३. कुछ पुरुष व्रण भी करते हैं। और उसका संरोह भी करते हैं ४. कुछ पुरुष न व्रण करते हैं और न उसका संरोह करते हैं । अन्तर्बहिः-पद
५२१. व्रण चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ व्रण अन्तःशल्य (आन्तरिक घाव ) वाले होते हैं किन्तु बाह्यशल्य वाले नहीं होते २. कुछ व्रण बाह्यशल्य वाले होते. हैं, किन्तु अन्तःशल्य वाले नहीं होते ३. कुछ व्रण अन्तःशल्य वाले भी होते है Satara वाले भी होते हैं ४. कुछ व्रण न अन्तःशल्य वाले होते हैं। और न बाह्यशल्य वाले होते हैं।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं- १. कुछ पुरुष अन्तःशल्य वाले होते हैं, किन्तु बाह्यशल्य वाले नहीं होते २. कुछ पुरुष बाह्यशल्य वाले होते हैं, किन्तु अन्तः शल्य वाले नहीं होते ३. कुछ पुरुष अन्तः शल्य वाले भी होते हैं और बाह्य शल्य वाले भी होते हैं ४. कुछ पुरुष न अन्तः शल्य वाले होते हैं और न बाह्यशल्य वाज़े होते हैं ।
५२२. व्रण चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ व्रण अन्त:दुष्ट (अन्दर से विकृत ) होते हैं, किन्तु बाहर से दुष्ट नहीं होते २. कुछ व्रण बाहर से दुष्ट होते हैं, किन्तु अन्तः दुष्ट नहीं होते ३. कुछ व्रण अन्तःदुष्ट भी होते हैं और बाह्य दुष्ट भी होते हैं ४. कुछ व्रण न अन्तः दुष्ट होते हैं और न बाह्य दुष्ट होते हैं ।
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स्थान ४ : सूत्र ५२३-५२४ इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते
ठाणं (स्थान)
४४४ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा.
तद्यथाअंतोदुट्ठणाममेगे, णो बाहिंदु? अन्तर्दुष्टः नामकः, नो बहिर्दुष्ट:, बाहिंदुद्वे णाममेगे, णो अंतोदु?, बहिर्दुष्टः नामकः, नो अन्तर्दुष्टः, एगे अंतोदुट्ठवि, बाहिंदुह्रवि, एक: अन्तर्दुष्टोऽपि, बहिर्दुष्टोऽपि, एगे णो अंतोदुटु, णो बाहिंदु8। एकः नो अन्तर्दुष्टः, नो बहिर्दुष्टः।
१. कुछ पुरुष अन्तःदुष्ट---अन्दर से मैले होते हैं, किन्तु बाहर से नहीं होते २. कुछ पुरुष बाहर से दुष्ट होते हैं, किन्तु अन्तः दुष्ट नहीं होते ३. कुछ पुरुष अन्तःदुष्ट भी होते हैं और बाह्य दुष्ट भी होते हैं ४. कुछ पुरुष न अन्तःदुष्ट होते हैं और न बाह्य दुष्ट होते हैं।
सेयंस-पावंस-पदं श्रेयस्पापीयस्पदम्
श्रेयस्पापीयस्पद ५२३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५२३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से भी श्रेयान्सेयंसे णाममेगे सेयंसे, श्रेयान् नामैक: श्रेयान्,
प्रशस्य होते हैं और आचरण की दृष्टि से सेयंसे णाममेगे पावसे, श्रेयान् नामैकः पापीयान्,
भी श्रेयान् होते हैं २. कुछ पुरुष बोध की पावंसे णाममेगे सेयंसे, पापीयान् नामैकः श्रेयान्,
दृष्टि से श्रेयान होते हैं, किन्तु आचरण पावंसे णाममेगे पावंसे। पापीयान् नामैकः पापीयान् ।
की दृष्टि से पापीयान् होते हैं ३. कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से पापीयान होते हैं, किन्तु आचरण की दृष्टि से श्रेयान् होते हैं ४. कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से भी पापीयान होते हैं और आचरण की दृष्टि
में भी पापीयान् होते हैं। ५२४. चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५२४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से भी श्रेयान् सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्ति सालिसए, श्रेयान् नामैक: श्रेयानिति सदृशकः, होते हैं और आचरण की दृष्टि से भी सेयंसे णाममेगे पावंसेत्ति सालिसए, श्रेयान् नामैकः पापीयानिति सदृशकः, धेयान् के सदृश होते हैं २. कुछ पुरुष पावंसे णाममेगे सेयं सेत्ति सालिसए, पापीयान् नामकः श्रेयानिति सदृशकः, बोध की दृष्टि से श्रेयान् होते हैं, किन्तु पावंसे णाममेगे, पावसत्ति पापीयान नामैकः पापीयानिति सदृशकः। आचरण की दृष्टि से पापीयान् के सदृश सालिसए।
होते हैं ३. कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से पापीयान् होते हैं, किन्तु आचरण की दृष्टि से श्रेयान् के सदृश होते हैं ४. कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से भी पापीयान् होते हैं और आचरण की दृष्टि से भी पापीयान् के सदृश होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र ५२५-५२८ ५२५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५२५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष श्रेयान् होते हैं और अपने सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्ति मण्णति, श्रेयान् नामकः श्रेयानिति मन्यते, आपको श्रेयान् ही मानते हैं २. कुछ पुरुष सेयंसे णाममेगे पावंसेत्ति मण्णति, श्रेयान् नामकः पापीयानिति मन्यते, श्रेयान् होते हैं, किन्तु अपने आपको पावंसे णाममेगे सेयंसेत्ति मण्णति, पापीयान् नामैक: श्रेयानिति मन्यते, पापीयान् मानते हैं ३. कुछ पुरुष पापीयान् पावंसे णाममेगे पावंसेत्ति मण्णति । पापीयान नामैक: पापीयानिति मन्यते । होते हैं, किन्तु अपने अपको श्रेयान् मानते
हैं ४. कुछ पुरुष पापीयान् होते हैं और
अपने आपको पापीयान् ही मानते हैं। ५२६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५२६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं.--- जहातदयथा
१. कुछ पुरुष श्रेयान् होते हैं और अपने
आपको श्रेयान् के सदृश ही मानते हैं सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्ति सालिसए श्रेयान् नामैक: श्रेयानिति सदृशक:
२. कुछ पुरुष श्रेयान् होते हैं किन्तु अपने मण्णति, सेयंसे णाममेगे पावंसेत्ति मन्यते, श्रेयान् नामकः पापीयानिति
आपको पापीयान् के सदृश मानते हैं ३. सालिसए मण्णति, पावंसे णाममेगे सदृशक: मन्यते, पापीयान् नामकः कुछ पुरुष पापीयान् होते हैं, किन्तु अपने सेयंसेत्ति सालिसए मण्णति, श्रेयानिति सदृशकः मन्यते, पापीयान् आपको श्रेयान् के सदृश मानते हैं ४. कुछ पावंसे णाममेगे पावंसेत्ति सालिसए नामैकः पापीयानिति सदशकः मन्यते ।
पुरुष पापीयान् होते हैं और अपने आपको
पापीयान् के सदृश मानते हैं। मण्णति ।
आघवण-पदं आख्यापन-पदम्
आख्यापन-पद ५२७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५२७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष आख्यायक (कथावाचक)
होते हैं, किन्तु प्रविभावक'१५ (चिंतक) आघवइत्ता णाममेगे, णो पवि- आख्यापयिता नामैक:. नो प्रवि
नहीं होते २. कुछ पुरुष प्रविभावक होते भावइत्ता, पविभावइत्ता णाममेगे, भावयिता, प्रविभावयिता नामकः, नो ।
हैं, किन्तु आख्यायक नहीं होते णो आघवइत्ता, एगे आघ- आख्यापयिता, एकः आख्यापयिताऽपि, ३. कुछ पुरुष आख्यायक भी होते हैं और वइत्तावि, पविभावइत्तावि, एगे प्रविभावयिताऽपि, एकः नो आख्याप
प्रविभावक भी होते हैं ४. कुछ पुरुष न णो आघवइत्ता, णोपविभावइत्ता। यिता, नो प्रविभावयिता।
आख्यायक होते हैं और न प्रविभावक
होते हैं। ५२८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५२८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा.तद्यथा
१. कुछ पुरुष आख्यायक होते हैं, उञ्छआघवइत्ता णाममेगे, जो उंछ- आख्यापयिता नामैकः, नो उञ्छ
जीविका सम्पन्न नहीं होते २. कुछ पुरुष जीविसंपण्णे, उंछजीविसंपण्णे जीविकासम्पन्नः, उञ्छजीविकासम्पन्नः उञ्छजीविका सम्पन्न होते हैं, आख्यायक णाममेगे, णो आघवइत्ता, एगे नामैकः, नो आख्यापयिता, एक: नहीं होते ३. कुछ पुरुष आख्यायक भी आघवइत्तावि उंछजीविसंपण्णेवि, आख्यापयिताऽपि, उञ्छजीविका- होते हैं और उञ्छजीविका सम्पन्न भी एगे णो आघवइत्ता, णो उंछजीवि- सम्पन्नोऽपि, एकः नो आख्यापयिता, होते हैं ४. कुछ पुरुष न आख्यायक होते संपण्णे। नो उञ्छजीविकासम्पन्नः ।
हैं और न उञ्छजीविका सम्पन्न होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र ५२६-५३३
रुक्खविगुव्वणा-पदं रुक्षविकरण-पदम्
रुक्षविकरण-पद ५२६. चउध्विहा रुक्खविगुब्वणा पण्णत्ता, चतुर्विधं रुक्षविकरणं प्रज्ञप्तम्, ५२६. वृक्ष की विक्रिया चार प्रकार की होती तं जहा—पवालत्ताए, पत्तताए, तद्यथा---
है-१. प्रवाल के रूप में २. पत्र के रूप पुप्फत्ताए, फलत्ताए।
प्रवालतया, पत्रतया, पुष्पतया, फलतया। में ३. पुष्प के रूप में ४. फल के रूप में!
वादि-समोसरण-पदं वादि-समवसरण-पदम्
वादि-समवसरण-पद ५३०. चत्तारि वादिसमोसरणा पण्णत्ता, चत्वारि वादिसमवसरणानि प्रज्ञप्तानि, ५३०. चार वादि-समवसरण हैंतं जहा. तद्यथा
१. क्रियावादी---आस्तिक २. अक्रियाकिरियावादी, अकिरियावादी, क्रियावादी, अक्रियावादी,
वादी---नास्तिक ३. अज्ञानवादी ४. अण्णाणियावादी, वेणइयावादी। अज्ञानिकवादी, वैनयिकवादी। विनयवादी। ५३१. रइयाणं चत्तारि वादिसमो- नैरयिकाणां चत्वारिवादिसमवसरणानि ५३१. नैरयिकों के चार वादी-समवसरण होते का जहा प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
है—१. क्रियावादी २. अक्रियावादी किरियावादी, 'अकिरियावादी, क्रियावादी, अक्रियावादी,अज्ञानिकवादी, ३. अज्ञानवादी ४. विनयवादी।
अण्णाणियावादी वेणइयावादी। वैनयिकवादी। ५३२. एवमसुरकुमाराणवि जाव थणिय- एवम्—असुरकुमाराणामपि यावत् ५३२. इसी प्रकार असुरकुमारों यावत् स्तनित कुमाराणं, एवं_विलिदियवज्ज स्तनितकुमाराणाम्, एवम्-विकलेन्द्रिय- कुमारों के चार-चार वादि-समवसरण
होते हैं। इसी प्रकार विकलेन्द्रियों को जाव वेमाणियाणं । वर्ज यावत् वैमानिकानाम् ।
छोड़कर वैमानिक पर्यंत दंडकों के चारचार वादि-समवसरण होते हैं।
मेह-पदं मेघ-पदम्
मेघ-पद ५३३. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५३३. मेघ चार प्रकार के होते हैंगज्जित्ता णाममेगे, णो वासित्ता, गजिता नामकः, नो वर्षिताः,
१. कुछ मेघ गरजने वाले होते हैं, बरसने
वाले नहीं होते २. कुछ मेघ बरसने वाले वासित्ता णाममेगे, णो गज्जित्ता, वर्षिता नामैकः, नो गजिता,
होते हैं, गरजने वाले नहीं होते ३. कुछ एगे गज्जित्तावि, वासित्तावि, एकः गजिताऽपि, वर्षिताऽपि,
मेघ गरजने वाले भी होते हैं और बरसने एगे णो गज्जित्ता, णो वासित्ता। एकः नो गजिता, नो वर्षिता।
वाले भी होते हैं ४. कुछ मेध न गरजने वाले
होते हैं और न बरसने वाले ही होते हैं । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथागज्जित्ता णाममेगे, णो वासित्ता, जिता नामकः, नो वर्षिता, १. कुछ पुरुष गरजने वाले होते हैं, बरसने वासित्ता णाममेगे, णो गज्जित्ता, वर्षिता नामकः, नो गजिता,
वाले नहीं होते, २. कुछ पुरुष बरसने वाले
वाले होते हैं, गरजने वाले नहीं होते, एगे गज्जित्तावि, वासित्तावि, एक: गजिताऽपि, वर्षिताऽपि, ३. कुछ पुरुष गरजने वाले भी होते हैं एगे णो गज्जित्ता, णो वासित्ता। एकः नो गजिता, नो वर्षिता।
और बरसने वाले भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न गरजने वाले होते हैं और न बरसने वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
५३४. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहागज्जित्ता णाममेगे, णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे णो गज्जित्ता, एगे गज्जित्तावि, विज्जुयाइत्तावि, एगे जो गज्जित्ता, विजुयात् ।
५३५. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहावासित्ता णाममेगे, जो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे, णो वासिता, एगे वासित्तावि, विज्जुयाइत्तावि, एगे णो वासित्ता, विजुयात् ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
पण्णत्ता तं जहा
गज्जित्ता णाममेगे, णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे, णो गज्जित्ता, एगे गज्जित्तावि, विज्जयाइत्तावि, एगे जो गज्जित्ता, णो विज्जुयाइत्ता ।
—
४४७
५३६. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा
चत्वारः मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-गर्जिता नामैकः, नो विद्योतयिता, विद्योतयिता नामकः, नो गर्जिता, एकः गर्जिताऽपि विद्योतयिताऽपि, एकः नो गर्जिता, नो विद्योतयिता ।
तद्यथा
गर्जिता नामैकः, नो विद्योतयिता, विद्योतयिता नामकः, नो गर्जिता, एकः गर्जिताऽपि, विद्योतयिताऽपि, एकः नो गजिता, नो विद्योतयिता ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा
वासिता णाममेगे, णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे, णो वासित्ता, एगे वासित्ता वि विज्जुयाइत्तावि, एगे जो वासिता, णो विज्जुयाइत्ता ।
चत्वारः मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथावर्षिता नामेकः, नो विद्योतयिता, विद्योतयिता नामकः, नो वर्षिता, एकः वर्षिताऽपि विद्योतयिताऽपि, एकः नो वर्षिता, नो विद्योतयिता ।
तद्यथा
वर्षिता नामकः, नो विद्योतयिता, विद्योतयिता नामकः, नो वर्षिता, एकः वर्षिताऽपि विद्योतयिताऽपि, एकः नो वर्षिता, नो विद्योतयिता ।
चत्वारः मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
स्थान ४ : सूत्र ५३४-५३६
५३४. मेघ चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ मेघ गरजने वाले होते हैं, चमकने वाले नहीं होते, २. कुछ मेघ चमकने वाले होते हैं, गरजने वाले नहीं होते, ३. कुछ मेघ गरजने वाले भी होते हैं और चमकने वाले भी होते, ४. कुछ मेघ न गरजने वाले होते हैं और न चमकने वाले ही होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - १. कुछ पुरुष गरजने वाले होते हैं, चमकने वाले नहीं होते, २. कुछ पुरुष चमकने वाले होते हैं, गरजने वाले नहीं होते, ३. कुछ पुरुष गरजने वाले भी होते हैं और चमकने वाले भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न गरजने वाले होते हैं और न चमकने वाले ही होते हैं।
५३५. मेघ चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ मेघ बरसने वाले होते हैं, चमकने वाले नहीं होते, २. कुछ मेघ चमकने वाले होते हैं, बरसने वाले नहीं होते, ३. कुछ मेघ बरसने वाले भी होते हैं और चमकने वाले भी होते हैं, ४. कुछ मेघ न बरसने वाले होते हैं और न चमकने वाले ही होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं१. कुछ पुरुष बरसने वाले होते हैं, चमकने वाले नहीं होते, २. कुछ पुरुष चमकने वाले होते हैं, बरसने वाले नहीं होते, ३. कुछ पुरुष बरसने वाले भी होते हैं। और चमकने वाले भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न बरसने वाले होते हैं और न चमकने वाले ही होते हैं ।
५३६. मेघ चार प्रकार के होते हैं-
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४४८
ठाणं (स्थान)
स्थान ४: सूत्र ५३७ कालवासी णाममेगे, जो अकाल- कालवर्षी नामकः, नो अकालवर्षी, १. कुछ मेघ समय पर बरसने वाले होते वासी, अकालवासी णाममेगे, णो अकालवर्षी नामैकः, नो कालवर्षी, हैं, असमय में बरसने वाले नहीं होते,
२. कुछ मेघ असमय में बरसने वाले होते कालवासी, एगे कालवासीवि, एकः कालवर्ण्यपि, अकालवर्ण्यपि,
हैं, समय पर बरसने वाले नहीं होते, अकालवासीवि, एगे णो कालवासी, एकः नो कालवर्षी, नो अकालवर्षी।
३. कुछ मेघ समय पर भी बरसने वाले णो अकालवासी।
होते हैं और असम्य में भी बरसने वाले होते हैं, ४. कुछ मेघ न समय पर बरसने वाले होते हैं और न असमय में ही
बरसने वाले होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष समय पर बरसने वाले
होते हैं, असमय में बरसने वाले नहीं होते, कालवासी णाममेगे, णो अकाल- कालवर्षी नामैकः, नो अकालवर्षी,
२. कुछ पुरुष असमय में बरसने वाले होते वासी, अकालवासी णाममेगे, णो अकालवर्षी नामैकः, नो कालवर्षी,
हैं, समय पर बरसने वाले नहीं होते, कालवासी, एगे कालवासीवि, एकः कालवर्ण्यपि, अकालवर्ण्यपि,
३. कुछ पुरुष समय पर भी बरसने वाले अकालवासीवि, एगे णो कालवासी, एकः नो कालवर्षी, नो अकालवर्षी । होते हैं और असमय में भी बरसने वाले णो अकालवासी।
होते हैं, ४. कुछ पुरुष न समय पर बरसने वाले होते हैं और न असमय में ही बरसने
दाले होते हैं। ५३७. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः मेघाः प्रज्ञप्ताः , तदयथा- ५३७. मेघ चार प्रकार के होते हैंखेत्तवासी णाममेगे, णो अखेत्त- क्षेत्रवर्षी नामैकः, नो अक्षेत्रवर्षी,
१. कुछ मेघ उपजाऊ भूमि पर बरसने वासी, अखेत्तवासी णाममेगे, णो अक्षेत्रवर्षी नामैकः, नो क्षेत्रवर्षी,
वाले होते हैं, ऊसर में बरसने वाले नहीं खेत्तवासी, एगे खेत्तवासीवि, एक: क्षेत्रवर्ण्यपि, अक्षेत्रवर्ण्यपि,
होते, २. कुछ मेघ ऊसर में बरसने वाले
होते हैं, उपजाऊ भूमि पर बरसने वाले अखेत्तवासीवि, एगे णो खेत्तवासी, एक: नो क्षेत्रवर्षी, नो अक्षेत्रवर्षी । नहीं होते, ३. कुछ मेघ उपजाऊ भूमि पर णो अखेत्तवासी।
भी बरसने वाले होते हैं और ऊसर पर भी बरसने वाले होते हैं, ४. कुछ मेघ न उपजाऊ भूमि पर बरसने वाले होते हैं
और न ऊसर पर ही बरसने वाले होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
हैं-१. कुछ पुरुष उपजाऊ भूमि पर बरसने खेत्तवासी णाममेगे, णो अखेत्त- क्षेत्रवर्षी नामकः, नो अक्षेत्रवर्षी,
वाले होते हैं, ऊसर में बरसने वाले नहीं वासी, अखेत्तवासी णाममेगे, णो अक्षेत्रवर्षी नामकः, नो क्षेत्रवर्षी,
होते, २. कुछ पुरुष ऊसर में बरसने वाले खेत्तवासी, एगे खेत्तवासीवि, एकः क्षेत्रवर्ण्यपि, अक्षेत्रवर्ण्यपि,
होते हैं, उपजाऊ भूमि पर बरसने वाले
नहीं होते, ३. कुछ पुरुष उपजाऊ भूमि अखत्तवासीवि, एगे णो खेत्तवासी, एक: नो क्षेत्रवर्षी, नो अक्षेत्रवर्षी। पर भी बरसने वाले होते हैं और ऊसर णो अखेत्तवासी।
पर भी बरसने वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष न उपजाऊ भूमि पर बरसने वाले होते हैं और न ऊसर पर बरसने वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४४६
स्थान ४: सूत्र ५३८-५३६
अम्म-पियर-पदं अम्बा-पितृ-पदम्
अम्बा-पितृ-पद ५३८. चत्तारि मेहा पण्णता, तं जहा- चत्वारः मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५३८. मेघ चार प्रकार के होते हैंजणइत्ता णाममेगे, णो णिम्म- जनयिता नामैकः, नो निर्मापयिता,
१. कुछ मेघ धान्य को उत्पन्न करने वाले
होते हैं, उसका निर्माण करने वाले नहीं वइत्ता, णिम्मवइत्ता णाममेगे, णो निर्मापयिता नामैकः, नो जनयिता,
होते, २. कुछ मेघ धान्य का निर्माण करने जणइत्ता, एगे जणइत्तावि, णिम्म- एकः जनयिताऽपि, निर्मापयिताऽपि, वाले होते हैं, उसको उत्पन्न करने वाले वइत्तावि, एगे णो जणइत्ता, णो एकः नो जनयिता, नो निर्मापयिता। नहीं होते, ३. कुछ मेघ धान्य को उत्पन्न णिम्मवइत्ता।
करने वाले भी होते हैं और उसका निर्माण करने वाले भी होते हैं, ४. कुछ मेघ न धान्य को उत्पन्न करने वाले होते हैं और न उसका निर्माण करने वाले ही
होते हैं। एवामेव चत्तारि अम्मपियरो एवमेव चत्वारः अम्बापितरः प्रज्ञप्तः, इसी प्रकार माता-पिता भी चार प्रकार पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
के होते हैंजणइत्ता णाममेगे, णो णिम्म- जनयिता नामैकः, नो निर्मापयिता,
१. कुछ माता-पिता सन्तान को उत्पन्न
करने वाले होते हैं, उसका निर्माण करने वइत्ता, णिम्मवइत्ता णाममेगे, णो निर्मापयिता नामैकः, नो जनयिता,
वाले नहीं होते, २. कुछ माता-पिता जणइत्ता, एगे जणइत्तावि, णिम्म- एक: जनयिताऽपि, निर्मापयिताऽपि, संतान का निर्माण करने वाले होते हैं, वइत्तावि, एगे णो जणइत्ता, णो एकः नो जनयिता, नो निर्मापयिता।
उसको उत्पन्न करने वाले नहीं होते, णिम्मवइत्ता।
३. कुछ माता-पिता संतान को उत्पन्न करने वाले भी होते हैं और उसका निर्माण करने वाले भी होते हैं, ४. कुछ माता-पिता न संतान को उत्पन्न करने वाले होते हैं और न उसका निर्माण करने वाले ही होते हैं।
राय-पदं राज-पदम्
राज-पद ५३६. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५३६. मेघ चार प्रकार के होते हैंदेसवासी णाममेगे, जो सव्ववासी, देशवर्षी नामैकः, नो सर्ववर्षी,
१. कुछ मेघ किसी एक देश में ही बरसते
हैं, सब देशों में नहीं, २. कुछ मेघ सब सव्ववासी णाममेगे, णो देसवासी, सर्ववर्षी नामकः, नो देशवर्षी,
देशों में बरसते हैं, किसी एक देश में एगे देसवासीवि, सव्ववासीवि, एकः देशवर्ण्यपि, सर्ववर्ण्यपि,
नहीं, ३. कुछ मेघ किसी एक देश में भी एगे णो देसवासी, णो सव्ववासी। एकः नो देशवर्षी, नो सर्ववर्षी । बरसते हैं और सब देशों में भी वरसते हैं,
४. कुछ मेघ न किसी एक देश में बरसते
हैं और न सब देशों में ही बरसते हैं। एवामेव चत्तारि रायाणो पण्णत्ता, एवमेव चत्वारः राजानः प्रज्ञप्ताः, इसी प्रकार राजा भी चार प्रकार के होते तं जहा
तद्यथादेसाधिवती णाममेगे, णो सव्वा- देशाधिपतिः नामैकः, नो सर्वाधिपतिः, १. कुछ राजा एक देश के ही अधिपति धिवती, सव्ववाधिवती णाममेगे, सर्वाधिपतिः नामकः, नो देशाधिपतिः, होते हैं, सब देशों के अधिपति नहीं होते,
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स्थान ४ : सूत्र ५४०-५४१
ठाणं (स्थान)
४५० णो देसाधिवती, एगे देसाधिव- एकः देशाधिपतिरपि, सर्वाधिपतिरपि, तीवि, सन्वाधिवतीवि, एगे णो एक: नो देशाधिपतिः, नो सर्वाधिपतिः । देसाधिवती, णो सव्वाधिवती।
२. कुछ राजा सब देशों के ही अधिपति होते हैं, एक देश के अधिपति नहीं होते, ३. कुछ राजा एक देश के भी अधिपति होते हैं और सब देशों के भी अधिपति होते हैं, ४. कुछ राजा न एक देश के अधिपति होते हैं और न सब देशों के ही अधिपति होते हैं।
मेह-पदं मेघ-पदम्
मेघ-पद ५४०. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५४०. मेघ चार प्रकार के होते हैं
पुक्खलसंवट्टते पज्जुण्णे, जीमूते पुष्कलसंवतः, प्रद्युम्नः, जीमूतः, जिम्हः। १. पुष्कलसंवर्त, २. प्रद्युम्न, जिम्मे।
३. जीमूत, ४. जिम्ह । पुक्खलसंवट्टए णं महामेहे एगेणं पुष्कलसंवतः महामेघः एकेन वर्षेण पुष्कलसंवर्त महामेघ एक वर्षा से दस वासेणं दसवाससहस्साई भावेति। दशवर्षसहस्राणि भावयति ।
हजार वर्ष तक पृथ्वी को स्निग्ध कर देता है, पज्जुण्णे णं महामेहे एगेणं वासेणं प्रद्युम्नः महामेघ: एकेन वर्षेण दशवर्ष- प्रद्युम्न महामेघ एक वर्षा से एक हजार दसवाससयाई भावेति । शतानि भावयति ।
वर्ष तक पृथ्वी को स्निग्ध कर देता है, जीमूते णं महामेहे एगेणं वासेणं जीमूतः महामेघः एकेन वर्षेण दशवर्षाणि जीमूत महामेघ एक वर्षा से दस वर्ष तक दसवाससयाई भावेति। भावयति ।
पृथ्वी को स्निग्ध कर देता है, जिम्मे णं महामेहे बहूहि वासेहि जिम्हः महामेघः बहुभिर्वर्षेः एक वर्ष जिम्ह महामेघ अनेक बार बरस कर एक एगं वासं भावेति वा ण वा भावयति वा न वा भावयति ।
वर्ष तक पृथ्वी को स्निग्ध करता है और भावेति।
नहीं भी करता।
आयरिय-पदं आचार्य-पदम्
आचार्य-पद ५४१. चत्तारि करंडगा पण्णत्ता, तं चत्वारः करण्डकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५४१. करण्डक चार प्रकार के होते हैंजहा
१. श्वपाक-करण्डक--चाण्डाल का सोवागकरंडए, वेसियाकरंडए, श्वपाककरण्डकः, वेश्याकरण्डकः, करण्डक, २. वेश्या-करण्डक, गाहावतिकरंडए, रायकरंडए। गृहपतिकरण्डकः, राजकरण्डक । ३. गृहपति-करण्डक, ४. राज-करण्डक । एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, एवमेव चत्वारः, आचार्याः प्रज्ञप्ताः, इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के तं जहातद्यथा
होते हैंसोवागकरंडगसमाणे, वेसिया- श्वपाककरण्डकसमानः, वेश्याकरण्डक
१. श्वपाक-करण्डक के समान, करंडगसमाणे, गाहावतिकरंडग- समानः, गृहपतिकरण्डकसमानः,
२. वेश्या-करण्डक के समान, समाणे, रायकरंडगसमाणे। राजकरण्डकसमानः।
३. गृहपति-करण्डक के समान, ४. राज-करण्डक के समान ।
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स्थान ४ : सूत्र ५४२-५४३
ठाणं (स्थान) ५४२. चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
साले णाममेगे सालपरियाए, शालः नामैक: शालपर्यायकः, साले णाममेगे एरंडपरियाए, शालः नामकः एरण्डपर्यायकः, एरंडे णाममेगे सालपरियाए, एरण्ड: नामैक: शालपर्यायकः, एरंडे णाममेगे एरंडपरियाए। एरण्ड: नामक: एरण्डपर्यायकः ।
५४२. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ वृक्ष शाल जाति के होते हैं और वे शाल-पर्याय–विस्तृत छाया वाले होते हैं, २. कुछ वृक्ष शाल जाति के होते हैं और वे एरण्ड-पर्याय-अल्प छाया वाले होते हैं, ३. कुछ वृक्ष एरण्ड जाति के होते हैं और वे शाल-पर्याय वाले होते हैं, ४. कुछ वृक्ष एरण्ड जाति के होते हैं और वे एरण्ड-पर्याय वाले होते हैं।
एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, एवमेव चत्वार: आचार्याः प्रज्ञप्ताः, । इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के तं जहातद्यथा
होते हैं
१. कुछ आचार्य शाल जातिमान् ] होते साले णाममेगे सालपरियाए, शालः नामक: शालपर्यायकः,
हैं और वे शाल-पर्याय-ज्ञान, क्रिया, साले णाममेगे एरंडपरियाए, शाल: नामकः एरण्डपर्यायकः,
प्रभाव आदि से सम्पन्न होते हैं, २. कुछ एरंडे णाममेगे सालपरियाए, एरण्ड: नामैक: शालपर्यायकः, आचार्य शाल [जातिमान् ] होते हैं और एरंडे णाममेगे एरंडपरियाए। एरण्डः नामक: एरण्डपर्यायकः । वे एरण्ड-पर्याय-ज्ञान, क्रिया, प्रभाव
आदि से शून्य होते हैं, ३. कुछ आचार्य एरण्ड होते हैं और वे शाल-पर्याय से सम्पन्न होते हैं, ४. कुछ आचार्य एरण्ड होते
हैं और वे एरण्ड-पर्याय से सम्पन्न होते हैं। ५४३. चत्तारि रुवखा पण्णत्ता,तं जहा- चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५४३. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं
साले णाममेगे सालपरिवारे, शालः नामैक: शालपरिवारः, १. कुछ वृक्ष शाल होते हैं और वे शाल साले णाममेगे एरंडपरिवारे, शाल: नामैक: एरण्डपरिवारः,
परिवार वाले होते हैं-शाल वृक्षों से
घिरे हुए होते हैं, २. कुछ वृक्ष शाल होते एरंडे णाममेगे सालपरिवारे, एरण्ड: नामैक: शालपरिवारः,
हैं और वे एरण्ड परिवार वाले होते हैं, एरंडे णाममेगे एरंडपरिवारे। एरण्ड: नामैक: एरण्डपरिवारः । ३. कुछ वृक्ष एरण्ड होते हैं और वे शाल
परिवार वाले होते हैं, ४. कुछ वृक्ष एरण्ड होते हैं और वे एरण्ड परिवार वाले होते
एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, एवमेव चत्वारः आचार्याः प्रज्ञप्ता:, तं जहा
तद्यथासाले णाममेगे सालपरिवारे, शालः नामैक: शालपरिवारः, साले णाममेगे एरंडपरिवारे, शालः नामैक: एरण्डपरिवार:, एरंडे णाममेगे सालपरिवारे, एरण्ड: नामैक: शालपरिवारः, एरंडे णाममेगे एरंडपरिवारे। एरण्ड: नामक: एरण्डपरिवारः ।
इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के होते हैं१. कुछ आचार्य शाल होते हैं और वे शाल-परिवार ----योग्य शिष्य-परिवार वाले होते हैं, २. कुछ आचार्य शाल होते हैं और वे एरण्ड-परिवार-अयोग्य-शिष्य परिवार वाले होते हैं, ३. कुछ आचार्य एरण्ड होते हैं और वे शाल-परिवार वाले होते हैं, ४. कुछ आचार्य एरण्ड होते हैं और वे एरण्ड-परिवार वाले होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४५२
स्थान ४ : सूत्र ५४४
संगहणी-गाहा १. सालदुममज्भयारे, जह सालेणाम होइ दुमराया। इय सुंदरआयरिए, सुंदरसीसे मुणयन्वे॥
संग्रहणो-गाथा १. शालद्रुममध्यकारे, यथा शालो नाम भवति द्रुमराजः । इति सुन्दर: आचार्यः, सुन्दरः शिष्यः ज्ञातव्यः ।।
२. एरंडमझयारे, जह साले णाम होइ दुमराया। इय सुंदरआयरिए, मंगुलसीसे मुणेयव्वे ॥
२. एरण्डमध्यकारे, यथा शालो नाम भवति द्रुमराजः।। एवं सुन्दरः आचार्यः, मंगलः (असुन्दर:) शिष्यः ज्ञातव्यः ।।
संग्रहणी-गाथा १. जिस प्रकार शाल नाम का वृक्ष शालवृक्षों से घिरा हुआ होता है उसी प्रकार शाल-आचार्य स्वयं सुन्दर होते है और शाल परिवार---सुन्दर शिष्य परिवार से परिवत होते है, २. जिस प्रकार शाल नाम का वृक्ष एरण्डवृक्षों से घिरा हुआ होता है उसी प्रकार शाल आचार्य स्वयं सुन्दर होते हैं और वे एरण्ड परिवार-असुन्दर शिष्यों से परिवृत होते हैं, ३. जिस प्रकार एरण्ड नाम का वृक्ष शाल-वृक्षों से घिरा हुआ होता है उसी प्रकार एरण्ड-आचार्य स्वयं असुन्दर होते है और वे शाल परिवार—सुन्दर शिष्यों से परिवृत होते हैं, ४. जिस प्रकार एरण्ड नाम का वृक्ष एरण्ड-वृक्षों से घिरा हुआ होता है उसी प्रकार एरण्ड-आचार्य स्वयं भी असुन्दर होते हैं और वे एरण्ड परिवार-असुन्दर शिष्यों से परिवत होते है।
३. सालदुममज्झयारे, एरंडे णाम होइ दुमराया। इय मंगुलआयरिए, सुंदरसीसे मुणेयव्वे ॥
३. शालद्रुममध्यकारे, एरण्डो नाम भवति द्रुमराजः । एवं मंगुल: आचार्यः, सुन्दरः शिष्यः ज्ञातव्यः॥
४. एरंडमझयारे, एरंडे णाम होइ दुमराया। इय मंगुलआयरिए, मंगुलसीसे मुणेयध्वे ॥
४. एरण्डमध्यकारे, एरण्डो नाम भवति द्रुमराजः। एवं मंगुल: आचार्यः, मंगुलः शिष्यः ज्ञातव्यः॥
भिक्खाग-पदं भिक्षाक-पदम्
भिक्षाक-पद ५४४. चत्तारि मच्छा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः मत्स्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५४४. मत्स्य चार प्रकार के होते हैं
अणुसोयचारी, पडिसोयचारी, अनुश्रोतश्चारी, प्रतिश्रोतश्चारी, १. अनुस्रोतचारी--प्रवाह के अनुकूल अंतचारी, मज्मचारी। अन्तचारी, मध्यचारी। चलने वाले, २. प्रतिस्रोतचारी-प्रवाह
के प्रतिकूल चलने वाले, ३. अन्तचारीकिनारों पर चलने वाले, ४. मध्यचारी
बीच में चलने वाले। एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता, एवमेव चत्वारः भिक्षाकाः प्रज्ञप्ताः, इसी प्रकार भिक्षुक भी चार प्रकार के तं जहातद्यथा
होते हैंअणुसोयचारी, पडिसोयचारी, अनुश्रोतश्चारी, प्रतिश्रोतश्चारी, १. अनुश्रोतचारी, २. प्रतिश्रोतचारी, अंतचारी, मज्भचारी।
अन्तचारी, मध्यचारी। ३. अन्तचारी, ४. मध्यचारी।
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ठाणं (स्थान)
४५३
स्थान ४ : सूत्र ५४५-५४८
गोल-पदं गोल-पदम्
गोल-पद ५४५. चत्तारि गोला पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः गोलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५४५. गोले चार प्रकार के होते हैं
मधुसित्थगोले, जउगोले, दारुगोले, मधुसिक्थगोलः, जतुगोलः, दारुगोलः, १. मधुसिक्थ-मोम का गोला, २. जतुमट्टियागोले। मृत्तिकागोलः ।
लाख का गोला, ३. दारु-काष्ठ का
गोला, ४. मृत्तिका-मिट्टी का गोला। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा--- मधुसित्थगोलसमाणे, जउगोल- मधुसिक्थगोलसमानः, जतुगोलसमानः, । १. मधुसिक्थ के गोले के समान, २. जतु समाणे, दारुगोलसमाणे, मट्टिया- दारुगोलसमानः, मृत्तिकागोलसमानः।
के गोले के समान, ३. दारु के गोले के गोलसमाणे ।
समान, ४. मृत्तिका के गोले के समान ५४६. चत्तारि गोला पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः गोलाः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- ५४६. गोले चार प्रकार के होते है ---
अयगोले, तउगोले, तंबगोले, अयोगोलः, पुगोलः, ताम्रगोलः, १. लोहे का गोला, २. नपु-राँगे का गोला, सीसगोले। शीशगोलः ।
३. ताँबे का गोला, ४. शीशे का गोला। एवामेव चत्तारि परिसजाया एवमेव चत्वारि परुषजातानि प्रज्ञप्तानि. इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाअयगोलसमाणे, 'तउगोलसमाणे, अयगोलसमानः, अपुगोलसमानः, १. लोहे के गोले के समान, २. वपु के तंबगोलसमाणे , सीसगोलसमाणे। ताम्रगोलसमानः, शीशगोलसमानः। गोले के समान, ३. तांबे के गोले के
समान, ४. शीशे के गोले के समान ११९ ५४७. चत्तारि गोला पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः गोलाः प्रज्ञप्ताः , तदयथा_ ५४७. गोले चार प्रकार के होते है
हिरण्णगोले, सुवण्णगोले, रयण- हिरण्यगोलः, सुवर्णगोलः, रत्नगोलः, १. हिरण्य-चाँदी का गोला, गोले, वयरगोले। वज्रगोलः।
२. सुवर्ण–सोने का गोला, ३. रत्न का
गोला, ४. बज्ररत्न का गोला। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा-
प्रज्ञप्तानि, तद्यथाहिरण्णगोलसमाणे, 'सुवण्णगोल- हिरण्यगोलसमानः, सुवर्णगोलसमान:, १.हिरण्य के गोले के समान, २. सुवर्ण के समाणे, रयणगोलसमाणे, वयर- रत्नगोलसमानः, वज्रगोलसमानः । गोले के समान, ३. रत्न के गोले के समान, गोलसमाणे।
४. वज्ररत्न के गोले के समान २० ।
पत्त-पदं पत्र-पदम्
पत्र-पद ५४८. चत्तारि पत्ता पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि पत्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ५४८. पत्र-फलक चार प्रकार के होते हैअसिपत्ते, करपत्ते, खुरपत्ते, कलंब- असिपत्रं, करपत्रं, क्षुरपत्रं, कदम्ब
१. असिपत्र-तलवार का पत्र,
२. करपत्र-करोत का पत्र, ३. क्षुरपत्रचीरियापत्ते। चीरिकापत्रम्।
छुरे का पत्र, ४, कदम्बचीरिकापत्रतीखी नोक वाला घास या शस्त्र ।
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ठाणं (स्थान)
४५४
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि,
पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा—
असिपत्तसमाणे, करपत्तसमाणे, खुरपत्तसमाणे, कलंबचीरिया पत्तसमाणे ।
कड-पदं
५४६. चत्तारि कडा पण्णत्ता, तं जहासुंबकडे, विदलकडे, चम्मकडे, कंबलकडे ।
असिपत्रसमानः, करपत्रसमानः, क्षुरपत्रसमानः, कदम्बचीरिकापत्रसमानः ।
तद्यथा
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि पण्णत्ता, तं जहा सुबकडसमाणे, "विदलकडसमाणे, सुम्बकटसमानः, विदलकटसमानः, चम्मकडसमाणे, कंबलकडसमाणे । चर्मकटसमानः, कम्बलकटसमानः ।
५५१. चउव्विहा पक्खी पण्णत्ता, तं जहाचम्मपक्खी, लोमपक्खी, समुग्गपक्खी, विततपक्खी।
कट-पदम्
चत्वारः कटाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथासुम्बकट: विदलकटः, चर्मकटः,
कम्बलकटः ।
चतुर्विधाः पक्षिणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— चर्मपक्षिणः, लोमपक्षिणः, समुद्गपक्षिणः, विततपक्षिणः ।
स्थान ३ : सूत्र ५४६-५५१
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं
१. असिपत्र के समान तुरन्त स्नेह-पाश को छेद देने वाला, २ . करपत्र के समान ---- बार-बार के अभ्यास से स्नेह - पाश को छेद देने वाला, ३. क्षुरपत्र के समानथोड़े स्नेह-पाश को छेद देने वाला, ४. कदम्ब चीरिका पत्र के समान स्नेह छेद की इच्छा रखने वाला " ।
तिरिय-पदं
तिर्यग्-पदम्
तिर्यग् - पद
५५०. चउव्विहा चउप्पया पण्णत्ता, तं चतुर्विधाः चतुष्पदाः प्रज्ञप्ताः, ५५०. चतुष्पद -- जानवर चार प्रकार के होते हैं
१. एक खुर वाले घोड़े, गधे आदि,
जहा - एगखुरा, सणष्कया ।
तद्यथा— दुखुरा, गंडीपदा, एकखुराः द्विखुराः गण्डिपदाः सनखपदाः ।
२. दो खुर वाले -- गाय, भैंस आदि, ३. गण्डीपद – स्वर्णकार की अहरन की तरह गोल पैर वाले हाथी, ऊंट आदि, ४. सनखपद नख सहित पैर वाले - सिंह, कुत्ते आदि ।
कट-पद
५४६. कट [ चटाई ] चार प्रकार के होते हैं
१. सुम्बकट --- घास से बना हुआ, २. विदलकट बाँस के टुकड़ों से बना हुआ, ३. चर्मकट - चमड़े से बना हुआ,
४. कम्बलकट ।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं
१. सुम्बकट के समान – अल्प प्रतिबन्ध वाला, २ . विदलकट के समान, बहु प्रतिबन्ध वाला, ३. चर्मकट के समान, बहुतर प्रतिबन्ध वाला, ४. कम्बलकट के समान, बहुतम प्रतिबन्ध वाला ।
५५१. पक्षी चार प्रकार के होते हैं
१. चर्मपक्षी - जिनके पंख चमड़े के होते है, चमगादड़ आदि, २. रोमपक्षी --- जिनके पंख रोऍदार होते हैं, हंस आदि, ३. समुद्गपक्षी - जिनके पंख पेटी की तरह खुलते हैं और बन्द होते हैं, ४. विततपक्षी - जिनके पंख सदा खुले ही रहते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४५५
स्थान ३ : सूत्र ५५२-५५४ ५५२. चउव्विहा खुड्डपाणा पण्णत्ता, तं चतुर्विधाः क्षुद्रप्राणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५५२. क्षुद्र-प्राणी चार प्रकार के होते हैं
जहा—बेइंदिया, तेइंदिया, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, १. द्वीन्द्रिय, २. तीन्द्रिय, ३. चतुरीन्द्रिय, चरिदिया, संमुच्छिमपंचिदिय- सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। ४. संमूच्छिमपंचेन्द्रियतिर्यक्यौनिक । तिरिक्खजोणिया।
भिक्खाग-पदं भिक्षाक-पदम्
भिक्षाक-पद ५५३. चत्तारि पक्खी पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः पक्षिणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५५३. पक्षी चार प्रकार के होते हैं
णिवतित्ता णाममेगे, णो परिवइत्ता, निपतिता नामैकः, नो परिवजिता, १. कुछ पक्षी नीड़ से नीचे उतर सकते हैं, परिवइत्ता णाममंगे, णो णिवतित्ता, परिव्रजिता नामकः, नो निपतिता, पर उड़ नहीं सकते, २. कुछ पक्षी उड़ एगे णिवतित्तावि, परिवइत्तावि, एकः निपतिताऽपि, परिवजिताऽपि, सकते हैं पर नीड़ से नीचे नहीं उतर सकते एगे णो णिवतित्ता, णो परि- एकः नो निपतिता, नो परिव्रजिता । ३. कुछ पक्षी नीड़ से नीचे भी उतर सकते वइत्ता।
हैं और उड़ भी सकते हैं, ४. कुछ पक्षी न नीड़ से नीचे उतर सकते हैं और न उड़
हो सकते हैं। एवामेव चत्तारि भिक्खागा एवमेव चत्वारः भिक्षाकाः प्रज्ञप्ता, इसी प्रकार भिक्षुक भी चार प्रकार के पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
होते हैंणिवतित्ताणाममेगे, णो परिवइत्ता, निपतिता नामकः, नो परिव्रजिता, १. कुछ भिक्षुक भिक्षा के लिए जाते हैं, परिवइत्ता णाममेगे, णो णिवतित्ता, परिव्रजिता नामकः, नो निपतिता, पर अधिक घूम नहीं सकते, २. कुछ भिक्षुक एगे णिवतित्तावि, परिवइत्तावि, एकः निपतिताऽपि, परिव्रजिताऽपि, भिक्षा के लिए घूम सकते हैं पर जाते नहीं एगे णो णिवतित्ता, णो परिवइत्ता। एकः नो निपतिता, नो परिव्रजिता। ३. कुछ भिक्षुक भिक्षा के लिए जाते भी
हैं और घूम भी सकते हैं, ४. कुछ भिक्षुक न भिक्षा के लिए जाते हैं और न घूम ही सकते हैं । १२३
णिक्कट्ठ-अणिक्कट्ठ-पदं निष्कृष्ट-अनिष्कृष्ट-पदम् निष्कृष्ट-अनिष्कृष्ट-पद ५५४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५५४. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से भी निष्कृष्टणिक्कट्ठ णाममेगे णिक्कट्ठ, निष्कृष्ट: नामैकः निष्कृष्टः, क्षीण होते हैं और कषाय से भी निष्कृष्ट णिक्कट्ठ णाममेगे अणिक्कट्ठ, निष्कृष्ट: नामैकः अनिष्कृष्टः, होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से निष्कृष्ट, अणिक्कट्ठ णाममेगे णिक्कट्ठ, अनिष्कृष्ट: नामैक: निष्कृष्टः, किन्तु कषाय से अनिष्कृष्ट होते हैं, अणिक्कट्ठ णाममेगे अणिक्कट्ठ। अनिष्कृष्ट: नामैक: अनिष्कृष्टः । ३. कुछ पुरुष शरीर से अनिकृष्ट, किन्तु
कषाय से निष्कृष्ट होते हैं ४. कुछ पुरुष शरीर से भी अनिष्कृष्ट होते हैं और कषाय से भी अनिष्कृष्ट होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४५६
स्थान ३ : सूत्र ५५५-५५८ ५५५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५५५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष शरीर से भी निष्कृष्ट होते णिक्कट्ठ णाममेगे णिक्कटप्पा, निष्कृष्ट: नामकः निष्कृष्टात्मा, हैं और उनकी आत्मा भी निष्कृष्ट होती णिक्क? णाममेगे अणिक्कटप्पा, निष्कृष्ट: नामक: अनिष्कृष्टात्मा, है, २. कुछ पुरुष शरीर से निष्कृष्ट होते अणिक्कट्ठणाममेगे णिक्कट्टप्पा, अनिष्कृष्ट: नामकः निष्कृष्टात्मा, हैं, पर उनकी आत्मा निष्कृष्ट नहीं अणिक्क णाममगे अणिक्कट्रप्पा। अनिष्कृष्टः नामैकः अनिष्कृष्टात्मा। होती, ३. कुछ पुरुष शरीर से अनिष्कृष्ट
होते हैं, पर उनकी आत्मा निष्कृष्ट होती है, ४. कुछ पुरुष शरीर से भी अनिष्कृष्ट होते हैं और आत्मा से भी अनिष्कृष्ट होते हैं।
बुध-अबुध-पदं ५५६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं
बुहे णामोंगे बुहे, बुहे णाममेगे अबुहे, अबुहे णाममेगे बुहे, अबुहे णामभेगे अबुहे।
५५७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं
जहा..बुधे णाममेगे बुधहियए, बुधे णाममेगे अबुधहियए, अबुधे णाममेगे बुधहियए, अबुधे णाममेगे अबुधहियए।
बुध-अबुध-पदम्
बुध-अबुध-पद चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५५६. पुरुष चार प्रकार के होते हैंतद्यथा
१. कुछ पुरुष ज्ञान से भी बुध होते हैं और बुधः नामकः बुधः,
आचरण से भी बुध होते हैं, २. कुछ पुरुष बुधः नामकः अबुधः,
ज्ञान से बुध होते हैं, किन्तु आचरण से अबुधः नामकः बुधः,
बुध नहीं होते, ३. कुछ पुरुष ज्ञान से अबुध अबुधः नामैकः अबुधः।
होते हैं, किन्तु आचरण से बुध होते हैं, ४. कुछ पुरुष ज्ञान से भी अबुध होते हैं
और आचरण से भी अबुध होते हैं । २६ चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५५७. पुरुष चार प्रकार के होते हैंतद्यथा
१. कुछ पुरुष आचरण से भी बुध होते हैं बुधः नामैक: बुधहृदयः,
और उनका हृदय भी बुध -- विवेचनाशील बुधः नामकः अबुधहृदयः,
होता है, २. कुछ पुरुष आचरण से बुध अबुधः नामैक: बुधहृदयः,
होते हैं, पर उनका हृदय बुध नहीं होता, अबुधः नामैक: अबुधहृदयः ।
३. कुछ पुरुष आचरण से बुध नहीं होते, पर उनका हृदय बुध होता है, ४. कुछ पुरुष आचरण से भी अबुध होते हैं और उनका हृदय भी अबुध होता है।
अणुकंपग-पदं अनुकम्पक-पदम्
अनुकम्पक-पद ५५८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ५५८. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष आत्मानुकंपक-आत्म-हित आयाणुकंपए णाममेगे, णो पराणु- आत्मानुकम्पकः नामकः, नो परानु- में प्रवृत होते हैं, पर परानुकंपक
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स्थान ४ : सूत्र ५५६-५६२
ठाणं (स्थान)
४५७ कंपए, पराणुकंपए णाममेगे, णो कम्पकः, परानुकम्पक: नामैकः, नो आयाणुकंपए, एगे आयाणुकंपएवि, आत्मानुकम्पकः, एकः आत्मानुकम्पकोपराणुकंपए वि, एगे णो आयाणु- ऽपि, परानुकम्पकोऽपि, एक: नो कंपए, णो पराणुकंपए। आत्मानुकम्पकः, नो परानुकम्पकः।
परहित में प्रवृत्त नहीं होते, जैसेजिनकल्पिक मुनि, २. कुछ पुरुष परानुकंपक होते हैं, पर आत्मानुकंपक नहीं होते, जैसे—कृतकार्य तीर्थकर, ३. कुछ पुरुष आत्मानुकंपक भी होते हैं और परानुकंपक भी होते हैं, जैसे-स्थविर कल्पिक मुनि, ४. कुछ पुरुष न आत्मानुकंपक होते हैं और न परानुकंपक ही होते हैं, जैसे-क्रूरकर्मा पुरुष ।१२५
संवास-पदं संवास-पदम्
संवास-पद ५५६. चउविहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५५६. संवास-मैथुन चार प्रकार का होता हैदिवे आसुरे रक्खसे माणुसे। दिव्यः, आसुरः, राक्षसः, मानुषः । १. देवताओं का, २. असुरों का,
३. राक्षसों का, ४. मनुष्यों का। ५६०. चउविधे संवासे पण्णत्ते, तं जहा— चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५६०. संवास चार प्रकार का होता है
देवे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं देवः नामकः देव्या साधं संवासं गच्छति, १. कुछ देव देवियों के साथ संवास करते गच्छति, देवे णाममेगे असुरीए देवः नामकः असुर्या साधू संवासं गच्छति, हैं, २. कुछ देव असुरियों के साथ संवास सद्धि संवासं गच्छति, असुरे णाम- असुरःनामैकः देव्या साधं संवासं गच्छति, करते हैं, ३. कुछ असुर देवियों के साथ मेगे देवीए सद्धि संवासं गच्छति, असुरः नामैकः असुर्या साधू संवासं संवास करते हैं, ४. कुछ असुर असुरियों असुरे गाममेगे असुरीए सद्धि गच्छति ।
के साथ संवास करते हैं। संवासं गच्छति । ५६१. चउव्विधे संवासे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५६१. संवास चार प्रकार का होता है
देवे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं देव: नामकः देव्या सार्ध संवासं गच्छति, १. कुछ देव देवियों के साथ संवास करते गच्छति, देवे णाममेगे रक्खसीए देवः नामैक: राक्षस्या साध संवासं हैं, २. कुछ देव राक्षसियों के साथ संवास सद्धि संवासं गच्छति, रक्खसे गच्छति, राक्षसः नामैकः देव्या सार्ध करते हैं, ३. कुछ राक्षस देवियों के साथ णाममेगे देवीए सद्धि संवासं संवासं गच्छति, राक्षस: नामकः राक्षस्या संवास करते हैं, ४. कुछ राक्षस राक्षसियों गच्छति, रक्खसे णाममेगे रक्ख- साध संवासं गच्छति।
के साथ संवास करते हैं। सीए सद्धि संवासं गच्छति । ५६२. चाउध्विधे संवासे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५६२. संवास चार प्रकार का होता है.---
देवे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं देवः नामकः देव्या साध संवासं गच्छति, १. कुछ देव देवियों के साथ संवास करते गच्छति, देवे णाममेगे मणुस्सीए देवः नामैक: मानुष्या साधू संवासं हैं, २. कुछ देव मानुषियों के साथ संवास सद्धि संवासं गच्छति, मणुस्से गच्छति, मनुष्यः नामैक: देव्या सार्धं करते हैं, ३. कुछ मनुष्य देवियों के साथ णाममेगे देवीए सद्धि संवासं संवासंगच्छति, मनुष्यःनामकः मानुष्या संवास करते हैं, ४. कुछ मनुष्य मानुषियों गच्छति, मणुस्से णाममेगे मणु- सार्धं संवासं गच्छति।
के साथ संवास करते हैं। स्सीए सद्धि संवासं गच्छति ।
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ठाणं (स्थान)
४५८
स्थान ४ : सूत्र ५६३-५६७ ५६३. चउन्विधे संवासे पण्णत्ते, तं जहा.- चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५६३. संवास चार प्रकार का होता है
असुरे णाममेगे असुरीए सद्धि असुर: नामक: असुर्या साधू संवासं १. कुछ असुर असुरियों के साथ संवास संवासं गच्छति, असुरे गाममेगे गच्छति, असुरः नामकः राक्षस्या साधू करते हैं, २. कुछ असुर राक्षसियों के साथ रक्खसीए सद्धि संवासं गच्छति, संवासं गच्छति, राक्षसः नामक: असुर्या संवास करते हैं, ३. कुछ राक्षस असुरियों रक्खसे णाममेगे असुरीए सद्धि साधू संवासं गच्छति, राक्षस: नामैकः के साथ संवास करते हैं, ४. कुछ राक्षस संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे राक्षस्या साधू संवासं गच्छति । राक्षसियों के साथ संवास करते हैं।
रक्खसीए सद्धि संवासं गच्छति। ५६४. चउविधे संवासे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५६४. संवास चार प्रकार का होता है--
असुरे णाममेगे असुरीए सद्धि असुरः नामकः असुर्या साधू संवासं १. कुछ असुर असुरियों के साथ संवास संवासं गच्छति, असुरे गाममेगे गच्छति, असुर: नामकः मानुष्या साध करते हैं, २. कुछ असुर मानुषियों के साथ मणुस्सीए सद्धि संवासं गच्छति, संवासं गच्छति, मनुष्यः नामैक: असुर्या संवास करते हैं, ३. कुछ मनुष्य असुरियों मणुस्से णाममेगे असुरीए सद्धि साध संवासं गच्छति, मनुष्यः नामकः । के साथ संवास करते हैं, ४. कुछ मनुष्य संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे मानुष्या साध संवासं गच्छति।
मानुषियों के साथ संवास करते हैं। मणुस्सीए सद्धि संवासं गच्छति। ५६५. चउब्विधे संवासे पग्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५६५. संवास चार प्रकार का होता है--
रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धि राक्षसः नामकः राक्षस्या साधु संवासं १. कुछ राक्षस राक्षसियों के साथ संवास संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे गच्छति, राक्षसः नामकः मानुष्या साधू करते हैं, २. कुछ राक्षस मानूषियों के साथ मणुस्सीए सद्धि संवासं गच्छति, संवासं गच्छति, मनुष्यःनामैक: राक्षस्या संवास करते हैं, ३. कुछ मनुष्य राक्षसियों मणुस्से णाममेगे रक्खसीए सद्धि साधू संवासं गच्छति, मनुष्यः नामैक: के साथ संवास करते हैं, ४. कुछ मनुष्य संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे मानुष्या साध संवासं गच्छति । मानुषियों के साथ संवास करते हैं। मणुस्सीए द्धि संवासं गच्छति।
अवद्धंस-पदं अपध्वंस-पदम्
अपध्वंस-पद ५६६. चउन्विहे अवद्धंसे पण्णत्ते, तं चतुर्विधः अपध्वसः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५६६. अपध्वंस–साधना का विनाश चार प्रकार जहा
का है-१. आसुर-अपध्वंस, २. अभियोगआसुरे, आभिओगे, संमोहे, आसुरः, आभियोगः, सम्मोहः, अपध्वंस, ३. सम्मोह-अपध्वंस, देवकिब्बिसे। देवकिल्बिषः ।
४. देवकिल्बिष-अपध्वंस । १२६ ५६७. चउहि ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए चतुभिः स्थान: जीवा आसुरतया कर्म ५६७. चार स्थानों से जीव आसुरत्व-कर्म का कम्म पगरेंति, तं जहा- प्रकुर्वन्ति, तद्यथा
अर्जन करता हैकोवसीलताए, पाहुडसीलताए, कोपशीलतया, प्राभूतशीलतया, १. कोपशीलता से, २.प्राभृत शीलतासंसत्ततवोकम्मेणं, णिमित्ता- संसक्ततपःकर्मणा, निमित्ताजीवतया। कलहस्वभाव से, ३. संसक्त तपः कर्मजीवयाए।
आहार, उपधि की प्राप्ति के लिए तप करने से,४.निमित्त जीविता-निमित्त आदि बताकर आहार आदि प्राप्त करने से । २०
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ठाणं (स्थान)
४५६
स्थान ४ : सूत्र ५६८-५७१ ५६८. चहि ठाणेहि जीवा आभि- चतुभिः स्थानः जीवा आभियोगतया कर्म ५६८. चार स्थानों से जीव आभियोगित्व-कर्म ओगत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- प्रकुर्वन्ति, तद्यथा
का अर्जन करता हैअत्तुक्कोसेणं, परपरिवाएणं, आत्मोत्कर्षेण, परपरिवादेन, भूतिकर्मणा, १. आत्मोत्कर्ष ---आत्म-गुणों का अभिभूतिकम्भेणं, कोउयकरणेणं। कौतुककरणेन ।
मान करने से, २. पर-परिवाद- दूसरों का अवर्णवाद बोलने से, ३. भूतिकर्मभस्म, लेप आदि के द्वारा चिकित्सा करने से, ४. कौतुककरण-मंत्रित जल से स्नान
कराने से ।१२८ ५६६. चहि ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताए चतुर्भिः स्थानैः जीवा: सम्मोहतया कर्म ५६९. चार स्थानों से जीव सम्मोहत्व-कर्म का कम्मं पगरेति, तं जहा- प्रकुर्वन्ति, तद्यथा
अर्जन करता हैउम्मग्गदेसणाए, मग्गंतराएणं, उन्मार्गदेशनया, मार्गान्तरायण, कामा- १. उन्मार्ग देशना-मिथ्या धर्म का कामासंसपओगेणं, भिज्जाणियाण- शंसाप्रयोगेण, भिध्यानिदानकरणेन ।
प्ररूपण करने से, २. मार्गान्तराय--मोक्ष करणेणं ।
मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए विघ्न उत्पन्न करने से, ३. कामाशंसाप्रयोगशब्दादि विषयों में अभिलाषा करने से, ४. मिथ्यानिदानकरण-गृद्धि-पूर्वक
निदान करने से ।१२९ ५७०. चउहि ठाणेहिं जीवा देवकिब्बि- चतुभिः स्थानः जीवा देवकिल्बिषिकतया ५७०. चार स्थानों से जीव देव-किल्विषिकत्व सियत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा
कर्म का अर्जन करता है-- अरहताणं अवण्णं वदमाणे, अर्हतां अवर्णं वदन्,
१. अर्हन्तों का अवर्णवाद बोलन से, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवणं अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अवर्ण वदन्, २. अर्हन्त प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद बोलने वदमाणे, आयरियउवज्झायाण- आचार्योपाध्याययोः अवर्ण वदन्, से, ३. आचार्य तथा उपाध्याय का अवर्णमवणं वदमाणे, चाउवण्णस्स चतुर्वर्णस्य संघस्य अवर्ण वदन् । वाद बोलने से, ४. चतुर्विध संघ का संघस्स अवण्णं वदमाणे।
अवर्णवाद बोलने से ।१०
प्रव्रज्या -पद ५७१. प्रव्रज्या चार प्रकार की होती है
पव्वज्जा-पदं
प्रव्रज्या-पदम् ५७१. चउन्विहा पन्वज्जा पण्णत्ता, तं चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तयथा-
जहाइहलोगपडिबद्धा, परलोगोडबद्धा, इहलोकप्रतिबद्धा, परलोकप्रतिबद्धा, दहतोलोगपडिबद्धा, अप्पडिबद्धा। द्वयलोकप्रतिबद्धा, अप्रतिबद्धा।
१. इहलोक प्रतिबद्धा-इस जन्म की सुख कामना से ली जाने वाली, २. परलोक प्रतिबद्धा--परलोक की सुख कामना से ली जाने वाली, ३. उभयलोक प्रतिबद्धादोनों लोकों की सुख कामना से ली जाने वाली, ४. अप्रतिबद्धा-इहलोक आदि के प्रतिबंध से रहित।
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ठाणं (स्थान)
४६०
५७२. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा—
जहा —
पुरओपडिबद्धा, मग्गओपडिबद्धा, पुरतः प्रतिबद्धा, 'मग्गतो' [ पृष्ठतः ] दुहतोपडिबद्धा, अप्प डिबद्धा । प्रतिबद्धा, द्वयप्रतिबद्धा, अप्रतिबद्धा ।
५७३. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा—
जहा -
ओवायपव्वज्जा, अक्खातपव्वज्जा, अवपातप्रव्रज्या, आख्यातप्रव्रज्या, संगारपव्वज्जा, विहगगइपव्वज्जा। संगरप्रव्रज्या, विहगगतिप्रव्रज्या ।
५७४. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा— जहा -
तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, बुआवइत्ता, तोदयित्वा, प्लावयित्वा, वाचयित्वा, परियावता । परिप्लुतयित्वा ।
५७५. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथाजहा -
खइया, भडखइया, सोहखइया, नट खादिता, भट खादिता, सियालखइया । सिंह खादिता, शृगाल खादिता ।
५७६. चउब्विहा किसी पण्णत्ता, तं जहा - चतुविधा कृषिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा
स्थान ४ : सूत्र ५७२-५७६
५७२. प्रव्रज्या चार प्रकार की होती है१. पुरतः प्रतिबद्धा - शिष्य, आहार आदि की कामना से ली जाने वाली, २. पृष्ठतः प्रतिबद्धा - प्रव्रजित हो जाने पर स्वजन-संबंध छिन्न नहीं हुए हों, ३. उभयप्रतिबद्धा — उक्त दोनों से प्रतिबद्ध ४. अप्रतिबद्धा - उक्त दोनों से अप्रतिबद्ध |
५७३. प्रव्रज्या चार प्रकार की होती है
१. अवपात प्रव्रज्या - गुरु सेवा से प्राप्त की जाने वाली, ४. आख्यात प्रव्रज्या ---- दूसरों के कहने से ली जाने वाली,
३. संगरप्रव्रज्या परस्पर प्रतिबोध देने की प्रतिज्ञा पूर्वक ली जाने वाली, ४. विहगगति प्रव्रज्या - परिवार से वियुक्त होकर देशांतर में जाकर ली जाने वाली । ५७४. प्रव्रज्या चार प्रकार की होती है
१. कष्ट देकर दी जाने वाली, २. दूसरे स्थान में ले जाकर दी जाने वाली, ३. बातचीत करके दी जाने वाली, ४. स्निग्ध सुमधुर भोजन करवा कर दी जाने वाली ।
५७५. प्रव्रज्या चार प्रकार की होती है
१. नटखादिता -- जिसमें नट की भाँति वैराग्य शून्य धर्मकथा कहकर जीविका चलाई जाए, २. भटखादिता — जिसमें भट की भाँति बल का प्रदर्शन कर जीविका चलाई जाए, ३. सिंहखादिता -- जिसमें सिंह की भाँति दूसरों को डराकर जीविका चलाई जाए, ४. शृगालखादिता - जिसमें शृगाल की भाँति दयापात्र होकर जीविका चलाई जाए।
५७६. कृषि चार प्रकार की होती है
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ठाणं (स्थान)
४६१
वाविया, परिवाविया, णिदिता, वापिता, परिवापिता, निदाता, परिणिदिता । परिनिदाता ।
एवामेव चउव्विहा पव्वज्जा एवमेव चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, पण्णत्ता, तं जहा तद्यथा—
वाविता, परिवाविता, णिदिता, वापिता, परिवापिता, निदाता, परिणिदिता । परिनिदाता ।
जहा -
५७७. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथापुञ्जितधान्यसमाना, विसरितधान्यपुंजित माणा, धणविरल्लित - समाना, विक्षिप्तधान्यस माना, समाणा, धण्णविक्खित्तसमाणा, सङ्कर्षितधान्यसमाना । धण्णसंकट्टितस माणा ।
सण्णा-पदं
संज्ञा-पदम्
५७८. चत्तारि सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः संज्ञाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
जहा
आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा । ५७६. चह ठाणेह आहारसण्णा
समुपज्जति तं जहा - ओमको ताए, छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं ।
५८०. चह ठाणेह समुपज्जति तं जहा
आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा ।
स्थान ४ : सूत्र ५७७-५८०
१. उप्त -- एक बार बोई हुई, २. पर्युप्त-एक बार बोए हुए धान्य को दो-तीन बार उखाड़ उखाड़ कर लगाए जाए, जैसेचावल आदि, ३. निदात - एक बार घास आदि की कटाई, ४. परिनिदात - बारबार घास आदि की कटाई । इसी प्रकार प्रव्रज्या भी चार प्रकार की होती है
१. उप्त - सामायिक चारित्र में आरोपित करना, २ . पर्युप्त - महाव्रतों में आरोपित करना, ३ . निदात एक बार आलोचना, ४. परिनिदात -- बार-बार आलोचना । ५७७. प्रव्रज्या चार प्रकार की होती है
१. साफ किए हुए धान्य-पुंज के समान - आलोचना-रहित, २. साफ किए हुए, किन्तु बिखरे हुए धान्य के समान अल्प अतिचार वाली, ३. बैलों आदि के पैरों से कुचले हुए धान्य के समान - बहुअतिचार वाली, ४. खलिहान पर लाये हुए धान्य के समान - बहुतरअतिचार वाली ।
संज्ञा - पद
५७८. संज्ञाएं चार होती हैं
१. आहार संज्ञा, २. भय संज्ञा ३. मैथुन संज्ञा, ४. परिग्रह संज्ञा ।
है—
चतुभिः स्थानैः आहारसंज्ञा समुत्पद्यते, ५७६. चार स्थानों से आहार-संज्ञा उत्पन्न तद्यथा— अवमकोष्ठतया, क्षुधावेदनीयस्य कर्मणः उदयेन, मत्या, तदर्थोपयोगेन ।
१. पेट के खाली हो जाने से, २. क्षुधावेदनीय कर्म के उदय होने से, ३. आहार की बात सुनने से उत्पन्न मति से, ४. आहार के विषय में सतत चिंतन करते
रहने से ।
भयण्णा चतुभिः स्थानैः भयसंज्ञा समुत्पद्यते ५८०. चार स्थानों से भय-संज्ञा उत्पन्न होती
तद्यथा
है—
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स्थान ४ : सूत्र ५८१-५८६
१. सत्त्वहीनता से, २. भय- वेदनीय कर्म के उदय से, ३. भय की बात सुनने से उत्पन्न मति से, ४. भय का सतत चितन करते रहने से ।
५८१. चह ठार्णोह मेहुणसण्णा समुप्प - चतुभिः स्थान: मैथुनसंज्ञा समुत्पद्यते, ५८१. चार कारणों से मैथुन- संज्ञा उत्पन्न होती
ज्जति, तं जहाचितमससोणिययाए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदणं, मतीए, तदट्ठोव
तद्यथा— चितमांसशोणिततया, मोहनीयस्य कर्मणः उदयेन, मत्या, तदर्थोपयोगेन ।
ओगेणं ।
ठाणं (स्थान)
होणसत्तताए, भयवेय णिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं ।
१. अत्यधिक मांस- शोणित का उपचय हो जाने से, २. मोहनीय कर्म के उदय से मोहाणुओं की सक्रियता से, ३. मैथुन
की बात सुनने से उत्पन्न मति से,
४. मैथुन का सतत चिंतन करते रहने से ।
५८२. चउहि ठाणेह परिग्गहसण्णा चतुभिः स्थानैः परिग्रहसंज्ञा समुत्पद्यते, ५८२. चार कारणों से परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती
तद्यथा
समुपज्जति तं जहा अविमुत्तयाए, लोभवेय णिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं ।
है - १. अविमुक्तता - परिग्रह पास में रहने से, २. लोभ-वेदनीय कर्म के उदय से, ३. परिग्रह को देखने से उत्पन्न मति से, ४. परिग्रह का सतत चिंतन करते रहने से ।
काम-पदं
५८३. चउव्हिा कामापण्णत्ता, तं जहा— सिंगारा, कलुणा, बीभच्छा, रोद्दा । सिंगारा कामा देवाणं, कलुणा कामा मणुयाणं, बीभच्छा कामा तिरिक्खजोणियाणं, रोद्दा कामा रइयाणं ।
उत्ताण-गंभीर-पदं
५८४. चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा— उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदए, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदए, गंभीरे णाममेगे गंभीरोदए ।
४६२
हीनसत्त्वतया, भयवेदनीयस्य कर्मणः उदयेन, मत्या, तदर्थोपयोगेन ।
अविमुक्ततया, लोभवेदनीयस्य कर्मणः उदयेन, मत्या, तदर्थोपयोगेन ।
काम-पदम्
।
चतुर्विधाः कामाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा शृङ्गाराः, करुणाः, बीभत्साः, रौद्राः शृङ्गाराः कामाः देवानां, करुणाः कामाः मनुजानां, बीभत्साः कामाः तिर्यग्योनिकानां, रौद्रा: कामाः नैरयिकाणाम् ।
उत्तान गम्भीर-पदम्
चत्वारि उदकानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाउत्तानं नामैकं उत्तानोदकं, उत्तानं नामैकं गम्भीरोदकं, गम्भीरं नामैकं उत्तानोदकं, गम्भीरं नामैकं गम्भीरोदकम् ।
काम-पद
५८३. काम भोग चार प्रकार के होते हैं-
१. शृंगार, २. करुण, ३. बीभत्स, ४. रौद्र । देवताओं का काम शृंगार रस प्रधान होता है, मनुष्यों का काम करुण रस प्रधान होता है, तिर्यंचों का काम बीभत्सरस प्रधान होता है, नैरयिकों का काम रौद्र रस प्रधान होता है।
उत्तान गम्भीर-पद
५८४. उदक चार प्रकार के होते हैं-
१. एक उदक प्रतल छिछला भी होता है और स्वच्छ होने के कारण उसका अन्तस्तल भी दीखता है, २. एक उदक प्रतल-छिछला होता है पर अस्वच्छ होने के कारण उसका अन्तस्तल नहीं दीखता, ३. एक उदक गंभीर होता है पर स्वच्छ होने के कारण उसका अन्तस्तल नहीं दीखता है, ४. एक उदक गंभीर होता है। पर अस्वच्छ होने के कारण उसका अन्तस्तल नहीं दिखता।
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ठाणं (स्थान)
४६३
स्थान ४ : सूत्र ५८५-५८६ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाउत्ताणे णाममेगे उत्ताणहिदए, उत्तान: नामैक: उत्तानहृदयः, १. कुछ पुरुष आकृति से भी अगंभीर होते उत्ताणे णाममेगे गंभीरहिदए, उत्तानः नामैक: गम्भीरहृदयः, हैं और हृदय से भी अगंभीर होते हैं गंभीरे णाममेगे उत्ताणहिदए, गम्भीर: नामैक: उत्तानहृदयः, २. कुछ पुरुष आकृति से अगंभीर होते हैं, गंभीरे णाममेगे गंभीरहिदए। गम्भीर: नामैक: गम्भीरहृदयः । पर हृदय से गंभीर होते हैं ३. कुछ पुरुष
आकृति से गंभीर होते हैं, पर हृदय से अगंभीर होते हैं ४. कुछ पुरुष आकृति से भी गंभीर होते हैं और हृदय से भी गंभीर
होते हैं। ५८५. चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि उदकानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-५८५. उदक चार प्रकार के होते हैं
उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्तानं नामैक: उत्तानावभासि, १. एक उदक प्रतल होता है और स्थानउत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी, उत्तानं नामैक गम्भीरावभासि, विशेष के कारण प्रतल ही लगता है, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोभासी, गम्भीरं नामक उत्तानावभासि, २. एक उदक प्रतल होता है, पर स्थानगंभीरे णाममेगे गंभीरोभासी। गम्भीर नामक गम्भीरावभासि । विशेष के कारण गंभीर लगता है, ३. एक
उदक गंभीर होता है, पर स्थान-विशेष के कारण प्रतल लगता है, ४. एक उदक गंभीर होता है और स्थान-विशेष के कारण
गंभीर ही लगता है। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाउत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्तानः नामक: उत्तानावभासी, १. कुछ पुरुष तुच्छ ही होते हैं और उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी, उत्तान: नामकः गम्भीरावभासी, तुच्छता का प्रदर्शन करने से तुच्छ ही गंभीरे णाममेगे उत्ताणोभासी, गम्भीर: नामैकः उत्तानावभासी, लगते हैं, २. कुछ पुरुष तुच्छ ही होते हैं, गंभीरे णाममेगे गंभीरोभासी। गम्भीर: नामैक: गम्भीरावभासी। पर तुच्छता का प्रदर्शन न करने से गंभीर
लगते हैं, ३. कुछ पुरुष गंभीर होते हैं, पर तुच्छता का प्रदर्शन करने से तुच्छ लगते है, ४. कुछ पुरुष गंभीर होते हैं और तुच्छता का प्रदर्शन न करने से गंभीर ही
लगते हैं। ५८६. चत्तारि उदही पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः उदधयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५८६. समुद्र चार प्रकार के होते हैं
उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदही, उत्तान: नामक: उत्तानोदधिः, १. समुद्र के कुछ भाग पहले भी प्रतल उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदही, उत्तानः नामक: गम्भीरोदधिः, होते हैं और बाद में भी प्रतल ही होते हैं,
२. समुद्र के कुछ भाग पहले प्रतल होते हैं
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ठाणं (स्थान)
४६४
स्थान ४: सूत्र ५८७ गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदही, गम्भीर: नामक: उत्तानोदधिः, पर वेला आने पर गंभीर हो जाते हैं, गंभीरे णाममेगे गंभीरोदही। गम्भीरः नामैक: गम्भीरोदधिः। ३. समुद्र के कुछ भाग वेला आने के समय
गंभीर होते हैं पर उसके चले जाने पर प्रतल हो जाते हैं, ४. समुद्र के कुछ भाग पहले भी गंभीर होते हैं और बाद में भी
गंभीर ही होते हैं, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णता, तं जहा
तद्यथाउत्ताणे णाममेगे उत्ताणहियए, उत्तानः नामैक: उत्तानहृदयः १. कुछ पुरुष विशेष भावना की उत्ताणे णाममेगे गंभीरहियए, उत्तानः नामैक: गम्भीरहृदयः, अनुपलब्धि के कारण प्रतल होते हैं और गंभीरे णाममेगे उत्ताणहियए, गम्भीर: नामैक: उत्तानहृदयः, उनका हृदय भी प्रतल ही होता है, २. कुछ गंभीरे णाममेगे गंभीरहियए। गम्भीर: नामैक: गम्भीरहृदयः । पुरुष पहले प्रतल होते हैं, पर विशेष
भावना की उपलब्धि के बाद उनका हृदय गंभीर हो जाता है, ३. कुछ पुरुष पहले गंभीर होते हैं, पर विशेष भावना के चले जाने पर वे प्रतल हो जाते हैं, ४. कुछ पुरुष विशेष भावना की स्थिरता के कारण गंभीर होते हैं और उनका हृदय भी
गंभीर होता है। ५८७. चत्तारि उदही पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः उदधयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५८७. समुद्र चार प्रकार के होते हैं
उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्तानः नामैक: उत्तानावभासी, १. समुद्र के कुछ भाग प्रतल होते हैं और उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी, उत्तानः नामैकः गम्भीरावभासी, प्रतल ही लगते हैं, २. समुद्र के कुछ भाग गंभीरे णाममेगे उत्ताणोभासी, गम्भीरः नामक: उत्तानावभासी, प्रतल होते हैं, पर गंभीर लगते हैं, ३. समुद्र गंभीरे णाममेगे गंभीरोभासी। गम्भीर: नामैक: गम्भीरावभासी। के कुछ भाग गंभीर होते हैं, पर प्रतल
लगते हैं, ४. समुद्र के कुछ भाग गंभीर
होते हैं और गंभीर ही लगते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण त्ता, तं जहा
तद्यथाउत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्तानः नामैकः उत्तानावभासी, १. कुछ पुरुष प्रतल होते हैं और प्रतल ही उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी, उत्तानः नामैक: गम्भीरावभासी, लगते हैं, २, कुछ पुरुष प्रतल होते हैं, पर गंभीरे णाममेगे उत्ताणोभासी, गम्भीर: नामैकः उत्तानावभासी, गंभीर लगते हैं, ३. कुछ पुरुष गंभीर होते गंभीरे णाममेगे गंभीरोभासी। गम्भीर: नामैक: गम्भीरावभासी। हैं, पर प्रतल लगते हैं ४. कुछ पुरुष गंभीर
होते हैं और गंभीर ही लगते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४६५
स्थान ४: सूत्र ५८५-५६०
तरग-पदं तरक-पदम्
तरक-पद ५८८. चत्तारि तरगा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः तरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५८८. तैराक चार प्रकार के होते हैं
समुदं तरामीतेगे समुदं तरति, समुद्रं तरामीत्येक: समुद्रं तरति, १. कुछ तैराक समुद्र को तैरने का संकल्प समुदं तरामीतेगे गोप्पयं तरति, समुद्रं तरामीत्येक: गोष्पदं तरति, करते हैं और उसे तैर भी जाते हैं, २. कुछ गोप्पयं तरामीतेगे समुदं तरति, गोष्पदं तरामीत्येक: समुद्रं तरति, तैराक समुद्र को तैरने का संकल्प करते गोप्पयं तरामीतेगे गोप्पयं तरति। गोष्पदं तरामीत्येकः गोष्पदं तरति । है और गोष्पद को तैरते है, ३. कुछ तैराक
गोष्पद को तैरने का संकल्प करते हैं और समुद्र को तैर जाते हैं, ४. कुछ तैराक गोष्पद को तैराने का संकल्प करते हैं
और गोष्पद को ही तैरते हैं। ५८६. चत्तारि तरगा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः तरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५८६. तैराक चार प्रकार के होते हैं---
समुदं तरेत्ता णाममेगे समुद्दे समुद्रं तरीत्वा नामकः समुद्रे विषीदति, १. कुछ तैराक सारे समुद्र को तैरकर विसीयति, समुदं तरेत्ता णाममेगे समुद्रतरीत्वा नामैक: गोष्पदे विषीदति, किनारे पर आकर विषण्ण हो जाते हैं, गोप्पए विसीयति, गोप्पयं तरेत्ता गोष्पदंतरीत्वा नामैकः समुद्रे विषीदति, २. कुछ तैराक समुद्र को तैरकर गोष्पद णाममेगे समुद्दे विसीयति, गोप्पयं गोष्पदंतरीत्वा नामैक: गोष्पदे विषीदति। में विषण्ण हो जाते हैं, ३. कुछ तैराक तरेत्ता णाममेगे गोप्पए विसीयति।
गोष्पद को तैरकर समुद्र में विषण्ण हो जाते हैं, ४. कुछ तैराक गोष्पद को तैरकर
गोष्पद में ही विषण्ण हो जाते हैं। पुण्ण-तुच्छ-पदं पूर्ण-तुच्छ-पदम्
पूर्ण-तुच्छ-पद ५६०. चत्तारि कुंभा पण्णता, तं जहा- चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
५६०. कुंभ चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ कुंभ आकार से भी पूर्ण होते हैं पुण्णे णाममेगे पुण्णे, पूर्णः नामैकः पूर्णः,
और मधु आदि द्रव्यों से भी पूर्ण होते हैं, पुण्णे गाममेगे तुच्छे, पूर्णः नामैकः तुच्छ:,
२. कुछ कुंभ आकार से पूर्ण होते हैं, पर
मधु आदि द्रव्यों से रिक्त होते है, ३. कुछ तुच्छे णाममेगे पुण्णे, तुच्छः नामक: पूर्णः,
कुंभ मधु आदि द्रव्यों से अपूर्ण होते हैं, तुच्छे णाममेगे तुच्छे। तुच्छ: नामैक: तुच्छः ।
पर आकार से पूर्ण होते हैं, ४. कुछ कुंभ मधु आदि द्रव्यों से भी अपूर्ण होते हैं और
आकार से भी अपूर्ण होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथापुणे णाममेगे पुणे, पूर्णः नामकः पूर्णः,
१. कुछ पुरुष आकार से पूर्ण होते हैं और
गुणों से भी पूर्ण होते हैं. २. कुछ पुरुष पुण्णे णाममेगे तुच्छे, पूर्णः नामैकः तुच्छ:,
आकार से पूर्ण होते हैं, पर गुणों से अपूर्ण तुच्छे णाममेगे पुण्णे, तुच्छ: नामैक: पूर्णः,
होते हैं, ३. कुछ पुरुष आकार से अपुर्ण तुच्छे णाममेगे तुच्छे। तुच्छ: नामैक: तुच्छः ।
होते हैं, पर गुणों से पूर्ण होते हैं, ४. कुछ पुरुष आकार से भी अपूर्ण होते हैं और गुणों से भी अपूर्ण होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ५६१-५६२ ५६१. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५६१. कुंभ चार प्रकार के होते हैंपुण्णे णाममेगे पुण्णोभासी, पूर्णः नामकः पूर्णावभासी,
१. कुछ कुंभ आकार से पूर्ण होते हैं और पुण्णे णाममेगे तुच्छोभासी, पूर्णः नामकः तुच्छावभासी,
पूर्ण ही लगते हैं, २. कुछ कुंभ आकार से तुच्छे गाममेगे पुण्णोभासी, तुच्छ: नामैक: पूर्णावभासी,
पूर्ण होते हैं, पर अपूर्ण से लगते हैं, ३. कुछ तुच्छे णाममेगे तुच्छोभासी। तुच्छ: नामैकः तुच्छावभासी।
कुंभ आकार से अपूर्ण होते हैं, पर पूर्ण से लगते हैं, ४. कुछ कुंभ आकार से अपूर्ण
होते हैं और अपूर्ण ही लगते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा-- पुणे णाममेगे पुण्णोभासी, पूर्णः नामैकः पूर्णावभासी,
१. कुछ पुरुष धन,श्रुत आदि से पूर्ण होते हैं पुण्णे गाममेगे तुच्छोभासी, पूर्णः नामैक: तुच्छावभासी,
और विनियोग करने के कारण पूर्ण ही तुच्छे णाममेगे पुण्णोभासी,
तुच्छ: नामैक: पूर्णावभासी, लगते हैं, २. कुछ पुरुष धन, श्रुत आदि से तुच्छे णाममेगे तुच्छोभासी। तुच्छ: नामैकः तुच्छावभासी। पूर्ण होते हैं, पर उनका विनियोग नहीं
करने के कारण अपूर्ण से लगते हैं, ३. कुछ पुरुष धन,श्रुत आदि से अपूर्ण होते हैं, पर उनका विनियोग करने के कारण पूर्ण से लगते हैं, ४. कुछ पुरुष धन, श्रुत आदि से अपूर्ण होते हैं और उनका विनियोग नहीं
करने के कारण अपूर्ण ही लगते हैं। ५६२. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५६२. कुंभ चार प्रकार के होते हैं-- पुण्णे णाममेगे पुण्णरूवे, पूर्णः नामकः पूर्णरूपः,
१. कुछ कुंभ जल आदि से पूर्ण होते हैं पुण्णे णाममेगे तुच्छरूवे,
और उनका रूप-आकार भी पूर्ण होता पूर्ण: नामैक: तुच्छरूपः, तुच्छे णाममेगे पुण्णरूवे,
है, २. कुछ कुंभ जल आदि से पूर्ण होते हैं, तुच्छ: नामैक: पूर्णरूपः,
पर उनका रूप पूर्ण नहीं होता, ३. कुछ तुच्छे णाममेगे तुच्छरूवे। तुच्छ: नामक: तुच्छरूपः ।
कुंभ जल आदि से अपूर्ण होते हैं, पर उनका रूप पूर्ण होता है, ४. कुछ कुंभ जल आदि से अपूर्ण होते हैं और उनका रूप
भी अपूर्ण होता है। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष श्रुत आदि से भी पूर्ण होते हैं पुण्णे णाममेगे पुण्णरूवे, पूर्णः नामकः पूर्णरूपः,
और रूप-वेष से भी पूर्ण होते है, २. कुछ पुण्णे णाममेगे तुच्छरूवे, पूर्णः नामैक: तुच्छरूपः,
पुरुष श्रुत आदि से पूर्ण होते हैं, पर रूप तुच्छे णाममेगे पुण्णरूवे, तुच्छ: नामैक: पूर्णरूपः,
से अपूर्ण होते हैं, ३. कुछ पुरुष श्रुत आदि तुच्छे णाममेगे तुच्छरूवे। तुच्छ: नामैक: तुच्छरूपः।
से अपूर्ण होते हैं, पर रूप से पूर्ण होते हैं, ४. कुछ पुरुष श्रुत आदि से भी अपूर्ण होते है और रूप से भी अपूर्ण होते हैं।
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ठाणं (स्थान)
४६७
स्थान ४ : सूत्र ५६३-५६४
५६३. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- ५६३. कुंभ चार प्रकार के होते हैंपुण्णेवि एगे पिय?, पूर्णोऽपि एकः प्रियार्थः,
१. कुछ कुंभ जल आदि से भी पूर्ण होते पुण्णेवि एगे अवदले, पूर्णोऽपि एक: अपदलः,
है और देखने में भी प्रिय लगते हैं, २. कुछ
कुंभ जल आदि से पूर्ण होते हैं, पर अपूर्ण तुच्छेवि एगे पियट्ट, तुच्छोऽपि एक: प्रियार्थः,
पक्व होने के कारण अपदल –असार तुच्छेवि एगे अवदले। तुच्छोऽपि एकः अपदलः ।
होते हैं, ३. कुछ कुंभ जल आदि से अपूर्ण होते हैं, पर देखने में प्रिय लगते हैं, ४. कुछ कुंभ जल आदि से भी अपूर्ण होते हैं और अपूर्ण पक्व होने के कारण अपदल
भी होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथापुण्णेवि एगे पिय? पूर्णोऽपि एक: प्रियार्थः,
१. कुछ पुरुष श्रुत आदि से भी पूर्ण होते 'पुण्णेवि एगे अवदले, पूर्णोऽपि एकः अपदलः,
हैं और प्रियार्थ-परोपकारी होने के तुच्छेवि एगे पिय?, तुच्छोऽपि एक: प्रियार्थः,
कारण प्रिय भी होते हैं, २. कुछ पुरुष श्रुत
आदि से पूर्ण होते हैं, पर अपदलतुच्छेवि एगे अवदले। तुच्छोऽपि एक: अपदलः ।
परोपकार करने में अक्षम होते हैं, ३. कुछ पुरुष श्रुत आदि से अपूर्ण होते हैं, पर प्रियार्थ—परोपकार करने के कारण प्रिय होते हैं, ४. कुछ पुरुष श्रुत आदि से भी अपूर्ण होते हैं और अपदल--परोपकार
करने में भी अक्षम होते हैं। ५६४. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा.- चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ५६४. कुंभ चार प्रकार के होते हैंपुण्णेवि एगे विस्संदति, पूर्णोऽपि एकः विष्यन्दते,
१. कुछ कुंभ जल से पूर्ण होते हैं और
झरते भी हैं, २. कुछ कुंभ जल से भी पूर्ण पुण्णेवि एगे णो विस्संदति, पूर्णोऽपि एक: नो विष्यन्दते,
होते हैं और झरते भी नहीं, ३. कुछ कुंभ तुच्छेवि एगे विस्संदति, तुच्छोऽपि एकः विष्यन्दते,
जल से भी अपूर्ण होते हैं और झरते भी तुच्छेवि एगे णो विस्संदति।।
हैं, ४. कुछ कुंभ जल से अपूर्ण होते हैं, पर तुच्छोऽपि एकः नो विष्यन्दते ।
झरते नहीं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथापुण्णेवि एगे विस्संदति, पूर्णोऽपि एक: विष्यन्दते,
१. कुछ पुरुष श्रुत आदि से भी पूर्ण होते 'पुण्णेवि एगे णो विस्संदति, पूर्णोऽपि एक: नो विष्यन्दते,
हैं और विष्यन्दी-उनका विनियोग तुच्छेवि एगे विस्संदति, तुच्छोऽपि एकः विष्यन्दते,
करने वाले भी होते हैं, २. कुछ पुरुष श्रुत तुच्छेवि एगे णो विस्संदति। तुच्छोऽपि एकः नो विष्यन्दते।
आदि से पूर्ण होते हैं, पर विष्यन्दी नहीं होते, ३. कुछ पुरुष श्रुत आदि से अपूर्ण होते हैं और विष्यन्दी होते हैं, ४. कुछ पुरुष श्रुत आदि से भी अपूर्ण होते हैं और विष्यन्दी भी नहीं होते।
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नत्र
ठाणं (स्थान)
४६८
स्थान ४ : सूत्र ५६५-५९६ चरित्त-पदं चरित्र-पदम्
चरित्र-पद ५६५. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५६५. कुंभ चार प्रकार के होते हैंभिण्णे, जज्जरिए, परिस्साई, भिन्नः, जर्जरितः, परिश्रावी, १. भिन्न--फूटे हुए, २. जर्जरित
पुराने, ३. परिश्रावी-झरने वाले, अपरिस्साई। अपरिश्रावी।
४. अपरिश्रावी नहीं झरने वाले, एवामेव चउविहे चरित्ते पण्णत्ते, एवमेव चतुर्विधं चरित्रं प्रज्ञप्तम्, । इसी प्रकार चरित्र भी चार प्रकार का तं जहातद्यथा
होता है—१. भिन्न--मूल प्रायश्चित्त के भिण्णे, 'जज्जरिए, परिस्साई , भिन्न, जर्जरितं, परिश्रावि, अपरिश्रावि। योग्य, २. जर्जरित–छेद प्रायश्चित्त के अपरिस्साई।
योग्य, ३. परिश्रावी-सूक्ष्म दोष वाला,
४. अपरिश्रावी-निर्दोष। महु-विस-पदं मधु-विष-पदम्
मधु-विष-पद ५६६. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५६६. कुंभ चार प्रकार के होते हैंमहुकुंभे णाममेगे महुपिहाणे, मधुकुम्भः नामैक: मधुपिधानः, १. कुछ कुंभ मधु से भरे हुए होते हैं और
उनके ढक्कन भी मधु का ही होता है, महुकुंभे णाममेगे विसपिहाणे, मधुकुम्भः नामैक: विषपिधानः,
२. कुछ कुंभ मधु से भरे हुए होते हैं, पर विसकुंभे णाममेगे महुपिहाणे, विषकुम्भः नामक: मधुपिधानः,
उनके ढक्कन विष का होता है, ३. कुछ विसकुंभे णाममेगे विसपिहाणे। विषकुम्भः नामैक: विषपिधानः ।
कुंभ विष से भरे हुए होते हैं, पर उनके ढक्कन मधु का होता हैं, ४. कुछ कुंभ विष से भरे हुए होते हैं और उनके ढक्कन भी
विष का होता है। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथामहुकुंभे णाममेगे महुपिहाणे, मधुकुम्भः नामैकः मधुपिधानः, १. कुछ पुरुषों का हृदय भी मधु से भरा
हुआ होता है और उनकी वाणी भी मधु महुकुंभे णाममेगे विसपिहाणे, मधुकुम्भः नामक: विषपिधानः,
से भरी हुई होती है, २. कुछ पुरुषों का विसकुंभे गाममेगे महुपिहाणे, विषकुम्भः नामैक: मधुपिधानः, हृदय मधु से भरा हुआ होता है, पर विसकुंभे णाममेगे विसपिहाणे। विषकुम्भः नामैक: विषपिधानः ।
उनकी वाणी विष से भरी हुई होती है, ३. कुछ पुरुषों का हृदय विष से भरा हुआ होता है, पर उनकी वाणी मधु से भरी हुई होती है, ४. कुछ पुरुषों का हृदय विष से भरा हुआ होता है और उनकी वाणी भी विष से भरी हुई होती
संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. हिययमपावमकलुसं, १. हृदयमपापमकलुषं, जीहाऽवि य महरभासिणी णिच्चं। जिह्वापि च मधुरभाषिणी नित्यं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, यस्मिन् पुरुषे विद्यते, से मधुकुंभे मधुपिहाणे ॥ स मधुकुम्भः मधुपिधानः ॥
संग्रहणी-गाथा (१) जिस पुरुष का हृदय निष्पाप और अकलुष होता है तथा जिसकी जिह्वा भी मधुर भाषिणी होती है वह पुरुष मधु-भृत
और मधु के ढक्कन वाले कुम्भ के समान होता है।
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ठाणं (स्थान)
४६६
स्थान ४: सूत्र ५६७-६०० २. हिययमपावमकलुसं, २. हृदयमपापमकलुषं,
(२) जिस पुरुष का हृदय निष्पाप और जोहाऽवि य कडुयभासिणी णिच्चं। जिह्वापि च कटुकभाषिणी नित्यं । अकलुष होता है, पर जिसकी जिह्वा कटुजम्मि पुरिसम्मि विज्जति, यस्मिन् पुरुषे विद्यते,
भाषिणी होती है वह पुरुष मधु-भृत और से मधुकुंभे विसपिहाणे ॥ स मधुकुम्भः विपिधानः ।
विष के ढक्कन वाले कुम्भ के समान होता है। ३. जं हिययं कलुसमयं, ३. यत् हृदयं कलुषमयं,
(३) जिस पुरुष का हृदय कलुषमय होता जीहाऽवि य मधुरभासिणी णिच्चं। जिह्वाऽपि च मधुरभाषिणी नित्यं । है, पर जिह्वा मधुर-भाषिणी होती है वह जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, यस्मिन् पुरुषे विद्यते,
पुरुष विष-भृत और मधु के ढक्कन वाले से विसकुंभे महुपिहाणे ॥ स विषकुम्भः मधुपिधानः । कुम्भ के समान होता है। ४. जं हिययं कलुसमयं, ४. यत् हृदयं कलुषमयं,
(४) जिस पुरुष का हृदय कलुषमय होता जीहाऽविय कडुयभासिणी णिच्चं। जिह्वाऽपि च कटुकभाषिणी नित्यं । है और जिह्वा भी कटु-भाषिणी होती है जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, यस्मिन् पुरुषे विद्यते,
वह पुरुष विष-भृत और विष के ढक्कन से विसकुंभे विसपिहाणे॥ स विषकुम्भः विषपिधानः ।।
वाले कुम्भ के समान होता है। उवसग्ग-पदं उपसर्ग-पदम्
उपसर्ग-पद ५६७. चउबिहा उवसग्गा पण्णत्ता, तं चतुर्विधाः उपसर्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--- ५६७. उपसर्ग चार प्रकार के होते हैंजहा
१. देवताओं से होने वाले,
२. मनुष्यों से होने वाले, दिव्वा, माणुसा, तिरिक्खजोणिया, दिव्याः मानुषाः, तिर्यग्योनिकाः,
३. तिर्यञ्चों से होने वाले, आयसंचयणिज्जा। आत्मसंचेतनीयाः।
४. स्वयं अपने द्वारा होने वाले ३२ ॥ ५६८. दिव्वा उवसग्गा चउव्विहा पण्णत्ता, दिव्याः उपसर्गाः चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, ५६८. देवताओं से होने वाले उपसर्ग चार प्रकार तं जहातद्यथा
के होते हैंहासा, पाओसा, वोमंसा, हासात्, प्रद्वेषात्, विमर्शात्,
१. हास्यजनित, २. प्रद्वेषजनित,
३. विमर्श-परीक्षा की दृष्टि से किया पृथग्विमात्राः।
जाने वाला, ४. पृथविमात्रा-उक्त
तीनों का मिश्रित रूप। ५६६. माणुसा उवसग्गा चउठिवहा मानुषाः उपसर्गाः चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, ५५९. मनुष्यों के द्वारा होने वाले उपसर्ग चार पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
प्रकार के होते हैं--- हासा, पाओसा, वीमंसा, कुसील- हासात्, प्रद्वेषात्, विमर्शात्, कुशील
१. हास्यजनित, २. प्रद्वेषजनित, पडिसेवणया। प्रतिषेवणया।
३. विमर्शजनित, ४. कुशील --प्रतिसेवन
के लिए किया जाने वाला। ६००. तिरिक्खजोणिया उवसग्गा तिर्यग्योनिकाः उपसर्गाः चतुर्विधाः ६००. तिर्यञ्चों के द्वारा होने वाले उपसर्ग चार चउविवहा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
प्रकार के होते हैंभया, पदोसा, आहारहेडं, अवच्च- भयात् प्रद्वेषात्, आहारहेतोः, अपत्य- १. भयजनित, २. प्रद्वेषजनित, लेण-सारक्खणया। लयन-संरक्षणाय।
३. आहार के निमित्त से क्रिया जाने वाला, ४. अपने बच्चों के आवास-स्थानों की सुरक्षा के लिए किया जाने वाला।
पुढोवेमाता।
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ठाणं (स्थान) ६०१. आयसंचेयणिज्जा उवसग्गा
चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा- घट्टणता, पवडणता, थंभणता, लेसणता।
४७०
स्थान ४ : सूत्र ६०१-६०४ आत्मसंचेतनीयाः उपसर्गाः चतुर्विधाः ६०१. अपने द्वारा होने वाले उपसर्ग चार प्रकार प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
के होते हैंघट्टनया, प्रपतनया, स्तम्भनया, १. संघर्ष जनित--जैसे आंख में रजः कण श्लेषणया।
गिर जाने पर उसे मलने से होने वाला कष्ट, २. प्रपतनजनित--गिरने से होने वाला कष्ट, ३. स्तम्भनता-रुधिर-गति के रुक जाने पर होने वाला कष्ट, ४. श्लेषणता पर आदि संधि-स्थलों के जुड़ जाने से होने वाला कष्ट।
कम्म-पदं
कर्म-पदम् ६०२. चउन्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं कर्म प्रज्ञप्तम्, तद्यथा
सुभे णाममेगे सुभे, शुभं नामैकं शुभं, सुभे णाममेगे असुभे, शुभं नामकं अशुभं, असुभे णाममेगे सुभे, अशुभं नामैकं शुभं, असुभे णाममेगे असुभे। अशुभं नामक अशुभम् ।
कर्म-पद ६०२. कर्म चार प्रकार के होते हैं
१. कुछ कर्म शुभ-पुण्य प्रकृति वाले होते हैं और उनका अनुबन्ध भी शुभ होता है, २. कुछ कर्म शुभ होते हैं, पर उनका अनुबन्ध अशुभ होता है ३. कुछ कर्म अशुभ होते हैं, पर उनका अनुबन्ध शुभ होता है, ४. कुछ कर्म अशुभ होते हैं और उनका अनुबन्ध भी अशुभ होता
६०३. चउन्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा- चतुविधं कर्म प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-- ६०३. कर्म चार प्रकार के होते हैं - सुभे णाममेगे सुभविवागे, शुभं नामैकं शुभविपाकं,
१. कुछ कर्म शुभ होते हैं और उनका सुभे णाममेगे असुभविवागे, शुभं नामकं अशुभविपाकं,
विपाक भी शुभ होता है, २. कुछ कर्म असुभे णाममेगे सुभविवागे, अशुभं नामैकं शुभविपाकं,
शुभ होते हैं पर उनका विपाक अशुभ असुभे णाममेगे असुभविवागे। अशुभं नामैकं अशुभविपाकम् । होता है, ३. कुछ कर्म अशुभ होते हैं, पर
उनका विपाक शुभ होता है, ४. कुछ कर्म अशुभ होते हैं और उनका विपाक भी
अशुभ होता है। ६०४. चउविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा
म प्रज्ञप्तम, तद्यथा.. ६०४. कर्म चार प्रकार के होते हैंपगडीकम्मे, ठितीकम्मे, अणुभाव- प्रकृतिकर्म, स्थितिकर्म, अनुभावकर्म, १. प्रकृति-कर्म-कर्म पुद्गलों का स्वभाव, कम्मे, पदेसकम्मे । प्रदेशकर्म ।
२. स्थिति-कर्म-कर्म पुद्गलों की कालमर्यादा, ३. अनुभावकर्म--कर्म पुद्गलों का सामर्थ्य, ४. प्रदेशकर्म-कर्म पुद्गलों का संचय।
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अर्थ (स्थान
ठाणं (स्थान)
४७१
स्थान ४ : सूत्र ६०५-६०६
संघ-पदं संघ-पदम्
संघ-पद ६०५. चउविहे संघे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संघः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ६०५. संघ चार प्रकार का होता है
समणा, समणीओ, सावगा, श्रमणाः, श्रमण्यः, श्रावकाः, श्राविकाः। १. श्रमण, २. श्रमणी, ३. श्रावक, सावियाओ।
४. श्राविका।
बुद्धि-पदं
बुद्धि-पदम् ६०६. चउन्विहा बुद्धी पण्णता, तं जहा- चतुर्विधा बुद्धिः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मिया, औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी, परिणामिया।
पारिणामिकी।
बुद्धि-पद ६०६. बुद्धि चार प्रकार की होती है --
१. औत्पत्तिकी-सहज बुद्धि, २. वैनयिकी-गुरुशुश्रूषा से उत्पन्न बुद्धि, ३. कामिकी-कार्य करते-करते बढ़ने वाली बुद्धि, ४. पारिणामिकी आयु बढ़ने के साथ-साथ विकसित होने वाली बुद्धि३५ ।
मइ-पदं मति-पदम्
मति-पद ६०७. चउन्विहा मई पण्णत्ता, तं जहा- चतुविधा मतिः प्रज्ञप्ताः , तदयथा- ६०७. मति चार प्रकार की होती है.--
उग्गहमती, ईहामती, अवायमती, अवग्रहमतिः, ईहामतिः, अवायमतिः, १. अवग्रहमति, २. ईहामति, धारणामती। धारणामतिः।
३. अवायमति, ४. धारणामति । अहवाअथवा
अथवाचउविवहा मती पण्णत्ता, तं जहा- चतुर्विधा मतिः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--
मति चार प्रकार की होती हैअरंजरोदगसमाणा, वियरोदग- अरञ्जरोदकसमाना, विदरोदकसमाना, १. घड़े के पानी के समान-अत्यल्प, समाणा, सरोदगसमाणा, सागरो- सरउदकसमाना, सागरोदकसमाना।
२. गढ़े के पानी के समान अल्प,
३. तालाब के पानी के समान---बहुतर, दगसमाणा।
४. समुद्र के पानी के समान—अपरिमेय । जीव-पदं जीव-पदम्
जीव-पद ६०८. चउन्विहा संसारसमावण्णगा चतुर्विधाः संसारसमापन्नकाः जीवाः ६०८. संसारी जीव चार प्रकार के होते हैंजीवा पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१.नरयिक, २.तिर्यक्योनिक, णेरइया, तिरिक्खजोणिया, नैरयिकाः, तिर्यग्योनिकाः, मनुष्याः, ३. मनुष्य, ४. देव। मणुस्सा, देवा।
देवाः । ६०६. चउव्विहा सव्वजीवा पण्णता, तं चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-६०६. संसारी जीव चार प्रकार के होते हैं
जहामणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, मनोयोगिनः, वाग्योगिनः, काययोगिनः, १. मनोयोगी, २. वचोयोगी अजोगी। अयोगिनः ।
३. काययोगी, ४. अयोगी।
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ठाणं (स्थान)
४७२
स्थान ४: सूत्र ६१०-६११
अथवासब जीव चार प्रकार के होते हैं१. स्त्रीवेदक, २. पुरुषवेदक, ३. नपुंसकवेदक, ४. अबेदक ।
अथवासब जीव चार प्रकार के होते हैं--
अहवा
अथवाचउब्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाजहाइत्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, स्त्रीवेदकाः, पुरुषवेदकाः, नपुंसकवेदकाः, णपुंसकवेयगा, अवेयगा। अवेदकाः । अहवा
अथवाचउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, जहा
तद्यथाचक्खुदंसणी, अचक्खुदसणी, चक्षुर्दर्शनिनः, अचक्षुर्दर्शनिनः, ओहिदसणी, केवलदसणी। अवधिदर्शनिनः, केवलदर्शनिनः । अहवा
अथवाचउन्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, जहा
तद्यथासंजया, असंजया, संजयासंजया, संयताः, असंयताः, संयताऽसंयताः, गोसंजया णोअसंजया।
नोसंयता: नोअसंयताः।
१. चक्षुदर्शनी, २. अचक्षुदर्शनी, ३. अवधिदर्शनी, ४. केवलदर्शनी। अथवा-- सब जीव चार प्रकार के होते हैं
संयत, असंयत, संयतासंयत, न संयत और न असंयत।
मित्त-अमित्त-पदं मित्र-अमित्र-पदम्
मित्र-अमित्र-पद ६१०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ६१०. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष व्यवहार से भी मित्र होते और मित्ते णाममेगे मित्ते, मित्रं नामैक मित्रं,
हृदय से भी मित्र होते हैं, २. कुछ पुरुष मित्ते णाममेगे अमित्ते, मित्रं नामैक अमित्रं,
व्यवहार से मित्र होते हैं, किन्तु हृदय से अमित्त णाममेगे मित्ते, अमित्रं नामक मित्र,
मित्र नहीं होते, ३. कुछ पुरुष व्यवहार से अमित्ते णाममेगे अमित्ते। अमित्रं नामैकं अमित्रम् ।
मित्र नहीं होते, पर हृदय से मित्र होते हैं, ४. कुछ पुरुष न व्यवहार से मित्र होते हैं
और न हृदय से मित्र होते हैं। ६११. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ६११. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहा
१. कुछ पुरुष मित्र होते हैं और उनका मित्ते णाममेगे मित्तरूवे, मित्रं नामैक मित्ररूपं,
उपचार भी मित्रवत् होता है, २. कुछ 'मित्ते णाममेगे अमित्तरूवे, मित्रं नामकं अमित्ररूपं,
पुरुष मित्र होते हैं, पर उनका उपचार अमित्ते णाममेगे मित्तरूवे, अमित्रं नामैक मित्ररूपं,
अमित्रवत् होता है, ३. कुछ पुरुष अमित्र अमित्ते णाममेगे अमित्तरूवे । अमित्रं नामक अमित्ररूपम् ।
होते हैं, पर उनका उपचार मित्रवत् होता है, ४. कुछ पुरुष अमित्र होते हैं और उनका उपचार भी अमित्रवत् होता है।
तदयथा
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ठाणं (स्थान)
४७३
स्थान ४:सूत्र ६१२.६१४
मुत्त-अमुत्त-पदं मुक्त-अमुक्त-पदम्
मुक्त-अमुक्त-पद ६१२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ६१२. पुरुष चार प्रकार के होते हैं--- जहातद्यथा
१. कुछ पुरुष द्रव्य [वस्तु] से भी मुक्त मुत्ते णाममेगे मुत्ते, मुक्तः नामैक: मुक्तः,
होते हैं और भाव [वृत्ति से भी मुक्त मुत्ते णाममेगे अमुत्ते, मुक्त: नामकः अमुक्तः,
होते हैं, २. कुछ पुरुष द्रव्य से मुक्त होते अमुत्ते णाममेगे मुत्ते, अमुक्तः नामकः मुक्तः,
हैं, पर भाव से अमुक्त होते हैं, ३. कुछ अमुत्ते णाममेगे अमुत्ते। अमुक्तः नामकः अमुक्तः।
पुरुष द्रव्य से अमुक्त होते हैं, पर भाव से मुक्त होते हैं, ४. कुछ पुरुष द्रव्य से भी अमुक्त होते हैं और भाव से भी अमुक्त
होते हैं। ६१३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, ६१३. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. कुछ पुरुष मुक्त होते हैं और उनका
व्यवहार भी मुक्तवत् होता है, २. कुछ मुत्ते णाममेगे मुत्तरूवे, मुक्तः नामैक: मुक्तरूपः,
पुरुष मुक्त होते हैं, पर उनका व्यवहार मुत्ते णाममेगे अमुत्तरूवे, मुक्त: नामकः अमुक्तरूपः,
अमुक्तवत् होता है, ३. कुछ पुरुष अमुक्त अमुत्ते णाममेगे मुत्तरूवे, अमुक्तः नामैकः मुक्तरूपः,
होते हैं, पर उनका व्यवहार मुक्तवत् अमुत्ते णाममेगे अमुत्तरूवे। अमुक्तः नामैक: अमुक्तरूपः ।
होता है, ४. कुछ पुरुष अमुक्त होते हैं और उनका व्यवहार भी अमुक्तवत् होता है।
गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम्
गति-आगति-पद ६१४. पंचिदियतिरिक्खजोणिया चउगइया पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः चतर्गतिकाः ६१४. पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिकों की चार स्थानों चआगइया पण्णत्ता, तं जहा- चतुरागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
में गति तथा चार स्थानों में आगति हैपंचिदियतिरिक्खजोणिए पंचिदिय- पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पञ्चेन्द्रिय
पंचेन्द्रियतिर्यकयोनिक जीव पंचेन्द्रियतिरिक्खजोणिएसु उवदज्जमाणे तिर्यग्योनिकेषु उपपद्यमानो नैरयिकेभ्यो
तिर्यक्योनि में उत्पन्न होता हुआ नैरणेरइएहितोवा, तिरिक्खजोणिए- वा, तिर्यग्योनिकेभ्यो वा, मनुष्येभ्यो वा,
यिकों, तिर्थक्योनिकों, मनूष्यों तथा देवों हितोवा, मणुस्सेहितोवा, देवेहितो देवेभ्यो वा उपपद्येत।
से आगति करता है, वा उववज्जेज्जा। से चेव णं से पंचिदियतिरिवख- स चैव असौ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः
पंचेन्द्रियतिर्थक्योनिक जीव पंचेन्द्रियजोणिए पंचिदियतिरिक्खजोणियत्तं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकत्वं विप्रजहत्
तिर्थक्योनि को छोड़ता हुआ नरयिकों, विप्पजहमाणे णेरइयत्ताए वा, नैरयिकतया वा, तिर्यग्योनिकतया वा,
तिर्यक्योनिकों, मनुष्यों तथा देवों में 'तिरिक्खजोणियत्ताए वा, मनुष्यतया वा, देवतया वा गच्छेत् ।
गति करता है। मणुस्सत्ताए वा, देवत्ताए वा गच्छेज्जा।
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ठाणं (स्थान)
४७४
स्थान ४ : सूत्र ६१५-६१७ ६१५. मणुस्सा चउगइआ चउआगइआ मनुष्याः चतुर्गतिकाः चतुरागतिकाः ६१५. मनुष्य चार स्थानों से गति तथा चार पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
स्थानों से आगति करता है--- मणस्से मणस्सेसु उववज्जमाणे मनुष्यः मनुष्येष उपपद्यमानः नरयिकेभ्यो मनुष्य मनुष्य में उत्पन्न होता हुआ णेरइएहितो वा, तिरिक्खजोणिए- वा, तिर्यग्योनिकेभ्यो वा, मनुष्येभ्यो वा, नैरयिकों, तिर्यञ्चयोनिकों, मनुष्यों तथा हितोवा, मणस्सेहितोवा, देवेहितो देवेभ्यो वा उपपद्येत।
देवों से आगति करता है, वा उववज्जेज्जा। से चेव णं से मणुस्से स चैव असौ मनुष्य: मनुष्यत्वं विप्र- मनुष्य, मनुष्यत्व को छोड़ता हुआ नैरमणुसत्तं विप्पजहमाणे णेरइयत्ताए जहत् नैरयिकतया वा, तिर्यग्योनिकतया यिकों, तिर्यक्योनिकों, मनुष्यों तथा देवों वा, तिरिक्खजोणियत्ताए वा, वा, मनुष्यतया वा, देवतया वा गच्छेत् । में गति करता है। मणुस्सत्ताए वा, देवत्ताए वा गच्छेज्जा।
til
संजम-असंजम-पदं संयम-असंयम-पदम्
संयम-असंयम-पद ६१६. बेईदियाणं जीवा असमारभ- द्वीन्द्रियान जीवान असमारभमाणस्य ६१६. द्वीन्द्रिय जीवों का आरम्भ नहीं करने माणस्स चउन्विहे संजमे कज्जति, चतुर्विधः संयमः क्रियते, तद्यथा
वाले के चार प्रकार का संयम होता हैतं जहा
१. रसमय सुख का वियोग नहीं करने से, जिन्भामयातो सोक्खातो अवव- जिह्वामयात् सौख्याद् अव्यपरोपयिता २. रसमय दुःख का संयोग नहीं करने से, रोविता भवति, जिब्भामएणं भवति, जिह्वामयेन दुःखेन असंयोजयिता ।
३. स्पर्शमय सुख का वियोग नहीं करने दुखणं असंजोगेत्ता भवति, फासा- भवति, स्पर्शमयात् सौख्याद् अव्यपरोप
से, ४. स्पर्शमय दुःख का संयोग नहीं मयातो सोक्खातो अववरोवेत्ता यिता भवति, स्पर्शमयेन दुःखेन असंयोज
करने से। भवति, फासामएणं दुक्षेणं यिता भवति।
असंजोगिता भवति। ६१७. बेइंदिया णं जीवा समारभमाणस्स द्वीन्द्रियान् जीवान् समारभमाणस्य ६१७. द्वीन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले के
चिउविधे असंजमे कज्जति, तं चतविधः असंयमः क्रियते, तद्यथा- चार प्रकार का असंयम होता हैजहाजिन्भामयातो सोक्खातो जिह्वामयात् सौख्याद् व्यपरोपयिता १. रसमय सुख का वियोग करने से, ववरोवित्ता भवति, जिब्भामएणं भवति, जिह्वामयेन दुःखेन संयोजयिता २. रसमय दुःख का संयोग करने से, दुक्खणं संजोगित्ता भवति, फासा- भवति,स्पर्शमयात् सौख्याद् व्यपरोपयिता ३. स्पर्शमय सुख का वियोग करने से, मयातो सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवति, स्पर्शमयेन दुःखेन संयोजयिता ४. स्पर्शमय दुःख का संयोग करने से। भवति , 'फासामएणं दुक्खेणं भवति । संजोगित्ता भवति ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र ६१८-६२२
किरिया-पदं क्रिया-पदम्
क्रिया-पद ६१८. सम्मद्दिट्टियाणं णेरइयाणं चत्तारि सम्यग्दृष्टिकानां नैरयिकाणां चतस्रः ६१८. सम्यग्दृष्टि नैरयिकों के चार क्रियाएं किरियाओ पण्णताओ, तं जहा- क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा....
होती हैंआरंभिया, पारिग्गहिया, माया- आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्य- १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, वत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया। यिकी, अप्रत्याख्यानक्रिया।
३. मायाप्रत्ययिकी,
४. अप्रत्याख्यानक्रिया। ६१६. सम्मदिट्ठियाणमसुरकुमाराणं सम्यग्दृष्टिकानां असुरकुमाराणां चतस्रः ६१६. सम्यग्दृष्टि असुरकुमारों के चार क्रियाएं चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तं क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होती हैंजहा'आरंभिया, पारिग्गहिया, माया- आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्य- १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी,
३. मायाप्रत्ययिकी, वत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया। यिकी, अप्रत्याख्यानक्रिया।
४. अप्रत्याख्यानक्रिया। ६२०. एवं-विर्गालदियवज्जं जाव एवम्-विकलेन्द्रियवर्ज यावत् वैमा- ६२०. इसी प्रकार विकलेन्द्रियों को छोडकर वेमाणियाणं। निकानाम् ।
सभी दण्डकों में चार-चार क्रियाएं होती
गुण-पदं गुण-पदम्
गुण-पद ६२१. चहि ठाणेहि संते गुणे णासेज्जा, चतुभिः स्थानैः संतो गुणान् नाशयेत्, ६२१. चार स्थानों से पुरुष विद्यमान गुणों का तं जहातद्यथा--
भी विनाश करता है उन्हें अस्वीकार कोहेणं, पडिणिवेसेणं, अकयण्णुयाए, क्रोधेन, प्रतिनिवेशेन, अकृतज्ञतया, करता है। मिच्छत्ताभिणिवेसेणं। मिथ्याभिनिवेशेन ।
१. क्रोध से, २. प्रतिनिवेश-दूसरों की पूजा-प्रतिष्ठा सहन न करने से, ३. अकृतज्ञता से, ४. मिथ्याभिनिवेश
दुराग्रह से। ६२२. चहि ठाणेहिं असंते गुणे दीवेज्जा, चतुर्भिः स्थानैः असंतो गुणान् दीपयेत्, ६२२. चार स्थानों से पुरुष अविद्यमान गुणों का तं जहा। तद्यथा
भी दीपन करता है-वरण या करता हैअब्भासवत्तियं परच्छंदाणुवत्तियं, अभ्यासवर्तितं, परच्छन्दानुवतितं, १. गुण ग्रहण करने का स्वभाव होने से, कज्जहेडं, कतपडिकतेति वा। कार्यहेतोः, कृतप्रतिकृतक इति वा। २. पराये विचारों का अनुगमन करने से,
३. प्रयोजन सिद्धि के लिए सामने वाले को अनुकूल बनाने की दृष्टि से, ४. कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करने के लिए।
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ठाणं (
(स्थान)
सरीर-पदं
६२५. रइयाणं चाणणिव्वत्तिते
सरीरे पण्णत्ते, तं जहा - कोहवित्तिए, 'माणणिव्वत्तिए, मायाणिव्वत्तिए, लोभ णिव्वत्तिए
।
६२३. रइयाणं
चह
ठाणेहिं
सरीरुपपत्ती सिया, तं जहाकोहेणं, माणेणं, माया, लोभेणं । क्रोधेन, मानेन, मायया, लोभेन ।
६२४. एवं जाव वैमाणियाणं ।
एवम् - यावत् वैमानिकानाम् ।
नैरयिकाणां
प्रज्ञप्तम्, तद्यथा
क्रोधनिर्वर्तितं, माननिर्वर्तितं मायानिर्वर्तितं, लोभ निर्वर्तितम् ।
एवम् - यावत् वैमानिकानाम् ।
६२६. एवं
— जाव वैमाणियाणं ।
आउ-बंध-पदं
६२८. चहि ठाणेहिं जीवा गेरइया - उत्ताए कम्मं पति तं जहामहारंभताए, महापरिग्गहयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं ।
४७६
६२६. चउहि ठाणेह जीवा तिरिक्ख जोणिय [ आउय ? ] त्ताए कम्मं
पगति, तं जहा -
माइल्लताए,
णिय डिल्लताए, अलियवयणेणं, कूडतुलकूडमाणेणं ।
धम्म-दार पदं
धर्म-द्वार-पदम्
५२७. चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं चत्वारि धर्मद्वाराणि जहा
तद्यथा—
खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे ।
क्षान्तिः, मुक्तिः, आर्जवं मार्दवम् ।
शरीर-पदम्
शरीर - पद
नैरयिकाणां चतुभिः स्थानैः शरीरोत्पत्तिः ६२३. चार कारणों से नैरयिकों के शरीर की स्यात्, तद्यथा— उत्पति होती है
१. क्रोध से,
३. माया से,
६२४. इसी प्रकार सभी दण्डकों के चार कारणों से शरीर की उत्पत्ति होती है।
चतुः स्थाननिर्वर्तितं शरीरं ६२५. नैरयिकों के शरीर चार कारणों से निर्वत्र्तत निष्पन्न होते हैं
१. क्रोध निर्वर्तित, २. मान निर्वर्तित,
३. माया निर्वर्तित,
४. लोभ निर्वत्तित ।
स्थान ४ : सूत्र ६२३-६२६
चतुभिः स्थानः जीवाः तिर्यग्योनिक ( आयुष्क ? ) तथा कर्म प्रकुर्वन्ति,
२. मान से,
४. लोभ से ।
धर्म-द्वार पद
प्रज्ञप्तानि, ६२७. धर्म के द्वार चार हैं
१. क्षान्ति, २. मुक्ति, ३. आर्जव, ४. मार्दव |
तद्यथा—
मायितया, निकृतिमत्तया, अलीकवचनेन, कूटतुलाकूटमानेन ।
आयुर्बन्ध-पदम्
आयुर्बन्ध-पद
अर्जन करता है
चतुभिः स्थानैः जीवाः नैरयिकायुष्कतया ६२८. चार स्थानों से जीव नरक योग्य कर्म का कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा— महारम्भतया, महापरिग्रहतया, पञ्चेन्द्रियवधेन, कुणिमाहारेण ।
६२६. इसी प्रकार सभी दण्डकों के शरीर चार कारणों से निर्वर्तित होते हैं।
१. महारम्भ से २. महापरिग्रह से
३. पंचेन्द्रिय वध से
अमर्यादित हिंसा से,
अमर्यादित संग्रह से,
४. कुणापाहार-मांस भक्षण से ।
६२९. चार स्थानों से जीव तिर्यकयोनि के योग्य
कर्म का अर्जन करता है
१. माया - मानसिक कुटिलता से,
२. निकृत — ठगाई से,
३. असत्यवचन से,
४. कूट तोल- माप से ।
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ठाणं (स्थान)
६३०. चउहि ठाणेह जीवा मणुस्साउत्ताए कम्मं गति, तं जहा— पगतिभद्दताए, पगतिविणीययाए, साक्कोसयाए, अमच्छरिताए ।
६३१. चहि ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगति, तं जहासरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालवम्मेणं, अकाम णिज्जराए ।
वजण आइ-पदं ६३२. चउव्विहे वज्जे पण्णत्ते, तं जहा— तते, वितते, घणे, भुसिरे ।
६३३. चउव्वि णट्टे पण्णत्ते, तं जहा - चिए, रिभिए, आरभडे, भसोले ।
६३४. चउबिहे गेए पण्णत्ते, तं जहाउक्खित्तए, पत्तए, मंदए, रोविंदए ।
६३५. चव्विहे मल्ले पण्णत्ते, तं जहाथिमे, वेढिमे, पूरिमे, संघातिमे ।
४७७
स्थान ४ : सूत्र ६३०-६३६
चतुभिः स्थानैः जीवाः मनुष्यायुष्कतया ६३०. चार स्थानों से जीव मनुष्य योग्य कर्मों कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा— का अर्जन करता है— प्रकृतिभद्रतया, प्रकृतिविनीततया, सानुक्रोशतया, अमत्सरिकतया ।
१. प्रकृति भद्रता से, २. प्रकृति विनीतता
से, ३. सदय-हृदयता से,
४. परगुणसहिष्णुता से ।
चतुभिः स्थानैः जीवा देवायुष्कतया कर्म ६३१. चार स्थानों से जीव देव योग्य कर्मों का प्रकुर्वन्ति, तद्यथा— अर्जन करता है - सरागसंयमेन,
संयमासंयमेन,
१. सराग संयम से, २. संयमासंयम से,
बालतपः कर्मणा, अकामनिर्जरया ।
वाद्य-नृत्यादि-पदम्
चतुर्विधं वाद्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— ततं विततं धनं, शुषिरम् ।
चतुर्विधं नाट्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाअंचितं, रिभितं, आरभट, भषोलम् ।
चतुर्विधं गेयं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— उत्क्षिप्तकं, पत्रकं, मंद्रकं, रोविंदकम् ।
चतुविधं माल्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— ग्रन्थिमं, वेष्टिमं, पूरिमं, संघातिमम् ।
६३६. चउव्विहे अलंकारे पण्णत्ते, तं चतुविधः अलङ्कारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा केशालङ्कारः, वस्त्रालङ्कारः, माल्यालङ्कारः, आभरणालङ्कारः ।
जहा -
सालंकारे, वत्थालंकारे, मल्लालंकारे, आभरणालंकारे ।
३. बाल तपः कर्म से,
४. अकामनिर्जरा से
वाद्य नृत्यादि-पद ६३२. वाद्य चार प्रकार के होते हैं
१. तत - वीणा आदि,
२. वितत ढोल आदि, ३. घन – कांस्य ताल आदि,
४. शुषिर - बांसुरी आदि १३८ ॥ ६३३. नाट्य चार प्रकार के होते हैं१. अंचित, २. रिभित, ३. आरभट, ४. भषोल " । ६३४. गेय चार प्रकार के होते हैं
१. उत्क्षिप्तक, २. पत्रक, ३. मंद्रक, ४. रोविन्दक १४० । ६३५. माला चार प्रकार की होती है-
१. ग्रन्थिम - गुंथी हुई, २. वेष्टिमफूलों को लपेटने से मुकुटाकार बनी हुई, ३. पुरिम भरने से बनी हुई, ४. संघातिम एक पुष्प की नाल से दूसरे पुष्प को जोड़कर बनाई हुई । ६३६. अलंकार चार प्रकार के होते हैं
१. केशालंकार, २ . वस्त्रालंकार, ३. माल्यालंकार, ४. आभरणलंकार ।
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ठाणं (स्थान)
४७८
स्थान ४ : सूत्र ६३७-६४१ ६३७. चउव्विहे अभिणए पण्णत्ते, तं चतुर्विधः अभिनयः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-- ६३७. अभिनय चार प्रकार का होता हैजहा
१. दाष्टान्तिक, २. प्रातिश्रुत, विट्ठतिए, पाउिसुते, सामण्णओ- दार्टान्तिकः, प्रातिश्रुतः, सामान्यतो- ३. सामान्यतोविनिपातिक, विणिवाइयं, लोगमज्झावसिते। विनिपातिकः, लोकमध्यावसितः । ४. लोकमध्यावसित।
विमाण-पदं विमान-पदम्
विमान-पद ३८. सणंकुमार-माहिदेसु णं कप्पेसु सनत्कुमार-माहेन्द्रेषु कल्पेषु विमानानि ६३८. सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक में विमाणा चउवण्णा पण्णत्ता, तं चतुर्वर्णानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
विमान चार वर्गों के होते हैंजहा
नीलानि, लोहितानि, हारिद्राणि, १. नील वर्ण के, २. लोहित वर्ण के, णीला, लोहिता, हालिद्दा, शुक्लानि ।
३. हारिद्र वर्ण के, ४. शुक्ल वर्ण के। सुकिल्ला।
देव-पदं देव-पदम्
देव-पद ६३६. महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु महाशुक्र-सहस्रारेषु कल्पेसु देवानां भव- ६३६. महाशुक्र तथा सहस्रार देवलोक में देव
देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा धारणीयानि शरीरकाणि उत्कृष्टेन ताओं का भवधारणीय शरीर ऊंचाई में उक्कोसेणं चत्तारि रयणीओ चतस्रः रत्नीः ऊवं उच्चत्वेन उत्कृष्टतः चार रत्नि के होते हैं। उच्चत्तणं पण्णत्ता।
प्रज्ञप्तानि।
गब्भ-पदं गर्भ-पदम्
गर्भ-पद ६४०. चत्तारि दगगब्भा पण्णत्ता, तं चत्वारः दकगर्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ६४०. उदक के चार गर्भ होते हैं--- जहा
१. ओस, २. मिहिका-कुहासा, उस्सा, महिया, सीता, उसिणा। अवश्यायाः, महिकाः, शीताः, उष्णाः। ३. अतिशीत, ४. अतिउष्ण । ६४१. चत्तारि दगगब्भा पण्णत्ता, तं चत्वारः दकगर्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ६४१. उदक के चार गर्भ होते हैंजहा
१. हिमपात, २. अभ्रसंस्तृत-आकाश का हेमगा, अन्भसंथडा, सीतोसिणा, हैमकाः, अभ्रसंस्तृताः, शीतोष्णा:, बादलों से ढंका रहना, ३. अतिशीतोष्ण, पंचरूविया। पञ्चरूपिकाः।
४. पंचरूपिका—गर्जन, विद्युत, जल, वात तथा बादलों के संयुक्त योग
से। संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
संग्रहणी-गाथा १. माहे उ हेमगा गम्भा, १. माघे तु हैमका: गर्भाः,
माघ में हिमपात से उदक गर्भ रहता है। फग्गुणे अन्भसंथडा। फाल्गुने अभ्रसंस्तृताः ।
फाल्गुन मे आकाश के बादलों से आच्छन्न
होने से उदक गर्भ रहता है। सितोसिणा उ चित्ते, शीतोष्णास्तु चैत्रे,
चत्र में अतिशीत तथा अतिउष्ण से उदक वइसाहे पंचरूविया॥ वैशाखे पंचरूपिकाः ॥
गर्भ रहता है। वैशाख में पंचरूपिका होने से उदक गर्भ रहता है।
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ठाणं (स्थान)
४७६
स्थान ४ : सूत्र ६४२-६४५ ६४२. चत्तारि मणुस्सीगन्ना पण्णत्ता, चत्वारः मानुषीगर्भाः प्रज्ञप्ताः, ६४२. स्त्रियों के गर्भ चार प्रकार के होते हैंतं जहातद्यथा
१. स्त्री के रूप में, २. पुरुष के रूप में, इत्थित्ताए, पुरिसत्ताए, णपुंसगत्ताते, स्त्रीतया, पुरुषतया, नपुंसकतया, । ३. नपुंसक के रूप में, ४. बिम्ब के रूप बिबत्ताए। बिम्बतया।
में विभिन्न विचित्र आकृति के रूप में।
संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
संग्रहणी-गाथा १. अप्पं सुक्कं बहु ओयं, १. अल्पं शुक्र बहु ओजः,
शुक्र अल्प होता है और ओज अधिक
होता है तब स्त्री पैदा होती है। इत्थी तत्थ पजायति। स्त्री तत्र प्रजायते ।
ओज अल्प होता है और शुक्र अधिक अप्पं ओयं बहु सुक्क, अल्पं ओजः बहु शुक्र,
होता है तब पुरुष पैदा होता है। पुरिसो तत्थ जायति ॥ पुरुषस्तत्र जायते।
रक्त और शुक्र दोनों समान होते हैं तब २. दोण्हंपि रत्तसुक्काणं, २. द्वयोरपि रक्तशुक्रयोः,
नपुंसक पैदा होता है। तुल्लभावे णपुंसओ। तुल्यभावे नपुसकः।
वायु-विकार के कारण स्त्री के ओज के इत्थी-ओय-समायोगे, स्त्र्योजः समायोगे,
समायुक्त हो जाने से --जम जाने से बिंब बिबं तत्थ पजायति ॥ बिम्बं तत्र प्रजायते ॥
होता है। पुत्ववत्थु-पदं पूर्ववस्तु-पदम्
पूर्ववस्तु-पद ६४३. उप्पायपुव्वस्स णं चत्तारि चूलवत्थू उत्पादपूर्वस्य चत्वारि चूलावस्तूनि ६४३. उत्पाद पूर्व [ चौदह पूर्व में पहले पूर्व] पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि ।
के चूला वस्तु चार हैं।
काव्य-पद
कव्व-पदं ६४४. चउन्विहे कव्वे पण्णत्ते, तं जहा
.
चतर्गवति
काव्य-पदम्
नि काव्यानि तद्यथागद्यं, पद्यं, कथ्यं, गेयम्।
प्रज्ञप्तानि. ६४४. काव्य चार प्रकार के होते हैं--
१. गद्य, २. पद्य, ३. कथ्य, ४. गेय"।
गज्जे, पज्जे, कत्थे, गेए।
समुग्घात-पदं समुद्घात-पदम्
समुद्घात-पद ६४५. णेरइयाणं चत्तारि समुग्धाता नैरयिकाणां चत्वारः समुद्घाताः प्रज्ञप्ता, ६४५. नैरयिकों के चार प्रकार का समुद्घात पण्णत्ता, तं जहा- तद्यथा
होता है-- वेयणासमुग्धाते, कसायसमुग्धाते, वेदनासमुद्घातः, कषायसमुद्घातः, १. वेदना-समुद्घात, २. कषाय-समुद्घात, मारणंतियसमुग्धाते, वेउव्विय- मारणांतिकसमुद्घातः, वैक्रियसमुद्घातः। ३. मारणांतिक-समुद्धात -अन्त समय समुग्घाते।
[मृत्युकाल में प्रदेशों का बहिर्गमन, ४. वैक्रिय-समुद्घात।
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४८०
ठाणं (स्थान) ६४६. एवं—वाउक्काइयाणवि।
एवम्—वायुकायिकानामपि।
स्थान ४ : सूत्र ६४७-६५१ ६४६. इसी प्रकार वायु के भी चार प्रकार का
समुद्घात होता है।
चोदसपुन्वि-पदं चतुर्दशपूर्वि-पदम्
चतुर्दशपूविपद ६४७. अरहतो णं अरि?णेमिस्स चत्तारि अर्हतः अरिष्टनेमे: चत्वारि शतानि ६४७. अर्हत् अरिष्टनेमि के चार सौ शिष्य
सया चोद्दसपुवीणमजिणाणं चतुर्दशपूर्विणां अजिनानां जिनसंकाशानां चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे। वे जिन नहीं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसण्णि- सर्वाक्षरसन्निपातिनां जिनः (जिनानां?) होते हुए भी जिन के समान सर्वाक्षर वाईणं जिणो [जिणाणं?] इव इव अवितथं व्याकुर्वाणानां उत्कर्षिता सन्निपातिक तथा जिन की तरह अवितथ अवितथं वागरमाणाणं उक्कोसिया चतुर्दशपूविसंपदा आसीत् ।
भाषी थे। यह उनके चौदह पूर्वी शिष्यों चउद्दसपुब्विसंपया हुत्था।
की उत्कृष्ट सम्पदा थी।
वादि-पदं वादि-पदम
वादि-पद ६४८. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य चत्वारि ६४८. श्रमण भगवान् महावीर के चार सौ वादी
चत्तारि सया वादीणं सदेवमणुया- शतानि वादिनां सदेवमनुजासुरायां शिष्य थे। वे देव-परिषद्, मनुज-परिषद् सुराए परिसाए अपराजियाणं परिषदि अपराजितानां उत्कर्षिता तथा असुर-परिषद् से अपराजेय थे। यह उक्कोसिता वादिसंपया हुत्था। वादिसंपदा आसीत् ।
उनके वादी शिष्यों की उत्कृष्ट सम्पदा
थी।
कप्प-पदं कल्प-पदम्
कल्प-पद ६४६. हेटिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंद- अधस्तना: चत्वारः कल्पाः अर्धचन्द्र- ६४६. निचले चार देवलोक अर्धचन्द्र-संस्थान से
संठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा- संस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- संस्थित होते हैंसोहम्मे, ईसाणे, सणंकुमारे, सौधर्मः, ईशानः, सनत्कुमारः, माहेन्द्रः। १. सौधर्म, २. ईशान, माहिदे।
३. सनत्कुमार, ४. माहेन्द्र। ६५०. मझिल्ला चत्तारि कप्पा पडि- मध्यमाः चत्वारः कल्पाः परिपूर्णचन्द्र. ६५०. मध्य के चार देवलोक परिपूर्ण चन्द्र
पुण्णचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं संस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- संस्थान से संस्थित होते हैंजहा
१. ब्रह्मलोक, २. लांतक, बंभलोगे, लंतए, महासुक्के, ब्रह्मलोकः, लांतकः, महाशुक्रः, सहस्रारः। ३. महाशुक्र, ४. सहस्रार।
सहस्सारे। ६५१. उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंद- उपरितनाः चत्वारः कल्पा: अर्धचन्द्र- ६५१. ऊपर के चार देवलोक अर्धचन्द्र-संस्थान
संठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा- संथानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- से संस्थित होते हैंआणते, पाणते, आरणे, अच्चुते। आनतः, प्राणतः, आरणः, अच्युतः । १. आनत, २. प्राणत, ३. आरण,
४. अच्युत।
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ठाणं (स्थान)
४८ १
समुद्द-पदं
समुद्र-पदम्
समुद्र - पद
६५२. चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता, चत्वारः समुद्राः प्रत्येकरसाः प्रज्ञप्ताः, ६५२. चार समुद्र प्रत्येक रस -- एक दूसरे से तं जहा - तद्यथा—
भिन्न रस वाले होते हैं
लवणोदे, वरुणोदे, खीरोदे, घतोदे । लवणोदकः, वरुणोदः, क्षीरोदकः,
घृतोदकः ।
१. लवणोदक - नमक- रस के समान खारे पानी वाला, २ . वरुणोदक - सुरा-रस के समान पानी वाला, ३. क्षीरोदक - दूधरस के समान पानी वाला, ४. घृतोदकघृत रस के समान पानी वाला ।
कसाय-पदं
कषाय-पदम्
६५३. चत्तारि आवत्ता पण्णत्ता, तं चत्वारः आवर्त्ताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाजहा
खरावत्ते उष्णतावत्ते, गूढावत्ते, खरावर्त्तः, उन्नतावर्त्तः, गूढावर्त्तः, आमिसावत्ते । आमिषावर्त्तः ।
एवामेव चत्तारि कसाया पण्णत्ता, एवमेव चत्वारः कषायाः प्रज्ञप्ताः, जहा -- तद्यथा-
खरावत्तसमाणे कोहे, उष्णतावत्तसमाणे माणे, गूढवत्तसमाणे माया, आमिसावत्तसमाणे लोभे । खरावत्तसमाणं कोहं अणुपविट्ट जीवे कालं करेति णेरइएस उववज्जति ।
● उष्णतावत्तसमाणं माणं अणुपट्टे जीवे कालं करेति, रइएसु उववज्जति । गूढावत्तसमाणं मायं अणुपविट्ठ े जीवे कालं करेति णेरइएसु उववज्जति ।
खरावर्त्तसमानः क्रोधः, उन्नतावर्त्तसमानः मानः, गूढावर्त्तमानः माया, आमिषावर्त्तसमानः लोभः । खरावर्त्तसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टः जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु उपपद्यते ।
उन्नतावर्त्तसमानं मानं अनुप्रविष्टः जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु उपपद्यते ।
गूढावर्त्तसमानां मायां अनुप्रविष्टः जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु उपपद्यते ।
आमिसावत्तसमा लोभमणुपविट्ठ े आमिषावर्त्तसमानं लोभं अनुप्रविष्टः जीवे कालं करेति णेरइएस जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु उपपद्यते । उववज्जति ।
स्थान ४ : सूत्र ६५२-६५३
कषाय-पद
६५३. आवर्त चार प्रकार के होते हैं
१. खरावर्त - भंवर, २. उन्नतावर्त --- पर्वत शिखर पर चढ़ने का मार्ग या वातूल, ३. गूढावर्त --- गेंद की गुंथाई या वनस्पतियों के अन्दर होने वाली गांठ, ४. आमिषावर्त-मांस के लिए शकुनिका आदि का आकाश में चक्कर काटना । इसी प्रकार कषाय भी चार प्रकार के होते हैं - १. क्रोध -खरावर्त के समान, २. मान – उन्नतावर्त के समान, ३. माया - गूढावर्त के समान, ४. लोभ आमिषावर्त के समान । खरावर्त के समान क्रोध में वर्तमान जीव मरकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है ।
उन्नावर्त के समान मान में वर्तमान जीव मरकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है।
गूढावर्त के समान माया में वर्तमान जीव मरकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है ।
आमिषावर्त के समान लोभ में वर्तमान जीव मरकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है ।
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ठाणं (स्थान)
४८२
स्थान ४ : सूत्र ६५४-६६२
णक्खत्त-पदं नक्षत्र-पदम
नक्षत्र-पद ६५४. अणुराहाणक्खत्ते चउत्तारे पण्णत्ते। अनुराधानक्षत्रं चतुष्तारं प्रज्ञप्तम्। ६५४. अनुराधा नक्षत्र के चार तारे हैं। ६५५. पुव्वासाढाणक्खत्ते चउत्तारे पूर्वाषाढानक्षत्रं चतुष्तारं प्रज्ञप्तम्। ६५५. पूर्वाषाढा नक्षत्र के चार तारे हैं।
पण्णत्ते । ६५६. उत्तरासाढाणक्खत्ते चउत्तारे उत्तराषाढानक्षत्रं चतुष्तारं प्रज्ञप्तम्। ६५६. उत्तराषाढा नक्षत्र के चार तारे हैं।
पण्णत्ते।
पावकम्म-पदं पापकर्म-पदम्
पापकर्म-पद ६५७. जीवाणं चउट्ठाणणिब्वत्तिते पोग्गले जीवाः चतुःस्थाननिर्वतितान् पुद्गलान् ६५७. जीवों ने चार स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों
पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा को पाप कर्म के रूप में ग्रहण किया है, वा चिणिस्संति वाचेष्यन्ति वा
ग्रहण करते हैं तथा ग्रहण करेंगेरइयणिव्वत्तिते, तिरिक्ख- नैरयिकनिर्वतितान्, तिर्यग्योनिक- १. नैरयिक निर्वतित, जोणियणिव्वत्तिते, मणुस्स- निर्वतितान्, मनुष्यनिर्वतितान्, २. तिर्यक्योनिक निर्वतित, णिव्वत्तिते, देवणिव्वत्तिते। देवनिर्वतितान्।
३. मनुष्य निर्वतित, ४. देव निर्वतित । ६५८. एवं—उवचिणिसु वा उवचिणंति एवम्—उपाचेषुः वा उपचिन्वन्ति वा ६५८. इसी प्रकार जीवों ने चतुःस्थान निर्वतित वा उवचिणिस्संति वा। उपचेष्यन्ति वा।
पुद्गलों का उपचय, बंध, उदीरण, वेदन एवं—चिण-उवचिण-बंध एवम्-चय-उपचय-बन्ध
तथा निर्जरण किया है, करते हैं और उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव । उदीर-वेदाः तथा निर्जरा चैव ।
करेंगे।
पोग्गल-पदं पुद्गल-पदम्
पुद्गल पद ६५६. चउपदेसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। चतुःप्रदेशिकाः स्कन्धाः अनन्ताः, प्रज्ञप्ताः । ६५६. चतुःप्रादेशिक स्कंध अनन्त हैं। ६६०. चउपदेसोगाढा पोग्गला अणंता चतुः प्रदेशावगाढाः पुद्गलाः अनन्ताः ६६०. चतुःप्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त हैं। पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । ६६१. चउसमयद्वितीया पोग्गला अणंता चतःसमयस्थितिकाः पूदगलाः अनन्ताः ६६१. चार समय की स्थिति वाले पुद्गल पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः ।
अनन्त हैं। ६६२. चउगुणकालगा पोग्गला अणंता चतुर्गुणकालकाः पुद्गला अनन्ताः यावत् ६६२. चार गुण काले पुद्गल अनन्त हैं। इसी जाव चउगुणलुक्खापोग्गला अणंता
क्षाः पुद्गलाः अनन्ताः प्रकार सभी वर्ण, गंध, रस तथा पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः ।
स्पर्शों के चार गुण वाले पुद्गल अनन्त
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टिप्पणियाँ
स्थान- ४
१ अन्तक्रिया (सू०
मृत्यु-काल में मनुष्य का स्थूलशरीर छूट जाता है। सूक्ष्मशरीर - तेजस और कार्मण उसके साथ लगे रहते हैं । कार्मणशरीर के द्वारा फिर स्थूलशरीर निष्पन्न हो जाता है । अतः स्थूलशरीर के छूट जाने पर भी सूक्ष्मशरीर की सत्ता में जन्म मरण की परम्परा का अन्त नहीं होता। उसका अन्त सूक्ष्मशरीर का विसर्जन होने पर होता है। जो व्यक्ति कर्म-बन्धन को सर्वथा क्षीण कर देता है, उसके सूक्ष्मशरीर छूट जाते हैं। उनके छूट जाने का अर्थ है - अन्तक्रिया या जन्म-मरण की परम्परा का अन्त। इस अवस्था में आत्मा शरीर आदि से उत्पन्न क्रियाओं का अन्त कर अक्रिय हो जाता है ।
२-५ भरत, गजसुकुमाल, सनत्कुमार, माता मरुदेवा (सू० १)
भरत - भगवान् ऋषभ केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद धर्मोपदेश दे रहे थे। भरत भी वहां उपस्थित थे । भगवान् ऋषभ ने कहा – 'इस अवसर्पिणीकाल में मैं पहला तीर्थकर हूं, मेरा पुत्र भरत इसी भव में मोक्ष जाएगा और मेरी मां मरुदेवा सिद्ध होने वालों में प्रथम होंगी।' इस कथन को सुन एक व्यक्ति के मन में विचिकित्सा पैदा हुई। उसने कहा- 'आप पहले तीर्थंकर होंगे तथा मरुदेवा प्रथम सिद्ध होंगी, यह तथ्य समझ में आ सकता है, किन्तु भरत का मोक्षगमन बुद्धिगम्य नहीं होता ।' भरत ने यह सुना । उसने दूसरे दिन उस व्यक्ति को बुला भेजा और कहा -- तेल से लबालब भरे इस कटोरे को लेकर तुम सारी अयोध्या में घूम आओ। यदि एक भी बूंद नीचे गिरेगी तो तुम्हें मार दिया जायेगा ।'
इधर भरत ने सारे नगर में स्थान-स्थान पर नाट्य आदि की व्यवस्था करवा दी। वह व्यक्ति तेल का कटोरा लिए चला । उसे पल-पल मृत्यु के दर्शन हो रहे थे। उसका मन कटोरे में एकाग्र हो गया। सारे शहर में वह घूम आया। तेल का एक बिन्दु भी नीचे नहीं गिरा । भरत ने पूछा- 'भ्रात! शहर में तुमने कुछ देखा ?'
'राजन् ! मुझे मौत के सिवाय कुछ नहीं दीख रहा था।'
'क्या तुमने नृत्य और नाटक नहीं देखे ?'
'नहीं।'
'देखो, थोड़े समय के लिए एक मौत के डर ने तुम्हें कितना एकाग्र और जागरूक बना डाला। मैं मौत की लम्बी परम्परा से परिचित हूं । चक्रवर्तित्व का पालन करता हुआ भी मैं सत्ता, समृद्धि और भोग में आसक्त नहीं हूं ।'
अब भगवान् की बात उस व्यक्ति के गले उतर गई ।
भरत की अनासक्ति अपूर्व थी। उनके कर्म बहुत कम हो चुके थे ।
राज्य का पालन करते-करते कुछ कम छह लाख पूर्व बीत गए थे। एक बार वे अपने मज्जनगृह में आए और शरीर का पूरा मण्डन किया। अपने शरीर की शोभा का निरीक्षण करने के आदर्शगृह में गए। एक सिंहासन पर बैठे और पूर्वाभिमुख होकर कांच में अपना सौन्दर्य देखने लगे। कांच में सारा अंग प्रतिबिम्बित हो रहा था। भरत उसको एकाग्रमन से देख रहे थे और मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे ।
इतने में ही एक अंगुली से अंगूठी भूमि पर गिर पड़ी। भरत को इसका भान नहीं रहा। वे अपने एक-एक अवयव की शोभा निहारते रहे । अचानक उनका ध्यान उस खाली अंगुली पर गया। उन्होंने सोचा- 'अरे! यह क्या ? यह इतनी
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि०१
अशोभित क्यों लग रही है ? दिन में चन्द्रमा को ज्योत्स्ना जैसे फीकी पड़ जाती है, वैसे ही यह अंगुली भी शोभाहीन क्यों है ?' उन्हें भूमि पर पड़ी अंगूठी दीखी और जान लिया कि इसके बिना यह अंगुली शोभाहीन हो गई है। उन्होंने सोचा'क्या शरीर के दूसरे-दूसरे अवयव भी आभूषणों के बिना शोभाहीन हो जाते हैं ?' अब वे एक-एक कर सारे आभूषण उतारने लगे। सारा शरीर शोभाहीन हो गया। शरीर और पौद्गलिक वस्तुओं की असारता का चिन्तन आगे बढ़ा। शुभ अध्यवसायों से घातिकर्मचतुष्टय नष्ट हुआ। उनके अन्तःकरण में संयम का विकास हुआ और वे केवली हो गए। वे कठोर तपस्या किए बिना ही निर्वाण को प्राप्त हुए।
गजसृकुमाल-द्वारवती नगरी में वासुदेव कृष्ण राज्य करते थे। उनकी माता का नाम देवकी था । देवकी एक बार अत्यन्त उदासीन होकर बैठी थी। कृष्ण चरण-वंदन के लिए आए और माता को चिन्तातुर देख उसका कारण पूछा।
देवकी ने कहा---'वत्स ! मैं अधन्य हूं । मैंने एक भी बालक को अपनी गोद में क्रीडारत नहीं देखा।'
कृष्ण ने कहा---'मां ! चिन्ता मत करो। मैं ऐसा प्रयत्न करूंगा कि मेरे एक भाई हो।' इस प्रकार मां को आश्वासन दे कृष्ण पौषधशाला में गए और तीन दिन का उपवास कर हरिणगमेषी देव की आराधना की। देव प्रत्यक्ष हुआ और बोला-'तुम्हें एक सहोदर की प्राप्ति होगी।' कृष्ण अपनी मां के पास आए और सारी बात उन्हें बताई। देवकी बहुत प्रसन्न हुई।
एक बार देवकी ने स्वप्न में हाथी देखा। वह गर्भवती हुई और पूरे नौ मास और साढ़े आठ दिन बीतने पर उसने एक बालक का प्रसव किया। बारहवें दिन उसका नामकरण किया। स्वप्न में गज के दर्शन होने के कारण उसका नाम 'गजसुकुमाल' रखा।
उसी नगर में सोमिल ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमश्री और पुत्री का नाम सोमा था।
एक बार भगवान् अरिष्टनेमि वहां समवसृत हुए। वासुदेव कृष्ण अपनी समस्त ऋद्धि से सज्जित होकर गजसुकुमाल को साथ ले भगवान के दर्शन करने गए। मार्ग में उन्होंने अत्यन्त सुन्दर कुमारी को देखा और उसके माता-पिता के विषय में जानकारी प्राप्त कर अपने कौटुम्बिक पुरुषों से कहा- 'जाओ, सोमिल से कहकर इस सोमा कुमारी को अपने अन्तःपुर में ले आओ। यह गजसुकुमाल की पहली पत्नी होगी।'
कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया। सोमा कुमारी को राजा के अन्तःपुर में रख दिया।
वासुदेव कृष्ण सहस्राम्रवन में समवसृत भगवान् अरिष्टनेमि की पर्युपासना कर घर लौटे। गजसुकुमाल धर्मप्रवचन सुनकर प्रतिबुद्ध हुए। उन्होंने भगवान से पूछा---'भगवन् ! मैं माता-पिता की आज्ञा लेकर प्रवजित होना चाहता हूं।' - भगवान् ने कहा- 'जैसी इच्छा हो।'
गजसुकुमाल भगवान् की पर्युपासना कर घर आए। माता-पिता को प्रणाम कर बोले-'मैंने भगवान् के पास धर्म सुना है। वह मुझे रुचिकर लगा। मेरी इच्छा है कि मैं प्रवजित हो जाऊं।' देवकी को यह सुनते ही मूर्छा आ गई और वह धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी। आश्वस्त होने पर उसने कहा- 'वत्स ! तुम मेरे एकमात्र आश्वासन हो। मैं तुम्हारा वियोग क्षण-भर के लिए भी नहीं सह सकूँगी। तुम विवाह कर, सुखपूर्वक रहो।' उसने अनेक प्रकार से गजसुकुमाल को समझाया परन्तु उन्होंने अपने आग्रह को नहीं छोड़ा।
कृष्ण को जब यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ, तब वे तत्काल वहां आए। गजसुकुमाल का आलिंगन कर, अपनी गोद में बिठाकर बोले-भ्रात ! तुम मेरे छोटे भाई हो। प्रव्रज्या की बात छोड़ दो। मैं तुम्हें इस द्वारवती नगरी का राजा बनाऊंगा, तुम्हारा राज्याभिषेक सम्पन्न करूंगा।' गजसुकुमाल ने कृष्ण की बात पर ध्यान नहीं दिया।
अभिनिष्क्रमण समारोह के पश्चात् कुमार गजसुकुमाल भगवान् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रजित हो गए। उसी दिन अपरान्ह में वे भगवान् के पास आए और बोले-भंते ! आज ही मैं श्मशान में एक रात्रि की महाप्रतिमा स्वीकार करना चाहता हूं। आप आज्ञा दें।
भगवान् ने कहा..... 'अहासुहं देवाणुप्पिया! --देवानुप्रिय ! जैसी इच्छा हो वैसा करो।'
भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर मुनि गजसुकुमाल श्मशान में गए; स्थंडिल का प्रतिलेखन किया और दोनों पैरों को सटाकर, ईषद् अवनत होकर एक रात्रि की महाप्रतिमा में स्थित हो गए।
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स्थान ४: टि०१
इधर ब्राह्मण सोमिल यज्ञ के लिए लकड़ी लाने के लिए नगर के बाहर गया हुआ था। घर लौटते-लौटते संध्या हो चुकी थी। लोगों का आवगमन अवरुद्ध हो गया था। उसने श्मशान में कायोत्सर्ग में स्थित मुनि गजसुकुमाल को देखा। देखते ही वह क्रोध से लाल-पीला हो गया। उसने सोचा- 'अरे! यही वह गजसुकुमाल है, जो मेरी प्यारी पुत्री को छोड़कर प्रवजित हो गया है। अच्छा है, मैं इसका बदला लूं।' उसने चारों ओर देखा और गीली मिट्टी से गजसुकुमाल के मस्तक पर एक पाल बांध दी। उसने एक कवेलू में दहकते अंगारे लिए और उनको मुनि के मस्तक पर पाल के बीच रख दिए। उसका मन भय से आक्रान्त हो गया। वह वहां से तेजी से चलकर घर आ गया। मुनि गजसुकुमाल का कोमल मस्तक सीझने लगा। अपार वेदना हुई। वेदना को समभाव से सहन करते हुए मुनि शुभ अध्यवसायों में लीन हो गए। घातिकर्मों का नाश हुआ। कैवल्य की प्राप्ति हुई और क्षण-भर में वे सिद्ध हो गए। इस प्रकार अत्यन्त स्वल्प पर्याय-काल में ही वे मुक्त हो गए।
सनत्कुमार-हस्तिनागपुर के राजा अश्वसेन ने अपने पुत्र सनत्कुमार को राज्य-भार देकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। सनत्कुमार राज्य का परिपालन करने लगे। चौदह रत्न और नौ निधियां उत्पन्न हुई। वे चौथे चक्रवर्ती के रूप में विख्यात हुए। वे कुरुवंश के थे।
एक बार इन्द्र ने इनके रूप की प्रशंसा की। दो देव ब्राह्मण वेष में हस्तिनागपुर आए और चक्री को मनुष्य के शरीर की असारता का बोध कराया। चक्री सनत्कुमार ने अपने शरीर का वैवर्ण्य देखा और सोचा---'संसार अनित्य है, संसार असार है। रूप और लावण्य क्षणस्थायी हैं।' उन्होंने प्रव्रज्या स्वीकार करने का दृढ़ निश्चय किया। ब्राह्मण वेषधारी दोनों देवों ने कहा---'धीर ! आपने बहुत ही सुन्दर निश्चय किया है। आप अपने पूर्वजों (भरत आदि) का अनुसरण करने के लिए उद्यत हैं। धन्य हैं आप।' वे दोनों देव वहां से चले गए।
__ चक्रवर्ती सनत्कुमार अपने पुत्र को राज्य-भार सौंपकर स्वयं आचार्य बिरत के पास प्रवजित हो गए। सारे रत्न, सभी नरेन्द्र, सेना और नौ निधियां-छह मास तक चक्रवर्ती मुनि के पीछे-पीछे चलते रहे, किन्तु मुनि सनत्कुमार ने उन्हें नहीं देखा।
___ आज उनके दो दिन के उपवास का पारण था। वे भिक्षा लेने गए। एक गृहस्थ ने उन्हें बकरी की छाछ दी। उसे वे पी गए। पुनः दूसरे दिन उन्होंने दो दिन का उपवास कर लिया। इस प्रकार तपस्या चलती रही और पारणे में प्रान्त और नीरस आहार लेते रहे। उनके शरीर का सन्तुलन बिगड़ गया और वह सात रोगों से आक्रान्त हो गया—खुजली, ज्वर, खांसी, श्वास, स्वरभंग, अक्षिवेदना, उदरव्यथा। ये सातों रोग उन्हें अत्यन्त व्यथित करने लगे। किन्तु समतासेवी मुनि ने सात सौ वर्षों तक उन्हें सहा । तपस्या चलती रही। इस प्रकार उग्र तप के फलस्वरूप उन्हें पांच लब्धियां प्राप्त हुई—आमपौषधि, श्वेलौषधि, विपुटुऔषधि, जल्लौषधि और सवौं षधि। इतनी लब्धियां प्राप्त होने पर भी मुनि ने उनका उपयोग अपनी व्याधियों का शमन करने के लिए नहीं किया।
एक बार इन्द्र ने अपनी सभा में सनत्कुमार की सहनशक्ति की प्रशंसा की। दो देव उसकी परीक्षा करने आए और बोले---'भंते ! हम आपके शरीर की चिकित्सा करना चाहते हैं।' मुनि मौन रहे। तब उन्होंने पुनः अपनी बात दोहराई। अब भी मुनि मौन ही रहे। उनके बार-बार कहने पर मुनि ने कहा-'क्या आप शरीर की व्याधि के चिकित्सक हैं अथवा कर्म की व्याधि के ?' दोनों ने कहा---'हम शरीर की चिकित्सा करने वाले वैद्य हैं।' तब मुनि सनत्कुमार ने अपनी अंगुली पर अपना थूक लगाया। अंगुली सोने की तरह चमकने लगी। मुनि ने कहा- 'मैं शारीरिक रोगों की चिकित्सा करने में समर्थ है। यदि मेरे में सहनशक्ति नहीं होती तो मैं वैसा कर लेता। यदि आप संचित कर्म की व्याधि को मिटाने में समर्थ हैं तो वैसा प्रयत्न करें।' दोनों देव आश्चर्यचकित रह गए। वे अपने मूल स्वरूप में आकर बोले -'भगवन् ! कर्म की व्याधि को मिटाने में आप ही समर्थ हैं । हम तो आपकी परीक्षा करने यहां आए थे। वे वन्दन कर अपने स्थान की ओर लौट गए।
१. आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, पत्र ३५७, ३५८
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स्थान ४ : टि०६-८ मुनि सनत्कुमार पचास हजार वर्ष तक कुमार और लाख वर्ष तक चक्रवर्ती के रूप में रहकर प्रवजित हुए। वे एक लाख वर्ष तक श्रामण्य का पालन कर दुष्कर तप कर सम्मेदशिखर पर गए। वहां एक शिलातल पर मासिक अनशन किया। अनशन कर मुक्त हो गये।
माता मरुदेवी-महाराज ऋषभ प्रवजित हो गए। उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उसी दिन चक्रवर्ती भरत की आयुधशाला में चक्र की उत्पत्ति हुई। उसके सेवकों ने आकर भरत को बधाई देते हुए केवलज्ञान और चक्र की उत्पत्ति के विषय में बताया। भरत ने सोचा- 'पहले पिता की पूजा करूं या चक्र की।' विचार करते-करते पिता की पूजा का महत्त्व उन्हें प्रतीत हुआ और उन्होंने उसके लिए सामग्री की तैयारी करने का आदेश दे दिया।
मरुदेवी ऋषभ की माता थी। उसने भरत की राज्यश्री देखकर सोचा--'मेरे पुत्र ऋषभ के भी ऐसी ही राज्यश्री थी। आज वह भूख और प्यास से पीड़ित होकर नग्न घूम रहा है।' वह मन-ही-मन घुटने लगी। पुत्र का शोक घना हो गया। मन क्लेश से भर गया। वह रोने लगी। भरत उधर से निकला। दादी को रोते देखकर बोला-'मां! तुम मेरे साथ चलो! मैं तुम्हें भगवान ऋषभ की विभूति दिखाऊं।' मरुदेवी हाथी पर बैठकर उनके साथ चली। वे भगवान के समवसरण के निकट आए। भरत ने कहा-'मां ! देख, ऋषभ की ऋद्धि कितनी विपुल है। इस ऋद्धि के समक्ष मेरा ऐश्वर्य एक कोड़ी के समान है।' मरुदेवी ने चारों ओर देखा। सारा वातावरण उसे अनूठा लगा। उसने मन-ही-मन सोचा--'ओह ! मैंने मोह के वशीभूत होकर व्यर्थ ही शोक किया है। भगवान् स्वयं ऐसी विपुल ऋद्धि के स्वामी हैं।' उसके विचार आगे बढ़े। शुभध्यान की श्रेणी में वह आरूढ़ हुई। सारा शरीर रोमांचित हो उठा। उसकी आंखें भगवान् ऋषभ की ओर टकटकी लगाए हुए थीं। उसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और क्षण-भर में ही वह मुक्त हो गई।
मरुदेवी अत्यन्त क्षीणकर्मा थी। उसके कर्म बहुत अल्प थे। उसने न विधिवत् प्रव्रज्या ही ली और न तप ही तपा। वह अल्प समय में ही मुक्त हो गई।
६-८ (सू०२-४)
प्रस्तुत तीन सूत्रों में वृक्ष के उदाहरण से पुरुष की ऊंचाई-निचाई, परिणति और रूप का निरूपण किया गया है। ऊंचाई और निचाई के मानदण्ड अनेक होते हैं। अनुवाद में मनुष्य की ऊंचाई और निचाई को शरीर और गुण के मानदण्ड से समझाया गया है; वह मात्र एक उदाहरण है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या सम्भावित सभी मानदण्डों के आधार पर की जा सकती है । उदाहरणस्वरूप
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से भी उन्नत होते हैं और ज्ञान से भी उन्नत होते हैं। २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत होते हैं, किन्तु ज्ञान से प्रणत होते हैं। ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत होते हैं, किन्तु ज्ञान से उन्नत होते हैं। ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से भी प्रणत होते हैं और ज्ञान से भी प्रणत होते हैं।
उन्नत और प्रणत कांपिल्यपुर नाम का नगर था। उसमें ब्रह्म नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम चूलनी था। चूलनी रानी के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था ब्रह्मदत्त। पिता की मृत्यु के समय बालक छोटा था। उसे अनेक परिस्थितियों में से गुजरना पड़ा। बड़े होने पर वह चक्रवर्ती बना। वह सुख पूर्वक राज्य का परिपालन करता हुआ विचरण करने लगा।
२. अभिधान राजेन्द्र, दूसरा भाग, पृष्ठ ११४१; पांचवां भाग,
पृष्ट १३८६।
१. उत्तराध्ययन की वृत्ति में बतलाया गया है कि सनत्कुमार तीसरे देवलोक में उत्पन्न हुए।
उत्तराध्ययन, सुखबोधावृत्ति, पत्र २४२
तत्थ सिलायले आलोयणाविहाणेण मासिएण भत्तेण कालगतो सणंकुमारे कप्पे उववन्नो । ततो चुतो महाविदेहे सिज्झिहि।
For Private & Personal use only
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : टि० ६-८
एक बार उस गांव में नट आए। उन्होंने नाटक शुरू किया। नाटक देखकर राजा की पुरानी स्मृति जागृत हो गई । उसने अपने पूर्व-जन्म के भाई का पता लगाया। वह साधु के वेष में था। राजा उनसे मिला। दोनों का आपस में बहुत बड़ा विचार-विमर्श चला । साधु ने कहा- 'भाई ! तुम पूर्व जन्म में मुनि थे, आज भोगों में आसक्त होकर भोगों की चर्चा करते हो । इन्हें छोड़ो और अनासक्त जीवन जीओ। यदि ऐसा नहीं कर सकते हो तो असद् कर्म मत करो। श्रेष्ठ कर्म करो: जिससे तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो ।'
ब्रह्मदत्त ने कहा- 'मैं जानता हूं, तुम्हारी हित- शिक्षा उचित है, किन्तु मैं निदान वश हूं। आर्य कर्म नहीं कर सकता ।' ब्रह्मदत्त नहीं माना। साधु चला गया। चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त मर कर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ ।
देखें उत्तराध्ययन, अध्ययन १३
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प्रणत और उन्नत
गंगा नदी के तट पर 'हरिकेश' का अधिपति वलको नामक चाण्डाल रहता था । उसकी पत्नी का नाम गौरी था । उसके गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम बल रखा । वही बल आगे चलकर 'हरिकेश बल' नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह काला और विरूप था। अपनी जाति में और अपने साथियों में नटखट होने के कारण उसे सर्वत्र तिरस्कार ही मिला करता था। वह जीवन से ऊब गया था ।
T
मुनि का योग मिला। उसकी भावना बदल गई। वह साधु बन गया । विविध प्रकार की तपस्याएं प्रारम्भ की। तपः प्रभाव से अनेक शक्तियां उत्पन्न हो गईं। वे लब्धि-सम्पन्न हो गये । देवता भी उनकी सेवा में रहने लगे। साधना के क्षेत्र में जाति का महत्त्व नहीं होता । भगवान् महावीर ने कहा है – 'यह तप का साक्षात् प्रभाव है, जाति का नहीं। चाण्डाल में उत्पन्न होकर भी हरिकेश मुनि अनेक गुणों से युक्त होकर जन-वन्ध हुए।' उनके ऐहिक और पारलौकिक दोनों जीवन प्रशस्त हो गये ।
देखें - उत्तराध्ययन, अध्ययन १२ ।
प्रणत और प्रणत
राजगृह नगर में काल सौकरिक नामक कषायी रहता था। वह प्रतिदिन ५०० भैंसे मारता था । प्रतिदिन के अभ्यास के कारण उसका यह दृढ़ संकल्प भी बन गया था।
एक बार राजा श्रेणिक ने उसे एक दिन के लिए हिंसा छोड़ने को कहा। जब उसने स्वीकार नहीं किया तो बलात् हिंसा छुड़ाने के लिए उसे कुएं में डाल दिया, क्योंकि भगवान् महावीर ने राजा श्रेणिक को पहली नरक में नहीं जाने का कारण यह भी बताया था कि यदि सौकरिक एक दिन की हिंसा छोड़ दे तो तुम्हारा नर्क गमन रुक सकता है। सुबह निकाला गया तो उसके चेहरे पर वही प्रसन्नता थी जो प्रसन्नता हमेशा रहती थी। प्रसन्नता का कारण और कुछ नहीं था, संकल्प कान्विति ही थी ।
राजा ने जिज्ञासा की - 'आज तुमने भैंसे कैसे मारे ?'
उत्तर में वह बोला-'मैंने शरीर मैल के कृत्रिम भैंसे बनाकर उनको मारा है।' राजा अवाक् रह गया । काल सौकारिक यातना से परिपूर्ण अपनी अन्तिम जीवन लीला समाप्त कर सप्तम नरक में नैरयिक बना।
उन्नत और प्रणत परिणत
राजगृह नगर था । महाशतक नाम का धनाढ्य व्यक्ति वहां रहता था । उसके रेवती आदि १३ पत्नियां थीं । रेवती के विवाहोपलक्ष में उसके पिता से उसे करोड़ हिरण्य और दस हजार गायों का एक व्रज मिला था । महाशतक के साथ वह आनन्दपूर्वक जीवन बिता रही थी। प्रारम्भ में उसके विचार बहुत अच्छे थे। एक दिन उसके मन में विचार हुआ कि कितना अच्छा हो, इन सब १२ सपत्नियों को मार कर इनकी सम्पत्ति लेकर पति के साथ एकाकी काम-क्रीड़ा का
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स्थान ४ : टि०६-८
उपभोग करूं। उसने वैसा ही किया । शस्त्र और विष प्रयोग से अपनी बारह सौतों को मार दिया। उसकी क्रूरता इतने से संतुष्ट नहीं हुई । अब वह मांस, मदिरा आदि का भी भक्षण कर उन्मत्त रहने लगी।
एक बार नगर में कुछ दिनों के लिए 'जीव-हिंसा निषेध' की घोषणा होने पर वह अपने पीहर से प्रति दिन दो बछड़ों का मांस मँगाकर खाने लगी।
महाशतक श्रमणोपासक एक दिन धर्म-जागरण में व्यस्त था। उस समय रेवती काम-विह्वल हो वहां पहुंची और विविध प्रकार के हाव-भाव प्रदर्शित कर भोगों की प्रार्थना करने लगी। उसकी इस प्रकार की अभद्र उन्मत्तता को देखकर महाशतक ने कहा—'आज से सात दिन तू 'विषूचिका' रोग से आक्रान्त होकर प्रथम नरक में उत्पन्न होगी।' यह सुनकर वह अत्यन्त भयभीत हुई। ठीक सातवें दिन उसकी मृत्यु हो गई।
देखें-उपासकदशा, अ०८ ।
उन्नत और प्रणत रूप रोम के एक चित्रकार ने सुंदर और भव्य व्यक्ति का चित्र बनाने का संकल्प किया। एक बार उसे एक छोटा लड़का मिल गया। वह अत्यन्त सुंदर था। उसका मन प्रसन्नता से भर गया। उसने चित्र तैयार किया। वह चित्र उसकी भावना के अनुरूप बना । सर्वत्र उसकी प्रशंसा होने लगी।
एक दिन उसके मन में पहले चित्र से विपरीत चित्र बनाने की भावना जगी। उसने वैसा ही व्यक्ति खोज निकाला, जिसके चेहरे से स्वार्थपरता, क्रूरता और कुरूपता झलकती थी। उसका चित्र भी उसने तैयार किया।
एक बार वह चित्रकार दोनों चित्रों को लेकर जा रहा था। एक व्यक्ति ने उन्हें देखा और वह जोर से रोने लगा। चित्रकार ने पूछा-'तुम क्यों रोते हो?' वह बोला-'ये दोनों मेरे चित्र हैं।' चित्रकार ने पूछा---'दोनों में इतना अन्तर क्यों?' वह बोला--पहला चित्र मेरी जवानी का और दूसरा चित्र बुढ़ापे का है। मैंने अपनी जवानी व्यसनों में पूरी कर दी। उन व्यसनों से क्रूरता और कूरूपता पैदा हुई।
वह प्रारम्भ में उन्नत और अन्त में प्रणत रूप वाला हो गया।
प्रणत और उन्नत रूप यह उस समय की घटना है जब गुजरात में महाराजा सिद्धराज राज्य करते थे। एक बार मध्यप्रदेश की 'ओड' जाति अकाल से ग्रस्त होकर अपनी आजीविका के लिए गुजरात पहुंची। राजा सिद्धराज ने 'सहस्रलिंग' तालाब खुदाने का निर्णय इसलिए किया कि प्रजा को राहत-कार्य मिल जाये। ओड जाति में टीकम नाम का एक व्यक्ति अपनी पत्नी व बच्चों को लेकर वहां चला आया। उसकी पत्नी का नाम जसमा था। जसमा बड़ी विचक्षण और वीर नारी थी। विचक्षणता और वीरता के साथ वह अत्यन्त सुन्दर भी थी। रूप प्रायः अभिशाप सिद्ध होता है। जसमा के लिए भी यही हुआ। उसका पति
और उसके साथी मिट्टी खोदते और स्त्रियां उस मिट्टी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ढोती थीं। राजा सिद्धराज की दृष्टि जसमा पर पड़ी। उसने उसे अपने महलों में आने के लिए अनेक प्रलोभन दिए, किन्तु जसमा का हृदय विचलित नहीं हुआ। उसने इस कुचक्र की जानकारी अपने पति को दी और कहा कि अब हमें यहां नहीं रहना चाहिए। बहुत से लोग वहां से इनके साथ चल पड़े।
राजा को यह माल म हुआ तो वह स्वयं घोड़े पर बैठ अपने सैनिकों को साथ ले चल पड़ा। निकट पहुंच कर राजा ने कहा--'जसमा को छोड़ दो, और सब चले जाओ। टीकम ने कहा-ऐसा नहीं हो सकता।' बहुत से लोग उसमें मारे गए, टीकम भी मारा गया। पति के मरने पर जसमा के जीवन का कोई मूल्य नहीं रहा। उसने हाथ में कटार लेकर अपने पेट में भोंकते हुए कहा-'यह मेरा हाड़-मांस का शरीर है। दुष्ट ! तू इसे ले और अपनी भूख शांत कर।'
जसमा छोटी जाति में उत्पन्न थी, प्रणत थी। किन्तु, उसने अपना बलिदान देकर नारीत्व के उन्नत रूप को प्रस्तुत किया। यह थी उसकी प्रणत और उन्नत अवस्था।
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स्थान ४ : टि० ६-१५
६-१५ (सू० ५-११)
इन सात सूत्रों में मन, संकल्प, प्रज्ञा और दृष्टि-इन चार बोधात्मक दृष्टिबिन्दुओं तथा शील, व्यवहार और पराक्रम- इन तीन क्रियात्मक दृष्टिबिन्दुओं से पुरुष की विविध अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। इन सूत्रों में उपमा-उपमेय या उदाहरण-शैली का प्रतिपादन नहीं है।
वृत्तिकार ने एक सूचना दी है कि एक परंपरा के अनुसार शील और आचार ये भिन्न हैं। इनको भिन्न मान लेने पर बोधात्मक-पक्ष की भांति क्रियात्मक-पक्ष के भी चार प्रकार हो जाते हैं । शील और आचार के दो स्वतन्त्र आकार इस प्रकार होंगे----
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत शील वाले होते हैं। २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु प्रणत शील वाले होते हैं। ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नत शील वाले होते हैं। ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत शील वाले होते हैं। १. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत आचार वाले होते हैं। २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु प्रणत आचार वाले होते हैं। ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नत आचार वाले होते हैं। ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत आचार वाले होते हैं।
ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत मन उज्जयिनी का राजा भो जऐश्वर्य, विद्वत्ता और उदारता में अद्वितीय था। उसकी उदारता की घटनाएं इतिहास में आज भी लिपिबद्ध हैं । एक बार अमात्य ने सोचा कि यदि राजा इसी प्रकार दान देते रहे तो 'कोश' शीघ्र खाली हो जाएगा। वह राजा को दान से निवृत्त करने के उपाय सोचने लगा। एक बार अमात्य ने राजा के शयनघर पर एक पट्ट लगा दिया। उस पर लिखा था--'आपदर्थे धनं रक्षेत्' (आपत्ति के लिए धन को सुरक्षित रखना चाहिए)। राजा भोज सोने के लिए आये। उन्होंने पट्ट पर अंकित वाक्य को पढ़ा और उसके नीचे लिख दिया--'श्रीमतामापदः कुतः?' (ऐश्वर्य-सम्पन्न व्यक्तियों के लिए आपत्ति कहां है ?) दूसरे दिन मंत्री ने देखा तो उसका चेहरा विषाद से भर गया। उसने फिर एक वाक्य नीचे लिख डाला-'कदाचिद् रुष्ट ति दैवः' (कभी भाग्य भी एट हो जाता है)। राजा ने जब इसे पढ़ा तो तत्काल समाधान की वाणी में स्वर फूट पड़ा--'संचतिमपि नश्यति' (संचित धन भी नहीं रहता)। मंत्री इसे पढ़ समझ गया कि राजा की प्रवृत्ति में अन्तर आने वाला नहीं है।
राजा भोज ऐश्वर्य से उन्नत थे तो उनके मन की उदारता भी कम नहीं थी।
ऐश्वर्य से प्रणत और उन्नत मन संस्कृत का महान् कवि माघ अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण था। एक दिन की घटना है---एक ब्राह्मण अवन्ति से माप के पास आया और अपनी लाचारी के स्वर में बोला-मेरी कन्या की शादी है, मेरे पास कुछ नहीं है, कुछ सहायता दीजिए। माघ ने जब यह सुना तो वे बड़े असमंजस में पड़ गए। देने को पास में कुछ नहीं था। 'ना' भी कैसे कहा जाए। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। कवि ने देखा-पत्नी सोई है। उसके हाथ में पहने हुए हैं कंगण । मन ने कहा-क्यों न यह निकाल कर दे दिया जाए। वे चुपके से उठे और एक हाथ से कंगण निकाल कर जाने लगे तो पत्नी की नींद टूट गई। वह बोली-'एक से क्या होगा? यह दूसरा भी ले जाइए, बेचारे का काम हो जायेगा।' माघ स्तब्ध रह गये। उन्होंने कंगण देकर ब्राह्मण को बिदा किया।
पास में ऐश्वर्य न होते हुए भी माघ और उनकी पत्नी का मन कितना उन्नत था।
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ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत मन
• एक गाँव में एक भिक्षुक अपने बाल-बच्चों सहित रहता था। प्रति दिन वह गांव में जाता और जो कुछ पैसा, अन्न आदि मिलता, उससे अपना भरण-पोषण करता था । उसका मन अत्यन्त कृपण था। दूसरों की सहायता की बात तो दूर रही, वह किसी दूसरे को दान देते हुए देखता तो भी उसके मन पर चोट-सी लगती थी।
एक दिन की घटना है । वह घर पर आया, तब पत्नी ने उसके उदास चेहरे को देखकर पूछा
'क्या गांठ से गिर पड़ा, क्या कछु किसको दीन ।
नारी पूछे सूमसू, क्यों है बदन मलीन ।।
( क्या आज कुछ गिर पड़ा है या किसी को कुछ दिया है, जिससे कि आपका चेहरा उदासीन है) ।
स्थान ४ : टि० ६-१५
वह बोला- तुम ठीक कहती हो । मेरा चेहरा उदास है, किन्तु इसलिए नहीं कि मैंने कुछ दिया है या मेरी गांठ से कुछ गिर पड़ा है, किन्तु इसलिए कि मैंने आज एक व्यक्ति को कुछ दान देते हुए देख लिया है-
'नहीं गांठ से गिर पड़ा, ना कुछ किसको दीन । देवत देख्या और को, ताते बदन मलीन ॥
ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत संकल्प
भगवान् ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भरत था। वे चक्रवर्ती बने । उनके पास अतुल ऐश्वर्य और साधन-सामग्री थी। इतना होने पर भी उनके विचार बहुत उन्नत थे । वे अपने ऐश्वर्य में कभी मूढ़ नहीं बने। उन्होंने अपने मंगलपाठकों को यह आदेश दे रखा था कि प्रातः काल में जागरण के समय वे 'मा हन, मा हन' (किसी को पीड़ित मत करो, किसी को मत मारो) इन शब्दों की ध्वनि करते रहें । भरत के जागते ही वे मंगलपाठक इस प्रकार की ध्वनि सतत करते रहते । इसके फलस्वरूप चक्रवर्ती भरत में अप्रमत्तता का विकास हुआ और वे चक्रवर्तित्व का पालन करते हुए भी उसी भव में मुक्त हो गये । वे ऐश्वर्य और संकल्प - दोनों से उन्नत थे।
ऐश्वर्य से उन्नत और प्रणत संकल्प
महापद्म नाम के राजा की रानी का नाम पद्मावती था। उनके पुण्डरीक और कुण्डरीक नाम के दो । पुत्र थे महापद्म अपने पुत्र पुण्डरीक को राज्य भार सौंप दीक्षित हो गये। एक बार नगर में एक आचार्य का आगमन हुआ। दोनों भाई आचार्य अभिवंदना के लिए आये। उन्होंने धर्मोपदेश सुना। दोनों की आत्मा स्वविकास की ओर उन्मुख हो गई। छोटा भाई साधु बन गया और बड़ा भाई श्रावक-धर्म स्वीकार कर पुनः राजधानी लौट आया।
कठोर साधनारत हो आत्म-विकास के क्षेत्र में प्रगति करने लगे । कठोर तपश्चर्या से उनका शरीर कृश ही नहीं हुआ, अपितु रोगग्रस्त भी हो गया। वे विहार करते-करते अपने ही नगर 'पुण्डरीकिणी' में आ गये। राजा पुण्डरीक मुनि वंदन के लिए आए। उन्होंने कुण्डरीक मुनि की हालत देखी तो आचार्य से औषधोपचार के लिए प्रार्थना की। उपचार प्रारम्भ हुआ । शनैः शनैः रोग शान्त होने लगा। मुनि स्वस्थ हो गये, किन्तु इसके साथ-साथ उनका मन अस्वस्थ हो गया ।
सुखी बन गये। वहां से विहार करने का उनका मन नहीं रहा। भाई ने अव्यक्त रूप से उन्हें समझाया। एक बार तो वे विहार कर चले गये । कुछ दिनों के बाद फिर उनका मन शिथिल गया। वे पुनः अपने नगर में चले आये। राजा पुण्डरीक ने बहुत समझाया, किन्तु इस बार निशाना खाली गया । आखिर पुण्डरीक ने अपनी राजसिक पोशाक उतार कर भाई को दे दी और भाई की पोशाक स्वयं पहन ली। 'एक भोगासक्त हो गया और एक योगासक्त हो गये। एक राजगद्दी पर सुशोभित हो गये और एक साधनारत हो आत्म-ऐश्वर्य से सुसम्पन्न हो गये। सातवें दिन दोनों ही आयुष्य पूर्ण कर परलोक के पथिक बन गये। साधुत्व को छोड़कर राज्यासन्न होने वाला भाई सातवें नरक गया और योगरत होने वाला स्वर्ग में गया ।
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इस कथानक में दोनों तथ्यों का प्रतिपादन है-
१. पुण्डरीक राज्य करता रहा और अन्त में भाई कुण्डरीक के लिए राज्य का त्याग कर मुनि बन गया - वह ऐश्वर्य से उन्नत और संकल्प से भी उन्नत रहा।
२. कुण्डरीक राज्य के लिए मुनि वेष का त्याग कर राजा बना - वह ऐश्वर्य ( श्रामण्य) से उन्नत होकर भी संकल्प से प्रणत था ।
स्थान ४ : टि० ६-१५
ऐश्वर्य से प्रणत और उन्नत संकल्प
अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति थे । उनके पिता का नाम था टामस लिंकन । घर की आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर थी । यह घटना बचपन की है। पढ़ने का उन्हें बहुत शौक था। एक बार अपने अध्यापक एण्ड्र क्राफर्ड के पास वाशिंगटन की जीवनी थी। वे उसे पढ़ना चाहते थे । अपने अध्यापक के पास पहुंचे और अनुनय-विनय करने के बाद पुस्तक प्राप्त करने में सफल हुए। वे खुशी-खुशी अपने घर पहुंचे और लैम्प के प्रकाश में पुस्तक पढ़ने लगे। पुस्तक पढ़ने में इतने लीन हो गये कि समय का कुछ पता नहीं लगा। पिता ने कई बार सोने के लिए कहा, किन्तु उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया । आखिर जब फिर पिता ने डांटा तो पुस्तक को झरोखे में रख लैम्प बुझाकर लेट गये। नींद आ गई। सुबह उठकर पुस्तक को देखा तो वह बरसात के कारण पानी से कुछ खराब हो गई थी। बड़े घबराये । अध्यापक के सामने एक अपराधी की तरह खड़े हुए। अध्यापक ने कहा - इसीलिए मैं किसी को पुस्तक देना नहीं चाहता। उसके सुरक्षित पहुँचने में मुझे संदेह रहता है । अब इसका दण्ड भरना होगा ।' अत्राहम ने कहा- 'मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है।' अध्यापक बोले'तीन दिन मेरे खेत में काम करो, फिर यह पुस्तक तुम्हारी हो जायेगी।' तीन दिन कड़ा परिश्रम किया। अध्यापक के सामने
हाजिर हुए तो बहुत प्रसन्न थे । अब किताब उन्हें मिल गई। घर पर आए तो बहिन से कहा- 'तीन दिन काम करना पड़ा तो क्या ? पुस्तक मेरी बन गई। अब इसे पढ़कर मैं भी ऐसा ही बनने का प्रयत्न करूँगा ।' लिंकन ऐश्वर्य से प्रणत थे, किन्तु संकल्प से उन्नत ।
ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत संकल्प
दो पड़ोसी थे । एक ईर्ष्यालु और दूसरा मत्सरी था। दोनों लोभी थे। एक बार धन प्राप्ति के लिए दोनों ने देवी के मंदिर में तपस्या प्रारम्भ की। दिन बीत गये। कुछ दिनों के बाद देवी प्रसन्न हुई और बोली- 'बोलो ! क्या चाहते हो ? जो पहले मांगेगा, दूसरे को उससे दुगुना दूंगी।' दोनों ने यह सुना तो लोभ का समुद्र दोनों के मन में उद्वेलित हो उठा। दोनों सोचने लगे कि पहले कौन मांगे ? वह सोचता है यह मांगे और दूसरा सोचता है वह मांगे, जिससे मुझे दुगुना मिले। दोनों एक दूसरे की ओर देखते रहे किन्तु पहल किसीने नहीं की ।
दोनों का मन दूषित था। ईर्ष्यालु ने सोचा-धन आदि मांगने से तो इसे दुगुना मिलेगा। इससे अच्छा हो, मैं क्यों नहीं देवी से यह प्रार्थना करूँ कि मेरी एक आंख फोड़ दे, इसकी दोनों फूट जाएगी। उसने वही कहा । देवी बोली'तथास्तु !' एक की एक आंख फूटी और दूसरे की दोनों ।
इस प्रकार वे ऐश्वर्य और संकल्प दोनों से प्रणत थे ।
ऐश्वर्य से उन्नत और प्रज्ञा से उन्नत
थावरचापुत्र महल की ऊपरी मंजिल में मां के पास बैठा था। वहां उसके कानों में मधुर ध्वनि आ रही थी। मां से पूछा- 'ये गीत बड़े मधुर हैं, मेरा मन पुनः पुनः सुनने को करता है। ये कहां से आ रहे हैं और क्यों आ रहे हैं ?' मां ने जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा-पुत्र ! अपने पड़ोसी के घर पुत्र उत्पन्न हुआ है। ये गीत पुत्र प्राप्ति की खुशी में गाये जा रहे हैं और वहीं से आ रहे हैं।' पुत्र का मन अन्य जिज्ञासा से भर गया। वह बोला- 'मां क्या मैं जन्मा था तब भी गाये गये थे ?' मां ने स्वीकृति की भाषा में कहा- हां, गाये गये थे।' इस प्रकार वार्तालाप चल ही रहा था कि इतने में गीतों का स्वर बदल गया । जो स्वर कानों को प्रिय था वही अब कांटों की तरह चुभने लगा ।
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स्थान ४ : टि०६-१५
पुत्र ने पूछा---'मां ! ये गीत कैसे हैं ? मन नहीं चाहता इन्हें सुनने को।' मां बोली-'वत्स ! ये कर्ण-कटु हैं। हृदय को रुलाने वाले हैं। जो बच्चा पैदा हुआ था अब वह नहीं रहा।' पुत्र बोला-'मां, मैं नहीं समझा।' 'वह मर गया, उसकी मृत्यु हो गई' मां ने कहा । लड़के ने पूछा-'मृत्यु क्या होती है ?'
'जीवन की अवधि समाप्त होने का नाम मृत्यु है'-मां ने कहा। बालक ने पूछा- क्या मैं भी मरूँगा?' मां ने कहा'हां, जो पैदा होता है वह निश्चित मरता है। इसमें कोई अपवाद नहीं है।'
पुत्र बोला-'क्या इसका कोई उपचार है ?' मां ने कहा---'हां, है । भगवान अरिष्टनेमि इसके अधिकृत उपचारक हैं।'
एक बार अरिष्टनेमि वहां आए। थावरचापुत्र प्रवचन सुनने गया। प्रवचन से प्रतिबद्ध होकर, वह उनके शासन में प्रवजित हो गया। मुनि थावरचापुत्र ने कठोर साधना कर मोक्ष प्राप्त कर लिया।
वे ऐश्वर्य और प्रज्ञा-दोनों से उन्नत थे।
ऐश्वर्य से उन्नत और प्रज्ञा से प्रणत एक सिद्ध महात्मा अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। मार्ग में एक तालाब आया। विश्राम करने और पानी पीने के लिए वे वहां रुके। महात्मा तालाब के तट पर गये और जीवित मछलियां खाने लगे। शिष्यों ने भी गुरु का अनुकरण किया। महात्मा कुछ नहीं बोले। वे वहां से आगे चले। शिष्य भी चल पड़े। थोड़ी दूर चले कि एक तालाब आ गया। तालाब में मछलियां नहीं थीं।
महात्मा उसी प्रकार किनारे पर खड़े होकर निगली हुई मछलियों को पुनः उगलने लगे। शिष्य देखने लगे। उन्हें आश्चर्य हुआ। जितनी मछलियां निगली थीं वे सब जीवित थीं। शिष्य कब चूकने वाले थे। वे भी गले में अंगुली डाल कर मछलियां उगलने लगे, लेकिन बड़ी कठिनाई से वे एक-दो मछलियां निकाल सके, वे भी मरी हुई। महात्मा ने कहा'मूखों ! बिना जाने यों नकल करने से कोई बड़ा नहीं होता। प्रत्येक कार्य का रहस्य भी समझना चाहिए।'
शिष्य साधना की दृष्टि से ऐश्वर्ययुक्त थे किन्तु उनकी प्रज्ञा उन्नत नहीं थी।
ऐश्वर्य से प्रणत और प्रज्ञा से उन्नत वह एक दास था। स्वामि-भक्ति के कारण वह स्वामी का विश्वासपात्र बन गया। स्वामी उसकी बात का भी सम्मान करता था। एक दिन वह मालिक के साथ बाजार गया। एक बूढ़ा दास बिक रहा था। दास प्रथा के युग की घटना है। दास ने स्वामी से कहा-'इसे खरीद लीजिए।' स्वामी ने कहा-'इसका क्या करोगे ?' उसने कहा- मैं इससे काम लूंगा।' मालिक ने उसके कहने से उसे खरीद लिया। उसे उसके पास रख दिया।
वह उसके साथ बड़ा दयालुतापूर्ण व्यवहार करता था। बीमार होने पर सेवा करता और भी अनेक प्रकार की सुविधाएं देता। मालिक ने उसके प्रति अपनत्व भरा व्यवहार देखकर एक दिन उससे पूछा---'लगता है यह तुम्हारा कोई सम्बन्धी है ?' उसने कहा-'नहीं यह मेरा सम्बन्धी नहीं है।'
मालिक ने पूछा-'तो क्या मित्र है ?'
उसने कहा---'मित्र नहीं, यह मेरा शत्र है। इसने मुझे चुराकर बेचा था। आज जब यह बिक रहा था तो मैने पहचान लिया।
मालिक ने पूछा-'शत्र के साथ दयापूर्ण व्यवहार क्यों ?
उसने कहा-'मैंने संतों से सुना है, शत्र के प्रति प्रेम का व्यवहार करो। उसके प्रति दया रखो। बस ! मैं उसी शिक्षा को अमल में ला रहा हूं।'
दास ऐश्वर्य से प्रणत अवश्य था, किन्तु उसकी प्रज्ञा उन्नत थी।
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स्थान ४: टि०६-१५
ऐश्वर्य से उन्नत और दृष्टि से उन्नत आचार्य का प्रवचन सुनने के लिए अनेक बाल, युवक और वृद्ध व्यक्ति उपस्थित थे। प्रवचन का विषय थाब्रह्मचर्य । ब्रह्मचर्य की उपादेयता पर विविध दृष्टियों से विमर्श हुआ। श्रोताओं के मन पर उसकी गहरी छाप पड़ी। अनेकों व्यक्ति यथाशक्य ब्रह्मचर्य की साधना में प्रविष्ट हुए, जिनमें एक युवक और एक युवती का साहस और भी प्रशस्य था। दोनों ने महीने में पन्द्रह दिन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प किया। युवक ने कृष्णपक्ष का और युवती ने शुक्लपक्ष का। दोनों तब तक अविवाहित थे। संयोग की बात समझिए कि दोनों प्रणय-सूत्र में आबद्ध हो गए।
परस्पर के वार्तालाप से जब यह भेद प्रकट हुआ तो एक क्षण के लिए दोनों विस्मित रह गए। पति का नाम विजय था और पत्नी का नाम विजया। विजया ने कहा-'पतिदेव ! आप सहर्ष दूसरा विवाह कीजिए।' मैं ब्रह्मचारिणी रहूंगी। विजय की आत्मा भी पौरुष से उद्दीप्त हो उठी। वह बोला--क्या मैं ब्रह्मचारी नहीं रह सकता ? मैं रह सकता हूं। अपनी दृष्टि और मन को पवित्र रखना कठोर है, किन्तु जब इन्हें सत्य-दर्शन में नियोजित कर दिया जाता है तो कोई कठिन नहीं रहता।' दोनों सहज दशा में रहने लगे।
दोनों पति-पत्नि ऐश्वर्य से उन्नत थे, साथ-साथ ब्रह्मचर्य विषयक उनकी दृष्टि भी उन्नत थी।
ऐश्वर्य से उन्नत और दृष्टि से प्रणत विचारों की विशुद्धि के बिना मन निर्मल नहीं रहता। भर्तृहरि को कौन नहीं जानता। वे एक सम्राट थे और एक योगी भी थे। सम्राट की विरक्ति का निमित्त बनी उन्हीं की महारानी पिंगला। रानी पिंगला राजा से सन्तुष्ट नहीं थी। उसका मन महावत में आसक्त हो गया था। महावत वेश्या से अनुरक्त था। राजा को इसकी सूचना मिली एक अमरफल से। घटना यों है
एक योगी को अमरफल मिला । वह उसे राजा भर्तृहरि को देने के लिए लाया। भर्तहरि ने उसे स्वयं न खाकर अपनी रानी पिंगला को दिया। पिंगला के हाथों से वह महावत के हाथों में चला आया और महावत ने उसे वेश्या के हाथों में खाने के लिए थमा दिया। उस फल का गुण था कि जो उसे खाए वह सदा युवक बना रहे।
वेश्या अपने कार्य से लज्जित थी। उसे यौवन स्वीकार नहीं था। वह उस फल को राजा के सामने ले आई। राजा ने ज्यों ही उसे देखा, रानी के प्रति ग्लानि के भाव उभर आए। उसने कहा
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्ताः । अस्मात् कृते च परितुष्यति काचिदन्या,
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च । "जिसके विषय में मैं सतत सोचता हूं, वह मुझ से विरक्त है। वह दूसरे मनुष्य को चाहती है और वह दूसरा व्यक्ति किसी दूसरी स्वी में आसक्त है। मेरे प्रति कोई दूसरी स्त्री आसक्त है। यह मोह-चक्र है । धिक्कार है उस स्त्री को, उस पुरुष को, कामदेव को, इसको और मुझको।" राजा भर्तृहरि राज्य को छोड़ संन्यासी बन गए।
महारानी पिंगला ऐश्वर्य से उन्नत होते हुए भी ब्रह्मचर्य की दृष्टि से प्रणत थी।
ऐश्वर्य से प्रणत दृष्टि से उन्नत एक योगी हौज में स्नान कर रहे थे। उनकी दृष्टि हौजमें एक छटपटाते बिच्छ पर गिर पड़ी। सन्त का करुण हृदय दयार्द्र हो उठा। तत्काल वे उसके पास गए और हाथ में ले बाहर रखने लगे। बिच्छू इसे क्या जाने ? उसने अपने सहज स्वभाववश संत के हाथ पर डंक लगा दिया। भलाई का यह पारितोषिक कैसा? पीड़ा से हाथ प्रकम्पित हो उठा। बिच्छू
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स्थान ४ : टि०६-१५
पुन: पानी में गिर पड़ा। संत ने फिर उठाया और उसने फिर डंक मार दिया। वह पानी में गिरता रहा और संत अपना काम करते रहे। बाहर खड़े लोग कुछ देर देखते रहे। उनमें से किसी एक से रहा नहीं गया। उसने कहा—'क्या आप इसके स्वभाव से अपरिचित हैं, जो इसके साथ भलाई कर रहे हैं ?' .
___ संत ने अपना सहज स्मित हास्य बिखेरते हुए कहा-'मैं जानता हूं इसे, इसके स्वभाव को और अपने स्वभाव को भी। जब यह अपना दुष्ट स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो मैं कैसे अपने शिष्ट स्वभाव को छोड़ दूं। जिसे अपना सहज दर्शन नहीं है उसके लिए ही यह सब झंझट जैसा है।' संन्यासी के पास ऐश्वर्य नहीं था, किन्तु उनकी दृष्टि उन्नत थी।
ऐश्वर्य से उन्नत और शीलाचार से उन्नत मगध के सम्राट् श्रेणिक की रानी का नाम चेलना था। चेलना रूप-सम्पन्न और शील-सम्पन्न थी। सर्दी के दिनों की घटना थी। रानी सोई हुई थी। उसका हाथ बाहर रह जाने से ठिठुर गया था। जैसे ही उसकी नींद टूटी तो उसके मुंह से निकल गया था कि 'उसका क्या होता होगा?' श्रेणिक का मन उसके सतीत्व में संदिग्ध बन गया।
वह भगवान् को अभिवंदन करने चला। मार्ग में अभयकुमार मिला। आदेश दिया-'चेलना का महल जला दिया जाए।' अभयकुमार कुछ समझ नहीं सका। 'इतस्तटी इतो व्याघ्रः' (इधर नदी और इधर बाघ) । वह सोचने लगा कि क्या करना चाहिए? महल के पास की पुरानी राजशाला में आग लगवा दी। उधर श्रेणिक भगवान् के सन्निकट पहुंचा। भगवान् के मुख से जब यह सुना कि 'रानी चेलना शीलवती है तो श्रेणिक सन्न रह गया। वह महलों की ओर दौड़ा। अभयकुमार से संवाद पाकर प्रसन्न हुआ। उसने चेलना से पूछा- 'तुमने कल रात में सोते-सोते यह कहा था कि 'उसका क्या होता होगा?' इसका क्या तात्पर्य है ?' उसने कहा-'राजन्, कल मैं उद्यानिका करने गई थी। वहां एक मुनि को ध्यान करते देखा। वे नग्न खड़े थे। शीत लहर चल रही थी। मैं इतने सारे वस्त्रों में शीत के कारण ठिठुरने लगी। मैंने सोचा कि आश्चर्य है ! वे मुनि इतनी कठोर शीत को कैसे सह लेते हैं ? ये विचार बार-बार मन में संक्रान्त हुए। सारी रात उसी मुनि का ध्यान रहा । संभव है, स्वप्नावस्था में मुनि की अवस्था को देखकर मैंने कह दिया हो कि उसका क्या होता होगा?' चेलना की बात सुनकर राजा अवाक रह गया। महारानी चेलना ऐश्वर्य और शील दोनों से उन्नत थीं।
ऐश्वर्य से सम्पन्न और शीलाचार से प्रणत राजा जितशत्रु की रानी का नाम सुकुमाला था। वह सुकुमार और सुन्दर थी। राजा उसके सौन्दर्य पर इतना आसक्त था कि वह अपने राज्य-कार्य में भी दिलचस्पी नहीं लेता था। मन्त्रियों ने निर्णय कर राजा और रानी दोनों को घोर जंगल में छोड़ दिया। वे जैसे-तैसे एक नगर में पहुंचे और अपनी आजीविका चलाने लगे। राजा ने नौकरी प्रारम्भ की। रानी अकेली झोंपड़ी में रहने लगी। उसका मन ऊब गया। वह राजा से बोली-'अकेले मेरा मन नहीं लगता।' राजा ने एक दिन एक गवैये को देखा । वह बहुत सुन्दर गाता था। वह पंगु था। उसे रानी का मन बहलाने रख दिया।
रानी गायन सुनकर अपना समय व्यतीत करने लगी। उसके मधुर संगीत से धीरे-धीरे रानी का मन प्रेमासक्त हो गया। रानी का सम्बन्ध उसके साथ जुड़ गया। पंगु ने कहा-'राजा विघ्न है । भेद खुल जाने पर हम दोनों को मार देगा, इसलिए इसका उपाय करना चाहिए।' रानी ने कहा--'मैं करूंगी।' एक दिन नदी-बिहार के लिए दोनों गए। रानी ने गहरे पानी में राजा को धक्का मारा कि वह प्रवाह में बहते हुए दूर जा निकला। रानी वापिस लौट आई। दोनों आनन्द से रहने लगे।
रानी ऐश्वर्य से सम्पन्न थी, किन्तु उसका शील प्रणत था।
ऐश्वर्य से प्रणत और शीलाचार से सम्पन्न घटना लंदन के उपनगर की है। वह ग्वाला था। उसके घर पर एक विदेशी भारतीय ठहरा हुआ था। उसके यहां एक लड़की दूध की सप्लाई का काम करती थी। एक दिन उसका चेहरा उतरा हुआ सा था। विदेशी ने उससे इसका कारण
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स्थान ४ : टि०६-१५
पूछा, उसने कहा—'मैं रोज ग्राहकों को दूध देती हूं। आज दूध कुछ कम है। आज मैं अपने ग्राहकों को दूध कैसे दे पाऊंगी ? यही मेरी उदासी का कारण है।'
उसने कहा-'इसमें उदास होने जैसी कौन-सी बात है ? इसका उपाय मैं जानता हूं।' उसने बिना पूछे ही अपना रहस्य खोल दिया। कहा—'जितना कम है, उतना पानी मिला दो।'
यह सुनकर लड़की का खून खौल उठा। उसने उस युवक को अपने घर से निकालते हुए कहा-'मैं ऐसे राष्ट्रद्रोही को अपने घर में नहीं रखना चाहती।'
वह ग्वालिन ऐश्वर्य से प्रणत किन्तु शील से सम्पन्न थी।
ऐश्वर्य से प्रणत और शीलाचार से प्रणत एक सन्त अपने शिष्य के साथ बैठे थे। वहां एक व्यक्ति आया और शिष्य को गालियां बकने लगा। शिष्य अपने शील-स्वभाव में लीन था। वह सहता गया। काफी समय बीत गया। उसकी जबान बन्द नहीं हुई तो शिष्य की जबान खुल गई। उसने अपने स्वभाव को छोड़ असुरता को अपना लिया। संत ने जब यह देखा तो वे अपने बोरिये-बिस्तर समेट चलने लगे। शिष्य को गुरु का यह व्यवहार बड़ा अटपटा लगा। उसने पूछा-'आप मुझे इस हालत में छोड़ कहां जा रहे हो?'
संत ने कहा-'मैं तेरे पास था और तेरा साथी था जब तक तू अपने में था। जब तू ने अपने को छोड़ दिया तब मैं तेरा साथ कैसे दे सकता हूं? तुम्हारे पास धन-दौलत नहीं है । तुम ऐश्वर्य से प्रणत हो किन्तु तुम अभी शील से भी प्रणत हो गए...नीचे गिर गये।'
ऐश्वर्य से उन्नत और व्यवहार से उन्नत फ्रांस के बादशाह हेनरी चतुर्थ अपने अंगरक्षकों एवं मंत्रियों के साथ जा रहे थे । मार्ग में एक भिखारी मिला। उसने अपनी टोपी उतार कर अभिवादन किया। बादशाह ने स्वयं भी वैसा ही किया। अंगरक्षक और मंत्रियों को यह सुंदर नहीं लगा। किसी ने बादशाह से पूछा--'आप फ्रांस के बादशाह हैं, वह भिखारी था। उसके अभिवादन का उत्तर आपने टोप उतारकर कैसे दिया?'
बादशाह ने कहा-'वह एक सामान्य व्यक्ति है, किन्तु उसका व्यवहार कितना शिष्ट था। मैं बड़ा हूं तो क्या मेरा व्यवहार उससे अशिष्ट होना चाहिए? बड़ा वही है जिसका व्यवहार सभ्य हो ।
हेनरी चतुर्थ ऐश्वर्य से सम्पन्न तो थे ही, साथ-साथ उनका व्यवहार भी उन्नत था।
ऐश्वर्य से उन्नत और व्यवहार से प्रणत एक भिखारी मांगता हुआ एक सम्पन्न व्यक्ति की दुकान पर आकर बोला--'कुछ दीजिए।' धनी ने उसकी कुछ आवाजें सुनी-अनसुनी कर दी। उसने अपना प्रण नहीं छोड़ा तो उसे हार कर उस ओर देखना पड़ा। देखा, और कहा'आज नहीं, कल आना।' वह आश्वासन लेकर चला गया। दूसरे दिन बड़ी आशा लिए सेठ की दुकान पर खड़े होकर आवाज लगाई। सेठ बोला-'अरे ! आज क्यों आया है ? मैंने तो तुझे कल आने के लिए कहा था।' वह विचारों में खोया हुआ पुनः चल पड़ा। ऐसे सात दिन बीत गये। तब उसे लगा यह सेठ बड़ा धृष्ट है, व्यवहार शून्य है।
जिसे लोक-व्यवहार का बोध नहीं है, वह मुों का शिरोमणि है। इसे अपना दण्ड मिलना चाहिए। मैं छोटा हूं और ये बड़े हैं। कैसे प्रतिशोध । अन्ततः प्रतिगोत्र ने एक आप इंड निकाला। उसने कहीं से रूप-परिवर्तन की विद्या प्राप्त की।
एक दिन वह सेठ का रूप बनाकर आया। सेठ कहीं बाहर गया हुआ था। दूकान की चाभी लड़कों से लेकर दूकान पर आ बैठा। सब कुछ देखा। धन को अपने सामने रखकर लोगों को दान देने लगा। कुछ ही क्षणों में सारा शहर
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स्थान ४:टि०४-१५
इस अप्रत्याशित दान के संवाद से मुखरित हो उठा। लोक देखने लगे, जिसने पैसे को भगवान् मान सेवा की, आज अपने ही हाथों से वितरित कर कैसा पुण्य अर्जन कर रहा है।
संयोग की बात घर का मूल-मालिक वह सेठ भी आ पहुंचा। उसने जब यह चर्चा सुनी तो सहसा विश्वास नहीं हुआ। वह आया। भीड़ देखी तो हक्का-बक्का रह गया। पुलिस के आदमियों ने दोनों को हिरासत में ले लिया।
राजा के सामने वह मामला आया तो राजा का सिर भी घूम गया। मंत्री को इसके निर्णय का अधिकार दिया। मंत्री ने सोचा-'दोनों समान हैं। इनका अन्तर ऊपर से निकालना असंभव है। संभव है, एक विद्या-सम्पन्न है। वही झूठा है।' मंत्री ने सूझ-बूझ से काम लिया। दोनों को सामने खड़ा कर कहा-'जो इस कमल की नाल में से बाहर निकल जाएगा, वह असली।' जो रूप बदलना जानता था, उसने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। दूसरे ही क्षण देखते-देखते वह कमल से बाहर निकल आया। मंत्री ने कहा-'पकड़ो इसे, यह नकली सेठ है।'
उसने राजा को सही घटना सुनाते हुए कहा-'यदि यह सेठ मेरे साथ दुर्व्यवहार नहीं करता तो आज इसे इतने बड़े धन से हाथ नहीं धोना पड़ता। यह सेठ ऐश्वर्य से सम्पन्न है, किन्तु व्यवहार से प्रणत है।'
ऐश्वर्य से प्रणत और व्यवहार से उन्नत घटना जैन रामायण की है। राम, लक्ष्मण और सीता तीनों वनवासी जीवन-यापन करते हुए एक साधारण से गांव में पहुंचे। तीनों को प्यास सता रही थी। वे पानी की टोह में थे। किसी ने अग्नि-होत्री ब्राह्मण का घर बताया। घर साधारण था। गरीबी बाहर झांक रही थी। राम वहां पहुंचे। उस समय घर में ब्राह्मण-पत्नी थी। जैसे ही देखा कि अतिथि आये हैं, वह बाहर आई और बड़े मधुर शब्दों में उनका स्वागत किया। सबके लिए अलग-अलग आसन लगा दिये। सब बैठ गये। ठंडे पानी के लोटे सामने रख दिये। सबने पानी पिया। उसके मृदु और सौम्य व्यवहार से सब बड़े प्रसन्न हुए। ब्राह्मणी ऐश्वर्य से प्रणत थी, किन्तु उसका व्यवहार उन्नत था।
ऐश्वर्य से प्रणत और व्यवहार से भी प्रणत ब्राह्मण-पत्नी का कमनीय व्यवहार जिस प्रकार राम, लक्ष्मण और सीता के हृदय को वेध सका, वैसे उसके पति का नहीं। वह उसके सर्वथा उल्टा था। शिक्षा-दीक्षा में उससे बहुत बढ़ा-चढ़ा था, किन्तु व्यवहार से नहीं। जैसे ही वह घर में आया और अतिथियों को देखा तो पत्नी पर बरस पड़ा। क्रोधोन्मत्त होकर बोला-'पापिनी ! यह क्या किया तुमने ? किनको घर में बैठा रखा है ? जानती नहीं तू, मैं अग्निहोत्री ब्राह्मण हूं। घर को अपवित्र कर दिया। देख, ये कितने मैलेकुचेले हैं। तू प्रतिदिन किसी-न-किसी का स्वागत करती रहती है । तू चली जा मेरे घर से।' वह बेचारी शर्म के मारे जमीन में गढ़ गई। सीता के पीछे आकर बैठ गई।
ब्राह्मण इतने से भी सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसका क्रोध विकराल बना हुआ था। उसने कहा- मैं अभी जलता हुआ लक्कड़ लाकर तेरे मुंह में डालता हूं।' वह लक्कड़ लाने के लिए उठ खड़ा हुआ। क्रोध में विवेक नहीं रहता। ब्राह्मण ऐश्वर्य और व्यवहार दोनों से प्रणत था।
ऐश्वर्य से उन्नत और पराक्रम से उन्नत भगवान् ऋषभनाथ के सौ पुत्रों में से भरत और बाहुबली दो बहुत विश्रुत हैं। भरत चक्रवर्ती थे। इन्हीं के नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा। बाहुबली चक्रवर्ती नहीं थे, किन्तु वे एक चक्रवर्ती से भी लोहा लेने वाले थे। भरत को अपने चक्रवतित्व का गर्व था। उन्होंने अपने छोटे अठानबे भाइयों का राज्य ले लिया। उनकी लिप्सा शान्त नहीं बनी। उन्होंने बाहुबली के पास दूत भेजा। बाहुबली को अपने पौरुष पर भरोसा था और अपनी प्रजा पर। उन्होंने भरत के आदेश को चुनौती दे दी। भरत तिलमिला उठे। उन्होंने बाहुबली के प्रदेश बाल्हीक पर आक्रमण कर दिया।
बाल्हीक की प्रजा इस अन्याय के विरुद्ध तैयार होकर मैदान में उतर आई । भरत के दांत खट्टे हो गए। बहुत लम्बा युद्ध चला। उनका शारीरिक पराक्रम अद्वितीय था। उन्होंने अपनी मुष्टि भरत पर उठाई। उस मुष्टि का प्रहार यदि वे
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स्थान ४ : टि० १६ भरत पर कर देते तो भरत जमीन में गढ़ जाते। किन्तु इतने में ही उनका चैतसिक पराक्रम जाग उठा। वे तत्काल मुनि बने और लम्बे कायोत्सर्ग में खड़े हो गए।
बाहुबली ऐश्वर्यशाली तो थे ही, साथ-साथ शारीरिक और चैतसिक-दोनों पराक्रमों से उन्नत भी थे।
ऐश्वर्य से उन्नत और पराक्रम से प्रणत एक धनवान सेठ रुपये लेकर आ रहा था। रास्ते में जंगल पड़ता था। वह अकेला था। भय उसे सता रहा था। थोड़ी दूर आगे गया, इतने में कुछ व्यक्तियों की आहट सुनाई दी। उसका शरीर कांप उठा। वह इधर-उधर ताण ढूंढ़ने लगा। उसे दिखाई दिया पास में एक मन्दिर । वह उसमें घुसकर देवी से प्रार्थना करने लगा। देवी ने कहा-वत्स ! डर मत । इस दरवाजे को बन्द कर दे। वह बोला---'मां ! मेरे हाथ कांप रहे हैं, मेरे से यह नहीं होगा।'
देवी बोली-तू जोर से आवाज कर।' उसने कहा---'मां ! मेरी जीभ सूख रही है। मेरे से आवाज कैसे हो ?' देवी ने फिर कहा-'यदि तू ऐसा नहीं कर सकता तो एक काम कर, मेरी इस मूर्ति के पीछे आकर बैठ जा।' वह बोला- 'मां ! मेरे पैर स्तब्ध हो गये। मैं यहां से खिसक नहीं सकता।' देवी ने कहा- 'जो इतना क्लीव है, पराक्रमहीन है, मैं ऐसे कायर व्यक्ति की सहायता नहीं कर सकती।' सेठ ऐश्वर्य से सम्पन्न था, किन्तु पराक्रम से प्रणत।
ऐश्वर्य से प्रणत और पराक्रम से उन्नत महाराणा प्रताप का 'भाट' दिल्ली दरबार में पहुंचा। बादशाह अकबर सभा में उपस्थित थे। बहुत से मन्त्रीगण सामने बैठे थे । उसने बादशाह को सलाम की। खुश होने के बनिस्वत बादशाह गुस्से में आ गया। इसका कारण था उसकी अशिष्टता। सामान्यतया नियम था कि जो भी व्यक्ति बादशाह को सलाम करे, वह अपनी पगड़ी उतार कर करे। प्रताप का भाट इसका अपवाद था। उसने वैसे नहीं किया।
बादशाह ने कहा---'तुमने शिष्टता का अतिक्रमण कैसे किया ?' उसने कहा- 'बादशाह साहब ! आपको ज्ञात होना चाहिए, यह पगड़ी महाराणा प्रताप की दी हुई है। जब वे आपके चरणों में नहीं झुकते तो उनकी दी हुई पगड़ी कैसे झुक सकती है ?' सारी सभा स्तब्ध रह गई। उसके स्वाभिमान और अभय की सर्वत्र चर्चा होने लगी।
भाट ऐश्वर्य से प्रणत था, किन्तु उसकी नस-नस में पराक्रम बोल रहा था। वह पराक्रम से उन्नत था।
१६ (सू० १२)
ऋजुता और वक्रता के अनेक मानदण्ड हो सकते हैं। उदाहरणस्वरूप --- १. कुछ पुरुष वाणी से भी ऋजु होते हैं और व्यवहार से भी ऋजु होते हैं। २. कुछ पुरुष वाणी से ऋजु होते हैं, किन्तु व्यवहार से वक्र होते हैं। ३. कुछ पुरुष वाणी से वक्र होते हैं, किन्तु व्यवहार से ऋजू होते हैं। ४. कुछ पुरुष वाणी से भी वक्र होते हैं और व्यवहार से भी वक्र होते हैं।
वक्र और वक्र एक थी वृद्धा ! बुढ़ापे के कारण उसकी कमर झुक गई थी। वह गर्दन सीधी कर चल नहीं पाती थी। बच्चे उसे देख हँसते थे। कुछ शिष्ट और सभ्य व्यक्ति करुणा भी दिखाते थे। बुढ़िया चुपचाप सब सहन कर लेती, लेकिन जब वह लोगों की हँसी देखती तो उसे तरस कम नहीं आती, किन्तु लाचार थी।
एक दिन नारदजी घूमते हुए उधर आ निकले। मार्ग में बुढ़िया से उनकी भेंट हो गई। नारदजी को बड़ी दया
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स्थान ४ : टि०१७-१६
आई। उन्होंने कहा-'बुढ़िया ! तुम कहो तो मैं तुम्हारी 'कुबड़' (कुब्जापन) ठीक कर दूं, जिससे तुम अच्छी तरह चल सको?'
बुढ़िया ने कहा---'भगवन् ! आपकी दया है। इसके लिए मैं आपकी कृतज्ञ हूं। किन्तु मुझे मेरे इस कुब्जेपन का इतना दु:ख नहीं है, जितना दुःख है पड़ोसियों का मेरे साथ मखौल करने का । मैं चाहती हूं कि मेरे इन पड़ोसियों को आप कुबड़े बना दें जिससे मैं देख लूं कि इन पर क्या बीतती है ?'
नारदजी ने देखा कि इसका शरीर ही टेढ़ा नहीं है, किन्तु मन भी टेढ़ा है।
१७ (सू० २३)
विशेष जानकारी के लिए देखें-दसवेआलियं ७१ से ६ तक के टिप्पण।
१८ (सू० २४)
प्रकृति से शुद्ध--जिस वस्त्र का निर्माण निर्मल तन्तुओं से होता है, वह प्रकृति से शुद्ध होता है। स्थिति से शुद्ध-जो वस्त्र मैल से मलिन नहीं हुआ है, वह स्थिति से शुद्ध है।
प्रकृति और स्थिति की दृष्टि से शुद्धता का प्रतिपादन उदाहरणस्वरूप है। शुद्धता की व्याख्या अन्य दृष्टिकोणों से भी की जा सकती है, जैसे
१. कुछ वस्त्र पहले भी शुद्ध होते हैं और बाद में भी शुद्ध होते हैं। २. कुछ वस्त्र पहले शुद्ध होते हैं, किन्तु बाद में अशुद्ध होते हैं। ३. कुछ वस्त्र पहले अशुद्ध होते हैं, किन्तु बाद में शुद्ध होते हैं। ४. कुछ वस्त्र पहले भी अशुद्ध होते हैं और बाद में भी अशुद्ध होते हैं। उक्त दृष्टान्त की तरह दार्टान्तिक की व्याख्या भी अनेक दृष्टिकोणों से की जा सकती है।
१६ (सू० ३६)
प्रस्तुत सूत्र की चतुर्भङ्गी में प्रथम और चतुर्थ भंग--सत्य और सत्यपरिणत तथा असत्य और असत्यपरिणत---घटित हो जाते हैं, किन्तु द्वितीय और तृतीय भङ्ग घटित नहीं होते। उनका आकार यह है
कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्यपरिणत होते हैं। कुछ पुरुष असत्य, किन्तु सत्यपरिणत होते हैं।
सत्य असत्यपरिणत और असत्य सत्यपरिणत कैसे हो सकता है ? सत्य की व्याख्या एक नय से की जाए तो निश्चित ही यह समस्या हमारे सामने उपस्थित होती है। यहां उसकी व्याख्या दो नयों से की गई है, इसलिए यथार्थ में कोई जटिलता नहीं है । वृत्तिकार ने सत्य के दो अर्थ किए हैं। पहले अर्थ का सम्बन्ध वचन से है और दूसरे अर्थ का सम्बन्ध क्रिया से है। एक आदमी वस्तु या घटना जैसी होती है, उसी रूप में उसका प्रतिपादन करता है। वह वचन की दृष्टि से सत्य होता है। वही आदमी प्रतिज्ञा करता है कि मैं अप्रामाणिक व्यवहार नहीं करूंगा, किन्तु कुछ समय बाद वह अप्रामाणिक व्यवहार करने लग जाता है। वह अपनी प्रतिज्ञा-भंग के कारण असत्यपरिणत हो जाता है। इस प्रकार वचन की दृष्टि से जो सत्य होता है, वह प्रतिज्ञा का अतिक्रमण करने के कारण क्रिया-पक्ष में असत्यपरिणत हो जाता है।
इसी प्रकार एक आदमी वस्तु या घटना के विषय में यथार्थभाषी नहीं होता, किन्तु प्रतिज्ञा करने पर उसका निष्ठा के साथ निर्वाह करता है। वह वचन-पक्ष में असत्य होकर भी क्रिया-पक्ष में सत्यपरिणत होता है।
इनकी अन्य नयों से भी मीमांसा की जा सकती है। मनुष्य की प्रकृति और चिन्तन-प्रवाह की असंख्य धाराएँ हैं। अतः उन्हें किसी एक ही दिशा में बांधा नहीं जा सकता।
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स्थान ४ : टि० २०-२३
२० (सू० ५५)
जो पुरुष सेवा करने वाले को उचित काल में उचित फल देता है, वह आम्रफल की कलि के समान होता है। जो पुरुष सेवा करने वाले को बहुत लम्बे समय के बाद फल देता है, वह ताड़फल की कलि के समान होता है । जो पुरुष सेवा करने वाले को तत्काल फल देता है, वह वल्लीफल की कलि के समान होता है।
जो पुरुष सेवा करने वाले का कोई उपकार नहीं करता केवल सुन्दर शब्द कह देता है, वह मेषशन की कलि के समान होता है। क्योंकि मेषशृङ्ग की कलि का वर्ण सोने जैसा होता है, किन्तु उससे उत्पन्न होने वाला फल अखाद्य होता है । यहां मेषशृङ्ग शब्द का अर्थ ज्ञातव्य है
मेषशृङ्ग के फल मेढ़े के सीग के समान होते हैं, इसलिए इसे मेष-विषाण कहा जाता है। वृत्ति में इसका नाम आउलि बताया गया है
मेषशृङ्गसमानफला वनस्पतिजातिः, आउलिविशेष इत्यर्थः-स्थानांगवृत्ति, पत्र १७४ ।
२१ (सू० ५६)
जिस घुण के मुंह की भेदन-शक्ति जितनी अल्प या अधिक होती है उसी के अनुसार वह त्वचा, छाल, काष्ठ या सार को खाता है।
जो भिक्षु प्रान्त आहार करता है, उसमें कर्मों के भेदन की शक्ति-सार को खाने वाले धुण के मुंह के समान अधिकतर होती है।
जो भिक्षु विगयों से परिपूर्ण आहार करता है, उसमें कर्मों के भेदन की शक्ति–त्वचा को खाने वाले घुण के मुंह के समान अत्यल्प होती है।
... जो भिक्षु रूखा आहार करता है, उसमें कर्मों के भेदन की शक्ति-काष्ठ को खाने वाले घुण के मुंह के समान अधिक होती है।
__ जो भिक्षु दूध-दही आदि विगयों का आहार नहीं करता, उसमें कर्मों के भेदन की शक्ति-छाल को खाने वाले घुण के मुंह के समान अल्प होती है।
२२ (सू० ५७)
तृणवनस्पति-कायिक (तणवणस्सइकाइया) वनस्पतिकाय के दो प्रकार हैं--सूक्ष्म और बादर । बादर वनस्पतिकाय के दो प्रकार हैं१. प्रत्येकशरीरी। २. साधारणशरीरी। प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पतिकाय के बारह प्रकार हैं
१. वृक्ष, २. गुच्छ, ३. गुल्म, ४. लता, ५. वल्ली, ६. पर्वग, ७. तृण, ८. वलय, ६. हरित, १०. औषधि, ११. जलरूह, १२. कुहण। इनमें तृण सातवां प्रकार है । सभी प्रकार की घास का तृण वनस्पति में समावेश हो जाता है।
२३ (सू० ६०)
ध्यान शब्द की विशद जानकारी के लिए ध्यान-शतक द्रष्टव्य है । उसके अनुसार चेतना के दो प्रकार हैं-चल और स्थिर । चल चेतना को चित् और स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है।'
१. प्रज्ञापना- पद ।
२. ध्यानशतक, २ : जं थिरमज्झवसाणं, झाणं जं चलं तयं चित्तं ।
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स्थान ४ : टि०२४-३५
बहुलदोष
ध्यान के वर्गीकरण में प्रथम दो ध्यान-आर्त और रौद्र उपादेय नहीं हैं। अन्तिम दो ध्यान-धर्म्य और शुक्ल उपादेय हैं । आर्त और रौद्र ध्यान शब्द की समानता के कारण ही यहां निर्दिष्ट हैं। २४-२७ (सू० ६१-६४)
प्रस्तुत चार सूत्रों में आर्त और रौद्र ध्यान के स्वरूप तथा उनके लक्षण निर्दिष्ट हैं । आत ध्यान में कामाशंसा और भोगाशंसा की प्रधानता होती है, और रौद्रध्यान में क्रूरता की प्रधानता होती है।
ध्यानशतक में रौद्र ध्यान के कुछ लक्षण भिन्न प्रकार से निर्दिष्ट हैं। --स्थानांग---
-ध्यानशतकउत्सन्नदोष
उत्सन्नदोष बहुदोष अज्ञानदोष
नानाविधदोष आमरणान्तदोष
आमरणदोष इनमें दूसरे और चौथे प्रकार में केवल शब्द भेद है। तीसरा प्रकार सर्वथा भिन्न है। नानाविधदोष का अर्थ है-- चमड़ी उखेड़ने, आंखें निकालने आदि हिंसात्मक कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना। हिंसाजनित नाना विध क्रूर कर्मों में प्रवृत्त होना अज्ञानदोष से भी फलित होता है। अज्ञान शब्द इस तथ्य को प्रगट करता है कि कुछ लोग हिंसा प्रतिपादक शास्त्रों से प्रेरित होकर धर्म या अभ्युदय के लिए नाना विध क्रूर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। २८-३५ (सू० ६५-७२)
इन आठ सूत्रों में धर्म्य और शुक्ल ध्यान के ध्येय, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षाएं निर्दिष्ट हैं। धर्म्यध्यान
धर्म्यध्यान के चार ध्येय बतलाए गए हैं। ये अन्य ध्येयों के संग्राहक या सूचक हैं। ध्येय अनंत हो सकते हैं। द्रव्य और उनके पर्याय अनन्त हैं। जितने द्रव्य और पर्याय हैं, उतने ही ध्येय हैं। उन अनन्त ध्येयों का उक्त चार प्रकारों में समासीकरण किया गया है।।
आज्ञाविचय प्रथम ध्येय है। इसमें प्रत्यक्ष-ज्ञानी द्वारा प्रतिपादित सभी तत्त्व ध्याता के लिए ध्येय बन जाते हैं। ध्यान का अर्थ तत्त्व की विचारणा नहीं है। उसका अर्थ है तत्त्व का साक्षात्कार । धर्म्यध्यान करने वाला आगम में निरूपित तत्त्वों का आलम्बन लेकर उनका साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है।
दूसरा ध्येय है अपायविचय। इसमें द्रव्यों के संयोग और उनसे उत्पन्न विकार या वैभाविक पर्याय ध्येय बनते हैं।
तीसरा ध्येय है विपाकविचय। इसमें द्रव्यों के काल, संयोग आदि सामग्रीजनित परिपाक, परिणाम या फल ध्येय बनते हैं।
चौथा ध्येय है संस्थानविचय। यह आकृति-विषयक आलम्बन है। इसमें एक परमाणु से लेकर विश्व के अशेष द्रव्यों के संस्थान ध्येय बनते हैं।
धर्म्यध्यान करने वाला उक्त ध्येयों का आलम्बन लेकर परोक्ष को प्रत्यक्ष की भूमिका में अवतरित करने का अभ्यास करता है। यह अध्ययन का विषय नहीं है, किन्तु अपने अध्यवसाय की निर्भलता से परोक्ष विषयों के दर्शन की साधना है।
ध्यान से पूर्व ध्येय का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक होता है। उस ज्ञान की प्रक्रिया में चार लक्षणों और चार आलम्बनों का निर्देश किया गया है।'
१. क-लक्षणों की जानकारी के लिए देखें-स्थानांग १०।१०४
का टिप्पण। वृत्तिकार ने अवगाढ़रुचि का अर्थ द्वादशांगी का अवगाहन किया है-स्थानांग वृत्ति, पन १७६ :
अवगाहनमवगाढम्-द्वादशाङ्गावगाहो विस्तराधिगम इति सम्भाव्यते तेन रुचिः ।
तत्त्वार्थवार्तिक में भी इसका यही अर्थ मिलता है। देखें-उत्तराध्ययन २८१६ का टिप्पण । ख-आलम्बनों की जानकारी के लिए देखें-स्थानांग ५।२२०
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स्थान ४ : टि०३५
ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक होती है, अहंकार और ममकार का विसर्जन आवश्यक होता है। इस स्थिति की प्राप्ति के लिए चार अनुप्रेक्षाओं का निर्देश किया गया है। एकत्वभावना का अभ्यास करने वाला अहं के पाश से मुक्त हो जाता है । अनित्यभावना का अभ्यास करने वाला ममकार के पाश से मुक्त हो जाता है। धर्म्यध्यान का शब्दार्थ
जो धर्म से युक्त होता है, उसे धर्म्य कहा जाता है। धर्म का एक अर्थ है आत्मा की निर्मल परिणति--मोह और क्षोभरहित परिणाम। धर्म का दूसरा अर्थ है -सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। धर्म का तीसरा अर्थ हैवस्तु का स्वभाव । इन अथवा इन जैसे अन्य अर्थों में प्रयुक्त धर्म को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है। धर्म्यध्यान के अधिकारी
अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयति और अप्रमत्तसंयति- इन सबको धHध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो सकती है। शुक्लध्यान के अधिकारी
शुक्लध्यान के चार चरण हैं। उनमें प्रथम दो चरणों-पृथक्त्ववितर्क-सविचारी और एकत्ववितर्क-अविचारी के अधिकारी श्रुतकेवली (चतुर्दशपूर्वी) होते हैं। इस ध्यान में सूक्ष्म द्रव्यों और पर्यायों का आलम्बन लिया जाता है, इसलिए सामान्य श्रुतधर इसे प्राप्त नहीं कर सकते। १. पृथक्त्ववितर्क-सविचारी
जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों.-नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की उस स्थिति को पृथक्त्ववितर्क-सबिचारी कहा जाता है। २. एकत्ववितर्क-अविचारी
जब एक द्रव्य के किसी एक पर्याय का अभेद दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द, अर्थ एवं मन, वचन, काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की उस स्थिति को एकत्ववितर्क-अविचारी कहा जाता है। ३. सूक्ष्मक्रिय-अनिवृत्ति
जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होताश्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है। इसका निवर्तन-ह्रास नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है। ४. समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति
____ जब सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को समुच्छिन्नक्रिय कहा जाता है । इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाति है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने हरिभद्रसूरिकृत योगबिन्दु के आधार पर शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों की तुलना
१. तत्त्वार्थभाग्य, ९२८ : धर्मादनपेतं धय॑म् । २. तत्त्वानुशासन, ५२, ५५:
आत्मनः परिणामो यो, मोह-क्षोभ-विवजितः । स च धर्मोऽनपेतं यत्तस्माद्धय॑मित्यपि ।। यश्चोत्तमक्षमादिः स्याद्धर्मो दशतयः परः।
ततोऽनपेतं यद्ध्यानं. तद्वा धम्यं मितीरितम् ।। ३. तत्त्वानुशासन, ५१:
सदुष्टि-ज्ञान-वृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि, धम्यं तद्ध्यानमभ्यधुः ।।
४. तत्त्वानुशासन, ५३, ५४ :
शून्यीभवदिदं विश्वं, स्वरूपेण धृतं यतः । तस्माद्वस्तुस्वरूपं हि, प्रादुर्घम महर्षयः ।। ततोऽनपेतं यज्ज्ञानं, तक्षHध्यानमिष्यते ।
धमों हि वस्तुयाथात्म्यमित्यारेऽप्यभिधानतः।। ५. तत्त्वार्थसूत्र, ६।३७ : शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ।
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स्थान ४ : टि० ३५
संप्रज्ञातसमाधि से की है। संप्रज्ञातसमाधि के चार प्रकार हैं-वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। उन्होंने शुक्लध्यान के शेष दो चरणों की तुलना असंप्रज्ञातसमाधि से की है।
प्रथम दो चरणों में आए हुए वितर्क और विचार शब्द जैन, योगदर्शन और बौद्ध तीनों को ध्यान-पद्धतियों में समान रूप से मिलते हैं। जैन साहित्य के अनुसार वितर्क का अर्थ श्रुतज्ञान और विचार का अर्थ संक्रमण है। वह तीन प्रकार का होता है१. अर्थविचार
____ अभी द्रव्य ध्येय बना हुआ है, उसे छोड़ पर्याय को ध्येय बना लेना। पर्याय को छोड़ फिर द्रव्य को ध्येय बना लेना अर्थ का संक्रमण है। २. व्यञ्जनविचार
___अभी एक श्रुतवचन ध्येय बना हुआ है, उसे छोड़ दूसरे श्रुतवचन को ध्येय बना लेना। कुछ समय बाद उसे छोड़ किसी अन्य श्रुतवचन को ध्येय बना लेना व्यञ्जन का संक्रमण है। ३. योगविचार
काययोग को छोड़कर मनोयोग का आलम्बन लेना, मनोयोग को छोड़कर फिर काययोग का आलम्बन लेना योगसंक्रमण है।
यह संक्रमण श्रम को दूर करने तथा नए-नए ज्ञान-पर्यायों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, जैसे—हम लोग मानसिक ध्यान करते हुए थक जाते हैं, तब कायिकध्यान (कायोत्सर्ग, शरीर का शिथिलीकरण) प्रारम्भ कर देते हैं। उसे समाप्त कर फिर मानसिकध्यान प्रारम्भ कर देते हैं। पर्यायों के सूक्ष्मचिन्तन से थककर द्रव्य का आलम्बन ले लेते हैं। इसी प्रकार श्रुत के एक वचन से ध्यान उचट जाए तब दूसरे वचन को आलम्बन बना लेते हैं। नई उपलब्धि के लिए ऐसा करते हैं।
योगदर्शन के अनुसार वितर्क का अर्थ स्थूलभूतों का साक्षात्कार और विचार का अर्थ सूक्ष्मभूतों और तन्मात्राओं का साक्षात्कार है।
बौद्धदर्शन के अनुसार वितर्क का अर्थ है आलम्बन में स्थिर होना और विकल्प का अर्थ है उस (आलम्बन) में एकरस हो जाना।
इन तीनों परम्पराओं में शब्द-साम्य होने पर भी उनके संदर्भ पृथक्-पृथक् हैं। आचार्य अकलंक ने ध्यान के परिकर्म (तैयारी) का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है -
"उत्तमशरीरसंहनन होकर भी परीषहों के सहने की क्षमता का आत्मविश्वास हुए बिना ध्यान-साधना नहीं हो सकती। परीषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है। पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी, तट, पुल, श्मशान, जीर्ण उद्यान और शन्यागार आदि किसी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु,
१. जैनदृष्ट्यापरीक्षित पातञ्जलयोगदर्शनम्, १।१७, १८ :
तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारकत्ववितर्काविचाराख्य शुक्लध्यान भेदद्वये संप्रज्ञातः समाधिवं त्यर्थानां सम्यग्ज्ञानात । तदुक्तम्-समाधिरेष एवान्यः संप्रज्ञातोभिधीयते । सम्यक्
प्रकर्षरूपेण वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा। (योगबिन्दु ४१८) २. पातञ्जलयोगदर्शन, १।१७ :
वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः । ३. जनदृष्ट्यापरीक्षित पातञ्जलयोगदर्शनम्, १।१७,१८:
क्षपक श्रेणिपरिसमाप्ती केवलज्ञानलाभस्त्वसंप्रज्ञात: समाधिः, भावमनोवृत्तीनां ग्राह्यग्रहणाकारशालिनीनामवग्रहादि क्रमेण तन्न सम्यक् परिज्ञानाभावात् । अतएव भावमनसा
संज्ञाऽभवाद् द्रव्यमनसा च तत्सद्भावात् केवली नो संज्ञोत्युच्यते । तदिदमुक्तं योगविन्दौ
असं प्रज्ञात एषोपि, समाधिगीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादि-तस्वरूपानवेधतः ।। धर्ममेघोऽमृतात्मा च, भवशन्नुः शिवोदयः । सत्त्वानन्दः परश्चेति,योज्योनवार्ययोगतः।।
(योगबिन्दु ४२०,४२१) ४. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।४४:
विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः । ५. पातञ्जलयोगदर्शन, १।४२-४४ । ६. विशुद्धिमार्ग, भाग १, पृष्ठ १३४ । ७. तत्त्वार्थवार्तिक, ६४४ ।
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स्थान ४ : टि०३६-३८
समशीतोष्ण, अतिवायुरहित, वर्षा, आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफ से बाह्य-आभ्यन्तर बाधाओं से शून्य और पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यङ्कासन में बैठना चाहिए। उस समय शरीर को सम, ऋजु और निश्चल रखना चाहिए। बाएं हाथ पर दाहिना रखकर न खुले हुए और न बन्द, किन्तु कुछ खुले हुए दांतों पर दांतों को रखकर, कुछ ऊपर किये हुए सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किये हुए प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्द-मन्द श्वासोच्छ्वास लेने वाला साधु ध्यान की तैयारी करता है । वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है । इस तरह एकाग्रचित्त होकर राग, द्वेष, मोह का उपशम कर कुशलता से शरीर क्रियाओं का निग्रह कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुआ निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो बाह्य-आभ्यन्तर द्रव्य पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्य से युक्त हो अर्थ
और व्यञ्जन तथा मन, वचन, काय की पृथक्-पृथक् संक्रान्ति करता है। फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर और व्यञ्जन से व्यञ्जनान्तर में संक्रमण करता है।" धर्म्यध्यान की विशेष जानकारी के लिए देखें-- 'अतीत का अनावरण' (पृष्ठ ७६-८६) ध्यान का प्रथम सोपान-धHध्यान नामक लेख ।
३६ क्रोध (सू०७६)
क्रोध की उत्पत्ति के निमित्तों के विषय में वर्तमान मनोविज्ञान की जानकारी जितनी आकर्षक है, उतनी ही ज्ञानवर्धक है । कुछ प्रयोगों का विवरण इस प्रकार है---
व्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह चेतन अथवा अवचेतन मस्तिष्क के निर्देश पर ही होता है । साधारणतया हम जब भी मस्तिष्क की बात करते हैं, हमारा तात्यर्य चेतन मस्तिष्क से ही होता है, तार्किक बुद्धि से। पर क्रोध और हिंसा के बीज इस चेतन मस्तिष्क से नीचे कहीं और गहरे हुआ करते हैं । वैज्ञानिकों का कहना है कि चेतन मस्तिष्क-सैरेबियन कोरटेक्स तो मस्तिष्क के सबसे ऊपर की परत है, जो मनुष्य के विकास की अभी हाल की घटना है। इसके बहुत नीचे 'आदिम मस्तिष्क' है-हिंसा और क्रोध की जन्मभूमि।
और वैज्ञानिकों का यह कथन जानवरों पर किये गये अनेकानेक परीक्षणों का परिणाम है। मस्तिष्क के वे विशेष बिन्दु खोजे जा चुके हैं, जहां क्रोध का जन्म होता है। इस दिशा में प्रयोग करने वालों में डाक्टर जोस एम० आर० डेलगाडो अग्रणी हैं। उन्होंने अपने परीक्षणों द्वारा दूर शांत बैठे बन्दरों को विद्युत्धारा से उनके उन विशेष बिन्दुओं को छूकर लड़वाकर दिखला दिया है। सचमुच, यह सब जादू का-सा लगता है। कल्पना कीजिए.-सामने एक बड़े से पिंजड़े में एक बंदर बैठा केला खा रहा है और आप बिजली का बटन दबाते हैं--अरे यह क्या, बंदर तो केला छोड़कर पिंजड़े की सलाखों पर झपट पड़ा है। दांत किटकिटा रहा है। हां, हिंसक हो गया है। और यह प्रयोग डाक्टर डेलगाडो ने मस्तिष्क के उस विशेष बिन्दु को विद्युत्धारा द्वारा उत्तेजित करके किया है। यही क्यों, उनके सांड़ वाले प्रयोग ने तो कमाल ही कर दिखाया था। क्रोधित सांड़ उनकी ओर झपटा, और उन तक पहुंचने से पहले ही शांत होकर रुक गया। उन्होंने विद्युत्धारा से सांड का क्रोध शांत कर दिया था।
पर आदमी जानवर से कुछ भिन्न होता है। हम तभी हिंसक होते है, जब हम हिंसक होना चाहते हैं। क्योंकि साधारण स्थितियों में ही हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं। पर कुछ लोगों का यह नियंत्रण काफी कमजोर होता है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानशास्त्री डाक्टर इविन तथा डाक्टर मार्क के अनुसार, 'ऐसे व्यक्तियों के मस्तिष्क के आदिम हिस्से में कुछ विशेष घटता रहता है।" .
३७-३८ आभोगनिर्वतित, अनाभोगनिर्वतित (सू० ८८)
आभोगनिर्वतित—जो मनुष्य क्रोध के विपाक आदि को जानता हआ क्रोध करता है, उसका क्रोध आभोगनिर्वर्तित
१. नवभारत टाइम्स, बम्बई, ११ मई, १९७० ।
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स्थान ४ : टि० ३९-४०
कहलाता है। यह स्थानांग के वृत्तिकार अभयदेव सूरि की व्याख्या है।' आचार्य मलयगिरि ने इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उनके अनुसार----एक मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य के अपराध को भलीभांति जान लेता है। उसे अपराध मुक्त करने के लिए वह सोचता है कि सामने वाला व्यक्ति नम्रतापूर्वक कहने से मानने वाला नहीं है । उसे क्रोधपूर्ण मुद्रा ही पाठ पढ़ा सकती है। इस विचार से वह जान-बूझकर क्रोध करता है। इस प्रकार का क्रोध आभोगनिवर्तितकहलाता है।
आचार्य मलयगिरि की व्याख्या अधिक स्पष्ट और हृदयग्राही है। इसकी व्याख्या अन्य नयों से भी की जा सकती है। कोई मनुष्य अपने विषय में किसी दूसरे के द्वारा किए गए प्रतिकूल व्यवहार को नहीं जान लेता तब तक उसे क्रोध नहीं आता। उसकी यथार्थता जान लेने पर उसके मन में क्रोध उभर आता है। यह आभोग निर्वर्तित क्रोध है--स्थिति का यथार्थ बोध होने पर निष्पन्न होने वाला क्रोध है।
अनाभोगनिर्वतित क्रोध--जो मनुष्य क्रोध के विपाक आदि को नहीं जानता हुआ क्रोध करता है, उसका क्रोध अनाभोगनिर्वतित क्रोध कहलाता है।
मलय गिर के अनुसार---जो मनुष्य किसी विशेष प्रयोजन के बिना गुण-दोष के विचार से शून्य होकर प्रकृति की परवशता से क्रोध करता है, उसका क्रोध अनाभोगनिर्वतित क्रोध कहलाता है।
कभी-कभी ऐसा भी घटित होता है कि कोई मनुष्य स्थिति की यथार्थता को नहीं जानने के कारण ऋद्ध हो उठता है। कल्पना या संदेहजनित क्रोध इसी कोटि के होते हैं।
कुछ लोगों को अपने वैभव आदि की पूरी जानकारी नहीं होती। फलत: वे घमंड भी नहीं करते। उसकी वास्तविक जानकारी प्राप्त होने पर उनमें अभिमान का भाव उभर आता है। कुछ लोगों के पास अभिमान करने जैसा कुछ नहीं होता, फिर भी वे अपनी तुच्छ संपदा को बहुत मानते हुए अभिमान करते रहते हैं। उन्हें विश्व की विपुल संपदा का ज्ञान ही नहीं होता। ये दोनों प्रकार के अभिमान क्रमशः आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित होते हैं ।
माया और लोभ की व्याख्या भी अनेक नयों से कारणीय है। ३९. प्रतिमा (सू०६६)
देखें २।२४३-२४८ का टिप्पण। ४०. (सू० १४७)
वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित भूतक का अर्थ निशीथभाष्य के आधार पर किया है। यात्राभूतक के विषय में भाष्यकार ने एक सूचना दी है, जैसे--कुछ आचार्यों का मत है कि यात्राभूतकों से यात्रा में साथ चलना और कार्य करना—ये दोनों बातें निश्चित की जाती थीं।
उच्चत्त और कब्बाल ये दोनों देशीय शब्द हैं। भाष्यकार ने कब्बाल का अर्थ ओड आदि किया है। इस जाति के लोग वर्तमान में भी भुमिखनन का कार्य करते हैं।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र १८२: आभोगो-ज्ञानं तेन निर्वतितो ।
यज्जानन् कोपविपाकादि रुष्यति । २. प्रज्ञापना, पद १४, मलयगिरिवत्ति, पत्र २६१ : यदा परस्या
पराधं सम्यगवबुध्य कोपकारणं च व्यवहारतः पुष्टमवलम्ब्य नान्यथास्य शिक्षोपजायते इत्याभोग्य कोपं च विधत्ते तदा स
कोपो आभोगनिर्वतितः। ३. स्थानांगवत्ति, पत्र १८३ : इतरस्तु यदजानन्निति । ४. प्रज्ञापना, पद १४, मलयगिरी वृत्ति, पन्न २६१ : यदा त्वेन
मेवं तथाविधमुहूर्त्तवशाद् गुणदोषविचारणाशून्य: परवशीभूय कोपं कुरुते तदा स कोपोऽनाभोगनिवतितः ।
५. स्थानांम वृत्ति, पत्र १९२; ६. निशीथभाष्य, ३७१६, ३७२० :
दिवसभयओ उ धिप्पत्ति, छिपणेण धणेण दिवसदेवसियं । जत्ता उ होति गमणं, उभयं वा एत्तियधणेणं ।। कव्वाल उडमादी, हत्थमितं कम्ममेत्तिय धणेणं । एच्चिरकालोच्चत्ते, कायन्वं कम्म जं बैंति ।।
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ठाणं (स्थान)
५०५
४१. ( सू० १६० )
प्रतिसंलीनता बारह प्रकार के तपों में एक तप है। औपपातिक सूत्र में उसके चार प्रकार बतलाए गए हैं
१. इंद्रियप्रतिसंलीनता ३. योगप्रति संलीनता
२. कषायप्रतिसंलीनता ४. विविक्तशयनासनसेवन' ।
प्रस्तुत सूत्र में कषायप्रतिसंलीनता के साधक व्यक्ति का प्रतिपादन किया गया है, प्रतिसंलीनता का अर्थ है - निर्दिष्ट वस्तु के प्रतिपक्ष में लीन होने वाला । औपपातिक के अनुसार कषायप्रतिसंलीनता का अर्थ इस प्रकार फलित है—
१. क्रोधप्रतिसंलीन- क्रोध के उदय का निरोध और उदयप्राप्त क्रोध को विफल करने वाला । २. मानप्रतिसंलीन—मान के उदय का निरोध और उदयप्राप्त मान को विफल करने वाला । ३. मायाप्रतिसंलीन - माया के उदय का निरोध और उदयप्राप्त माया को विफल करने वाला । ४. लोभप्रतिसंलीन लोभ के उदय का निरोध और उदयप्राप्त लोभ को विफल करने वाला ।
४२. (सू० १६२ )
प्रस्तुत सूत्र में योगप्रति संलीनता के साधक व्यक्ति के तीन प्रकारों तथा इंद्रियप्रतिसंलीनता के साधक का निर्देश किया गया है।
स्थान ४ : टि० ४१-४७
औपपातिक के अनुसार इनका अर्थ इस प्रकार है—
१. मनप्रति संलीन – अकुशल मन का निरोध और कुशल मन का प्रवर्तन करने वाला ।
२. वचनप्रति संलीन --- अकुशल वचन का निरोध और कुशल वचन का प्रवर्तन करने वाला ।
३. काय प्रतिसंलीन कूर्म की भांति शारीरिक अवयवों का संगोपन और कुशल काया की प्रवृत्ति करने वाला । ४. इंद्रियप्रतिसंलीन- पांचों इंद्रियों के विषयों के प्रचार का निरोध तथा प्राप्त विषयों पर राग-द्वेष का निग्रह करने वाला ।
४३-४७ (सू० २४१-२४५ )
प्रस्तुत आलाप में विकथा का सांगोपांग निरूपण किया गया है। कथा का अर्थ है - वचन पद्धति । जिस कथा से संयम में बाधा उत्पन्न होती है— ब्रह्मचर्य प्रतिहत होता है, स्वादवृत्ति बढ़ती है, हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है और राजनीतिक दृष्टिकोण का निर्माण होता है, उसका नाम विकथा है। '
वृत्तिकार ने कुछ श्लोक उद्धृत कर विकथा के स्वरूप को स्पष्ट किया है । जातिकथा के प्रसंग में निम्न श्लोक उद्धत है—
१. ओवाइयं, सूत्र ३७ ।
२. ओवाइयं, सून ३७ ।
३. बोवाइयं, सून ३७ ।
धि ब्राह्मणीर्धवाभावे, या जीवन्ति मृता इव । धन्या मन्ये जने शूद्रीः पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः ।।
जो लाख
ब्राह्मणी को धिक्कार है, जो पति के मरने पर जीती हुई भी मृत के समान है। मैं शूद्री को धन्य मानता हूं पतियों का वरण करने पर भी निन्दित नहीं होती ।
४. स्थानांगत्ति, पन १६६ :
विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा – वचनपद्धतिर्विकथा |
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० ४७
कुल कथा
अहो चौलुक्यपुत्रीणां, साहसं जगतोऽधिकम् ।।
पत्युर्म त्यौ विशन्त्यग्नौ, या: प्रेमरहिता अपि ।। चौलुक्य पुत्रियों का साहस संसार में सबसे अधिक और विस्मयकारी है, जो पति की मृत्यु होने पर प्रेम के बिना भी अग्नि में प्रवेश कर जाती है। रूपकथा
चन्द्रवक्ता सरोजाक्षी, सद्गी: पीनधनस्तनी।
कि लाटी नो मता साऽस्य, देवानामपि दुर्लभा ।। चन्द्रमुखी, कमलनयना, मधुर स्वर वाली और पुष्ट स्तन वाली लाट देश की स्त्री क्या उसे सम्मत नहीं है ? जो देवों के लिए भी दुर्लभ है। नेपथ्य कथा
धिग् नारी रौदीच्या, बहुवसनाच्छादितांगुलतिकत्वात् ।
यद् यौवनं न यूनां चक्षुर्मोदाय भवति सदा ।। उत्तराचल की नारी को धिक्कार है, जो अपने शरीर को बहुत सारे वस्त्रों से ढंक लेती है। उसका यौवन युवकों के चक्षुओं को आनंद नहीं देता।
भाष्यकार ने स्त्री-कथा से होने वाले निम्न दोषों का निर्देश किया है-- १. स्वयं के मोह की उदीरणा। २. दूसरों के मोह की उदीरणा । ३. जनता में अपवाद। ४. सूत्र और अर्थ के अध्ययन की हानि। ५. ब्रह्मचर्य की अगुप्ति। ६. स्त्री प्रसंग की संभावना। भक्तकथा करने से निम्न निर्दिष्ट दोष प्राप्त हैं१. आहार सम्बन्धी आसक्ति। २. अजितेन्द्रियता। ३. औदरिकवाद–लोगों द्वारा पेटु कहलाना। देशकथा करने से निम्न निर्दिष्ट दोष प्राप्त होते हैं। -- १. राग द्वेष की उत्पत्ति। २. स्वपक्ष और परपक्ष सम्बन्धी कलह । ३. उसके द्वारा कृत प्रशंसा से आकृष्ट होकर दूसरों का उस देश में जाना। राजकथा करने से निम्न निर्दिष्ट दोष प्राप्त होते हैं१. गुप्तचर, चोर आदि होने की आशंका। २. भुक्तभोगी अथवा अभुक्तभोगी का प्रव्रज्या से पलायन । ३. आशंसाप्रयोग--राजा आदि बनने की आकांक्षा।
१. निशीथ भाष्य, गाथा १२१
आय-पर-मोहुदीरणा, उड्डाहो सुत्तमादिपरिहाणी।
बंभवते अगुत्ती, पसंगदोसा य गमणादी ।। २. निशीथभाष्य, गाथा १२४
आहारमंतरेणाति, गहितो जायई स इंगाल । अजितिदिया ओयरिया, वातो व अणुण्णदोसा तु ।।
३. निशीथभाष्य, गाथा १२७
रागद्दोसुप्पत्ती, सपक्ख-परपक्खो य अधिकरणं ।
बहुगुण इमो त्ति देसो, सोत्तुं गमणं च अणेसि ।। ४. निशीथभाष्य, गाथा १३० ।
चारिय चोराहिमरा-हितमारित-संक-कातुकामा वा। भुत्ताभुत्तोहावणं करेज्ज वा आसंसपयोग ।।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि०४८-५२
इस कथा चतुष्टय में आसक्त रहने वाला मुनि आत्मलीन नहीं हो पाता। फलत: वह प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि से वंचित रहता है।
४८-५२ (सू० २४६-२५०)
प्रस्तुत आलापक में कथा का विशद वर्णन किया गया है। आक्षेपिणी आदि कथा चतुष्टय की व्याख्या दशवकालिकनियुक्ति, मूलाराधना, दशवकालिक की व्याख्याओं, स्थानांगवृत्ति, धवला आदि अनेक ग्रन्थों में मिलती है।
दशवकालिक नियुक्ति और मूलाराधना में इस कथा-चतुष्टय की व्याख्या समान है। स्थानांग वृत्तिकार ने आक्षेपणी की व्याख्या दशकालिक नियुक्ति के आधार पर की है। यह वृत्ति में उद्धृत नियुक्ति गाथा से स्पष्ट होता है। धवला में इसकी व्याख्या कुछ भिन्न प्रकार से मिलती है। उसके अनुसार-नाना प्रकार की एकांत दृष्टियों और दूसरे समयों की निराकरणपूर्वक शुद्धि कर छह द्रव्यों और नव पदार्थों का प्ररूपण करने वाली कथा को आक्षेपणी कहा जाता है। इसमें केवल तत्त्ववाद की स्थापना प्रधान है।' धवलाकर ने एक श्लोक उद्धृत किया है उससे भी यही अर्थ पुष्ट होता है।
प्रस्तुत आलापक में आक्षेपणी के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनसे दशवकालिक नियुक्ति और मूलाराधना की व्याख्या ही पुष्ट होती है।
हमने आचार, व्यवहार आदि का अनुवाद वृत्ति के आधार पर किया है। इन नामों के चार शास्त्र भी मिलते हैं। कछ आचार्य इन्हें यहां शास्त्रवाचक मानते हैं। वृत्तिकार ने स्वयं इसका उल्लेख किया है। विशेष विवरण के लिए देखेंदसवेआलियं, ८१४९ का टिप्पण।
विक्षेपणी की व्याख्या में कोई भिन्नता नहीं है।
स्थानांग वृत्तिकार ने संवेजनी (संवेदनी) की जो व्याख्या की है, वह दशवकालिक नियुक्ति आदि ग्रन्थों की व्याख्या से भिन्न है। उनके अनुसार इसमें वैक्रिय-शुद्धि तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शुद्धि का कथन होता है।
धवला के अनुसार इसमें पुण्यफल का कथन होता है। यह उक्त अर्थ से भिन्न नहीं है।
निर्वदनी की व्याख्या में कोई भिन्नता लक्षित नहीं होती। धवलाकार के अनुसार इसमें पाप फल का कथन होता है।
प्रस्तुत आलापक में निर्वेदनी कथा के आठ विकल्प किए गए हैं। उनसे यह फलित होता है कि पृण्य और पाप दोनों के फलों का कथन करना इस कथा का विषय है। इससे स्थानांग वृत्तिकार कृत संवेजनी की व्याख्या की प्रामाणिकता सिद्ध होती है।
१. स्थानांग, ४।२५४ । २. क-दशवकालिकनियुक्ति, गाथा १६५-२०१ ।
ख-मूलाराधना, ६५६,६५७ ।
ग-पट्खण्डागम, खंड १, पृष्ठ १०४, १०५। ३. षट्पण्डागम, भाग १, पृष्ठ १०५:
तत्थ अक्खेवणी णाम छद्दव्य-णव-पयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समयांतर-णिराकरणं सुद्धि करेंती परुवेदि । ४. षट्खण्डागम, भाग १, पृ०१०६ :
आक्षेपणी तत्त्वविधानभूतां विक्षेपणी तत्त्वदिगन्तशुद्धिम्।
संवेगिनी धर्मफलप्रपञ्चां निर्वेगिनीं चाह कथां विरागाम् ।। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २००: अन्ये त्वभिदधति-आचारादयो
ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराधभिधानादिति ।
६. क-दशवका लिकनियुवित, गाथा २०० :
वीरिय विउव्वणिड्डी, नाण चरण दंसणाण तह इट्टी।
उवइस्सइ खलु जहियं, कहाइ संवेयणीइ रसो।। ख-मूलाराधना, ६५७ : संवेयगी पुण कहा, पाणचरित्त
तववीरिय इड्डिगदा। ७. षट्खंडागम, भाग १, पृष्ठ १०५ : संवेयणी णाम पुग्ण-फल
संकहा। काणि पुण्ण-फलानि ? तित्थयर-गणहर-रिसि-चक्कवट्टि
बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहरिद्धीओ। ८. षट्खंडागम, भाग १, पृष्ठ १०५ : णिव्वेयणी णाम-पाव-फल
सकहा । काणि पाव-फलाणी? णिरय-तिरिय-कुमाणुस-जोगीसु जाइ-जरा-मरण वाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि । संसार-सरीरभोगेसु वेरग्गुप्पाइणी णिब्वेयणी णाम ।
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ठाणं (स्थान)
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५३ ( सू० २५३ )
प्रस्तुत सूत्र में अतिशायी ज्ञान दर्शन की उपलब्धि की योग्यता का निरूपण किया गया है। उसकी उपलब्धि के सहायक तत्त्व दो हैं—शारीरिक दृढ़ता और अनासक्ति । और उसके बाधक तत्त्व भी दो हैं- शारीरिक कृशता और आसक्ति । इन्हीं के आधार पर प्रस्तुत चतुर्भङ्गी की रचना की गई है।
साधारण नियम के अनुसार अतिशायी ज्ञान-दर्शन की उपलब्धि उसी व्यक्ति को हो सकती है, जो दृढ़-शरीर और देहासक्ति से मुक्त होता है, किन्तु सामग्री-भेद से इसमें परिवर्तन हो जाता है, जैसे-
स्थान ४ : टि० ५३-५७
एक मनुष्य अस्वस्थ या तपस्वी होने के कारण शरीर से कृश है, किन्तु देहासक्त नहीं है, इसलिए वह अतिशायी ज्ञानदर्शन को प्राप्त हो जाता है।
एक मनुष्य स्वस्थ होने के कारण शरीर से दृढ़ है, किन्तु देहासक्त है, इसलिए वह अतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त नहीं होता ।
एक मनुष्य स्वस्थ होने के कारण शरीर से दृढ़ है और देहासक्त भी नहीं है, इसलिए वह अतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त होता है।
एक मनुष्य अस्वस्थ होने के कारण शरीर से कृश है, किन्तु देहासक्त है, इसलिए वह अतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त नहीं होता ।
जिसमें देहासक्ति नहीं होती, उसे अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हो जाता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ । जिसमें देहासक्ति होती है, उसे अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं होता, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ | इसकी व्याख्या दूसरे नय से भी की जा सकती है। प्रथम व्याख्या में प्रत्येक भंग का दो-दो व्यक्तियों से सम्बन्ध है । इस व्याख्या में प्रत्येक भंग का संबंध एक व्यक्ति की दो अवस्थाओं से होगा, जैसे
कोई व्यक्ति कृश शरीर होता है तब उसमें मोह प्रबल नहीं होता, देहासक्ति सुदृढ़ नहीं होती, प्रमाद अल्प होता है, किन्तु जब वह दृढ शरीर होता है तब मांस उपचित होने के कारण उसका मोह बढ़ जाता है, देहासक्ति प्रबल हो जाती है। और प्रमाद बढ़ जाता है। इस कोटि के व्यक्ति के लिए प्रथम भंग है ।
कोई व्यक्ति दृढ शरीर होता है, तब वह अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का ध्यान आदि साधना पक्षों में नियोजन करता है, मोह विलय के प्रति जागरूक रहता है, किन्तु जब वह कृश शरीर हो जाता है, तब अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का साधनापक्षों में वैसा नियोजन नहीं कर पाता। इस कोटि के व्यक्ति के लिए दूसरे भंग की रचना है। प्रथम कोटि के व्यक्ति का शरीर के कृश होने पर मनोबल दृढ़ होता है और शरीर के दृढ़ होने पर वह कृश हो
जाता है।
५४-५७ विवेक, व्युत्सर्ग, उञ्छ, सामुदानिक (सू० २५४ )
प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द विवेचनीय हैंविवेकशरीर और आत्मा का भेद ज्ञान ।
दूसरी कोटि के व्यक्ति का मनोबल शरीर के दृढ़ होने पर दृढ़ होता है और शरीर के कृश होने पर कुश हो जाता है। तीसरी कोटि के व्यक्ति का मनोबल दृढ़ ही रहता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ ।
चौथी कोटि के व्यक्ति का मनोबल कृश ही होता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ ।
व्युत्सर्ग- - शरीर का स्थिरीकरण, कायोत्सर्ग मुद्रा ।
उञ्छ— अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लिया जाने वाला भक्त पान ।
सामुदानिक समुदान का अर्थ है - भिक्षा ! उसमें प्राप्त होने वाले को सामुदानिक कहा जाता है।
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ठाणं (स्थान)
५०६
स्थान ४ : टि०५८-५६
५८, ५६ (सू० २५६-२५८)
महोत्सव के बाद जो प्रतिपदाएं आती हैं, उनको महा-प्रतिपदा कहा जाता है। निशीथ (१९१२) में इंद्रमह, स्कंदमह, यक्षमह और भूतमह इन चार महोत्सवों में किए जाने वाले स्वाध्याय के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। निशीथ-भाष्य के अनुसार इंद्रमह आषाढी पूर्णिमा को, स्कंदमह आश्विन पूर्णिमा को, यक्षमह कार्तिक पूर्णिमा और भूतमह चैत्री पूर्णिमा को मनाया जाता था।
चर्णिकार ने बतलाया है कि लाट देश में इंद्रमह श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता था। स्थानांग वृत्तिकार के अनुसार इंद्रमह आश्विन पूर्णिमा को मनाया जाता था।' वाल्मीकि रामायण से स्थानांग वृत्तिकार के मत की पुष्टि होती
आषाढी पूर्णिमा, आश्विन पूणिमा, कार्तिक पूर्णिमा और चैत्री पूर्णिमा को महोत्सव मनाया जाता था। जिस दिन से महोत्सव का प्रारम्भ होता, उसी दिन से स्वाध्याय बंद कर दिया जाता था। महोत्सव की समाप्ति पूर्णिमा को हो जाती, फिर भी प्रतिपदा के दिन स्वाध्याय नहीं किया जाता। निशीथभाष्यकार के अनुसार प्रतिपदा के दिन महोत्सव अनुवृत्त (चालू ) रहता है। महोत्सव के निमित्त एकत्र की हुई मदिरा का पान उस दिन भी चलता है । महोत्सव के दिनों में मद्यपान से बावले बने हुए लोग प्रतिपदा को अपने मित्रों को बुलाते हैं, उन्हें मद्य-पान कराते हैं। इस प्रकार प्रतिपदा का दिन महोत्सव के परिशेष के रूप में उसी शृंखला से जुड़ जाता है।
____ उन दिनों स्वाध्याय न करने के कई कारण बतलाए गए हैं, उनमें एक कारण है-लोकविरुद्ध । महोत्सव के समय आगमस्वाध्याय को लोग पसंद क्यों नहीं करते ? यह अन्वेषण का विषय है।
अस्वाध्यायी की परम्परा का मूल वैदिक-साहित्य में ढूंढा जा सकता है। जैन-साहित्य में उसे लोकविरुद्ध होने के कारण मान्यता दी गई । आयुर्वेद के ग्रंथों में भी अस्वाध्यायी की परम्परा का उल्लेख मिलता है'.--
कृष्णेऽष्टमी तन्निधनेऽहनी द्वे, शुक्ले तथाऽप्येवमहद्धिसन्ध्यम् । अकालविद्युत्स्तनयित्नुघोषे, स्वतंत्रराष्ट्रक्षितिपव्यथासु ।। श्मशानयानायतनाहवेसु, महोत्सवौत्पातिकदर्शनेषु ।
नाध्येयमन्येषु च येषु विप्रा, नाधीयते नाशुचिना च नित्यम् ।। कृष्णपक्ष की अष्टमी और कृष्णपक्ष की समाप्ति के दो दिन (अर्थात् चतुर्दशी और अमावस), इसी प्रकार शुक्लपक्ष की (अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा), सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय, अकाल (वर्षा ऋतु के बिना) बिजली चमकना तथा मेघगर्जन होना, अपने शरीर तथा अपने सम्बन्धी तथा राष्ट्र और राजा के आपत्काल में, श्मशान में, सवारी (यात्राकाल) में, वध स्थान में तथा युद्ध के समय, महोत्सव तथा उत्पात (भूकम्पादि) के दिन, तथा जिन देशों में ब्राह्मण अनध्याय रखते हों उन दिनों में एवं अपवित्र अवस्था में अध्ययन नहीं करना चाहिए। देखें स्थानांग १०।२०,२१ का टिप्पण।
१. निशीथभाष्य, ६०६५ :
आसाठी इंदमहो, कत्तिय-सुगिम्हओ य बोधब्बो ।
एते महामहा खलु, एतेसिं चेव पाडिवया ॥ २. निशीथभाष्यचूणि, ६०६५ : इह लाडेसु सावण पोण्णिमाए
भवति इंदमहो। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २०३ : इन्द्रमहः -अश्वयुक् पौर्णमासी ।
४. बाल्मीकि रामायण, किष्किधा काण्ड, सर्ग १६, श्लोक ३६ :
इन्द्रध्वज इवोद्भूतः, पौर्णमास्यां महीतले ।
आश्वयुक् समये मासि, गतथीको विचेतनः ।। ५. निशीथभाष्य, ६०६८ :
छणिया ऽवसेसएणं, पाडिवएसु विछणाऽणुसज्जति ।
महबाउलत्तणेणं, असारिताणं च सम्माणो॥ ६. सुश्रुतसंहिता, २१६,१०।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : टि० ६०-६६
६०. (सू० २६४)
इस सूत्र में गर्दा के कारणों को भी कार्य-कारण की अभेद-दृष्टि से गर्दा माना गया है। यहां २०३८ का टिप्पण द्रष्टव्य है।
६१-६३ (सू० २७०-२७२)
इन सूत्रों में धूमशिक्षा, अग्निशिक्षा और बातमण्डलिका (गोलाकार ऊपर उठी हुई हवा) के साथ स्त्री के तीन स्वभावों.----मलिनता, ताप और चपलता की तुलना की गई है।
६४-६६ (सू० २७५-२७७)
अरुणवरद्वीप जम्बूद्वीप से असंख्यातवां द्वीप है। उसकी बाहरी वेदिका के अन्त से अरुणवरसमुद्र में ४२ हजार योजन जाने पर एक प्रदेश (तुल्य अवगाहन) वाली श्रेणी उठती है और वह १७२१ योजन ऊंची जाने के पश्चात् विस्तृत होती है। सौधर्म आदि चारों देवलोकों को घेर कर पांचवें देवलोक (ब्रह्म-लोक) के रिष्ट नामक विमान-प्रस्तट तक चली गई है । वह जलीय पदार्थ है। उसके पुद्गल अन्धकारमय हैं। इसलिए उसे तमस्काय कहा जाता है। लोक में इसके समान दूसरा कोई अंधकार नहीं है, इसलिए इसे लोकांधकार कहा जाता है। देवों का प्रकाश भी उस क्षेत्र में हत-प्रभ हो जाता है, इसलिए उसे देवान्धकार कहा जाता है। उसमें वायु भी प्रवेश नहीं पा सकता, इसलिए उसे वात-परिध और वातपरिधक्षोभ कहा जाता है । देवों के लिए भी वह दुर्गम है, इसलिए उसे देव-आरण्य और देवव्यूह कहा जाता है।
६७-६६ (सू० २८२-२८४)
कषाय के चार प्रकार हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ। इन चारों के तरतमता की दृष्टि से अनंत स्तर होते हैं, फिर भी आत्मविकास के घात की दृष्टि से उनमें से प्रत्येक के चार-चार स्तर निर्धारित किए गए हैंअनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण
प्रत्याख्यानावरण
संज्वलन १. क्रोध ५. क्रोध
६. क्रोध
१३. क्रोध २. मान ६. मान १०. मान
१४. मान ३. माया ७. माया ११. माया
१५. माया ४. लोभ ८. लोभ १२. लोभ
१६. लोभ अनन्तानुबंधी कषाय के उदय-काल में सम्यक् दर्शन प्राप्त नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय-काल में व्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय-काल में महाव्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती। संज्वलन कषाय के उदय-काल में वीतरागता उपलब्ध नहीं होती।
इन तीन सूत्रों तथा ३५४ वें सूत्र में कषाय के इन सोलह प्रकारों की तरतमता सोलह दृष्टान्तों के द्वारा निरूपित की गई है।
अनन्तानुबंधी लोभ की कृमिराग रक्त वस्त्र से तुलना की गई है।
वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार कृमिराग का अर्थ इस प्रकार है। मनुष्य का रक्त लेकर उसमें कुछ दूसरी वस्तुएं मिलाकर एक बर्तन में रख दिया जाता है। कुछ समय बाद उसमें कृमि उत्पन्न हो जाते हैं। वे हवा की खोज में घूमते हुए, छेदों से बाहर आकर लार छोड़ते हैं। उन्हीं (लारों) को कृमि-मूत्र कहा जाता है। वे स्वभाव से ही लाल होते हैं।
दूसरा अभिमत यह है-रुधिर में जो कृमि उत्पन्न होते हैं, उन्हें वहीं मसलकर कचरे को उतार दिया जाता है। उसमें कुछ दूसरी वस्तुएं मिला उसे रजक-रस (कृमिराग) बना लिया जाता है।
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ठाणं (स्थान)
५११
स्थान ४ : टि०७०-७६
७०-७६ (सू० २६०-२६६)
बंध का अर्थ है-दो का योग । प्रस्तुत प्रकरण में उसका अर्थ है-जीव और कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों का संबंध । जीव के द्वारा कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण उसके चार प्रकार हैंप्रकृतिबंध-स्थिति, रस और प्रदेश बंध के समुदाय को प्रकृतिबंध कहा जाता है। इस परिभाषा के अनुसार शेष तीनों बंधों
के समुदाय का नाम ही प्रकृतिबंध है।
प्रकृति का अर्थ है अंश या भेद। ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकृतियों का जो बंध होता है, उसे प्रकृतिबंध कहा जाता है। इसके अनुसार प्रकृति का अर्थ स्वभाव भी है। पृथक्-पृथक् कर्मों में जो ज्ञान आदि को आवृत करने का स्वभाव उत्पन्न होता है, वह प्रकृतिबंध है। दिगम्बर-साहित्य में यह परिभाषा अधिक प्रचलित है। स्थितिबंध ----जीवगृहीत कर्म-पुद्गलों की जीव के साथ रहने की काल-मर्यादा को स्थितिबंध कहा है। अनुभावबंध---कर्म-पुद्गलों की फल देने की शक्ति को अनुभावबंध कहा जाता है। अनुभवबंध, अनुभागबंध और रसबंध भी
इसीके नाम हैं। प्रदेशबंध-न्यूनाधिक-परमाणु वाले कर्म-पुद्गलों के स्कंधों का जो जीव के साथ सबंध होता है, उसे प्रदेशबंध कहा
जाता है।
प्राचीन आचार्यों ने इन बंधों का स्वरूप मोदक के दृष्टान्त द्वारा समझाया है। विभिन्न वस्तुओं से निष्पन्न होने के कारण कोई मोदक वातहर होता है, कोई पित्तहर, कोई कफहर, कोई मारक और कोई व्यामोहकर होता है। इसी प्रकार कोई कर्मज्ञान को आवर्त करता है, कोई व्यामोह उत्पन्न करता है और कोई सुख-दुःख उत्पन्न करता है।
कोई मोदक दो दिन तक विकृत नहीं होता, कोई चार दिन तक विकृत नहीं होता। इसी प्रकार कोई कर्म दस हजार वर्ष तक आत्मा के साथ रहता है, कोई पल्योपम और कोई सागरोपम तक आत्म के साथ रहता है।
कोई मोदक अधिक मधुर होता है, कोई कम मधुर होता है। इसी प्रकार कोई कर्म तीव्र रस वाला होता है, कोई मंद रस वाला।
कोई मोदक छटांक-भर का होता है, कोई पाव का । इसी प्रकार कोई कर्म अल्प परमाणु-समुदाय वाला होता है, कोई अधिक परमाणु-समुदाय वाला। उपक्रम-कर्म-संकधों को विविध रूप में परिणत करने में जो हेतु बनता है, उस जीव-वीर्य का नाम उपक्रम है। उपक्रम का
अर्थ आरंभ भी है। कर्म-स्कंधों की विभिन्न परिणतियों के आरम्भ को भी उपक्रम कहा जाता है। बन्धन-कर्म की दस अवस्थाएं हैं
१. बंधन २. उद्वर्तना ३. अपवर्तना ४. सत्ता ५. उदय ६. उदीरणा ७. संक्रमण ८. उपशमन ६. निधत्ति १०. निकाचना
जीव और कर्म-पुद्गलों के संबंध को बंध कहा जाता है।
कर्मो की स्थिति एवं अनुभाव की जो वृद्धि होती है, उसे उद्वर्तना कहा जाता है। उनकी स्थिति एवं अनुभाव की जो हानि होती है, उसे अपवर्तना कहा जाता है।
कर्म-पुद्गलों की अनुदित अवस्था को सत्ता कहा जाता है। कर्मों के विपाक काल को उदय कहा जाता है। अपवर्तना के द्वारा निश्चित समय से पहले कर्मों को उदय में लाने को उदीरणा कहा जाता है। सजातीय कर्म-प्रकृतियों के एक-दूसरे में परिणमन करने को संक्रमण कहा जाता है।
१. पंचसंग्रह, ४३२ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २०६ :
कर्मणः प्रकृतयः-अंशा भेदा ज्ञानावरणीयादयोऽष्टो तासां प्रकृता-अविशेषितस्य कर्मणो बन्धः प्रकृतिबन्धः ।
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ठाणं (स्थान)
५१२
स्थान ४ : टि०८०-८२
शुभ प्रकृति का अशुभ विपाक के रूप में और अशुभ प्रकृति का शुभ प्रकृति के रूप में परिणमन इसी कारण से होता है।
मोहकर्म को उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना के अयोग्य करने को उपशमन कहा जाता है। उदवर्तना एवं अपवर्तना के सिवाय शेष छह करणों के अयोग्य अवस्था को निधत्ति कहते हैं। जिस कर्म का उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, संक्रमण और निधत्ति न हो सके उसे निकाचित कहा जाता है।
विपरिणमन-कर्म-स्कंधों के क्षय, क्षयोपशम, उद्वर्तना, अपवर्तना आदि के द्वारा नई-नई अवस्थाएं उत्पन्न करने को विपरिणामना कहा जाता है। पखंडागम के अनुसार विपरिणामना का अर्थ है निर्जरा
'विपरिणाम मुवक्कमो पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसाणं देस-णिज्जरं सयल-णिज्जरं च परूवेदि।।
विपरिणामोपक्रम अधिकारप्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की देश निर्जरा और सकल निर्जरा का कथन करता है। देखें ४।६०३ का टिप्पण।
८०. (सू० ३२०)
ये अनुक्रम से ईशान, अग्नि, नैऋत और वायव्य कोण में है।
८१ (सू० ३५०)
आजीवक श्रमण-परम्परा का एक प्रभावशाली सम्प्रदाय था। उसके आचार्य थे गोशालक । आजीवक भिक्षु अचेलक रहते थे। वे पंचाग्नि तपते थे। वे अन्य अनेक प्रकार के कठोर तप करते थे। अनेक कठोर आसनों की साधना भी करते थे।
प्रस्तुत सूत्र में आए हुए उग्रतप और घोरतप से आजीवकों के तपस्वी होने की सूचना मिलती है। आचार्य नरेन्द्रदेव ने लिखा है—बुद्ध आजीवकों को सबसे बुरा समझते थे । तापस होने के कारण इनका समाज में आदर था। लोग निमित्त, शकुन, स्वप्न आदि का फल इनसे पुछते थे।
रस-निर्वहण और जिह्वन्द्रिय-प्रतिसंलीनता-ये दोनों तप आजीविकों के अस्वाद व्रत के सूचक हैं।
प्रस्तुत सूत्र से आगे के तीन सूत्रों (३५१-३५३) में क्रमश: चार प्रकार के संयम, त्याग और अकिञ्चनता का निर्देश है । उनमें आजीवक का उल्लेख नहीं है और न ही इसका संवादी प्रमाण उपलब्ध है कि ये आजीवकों द्वारा सम्मत हैं। पर प्रकरणवशात् सहज ही एक कल्पना उद्भूत होती है—क्या यहां आजीबक सम्मत संयम, त्याग और अकिंचनता का निर्देश नहीं है ?
८२ (सू० ३५४)
बौद्ध साहित्य में पत्थर, पृथ्वी और पानी की रेखा के समान मनुष्यों का वर्णन मिलता है। भिक्षुओ ! संसार में तीन तरह के आदमी हैं । कौन-सी तीन तरह के ?
पत्थर पर खिची रेखा के समान आदमी, पृथ्वी पर खिची रेखा के समान आदमी, पानी पर खिची रेखा के समान आदमी।
__ भिक्षुओ! पत्थर पर खिची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुओ! एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक रहता है, जैसे-भिक्षुओ! पत्थर पर खिची रेखा शीघ्र नहीं मिटती, न हवा से न पानी से, चिरस्थायी होती है, इसी प्रकार भिक्षुओं! यहां एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक रहता है। भिक्षओ ! ऐसा व्यक्ति पत्थर पर खिंची रेखा के समान आदमी' कहलाता है।
१. षट् खंडागम की प्रस्तावना, पृष्ठ ६३, खण्ड १, भाग १,
पुस्तक २।
२- बौद्धधर्मदर्शन, पृष्ठ ४ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० ८३-८४
भिक्षुओ ! पृथ्वी पर खिची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुओ ! एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक नहीं रहता, जैसे- भिक्षुओ ! पृथ्वी पर खिंची रेखा शीघ्र मिट जाती है। हवा से या पानी से चिरस्थायी नहीं होती। इसी प्रकार भिक्षुओ ! यहां एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका क्रोध दीर्घकाल तक नहीं रहता। भिक्षुओ ! ऐसा व्यक्ति 'पृथ्वी पर खिंची रेखा के समान आदमी' कहलाता है।
भिक्षुओ ! पानी पर खिंची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुओ ! कोई-कोई आदमी ऐसा होता है कि यदि कड़वा भी बोला जाय, कठोर भी बोला जाय, अप्रिय भी बोला जाय तो भी वह जुड़ा ही रहता है, मिला ही रहता है, प्रसन्न ही रहता है। जिस प्रकार भिक्षुओ ! पानी पर खिंची रेखा शीघ्र विलीन हो जाती है, चिरस्थायी नहीं होती, इसी प्रकार भिक्षुओ ! कोई-कोई आदमी ऐसा होता है जिसे यदि कडुवा भी बोला जाय, कठोर भी बोला जाय, अप्रिय भी बोला जाय तो भी वह जुड़ा ही रहता, मिला ही रहताहै, प्रसन्न ही रहता है।
भिक्षुओ ! संसार में ये तीन तरह के लोग हैं। विशेष जानकारी के लिए देखें-६७-६६ का टिप्पण।
८३ (सू० ३५५)
प्रस्तुत सूत्र में भावों की लिप्तता-अलिप्तता तथा मलिनता-निर्मलता का तारतम्य उदक के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। कर्दम के चिमटने पर उसे उतारना कष्टसाध्य होता है। खंजन को उतारना उससे अल्प कष्टसाध्य होता है। बालुका लगने पर जल के सूखते ही वह सरलता से उतर जाता है । शैल (प्रस्तरखंड) का लेप लगता ही नहीं। इसी प्रकार मनुष्य के कुछ भाव कष्टसाध्य लेप उत्पन्न करते हैं, कुछ अल्प कष्टसाध्य, कुछ सुसाध्य और कुछलेप उत्पन्न नहीं करते।
कर्दमजल की अपेक्षा खंजनजल अल्प मलिन, खंजनजल की अपेक्षा बालुकाजल निर्मल और बालुकाजल की अपेक्षा शैलजल अधिक निर्मल होता है। इसी प्रकार मनुष्य के भाव भी मलिनतर, मलिन, निर्मल और निर्मलतर होते हैं।
कौटलीय अर्थशास्त्र में दुर्ग-निर्माण के प्रसङ्ग में खंजनोदक का उल्लेख हुआ है। टिप्पणकार ने इसका अर्थ विच्छिन्न प्रवाह वाला उदक किया है। इसे पंकिल होने के कारण गति वैक्लव्यकर बतलाया गया है।'
वृत्तिकार ने खंजन का अर्थ लेपकारी कर्दम किया है।' ८४ (सू० ३५९)
कुछ पुरुष दूसरे के मन में प्रीति (या विश्वास) उत्पन्न करना चाहते हैं और वैसा कर देते हैं--इस प्रवृत्ति के तीन हेतु वृत्तिकार द्वारा निर्दिष्ट हैं
१. स्थिरपरिणामता। २. उचितप्रतिपत्तिनिपुणता। ३. सौभाग्यवत्ता।
जिस व्यक्ति के परिणाग स्थिर होते हैं, जो उचित प्रतिपत्ति करने में निपुण होता है या सौभाग्यशाली होता है, वह ऐसा कर पाता है। जिसमें ये विशेषताएं नहीं होतीं, वह ऐसा नहीं कर पाता।
"कुछ पुरुष दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न करना चाहते हैं, किन्तु वैसा कर नहीं पाते"
१. अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृष्ठ २६१. २६२ । २. कोटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण २, अध्याय २, प्रकरण २१॥ ३. क-कौटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण २, अध्याय २, प्रकरण
२१:
विच्छिन्नप्रवाहोदकं क्वचित्-क्वचित देवोदकविशिष्टमित्यर्थः।
ख-खंजनोदकम्-स्वजनं पंकिलत्वाद् गतिर्वक्लव्यकरमुदक
यस्मिस्तत् तथा भूतम् । ४. स्थानांगवृत्ति, पन्न २२३ :
खञ्जनं दीपादि खजनतुल्य : पादादिलेपकारी कईम. विशेष एव। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २२४ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४:टि०८५
वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या दो नयों से की है(१) अप्रीति उत्पन्न करने का पूर्ववर्ती भाव निवृत्त होने पर वह दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न नहीं कर पाता।
(२) सामने वाला व्यक्ति अप्रीतिजनक हेतु से भी प्रीत होने के स्वभाव वाला है, इसलिए वह उसके मन में अप्रीति उत्पन्न नहीं कर पाता। इसकी व्याख्या तीसरे नय से भी की जा सकती है-सामने वाला व्यक्ति यदि साधक या मुर्ख होता है तो अप्रीतिजनक हेतु होने पर भी उसके मन में अप्रीति उत्पन्न नहीं होती। भगवान महावीर ने साधक को मान और अपमान में सम बतलाया है--
लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा।
समो निंदा पसंसासु, तहा माणावमाणाओ।' साधक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहता है। एक संस्कृत कवि ने मुर्ख को भी मान और अपमान में सम बतलाया है--
मूर्खत्वं हि सखे ! ममापि रुचितं यस्मिन् यदष्टौ गुणाः । निश्चितो बहुभोजनो ऽत्रपमनाः नक्तं दिवा शायकः ।। कार्याकार्यविचारणान्धबधिरो मानापमाने समः ।
प्रायेणामयजितो दृढवपुर्मूर्खः सुखं जीवति ।। मित्र ! मुर्खता मुझे भी प्रिय है, क्योंकि उसमें आठ गुण होते हैं । मूर्ख१. चिंता मुक्त होता है। २. बहुभोजन करने वाला होता है। ३. लज्जारहित होता है। ४. रात और दिन सोने वाला होता है। ५. कर्तव्य और अकर्तव्य की विचारणा में अंधा और बहरा होता है। ६. मान और अपमान में समान होता है। ७. रोगरहित होता है। ८. दृढ़ शरीर वाला होता है। वृत्तिकार की सूचना के अनुसार प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद इस प्रकार भी किया जा सकता हैपुरुष चार प्रकार के होते हैं१. कुछ पुरुष दूसरों के मन में यह प्रीति करने वाला है—ऐसा बिठाना चाहते हैं और बिठा भी देते हैं। २. कुछ पुरुष दूसरों के मन में--यह प्रीति करने वाला है-ऐसा बिठाना चाहते हैं, पर बिठा नहीं पाते। ३. कुछ पुरुष दूसरों के मन में यह अप्रीति करने वाला है—ऐसा बिठाना चाहते हैं और बिठा भी देते हैं। ४. कुछ पुरुष दूसरों के मन में-- यह अप्रीति करने वाला है—ऐसा बिठाना चाहते हैं, पर बिठा नहीं पाते।
८५ (सू० ३६१)
प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या उपकार की तरतमता आदि अनेक नयों से की जा सकती है । वृत्तिकार ने लोकोत्तर उपकार की दृष्टि से इसकी व्याख्या की है। जो गुरु पत्र वाले वृक्ष के समान होते हैं, वे अपनी श्रुत-सम्पदा को अपने तक ही सीमित रखते हैं। जो गुरु फूल वाले वृक्ष के समान होते हैं, वे शिष्यों को सूत्र-पाठ की वाचना देते हैं। जो गुरु फल वाले वृक्ष के समान होते हैं, वे शिष्यों को सूत्र के अर्थ की वाचना देते हैं। जो गुरु छाया वाले वृक्ष के समान होते हैं, वे शिष्यों को सूत्रार्थ के पुनरावर्तन और अपाय-संरक्षण का पथ-दर्शन देते हैं। देखें-स्थानांग ३३१५वां टिप्पण।
१. उत्तराध्ययन, १६६० ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २२४
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ठाणं (स्थान)
५१५
स्थान ४ :टि०८६-६०
८६ (सू० ३६४)
राशि के दो भेद होते हैं.....युग्म और ओज । समसंख्या (२,४,६,८) को युग्म और विषमसंख्या (१,३,५,७,६) को ओज कहा जाता है। युग्म के दो भेद हैं--कृतयुग्म और द्वापरयुग्म। ओज के दो भेद हैं-त्योज और कल्योज। इनकी व्याख्या इस प्रकार है
कृतयुग्म-राशि में से चार-चार घटाने पर शेष चार रहे, जैसे----८,१२,१६,२०.....। द्वापरयुग्म–राशि में से चार-चार घटाने पर शेष दो रहे, जैसे-६,१०,१४,१८..."।
त्योज-राशि में से चार-चार घटाने पर शेष तीन रहे, जैसे-७,११,१५,१६....। कल्योज-राशि में से चार-चार घटाने पर एक शेष रहे, जैसे---५,६,१३,१७,२१.....।
८७ (सू० ३८६)
आकुलि का पुष्प सुन्दर होता है, किन्तु सुरभियुक्त नहीं होता । बकुल का पुष्प सुरभियुक्त होता है, किन्तु सुन्दर नहीं होता। जूही का पुष्प सुन्दर भी होता है और सुरभियुक्त भी होता है।
बदरी का पुष्प न सुन्दर ही होता है और न सुरभियुक्त ही होता है।' ८८ (सू० ४११)
प्रस्तुत सूत्र के दृष्टान्त में माधुर्य की तरतमता बतलाई गई है। आंवला ईषत्मधुर, द्राक्षा बहुमधुर, दुग्ध बहुतरमधुर और शर्करा बहुतममधुर होती है।
आचार्यों के उपशम आदि प्रशान्त गुणों की माधुर्य के साथ तुलना की गई है। माधुर्य की भांति उपशम आदि में भी तरतमता होती है। किसी का उपशम (शांति) ईषत्, किसी का बहु, किसी का बहुतर और किसी का बहुतम होता है ।'
८६ (सू० ४१२)
१. स्वार्थी या आलसी मनुष्य अपनी सेवा करते हैं, दूसरों की नहीं करते। २. स्वार्थ-निरपेक्ष मनुष्य दूसरों की सेवा करते हैं, अपनी नहीं करते। ३. संतुलित मनोवृत्ति वाले मनुष्य अपनी सेवा भी करते हैं और दूसरों की भी करते हैं। ४. आलसी, उदासीन, निरपेक्ष, निराश मा अवधूत मनोवृत्ति वाले मनुष्य न अपनी सेवा करते हैं और न दूसरों
की करते हैं।
६० (सू० ४१३)
१. निस्पृह मनुष्य दूसरों को सेवा देते हैं, किन्तु लेते नहीं। २. रुग्ण, वृद्ध, अशक्त या विशिष्ट साधना, शोध अथवा प्रवृत्ति में संलग्न मनुष्य दूसरों की सेवा लेते हैं किन्तु देते
नहीं।
१. क-स्थानांगवृत्ति, पत्र २२६ : गणितपरिभाषायां समराशि
युग्ममच्यते विषमस्तु ओज इति । ख-कोटलीयार्थशास्त्र, २ अधिकरण, ३ अध्याय, २१ प्रकरण
पृष्ठ ५८ ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २२६ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन्न २२० ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : टि०६१-६४
३. संतुलित मनोवृत्ति, विनिमय या समता में विश्वास करने वाला मनुष्य दूसरों को सेवा देते भी हैं और लेते
भी हैं। ४. निरपेक्ष या नितान्त व्यक्तिवादी मनोवृत्ति वाले मनुष्य न दूसरों को सेवा देते हैं और न लेते ही हैं।
६१ (सू० ४२१)
धर्म की प्रियता और दृढ़ता-ये दोनों क्रमिक विकास की भूमिकाएं हैं। व्यक्ति में पहले प्रियता उत्पन्न होती है फिर दृढ़ता आती है। इस दृष्टि से कुछ पुरुष प्रियधर्मा होते हैं, दृढ़धर्मा नहीं होते। यह भंग-रचना समुचित है। कुछ पुरुष दृढ़धर्मा होते हैं, प्रियधर्मा नहीं होते। यह दूसरे भंग की रचना संगत नहीं लगती। प्रियधर्मा हुए बिना कोई दृढ़धर्मा कैसे हो सकता है ? इस असंगति का उतर व्यवहारभाष्यकार तथा उसके आधार पर स्थानांग वृत्तिकार ने दिया है -
कुछ पुरुषों की धृति और शक्ति दुर्बल होती है, किन्तु धर्म के प्रति उनकी प्रीति सहज हो जाती है। इस कोटि के पुरुष धर्म के प्रति सरलता से अनुरक्त हो जाते हैं, किन्तु उसका दृढ़ता पूर्वक पालन नहीं कर पाते । वे आपदा के समय में क्षुब्ध होकर स्वीकृत धर्माचरण से विचलित हो जाते हैं।
कुछ पुरुषों की धृति और शक्ति प्रबल होती है, किन्तु उनमें धर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न करना बहुत कठिन होता है। इस कोटि के पुरुष धर्म के प्रति सरलता से अनुरक्त नहीं होते, किन्तु वे जिस धर्माचरण को स्वीकार कर लेते हैं, जो प्रतिज्ञा करते हैं, उसे अंत तक पार पहुंचाते हैं । बड़ी-से-बड़ी कठिनाई आने पर भी वे स्वीकृत धर्म से विचलित नहीं होते। इस दृष्टि से सूत्रकार ने दूसरे भंग के अधिकारी पुरुष को दृढधर्मा कहा है। उसमें प्रियधर्मा का पक्ष गौण है, इसलिए सूत्रकार ने उसे अस्वीकृत किया है।
६२ (सू० ४२२) :
धर्माचार्य —जो धर्म का उपदेश देता है, प्रथम बार धर्म में प्रेरित करता है, वह धर्माचार्य कहलाता है। वह गहस्थ या श्रमण कोई भी हो सकता है।'
जो केवल प्रव्रज्या देता है, वह प्रव्राजनाचार्य होता है। जो केवल उपस्थापना करता है, वह उपस्थापनाचार्य होता है जो केवल धर्म में प्रेरित करता है, वह धर्माचार्य होता है।
क्रम की दृष्टि से प्रथम धर्माचार्य, दूसरे प्रव्राजनाचार्य और तीसरे उपस्थापनाचार्य होते हैं ये तीनों पृथक्-पृथक ही हों --यह आवश्यक नहीं हैं। एक ही व्यक्ति धर्माचार्य, प्रव्राजनाचार्य और उपस्थापनाचार्य भी हो सकता है।"
जो केवल उद्देशन देता है, वह उद्देशनाचार्य होता है। जो केवल वाचना देता है, वह वाचनाचार्य होता है। पूर्व प्रकरण की भांति एक ही व्यक्ति धर्माचार्य, उद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य हो सकता है।
६३-६४ (सू० ४२४,४२५) :
धर्मान्तेवासी-जो धर्म-श्रवण के लिए आचार्य के समीप रहता है, वह धर्मान्तेवासी होता है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २३० । २. व्यवहारभाष्य, १०॥३५ :
दसविहवेयावच्चे,अन्नयरे खिप्पमुज्जम कुणइ ।
अच्चेतमणिव्वाही, धितिविरियकिसे पढमभंगो।। ३. व्यवहारभाष्य, १३६ :
दुक्खेण उगाहिज्जइ, बिइओ गहियं तु नेइ जा तीरं । ४. क-व्यवहारभाष्य, १०:४० :
जो पुण नो भयकारी, सो कम्हा भवति आयरिओ उ । भण्णति धम्मायरितो, सो पुण गहितो व समणो वा ॥
ख-स्थानांगवृत्ति, पत्र २३० : धम्मो जेणुवइट्ठो, सो धम्मगुरू
गिही व समणो वा। ५. क- व्यवहारभाष्य, १०९४१ :
धम्मायरि पव्वायण, तह य उठावणा गुरु तइओ।
कोइ तिहिं संपन्नो, दोहिं वि एक्केक्कएण वा ।। ख-स्थानांगवृत्ति, पत्र २३० : कोवि तिहिं सजुत्तो,
दोहि वि एक्केक्कगेणेव।
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ठाणं (स्थान)
५१७
स्थान ४: टि०१५-६७
जो केवल प्रव्रज्या ग्रहण की दृष्टि से आचार्य के पास रहता है वह प्रव्राजनान्तेवासी होता है। जो केवल उपस्थापना की दृष्टि से आचार्य के पास रहता है, वह उपस्थापनान्तेवासी होता है। एक ही व्यक्ति धर्मान्तेवासी, प्रव्राजनान्तेवासी और उपस्थापनान्तेवासी हो सकता है।
६५ रात्निक (सू० ४२६) :
जो दीक्षापर्याय में बड़ा होता है वह रात्निक कहलाता है। विशेषविवरण के लिए दसबेआलियं ८/४० का टिप्पण द्रष्टव्य है।
६६ (सू० ४३०) :
श्रमणों की उपासना करने वाले गृहस्थ श्रमणोपासक कहलाते हैं। उनकी श्रद्धा और वृत्ति की तरतमता के आधार पर उन्हें चार वर्गों में विभक्त किया गया है। जिनमें श्रमणों के प्रति प्रगाढ़ वत्सलता होती है, उनकी तुलना माता-पिता से की गई है। माता-पिता के समान श्रमणोपासक तत्त्वचची व जीवननिर्वाह-दोनों प्रसंगों में वत्सलता का परिचय देते हैं।
जिनमें श्रमणों के प्रति वत्सलता और उग्रता दोनों होती है, उनकी तुलना भाई से की गई है। इस कोटि के श्रमणोपासक तत्त्वचा में निष्ठुर वचनों का प्रयोग कर देते हैं, किन्तु जीवननिर्वाह के प्रसंग में उनका हृदय वत्सलता से परिपूर्ण होता है।
जिन श्रमणोपासकों में सापेक्षप्रीति होती है और कारणवश प्रीति का नाश होने पर वे आपत्काल में भी उपेक्षा करते हैं, उनकी तुलना मित्र से की गई है। इस कोटि के श्रमणोपासक अनुकूलता में वत्सलता रखते हैं और कुछ प्रतिकूलता होने पर श्रमणों की उपेक्षा करने लग जाते हैं।
कुछ श्रमणोपासक ईर्ष्यावश श्रमणों में दोष ही दोष देखते हैं, किसी भी रूप में उपकारी नहीं होते, उनकी तुलना सपत्नी (सौत) से की गई है।
९७ (सू० ४३१) :
प्रस्तुत सूत्र में आन्तरिक योग्यता और अयोग्यता के आधार पर श्रमणोपासक के चार वर्ग किए गए हैं।
आदर्श (दर्पण) निर्मल होता है। वह सामने उपस्थित वस्तु का यथार्थ प्रतिबिम्ब ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासक श्रमण के तत्त्व-निरूपण को यथार्थ रूप में ग्रहण कर लेते हैं।
ध्वजा अनवस्थित होती है। वह किसी एक दिशा में नहीं टिकती। जिधर की हवा होती है, उधर ही मुड़ जाती है। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासकों का तत्त्वबोध अनवस्थित होता है। उनके विचार किसी निश्चित बिन्दु पर स्थिर नहीं होते।
स्थाणु शुष्क होने के कारण प्राणहीन हो जाता है। उसका लचीलापन चला जाता है। फिर वह झुक नहीं पाता। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासकों में अनाग्रह का रस सूख जाता है। उनका लचीलापन नष्ट हो जाता है। फिर वे किसी नये सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते।
कपड़े में कांटा लग गया। कोई आदमी उसे निकालता है। कांटे की पकड़ इतनी मजबूत है कि वह न केवल उस वस्त्र को ही फाड़ डालता है, अपितु निकालने वाले के हाथ को भी बींध डालता है। कुछ श्रमणोपासक कदाग्रह से ग्रस्त होते हैं। उनका कदाग्रह छड़ाने के लिए श्रमण उन्हें तत्त्वबोध देते हैं। वे न केवल उस तत्त्वबोध को अस्वीकार करते हैं, किन्तु तत्त्वबोध देने वाले श्रमण को दुर्वचनों से बींध डालते हैं।
१. स्थानांगवृत्ति, पब २३० : रालिक: पर्यायज्येष्ठः ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ६८-१००
६८ (सू० ४६७) :
प्रस्तुत सूत्र एक पहेली है। इसकी एक व्याख्या अनुवाद के साथ की गई है। यह अन्य अनेक नयों से भी व्याख्येय है१. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं --श्रुत से बढ़ते हैं, सम्यकदर्शक से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं-श्रुत से बढ़ते हैं, सम्यकदर्शन और विनय से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं --श्रुत और चारित्र से बढ़ते हैं, सम्यकदर्शन से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं-श्रुत और अनुष्ठान से बढ़ते हैं, सम्यक्दर्शन और विनय से हीन
होते हैं। १. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं-क्रोध से बढ़ते हैं, माया से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं--क्रोध से बढ़ते हैं, माया और लोभ से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं—क्रोध और मान से बढ़ते हैं, माया से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं---क्रोध और मान से बढ़ते हैं, माया और लोभ से हीन होते हैं। १. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं ---तृष्णा से बढ़ते हैं, आयु से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं---तृष्णा से बढ़ते हैं, मैत्री और करुणा से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं-ईर्ष्या और क्रूरता से बढ़ते हैं, मैत्री से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं-मैत्री और करुणा से बढ़ते हैं, ईर्ष्या और क्रूरता से हीन होते हैं। १. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं- बुद्धि से बढ़ते हैं, हृदय से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं- बुद्धि से बढ़ते हैं, हृदय और आचार से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं—बुद्धि और हृदय से बढ़ते हैं, अनाचार से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं --बुद्धि और हृदय से बढ़ते हैं, अनाचार और अश्रद्धा से हीन होते हैं। १. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं--सन्देह से बढ़ते हैं। मंत्री से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं ---सन्देह से बढ़ते हैं, मैत्री और मानसिक सन्तुलन से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं—मैत्री और मानसिक सन्तुलन से बढ़ते हैं, सन्देह से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं-मैत्री और मानसिक सन्तुलन से बढ़ते हैं, सन्देह और अधैर्य से हीन
होते हैं।
६६ (सू० ४८६) :
ह्रीसत्त्व और ह्रीमनःसत्त्व-~-इन दोनों में सत्त्व का आधार लोक-लाज है। कुछ लोग आन्तरिक सत्त्व के विचलित होने पर भी लज्जावश सत्त्व को बनाए रखते हैं, भय को प्रदर्शित नहीं करते। जो ह्रीसत्त्व होता है, वह लज्जावश शरीर
और मन दोनों में भय के लक्षण प्रदर्शित नहीं करता। जो ह्रीमनःसत्त्व होता है, वह मन में सत्त्व को बनाए रखता है, किन्तु उसके शरीर में भय के लक्षण-रोमांच, कंपन आदि प्रकट हो जाते हैं।
१०० शय्या प्रतिमाएं (सू० ४८७) :
शय्या प्रतिमा का अर्थ है --संस्तार विषयक अभिग्रह । प्रथम प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट [नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित] संरतार मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, दूसरा नहीं।
द्वितीय प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट [नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित ] संस्तार में दृष्ट को ही ग्रहण करूंगा, अदृष्ट को नहीं।
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ठाणं (स्थान)
५१६
स्थान : ४ टि० १०१-१०४
तृतीय प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट संस्तार यदि शय्यातर के घर में होगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं ।
चतुर्थ प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट संस्तार यदि यथासंसृत [ सहज ही बिछा हुआ ] मिलेगा, उसको ग्रहण करूंगा, दूसरा नहीं ।
१०१ वस्त्र प्रतिमाएं ( सू० ४८८ )
वस्त्र प्रतिमा का अर्थ है-वस्त्र विषयक प्रतिज्ञा ।
प्रथम प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट [ नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित ] वस्त्र की ही याचना करूंगा ।
द्वितीय प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं दृष्ट वस्त्रों की ही याचना करूंगा ।
तृतीय प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं शय्यातर के द्वारा भुक्त वस्त्रों की ही याचना
करूंगा |
प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं छोड़ने योग्य वस्त्रों की ही याचना करूंगा ।'
१०२ पात्र प्रतिमाएं (सूत्र ४८६ ) :
पात्र प्रतिमा का अर्थ है - पात्र विषयक प्रतिज्ञा ।
प्रथम प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट पात्र की याचना करूंगा। द्वितीय प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं दृष्ट पान की याचना करूंगा । तृतीय प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं काम में लिए हुए पात्र की याचना करूंगा। चतुर्थ प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं छोड़ने योग्य पात्र की याचना करूंगा।
१०३-१०४ (सू० ४६१, ४६२) :
शरीर पांच हैं -औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कर्मण । भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से इनके अनेक वर्गीकरण
होते हैं।
स्थूलता और सूक्ष्मता की दृष्टि से ---
स्थूल औदारिक
वैक्रिय
आहारक
कारण और कार्य की दृष्टि से ----
कारण कार्मण
१. क - स्थानांगवृत्ति, पत्र २३६ ।
ख - आयारचूला २०६२-६६ ।
२. क — स्थानांगवृत्ति पत्र २३६ ।
सूक्ष्म
तंजस
कार्मण
कार्य
औदारिक
वैक्रिय
आहारक
तैजस
ख - आयारचूला ५।१६-२० । ३. क - स्थानांगवृत्ति, पत्र २३९ ।
ख - आधारचूला - ६ । १५-१६ ।
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ठाणं (स्थान)
५२०
स्थान : ४ टि० १०५-१११
भववर्ती और भवान्तरगामी की दृष्टि से-- भववर्ती
भवान्तरगामी औदारिक
तैजस वैक्रिय
कार्मण आहारक साहचर्य और असाहचर्य की दृष्टि सेसहचारी
असहचारी वैक्रिय
औदारिक आहारक
तैजस
कार्मण औदारिक शरीर जीव के चले जाने पर भी टिका रहता है और विशिष्ट उपायों से दीर्घकाल तक टिका रह सकता है। शेष चार शरीर जीव से पृथक होने पर अपना अस्तित्व नहीं रख पाते, तत्काल उनका पर्यायान्तर (रूपान्तर) हो जाता है।
१०५ (सू० ४६८):
आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय व्याप्त होते हैं, उसे लोक कहा जाता है। धर्मास्तिकाय गतितत्त्व है। इसलिए जहां धर्मास्तिकाय नहीं होता वहां जीव और पुद्गल गति नहीं कर सकते। लोक से बाहर जीव और पुद्गलों की गति नहीं होने का मुख्य हेतु निरुपग्रहता--गतितत्त्व (धर्मास्तिकाय) के आलम्बन का अभाव है। शेष तीन हेतु उसी के पूरक हैं।
रूक्ष पुद्गल लोक से बाहर नहीं जाते, यह लोकस्थिति का दसवां प्रकार है।
१०६-१११ (सू० ४६६-५०४)
ज्ञात के अनेक अर्थ होते हैं-दृष्टान्त, आख्यानक, उपमानमात्र और उपपत्तिमात्र ।' दृष्टान्त
तर्कशास्त्र के अनुसार साधन का सद्भाव होने पर साध्य का नियमत: होना और साध्य के अभाव में साधन का नियमतः न होना-इसका कथन करने वाले निदर्शन को दृष्टान्त कहा जाता है।" आख्यानक
दो प्रकार का होता है-चरित और कल्पित।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४० :
जीवेन स्पृष्टानि-व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि, जीवेन हि स्पृष्टान्येव वैक्रियादीनि भवन्ति, न तु यथा औदारिक जीवमुक्त
मपि भवति मृतावस्थायां तथैतानीति । २. स्थानांग, १०१ ३. स्थानांगवृत्ति, पत्न २४१, २४२ : ज्ञातं-दृष्टान्तः,........
....."अथवा आख्यानकरूपं, ज्ञातं,.............. अथवोपमानमानं ज्ञातं,........... अथवा ज्ञातं- उपपत्तिमानं ।
४. वही, पत्र २४१:
ज्ञायते अस्मिन् सति दार्टान्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे क्तप्रत्ययोपादानात् ज्ञातं- दृष्टान्तः, साधनसद्भावे साध्यस्यावश्यंभावः साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमभाव इत्युपदर्शनलक्षणो,यदाह-साध्येनानु गमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता।
ख्याप्यते यत्र दृष्टान्त:, स साधयेतरो द्विधा ।
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ori (स्थान)
चरित --
जीवन-चरित से किसी बात को समझाना चरित ज्ञात है। जैसे--निदान दुःख के लिए होता है, यथा ब्रह्मदत्त का निदान ।
कल्पित-
ज्ञाता है।
५२१
कल्पना के द्वारा किसी तथ्य को प्रकट करना । यौवन आदि अनित्य हैं। यहां पदार्थ की अनित्यता को कल्पितज्ञात के द्वारा समझाया गया है। पीपल का पका पत्र गिर रहा था, उसे देख नई कोपलें हंस पड़ी। पत्र बोला, तुम किस लिए हंस रही हो ? एक दिन मैं भी तुम्हारे ही जैसा था और एक दिन आएगा, तुम भी मेरे जैसी हो जाओगी।'
ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में चरित और कल्पित - दोनों प्रकार के ज्ञात निरूपित हैं, इसीलिए उस अंग का नाम
उपमान मात्र ----
हाथ किसलय की भांति सुकुमार हैं। इसमें किसलय की सुकुमारता से हाथ की सुकुमारता की तुलना है।
उपपत्तिमात्र---
आहरण
स्थान ४ : टि० १११
उपपत्ति ज्ञात का हेतु होती है । अभेदोपचार से उसे ज्ञात कहा जाता है। एक व्यक्ति जो खरीद रहा था । किसी ने पूछा- जो किस लिए खरीद रहे हो ?' उसने उत्तर दिया- 'खरीदे बिना मिलता नहीं ।"
जिससे अप्रतीत अर्थ प्रतीत होता है, वह आहरण कहलाता है । पाप दुःख के लिए होता है, ब्रह्मदत्त की भांति | इसमें दान्तिक अर्थ सामान्य रूप में उपनीत है।
आहरणतद्देस
दृष्टान्तार्थ के एक देश से दान्तिक अर्थ का उपनयन करना । आहरणतद्देस कहलाता है। इसका मुंह चन्द्र जैसा है। यहां चन्द्र के सौम्यधर्म से सुख की तुलना है। चन्द्र के नेत्र, नासिका आदि नहीं है तथा वह कलंकित प्रतीत होता है। मुंह की तुलना में ये सब इष्ट नहीं है। इसलिए यह एकदेशीय उदाहरण है।"
आहरणतद्दोष -
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४२ :
आख्यानकरूपं ज्ञातं तच्च चरितकल्पितभेदात् द्विधा, तन चरितं यथा निदानं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येव, कल्पितं यथा प्रमादवतामनित्यं यौवनादोति देशनीयं यथा पाण्डुपतेण किशलयानां देशितं तथा हि
"जह तुम्भे तह अभ्हेतुभेऽविय हो हिहा जहा अम्हे । अप्पा पडतं पंडयपत्तं किसलयाणं ।"
२. वही, पत्र २४२ :
अथवोपमानमानं ज्ञातं सुकुमारः करः किशलयमिव । ३. स्थानांगवृत्ति पत्र २४२ :
अथवा ज्ञातम् — उपपत्तिमात्रं शातहेतुत्वात् कस्माद्यवा: श्रीयन्ते ? यस्मान्मुधा न लभ्यन्ते इत्यादिवदिति ।
आहरण सम्बन्धी दोष अथवा प्रसंग में साक्षात् ढीखने वाला दोष अथवा साध्य विकलता आदि दोषों से युक्त आहरण को आहरणतद्दोष कहा जाता है। जैसे--- शब्द नित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है, जैसे घट | यह दृष्टान्त का साध्य-साधन - विकल नाम दोष है । घट मनुष्य के द्वारा कृत होता है इसलिए वह नित्य नहीं है । वह रूप आदि धर्मयुक्त है, इसलिए अमूर्त भी नहीं है ।
४. वही, पत्र २४२ :
आ - अभिविधिना हियते - प्रतीतो नीयते अप्रतीतोsasनेनेत्याहरणं यत्र समुदित एव दान्तिकोऽर्थः उपनीयते यथा पापं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येवेति ।
५. वही, पत्र २४२ :
तस्य - आहारणार्थस्य देशस्तद्देशः स चासाबुपचारादादरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्य पूर्वनिपाते आहारगत देश इति, भावार्थश्चात्र यत्र दृष्टान्तार्थदेशेनैव दाष्टन्तिकार्थस्योपनयनं क्रियते तत्तद्देशोदाहरणमिति, यथा चन्द्र इव मुखमस्या इति इह हि चन्द्रे सौम्यत्वलक्षणेनैव देशेन मुखस्योपनयनं नानिष्टेन नयन-नासावजितत्वकलङ्का दिनेति ।
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ठाणं (स्थान)
५२२
स्थान ४ : टि० १११
असभ्य वचनात्मक उदाहरण को भी आहरणतदोष कहा जाता है। मैं असत्य का सर्वथा परिहार करता हूं, जैसे- गुरु के मस्तक को काटना । यह असभ्य वचनात्मक दृष्टान्त है।
अपने साध्य की सिद्धि करते हुए दूसरे दोष को प्रस्तुत करना भी आहरणतदोष है। जैसे किसी ने कहा कि लौकिक मुनि भी सत्य धर्म की वांछा करते हैं, जैसे ---
वरं कृपशताद्वापी, वरं वापीशताक्रतुः।
वरं क्रतुशतात्पुत्रः, सत्यं पुत्रशताद्वरम् ।। सौ कुंओं से एक वापी श्रेष्ठ है। सौ वापियों से एक यज्ञ श्रेष्ठ है। सौ यज्ञों से एक पुत्र श्रेष्ठ है और सौ पुत्रों से सत्य श्रेष्ठ है।
इससे श्रोता के मन में पुत्र, यज्ञ आदि संसार के कारणभूत तत्वों के प्रति धर्म की भावना पैदा होती है, यह भी दृष्टान्त का दोष है।' उपन्यासोपनय
वादी अपने अभिमत अर्थ की सिद्धि के लिए दृष्टान्त का उपन्यास करता है, जैसे--आत्मा अकता है, क्योंकि वह अमूर्त है, जैसे-आकाश।
ऐसा करने पर प्रतिवादी इसका खण्डन करने के लिए इसके विरुद्ध दृष्टान्त का उपन्यास करता है, जैसेआत्मा आकाश की भांति अकर्ता है तो यह भी कहा जा सकता है कि आत्मा अभोक्ता है, क्योंकि वह अमूर्त है, जैसे
आकाश । यह विरुद्धार्थक उपन्यास है। अपाय
- इसका अर्थ है----हेय-धर्म का ज्ञापक दृष्टान्त । वह चार प्रकार का होता है। द्रव्य अपाय, क्षेत्र अपाय, काल
अपाय, भाव अपाय। द्रव्य अपाय....
इसका अर्थ है---द्रव्य या द्रव्य से होने वाली अनिष्ट की प्राप्ति ।
एक गांव में दो भाई रहते थे। वे धन कमाने सौराष्ट्र देश में गए। धनार्जन कर वे पुनः अपने देश लौट रहे थे। दोनों के मन में पाप समा गया। एक-दूसरे को मारने की भावना से कोई उपाय ढूंढने लगे। यह भेद प्रगट होने पर उन्होंने धन से भरी नौली को एक नदी में डाल दिया। एक मछली उसे निगल गई। वही मछली घर लाई गई। बहन ने उसका पेट चीरा। नौली देख उसका मन ललचा गया। मां ने देख लिया। दोनों में कलह हुआ। लड़की ने मां के मर्म-स्थान पर प्रहार किया। वह मर गई। वह धन उसकी मृत्यु का कारण बना। यह द्रव्य
अपाय है। क्षेत्र अपाय
क्षेत्र या क्षेत्र से होने वाला अपाय । दशाह हरिवंश के राजा थे। कंस ने मथुरा का विध्वंस कर डाला । राजा जरासंध का भय बढ़ा, तब उस क्षेत्र को अपाय-बहुल जानकर दशाह वहां से द्वारवती चले गए।' यह क्षेत्र
अपाय है। काल अपाय--
काल या काल से होने वाला अपाय। कृष्ण के पूछने पर अरिष्टनेमि ने कहा कि द्वारवती नगरी का नाश
३. देखें-दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति, पत्र ३५,३६ । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४३ ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४२ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४२ : तथा वादिना अभिमतार्थसाधनाय
कृते वस्तूपन्यासे तविघटनाय यः प्रतिवादिना विरुद्धार्थोपनय: क्रियते पर्यनुयोगोपन्यासे वा य उत्तरोपनयः स उपन्यासोपनयः ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : टि० १११ बारह वर्षों में द्वैपायन ऋषि द्वारा होगा। ऋषि ने जब यह सुना तब वे इसको टालने के लिए बारह वर्षों तक द्वार
वती को छोड़ अन्यत्र चले गए। यह काल का अपाय है। भाव अपाय
भाव से होने वाली अनिष्ट की प्राप्ति । देखें-- दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति, पत्र ३७-३६ । उपाय--
इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रयत्न-विशेष का निर्देश करने वाला दृष्टान्त । यह चार प्रकार का होता है। द्रव्य उपाय, क्षेत्र उपाय, काल उपाय, भाव उपाय । द्रव्य उपाय
किसी उपाय-विशेष से ही स्वर्ण आदि धातु प्राप्त किया जा सकता है। इसकी विधि बताने वाला धातुवाद आदि। क्षेत्र उपाय
क्षेत्र का परिकर्म करने का उपाय । हल आदि साधन क्षेत्र को तैयार करने के उपाय हैं। नौका आदि समुद्र को पार करने का उपाय है। काल उपाय
काल का ज्ञान करने का उपाय । घटिका, छाया आदि के द्वारा काल-ज्ञान करना। भाव-उपाय--
मानसिक भावों को जानने का उपाय। देखें-दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति, पत्र ४०-४२। स्थापना कर्म
१. जिस दृष्टान्त से परमत के दूषणों का निर्देश कर स्वमत की स्थापना की जाती है, वह स्थापना कर्म
कहलाता है। जैसे-सूवकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध का पुंडरीक नाम का पहला अध्ययन। २. अथवा प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत दोषों का निराकरण कर अपने मत की स्थापना करना । जैसे-एक मालाकार अपने फूल बेचने के लिए बाजार में चला जा रहा था। उसे टट्टी जाने की बाधा हुई। वह राजमार्ग पर ही बैठकर अपनी बाधा से निवृत्त हुआ। कहीं अपवाद न हो, इसलिए उसने उस मल पर फूल डाल दिए और लोगों के पूछने पर कहा कि यहां हिंगुशीव' नाम का देव उत्पन्न हुआ है। लोगों ने भी वहां फूल चढ़ाए। वहां एक मन्दिर बन गया। इस दृष्टान्त में मालाकार ने प्राप्त दूषण का निराकरण कर अपने मत की स्थापना कर दी। ३. वाद काल में सहसा व्यभिचारी हेतु को प्रस्तुत कर, उसके समर्थन में जो दृष्टान्त दिया जाता है, उसे
स्थापना कर्म कहते हैं। प्रत्युत्पन्नविनाशी
तत्काल उत्पन्न किसी दोष के निराकरण के लिए किया जाने वाला दृष्टान्त।
एक गांव में एक वणिक् परिवार रहता था। उसके अनेक पुत्रियां और पुत्र-वधुएं थीं। एक बार नृत्यमंडली उस घर के पास ठहरी। घर की नारियां उन गंधर्वो में आसक्त हो गई। बनिए ने यह जाना। उसने उपाय से उन गन्धर्वो के नृत्य में विघ्न उपस्थित करना प्रारम्भ किया। उन्होंने राजा से शिकायत की। राजा ने बनिए को बुलाया । बनिया बोला- मैं तो अपना काम करता हूं, प्रतिदिन इस समय पूजा करता है । तब राजा ने उन गन्धों
१. स्थानांगवृत्ति,पत्र २४३ । २ वही, पव २४३ । ३. वही, पत्र २४३।
४. दशवैकालिक, जिनदास चूणि, पृष्ठ ४४। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४३ । ६ वही, पत्र २४३ ॥
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० १११
को अन्यत्र जाने का आदेश दे दिया। पुरे विवरण के लिए देखें-दशवकालिक हारिभद्रीया ति, पत्र ४५।
आहरणतद्देश चार प्रकार का होता है-- १. अनुशिष्टि--
सद्गुणों के कथन से किसी वस्तु को पुष्ट करना । 'वह करो'----इस प्रकार जहां कहा जाता है, उसे अनुशिष्टि कहते हैं। जैसे—सुभद्रा ने अपने आरोप को निर्मूल करने के लिए चालनी से पानी खींचकर चम्पा नगरी के नगर
द्वारों को खोला, तब वहां के महाजनों ने यह शीलवती है ऐसा अनुशासन-कथन किया था। २. उपलम्भ
अपराध करने वाले शिष्यों को उपालम्भ देना। जैसे---विकाल वेला में स्थान पर आने से आर्या चन्दना ने साध्वी मृगावती को उपालम्भ दिया था। ३. पृच्छा ---
जिसमें क्या, कैसे, किसने आदि प्रश्नों का समावेश हो, वह दृष्टान्त। जिस प्रकार कोणिक ने भ० महावीर से प्रश्न किए थे।
कोणिक श्रेणिक का पुत्र था। एक बार उसने भगवान् महावीर से पूछा-भंते ! चक्रवर्ती मरकर कहां जाते हैं? भगवान ने कहा-सातवीं नरक में। उसने पूछा--मैं कहां जाऊंगा? भगवान् ने कहा-छठी नरक में उसने फिर पूछा-भंते ! मैं सातवीं नरक में क्यों नहीं जाऊंगा? भगवान् ने कहा-चक्रवर्ती सातवीं नरक में जाते है। उसने कहा-क्या मैं चक्रवर्ती नहीं हूं? मेरे पास भी चक्रवर्ती की भांति हाथी-घोड़े आदि हैं। भगवान् बोले-तेरे पर रत्ननिधि नहीं है। यह सुनकर कोणिक कृत्रिम रत्न तैयार करवा कर भरत क्षेत्र को जीतने चला। वैताढ्य के गुफाद्वार पर कृतमालिक यक्ष ने उसे मार डाला। वह छठी नरक में गया।
यह 'पृच्छा ज्ञात' का उदाहरण है। ४. निश्रावचन
किसी के माध्यम से दूसरे को प्रबोध देना । भगवान् महावीर ने गौतम के माध्यम से दूसरे अनेक शिष्यों को प्रबोध दिया है। उत्तराध्ययन का 'द्रुमपत्रक' अध्ययन इसका उदाहरण है--
आहरणतद्दोष के चार प्रकार हैं१. अधर्मयुक्त
जो दृष्टान्त सुनने वाले के मन में अधर्म-बुद्धि पैदा करता है । किसी के पुत्र को मकोड़े ने काट खाया। उसके पिता ने सारे मकोड़ों के बिलों में गर्म जल डलवा कर उनका नाश कर दिया। चाणक्य ने यह सुना। उसके मन में
अधर्म-बुद्धि उत्पन्न हुई और उसने भी उपाय से सभी चोरों को विष देकर मरवा डाला। २. प्रतिलोम
प्रतिकूलता का बोध देने वाला दृष्टान्त । इस प्रकार के दृष्टान्त का दूषण यह है कि वह श्रोता में दूसरों का अपकार करने की बुद्धि उत्पन्न करता है। ३. आत्मोपनीत---
जो दृष्टान्त परमत को दूषित करने के लिए दिया जाता है, किन्तु वह अपने इष्ट मत को ही दूषित कर देता है, जैसे-एक बार एक राजा ने पिंगल नाम के शिल्पी से तालाब के टूटने का कारण पूछा। उसने कहा-राजन् ! जहां तालाब टूटा है वहां यदि अमुक-अमुक गुण वाले पुरुष को जीवित गाड़ा जाए, तो फिर यह तालाब कभी नहीं टूटेगा। राजा ने अमात्य से ऐसे पुरुष को ढूंढने की आज्ञा दी। अमात्य ने कहा-राजन् ! यह पिंगल उक्त गुणों से युक्त है। राजा ने उसी पिंगल को वहां जीवित गड़वा दिया। पिंगल ने जो बात कही, वह उसी पर लागू हो गई।
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ठाणं (स्थान)
४. दुरुपनीत -
जिस दृष्टान्त का उपसंहार (निगमन) दोष पूर्ण हो अथवा वैसा दृष्टान्त जो साध्य के लिए अनुपयोगी और स्वमत दूषित करने वाला हो, जैसे----
तद्वस्तुक
५२५
एक परिव्राजक जाल लेकर मछलियां पकड़ने जा रहा था। रास्ते में एक धूर्त मिला। उसने कुछ पूछा और परिव्राजक ने असंगत उत्तर देकर अपने आप को दूषित व्यक्ति प्रमाणित कर दिया।
एक व्यक्ति ने परिव्राजक के कन्धे पर रखे हुए जाल को देखकर पूछा- महाराज ! आपकी कंथा छिद्रवाली क्यों है ?
परिव्राजक - यह मछली पकड़ने का जाल है ।
व्यक्ति - तुम मछलियां खाते हो ?
परि० --- मैं मदिरा के साथ मछलियां खाता हूं ।
व्यक्ति - तुम मदिरा पीते हो ?
परि० अकेला नहीं पीता, वेश्या के साथ पीता हूं।
व्यक्ति -- तुम वेश्या के पास भी जाते हो ? तुम धन कहां से लाते हो ?
परि० -- शत्रुओं के गलहत्था देकर ।
व्यक्ति -- तुम्हारे शत्रु कौन हैं ?
परि० --- जिनके घर में सेंध लगाता हूं
व्यक्ति ---तुम चोरी भी करते हो ?
स्थान ४ : टि० १११
परि०--- हां, जुआ खेलने के लिए धन चाहिए ।
व्यक्ति – अरे, तुम जुआरी भी हो ?
परि० - हां, क्यों नहीं । मैं दासी का पुत्र हूं, इसलिए जुआ खेलता हूं ।
व्यक्ति ने सामान्य बात पूछी। किन्तु परिव्राजक उसको संक्षिप्त उत्तर न दे सका । अतः अन्त में उसकी पोपलीला खुल गई।
किसी ने कहा -- समुद्र तट पर एक बड़ा वृक्ष है। उसकी शाखाए जल और स्थल दोनों पर हैं। उसके जो पत्ते जल में गिरते हैं वे जलचर जीव हो जाते हैं और जो स्थल में गिरते हैं वे स्थलचर जीव हो जाते हैं ।
यह सुन दूसरे आदमी ने उसकी बात का विघटन करते हुए कहा -- जो जल और स्थल के बीच में गिरते हैं, उनका क्या होता है ?
प्रथम व्यक्ति के द्वारा उपन्यस्त वस्तु को पकड़कर उसका विघटन करना तद्वस्तुक नाम का उपन्यासोपनय होता है। इसे दृष्टान्त के आकार में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-जल और स्थल में पतित पत्र जलचर और स्थलचर जीव नहीं होते, जैसे—जल और स्थल के बीच में पतित पत्र । यदि जल और स्थल में पतित पत्र जलचर और स्थलचर जीव होते हों तो उनके बीच में पतित पत्र जलचर और स्थलचर का मिश्रित रूप होना चाहिए। ऐसा होता नहीं है, इसलिए यह बात मिथ्या है।
इसका दूसरा उदाहरण यह हो सकता है—जीव नित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है, जैसे- आकाश । वादी द्वारा इस स्थापना के पश्चात् प्रतिवादी इसका निरसन करता है—जीव अनित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है, जैसे - कर्म । तदन्यवस्तुक
इसमें वस्तु का परिवर्तन कर वादी के मत का विघटन किया जाता है। जल में पतित पत्र जलचर और स्थल में पतित पत्र स्थलचर हो जाते हैं। ऐसा कहने पर दूसरा व्यक्ति कहता है— गिरे हुए पत्र ही जलचर और स्थलचर
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स्थान ४ : टि० १११ बनते हैं। कोई आदमी उन्हें गिराकर खाए तो या ले जाए उनका क्या होगा ? क्या वे मनुष्य शरीर के आश्रित जीव
बनेंगे? ऐसा नहीं होता, इसलिए वह भी नहीं होता। प्रतिनिभ
एक व्यक्ति ने यह घोषणा की कि जो व्यक्ति मुझे अपूर्व बात सुनाएगा, उसे मैं लाख रुपए के मूल्य का कटोरा दूंगा । इस घोषणा से प्रेरित हो बहुत लोग आए और उन्होंने नई-नई बातें सुनाई। उसकी धारणा-शक्ति प्रबल थी। वह जो भी सुनता उसे धारण कर लेता। फिर सुनाने वालों से कहता—यह अपुर्व नहीं है। इसे मैं पहले से ही जानता हूं । इस प्रकार वह आने वालों को निराश लौटा देता। एक सिद्ध पुत्र आया। उसने कहा
तुज्झ पिया मज्झ पिउणो, धारेइ अणूणयं सयसहस्सं।
__जइ सुय पुत्वं दिज्जउ, अह न सुयं खोरयं देहि ॥१॥ तेरा पिता मेरे पिता के लाख रुपये धारण कर रहा है। यदि यह श्रुत पूर्व है तो वे लाख रुपए लौटाओ और यदि यह श्रुत पूर्व नहीं है तो लक्ष मूल्य का कटोरा दो।
यह प्रतिछलात्मक आहरण है।
किसी ने पूछा- तुम किस लिए प्रव्रज्या का पालन कर रहे हो ? मुनि ने कहा- उसके बिना मोक्ष नहीं होता, इसलिए कर रहा हूं।
मुनि ने पूछा-तुम अनाज किस लिए खरीद रहे हो? वह बोला---खरीदे बिना वह मिलता नहीं।
मुनि बोले-खरीदे बिना अनाज नहीं मिलता इसलिए तुम खरीद रहे हो। इसी प्रकार प्रव्रज्या के बिना मोक्ष नहीं मिलता, इसलिए मैं प्रव्रज्या का पालन कर रहा हूं।'
यापक...
इसमें बादी समय का यापन करता है। वृत्तिकार ने यहां एक उदाहरण प्रस्तुत किया है.----
एक स्त्री अपने पति से सन्तुष्ट नहीं थी। वह किसी जार पुरुष के साथ प्रेम करती थी। घर में पति रहने से उसके कार्य में वह बाधक-स्वरूप था। उसने एक उपाय सोचा। पति को उष्ट्र का लिड (मल, मींगणा) देकर कहा--प्रत्येक मींगणा एक-एक रुपए में बेचना। इससे कम किसी को मत बेचना । ऐसी शिक्षा दे उसको उज्जयिनी भेज दिया। पीछे से निर्भय होकर जार के साथ भोग करती रही। समय को बिताने के लिए पति को दूर स्थान पर भेज दिया। ऊंट का लिंड एक रुपए में कौन लेता, इसलिए पूरे लिड बेचने में उसे काफी समय लग गया। इस प्रकार उसने कालयापना की।
हेतु के पीछे बहुल विशेषण लगाने से प्रतिवादी वाच्य को जल्दी नहीं समझ पाता। यथा, वायु सचेतन होती है, दूसरे की प्रेरणा से तिर्यग और अनियत चलती है, गतिमान होने से, जैसे--गाय का शरीर। यहां प्रतिवादी जल्दी से अनेकान्तिक आदि दोष बताने में समर्थ नहीं होता। अथवा अप्रतीत व्याप्ति के द्वारा व्याप्ति-साधक अन्य प्रमाणों से शीघ्रता से साध्य की प्रतीति नहीं कर सकता । अपितु साध्य की प्रतीति में कालक्षेप होता है, जैसे—बौद्धों की मान्यता के अनुसार वस्तु क्षणिक है, सत्त्व होने के कारण । सत्त्व हेतु सुनते ही प्रतिवादी को क्षणिकत्व का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि सत्त्व अर्थ-क्रियाकारी होता है। यदि सत्त्व अर्थ-क्रियाकारी न माना जाए तो वन्ध्या का पुत्र भी सत्त्व कहलाएगा। नित्य वस्तु एक रूप होती है, उसमें अर्थ-क्रिया न तो कम से होती है और न एक साथ होती है। इसलिए क्षण से भिन्न वस्तु में अर्थ क्रिया कारित्व नहीं होता। इस प्रकार क्षणिक ही अर्थ-क्रियाकारी होता है। यह जो सत्त्व लक्षण वाला हेतू है, वह साध्य की सिद्धि में काल का यापन करता है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४७ ।
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स्थान ४ : टि० ११२
"पहा
स्थापक---
साध्य को शीघ्र स्थापित करने वाला हेतु । वृत्तिकार ने इसके समर्थन में एक लोक के मध्य का उदाहरण प्रस्तुत किया है. एक धूर्त परिव्राजक लोगों से कहता कि लोक के मध्य भाग में देने से अधिक फल होता है, और लोक का मध्य मैं ही जानता हूं । गांव-गांव में जाता और हर गांव में लोक का मध्य स्थापित कर लोगों को ठगता। इस प्रकार माया से अपना काम बनाता। एक गांव में एक श्रावक ने पूछा--लोक का मध्य एक ही होता है, गांवगांव में नहीं होता। इस प्रकार उसकी असत्यता को पकड़ लिया और कहा—तुम्हारे द्वारा बताया गया लोक का मध्य मध्य नहीं है। यहां अग्नि है, धुआं होने के कारण इस धूम हेतु से साध्य अग्नि का ज्ञान शीघ्र हो जाता है। दूसरा पक्ष-वस्तु नित्यानित्य है, द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से । उसी प्रकार प्रतीत द्रव्य की अपेक्षा से नित्य और
पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। व्यंसक.--.
जो हेतु दूसरे को व्यामूढ बना देता है, उसे व्यंसक कहा जाता है।
एक व्यक्ति अनाज से भरी गाड़ी लेकर नगर में प्रवेश कर रहा था। रास्ते में उसे एक मरी हुई तित्तरी मिली। उसने उसे गाड़ी पर रख दिया। नगर में एक धूर्त मिला। उसने गाड़ीवान से पूछा-'शकट-तित्तरी कितने में दोगे? गाड़ीवान् ने सोचा कि यह गाड़ी पर रखी हुई तित्तरी का मोल पूछ रहा है। उसने कहा----तर्पणालोडित सत्तुओं के मोल पर इसे दूंगा।' उस धूर्त ने दो-चार व्यक्तियों को साक्षी रखा और सत्तुओं के मोल पर तित्तरी सहित गाड़ी लेकर चलने लगा। गाड़ीवान ने प्रतिषेध किया। धूर्त ने कहा-इसने शकट-तित्तरी बेची है । अतः गाड़ी सहित तित्तरी मेरी होती है। गाड़ीवान विषण्ण हो गया। यहां 'शकट-तित्तरी' यह व्यंसक दूसरों को भ्रम में
डालने वाला हेतु है। लूषक
व्यंसक हेतु के द्वारा आपादित दूषण का उसी प्रकार के हेतु से निराकरण करना ।
शाकटिक ने धूर्त से कहा-मुझे तर्पणालोडित सत्तू दो। वह धूर्त उसे घर ले गया और अपनी भार्या से कहा--- इसे सत्तु आलोडित कर दो। वह वैसा करने लगी। तब शाकटिक उस स्त्री का हाथ पकड़कर उसे ले जाने लगा। धूर्त ने प्रतिरोध किया। शाकटिक ने कहा-मैंने शकट-तित्तरी तर्पणालोडित सत्तुओं के मोल बेची थी। मैं उसे ही ले जा रहा हूं। तू ने ही ऐसा कहा था। धूर्त अवाक रह गया । शाकटिक द्वारा दिया गया हेतु लूषक था। इस हेतु ने उसे धूर्त के हेतु को नष्ट कर दिया।
११२ (सू० ५०४)
प्रस्तुत सूत्र में हेतु शब्द का दो अर्थों में प्रयोग किया गया है१. प्रमाण
२. अनुमानांग—जिसके बिना साध्य की सिद्धि निश्चित रूप से न हो सके, वैसा साधन । यह अनुमान-प्रमाण का एक अंग है।
प्रस्तुत सूत्र के तीन अनुच्छेद हैं। तीसरे अनुच्छेद में अनुमानांग हेतु प्रतिपादित है। प्रथम अनुच्छेद में वाद-काल में प्रयुक्त किए जाने वाले हेतु का वर्गीकरण है। द्वितीय अनुच्छेद में प्रमाण का निरूपण है। ज्ञेय के बोध में ज्ञान ही साधकतम होता है। उसी का नाम प्रमाण है । ज्ञान साधकतम होता है, इसीलिए उसे हेतु (साधन-वचन) कहा गया है।
आगम-साहित्य में प्रमाण के दो वर्गीकरण प्राप्त होते हैं—एक नंदी का और दूसरा अनुयोगद्वार का । नंदी का
२. प्रमाणनयतत्वालोकालंकार, ११२-४ ।
१. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, ३१११ :
निश्चितान्यथानुपत्त्येकलक्षणो हेतु : ।
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स्थान ४ : टि० ११२
वर्गीकरण दूसरे स्थान में संग्रहीत है।' अनुयोगद्वार का वर्गीकरण यहां संग्रहीत है। प्रथम वर्गीकरण जैन परम्परानुसारी है और इस वर्गीकरण पर न्यायदर्शन का प्रभाव है।
हेतु दो प्रकार के होते हैं-उपलब्धिहेतु (अस्तिहेतु) और अनुपलब्धिहेतु (नास्तिहेतु)। ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं।
१. विधिसाधक उपलब्धिहेतु । २. निषेधसाधक उपलब्धिहेतु ।। १. निषेधसाधक अनुपलब्धिहेतु । २. विधिसाधक अनुपलब्धिहेतु। प्रमाणनयतत्त्वालोक के अनुसार इनका स्वरूप इस प्रकार है१. विधिसाधक उपलब्धिहेतु-विधिसाधक विधि हेतु--
साध्य से अविरुद्ध रूप में उपलब्ध होने के कारण जो हेतु साध्य की सत्ता को सिद्ध करता है, वह अविरुद्धोपलब्धि कहलाता है।
अविरुद्ध उपलब्धि के छह प्रकार हैं-- १. अविरुद्ध-व्याप्य-उपलब्धिसाध्य-शब्द परिणामी है।
हेतु-क्योंकि वह प्रयत्न-जन्य है। यहां प्रयत्न-जन्यत्व व्याप्य है। वह परिणामित्व से अविरुद्ध है। इसलिए प्रयत्नजन्यत्व से शब्द का परिणामित्व सिद्ध होता है।
२. अविरुद्ध-कार्य उपलब्धिसाध्य—इस पर्वत पर अग्नि है। हेतु -क्योंकि धुआं है। धुआं अग्नि का कार्य है। वह अग्नि से अविरुद्ध है। इसलिए धूम-कार्य से पर्वत पर ही अग्नि की सिद्धि होती है। ३. अविरुद्ध-कारण-उपलब्धिसाध्य-वर्षा होगी। हेतु-क्योंकि विशिष्ट प्रकार के बादल मंडरा रहे हैं। बादलों की विशिष्ट-प्रकारता वर्षा का कारण है और उसका विरोधी नहीं है। ४. अविरुद्ध-पूर्वचर-उपलब्धिसाध्य---एक मुहर्त के बाद तिष्य नक्षत्र का उदय होगा। हेतु-क्योंकि पुनर्वसु का उदय हो चुका है। 'पुनर्वसु का उदय' यह हेतु 'तिष्योदय' साध्य का पूर्वचर है और उसका विरोधी नहीं है। ५. अविरुद्ध-उत्तरचर-उपलब्धिसाध्य–एक मुहर्त पहले पूर्वा-फाल्गुनी का उदय हुआ था। हेतु-क्योंकि उत्तर-फाल्गुनी का उदय हो चुका है। उत्तर-फाल्गुनी का उदय पूर्वा-फाल्गुनी के उदय का निश्चित उत्तरवर्ती है। ६. अविरुद्ध-सहचर-उपलब्धिसाध्य—इस आम में रूप-विशेष है। हेतु--क्योंकि रस-विशेष आस्वाद्यमान है। यहां रस (हेतु) रूप (साध्य) का नित्य सहचारी है।
२. निषेध-साधक उपलब्धि-हेतु-निषेधसाधक विधिहेतु१. देखें-२१८६ का टिप्पण।
२. न्यायदर्शन, १।१।३ : प्रत्यक्षनुमानोपमान शब्दाः प्रमाणानि
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स्थान ४ : टि० ११२
साध्य से विरुद्ध होने के कारण जो हेतु उसके अभाव को सिद्ध करता है, वह विरुद्धोपलब्धि कहलाता है। विरुद्धोपलब्धि के सात प्रकार हैं१. स्वभाव-विरुद्ध-उपलब्धिसाध्य.-.-सर्वथा एकान्त नहीं है। हेतु-क्योंकि अनेकान्त उपलब्ध हो रहा है। अनेकान्त-एकान्त स्वभाव के विरुद्ध है। २. विरुद्ध-व्याप्य-उपलब्धि साध्य इस पुरुष का तत्त्व में निश्चय नहीं है। हेतु --क्योंकि संदेह है। 'संदेह है' यह निश्चय नहीं है इसका व्याप्य है, इसलिए सन्देह-दशा में निश्चय का अभाव होगा। ये दोनों विरोधी हैं। ३. विरुद्ध-कार्य-उपलब्धिसाध्य—इस पुरुष का क्रोध शान्त नहीं हुआ है। हेतु-क्योंकि मुख-विकार हो रहा है। मुख-विकार क्रोध की विरोधी वस्तु का कार्य है। ४. विरुद्ध-कारण-उपलब्धिसाध्य—यह महर्षि असत्य नहीं बोलता। हेतु—क्योंकि इसका ज्ञान राग-द्वेष की कलुषता से रहित है। यहां असत्य-वचन का विरोधी सत्य-वचन है और उसका कारण राग-द्वेष रहित ज्ञान-सम्पन्न होना है। ५. अविरुद्ध-पूर्वचर-उपलब्धिसाध्य-एक मुहूर्त के पश्चात् पुष्य नक्षत्र का उदय नहीं होगा। हेतु—क्योंकि अभी रोहिणी का उदय है।
यहां प्रतिषेध्य पुष्य नक्षत्र के उदय से विरुद्ध पूर्वचर रोहिणी नक्षत्र के उदय की उपलब्धि है। रोहिणी के पश्चात् मृगशीर्ष, आर्द्रा और पुनर्वसु का उदय होता है । फिर पुष्य का उदय होता है।
६. विरुद्ध-उत्तरचर-उपलब्धिसाध्य--एक मुहूर्त के पहले मृगशिरा का उदय नहीं हुआ था। हेतु- क्योंकि अभी पूर्वा-फाल्गुनी का उदय है।
यहां मृगशीर्ष का उदय प्रतिषेध्य है । पूर्वा-फाल्गुनी का उदय उसका विरोधी है । मृगशिरा के पश्चात् क्रमशः आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा और पूर्वा-फाल्गुनी का उदय होता है।
७. विरुद्ध-सहचर-उपलब्धिसाध्य---इसे मिथ्या ज्ञान नहीं है। हेतु-क्योंकि सम्यग्दर्शन है। मिथ्या ज्ञान और सम्यग्दर्शन एक साथ नहीं रह सकते। १. निषेध-साधक-अनुपलब्धि-हेतु-निषेध-साधक निषेधहेतु-.
प्रतिषेध्य से अविरुद्ध होने के कारण जो हेतु उसका प्रतिषेध्य सिद्ध करता है, वह अविरुद्धानुपलब्धि कहलाता है अविरुद्धानुपलब्धि के सात प्रकार हैं
१. अविरुद्ध-स्वभाव-अनुपलब्धिसाध्य—यहां घट नहीं है। हेतु-क्योंकि उसका दृश्य स्वभाव उपलब्ध नहीं हो रहा है।
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स्थान ४ : टि० ११२ चक्षु का विषय होना घट का स्वभाव है। यहां इस अविरुद्ध स्वभाव से ही प्रतिषेध्य का प्रतिषेध है। २. अविरुद्ध-व्यापक-अनुपलब्धिसाध्य—यहां पनस नहीं है। हेतु-- क्योंकि वृक्ष नहीं है। वृक्ष व्यापक है, पनस व्याप्य । यह व्यापक की अनुपलब्धि में व्याप्य का प्रतिषेध है। ३. अविरुद्ध-कार्य-अनुपलब्धिसाध्य ---यहां अप्रतिहत शक्ति वाले बीज नहीं हैं। हेतु—क्योंकि अंकुर नहीं दीख रहे हैं। यह अविरोधी कार्य की अनुपलब्धि के कारण का प्रतिषेध है। ४. अविरुद्ध-कारण-अनुपलब्धिसाध्य—इस व्यक्ति में प्रशमभाव नहीं है। हेतु —क्योंकि इसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है। प्रशमभाव-सम्यग्दर्शन का कार्य है। यह कारण के अभाव में कार्य का प्रतिषेध है। ५. अविरुद्ध-पूर्वचर-अनुपलब्धि-- साध्य-एक मुहूर्त के पश्चात् स्वाति का उदय नहीं होगा। हेतु-क्योंकि अभी चित्रा का उदय नहीं है। यह चित्रा के पूर्ववर्ती उदय के अभाव द्वारा स्वाति के उत्तरवर्ती उदय का प्रतिषेध है। ६ अविरुद्ध-उत्तरचर-अनुपलब्धि-- साध्य.एक मुहुर्त पहले पूर्वभाद्रपदा का उदय नहीं हुआ था। हेतुक्योंकि उत्तरभाद्रपदा का उदय नहीं है। यह उत्तरभाद्रपदा के उत्तरवर्ती उदय के अभाव के द्वारा पूर्वभाद्रपदा के पूर्ववर्ती उदय का प्रतिषेध है। ७. अविरुद्ध-सहचर-अनुपलब्धि-- साध्य -इसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं है। हेतु--क्योंकि सम्यग्दर्शन नहीं है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन दोनों नियत सहचारी हैं । इसलिए यह एक के अभाव में दूसरे का प्रतिषेध है। २. विधि-साधक अनुपलब्धि-हेतु-विधि-साधक निषेध हेतु
साध्य के विरुद्ध रूप की उपलब्धि न होने के कारण जो हेतु उसकी सता को सिद्ध करता है, वह विरुद्धानुपलब्धि कहलाता है। विरुद्धानुपलब्धि हेतु के पांच प्रकार हैं
१. विरुद्ध-कार्य-अनुपलब्धिसाध्य--इसके शरीर में रोग है।
हेतु-क्योंकि स्वस्थ प्रवृत्तियां नहीं मिल रही हैं। स्वस्थ प्रवृत्तियों का भाव रोग-विरोधी कार्य है। उसकी यहां अनुपलब्धि है।
२. विरुद्ध-कारण-अनुपलब्धिसाध्य-यह मनुष्य कष्ट में फंसा हुआ है।
हेतु-क्योंकि इसे इष्ट का संयोग नहीं मिल रहा है। कष्ट के भाव का विरोधी कारण इष्ट संयोग है, वह यहां अनुपलब्ध है।
३. विरुद्ध-स्वभाव-अनुपलब्धि-- साध्य-वस्तु समूह अनेकान्तात्मक है।
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स्थान ४: टि०११३-११५
हेतु- क्योंकि एकान्त स्वभाव ही अनुपलब्धि है। ४. विरुद्ध-व्यापक-अनुपलब्धिसाध्य—यहां छाया है। हेतु-क्योंकि उष्णता नहीं है। ५. विरुद्ध-सहचर-अनुपलब्धिसाध्य ---इसे मिथ्या ज्ञान प्राप्त है। हेतु -क्योंकि इसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं है।
११३ (सू० ५११) :
प्रस्तुत सूत्र में तिर्यञ्चजाति के आहार के प्रकार निर्दिष्ट हैं । उसका जो आहार सुखभक्ष्य सुखपरिणाम वाला होता है, उसे कंक के आहार की उपमा से समझाया गया है। कंक नाम का पक्षी दुर्जर आहार को भी सुख से खाता है और वह उसके सुख से पच जाता है। उसका जो आहार तत्काल निगल जाने वाला होता है, उसे बिल में प्रविष्ट होती हई वस्तु की उपमा के द्वारा समझाया गया है।
११४ (सू० ५१४) :
आशी का अर्थ दाढ (दंष्ट्रा) है। जिसकी दाढ में विष होता है, वह आशीविष कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है
१. कर्म-आशीविष (कर्म से आशीविष) २. जाति-आशीविष (जाति से आशीविष) । प्रस्तुत सूत्र में जातीय आशीविष के प्रकार और उनकी क्षमता का निरूपण है।
११५ प्रविभावक (सू० ५२७) :
___वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं—प्रविभावयिता और प्रविभाजयिता। इसके अनुसार प्रस्तुत सूत्र के दो अर्थ फलित होते हैं---
१. कुछ पुरुष आख्यायक (प्रज्ञापक) होते हैं, किन्तु उदार क्रिया और प्रतिभा आदि गुणों से रहित होने के कारण धर्मशासन के प्रविभावयिता (प्रविभावक) नहीं होते।
२. कुछ पुरुष सूत्र-पाठ के आख्यायक होते हैं, किन्तु अर्थ के प्रविभाजयिता (विवेचक) नहीं होते।'
प्रविभावक का अर्थ हिंसा से विरमण या आचरण भी हो सकता है। इस अर्थ के आधार पर प्रस्तुत सूत्र का अर्थ इस प्रकार होगा
१. कुछ पुरुष वक्ता होते हैं, किन्तु आचारवान् नहीं होते।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५१ : कङ्क-पक्षिविशेष : तस्याहारेणो
पमा यत्र स मध्यपदलोपात् कोषमः, अयमों-यथा हि कङ्कस्य दुर्जरोऽपि स्वरूपेणाहार: सुखभक्ष्यः सुखपरिणामश्च भवति एवं यस्तिरश्चा सुभक्षः सुखपरिणामश्च स कङ्कोपम
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५१ : आश्यो-दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते
आशीविषाः, ते च कर्मतो जातितश्च, तत्र कर्मतस्तियंङ मनुष्याः कुतोऽपि गुणादाशीविषाः स्युः, देवाश्चासहस्राराच्छापादिना परव्यापादनादिति, उक्तञ्च
आसी दाढा तग्गयमहाविसाऽऽसीविसा दुबिह भया ।
ते कम्मजाइभेएण, णेगहा चउबिहविगप्पा ॥ ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५४ ।
इति।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५१ : बिले प्रविशद्रव्यं बिलमेव तेनोपमा
यत्र स तथा, बिले हि अलब्धरसास्वाद झगिति यथा किल किञ्चित् प्रविशति एवं यस्तेषां गलबिले प्रविशति स तथोच्यते।
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स्थान ४ : टि० ११६-११८
२. कुछ पुरुष आचारवान् होते हैं, किन्तु वक्ता नहीं होते। ३. कुछ पुरुष वक्ता भी होते हैं, और आचारवान् भी होते हैं। ४. कुछ पुरुष न वक्ता होते हैं और न आचारवान् ही होते हैं।
११६ (सू० ५३०)
इस वर्गीकरण में भगवान् महावीर के समसामयिक सभी धार्मिक मतवादों का समावेश होता है। वृत्तिकार ने क्रियावादियों को आस्तिक और अक्रियावादियों को नास्तिक कहा है। किन्तु यह ऐकान्तिक निरूपण नहीं है। अक्रियावादी भी आस्तिक होते हैं। विशेष जानकारी के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि १८।२३ का टिप्पण।
प्रस्तुत आलापक में नरक और स्वर्ग में भी चार वादि-समवसरणों का अस्तित्व प्रतिपादित किया है, यह उल्लेखनीय बात है।
कर
११७ (सू० ५४१)
करण्डक ----वस्त्र, आभरण आदि रखने का एक भाजन। यह वंश-सलाका को गूंथकर बनाया जाता है। इसके मुख की ऊंचाई कम और चौड़ाई अधिक होती है। प्रस्तुत सूत्र में करण्डक की उपमा के द्वारा आचार्य के विभिन्न कोटियों का प्रतिपादन किया गया है।
श्वपाक-करण्डक में चमड़े का काम करने के उपकरण रहते हैं, इसलिए वह असार (सार-रहित) होता है। वेश्या-करण्डक-लाक्षायुक्त स्वर्णाभरणों से भरा होता है, इसलिए वह श्वपाक-करण्डक की अपेक्षा सार होता है।
गृहपति-करण्डक-विशिष्ट मणि और स्वाभरणों से भरा होने के कारण वेश्या-करण्डक की अपेक्षा सारतर होता है।
राज-करण्डक-अमूल्य रत्नों से भृत होने के कारण गृहपति-करण्डक की अपेक्षा सारतम होता है।
इसी प्रकार कुछ आचार्य श्रुत-विकल और आचार-विकल होते हैं, वे श्वपाक-करण्डक के समान असार (सार रहित) होते हैं।
कुछ आचार्य अल्पश्रुत होने पर भी वाणी के आडम्बर से मुग्धजनों को प्रभावित करने वाले होते हैं, उनकी तुलना वेश्या-करण्डक से की गई है।
कुछ आचार्य स्व-समय और पर-समय के ज्ञाता और आचार-सम्पन्न होते हैं, उनकी तुलना गृहपति-करण्डक से की गई है।
कुछ आचार्य सर्वगुण सम्पन्न होते हैं, वे राज-करण्डक के समान सारतम होते हैं।'
११८ (सू० ५४५)
मोम का गोला मृदू, लाख का गोला कठिन, काष्ठ का गोला कठिनतर और मिट्टी का गोला कठिनतम होता है। इसी प्रकार सत्त्व की तरतमता के कारण कष्ट सहने में कुछ पुरुष मदु, कुछ पुरुष दृढ़, कुछ पुरुष दृढ़तर और कुछ पुरुष दृढ़तम होते हैं।
आचार्य भिक्षु ने इस दृष्टांत को बड़े रोचक ढंग से विकसित किया है
चार व्यक्ति साधु के पास गए। उनका उपदेश सुन वे धर्म से अनुरक्त हो गए और मन वैराग्य से भर गया। जब वे बाहर आए तो कुछ लोग उनकी आलोचना करने लगे कि तुम व्यर्थ ही भीतर जाकर बैठ गए, केवल समय ही गंवाया।
३ स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६ ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५४ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५८ ।
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स्थान ४ : टि० ११६-१२१
जैसे-मोम का गोला सूर्य के ताप से पिघल जाता है, वैसे ही उन चारों में से एक व्यक्ति ऐसी आलोचना सुन धर्म से विरक्त हो गया।
शेष तीन व्यक्ति आलोचना करने वालों को उत्तर देकर अपने-अपने घर चले गए। घर में माता-पिता के सम्मुख धर्म की चची की तो उन्होंने कठोर शब्दों में अपने पुत्रों को उपालंभ दिया और कहा-अपनी-अपनी स्त्री को लेकर हमारे घर से चले जाओ! तीनों में से एक घबरा गया। अपनी माता से कहा-तू मेरे जन्म की दाता है, तुझे छोड़ मैं साधूओं के पास नहीं जाऊंगा। सूर्य के ताप से न पिघलने वाला लाख का गोला अग्नि के ताप से पिघल गया।
शेष दो व्यक्ति अपने माता-पिता के पास दृढ रहे, घबराए नहीं। फिर दोनों अपनी-अपनी पत्नी के पास गए। पत्नी उनकी बात सुन बौखला उठी। डराते हुए पति को कहा-लो, संभालो अपने बच्चे और यह लो अपना घर। मैं तो कुएं में गिरकर मर जाऊंगी। मुझ से ये बच्चे नहीं संभाले जाते। पत्नी के ये शब्द सुन दो में से एक घबरा गया और सोचा-- अगर यह मर जाएगी तो सगे-संबंधियों में अच्छी नहीं लगेगी। इसलिए नारी से घबराकर धर्म से विरक्त हो गया। वह उठना-बैठना आदि सारा कार्य स्त्री के आदेश से करने लगा। सूर्य और अग्नि के ताप से न पिघलने वाला काष्ठ का गोला अग्नि में जलकर राख हो गया।
मैं जहर खाकर मर जाऊंगी, फिर देखेंगी तुम आनंद से कैसे रहोगे'----स्त्री के द्वारा ऐसा डराने पर भी चौथा व्यक्ति डरा नहीं। वह अपने विचार में दृढ़ रहा और उसे करारा जवाब देता गया। मिट्टी का गोला अग्नि में ज्यों-ज्यों तपता है त्यों-त्यों लाल होता जाता है।
११६ (सू० ५४६)
लोहे का गोला गुरु, त्रपु का गोला गुरुतर, ताम्बे का गोला गुरुतम और सीसे का गोला अत्यन्त गुरु होता है। इसी प्रकार संवेदना, संस्कार या कर्म के भार की दृष्टि से कुछ पुरुष गुरु, कुछ पुरुष गुरुतर, कुछ पुरुष गुरुतम और कुछ पुरुष अत्यन्त गुरु होते हैं।
स्नेह भार की दृष्टि से भी इसकी व्याख्या की जा सकती है। पिता के प्रति स्नेहभार गुरु, माता के प्रति गुरुतर, पुत्र के प्रति गुरुतम और पत्नी के प्रति अत्यन्त गुरु होता है।'
१२० (५४७)
प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या गुण या मूल्य की दृष्टि से की जा सकती है। चांदी का गोला अल्प गुण या अल्प मूल्यवाला होता है। सोने का गोला अधिक गुण या अधिक मूल्यवाला होता है। रत्न का गोला अधिकतर गुण या अधिकतर मूल्यवाला होता है । वज्ररत्न (हीरे) का गोला अधिकतम गुण या अधिकतम मूल्यवाला होता है। इसी प्रकार समृद्धि, गुण या जीवनमूल्यों की दृष्टि से पुरुषों में भी तरतमता होती है।
जिस मनुष्य की बुद्धि निर्मल होती है, वह चांदी के गोले के समान होता है। जिस मनुष्य में बुद्धि और आचार दोनों की चमक होती है, वह सोने के गोले के समान होता है। जिस मनुष्य में बुद्धि, आचार और पराक्रम तीनों होते हैं वह रत्न के गोले के समान होता है। जिस मनुष्य में बुद्धि, आचार, पराक्रम और सहानुभूति चारों होते हैं, वह वज्ररत्न के गोले के समान होता है।
१२१ (सू० ५४८)
असिपत्र की धार तेज होती है। वह छेद्य वस्तु को तुरंत छेद डालता है। जो पुरुष स्नेह-पाश को तुरंत छेद डालता है, उसकी तुलना असिपत्र से की गई है। जैसे धन्य ने अपनी पत्नी के एक वचन से प्रेरित हो तुरंत स्नेह-बंध छेद डाला।
१. स्थानांगतात्त, पत्र २५६ । २. देखें स्थानांग, १०१५
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स्थान ४:टि०१२२-१२४ करपत्र (करौत) छेद्य वस्तु को कालक्षेप (गमनागमन) से छिन्न करता है। जो पुरुष भावना के अभ्यास से स्नेहपाश को छिन्न करता है, उसकी तुलना करपत्र से की गई है । जैसे-शालिभद्र ने क्रमशः स्नेहबंध को छिन्न किया था।'
क्षुरपत्र (उस्तरा) बालों को काट सकता है। इसी प्रकार जो पुरुष स्नेहबंध का थोड़ा छेद कर सकता है, वह क्षुरपत्रके समान होता है।
कदम्बचीरिका (साधारण शस्त्र या घास की तीखी नोक) में छेदक शक्ति बहुत ही अल्प होती है। इसी प्रकार जो पुरुष स्नेहबंध के छेद का मनोरथ मात्र करता है, वह कदम्बचीरिका के समान होता है।
१२२ (सू० ५५१)
वृत्तिकार ने बताया है कि समुद्गपक्षी और विततपक्षी-ये दोनों भरतक्षेत्र में नहीं होते, किन्तु सुदूरवती द्वीपसमुद्रों में होते हैं।
१२३ (सू० ५५३)
कुछ पक्षी धृष्ट या अज्ञ होने के कारण नीड से उतर सकते हैं, किंतु शिशु होने के कारण परिव्रजन नहीं कर सकतेइधर उधर घूम नहीं सकते।
कुछ पक्षी पुष्ट होने के कारण परिव्रजन कर सकते हैं, पर भीरु होने के कारण नीड से उतर नहीं सकते। कुछ पक्षी अभय होने के कारण नीड से उतर सकते हैं और पुष्ट होने के कारण परिव्रजन भी कर सकते हैं। कुछ पक्षी अति शिशु होने के कारण न नीड से उतर सकते हैं और न परिव्रजन ही कर सकते हैं।
कुछ भिक्ष भोजन आदि के अर्थी होने के कारण भिक्षाचर्या के लिए जाते हैं, पर ग्लान, आलसी या लज्जाल होने के कारण परिव्रजन नहीं कर सकते---घूम नहीं सकते।
कुछ भिक्षु भिक्षा के लिए परिव्रजन कर सकते हैं, पर सूत्र और अर्थ के अध्ययन में आसक्त होने के कारण भिक्ष के लिए जा नहीं सकते।
१२४ (सू० ५५६)
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त बुध शब्द के दो अर्थ किए जा सकते हैंविवेकवान् और आचारवान् । कुछ पुरुष विवेक से भी बुध होते हैं और आचार से भी बुध होते हैं । कुछ पुरुष विवेक से बुध होते हैं, किन्तु आचार से बुध नहीं होते हैं। कुछ पुरुष विवेक से अबुध होते हैं, किन्तु आचार से बुध होते हैं। कुछ पुरुष विवेक से भी अबुध होते हैं और आचार से भी अबुध होते हैं। वृत्तिकार ने 'आचारवान् पंडित होता है' इसके समर्थन में एक श्लोक उद्धृत किया है.---
पठकः पाठकश्चैव, ये चान्ये तत्त्वचिन्तकाः ।
सर्वे व्यसनिनो राजन् ! यः क्रियावान् स पण्डितः ।। पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले और तत्त्व का चिन्तन करने वाले सब व्यसनी हैं। सही अर्थ में पंडित वही है जो आचारवान् है।
१. देखें- स्थानांग, १०।१५। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६ । ३, स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६ : समुद्गवत् पक्षी येषां ते समुद्गक
पक्षिणः, समासान्त इन्, ते च बहिर्दीपसमुद्रेष, एवं वितत
पक्षिणोऽपोति । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६ । ५. स्थानांगवृत्ति, पत्न २६० ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० १२५-१३२
१२५ (सू० ५५८)
प्रथम भंग के लिए वृत्तिकार ने जिनकल्पिक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जिनकल्पी मुनि आत्मानुकंपी होते हैं। वे अपनी ही सधना में रत रहते हैं, दूसरों के हित का चिन्तन नहीं करते।
दूसरे भंग के लिए वृत्तिकार ने तीर्थकर का उदाहरण प्रस्तुत किया है। तीर्थकर परानुकंपी होते हैं। वे कृतकार्य होने के कारण पर-हित की साधना में ही रत रहते हैं।
तीसरे भंग के लिए वृत्तिकार ने स्थविरकल्पिक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। वे उभयानुकंपी होते हैं। वे अपनी और दूसरों दोनों की हित-चिन्ता करते हैं।
चतुर्थ भंग के लिए वृत्तिकार ने कालशौकारिक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। वह अत्यन्त क्रूर था। उसे न अपने हित की चिन्ता थी और न दसरों के हित की।
इसकी अन्य नयों से भी व्याख्या की जा सकती है, जैसे ---
स्वार्थ साधक, परार्थ के लिए समर्पित, स्वार्थ और परार्थ की संतुलित साधना करने वाला, आलसी या अकर्मण्यइन्हें क्रमश: चारों भंगों के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
१२६-१३० (सू० ५६६-५७०)
देखें-उत्तरज्झयणाणि ३६।२५६ का टिप्पण। आसुर आदि अपध्वंस गीता की आसुरी संपदा से तुलनीय है
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च, क्रोध: पारुष्यमेव च। अज्ञानं चाभिजातस्य, पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥' काममाश्रित्य दुष्पूर, दम्भमानमदान्विताः । मोहाद्गृहीत्वाऽसद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ चिन्तामपरिमेयां च, प्रलयान्तामुपाश्रिताः । कामोपभोगपरमा, एतावदिति निश्चिताः ॥' आशापाशशतैर्बद्धाः, कामक्रोधपरायणाः । ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥
१३१ संज्ञाएं (सू० ५७८)
देखें-१०।१०५ का टिप्पण।
१३२ (सू० ५६७) :
प्रस्तुत सूत्र में उपसर्गचतुष्टय का प्रतिपादन किया गया है। उपसर्ग का अर्थ बाधा या कष्ट है। कर्ता के भेद से यह चार प्रकार का होता है
१. दिव्यउपसर्ग, २. मानुषउपसर्ग, ३. तिर्यग्योनिजउपसर्ग, ४. आत्मसंचेतनीय उपसर्ग।
१. श्रीमद्भगवद्गीता, १६।४ । २. वही, १६।१०।
३. वही, १६।११। ४. वही, १६।१२।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० १३३
मूलाचार में आत्मसंचेतनीय के स्थान पर चेतनिक का उल्लेख मिलता है।' इस उपसर्गचतुष्टय के सांख्य-सम्मत दुःखत्रय से तुलना की जा सकती है। सांख्यदर्शन के अनुसार दुःख तीन प्रकार का होता है
१. आध्यात्मिक, २. आधिभौतिक, ३. आधिदैविक ।
इनमें से आध्यात्मिक दुःख शारीर ( शरीर में जात ) और मानस ( मन में जात) भेद से दो प्रकार का है। वात (वायु), पित्त और कफ की विषमता से उत्पन्न दुःख को शारीर तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या, विषाद से उत्पन्न एवं अभीष्ट विषय की अप्राप्ति से उत्पन्न दुःख को मानस कहते हैं।
ये सभी दुःख आभ्यन्तर उपायों (शरीरान्तर्गत पदार्थ) से उत्पन्न होने के कारण 'आध्यात्मिक' कहलाते हैं ।
बाह्य (शरीरादिबहिर्भूत) उपायों से साध्य दुःख दो प्रकार का होता है—
१. आधिभौतिक, २. आधिदैविक ।
उनमें से मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप ( सर्पादि विसर्पणशील) तथा स्थावर ( स्थितिशील वृक्षादि) से उत्पन्न होने वाला दु:ख आधिभौतिक है और यक्ष, राक्षस, विनायक (विघ्नकारी देवजातिविशेष ) ग्रह आदि के आवेश ( कुप्रभाव ) से होने वाला दुःख आधिदैविक कहलाता है।
दिव्यउपसर्ग - आधिदैविक
मानुष और तिर्यग्योनिज - आधिभौतिक आत्मसंचेतनीय - आध्यात्मिक
१३३ (सू० ६०२ ) :
जिस व्यक्ति के मन में आसक्ति अल्प होती है, उसके जो पुण्यकर्म का बंध होता है, वह उसे अशुभ के चक्र में फंसाने वाला नहीं होता, उसमें मूढता उत्पन्न करने वाला नहीं होता। इस प्रसंग में भरत चक्रवर्ती का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।
जिस व्यक्ति के मन में आसक्ति प्रबल होती हैं, उसके जो पुण्यकर्म का बंध होता है, वह उसे अशुभ की ओर ले जाने वाला, उसमें मूढता उत्पन्न करने वाला होता है। इस प्रसंग में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। इसी प्रसंग को लक्ष्य में रखकर योगीन्दु ने लिखा था
पुणेण होइ विवो, विहवेण मओ मएण मइमोहो । मइमोहेण य पावं, ता पुष्णं अम्ह मा होउ ।।
पुण्य से वैभव होता है, वैभव से मद, मद से मतिमोह, मतिमोह से पाप पाप मुझे इष्ट नहीं है, इसलिए पुण्य भी मुझे इष्ट नहीं है।
शुभकर्म तीव्र मोह से अर्जित नहीं होते, वे शुभ कर्म के निमित्त बन जाते हैं। इस प्रसंग में उदाहरण के लिए व्यक्ति प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जो दुःख से संतप्त होकर शुभ की ओर प्रवृत्त होते हैं। इसी आशय को लक्ष्य कर कपिल मुनि ने गाया था' -
अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराएं।
कि नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ॥
अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं। इसी भावना के आधार पर ईश्वरकृष्ण ने लिखा था *--
१. मूलाचार, ७३५८ :
उवसग्गा, देव भाणुस तिरिक्ख चेदणिया । २. सांख्यकारिका, तत्त्वकौमुदी, पृष्ठ ३-४ :
३. उत्तराध्ययन, ८१
४. सांख्यकारिका, श्लोक १ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० १३४
दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ।
दष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात् ॥ आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक रूप विविध दुःख के अभिघात से उसको विनष्ट करने वाले हेतु (उपाय) के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। यदि यह कहा जाए कि दु:ख विनाशकारी दष्ट (लौकिक) उपाय के विद्यमान होने के कारण यह (शास्त्रीय उपाय सम्बन्धी जिज्ञासा) व्यर्थ है, तो उत्तर यह है कि ऐसी बात नहीं है, क्योंकि लौकिक उपाय से दुःखत्रय का एकांत (अवश्यंभावी) और अत्यन्त (पुनः उत्पत्तिहीन) अभाव नहीं होता।
जिस व्यक्ति के तीन आसक्तिपूर्वक अशुभकर्म का बंध होता है, वह उसमें मूढता उत्पन्न करता रहता है।
१३४ (सू० ६०३) :
कर्मवाद का सामान्य नियम है—सूचीर्ण कर्म का शुभ फल होता है और दृश्चीर्ण कर्म का अशुभ फल होता है।
इस सिद्धान्त के आधार पर प्रथम और चतुर्थ भंग की संरचना हई है। द्वितीय और तृतीय भंग इस सामान्य नियम के अपवाद हैं। इन भंगों के द्वारा कर्म के संक्रमण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। यहां जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फल भुगतना पड़ता है ---इस सिद्धांत का संक्रमण-सिद्धान्त में अतिक्रमण होता है।
संक्रमण का अर्थ है एक कर्म-प्रकृति का दूसरे कर्म में परिवर्तन। यह मूल प्रकृतियों में नहीं होता, केवल कर्म की उत्तर प्रकृतियों में होता है । वेदनीय कर्म की दो उत्तर प्रकृतियां हैं—सात (शुभ) वेदनीय और असात (अशुभ) वेदनीय । किसी व्यक्ति ने सातवेदनीय कर्म का बंध किया। वह किसी समय प्रबल अशुभ कर्म का बंध करता है तब अशुभ कर्म पुद्गलों की प्रचुरता पूर्वाजित शुभ कर्म-पुद्गलों को अशुभ के रूप में परिवर्तित कर देती है। इस व्याख्या के अनुसार दूसरा भंग घटित होता है—बंधनकाल का शुभ कर्म संक्रमण के द्वारा विपाककाल में अशुभ हो जाता है।
___ इसी प्रकार बंधनकाल का अशुभकर्म शुभकर्म पुद्गलों की प्रचुरता से संक्रान्त होकर विपाककाल में शुभ हो जाता है।
बौद्धसाहित्य में निर्ग्रन्थों के मुंह से संक्रमण-विरोधी तथा परिवर्तन-विरोधी बातें कहलाई गई हैं, जैसे
और फिर भिक्षुओ ! मैं उन निगंठों को ऐसा कहता हूं तो क्या मानते हो आवुसो निगंठो ! जो यह इसी जन्म में वेदनीय (भोगा जानेवाला) कर्म है, वह उपक्रम से या प्रधान से संपराय (दूसरे जन्म में) वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस!
और जो यह जन्मान्तर (संपराय) वेदनीय कर्म है, वह-उपक्रम से या प्रधान से इस जन्म में वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आकुस!
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह सुख-वेदनीय (सुख भोग करने वाला) कर्म है, क्या वह उपक्रम से =या प्रधान से दुःखवेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो! जो यह दुःख-वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से या प्रधान से सुख-वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस!
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह परिपक्व अवस्था (= बुढापा) वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम सेया प्रधान से अपरिपक्व-वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो ! जो यह अपरिपक्व (-शैशव, जवानी) वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से या प्रधान से परिपक्व-वेदनीय किया जा सकता है ?
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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : टि० १३५-१३७
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह बहु-वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से = या प्रधान से अल्प वेदनीय किया जा सकता है?
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो ! जो यह अल्प वेदनीय ( = भोगानेवाला) कर्म है, क्या वह उपक्रम से या प्रधान से बहुवेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस!
तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो! जो यह अवेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से = या प्रधान से वेदनीय किया जा सकता है?
नहीं, आवुस !
इस प्रकार आवसो! निगंठो ! जो यह वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से =या प्रधान से अवेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवस!
इस प्रकार आवसो ! निगंठो ! जो यह इसी जन्म में वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से या प्रधान से पर जन्म में वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवसो! निगंठो! जो यह पर जन्म में वेदनीय कर्म है, वह उपक्रम से = या प्रधान से इस जन्म में वेदनीय किया जा सकता है ? ऐसा होने पर आयुष्मान् निगंठों का उपक्रम निष्फल हो जाता है, प्रधान निष्फल हो जाता है।
उक्त संवाद की काल्पनिकता प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित संक्रमण से स्पष्ट हो जाती है। यहां ४।२६०-२६६ का टिप्पण द्रष्टव्य है।
१३५ (सू० ६०६) :
इसकी विस्तृत जानकारी के लिए देखें-नंदी, सुत्र ३८ ।
१३६ (सू० ६२५) :
सूत्र ६२३ में शरीर को उत्पत्ति के हेतु बतलाए गए हैं और प्रस्तुत सूत्र में उसकी निष्पत्ति (निर्वृत्ति) के हेतु निर्दिष्ट हैं। उत्पत्ति और निष्पत्ति एक ही क्रिया के दो विभाग हैं। उत्पत्ति का अर्थ है प्रारम्भ और निष्पत्ति का अर्थ है प्रारब्ध की पूर्णता।
१३७ (सू० ६३१) : सरागसंयम-व्यक्ति-भेद से संयम दो प्रकार का होता है--
सरागसंयम---कषाययुक्त मुनि का संयम।
वीतरागसंयम-उपशान्त या क्षीण कषाय वाले मुनि का संयम । वीतरागसंयमी के आयुष्य का बंध नहीं होता। इसीलिए यहां सरागसंयम (सकषायचारित्र) को देवायु के बंध का कारण बतलाया गया है।
१. मज्झिमनिकाय, देवदहसुत्त, ३।१।१ ।
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ठाणं (स्थान)
५३६
स्थान ४ : टि० १३८
संयमासंयम - आंशिक रूप से व्रत स्वीकार करने वाले गृहस्थ के जीवन में संयम और असंयम दोनों होते हैं, इसलिए उसका संयम संयमासंयम कहलाता है ।
बालतपः कर्म - मिथ्यादृष्टि का तपश्चरण ।
अकामनिर्जरा --- निर्जरा की अभिलाषा के बिना कर्मनिर्जरण का हेतुभूत आचरण ।
१३८ (सू० ६३२) :
१. तत - इसका अर्थ है --तंत्रीयुक्त वाद्य ।
भरत ने ततवाद्यों में विपंची एवं चित्रा को प्रमुख तथा कच्छपी एवं घोषका को उनका अंगभूत माना है।
चित्र वीणा सात तन्त्रियों से निबद्ध होती थी और उन तन्त्रियों का वादन अंगुलियों से किया जाता था । विपंची में नौ तत्रियां होती थीं, जिनका वादन 'कोण' ( वीणावादन का दण्ड ) के द्वारा किया जाता था।
भरत ने कच्छपी तथा घोषका को स्वरूप के विषय में कुछ नहीं कहा है। संगीत रत्नाकर के अनुसार घोषका एकतन्त्री वाली वीणा है । कच्छपी सात तन्त्रियों से कम वाली वीणा होनी चाहिए।
आचारचूला तथा निशीथ में वीणा, विपंची, बद्धीसग, तुणय, पवण, तुंबवीणिया, ढंकुण और झोड़य-ये वाद्य तत के अन्तर्गत गिनाए हैं।
संगीत दामोदर में तत के २६ प्रकार गिनाए हैं— अलावणी, ब्रह्मवीणा, किन्नरी, लघुकिन्नरी, विपञ्ची, वल्लकी, ज्येष्ठा, चित्रा, घोषवली, जपा, हस्तिका, कुनजिका, कूर्मी, सारंगी, पटिवादिनी, विशवी, शतचन्द्री, नकुलोष्ठी, दसवी ऊदंबरी, पिनाकी, निःशंक, शुष्फल, गदावारणहस्त, रुद्र, स्वरमणमल, कपिलास, मधुस्यंदी और घोपा । '
२. वितत ---- चर्म से आनद्ध वाद्यों को वितत कहा जाता है। गीत और वाद्य के साथ ताल एवं लय के प्रदर्शनार्थ इन चर्मावनद्ध वाद्यों का प्रयोग किया जाता था। इनमें मृदंग, पवण (तंत्रीयुक्त अवनद्ध वाद्य), दर्दुर ( कलशाकार चर्म से मढ़ा वाद्य), मेरी, डिंडिम, मृदंग आदि मुख्य हैं। ये वाद्य कोमल भावनाओं का उद्दीपन करने के साथ-साथ वीरोचित उत्साह बढ़ाने में भी कार्यकर होते हैं। अतः इनका उपयोग धार्मिक समारम्भों तथा युद्धों में भी रहा है।
भरत के चर्मावनद्ध वाद्यों में मृदंग तथा दर्दुर प्रधान है तथा मल्लकी और पटह गौण ।
आयारचूला में मृदंग, नन्दीमृदंग और झल्लरी को तथा निशीथ' में मृदंग, नन्दी, झल्लरी, डमरूक, मड्डुय, सय, प्रदेश, गोलुकी आदि वाद्यों को इसके अन्तर्गत गिनाया है ।
मुरज, पट, ढक्का, विश्वक, दर्पवाद्य, घण, पणव, सरुहा, लाव, जाहव, तिवली, करट, कमठ, भेरी, कुडुक्का, हुडुक्का, झनसमुरली, झल्ली, ढुक्कली, दौंडी, शान, डमरू, ढमुकी, मड्डू, कुंडली, स्तुंग, दुंदुभी, अंग, मर्छल, अणीकस्थ ---- ये वाद्य भी वितत के अन्तर्गत माने जाते हैं ।"
३. धन --- कांस्य आदि धातुओं से निर्मित वाद्य घन कहलाते हैं । करताल, कांस्यवन, नयघटा, शुक्तिका, कण्ठिका, पटवाद्य, पट्टाघोष, घर्घर, झंझताल, मंजीर, कर्तरी, उष्कूक आदि इसके कई प्रकार हैं 1
१. भरतनाटय ३३।१५ :
विपंची चैत्र चित्रा च दारवीष्वंगसंज्ञिते । कच्छपीघोषकादीनि प्रत्यंगानि तथैव च ।।
२. वही, २९।११४ :
सप्ततंत्री भवेत् चित्रा विपंची नवतंत्रिका | विपंची कोणवाद्या स्याच्चिता चांगुलिवादना ॥
३. संगीतरत्नाकर, वाद्याध्याय, पृष्ठ २४८ : घोषकश्च तंत्रिका |
४. अंगसुत्ताणि, भाग १, पृष्ठ २०६, आयारचूला ११।२ । ५. निसीहज्झयणं १७/१३८ ।
६. प्राचीन भारत के वाद्ययंत्र - कल्याण (हिन्दु संस्कृति अंक ) पृष्ठ ७२१-७२२ से उद्धृत ।
७. अंगसुत्ताणि, भाग १, पृष्ठ २०६, आयारचूला ११।१। निसीहज्झयण १७ १३७ ॥
८.
१. प्राचीन भारत के वाद्ययंत्र - कल्याण ( हिन्दु संस्कृति अंक ) पृष्ठ ७२१-७२२ ।
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ठाणं (स्थान)
५४०
स्थान ४ : टि० १३६-१४०
आयारचला में ताल शब्दों के अन्तर्गत ताल, कंसताल, लत्तिय, गोहिय और किरिकिरिया को गिनाया है।
निशीथ में धन शब्द के अन्तर्गत ताल, कंसताल, लत्तिय, गोहिय, मकरिय, कच्छमी, महति, सणालिया और वालियाये वाद्य उल्लिखित हुए हैं।
४. शूषिर---फंक से बजाए जाने वाले वाद्य । भरत मुनि ने इसके अन्तर्गत वंश को अंगभूत और शंख तथा डिक्किनी आदि वाद्यों को प्रत्यंग माना है।
यह माना जाता था कि वंशवादक को गीत सम्बन्धी सभी गुणों से युक्त तथा बलसंपन्न और दृढानिल होना चाहिए।' जिसमें प्राणशक्ति की न्यूनता होती है वह शुषिर वाद्यों को बजाने में सफल नहीं हो सकता। भरत के नाट्यशास्त्र के तीसवें अध्याय में इनके वादन का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।
वंशी प्रमुख वाद्य था और वह वेणुदण्ड से बनायी जाती थी।
१३६ (सू० ६३३) :
१. अंचित-नाट्यशास्त्र में १०८ करण माने जाते हैं। करण का अर्थ है-अंग तथा प्रत्यंग की क्रियाओं को एक साथ करना। अंचित तेवीसवां करण है। इस अभिनय-भंखीया में पादों को स्वस्तिक में रखा जाता है तथा दक्षिण हस्त को कटिहस्त [नृत्तहस्त की एक मुद्रा ] में और वामहस्त को व्यावृत्त तथा परिवृत्त कर नासिका के पास अंचित करने से यह मुद्रा बनती है।
सिर पर से सम्बन्धित तेरह अभियानों में यह आठवां है। कोई चिन्तातुर मनुष्य हाथ पर ठोड़ी टिकाकर सिर को नीचा रखे, उस मुद्रा को 'अंचित' माना जाता है। राजप्रश्नीय में इसे २५वां नाट्यभेद माना है।
२. रिभित--इसके विषय में जानकारी प्राप्त नहीं है।
३. आरभट-माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध, उद्भ्रान्त आदि चेष्टाओं से युक्त तथा वध, बन्धन आदि से उद्धत नाटक को आरभटी कहा जाता था। इसके चार प्रकार हैं।
राजप्रश्नीय सूत्र में आरभट को नाट्य-भेद का अठारहवां प्रकार माना है।' ४. भसोल-राजप्रश्नीय सूत्र में भसोल' को नाट्यभेद का उनतीसवां प्रकार माना है ।' स्थानांगवृत्तिकार ने परम्परागत जानकारी के अभाव में इनका कोई विवरण नहीं दिया है।
१४० (सू० ६३४) :
भरत नाट्यशास्त्र [३११२८८-४१४ | में सप्तरूप के नाम से प्रख्यात प्राचीन गीतों का विस्तृत वर्णन है। इन गीतों के नाम ये हैं—मंद्रक, अपरान्तक, प्रकरी, ओवेणक, उल्लोप्यक, रोविन्दक और उत्तर ।
प्रस्तुत सूत्रगत चार प्रकार के गेयों में से दो का--रोविन्दक और मंद्रक-का भरत नाट्योक्त रोविन्दक और मंद्रक-से नाम साम्य है।
१. अंगसुत्ताणि, भाग १, पृष्ठ २०६, आयारचूला ११।३ । २. निसीहज्झयणं १७११३६ । ३. भरतनाटय शास्त्र ३३।१७ :
अंगलक्षणसंयुक्तो, विज्ञेयो वंश एवं हि ।
शंखस्तु डिक्किनी चैव, प्रत्यंगे परिकीर्तिते ।। ४. वही, ३३१४६४। ५. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ ४२५ । ६. आप्टे डिक्शनरी में आरभट शब्द के अन्तर्गत उद्धृत
मायेन्द्रजालसंग्रामक्रोधोद्धान्तादिचेष्टितः । संयुक्ता वधबन्धाद्यैरुद्धृतारभटी मता ॥
७. साहित्यदर्पण ४२०॥ ८. राजप्रश्नीय। ६. राजप्रश्नीय सू० १०६। १०. स्थानांगवृत्ति, पत्न २७२ :
नाट्यगेयाभिनयसूत्राणि सम्प्रदायाभावान्न विवृतानि । ११. भरतनाट्यशास्त्र ३११२८७ ।
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ठाणं (स्थान)
५४१
स्थान ४ : टि० १४१
१४१ (सू० ६४४) :
काव्य के मुख्य प्रकार दो ही होते हैं --गद्य और पद्य । गद्य-काव्य छन्द आदि के बंधन से मुक्त होता है। पद्य-काव्य छन्द से निबद्ध होता है। कथ्य और गेय-ये दोनों काव्य के स्वतन्त्र प्रकार नहीं हैं। कथ्य का समावेश गद्य में और गेय का समावेश पद्य में होता है, अतः ये वस्तुतः गद्य और पद्य के ही अवान्तर प्रकार हैं। फिर भी स्वरूप की विशिष्टता के कारण इन्हें स्वतन्त्र स्थान दिया गया है। कथ्य-काव्य कथात्मक और गेय-काव्य संगीतात्मक होता है।'
। सामति सा हा काय अवस्वः
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७४ : काव्य-प्रन्थः-गद्यम् अच्छन्दो
निबद्ध शस्त्रपरिज्ञाध्ययन वत् पद्य-छन्दोनिबद्ध विमुक्त्यध्ययनवत्, कथायां साधु कथ्यं ज्ञाताध्ययनवत्, गेयं-मान
योभ्यं, इह गद्यपद्यान्तर्भावपीतरयोः कथागानधर्मविशिष्टतया विशेषो विवक्षित इति ।
या वातावरण कायमचलिर
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पंचमं ठाणं
पंचम स्थान
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आमुख
प्रस्तुत स्थान में पांच की संख्या से संबद्ध विषय संकलित हैं। यह स्थान तीन उद्देशकों में विभक्त है। इस वर्गीकरण में तात्त्विक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, ज्योतिष, योग आदि अनेक विषय हैं। इसमें कुछ विषय ज्ञानवर्धक होने के साथ-साथ सरस, आकर्षक और व्यावहारिक भी हैं। निदर्शन के लिए कुछेक प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
मलिनता या अशुद्धि आ जाने पर वस्तु की शुद्धि की जाती है। किन्तु , सबकी शुद्धि एक ही साधन से नहीं होती। उसके भिन्न-भिन्न साधन होते हैं। पांच की संख्या के सन्दर्भ में यहां शुद्धि के पांच साधनों का उल्लेख है
मिट्टी शुद्धि का साधन है। इससे बर्तन आदि साफ किए जाते हैं। पानी शुद्धि का साधन है । इससे वस्त्र, पाव आदि अनेक वस्तुओं की सफाई की जाती है। अग्नि शुद्धि का साधन है। इससे सोना, चांदी आदि की शुद्धि की जाती है । मन्त्र भी शुद्धि का साधन है। इससे वायुमण्डल शुद्ध किया जाता है और जाति से बहिष्कृत व्यक्ति को शुद्ध कर जाति में सम्मिलित किया जाता है । ब्रह्मचर्य शुद्धि का साधन है। इसके आचरण से आत्मा की शुद्धि होती है।
___ मन की दो अवस्थाएं होती हैं- सुषुप्ति और जागृति । जो जागता है, वह पाता है और जो सोता है, वह खोता है। जागृति हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है । साधना का अर्थ ही है-निरन्तर जागरण । जब संयत साधक अपनी साधना में सुप्त होता है तो उस समय उसके शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श जागते हैं। जब ये जागृत होते हैं तब साधक साधना से दूर हो जाता है। जब संयत साधक अपनी साधना में जागृत रहता है तब शब्द, रूप, गंध और स्पर्श सुप्त रहते हैं; उस समय मन पर इनका प्रभाव नहीं रहता। वे अकिचित्कर हो जाते हैं।
असंयत मनुष्य साधक नहीं होता। वह चाहे जागृत (निद्रामुक्त) हो अथवा सुप्त हो---दोनों ही अवस्थाओं में उसके शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श जागृत रहते हैं, व्यक्ति को प्रभावित किए रहते हैं।
बहिर्मुख और अन्तर्मुख ये दो मन को अवस्थाएं हैं। जब व्यक्ति बहिर्मुख होता है तब मन को बाहर दौड़ने के लिए पांच इन्द्रियों का खुला क्षेत्र मिल जाता है। कभी वह मधुर और कटु शब्दों में रम जाता है तो कभी नाना प्रकार के रूपों व दृश्यों में मुग्ध हो जाता है। कभी मीठी सुगंध को लेने में तन्मय बन जाता है तो कभी दुर्गन्ध से दूर हटने का प्रयास करता है। कभी खट्टा, मीठा, कडुआ, कसैला और तिक्त रसों में आसक्त होता है तो कभी मृदु और कठोर स्पर्श में अपने को खो देता है। इन पांच इन्द्रियों के विषयों में मन घूमता रहता है। यह मन की चंचल अवस्था है। जब मन अन्तर्मुखी बनना चाहता है तो उसे बाह्य भटकन को छोड़कर भीतर आना होता है अपने भीतर झांकना होता है। भीतरी जगत् बाह्य दुनियां से अधिक विचित्र और रहस्यमय है ।
प्रतिमा साधना को पद्धति है। इसमें तपस्या भी की जाती है और कायोत्सर्ग भी किया जाता है। पांचवां स्थानक होने के कारण यहां संख्या की दृष्टि से पांच प्रतिमाओं का उल्लेख है-भद्रा, सुभदा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा और भद्रोत्तरा। दूसरे स्थान में प्रतिमाओं के आलापक में भद्रोत्तरा को छोड़ शेष चार प्रतिमाओं का नामोल्लेख हुआ है।
___ मन की दो अवस्थाएं होती हैं-स्थिर और चंचल। पानी स्थिर और शान्त रहता है तभी उसमें वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिम्ब हो सकता है। वात, पित और कफ के सम (शान्त) रहने से शरीर स्वस्थ रहता है। मन की स्थिरता से ही कुछ
१५२१६४। २०१२५-१२७ ।
३.५।१३५ । ४. ५।१८।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ५: आमुख
उपलब्ध होता है। चंचलता उपलब्धि में वाधक होती है। अवधिज्ञान मन की शांतता से उपलब्ध होता है । अभूतपूर्व दृश्यों के देखने से यदि मन क्षब्ध या कुतुहल से भर जाता है तो वह उपलब्ध हुआ अवधिज्ञान भी वापस चला जाता है। यदि मन क्षुब्ध नहीं होता है तो अवधि ज्ञान टिका रहता है।
साधना व्यक्तिगत होती है। जब उसे सामूहिकता का रूप दिया जाता है, तब कई अपेक्षाएं और जुड़ जाती हैं। सामूहिकता में व्यवस्था होती है और नियम होते हैं। जहां नियम होते हैं वहां उनके भंग का भी प्रसंग बनता है। उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त भी आवश्यक होता है। प्रायश्चित्त देने का अधिकारी कौन हो, किसकी बात को प्रामाणिक माना जाए—यह प्रश्न संघबद्धता में सहज ही उठता है। प्रस्तुत स्थान में इस विषय की परम्परा भी संकलित है। यह विषय मुख्यतः प्रायश्चित्त सूत्रों से संबद्ध है। व्यवहार सूत्र में यह चर्चित भी है। किन्तु, प्रस्तुत सूत्र में संख्या का संकलन है, इसलिए इसमें विषयों की विविधता होना स्वाभाविक है। इसीलिए इसमें आचार, दर्शन, गणित, इतिहास और परम्परा--इन सभी विषयों का संग्रह किया गया है।
१.शा
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पंचमं ठाणं : पढमो उद्देसो
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
महन्वय-अणुव्वय-पदं महावत-अणुव्रत-पदम् १. पंच महन्वया पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च महाव्रतानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- सव्वाओ पाणातिवायाओ वेरमणं, सर्वस्माद् प्राणातिपाताद् विरमणं, सब्वाओ मसावायाओ बेरमणं, सर्वस्माद मघावादाद विरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओवेरमणं, सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमणं, सव्वाओ मेहणाओ वेरमणं, सर्वस्माद् मैथुनाद् विरमणं,
सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं। सर्वस्माद् परिग्रहाद् विरमणम् । २. पंचाणुव्वया पण्णता, तं जहा- पञ्चाणुव्रतानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, स्थूलाद् प्राणातिपाताद् विरभणं, थलाओ भुसावयाओ वेरमणं, स्थूलाद् मृपावादाद् विरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, स्थूलाद् अदत्तादानाद् विरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे। स्वदारसंतोषः, इच्छापरिमाणम् ।
महात्रत-अणुवत-पद १. महावत' पांच हैं--
१. सर्व प्राणातिपात से विरमण२.कर्व मृपावाद से विरमण, ३. मर्द अदत्तादान से विरमण, ४. सर्व मैथन से विरमण, ५. सर्व परिग्रह से विरमण। २. अणुव्रत पांच हैं१. स्थूल प्राणातिपात से विरमण, २. ग्धूल मृषावाद से विरमण, ३. स्थूल अदत्तादान से विरमण, ४. स्वदारसन्तोष, ५. इञ्छापरिमाण ।
इंदिय-विसय-पदं
इन्द्रिय-विषय-पदम् ३. पंच वण्णा पण्णता, तं जहा- पञ्च वर्णा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- किण्हा, णीला, लोहिता, हालिद्दा, कृष्णाः, नीलाः, लोहिताः, हारिद्राः, सुक्किल्ला।
शुक्लाः । ४. पंच रसा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च रसा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथातित्ता, कडुया, कसाया, अंबिला तिक्ताः, कटुकाः, कषायाः, अम्लाः, मधुरा।
मधुराः । ५. पंच कामगुणा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च कामगुणाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-
सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा। शब्दाः, रूपाणि, गन्धाः, रसाः, स्पाः ।।
इन्द्रिय-विषय-पद ३. वर्ण पांच हैं
१. कृष्ण, २. नील, ३. रक्त, ४. पीत,
५. शुक्ल। ४. रस पांच हैं
१. तीता, २. कडुआ, ३. कपैला,
४. खट्टा, ५. मीठा। ५. कामगुण' पांच हैं--
१. शब्द, २. रूप, ३. गंध, ४. रस,
५. स्पर्श। ६. जीव पांच स्थानों से लिप्त होते हैं...
१. शब्द से, २. रूप से, ३. गंध से, ४. रस से, ५. स्पर्श से।
६. पंचहि ठाणेहि जीवा सज्जंति, तं पञ्चसु स्थानेषु जीवाः सज्यन्ते, जहा
तद्यथासद्देहि, 'रूवेहि, गंह, रसेहि, शब्देषु, रूपेषु, गन्धेषु, रसेषु, स्पर्शेषु। फासेहि।
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ठाणं (स्थान)
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तं जहा -
७. हि ठाणेह जीवा रज्जति पञ्चसु स्थानेषु जीवाः रज्यन्ते, तद्यथा-सहि, रूहि, गंधेहि, रसेहि, शब्देषु रूपेषु, गन्धेषु रसेषु, स्पर्शेषु । फाह ।
८. पंचह ठाणेहिं जीवा मुच्छति, तं पञ्चसु स्थानेषु जीवा : मूर्च्छन्ति,
तद्यथा—
जहा -
सहि, रूहि, गंधेहि, रसेहि, शब्देषु, रूपेसु, गन्धेषु रसेषु, स्पर्शेषु । फासहि ।
६. पंचहि ठाणेह जीवा गिज्भंति, तं पञ्चसु स्थानेषु जीवाः गृध्यन्ति,
जहा -
तद्यथा—
सहि, रूवेहि, गंधेहि, रसेहि, शब्देषु रूपेषु, गन्धेषु रसेषु, स्पशेंषु । फासेहिं ।
मावज्जति तं जहा
तद्यथा-
सहि, रूहि, गंधेहि, रसेहि, शब्देषु रूपेषु, गन्धेषु रसेषु, स्पर्शेषु । फासेहि
१२. पंच ठाणा अपरिण्णाता जीवाणं पञ्च स्थानानि अपरिज्ञातानि जीवानां अहिताए असुभाए अखमाए अहिताय अशुभाय अक्षमाय अनिःश्रेयअणिस्सेस्साए (अणानुगामियत्ताए साय अनानुगामिकत्वाय भवन्ति,
भवति, तं जहा
तद्यथा....
सद्दा, ख्वा, गंधा, रसा, फासा ।
शब्दाः, रूपाणि गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः ।
१०. पंचहि ठाणेह जीवा अज्कोव - पञ्चसु स्थानेषु जीवाः अध्युपपद्यन्ते, १०. जीव पांच स्थानों से अध्युपपन्न-आसक्त वज्जति, तं जहा
तद्यथा
होते हैं-
सहि, रूवेहि, गंधेहि, रसेहिं शब्देषु रूपेषु, गन्धेषु रसेषु, स्पर्शेषु । फासेहि।
१३. पंच ठाणा सुपरिण्णाता जीवाणं हिताए सुभाए 'खमाए पिल्से - आणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा -
सद्दा, रुवा, गंधा, रसा, फासा । १४. पंच ठाणा अपरिण्णाता जीवाणं दुग्गतिगमणाए भवंति तं जहासद्दा, "रूवा, गंधा, रसा, फासा ।
१. शब्द से, २. रूप से, ३. गंध से, ४. रस से, ५. स्पर्श से ।
११. पंचहि ठाणेहि जीवा विणिधाय पञ्चसु स्थानेषु जीवाः विनिघातमापद्यन्ते, ११. जीव पांच स्थानों से विनिघात-मरण
या विनाश को प्राप्त होते हैं----
१. शब्द से, २. रूप से, ३. गंध से, ४. रस से, ५. स्पर्श से ।
पञ्च स्थानानि सुपरिज्ञातानि जीवानां हिताय शुभाय क्षमाय निःश्रेयसाय आनुगामिकत्वाय भवन्ति तद्यथा
स्थान ५ : सूत्र ७-१४
७. जीब पांच स्थानों से अनुरक्त होते हैं१. शब्द से, २. रूप से, ३. गंध से, ४. रस से, ५. स्पर्श से ।
शब्दाः, रूपाणि गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः । पञ्च स्थानानि अपरिज्ञातानि जीवानां दुर्गतिगमनाय भवन्ति, तद्यथाशब्दा:, रूपाणि गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः ।
८. जीव पांच स्थानों से मूच्छित होते हैं१. शब्द से, २. रूप से, ३. गंध से, ४. रस से, ५. स्पर्श से ।
६. जीव पांच स्थानों से गृद्ध होते हैं१. शब्द से, २. रूप से, ३. गंध से,
४. रस से, ५. स्पर्श से ।
१२. ये पांच स्थान, जब परिज्ञात नहीं होते तब वे जीवों के अहित, अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस तथा अननुगामिकता के हेतु होते हैं -
१. शब्द, २. रूप, ३. गंध, ४. रस, ५. स्पर्श ।
१३. ये पांच स्थान जब सुपरिज्ञात होते हैं तब वे जीवों के हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस तथा अनुगामिकता के हेतु होते हैं-१. शब्द, २. रूप, ३. गंध, ४. रस, ५. स्पर्श ।
१४. ये पांच स्थान जब परिज्ञात नहीं होते तब वे जीवों के दुर्गति-गमन के हेतु होते हैं१. शब्द, २. रूप, ३. गंध, ४. रस, ५. स्पर्श ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ५:सूत्र १५-२० १५. पंच ठाणा सुपरिण्णाता जीवाणं पञ्च स्थानानि सुपरिज्ञातानि जीवानां १५. ये पाँच स्थान जब सुपरिज्ञात होते हैं तब सुरगतिगमणाए भवंति, तं जहा- सुगतिगमनाय भवन्ति, तद्यथा
वे जीवों के सुगतिगमन के हेतु होते हैं
१. शब्द, २. रूप, ३. गंध, ४. रस, सद्दा, 'रूवा, गंधा, रसा, फासा। शब्दाः, रूपाणि, गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः । ५. स्पर्श । आसव-संवर-पदं आश्रव-संवर-पदम
आश्रव-संवर-पद १६. पंचहि ठा!ह जीवा दोगति पञ्चभिःस्थानः जीवाः दुर्गतिं गच्छन्ति, १६. पांच स्थानों से जीव दुर्गति को प्राप्त गच्छंति, तं जहा.. तद्यथा
होते हैं -- पाणातिवातेणं, 'मुसाबाएणं, प्राणातिपातेन, मृपावादेन, अदत्तादानेन, ।
१. प्राणातिपात से, २. मृषावाद से,
३. अदत्तादान से, ४. मैथुन से, अदिण्णादाणेण,मेहुणेणं, परिगहेणं मैथनेन, परिग्रहेण ।
५. परिग्रह से १७. पंचहि ठाणेहि जीवा सोगति पञ्चभिः स्थानः जीवाः सुगति गच्छन्ति, १७. पांच स्थानों से जीव सुगति को प्राप्त गच्छंति, तं जहातद्यथा
होते हैंपागातिवातवेरमणेणं, 'मुसावाय- प्राणातिपातविरमणेन,
१. प्राणातिपात के विरमण से, वेरमणेणं, अदिण्णादाणवेरभणेणं, मृपावादविरमणेन,
२. मृषावाद के विरमण से, मेहुणवेरमणेणं, परिग्गह- अदत्तादानविरमणेन,
३. अदत्तादान के विरमण से,
४. मैथुन के विरमण से, वेरमणेणं । मैथुनविरमणेन, परिग्रहविरमणेन ।
५. परिग्रहण के विरमण से। पडिमा-पदं प्रतिमा-पदम्
प्रतिमा-पद १८. पंच पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं पञ्च प्रतिमाः प्रज्ञप्ता:, तदयथा- १८. प्रतिमाएँ पांच हैं
जहा-भद्दा, सुभद्दा, महाभद्दा, भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा, १. भद्रा, २. सुभद्रा, ३. महाभद्रा, सव्वतोभद्दा, भदुत्तरपडिमा। भद्रोत्तरप्रतिमा।
४. सर्वतोभद्रा, ५. भद्रोत्तरप्रतिमा।
थावरकाय-पदं स्थावरकाय-पदम
स्थावरकाय-पद १६. पंच थावरकाया पण्णत्ता, तं पञ्च स्थावरकाया: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १६. स्थावरकाय पांच हैं--- जहा
१. इन्द्रस्थावरकाय ---पृथ्वीकाय, इंदे थावरकाए, बंभे थावरकाए, इन्द्रः स्थावरकायः, ब्रह्मा स्थावरकायः, २. ब्रह्मस्थावरकाय—अप्काय, सिप्पे थावरकाए,
शिल्प: स्थावरकायः, सम्मतिः स्थावर- ३. शिल्पस्थावरकाय--तेजस्काय, सम्मती थावरकाए, काय:, प्राजापत्यः स्थावरकायः ।
४. सम्मतिस्थावरकाय-वायुकाय, पायावच्चे थावरकाए।
५. प्राजापत्यस्थावरकाय -वनस्पतिकाय २०. पंच थावरकायाधिपती पण्णता, पञ्च स्थावरकायाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, २०. पांच स्थावरकाय के अधिपति पांच हैंतं जहातदयथा
१. इन्द्रस्थावरकायाधिपति, इंदे थावरकायाधिपती, इन्द्रः स्थावरकायाधिपतिः,
२. ब्रह्मस्थावरकायाधिपति, 'बभे थावरकायाधिपती, ब्रह्मा स्थावरकायाधिपतिः,
३. शिल्पस्थावरकायाधिपति, सिप्पे थावरकायाधिपती, शिल्प: स्थावरकायाधिपतिः,
४. सम्मतिस्थावरकायाधिपति, सम्मती थावरकायाधिपती, सम्मतिः स्थावरकायधिपतिः,
५. प्राजापत्यस्थाबरकायाधिपति । पायावच्चे थावरकायाधिपती। प्राजापत्यः स्थावरकायाधिपतिः ।
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ठाणं (स्थान)
५५०
स्थान ५: सूत्र २१
अइसेस-णाण-दसण-पदं अतिशेष-ज्ञान-दर्शन-पदम् अतिशेष-ज्ञान-दर्शन-पद २१. पंचाह ठाोह ओहिदसणे समुप्प- पञ्चभिः स्थानः अवधिदर्शनं समुत्पत्तु- २१. पांच स्थानों से तत्काल उत्पन्न होता होता
ज्जिउकामेवि तप्पढमयाए खंभा- काममपि तत्प्रथमतायां एकभनीयात्, । अवधि-दर्शन अपने प्रारम्भिक क्षणों में ही एज्जा, तं जहा.- तद्यथा
विचलित हो जाता है१. अप्पभूतं वा पुढवि पासित्ता १. अल्पभूतां वा पृथ्वीं दृष्ट्वा तत्
१. पृथ्वी को छोटा-सा देखकर वह अपने तप्पढमयाए खंभाएज्जा। प्रथमतायां स्कभनीयात् ।
प्रारम्भिक क्षणों में हो विचलित हो जाता
प्रथा
२. कुंथुरासिभूतं वा पुढवि पासित्ता २. कुन्थुराशिभूतां वा पृथ्वीं दृष्ट्वा तप्पढमथाए खंनाएज्जा। तत्प्रथमतायां स्कमनीयात् । ३. महतिमहालयं वा महोरग- ३. महातिमहत् वा महोरगशरीरं दृष्ट्वा सरीरं पासित्ता तप्पढमयाए खंभा- ततप्रथमतायां स्कभनीयात् । एज्जा । ४. देवं वा महिड्डियं 'महज्जुइयं ४. देवं वा महद्धिकं महाद्युतिकं महानुभागं महाणभाग महायसं महाबलं महायशसं महाबलं महासौख्यं दष्टवा महासोक्खं पासित्ता तप्पढमयाए तत्प्रथमतायां स्कमनीयात् । खंभाएज्जा। ५. पुरेसु वा पोराणाई उरालाई ५. पुरेषु वा पुराणानि उदाराणि महतिमहालयाई महाणिहाणाई महातिमहान्ति महानिधानानि प्रहीणपहीणसामियाइं पहीणसेउयाइं स्वामिकानि प्रहीणसेतुकानि प्रहीणपहीणगुत्तागाराइं उच्छिण्णसामि- गोत्रागाराणि उच्छिन्नस्वामिकानि याइं उच्छिण्णसेउयाइं उच्छिण्ण- उच्छिन्नसेतुकानि उच्छिन्नगोत्रागाराणि गुत्तगाराइं जाइं इमाइं गामागर- यानि इमानि ग्रामाकर-नगरखेट-कर्बटणगरखेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह- मडम्ब-द्रोणमुख-पत्तनाऽश्रम-संवाधपट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु सिंघा- सन्निवेशेषु गृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्कडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- चत्वर-चतुर्मुख-महापथपथेषु नगरमहापहपहेसु णगर-णिद्धमणेसु क्षालेषु श्मशान-शून्यागार-गिरिकन्दरासुसाण-सुण्णागार-गिरिकंदर-संति- शान्ति-शैलोपस्थापन-भवनगृहेषु सन्निसेलोवट्ठावण-भवणगिहेसु संणिक्खि- क्षिप्तानि तिष्ठन्ति, तानि वा दृष्ट्वा ताई चिट्ठति, ताई वा पासित्ता तत्प्रथमतायां स्कभनीयात्... तप्पडमताए खंभाएज्जा। इच्छेतेहि पंचहि ठाहिं ओहि- इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः अवधिदर्शनं दंसणे समुपज्जिउकामे तप्पढ- समुत्पत्तुकाम तत्प्रथमतायां मयाए खंभाएज्जा।
स्कभ्नीयात् ।
२. कुंथु जैसे छोटे-छोटे जीवों से पृथ्वी को आकीर्ण देखकर वह अपने प्रारम्भिक क्षणों में ही विचलित हो जाता है। ३. बहुत बड़े महोरगों-सर्पो को देखकर वह अपने प्रारम्भिक क्षणों में ही विचलित हो जाता है। ४. महद्धिक, महाद्युतिक, महानुभाग, महान् यशस्वी, महाबल तथा महासौख्यवाले देवों को देखकर वह अपने प्रारम्भिक क्षणों में ही विचलित हो जाता है। ५. नगरों में बड़े-बड़े खजानों को देख कर, जिनके स्वामी मर चुके हैं, जिनके मार्ग प्रायः नष्ट हो चुके हैं, जिनके नाम और संकेत विस्मृतप्राय हो चुके हैं, जिनके स्वामी उच्छिन्न हो चुके हैं, जिनके मार्ग उच्छिन्न हो चुके हैं, जिनके नाम और संकेत उच्छिन्न हो चुके हैं, जो ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब. दोशमुख, पत्तन, आश्रम, संबाह, सन्निवेश आदि में तथा शृङ्गाटकों, तिराहों', चौकों'', चौराहों", देवकूलों, राजमार्गों, गलियों", नालियों५, श्मशानों, शून्यगृहों, गिरिकन्दराओं, शान्तिगृहों, शैलगृहों, उपस्थानगृहों और भवन-गृहों में दबे हुए हैं, उन्हें देखकर वह अपने प्रारम्भिक क्षणों में ही विचलित हो जाता है। इन पांच स्थानों से तत्काल उत्पन्न होताहोता अवधि-दर्शन अपने प्रारम्भिक क्षणों में ही विचलित हो जाता है।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : सूत्र २२ २२. पंर्चाह ठा!ह केवलवरणाणदंसणे पञ्चभिः स्थानः केवलवरज्ञानदर्शनं २२. पांच स्थानों से तत्काल उत्पन्न होता
समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए णो समुत्पत्तुकामं तत्प्रथमतायां नो स्कभ- होता केबलवरज्ञानदर्शन अपने प्रारम्भिक खंभाएज्जा, तं जहा- नीयात्, तद्यथा
क्षणों में विचलित नहीं होता -- १. अप्पभूतं दा पुढवि पासित्ता १. अल्पभूतां वा पृथ्वीं दृष्ट्वा
१. पृथ्वी को छोटा-सा देखकर वह अपने तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। तत्प्रथमतायां नो स्कभनीयात् । प्रारम्भिक क्षणों में विचलित नहीं होता। २. कुंथुरासिभूतं वा पुढवि २. कुन्थुराशिभूतां वा पृथ्वी दृष्ट्वा । २. कुथु जैसे छोटे-छोटे जीवों से पृथ्वी पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभ- तत्प्रथमतायां नो स्कभ्नीयात् । को आकीर्ण देखकर वह अपने प्रारम्भिक एज्जा ।
क्षणों में विचलित नहीं होता। ३. मह तिमहालयं वा महोरगसरीरं ३. महातिमहत् वा महोरगशरीरं । ३. बहुत बड़े-बड़े महोरगों को देखकर वह पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभा- दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां नो स्कभनीयात् ।। अपने प्रारम्भिक क्षणों में विचलित नहीं एज्जा ।
होता। ४. देवं वा महिड्डियं महज्जुइयं ४. देवं वा महद्धिकं महाद्युतिकं महानु- ४. महद्धिक, महाद्युतिक, महानुभाग, महाणुभागं महायसं महाबलं भागं महायशसं महाबलं महासौख्यं । महान यशस्वी, महाबल तथा महासौख्पमहासोक्खं पासित्ता तप्पडमयाए दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां नो स्कभनीयात् । वाले देवों को देखकर वह अपने प्रारम्भिक णो खंभाएज्जा।
क्षणों में विचलित नहीं होता। ५. पुरेसु वा पोराणाई उरालाई ५. पुरेषु वा पुराणानि उदाराणि महाति- ५. नगरों में बड़े-बड़े खजानों को देख कर, महतिमहालयाई महाणिहाणाई महान्ति महानिधानानि प्रहीणस्वामि- जिनके स्वामी मर चुके हैं, जिनके मार्ग पहीणसामियाइं यहीणसेउवाई कानि प्रहीणसेतुकानि प्रहीणगोत्रागा- प्राय: नष्ट हो चुके हैं, जिनके नाम और पहीणगत्तागाराई उच्छिण्णसा- राणि उच्छिन्नस्वामिकानि उच्छिन्नसेतु- संकेत विस्मृतप्राय हो चुके हैं, जिनके मियाई उच्छिण्णसेउयाई उच्छिण्ण- कानि उच्छिन्नगोत्रागाराणि यानि इमानि स्वामी उच्छिन्न हो चके हैं, जिनके मार्ग गुत्तागाराई जाई इमाइं गामागर- ग्रामागर-नगर-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोण- उच्छिन्न हो चुके हैं, जिनके नाम और
गरखेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह- मुख-पत्तनाश्रम-संबाध-सन्निवेषेषु- संकेत उच्छिन्न हो चुके हैं, जो ग्राम आकर, पट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख- नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- महापथ-पथेसु नगर-क्षालेषु श्मशान- आश्रम, संबाह, सन्निवेश आदि में तथा चउम्मह-महापहपहेसु नगर- शून्यागार-गिरिकन्दरा-शान्ति
शृङ्गाटकों, तिराहों, चौकों, चौराहों देवणिद्धमणेसु सुसाण-सुग्णागार- शैलोपस्थापन भवनगृहेषु सन्निक्षिप्तानि कुलों, राजमार्गों, गलियों, नालियों, इमगिरिकंदर-संति-सेलोवट्ठावण' तिष्ठन्ति, तानि वा दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां शानों, शून्यगृहों, गिरिकन्दराओं, शान्तिभवणगिहेसु सण्णिक्खित्ताई चिटुंति, नो स्कमनीयात् ।
गृहों, शैलगृहों, उपस्थानगृहों और भवनताई वा पासित्ता तप्पढमयाए णो
गृहों में दबे हुए हैं, उन्हें देखकर वह खंभाएज्जा।
अपने प्रारम्भिक क्षणों में विचलित नहीं
होता। इच्चेतेहि पंचहि ठाणेहि केवल- इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः केवलवरज्ञान- इन पांच स्थानों से तत्काल उत्पन्न होतावरणाणदंसणे समुप्पज्जिउकामे दर्शनं समुत्पत्तुकाम तत्प्रथमतायां नो। होता के बलवरज्ञानदर्शन अपने प्रारम्भिक तप्पढमयाए° णो खंभाएज्जा। स्कभनीयात् ।
क्षणों में विचलित नहीं होता।
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स्थान ५ : सूत्र २३-२६
सरीरं-पदं शरीर-पदम्
शरीर-पद २३. रइयाणं सरोरगा पंचवण्णा नैरयिकाणां शरीरकाणि पञ्चवर्णानि २३. नरयिक जीवों के शरीर पांच वर्ण तथा
पंचरसा पणत्ता, तं जहा पञ्चरसानि प्रज्ञप्तानि, तदयथा... पांच रस वाले होते हैं---- किष्हा, गीला, लोहिता, हालिद्दा, कृष्णानि, नीलानि, लोहितानि, हारि- १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. पीत, सुक्किल्ला। द्राणि, शुक्लानि।
५. शुल्ल। तित्ता, कड्या, कसाया, तिक्तानि, कटुकानि, कषायाणि, १. तिक्त, २. कटुक, ३. कषाय, ४. अम्ल, अंबिला, मधुरा। अम्लानि, मधुराणि।
५. मधुर। २४. एवं-णिरंतरं जाव वेमाणियाणं। एवम् निरंतरं यावत् वैमानिकानाम्। २४. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डक
जीवों के शरीर पांच वर्ण तथा पांच रस
वाले होते हैं। २५. पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च शरीरकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २५. शरीर पांच प्रकार के होते हैं --
ओरालिए, वेउन्विए, आहारए, औदारिक, वैक्रिय, आहारकं, तैजसं, १. औदारिक, २. वैक्रिय, ३. आहारक, तेयए, कम्मए। कर्मकम् ।
४. तेजस, ५. कर्मक। २६. ओरालियसरीरे पंचवण्णे पंचरसे औदारिकशरीरं पञ्चवर्ण पञ्चरसं २६. औदारिक शरीर पांच वर्ण तथा पांच रस पण्णते, तं जहाप्रज्ञप्तम्, तद्यथा
वाला होता हैकिण्हे, 'णीले, लोहिते, हालिद्दे, कृष्णं, नील, लोहितं, हारिद्र, शुक्लं । १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. पीत, सुक्किल्ले । तित्ते, कडुए, कसाए, तिक्त, कटुकं, कषायं, अम्लं, मधुरम्।। ५. शुक्ल। अंबिले,' महरे।
१. तिक्त, २. कटुक, ३. कषाय, ४. अम्ल,
५. मधुर। २७. वेउब्वियसरीरे पंचवणे पंचरसे वैक्रियशरीरं पञ्चवर्ण पञ्चरसंप्रज्ञप्तम, २७. वैक्रिय शरीर पांच वर्ण तथा पांच रस पण्णते, तं जहातद्यथा
वाला होता हैकिण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, कृष्णं, नील, लोहितं, हारिद्र, शुक्लं । १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. पीत, सुक्किल्ले।
तिक्तं, कटकं, कषायं, अम्लं, मधुरम् । ५. शुक्ल। तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले,
१. तिक्त, २. कटुक, ३. कषाय, ४. अम्ल, महुरे।
५. मधुर। २८. आहारयसरीरे पंचवण्णे पंचरसे
आहारकशरीरं पञ्जवणं पञ्चरसं २८. आहारक शरीर पांच वर्ण तथा पांच रस पण्णते, तं जहाप्रज्ञप्तम्, तद्यथा
वाला होता है--- किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, कृष्णं, नीलं, लोहितं, हारिद्र, शुक्लं। १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. पीत, सुक्किल्ले।
तिक्तं, कटुकं, कषायं, अम्लं, मधुरम् । ५. शुक्ल । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले,
१. तिक्त, २. कटुक, ३. कषाय, ४. अम्ल, मुहरे।
५. मधुर। २६. तेययसरीरे पंचवण्णे पंचरसे तैजसशरीरं पञ्चवर्ण पञ्चरसं प्रज्ञप्तम, २६. तेजस शरीर पांच वर्ण तथा पांच रस पण्णते, तं जहातद्यथा
वाला होता है
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स्थान ५: सूत्र ३०-३४ किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, कृष्णं, नीलं, लोहितं, हारिद्रं, शुक्लं। १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. पीत, सुक्किल्ले।
तिक्तं, कटुकं, कषायं, अम्लं, मधुरम् । ५. शुक्ल । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले,
१. तिक्त, २. कटुक, ३. कषाय, ४. अम्ल, महुरे।
५. मधुर। ३०. कम्मगसरीरे पंचवण्णे पंचरसे कर्मकशरीरं पञ्चवर्ण पञ्चरसं प्रज्ञप्तम्, ३०. कर्मक शरीर पांच वर्ण तथा पांच रस पण्णत्ते, तं जहातद्यथा
वाला होता हैकिण्हे, णोले, लोहिते, हालिद्दे, कृष्णं, नील, लोहितं, हारिद्रं, शुक्लं । १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. पीत, सुकिल्ले।
तिक्त, कटुकं, कषायं अम्लं, मधुरम् । ५.शुक्ल । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले,
१. तिक्त, २. कटक, ३. कषाय, ४. अम्ल, महुरे।
५. मधुर। ३१. सव्वेविणं बादरबोदिधरा कलेवरा सर्वेपि बादरबोन्दिधराणि कलेवराणि ३१. बादर-स्थलाकार शरीर को धारण करने पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा अट्ठ- पञ्चवर्णानि पञ्चरसानि द्विगन्धानि वाले सभी कलेवर पांच वर्ण, पांच रस, फासा। अष्ट स्पर्शानि।
दो गन्ध तथा आठ स्पर्श वाले होते हैं।
तित्थभेद-पदं तीर्थभेद-पदम्
तीर्थभेद-पद ३२. पंचर्चाह ठाणेहि पुरिम-पच्छिमगाणं पञ्चभिः स्थानः पूर्व-पश्चिमकानां ३२. प्रथम तथा अन्तिम तीर्थकर के शासन में
जिणाणं दुग्गमं भवति, तं जहा- जिनानां दुर्गमं भवति, तद्यथा.... पांच स्थान दुर्गम होते हैं.... दुआइक्खं, दुविभज्ज, दुपस्सं, दुराख्येयं, दुर्विभाज्यं, दुर्दर्श, दुस्तितिक्षं, १. धर्म-तत्त्व का आख्यान करना, दुतितिक्खं, दुरणुचरं। दुरनुचरम् ।
२. तत्त्व का अपेक्षादृष्टि से विभाग करना, ३. तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना, ४. उत्पन्न परीषहों को सहन करना,
५. धर्म का आचरण करना। ३३. पंचहि ठाणेहि मज्झिमगाणं पञ्चभिः स्थानः मध्यमकानां जिनानां ३३. मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शासन में पांच जिणाणं सुग्गमं भवति, तं जहा- सुगमं भवति, तद्यथा--
स्थान सुगम होते हैंसुआइक्खं, सुविभज्ज, सुपस्सं, स्वाख्येयं, सुविभाज्य, सुदर्श, सुतितिक्षं, १. धर्म-तत्त्व का आख्यान करना, सुतितिक्खं, सुरणुचरं। स्वनुचरम् ।
२. तत्त्व का अपेक्षादृष्टि से विभाग करना, ३. तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना, ४. उत्पन्न परीषहों को सहन करना,
५. धर्म का आचरण करना। अब्भणुण्णात-पदं अभ्यनुज्ञात-पदम्
अभ्यनुज्ञात-पद ३४. पंच ठाणाई समणेणं भगवता पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महा- ३४. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निम्रन्थों
महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं वीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणि- के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किए हैं, णिच्चं वण्णिताई णिच्च कित्तिताई तानि नित्यं कीर्तितानि नित्यं उक्तानि कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई
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पिच्चमन्भणुष्णाताई भवंति नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा—
तं जहा
खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, क्षान्तिः, मुक्तिः, आर्जवं मार्दवं लाघलाघवे । वम् !
३५. पंच ठाणाई समषेण भगवता
महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताइं frei बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्च' अन्भणुष्णताई भवंति तं जहा
पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणितानि नित्यं कीर्त्तितानि नित्यं उक्तानि नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा—
सच्चे, संजमे, तत्रे, चियाए, सत्यं, संयमः, तपः, त्यागः, ब्रह्मचर्य - बंभचेरवासे ।
३६. पंच ठाणाई समणेणं 'भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्चं कित्तिताइं णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई fret अब्भणुष्णाताई भवंति तं
जहा - उक्खित्तचरए
णिक्खित्तचरए, अंतरए, पंतचरए, लूहचरए ।
३७. पंच ठाणाई 'समणेण भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्च कित्तिताइं णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्च' अब्भणुष्णाताई भवंति तं जहा -
वासः ।
पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणितानि नित्यं कीर्त्तितानि नित्यं उक्तानि नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा—
उत्क्षिप्तचरकः, निक्षिप्तचरकः, अन्त्य - चरकः, प्रान्त्य चरकः, रूक्षचरकः ।
पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वर्णितानि नित्यं कीर्त्तितानि नित्यं उक्तानि नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा—
स्थान ५ : सूत्र ३५-३७
किए हैं, अभ्यनुज्ञात [ अनुमत] किए 2
१. क्षांति, २. मुक्ति, ३. आर्जव, ४. मार्दव, ५. लाघव ।
३५. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किए हैं, कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित किए हैं, अभ्यनुज्ञात किए हैं २४ -
१. सत्य, २. संयम, ३. तप, ४. त्याग, ५. ब्रह्मचर्यवास ।
३६. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किए हैं, कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित किए हैं, अभ्यनुज्ञात किए हैं
१. उत्क्षिप्तचरक - पाक-भाजन से बाहर निकाले हुए भोजन को ग्रहण करने वाला, २. निक्षिप्तचरक - पाक-भाजन में स्थित भोजन को ग्रहण करने वाला,
३. अन्त्यचरक "बचा खुचा
भोजन
करने वाला,
४. प्रान्त्य चरक बासी भोजन करने
वाला ।
५. रूक्षचरक रूखा भोजन ग्रहण करने
वाला ।
३७. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किए हैं, कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित किए हैं, अभ्यनुज्ञात किए हैं
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स्थान ५: सूत्र ३८-३६ अण्णातचरए, अण्णइलायचरए, अज्ञातचरकः, अन्नग्लायकचरकः, मौन- १. अज्ञातचरक-जाति, कुल आदि को मोणचरए, संसट्टक प्पिए, तज्जात- चरकः, संसृष्ट कल्पिकः, तज्जातसंसृष्ट- जताये बिना भोजन लेने वाला, संसदकप्पिए। कल्पिकः ।
२. अन्नग्लायकचरक - विकृत अन्न को खाने वाला, ३. मौनचरक-बिना बोले भिक्षा लेने वाला, ४. संसृष्टकल्पिक-लिप्त हाथ या कड़छी आदि से भिक्षा लेने वाला, ५. तज्जात संसृष्टकल्पिक---देय द्रव्य से लिप्त हाथ, कड़छी आदि से भिक्षा लेने
बाला। ३८. पंच ठाणाई 'समणेणं भगवता पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महा- ३८. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों
के लिए पांच स्थान सदा वणित किए हैं, महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं वीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणि
कोर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित णिच्चं वण्णिताइं णिच्चं कित्तिताई तानि नित्यं कीर्तितानि नित्यं उक्तानि
किए हैं, अभ्यनुज्ञात किए हैंणिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाई नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि १. औपनिधिक-पास में रखे हुए भोजन णिच्च° अब्भणुण्णाताई भवंति, भवन्ति, तद्यथा
को लेने वाला, तं जहा.-.
२. शुद्धषणिक-निर्दोष या व्यंजन
रहित आहार लेने वाला, उवणिहिए, सुद्धेसणिए, औपनिधिकः, शुद्धषणिकः, संख्यादत्तिकः,
३. संख्यादत्तिक-परिमित दत्तियों का संखादत्तिए, दिठुलाभिए, दृष्टलाभिकः, पृष्टलाभिकः।
आहार लेने वाला, पुट्ठलाभिए।
४. दृष्टलाभिक—सामने दीखने वाले आहार आदि को लेने वाला, ५. पृष्टलाभिक-'क्या भिक्षा लोगे' ?
यह पूछे जाने पर ही भिक्षा लेने वाला। ३६. पंच ठाणाई 'समणणं भगवता पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महा- ३६. श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं वीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणि
के लिए पांच स्थान सदा वणित किए हैं, णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई तानि नित्यं कत्तितानि नित्यं उक्तानि
कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित
किए हैं, अभ्यनुज्ञात किए हैंणिचं बइयाइं णिच्चं पसत्थाई नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि
१. आचाम्लिक-ओदन, कुलमाष आदि णिच्चं अब्भणुण्णाताई भवंति, तं भवन्ति, तद्यथा
में से कोई एक अन्न खाकर किया जाने जहा
वाला तप,
२. निविकृतिक-घृत आदि विकृति का आयंबिलिए, णिव्विइए, आचाम्लिकः, निर्विकृतिकः, पूर्वाद्धिकः,
त्याग करने वाला, पुरिमडिए, परिमितपिंडवातिए, परिमितपिण्डपातिकः, भिन्नपिण्ड- ३. पूर्वाधिक —दिन के पूर्वार्ध में भोजन भिपणपिंडवातिए। पातिकः ।
नहीं करने वाला, ४. परिमितपिण्डपातिक-परिमित द्रव्यों की भिक्षा लेने वाला, ५. भिन्नपिण्डपातिक-भोजन के टुकड़ों की भिक्षा लेने वाला।
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४०. पंच ठाणाई 'समणेणं भगवता
महावीरेण समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्च कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्च अन्भणुष्णाताई भवंति तं जहा
अरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, अरसाहारः, विरसाहारः, अन्त्याहारः, पंताहारे, लूहाहारे । प्रान्त्याहारः, रूक्षाहारः ।
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पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वर्णितानि नित्यं कीर्त्तितानि नित्यं उक्तानि नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा—
४१. पंच ठाणाई 'समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताइं णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं ' अब्भणुष्णाताई भवंति तं जहा -
अरसजीवो, विरसजीवी, अरसजीवी, विरसजीवी, अन्त्यजीवी, अंतजीवी, पंतजीवी, लूहजीवी । प्रान्त्यजीवी, रूक्षजीवी ।
पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणितानि नित्यं कीर्त्तितानि नित्यं उक्तानि नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा—
४२. पंच ठाणाई 'समणेण भगवता महावीरेण समणाणं णिग्गंथाणं णिच्च वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं अब्भणुष्णाताई भवंति तं जहाठाणातिए, उक्कुडुआस थिए, स्थानायतिकः, उत्कुटुकासनिकः, पमिट्टाई, वीरास णिए णेस ज्जिए । प्रतिमास्थायी, वीरासनिकः नैषधिकः ।
पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वर्णितानि नित्यं कीत्तितानि नित्यं उक्तानि नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा
स्थान ५ : सूत्र ४०-४२ ४०. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किए हैं, कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशसित किए हैं, अभ्यनुज्ञात किए हैं
१. अरसाहार हींग आदि के बधार से रहित भोजन लेने वाला, २ . विरसाहारपुराने धान्य का भोजन करने वाला, ४. प्रान्त्याहार,
३. अन्त्याहार,
-
५. रूक्षाहार ।
४१. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किए हैं, कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित किए हैं, अभ्यनुज्ञात किए हैं१. अरसजीवी जीवन-भर अरस आहार करने वाला, २ विरसजीवी-जीवनभर विरस आहार करने वाला, ३. अन्त्यजीवी, ४. प्रान्त्यजीवी
५. रूक्षजीवी ।
४२. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किए हैं, कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित किए हैं. अभ्यनुज्ञात किए हैं१. स्थानायतिक कायोत्सर्ग मुद्रा से युक्त होकर दोनों बाहुओं को घुटनों की ओर झुकाकर खड़ा रहने वाला, २. उत्कुटुकासनिक - उकड़ बैठने वाला, ३. प्रतिमास्थायी प्रतिमाकाल कायोत्सर्ग की मुद्रा में अवस्थित, ४. वीरासनिक " - - वीरासन की मुद्रा में अवस्थित,
में
५. नैषधिक२ विशेष प्रकार से वंटने
वाला ।
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स्थान ५: सूत्र ४३-४५
४३. पंच ठाणाई 'समणेणं भगवता पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महा- ४३. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों
महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं वीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणि- के लिए पांच स्थान सदा वणित किए हैं, णिच्चं वण्णिताई णिच्च कित्तिताई तानि नित्यं कीतितानि नित्यं उक्तानि कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित णिच्चं बइयाई णिच्चं पसत्थाई नित्यं प्रशस्तानि नित्यं अभ्यनुज्ञातानि किए हैं, अभ्यनुज्ञात किए हैंणिच्च अब्भणुण्णाताई भवंति, भवन्ति, तद्यथा--
१. दण्डायतिक-पैरों को पसारकर बैठने तं जहा
वाला, २.लगंडगायी-सिर और एडी दंडायतिए, लगंडसाई, आतावए, दण्डायतिकः, लगण्डशायी, आतापक:,
भूमि से संलग्न रहे और शेष सारा शरीर
ऊपर उठ जाए अथवा पृष्ठ भाग भूमि से अवाउडए, अकंडूयए। अप्रावृतकः, अकण्डूयकः ।
संलग्न रहे और सारा शरीर ऊपर उठ जाए, इस मुद्रा में सोने वाला, ३.आतापक" ---शीतताप सहन करने वाला, ४. अप्रावृतक--वस्व-त्याग करने वाला। ५. अकण्डयक-खुजली नहीं करने वाला।
महाणिज्जर-पदं महानिर्जरा-पदम्
महानिर्जरा-पद ४४. पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे पञ्चभि: स्थानः श्रमणः निर्ग्रन्थः महा- ४४. पांच स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा
तथा महापर्यवसान वाला होता है - महाणिज्जरे महापज्जवसाणे निर्जरः महापर्यवसान: भवति,
१. अग्लानभाव से आचार्य का वयावृत्त्य भवति, तं जहातद्यथा-
करता हुआ, अगिलाए आयरियवेयावच्च करेमाणे, अग्लान्या आचार्यवैयावृत्त्यं कुर्वाणः, २. अग्लानभाव से उपाध्याय का वैयावृत्त्य अगिलाए उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे, अग्लान्या उपाध्यायवैयावृत्त्यं कुर्वाणः, करता हुआ, अगिलाए थेरवेयावच्चं करेमाणे, अग्लान्या स्थविरवैयावृत्त्यं कुर्वाणः,
३. अग्लानभाव से स्थविर का वैयावृत्त्य
करता हुआ, अगिलाए तवस्सिवेयावच्चं करेमाणे, अग्लान्या तपस्विवैयावृत्त्यं कुर्वाणः,
४. अग्लानभाव से तपस्वी का वैयावृत्त्य अगिलाए गिलाणवेयावच्चं करेमाणे। अग्लान्या ग्लानवैयावृत्त्यं कुर्वाणः ।
करता हुआ, ५. अग्लानभाव से रोगी का वैयावृत्त्य
करता हुआ। ४५. पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गथे पञ्चभि: स्थानैः श्रमणः निर्ग्रन्थः महा- ४५. पांच स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा महाणिज्जरे महापज्जवसाणे निर्जर: महापर्यवसानः भवति, ।
तथा महापर्यवसान वाला होता है ....
१. अग्लानभाव से शैक्ष-नवदीक्षित का भवति, तं जहा- तद्यथा
वैयावृत्त्य करता हुआ, अगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे, अग्लान्या शैक्षवैयावृत्त्यं कुर्वाण:,
२. अग्लानभाव से कुल का वैयावृत्त्य अगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे, अग्लान्या कुलवैयावृत्त्यं कुर्वाणः, करता हुआ, अगिलाए गणवेयावच्चं करेमाणे, अग्लान्या गणवैयावृत्त्यं कुर्वाणः, ३. अग्लानभाव से गण का वैयावृत्त्य अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे, अग्लान्या संघवैयावृत्त्यं कुर्वाणः,
करता हुआ,
४. अग्लानभाव से संघ का वैयावृत्य अगिलाए साहम्मियवेयावच्चं अग्लान्या साधर्मिकवैयावृत्त्यं कुर्वाणः ।
करता हुआ, करेमाणे।
५. आग्लानभाव से सार्मिक का वैयावृत्त्य करता हुआ।
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ठाणं स्थान
विसंभोग-पदं
४६. पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा - १. सकिरियाण पडिसेवित्ता
भवति ।
२. पडिसेवित्ता णो आलोएइ । ३. आलोइत्ता णो पट्टवेति । ४. पटुवेत्ताणो णिध्विसति । ५. जाई इमाई थेराणं ठितिपकप्पाई भवंति ताई अतियंचियअतियंचिय पडिसेवेति से हंदहं पडि सेवामि किं मं थेरा करेस्संति ?
५५८
विसंभोग-पदम्
पञ्चभिः स्थानैः श्रमणः निर्ग्रन्थः साधमिकं सांभोगिकं वैसंभोगिकं कुर्वन् नातिक्रामति, तद्यथा---
१. सक्रियस्थानं प्रतिषेविता भवति ।
२. प्रतिषेव्य नो आलोचयति । ३. आलोच्य नो प्रस्थापयति । ४. प्रस्थाप्य नो निर्विशति । ५. यानि इमानि स्थविराणां स्थितिप्रकल्पानि भवन्ति तानि अतिक्रम्यअतिक्रम्य प्रतिषेवते, तद् हंत अहं प्रतिषेवे किं मे स्थविरा: करिष्यन्ति ?
पारंचित पदं
४७. पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं पारंचितं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा १. कुले वसति कुलस्स भेदाए १ कुले वसति कुलस्य भेदाय अभ्युत्थाता अत्ता भवति । भवति ।
पाराञ्चित-पदम् पञ्चभिः स्थानैः श्रमणः निर्ग्रन्थः साधर्मिकं पाराञ्चितं कुर्वन् नातिक्रामति, तद्यथा
२. गणे वसति गणस्स भेदाए २ गणे वसति गणस्य भेदाय अभ्युत्थाता
अन्ता भवति ।
३. सिप्पेही । ४. छिप्पेही ।
५. अभिक्खणं अभिक्खणं पसिणायतणाई परंजित्ता भवति ।
भवति । ३. हिंसाप्रेक्षी ।
४. छिद्रप्रेक्षी ।
५. अभीक्ष्णं - अभीक्ष्णं प्रयोक्ता भवति ।
प्रश्नायतनानि
स्थान ५ : सूत्र ४६-४७
विसंभोग - पद
४६. पांच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक सांभोगिक" को विसांभोगिक " -- मंडली बाह्य करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता -
१. जो सक्रियस्थान [ अशुभ कर्म का बंधन करने वाले कार्य ] का प्रतिसेवन करता है, २. प्रतिसेवन कर जो आलोचना नहीं करता,
३. आलोचना कर जो प्रस्थापन" नहीं
करता,
४. प्रस्थानपन कर जो निवेश नहीं
करता,
५. जो स्थविरों के स्थितिकल्प" होते हैं उनमें से एक के बाद दूसरे का अतिक्रमण करता है, दूसरों के समझाने पर यह कहता हैलो, मैं दोष का प्रतिसेवन करता हूं, स्थविर मेरा क्या करेंगे ?"
पाराञ्चित पद
४७. पांच स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने सा
धार्मिक को पाराञ्चित [ दसवां प्रायश्चित्त संप्राप्त ] करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता
१. जो जिस कुल में रहता है उसीमें भेद डालने का यत्न करता है,
२. जो जिस गण में रहता है उसीमें भेद
डालने का यत्न करता है,
३. जो हिंसाप्रेक्षी होता है--कुल, गण के
सदस्यों का वध चाहता है,
४. जो छिद्रान्वेषी होता है,
५. जो बार-बार प्रश्नायतनों" का प्रयोग करता है।
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ठाणं (स्थान)
५५६
स्थान ५: सूत्र ४८-४६
वुग्गहट्ठाण-पदं व्युद्ग्रहस्थान-पदम्
व्युद्ग्रहस्थान-पद ४८. आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि आचार्योपाध्यायस्य गणे पञ्च व्युद्ग्रह- ४८. आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में पंच वुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा- स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा--- पांच विग्रह के हेतु हैं-- १. आयरियउवज्झाए णं गणंसि १. आचार्योपाध्याय: गणे आज्ञा वा १. आचार्य तथा उपाध्याय गण में आज्ञा आणं वा धारणं वा णो सम्म धारणां वा नो सम्यक प्रयोक्ता भवति । व धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें। पउंजित्ता भवति। २. आयरियउबज्झाए णं गणंसि २. आचार्योपाध्यायः गणे यथारात्नि- २. आचार्य तथा उपाध्याय गण में यथाआधारातिणियाए कितिकम्मं णो कतया कृतिकर्म नो सम्यक प्रयोक्ता रानिक कृतिकर्म का प्रयोग न करें, सम्म पउंजित्ता भवति। भवति। ३. आयरियउवज्झाए णं गणंसि ३. आचार्योपाध्यायः गणे यानि सूत्र- ३. आचार्य तथा उपाध्याय जिन-जिन जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले- पर्यवजातानि धारयति तानि काले-काले सूव-पर्यवजातों सुत्रार्थ प्रकारों को धारण काले णो सम्ममणुप्पवाइत्ता नो सम्यग् अनुप्रवाचयिता भवति । करते हैं, उनकी उचित समय पर गण भवति।
को सम्यक् वाचना न दें, ४. आयरियउवज्झाए णं गणंसि ४. आचार्योपाध्यायः गणे ग्लानशैक्ष- ४. आचार्य तथा उपाध्याय गण में रोगी गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्मम- वैयावृत्त्यं नो सम्यग्अभ्युत्थाता भवति। तथा नवदीक्षित साधुओं का वैयावृत्त्य भुट्टित्ता भवति।
कराने के लिए जागरूक न रहें, ५. आयरियउवज्झाए गं गणंसि ५. आचार्योपाध्यायः गणे अनापुच्छ्य- ५. आचार्य तथा उपाध्याय गण को पूछे अणापुच्छियचारी यावि हवइ, चारी चापि भवति, नो आपच्छ्यचारी। बिना ही क्षेत्रान्तरसंक्रम करें, पूछकर न णो आपुच्छियचारी।
करें।
अव्युद्ग्रहस्थान-पद ४६. आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में पांच अविग्रह के हेतु हैं१. आचार्य तथा उपाध्याय गण में आज्ञा या धारणा का सम्यक् प्रयोग करें,
अवुग्गहट्ठाण-पदं अव्युद्ग्रहस्थान-पदम् ४६. आयरियउवज्झायस्स गं गणंसि आचार्योपाध्यायस्य गणे पञ्चाऽव्युद्ग्रह-
पंचावग्गहवाणा पण्णत्ता, तं जहा- स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तदयथा१. आयरियउवज्झाए णं गणंसि १.आचार्योपाध्यायः गणे आज्ञा वा आणं वा धारणं वा सम्म धारणां वा सम्यक् प्रयोक्ता भवति । पउंजित्ता भवति। २. आयरियउवज्झाए णं गणं सि २. आचार्योपाध्यायः गणे यथारात्निआधारातिणिताए सम्म किइकम्म कतया सम्यक कृतिकर्म प्रयोक्ता पउंजित्ता भवति।
भवति । ३. आयरियउवझाए णं गणंसि ३. आचार्योपाध्याय: गणे यानि सूत्रजे सुत्तपज्जवजातेधारेति ते काले- पर्यवजातानि धारयति तानि काले-काले काले सम्म अणुपवाइत्ता भवति। सम्यक् अनुप्रवाचयिता भवति ।
२. आचार्य तथा उपाध्याय गण में यथारात्निक कृतिकर्म का प्रयोग करें,
३. आचार्य तथा उपाध्याय जिन-जिन सूत्र-पर्यवजातों को धारण करते हैं, उनकी उचित समय पर गण को सम्यक् वाचना
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ठाणं (स्थान)
५६०
स्थान ५: सूत्र ५०-५२
४. आचार्य तथा उपाध्याय गण में रोगी तथा नवदीक्षित साधुओं का वैयावृत्त्य कराने के लिए जागरूक रहें, ५. आचार्य तथा उपाध्याय गण को पूछकर क्षेत्रान्तर-संक्रम करें, बिना पूछे न करें।
४. आयरियउवज्झाए गणंसि ४. आचार्योपाध्यायः गणे ग्लानशैक्षगिलाणसेहवेयावच्चं सम्मं वैयावृत्त्यं सम्यक् अभ्युत्थाता भवति । अब्भुद्वित्ता भवति । ५. आचार्योपाध्यायः गणे आपृच्छ्यचारी ५. आयरियउवज्झाए गणंसि चापि भवति, नो अनापृच्छ्यचारी। आपुच्छियचारी यावि भवति, णो अणापुच्छियचारी। णिसिज्जा-पदं
निषद्या-पदम् ५०. पंच णिसिज्जाओ पण्णत्ताओ, तं पञ्च निषद्या: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
जहाउक्कुड्या, गोदोहिया, उत्कृटुका, गोदोहिका, समपादपुता, समपायपुता, पलियंका, पर्यका, अर्धपयंका। अद्धपलियंका।
निषद्या-पद ५०. निषद्या पांच प्रकार की होती है
१. उत्कुटुका ---पुतों को भूमि से घुमाए बिना पैरों के बल पर बैठना, २. गोदोहिका-गाय की तरह बैठना या गाय दुहने की मुद्रा में बैठना, ३. समपादपुता—दोनों पैरों और पुतों को छुआ कर बैठना, ४. पर्यका-पद्मासन, ५. अपर्यका---अर्द्धपद्मासन ।
अज्जवट्ठाण-पदं
आर्जवस्थान-पदम् ५१. पंच अज्जवटाणा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च आर्जवस्थानानि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथासाधुअज्जवं, साधुमद्दवं, साध्वार्जवं, साधुमार्दवं, साधुलाघवं, साधुलाघवं, साधुखंती, साधुक्षान्तिः, साधुमुक्तिः। साधुमुत्ती।
आर्जवस्थान-पद ५१. आर्जव--संवर के पांच स्थान है--
१. साधुआर्जव-माया का सम्यक् निग्रह, २. साधुमार्दव-अभिमान का सम्यक्
निग्रह,
३. साधुलाघव-गौरव का सम्यक् निग्रह, ४. साधुक्षांति-क्रोध का सम्यक् निग्रह, ५. साधमुक्ति-लोभ का सम्यक् निग्रह।
जोइसिय-पदं ज्योतिष्क-पदम्
ज्योतिष्क-पद ५२. पंचविहा जोइसिया पण्णत्ता, तं पञ्चविधा: ज्योतिष्काः प्रज्ञप्ताः, ५२. ज्योतिष्क पांच प्रकार के हैंजहा...तद्यथा
१. चन्द्र, २. सूर्य, ३. ग्रह, ४. नक्षत्र, चंदा, सूरा, गहा, णक्खत्ता, चन्द्राः, सूराः, ग्रहाः, नक्षत्राणि, ताराः। ५. तारा। ताराओ।
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ri (स्थान)
देव-पदं
देव-पदम्
५३. पंच विहा देवा पण्णत्ता, तं जहा - पञ्चविधाः देवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— भवियदव्वदेवा, णरदेवा, भव्यद्रव्यदेवाः, नरदेवाः, धर्मदेवाः, देवातिदेवाः, भावदेवाः ।
धम्मदेवा, देवातिदेवा, भावदेवा ।
५६१
परिचारणा-पदं
परिचारणा--पदम्
५४. पंचविहार परियारणा पण्णत्ता, तं पञ्चविधाः देवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाजहा -- काय परिचारणा, स्पर्शपरिचारणा, कायपरियारणा, फासपरियारणा, रूपपरिचारणा, शब्दपरिचारणा, मनःरूवपरियारणा, सद्दपरियारणा, मणपरियारणा ।
परिचारणा ।
अगम हिसी पदं
५५. चमरस्स णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - काली, राती रयणी, विज्जू, काली, रात्री, रजनी, विद्युत्, मेघा । मेहा ।
५६. बलिस्स णं वइरोर्याणदस्स वइरो यणरणो पंच अग्गम हिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहासुंभा, णिसुंभा, रंभा, णिरंभा, मदणा ।
अणिय अणियाहिवइ-पदं ५७. चमरस्स णं असुरिदस्स असुरकुमारण्णो पंच संगामिया अणिया, पंच संगामिया अणियाधिवती पण्णत्ता, तं जहा
अग्र महिषी-पदम्
चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमार राजस्य पञ्च अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
बलेः वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य पञ्च अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--- शुभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा, मदना ।
अनीक अनीकाधिपति-पदम् चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य पञ्च सांग्रामिकाणि अनीकानि पञ्च सांग्रामिकाः अनीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
स्थान ५ : सूत्र ५३-५७
देव- पद
५३. देव पांच प्रकार के हैं
१. भव्य द्रव्य देव - भविष्य में होने वाला
देव, २. नरदेव राजा,
३. धर्मदेव - आचार्य, मुनि आदि,
४. देवातिदेव - अर्हत्,
५. भावदेव देवगति में वर्तमान देव ।
परिचारणा- पद
५४. परिचारणा " पांच प्रकार की होती है
१. कायपरिचारणा, २. स्पर्शपरिवारणा,
३. रूपपरिचारणा, ४. शब्दपरिचारणा, ५. मनः परिचारणा ।
अग्रमहिषी-पद
५५. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के पाच अग्रमहिपियां हैं
१. काली,
२. राती, ३. रजनी, ५. मेघा ।
४. विद्युत्, ५६. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के पांच
अग्रमहिषियां हैं-
१. शुम्भा, २. निशुम्भा, ३. रम्भा, ४. नीरम्भा, ५. मदना ।
अनीक - अनीकाधिपति-पद
५७. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के संग्राम करने वाली पांच सेनाएं और पांच सेनापति हैं
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ठाणं (स्थान)
पायत्ताणिए, पीढाणिए, कुंजराणिए, महिसाणिए, रहाणिए, 1
द्रुमः पादातानीकाधिपतिः,
दुमे पात्ताणियाधिवती,
सुदामा अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः,
सोदामे आसराया पीढाणियाधिवती, कुन्थुः हस्तिराजः कुञ्जरानी काधिपतिः, कुंथू हत्थिराया कुंजराणियाधिवती, लोहिताक्षः महिषानीकाधिपतिः, लोहितक्खे महिसाणियाधिवती, किन्नर : स्थानीकाधिपतिः । fhort रधाणियाधिवती । ५८. बलिस्स णं वइशेयणदस्स वइरो यणरण्णो पंच संगामियाणिया, पंच संगामियाणियाधिवती पण्णत्ता,
तं जहा - पायत्ताणिए, 'पीढालिए, कुंजराणिए, महिसा लिए रघाणिए ।
महद्दुमे पायत्ताणियाधिवती,
महासोदामे आसराया पीढाणियाधिवती, मालंकारे
हत्थिराया कुंजराणियाधिपती, महालोहिअवखे
महिसा जियाधिपती, figरिसे राणियाधिपती । ५६. धरणस्स णं णागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो पंच संगामिया अणिया, पंच संगामियाणियाधिपती पण्णत्ता त जहापायत्ताणिए जाव रहाणिए । भट्ट सेणे पायत्ताणियाधिपती,
जसोधरे आसराया पीढाणियाधिपती, सुदंसणे हत्थिराया कुंजराणियाधिपती, नीलकंठे महिसाणियाधिपती, आणंदे रहाणिया हिवई ।
५६२
पादातानीकं, पीठानीकं, कुञ्जरानीकं, महिषानीकं रथानीकम् ।
बलेः वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य पञ्च सांग्रामिकानीकानि पञ्च सांग्रामिकानीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
पादातानीकं, पीठानीकं, कुञ्जरानीकं, महिपानीक, रथानीकम् ।
महाद्रुमः पादातानीकाधिपतिः,
महासुदामा अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः,
मालंकारः स्तिराजः कुञ्जरानीकाधिपतिः, महालोहिताक्षः महिषानीकाधिपतिः, किंपुरुषः रथानीकाधिपतिः । धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य पञ्च सांग्रामिकाणि अनीकानि, पञ्च सांग्रामिकानीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
पादातानीकं यावत् रथानीकम् । भद्रसेनः पादातानीकाधिपतिः, यशोधर : अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः,
सुदर्शन: हस्तिराजः कुञ्जरानीकाधिपतिः,
नीलकण्ठ : महिषानीकाधिपतिः, आनन्दः रथानीकाधिपतिः ।
स्थान ५: सूत्र ५८-५६
सेनाएं - १. पादातानीक – पदातिसेना, २. पीठानीक अश्वसेना,
३. कुंजरानीक - हस्ती सेना, ४. महिषानीक भैंसों की सेना, ५. रथानीक - रथसेना । सेनापति -
१. द्रुमपादातानीक अधिपति, २. अश्वराज सुदामा पीठानीक अधिपति, ३. हस्तिराज कुंथु - कुंजरानीक अधिपति, ४. लोहिताक्ष महिपानीक अधिपति, ५. किन्नर - रथानीक अधिपति । ५८. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बली के संग्राम करने वाली पांच सेनाएं हैं और पांच सेनापति हैं
सेनाएं
१. पादातानीक,
३. कुंजरानीक,
५. रथानीक ।
सेनापति
१. महाद्रुम - पादातानीक अधिपति, २. अश्वराज महा सुदामा पीठानीक अधिपति,
२. पीठानीक,
४. महिषानीक,
३. हस्तिरज मालंकार - अधिपति,
४. महालोहिताक्ष - महिषानीक अधिपति
५. किंपुरुष - रथानीक अधिपति । ५६. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के संग्राम करने वाली पांच सेनाएं और पांच सेनापति हैं
सेनाएं
१. पादातानीक,
३. कंजरानीक, ५. रथानीक । सेनापति
२. पीठानीक, ४. महिषानीक,
१. भद्रसेन पादातानीक अधिपति,
२. अश्वराज यशोधर -- पीठानीक अधिपति, ३. हस्तिराज सुदर्शन - कुंजरानीक अधिपति, ४. नीलकण्ठ महिषानीक अधिपति, ५. आनन्द — रथानीक अधिपति ।
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कुमाररण्णो पंच संगामिया
ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ६०-६२ ६०. भूयाणंदस्स णं णागकुमारिदस्स भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमार- ६०. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द के
णागकुमाररण्णो पंच, संगामि- राजस्य पञ्च सांग्रामिकानीकानि, पञ्च संग्राम करने वाली पांच सेनाएं तथा पांच याणिया, पंच संगामियाणियाहिवई सांग्रामिकानीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः , सेनापति हैंपण्णत्ता, तं जहातदयथा
सेनाएंपायत्ताणिए जाव रहाणिए। पादातानीकं यावत् रथानीकम्, १. पादातानीक, २. पीठानीक, दक्खे पायत्ताणियाहिवई, दक्षः पादातानीकाधिपतिः,
३. कुंजरानीक, ४. महिषानीक, सुग्गीवे आसराया पोढाणियाहिवई, सुग्रीव अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः, ५. रथानीक। सुविक्कमे हत्थिराया कुंजराणिया- सुविक्रमः हस्तिराजः कुञ्जरानीकाधि- सेनापतिहिवई, सेयकंठे महिसाणियाहिवई, पतिः,
१. दक्ष-पादातानीक अधिपति, णंदुत्तरे रहाणियाहिवई। श्वेतकण्ठः महिषानीकाधिपतिः,
२. अश्वराज सुग्रीव-पीठानीक अधिपति। नन्दोत्तरः रथानीकाधिपतिः ।
३.हस्तिराज सुविक्रम-कुंजरानीक अधिपति, ४. श्वेतकंठ-महिषानीक अधिपति,
५. नन्दोत्तर-रथानीक अधिपति । ६१. वेणुदेवस्स णं सुण्णिदस्स सुवण्ण- वेणुदेवस्य सुपर्णेन्द्रस्य सुपर्णकुमार- ६१. सुपर्णेन्द्र सुपर्णराज वेणुदेव के संग्राम करने
पंच संगामियाणिया, राजस्य पञ्च सांग्रामिकानीकानि, पञ्च वाली पांच सेनाएं और पांच सेनापति हैंपंच संगामियाणियाहिपती पण्णत्ता, सांग्रामिकानीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, सेनाएंतं जहातद्यथा---
१. पादातानीक, २. पीठानीक, पायत्ताणिए । एवं जधा धरणस्स पादातानीकम् । एवं यथा धरणस्य तथा ३. कुंजरानीक, ४. महिषानीक, तधा वेणुदेवस्सवि। वेणुदेवस्यापि।
५. रथानीक। वेणुदालियस्स जहा भूताणंदस्स। वेणुदालिकस्य यथा भूतानन्दस्य । सेनापति
१. भद्रसेन-पादातानीक अधिपति, २. अश्वराज यशोधर-पीठानीक अधिपति, ३. हस्तिराज सुदर्शन-कुंजरानीक अधिपति, ४. नीलकंठ-महिषानीक अधिपति,
५. आनन्द-रथानीक अधिपति । ६२. जधा धरणस्स तहा सव्वेसि यथा धरणस्य तथा सर्वेषां दाक्षिणा- ६२. दक्षिण दिशा के शेष भवनपति इन्द्रदाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स। त्यानां यावत् घोषस्य ।
हरिकान्त, अग्निशिख, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, वेलम्ब तथा घोप के भी पादातानीक आदि पांच संग्राम करने वाली सेनाएं तथा भद्रसेन, अश्वराज, यशोधर, हस्तिराज सुदर्शन नीलकंठ और आनन्द ये पांच सेनापति हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५: सूत्र ६३-६५ ६३. जधा भूताणंदस्स तथा सव्वेसि यथा भूतानन्दस्य तथा सर्वेषां औदी- ६३. उत्तर दिशा के शेष भवनपति इन्द्रउत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स। च्यानां यावत् महाघोषस्य ।
वेणुदालि,हरिस्सह, अग्निमानव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष के भी पादातानीक आदि पांच संग्राम करने वाली सेनाएं तथा दक्ष, अश्वराज सुग्रीव, हस्तिराज, सुविक्रम, श्वेतकंठ और
नन्दोत्तर ये पांच सेनापति हैं। ६४. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो शत्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य पञ्च ६४. देवेन्द्र देवराज शक्र के संग्राम करने वाली
पंच संगामिया अणिया, पंच संगा- सांग्रामिकाणि अनीकानि, पञ्च सांग्रा- पांच सेनाएं और पांच सेनापति हैंमियाणियाधिवती पण्णत्ता, तं मिकानोकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- सेनाएंजहा
१. पादातानीक, २. पीठानीक, पायत्ताणिए पीढाणिए कुंजराणिए पादातानीकं पीठानीकं कुञ्जरानीक ३. कुंजरानीक, ४. वृषभानीक, उसभाणिए रधाणिए। वृषभानीक रथानीकम्।
५. रथानीक । हरिणेगमेसी पायत्ताणियाधिवती, हरिनैगमेषी पादानीकाधिपतिः, सेनापतिवाऊ आसराया पीढाणियाधिवती, वायु: अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः, १. हरिनगमेषी-पादातानीक अधिपति, एरावणे हत्थिराया कुंजराणिया- ऐरावणः हस्तिराजः कुञ्जरानीकाधि- २. अश्वराज वायु-पीठानीक अधिपति, धिपती, दामट्टी उसभाणियाधिपती, पतिः,
३. हस्तिराज ऐरावण-कुंजरानीक अधिपति माढरे रधाणियाधिपती। दामधिः वृषभानीकाधिपतिः,
४. दामधि-वृषभानीक अधिपति, माठरः रथानीकाधिपतिः।
५. माठर-रथानीक अधिपति । ६५. ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य पञ्च ६५. देवेन्द्र देवराज ईशान के संग्राम करने पंच संगामिया अणिया जाव सांग्रामिकानीकानि यावत्
वाली पांच सेनाएं और पांच सेनापति हैंपायत्ताणिए, पीडाणिए, पादातानीक, पीठानीक, कुञ्जरानीक, सेनाएंकुंजराणिए, उसभाणिए, वृषभानीक, रथानोकम् ।
१. पादातानीक, २. पीठानीक, रधाणिए।
३. कुंजरानीक, ४. वृषभानीक, लहुपरक्कमे पायत्ताणियाधिवती, लघुपराक्रमः पादातानीकाधिपतिः, ५. रथानीक । महावाऊ आसराया पीढाणिया- महावायुः अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः, सेनापतिहिवती, पुप्फदंते हत्थिराया पुष्पदन्तः हस्तिराजः कुञ्जरानीकाधि- १. लघुपराक्रम-पादातानीक अधिपति, कुंजराणियाहिवती, पतिः ,
२. अश्वराज महावायु-पीठानीक अधिपति, महादामड्डी उसभाणियाहिवती। महादामधिः वृषभानीकाधिपतिः। ३.हस्तिराज पुष्पदंत-कुंजरानीक अधिपति, महामाढरे रधाणियाहिवती। महामाठरः रथानीकाधिपतिः । ४. महादामधि-वृषभानीक अधिपति,
५. महामाठर-रथानीक अधिपति ।
,
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : सूत्र ६६-६८
६६. जधा सक्कस्स तहा सव्वेसि यथा शकस्य तथा सर्वेषां दाक्षिणात्यानां ६६. दक्षिण दिशा के वैमानिक इन्द्रदाहिणिल्लाणं जाव आरणस्स। यावत् आरणस्य ।
सनत्कुमार, ब्रह्म, शुक्र, आनत तथा आरण देवेन्द्रों के भी संग्राम करने वाली पांच सेनाएं और पांच सेनापति हैं-- सेनाएं१. पादातानीक, २.पीठानीक, ३. कुंजरानीक, ४. वृषभानीक, ५. रथानीक। सेनापति१. हरिनगमेषी-पादातानीक अधिपति, २. अश्वराज वायु–पीठानीक अधिपति, ३.हस्तिराज ऐरावण--कुंजरानीक अधिपति ४. दामधि-वृषभानीक अधिपति, ५. माठर-रथानीक अधिपति ।
६७. जधा ईसाणस्स तहा सवेसि
उत्तरिल्लाणं जाव अच्चुतस्स।
यथा ईशानस्य तथा सर्वेषां औदीच्यानां ६७. उत्तर दिशा के वैमानिक इन्द्र-लांतक, यावत् अच्युतस्य ।
सहस्रार, प्राणत तथा अच्युत देवेन्द्रों के भी संग्राम करने वाली पांच सेनाएं और और पांच सेनापति हैंसेनाएं१. पादातानीक, २.पीठानीक, ३. कुंजरानीक, ४. वृषभानीक, ५. रथानीक। सेनापति१. लघुपराक्रम-पादातानीक अधिपति, २. अश्वराज महावायु-पीठानीक अधिपति, ३.हस्तिराज पुष्पदंत--कुंजरानीक अधिपति ४. महादामधि-वृषभानीक अधिपति, ५. महामाठर--रथानीक अधिपति ।
देवठिति-पदं देवस्थिति-पदम्
देवस्थिति-पद ६८. सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अभ्यन्तर- ६८. देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र के अन्तरंग परिषद्
अब्भंतरपरिसाए देवाणं पंच परिषदः देवानां पञ्च पल्योपमानि के सदस्य देवों की स्थिति पांच पल्योपम पलिओवमाइंठिती पण्णत्ता। स्थिति: प्रज्ञप्ता।
की है।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५: सूत्र ६६-७२
६६. ईसाणस णं देविदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अभ्यन्तर- ६६. देवेन्द्र देवराज ईशान के अन्तरंग परिषद्
अभंतरपरिसाए देवीणं पंच परिषदः देवीनां पञ्च पल्योपमानि के सदस्य देवियों की स्थिति पांच पल्योपलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता।
पम की है।
पडिहा-पदं प्रतिघात-पदम्
प्रतिघात-पद ७०. पंचविहा पडिहा पण्णत्ता, तं पञ्चविधा: प्रतिघाताः प्रज्ञप्ताः, ७०. प्रतिघात [स्वलन] पांच प्रकार का जहातद्यथा
होता है - गतिपडिहा, ठितिपडिहा, गतिप्रतिधात:, स्थितिप्रतिघातः, १. गति प्रतिघात–अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा बंधणपडिहा, भोगपडिहा, बन्धनप्रतिघात:, भोगप्रतिघातः, प्रशस्त गति का अवरोध, बल-वीरिय-पुरिसयार- बल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रमप्रतिघातः ।
२. स्थिति प्रतिघात-उदीरणा के द्वारा
कर्म-स्थिति का अल्पीकरण, • परक्कमपडिहा।
३. बन्धन प्रतिघात-प्रशस्त औदारिक शरीर आदि की प्राप्ति का अवरोध, ४. भोग प्रतिघात-सामग्री के अभाव में भोग की अप्राप्ति, ५. बल", बीर्य, पुरुषकार और पराक्रमका प्रतिघात।
आजीव-पदं आजीव-पदम्
आजीव-पद ७१. पंचविधे आजीवे पण्णत्ते, तं जहा.- पञ्चविधः आजीवः प्रज्ञप्ताः , ७१. आजीव पांच प्रकार का होता हैतद्यथा
१. जात्याजीव-जाति से जीविका करने जातोआजीवे, कुलाजीवे, जात्याजीवः, कुलाजीव:, कर्माजीवः,
वाला, कम्माजीवे, सिप्पाजीवे, शिल्पाजीव:, लिङ्गाजीवः ।
२. कुलाजीव-कुल से जीविका करने लिंगाजीवे।
वाला, ३. कर्माजीव-कृषि आदि से जीविका करने वाला, ४. शिल्पाजीव-कला से जीविका करने वाला, ५. लिंगाजीव-वेष से जीविका करने
वाला। राय-चिध-पदं राज-चिह्न-पदम्
राज-चिह्न-पद ७२. पंच रायककुधा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च राजककुदानि प्रज्ञप्तानि, ७२. राजचिन्ह पांच प्रकार के होते हैं-- तद्यथा
१. खड्ग, २. छत्र, ३. उष्णीष-मुकुट, खग्गं, छत्तं, उप्फेसं, खड्ग, छत्रं, उष्णीष,
४. जूते, ५. चामर। पाणहाओ, वालवीअणी। उपानहौ, बालव्यजनी।
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ठाणं (स्थान)
५६७
स्थान : सूत्र ७३ उदिण्ण-परिस्सहोवसग्ग-पदं उदीर्ण-परीषहोपसर्ग-पदम् उदीर्ण-परीषहोपसर्ग-पद ७३. पंचर्चाह ठाणेहि छउमत्थे णं उदिण्णे पञ्चभिः स्थानैः छद्मस्थः उदीर्णान् ७३. पांच स्थानों से छद्मस्थ उदित परीषहों परिस्सहोवसग्गे सम्म सहेज्जा परीपहोपसर्गान् सम्यक सहेत क्षमेत
तथा उपसर्गों को अविचल भाव से सहता
है, क्षाति रखता है, तितिक्षा रखता है खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहिया- तितिक्षेत अध्यासीत, तद्यथा
और उनमे अप्रभावित रहता हैसेज्जा, तं जहा१. उदिण्णकम्मे खलु अयं पुरिसे १. उदीर्णकर्मा खलु अयं पुरुषः उन्मत्तक- १. यह पुरुष उदीर्ण कर्मा है, इसलिए यह उम्मत्तगभूते । तेण मे एस पुरिसे भूतः । तेन मां एष पुरुष: आक्रोशति वा
उन्मत्त होकर मुझ पर आक्रोश करता है, अक्कोसति वा अवहसति वा अपहसति वा निश्छोटयति वा निर्भर्त्स
मुझे गाली देता है, मेरा उपहास करता
हैं, मुझे बाहर निकालने की धमकियाँ णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा यति वा बध्नाति वा रुणद्धि वा छविच्छेद
देता है, मेरी निर्भर्त्सना करता है, मुझे बंधेति वा रुभति वा छविच्छेदं करोति वा, प्रमारं वा नयति, उपद्रवति बाँधता है, रोकता है, अंगविच्छेद करता करेति वा, पमारं वा णेति, वा, वस्त्रं वा प्रतिग्रह वा कम्बलं वा है, पमारणमूच्छित करता है, उपद्रत उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं पादप्रोञ्छनं आच्छिनत्ति वा विच्छिनत्ति
करता है. वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोंच्छन
आदि का आच्छेदन" करता है, विच्छेवा कंबलं वा पायपुंछणच्छिदति वा भिनत्ति वा अपहरति वा ।
दन करता है, भेदन करता है या अपवा विच्छिदति वा भिदति
हरण करता है। वा अवहरति वा। २. जक्खाइट्ठ खलु अयं पुरिसे। २. यक्षाविष्ट: खलु अयं पुरुषः । तेन मां २. यह पुरुष यक्षाविष्ट है, इसलिए यह तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा एष पुरुषः आक्रोशति वा अपहसति वा
मुझ पर आक्रोश करता है. मुझे गाली देता
है, मेरा उपहास करता है, मुझे बाहर अवहसति वा णिच्छोडेति वा निश्छोटयति वा निर्भर्त्सयति वा बध्नाति
निकालने की धमकियां देता है, मेरी णिन्भंछेति वा बंधेति वा रु भति वा रुणद्धि वा छविच्छेदं करोति वा,
निर्भर्त्सना करता है, मुझे बांधता है. वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं प्रमारं वा नयति, उपद्रवति वा, वस्त्रं रोकता है, अंगविच्छेद करता है, मूच्छित वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं करता है, उपद्रुत करता है, वस्त्र, पात्र,
कंबल, पादपोंछन आदि का आच्छेदन पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपंछ- आच्छिनत्ति वा विच्छनत्ति वा भिनत्ति
करता है, विच्छेदन करता है, भेदन करता णच्छिदति वा विच्छिदति बा वा अपहरति वा।
है या अपहरण करता है। भिदति वा अवहरति वा। ३. ममं च णं तब्भववेयणिज्जे ३. सम च तदभववेदनीयं कर्म उदीर्ण ३. इस भाव में मेरे वेदनीय कर्म उदित हो कम्मे उदिण्णे भवति । तेण मे एस भवति । तेन मां एष पूरुपः आक्रोशति गए हैं, इसलिए यह पुरुष मुझ पर आक्रोश पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा अपहसति वा निश्छोटयति वा
करता है, मुझे गाली देता है, मेरा उपहास
करता है, मुझे बाहर निकालने की धमवा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा निर्भर्त्सयति वा बध्नाति वा रुणद्धि वा
कियां देता है, मेरी निर्भर्त्सना करता है, बंधेति वा रु भति वा छविच्छेदं छविच्छेदं करोति वा, प्रमारं वा नयति,
मुझे बांधता है, रोकता है, अंगविच्छेद करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ उपद्रवति वा, वस्त्रं वा प्रतिग्रह वा करता है, मूच्छित करता है, उपद्रुत करता वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं आच्छिनत्ति वा
है, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंच्छन आदि वा पायपुंछणमच्छिदति वा विच्छिनत्ति बा भिनत्ति वा अपहरति
का आच्छेदन करता है, विच्छेदन करता
करता है, भेदन करता है या अपहरण विच्छिदति वा भिदति वा वा।
करता है। अवहर्रात वा।
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५६८
ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : सूत्र ७४ ४. ममं व णं सम्ममसहमाणस्स ४. मम च सम्यग् असहमानस्य अक्षम
४. यदि मैं इन्हें अविचल भाव से सहन अखममाणस्स अतितिक्खमाणस्स मानस्य अतितिक्षमाणस्य अनध्यासमा- नहीं करूँगा, क्षान्ति नहीं रखुंगा, तितिक्षा अणधियासमाणस्स कि मण्णे नस्य कि मन्ये क्रियते? एकान्तशः मम नहीं रखूगा और उनसे प्रभावित रहूंगा कज्जति ? एगंतसो मे पावे कम्मे पापं कर्म क्रियते ।
तो मुझे क्या होगा? मेरे एकान्त पापकज्जति।
कर्म का संचय होगा। ५. ममं च णं सम्म सहमाणस्स ५. मम च सम्यक् सहमानस्य क्षममानस्य ५. यदि में अविचल भाव से सहन करूँगा 'खममाणस्स तितिक्खमाणस्स तितिक्षमाणस्य अध्यासमानस्य कि मन्ये क्षान्ति रखूगा, तितिक्षा रखूगा और उन अहियासेमाणस्स कि मण्णे क्रियते ? एकान्तश: मम निर्जरा से अप्रभावित रहूंगा तो मुझे क्या होगा? कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा क्रियते।
मेरे एकान्त निर्जरा होगी। कज्जति । इच्चेतेहि पंचहि ठाणेहि छउमत्थे इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः छद्मस्थः इन पाँच स्थानों से छद्मस्थ उदित उदिण्णे परिसहोवसग्गे सम्म उदीर्णान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहेत परीषहों तथा उपसर्गों को अविचल भाव सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा क्षमेत तितिक्षेत अध्यासीत ।
से सहता है, क्षान्ति रखता है, तितिक्षा अहियासेज्जा।
रखता है और उनसे अप्रभावित रहता है। ७४. पंचर्चाह ठार्गोह केवली उदिण्णे पञ्चभिः स्थानः केवली उदीर्णान् ७४. पाँच स्थानों से केवली उदित परीषहों परिसहोवसग्गे सम्म सहेज्जा परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहेत क्षमेत
और उपसर्गों को अविचल भाव से सहता 'खमेज्जा तितिक्ज्ज्जा अहिया- तितिक्षेत अध्यासीत, तद्यथा
है ---क्षान्ति रखता है, तितिक्षा रखता है सेज्जा, तं जहा
और उनसे अप्रभावित रहता है। १. खित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे। १. क्षिप्तचित्तः खलु अयं पुरुषः । तेन । १. यह पुरुष क्षिप्तचित्त बाला-शोक तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा मां एप पुरुषः आक्रोशति वा अपहसति
आदि से बेभान है, इसलिए यह मुझ पर
आक्रोश करता है, मुझे गाली देता है, 'अव हसति वा णिच्छोडेति वा वा निश्छोटयति वा निर्भर्त्सयति वा
मेरा उपहास करता है, मुझे बाहर णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति बध्नाति वा रुणद्धि वा छविच्छेदं करोति निकालने की धमकियाँ देता है, मेरी वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा, प्रमारं वा नयति, उपद्रवति वा, निर्भर्त्सना करता है, मुझे बांधता है, वा ति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा वस्त्र वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पाद
रोकता है, अंगविच्छेद करता है, मूच्छित पडिमगह वा कंबलं वा पायपछण- प्रोञ्छनं आच्छिनत्ति वा विच्छिनत्ति वा
करता है, उपद्रुत करता है, वस्त्र, पात्र,
कंबल, पादपोंच्छन आदि का आच्छेदन मच्छिदति वा विच्छिदति वा भिनत्ति वा अपहरति वा ।
करता है, विच्छेदन करता है, भेदन करता भिदति वा अवहरति वा।
है या अपहरण करता है। २. दित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे। २. दप्तचित्तः खलु अयं पुरुषः । तेन मां २. यह पुरुष दृप्तचित्त---उन्मत्त है, इस तेण मे एस परिसे अक्कोसति एष पूरुषः आक्रोशति वा अपहसति वा
लिए यह मुझ पर आक्रोश करता है, मुझे वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा निश्छोट यति वा निर्भर्त्सयति वा बध्नाति
गाली देता है, मेरा उपहास करता है, णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा रुणद्धि वा छविच्छेदं करोति वा, मुझे बाहर निकालने की धमकियाँ देता वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं प्रमारं वा नयति, उपद्रवति वा, वस्त्रं है, मेरी निर्भर्त्सना करता है, मुझे बाँधता वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं है, रोकता है, अंगविच्छेद करता है, पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछण
मूच्छित करता है, उपद्रुत करता है, वस्त्र,
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ठाणं (स्थान)
मच्छिदति वा विच्छिदति वा भिदति वा अवहरति वा । ३. जवखाइ खलु अयं पुरिसे । ते मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिन्भंछेति वा बंधेति वा संभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं aria उद्दवे व वत्थं वा पडवा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिदति वा विच्छिदति वा भिदति अवहरति
। ४. ममं च णं तब्भववेय णिज्जे कम्मे उदिष्णे भवति । तेण मे एस पुरिसे 'अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिन्भंछेति वा बंधेति वा संभति वा छविच्छेदं करेति वा पमारं वा ति उद्दवेइ वा, वत्थं ना पडिग्गहं वा कंबलं वा पाय पुंछणर्माच्छदति वा विच्छिदति वादिति वा अवहरति वा ।
५. ममं च णं सम्मं सहमाणं खममाणं तितिवखमाणं अहिया सेमाणं पासेत्ता बहवे अण्णे छउमत्था समणा णिग्गंथा उदिष्णे - उदिष्णे परीस होवस एवं सम्मं स हिस्संति "ख मिस्संति तितिक्खस्संति अहिया सिस्संति ।
इच्चे पंचहि ठाणेहिं केवली उदिष्णे परीसहोवसग्गे सम्मं सहेज्जा' खमेज्जा तितिक्खेज्जा अयि / सेज्जा ।
५६६
आच्छिनत्ति वा विच्छिनत्ति वा भिनत्ति वा अपहरति वा ।
वा
३. यक्षाविष्टः खलु अयं पुरुषः । तेन मां एष पुरुषः आक्रोशति वा अपहसति वा निच्छोटयति वा निर्भर्त्सयति बध्नाति वा रुणद्धि वा छविच्छेदं करोति वा प्रमारं वा नयति, उपद्रवति वा वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं आच्छिनत्ति वा विच्छिनत्ति वा भिनत्ति वा अपहरति वा ।
४. मम च तद्भववेदनीयं कर्म उदीर्ण भवति । तेन मां एष पुरुषः आक्रोशति वा अपहसति वा निरछोटयति वा निर्भर्त्सयति वा बध्नाति वा रुणद्धि वा छविच्छेदं करोति वा प्रमारं वा नयति उपद्रवति वा, वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं आच्छिनत्ति वा विच्छिनत्ति वा भिनत्ति वा अपहरति
वा ।
५. मां च सम्यक् सहमानं क्षममाणं तितिक्षमाणं अध्यासमानं दृष्ट्वा बहवः अन्ये छद्मस्था: श्रमणाः निर्ग्रन्थाः उदीर्णान् उदीर्णान् परीषहोपसर्गान् एवं सम्यक् सहिष्यन्ते क्षमिष्यन्ते तितिक्षिष्यन्ते अध्यासिष्यन्ते ।
इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः केवली उदीर्णान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहेत क्षमेत तितिक्षेत अध्यासीत ।
स्थान ५: सूत्र ७४
पात्र, कंबल, पादप्रोछन आदि का आच्छेदन करता है, विच्छेदन करता है, भेदन करता है या अपहरण करता है। ३. यह पुरुष यक्षाविष्ट है इसलिए यह मुझ पर आक्रोश करता है. मुझे गाली देता है, मेरा उपहास करता है, मुझे बाहर निकालने की धमकियां देता है, मेरी निर्भर्त्सना करता है, मुझे बांधता है, रोकता है, अंगविच्छेद करता है, मूच्छित करता है, उपद्रुत करता है, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोछन आदि का आच्छेदन करना है, विच्छेदन करता है, भेदन करना है या अपहरण करता है,
४. मेरे इस भव में बेदनीय कर्म उदित हो गए हैं इसलिए यह पुरुष मुझ पर आक्रोश करता है, मुझे गाली देता है, मेरा उपहास करता है, मुझे बाहर निकालने की धनकियां देता है, मेरी निर्भर्त्सना करता है, मुझे बांधता है, रोकता है, अंगविच्छेद करता है, मूच्छित करता है, उपद्रूत करता है, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोंछन आदि का आच्छेदन करता है, विच्छेदन करता है, भेदन करता है या अपहरण करता है,
५. मुझे अविचल भाव से परीषहों को सहता हुआ, क्षान्ति रखता हुआ, तितिक्षा रखता हुआ, अप्रभावित रहता हुआ देखकर बहुत सारे छद्मस्थ श्रमण-निर्ग्रन्थ परी षहों और उपसर्गों के उदित होने पर उन्हें अविचल भाव से सहन करेंगे, क्षान्ति रखेंगे, तितिक्षा रखेंगे और उनसे अप्रभावित रहेंगे।
इन पांच स्थानों से केवली उदित परिषहों तथा उपसर्गों को अविचलभाव से सहता है, क्षान्ति रखता है, तितिक्षा रखता है और उनसे अप्रभावित रहता है।
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ठाणं (स्थान)
५७०
स्थान ५: सूत्र ७५-७६
हेउ-पदं
हेतु-पदम् ७५. पंच हेऊ पण्णता, तं जहा- पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
हेउं ण जाणति, हे ण पासति, हेतुं न जानाति, हेतुं न पश्यति, हेउं ण बुज्झति, हेउं णाभिगच्छति, हेतु न बुध्यते, हेतुं नाभिगच्छति, हेउं अण्णाणमरणं मरति। हेतु अज्ञानमरणं म्रियते ।
पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाहेतुना न जानाति, हेतुना न पश्यति, हेतुना न बुध्यते, हेतुना नाभिगच्छति, हेतुना अज्ञानमरणं म्रियते।
७६. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा
हेउणा ण जाणति, 'हेउणा ण पासति, हेउणा ण बुज्झति, हेउणा णाभिगच्छति,
हेउणा अण्णाणमरणं मरति । ७७. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा.-
हे जाणइ, हेउं पासइ, हेउं बुज्झइ हेउं अभिगच्छइ, हे छउमत्थमरणं मरति ।
हेतु-पद ७५. हेतु (परोक्षज्ञानी) पांच हैं ...
१. हेतु को नहीं जानने वाला, २. हेतु को नहीं देखने वाला, ३. हेतु पर श्रद्धा नहीं करने वाला, ४. हेतु को प्राप्त नहीं करने वाला,
५. सहेतुक अज्ञानमरण मरने वाला। ७६. हेतु पांच हैं
१. हेतु से नहीं जानने वाला, २. हेतु से नहीं देखने वाला, ३. हेतु से श्रद्धा नहीं करने वाला, ४. हेतु से प्राप्त नहीं करने वाला,
५. सहेतुक अज्ञानमरण से मरने वाला। ७७. हेतु पांच हैं
१. हेतु को जानने वाला, २. हेतु को देखने वाला, ३. हेतु पर श्रद्धा करने वाला, ४. हेतु को प्राप्त करने वाला,
५. सहेतुक छद्मस्थ-मरण मरने वाला। ७८. हेतु पांच हैं
१. हेतु से जानने वाला, २. हेतु से देखने वाला, ३. हेतु से श्रद्धा करने वाला, ४. हेतु से प्राप्त करने वाला, ५. सहेतुक छद्मस्थ-मरण से मरने वाला।
पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाहेतुं जानाति, हेतुं पश्यति, हेतुं बुध्यते, हेतु अभिगच्छति, हेतु छद्मस्थमरणं म्रियते।
७८. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
हेउणा जाणइ, 'हेउणा पासइ, हेतुना जानाति, हेतुना पश्यति, हेउणा बुज्झइ, हेउणा अभिगच्छइ,° हेतुना बुध्यते, हेतुना अभिगच्छति, हेउणा छउमत्थमरणं मरइ।
हेतुना छद्मस्थमरणं म्रियते ।
अहेउ-पदं ७६. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा
अहेउं ण जाणति, 'अहेउं ण पासति, अहेउं ण बुज्झति, अहेउं णाभिगच्छति, अहेउं छउमत्थमरणं मरति ।
अहेतु-पदम् पञ्च अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअहेतुं न जानाति, अहेतुं न पश्यति, अहेतुं न बुध्यते, अहेतु नाभिगच्छति, अहेतु छद्मस्थमरणं म्रियते।
अहेतु-पद ७६. अहेतु पांच है
१. अहेतु को नहीं जानने वाला, २. अहेतु को नहीं देखने वाला, ३. अहेतु पर श्रद्धा नहीं करने वाला, ४. अहेतु को प्राप्त नहीं मरने वाला, ५. अहेतु छद्मस्थ-मरण मरने वाला।
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५७१
स्थान ५: सूत्र ८०-८४
ठाणं (स्थान) ८०. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा
अहेउणा ण जाणति, •अहेउणा ण पासति, अहेउणा ण बुज्झति, अहेउणा णाभिगच्छति,
अहेउणा छउमत्थमरणं मरति। ८१. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा
अहेउं जाणति, अहेउं पासति, अहेउं बुज्झति, अहेउं अभिगच्छति, अहे केवलिमरणं मरति।
पञ्च अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअहेतुना न जानाति, अहेतुना न पश्यति, अहेतुना न बुध्यते, अहेतुना नाभिगच्छति, अहेतुना छद्मस्थमरणं म्रियते । पञ्च अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअहेतुं जानाति, अहेतुं पश्यति, अहेतुं बुध्यते, अहेतु अभिगच्छति, अहेतु केवलिमरणं म्रियते ।
८०. अहेतु पांच हैं---
१. अहेतु से नहीं जानने वाला, २. अहेतु से नहीं देखने वाला, ३. अहेतु से श्रद्धा नहीं करने वाला, ४. अहेतु से प्राप्त नहीं करने वाला,
५. अहेतुक छद्मस्थ-मरण से मरने वाला। ८१. अहेतु पांच है--
१. अहेतु को जानने वाला, २. अहेतु को देखने वाला, ३. अहेतु पर श्रद्धा करने वाला, ४. अहेतु को प्राप्त करने वाला,
५. अहेतुक केवली-मरण मरने वाला। ८२. अहेतु पांच हैं
१. अहेतु से जानने वाला, २. अहेतु से देखने वाला, ३. अहेतु से श्रद्धा करने वाला, ४. अहेतु से प्राप्त करने वाला, ५. अहेतुक केवली-मरण से मरने वाला।
८२. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा
अहेउणा जाणति, 'अहेउणा पासति, अहेउणा बुज्झति, अहेउणा अभिगच्छति, अहेउणा केवलिमरणं मरति ।
पञ्च अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- अहेतुना जानाति, अहेतुना पश्यति, अहेतुना बुध्यते, अहेतुना अभिगच्छति, अहेतुना केवलिमरणं म्रियते ।
अणुत्तर-पदं अनुत्तर-पदम्
अनुत्तर-पद ८३. केवलिस्स णं पंच अणुत्तरा पण्णत्ता, केवलिनः पञ्च अनुत्तराणि प्रज्ञप्तानि, ८३. केवली के पांच स्थान अनुत्तर हैं -- तं जहातद्यथा
१. अनुत्तर ज्ञान, २. अनुत्तर दर्शन, अणुत्तरे जाणे, अणुत्तरे दसणे, अनुत्तरं ज्ञानं, अनुत्तरं दर्शनं,
३. अनुत्तर चारित्र, ४. अनुत्तर तप, अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, अनुत्तरं चारित्रं, अनुत्तरं तपः,
५. अनुत्तर वीर्य। अणुत्तरे वीरिए।
अनुत्तरं वीर्यम् ।
पंच-कल्लाण-पदं
पञ्च-कल्याण-पदम् ८४. पउमप्पहे णं अरहा पंचचित्ते हुत्था, पद्मप्रभः अर्हन् पञ्चचित्र: अभवत्, तं जहा
तद्यथा१. चित्ताहिं चुते चइत्ता गम्भं १. चित्रायां च्युतः च्युत्वा गर्भ अववक्कते।
कान्तः । २. चित्ताहि जाते।
२. चित्रायां जातः । ३. चित्ताहि मुंडे भवित्ताअगाराओ ३. चित्रायां मुण्डो भूत्वा अगारात् अनअणगारितं पव्वइए।
गारितां प्रवजितः ।
पञ्च-कल्याण-पद ८४. पद्मप्रभ तीर्थकर के पंच-कल्याण चित्रा
नक्षत्र में हुए१. चिवा में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में अवक्रान्त हुए, २. चित्रा नक्षत्र में जन्मे, ३. चित्रा नक्षत्र में मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगार-धर्म में प्रवजित हुए,
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ठाणं (स्थान)
५७२
स्थान ५ : सूत्र ८५-६१ ४. चित्ताहि अणते अणुत्तरे ४. चित्रायां अनन्तं अनुत्तरं निर्व्याघातं ४.चित्रा नक्षत्र में अनन्त, अनुत्तर, णिवाघाए णिरावरणे कसिणे निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवलवर- नियाघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण पडिपुण्णे केवलदरणाणदंसणे ज्ञानदर्शनं समुत्पन्न ।
केवलज्ञानवरदर्शन को संप्राप्त हुए, समुप्पण्णे। ५. चित्ताहिं परिणिव्युत्ते। ५. चित्रायां परिनिर्वृतः ।
५. चित्रा नक्षत्र में परिनिवृत हुए। ८५. पुप्फरते णं अरहा पंचमूले हुत्था, पुष्पदन्त: अर्हन् पञ्चमूलः अभवत्, ८५. पुष्पदन्त तीर्थकर के पंच कल्याण मूल तं जहा.तद्यथा
नक्षत्र में हुएमूलेणं चुते चइत्ता गन्मं वक्कते। मूले च्युतः च्युत्वा गर्भ अवक्रान्तः। मूल में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में
अवक्रान्त हुए। ८६. सीयले णं अरहा पंचपदासाढे शीतल: अर्हन् पञ्चपूर्वाषाढः अभवत्, ८६. शीतल तीर्थंकर के पंच कल्याण पूर्वाषाढा हुत्था, तं जहा तद्यथा
नक्षत्र में हुएपुव्वासाढाहिं चुते चइत्ता गब्भं पूर्वाषाढायां च्युतः च्युत्वा गर्भ अव- पूर्वाषाढा में चुत हुए, च्युत होकर गर्भ वक्कते। क्रान्तः।
में अवक्रान्त हुए। ८७. विमले णं अरहा पंचउत्तराभद्दवए विमलः अर्हन् पञ्चोत्तरभद्रपदः अभवत्, ८७. विमल तीर्थंकर के पंच कल्याण उत्तरभाद्रहुत्था , तं तद्यथा
पद नक्षत्र में हुएउत्तराभवयाहिं चुते चइत्ता गम्भं उत्तरभद्रपदायां च्युतः च्युत्वा गर्भ उत्तरभाद्रपद में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ वक्कते। अवक्रान्तः ।
में अवक्रान्त हुए। ८८. अणंते णं अरहा पंचरेवतिए हुत्था, अनन्तः अर्हन् पञ्चरैवतिकः अभवत्, ८८. अनन्त तीर्थकर के पंच कल्याण रेवती तं जहातद्यथा
नक्षत्र में हुएरेवतिहि चुते चइता गभंवक्कते। रेवत्यां च्युतःच्युत्वाः गर्भ अवक्रान्तः। रेवती में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में
अवक्रान्त हुए। ६. धम्मे गं अरहा पंचयूसे हुत्था, तं धर्मः अर्हन् पञ्चपुष्यः अभवत्, ८९. धर्म तीर्थकर के पंच कल्याण पुष्य नक्षत्र जहातद्यथा
में हुएपूसेणं चुते चइत्ता गम्भं वक्फते। पुष्ये च्युतः च्युत्वा गर्भ अवक्रान्तः। पुष्य में च्युत हुए, धुत होकर गर्भ में
अवक्रान्त हुए। १०. संतीणं अरहा पंचभरणीए हुत्था, शान्तिः अर्हन् पञ्चभरणीकः अभवत्, १०. शान्ति तीर्थकर के पंच कल्याण भरणी तं जहातद्यथा
नक्षत्र में हुएभरणीहिं चुते चइत्ता गम्भं भरण्यां च्युतः च्युत्वा गर्भ अवक्रान्तः । भरणी में चुत हुए, धुत होकर गर्भ में वक्कते।
अवक्रान्त हाए। ६१. कुंथू णं अरहा पंचकतिए हुत्था, कुन्थुः अर्हन् पञ्चकृत्तिकः अभवत्, ६१. कुंथु तीर्थकर के पंच कल्याण कृत्तिका तं जहातद्यथा
नक्षत्र में हुएकत्तियाहिं चुते चइत्ता गम्भं कृत्तिकायां च्युतः क्युत्वा गर्भ अव- कृत्तिका में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में वक्कते। क्रान्तः।
अवक्रान्त हुए।
ST
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५७३
ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : सूत्र ६२-६७ १२. अरे णं अरहा पंचरेवतिए हुत्था, अरः अर्हन् पञ्चरैवतिक: अभवत्, ६२. अर तीर्थकर के पंच कल्याण रेवती नक्षत्र तं जहा.तद्यथा
में हुएरेवतिहिं चुते चइत्ता गभं रेवत्यां च्युतः च्युत्वा गर्भ अवक्रान्तः। रेवती में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में वक्कते।
अवक्रान्त हुए। ६३. मुणिसुव्वएणं अरहा पंचसवणे हुत्था, मुनिसुव्रतः अर्हन् पञ्चश्रवणः अभवत्, ६३. मुनिसुव्रत तीर्थंकर के पंच कल्याण श्रवण तं जहातद्यथा
नक्षत्र में हुएसवणेणं चुते चइत्ता गम्भं वक्कते। श्रवणे च्युतः च्युत्वा गर्भ अवक्रान्तः। श्रवण में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में
अवक्रान्त हुए। १४. णमी णं अरहा पंचआसिणीए नमिः अर्हन पञ्चाश्विनीकः अभवत्, ६४. नमि तीर्थंकर के पंच कल्याण अश्विनी हुत्था, तं जहातद्यथा
नक्षत्र में हुएआसिणीहिं चुते चइत्ता गम्भं अश्विन्यां च्युतः च्युत्वा गर्भ अवक्रान्तः। अश्विनी में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में वक्कते।
अवक्रान्त हुए। ६५. णेमी णं अरहा पंचचित्ते हुत्था, नेमिः अर्हन् पञ्चचित्रः अभवत्, १५. नेमि तीर्थकर के पंच कल्याण चित्रा तं जहातद्यथा
नक्षत्र में हुएचित्ताहिं चुते चइत्ता गम्भ चित्रायां च्युतः च्युत्वा गर्भ अवक्रान्तः। चित्रा में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में वक्कते।
अवक्रान्त हुए। ६६. पासे णं अरहा पंचविसाहे हुत्था, पार्श्व: अर्हन् पञ्चविशाखः अभवत, ६६. पार्श्व तीर्थंकर के पंच कल्याण विशाखा तं जहातद्यथा
नक्षत्र में हुएविसाहाहि चुते चइत्ता गर्भ विशाखायां च्युतः च्युत्वा गर्भ अव- विशाखा में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में वक्कते। कान्तः ।
अवक्रान्त हुए। ६७. समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे
श्रमणः भगवान् महावीर: पञ्च- ६७. श्रमण भगवान् महावीर के पंच कल्याण होत्था, तं जहाहस्तोत्तरः अभवत्, तद्यथा
हस्तोत्तर [उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में १. हत्थुत्तराहि चुते चइत्ता गभं १. हस्तोत्तरायां च्युतः च्युत्वा गर्भ । वक्कते। अवक्रान्तः।
१. हस्तोत्तर नक्षत्र में च्युत हुए, च्युत २. हत्थुतराहि गब्भाओ गभं २. हस्तोत्तरायां गर्भात् गर्भ संहृतः। होकर गर्भ में अवक्रान्त हुए। साहरिते।
२. हस्तोत्तर नक्षत्र में देवानंदा के गर्भ से ३. हत्थुत्तराहि जाते। ३. हस्तोत्तरायां जातः।
त्रिशला के गर्भ में संहृत हुए। ४. हत्थत्तराहि मुंडे भवित्ता ४. हस्तोत्तरायां मुण्डो भूत्वा अगारात् ३. हस्तोत्तर नक्षत्र में जन्मे। •अगाराओ अणगारित पव्वइए। अनगारितां प्रव्रजितः।
४. हस्तोतर नक्षत्र में मुण्डित होकर अगार५. हत्युत्तराहि अणंते अणुत्तरे ५. हस्तोतरायां अनन्तं अनुत्तरं निर्व्या- धर्म से अनगार-धर्म में प्रव्रजित हुए, "णिव्याधाए णिरावरणे कसिणे घातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवल- ५. हस्तोत्तर नक्षत्र में अनन्त, अनुत्तर, पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे वरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् ।
निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण समुप्पण्णे।
केवलज्ञानवरदर्शन को संप्राप्त हुए।
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ठाणं (स्थान)
५७४
स्थान ५: सूत्र९८-88
बीओ उद्देसो
महाणदो-उत्तरण-पदं महानदी-उत्तरण-पदम्
महानदी-उत्तरण-पद १८. णो कप्पइ णिग्गंथाणं वा णिग्गं- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ६८. निर्ग्रन्थ और निग्रंन्थियों को महानदी के
थीण वा इमाओ उद्दिवाओ गणि- इमाः उद्दिष्टाः गणिताः व्यजिताः पञ्च रूप में कथित, गणित और प्रख्यात इन याओ वियंजियाओ पंच महण्ण- महार्णवा महानद्यः अन्त: मासस्य पांच महार्णव महानदियों का महीने में दो वाओ महाणदीओ अंतो माणस्स द्विकृत्वो वा त्रिकृत्वो वा उत्तरीतुं वा बार या तीन बार से अधिक उत्तरण तथा दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए संतरीतुं वा, तद्यथा
संतरण नहीं करना चाहिए जैसेवा संतरित्तए वा, तं जहा
१. गंगा, २. यमुना, ३. सरयू, गंगा, जउणा, सरऊ, एरावती, गङ्गा, यमुना, सरयू:, ऐरावती, मही। ४. ऐरावती, ५. मही। मही।
पांच कारणों से वह किया जा सकता हैपंचहि ठाणेहि कप्पति, तं जहा- पञ्चभिः स्थानैः कल्पते, तद्यथा- १. शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का १. भयंसि वा, १. भये वा,
भय होने पर, २. दुभिक्खंसि वा, २. दुर्भिक्षे वा,
२. दुर्भिक्ष होने पर, ३. पव्वहेज्ज वा णं कोई, ३. प्रव्यपयेत् (प्रवायेत् ) वा कश्चित्, ३. किसी के द्वारा व्यथित या प्रवाहित ४. दओघंसि वा एज्जमाणंसि ४. उदकौघे वा आयति महता वा, किए जाने पर, महता वा,
४. बाढ़ आ जाने पर, ५. अणारिएसु। ५. अनार्यः ।
५. अनार्यों द्वारा उपद्रत किए जाने पर।
पढमपाउस-पदं प्रथम प्रावृट-पदम्
प्रथम प्रावृट-पद हह. णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गं- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ६६. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को प्रथम प्रावट
थीण वा पढमपाउसंसि गामाणु- प्रथमप्रावृषि ग्रामानुग्रामं द्रदितुम् । चातुर्मास के पूर्वकाल में ग्रामानुग्राम गामं दूइज्जित्तए।
विहार नहीं करना चाहिए। पांच कारणों पंचहि ठाणेहि कप्पइ, तं जहा.- पञ्चभिः स्थानैः कल्पते, तद्यथा- से वह किया जा सकता है। १. भयंसि वा, १. भये वा,
१.शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का २. दुभिक्खंसि वा, २. दुभिक्षे वा,
भय होने पर, ३. 'पव्वहेज्ज वाणं कोई, ३. प्रव्यपयेत् (प्रवाहयेत्) वा कश्चित्, २. दुर्भिक्ष होने पर, ४. दओघंसि वा एज्जमाणंसि० ४. उदकौघे वा आयति महता वा, ३. किसी के द्वारा व्यथित-ग्राम से महता वा,
निकाल दिए जाने पर, ५. अणारिएहि । ५. अनार्यः ।
४. बाढ़ आ जाने पर, ५. अनायों द्वारा उपद्रत किए जाने पर।
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ठाणं (स्थान)
वासावास-पदं
१००. वासावासं पज्जोसविताणं णो कम्पs णिग्गंक्षण वा णिग्गंथीण वा गामाणुगामं दूइज्जित्तए ।
पंचहि ठाणे कप, तं जहा
१. णाणट्टयाए,
२. दंसणयाए,
३. चरितट्टयाए,
४. आयरिय उवज्झाया वा से वीसुंभेज्जा |
५. आयरिय उवज्झायाण
बहिता आवच्चकरणयाए ।
जहा — हत्थकम् करेमाणे,
मेहुणं पडिसेवेमाणे,
राती भोयणं भुंजेमाणं, सागारियपिडं भुजेमाणे
र्याप भुंजे माणे ।
वा
रायंतेउर-पवेस--पदं
१०२. पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे रायं उरमपविसमाणे णाइक्कमति,
५७५
अणुग्घातिय-पदं
अनुद्घात्य-पदम्
अनुद्घात्य-पद
१०१. पंच अणुग्धातिया पण्णत्ता, तं पञ्च अनुद्घात्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १०१. पांच अनुद्घातिक [गुरु प्रायश्चित्त के
योग्य होते हैं
]
१. हस्तकर्म करने वाला,
२. मैथन की प्रतिसेवना करने वाला,
३. रात्रि भोजन करने वाला,
४. सागारिकापिंड [ शय्यातरपिंड ] का भोजन करने वाला,
५. राजपिंड का भोजन करने वाला ।
तं जहा -
१. नगरे सिया सव्वतो समंता गुत्तवारे, बहवे समणमाहणा संचारति भत्ता वा पाणाए वा णिक्खमित्त वा पविसित्तए वा, तेसि विष्णवणट्टयाए रायंतेउरमणुपविसेज्जा ।
वर्षावास-पदम्
वर्षावासं पर्युषितानां नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ग्रामानुग्रामं द्रवितुम् ।
पञ्चभिः स्थानः कल्पते, तद्यथा--- १. ज्ञानार्थाय
२. दर्शनार्थाय
३. चरित्रार्थाय
४. आचार्योपाध्यायौ वा तस्य विष्वग्भवेतां,
५. आचार्योपाध्याययोः वा बहिस्तात् वैयावृत्त्यकरणाय ।
हस्तकर्म कुर्वन्,
मैथुनं प्रतिमाणः,
रात्रिभोजनं भुञ्जानः, सागारिकपिण्डं भुञ्जानः, राजपिण्डं भुञ्जानः ।
राजान्तःपुर-प्रवेश-पदम्
पञ्चभिः स्थानैः श्रमणः निर्ग्रथः राजान्तःपुरं अनुप्रविशन् नातिक्रामति, तद्यथा---
१. नगरं स्यात् सर्वतः समन्तात् गुप्तं गुप्तद्वारं, बहवः श्रमणमाहणाः नो शक्नुवन्ति भक्ताय वा पानाय वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, तेषां विज्ञापनार्थाय राजान्तःपुरं अनुप्रविशेत् ।
स्थान ५ : सूत्र १०० - १०२
वर्षावास - पद
१००. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को वर्षावास में पर्युषणा कल्पपूर्वक निवास कर ग्रामानुग्राम विहार नहीं करना चाहिए। पांच कारणों से वह किया जा सकता है? १. ज्ञान के लिए, २. दर्शन के लिए, ३. चरित्र के लिए, ४. आचार्य या उपा ध्याय की मृत्यु के अवसर पर,
५. वर्षाक्षेत्र से बाहर रहे हुए आचार्य या उपाध्याय का वैयावृत्त्य करने के लिए ।
राजान्तःपुरप्रवेश पद
१०२. पांच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ राजा के अन्तःपुर में अनुप्रविष्ट होता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ---
१. यदि नगर चारों ओर परकोटे से घिरा हुआ हो तथा उसके द्वार बन्द कर दिए गये हों, बहुत सारे श्रमण और माहन भोजन-पानी के लिए नगर से बाहर निष्कमण और प्रवेश न कर सकें, उस स्थिति में उनके प्रयोजन का विज्ञापन करने के लिए वह राजा के अन्तःपुर में अनुप्रविष्ट हो सकता है,
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ठाणं (स्थान)
२. पाडिहारियं वा पीढ - फलगसेज्जा - संथारगं राउर मणुपवसेज्जा ।
पच्च पिणमाणे
३. हयस्स वा गयस्स वा दुट्ठस्स आगच्छमाणस्स भीते रायंतेउरgat |
४. परो व णं सहसा वा बलसा वा बाहाए गहाय रायंतेउरमणुपवेसेज्जा ।
५. बहिता व णं आरामगयं वा उज्जाणगयं वा रायंते उरजणो सव्वतो समता संपरिक्खिवित्ता णं सणिवेसिज्जाइच्चे हि पंचहि ठाणेहि सम friथे 'रायंते उरमणुपविसमाणे णातिक्कमइ ।
गभधरण-पदं
१०३. पंचहि ठाणेह इत्थी पुरिसेण सद्धि असंवसमाणीवि गन्भं धरेज्जा, तं
जहा -
९. इत्थी दुब्बियडा दुण्णिसण्णा सुक्कपोगले अधिद्विज्जा ।
२. सुक्कपोग्गलसंसिद्धे व से वत्थे अंतोजोणीए अणुपवेसेज्जा । ३. सई वा से सुक्कपोग्गले अणुपवेसेज्जा |
४. परो व से सुक्कपोग्गले अणुपवेसेज्जा |
५७६
२. प्रातिहारिकं वा पीठ - फलक-शय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयन् राजान्तः पुरमनुप्रविशेत् ।
३. हयस्य वा गजस्य वा दुष्टस्य आगच्छतः भीतः राजान्तःपुरं अनुप्रविशेत् ।
४. परो वा सहसा वा बलेन वा बाहून् गृहीत्वा राजान्तः पुरं अनुप्रवेशयेत् ।
५. बहिस्तात् वा आरामगतं वा उद्यानगतंवा राजान्तःपुरजनो सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य सन्निविशेत्इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः श्रमणः निर्ग्रन्थः राजान्तःपुरं अनुप्रविशन् नातिक्रामति ।
गर्भधरण-पदम्
पञ्चभिः स्थानैः स्त्रीः पुरुषेण सार्धं असंवसन्त्यपि गर्भं धरेत्, तद्यथा
१. स्त्री दुर्विवृता दुर्निषण्णा शुक्रपुद्गलान् अधितिष्ठेत् ।
२. शुक्रपुद्गलसंसृष्टं वा तस्याः वस्त्रं अन्तः योन्यां अनुप्रविशेत् ।
३. स्वयं वा सा शुक्रपुद्गलान् अनुप्रवेशयेत् ।
४. परो वा तस्याः शुक्रपुद्गलान् अनुप्रवेशयेत् ।
स्थान ५ : सूत्र १०३
२. प्रातिहारिक" पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक को वापस देने के लिए राजा के अन्तःपुर में अनुप्रविष्ट हो सकता है, ३. दुष्ट घोड़े या हाथी आदि के सामने आ जाने पर रक्षा के लिए राजा के अन्तःपुर में अनुप्रविष्ट हो सकता है, ४. कोई अन्य व्यक्ति अचानक बलपूर्वक पकड़ कर ले जाए तो राजा के अन्त:पुर में अनुप्रविष्ट हो सकता है, ५. कोई साधु नगर के बाहर आराम" या उद्यान" में ठहरा हुआ हो और वहां क्रीड़ा करने के लिए राजा का अन्तःपुर आ जाए, राजपुरुष उस आराम को घेर लें - निर्गम व प्रवेश बन्द कर दें, उस स्थिति में वह वहीं रह सकता है।
इन पांच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ राजा
के अन्तःपुर में अनुप्रविष्ट होता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ।
गर्भधरण-पद
१०३. पांच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास न करती हुई गर्भ को धारण कर सकती है"-- १. अनावृत तथा दुर्निषण्ण - पुरुष वीर्य
से
संसृष्ट स्थान को गुह्य 'प्रदेश से आक्रांत कर बैठी हुई स्त्री के योनि देश में शुक्र पुद्गलों का आकर्षण होने पर,
२. शुक्र- पुद्गलों से संसृष्ट वस्त्र के योनि - देश में अनुप्रविष्ट हो जाने पर,
३. पुत्रार्थिनी होकर स्वयं अपने ही हाथों से शुत्र- पुद्गलों को योनि- देश में प्रविष्ट कर देने पर,
अनु
४. दूसरों के द्वारा शुक्र- पुद् गलों के योनिदेश में अनुप्रविष्ट किए जाने पर,
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वेसेज्जा
ठाणं (स्थान)
५७७
स्थान ४ : सूत्र १०४-१०६ ५. सीओदगवियडेण वा से आयम- ५. शीतोदकविकटेन वा तस्याः आचा- ५. नदी, तालाब आदि में स्नान करती माणीए सुक्कपोग्गला अणुप- मन्त्योः शुक्रपुद्गलाः अनुप्रविशेयु:- हुई के योनि-देश में शुक्र-पुद्गलों के अनु
प्रविष्ट हो जाने पर। इच्चेतेहि पंचहि ठाणेहि इत्थी इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः स्त्री पुरुषेण । इन पांच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास पुरिसेणं सद्धि असंक्समाणीवि साधू असंवसन्ती गर्भ धरेत् ।
न करती हुई भी गर्भ को धारण कर गब्भं धरेन्जा।
सकती है। १०४. पंचहि ठाणेहि इत्थी पुरिसेण सद्धि पञ्चभिः स्थानः स्त्री पुरुषेण सार्ध १०४. पांच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास
संबसमाणीवि गबमं जो धरेज्जा, संवसन्त्यपि गर्भ नो धरेत्, तद्यथा-- करती हुई भी गर्भ को धारण नहीं करती-- तं जहा१. अप्पत्तजोवणा। १. अप्राप्त यौवना।
१. पूर्ण युबति" न होने से, २. अतिकंतजोव्वणा। २. अतिक्रान्तयौवना।
२. विगतयौवना" होने से, ३. जातिवंझा। ३. जातिबन्ध्या।
३. जन्म से ही वध्या होने से, ४. गेलण्णपुट्ठा। ४. ग्लानस्पृष्टा।
४. रोग से स्पृष्ट होने से, ५. दोमणंसिया५. दौर्मनस्यिका
५. शोकग्रस्त होने से। इच्चेतेहि पंचहि ठाणेहि "इत्थी इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः स्त्री पुरुषेण इन पांच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास पुरिसेण सद्धि संवसमाणीवि गभं° साधू संवसन्त्यपि गर्भ नो धरेत्। करती हुई भी गर्भ को धारण नहीं करसकती।
णो धरेज्जा। १०५. पंचहि ठाणेहि इत्थी पुरिसेण सद्धि पञ्चभिः स्थानैः स्त्री पुरुषेण साधू संव- १०५. पांच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास
संवसमाणीवि णो गम्भं धरेज्जा, सन्त्यपि नो गर्भ धरेत्, तद्यथा- करती हुई भी गर्भ को धारण नहीं करतीतं जहा१. णिच्चोउया। १. नित्यर्तुका।
१. सदा ऋतुमती रहने से, २. अणोउया। २. अनृतुका।
२. कभी भी ऋतुमती न होने से, ३. वाणण्णसोया। ३. व्यापन्नश्रोताः।
३. गर्भाशय के नष्ट हो जाने से, ४. वाविद्ध सोया। ४. व्याविद्धश्रोताः।
४. गर्भाशय की शक्ति के क्षीण हो जाने से, ५. अणंगपडिसेवणी५. अनङ्गप्रतिषेविणी
५. अप्राकृतिक काम-क्रीड़ा करने, अत्यइच्चेतेहि 'पंचहि ठाणेहं इत्थी इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः स्त्री पुरुषेण । धिक पुरुष सहवास करने या अनेक पुरुषों पुरिसेण सद्धि संवसमाणीवि गब्धं साधू संवसन्त्यपि गर्भ नो धरेत्। का सहवास करने से। गोधरेज्जा।
इन पांच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास करती हुई भी गर्भ को धारण नहीं कर
सकती। १०६. पंचहि ठाणेहि इत्थी पुरिसेण सद्धि पभिः स्थानैः स्त्री पुरुषेण साध संव- १०६. पांच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास संवसमाणीवि गम्भं णो धरेज्जा, सन्त्यपि गर्भ नो धरेत्, तद्यथा
करती हई भी गर्भ को धारण नहीं करतीतं जहा
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ठाणं (स्थान)
५७८
स्थान ५: सूत्र १०७
१. उउंमि णो णिगामपडिसेविणी १. ऋतौ नो निकामप्रतिषेविणी चापि यावि भवति।
भवति। २. समागता वा से सुक्कपोग्गला २. समागता वा तस्याः शुक्रपुद्गलाः पडिविद्धंसंति।
परिविध्वंसन्ते। ३. उदिपणे वा से पित्तसोणिते। ३. उदीर्ण वा तस्याः पित्तशोणितम । ४. पुरा वा देवकम्मणा। ४. पुरा वा देवकर्मणा। ५. पुत्तफले वाणो णिविट्ठ भवति- ५. पुत्रफले वा नो निर्दिष्टो भवति.... इच्चेतेहि पंचहि ठाणेहि इत्थी इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः स्त्री पुरुषण साधं । पुरिसेण सद्धि संवसमाणीवि गभं° संवसन्त्यपि गर्भ नो धरेत् । णो धरेज्जा ।
१. ऋतुकाल में वीर्यपात होने तक पुरुष का प्रतिसेवन नहीं करने से, २. समागत शुक्र-पुद्गलों के विध्वस्त हो जाने से, ३. पित्त-प्रधान शोणित के उदीर्ण हो जाने से, ४. देव-प्रयोग से, ५. पूर्व फलदायी कर्म के अजित न होने से। इन पांच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास करती हुई भी गर्भ को धारण नहीं कर सकती।
णिगंथ-णिग्गंथो-एगओवास-पदं निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी-एकत्रवास-पदम् निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी-एकत्रवास-पद १०७. पंचहि ठाणेहि णिग्गंथीओ य पञ्चभिः स्थानः निर्ग्रन्थाः निर्ग्रन्थ्यः च १०७. पांच स्थानों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां
एगतओ ठाणं वा सेज्ज वाणिसी- एकतः स्थानं वा शय्यां वा निषीधिका एक स्थान पर कायोत्सर्ग, शयन तथा हियं वा चेतेमाणा गातिक्कमति वा कुर्वन्तो नातिकामन्ति, तद्यथा- स्वाध्याय करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण तं जहा
नहीं करते१. अत्थेगइया णिगंथा य १. सन्त्येके निर्ग्रन्थाश्च निम्रन्थ्यश्च एकां १. कदाचित् कुछ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां णिगंथोओ य एग महं अगामियं महती अग्रामिकां छिन्नापातां दीर्घा- किसी विशाल, वस्तीशून्य, आवागमनछिण्णावायं दोहमद्धमउविमणु- ध्वानं अटवों अनुप्रविष्टाः, तत्रैकतः रहित तथा लम्बी अटवी में अनुप्रविष्ट हो पविट्ठा, तत्थेगयतो ठाणं वा सज्जं स्थानं वा शय्यां वा निषीधिकां वा जाने पर वहां एक स्थान पर कायोत्सर्ग, वाणिसीहियं वा चेतेमाणा कुर्वन्तो नातिकामन्ति।
शयन तथा स्वाध्याय करते हुए आज्ञा का णातिक्कमति।
अतिक्रमण नहीं करते, २.अत्थेगया णिगंथा यणिगं- २. सन्त्येके निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्याश्च ग्रामे २. कदाचित् कुछ निर्ग्रन्थ और निन्थियां थीओ व गामसि वा गरंसि वा नगरे वा खटे वा कर्बटे वा मडम्बे ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, पत्तन, वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आकरे वा आकर, द्रोणमुख, निगम, आश्रम, सन्निवेश मडंबंसि वापदणं सि वादोणमुहंसि निगमे वा आश्रमे वा सन्निवेशे वा और राजधानी में गए। वहां दोनों में से वा आगरंसि वाणिगमंसि वा राजधान्यां वा वासं उपागता: एको
किसी वर्ग को उपाश्रय मिले या किसी को आसमंसि वा सपिणवेसंसि वा यत्र उपाश्रयं लभन्ते, एको नो लभन्ते, न मिले तो वे एक स्थान पर कायोत्सर्ग, रायहाणिसि वा वासं उवागता, तत्रैकतः स्थानं वा शय्यां वा निषीधिकां शयन तथा स्वाध्याय करते हुए आज्ञा एगतिया जत्थ उवस्सयं लभंति, वा कुर्वन्तो नातिकामन्ति ।
का अतिक्रमण नहीं करते, एगतिया णो लभंति, तत्थेगतो ठाणं वा सेज्ज वा मिसीहियं वा चेतेमाणाणातिक्कमंति।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ५:सूत्र १०८ ३. अत्थेगइया णिग्गंथा य णिग्ग- ३. सन्त्येके निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च । ३. कदाचित् कुछ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां थीओ य णागकुमारावासंसि वा नागकुमारावासे वा सुपर्णकुमारावासे । नागकुमार आदि के आवास में रहें। वहां सुवष्णकुमारावासंसि वा वासं वा वासं उपागताः, तत्रैकतः स्थानं वा अतिविजनता होने के कारण निर्ग्रन्थियों उवागता, तत्थेगओ 'ठाणं वा शय्यां वा निषिधीकां वा कुर्वन्तो नाति- की सुरक्षा के लिए एक स्थान पर कायोसेज्ज वा णिसीहियं वा चेतेमाणा° कामन्ति।
त्सर्ग, शयन तथा स्वाध्याय करते हुए णातिक्कमंति।
आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते, ४. आमोसगा दीसंति, ते इच्छंति ४. आमोषका दृश्यन्ते, ते इच्छन्ति ४. कहीं चोर बहुत हों और वे निर्ग्रन्थियों णिग्गंथीओ चीवरपडियाए पडि- निर्ग्रन्थीः चीवरप्रतिज्ञया परिग्रहीतुम्, के वस्त्रों को चुराना चाहते हों, वहां गाहित्तए, तत्थेगओ ठाणं वा तत्रैकतः स्थानं वा शय्यां वा निषीधिकां निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां एक स्थान पर 'सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेमाणा° वा कुर्वन्तो नातिकामन्ति ।
कायोत्सर्ग, शयन तथा स्वाध्याय करने णातिक्कमंति।
हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। ५. जुवाणा दोसंति, ते इच्छंति ५. युवानो दृश्यन्ते, ते इच्छन्ति निर्ग्रन्थी: । ५. कहीं युवक बहुत हों और वे निर्ग्रन्थियों णिग्गंथीओ मेहुणपडियाए पडिगा- मैथुनप्रतिज्ञया प्रतिग्रहीतुम्, तत्रैकत: । के ब्रह्मचर्य को खण्डित करना चाहते हों, हित्तए, तत्थेगओ ठाणं वा 'सेज्जं स्थानं वा शय्यां वा निषीधिकां वा वहां निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां एक स्थान वा णिसीहियं वा चेतेमाणा कुर्वन्तो नातिकामन्ति ।
पर कायोत्सर्ग, शयन तथा स्वाध्याय करते णातिक्कमंति।
हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। इच्चेतेहि पंचहि ठाणेहि •णिग्गंथा इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः निर्ग्रन्थाश्च इन पांच स्थानों से निर्ग्रन्थ और निग्रंथियां णिग्गंथीओ य एगतओ ठाण वा निर्ग्रन्थ्यश्च एकतः स्थानं वा शय्यां वा एक स्थान पर कायोत्सर्ग, शयन तथा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेमाणा' निषीधिकां वा कुर्वन्तो नातिकामन्ति । स्वाध्याय करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण णातिक्कमति।
नहीं करते। १०८. पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे पञ्चभि: स्थानः श्रमणः निर्ग्रन्थः १०८. पांच स्थानों से अचेल निर्ग्रन्थ सचेल
अचेलए सचेलियाहि णिग्गंथीहि अचेलक: सचेलकाभिः निर्ग्रन्थीभिः साध निर्ग्रन्थियों के साथ रहते हुए आज्ञा का सद्धि संवसमाणे णाइक्कमति, तं संवसन् नातिकामति, तद्यथा--- अतिक्रमण नहीं करते--- जहा१. खित्तचित्ते समणे णिग्गंथे १. क्षिप्तचित्तः श्रमणः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थेषु १. शोक आदि से क्षिप्तचित निर्यन्थ, णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहि अचेलए अविद्यमानेषु अचेलक: सचेलकाभिः अन्य निर्ग्रन्थों के न होने पर, स्वयं अचेल सचेलियाहि णिग्गंथीहि सद्धि निर्ग्रन्थीभिः साध संबसन् नातिकामति।। होते हए, सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता संवसमाणे णातिक्कमति।
हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता, २. 'दित्तचित्ते समणे णिग्गंथे २. दृप्तचित्तःश्रमणः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थेषु २. हर्ष आदि से दृप्तचित्त निर्ग्रन्थ, अन्य णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहि अचेलए अविद्यमानेषु अचेलक: सचेलकाभि: निर्ग्रन्थों के न होने पर, स्वयं अचेल होते सचेलियाहि णिग्गंथीहिं सद्धि निर्ग्रन्थीभिः सार्ध संवसन् नातिकामति । हए, सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ संवसमाणे णातिक्कमति ।
आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता,
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ठाणं (स्थान)
३. जक्खाइ समणे णिग्गंथे थे हम विज्जमा अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथी हिं सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति । ४. उम्मायपत्ते समणे णिग्गंथे friथेहिम विज्जमाह अचेलए सचेलियाहि frain सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति ।" ५. ग्गिंथपव्वाइयए समणेणिग्गंथे furice अजिमाह अचेलए सचेलियाहि णिग्गंथीहिं सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति ।
११०. पंच संघरदारा पण्णत्ता, तं जहा - संमत्तं विरती, अपभादो, अकसाइत्तं, अजोगित्तं ।
आसव-संवर-पदं
आश्रव-संवर-पदम्
१०६. पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा - पञ्चाश्रवद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— मिच्छतं, अविरतो, पमादो, मिथ्यात्वं अविरतिः, प्रमादः, कषायाः, कसाया, जोगा । योगाः ।
दंड-पदं
पंच दंडा पण्णत्ता, तं जहाअट्ठादंडे, अणद्वादंडे, हिंसादंडे, अकस्मादंडे, परिया सियादंडे |
१११.
५८०
३. पक्षाविष्टः श्रमणः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थेषु अविद्यमानेषु अचेलकः सचेलकाभिः निर्ग्रन्थिभिः सार्धं संवसन् नातिक्रामति ।
४. उन्मादप्राप्तः श्रमणः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थेषु अविद्यमानेषु अचेलकः सचेलकाभिः निर्ग्रन्थीभिः सार्धं संवसन् नातिक्रामति ।
५. निर्ग्रन्थीप्रव्राजितकः श्रमणः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थेषु अविद्यमानेषु अचेलकः सचेलकाभिः निर्ग्रन्थीभिः सार्धं संवसन् नातिक्रामति ।
पञ्च संवरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा—११०. सम्यक्त्वं, विरतिः, अप्रमादः, अकषायित्वं, अयोगित्वम् ।
दण्ड-पदम्
पञ्च दण्डाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअर्थदण्डः, अनर्थदण्डः, हिसादण्डः, अकस्माद्दण्डः, दृष्टिविपर्यासिकीदण्डः ।
स्थान ५ : सूत्र १०६-१११
३. यक्षाविष्ट निर्ग्रन्थ, अन्य निर्ग्रन्थों के न होने पर स्वयं अचेल होते हुए, सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता,
४. वायु प्रकोप आदि से उन्मत निर्ग्रन्थ, अन्य निर्ग्रन्थों के न होने पर, स्वयं अचेल होते हुए, सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता,
५. निर्ग्रन्थियों द्वारा प्रव्रजित निर्ग्रन्थ, अन्य निर्ग्रन्थों के न होने पर, स्वयं अचेल होते हुए, , सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता
हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ।
आश्रव-संवर-पद
१०६. आश्रवद्वार पांच हैं-
१. मिथ्यात्व - विपरीत तत्त्वश्रद्धा, २. अविरति---अत्यागवृत्ति,
३. प्रमाद--आत्मिक अनुत्साह,
४. कषाय आत्मा का राग-द्वेषात्मक
उत्ताप, ५. योग मन, वचन और काया का व्यापार ।
संवरद्वार पांच हैं—
१. सम्यक्त्व सम्यक् तत्त्वश्रद्धा, २. विरति-त्यागभाव,
३. अप्रमाद आत्मिक उत्साह,
४. अकषाय-राग-द्वेष से निवृत्ति,
५. अयोग - प्रवृत्ति निरोध ।
दण्ड- पद
१११. दण्ड पांच है
१. अर्थदण्ड प्रयोजवनश अपने या दूसरों के लिए उस या स्थावर प्राणियों की हिमा करना, २ . अनर्थदण्ड निष्प्रयोजन हिंसा करना, ३ . हिंसादण्ड - यह मुझे मार रहा है, मारेगा या इसने मुझको मारा था इसलिए हिंसा करना, ४. अकस्मात् दण्ड एक के वध के लिए प्रहार करने पर दूसरे का वध हो जाना । ५. दृष्टिविपर्यासदण्डमित्र को अमित जानकर दण्डित करना ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ५: सूत्र ११२-११८
किरिया-पदं क्रिया-पदम्
क्रिया-पद ११२. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं पञ्च क्रिया: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ११२. क्रिया पांच प्रकार की हैं"जहा
आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, आरंभिया, पारिग्गहिया, अप्रत्याख्यानक्रिया, मिथ्यादर्शनप्रत्यया। ३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया, मायावत्तिया,
५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया। अपच्चक्रवाणकिरिया,
मिच्छादसणवत्तिया। ११३. मिच्छादिट्टियाणं णेरइयाणं पंच मिथ्यादृष्टिकानां नैरयिकानां पंच ११३. मिथ्यादृष्टि नैरयिकों के पांच क्रियाएं किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- क्रिया: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होती हैं'आरंभिया, पारिश्गहिया, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी,
१. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, मायावत्तिया,
मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया, ३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिथ्यादर्शनप्रत्यया।
५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया। मिच्छादसणवत्तिया। ११४. एवं—सव्वेसि गिरंतरं जाव एवम् ...सर्वेषां निरन्तरं यावत् मिथ्या- ११४. इसी प्रकार विकलेन्द्रियों तथा शेष सभी
मिच्छहिटियाणं वेमाणियाणं, दृष्टिकानां वैमानिकानां, नवरं- मिथ्यादृष्टि बाले दण्डकों में पांचों ही णवरं विलिदिया मिच्छट्ठिी विकलेन्द्रिया मिथ्यादृष्टयो न भण्यन्ते। क्रियाएं होती है।
ण भण्णं ति । सेसं तहेव। शेषं तथैव । ११५. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं पंच क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ११५. क्रिया पांच प्रकार की है.--. जहा
१. कायिकी, २. आधिकरणिकी, काइया, आहिगरणिया, कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादौषिकी, ३. प्रादोषिकी, ४. पारितापनिकी, पाओसिया, पारितावणिया, पारितापनिकी, प्राणातिपातक्रिया । ५. प्राणातिपातक्रिया।
पाणातिवातकिरिया। ११६. णेरइयाणं पंच एवं चेव। नैरयिकाणां पञ्च एवं चैव । ११६. सभी दण्डकों में ये पांच क्रियाएं होती
एवं—णिरंतरं जाव वेमाणियाणं। एवम्-निरन्तरं यावत् वैमानिकानाम्। है। ११७. पंच किरियाओ पण्णताओ, तं पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ११७. क्रिया पांच प्रकार की है जहा.आरम्भिकी, पारिग्रहिकी,
१. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, आरंभिया, 'पारिग्गहिया, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया, ३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया, मायावत्तिया, मिथ्यादर्शनप्रत्यया।
५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया । अपच्चक्खाणकिरिया,
मिच्छादसणवत्तिया। ११८. णेरइयाणं पंच किरिया णिरंतरं नैरयिकाणां पंच क्रियाः निरन्तर यावत् ११८. सभी दण्डकों में ये पांचों क्रियाएं होती जाव वेमाणियाणं।
वैमानिकानाम् ।
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ठाणं (स्थान)
५८२
स्थान ५: सूत्र ११६-१२४ ११६. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- ११६. क्रिया पांच प्रकार की हैजहा
दृष्टिजा, पृष्टिजा, प्रातित्यिकी, १. दृष्टिजा, २. पृष्टिजा, ३. प्रातित्यिकी, दिट्ठिया, पुडिया,
सामन्तोपनिपातिकी, स्वास्तिकी। ४. सामंतोपनिपातिकी, ५. स्वाहस्तिका। पाडुच्चिया, सामंतोवणिवाइया,
साहत्थिया। १२०. एवं गैरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवं नैरयिकाणां यावत् वैमानिकानाम्। १२०. सभी दण्डकों में ये पांचों क्रियाएं होती हैं।
१२१. पंच किरियाओ पण्णताओ, तं पञ्च क्रिया: प्रज्ञप्ताः, तदयथा १२१. क्रिया पांच प्रकार की है। जहा
नैसृष्टिकी, आज्ञापनिका, वैदारणिका, १. नैसृष्टिकी, २. आज्ञापनिकी, सत्थिया, आणवणिया, अनाभोगप्रत्यया, अनवकाङ्क्षप्रत्यया । ३. वैदारणिका, ४. अनाभोगप्रत्यया, वेयारणिया, अणाभोगवत्तिया, एवं यावत् वैमानिकानाम् ।
५. अनवकांक्षप्रत्यया। अणवकंखवत्तिया।
सभी दण्डकों में ये पाँचों क्रियाएं होती एवं जाव वेमाणियाणं। १२२. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं पञ्च क्रिया: प्रज्ञप्ताः, तदयथा_ १२२. क्रिया पांच प्रकार की है। जहा
प्रेय:प्रत्यया, दोषप्रत्यया, प्रयोगक्रिया, १. प्रेयस्प्रत्यया, २. दोपप्रत्यया, पेज्जवत्तिया, दोसवत्तिया, समुदानक्रिया, ऐपिथिकी।
३. प्रयोगक्रिया---गमनागमन की क्रिया, पओगकिरिया, समुदाणकिरिया,
४. समुदानक्रिया- मन, वचन और काया ईरियावहिया।
की प्रवृत्ति। ५. ईर्यापथिकी--वीतराग एवं-मणुस्साणवि।
एवम्-मनुष्याणामपि। शेषाणां के मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से सेसाणं णत्थि। नास्ति।
होने वाला पुण्य-बंध। ये क्रियाएं मनुष्यों के ही होती हैं, शेष दण्डकों में नहीं।
परिणा-पदं परिज्ञा-पदम्
परिज्ञा-पद १२३. पंचविहा परिष्णा पण्णत्ता, तं पञ्चविधा परिज्ञा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १२३. परिज्ञा परित्याग] पांच प्रकार की जहाउपधिपरिज्ञा, उपाश्रयपरिज्ञा,
होती हैउवहिपरिणा, उवस्सयएरिण्णा, कपायपरिज्ञा, योगपरिज्ञा,
१. उपधिपरिज्ञा, २. उपाश्रयपरिज्ञा, कसायपरिणा, जोगपरिणा, भक्तपानपरिज्ञा।
३. कषायपरिज्ञा, ४. योगपरिज्ञा, भत्तपाणपरिणा।
५. भक्तपानपरिज्ञा। ववहार-पदं व्यवहार-पदम्
व्यवहार-पद १२४. पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा- पञ्चविधः व्यवहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा—१२४. व्यवहार पांच प्रकार का होता है ...
आगमे, सुते, आणा, धारणा, आगमः, श्रुतं, आज्ञा, धारणा, जीतम्। १. आगम, २.श्रुत, ३. आज्ञा, जीते।
४. धारणा, ५. जीत।
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स्थान ५: सूत्र १२५
जहां आगम हो वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां आगम न हो, श्रुत हो, वहां श्रुत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां श्रुत न हो, आज्ञा हो, वहां आज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां आज्ञा न हो, धारणा हो, वहां धारणा से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां धारणा न हो, जीत हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे।
ठाणं (स्थान)
जहा से तत्थ आगमे सिया, यथा तस्य तत्र आगमः स्याद्, आगमेन आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा। व्यवहारं प्रस्थापयेत् । णो से तत्थ आगमे सिया जहा से नो तस्य तत्र आगमः स्याद् यथा तस्य तत्थ सुते सिया, सुतेणं ववहारं तत्र श्रुतं स्यात्, श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापट्टवेज्जा ।
पयेत् । णो से तत्थ सुते सिया 'जहा से नो तस्य तत्र श्रुतं स्याद्, यथा तस्य तत्थ आणा सिया,आणाए ववहारं तत्र आज्ञा स्याद्, आज्ञया व्यवहार पट्टवेज्जा ।
प्रस्थापयेत्। णो से तत्थ आणा सिया जहा से नो तस्य तत्राज्ञा स्याद् यथा तस्य तत्र तत्थ धारणा सिया, धारणाए धारणा स्याद्, धारणया व्यवहारं ववहारं पट्टवेज्जा।
प्रस्थापयेत् । णो से तत्थ धारणा सिया जहा नो तस्य तत्र धारणा स्याद् यथा तस्य से तत्थ जीते सिया, जीतेणं तत्र जीतं स्याद्, जीतेन व्यवहार ववहारं पट्टवेज्जा। प्रस्थापयेत्इच्चेतेहि पंचाह ववहारं पट्ठ- इत्येतः पञ्चभिः व्यवहार प्रस्थापयेत्वेज्जा—आगमेणं सुतेणं आणाए आगमेन श्रुतेन आज्ञया धारणया धारणाए जीतेणं।
जीतेन। जधा-जधा से तत्थ आगमे 'सुते यथा-यथा तस्य तत्र आगमः श्रुतं आज्ञा आणा धारणा" जीते तधा-तधा धारणा जीत तथा-तथा व्यवहार ववहार पट्टवेज्जा।
प्रस्थापयेत् । से किमाहु भंते ! आगमवलिया तत् किमाहुः भगवन् ! आगमबलिकाः समणा णिग्गंथा?
श्रमणा: निर्ग्रन्थाः ? इच्चेतं पंचविधं क्वहारं जया- इति एतत् पञ्चविधं व्यवहारं यदा-यदा जया जहि-जोह तया-तया हि- यस्मिन्-यस्मिन् तदा-तदा तस्मिन् तस्मिन् हि अणिस्सितोवस्सितं सम्म अनिश्रितोपाश्रितं सम्यग् व्यवहरन् ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए श्रमण: निर्गन्थः आज्ञायाः आराधको आराधए भवति।
भवति।
इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करेआगम से, श्रुत से, आज्ञा से, धारणा से और जीत से। जिस समय आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा
और जीत में से जो प्रधान हो उसी से व्यवहार की प्रस्थापना करे। भंते ! आगमबलिक श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस विषय में क्या कहा है ? आयुष्मान् श्रमणो ! इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो, तब-तब वहां-वहां उसका अनिश्रितोपाश्रित-मध्यस्थभाव से सम्यग् व्यवहार करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आज्ञा का आराधक होता है।
सुत्त-जागर-पदं सुप्त-जागर-पदम्
सुप्त-जागर-पद १२५. संजयमगुस्साणं सुत्ताणं पंच जागरा संयतमनुष्याणां सुप्तानां पंच जागराः १२५. संयत मनुष्य सुप्त होते हैं तब उनके पांच पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
जागृत होते हैंसहा, 'रूवा, गंधा, रसा, फासा। शब्दा, रूपाणि, गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः । १. शब्द, २. रूप, ३. गंध, ४. रस,
५. स्पर्श।
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ठाणं (स्थान)
१२६. संजतमगुस्साणं जागरागं पंच सुत्ता पण्णत्ता, त जहासद्दा, "रूवा, गंधा, रसा, फासा । शब्दा:, रूपाणि गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः ।
१२७. असंजयमणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा पंच जागरा पण्णत्ता, तं जहा -
०
सद्दा, 'रूवा, गंधा, रसा, फासा ।
तं जहा - पाणातिवातवेरमणेणं, • मुसावायवेरमणेणं, अदिण्णादाणवेरमणेणं,
मेहुणवेरमणं, परिग्गहवेरमणेणं ।
दत्ति-पदं
१३०. पंचमा सियं णं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स कप्पंति पंच दत्तओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पंच पाणगस्स |
उवघात विसोहि पदं १३१. पंचविधे उवघाते पण्णत्ते, तं जहाउग्गमोवधाते, उप्पायणोवघाते, एसणोवघाते, परिकम्मोवघाते, परिहरणोवघाते ।
५८४
स्थान ५ : सूत्र १२६-१३१
संयत मनुष्याणां जागराणां पंच सुप्ताः १२६. संयत मनुष्य जागृत होते हैं तब उनके प्रज्ञप्ताः, तद्यथापांच सुप्त होते हैं
रज-आदान-वमन-पदम्
रादाण वमण-पदं १२८. पंचहि ठाणेहिं जीवा रयं आदि पञ्चभिः स्थानैः जीवाः रजः आददति, ज्जंति, तं जहातद्यथापाणातिवातेणं • भुसावाएणं प्राणातिपातेन, मृषावादेन, अदत्तादानेन, अदिण्णादाणेण मेहुणेणं मैथुन, परिग्रहेण ।
परिग्गणं ।
५. परिग्रह से ।
१२६. पंचहि ठाणेह जीवा रयं वमंति, पञ्चभिः स्थानैः जीवाः रजः वमन्ति, १२९. पांच स्थानों से जीव कर्म-रजों का वमन
करते हैं-
१. प्राणातिपात विरमण से,
२. मृषावाद विरमण से,
३. अदत्तादान विरमण से,
असंयत मनुष्याणां सुप्तानां वा जागराणां वा पञ्च जागराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
शब्दा:, रूपाणि गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः ।
तद्यथा—
प्राणातिपात विरमणेन,
मृषावादविरमणेन,
अदत्तादानविरमणेन,
मैथुनविरमणेन, परिग्रहविरमणेन ।
दत्त-पदम्
पञ्चमासिक भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते पञ्च दत्ती: भोजनस्य परिग्रहीतुम्, पञ्च पानकस्य ।
उपघात-विशोधि-पदम् पञ्चविधः उपघातः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— उद्गमोपघातः, उत्पादनोपघातः, एषणोपघातः, परिकर्मोपघातः, परिधानोपघातः ।
१. शब्द, २. रूप, ३. गंध, ४. रस, ५. स्पर्श ।
१२७. असंयत मनुष्य सुप्त हों या जागृत फिर भी उनके पांच जागृत होते हैं-
१. शब्द, २. रूप, ३. गंध, ४. रस, ५. स्पर्श ।
रज आदान-वमन-पद
१२८. पांच स्थानों से जीव कर्म-रजों का आदान करते हैं
१. प्राणातिपात से, २. मृषावाद से, ३. अदत्तादान से, ४. मैथुन से,
४. मैथुन विरमण से, ५. परिग्रह विरमण से ।
दत्त - पद
१३०. पंचमासिकी भिक्षु प्रतिमा से प्रतिपन्न अनगार भोजन और पानी की पांच-पांच दत्तियां ले सकता है।
उपघात- विशोधि-पद
१३१. उपघात पांच प्रकार का होता है"१. उद्गमोपघात, २. उत्पादनोपघात, ३. एषणोपघात, ४. परिकर्मोपघात, ५. परिहरणोपघात ।
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ठाणं (स्थान)
५८५
स्थान ५: सूत्र १३२-१३५ १३२. पंचविहा विसोही पण्णत्ता, तं पञ्चविधा विशोधि: प्रज्ञप्ताः , १३२. विशोधि पांच प्रकार की होती हैजहातद्यथा
१. उद्गम की विशोधि, उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही, उद्गमविशोधिः, उत्पादनविशोधिः, १. उत्पादन की विशोधि, एसणविसोही, परिकम्मविसोही, एषणाविशोधिः, परिकर्मविशोधिः, ३. एपणा की विशोधि, परिहरणविसोही। परिधानविशोधिः ।
४. परिकर्म की विशोधि, ५. परिहरण की विशोधि।
दुल्लभ-सुलभवोहि-पदं दुर्लभ-सुलभबोधि-पदम् दुर्लभ-सुलभबोधि-पद १३३. पंहि ठाणेहि जीवा दुल्लभबोधि- पञ्चभिः स्थानः जीवाः दुर्लभबोधिकतया १३३. पांच स्थानों से जीव दुर्लभबोधिकत्वकर्म यत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा- कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा....
का अर्जन करता है -- अरहताणं अवण्णं वदमाणे, अर्हतां अवर्णं वदन्,
१. अर्हन्तों का अवर्णवाद करता हुआ, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवणं अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अवर्ण वदन्, २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता वदमाणे,
हुआ, ३. आचार्य-उपाध्याय का अवर्णवाद आयरियउवझायाणं अवगणं आचार्योपाध्याययोः अवर्ण वदन, करता हुआ, ४. चतुर्वर्ण संघ का अवर्णबदमाणे,
वाद करता हुआ, ५. तप और ब्रह्मचर्य के चाउवण्णस्स संघस्स अवणं चतुर्वर्णस्य संघस्य अवर्ण वदन,
विपाक से दिव्य-गति को प्राप्त देवों का वदमाणे,
अवर्णवाद करता हुआ। विवक्क-तव-बंभचेराणं देवाणं विपक्व-तपो-ब्रह्मचर्याणां देवानां अवर्ण अवणं वदमाणे,
वदन्। १३४. पंचहि ठाणेह जीवा सुलभबोधि- पञ्चभिः स्थानः जीवाः सुलभबोधिकतया १३४. पांच स्थानों से जीव सुलभवोधिकत्वकर्म यत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा- कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा
का अर्जन करता हैअरहताणं वण्णं बदमाणे, अर्हतां वर्ण वदन्,
१. अर्हन्तों का वर्णवाद–श्लाघा करता •अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स वणं अर्हतप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य वर्ण वदन, हुआ, २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म का वर्णवाद वदमाणे,
करता हुआ, ३. आचार्य-उपाध्याय का आयरियउवज्झायाणं वणं आचार्योपाध्याययोः वर्णं वदन्, वर्णवाद करता हुआ, ४. चतुर्वर्ण संघ का वदमाणे,
चतुर्वर्णस्य संघस्य वर्ण वदन्, वर्णवाद करता हुआ, ५. तप और ब्रह्मचाउवष्णस्स संघस्स वण्णं वदमाणे,
चर्य के विपाक से दिव्य-गति को प्राप्त विवक्क-तव-बंभचेराणं देवाणं विपक्व-तपो-ब्रह्मचर्याणां देवानां वर्ण देवों का वर्णवाद करता हुआ। वण्णं वदमाणे।
वदन् ।
पडिसंलोण-अपडिसंलोण-पदं प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन-पदम् प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन-पद १३५. पंच पडिसंलीणा पण्णता, तं पञ्च प्रतिसलीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १३५. प्रतिसंलीन पांच हैं
जहा
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ठाणं (स्थान)
सोइंदिप डिलीणे, • विखंदिप डिलीणे, घाणि दिपडली,
जिब्भि दियपडली, ' फासिदियप डिलीणे ।
१३६. पंच अपडिसलीणा पण्णत्ता, तं
जहा -
सोति दियअप डिलीणे,
'चक्खि दियअप डिसलीणे,
घाणिदियअप डिसलीणे,
जिभिदियअप डिलीणे, फासि दियअप डिसलीणे ।
संवर- असंवर-पदं
१३७. पंचविधे संवरे पण्णत्ते, तं जहासोति दियसंबरे, चक्खि दियसंबरे, घाणिदियसंवरे, जिभिदियसंवरे, फासि दियसंवरे ।
१३८. पंचविधे असंवरे पण्णत्ते, तं जहासोति दियअसंवरे, चक्ख दियअसंवरे घाणिदियअसंवरे, जिभिदियअसंबरे, फासि दियअसंवरे ।
सामाइयसंजमे,
छेदोवद्वावणिय संजमे, परिहारविसुद्धियसंजमे, सुमपरागसंजमे,
अहक्खायच रित्तसंजमे ।
1
°
५८६
श्रोत्रेन्द्रियप्रति संलीनः,
चक्षुरिन्द्रयप्रति संलीनः,
घ्राणेन्द्रियप्रति संलीनः, जिह्वन्द्रियप्रति संलीनः, स्पर्शेन्द्रियप्रति संलीनः ।
पञ्च अप्रतिसंलीनाः
तद्यथा
श्रोत्रेन्द्रियाप्रति संलीनः,
चक्षुरिन्द्रियाप्रति संलीनः, घ्राणेन्द्रियाप्रति संलीन:,
जिह्वन्द्रियाप्रति संलीनः, स्पर्शेन्द्रियाप्रति संलीनः ।
स्थान ५ : सूत्र १३६-१३६
१. श्रोत्रेन्द्रिय प्रतिसंलीन,
२. चक्षुरिन्द्रिय प्रतिसंलीन,
३. घ्राणेन्द्रिय प्रतिसंलीन,
४. रसनेन्द्रिय प्रतिसंलीन,
५. स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिसंलीन ।
प्रज्ञप्ताः १३६. अप्रतिसंलीन पांच हैं-
संवर-असंवर-पदम्
पञ्चविधः संवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियसंवरः, चक्षुरिन्द्रयसंवरः, घ्राणेन्द्रियसंवरः जिह्व न्द्रियसंवरः, स्पर्शेन्द्रियसंवरः ।
संजम असंजम-पदं
संयम- असंयम-पदम्
१३९. पंचविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा- पञ्चविधः संयमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा—
सामायिकसंयमः,
छेदोपस्थापनीयसंयमः,
परिहारविशुद्धिकसंयमः,
सूक्ष्मसंप रायसंयमः, यथाख्यातचरित्रसंयमः ।
पञ्चविधः असंवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - श्रोत्रेन्द्रियासंवरः, चक्षुरिन्द्रियासंवरः, घ्राणेन्द्रियासंवरः, जिह्वन्द्रियासंवरः, स्पर्शेन्द्रियासंवरः ।
१. श्रोत्रेन्द्रिय अप्रतिसंलीन ।
२. चक्षुरिन्द्रिय अप्रतिसंलीन,
३. घ्राणेन्द्रिय अप्रतिसंलीन,
४. रसनेन्द्रिय अप्रतिसंलीन,
५. स्पर्शनेन्द्रिय अप्रतिसंलीन ।
संवर-असंवर-पद
१३७. संवर पांच प्रकार का होता है१. श्रोत्रेन्द्रिय संबर,
२. चक्षुरिन्द्रिय संवर,
३. त्राणेन्द्रिय संवर,
४. रसनेन्द्रिय संवर,
५. स्पर्शनेन्द्रिय संवर
१३८. असंबर पांच प्रकार का होता है—
१. श्रोत्रेन्द्रिय असंवर,
२. चक्षुरिन्द्रिय असंवर,
४. प्राणेन्द्रिय असंवर,
५. रसनेन्द्रिय असंवर,
५. स्पर्शनेन्द्रिय असंवर ।
संयम असंयम पद
१३६. संगम के पांच प्रकार हैं"--
१. सामायिक संयम,
२.
स्थापनीय संयम,
३. परिहारविशुद्धिक संयम,
४. सूक्ष्मसंतराव संयम,
५. यथाख्यातचरित्र संयम ।
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ठाणं (स्थान)
५८७
स्थान ५ : सूत्र १४०-१४४ १४०. एगिदिया णं जीवा असमारभमा- एकेन्द्रियान् जीवान् असमारभमाणस्य: १४० एकेन्द्रिय जीवों का असमारम्भ करता हुआ
णस्स पंचविधे संजमे कज्जति, तं पञ्चविधः संयमः क्रियते, तदयथा.... जीव पांच प्रकार का संयम करता हैजहापुढविकाइयसंजमे, पृथ्वीकायिकसंयमः,
१. पृथ्वीकाय संयम, २. अपकाय संयम, 'आउकाइयसंजमे, अप्कायिकसंयमः,
३. तेजस्काय संयम, ४. वायु काय संयम, तेउकाइयसंजमे, तेजसकायिकसंयमः,
५. वनस्पतिकाय संयम। वाउकाइयसंजमे,
वायुकायिकसंयमः, वणस्सतिकाइयसंजमे।
वनस्पतिकायिकसंयमः। १४१. एगिदिया णं जीवा समारभमा- एकेन्द्रियान् जीवान् समारभमाणस्य १४१. एकेन्द्रिय जीवों का समारम्भ करता हुआ
णस्स पंचविहे असंजमे कज्जति, पञ्चविधः असंयमः क्रियते, तद्यथा- जीव पांच प्रकार का असंयम करता हैतं जहा
१. पृथ्वीकाय असंयम, पुढविकाइयअसंजमे, पथ्वीकायिकासंयमः,
२. अपकाय असंयम, 'आउकाइयअसंजमे, अपकायिकासंयमः,
३. तेजस्काय असंयम, तेउकाइयअसंजमे, तेजस्कायिकासंयमः,
४. वायुकाय असंयम, वाउकाइयअसंजमे, वायुकायिकासंयमः,
५. वनस्पतिकाय असंयम। वणस्सतिकाइयअसंजमे। वनस्पतिकायिकासंयमः। १४२. पंचिदिया णं जीवा असमार- पञ्चेन्द्रियान् जीवान असमारभमाणस्य १४२. पंचेन्द्रिय जीवों का असमारम्भ करता हुआ
भमाणस्स पंचविहे संजमे कज्जति, पञ्चविधः संयमः क्रियते, तदयथा- जीव पांच प्रकार का संयम करता हैतं जहा
१.धोवेन्द्रिय संयम, सोतिदियसंजमे, श्रोत्रेन्द्रियसंयमः,
२. चक्षरिन्द्रिय संयम, 'क्खि दियसंजमे, चक्षुरिन्द्रियसंयमः,
३. घ्राणेन्द्रिय संयम, घाणिदियसंजमे, घ्राणेन्द्रियसंयम:,
४. निहन्द्रिय संयम, जिभिदियसंजमे जिहन्द्रियसंयमः,
५. स्पर्शनेन्द्रिय संयम। फासिदियसंजमे।
स्पर्शेन्द्रियसंयमः। १४३. पंचिदिया णं जीवा समारभमाणस्स पञ्चेन्द्रियान जीवान समारभमाणस्य १४३. पंचेन्द्रिय जीवों का समारम्भ करता हुआ
पंचविधे असंजमे कज्जति, तं जहा- पञ्चविधः असंयमः क्रियते तदयथा- जीव पांच प्रकार का असंयम करता हैसोतिदियअसंजमे, श्रोत्रेन्द्रियासंयमः,
१. श्रोत्रेन्द्रिय असंयम, 'चक्खिदियअसंजमे, चक्षुरिन्द्रियासंयमः,
२. चक्षरिन्द्रिय असंयम, घाणिदियअसंजमे, घ्राणेन्द्रियासंयमः,
३. नाणेन्द्रिय असंयम, जिभिदियअसंजमे, जिह्वन्द्रियासंयमः,
४. जिह्वन्द्रिय असंयम, फासिदियअसंजमे। स्पर्शेन्द्रियासंयमः।
५. स्पर्शनेन्द्रिय असंयम । १४४. सव्वपाणभूयजीवसत्ता णं असमार- सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वान् समारभमाणस्य १४४. सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का
भमाणस्स पंचविहे संजमे कज्जति, पञ्चविधः संयमः क्रियते, तद्यथा-- असमारम्भ करता हुआ जीव पांच प्रकार तं जहा
का संयम करता है
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ठाणं (स्थान)
५८८
स्थान ५ : सूत्र १४५-१४८ एगिदियसंजमे, 'बेइंदियसंजमे, एकेन्द्रियसंयमः, द्वीन्द्रियसंयमः, १. एकेन्द्रिय संयम, २.द्वीन्द्रिय संयम, तेइंदियसंजमे, चरिदियसंजमे, त्रीन्द्रियसंयमः, चतुरिन्द्रियसंयमः, ३. वीन्द्रिय संयम, ४. चतुरिन्द्रिय संयम, पंचिदियसंजमे। पञ्चेन्द्रियसंयमः,।
५. पंचेन्द्रिय संयम। १४५. सव्वपाणभूयजीवसत्ता णं समार- सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वान् समारभमाणस्य १४५. सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों" का
भमाणस्स पंचविहे असंजमे पञ्चविधः असंयमः क्रियते, तद्यथा- समारम्भ करता हुआ जीव पांच प्रकार कज्जति, तं जहा
का असंयम करता हैएगिदियअसंजमे, 'बेइंदियअसंजमे, एकेन्द्रियासंयमः, द्वीन्द्रियासंयमः १. एकेन्द्रिय असंयम, तेइंदियअसंजमे, चरि दियअसंजमे, त्रीन्द्रियासंयमः, चतुरिन्द्रियासंयमः, २. द्वीन्द्रिय असंयम, चिदियअसंजमे। पञ्चेन्द्रियासंयमः ।
३. वीन्द्रिय असंयम, ४. चतुरिन्द्रिय असंयम, ५. पंचेन्द्रिय असंयम।
तणवणस्सइ-पदं तृणवनस्पति-पदम्
तृणवनस्पति-पद १४६. पंचविहा तणवणसतिकाइया पञ्चविधाः तृणवनस्पतिकायिका: १४६. तृणवनस्पतिकायिक जीवों के पांच प्रकार पण्णता, तं जहा
प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअग्गवीया, मूलबीया, पोरबीया, अग्रवीजाः, मूलबीजाः, पर्वबीजाः १. अग्रबीज, २. मूलबीज, ३. पर्वबीज, खंधबीया, बीयरहा। स्कन्धवीजाः, वीजरुहाः ।
४. स्कन्धबीज, ५. बीजरूह।
आयार-पदं आचार-पदम
आचार-पद १४७. पंचविहे आयारे पण्णते, तं जहा- पञ्चविधः आचार: प्रज्ञप्तः, तदयथा- १४७. आचार" के पांच प्रकार हैं
णाणायारे, दंसणायारे, ज्ञानाचारः, दर्शनाचारः, चरित्राचारः, १. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, चरित्तायारे, तवायारे, तप आचारः, वीर्याचारः।
३. चरित्राचार, ४. तप आचार, बीरियायारे
५. वीर्याचार।
आयारपकप्प-पदं आचारप्रकल्प-पदम
आचारप्रकल्प-पद १४८. पंचविहे आयारपकप्पे पण्णत्ते, तं पञ्चविध: आचारप्रकल्पः प्रज्ञप्तः, १४८. आचारप्रकल्प के पांच प्रकार हैंजहातद्यथा
१. मासिक उद्घातिक, मासिए उग्धातिए, मासिक उद्घातिकः,
२. मासिक अनुद्घातिक, मासिए अणुग्धातिए, मासिकानुद्घातिकः,
३. चातुर्मालिक उद्घातिक, चउमासिए उग्धातिए, चातुर्मासिक उद्घातिकः,
४. चातुर्मासिक अनुद्घातिक, चउमासिए अणुग्घातिए, चातुर्मासिकानुद्घातिकः,
५. आरोपणा। आरोवणा।
आरोपणा।
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ठाणं (स्थान)
५८६
स्थान ५: सूत्र १४६-१५३
आरोवणा-पदं आरोपणा-पदम्
आरोपणा-पद १४६. आरोवणा पंचविहा पण्णत्ता, तं आरोपणा पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, १४६. आरोपणा" के पांच प्रकार हैंजहा
तद्यथापट्टविया, ठविया, कसिणा, प्रस्थापिता, स्थापिता, कृत्स्ना, १. प्रस्थापिता, २. स्थापिता, ३. कृत्स्ना, अकसिणा, हाडहडा। अकृत्स्ना , हाडहड़ा।
४. अकृत्स्ना , ५. हाडहड़ा।
वक्खारपन्वय-पदं वक्षस्कारपर्वत-पदम्
वक्षस्कारपर्वत-पद १५०. जंबुद्दोवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य १५०. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्वभाग
पुरस्थिमे णं सीयाए महाणदीए पूर्वस्मिन् शीतायाः महानद्या: उत्तरे में तथा सीता महानदी के उत्तरभाग में उत्तरे णं पंच वक्खारपव्वता, पञ्च वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ता:, पांच वक्षस्कार पर्वत हैंपण्णत्ता तं जहा
तद्यथामालवंते, चित्तकूडे, पम्हकूडे, माल्यवान्, चित्रकूट:, पक्ष्मकूट:, १. माल्यवान्, २. चित्रकूट, ३. पक्ष्मकूट, णलिणकडे, एगसेले। नलिनकूट:, एकशैलः।
४. नलिनकूट, ५. एकशैल। १. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य १५१. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्वभाग पुरस्थिमे णं सीयाए महाणदीए पूर्वस्मिन् शीतायाः महानद्याः दक्षिणे में तथा सीता नदी के दक्षिणभाग में पांच दाहिणे णं पंच वक्खारपब्वता पञ्च वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, वक्षस्कार पर्वत हैंपण्णत्ता, तं जहातद्यथा--
१. त्रिकूट, २. वैश्रमणकूट, ३. अंजन, तिकूडे, वेसमणकूडे, अंजणे, त्रिकूटः, वैश्रमणकूटः, अञ्जनः, ४. मातांजन, ५. सौमनस । मायंजणे, सोमणसे।
माताञ्जनः, सौमनसः। १५२. जंबुट्टीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बद्रीपेद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमे १५२. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चस्थिमे णं सीओयाए महाण- शीतोदायाः महानद्याः दक्षिणे पञ्च भाग में तथा सीतोदा महानदी के दक्षिणदीए दाहिणे णं पंच वक्खार- वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- भाग में पांच वक्षस्कार पर्वत हैंपव्वता, पण्णत्ता, तं जहा
१. विद्युत्प्रभ, २. अंकावती, विज्जुप्पभे, अंकावती, पम्हावती, विद्युत्प्रभः, अङ्कावती, पक्ष्मावती, ३. पक्ष्मावती, ४. आशीविष, आसोविसे, सुहावहे। आसीविषः, सुखावहः ।
५. सुखावह। १५३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमे १५३. जम्बुद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चत्थिमे णं सीओयाए महाणदीए शीतोदायाः महानद्याः उत्तरे पञ्च भाग में तथा सीतोदा महानदी के उत्तरउत्तरे णं पंच वक्खारपन्वता वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- भाग में पांच वक्षस्कार पर्वत हैंपण्णत्ता, तं जहा
१. चन्द्रपर्वत, २. सूरपर्वत, ३. नागपर्वत, चंदपव्वते, सूरपव्वते, णागपव्वते, चन्द्रपर्वतः, सरपर्वतः, नागपर्वतः, ४. देवपर्वत, ५. गंधमादन। देवपन्वते, गंधमादणे। देवपर्वतः, गन्धमादनः।
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ठाणं (स्थान)
५६०
स्थान ५ : सूत्र १५४-१५८ महादह-पदं महाद्रह-पदम्
महाद्रह-पद १५४. जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे १५४. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के देवकुरु
दाहिणे णं देवकुराए कुराए पंच देवकुरौ कुरौ पञ्च महाद्रहाः प्रज्ञप्ताः, नामक कुरुक्षेत्र में पांच महाद्रह हैंमहदहा पण्णत्ता, तं जहा- तद्यथाणिसहदहे, देवकुरुदहे, सूरदहे, निषधद्रहः, देवकुरुद्रहः, सूरद्रहः, १. निषधद्रह, २. देवकुरुद्रह, ३. सूरद्रह, सुलसदहे, विज्जुप्पभदहे। सुलसद्रहः, विद्युत्प्रभद्रहः ।
४. सुलसद्रह, ५. विद्युत्प्रभद्रह । १५५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे १५५. जम्बूद्वीप द्वीप मन्दर पर्वत के उत्तरभाग उत्तरे णं उत्तरकुराए कुराए पंच उत्तरकुरौ कुरौ पञ्च महाद्रहाः प्रज्ञप्ताः, ।
में उत्तरकुरु नामक कुरुक्षेत्र में पांच महामहादहा पण्णत्ता, तं जहा.- तद्यथा
१. नीलवत्द्रह, २. उत्तरकुरुद्रह, णीलवंतदहे, उत्तरकुरुदहे, चंददहे, नीलवद्हः , उत्तरकुरुद्रहः, चन्द्रद्रहः,
३. चन्द्रद्रह ४. ऐरावणद्रह, एरावणदहे, मालवंतदहे। ऐरावणद्रहः, माल्यवद्महः ।
५. माल्यवत्द्रह। वक्खारपव्वय-पद वक्षस्कारपर्वत-पदम्
वक्षस्कारपर्वत-पद १५६. सब्वेवि णं वक्खारपध्वया सीया- सर्वेपि वक्षस्कारपर्वता: शीताशीतोदे १५६. सभी वक्षस्कार पर्वत सीता, सीतोदा
सीओयाओ महाणईओ मंदरं वा महानद्यौ मन्दरं वा पर्वतं पञ्च महानदी तथा मन्दर पर्वत की दिशा में पव्वत पंच जोयणसताई उडू योजनशतानि ऊवं उच्चत्वेन, पञ्च- पांच सौ योजन ऊंचे तथा पांच सौ कोस उच्चत्तेणं, पंचगाउसताई उव्वेहेणं। गव्यूतिशतानि उद्वेधेन।
गहरे हैं। धायइसंड-पुक्खरवर-पदं धातकीषण्ड-पुष्करवर-पदम्
धातकीषण्ड-पुष्करवर-पद शायद दीवे परस्थिमण धातकीपण्डे द्वीपे पौरस्त्याध मन्दरस्य १५७. धातकीपण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में, मन्दर पर्वत मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं पर्वतस्य पूर्वस्मिन् शीतायाः महानद्या:
के पूर्व में तथा सीता महानदी के उत्तर में
पांच वक्षस्कार पर्वत हैं -- सीयाए महाणदीए उत्तरे णं पंच उत्तरे पञ्च वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, १. माल्यवान्, २. चित्रकूट, ३. पश्मकूट, वक्खारपन्वता पण्णत्ता, तं जहा... तद्यथा---
४. नलिनकूट, ५. एकशैल।
इसी प्रकार धातकीषण्ड द्वीप के पश्चिमालवंते, एवं जहा जंबुद्दीवे तहा माल्यवान्, एवम् यथा जम्बूद्वीपे तथा
मार्ध में तथा अर्धपुष्करवर द्वीप के पूर्वार्ध जाव पुक्खरवरदीवड्ड पच्चत्थि- यावत् पुष्करवरद्वीपाधू पाश्चात्यार्धे और पश्चिमार्ध में भी जम्बूद्वीप की तरह
पांच-पांच वक्षस्कार पर्वत, महानदियां मद्धे वक्खारपव्वया दहा य वक्षस्कारपर्वताः द्रहाश्च उच्चत्वं
तथा द्रह और वक्षस्कार पर्वतों की ऊंचाई उच्चत्तं भाणियध्वं।
भणितव्यम्।
समयक्खेत्त-पदं समयक्षेत्र-पदम्
समयक्षेत्र-पद १५८. समयक्खेत्ते णं पंच भरहाई, पंच समयक्षेत्रे पञ्चभरतानि, पञ्चै रवतानि, १५८. समयक्षेत्र में पांच भरत और पांच ऐरवत
एरवताई, एवं जहा चउट्ठाणे एवं यथा चतुःस्थाने, द्वितीयोद्देशे तथा बितीयउद्देसे तहा एत्थवि भाणि- अत्रापि भणितव्यं यावत् पञ्च मन्दराः शेष वर्णन के लिए देखें [४/३३७] । यव्वं जाव पंच मंदरा पंच मंदर- पञ्च मंदरचूलिकाः, नवरं इषुकाराः विशेष यह है कि वहां इपुकार पर्वत नहीं चूलियाओ, णवरं उसुयारा णत्थि। न सन्ति ।
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ठाणं (स्थान)
५६१
स्थान ५ : सूत्र १५६-१६५
थी।
ओगाहणा-पदं अवगाहना-पदम्
अवगाहना-पद १५६. उसभे गं अरहा कोसलिए पंच ऋषभः अर्हन् कौशलिक: पञ्च धनु:- १५६. कौशलिक अर्हन्त ऋषभ पांच सौ धनुष
धणुसताई उड्ड उच्चत्तेणं होत्था। शतानि ऊवं उच्चत्वेन अभवत् । ऊंचे थे। १६०. भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी भरतः राजा चातुरन्तचक्रवर्ती पञ्च १६०. चातुरंत चक्रवर्ती राजा भरत पांच सौ
पंच धणुसताई उड्ड उच्चत्तेणं धनुःशतानि ऊर्ध्व उच्नत्वेन अभवत् । धनुप ऊंचे थे।
होत्था। १६१. बाहुबली ण अणगारे •पंच धणु- वाहुबली अनगारः पञ्च धनुःशतानि १६१. अनगार बाहुबली पांच सौ धनुष ऊंचे थे।
सताई उड्ड उच्चत्तेणं होत्था। ऊध्वं उच्चत्वेन अभवत् । १६२. बंभी णं अज्जा 'पंच धणुसताई ब्राह्मी आर्या पञ्च धनुःशतानि ऊर्ध्व १६२. आर्या ब्राह्मी ऊंचाई में पांच सौ धनुष थी।
उम्र उच्चत्तेणं होत्था। उच्चत्वेन अभवत्। १६३. 'सुन्दरी णं अज्जा पंच धणुसताई सुन्दरी आर्या पञ्च धनुःशतानि ऊर्ध्वं १६३. आर्या सुन्दरी ऊंचाई में पांच सौ धनुष
उड्ड उच्चत्तेणं होत्था । उच्चत्वेन अभवत्। विबोध-पदं विबोध-पदम्
विबोध-पद १६४. पंचहि ठाणेहि सुत्ते विबुझेज्जा, पञ्चभि: स्थानः सुप्तः विबुध्येत, १६४. पांच कारणों से सुप्त मनुष्य विबुद्ध हो
जाता हैतं जहा
तद्यथासद्देणं, फासेणं, भोयणपरिणामेणं, शब्देन, स्पर्शन, भोजनपरिणामेन,
१. शब्द से, २. स्पर्श से, ३. भोजन परि
णाम-भूख से, ४. निद्राक्षय से, णिद्दक्खएणं, सुविणदसणेणं। निद्राक्षयेण, स्वप्नदर्शनेन ।
५. स्वप्नदर्शन से, णिग्गंथी-अवलंबण-पदं निर्ग्रन्थ्यवलम्बन-पदम्
निन्थ्यवलम्बन-पद १६५. पर्चाह ठाणेहि समणे णिग्गंथे पञ्चभिः स्थानः श्रमणः निर्ग्रन्थः १६५. पांच कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी
णिग्गथि गिण्हमाणे वा अवलंब- निर्ग्रन्थी गृह णन् वा अवलम्बमानो वा को पकड़ता हुआ, सहारा देता हुआ आज्ञा माणे वा णातिक्कमति, तं जहा... नातिकामति, तद्यथा
का अतिक्रमण नहीं करता--- १. णिथि च णं अण्णयरे पसु- १. निर्ग्रन्थीं च अन्यतर: पशुजातिको १. कोई पशु या पक्षी निर्ग्रन्थी को उपहत जातिए वा पक्खिजातिए वा वा पक्षिजातिको वा अवघातयेत्, तत्र करे तो उसे पकड़ता हुआ, सहारा देता ओहातेज्जा, तत्थ णिग्गंथे णिग्गथि निर्ग्रन्थः निग्रन्थी गह णन वा अवलम्ब- हा निर्ग्रन्थ आना का अतिक्रमण नहीं गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा मानो वा नातिकामति ।
करता। णातिक्कमति। २. णिग्गंथे णिग्गथि दुग्गंसि वा २. निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थीं दुर्गे वा विषमे २. दुर्गम तथा ऊबड़-खाबड़ स्थानों में विसमंसि वा पक्खलमाणि वा वा प्रसरवलन्तीं वा प्रपतन्ती वा गृह णन् प्रस्खलित होती हुई, गिरती हुई निर्ग्रन्थी पवडमाणि वा गिण्हमाणे वा वा अवलम्बमानो वा नातिकामति।। को पकड़ता हुआ, सहारा देता हुआ निग्रंथ अवलंबमाणे वा णातिक्कमति ।
आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता।
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ठाणं (स्थान)
५६२
स्थान ५ : सूत्र १६६ ३. णिग्गंथे णिग्गंथि सेयंसि वा ३. निम्रन्थः निर्ग्रन्थीं सेके वा पङ्क । ३. दल-दल में, कीचड़ में, काई में या पंकसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा पनके वा उदके वा अपकसन्तीं वा पानी में फंसी हुई या बहती हुई निर्ग्रन्थी वा उक्कसमाणि वा उबुज्झमाणि अपोह्यमानां वा गृह णन् वा अवलम्ब- को पकड़ता हुआ, सहारा देता हुआ वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा मानो वा नातिकामति।।
निर्ग्रन्थ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। णातिक्कमति। ४. णिग्गंथे णिग्गथि णावं आरु- ४. निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थी नावं आरोहयन् ४. निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को नाव में बताता भमाणे वा ओरोहमाणे वा वा अवरोहयन् वा नातिकामति । हुआ या उतारता हुआ आज्ञा का अतिणातिक्कमति ।
क्रमण नहीं करता। ५. खित्तचित्तं दित्तचित्तं जक्खाइ8 ५. क्षिप्तचित्तां दृप्तचित्तां यक्षाविष्टां ५. क्षिप्तचित्त, दप्तचित्त यक्षाउम्मायपत्तं उवसांगपत्तं साहि- उन्मादप्राप्तां उपसर्गप्राप्तांसाधिकरणां
विष्ट, उन्मादप्राप्त०२, उपसर्गप्राप्त,
कलहरत, प्रायश्चित्त से डरी हुई, अनशन गरणं सपायच्छित्तं जाव भत्तपाण- सप्रायश्चित्तां यावत भक्तपानप्रत्या
की हुई, किन्हीं व्यक्तियों द्वारा संयम से पडियाइक्खियं अटजायं वा ख्यातां अर्थजातां वा निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थीं विचलित की जाती हुई या किसी आक
स्मिक कारण के समुत्पन्न हो जाने पर णिग्गंथे णिगंथि गेण्हमाणे वा गृहणन् वा अवलम्बमानो वा नाति
निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को पकड़ता हुआ, सहारा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति। कामति ।
देता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहींकरता । आयरयि-उवझाय-अइसेस-पदं आचार्योपाध्यायातिशेष-पदम् आचार्योपाध्यायातिशेष-पद १६६. आयरिय-उवज्झायस्स णं गणसि आचार्योपाध्यायस्य गणे पञ्च अति- १६६. गण में आचार्य तथा उपाध्याय के पांच पंच अतिसेसा पण्णत्ता, तं जहा- शेषा: प्रज्ञप्ता:, तद्यथा
अतिशेष विशेष विधियां होते हैं।०३.-- १. आयरिय-उवज्झाए अंतो १. आचार्योपाध्यायः अन्त: उपाश्रयस्य १. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में उवस्सयस्स पाए णिगझिय- पादौ निगृह्य-निगृह्य प्रस्फोटयन् वा । पैरों की धूलि को यतनापूर्वक [दूसरों पर णिगझिय पप्फोडेमाणे वा प्रमार्जयन् वा नातिकामति ।
न गिरे वैसे ] झाड़ते हुए, प्रमाणित करते पमज्जेमाणे वा णातिक्कमति।।
हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। २. आयरिय-उवज्झाए अंतो २. आचार्योपाध्यायः अन्त: उपाश्रयस्य २. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में उवस्सयस्स उच्चारपासवणं उच्चारप्रश्रवणं विवेचयन् वा विशोधयन् उच्चार-प्रश्रवण का व्युत्सर्ग और विशोविगिचमाणे वा विसोधेमाणे वा वा नातिकामति ।
धन करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं णातिक्कमति।
करते। ३. आयरिय-उवज्झाए पभू इच्छा ३. आचार्योपाध्यायः प्रभुः इच्छा। ३. आचार्य और उपाध्याय की इच्छा पर वेयावडियं करेज्जा, इच्छा णो वैयावृत्त्यं कुर्यात्, इच्छा नो कुर्यात्।। निर्भर है कि वे किसी साधु की सेवा करें करेज्जा।
या न करें। ४. आयरिय-उवज्झाए अंतो ४. आचार्योपाध्यायः अन्तः उपाश्रयस्य ४. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में उवस्सस्स एगरातं वा दुरातं एकरात्रं वा द्विरानं वा एकको वसन् एक रात या दो रात अकेले रहते हुए वा एगगो वसमाणे णातिक्कमति। नातिकामति ।
आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। ५. आय रिय-उवज्झाए बाहि ५. आचार्योपाध्यायः बहिः उपाश्रयस्य । ५. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय से उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा एकरात्रं वा द्विरात्रं वा (एकक: ?) बाहर एक रात या दो रात अकेले रहते [एगओ? ]वसमाणे णातिक्कमति। वसन् नातिकामति ।
हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते।
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ठाणं (स्थान)
आयरिय उवज्झायantaraमण-पद
१६७. पंचहि ठाणेहि आयरिय-उवज्झायस्स गणावक्कमणे पण्णत्ते, तं
जहा -
१. आयरिय उवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा णो सम्मं परंजित्ता भवति । २. आयरिय उवज्झाए गणंसि आधारायणियाए कि तिकम्मं वेणइयं णो सम्मं परंजित्ता भवति । ३. आयरिय उवज्झाए गणंसि जे सुयपज्जवजाते धारेति, ते कालेकाले णो सम्ममणुपवादेत्ता भवति ।
४. आयरिय-उवज्झाए गणंसि सगणियाए वा परगनियाए वा furiate बहल्ले से भवति । ५. मित्ते णातिगणे वा से गणाओ अवक्कमेज्जा, तेसि संगहोवग्गहट्टयाए गणावककमाणे पण्णत्ते ।
स्थान ५ : सूत्र १६७-१६८
आचार्योपाध्याय गणापक्रमण-पदं आचार्योपाध्याय-गणापक्रमण-पद
५६३
पञ्चभि: स्थानैः आचार्योपाध्यायस्य १६७. पांच कारणों से आचार्य तथा उपाध्याय गणापक्रमणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथागण से अपक्रमण [ निर्गमन ] करते हैं*.
१. आचार्योपाध्यायः गणे आज्ञां वा धारणां वानो सम्यक् प्रयोक्ता भवति ।
२. आचार्योपाध्यायः गणे यथारात्लिकतया कृतिकर्म वैनयिकं नो सम्यक् प्रयोक्ता भवति ।
३. आचार्योपाध्यायः गणे यान् श्रुतपर्यवजातान् धारयति, तान् काले-काले नो सम्यगनुप्रवाचयिता भवति ।
४. आचार्योपाध्यायः गणे स्वगणसत्कायां वा परगण सत्कायां वा निर्ग्रन्थयां बहिर्लेश्यो भवति । ५. मित्रं ज्ञातिगणो वा तस्य गणात् अपक्रमेत, तेषां संग्रहोपग्रहार्थं गणापक्रमणं प्रज्ञप्तम् ।
ऋद्धिमत्-पदम्
इमं पदं १६८. पंचविहाइड्डिमंता मणुस्सा पण्णत्ता, पञ्चविधाः ऋद्धिमन्तः तं जहा -- अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, भाविप्पाणी अणगारा । वासुदेवाः, भावितात्मानः अनगाराः ।
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
अर्हन्तः, चक्रवत्तिनः, बलदेवाः,
१. आचार्य तथा उपाध्याय गण में आज्ञा या धारणा का सम्यक प्रयोग न कर सकें ।
२. आचार्य तथा उपाध्याय गण में यथारालिक कृतिकर्म वन्दन और विनय का सम्यक् प्रयोग न करें।
३. आचार्य तथा उपाध्याय जिन श्रुतपर्यायों को धारण करते हैं, समय-समय पर उनकी गण को सम्यक वाचना न दें ।
४. आचार्य यथा उपाध्याय अपने गण की या दूसरे के गण की निर्ग्रन्थी में बहिर्लेश्यआशक्त हो जाएं।
५. आचार्य तथा उपाध्याय के मित्र या स्वजन गण से अपक्रमित [ निर्गत ] हो जाएं, उन्हें पुनः गण में सम्मिलित करने तथा सहयोग करने के लिए वे गण से अपक्रमण करते हैं।
ऋद्धिमत्-पद
मनुष्याः १६८. ऋद्धिमान मनुष्य पांच प्रकार के होते
हैं---
१. अर्हन्त, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेव, ४. वासुदेव, ५. भावितात्मा अनगार ।
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ठाणं (स्थान)
५६४
स्थान ५: सूत्र १६६-१७१
तइओ उद्देसो
अत्थिकाय-पदं अस्तिकाय-पदम्
अस्तिकाय-पद १६६. पंच अथिकाया पण्णत्ता, तं जहा.- पञ्चास्तिकायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- १६६. अस्तिकाय पांच हैं --
धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, आकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायः, ३. आकाशास्तिकाय, ४. जीवास्तिकाय पोग्लत्थिकाए। पुद्गलास्तिकायः।
५. पुद्गलास्तिकाय। १७०. धम्मत्थिकाए अवण्णे अगंधे अरसे धर्मास्तिकायः अवर्णः अगन्धः अरसः १७०. धर्मास्तिकाय अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श,
अफासे अरूवी अजीवे सासए अस्पर्श: अरूपी अजीवः शाश्वतः अरूप, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा अवदिए लोगदव्वे। अवस्थितः लोकद्रव्यम् ।
लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, संक्षेप में वह पांच प्रकार का हैजहातद्यथा
१. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा, दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः,
३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, गुणओ। गुणतः।
५. गुण की अपेक्षा। दव्वओ णं धम्म त्थिकाए एगं द्रव्यतः धर्मास्तिकायः एक द्रव्यम् । द्रव्य की अपेक्षा-एक द्रव्य है। दव्वं । खेत्तओ लोगपमाणमेत्ते। क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः ।
क्षेत्र की अपेक्षा--लोकप्रमाण है। कालओ ण कयाइ गासी, ण कयाइ कालतः न कदापि न आसीत, न कदापि
काल की अपेक्षा-कभी नहीं था ऐसा
नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी ण भवति, ण कयाइ ण भविस्स- न भवति, न कदापि न भविष्यति
नहीं होगा ऐसा नहीं है। वह अतीत में इति--भुवि च भवति य भविस्सति इति—अभूच्च भवति च भविष्यति च,
था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। य, धुवे णिइए सासते अक्खए ध्रुवः निचितः शाश्वत: अक्षयः अव्ययः अत: वह ध्रुव, निचित, शाश्वत, अक्षय, अव्वए अवद्विते णिच्चे। अवस्थित: नित्यः ।
अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भावप्रो अवणे अगंधे अरसे भावतः अवर्णः अगन्धः अरसः अस्पर्शः।
भाव की अपेक्षा–अवर्ण, अगंध, अरस
और अस्पर्श है। अफासे।
गुण की अपेक्षा—गमन-गुण है-गति में गुणओ गमणगुणे। गुणतः गमनगुणः ।
उदासीन सहायक है।
१७१. अधम्मत्थिकाए अवण्णे 'अगंधे अधर्मास्तिकायः अवर्णः अगन्धः अरस: १७१. अधर्मास्तिकाय अवर्ण, अगंध, अरस,
अरसे अफासे अरूवी अजीवे अस्पर्शः अरूपी अजीवः शाश्वतः अस्पर्श, अरूप, अजीव, शाश्वत, अवस्थित सासए अवढ़िए लोगदव्वे । अवस्थितः लोकद्रव्यम् ।
तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है । से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, संक्षेप में वह पाच प्रकार का है
तद्यथादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, द्रव्यत:, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः,
१. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा,
३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, भावओ, गुणओ। गुणतः।
५. गुण की अपेक्षा।
जहा
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ठाणं (स्थान)
taraणं अम्मत्किाए एवं द्रव्यतः अधर्मास्तिकायः एकं द्रव्यम् ।
दव्वं ।
खेत्तओ लोगपमाणमेत्ते ।
कालओ ण कयाइ णासी, ण कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण भविस्सइत्ति भुवि च भवति य भविस्सति य धुवे पिइए सासते अक्खए अन् अवट्ठिते णिच्चे | भावओ raणे अगंधे अरसे भावतः अवर्ण: अगन्धः अरसः अस्पर्शः ।
क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः । कालतः न कदापि न आसोत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविष्यति इति — अभूच्च भवति च भविष्यति च, ध्रुवः निचितः शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अवस्थितः नित्यः ।
अफासे । गुणओ ठाणगुणे ।
कालओण कयाइ णासी, ण कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण भविस्सइत्ति-भुवि च भवतिय भविस्सति य, धुवे पिइए सासते अक्खए अव अद्विते णिच्चे | भावओ अवणे अगंधे अरसे अफासे ।
१७२. आगासत्थिकाए अवणे "अगंधे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासए rafe लोग लोग दव्वे । से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा -
दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, द्रव्यतः, , क्षेत्रतः, :, कालतः, भावतः, भावओ, गुणओ । गुणतः । दव्वओ णं आगासत्थिकाए एवं द्रव्यतः आकाशास्तिकायः एकं द्रव्यम् । दव्वं ।
खेत्तअ लोगालोगपमाणमेत्ते ।
क्षेत्रतः लोकालोकप्रमाणमात्रः ।
अवगाहा | १७३. जीवत्थिकाए णं अवणे "अगंधे अरसे अफासे अवी जीवे सासए cafe लोगod |
५६५
गुणतः स्थानगुणः ।
आकाशास्तिकायः अवर्णः अगन्धः अरसः अस्पर्शः अरूपी अजीवः शाश्वतः अवस्थितः लोकालोकद्रव्यम् । स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा—
कालतः न कदापि न आसीत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविष्यति इति अभूच्च भवति च भविष्यति च, ध्रुवः निचित: शाश्वतः अक्षयः अव्यय: अवस्थितः नित्यः । भावतः अवर्णः अगन्ध: अरसः अस्पर्शः ।
गुणतः अवगाह्नागुणः । जीवास्तिकाय: अवर्णः अगन्धः अरसः अस्पर्शः अरूपी जीवः शाश्वतः अवस्थितः लोकद्रव्यम् ।
स्थान ५ : सूत्र १७२-१७३
द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य है ।
क्षेत्र की अपेक्षा- लोकप्रमाण है । काल की अपेक्षा कभी नहीं था ऐसा नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अतः वह ध्रुव निचित, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है ।
भाव की अपेक्षा अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श है ।
गुण की अपेक्षा - स्थान गुण — स्थिति में उदासीन सहायक है ।
१७२. आकाशास्तिकाय अवर्ण, अगंध, जरस,
अस्पर्श, अरूप, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है । संक्षेप में वह पांच प्रकार का है
१. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा,
३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, ५. गुण की अपेक्षा ।
द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य है ।
क्षेत्र की अपेक्षा लोक तथा अलोकप्रमाण है।
काल की अपेक्षा कभी नहीं था ऐसा नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा । अतः वह ध्रुव, निचित, शाश्वत, अदाय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । भाव की अपेक्षा - अवर्ण, अगंध, अरस और और अस्पर्श है । गुण की अपेक्षा -- अवगाहन गुण बाला है। १७३. जीवास्तिकाय अवर्ण, अगंध, अरस,
अस्पर्श, अरूप, अजीव, शाश्वत, अबस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है
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ठाणं (स्थान)
५६६
स्थान ५ : सूत्र १७४ से समासओ पंचविधे पण्णते, तं स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः,
संक्षेप में वह पांच प्रकार का है-- जहा
तद्यथादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालत:, भावत:,
१. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा,
३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, भावओ, गुणओ। गुणतः।
५. गुण की अपेक्षा। दबओ णं जीवत्यिकाए अणंताई द्रव्यतः जीवास्तिकायः अनन्तानि द्रव्य की अपेक्षा-अनन्त द्रव्य है। दवाई।
द्रव्याणि। खेत्तओ लोगपमाणमेते। क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः।
क्षेत्र की अपेक्षा-लोकप्रमाण है। कालओ ण कयाइ णासी, णकयाई कालतः न कदापि न आसीत, न कदापि
काल की अपेक्षा कभी नहीं था ऐसा
नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी ण भवति, ब कयाइ ण भविस्स- न भवति, न कदापि न भविष्यति इति...
नहीं होगा ऐसा नहीं है। वह अतीत में इत्ति—भुवि च भवति य भविस्सति अभूच्च भवति च भविष्यति च, ध्रुवः था, वर्तभान में है और भविष्य में रहेगा। य, धुवे णिइए सासते अक्खए निचितः शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अत: वह ध्रुव, निचित, शाश्वत, अक्षय, अब्दए अवद्विते णिच्चे। अवस्थितः नित्यः ।
अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भावओ अवण्णे अगंधे अरसे भावतः अवर्णः अगन्धः अरसः अस्पर्शः ।
भाव की अपेक्षा-अवर्ण, अगंध, अरस अफासे।
और अस्पर्श है। गुणओ उवोगगुणे। गुणतः उपयोगगुणः ।
गुण की अपेक्षा–उपयोग गुण वाला है। १७४. पोग्गलत्यिकाए पंचवणे पंचरसे पुद्गलास्तिकायः पञ्चवर्णः पञ्चरस: १७४. पुद्गलास्तिकाय पंचवर्ण, पंचररा, द्विदुगंधे अट्ठ फासे रूवी अजीवे द्विगन्धः अष्टस्पर्शः रूपी अजीवः
गंध, अष्टस्पर्श, रूपी, अजीव, शाश्वत,
अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत सासते अवढ़िते 'लोगदव्वे। शाश्वतः अवस्थितः लोकद्रव्यम् ।
द्रव्य है। से समासओ पंचविधे पण्णते, तं स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्त:,
संक्षेप में वह पांच प्रकार का हैजहातदयथा
१. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा, दव्वजो, खेत्तओ, कालओ, द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, ३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, भावओ, गुणओ। गुणतः।
५. गुण की अपेक्षा। दव्वओणं पोग्गलत्थिकाए अणंताई द्रव्यतः पूदगलास्तिकायः अनन्तानि द्रव्य की अपेक्षा-अनन्त द्रव्य है। दवाई। द्रव्याणि।
क्षेत्र की अपेक्षा-लोकप्रमाण है। खेतओलोगपमाणमेत्ते। क्षत्रतः लोकप्रमाणमात्रः ।
काल की अपेक्षा--कभी नहीं था ऐसा कालओ ण कयाइ णाप्ति, •ण कालतः न कदापि नासीत्, न कदापि नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण न भवति, न कदापि न भविष्यति इति... नहीं होगा ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, भबिस्सइत्ति....भुवि च भवति य अभूच्च भवति च भविष्यति च, ध्रुवः वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अत: भविस्सति य, धुवे णिइए सासते निचितः शाश्वत: अक्षय: अव्ययः वह ध्रुव, निचित,शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अक्खए अब्धए अवदिते णिच्चे। अवस्थितः नित्यः ।
अवस्थित और नित्य है। भावओ वग्णभंते गंधमते रसमंते भावतः वर्णवान् गन्धवान् रसवान्
भाव की अपेक्षा वर्णवान्, गंधवान्, फासमंते। स्पर्शवान् ।
रसवान् तथा पर्शवान् है। गुणओ गहणगुणे। गुणतः ग्रहणगुणः ।
गुण की अपेक्षा ग्रहण-गुण-समुदित होने की योग्यतावाला है।
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ठाणं (स्थान)
५६७
स्थान ५ : सूत्र १७५-१७६
गइ-पदं गति-पदम्
गति-पद १७५. पंच गतीओ पण्णताओ, तं जहा- पञ्च गतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७५. गतियां पांच हैं
णिरयगती, तिरियगती, मणुयगती, निरयगतिः, तिर्यग्गतिः, मनुजगतिः, १. नरकगति, देवगती, सिद्धिगती। देवगति:, सिद्धिगतिः ।
३. मनुष्यगति, ५. सिद्धिगति।
२. तिर्यञ्चगति, ४. देवगति,
इंदियत्थ-पदं इन्द्रियार्थ-पदम्
इन्द्रियार्थ-पद १७६. पंच इंदियत्या पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च इन्द्रियार्थाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७६. इन्द्रियों के पांच अर्थ [विषय] हैं
सोतिदियत्थे, 'चक्खि दियत्थे, श्रोत्रेन्द्रियार्थः, चक्षुरिन्द्रियार्थः, १. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थ, २. चक्षुरिन्द्रिय अर्थ, घाणिदियत्थे, जिभिदियत्थे,' घ्राणेन्द्रियार्थः, जिह्वन्द्रियार्थः, ३. नाणेन्द्रिय अर्थ, ४. जिह्वन्द्रिय अर्थ, फासिदियत्थे। स्पर्शेन्द्रियार्थः ।
५. स्पर्शनेन्द्रिय अर्थ।
मुंड-पदं
मुण्ड-पदम्
मुण्ड-पद १७७. पंच मुंडा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च मुण्डाः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- १७७. मुण्ड [जयी] पांच प्रकार के होते हैं---
सोति दियमुंडे, 'चविखदियमुंडे, श्रोत्रेन्द्रिय मुण्डः, चक्षुरिन्द्रियमुण्डः, १. श्रोनेन्द्रिय मुंड, २. चक्षुरिन्द्रिय मुंड, घाणिदियमुंडे, जिभिदियमुंडे, घ्राणेन्द्रियमुण्डः, जिह्वन्द्रियमुण्डः, ३. घाणेन्द्रिय मुंड, ४. जिह्वन्द्रिय मुंड, फासिदियमुंडे। स्पर्शेन्द्रियमुण्डः ।
५. स्पर्शनेन्द्रिय मुंड। अहवाअथवा--
अथवापंच मुंडा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च मुण्डाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
मुंड पांच प्रकार के होते हैंकोहमुंडे, माणमुंडे, मायामुंडे, क्रोधमुण्डः, मानमुण्डः, मायामुण्डः, १. क्रोध मुंड, २. मान मुंड, ३. माया मुंड, लोभमुडे, सिरमुंडे। लोभमुण्डः, शिरोमुण्डः ।
४. लोभ मुंड, ५. शिरो मुंड।
बायर-पदं बादर-पदम्
बादर-पद १७८. अहेलोगे णं पंच बायरा पण्णत्ता, अधोलोके पञ्च बादरा: प्रज्ञप्ताः , १७८. अधोलोक में पांच प्रकार के बादर जीव तं जहातद्यथा
होते हैं१०६- पदविकाइया, आउकाइया, पृथिवीकायिकाः, अपकायिकाः, १. पृथ्वीकायिक, २. अपकायिक, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, वायुकायिकाः, वनस्पतिकायिकाः,
३. वायुकायिक, ४. वनस्पतिकायिक, ओराला तसा पाणा। उदाराः त्रसाः प्राणाः।
५. उदार नस प्राणी। १७६. उट्टलोगे गं पंच बायरा पण्णत्ता, अवलोके पञ्च बादरा प्रज्ञप्ताः, १७६. ऊर्ध्वलोक में पांच प्रकार के बादर जीव तं जहा.तद्यथा
होते हैं। "पुढविकाइया, आउकाइया, पृथिवीकायिकाः, अपकायिकाः, १. पृथ्वीकायिक, २. अपकायिक, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, वायुकायिकाः, वनस्पतिकायिकाः, ३. वायुकायिक, ४. वनस्पतिकायिक, ओराला तसा पाणा। उदाराः त्रसाःप्राणाः।
५. उदार वस प्राणी।
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ठाणं (स्थान)
५४८
स्थान ५ : सूत्र १८०-१८४ १८०. तिरियलोगे णं पंच बायरापण्णत्ता, तिर्यगलोके पञ्च बादरा: प्रज्ञप्ताः, १८०. तिर्यक्लोक में पांच प्रकार के बादर जीव तं जहा.तद्यथा
होते हैंएगिदिया, 'बेइंदिया, तेइंदिया, एकेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रिया:, १. एकेन्द्रिय, २.द्वीन्द्रिय, ३. त्रीन्द्रिय, चरिदिया, पंचिदिया। चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः ।
४. चतुरिन्द्रिय, ५. पंचेन्द्रिय। १८५. पंचविहा बायरतेउकाइया पण्णत्ता, पञ्चविधाः बादरतेजस्कायिकाः प्रज्ञप्ता:, १८१. बादर तेजस्कायिक जीव पांच प्रकार के तं जहातद्यथा
होते हैं-- इंगाले, जाले, मुम्मुरे, अच्ची, अङ्गारः, ज्वाला, मुर्मरः, अचि:, १. अंगार, २. ज्वाला-अग्निशिखा, अलाते। अलातम्।
३. मुर्मर -चिनगारी, ४. अचि ----लपट,
५. अलात-जलती हुई लकड़ी। १८२. पंचविधा बादरवाउकाइया पञ्चविधा बादरवायुकायिकाः प्रज्ञप्ताः, १८२. बादर वायुकायिक जीव पांच प्रकार के पण्णता, तं जहातद्यथा
होते हैंपाईणवाते, पडीणवाते, दाहिणवाते, प्राचीनवातः, प्रतिचीनवातः, दक्षिणवात: १. पूर्व वात, २. पश्चिम वात, उदोणवाते, विदिसवाते। उदीचीनवातः, विदिगवातः ।
३. दक्षिण वात, ४. उत्तर वात, ५. विदिक वात।
अचित्त-वाउकाय-पदं अचित्त-वायुकाय-पदम्
अचित्त-वायुकाय-पद १८३. पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पञ्चविधाः अचित्ताः वायुकायिका: १८३. अचित्त वायुकाय पांच प्रकार का होता पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. आक्रान्त-पैरों को पीट-पीट कर अक्कते, धंते, पीलिए, सरीराणुगते, आक्रान्तः, ध्मातः, पीडितः, शरीरानुगतः,
चलने से उत्पन्न वायु, समुच्छिमे। सम्मच्छिमः ।
२. ध्मात-धौंकनी आदि से उत्पन्न वायु, ३. पीडित----गीले कपड़ों के निचोड़ने आदि से उत्पन्न वायु, ३. शरीरानुगत --डकार, उच्छ्वास आदि, ५. संमूच्छिम---पंखा झलने आदि से
उत्पन्न वायु। णियंठ-पदं निर्ग्रन्थ-पदम्
निर्ग्रन्थ-पद १८४. पंच णियंठा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च निर्ग्रन्थाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १८४. निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के होते हैं --- पुलाए, बउसे, कुसीले, णियंठे, पुलाकः, बकुशः, कुशीलः, निर्ग्रन्थः, ।
१. पुलाक-नि:सार धान्यकणों के समान
जिसका चरित्र निःसार है, सिणाते। स्नातः।
२. बकुश-जिसके चरित्र में स्थान-स्थान पर धब्वे लगे हुए हैं, ३. कुशील-जिसका चरित्र कुछ-कुछ मलिन हो गया हो, ४. निर्ग्रन्थ-जिसका मोहनीय कर्म छिन्न हो गया हो, ५. स्नातक--जिसके चार घात्यकर्म छिन्न हो गए हों।
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ठाणं (स्थान)
५६४
स्थान ५: सूत्र १८५-१८७ १८५. पुलाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- पुलाकः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १८५. पुलाक पांच प्रकार के होते हैंणाणपुलाए, दंसणपुलाए, ज्ञानपुलाकः, दर्शनपुलाकः, चरित्रपुलाकः,
१. ज्ञानपुलाक-स्खलित, मिलित आदि
ज्ञान के अतिचारों का सेवन करने वाला, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, लिङ्गपुलाकः यथासूक्ष्मपुलाको नाम
२. दर्शनपुलाक-सम्यक्त्व के अतिचारों अहासुहमपुलाए णामं पंचमे। पञ्चमः ।
का सेवन करने वाला, ३. चरित्रपुलाक-मूलगुण तथा उत्तरगुण-दोनों में ही दोष लगाने वाला, ४. लिंगपुलाक --शास्त्रविहित उपकरणों से अधिक उपकरण रखने वाला या बिना ही कारण अन्य लिंग को धारण करने वाला, ५. यथासूक्ष्मपुलाक--प्रमादवश अकल्पनीय वस्तु को ग्रहण करने का मन में भी चिन्तन करने वाला या उपर्युक्त पांचों अतिचारों में से कुछ-कुछ अतिचारों का
सेवन करने वाला। १८६. बउसे पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा- बकुशः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १८६. बकुश पांच प्रकार के होते हैं
आभोगबउसे, अणाभोगबउसे, आभोगबकुश:, अनाभोगबकुशः, १. आभोगबकुश-जान-बूझकर शरीर संव डबउसे असंवडबउसे, संवृतबकुश:, असंवृतबकुशः,
की विभूषा करने वाला, अहासुहुमबउसे णामं पंचमे। यथासूक्ष्मबकुशो नाम पञ्चमः ।
२. अनाभोगबकुश-अनजान में शरीर की विभूषा करने वाला, ३. संवृतबकुश-छिप-छिपकर शरीर आदि की विभूषा करने वाला, ४. असंवृतबकुश-प्रकटरूप में शरीर की विभूषा करने वाला, ५. यथासूक्ष्मबकुश-प्रकट या अप्रकट में शरीर आदि की सूक्ष्म विभूषा करने वाला।
१८७. कुसीले पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा- कुशीलः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १८७. कुशील पांच प्रकार के होते हैं
१. ज्ञानकुशील-काल, विनय आदि णाणकुसीले, दसणकुसीले, ज्ञानकुशीलः, दर्शनकुशीलः,
ज्ञानाचार की प्रतिपालना नहीं करने चरित्तकुसीले, लिंगकुसीले, चरित्रकुशीलः, लिङ्गकुशीलः,
आदि अहासुहुमकुसीले णामं पंचमे।
२. दर्शनकुशील-निष्कांक्षित यथासूक्ष्मकुशीलो नाम पञ्चमः ।
दर्शनाचार की प्रतिपालना नहीं करने
वाला,
वाला,
३. चरित्रकुशील-कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आजीविका, कल्ककुरुका, लक्षण, विधा तथा मन्त्र का प्रयोग करने वाला, ४. लिंगकुशील–वेष से आजीविका करने वाला, ५. यथासूक्ष्मकुशील- अपने को तपस्वी आदि कहने से हर्षित होने वाला।
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ठाणं (स्थान)
६००
स्थान ५ : सूत्र १८८-१६० १८८.णियंठे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- निर्ग्रन्थः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १८८. निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के होते हैं ---- पढमसमयणियंठे, प्रथामसमयनिर्ग्रन्थः,
१. प्रथमसमयनिग्रन्थ - निर्ग्रन्थ की कालअपढमसमयणियंठे, अप्रथमसमयनिर्ग्रन्थः,
स्थिति अन्तर्महुर्त प्रमाण होती है। उस चरिमसमयणियंठे, चरमसमयनिर्ग्रन्थः ,
काल में प्रथम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ । अचरिमसमयणियंठे, अचरमसमयनिर्ग्रन्थः,
२. अप्रथमसमयनिर्ग्रन्थ---प्रथम समय के अहासुहमणियं णामं पंचमे। यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थो नाम पञ्चमः । अतिरिक्त शेष काल में वर्तमान निर्ग्रन्थ ।
३. चरमसमयनिर्ग्रन्थ---अन्तिम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ। ४. अचरमसमयनिर्ग्रन्थ-अन्तिम समय के अतिरिक्त शेष समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ । ५. यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ-प्रथम या अन्तिम समय की अपेक्षा किए बिना सामान्य रूप से सभी समयों में वर्तमान निर्ग्रन्थ ।
१८६. सिणाते पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा.- स्नातः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा.... १८६. स्नातक पांच प्रकार के होते हैंअच्छवी, असबले, अकम्मसे, अच्छविः, अशबलः, अकर्माशः,
१. अच्छवी—काय योग का निरोध करने संसुद्धणाणदंसणधरे—अरहा जिणे संशुद्धज्ञानदर्शनधर:-अर्हन् जिनः केवली
वाला। केवली, अपरिस्साई। अपरिधावी।
२. अशबल-निर्विचार साधुत्व का पालन करने वाला। ३. अकर्माश-घात्यकों का पूर्णतः क्षय करने वाला। ४. संशुद्धज्ञानदर्शनधारी---अर्हत, जिन, केवली। ५. अपरिधावी-सम्पूर्ण काय योग का
निरोध करने वाला। उपधि-पदं उपधि-पदम्
उपधि-पद १६०. कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा १६०. निर्ग्रन्थ तथा निर्ग्रन्थियां पांच प्रकार के वा पंच वत्थाई धारित्तए वा पञ्च वस्त्राणि धत्तु वा परिधातुं वा, ।
वस्त्र ग्रहण कर सकती हैं तथा पहन परिहरेत्तए वा, तं जहा- तद्यथा
सकती हैं
१. जांगमिक—वस जीवों के अवयवों से जंगिए, भंगिए, साणए, पोतिए, जाङ्गिक, भाङ्गिक, सानक, पोतक,
निष्पन्न कम्बल आदि, तिरीडपट्टए णामं पंचमए। तिरीटपट्टकं नाम पञ्चमकम् ।
२. भागिक-अतसी से निष्पन्न, ३. सानिक-सन से निष्पन्न, ४. पोतक-रूई से निष्पन्न, ५. तिरीटपट्ट-लोध की छाल से निष्पन्न।
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ठाणं (स्थान)
११. कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पंच रयहरणाई धारितए वा परिहरेत्तए वा तं जहाउणिए, उट्टिए, साणए, पच्चापिच्चिए, मुंजापिच्चिए णामं पंचमए ।
निस्साद्वाण-पदं १६२. धम्मणं
चरमाणस्स पंच
पिसाटाणा पण्णत्ता, तं जहाछक्काया, गणे, राया गाहावती,
सरीरं ।
णिहि-पदं
१३. पंच णिही पण्णत्ता, तं जहा पुतणी, मित्तणिही, सिप्पणिही, धणणिही, धण्णणिही ।
सोच -पदं
१४. पंचविहे सोए पण्णत्ते, तं जहापुढविसोए, आउसोए, तेउसोए, मंतसोए, बंभसोए ।
छउमत्थ- केवलि-पदं १५. पंच ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणति ण पासति तं जहा
६०१
कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पञ्च रजोहरणानि तु वा परिधातुं वा, तद्यथा-
किं, औष्ट्रिक, सानकं, पच्चापिच्चियं, मुञ्चापिच्चियं नाम पञ्चमकम् ।
निश्रास्थान-पदम्
धर्मं चरतः पञ्च निवास्थानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— षटकायाः, गणः, राजा, गृहपतिः, शरीरम् ।
निधि-पदम्
पञ्च निधयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापुत्रनिधिः, मित्रनिधिः, शिल्पनिधिः, धननिधिः, धान्यनिधिः ।
शौच-पदम्
पञ्चविधं शौचं प्रज्ञप्तम्, तद्यथापृथ्वीशौचं अशौच, तेजः शौचं मन्त्रशौचं ब्रह्मशौचम् ।
स्थान ५ : सूत्र ९६१-१६५ १३१. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां पांच प्रकार के रजोहरण ग्रहण तथा धारण कर सकती
हैं
१. ऑणिक - ऊन से निष्पन्न,
२. औष्ट्रिक ऊंट के केशों से निष्पन्न,
३. सानकसन से निष्पन्न,
४. पच्चापिच्चिय १९ बल्वज नाम की
मोटी घास को कूटकर बनाया हुआ,
५. मुंजापिच्चिय "" मूंज को कूटकर
बनाया हुआ ।
निश्रास्थान-पद
१९२. धर्म का आचरण करने वाले साधु के पांच निवास्थान आलम्बन स्थान होते हैं११३
१. पट्काय,
२. गण - श्रमण संघ, ३. राजा, ४. गृहपति — उपाश्रय देने वाला, ५. शरीर ।
निधि-पद
१९३. निधि पांच प्रकार की होती है
२. मित्रनिधि, ४. धननिधि,
१. पुत्रनिधि,
३. शिल्पनिधि,
५. धान्यनिधि |
शौच-पद
१९४. शौच पांच प्रकार का होता है
१. पृथ्वी -- मिट्टीशौच, ३. तेजः शौच,
५. ब्रह्मशौच - ब्रह्मचर्य
आचरण ।
२. जलशौच,
४. मन्त्रशीच आदि का
छद्मस्थ-केवलि-पदम्
छद्मस्थ- केवलि-पद
पञ्च स्थानानि छद्मस्थः सर्वभावेन न १९५. पांच स्थानों को छद्मस्थ सर्वभाव से नहीं जानाति न पश्यति, तद्यथा
जानता, देखता
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स्थान ५ : सूत्र १६६-१६६
१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. अकाशास्तिकाय, ४. शरीरमुक्त जीव, ५. परमाणुपुद्गल ।
ठाणं (स्थान)
६०२ धम्मस्थिकायं, अधम्मत्थिकाय, धर्मास्तिकायं, अधर्मास्तिकायं, आगासत्थिकायं,
आकाशास्तिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं,
जीवं अशरीरप्रतिबद्ध, परमाणुपोग्गलं।
परमाणुपुद्गलम् । एयाणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्शनधर: अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं अर्हन् जिनः केवली सर्वभावेन जानाति जाणति पासति, तं जहा- पश्यति, तद्यथाधम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, धर्मास्तिकायं, अधर्मास्तिकायं, आगास स्थिकायं,
आकाशास्तिकायं, जोवं असरीरपडिबद्धं,
जीवं अशरीरप्रतिबद्धं, परमाणुपोग्गलं।
परमाणुपुद्गलम् ।
केवलज्ञान तथा दर्शन को धारण करने वाले अर्हन्त, जिन तथा केवली इन्हें सर्वभाव से जानते हैं, देखते हैं१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय ४. शरीरमुक्त जीव, ५. परमाणुगुद्गल ।
महाणिरय-पदं महानिरय-पदम्
महानिरय-पद १६६. अधेलोगे णं पंच अणुत्तरा महति- अधोलोके पञ्च अणुत्तरा: महाति- १६६. अधोलोक" में पांच अनुत्तर, सबसे बड़े
महालया महाणिरया पण्णत्ता, तं महान्तो महानिरयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- महानरकावास हैंजहा...
काल:, महाकाल:, रोरुकः, महारौरुकः, १. काल, २. महाकाल, ३. रौरुक, काले, महाकाले, रोरुए, अप्रतिष्ठानः ।
४. महारौरुक, ५. अप्रतिष्ठान । महारोरुए, अप्पतिढाणे। महाविमाण-पदं महाविमान पदम्
महाविमान-पद १६७. उद्दलोगे णं पंच अणुत्तरा महति- ऊर्ध्वलोके पञ्च अनुत्तराणि महाति- १६७. ऊर्ध्वलोक"" में पांच अनुत्तर, सबसे बड़े महालया महाविमाणा पण्णत्ता, महान्ति महाविमानानि प्रज्ञप्तानि, महाविमान हैं-- तद्यथा
१. विजय, २. वैजयन्त, ३. जयन्त, विजये, वेजयंते, जयंते, विजयः, वैजयन्त:,जयन्तः, अपराजित:, ४. अपराजित, ५. सर्वार्थ सिद्ध। अपराजिते, सब्वट्ठसिद्धे। सर्वार्थसिद्धः ।
सत्त-पदं सत्त्व-पदम
सत्त्व-पद १६८. पंच पुरिसजाया पण्णत्ता, तं पञ्च पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि. १६८. पुरुष पांच प्रकार के होते हैं११८ - जहातद्यथा
१. ह्रीसत्त्व, २. ह्रीमनःसत्त्व, हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, ह्रीसत्त्वः, ह्रीमनःसत्त्वः, चलसत्त्वः,
३. चलसत्त्व, ४. स्थिरसत्त्व, थिरसत्ते, उदयणसत्ते। स्थिरसत्त्वः, उदयनसत्त्वः ।
५. उदयनसत्त्व। भिक्खाग-पदं भिक्षाक-पदम्
भिक्षाक-पद १९९. पंच मच्छा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च मत्स्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१६९. मत्स्य पांच प्रकार के होते हैं
१. अनुश्रोतचारी, २. प्रतिथोतचारीअगुसोतचारी, पडिसोतचारी, अनुश्रोतश्चारी, प्रतिश्रोतश्चारी,
हिलसा मछली आदि,
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ठाणं (स्थान)
६०३
अंतचारी, मज्झचारी सव्वचारी । अन्तचारी, मध्यचारी, सर्वचारी ।
एवामेव पंच भिक्खागा पण्णत्ता, एवमेव पञ्च भिक्षाका प्रज्ञप्ताः, तं महा
तद्यथा
अणुसोतचारी, 'पडिसोतचारी,
अंतचारी, मज्भचारी,
सव्वचारी ।
वणीमग-पदं
२००. पंच वणीमगः पण्णत्ता, तं जहा अति हिवणीमगे, किवणवणीमगे, माहणवणीमगे, समणवणीमगे ।
साणवणीमगे,
अनुश्रोतश्चारी, प्रतिश्रोतश्चारी, अन्तचारी, मध्यचारी, सर्वचारी ।
वनीपक-पदम्
पञ्च वनीपकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— अतिथिवनीपकः, कृपणवनीपकः, माहनवनीपकः, श्ववनीपकः, श्रमणवनीपकः ।
भवति, तद्यथाअल्पा प्रतिलेखना, लाघविकं प्रशस्तं, रूपं वैश्वासिकं, तपोऽनुज्ञातं, विपुलः इन्द्रियनिग्रहः ।
स्थान ५ : सूत्र २००-२०१
३. अन्तचारी,
४. मध्यचारी,
५. सर्वचारी ।
इसी प्रकार भिक्षुक पांच प्रकार के होते हैं—
१. अनुश्रोतचारी, २ प्रतिश्रोतचारी, ३. अन्तचारी, ४. मध्यचारी,
५. सर्वचारी ।
वनोपक पद
२०० वनीपक- याचक पांच प्रकार के होते हैं १९९
१. अतिथिवनीपक- अतिथिदान प्रशंसा कर भोजन मांगने वाला ।
२. कृपणवनीपम कृपणदान की प्रशंसा
की
अचल-पदं
अचेल -पदम्
अचेल पद
२०१. पंचहि ठाणेहि अचेलए पसत्थे पञ्चभिः स्थान: अचेलकः प्रशस्तो २०१. पांच स्थानों से अचेलक प्रशस्त होता
है*१०
भवति, तं जहा - अप्पा पडिहा, ला विए पसत्थे, रूवे वेसासिए, तवे अणुष्णाते, विउले इंदियणिग्गहे ।
कर भोजन वाला।
३. माहनवनीपक- ब्राह्मणदान की प्रशंसा
कर भोजन मांगने वाला ।
४. श्ववनीपक- कुत्ते के दान की प्रशंसा
कर भोजन मांगने वाला ।
५. श्रमणवनीपक श्रमणदान की प्रशंसा कर भोजन मांगने वाला।
१. उसके प्रतिलेखना अल्प होती है,
२. उसका लाघव प्रशस्त होता है,
३. उसका रूप [ वेप ] वैश्वासिक - विश्वास योग्य होता है,
४. उसका तप अनुज्ञात्- जिनानुमत होता है,
१. उसके विपुल इन्द्रिय - निग्रह होता है।
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ठाणं (स्थान)
६०४
स्थान ५ : सूत्र २०२-२०५
उत्कल-पद
२०२. उत्कल" [उत्कट ] पाच प्रकार के होते
उक्कल-पद
उत्कल-पदम् २०२. पंच उक्कला पण्णता, तं जहा.. पञ्च उत्कलाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा...
दंडुक्कले, रज्जुक्कले, दण्डोत्कल:, राज्योत्कल:, तेणुक्कले, देसुक्कले, सब्वुक्कले। स्तेनोत्कलः, देशोत्कलः, सर्वोत्कलः ।
१. दण्डोकल-जिसके पास प्रबल दण्डशक्ति हो, २. राज्योत्कल-जिसके पास उत्कट प्रभुत्व हो, ३. स्तनोत्कल-जिसके पास चोरों का प्रबल संग्रह हो, ४. देशोत्कल-जिसके पास प्रबल जनमत हो, ५. सर्वोत्कल-जिसके पास उक्त दण्ड आदि सभी उत्कट हों।
समिति-पद २०३. समितियां पांच है
१. ईयांसमिति, २. भाषासमिति, ३. एपणासमिति, ४. आदान-भांड-अमन-निक्षेपणासमिति, ५. उच्चार-प्रथवण-क्ष्वेल-जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिकासमिति।
समिति-पदम्
सभिति-पदं २०३. पंच समितीओ पण्णताओ, तं पञ्च समितयः प्रज्ञप्ताः, तदयथा-
इरियासमिती, भासासमिती, ईर्यासमितिः, भाषासमितिः, 'एसणासमिती,
एषणासमितिः, आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणासमिती, आदानभाण्ड-अमत्र-निक्षेपणासमितिः, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण- उच्चार-प्रश्रवण-श्वेल-सिंघाण-जल्लजल्ल-पारिठावणियासमिती। पारिष्ठापनिकासमितिः।
जीव-पदं जीव-पदम्
जोव-पद २०४. पंचविधा संसारसमावण्णगाजीवा पञ्चविधाः संसारसमापन्नकाः जीवाः २०४. संसारसमापन्नक जीव पांच प्रकार के पण्णत्ता, तं जहा... प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होते हैएगिदिया, 'बेइंदिया, तेइंदिया, एकेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, १. एकेन्द्रिय, २. द्वीन्द्रिय, ३. वीन्द्रिय, चरिदिया, पदिदिया। चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः।
४. चतुरिन्द्रिय, ५. पंचेन्द्रिय । गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम्
गति-आगति-पद २०५. एगिदिया पंचगतिया पंचागतिया एकेन्द्रियाः पञ्चगतिकाः पञ्चागतिका: २०५. एकेन्द्रिय जीवों की पांच स्थानों में गति पण्णता, तं जहा...प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
तथा पांच स्थानों से आतिहोती है.--- एगिदिए एगितिएसु उववज्जमाणे एकेन्द्रियः एकेन्द्रियेषु उपपद्यमानः एकन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय शरीर में उत्पन्न एगिदिएहितो वा, बेइंदिएहितो एकेन्द्रियेभ्यो वा, द्वीन्द्रियेभ्यो वा, होता हुआ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, वा, तेइंदिएहितो वा, चरिदिए- त्रीन्द्रियेभ्यो वा चतुरिन्द्रियेभ्यो वा चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय से उत्पन्न हितो वा, पंचिदिएहितो वा, पञ्चेन्द्रियेभ्यो वा उपपद्यत ।
होता है। उवज्जेज्जा।
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६०५
ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : सूत्र २०६-२०६ से चेव णं से एगि दिए एगिदियत्तं स चैव असौ एकेन्द्रियः एकेन्द्रियत्वं एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय शरीर को छोड़ता विप्पजहमाणे एगिदियत्ताए वा, विप्रजहत एकेन्द्रियतया वा, द्विन्द्रियतया हुआ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतु'बेइंदियत्ताए वा, तेइंदियत्ताए बा, वा, विन्द्रियतया वा, चतुरिन्द्रियतया रिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में जाता है। चरिदियत्ताए वा, पंचिदियत्ताए वा, पञ्चन्द्रियतया वा गच्छेत् ।
वा गच्छेज्जा। २०६. बेदिया पंचगतिया पंचागतिया द्वीन्द्रिया: पञ्चगतिकाः पञ्चागतिकाः २०६. इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों की इन्हीं पांच एवं चेव। एवं चैव।
स्थानों में गति तथा इन्हीं पांच स्थानों से
आगति होती है। २०७. एवं जाव पंचिदिया पंचगतिया एवं यावत पञ्चेन्द्रियाः पञ्चगतिकाः २०७. इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा
पंचागतिया पण्णता, तं जहा- पञ्चागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- पंचेन्द्रिय जीवों की भी इन्हीं पांच स्थानों पंचिदिए जाव गच्छेज्जा। पञ्चेन्द्रियः यावत् गच्छेत् ।
में गति तथा इन्हीं पांच स्थानों से आगति होती है।
जीव-पदं जीव-पदम्
जीव-पद २०८. पंचविधा सवजीवा पण्णत्ता, तं पञ्चविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, २०८. सब जीव पांच प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. क्रोधकषायी, २. मानकषायी, कोहकसाई, 'माणकसाई, क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, ३. मायाकषायी, ४. लोभकषायी, मायाकसाई, लोभकसाई, लोभकषायी, अकषायी।
५. अकषायी। अकसाई। अहवा... अथवा
अथवापंचविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं पञ्चविधाः सर्वजीयाः प्रज्ञप्ताः, सब जीव पांच प्रकार के होते हैंजहातद्यथा
१. नैरयिक, २. तिर्यञ्च, ३. मनुष्य, •णेरडया, तिरिक्खजोणिया, नैरयिकाः, तिर्यग्योनिकाः, मनुष्याः, ४. देव, ५. सिद्ध। मणुस्सा, देवा, सिद्धा। देवाः, सिद्धाः।
जोणि-ठिइ-पदं योनि-स्थिति-पदम्
योनि-स्थिति-पद २०६. अह भंते ! कल-मसूर-तिल-मुग्ग- अथ भन्ते ! कला-मसूर-तिल-मुद्ग- २०६. भगवन् ! मटर, मसूर, तिल, मूंग, उड़द,
मास-णिप्फाव-कुलत्थ-आलिसंदग- माष-निष्पाव-कुलत्थ-आलिसंदक- निष्पाव-सेम, कुलथी, चवला, तूवर तथा सतीण-पलिथगाणं एतेसि णं सतीणा-परिमन्थकानां—एतेषां धान्यानां
काला चना-इन अन्नों को कोठे, पल्य,
मचान और माल्य में डालकर उनके द्वारधण्णाणं कुट्ठाउत्ताणं पल्ताउत्ताणं कोष्ठागुप्तानां पल्यागुप्तानां मञ्चा
देश को ढंक देने, लीप देने, चारों ओर से मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं गुप्तानां मालागुप्तानां अबलिप्तानां
लीप देने, रेखाओ से लांछित्त कर देने, ओलिताणं लित्ताणं लंछियाणं लिप्तानां लाञ्छितानां मूद्रितानां
मिट्टी से मुद्रित कर देने पर उनकी योनि मुदियाणं पिहिताणं केवइयं कालं पिहितानां कियन्तं कालं योनिः । [उत्पादक-शक्ति] कितने काल तक जोगी संचिट्ठति ? संतिष्ठते ?
रहती है ?
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ठाणं (स्थान)
गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षण उक्कोसेणं पच संवच्छराई। तेण पञ्च संवत्सराणि। तेन परं योनिः परं जोणी पमिलायति, 'तेण परं प्रम्लायति, तेन परं योनिः प्रविध्वंसते, जोणी पविद्धंसति, तेण परं जोणी तेन परं योनिः विध्वंसते, तेन परं बीज विद्धंसति, तेण परं बीए अबीए अबीजं भवति, तेन परं योनिव्यवच्छेदः भवति, तेण पर जोणीवोच्छेदे ।
प्रज्ञप्तः। पण्णत्ते।
__ स्थान ५ : सूत्र २१०-२१३ गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट पांच वर्ष । उसके बाद वह म्लान हो जाती है, विध्वस्त हो जाती है, क्षीण हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है और योनि का विच्छेद हो जाता है।
संवच्छर-पदं संवत्सर-पदम्
संवत्सर-पद २१०. पंच संवच्छरा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च संवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २१०. संवत्सर पांच प्रकार का होता है१२२णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छरे, नक्षत्रसंवत्सरः युगसंवत्सरः
१. नक्षत्रसंवत्सर, २. युगसंवत्सर, पमाणसंवच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, प्रमाणसंवत्सर: लक्षणसंवत्सरः
३. प्रमाणसंवत्सर, ४. लक्षणसंवत्सर, सणिचरसंवच्छरे। शनैश्चरसंवत्सरः।
५. शनिश्चरसंवत्सर। २११. जुगसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं युगसंवत्सरः पञ्चविध: प्रज्ञप्तः, २११. युगसंवत्सर पांच प्रकार का होता है १२९--- जहा.तद्यथा
१ चन्द्र, २. चन्द्र, ३. अभिवधित, चंदे, चंदे, अभिडिते, चन्द्रः, चन्द्रः, अभिवधितः, चन्द्र:, ४. चन्द्र, ५. अभिवधित ।
चंदे, अभिवड़िते चेव। अभिवधितः चैव। २१२. पमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, २१२. प्रमाणसंवत्सर पांच प्रकार का होता जहा
तद्यथाणक्खत्ते, चंदे, उऊ, आदिच्चे, नक्षत्रः, चन्द्रः, ऋतुः, आदित्यः, १. नक्षत्र, २. चन्द्र, ३. ऋतु, ४. आदित्य, अभिवट्टिते। अभिवधितः।
५. अभिवधित। २१३. लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, लक्षणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, २१३. लक्षणसंवत्सर पांच प्रकार का होता तद्यथा
१. नक्षत्र, २. चन्द्र, ३. कर्म [ऋतु] ४. आदित्य, ५. अभिवधित।
तं जहा
संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. समगं णक्खत्ताजोगं जोयंति, १. समकं नक्षत्राणियोगं योजयन्ति, समगं उदू परिणमंति। समकं ऋतव: परिणमन्ति । गच्चुण्हं णातिसीतो, नात्युष्णः नातिशीतः, बहूदओ होति णक्खत्तो॥ बहुउदक: भवति नक्षत्रः ।।
संग्रहणी-गाथा १. जिस संवत्सर में नक्षत्र समतयाअपनी तिथि का अतिवर्तन न करते हुए तिथियों के साथ योग करते हैं, ऋतुएं समतया-अपनी काल-मर्यादा के अनुसार परिणत होती है, न अति गर्मी होती है और न अति सर्दी तथा जिसमें पानी अधिक गिरता है, उसे नक्षत्रसंवत्सर कहते हैं।
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ठाणं (स्थान)
६०७
स्थान ५: सूत्र २१४
२. ससि सगलपुण्णमासी, २. शशिसकलपूर्णमासी,
२. जिस संवत्सर में चन्द्रमा सभी पूर्णिजोएइ विसमचारिणक्खत्ते। योजयति विषमचारिनक्षत्रः ।
माओं का स्पर्श करता है, अन्य नक्षत्र
विषमचारी-अपनी तिथियों का अतिकडुओ बहूदओ वा, कटुक: बहूदको वा,
वर्तन करने वाले होते हैं. जो कटक --- तमाहु संवच्छरं चंदं ॥ तमाहुः संवत्सरं चन्द्रम् ।।
अतिगर्मी और अतिसर्दी के कारण भयंकर होता है तथा जिसमें पानी अधिक गिरता
है, उसे चन्द्र संवत्सर करते हैं। ३. विसमं पवालिणो परिणमंति, ३. विषमं प्रवालिनः परिणमन्ति ३. जिम संवत्सर में वृक्ष असमय अंकुरित अणुदूसू देति पुप्फफलं। अनृतुषु ददति पुष्पफलम् ।
हो जाते हैं, असमय में फूल तथा फल आ वासं ण सम्म वासति, वर्षो न सम्यग् वर्षति,
जाते हैं, वर्षा उचित मात्रा में नहीं होती, तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥ तमाहुः संवत्सरं कर्म ॥
उसे कर्म संवत्सर कहते हैं। ४. पुढविदगाणं तु रसं, ४. पृथिव्युदकानां तु रस,
४. जिस संवत्सर में वर्षा अल्प होने पर पुष्फफलाणं तु देइ आदिच्चो। पुष्पफलानां तु ददाति आदित्यः । भी सूर्य पृथ्वी, जल तथा फूलों और फलों अप्पेणवि वासेणं, अल्पेनापि वर्षेण,
को मधुर और स्निग्ध रस प्रदान करता है सम्मं णिप्फज्जए सासं॥ सम्यग् निष्पद्यते शस्यम् ।
तथा फसल अच्छी होती है, उसे आदित्य
संवत्सर कहते हैं। ५. आदिच्चतेयतविता, ५. आदित्यतेजस्तप्ता,
५. जिस संवत्सर में सूर्य के ताप से क्षण, खणलवदिवसा उऊ परिणमंति। क्षणलवदिवसर्तव: परिणमन्ति । लव, दिवस और ऋतु तप्त जैसे हो उठते पूरिति रेणु थलयाई, पूरयन्ति रेणभिः स्थलकानि,
हैं तथा आंधियों से स्थल भर जाता है, तमाह अभिवडितं जाण ॥ तमाहुः अभिवधितं जानीहि ।
उसे अभिवधित संवत्सर कहते हैं। जीवस्स णिज्जाणमग्ग-पदं जीवस्य-निर्याणमार्ग-पदम्
जीवस्य-निर्याणमार्ग-पद २१४. पंचविधे जीवस्स णिज्जाणमग्गे पञ्चविधः जीवस्य निर्याणमार्गः प्रज्ञप्तः, २१४. जीव के निर्याण-मार्ग पांच हैंपण्णत्ते, तं जहातद्यथा
१.पैर, २. ऊरु-घुटने से ऊपर का भाग, पाहि, उरूहि, उरेणं, सिरेणं, पादैः, ऊरुभिः, उरसा, शिरसा, ३. हृदय, ४. सिर, ५. सारे अंग। सव्वंगेहि। सर्वाङ्गः।
१.पैरों से निर्याण करने वाला जीव नरकपाएहि णिज्जायमाणे णिरयगामी पादैः निर्यान् नरकगामी भवति । गामी होता है। भवति।
२. ऊर से निर्याण करने वाला जीव उरूहि णिज्जायमाणे तिरियगामी ऊरुभिः निर्यान् तिर्यग्गामी भवति । तिर्यगामी होता है। भवति।
३. हृदय से निर्याण करने वाला जीव उरेणं णिज्जायमाणे मणुयगामी उरसा निर्यान् मनुष्यगामी भवति। मनुष्यगामी होता है। भवति ।
४. सिर से निर्याण करने वाला जीव देवसिरेणं णिज्जायमाणे देवगामी शिरसा निर्यान् देवगामी भवति।
गामी होता है। भवति ।
५. सारे अंगों से निर्याण करने वाला जीव सध्वंगेहि णिज्जायमाणे सिद्धिगति- सर्वाङ्गः निर्यान् सिद्धिगति-पर्यवसानः सिद्धगति में पर्यवसित होता है। पज्जवसाणे पण्णत्ते।
प्रज्ञप्तः ।
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ठाणं (स्थान)
६०८
स्थान ५ : सूत्र २१५-२१७
है--
छेयण-पदं छेदन-पदम्
छेदन-पद २१५. पंचविहे छेयणे पण्णत्ते, तं जहा- पञ्चविधं छेदनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- २१५. छेदन [विभाग] पांच प्रकार का होता
उप्पाछेयणे, वियच्छेयणे, उत्पादच्छेदन, व्ययच्छेदनं, बंधच्छेयणे, पएसच्छेयणे, बन्धच्छेदनं, प्रदेशच्छेदनं,
१. उत्पादछेदन-उत्पादपर्याय के आधार दोधारच्छेयणे। द्विधाच्छेदनम् ।
पर विभाग करना, २. व्ययछेदन-विनाशपर्याय के आधार पर विभाग करना, ३. बंधछेदन-सम्बन्ध-विच्छेद, ४. प्रदेशछेदन---अविभक्त वस्तु के प्रदेशों [अवयवों का बुद्धि कल्पित विभाग।
५. द्विधारछेदन-दो टुकड़े। आणंतरिय-पदं आनन्तर्य-पदम्
आनन्तर्य-पद २१६. पंचविहे आणंतरिए पण्णत्ते, तं पञ्चविधं आनन्तर्य प्रज्ञप्तम्, २१३. आनन्तर्य [सातत्य] पांच प्रकार का जहातद्यथा
होता हैउप्पायाणंतरिए, वियाणंतरिए, उत्पादानन्तयं, व्ययानन्तर्य,
१. उत्पादआनन्तर्य-उत्पाद का अविरह, पएसाणंतरिए, समयाणंतरिए, प्रदेशानन्तर्य, समयानन्तर्य,
२. व्ययआनन्तर्य-विनाश का अविरह, सामण्णाणंतरिए। सामान्यानन्तर्यम्।
३. प्रदेशआनन्तर्य-प्रदेशों की संलग्नता, ४. समयआनन्तर्य-समय की संलग्नता, ५. सामान्यआनन्तर्य-जिसमें उत्पाद, व्यय आदि विशेष पर्यायों की विवक्षा न हो, वह आनन्तर्य।
अणंत-पदं अनन्त-पदम्
अनन्त-पद २१७. पंचविधे अणंतए पण्णत्ते, तं जहा- पञ्चविधं अनन्तकं प्रज्ञप्तम, तदयथा- २१७. अनन्तक पांच प्रकार का होता हैणामाणंतए, ठवणाणतए, नामानन्तक, स्थापनानन्तक,
१. नामअनन्तक, २. स्थापनाअनन्तक, दवाणंतए, गणणाणंतए, द्रव्यानन्तक, गणनानन्तकं,
३. द्रव्यअनन्तक, ४. गणनाअनन्तक, पदेसाणंतए। प्रदेशानन्तकम् ।
५. प्रदेशअनन्तक। अहवा.-पंचविहे अणंतए पण्णत्ते, अथवा–पञ्चविधं अनन्तकं प्रज्ञप्तम्, अथवा-अनन्तक पांच प्रकार का होता
तद्यथाएगतोऽणतए, दुहओणतए, एकतोऽनन्तकं, द्विधाऽनन्तकं, १. एकतःअनन्तक, २.द्विधाअनन्तक, देस वित्थाराणंतए, देशविस्ताराऽनन्तक,
३. देशविस्तारअनन्तक, ४. सर्वविस्तार सम्ववित्थाराणंतए.सासयाणंतए। सर्व विस्ताराऽनन्तकं, शाश्वतानन्तकम । अनन्तक, ५. शाश्वत अनन्तक ।
तं जहा
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ठाणं (स्थान)
णाण-पदं
ज्ञान-पदम्
२१८. पंचविहे गाणे पण्णत्ते, तं जहा— पञ्चविधं ज्ञानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा---- आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं, अवधिज्ञानं, मनः पर्यवज्ञानं, केवलज्ञानम् ।
आभिणिवोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे,
मणपज्जवणाणे, केवलणाणे । २१६. पंचविहे णाणावर णिज्जे कम्मे
पण्णत्ते, तं जहा - आभिणिबोयिणाणावर णिज्जे,
६०६
• सुयणाणावर णिज्जे,
ओहिणाणावर णिज्जे, मणपज्जवणाणावर णिज्जे,
केवलणाणावर णिज्जे | २२०. पंचविहे सज्झाए पण्णत्ते, तं पञ्चविधः
जहा -
वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुपेहा, धम्मका ।
अभिनिवोधिकज्ञानावरणीयं,
श्रुतज्ञानावरणीयं,
अवधिज्ञानावरणीयं,
मनः पर्यवज्ञानावरणीयं,
केवलज्ञानावरणीयम् ।
३. अवधिज्ञान,
५. केवलज्ञान ।
पञ्चविधं ज्ञानावरणीयं कर्म प्रज्ञप्तम्, २१६. ज्ञानावरणीय कर्म के पांच प्रकार हैं१. आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय,
तद्यथा—
स्वाध्यायः
तद्यथा
वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा ।
पच्चक्खाण-पदं प्रत्याख्यान-पदम् २२१. पंचविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं पञ्चविधं प्रत्याख्यानं
तद्यथा—
जहा - सद्दणसुद्धे, विणसुद्धे, अणुभासणासुद्धे, अणुपालणासुद्धे, भावसुद्धे ।
श्रद्धानशुद्धं, विनयशुद्धं, अनुभाषणाशुद्धं, अनुपालनाशुद्धं, भावशुद्धम् ।
स्थान ५ : सूत्र २१८-२२१
ज्ञान- पद
२१८. ज्ञान के पांच प्रकार हैं
१. आभिनिवोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ४. मनः पर्यवज्ञान,
प्रज्ञप्तः, २२०. स्वाध्याय १८ के पांच प्रकार हैं-
२. श्रुतज्ञानावरणीय,
३. अवधिज्ञानावरणीय,
४. मनः पर्यवज्ञानावरणीय,
५. केवलज्ञानावरणीय ।
१. वाचना -- अध्यापन, २. प्रच्छनासंदिग्ध विषयों में प्रश्न करना, ३. परिवर्तना - पठित ज्ञान की पुनरा वृत्ति करना, ४. अनुप्रेक्षा - चिन्तन, ५. धर्मकथा - धर्मचर्चा |
प्रत्याख्यान पद
प्रज्ञप्तम्, २२१. प्रत्याख्यान पांच प्रकार का होता है-
१. श्रद्धानशुद्ध श्रद्धापूर्वक स्वीकृत | २. विनयशुद्ध - विनय समाचरण पूर्वक स्वीकृत |
३. अनुभाषणाशुद्ध-प्रत्याख्यान कराते समय गुरु जिस पाठ का उच्चारण करे उसे दोहराना ।
४. अनुपालनाशुद्ध No. -कठिन परिस्थिति में भी प्रत्याख्यान का भंग न करना,
उसका विधिवत् पालन करना ।
५. भावशुद्ध राग-द्वेष या आकांक्षात्मक मानसिक भावों से अदूषित |
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : सूत्र २२२-२२४
पडिक्कमण-पदं
प्रतिक्रमण-पदम् २२२. पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तं पञ्चविधं प्रतिक्रमणं जहा
तद्यथाआसवदारपडिक्कमणे,
आश्रवद्वारप्रतिक्रमणं, मिच्छत्तपडिक्कमणे,
मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं, कसायपडिक्कमणे,
कषायप्रतिक्रमणं, जोगपडिक्कमणे,
योगप्रतिक्रमणं, भावपडिक्कमणे।
भावप्रतिक्रमणम् ।
प्रतिक्रमण-पद प्रज्ञप्तम्, २२२. प्रतिक्रमण१२२ पांच प्रकार का होता है -
१. आश्रवद्वारप्रतिक्रमण, २. मिथ्यात्वप्रतिक्रमण, ३. कषायप्रतिक्रमण, ४. योगप्रतिक्रमण, ५. भावप्रतिक्रमण।
सुत्त-पदं सूत्र-पदम्
सूत्र-पद २२३. पंचहि ठाणेहि सुत्तं वाएज्जा, तं पञ्चभिः स्थानैः सूत्र वाचयेत्, २२३. पांच कारणों से सूत्रों का अध्यापन कराना तद्यथा
चाहिए-- संगहट्टयाए, उवग्गहट्टयाए, संग्रहार्थाय, उपग्रहार्थाय,
१. संग्रह के लिए-शिष्यों को श्रुत-सम्पन्न णिज्जरट्ठयाए, निर्जराय,
करने के लिए। सुत्ते वा मे पज्जवयाते भविस्सति, सूत्रं वा मम पर्यवजातं भविष्यति, २. उपग्रह के लिए-भक्त, पान व उपसुत्तस्स वा अवोच्छित्तिणयट्टयाए। सूत्रस्य वा अव्यवच्छित्तिनयार्थाय । करणों की विधिवत् उपलब्धि कर सके,
वैसी क्षमता उत्पन्न करने के लिए। ३. निर्जरा के लिए---कर्म-क्षय के लिए। ४. अध्यापन से मेरा श्रुत पर्यवजातपरिस्फुट होगा, इसलिए। ५. श्रुतपरम्परा को अव्यवच्छिन्न रखने के
लिए। २२४. पंचहि ठाणेहि सुत्तं सिक्खेज्जा, तं पञ्चभिः स्थानः सूत्रं शिक्षेत्, २२४. पांच कारणों से श्रुा का अध्ययन करता जहातदयथा
चाहिएणाणट्टयाए, दंसणट्ठयाए, ज्ञानार्थाय, दर्शनार्थाय, चरितार्थाय, १. ज्ञान के लिए अभिनव तत्त्वों की चरित्तट्ठयाए, वुग्गह विमोयणट्ठयाए। व्युद्ग्रहविमोचनाय,
उपलब्धि के लिए। अहत्थे वा भावे जाणिस्सामी- यथार्था (स्था)न् वा भावान्
२. दर्शन के लिए श्रद्धा की पुष्टि के तिकटट। ज्ञास्यामीतिकृत्वा।
लिए। ३. चरित्न के लिए-आचार-विशुद्धि के लिए। ४. व्युद्ग्रह विमोचन के लिए दूसरों को मिथ्या अभिनिवेश से मुक्त करने के लिए। ५. मैं यथार्थ भावों को जानूंगा, इसलिए।
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ठाणं (स्थान)
६११
स्थान ५: सूत्र २२५-२३०
कप्प-पदं कल्प-पदम्
कल्प-पद २२५. सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा सौधर्मेशानयोः कल्पयोः विमानानि २२५. सौधर्म और ईशान देवलोक में विमान
पंचवण्णा पण्णता, तं जहा- पञ्चवर्णानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- पांच वर्षों के होते हैंकिण्हा, •णीला, लोहिता, कृष्णानि, नीलानि, लोहितानि, १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, हालिद्दा, सुकिल्ला। हारिद्राणि, शुक्लानि।
४. हारिद्र, ५. शुक्ल । २२६. सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा सौधर्मशानयोः कल्पयोः विमानानि २२६. सौधर्म और ईशान देवलोक में विमान
पंचजोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं पञ्चयोजनशतानि अवं उच्चत्वेन पांच सौ योजन ऊंचे हैं। पण्णत्ता।
प्रज्ञप्तानि । २२७. बंभलोग-लंतएसु णं कप्पेसु देवाणं ब्रह्मलोक-लान्तकयोः कल्पयोः देवानां २२७. ब्रह्मलोक तथा लांतक देवलोक में देव
भवधारणिज्जसरीरगा उक्कोसेणं भवधारणीयशरीरकाणि उत्कर्षण पञ्च ताओं का भवधारणीय शरीर उत्कृष्टतः पंच रयणी उड्ड उच्चत्तेणं रत्नीः ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि । पांच रत्नि ऊंचा होता है। पण्णत्ता।
बंध-पदं बन्ध-पदम
बन्ध-पद २२८. णेरइया णं पंचवण्णे पंचरसे नैरयिकाः पञ्चवर्णान् पञ्चरसान् २२८. नैरयिकों ने पांच वर्ण तथा पांच रसवाले
पोग्गले बंधेसु वा बंधति वा पुद्गलान् अभान्त्सुः वा बध्नन्ति वा पुद्गलों का बंधन [ कर्मरूप में स्वीकरण] बंधिस्संति वा, तं जहा- बन्धिष्यन्ति वा, तद्यथा
किया है, कर रहे हैं तथा करेंगे-- किण्हे, •णीले, लोहिते, हालिदे, कृष्णान्, नीलान्, लोहितान्, हारिद्रान्, । १. कृष्णवर्णवाले, २. नीलवर्णवाले, सुक्किले। शुक्लान् ।
३. लोहितवर्णवाले, ४. हारिद्रवर्णवाले, तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, तिक्तान् कटु कान्, कपायान्. अम्लान्, ५.शुक्लयर्शदाले। मधुरे। मधुरान् ।
१. तिक्तरसवाले, २. कटु रसवाले, ३. कषायरसवाले, ४. अम्लरसवाले,
५. मधुररसवाले। २२६. एवं_जाव वेमाणिया। एवम्-यावत् वैमानिकाः । २२६. इसी प्रकार वैमानिकों तक के सारे ही
दण्डक-जीवों ने पांच वर्ण तथा पांच रस वाले पुद्गलों का बंधन [कर्मरूप में स्वीकरण] किया है, कर रहे हैं तथा करेंगे।
महाणदी-पदं महानदी-पदम्
महानदी पद १३०. जंबुद्दीवे दीवे मंबरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे २३०. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत थे। दक्षिण
दाहिणे णं गंग महादि पंच महा- गङ्गा महानदी पञ्च महानद्यः समाप. भाग---भरतक्षेत्र में गंगा महानदी में पांच णदीओ समप्लेति, तं जहा- यन्ति, तद्यथा.....
महानदियां मिलती है९३३ - जउजा, सरऊ, आवी, कोसी, यमुना, सरयू:, आवी, कोशी, मही। १. यमुना, २. सरय, ३. आवी, मही।
४. कोसी, ५. मही।
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ठाणं (स्थान)
२३१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं सिंधु महाद पंच महानदीओ समप्र्पति तं जहा — स [त ? ]द्द, वितत्था, विभासा, एरावती, चंद्रभागा ।
२३२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रतं महार्णाद पंच महानदीओ समप्येति, तं जहा - किण्हा, महा किण्हा, नीला, महाणीला, महातीरा । २३३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रत्तावति महार्णाद पंच महानदीओ समपैति तं जहा इंदा, इंदसेणा, सुसेना, वारिसेणा, महाभोगा ।
तित्थगर - पदं
२३४. पंच तित्थगरा कुमारवासमज्भे सत्ता मुंडा 'भविता अगाराओ अगगारियं पव्वइया, तं जहावासुपुज्जे, मल्ली, अरिटुणेमी, पासे, वीरे ।
सभा-पदं
२३५. चमरच्चाए रायहाणीए पंच सभा पण्णत्ता, तं जहा
सभासुधम्मा, उववातसभा, अभिसेसभा, अलंकारियसभा, ववसायसभा ।
६१२
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे सिन्धूं महानदीं पञ्च महानद्यः समर्पयन्ति, तद्यथा—
शतद्रुः, वितस्ता, विपाशा, ऐरावती,
चन्द्रभागा ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे रक्तां महानदीं पञ्च महानद्यः समर्पयन्ति, तद्यथा -
कृष्णा, महाकृष्णा, नीला, महानीला, महातीरा | जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे रक्तावतीं महानदीं पञ्च महानद्यः समर्पपन्ति, तद्यथा— इन्द्रा, इन्द्रसेना, सुषेणा वारिषेणा, महाभोगा |
तीर्थकर -पदम्
पञ्च तीर्थकराः कुमारवासमध्ये उषित्वा मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिताः, तद्यथा
वासुपूज्यः, मल्ली, अरिष्टनेमिः, पार्श्वः, वीरः ।
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
सभासुधर्मा, उपपातसभा,
अभिषेकसभा, अलंकारिकसभा,
व्यवसायसभा ।
स्थान ५ : सूत्र २३१-२३५
२३१. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिणभाग - भरतक्षेत्र में सिन्धु महानदी में पांच महानदियाँ मिलती हैं ४
१. शतद्रु - शतलज, २. वितस्ता - झेलम, ३. विपासा -- व्यास, ४. ऐरावती -- रावी, ५. चन्द्रभागा - चिनाव ।
२३२. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तरभाग -- ऐरवतक्षेत्र में रक्ता महानदी में पांच महानदियां मिलती हैं-
१. कृष्णा, २. महाकृष्णा, ३. नीला, ४. महानीला, ५. महातीरा । २३३. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तरभाग -- ऐरवतक्षेत्र में रक्तावती महानदी में पांच महानदियां मिलती हैं
१. इन्द्रा, २. इन्द्रसेना, ३. सुषेणा, ४. वारिषेणा, ५. महाभोगा ।
तीर्थकर पद
२३४. पांच तीर्थंकर कुमारवास में रहकर मुण्ड होकर, अगार को छोड़ अनगारत्व में प्रव्रजित हुए-
सभा-पदम्
सभा-पद
चमरचञ्चायां राजधान्यां पञ्च सभाः २३५. चमरचंचा राजधानी में पांच सभाएं हैं
१. वासुपूज्य, २. मल्ली, ३. अरिष्टनेमि, ४. पार्श्व, ५. महावीर ।
१. सुधर्मासभा - शयनागार,
२. उपपातसभा - प्रसवगृह,
३. अभिषेकसभा - जहां राज्याभिषेक
किया जाता है,
४. अलंकारिकसभा — अलंकारगृह,
५. व्यवसायसभा अध्ययनकक्ष ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५: सूत्र २३६-२४० २३६. एगमेगे णं इंदट्ठाणे पंच सभाओ एकैकस्मिन् इन्द्रस्थाने पञ्च सभाः २३६. इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्र की राजधानी में पण्णत्ताओ, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
पांच-पांच सभाएं हैंसभासुहम्मा, 'उववातसभा, सभासुधर्मा, उपपातसभा, १. सुधर्मासभा, २. उपपातसभा, अभिसेयसभा, अलंकारियसभा, अभिषेकसभा, अलंकारिकसभा, ३. अभिषेकसभा, ४. अलंकारिकसभा, ववसायसभा। व्यवसायसभा।
५. व्यवसायसभा।
णक्खत्त-पदं नक्षत्र-पदम्
नक्षत्र-पद २३७. पंच णक्खत्ता पंचतारा पण्णत्ता, पञ्च नक्षत्राणि पञ्चताराणि प्रज्ञप्तानि, २३७. पांच नक्षत्र पांच तारोंवाले हैंतं जहातद्यथा
१. धनिष्ठा, २. रोहिणी, ३. पुनर्वसु, धणिट्ठा, रोहिणी, पुणव्वसू, हत्थो, धनिष्ठा, रोहिणी, पुनर्वसुः, हस्तः, ४. हस्त, ५. विशाखा। विसाहा।
विशाखा।
पावकम्म-पदं पापकर्म-पदम्
पापकर्म-पद २३८. जीवा णं पंचद्वाणणिव्वत्तिए जीवाः पञ्चस्थाननिर्वतितान् पुद्गलान् २३८. जीवों ने पांच स्थानों से निर्वतित पुद्गलों
पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिसु वा पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा का, पापकर्म के रूप में, चय किया है, चिणंति वा चिणिस्संति वा तं चेष्यन्ति वा, तद्यथा
करते हैं तथा करेंगे-- जहा.
१. एकेन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का, एगिदियणिव्वत्तिए, एकेन्द्रियनिर्वतितान्,
२. द्वीन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का, 'बेइंदियणिव्वत्तिए, द्वीन्द्रियनिर्वतितान,
३. त्रीन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का, तेइंदियणिव्वत्तिए, त्रीन्द्रियनिर्वतितान्,
४. चतुरिन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का, चरिदियणिव्वत्तिए, चतुरिन्द्रयनिर्वतितान्,
५. पंचेन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का। पंचिदियणिव्वत्तिए, पञ्चेन्द्रियनिर्वतितान्।
इसी प्रकार जीवों ने पांच स्थानों से एवं-चिण-उवचिण-बंध एवम् –चय-उपचय-बन्ध
निर्वतित पुद्गलों का, पापकर्म के रूप में, उदीर-वेद तह णिज्जरा चेव । उदीर-वेदाः तथा निर्जरा चैव ।
उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण
किया है, करते हैं तथा करेंगे। पोग्गल-पदं पुद्गल-पदम्
पुद्गल-पद २३६. पंचपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। पञ्चप्रदेशिकाः स्कन्धाः अनन्ता: २३६. पंच-प्रदेशी स्कंध अनन्त हैं।
प्रज्ञप्ताः । २४०. पंचपएसोगाढा पोग्गला अणंता पञ्चप्रदेशावगाढा: पुद्गलाः अनन्ताः २४०. पंच-प्रदेशावगाढ़ पुद्गल अनन्त हैं ।
जाव पंचगुणलुक्खा पोग्गला प्रज्ञप्ताः यावत् पञ्चगुणरूक्षाः पुद्गलाः पांच समय की स्थिति वाले पुद्गल अणंता पण्णत्ता। अनन्ताः प्रज्ञप्ताः।
अनन्त हैं। पांच गुण काले पुद्गल अनन्त हैं। इसी प्रकार शेष वर्ण तथा गंध, रस और स्पर्शों के पांच गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं।
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टिप्पणियाँ स्थान-५
१. (सू०५)
कामगुण--- काम का अर्थ है— अभिलाषा और गुण का अर्थ है-पुद्गल के धर्म । कामगुण के दो अर्थ हैं' १. मैथुन-इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल। २. इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल ।
२. (सू०६-१०)
इन सूत्रों में प्रयुक्त संग, राग, मूर्छा, गृद्धि और अध्युपपन्नता-ये शब्द आसक्ति के क्रमिक विकास के द्योतक हैं। इनकी अर्थ-परम्परा इस प्रकार है--
१. संग–इन्द्रिय-विषयों के साथ सम्बन्ध । २. राग-इन्द्रिय-विषयों से लगाव । ३. मूर्छा-इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न दोषों को न देख पाना तथा उनके संरक्षण के लिए सतत चिन्तन करना। ४. गृद्धि प्राप्त इन्द्रिय-विषयों के प्रति असंतोष और अपातन्द्रिय-विषयों की आकांक्षा। ५. अध्युपपन्नता--इन्द्रिय-विषयों के सेवन में एकचित्त हो जाना; उनकी प्राप्ति में अत्यन्त दत्तचित्त हो जाना।
३. (सू० १२)
यहां अहित, अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस और अननुगामिक-इन पांच शब्दों का प्रयोग प्रतिपाद्य विषय पर बल देने के लिए किया गया है। साधारणतया इनसे अहित शब्द का अर्थ ही ध्वनित होता है और प्रत्येक शब्द की अर्थ-भिन्नता पर विचार किया जाए तो इनके अर्थ इस प्रकार फलित होते हैं
अहित—अपाय। अशुभ ---पुण्यरहित। अक्षम–अनौचित्य या असामर्थ्य ।
१. स्थानमवृत्ति, पत्र २७७ : 'काम'त्ति कामस्य-मदना
भिलाषस्य अभिलाषमावस्य वा सपादका, गुणा-धर्माः पुद्गलानां, काम्यन्त इति का....ते च ते गुणाश्चेति वा काय
गुणा इति। २. स्थानांगवृत्ति, २७७, २७८ : सज्यन्ते ---राङ्ग सम्बन्ध
कुर्वन्तीति ४,........... रज्यन्ते-सङ्गकारणं राग यान्तीति,
मूर्छन्ति-तद्दोषानवलोकनेन मोहमचेतनत्वमिव यान्ति संरक्षणानुबन्धवन्तो वा भवन्तीति, गध्यन्ति-प्राप्तस्यासन्तोषेणाप्राप्तस्यापरापरस्याकाङ क्षावन्तो भवन्तीति, अध्युपपद्यन्ते तदेकचित्ता भवन्तीति तदर्जनाय बाऽऽधिक्येनोपपद्यन्तेउपपन्ना घटमाना भवन्तीति ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७८ ।
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ठाणं (स्थान)
४. (सू०१८ )
अनिःश्रेयस अकल्याण ।
अननुगामिक- भविष्य में उपकारक के रूप में साथ नहीं देने वाला ।
देखें-- २।२४३-२४८ का टिप्पण ।
५. ( सू० २० )
जिस प्रकार दिशाओं के अधिपति इन्द्र, अग्नि आदि हैं, नक्षत्रों के अधिपति अश्वि, यम, दहन आदि हैं, शक्र दक्षिण लोक का अधिपति और ईशान उत्तर लोक का अधिपति है, उसी प्रकार पांच स्थावर कायों में भी क्रमशः इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति और प्राजापत्य अधिपति हैं ।'
६-१६ ( सू० २१)
प्रस्तुत सूत्र में अवधि दर्शन के विचलित होने के पाँच स्थानों का निर्देश है। विचलन का मूल कारण है मोह की चतुर्विध परिणति -- विस्मय, दया, लोभ और भय का आकस्मिक प्रादुर्भाव । जो दृश्य पहले नहीं देखा था उसको देखते ही व्यक्ति का मन विस्मय से भर जाता है, जीवमय पृथ्वी को देख वह दया से पूर्ण हो जाता है तथा विपुल धन, ऐश्वर्य आदि देखकर वह लोभ से आकुल और अदृष्टपूर्व सर्पों को देखकर वह भयाक्रान्त हो जाता है। अतः विस्मय, दया, लोभ और भय भी उसके विचलन के कारण बनते हैं।"
इस सूत्र के कुछ विशेष शब्दों की मीमांसा
१. पृथ्वी को छोटा-सा
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
१. थोड़े जीवों वाली पृथ्वी ।
६१५
२. छोटी पृथ्वी ।
अवधि ज्ञान उत्पन्न होने से पूर्व साधक के मन में कल्पना होती है कि पृथ्वी बड़ी तथा बहुत जीवों वाली है, पर जब वह उसे अपनी कल्पना से विपरीत पाता है, तब उसका अवधिदर्शन क्षुब्ध हो जाता है । '
३. ग्राम नगर आदि के टिप्पण के लिए देखें २।३६० का टिप्पण । शेष कुछेक शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है
१. शृंगाटक- तीन मार्गों का मध्य भाग। इसका आकार यह होगा > ।
२. तिराहा - जहाँ तीन मार्ग मिलते हों। इसका आकार यह होगा 1 ।
३. चौक--चार मार्गों का मध्य भाग। ' चतुष्कोण भूभाग । ४. चौराहा--जहाँ चार मार्ग मिलते हों। इसका आकार यह + होगा। भिन्न-भिन्न व्याख्या ग्रन्थों में इसके अनेक अर्थ मिलते हैं
१. सीमाचतुष्क ।
२. विपथभेदी ।
३. बहुतर रथ्याओं का मिलन-स्थान ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६ २८० : अत्यन्त विस्मयदयाभ्यामिति..... विस्मयाद् भयाद्वा अदृष्टपूर्वतया विस्मयाल्लोभावेति ।
स्थान ५ : टि० ४-१६
३. वही, पत्र २७६ : अल्पभूतां स्तोकसत्त्वां पृथिवीं दृष्ट्वा, वाशब्दा विकल्पार्थाः, अनेकसत्वव्याकुला भूरिति ।
४. स्थानांगवृत्ति पत्र २८०
शृङ्गाटकं त्रिकोण रथ्यान्तरम् । ५. वही पत्र २८० त्रिकं यत्र रथ्यानां तयं मिलति । ६. वही, पत्र २८० ।
७. वही पत्र २८० चतुष्कं यत्न रष्याचतुष्टयम् ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५: टि०२०-२१
४. चार मार्गों का समागम। ५. छह मागों का समागम। स्थानांग वृत्तिकार ने इसका अर्थ आठ रथ्याओं का मध्य किया है।' ५. चतुर्मुख----देवकुल आदि का मार्ग।' देवकुलों के चारों ओर दरवाजे होते हैं। ६. महापथ---राजमार्ग। ७. पथ-सामान्यमार्ग। ८. नगर निर्द्धमन—नगर के नाले।' ६. शांतिगृह-जहाँ राजा आदि के लिए शांतिकर्म-होम, यज्ञ आदि किया जाता है। १०. शैलगृह--पर्वत को कुरेद कर बनाया हुआ मकान। ११. उपस्थानगृह-सभामण्डप।' १२. भवन-गृह-कुटुम्बीजन (घरेलू नौकर) के रहने का मकान।
भवन और गृह का अर्थ पृथक् रूप में भी किया जा सकता है। जिसमें चार शालाएं होती हैं उसे भवन और जिसमें कमरे (अपवरक) होते हैं वह गृह कहलाता था।'
२०. (सू २२)
प्रस्तुत सूत्र में केवलज्ञान-दर्शन के विचलित न होने के पाँच स्थानों का निर्देश है। अविचलन के हेतु ये हैं१. यथार्थ वस्तुदर्शन। २. मोहनीय कर्म की क्षीणता। ३. भय, विस्मय और लोभ का अभाव । ४. अति गंभीरता।
२१. (सू० २५)
शरीर पांच प्रकार के हैं
१. औदारिक शरीर-स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न, रसादि धातुमय शरीर। यह मनुष्य और तिर्यञ्चों के ही होता।
२. वैक्रिय शरीर—विविध रूप करने में समर्थ शरीर। यह नैरयिकों तथा देवों के होता है। वैक्रिय-लब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यञ्चों तथा वायुकाय के भी यह होता है।
३. आहारकशरीर—आहारकलब्धि से निष्पन्न शरीर। आहारकलब्धि से सम्पन्न मुनि अपनी संदेह निवृत्ति के लिए अपने आत्म-प्रदेशों से एक पुतले का निर्माण करते हैं और उसे सर्वज्ञ के पास भेजते हैं। वह उनके पास जाकर उनसे संदेह की निवृत्ति कर पुनः मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । यह क्रिया इतनी शीघ्र और अदृश्य होती है कि दूसरों को इसका पता भी नहीं चल सकता। इस क्षमता को आहारकलब्धि कहते हैं।
१. अल्पपरिचित शब्दकोष । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८० : चत्वररथ्याष्टकमध्यम् । ३. स्थानांगवृत्ति, पन्न २८० : चतुर्मुख-देवकुलादि । ४. वही, पत्र २८० : नगरनिर्द्धमनेषु-तत्क्षालेषु । ५. वही, पत्र २८० : शान्तिगह-यत्र राज्ञां शान्तिकमहोमादि
क्रियते। ६. वही, पन २८० : शैलगृहं--पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतम् ।
७ वही, पन्न २८० : उपस्थानगृह-आस्थानमण्डपः । ८. वही, पत्र २८० : भवनगृह-यत्र कुटुम्बिनो वास्तव्या
भवन्तीति ... तव भवनं-- चतुःशालादि गृहं तु अपवरकादि
मावम्। १. स्थानांगवत्ति, पत्र २८०: केवलज्ञानदर्शनं तु न स्कन्नीयात्
केवली वा याथात्म्येन वस्तुदर्शनात् क्षीणमोहनीयत्वेन भयविस्मयनोभाद्यभावेन अतिगम्भीरत्वाच्चेति ।
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ठाणं (स्थान)
६१७
स्थान ५: टि०२२-२७
४. तेजसशरीर-जिससे तेजोलब्धि (उपघात या अनुग्रह किया जा सके वह शक्ति) मिले और दीप्ति एवं पाचन हो वह शरीर।
५. कार्मणशरीर--कर्म-समूह से निष्पन्न अथवा कर्मविवार को कार्मण शरीर व हते हैं। तैजस और कार्मणशरीर सभी जीवों के होते हैं।
२२. (सू० ३२)
उत्तराध्ययन के तेईसवें अध्ययन (२३, २६, २७) में बताया है कि प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होते हैं, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कटिन होता है । अन्तिम तीर्थकर के साधु क्वजड़ होते हैं, उनके लिए धर्म का आचरण करना कटिन होता है। इस सूत्र में दोनों तीर्थंकरों के साधुओं के लिए पाँच दुर्गम स्थान बताए हैं। यदि उनका विभाग किया जाए तो प्रथम तीन प्रथम तीर्थक र के साधुओं के लिए और अन्तिम दो अन्तिम तीर्थकर के साधुओं के लिए हैं और यदि विभाग न किया जाए तो इस प्रकार व्याख्या की जा सकती है
प्रथम तीर्थंकर के साधुओं को समझने में कठिनाई होती है, इसीलिए उनके लिए धर्म के अनुपालन में भी कठिनाई होती है। अन्तिम तीर्थकर के साधुओं में तितिक्षा और अनुपालन की शक्ति कम होती है, इसलिए तत्त्व का आख्यान करना भी उनके लिए दुर्गम हो जाता है।
देखें-उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन २३ ।
२३, २४. (सू० ३४, ३५)
देखें-१०।१६ का टिप्पण।
२५, २६. अन्त्यचरक, प्रान्त्यचरक (सू० ३६)
वृत्तिकार ने अन्त्य चरक का अर्थ-बचा-खुचा जघन्य धान्य लेने वाला और प्रान्त्यचरक का अर्थ- बासी जघन्य धान्य लेने वाला किया है।
औपपातिक (सूत्र १६) की वृत्ति में इनका अर्थ किञ्चित् परिवर्तन के साथ किया है। अन्त्यचरक-जघन्य धान्य लेने वाला। प्रान्त्यचरक-बचा-खुचा या बासी अत्यन्त जघन्य धान्य लेने वाला।
प्रस्तुत सूत्र में प्रथम दो भिक्षाचर्या और शेष तीन रसपरित्याग के अन्तर्गत आते हैं। उत्क्षिप्तचरक और निक्षिप्तचरक ये दोनों भाव-अभिग्रह हैं और शेष तीन द्रव्य-अभिग्रह।
२७. अन्नालायकचरक (सू० ३७)
वृत्तिकार ने इसके तीन संस्कृत रूप देकर उनकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है१. अन्नग्लानकचरक-वासी अन्न खाने वाला। २. अन्नग्लायकचरक--अन्न के बिना ग्लान होकर--भूख की वेदना से पीड़ित होकर खाने वाला। ३. अन्यग्लायकचरक-दूसरे ग्लान व्यक्ति के लिए भोजन की गवेषणा करने वाला।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८३ : अन्ते भवमान्त-भुक्तावशेषं
वल्लादि प्रकृष्टमान्तं प्रान्त-तदेव पर्युषितम् । २. औपपातिकवृत्ति, पृष्ठ ७५ : अन्त्य- जघन्यधान्यं बल्लादि,
पंताहारेति-प्रकर्षणान्त्यं वल्लाद्येव भुक्तावशेष पर्युषितं वा।
३. स्थानांगवृत्ति, पन २८३ : अन्नइलायचरए त्ति अन्नग्लानको
दोषान्नभुगिति..... अथवा अन्नं विना ग्लायक:- समृत्पन्नवेदनादिकारण एवेत्यर्थः, अन्यस्मै वा ग्लाय काय भोजनार्थं चरतीति अग्मग्लानकचरकोऽन्नग्लायकचरकोज्यग्लायकचरको वा।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि० २८-३१
औपपातिक वृत्ति में इसका एकमात्र अर्थ-भोजन के बिना ग्लान होने पर प्रातःकाल ही वासी अन्न खाने वाला किया है। यही अर्थ अधिक संगत लगता है। २८. शुद्धषणिक (सू० ३८)
वृत्तिकार ने इसका अर्थ-अनतिचार एषणा किया है । एषणा के शंकित आदि दस दोष हैं। उनसे रहित एषणा को शुद्धषणा कहा जाता है।
__ पिंडैषणा और पानषणा सात-सात प्रकार की होती हैं। इनमें से किसी एक या सातों एषणाओं से आहार लेने वाला शुद्वैपणिक कहलाता है।
औपपातिक के वृत्तिकार ने इसका अर्थ शंका आदि दोषरहित अथवा नियंजन आहार लेने वाला किया है।' २६. स्थानायतिक (सू० ४२)
__ स्थानांग वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-स्थानातिद और स्थानातिग। स्थान का अर्थ कायोत्सर्ग है। स्थानातिद और स्थानातिग-इन दोनों का अर्थ है-कायोत्सर्ग करने वाला।
ठाणातिए' पद में एकपदीय संधि होने के कारण वृतिकार को इस प्रकार की व्याख्या करनी पड़ी। इसमें मुलतः दो शब्द हैं---ठाण -आयतिय। 'आ' की संधि होने पर ठाणायतिय' बन जाता है। 'य' का लोप करने पर फिर अकार की संधि होती है और 'ठाणातिय रूप बन जाता है। इस संधिच्छेद के आधार पर इसका संस्कृत रूप 'स्थानायतिक' बनता है और यही रूप इसके अर्थ का सूचक है।
वृहत्कल्पभाष्य में ठाणायत' (स्थानायत) पाठ है। उसकी वृत्ति में स्त्रीलिंग के रूप में स्थानायतिका का प्रयोग मिलता है। जिस आसन में सीधा खड़ा होना होता है उसका नाम स्थानायतिक है। स्थान तीन प्रकार के होते हैं --ऊर्ध्वस्थान, निषीदनस्थान और शयनस्थान । स्थानायतिक ऊर्ध्वस्थान का सूचक है। ३०. प्रतिमास्थायी (सू० ४२)
वृत्तिकार ने प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित रहना किया है। कहीं-कहीं प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग भी प्राप्त होता है। बैठी या खड़ी प्रतिमा की भाँति स्थिरता से बैठने या खड़ा रहने को प्रतिमा कहा गया है। यह कायक्लेश तप का एक प्रकार है । इसमें उपवास आदि की अपेक्षा कायोत्सर्ग, आसन व ध्यान की प्रधानता होती है। प्रतिमा की जानकारी के लिए देखें-दशाश्रुतस्कंध, दशा सात। ३१. वीरासनिक (सू० ४२)
सिंहासन पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उसी स्थिति में सिंहासन के निकाल लेने पर स्थित रहना वीरासन है। यह कठोर आसन है। इसकी साधना वीर मनुष्य ही कर सकता है। इसलिए इसका नाम 'वीरासन' है।'
विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १४६, १५० ।
१. औपपातिकसूत्र १६, वृत्ति पृष्ठ ७४ : अण्णगिलायए त्ति अन्न
भोजनं बिना ग्लायति अन्नग्लायकः, स चाभिग्रहविशेषात्
प्रातरेव दोषान्नभुगिति । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८४। ३. औपपातिक सूत्र १९, वृत्ति पृष्ठ ७४ : सुद्देसणिए त्ति शुद्धपणा
शङ्कादिदोषरहितता शुद्धस्य वा नियंञ्जनस्य करादेरेषणा यस्यास्ति स तथा। स्थानांगवृत्ति, पत्र २८४ : 'ठाणाइए' ति स्थानं-कार्योत्सर्ग: तमतिददाति प्रकरोति अतिगच्छति वेति स्थानातिदः स्थानातिगोवेति
५. बृहद्कल्पभाष्य गाथा ५६५३ । ६. वही, गाथा ५६५३, वृत्ति...। ७. स्थानांगवृत्ति, पन २८४ : प्रतिमया-एकरानिक्यादिकया
कायोत्सर्गविशेषेणव तिष्ठीत्येवंशीलो यः स प्रतिमास्थायी। ८. मूलाचारदर्पण ८।२०७१ : पडिमा--कायोत्सर्गः। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८४ : 'वीरासनं' भून्यस्तपादस्य सिंहासने
उपविष्टस्य तदपनयने या कायावस्था तद्रूपं, दुष्करं च तदिति, अत एव वीरस्य -साहसिकस्यासनमिति वीरासनमुक्तम् ।
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ठाणं (स्थान)
३२. कि ( सू० ४२ )
इसका अर्थ है-बैठने की विधि। इसके पांच प्रकार हैं। देखें स्थानांग ५।५० तथा ७।४६ का टिप्पण । विशेष विवरण के लिए देखें- उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १४३-१४५ ।
३३. आतापक ( सू० ४३ )
६१६
आतापना का अर्थ है-- प्रयोजन के अनुरूप सूर्य का आताप लेना ।
औपपातिक के वृत्तिकार ने आतापना के आसन भेद से अनेक भेद प्रतिपादित किए हैं।
आतापना के तीन प्रकार हैं---
१. निपन्न सोकर ली जाने वाली उत्कृष्ट ।
२. अनिपन्न बैठकर ली जाने वाली - मध्यम ।
३. ऊर्ध्वस्थित - खड़े होकर ली जाने वाली जघन्य ।
निपन्न आतापना के तीन प्रकार हैं
१. अधोरुकशायिता, २. पार्श्वशायिता, ३. उत्तानशायिता ।
अनिपन्न आतापना के तीन प्रकार हैं
१. गोदोहिका, २. उत्कुटुकासनता, ३. पर्यङ्कासनता । ऊर्ध्वस्थान आतापना के तीन प्रकार हैं
१. हस्तिशौंडिका, २. एकपादिका ३ समपादिका ।
इनमें पहला प्रकार उत्कृष्ट, दूसरा मध्यम और तीसरा जघन्य है ।'
प्रस्तुत आठ सूत्रों [ ३६-४३] में विविध तप करने वाले मुनियों का उल्लेख है। इन सबका समावेश बाह्य तप के छह प्रकारों में से तीन प्रकार - भिक्षाचर्या, रसपरित्याग और कायक्लेश के अन्तर्गत होता है। जैसे-
१. भिक्षाचर्या
उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, अज्ञातचरक, अन्नग्लायकचरक, मौनचरक, संसृष्टकल्पिक, तज्जातसंसृष्टकल्पिक, औपनिधिक शुषणिक, संख्यादत्तिक, इष्टलाभिक, पृष्ठलाभिक, परिमितपिंडपातिक भिन्नपिंडपातिक ।
२. रसपरित्याग
अकण्डूक
स्थान ५ : टि० ३२-३५
अन्त्यचरक, प्रान्त्यचरक, रूक्षचरक, आचाम्लिक, निर्विकृतिक, पूर्वाधिक, अरसाहार, विरसाहार, अन्त्याहार, प्रान्त्याहार, रूक्षाहार, अरसजीवी, विरसजीवी, अन्त्यजीवी, प्रान्त्यजीवी, रूक्षजीवी ।
३. कायक्लेश
स्थानाय तिक, उत्कुटुकासनिक, प्रतिमास्थायी, वीरासनिक, नैषधिक, दंडायतिक, लगंडशायी, आतापक, अप्रावृतक,
औपपातिक सूत्र १६ में प्रायः इन सबका इन बाह्य तपों के प्रकारों में उल्लेख मिलता है । वहाँ भिन्नपिंडपातिक तथा अरसजीवी, विरसजीवी, अन्त्यजीवी, प्रान्त्यजीवी और रूक्षजीवी का उल्लेख नहीं मिलता ।
३४, ३५. ( सू० ४४, ४५ )
दो सूत्रों में दस प्रकार के वैयावृत्त्य निर्दिष्ट हैं। वैयावृत्त्य का अर्थ है-सेवा करना, कार्य में प्रवृत्त होना । अग्लानभाव से किया जाने वाला वैयावृत्त्य महानिर्जरा - बहुत कर्मों का क्षय करने वाला तथा महापर्यवसान - जन्म-मरण का आत्यन्तिक उच्छेद करने वाला होता है। अग्लान भाव का अर्थ है- अखिन्नता, बहुमान ।
१. औपपातिक सूत्र १६, वृत्ति पृष्ठ ७५ ७६ ।
२. स्थानांगवृत्ति पत्र २८५ अग्लान्या -- अखिन्नतया बहुमानेनेत्यर्थः ।
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स्थान ५ : टि० ३६-४१
दस प्रकार ये हैं..... १. आचार्य.....ये पाँच प्रकार के होते हैं--प्रव्राजनाचार्य, दिगाचार्य, उद्देसनाचार्य, समुद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य। २. उपाध्याय-सूत्र का वाचना देने वाला। ३. स्थविर–धर्म में स्थिर करनेवाले । ये तीन प्रकार के होते हैंजातिस्थविर ----जिसकी आय ६० वर्ष से अधिक है। पर्यायस्थविर - जिसका पर्याय-काल २० वर्ष या अधिक है। ज्ञानस्थविर--स्थानांग तथा समवायांग का धारक। ४. तपस्वी-मासक्षपण आदि बड़ी तपस्या करने वाला। ५. ग्लान--रोग आदि से असक्त, खिन्न। ६. शैक्ष-शिक्षा ग्रहण करने वाला, नवदीक्षित।' ७. कुल-एक आचार्य के शिष्यों का समुदाय । ८. गण-कुलों का समुदाय।
६. संघ—गणों का समुदाय । १०. सार्मिक ---वेष और मान्यता में समानधर्मा ।'
वृत्तिकार ने शैक्ष वैयावृत्त्य के पश्चात् सार्मिक वैयावृत्त्य की व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने एक गाथा का भ उल्लेख किया है। उसमें भी यही क्रम है।'
विशेष विवरण के लिए देखें...-१०।१७ का टिप्पण ।
३६-४०. (सूत्र ४६)
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशेष शब्दों की व्याख्या---
१. सांभोगिक-एक मंडली में भोजन करने वाला। यह इसका प्रतीकात्मक अर्थ है। स्वाध्याय, भोजन आदि सभी मंडलियों में जिसका सम्बन्ध होता है वह सांभोगिक कहलाता है।
२. विसांभोगिक-जिसका सभी मंडलियों से सम्बन्ध विच्छिन्न कर दिया जाता है वह विसांभोगिक है। ३. प्रस्थापन-प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त तप का प्रारंभ । ४. निर्वेश-प्रायश्चित्त का पूर्ण निर्वाह या आसेवन । ५. स्थितिकल्प -सामाचारी की योग्य मर्यादाएँ।
११. प्रश्नायतनो (सू० ४७)
वृत्तिकार ने प्रश्न के दो अर्थ किए हैं'--
१. अंगुष्ठ, कुडप आदि प्रश्नविद्या । रस के द्वारा वस्त्र, कांच, अंगुष्ठ, भुजा आदि में देवता को बुलाकर अनेक विध प्रश्नों का हल किया जाता है। मूल प्रश्न व्याकरण सूत्र (दसवें अंग) में इन प्रश्न विद्याओं का समावेश था।
१. बौद्ध साहित्य में शैक्ष की परिभाषा इस प्रकार मिलती है'उस समय एक भिक्ष जहां भगवान थे, वहाँ पहुंचा ।... एक ओर बैठा हुआ वह भिक्ष भगवान से यह बोला"भन्ते ! शैक्ष, शैक्ष' कहते हैं। क्या होने से शैक्ष होता है ?" “भिक्षु, सीखता है, इसलिए 'शक्ष' कहलाता है। "क्या सीखता है?" "शील-सम्बन्धी शिक्षा ग्रहण करता है, चित्त-सम्बन्धी शिक्षा ग्रहण करता है तथा प्रज्ञा-सम्बन्धी शिक्षा ग्रहण करता है। इसलिए वह भिक्ष 'शैक्ष' कहलाता है।" (अंगुत्तरनिकाय भाग १, पृष्ठ २३८)
२. स्थानांगवत्ति, पत्र २८५। ३. वही, वृत्ति पत्र २८५ : 'सेह' त्ति शिक्षकोऽभिनव जितः 'साधर्मिकः समानधर्मा लिङ्गतः प्रवचनतश्चेति । उक्तं च
आयरिय उवज्झाए थेरतवस्सी गिलाणसेहाण ।
साहमियकुलगणसंघ संगयं तमिह कायव्वं ।। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८५,२८६।। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६: प्रश्ना-अंगुष्ठकुड्यप्रश्नादयः
सावद्यनुष्ठानपृच्छा वा। ६. वही, वृत्ति पत्र २८५ ॥
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२. पापकारी अनुष्ठानों के विषय में प्रश्न करना। इनमें पहला अर्थ ही प्रासंगिक लगता है ।
४२. आज्ञा व धारणा (सू०
४८)
वृत्ति में आज्ञा और धारणा के दो-दो अर्थ किए गए हैं—
१. आज्ञा - ( १ ) विध्यात्मक आदेश ।'
(२) कोई गीतार्थ देशान्तर गया हुआ है। दूसरा गीतार्थ अपने अतिचार की आलोचना करना चाहता है । वह अगीतार्थ के समक्ष आलोचना नहीं कर सकता। तब वह अगीतार्थ के साथ गूढार्थ वाले
वाक्यों द्वारा अपने अतिचार का निवेदन देशान्तरवासी गीतार्थ के पास कराता है। इसका नाम है आज्ञा ।
२. धारणा - ( १ ) निषेधात्मक आदेश । '
स्थान ५ : टि० ४२-४६
(२) बार-बार आलोचना के द्वारा प्राप्त प्रायश्चित्त विशेष का अवधारण करना।
पांच व्यवहारों में ये दो व्यवहार हैं। इनका विस्तृत विवेचन ५।१२४ में किया है।
४३. यथारात्निक (सू० ४८ )
इसका अर्थ है - दीक्षा - पर्याय में छोटे-बड़े के क्रम से । विशेष विवरण के लिए देखें -- दसवेलियं ८।४० का
टिप्पण |
४४. कृतिकर्म (सू०४८ )
इसका अर्थ है वन्दना ।
देखें -- समवाओ १२।३ का टिप्पण |
४५. उचित समय ( सू० ४८ )
इसका तात्पर्यार्थ यह है कि कालक्रम से प्राप्त सूत्रों का अध्ययन उस उस काल में ही कराना चाहिए। सूत्रों का अध्ययन-अध्यापन दीक्षा पर्याय के कालानुसार किया जाता है। जैसे- तीन वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले को आचार चार वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले को सूत्रकृत, पांच वर्ष वाले को दशाgतस्कंध, वृहत्कल्प और व्यवहार, आठ वर्ष वाले को स्थान और समवाय, दश वर्ष वाले को भगवती आदि ।
४६. निषद्या (सू०५० )
इसका अर्थ है- बैठने की विधि। इसके पाँच प्रकार हैं। बाह्य तप के पांचवें प्रकार 'कायक्लेश' में इनका समावेश होता है। कोस के तीन प्रकार हैं-ऊस्थान, निवदनस्थान और शयनस्थान । निषीदनस्थान के अन्त ति इन पांचों निषद्याओं का अन्तर्भाव होता है।
देखें - ७/४६ का टिप्पण |
१. स्यातांगवृत्ति, पत्र २८६ : 'आज्ञा' हे साधो ! भवतेदं विधेयमित्येवंरूपामादिष्टिम् ।
२. वही, वृत्ति पत्र २८६ : गूढार्थपदैरगीतार्थस्य पुरतो देशान्तरस्थगीतार्थं निवेदनाय गोतार्थो यदतिचार निवेदनं करोति साऽऽज्ञा ।
३. वही, वृत्ति पत्र २८६ धारणां, न विधेयमिदमित्येवंरूपाम् ।
४. वही, वृत्ति पत्र २८६ असकृदालोचनादानेन यत्प्रायश्चित्तविशेषावधारणं सा धारणा ।
५. बही, वृत्ति, पत्र २८६ : काले काले - यथावसरम् । कालककमेण पत्तं संवच्छरमाइणा उ जं जंमि । तं तंमि चैव धीरो वाएज्जा सो ए कालोऽयं ॥ ६. वहीं, वृत्ति पत्र २८६, २८७ ।
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४७. (सू०५१ )
दसवें स्थान (सूत्र १६) में दस प्रकार का श्रमण-धर्म निर्दिष्ट है। पांचवें स्थान ( सूत्र ३४-३५ ) में दस धर्म श्रमण के लिए प्रशस्त बतलाए गए हैं। प्रस्तुत सूत्र में श्रमण-धर्म के अंगभूत पाँच धर्मो को आर्जव स्थान कहा है। आर्जव का अर्थ है - ऋजुता, मोक्ष । प्रस्तुत प्रसंग में उसका अर्थ संवर किया है। ये आर्जवस्थान सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होते हैं, अत: इन सब के पूर्व साधु शब्द का प्रयोग किया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र ६।६ में दसविध धर्म के पूर्व 'उत्तम' शब्द का प्रयोग मिलता है विशेष विवरण के लिए देखें १०।१६ का टिप्पण ।
I
४८. परिचारणा (सू० ५४ )
६२२
इसका अर्थ है —— मैथुन का आसेवन। इसके पांच प्रकार हैं१. कायपरिचारणा स्त्री और पुरुष के काय से होने वाला मैथुन का आसेवन । २. स्पर्शपरिचारणा- स्त्री के स्पर्श से होने वाला मैथुन का सेवन । ३. रूपपरिचारणा -- स्त्री के रूप को देखकर होने वाला मैथुन का आसेवन ।
४. शब्दपरिचारणा- स्त्री के शब्द सुनकर होने वाला मैथुन का आसेवन ।
५. मनः परिचारणा- स्त्री के प्रति मानसिक संकल्प से होने वाला मैथुन का आसेवन ।
इसका तात्पर्य है कि कायपरिचारणा की भांति स्त्री को स्पर्श करने, रूप देखने, शब्द सुनने और मानसिक संकल्प देवों को मैथुन प्रवृत्ति के आसेवन से तृप्ति हो जाती है ।
वृत्तिकार ने इन सबको देवताओं से संबंधित माना है । तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही प्रतिपादित है ।' बारहवें देवलोक तक के देवों में मैथुनेच्छा होती है। उसके ऊपर के देवों में वह नहीं होती । देवियों का अस्तित्व केवल दूसरे देवलोक तक
है।
४६-५२. (सू०७०)
सौधर्म और ईशान देवलोक में कायपरिचारणा ।
सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक में स्पर्शपरिचारणा ।
ब्रह्म और लान्तक में रूपपरिचारणा ।
शुक्र और सहस्रार में - शब्दपरिचारणा ।
शेष चार में मनः परिचारणा ।
इसके ऊपर के देवलोकों में किसी भी प्रकार की परिचारणा नहीं होती। मनुष्यों और तिर्यञ्यों में केवल कायपरिचारणा ही होती है ।
देखें --- ३१६ का टिप्पण ।
बल- शारीरिक शक्ति ।
वीर्य आत्मशक्ति |
स्थान ५: टि०४७-५२
१. तत्त्वार्थ ४।७-६
२. स्थानांगवृत्ति, पन २८९: बलं शारीरं वीयं- जीवप्रभवं पुरुषकार :- अभिमानविशेष:, पराक्रमः स एव निष्पादितस्वविषयोऽथवा पुरुषकारः - पुरुषकर्तव्यं, पराक्रमो - बलवीर्ययोर्व्यापारणमिति ।
पुरुषकार - अभिमान विशेष; पुरुष का कर्त्तव्य ।
पराक्रम-अपने विषय की सिद्धि में निष्पन्न पुरुषकार; बल और वीर्य का व्यापार' ।
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५३. लिंगाजीव ( सू० ७१ )
वृत्तिकार ने एक प्राचीन गाथा का उल्लेख करते हुए लिंगाजीव के स्थान पर गणाजीव की सूचना दी है। गणाजीव का अर्थ है- अपने गण ( मल्ल आदि) की किसी मिष से या साक्षात् सूचना देकर आजीविका करने वाला ।'
५४. प्रमार (सू०७३ )
५५. आच्छेदन (सू०७३ )
इसका अर्थ है मूर्छा । वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं
१. मूर्च्छा विशेष । २. मारणस्थान । ३. मृत्यु ।
इसका अर्थ है- बलात् लेना, थोड़ा लेना । *
५६. विच्छेदन (सू०७३ )
५७ (सू० ७५-८२)
इसका अर्थ है दूर ले जाकर रख देना; बहुत लेना । *
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१. स्थानांगवृत्ति पत्र २८९ लिङ्गस्थानेऽन्यत्र गणोऽधीयते यत उक्तम्-
इन सूत्रों (७५-८२) में चार हेतु विषयक और चार अहेतु विषयक हैं।
पदार्थ दो प्रकार के होते हैं - हेतुगम्य और अहेतुगम्य ।
परोक्ष होने के कारण जो पदार्थ हेतु के द्वारा जाना जाता है, वह हेतुगम्य होता है, जैसे—- दूर प्रदेश में स्थित अग्नि धूम के द्वारा जानी जाती है ।
जो पदार्थ निकटवर्ती या स्पष्ट होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से अथवा किसी आप्त पुरुष के निर्देशानुसार जाता जाता है, वह अगम्य होता है ।
हेतु का अर्थ - कारण अथवा साध्य का निश्चितगमक कारण होता है। यहां हेतु और हेतुवादी – दोनों हेतु शब्द द्वारा विवक्षित हैं। जो हेतुवादी असम्यग्दर्शी होता है वह कार्य को जानता देखता है, पर उसके हेतु को नहीं जानता देखता । वह हेतुगम्य पदार्थ को हेतु के द्वारा नहीं जानता देखता ।
जो हेतुवादी सम्यदर्शी होता है वह कार्य के साथ-साथ उसके हेतु को भी जानता देखता है। वह हेतुगम्य पदार्थ को हेतु के द्वारा जानता देखता है।
जो आंशिकरूपेण प्रत्यक्षज्ञानी होता है वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अहेतुगम्य पदार्थों या पदार्थ की अहेतुक ( स्वाभाविक ) परिणतियों को सर्वभावेन नहीं जानता- देखता । वह अहेतु ( प्रत्यक्षज्ञान) के द्वारा अहेतुगम्य पदार्थों को सर्वभावेन नहीं जानता-देखता ।
जो पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानी ( केवली ) होता है वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अहेतुगम्य पदार्थों या पदार्थ की अहेतुक (स्वाभाविक ) परिणतियों को सर्वभावेन जानता देखता है। वह प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा अहेतुगम्य पदार्थों को सर्वभावेन जानता देखता है।
"जाईकुलगणकम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा सूयाए असूयाए अप्पाण कहेइ एक्केक्के ॥"
२. स्थानांगवृत्ति पत्र २९० प्रमारो - मूर्च्छाविशेषो मारणस्थानं वाप्रमारं मरणमेव ।
स्थान ५ : टि० ५३-५७
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६० : आच्छिनत्ति बलादुद्दालयति..... अथवा ईच्छिनत्ति |
४. स्थानांगवृत्ति पत्र २९० विच्छिनत्तिविच्छिन्नं करोति, दूरे व्यवस्थापयतीत्यर्थः अथवा विशेषेण छिनत्ति विच्छिनत्ति ।
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स्थान ५: टि०५८-५९
उक्त व्याख्या के आधार पर यह फलित होता है कि प्रथम दो सूत्र असम्यग्दर्शी हेतुबादी तथा तीसरा-चौथा सूत्र सम्यग्दर्शी हेतुवादी की अपेक्षा से हैं। पांचवां-छठा सूत्र अपूर्ण प्रत्यक्षानी और सातवां-आठवां सूत्र एर्णप्रत्यक्षज्ञानी की अपेक्षा से हैं।
मरण दो प्रकार का होता है-सहेतुक (सोपक्रम), अहेतुक (निरुपक्रम) । असम्यग्दर्शी हेतुवादी का अहेतुक मरण अज्ञानमरण कहलाता है । सम्यग्दर्शी हेतुवादी का सहेतुक मरण छद्मस्थ मरण कहलाता है। अपूर्ण प्रत्यक्षज्ञानी का सहेतुक मरण भी छद्मस्थ मरण कहलाता है । पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानी का अहेतुक मरण केवली मरण कहलाता है।
वृत्ति कार के अनुसार प्रथम दो सूत्रों में नकार कुत्सावाची और पांचवें-छठे सूत्र में वह देश निषेधवाची है। इस आधार पर प्रथम दो सूत्रों का अनुवाद इस प्रकार होगा.---.
१. (क) हेतु को असम्यक् जानता है।
(ख) हेतु को असम्यक् देखता है। (ग) हेतु पर असम्यक् श्रद्धा करता है ।
(घ) हेतु को असम्यक् रूप से प्राप्त करता है। २. (क) हेतु से असम्यक् जानता है।
(ख) हेतु से असम्यक् देखता है। (ग) हेतु से असम्यक् श्रद्धा करता है।
(घ) हेतु से असम्यक रूप से प्राप्त करता है।
वृत्तिकार ने लिखा है कि प्रत्यक्षज्ञानी को अनुमान से जानने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए वह धूम आदि साधनों-हेतुओं को अहेतु के रूप में (उसके लिए वे हेतु नहीं है इस रूप में) जानता है। अहेतु का यह अर्थ अस्वाभाविक-सा लगता है।
___ इन आठ सूत्रों (७५ से ८२) में प्रयुक्त चार क्रियापद (जानाति, पश्यति, बुध्यते, अभिगच्छति) ज्ञान के क्रम से सम्बन्धित हैं।
भगवती ५११६१-१९८ में हेतु सम्बन्धी सूत्रों के क्रम में थोड़ा परिवर्तन है। वहां यहां बताए गए सातवें-आठवें सूत्र को पांचवें-छठे के क्रम में तथा पांचवें-छठे को सातवें-आठवें के क्रम में लिया गया है।
५८. (सू०८३)
ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का सर्वथा क्षय होने पर अनुत्तर ज्ञान और अनुत्तर दर्शन की प्राप्ति होती है। मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर अनुत्तर चारित्र की प्राप्ति होती है । तप चारित्र का ही भेद है। तेरहवें जीवस्थान के अन्तिम क्षणों में केवली शुक्लध्यान के अन्तिम दो भेदों में प्रवृत्त होते हैं। यह उनका अनुत्तर तप है। ध्यान आभ्यंतर तप का ही एक प्रकार है। वीयन्तिराय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर अनृत्तर वीर्य की प्राप्ति होती है।
५६. (सू०६७)
भगवान महावीर का च्यवन, गर्भसंहरण, जन्म, प्रव्रज्या और कैवल्यप्राप्ति-ये पांच कार्य उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में हुए थे तथा उनका परिनिर्वाण स्वाति नक्षत्र में हुआ था। अन्यान्य तीर्थंकरों का च्यवन, परिनिर्वाण आदि एक ही नक्षत्र में हुआ है। भगवान् महावीर के जन्म और परिनिर्वाण के नक्षत्र अलग-अलग हैं।'
१. स्थानांगवृत्ति, पन २६१ : नत्रः कृत्सार्थत्वात्..... नमो देश
निषेधार्थत्वात् । २. वही, पन २०११
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २९२। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६३ ।
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स्थान ५ : टि० ६०-६२
६०. (सू०६८)
प्रस्तुत सूत्र में महानदियों के उत्तरण और संतरण की मर्यादा के अतिक्रमण का निषेध किया गया है और इसमें निषेध का अपवाद भी है। सूत्रकार ने निर्दिष्ट पाँच नदियों के लिए दो विशेषण प्रयुक्त किए हैं-महार्णव और महानदी।
वृत्तिकार ने इनका अर्थ इस प्रकार किया है१. महार्णव--समुद्र की भांति जिनमें अथाह जल हो या जो समुद्र में जा मिलती हों उन नदियों को महार्णव कहा
जाता है। २. महानदी-जो बहुत गहरी हों, उन्हें महानदी कहा जाता है।
वत्तिकार ने एक गाथा (निशीथभाष्य गाथा ४२२३) का उल्लेख कर नदी-संतरण के व्यावहारिक दोषों का निर्देश किया है।
इन नदियों में बड़े-बड़े मत्स्य, मगरमच्छ आदि अनेक भयंकर जलचर प्राणी रहते हैं । अत: उनका प्रतिपल भय बना रहता है। इन नदी-मागों में अनेक चोर नौकाओं में घूमते हैं । वे मनुष्यों को मार डालते हैं तथा उनके वस्त्र आदि लूट ले जाते हैं।
निशीथ (१२/४३) में भी नदी उत्तरण तथा संतरण का निषेध है। भाष्यकार ने अपायों का निर्देश देते हुए बताया है कि नौका संतरण से
१. श्वापद और चोरों का भय । २. अनुकम्पा तथा प्रत्यनीकता का दोष । ३. संयम-विराधना, आत्म-विराधना का प्रसंग। ४. नौका पर चढ़ते-उतरते अनेक दोषों की सम्भावना । गंगा आदि नदियों के विवरण के लिए देखें-१०।२५।
६१, ६२. (सू० ६६, १००)
वर्षावास तीन प्रकार का माना गया है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य-सत्तर दिनों का-संवत्सरी से कार्तिक मास तक । मध्यम-चार मास का-थावण से कार्तिक तक।
उत्कृष्ट---छहमास का-आषाढ़ से मृगसर तक, जैसे-आषाढ़ बिताकर वहीं चातुर्मास करें और मृगसर में वर्षा चालू रहने पर उसे वहीं बिताएँ।
यहाँ दो सूत्रों में (६६,१००) बताया गया है कि प्रथम-प्रावृट् में और वर्षावास में पर्युषणा कल्प के द्वारा निवास करने पर विहार न किया जाए। प्रावृट् का अर्थ है-आषाढ़ और श्रावण अथवा चार मास का वर्षाकाल । आषाढ़ को प्रथम-प्रावृट् कहा जाता है। प्रथम-प्राबृट् में विहार न किया जाए -- अर्थात् आषाढ़ में बिहार न किया जाए। प्रावृट् का अर्थ यदि चतुर्मास प्रमाण- वर्षाकाल किया जाए तो प्रथम-प्रावृट् में विहार के निषेध का अर्थ यह करना होगा कि पर्यषणा कला से पूर्ववर्ती पचास दिनों में विहार न किया जाए। पर्युषणा कल्पपूर्वक निवास करने के बाद विहार न किया जाए। इसका
१. स्थानांगवत्ति, पत्र २६४ : महार्णव इवा या बहूदकत्वात्
महार्णवगामिन्यो वा यास्ता वा महार्णवा महानद्यो-गुरु
निम्नगाः। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६४ :
ओहारमगराया, घोरा तत्थ उ सावया। सरीरोवहिमादीया, नावातेणा य कत्थइ ।।
३. निशीथभाष्य, गाथा ४२२४ :
सावयतेणे उभयं, अणुकंपादी विराहणा तिण्णि ।
संजम आउभयं वा, उतरणावृत्तरते य ।। ४. स्थानांगवत्ति, पत्र २६४ : आषाढश्रावणी प्रावृट् .... अथवा
चतुर्मास प्रमाणो वर्षाकालः प्रावृद्धिति विवक्षितः । ५. वही, पत्र २६४ : आषाढस्तु प्रथमप्रावट ऋतूनां वा प्रथमेति
प्रथमप्रावृट् ।
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स्थान ५ : टि०६३-६४
अर्थ है कि भाद्रशुक्ला पंचमी से कार्तिक तक विहार न किया जाए। इन दोनों सूत्रों का संयुक्त अर्थ यह है कि चातुर्मास में बिहार न किया जाय।
प्रश्न होता है-'चातुर्मास में विहार न किया जाए' इस प्रकार एक सूत्र द्वारा निपेध न कर, दो पृथक् सुवों (सूत्र ६८, १००) द्वारा निषेध क्यों किया गया ? इसका समाधान ढूंढ़ने पर सहज ही हमारा ध्यान उस प्राचीन परम्परा की ओर खिंच जाता है, जिसके अनुसार यह विदित है कि-मुनि पर्युषणा कल्पपूर्वक निवास करने के बाद साधारणतः विहार कर ही नहीं सकते। किन्तु पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के अभाव में विहार कर भी सकते हैं।'
बौद्ध साहित्य में भी दो वर्षावासों का उल्लेख मिलता है-- "भिक्षुओ ! दो वर्षावास हैं।" "कौन से दो?" "पहला और पिछला।"
प्रस्तुत सूत्र (EE) में वृत्तिकार ने 'पब्वहेज्ज' का अर्थ-ग्राम से निकाल दिए जाने पर-किया है और इसके पूर्वदर्ती सूत्र में इसी शब्द का अर्थ ----व्यथित या प्रवाहित किए जाने पर किया है।"
६३. सागारिकपिंड (सू० १०१)
इसका अर्थ है- शय्यातर के घर का भोजन, उपधि आदि। जिस मकान में साधु रहते हैं, उसके स्वामी को शय्यातर कहा जाता है। शय्यातर के घर का पिंड आदि लेने का निषेध है । इसके कई दोष हैं—५
१. तीर्थंकर की आज्ञा का अतिक्रमण । २. अज्ञातोञ्छ का सेवन । ३. अलाचवता आदि-आदि ।
६४. रापिड (सू० १०१)
प्रस्तुत प्रसंग में वृत्तिकार ने राजा का अर्थ चक्रवर्ती आदि किया है। जो मूर्धाभिषिक्त है और जो सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह-इन पाँच रत्नियों सहित राज्य-भोग करता है, उसे राजा कहा जाता है। उसके घर का भोजन राजपिंड कहलाता है। सामान्य राजाओं के घर का भोजन राजपिंड नहीं कहलाता। राजपिंड आठ प्रकार का होता है-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल और पादपोंछन (रजोहरण)। राजपिंड के ग्रहण करने में भी अनेक दोप उत्पन्न होते हैं
१. तीर्थकर की आज्ञा का उल्लंघन। २. राज्याधिकारियों के प्रवेश और निर्गमन के समय होने वाला व्याघात। ३. लोभ, आशंका आदि-आदि। विशेष विवरण के लिए देखें१. निशीथभाष्य, गाथा २४६६-२५११ । २. दरावेआलियं, ३१३ में रायपिंडे किमिच्छए' का टिप्पण ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६४, २६५ । २. अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृष्ठ ८४ । ३. स्थानांगदृति, पत्र २१५: प्रब्यथेत-ग्रामाच्चालयेन्निष्काशयेत् । ४. वही, पत्र, २६४ : 'पबहेज्ज' त्ति प्रव्यथते-बाधते अन्तर्भूत
कारितार्थत्वाद्वा प्रवाहयेत् कश्चित् प्रत्यनीकः । ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६६ ।। ६. स्थानांगवृत्ति, पन्न, २९६ : राजा चेह चक्रवर्त्यादिः ।
७. निशीथभाष्य, गाथा २४६७ ।
जो मुद्धा अभिसित्तो, पचहि सहिओ पभुंजते रज्ज ।
तत्स तु पिंडो वज्जो, तबिवरीयम्मि भयणा तु ।। ८. वही, गाथा २५०० :
असणादिया चउरो, वत्थे पाए य कंबले चेव ।
पाउंछणगा य तहा, अट्टविहो राय-पिंडो उ॥ ६. वही, गाथा २५०१-२५१२ ।
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स्थान ५ : टि० ६५-६६
६५. अन्तःपुर (सू० १०२)
राजा के अन्तःपुर तीन प्रकार के होते हैं। १. जीर्ण-जहाँ वृद्ध रानियाँ रहती हैं। २. नव--जहाँ युवा रानियाँ रहती हैं। ३. कन्यक.----जहाँ अप्राप्त यौवना राजकुमारियाँ (बारह वर्ष के उम्र तक की) रहती हैं।
इनके प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-स्वस्थानगत और परस्थानगत। सामान्यतः मुनि को अन्तःपुर में नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वहाँ जाने से
१. आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना आदि दोष उत्पन्न होते हैं। २. दंडारक्षित, दौवारिक आदि के प्रवेश-निर्गमन से व्याघात होता है। ३. वहाँ निरन्तर होने वाले गीत आदि में उपयुक्त होकर मुनि ईर्यासमिति और एषणासमिति में स्खलित हो
सकता है। ४. रानियों के आग्रह पर शृंगार आदि की कथाएँ कहनी पड़ती है। ५. धर्म-कथा करने से मन में अहं पैदा हो सकता है कि मैंने राजा-रानी को धर्म-कथन किया है। ६. वहाँ शृंगार आदि के दृश्य व शब्द सुनकर स्वयं को अपने पूर्व क्रीडित भोगों की स्मृति हो सकती है आदि
आदि। वृत्तिकार ने भी चार गाथाएँ उद्धत कर इन्हीं उपायों का निर्देश किया है। ये गाथाएँ निशीथभाष्य की हैं। प्रस्तुत सूत्र में अंतःपुर में प्रवेश करने के कुछेक कारणों का निर्देश है। यह आपवादिक सूत्र है।
६६. प्रातिहारिक (सू० १०२)
मुनि दो प्रकार की वस्तुएँ ग्रहण करता है१. स्थायी रूप से काम आने वाली, जैसे-वस्त्र, पान, कंबल, भोजन आदि-आदि। २. अस्थायी रूप से, काल-विशेष के लिए, काम आनेवाली, जैसे—पट्ट, फलक, पुस्तक, शय्या, मंस्तारक आदि
आदि।
जो बस्तु स्थायी रूप से गृहीत होती है, उसे मुनि पुनः नहीं लौटा सकता : जो वस्तु प्रयोजन-विशेष या अस्थायी रूप से गृहीत होती है उसे पुनः लौटा सकता है। इसे प्रातिहारिक बस्तु कहा जाता है।'
६७, ६८. आराम, उद्यान (सू० १०२)
आराम का अर्थ है-विविध प्रकार के फूलों वाला बगीचा।' उद्यान का अर्थ है-चम्पक आदि वृक्षों वाला बगीचा।'
६६. (सू० १०३)
प्रस्तुत सूत्र में पुरुष के सहवास के बिना भी गर्भ-धारण के पाँच कारणों का उल्लेख है। इन सब में पुरुष के वीर्यपुद्गलों का स्त्री योनि में समाविष्ट होनेसे गर्भ-धारण होने की बात कही गई है। वीर्य पुद्गलों के बिना गर्भ-धारण का
१. निशीथभाष्य, गाथा २५१३ :
अतेउरं च तिविधं, जुष्ण गवं चेव कण्णगाणं च ।
एक्केक्कं पि य दुविधं, सटाणे चेव परठाणे ॥ २. वही, गाथा २५१४-२५२० । ३. वही, गाथा २५१३, २५१४, २५१८, ६५१९ ।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६७ । ५. स्थानांगवत्ति, पत्र २६७ : आरामो विविधपुणजात्युप
शोभितः । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६७ : उद्यानं तु चम्पकवना पशोभित
मिति ।
,
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ri (स्थान)
६२८
स्थान ५ : टि०७०-७१
उल्लेख नहीं है। वर्तमान में कृत्रिम गर्भाधान की प्रणाली से इसकी तुलना हो सकती है। सांड या पाडे के वीर्य पुद्गलों को निकालकर रासायनिक विधि से सुरक्षित रखा जाता है और आवश्यकतावश गाय या भैंस की योनि से उनको शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। गर्भावधि पूर्ण होने पर गाय या भैंस प्रसव कर बच्चे को उत्पन्न करती है ।
इसी प्रकार अमेरिका में 'टेस्ट ट्यूब बेबीज' की बात प्रचलित है। पुरुष के वीर्य - पुद्गलों को काँच की एक नली में, उचित रासायनिक मिश्रणों में रखा जाता है और यथासमय बच्चे की उत्पत्ति होती है। उसी काँच की नली में कुछ बड़े होने पर उसे निकाल दिया जाता है।
प्रस्तुत सूत्र के प्रथम कारण को ध्यान में रखकर ही आगमों में स्थान-स्थान पर ऐसे उल्लेख किए गए हैं कि जहाँ स्त्रियां बैठी हों, उस स्थान पर मुनि को तथा जहाँ पुरुष बैठे हों उस स्थान पर साध्वी को एक अन्तर्मुहूर्त तक नहीं बैठना चाहिए। यदि आवश्यकता वश बैठना ही पड़े तो भूमि का भलीभाँति प्रमार्जन कर बैठना चाहिए।
दूसरे कारण में शुक्रपुद्गल से संसृष्ट वस्त्र का योनि के मध्य में प्रवेश होने पर भी गर्भधारण की स्थिति हो जाती है । वस्त्र ही नहीं, दूसरे दूसरे पदार्थों से भी ऐसा हो सकता है । वृत्तिकार ने यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत किया है । केशिकुमार की माता ने अपनी योनि की खुजली मिटाने अथवा रक्त प्रवाह को रोकने के लिए केश को योनि में प्रविष्ट किया। वह केश शुक्र-पुद्गलों से संसृष्ट था। उसके फलस्वरूप वह गर्भवती हो गई, अथवा कभी अज्ञानवश शुक्रसंश्लिष्ट वस्त्रों को पहनने पर वे अकस्मात् योनि में प्रवेश पा लें, तो भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है ।
तीसरे कारण की भावना यह है कि यदि किसी स्त्री का पति नपुंसक है और वह स्त्री पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखती है किन्तु शील भंग होने के भय से पर पुरुष के साथ काम-क्रीड़ा नहीं कर सकती । अतः वह स्वयं शुक्र पुद्गलों को एकत्रित कर अपनी योनि में प्रविष्ट कर देती है। इससे भी गर्भधारण कर सकती है।
चौथे कारण के प्रसंग में वृत्तिकार ने 'पर' का अर्थ 'श्वसुर आदि' किया है। इसका तात्पर्य यह है कि पति के नपुंसक होने पर पुत्र प्राप्ति की प्रबल इच्छा से प्रेरित होकर स्त्री अपने श्वसुर आदि ज्ञातिजनों द्वारा अपनी योनि में शुक्र पुद्गलों का प्रवेश करवाती है । उस समय इस प्रकार की पद्धति प्रचलित थी। इसे नियोग विधि कहा जाता है ।
पांचवां कारण स्पष्ट है।
ये सभी कारण एक दृष्टि से कृत्रिम गर्भाधान के प्रकार हैं। किसी विशिष्ट प्रणाली द्वारा शुक्र-मुगलों का योनि में प्रवेश होने पर गर्भ की स्थिति बनती है, अन्यथा नहीं ।
७०,७१, (सू० १०४)
वृत्तिकार ने बारह वर्ष तक की कुमारी को अप्राप्तयौवना कहा है तथा पचास या पचपन वर्ष के ऊपर की उम्र वाली स्त्री को अतिक्रान्तयौवना माना है ।"
उनकी मान्यता है कि बारह वर्ष से पचास वर्ष की उम्र तक स्त्री में रजःस्राव होता है और वही उसकी गर्भधारण की अवस्था होती है । सोलह वर्ष की कुमारी का बीस वर्ष के युवक के साथ सहवास होने से वीर्यवान् पुत्र की उत्पत्ति होती है, क्योंकि उस अवस्था में गर्भाशय, मार्ग, रक्त, शुक्र, अनिल और हृदय - ये शुद्ध होते हैं। सोलह और बीस वर्ष से कम अवस्था में सहवास होने पर संतान की प्राप्ति नहीं होती और यदि होती है तो वह रोगी, अल्पायु और अभागी होती है।"
१ स्थानांगवृत्ति, पत्र २६८ अप्राप्तयौवना प्राय आवर्षद्वादशकादार्त्तवाभावात् तथाऽतिक्रान्तयोवना वर्षाणां पञ्चपञ्चा शतः पञ्चाशतो वा ।
२. वही, पत्र २६८
मासि मासि रजः स्त्रीणामजस्रं सवति व्यहम् । वत्सराद् द्वादशादूर्ध्व याति पञ्चाशतः क्षयम् ॥ पूर्णषोडशवर्षा स्त्री पूर्णविशेन संगता । शुद्धे गर्भाशये मार्गे रक्त शुक्रेऽनिले हृदि ॥ वीर्यवन्तं सुतं सूते ततो न्यूनान्दयोः पुनः । रोग्यल्पायुरधन्यो वा गर्भो भवति नैव वा ॥
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ठाणं (स्थान)
७२. (सू० १०५)
वृत्तिकार ने अगडि विणी का एक दूसरा अर्थ भी किया है
अग अर्थात् काम का विभिन्न पुरुषों के साथ अतिशय आसेवन करने से स्त्री गर्भधारण नहीं करती जैसे - वेश्या । '
७३. अकस्मात्दंड (सू० १११ )
सूत्रकृतांग २/२ में तेरह क्रियाओं का प्रतिपादन है । प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित दंड उन्हीं के पांच प्रकार हैं।
अकस्मात् दंड - वृत्तिकार ने लिखा है कि मगधदेश में यह शब्द इसी रूप में आबाल गोपाल प्रसिद्ध है। अतः प्राकृत भाषा में भी इसको इसी रूप में स्वीकार कर लिया है।
६२६
७४-८५. (सू० ११२-१२२ )
प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों में पांच-पांच के क्रम से विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख हुआ है। दूसरे स्थान में दो-दो के क्रम से इन्हीं क्रियाओं का उल्लेख है ।
देखें-- २१२ ३७ के टिप्पण |
८६. ( सू० १२४ )
पांच व्यवहार – भगवान् महावीर तथा उत्तरवर्ती आचार्यों ने संघ व्यवस्था की दृष्टि से एक आचार संहिता का निर्माण किया । उसमें मुनि के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य या प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्देश हैं । उसकी आगमिक संज्ञा 'व्यवहार' है । जिनसे यह व्यवहार संचालित होता है, वे व्यक्ति भी, कार्य-कारण की अभेददृष्टि से, 'व्यवहार' कहलाते हैं ।
प्रस्तुत सूत्र में व्यवहार संचालन में अधिकृत व्यक्तियों की ज्ञानात्मक क्षमता के आधार पर प्राथमिकता बतलाई
गई है।
परोक्ष के तीन प्रकार हैं
१. चतुर्दशपूर्वधर, २. दशपूर्वधर, ३. नौ पूर्वधर ।
व्यवहार संचालन में पहला स्थान आगमपुरुष का है। उसकी अनुपस्थिति में व्यवहार का प्रवर्तन श्रुत पुरुष करता है । उसकी अनुपस्थिति में आज्ञापुरुष, उसकी अनुपस्थिति में धारणापुरुष और उसकी अनुपस्थिति में जीतपुरुष करता है ।
१. आगम व्यवहार - इसके दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष' । प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं
१. अवधिप्रत्यक्ष, २. मनः पर्यवप्रत्यक्ष, ३. केवलज्ञानप्रत्यक्ष |
स्थान ५ :
१. स्थानांगवृत्ति पत्र २६८ अनङ्गं वा काममपरापरपुरुषसम्पर्कतोऽतिशयेन प्रतिषेवत इत्येवंशीलाऽनङ्गप्रतिषेविणी । २. स्थानांगवृत्ति पत्र ३०१ : अकस्माद्दंडत्ति मगधदेशे गोपालबालाबलादिप्रसिद्धोऽकस्मादिति शब्द स इह प्राकृतेऽपि तथैव प्रयुक्त इति ।
३. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २०१ :
शिष्य ने यहां यह प्रश्न उपस्थित किया कि परोक्षज्ञानी साक्षात् रूप से श्रुत से व्यवहार करते हैं तो भला वे आगमव्यवहारी कैसे कहे जा सकते हैं ?' आचार्य ने कहा- "जैसे केवलज्ञानी अपने अप्रतिहत ज्ञानबल से पदार्थों को सर्वरूपेण जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतवल से जान लेता है। "
अगमतो ववहारो मुणह जहा धीरपुरिसपत्नत्तो । पच्चवखोय परोक्खो सो वि य दुविहो मुणेयब्बो ||
४. वही, भाष्यगाथा २०३ :
टि०७२-८६
हिमपज्जवे य केवलनाणे य पच्चकखे ।
५. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा २०६ : पारोक्खं ववहारं आगमतो सुधरा ववति । चोदसदसपुण्वधरा नवपुव्वियगंधहत्यी
६. वही, भाष्यगाथा २१० वृत्ति-
कथं केनप्रकारेण साक्षात् श्रुतेन व्यवहरन्तः आगमव्यवहारिणः ।
७. वही, भाष्य गाथा २११ :
य ॥
जह केवली वि जाणइ दव्वं च खेत्तं च कालभावं च । तह चउलक्खणमेवं सुयनाणीमेव जाणाति ॥
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ठाणं (स्थान)
६३०
स्थान ५:टि०८६
जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानी भी समान अपराध में न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी आलोचक के राग-द्वेषात्मक अध्यवसायों को जानकर उनके अनुरूप न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है।'
शिष्य ने पुन: प्रश्न किया कि प्रत्यक्षज्ञानी आलोचना करने वाले व्यक्ति के भावों को साक्षात् जान लेते हैं; किन्तु परोक्षज्ञानी ऐसा नहीं कर सकते, अतः न्यूनाधिक, प्रायश्चित्त देने का उनका आधार क्या है ? आचार्य ने कहा - 'वत्स! नालिका से गिरने वाले पानी के द्वारा समय जाना जाता है । वहां का अधिकारी व्यक्ति समय को जानकर, दूसरों को उसकी अवगति देने के लिए, समय-समय पर शंख बजाता है। शंख के शब्द को सुनकर दूसरे लोग समय का ज्ञान कर लेते हैं । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी आलोचना तथा शुद्धि करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को सुनकर यथार्थ स्थिति का ज्ञान कर लेते हैं। फिर उसके अनुसार उसे प्रायश्चित्त देते हैं। यदि वे यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति ने सम्यग् रूप से आलोचना नहीं की है, तो वे उसे अन्यत्र जाकर शोधि करने की बात कहते हैं।
आगमव्यवहारी के लक्षण
आचार्य के आठ प्रकार की संपदा होती है-आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रहपरिज्ञा। इनके प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार इसके ३२ प्रकार होते हैं। [देखें ८।१५ का टिप्पण] ।
चार विनयप्रतिपत्तियां हैं - १. आचारविनय-आचार-विषयक विनय सिखाना। २. श्रुतविनय-सूत्र और अर्थ की वाचना देना।
३. विक्षेपणाविनय---जो धर्म से दूर हैं, उन्हें धर्म में स्थापित करना; जो स्थित हैं उन्हें प्रवजित करना; जो च्युतधर्मा हैं, उन्हें पुन: धर्मनिष्ठ बनाना और उनके लिए हित-संपादन करना।
४. दोषनिर्घातविनय-क्रोध-विनयन, दोष-विनयन तथा कांक्षा-विनयन के लिए प्रयत्न करना।
जो इन ३६ गुणों में कुशल, आचार आदि आलोचनाह आठ गुणों से युक्त, अठारह वर्णनीय स्थानों का ज्ञाता, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों को जानने वाला, आलोचना के दस दोषों का विज्ञाता, व्रत षट्क और काय षट्क को जानने वाला तथा जो जातिसंपन्न आदि दस गुणों से युक्त है—वह आगमव्यवहारी होता है।"
शिष्य ने पूछा ....'भंते !' वर्तमान काल में इस भरतक्षेत्र में आगमव्यवहारी का विच्छेद हो चुका है। अतः यथार्थशुद्धिदायक न रहने के कारण तथा दोषों की यथार्थशुद्धि न होने के कारण वर्तमान में चारित्र की विशुद्धि नहीं है। न कोई आज मासिक या पाक्षिक प्रायश्चित्त ही देता है और न कोई उसे ग्रहण करता है, इसलिए वर्तमान में तीर्थ केवल ज्ञान-दर्शनमय है, चारित्रमय नहीं। केवली का व्यवच्छेद होने के बाद थोड़े समय में ही चौदह पूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। अतः विशुद्धि कराने वालों के अभाव में चारित्र की विशुद्धि भी नहीं रहती। दूसरी बात है कि केवली, जिन आदि अपराध के अनुसार प्रायश्चित देते थे, न्यून या अधिक नहीं। उनके अभाव में छेदसूत्रधर मनचाहा प्रायश्चित्त देते हैं, कभी थोड़ा और कभी अधिक । अतः वर्तमान में प्रायश्चित्त देने वाले के व्यवच्छेद के साथ-साथ प्रायश्चित्त का भी लोप हो गया है।'
१. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा २१३ वृत्ति। २. वही, भाष्य गाथा २१६, वृत्ति
जिनास्तीथंकृतः परोक्ष आगमे उपसंहारं नालीधमकेन कुर्वते, इयमव भावना नाडिकाया गलन्त्यामुदकगलनपरिमाणतो जानाति एतावत्युदके गलिते यामो दिवसस्य रावेर्वागत इति ततोऽन्यस्य परिज्ञानाय पाहं धमति । तत्र यथा सोज्यो जनः शंखस्य शब्देन श्रुतेन कालं वा यामलक्षणं जानाति तथा परोक्षागमगामिनोऽपि शोधिमालोचनां श्रुत्वा तस्य यथावस्थितं
भावं जानन्ति । ज्ञात्वा च तदनुसारेण प्रायश्चित्तं ददाति । ३. वही, भाष्यगाथा ३०३ :
आयारे सुय विणए विखेवण चेव होई बोधव्वे । दोसस्स निग्याए विणए चउहैस पडिवत्ती॥
४. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ३०५-३२७ । ५. वही, भाष्य गाथा ३२८-३३४ । ६. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६३५-३३८ :
एवं भणिते भणती ते बोच्छिन्ना उपसपयं इहई। तेसु य वोच्छिन्नेसु नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स ।। देतावि न दीसंती न वि करेता उपसंपयं केई। तित्थ च नाणदसण निज्जवगा चेव वोच्छिन्ना ।। चोद्दसपुव्वधराणं वोच्छेदो केवलीण बुच्छए। केसि वी आदेसो पायच्छित्तं पि योच्छिन्नं ।। जं जत्तिएण सुज्झइ पावें तस्स तहा देति पच्छित्तं । जिण चोदसपुव्वधरा तश्विरीया जहिच्छाए ।
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ठाणं (स्थान)
६३१
स्थान ५ : टि०८६
आचार्य ने कहा- वत्स ! तू यह नहीं जानता कि प्रायश्चित्तों का मूलविधान कहां हुआ है ? वर्तमान में प्रायश्चित्त है या नहीं ?
प्रत्याख्यान प्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु में समस्त प्रायश्चित्तों का विधान है। उस आकर ग्रन्थ से प्रायश्चित्तों का निर्वहण कर निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार इन तीन सूत्रों में उनका समावेश किया गया है।' आज भी विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों को वहन करने वाले हैं । वे अपने प्रायश्चित्तों को विशेष उपायों से वहन करते हैं, अतः उनका वहन करना हमें दृग्गोचर नहीं होता । आज भी तीर्थ चारित्र सहित हैं तथा उसके निर्वापक भी हैं।
[विस्तृत वर्णन के लिए देखें व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ३५१-६०२ । ]
२. श्रुत व्यवहार -- जो बृहत्कल्प और व्यवहार को बहुत पढ़ चुका है और उनको सूत्र तथा अर्थ की दृष्टि से निपुणता से जानता है, वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है।" यहां श्रुत से भाष्यकार ने केवल इन दो सूत्रों का निर्देश किया है।
आचार्य भद्रबाहु ने कुल, गण, संघ आदि में कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का व्यवहार उपस्थित होने पर द्वादशांगी से कल्प और व्यवहार- इन दो सूत्रों का निर्वहण किया था। जो इन दोनों सूत्रों का अवगाहन कर चुका है और इनके निर्देशानुसार प्रायश्चित्तों का विधान करता है वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है।"
३. आज्ञा व्यवहार -- कोई आचार्य भक्तप्रत्याख्यान अनशन में व्यापृत हैं। वे जीवनगत दोषों की शुद्धि के लिए अन्तिम आलोचना के आकांक्षी हैं। वे सोचते हैं-'आलोचना देने वाले आचार्य दूरस्थ हैं। मैं अशक्त हो गया हूं, अतः उनके पास जा नहीं सकता तथा वे आचार्य भी यहां आने में असमर्थ हैं, अतः मुझे आज्ञा व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए।' वे शिष्य को बुलाकर उन आचार्य के पास भेजते हैं और कहलाते हैं आर्य ! मैं आपके पास शोधि करना चाहता हूं ।'
शिष्य वहां जाता है और आचार्य को यथोक्त बात कहता है। आचार्य भी वहाँ जाने में अपनी असमर्थता को लक्षित कर अपने मेधावी शिष्य को वहां भेजने की बात सोचते हैं। तब वे अपने गण में जो शिष्य आज्ञा-परिणामकर, अवग्रहण और धारणा में क्षम तथा सूत्र और अर्थ में मूढ न होने वाला होता है, उसे वहां भेजते हुए कहते हैं - 'वत्स ! तुम वहां आलोचनाआकांक्षी आचार्य के पास जाओ और उनकी आलोचना को सुनकर यहां लौट आओ।'
आचार्य द्वारा प्रेषित मुनि के पास आलोचनाकांक्षी आचार्य सरल हृदय से सारी आलोचना करते हैं । आगन्तुक मुनि आलोचक आचार्य की प्रतिसेवना और आलोचना की क्रमपरिपाटी का सम्यक् अवग्रहण और धारण कर लेता है।
१. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ३४४ :
एवं तु चोइयम्मी आयरितो भणइ न हु तुमे नायं । पच्छित्तं कहियंत कि धरती कि व वोच्छिन्नं ॥ २. वही, भाष्य गाथा ३४५:
सव्वं पिय पच्छित्तं पच्चक्खाणस्स ततिय वत्युंमि । तत्तो वि यनिच्छूढा पकष्पकप्पो य बबहारो ॥
३. वही, भाष्य गाथा ३४६, वृत्ति -
४. वही, भाष्य गाथा ६०५, ६०७ :
जो सुयमहिज्ज बहुं सुतत्थं च निउणं विजानाति । कप्पे ववहारंमि यसो उ पमाणं सुयहराणं ।। कपरस य निज्जुत्ति ववहारस्स व परमनिउणस्स । जो अत्थतो वियाण ववहारी सो अणुष्णाती ॥ ५. वही, भाष्यगाथा ६०८ वृत्ति-
कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद्भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं निर्यूढं तदेवानुमज्जननिपुणतरार्थं परिभावनेन तन्मध्ये प्रविशन् व्यवहारविधि यथोक्तं सूत्रमुच्चार्य तस्यार्थं निर्दिशन् यः प्रयुक्ते स श्रुतव्यवहारी धीरपुरुषः प्रज्ञप्तः ।
६. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६१० - ६१५, ६२७ । समणस्स उत्तम सल्लद्धरण करणे अभिमुहस्स । दूरत्या जत्थ भवे छत्तीसगुणा उ आयरिया || अपरक्कमो सि जाओ गंतु जे कारणं च उप्पन्नं । अठार समन्नयरे वसणगतो इच्छिमो आणं || अपरकम्मो तवस्सी गंतुं जे सोहिका रगसमीवं । आगंतुं न वाएई सो सोहिकारोवि देसाउ || अह पट्टवेइ सीसं देसंतरगमणनट्टचेद्वागो । इच्छामज्जो काउं सोहि तुब्भं समासम्म || सोविअपरक्कमगती सीसं पेसेइ धारणाकुसलं । एयस्स दाणि पुरओ करेइ सोहि जहावत्तं ॥ अपरक्कमो य सीसं आणापरिणामगं परिच्छेज्जा । रुक्खे य वीय काए सुते वा मोहणाधारि ।। एवं परिच्छिऊण जोगं नाउण पेसवे तं तु । बच्चाहि तस्सगासं सोहि सोऊण आगच्छ || ७. वही, भाष्य गाथा ६२८ ।
अह सो गतो उ तहियं तस्स सगासम्मि सो करे साहि । दुगतिगचउविसुद्धं तिबिहे काले बिगडभावो ||
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि० ८६ कितने आगमों के ज्ञाता हैं ? उनकी प्रव्रज्या---पर्याय तपस्या से भावित है या अभावित ? उनकी गृहस्थ तथा ब्रतपर्याय कितनी है ? शारीरिक बल का स्थिति क्या है ? वह क्षेत्र कैसा है ?—ये सारी बातें श्रमण उन आचार्य को पूछता है। उनके कथनानुसार तथा स्वयं के प्रत्यक्ष दर्शन से उनका अवधारण कर वह अपने प्रदेश में लौट आता है। वह अपने आचार्य के पास जाकर उसी क्रम से निवेदन करता है, जिस क्रम से उसने सभी तथ्यों का अवधारण किया था।
आचार्य अपने शिष्य के कथन को अवधानपूर्वक सुनते हैं और छेदसूत्रों [कल्प और व्यवहार में निमग्न हो जाते हैं। वे पौर्वापर्य का अनुसंधान कर, सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सम्यग् अवगति करते हैं। उसी शिष्य को बुलाकर कहते हैं'जाओ, उन आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आओ। वह शिष्य वहां जाता है और अपने आचार्य द्वारा कथित प्रायश्चित्त उन्हें सुना देता है। यह आज्ञाव्यवहार है।'
वृत्तिकार के अनुसार आज्ञाव्यवहार का अर्थ इस प्रकार है-दो गीतार्थ आचार्य भिन्न-भिन्न देशों में हों, वे कारणवश मिलने में असमर्थ हों, ऐसी स्थिति में कहीं प्रायश्चित्त आदि के विषय में एक-दूसरे का परामर्श अपेक्षित हो, तो वे अपने शिष्यों को गढपदों में प्रष्टव्य विषय को निगृहित कर उनके पास भेज देते हैं। वे गीतार्थ आचार्य भी इसी शिष्य के साथ गूढपदों में ही उत्तर प्रेषित कर देते हैं । यह आज्ञाव्यवहार है।
४. धारणाव्यवहार--किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य के अपराध की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त-विधि का उपयोग करना धारणाव्यवहार कहलाता है। अथवा वैयावृत्य आदि विशेष प्रवृत्ति में संलग्न तथा अशेष छेदसूत्र को धारण करने में असमर्थ साधु को कुछ विशेष-विशेष पद उद्भत कर धारणा करवाने को धारणा व्यवहार कहा जाता है।
उद्धारणा, विधारणा, संधारणा और संप्रधारणा-ये धारणा के पर्यायवाची शब्द हैं।' १. उद्घारणा–छेदसूत्रों से उद्धत अर्थपदों को निपुणता से जानना। २. विधारणा–विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना। ३. संधारणा.---धारण किए हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना। ४. संप्रधारणा–पूर्ण रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना।'
१. व्यवहार, उद्देशक १० भाष्य गाथा ६५६, वृत्ति
श्रुत्वा तस्यालोचनकस्य प्रतिसेवनामालोचनाक्रमविधि च आलोचनाक्रमपरिपाटी चाबधार्य तथा तस्य यावानागमोस्ति तावन्तमागम तथा पुरुषजातं तमष्टमादिभिर्भावितमभावित वा पर्यायं गृहस्थपर्यायो यावानासीत् यावांश्च तस्य व्रतपर्यायः तावन्तमुभयं पर्याय बलं शारीरिक तस्य तथा यादृशं तत् क्षेत्रमेतत्सर्वमालोचकाचार्यकथनतः स्वतो दर्शनतश्चावधार्य
स्वदेशं गच्छति । २. वही, भाष्य गाथा ६६०:
आहारेउ सव्वं सो गंतूणं पुणो गुरुसगास ।
तेसि निवेदेइ तहा जहाणपुवि गतं सव्वं ।। ३. वही भाष्य गाथा ६६१:
सो ववहारविहष्णू अणुमज्जित्ता सुत्तोबएसेणं ।
सीसस्स देई आण तस्स इमं देहि पच्छित्तं ।। ४. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ६७३ :
एवं गंतूण तहिं जहोवएसेण देहि पच्छित्तं । आणाए एस भणितो ववहारो धीरपुरुसेहि।।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र, ३०२ :
यदगीतार्थस्य पुरतो गढार्थपदर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातिचारालोचनमितरस्यापि तथैव शुद्धिदानं
साज्ञा। ६. वही, पत्र, ३०२:
गीतार्थसं विग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधायं यदन्यस्तव तथैव तामेव प्रयुक्त सा धारणा। बयावृत्त्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणो अशेपानचितस्योचितप्रायश्चित्तपदानां प्रदशितानां धरणं धारणेति। ७. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ६७५ :
उद्घारणा विधारणा संधारणा संपधारणा चेव ।
नाऊण धीसुरिसा धारणववहारं तं बिति ।। ८. वही, भाष्य गाथा ६७६-६७८ :
पाबल्लेण उवेच्च व उद्धियपयधारणा उ उद्धारा। विविहेहि पगारेहि धारेयव्वं वि धारेउ ।। सं एगी भावस्सी द्दियकरणा ताणि एक्कभावेण । धारेयत्थपयाणि उ तम्हा संघारणा होई। जम्हा संपहारेउं ववहारं पउंजति । तम्हा कारणा तेण नायव्वा संपहारणा ।।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि०८६
___जो मुनि प्रवचनयशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, सुश्रुत, बहुश्रुत, विनय और औचित्य से युक्त वाणी वाला होता है, वह यदि प्रमादवश मूलगुणों या उत्तरगुणों में स्खलना कर देता है, तब पूर्वोक्त तीन व्यवहारों के अभाव में भी, आचार्य छेदसूत्रों से अर्थपदों को धारण कर उसे यथायोग्य प्रायश्चित्त देते हैं। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से छेदसूत्र के अर्थ का सम्यग् पर्यालोचन कर, प्राग्तन, धीर, दान्त और प्रलीन मुनियों द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान करते हैं। यह धारणाव्यवहार कहलाता है।'
यह भी माना जाता है कि किसी ने किसी को आलोचनाशुद्धि करते हुए देखा। उसने यह अवधारण कर लिया कि इस प्रकार के अपराध के लिए यह शोधि होती है। परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देता है तो वह धारणाव्यवहार कहलाता है।
कोई शिष्य आचार्य की वैयावृत्य में संलग्न है या गण में प्रधान शिष्य है या यात्रा के अवसर पर आचार्य के साथ रहता है, वह छेदसूत्रों के परिपूर्ण अर्थ को धारण करने में असमर्थ होता है। तब आचार्य उस पर अनुग्रह कर छेदसूत्रों के कई अर्थ-पद उसे धारण करवाते हैं। वह छेदसूत्रों का अंशत: धारक होता है। वह भी धारणाव्यवहार का संचालन कर सकता है।
५. जीतव्यवहार-किसी समय किसी अपराध के लिए आचार्यों ने एक प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया। दूसरे समय में देश, काल, धृति, संहनन, बल आदि देखकर उसी अपराध के लिए जो दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया जाता है, उसे जीतव्यवहार कहते हैं।
किसी आचार्य के गच्छ में किसी कारणवश कोई सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त प्रवर्तित हुआ और वह बहुतों द्वारा, अनेक बार, अनुवतित हुआ। उस प्रायश्चित्त-विधि को 'जीत' कहा जाता है।
शिष्य ने यह प्रश्न उपस्थित किया कि चौदहपूर्वी के उच्छेद के साथ-साथ आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा--ये चारों व्यवहार भी व्यवच्छिन्न हो जाते हैं। क्या यह सही है ?"
आचार्य ने कहा- 'नहीं, यह सही नहीं है। केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी और नौपूर्वी --- ये सब आगमव्यवहारी होते हैं, कल्प और व्यवहार सूत्रधर श्रुतव्यवहारी होते हैं; जो छेदसूत्र के अर्थधर होते हैं, वे आज्ञा
व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६८०-६८६ : पवयण जसंसि पुरिसे अणुग्गह विसारए तवस्सिमि। मुस्सुयबहुस्सुयंमि य विवक्कपरियागसुद्धम्मि ।। एएमु धीरपुरिसा पुरिसजाएसु किंचि खलिएसु । रहिएवि धारयंता जहारिहं देति पच्छित्तं ।। रहिए नाम असन्ने आइल्लम्मि ववहारतियगंमि । ताहेवि धारइत्ता बीमसेऊण जं भणियं ।। पुरिसस्स अइयारं वियारइत्ताण जस्स जं जोग । तं देंति उ पच्छित्तं जेणं देती उ तं सुणए । जो धारितो सुत्तत्यो अणुओगविहीए धीरपुरिसेहि । आलीणपलीणेहि जयणाजुत्तेहिं दन्तेहि ।। अल्लीणो गाणादिसु पदे-पदे लीआ उ होति पलीणा । कोहादी वा पलयं जेसि गया ते पलीणा उ॥ जयणाजुत्तो पयत्तवा दतो जो उवरतो उ पावेहि । अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च ।।
२. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६८७-६८६:
अहवा जेणण्णइया दिदा सोही परस्स कीरति । तारिसयं चेव पूणो उपण्णं कारणं तस्स ।। सो तंमि चेव दवे खेत्ते काले य कारिणे पूरिसो। तारिसयं अकरेंतो न ह सो आराहतो होइ।। सो तंपि चेव दवे खेत काले य कारणे पूरिसे।
तारिसयं चिय भूया, कुवं आराहगो होई ।। ३. वही, भाष्य गाथा ६६०, ६६१:
वेयावच्चकरो वा सीसो वा देसहिटगो वावि । दुम्मेहत्ता न तरइ आराहेउ बहूं जो उ॥ तस्स उ उद्धरिऊण अत्थपयाई देति आयरियो।
जेहि उ करेइ कज्ज आहारेन्तो उ सो देसं । ४. स्थानांगवत्ति, पत्र ३०२ : द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिषेवान
वृत्या संहननधृत्यादिपरिहाणिमपेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदानं यो वा यन्त्र गच्छे सूत्रातिरिक्त कारणत. प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवत्तितो
बहुभिरन्यश्चानुबत्तितस्तज्जीतमिति । ५. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ६६६ :
ववहारे चउक्कंपि य चोदसपुवंमि वोच्छिन्नं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि०८७
और धारणा से व्यवहार करते हैं। आज भी छेदसूत्रों के सूत्र और अर्थ को धारण करने वाले हैं, अत: व्यवहारचतुष्क का व्यवच्छेद चौदहपुर्वी के साथ मानना यक्तिसंगत नहीं है।'
जीतव्यवहार दो प्रकार का होता है—सावध जीतव्यवहार और निरवद्य जीतव्यवहार। वस्तुत: निरवद्य जीत व्यवहार से ही व्यवहरण हो सकता है सावध से नहीं। परन्तु कहीं-कहीं सावध जीत व्यवहार का आश्रय भी लिया जाता है। जैसे--
कोई मुनि ऐसा अपराध कर डालता है कि जिससे समूचे श्रमण-संघ की अवहेलना होती है और लोगों में तिरस्कार उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में शासन और लोगों में उस अपराध की विशुद्धि की अवगति कराने के लिए अपराधी मुनि को गधे पर चढ़ाकर सारे नगर में बुमाते हैं, पेट के बल रेंगते हुए नगर में जाने को कहते हैं, शरीर पर राख लगाकर लोगों के बीच जाने को प्रेरित करते हैं, कारागृह में प्रविष्ट करते हैं ये सब सावध जीतव्यवहार के उदाहरण हैं।
दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का व्यवहरण करना निरवद्य जीतव्यवहार है। अपवाद रूप में सावध जीतव्यवहार का भी आलम्बन लिया जाता है। जो श्रमण बार-बार दोष करता है, बहुदोषी है, सर्वथा निर्दय है तथा प्रवचन-निरपेक्ष है, ऐसे व्यक्ति के लिए सावध जीतव्यवहार उचित होता है।'
जो श्रमण वैराग्यवान्, प्रियधर्मा, अप्रमत्त और पापभीरु है, उसके कहीं स्खलित हो जाने पर निरवद्य जीतव्यवहार उचित होता है।
जो जीतव्यवहार पार्श्वस्थ, प्रमत्तसंयत मुनियों द्वारा आचीर्ण है, भले फिर वह अनेक व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि करने वाला नहीं होता।
जो जीतव्यवहार संवेगपरायण दान्त मुनि द्वारा आचीर्ण है, भले फिर वह एक ही मुनि द्वारा आचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि करने वाला होता है।
व्यवहार साधू-संघ की व्यवस्था का आधार-बिन्दु रहा है। इसके माध्यम से संघ को निरन्तर जागरूक और विशुद्ध रखने का प्रयत्न किया जा रहा है। इसलिए चारित्र की आराधना में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
८७. (सू० १३१)
देखें.-१०१८४ का टिप्पण।।
४. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ७१७ :
उसष्णबहूदोसे निबंधसे पवयणे य निरवेक्खो। एयारिसंमि पुरिसे दिज्जइ सावज्जं जीयपि ।।
५. वही, भाष्य गाया २१८:
संधिग्गे पियधम्मे अपमत्ते य बज्ज भीरुम्मि कम्हिइयमाइ खलिए देवमसावज्ज जीयं तु ।
१. व्यवहार, उद्देशक १२, भाष्य गाथा ७०१-७०३ :
केवलमणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा । चोद्दसदसनवपुब्बी आगमववहारिणो धीरा ।। सुत्तेण ववहरते कप्पववहारं धारिणो धीरा। अत्यधर ववहारते आणाए धारणा ए य ।। ववहारच उक्कस्स, चोहसविम्मि छेदो ।
भणियं तं ते मिच्छा, जम्हा सुतं अत्थो य वरए य ।। २. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ७१५:
जंजीतं सावजं न तेण जीएण होइ ववहारो।
जं जीयमसावज्ज तेण उ जीएण ववहारो।। ३. वही, भाष्य गाथा ३१६, वृत्ति
छारहड्डिहड्डमालापोट्टेण य रिंगणं तु सावज्ज । दसविह पायच्छित होइ असावज्जं जीयं तु ॥
यत् प्रवचने लोके चापराधविशुद्धये समाचरितं क्षारावगण्डनं हडो गुप्तिगृहप्रवेशनं खरमारोपणं पोट्टण उदरेण रंगणं तु शब्दत्वात् खरारूढं कृत्वा ग्राने सर्वतः पर्यटनमित्येवमादि सावा जीत, यत्तु दशविधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तं तदसावद्य' जीत अपवादत: कदाचित्सावद्यमपि जीतं दद्यात् ।
६. वही, भाष्य गाथा ७२०:
जं जीयमसोहिकरं पासत्थप मत्तसंजयाईण्णं । जइवि महाजणाइन्न न तेन जीएण ववहारो।।
७. वही, भाष्यगाथा ७२१ :
जं जीयं सोहिकर संवेगपरायणेन देतेण। एगेण वि आइन्नं तेणं उ जीएण ववहारो॥
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स्थान ५ : टि०८८-80
ठाणं (स्थान) ८८. (सू० १३२)
देखें-१०।८५ का टिप्पण।
८६. (सू० १३३)
वृत्तिकार ने बोधि का अर्थ जन-धर्म किया है। यह एक अर्थ है। बोधि के दूसरे-दूसरे अर्थ भी हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र प्राप्ति की चिंता आदि-आदि।
प्रस्तुत सूत्र में बोधि-दुर्लभता के पांच स्थान माने हैं। (१) अर्हत् का अवर्ण बोलना
'अर्हत् कोई है ही नहीं। वे वस्तुओं के उपभोग के कट परिणामों को जानते हए भी उनका उपयोग क्यों करते हैं ? वे समवसरण आदि का आडम्बर क्यों रचते हैं ? —ऐसी बातें करना अर्हत् का अवर्णवाद है।
(उनके अवश्यवेद्य सातावेदनीयकर्म तथा तीर्थकर नामकर्म के बेदन से निर्जरा होती है। वे वीतराग होते हैं। अत: समवसरण आदि में उनकी प्रतिवद्धता नहीं होती।)
(२) अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म का अवर्ण बोलनाश्रुतधर्म का अवर्णवाद–प्राकृत साधारण लोगों की भाषा है। शास्त्र प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं आदि-आदि । चारित्रधर्म का अवर्णवाद—चारित्न से क्या प्रयोजन, दान ही श्रेय है--ऐसा कहना धर्म का अवर्णवाद है। (३) आचार्य, उपाध्याय का अवर्ण बोलना
ये बालक हैं, मन्द हैं आदि-आदि। (४) चातुर्वर्ण संघ का अवर्ण बोलनायहाँ वर्ण का अर्थ प्रकार है । चार प्रकार का संघ-साधु, साध्वी, श्रावक और श्रादिका।
यह क्या संघ है जो अपने समवायबल से पशु-संघ की भाँति अमार्ग को भी मार्ग की तरह मान रहा है। यह ठीक नहीं है।
(५) तप और ब्रह्मचर्य के परिपाक से देवत्व को प्राप्त देवों का अवर्ण बोलना---
जैसे---देवता नहीं हैं क्योंकि वे कभी उपलब्ध नहीं होते। यदि वे हैं तो भी कामासक्त होने के कारण उनमें कोई विशेषता नहीं है।
६०. प्रतिसंलीन (सू० १३५)
प्रतिसंलीनता बाह्य तप का छठा प्रकार है। इसका अर्थ है--विषयों से इन्द्रियों का संहृत कर अपने-अपने गोलक में स्थापित करना तथा प्राप्त विषयों में राग-द्वेष का निग्रह करना।
उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थ मूत्र प्रतिसलीनता के स्थान पर विविक्तशयनासन, विविक्तशय्या' आदि भी मिलते है। प्रतिसंलीनता के चार प्रकार हैं
(१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता। (२) कषाय प्रतिसंलीनता। (३) योग प्रतिसंलीनता। (४) विविक्त शयनासन सेवन ।
प्रस्तुत सूत्र में इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पाँच प्रकारों का उल्लेख है। विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १६२, १६३ ।
१. स्थानांगवत्ति, पत्र ३०५ : बोधि :-जिनधर्मः। २. देखें-३।१७६ का टिप्पण। ३. स्थानांगवृत्ति, पव ३०५, ३०६ ।
४. उत्तराध्ययन ३०१२८तत्त्वार्थ सूत्र ६१६ । ५. औषपातिक, सूत्र १६॥
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि० ६१-६४
६१. (सू० १३६)
प्रस्तुत सूत्र में संयम [ चारित्र] के पाँच प्रकार निर्दिष्ट हैं१. सामायिकसंयम--सर्व सावद्य प्रवृत्ति का त्याग। २. छेदोपस्थापनीयसंयम-पाँच महाव्रतों को पृथक्-पृथक् स्वीकार करना । विभागशः त्याग करना। ३. परिहारविशुद्धिकसंयम- तपस्या की विशिष्ट साधना करने का उपक्रम। ४. सूक्ष्मसंपरायसंयम- यह दशवें गुणस्थानवर्ती संयम है। इसमें क्रोध, मान और माया के अणु उप शान्त या क्षीण हो जाते हैं, केवल सूक्ष्म रूप से लोभाणुओं का वेदन होता है। ५. यथाख्यातचारित्र संयम-वीतराग व्यक्ति का चारित्र। विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि २८१३२, ३३ का टिप्पण।
६२. (सू० १४५)
प्राण, भूत, जीव और सत्त्व-ये चार शब्द कभी-कभी एक 'प्राणी' के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं, किन्तु इनका अर्थ भिन्न है। एक प्राचीन इलोक में यह भेद स्पष्ट है
प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः ।
जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः ।। दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले प्राण, वनस्पति जगत् भूत, पञ्चेन्द्रिय जीव और शेष [पानी, पृथ्वी, तेजस और वायु के जीव] सत्त्व कहलाते हैं।
६३. (सू ० १४६)
अग्रबीज आदि की व्याख्या के लिए देखें--- दसवेआलियं ४। सूत्र ८ का टिप्पण ।
६४. आचार (स० १४७)
आचार शब्द के तीन अर्थ हैं-- आचरण, व्यवहरण, आसेवन ।' आचार मनुष्य का क्रियात्मक पक्ष है। प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान आदि के क्रियात्मक पक्ष का दिशा-निर्देश किया गया है। (१) ज्ञानाचार-श्रुतज्ञान (शब्दज्ञान) विषयक आचरण । यद्यपि ज्ञान पांच हैं किन्तु व्यवहारात्मक ज्ञान केवल श्रुतज्ञान ही है। ज्ञानाचार के आठ प्रकार हैं१. काल --जो कार्य जिस काल में निर्दिष्ट है, उसको उसी काल में करना। २. विनय .....ज्ञानप्राप्ति के प्रयत्न में विनम्र रहना। ३. बहुमान --ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनुराग। ४. उपधान.....श्रतवाचन के समय किया जाने वाला तप । ५. अनिण्हवन ----अपने वाचनाचार्य का गोपन न करना। ६. व्यंजन ....सूत्र का वाचन करना।
१. (क) स्थानांगवृत्ति, पन ६०:
आचरणमाचारो व्यवहारः । (ख) वही, पत्र, ३०६ :
आचरणमाचारो ज्ञानादिविषयासेवेत्यर्थः ।
२. अनुयोगद्वार सूत्र २। ३. निशीथ भाष्य, गाथा ८ :
काले विणये बहुमाने, उबधाने तहा अणिव्हवणे । बंजणअत्यतदुभए, अट्टविधो पाणमायारो॥
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ori (स्थान)
७. अर्थ - अर्थबोध करना ।
६३७
८.
सूत्रार्थ- सूत्र और अर्थ का बोध करना ।
(२) दर्शनाचार - सम्यक्त्व विषयक आचरण । इसके आठ प्रकार हैं— निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा,
अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण, वत्सलता और प्रभावना ।
(३) चारित्राचार - समिति गुप्ति रूप आचरण । इसके आठ प्रकार हैं पांच समितियों और तीन गुप्तियों का प्रणिधान हैं।
( ४ ) तप आचार- बारह प्रकार की तपस्याओं में कुशल तथा अग्लान रहना । "
(५) वीर्याचार ज्ञान आदि के विषय में शक्ति का अगोपन तथा अनतिक्रम ।
६५. आचारप्रकल्प ( सू० १४८ )
इसका अर्थ है - निशीथ नाम का अध्ययन। यह आचारांग की एक चूलिका है। इसमें पांच प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। इनके आधार पर निशीथ के भी पांच प्रकार हो जाते हैं ।
स्थान ५ : टि० ६५-१०२
६. आरोपणा ( सू० १४६ )
इसका अर्थ है - एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के आसेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना । इसके पांच प्रकार हैं
१. प्रस्थापिता -- प्रायश्चित्त में प्राप्त अनेक तपों में से किसी एक तप को प्रारंभ करना ।
२. स्थापिता -- प्रायश्चित्त रूप से प्राप्त तपों को स्थापित किए रखना, वैयावृत्त्य आदि किसी प्रयोजन से प्रारम्भ न
कर पाना ।
३. कृत्स्ना -- वर्तमान जैन शासन में तप की उत्कृष्ट अवधि छह मास की है। जिसे इस अवधि से अधिक तप ( प्रायश्चित्त रूप में ) प्राप्त न हो उसकी आरोपणा को अपनी अवधि में परिपूर्ण होने के कारण कृत्स्ना कहा जाता है ।
४. अकृत्स्ना --- जिसे छह मास से अधिक तप प्राप्त हो उसकी आरोपणा अपनी अवधि में पूर्ण नहीं होती । प्रायश्चित्त के रूप में छह मास से अधिक तप नहीं किया जाता। उसे उसी अवधि में समाहित करना होता है। इस
लिए अपूर्ण होने के कारण इसे अकृत्स्ना कहा जाता है।
५. हाडहडा - जो प्रायश्चित्त प्राप्त हो उसे शीघ्र ही दे देना ।
१. निशीथ भाष्य गाथा ६-२०।
२. देखें - उत्तरज्झयणाणि २८।३५ का टिप्पण | ३. निशीथ भाष्य गाथा ३५ :
परिधाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहि तिहिय गुप्तीहि ।
एस चरिताचारी अट्टविहो होति गायव्वो ।
७- १०२. (सू० १६५ )
दुर्ग - दुर्ग का अर्थ है - ऐसा स्थान जहाँ कठिनाइयों से जाया जाता है। दुर्ग के तीन प्रकार हैं
१. वृक्षदुर्ग - सघन झाड़ी ।
२. श्वापद दुर्ग - हिंस्र पशुओं का निवास स्थान ।
३. मनुष्य दुर्ग - म्लेच्छ मनुष्यों की वसति ।
४. देखें - उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन २४ ।
५. देखें उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३० ।
६, स्थानांगवृत्ति पत्र ३११ दुःखेन गम्यत इति दुर्ग:, स च विधा - वृक्ष दुर्गः श्वापददुग्र्गा मलेच्छादिमनुष्य दुर्गः ।
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ठाणं (स्थान)
६३८
प्रस्खलन, प्रपतन-वृत्तिकार ने प्रस्खलन और प्रपतन का भेद समझाते हुए एक प्राचीन गाथा का उल्लेख किया है । उसके अनुसार भूमि पर न गिरना अथवा हाथ या जानु के सहारे गिरना प्रस्खलन है और भूमि पर धड़ाम से गिर पड़ना प्रपतन है । '
क्षिप्तचित्त - राग, भय, मान, अपमान आदि से होने वाला चित्त का विक्षेप । '
दृप्तचित्त - लाभ, ऐश्वर्य, श्रुत आदि के मद से दृप्त अथवा सन्मान तथा दुर्जय शत्रु को जीतने से होने वाला दर्प ।
यक्षाविष्ट -- पूर्वभव के वर के कारण अथवा राग आदि के कारण देवता द्वारा अधिष्ठित ।
उन्मादप्राप्त- उन्माद दो प्रकार का होता है
(१) यक्षावेश - देवता द्वारा प्राप्त उन्माद ।
(२) मोहनीय-रूप, शरीर आदि को देखकर अथवा पित्तमूर्च्छा से होने वाला उन्माद ।
१०३ (सू० १६६)
जैन शासन में व्यवस्था की दृष्टि से सात पदों का निर्देश है। उनमें आचार्य और उपाध्याय - दो पृथक् पद हैं। सूत्र के अर्थ की वाचना देने वाले आचार्य और सूत्र की वाचना देने वाले उपाध्याय कहलाते थे। कभी-कभी दोनों कार्य एक ही व्यक्ति संपादित करते थे ।
स्थान ५ :
किसी को अर्थ की वाचना देने के कारण वह आचार्य और किसी दूसरे को सूत्र की वाचना देने के कारण वह उपाध्याय कहलाता था ?'
प्रस्तुत सूत्र (१६६) में आचार्य - उपाध्याय के पाँच अतिशेष बतलाए हैं। अतिशेष का अर्थ है --विशेष विधि । व्यवहार सूत्र (६/२) में भी ये पांच अतिशेष निर्दिष्ट हैं। व्यवहार भाष्यकार ने इनका विस्तार से वर्णन करते हुए प्रत्येक अतिशेष के उपायों का निर्देश भी किया है।
टि० १०३
१. स्थानांग वृत्ति पत्र ३११ :
१. पहला अतिशेष है - बाहर से आकर उपाश्रय में पैरों की धूलि को झाड़ना। धूली को यतनापूर्वक न झाड़ने से होने वाले दोषों का उल्लेख इस प्रकार है
(१) प्रमार्जन के समय चरणधूलि तपस्वी आदि पर गिरने से वह कुपित होकर दूसरे गच्छ में जा सकता है।
(२) कोई राजा आदि विशेष व्यक्ति प्रब्रजित है उस पर धूल गिरने से वह आचार्य को बुरा-भला कह सकता है। (३) शैक्ष भी धूलि से स्पृष्ट होकर गण से अलग हो सकता है।"
२. दूसरा अतिशेष है - उपाश्रय में उच्चार-प्रस्रवण का व्युत्सर्जन और विशोधन करना ।
आचार्य - उपाध्याय शौचकर्म के लिए एक बार बाहर जाएं। बार-बार बाहर जाने से अनेक दोष उत्पन्न हो सकते
(१) जिस रास्ते से आचार्य आदि जाते हैं, उस रास्ते में स्थित व्यापारी लोग आचार्य आदि को देखकर उठते हैं, वन्दन आदि करते हैं। यह देखकर दूसरे लोगों के मन में भी उनके प्रति पूजा का भाव जागृत होता है। आचार्य आदि के
"भूमीए असंपत्तं पत्तं वा हत्थजाणुगादीहि । पक्खलणं मायव्वं पवडण भूमीए गतेह ||"
२. वही पत्र ३१२ क्षिप्तं नष्टं रागभयापमानैश्चित्तं यस्याः साक्षिप्तचित्ता ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१२ दृप्त सन्मानात् दवच्चित्तं यस्याः सादृप्तचित्ता |
४. वही पत्र ३१२ यक्षेण देवेन आविष्टा- अधिष्ठिता यक्षाविष्टा ।
५. वही, पत्र ३१२:
उम्माओ खलु दुविही जक्खाएसो य मोहणिज्जो य । जक्खाएसो वृत्तो मोहेण इमं तु वोच्छामि ॥। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१३ : आचार्यश्चासावुपाध्यायश्चेत्याचायेंपाध्याय स हि केषाञ्चिदर्थदायकत्वादाचार्योऽन्येषां सूत्रदायकत्वादुपाध्याय इति ।
७. व्यवहार, उद्देशक ६, भाष्य गाथा ८३ आदि ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि० १०३
बार-बार बाहर जाने से वे लोग उनको देखते हुए भी नहीं देखने वालों की तरह मुंह मोड़ कर वैसे ही बैठे रहते हैं। यह देख कर अन्य लोगों के मन में भी विचिकित्सा उत्पन्न होती है और वे भी पूजा-सत्कार करना छोड़ देते हैं।
(२) लोक में विशेष पूजित होते देख कोई द्वेषी व्यक्ति उनको विजन में प्राप्त कर मार डालता है।
(३) कोई व्यक्ति आचार्य आदि का उद्धार करने के लिए जंगल में किसी नपुंसक दासी को भेजकर उन पर झूठा आरोप लगा सकता है।
(४) अज्ञानवश गहरे जंगल में चले जाने से अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं।
(५) कोई वादी ऐसा प्रचार कर सकता है कि वाद के डर से आचार्य शौच के लिए चले गए। अरे ! मेरे भय से उन्हें अतिसार हो गया है। चलो, मेरे भय से ये मर न जाएं। मुझे उनसे वाद नहीं करना है।
(६) राजा आदि के बुलाने पर, समय पर उपस्थित न होने के कारण राजा आदि की प्रव्रज्या या श्रावकत्व के ग्रहण में प्रतिरोध हो सकता है।
(७) सूत्र और अर्थ की परिहानि हो सकती है। ३. तीसरा अतिशेष है---सेवा करने की ऐच्छिकता।
आचार्य का कार्य है कि वे सूत्र, अर्थ, मंत्र, विद्या, निमित्तशास्त्र, योगशास्त्र का परावर्तन करें तथा उनका गण में प्रवर्तन करें। सेवा आदि में प्रवृत्त होने पर इन कार्यों में व्याघात आ सकता है।
व्यवहार भाष्यकार ने सेवा के अन्तर्गत भिक्षा प्राप्ति के लिए आचार्य के गोचरी जाने, न जाने के संदर्भ में बहुत विस्तृत चर्चा की है।
४. चौथा अतिशेष है---एक-दो रात उपाश्रय में अकेले रहना।
सामान्यत: आचार्य-उपाध्याय अकेले नहीं रहते। उनके साथ सदा शिष्य रहते ही हैं। प्राचीन काल में आचार्य पर्वदिनों में विद्याओं का परावर्तन करते थे । अतः एक दिन-रात अकेले रहना पड़ता था अथवा कृष्णा चतुर्दशी अमुक विद्या साधने का दिन है और शुक्ला प्रतिपदा अमुक विद्या साधने का दिन है, तब आचार्य तीन दिन-रात तक अकेले अज्ञात में रहते है। सूत्र में 'वा' शब्द है। भाष्यकार ने 'वा' शब्द से यह भी ग्रहण किया है कि आचार्य महाप्राण आदि ध्यान की साधना करते समय अधिक काल तक भी अकेले रह सकते हैं। इसके लिए कोई निश्चित अवधि नहीं होती। जब तक पूरा लाभ न मिले या ध्यान का अभ्यास पूरा न हो, तब तक वह किया जा सकता है।
महाप्राणव्यान की साधना का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का है। चक्रवर्ती ऐसा कर सकते हैं। वासूदेव, बलदेव के वह छह वर्ष का होता है। मांडलिक राजाओं के तीन वर्ष का और सामान्य लोगों के छह मास का होता है।
५. पांचवां अतिशेष है-एक-दो रात उपाश्रय से वाहर अकेले रहना।
मन्त्र, विद्या आदि की साधना करते समय जब आचार्य बसति के अन्दर अकेले रहते हैं--तब सारा गण बाहिर रहता है और जब गण अन्दर रहता है तब आचार्य बाहर रहते हैं क्योंकि विद्या आदि की साधना में व्याक्षेप तथा अयोग्य व्यक्ति मंत्र आदि को सुनकर उसका दुरुपयोग न करे, इसलिए ऐसा करना होता है।
व्यवहारभाष्य ने आचार्य के पांच अतिशेष और गिनाए हैं। वे प्रस्तुत सूत्रगत अतिशेषों से भिन्न प्रकार के हैं।
१ देखें-व्यवहार, उद्देशक ६, भाष्य गाथा-१२३-२२७ । २. पर्व का एक अर्थ है -मास और अर्द्धमास के बीच की तिथि ।
अर्द्धमास के बीच की तिथि अष्टमी और मास के बीच की तिथि कृष्णा चतुर्दशी को पर्व कहा जाता है। इन तिथियों में विद्याएं साधी जाती है तथा चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के दिनों को भी पर्व माना जाता है। (व्यवहारभाष्य ६।२५२: पक्वत्स अट्ठमी बलु मासस्स य पक्खिों मुणेयव्यं । अण्णपि होइ पव्वं उवरागो चंदसूराणं ।।)
३. व्यवहार, उद्देशक ६, भाष्यगाथा २५५ :
बारहवासा भरहाहिवस्स, छच्चेव वासुदेवाणं ।
तिणि य मंडलियस्स, छम्मासा पागयजणस्स ।। ४. वहीं, भाष्य गाथा २५८:
बा अंतो गणी व गणो विक्खेवो मा हु होज्ज अग्गहणं ।
बसते हि परिखित्तो उ अत्यते कारणे तेहिं ।। ५. वही, भाष्य गाथा २२८ ।
अन्नेवि अत्थि भणिया, अतिसेसा पंच होति आयरिए।
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) उत्कृष्टभक्त जो कालानुकूल और स्वभावानुकूल हो वैसा भोजन करना ।
(२) उत्कृष्टपान- जिस क्षेत्र या काल में जो उत्कृष्ट पेय हो वह देना ।
है तथा शरीर का सौन्दर्य भी वृद्धिगत होता है ।"
आचार्यों के ये अतिशेष इसलिए हैं कि-
१. वे तीर्थंकर के संदेशवाहक होते हैं। २. वे
(३) वस्त्र प्रक्षालन ।
( ४ ) प्रशंसन ।
(५) हाथ, पैर, नयन, दांत आदि धोना ।
मुख और दांत को धोने से जठराग्नि की प्रबलता होती है; आँख और पैर धोने से बुद्धि और वाणी की पटुता बढ़ती
'सून और अर्थरूप प्रवचन के दायक होते हैं ।
३. उनकी वैयावृत्त्य करने से महान् निर्जरा होती है ।
४. वे सापेक्षता के सूत्रधार होते हैं।
५. वे तीर्थ की अव्यवच्छित्ति के हेतु होते हैं।"
१०४. ( सू० १६७)
१. गणापक्रमण का पहला कारण है--आज्ञा और धारणा का सम्यग् प्रयोग न होना । वृत्तिकार ने इसके उदाहरण स्वरूप कालिकाचार्य का उल्लेख किया है। उनका कथानक इस प्रकार है
उज्जैनी नगरी में आर्यकालक विहरण कर रहे थे। वे सूत्र और अर्थ के धारक थे। उनका शिष्य परिवार बहुत बड़ा था । उनके एक प्रशिष्य का नाम सागर था। बह भी सूत्र और अर्थ का धारक था। वह सुवर्णभूमि में विहरण कर रहा था। आर्यकालक के शिष्य अनुयोग सुनना नहीं चाहते थे। आचार्य ने उन्हें अनेक प्रकार से प्रेरणाएँ दीं, परन्तु वे इस ओर प्रवृत्त नहीं हुए। एक दिन आचार्य ने सोचा- 'मेरे ये शिष्य अनुयोग सुनना नहीं चाहते । अतः इनके साथ मेरे रहने से क्या लाभ हो सकता है ? मैं वहाँ जाऊँ, जहाँ अनुयोग का प्रवर्तन हो सके। एक बार मैं इन्हें छोड़कर चला जाऊँगा तो इन्हें भी अपनी प्रवृत्ति पर पश्चात्ताप होगा और सम्भव है इसके मन में अनुयोग श्रवण के प्रति उत्सुकता उत्पन्न हो जाए ।' आचार्य
शय्यार को बुलाकर कहा- 'मैं अन्यत्र कहीं जाना चाहता हूँ । शिष्यों के पूछने पर तुम उन्हें कुछ भी मत बताना। जब ये तुम्हें बार-बार पूछें और विशेष आग्रह करें तो तुम उनकी भर्त्सना करते हुए कहना कि आचार्य अपने प्रशिष्य सागर के पास सुवर्णभूमि में चले गए हैं।
शय्यातर को यह बात बताकर आचार्य कालक रात में ही वहाँ से चल पड़े । सुवर्णभूमि में पहुँचे । वे आचार्य सागर के गण में रहने लगे।
१. व्यवहार, उद्देशक ६, भाष्य गाथा २३७ :
स्थान ५ :
२. दूसरा कारण है - वंदन और विनय का सम्यक् प्रयोग न कर सकना ।
जैन परम्परा की गण-व्यवस्था में आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। वे वय, श्रुत और दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ हों ही, ऐसा नियम नहीं है । अत: उनका यह कर्त्तव्य है कि वे प्रतिक्रमण तथा क्षमायाचना के समय उचित विनय का प्रवर्तन करें।
पर्याय स्थविर तथा श्रुत स्थविर हैं उनका वन्दन आदि से सम्मान करें। यदि वे अपनी आचार्य सम्पदा के अभिमान से ऐसा नहीं कर पाते तो वे गण से अपक्रमण कर देते हैं ।
३. यदि आचार्य यह जान ले कि उनका शिष्य वर्ग अविनीत हो गया है, अतः सुख-सुविधाओं का अभिलाषी बन गया है, मन्द- प्रज्ञा वाला है---ऐसी स्थिति में अपने द्वारा श्रुत का उन्हें अध्यापन करना सहज नहीं है, तब से गणापक्रमण कर देते
मुखनयणदंतपायादि धोवणे को गुणोत्ति ते बुद्धी । अग्गि मतिवाणिपया तो होइ अणोतप्पया चेव ।।
टि० १०४
२. वही, भाष्य गाथा १२२ ।
३. पूरे विवरण के लिए देखें
बृहत् कल्प भाग १, पृष्ठ ७३, ७४ ।
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स्थान ५ : टि० १०५-१०७
हैं। यह वृत्तिसम्मत अर्थ है, किन्तु पाठ की शब्दावली से यह अर्थ ध्वनित नहीं होता। इसकी ध्वनि यह है आचार्य उपाध्याय अपने प्रमाद आदि कारणों से सूत्रार्थं की समुचित ढंग से वाचना न देने पर गणापक्रमण के लिए बाध्य हो जाते हैं ।
४. जब आचार्य अपने निकाचित कर्मों के उदय के कारण अपने गण की या दूसरे गण की साध्वी में आसक्त हो जाते हैं तो वे गण छोड़कर चले जाते हैं। अन्यथा प्रवचन का उड्डाह होता है।
साधारणतया आचार्य की ऐसी स्थिति नहीं आती, किन्तु -
'कम्माई नूणं घणचिक्कणाई गरुयाई वज्जसाराई ।
नाणड्डूयंपि पुरिसं पंथाओ उप्पहं निति ॥।'
- जिस व्यक्ति के कर्म सघन, चिकने ओर वज्र की भांति गुरुक हैं, ज्ञानी होने पर भी, उसको वे पथच्युत कर
देते हैं ।
५. जब आचार्य यह देखें कि उनके सगे-सम्बन्धी किसी कारणवश गण से अलग हो गए हैं तो उन्हें पुनः गण में सम्मिलित करने के लिए तथा उन्हें वस्त्र आदि का सहयोग देने के लिए स्वयं गण से अपक्रमण करते हैं और अपना प्रयोजन सिद्ध होने पर पुनः गण में सम्मिलित हो जाते हैं । '
१०५. ( सू० १६८)
सामान्यतः ऋद्धि का अर्थ है - ऐश्वर्य, सम्पदा । प्रस्तुत सूत्र में उसका अर्थ है- योगविभूतजन्य शक्ति । जो इससे सम्पन्न है, उसे ऋद्धिमान कहा गया है।
वृत्तिकार ने अनेक योग - शक्तियों का नामोल्लेख किया है।
१. आमर्षौषधि, २. विप्रुडोषधि, ३. क्ष्वेलौषधि, ४. जल्लोषधि, ५. सर्वोषधि, ६. आसीविषत्व - शाप और वर देने का सामर्थ्यं । ७. आकाशगामित्व, ८. क्षीणमहानसिकत्व, ६. वैक्रियकरण, १०. आहारकलब्धि, ११. तेजोलब्धि, १२. पुलाकलब्धि, १३. क्षीराश्रवलब्धि, १४. मध्वाश्रवलब्धि, १५. सर्पिराश्रवलब्धि, १६. कोष्ठबुद्धिता, १७. बीजबुद्धिता, १८. पदानुसारिता, १६. संभिन्न श्रोतोलब्धि – एक साथ सभी शब्दों को सुनना । २०. पूर्वधरता, २१. अवधिज्ञान, २२. मनः पर्यवज्ञान, २३. केवलज्ञान, २४. अर्हत्व, २५. गणधरता, २६. चक्रवर्तित्व, २७ वलदेवत्व, २८. वासुदेवत्व आदि-आदि।
ये लब्धियाँ या पद कर्मों के उदय, क्षय, उपशम, क्षयोपशम से प्राप्त होते हैं ।
प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार के ऋद्धिमान् पुरुषों का उल्लेख है । उनमें प्रथम चार की ऋद्धिमत्ता, उनकी विशेष लब्धियाँ तथा तत्-तत् पद की अर्हता से है । भावितात्मा अनगार की ऋद्धिमत्ता केवल आमर्षों पधि आदि विभिन्न प्रकार की योगजन्य लब्धियों से है ।
जिसकी आत्मा अभय, सहिष्णुता आदि भावनाओं तथा अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं तथा प्रमोद आदि चार भावनाओं से भावित होती है, उसे भावितात्मा अनगार कहा जाता है।
१०६, १०७. ( सू० १७८, १७६ )
प्रस्तुत दो सूत्रों में अधोलोक और ऊर्ध्वलोक में पाँच-पाँच प्रकार के वादर जीवों का निर्देश है। इनमें तेजस्कायिक जीवों का उल्लेख नहीं है । वृत्तिकार ने बताया है कि अधोलोक के ग्रामों में बादरतेजस् की अत्यन्त न्यूनता होती है। अतः उसकी विवक्षा नहीं की गई है। सामान्यतः वह तिर्यग्लोक में ही उत्पन्न होता है।
विशेष विवरण के लिए देखें- प्रज्ञापना पद दो, मलयगिरिवृत्ति ।
१ स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१५ ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१५ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१६ : एतेषां च ऋद्धिमत्त्वमामर्षो षध्यादिभिरर्हदादीनां तु चतुर्णा यथासम्भवमामर्षी षध्यादिनाऽहंत्त्वादिना चेति ।
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स्थान ५ : टि० १०८-११०
इन सूत्रों में बस प्राणी के साथ 'ओराल' (सं० उदार) शब्द का प्रयोग है। उसका अर्थ है--स्थूल । तेजस् और वायुकायिक जीवों को भी त्रस कहा जाता है। उनका व्यवच्छेद कर द्वीन्द्रिय आदि जीवों का ग्रहण करने के लिए नस के साथ ओराल शब्द का प्रयोग किया गया है।'
१०८. (सू० १८३)
यह पाँच प्रकार की वायु उत्पत्ति काल में अचेतन होती है और परिणामान्तर होने पर सचेतन भी हो सकती है।'
१०६ (सू०१८४)
१. पुलाक---नि:सार धान्यकणों की भाँति जिसका चरित्र निःसार हो उसे पुलाकनिर्ग्रन्थ कहते हैं। इसके दो भेद हैं-लब्धिपुलाक तथा प्रतिषेवापुलाक । संघ-सुरक्षा के लिए पुलाक-लब्धि का प्रयोग करने वाला लब्धिपुलाक कहलाता है तथा ज्ञान आदि की विराधना करने वाला प्रतिषेवापुलाक कहलाता है।
२. बकुश—शरीरविभुषा आदि के द्वारा उत्तरगुणों में दोष लगाने वाला बकुश निर्ग्रन्थ कहलाता है । इसके चरित्र में शुद्धि और अशुद्धि दोनों का सम्मिश्रण होने के कारण शबल--विचित्र वर्ण वाले चित्र की तरह विचित्रता होती है।
३. कुशील-मूल तथा उत्तरगुणों में दोष लगाने वाला कुशील निर्ग्रन्थ कहलाता है। इसके प्रमुख रूप से दो प्रकार हैं—प्रतिषेवनाकुशील तथा कषायकुशील । दोनों के पाँच-पाँच प्रकार हैंप्रतिषेवनाकुशील(१) ज्ञानकुशील
(४) लिंगकुशील (२) दर्शनकुशील
(५) यथासूक्ष्मकुशील (३) चरित्रकुशील कषायकुशील
(१) ज्ञानकुशील-संज्वलन कषाय वश ज्ञान का प्रयोग करने वाला। (२) दर्शनकुशील-संज्वलन कषाय वश दर्शन का प्रयोग करने वाला। (३) चरित्नकुशील-संज्वलन कषाय से आविष्ट होकर किसी को शाप देने वाला। (४) लिंगकशील---कषायवश अन्य साधूओं का वेष करने वाला। (५) यथासूक्ष्मकुशील-मानसिक रूप से संज्वलन कषाय करने वाला।
११०. (सू० १६०)
प्रस्तुत सूत्र में पाँच प्रकार के वस्त्र बतलाये हैं। उनका विवरण इस प्रकार है१. जांगमिक-जंगम (वस) जीवों से निष्पन्न । यह दो प्रकार का होता है।(क) विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) जीवों से निष्पन्न । इसके अनेक प्रकार हैं
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१६ : नवरमधऊर्ध्वलोकयोस्तैजसा
बादरा न सन्तीति पंच ते उक्ताः, अन्यथा षट् स्युरिति, अधोलोकग्रामेषु ये बादरास्तैजसास्ते अल्पतया न विविक्षताः, ये चोर्ध्वकपाटद्वये ते उत्पत्तुकामत्वेनोत्पत्तिस्थानास्थितत्वादिति, 'ओरालतस' ति वसत्वं तेजोवायुष्वपि प्रसिद्ध अतस्तद्व्यवच्छेदेन द्वीन्द्रियादिप्रतिपत्त्यर्थमोरालग्रहणं, ओराला:स्थूला एकेन्द्रियापेक्षयेति ।
२. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३१९ : एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना
अपि भवन्तीति । ३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ३६६१ :
जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलि दियं च पंचिदी। एकेक पि य एतो, होति विभागणणेगविहं ॥
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( १ ) पट्टज - रेशमी वस्त्र ।
(२) सुवर्णज - कृमियों से निष्पन्न सूत्र, जो स्वर्ण के वर्ण का होता है।
(३) मलयज - मलण देश के कीड़ों से निष्पन्न वस्त्र ।
(४) अंशुक - चिकने रेशम से बनाया गया वस्त्र । '
प्रारम्भ में यह वस्त्र सफेद होता था। बाद में रक्त, नील, श्याम आदि रंगों में रंगा जाता था।
(५) चीनांशुक - कोशिकार नामक कीड़े के रेशम से बना वस्त्र अथवा चीन देश में उत्पन्न अत्यन्त मुलायम रेशम से बना वस्त्र ।
निशीथ की चूर्णि में सूक्ष्मतर अंशुक को चीनांशुक अथवा चीन देश में उत्पन्न वस्त्र को चीनांशुक माना है । " आचारांग के वृत्तिकार शीलांकसूरि ने अंशुक और चीनांशुक को नाना देशों में प्रसिद्ध मात्र माना है। "
विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में कीटज' के अन्तर्गत पाँच प्रकार के वस्त्र गिनाए गए हैं-पट्ट, मलय, अंशुक, चीनांशुक और कृमिराग और इन सबको पट्टसूत्र विशेष माना है।' इतना तो निश्चित है कि ये पाँचों प्रकार कृमि की लाला से बनाए जाते थे ।
(ख) पंचेन्द्रिय जीवों से निष्पन्न । इसके अनेक प्रकार हैं-
(१) औणिक - भेड़ के बालों से बना वस्त्र ।
(२) औष्ट्रिक - ऊँट के बालों से बना वस्त्र ।
(३) मृगरोमज - इसके अनेक अर्थ हैं— मृग के रोएँ से बना वस्त्र । '
खरगोश या चूहे के रोएँ से बना वस्त्र । "
०
• बालमृग के रोएँ से बना वस्त्र । "
१. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ३६६२, वृत्ति
• रंकु मृग के रोएँ से बना वस्त्र, जिसे 'रांकव' कहा जाता था। १२
(४) कुतप -- चर्म से निष्पन्न वस्त्र।" बकरी के रोएँ या चर्म से निष्पन्न वस्त्र ।" बाल मृग के सूक्ष्म रोएँ से बना वस्त्र ।" देशान्तरों में प्रसिद्ध कुतप रोएँ से बना वस्त्र । " चूहे के चर्म से बना वस्त्र । " चूहे के रोएँ
से बना वस्त्र । "
(५) किट्ट - भेड़ आदि के रोम विशेष से बना वस्त्र । "यहां अप्रसिद्ध, देशान्तरों में प्रसिद्ध रोम विशेष से बना वस्त्र । "
१०.
२. वही, गाथा ३६६२ वृत्तिः
'सुवन्ने' त्ति सुवर्णवर्णं सूतं केषाञ्चित् कृमीणां भवति निष्पन्नं सुवर्णसूत्रजम् ।
मलयो नाम देशस्तत्संभवं मलयजम् ।
३. वही, गाथा ३६६२, वृत्ति
६४३
अंशुकः श्लक्ष्णपट : तन्निष्णन्नमंशुकन् ।
४. यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, पृष्ठ १२९, १३० ॥
५. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ३६६२, वृत्ति
चीनांशुको नाम कोशिकांराख्य: कृमिस्तस्माद् जातं चीनांशुकम् ।
६. निशीथ ६।१०-१२ की चूर्णि :
सुहमतरं चीर्णसुर्य भष्णति । चीणविसए वा जं तं चीर्णसूर्य ।
७. आचारांगवृत्ति, पत्र २६२ :
अंशुचीनांशुकादीनि नानादेशेषु प्रसिद्धाभिधानानि ।
८. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ८७८ वृत्ति
कीजं तु पंचविधम्, तद्यथा-पट्टे, मलये, अंसुए, चीणंसुयं किमिराए - एते पञ्चापि पट्टसूत्रविशेषा । ६. निशीथ भाष्य गाथा ७६० चूर्णि मियाणलोमेसु मियलोमियं ।
स्थान ५ : टि० ११०
स्थानांगवृत्ति, पत्र ३२१ :
मृगरोमजं - शशलोमजं मूषकरोमजं वा ।
११. विशेषचूणि (बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४, पृष्ठ १०१८ में उद्धृत ) मियलोमे पञ्चएयाणं रोमा ।
१२. अभिधान चिन्तामणि कोष ३३३४ :
१७.
१८.
शंकवं मृगरोमजम् ।
१३. बृहत् कल्पभाष्य गाथा ३६६१, वृत्ति
कुपतो जीणम् ।
१४. बृहत् कल्पचूर्णि : कुतवं छागलं ।
१५. विशेषचूणि: (बृहत्कल्प भाष्य भाग ४, पृष्ठ १०१८ में उद्धत )
कुतवो तस्सेव अवयवा ।
१६. निशीथ भाष्य गाथा ७६०, चूर्णि
कुतव किट्टावि रोमविसेसा चैव संतरे, इह अपसिद्धा । आचारांग वृत्ति, पत्र ३६२ ।
विशेषावश्यक भाष्य गाथा ५७८ वृत्तितत्र मूषिकलोमनिष्पन्तं कौतवम् ।
१६. वही, गाथा ८७८ वृत्ति -
२०. वही गाथा ८७८ वृत्ति---
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बकरी के रोएँ से बना वस्त्र । भेड़ आदि के रोमों के मिश्रण से बना वस्त्र ।
अश्व आदि के लोम से निष्पन्न वस्त्र ।
प्राचीनकाल में भेड़ों, ऊँटों, मृगों तथा बकरों के रोएँ को ऊखल में कूटकर वस्त्र जमाए जाते थे । उनको नमदे कहा जाता था । कुट्ट शब्द इसी का द्योतक है । निशीथ भाष्यवृत्ति में दुगुल्ल और तिरीड वृक्ष की त्वचाओं को कूटकर नमदे बनाने का उल्लेख है । *
५. भांगिक इसके दो अर्थ हैं-
(१) अतसी से निष्पन्न वस्त्र । "
(२) वंशकरील के मध्य भाग को कूटकर बनाया जाने वाला वस्त्र ।
६. तिरीटपट्ट - लोध की छाल से बना वस्त्र । तिरीड वृक्ष की छाल के तंतू सूत के तंतु के समान होते हैं। उनसे
बने वस्त्र को तिरीपट्ट कहा जाता है।"
आचारांग की वृत्ति में जांगिक का अर्थ ऊँट आदि की ऊन से निष्पन्न वस्त्र तथा भांगिक का अर्थ --- विकलेन्द्रिय जीवों की लाला से निष्पन्न सूत से बने वस्त्र किया है । "
अनुयोगद्वार में पांच प्रकार के वस्त्र बतलाए हैं— अंडज, बोंडज, कीटज, बालज और बल्कज ।'
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित पाँच प्रकारों में इनका समावेश हो जाता है
जांगमिक अंडज, कीटज और बालज ।
भांगिक
सानिक
तिरी
पोतक बोंडज ।
वृत्तिकार अभयदेवसूरी ने एक परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा है कि यद्यपि मूल सूत्र में वस्त्रों के पाँच प्रकार बतलाए हैं, परन्तु सामान्य विधि में मुनि को ऊन तथा सूत के कपड़े ही लेने चाहिए। इनके अभाव में रेशमी या बल्व लिए जा सकते हैं। वे भी अल्प मूल्य वाले होने चाहिए। पाटलीपुत्र के सिक्के से जिसका मूल्य अठारह रुपयों से एक लाख रुपयों तक का हो वह महामूल्य वाला है।"
-वल्कज ।
१११, ११२. पच्चापिच्चिय, मुंजा पिच्चिय ( सू० १९१ )
१. 'वच्च' का अर्थ है - एक प्रकार की मोटी घास, जो दर्भ के आकार की होती है।" इसे बल्बज [ वल्वज] कहते हैं। पिच्चिय' का अर्थ है कुट्टिक । ११
१. विशेषचूर्णि (बृहत्कल्पभाष्य भाग ४ पृष्ठ १०१८ में उद्धृत )
कट्टिम छगलियारोमं ।
२. विशेषावश्यकभाष्य, गाया, ८७८ वृत्ति।
३. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ८७८, वृत्ति-
अश्वादि जीवलोम निष्पन्नं किट्टिसम् ।
स्थान ५ : टि० १११-११२
४. निशीथ ६।१०-१२ की चूणि ।
५. बृहत् कल्पभाष्य, गाथा ३६६३ : अतसीवंशीमादी उ भंगिय
६. वही, गाथा ३६६३ वृत्ति
वंशकरीलस्य मध्याद् यद् निष्पद्यते तद् वा ।
७. निशीथ ६।१ -१२ की चूर्णि
तिरीक्खस्स बागो तस्स तंतू पट्टसरसो, सो तिरीलो पट्ट तम्मि क्याणि तिडपट्टाणि ।
--
८. आचारांगवृत्ति पत्र ३६१ :
जंगियं ति जंगमोष्ट्राचूर्णानिष्पन्नं, तथा 'भंगियं' ति नानाभंगिक विकलेन्द्रियलाला निष्पन्नम् ।
8. अनुयोगद्वार सूत्र ४० ।
१०. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३२२ :
महामूल्यता च पाटलीपुत्रीय रूपकाष्टादशकादारभ्य रूप लक्षं यावदिति ।
११. (क) बृहत्कल्पभाष्य गाथा ३६७५ वृत्ति वच्चकं दर्भा - कारं तृणविशेषम् ।
(ख) निशीथ भाष्य गाथा ८२०, चूर्णि वच्चको - तणविसेसोदर्भाकृतिर्भवति ।
(ग) आप्टे डिक्शनेरी - बल्बज - A Kind of Coarse grass.
१२. निशीय भाष्य गाथा ६२०, चूर्णि - पिच्चिउत्ति वा चिप्पि उत्तिवा, कुट्टितो त्ति वा एगट्ट ।
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स्थान ५ : टि० ११३
धर्मचक्रभूमि देश में यह प्रथा थी कि लोग इस घास को कूट कर उसका क्षोद बना लेते थे । फिर उसके टुकड़ेटुकड़े कर उसके 'बोरे' बनाते थे । कहीं-कहीं प्रावरण और बिछौने भी बनाये जाते थे । इनसे सूत निकाल कर रजोहरण गूंथे जाते थे।
२. मूंज को कूटकर - मूंज को भी इसी प्रकार कूट कर उनसे बने बोरों से तंतु निकाल कर रजोहरण बनाये
जाते थे ।
ये दोनों प्रकार के रजोहरण प्रकृति से कठोर होते थे । विशेष विवरण के लिए देखें----
१. वृहत्कल्पभाष्य गाथा ३६७३-३६७९ ।
२. निशीथभाष्य गाथा ८१६ आदि-आदि ।
बृहत्कल्प में 'पिच्चिए' के साथ में 'चिप्पिए' पाठ मिलता है।' इन दोनों में अर्थ भेद नहीं है । निशीथचूर्ण में 'पिच्चि,' 'चिप्पिय' और 'कुट्टिअ' को एकार्थक बतलाया गया।
११३. ( सू० १६२ )
निवास्थान का अर्थ है-आलम्बनस्थान, उपाकारक स्थान । कुछेक संकेत वृत्तिकार ने दिए हैं, वे इस प्रकार है
१. षट्काय
• पृथ्वी की निश्रा - ठहरना, बैठना, सोना, मल-मूत्र का विसर्जन आदि-आदि ।
• पानी की निश्रा परिषेक, पान, प्रक्षालन, आचमन आदि आदि ।
अग्नि की निश्रा - ओदन, व्यंजन, पानक, आचाम आदि-आदि ।
• वायु की निश्रा - अचित्त वायु का ग्रहण, दृति, भस्त्रिका आदि का उपयोग |
• वनस्पति की निश्रा - संस्तारक, पाट, फलक, औषध आदि-आदि ।
•
के लिए पांच निश्रास्थान हैं। उनकी उपयोगिता
• त्रस की निश्रा - चर्म, अस्थि, शृंग तथा गोबर, गोमूत्र, दूध आदि-आदि ।
२. गण – गुरु के परिवार को गण कहा जाता है। गण में रहने वाले के विपुल निर्जरा होती है, विनय की प्राप्ति होती है तथा निरंतर होने वाली सारणा वारणा से दोष प्राप्त नहीं होते ।
३. राजा-राजा निश्रास्थान इसलिए है कि वह दुष्टों को निग्रह कर साधुओं को धर्म-पालन में आलंबन देता है । अराजक दशा में धर्म का पालन दुर्लभ हो जाता है ।
४. गृहपति - वसति या उपाश्रय देनेवाला । स्थानदान संयम साधना का महान् उपकारी तत्त्व है प्राचीन श्लोक है— 'धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम् ।
गुणश्रीस मालिंगतेभ्यो वरेभ्यो, मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः ।'
जो मुनिको उपाश्रय देता है, उसने उनको उपाश्रय देकर वस्त्र, अन्न, पान, शयन, आसन आदि सभी कुछ दे
दिए ।
५. शरीर -- कालीदास ने कहा है – शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम् ।' शरीर से धर्म का स्राव होता है, जैसे पर्वत से पानी का
१२. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ३६७५, वृत्ति-धर्मचक्र भूमिकादी देशे 'वच्चक' दर्भाकारं तृणविशेषं 'मुजं च' शरस्तम्बं प्रथमं 'चिपित्वा' कुट्टयित्वा तदीयो यः क्षोदस्तं कर्तयन्ति । ततः 'ते' वच्चकसू सूत्रेश्च 'गोणी' बोरको व्यूयते, प्रावरणाSsस्तरणानि च 'देशी' देशविशेषं समासाह कुर्वन्ति । अतस्तनिष्पन्नं रजोहरणं वच्चकचिप्पकं मुञ्ज चिप्पकं वा भण्यते ।
३. बृहत्कल्प, उद्देशक २, चतुर्थ विभाग, पृष्ठ १०२२ । ४. निशीथभाष्य गाथा ८२०, चूर्णि --
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स्थान ५ : टि० ११४-११५
'शरीरं धर्म-संयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छ्वते धर्मः पर्वतात् सलिलं यथा ॥"
११४, निधि (सू० १६३)
निधि का अर्थ है-विशिष्ट वस्तु रखने का भाजन । वृत्तिकार ने पांच निधियों का वर्णन इस प्रकार किया है।
१. पुत्र निधि--पुत्र को निधि इसलिए माना गया है कि वह अर्थोपार्जन कर माता-पिता का निर्वाह करता है तथा उनके आनन्द और सुख का हेतु बनता है।
'जन्मान्तरफलं पुण्यं, तपोदानसमुद्भवम् ।
सन्तति: शुद्धवंश्या हि, परत्तेह च शर्मणे ॥ २. मित्र निधि-मित्र अर्थ और काम का साधक होता है । वह आनन्द का कारण भी बनता है, अतः वह निधि है। कहा है
'कुतस्तस्यास्तु राज्यश्रीः कुतस्तस्य मृगक्षेणाः।
यस्य शूरं विनीतं च, नास्ति मित्रं विचक्षणम् ।। ३. शिल्प निधि--शिल्प का अर्थ है—चित्रकला आदि । यह विद्या का वाचक और पुरुषार्थ का साधन है
विद्यया राजपुज्यः स्याद् विद्यया कामिनीप्रियः ।
विद्या ही सर्वलोकस्य, वशीकरणकार्मणम् ।। ४. धन निधि-कोश। यह सारे जीवन का आधारभूत तत्त्व है।
५. धान्य निधि-कोष्ठागार । शरीर यापन का यह मुख्य तत्त्व है। 'अन्नं वै प्राणा:'-अन्न जीवन-निर्वाह का अनन्य साधन है।
नीतिवाक्यामृत में लिखा है-'सर्वसंग्रहेषु धान्यसंग्रहो महान्'–सभी संग्रहों में धान्य-संग्रह महत्त्वपूर्ण होता है।'
११५. शौच (सू० १९४)
शौच दो प्रकार का होता है--द्रव्यशौच और भावशौच। इस सूत्र में प्रथम चार द्रव्यशोच के साधक हैं और अन्तिम भाव शौच का साधक है । शौच का अर्थ है----शुद्धि ।
१. पृथ्वीशौच-मिट्टी से होने वाली शुद्धि । २. जलशौच-जल से धोने से होने वाली शुद्धि। ३. तेजःशौच-अग्नि या राख से होने वाली शुद्धि। ४. मंत्रशौच—मन्त्रविद्या से दोषों का अपनयन होने पर होने वाली शुद्धि । ५. ब्रह्मशौच–ब्रह्मचर्य आदि सद् अनुष्ठानों के आचरण से होने वाली शुद्धि ।
वृत्तिकार का कथन है कि ब्रह्मशौच से सत्यशौच, तपःशौच, इंद्रियनिग्रहशौच और सर्वभूतदयाशौच इन चारों को भी ग्रहण कर लेना चाहिए। लौकिक मान्यता के अनुसार शौच सात प्रकार का है---आग्नेय, वारुण, ब्राम्य, वायव्य, दिव्य, पार्थिव और मानस।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३२२, ३२३ । २. स्थानांगवृत्ति, पन ३२३ । ३. नीतिवाक्यामृत १८१६५ ॥ ४. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३२३ : अनेन च सत्यादिशोचं चतुर्विधमपि संगृहीतं, तच्चेदम् -
"सत्यं शौच तपः शोचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदयाशीच जलशौचञ्च पञ्चमम् ॥"
५. वही, पन्न ३२३, ३२४ लौकिकः पुनरिदं सप्तधोक्तम्-यदाह
सप्त स्नानानि प्रोक्तानि, स्वयमेव स्वयंभुवा। द्रव्यभावविशुद्धयर्थमृषीणां ब्रह्मचारिणाम् ।। आग्नेयं वारुणं ब्राह म्य, वायव्यं दिव्यमेव च : पार्थिवं मानसं चैव स्नानं सप्तविधं स्मृतम् ॥ आग्नेयं भस्मना स्नानमवगाह्य तु वारुणं । आपोहिष्ठामयं ब्राह म्यं, वायव्यं तु गवा रजः ।। सूर्यदृष्टं तु यदृष्टं, तद्दिव्यमृषयो विदुः । पार्थिवं तु मृदा स्नानं, मनःशुद्धिस्तु मानसम् ।।
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स्थान ५ : टि० ११६-१२१
पातंजलयोगप्रदीप में शौच के दो प्रकार माने हैं-बाह्य और आभ्य तर।
बाह्यशौच —मृत्तिका, जल आदि से पात्र, वस्त्र, स्थान, शरीर के अंगों को शुद्ध रखना, शुद्ध, सात्त्विक और नियमित आहार से शरीर को सात्त्विक, नीरोग और स्वस्थ रखना तथा वस्ती, धोती, नेती आदि से तथा औषधि से शरीरशोधन करना-ये बाह्यशौच हैं।
आभ्यन्तरशौच--ईर्ष्या, अभिमान, घृणा, असूया आदि मलों को मैत्री आदि से दूर करना, बुरे विचारों को शुद्ध विचारों से हटाना, दुर्व्यवहार को शुद्ध व्यवहार से हटाना मानसिक शौच है।'
अविद्या आदि क्लेशों के मलों को विवेक-ज्ञान द्वारा दूर करना चित्त का शौच है।
११६. अधोलोक (सू० १९६)
इस सूत्र में अधोलोक से सातवां नरक अभिप्रेत है। उसमें ये पांच नरकावास हैं। इन पांचों को अनुत्तर मानने के दो कारण हैं
१. इनमें वेदना सर्वोत्कृष्ट होती है। २. इनसे आगे कोई नरकवास नहीं है।
वृत्तिकार का यह भी अभिमत हैं कि प्रथम चार नरकावासों को अनुत्तर मानने का कारण उनका क्षेत्र-विस्तार भी है। ये चारों असंख्य योजन के अप्रतिष्ठान नरकावास इसलिए अनुत्तर है कि वहां के नैरयिकों का आयुष्य-मान उत्कृष्ट होता है, तेतीस सागर का होता है।
११७. ऊर्ध्वलोक (सू० १६७)
इस सूत्र में 'ऊवलोक' से अनुत्तर विमान अभिप्रेत है। उसमें पांच विमान हैं। वे पांचों अनुत्तर इसलिए हैं कि उनमें देवों की संपदा और आयुष्य सबसे उत्कृष्ट होता है तथा क्षेत्रमान भी बड़ा होता है।
११८. (सू० १९८)
देखें-४१४८६ का टिप्पण।
११६. (सू० २००)
देखें-दसवेआलियं ५।११५१ का टिप्पण।
१२०. (सू ० २०१)
देखें-उत्तरज्झयणाणि २।१३ तथा २६ । सूत्र ४२ के टिप्पण ।
१२१. उत्कल (सू० २०२)
वृत्तिकार ने 'उक्कल' के संस्कृत रूप 'उत्कट' और 'उत्कल' दोनों किए हैं। इसिभासिय के विवरण में उत्कट ही मिलता है। उत्कट के 'ट' को 'ड' और 'ड' को 'ल' करने पर 'उक्कल' रूप निर्मित होता है। इसका सहज संस्कृत रूप उत्कल है। इसिभासिय में प्रतिपादित सिद्धान्त से उत्कल का अर्थ उच्छेदवादी फलित होता है। इसिभासिय के एक अर्हत् ने पाँच
१. पातंजलयोगप्रदीप, पृष्ठ ३५८, ३५६ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३२४ : 'अहोलोए' त्ति सप्तमपथिव्यां
अनुत्तरा:-सर्वोत्कृष्टा उत्कृष्टवेदनादित्वात्ततः परं नरकाभावाद् वा, महत्त्वं च चतुणां क्षेत्रोऽप्यसंख्यातयोजनत्वादप्रतिष्ठानस्य तु योजनलक्षप्रमाणत्वेऽप्यायुषोऽतिमहत्त्वान्महत्त्वमिति ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ५ : टि० १२२-१२५
उत्कलों की जो व्याख्या की है वह स्थानांग की व्याख्या से सर्वथा भिन्न है। स्थानांग के मूलपाठ में उत्कलों के नाम मात्र उल्लिखित हैं। अभयदेवसूरि ने उनकी व्याख्या किस आधार पर की, यह नहीं बताया जा सकता। संभवतः उनकी व्याख्या का आधार शाब्दिक अर्थ रहा है, किन्तु प्राचीन परम्परा उन्हें भी प्राप्त नहीं हुई। इसिभासिय में प्राप्त उत्कल की व्याख्या पढ़ने पर सहज ही ऐसी प्रतीति होती है।
१. दंडोत्कल-दंड के दृष्टान्त द्वारा देहात्मैक्य की स्थापना कर पुनर्जन्म का उच्छेद मानने वाला। २. रज्जूत्कल---रज्जु के दृष्टान्त द्वारा देहात्मैक्य की स्थापना कर पुनर्जन्म का उच्छेद मानने वाला। ३. स्तन्योत्कल-दूसरों के शास्त्रों के दृष्टान्तों को अपना बतलाकर पर-कर्तृत्व का उच्छेद करने वाला। ४. देशोत्कल-जीव के अस्तित्व को स्वीकार कर उसके कर्तृत्व आदि धर्मों का उच्छेद मानने वाला। ५. सर्वोत्कल-समस्त पदार्थों का उच्छेद मानने वाला।
प्रथम दो उत्कलों में दंड (डंडे) और रज्जु के दृष्टान्त के द्वारा 'समुदयमात्रमिदं कलेवर' इस चार्वाकीय दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है--जिस प्रकार दंड का आदि भाग दंड नहीं है, मध्य भाग दंड नहीं है और अंत भाग दंड नहीं है, उसका समुदाय मात्र दंड है, वैसे ही पंचभूतात्मक शरीर का समुदाय ही आत्मा है, उससे भिन्न कोई आत्मा नहीं है।'
रज्जु धागों का समूह मात्र है। धागों से भिन्न उसका अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार आत्मा भी पंच महाभूतों का समुदाय मात्र है। उससे भिन्न कोई आत्मा नहीं है। तीसरे उत्कल के द्वारा विचार के अपहरण की प्रवृत्ति बतलाई गई है। चौथे उत्कल के द्वारा आत्मवादियों के एकाङ्गी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है। पांचवें उत्कल के द्वारा सर्वोच्छेदवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है।
अभयदेवसूरि ने दण्डोत्कट या दण्डोत्कल का अर्थ दण्ड-शक्ति के आधार पर किया है - १. जिसकी आज्ञा प्रबल हो। २. जिसका अपराध के लिए दण्ड प्रबल हो। ३. जिसका सेना-बल प्रबल हो। ४. दण्ड के द्वारा जो बढ़ता हो। अन्य उत्कटों की व्याख्या इस प्रकार हैरज्जुक्कल-राज्य का प्रभुता से उत्कट । तेणुक्कल-उत्कट चौर। देसुक्कल–देश (मंडल) से उत्कट। सव्वुक्कल-देश-समुदाय से उत्कट ।
१२२-१२५. (सू० २१०-२१३)
इन चार सूत्रों में विभिन्न प्रकार के संवत्सरों तथा उनके भेद-प्रभेदों का उल्लेख है। अंतिम सूत्र (२१३) में नक्षत्र आदि पाँच संवत्सरों के लक्षणों का निरूपण है।
१. इसिभासिय, अध्ययन २० ।
से कि तं दंडुक्कले ? दंडुक्कले नाम जेण दंडदिद्रुतेणं आदिल्लमजझवसाणाणं पण्णवणाए समुदयमेत्ताभिधाणाई गत्थि सरीरातो परं जीवोत्ति भवगतिवोछेयं वदति, से तं दंडक्कले।
से किं तं रज्जुक्कले ? रज्जुकले णामं जेणं रज्जुदिद्रुतेणं समुदयमेत्तपण्णवणा। पंचमहब्भूत-खंडमेत्तभिधाणाई; संसारसंसतीवोच्छे वदति, से तं रज्जुक्कले।
से कि तं तेणुक्कले ? तेणुक्कले गाम जे णं अण्णसत्यदिठंतगाहेहि सपक्खुम्भावणाणिरए "मम ते एत" मिति परकरूणच्छेदं वदति, से तं तेणुक्कले।
से किं तं देसुक्कले ? देसुक्कले णाम जेणं अत्थिन्न एस इति सिद्धे जीवस्स अकत्तादिएहि गाहेहि देसुच्छेय वदति, से तं देसुक्कले।
से किं तं सब्बुक्कले? । सबुक्कले णामं जेणं सध्वत सव्वसंभवाभावा णो तच्च सव्वतो सव्वहा सव्वकालं च
णास्थित्ति सव्वच्छेदं वदति, से तं सबुक्कले। २. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३२६ : उक्कल त्ति उत्कटा उत्कला वा,
तत्र दण्ड :-आज्ञा अपराधे दण्डनं वा सैन्यं वा उत्कट :प्रकृष्टो यस्य तेन वोत्कटो यः स दण्डोत्कटः, दण्डेन बोकलतिवृद्धि याति यः स दण्डोत्कलः, इत्येवं सर्वन, नवरं राज्यप्रभुता स्तेना :-चौरा: देशो-माण्डलं सर्व-एतत्समुदय इति ।
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स्थान ५:टि० १२६-१२७
६७
वृत्तिकार ने सभी संवत्सरों के स्वरूप तथा कालमान का निर्देश भी किया है। विवरण इस प्रकार है
१. नक्षत्रसंवत्सर---जितने काल में चन्द्रमा नक्षत्रमंडल का परिभोग करता है, उसे नक्षत्रमास कहते हैं। इसमें २७. दिन होते हैं । बारह मास का एक संवत्सर होता है। नक्षत्रसंवत्सर में [२७ १.४ १२] ३२७१ दिन होते हैं।'
२. युगसंवत्सर---पांच संवत्सरों का एक युगसंवत्सर होता है। इसमें तीन चन्द्रसंवत्सर और दो अभिवद्धितसंवत्सर होते हैं । चंद्रसंवत्सर में [२०३२४ १२] ३५४१२ दिन होते हैं और अभिवद्धित संवत्सर में [ ३११२१ x १२] ३८३४. दिन होते हैं।
अभिवद्धित संवत्सर में अधिकमास होता है।' ३. प्रमाणसंवत्सर-दिवस आदि के परिमाण से उपलक्षित संवत्सर । यह भी पाँच संवत्सरों का एक समवाय होता है... (१) नक्षत्रसंवत्सर। (२) चन्द्रसंवत्सर । (३) ऋतुसंवत्सर- इसमें प्रत्येक मास तीस अहोरात्र का होता है। संवत्सर में ३६० दिन-रात होते हैं। (४) आदित्यसंवत्सर- इसमें प्रत्येक मास साढे तीस अहोरात्र का होता है। संवत्सर में ३६६ दिन-रात होते हैं । (५) अभिवधित संवत्सर। ४. लक्षणसंवत्सर-लक्षणों से जाना जानेवाला संवत्सर। यह भी पांच प्रकार का है।' (देखें-सूत्र २१३ का अनुवाद)।
५. शनिश्चरसंवत्सर--जितने समय में शनिश्चर एक नक्षत्र अथवा बारह राशियों का भोग करता है उतने कालपरिमाण को शनिश्चरसंवत्सर कहा जाता है। नक्षत्रों के आधार पर शनिश्चरसंवत्सर अठाईस प्रकार का होता है। यह भी माना जाता है कि महाग्रह शनिश्चर तीस वर्षों में सम्पूर्ण नक्षत्न-मंडल का भोग कर लेता है।
६. कर्मसंवत्सर-इसके दो पर्यायवाची नाम हैंऋतुसंवत्सर, सावनसंवत्सर।"
१२६. निर्याणमार्ग (सू० २१४)
मृत्यु के समय जीव-प्रदेश शरीर के जिन मार्गों से निर्गमन करते हैं, उन्हें निर्याणमार्ग कहा जाता है। यहाँ उल्लिखित पांच निर्याणमार्गों तथा उनके फलों का निर्देश केवल व्यावहारिक प्रतीत होता है।
१२७. अनन्तक (सू० २१७)
देखें-१०६६ का टिप्पण।
१. स्थानांगवत्ति, पत्र ३२७ । २. वही, पत्र ३२७ । ३. वही, पन ३२७ ।
अभिवधितारव्ये संवत्सरे अधिकमासः पततीति । ४. बही, पत्र ३२७ ॥ ५. वही, पत्र ३५७ । ६. वही, पन ३२७:
यावता कालेन शनैश्चरो नक्षत्रमेकमथवा द्वादशापि
राशीन् भुक्ते स शनैश्चरसंवत्सर इति, यतश्चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रम्-'सनिच्छरसंवच्छरे अट्ठावीसविहे पन्नत्ते-अभीई सवणे जाव उत्तरासाढा, जं वा संबच्छरे महागहे तीसाए
संवच्छ रेहि सव्वं नक्खत्तमंडलं समाणेइ' त्ति । ७. वही, पत्र ३२८ :
यस्य ऋतुसंवत्सर सावनसंवत्सरश्चेति पर्यायो। ८. वही, पत्र ३२८ : निर्याण-परणकाले शरीरिणः शरीरा
निर्गमस्तस्य मार्गों निर्याणमार्गः ।
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ठाणं (स्थान)
१२८. स्वाध्याय ( सू २२० )
देखें— उत्तरज्झयणाणि २६।१८ तथा ३०।१४ के टिप्पण ।
१२-१३१. ( सू० २२१ )
अनुभाषणाशुद्ध — इसमें गुरु प्रथम पुरुष की भाषा में बोलते हैं और प्रत्याख्यान करने वाला दोहराते समय उत्तम पुरुष की भाषा में बोलता है। मूलाचार में कहा है
'गुरु के प्रत्याख्यान - वचन का अक्षर, पद, व्यंजन, क्रम और घोष का अनुसरण कर दोहराना अनुभाषणाशुद्ध प्रत्याख्यान है।
अनुपालनाशुद्ध इसको स्पष्ट करते हुए मूलाचार में कहा है कि आतंक, उपसर्ग, दुर्भिक्ष या कान्तार में भी प्रत्याख्यान का पालन करना, उसको भग न करना अनुपालनाशुद्धप्रत्याख्यान है।"
६५०
भावशुद्ध --- इसका अर्थ है - शुभयोग से अशुभ योग में चले जाने जाने पर पुनः शुभयोग में लौट आना । जिससे मनःपरिणाम राग-द्वेष से दूषित नहीं होता उसे भावशुद्ध प्रत्याख्यान कहा जाता है।'
१३२. प्रतिक्रमण ( सू० २२२ )
प्रतिक्रमण का अर्थ है - अशुभ योग में चले जाने पर पुनः शुभ योग में लौट आना । प्रस्तुत सूत्र में विषय-भेद के आधार पर प्रतिक्रमण के पाँच प्रकार किए गए हैं
१. आस्रवप्रतिक्रमण प्राणातिपात आदि आस्रवों से निवृत्त होना। इसका तात्पर्य है असंयम से प्रतिक्रमण करना । २. मिथ्यात्वप्रतिक्रमण - मिथ्यात्व से पुनः सम्यक्त्व में लौट आना ।
३. कषायप्रतिक्रमण कषायों से निवृत्त होना ।
१३३, १३४. (सू० २३०, २३१ )
देखें - १०१२५ का टिप्पण ।
४. योगप्रतिक्रमण - मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना, अप्रशस्त योगों से निवृत्ति ।
५. भावप्रतिक्रमण - इसका अर्थ है-- मिथ्यात्व आदि में स्वयं प्रवृत्त न होना, दूसरों को प्रवृत्त न करना और प्रवृत्त होने वाले का अनुमोदन न करना । *
विशेष की विवक्षा करने पर चार विभाग होते हैं
१. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण
३. कषायप्रतिक्रमण
२. असंयम प्रतिक्रमण
४. योगप्रतिक्रमण
और उसकी विवक्षा न करने पर उन चारों का समावेश भाव प्रतिक्रमण में हो जाता है।"
१३५. ( सू० २३४ )
स्थान ५ : टि० १२८-१३५
देखें - समवाओ १६।५ का टिप्पण ।
१. मूलाचार, श्लोक १४४ :
अणुभासादि गुरुवणं अक्ख रपयवजणं कमविसुद्धं । घोसविसुद्धिसुद्ध एद अणुभासणासुद्धं ।। २. वही, श्लोक १४५ :
आदके उवसग्गे समे यदुभिक्खवृत्ति कंतारे | जं पालिदं ण भग्गं एवं अणुपालणासुद्धं ॥ ३. वही, श्लोक १४६ :
रागेण व दोसेण व मणपरिणामे ण दूसिदं जं तु । तं पुण पञ्चक्खाणं भावविसुद्ध तु णादव्वं ।।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३३२ : मिच्छत्ताइ न गच्छइ न य गच्छावेइ नाणुजाणाइ । जं मणवइकाएहि तं भणिय भावपडिक्कमणं । ५. वही, पत्र ३३२ :
आश्रवद्वारा दिमिति विशेष विवक्षायां तूक्ता एवं चत्वारो भेदाः, यदाह
"मिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं । कसायाण पडिक्कमणं जोगाण व अप्पसत्थाणं ||
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छट्ठं ठाणं
षष्ठ स्थान
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आमुख
प्रस्तुत स्थान में छह की संख्या से संबद्ध विषय संकलित हैं। यह स्थान उद्देशकों में विभक्त नहीं है। इस वर्गीकरण में गण-व्यवस्था, ज्योतिष, दार्शनिक, तात्त्विक आदि अनेक विषय हैं। भारतीय दार्शनिकों ने दो प्रकार के तत्त्व माने हैं ... मूर्त और अमूर्त । मूर्ततत्त्व इन्द्रियों द्वारा जाने और देखे जा सकते हैं, इसलिए वे दृश्य होते हैं। अमूर्त तत्त्व इन्द्रियों द्वारा नहीं जाने और देखे जा सकते हैं, इसलिए वे अदृश्य होते हैं।
जैन दर्शन में छह दव्य माने गये हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इनमें पांच अमूर्त हैं। पुद्गल मूर्त है। ये सब ज्ञेय हैं। ये ज्ञाता के द्वारा जाने जाते हैं। जानने का साधन ज्ञान है। ज्ञान सबका विकसित नहीं होता। द्रव्यों के पर्याय अनंत होते हैं। वे सामान्य ज्ञानी द्वारा नहीं जाने जा सकते । वे थोड़े-से पर्यायों को जानते हैं। परमाणु और शब्द मूर्त हैं, फिर भी छद्मस्थ (परोक्षज्ञानी) उन्हें पूर्ण रूप से नहीं जान सकता । केवली उन्हें पूर्ण रूप से जान सकता है।
सुख दो प्रकार का होता है-आत्मिक सुख और पौद्गलिक सुख । आत्मिक सुख पदार्थ-निरपेक्ष होता है। वह आत्मा का सहज स्वरूप है । आत्मरमण से उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। पौद्गलिक सुख पदार्थ-सापेक्ष होता है। बाह्य वस्तुओं का ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा होता है। रूप को देखकर, शब्द सुनकर, गन्ध को सूंघकर, रस चखकर और छूकर वस्तुएं ग्रहण की जाती हैं। उनके साथ प्रिय भाव जुड़ता है तो वे सुख देती हैं और उनके साथ अप्रिय भाव जुड़ता है तो वे दुख देती हैं।
इन्द्रियां बाह्य और नश्वर हैं, इसलिए उनसे मिलने वाला सुख भी बाह्य और अस्थायी होता है।
जैन दर्शन यथार्थवादी है। वह अयथार्थ को अस्वीकार नहीं करता। इन्द्रियों से होने वाली सुखानुभूति यथार्थ है । उसे अस्वीकार करने से वास्तविकता का लोप होता है । इन्द्रिय-सुख सुख नहीं हैं, दुःख ही है। यह एकान्तिक दृष्टिकोण है। संतुलित दृष्टिकोण यह है कि इन्द्रियों से सुख भी मिलता है, दुःख भी होता है। आध्यात्मिक सुख की तुलना में इन्द्रिय-सुख का मूल्य भले नगण्य हो, पर जो है उसे यथार्थ स्वीकृति दी गई है। प्रस्तुत स्थान में इसलिए सुख और दुःख के छह-छह प्रकार बतलाए गए हैं।
___ शरीर को धारण करना चाहिए या नहीं ? भोजन करना चाहिए या नहीं? इन प्रश्नों का उत्तर जैन दर्शन ने सापेक्ष दृष्टि से दिया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में साधना का स्वतन्त्र मूल्य है। शरीर का मूल्य तभी है जब वह साधना में उपयोगी हो, भोजन का मूल्य तभी है जब वह साधना में प्रवृत्त शरीर का सहयोगी हो। जो शरीर साधना के प्रतिकूल प्रवृत्ति कर रहा हो और जो भोजन साधना में विघ्न डाल रहा हो उनकी उपयोगिता मान्य नहीं है। इसलिए शरीर को धारण करना या न करना, भोजन करना या न करना ये दोनों वातें सम्मत हैं। इसीलिए बतलाया गया है कि मुनि छह कारणों से भोजन कर सकता है, छह कारणों से उसे छोड़ सकता है।
आत्मवान् व्यक्ति साधना का पथ पाकर आगे बढ़ने का चिन्तन करता है, समय की लम्बाई के साथ अनुभवों का लाभ उठाता है । अनात्मवान् साधना के पथ पर चलता हुआ भी अपने अहं का पोषण करने लग जाता है । आत्मवान् व्यक्ति परिवार को बंधन मानकर उससे दूर रहने का प्रयत्न करता है, लेकिन अनात्मवान् परिवार में आसक्त होकर उसके जाल में
३.६।४१,४२।
१.६।४। २. ६।१७, १८ ।
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ठाणं (स्थान)
६५४
स्थान ६ : आमुख
फंस जाता है। आत्मवान् ज्ञान के आलोक में अपने जीवन-पथ को प्रशस्त करता है। विनीत और अनाग्रही बनकर जीवन को सरल बनाता है। अनात्मवान् ज्ञान से अपने को भारी बनाता है। तर्क, विवाद और आग्रह का आश्रय लेकर वह अपने अहं को और अधिक बढ़ाता है । आत्मवान् तप की साधना से आत्मा को उज्ज्वल करने का प्रयत्न करता है। अनात्मवान् उसी तप से लब्धि (योगज शक्ति) प्राप्तकर उसका दुरुपयोग करता है। आत्मवान् लाभ होने पर प्रसन्न नहीं होता और अनात्मवान् लाभ होने पर अपनी सफलता का बखान करता है।
आत्मवान् पूजा और सत्कार पाकर उससे प्रेरणा लेता है और उसके योग्य अपने को करने के लिए प्रयत्न करता है। अनात्मवान् पूजा और सत्कार से अपने अहं को पोषण देता है।
प्रस्तुत स्थान ६ की संख्या से सम्बन्धित है। इसमें भूगोल, इतिहास, ज्योतिष लोक-स्थिति, कालचक्र, तत्त्व, शरीर रचना, दुर्लभता और पुरुषार्थ को चुनौती देने वाले असंभव कार्य आदि अनेक विषय संकलित हैं।
१.४।३२,३३।
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छठं ठाणं
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
गण-धारण-पदं गण-धारण-पदम्
गण-धारण-पद १. छहि ठाहिं संपण्णे अणगारे षड्भिः स्थानैः सम्पन्नः अनगारः अर्हति १. छह स्थानों से सम्पन्न अनगार गण को अरिहति गणंधारित्तए, तं जहा- गणं धारयितुम्, तद्यथा
धारण करने में समर्थ होता हैसडी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, श्रद्धी पुरुषजातः, सत्यः पुरुषजातः, १. श्रद्धाशील पुरुष, २. सत्यवादी पुरुष, मेहावी पुरिसजाते, बहुस्सुते मेधावी पुरुषजातः, बहुश्रुतः पुरुषजातः, ३. मेधावी पुरुष, ४. बहुश्रुत पुरुष, पुरिसजाते, सत्तिम, अप्पाधिकरणे। शक्तिमान्, अल्पाधिकरणः ।
५. शक्तिशाली पुरुष, ६. कलहरहित पुरुष ।
णिग्गंथी-अवलंबण--पदं निर्ग्रन्थ्यवलम्बन-पदम्
निर्ग्रन्थ्यवलम्बन-पद २. हि ठाणेहि जिग्गंथे णिथि षड्भिः स्थानैः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थीं गृह्णन् २. छह स्थानों से निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को पकड़ता
हुआ, सहारा देता हुआ आज्ञा का अतिगिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा वा अवलम्बयन् वा नातिकामति,
क्रमण नहीं करता--- णाइक्कमइ, तं जहातद्यथा
निर्ग्रन्थी के--१. क्षिप्तचित्त हो जाने पर, खित्तचित्तं, दित्तचित्तं, जक्खाइट्ठ, क्षिप्तचित्तां, दृप्तचित्तां, यक्षाविष्टां,
२. दृप्तचित्त हो जाने पर,
३. यक्षाविष्ट हो जाने पर, उम्मायपत्तं, उवसग्गपत्तं, उन्मादप्राप्तां, उपसर्गप्राप्तां, साधि
४. उन्माद-प्राप्त हो जाने पर, साहिकरणं। करणाम्।
५. उपसर्ग-प्राप्त हो जाने पर,
६. कलह-प्राप्त हो जाने पर। साहम्मियस्स अंतकम्म-पदं सार्मिकस्य अन्तकर्म-पदम् सार्मिक-अन्तकर्म-पद ३. हि ठाणेहि णिग्गंथा णिग्गंथीओ षड्भिः स्थानः निर्ग्रन्थाः निर्ग्रन्थ्यश्च ३. छह स्थानों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी अपने य साहम्मियं कालगतं समायरमाणा सार्मिक कालगतं समाचरन्तः नाति
काल-प्राप्त सार्मिक का अन्त्य-कर्म करती
हुई आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करतीणाइक्कमंति, तं जहा- क्रामन्ति, तद्यथा
१. उसे उपाश्रय से बाहर लाती हुई, अंतोहितो वा बाहि णोणेमाणा, अन्तो वा बहिर्नयन्तः,
२. बस्ती के बाहर लाती हुई,
३. उपेक्षा करती हुई, बाहीहितो वा णिब्बाहि णीणेमाणा, बहिस्ताद् वा निर्बहिर्नयन्तः,
४. शव के पास रहकर रात्रि-जागरण उवेहेमाणा वा, उवासमाणा वा, उपेक्षमाणा वा, उपासमाना वा, करती हुई,
५. उसके स्वजन गृहस्थों को जताती हुई, अणण्णवेमाणा वा, अनुज्ञापयन्तो वा,
६. उसे एकान्त में विसर्जित करने के लिए तुसिणीए वा संपन्वयमाणा। तुष्णीकाः संप्रव्रजन्तः ।
मौन भाव से जाती हुई।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र ४-६ छउमत्थ-केवलि-पदं छद्मस्थ-केवलि-पदम्
छद्मस्थ-केवलि-पद ४. छ ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण षट् स्थानानि छद्मस्थः सर्वभावेन न ४. छद्मस्थ छह स्थानों को सर्वभावेन [पूर्णजाणति ण पासति, तं जहा- जानाति न पश्यति, तद्यथा
रूप से ] नहीं जानता-देखताधम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायं, १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, आयासं, जीवमसरीरपडिबद्धं, आकाशं, जीवमशरीरप्रतिबद्ध, ३. आकाशास्तिकाय, ४. शरीर-मुक्त जीव परमाणुपोग्गलं, सई। परमाणुपुद्गलं, शब्दम् ।
५. परमाणुपुद्गल, ६. शब्द। एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन् विशिष्ट ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जिनः केवली सर्वभावेन जानाति अर्हत्, जिन, केवली इन्हें सर्वभावेन जाणति पासति, तं जहा- पश्यति, तद्यथा
जानते-देखते हैंधम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, धर्मास्तिकायं, अधर्मास्तिकायं, १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाम, आयासं, जीवमसरीरपडिबद्धं, आकाशं, जीवमशरीरप्रतिबद्धं, ३. आकाशास्तिकाय, ४. शरीर-मुक्त जीव, परमाणुपोग्गलं, सड़। परमाणुपुद्गलं, शब्दम् ।
५. परमाणुपुद्गल, ६. शब्द । असंभव-पदं असंभव-पदम्
असंभव-पद ५. हि ठाणेहि सव्वजीवाणं णत्थि षड्भिः स्थानः सर्वजीवानां नास्ति ५. सब जीवों में छह कार्य करने की ऋद्धि, इड्डीति वा जुतीति वा जसेति वा ऋद्धिरिति वा द्युतिरिति वा यशइति श्रुति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार तथा बलेति वा वीरएति वा पुरिसक्कार- वा बलमिति वा वीर्यमिति वा पुरुषकार- पराक्रम नहीं होतापरक्कमेति वा, तं जहा- पराक्रमइति वा, तद्यथा१. जीवं वा अजीवं करणताए। १. जीवं वा अजीवं कर्तुम् ।
१. जीव को अजीव में परिणत करने की, २. अजीवं वा जीवं करणताए। २. अजीवं वा जीवं कर्तुम् ।
२. अजीव को जीव में परिणत करने की, ३. एगसमए णं वा दो भासाओ ३. एकसमये वा द्वे भाषे भाषितुम् । ३. एक समय में दो भाषा बोलने की, भासित्तए। ४. सयं कडं वा कम्मं वेदेमि वा ४. स्वयं कृतं वा कर्म वेदयामि वा मा ४. अपने द्वारा किए हुए कमों का वेदन मा वा वेदेमि। वा वेदयामि।
करूं या नहीं इस स्वतन्त्र भाव की। ५. परमाणुपोग्गलं वा छिदित्तए ५. परमाणुपुद्गलं वा छेत्तुं वा भेत्तुं । ५. परमाणु पुद्गल का छेदन-भेदन करने वा भिदित्तए वा अगणिकाएणं वा वा अग्निकायेन वा समवदग्धुम् । तथा उसे अग्निकाय से जलाने की, समोद हित्तए। ६. बहिता वा लोगंता गमणताए। ६. बहिस्ताद् वा लोकान्ताद् गन्तुम् ।। ६. लोकान्त से बाहर जाने की। जीव-पदं जीव-पदम्
जीव-पद ६. छज्जीवणिकाया पण्णत्ता, तं जहा- षड्जीवनिकायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ६. जीवनिकाय छह हैं--
पुढविकाइया, 'आउकाइया, पृथिवीकायिकाः, अप्कायिकाः, १. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, तेउकाइया, वाउकाइया, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, वणस्सइकाइया, तसकाइया। वनस्पतिकायिकाः, त्रसकायिकाः । ५. वनस्पतिकायिक, ६. वसकायिक ।
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ठाणं (स्थान)
६५७
स्थान ६ : सूत्र ७-११
७. छ तारग्गहा पण्णत्ता, तं जहा- षट् ताराग्रहाः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा.. ७. छह ग्रह तारों के आकार वाले हैंसुक्के, बुहे, बहस्सती, अंगारए, शुक्रः, बुधः, बृहस्पतिः, अङ्गारकः, १. शुक्र, २. बुध, ३. वृहस्पति, सणिच्छरे, केतू। शनैश्चरः, केतुः।
४. अंगारक, ५. शनिश्चर. ६. केतु। ८. छव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा षड्विधाः संसारसमापन्नका: जीदाः ८. संसारसमापन्नक जीव छह प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्ताः, तद्यथापुढविकाइया, आउकाइया, पृथिवीकायिकाः, अप्कायिकाः, १. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, तेउकाइया, बाउकाइया, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, ३. तेजस्कायिक, ४. वाशुकायिक, वणस्सइकाइया, तसकाइया। वनस्पतिकायिकाः, त्रसकायिकाः । ५. वनस्पतिकायिक, ६. वसकायिक ।
गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम्
गति-आगति-पद ६. पुढविकाइया छगतिया छआगतिया पथिवीकायिकाः षड्गतिकाः षडा- ६. पृथ्वीकायिक जीव छह स्थानों में गति पण्णत्ता, तं जहा- गतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
तथा छह स्थानों से आगति करते हैं--- पुढविकाइए पुढविकाइएसु पृथिवीकायिकाः पृथिविकायिकेषु पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय में उत्पन्न उववज्जमाणे पुढविकाइएहितोवा, उपपद्यमानः पृथिवीकायिकेभ्यो वा, होता हुआ पृथ्वीकायिकों से, अप्काथिकों 'आउकाइएहितो वा, तेउकाइए- अप्कायिकेभ्यो वा, तेजस्कायिकेभ्यो वा, से, तेजस्कायिकों से, वायुकायिकों से, हितो वा, वाउकाइएहितो वा, वायुकायिकेभ्यो वा, वनस्पतिकायिकेभ्यो वनस्पतिकायिकों से तथा त्रसकायिकों से वणस्सइकाइएहितोवा, तसकाइए- वा, त्रसकायिकेभ्यो वा उपपद्यत । उत्पन्न होता है। हितो वा उबवज्जेज्जा। से चेव णं से पुढविकाइए पुढवि- स चैव असो पृथिवीकायिकः पृथिवी- पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय को छोड़ता काइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविका- कायिकत्वं विप्रजहत् पृथिवीकायिकतया । हुआ पृथ्वीकायिकों में, अप्कायिकों में, इयत्ताए वा, 'आउकाइयत्ताए वा, वा, अप्कायिकतया वा, तेजस्कायिक- तेजस्कायिकों में, वायुकायिकों में, वनतेउकाइयत्ताए या, वाउकाइयत्ताए तया वा, वायुकायिकतया वा, वनस्पति- स्पतिकायिकों में तथा वसकायिकों में वा, वणस्सइकाइयत्ताए वा, कायिकतया वा, त्रसकायिकतया वा उत्पन्न होता है।
तसकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा। गच्छेत् ।। १०. आउकाइया छगतिया छआगतिया अप्कायिकाः षड्गतिकाः षडागतिकाः १०. इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक, एवं चेव जाव तसकाइया। एवं चैव यावत् त्रसकायिकाः ।
वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा वसकायिक जीव छह स्थानों में गति तथा छह स्थानों से आगति करते हैं।
जीव-पदं जीव-पदम्
जीव-पद ११. छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता तं जहा- षड्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ११. सब जीव छह प्रकार के हैं
आभिणिबोहियणाणी, 'सुयणाणी, आभिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, १. आभिनिवोधिकज्ञानी, २. श्रुतज्ञानी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी,° अवधिज्ञानिनः, मनःपर्यवज्ञानिनः, ३. अवधिज्ञानी, ४. मनःपर्यवज्ञानी, केवलणाणी, अण्णाणी। केवलज्ञानिनः, अज्ञानिनः।
५. केवलज्ञानी, ६. अज्ञानी।
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स्थान ६ : सूत्र १२-१४
अथवा-सब जीव छह प्रकार के हैं१. एकेन्द्रिय, २. द्वीन्द्रिय, ३. वीन्द्रिय, ४. चतुरिन्द्रिय, ५. पञ्चेन्द्रिय, ६. अनीन्द्रिय।
ठाणं (स्थान)
६५८ अहवा–छव्विहा सव्वजीवा अथवा—षड्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, पण्णता, तं जहा
तद्यथाएगिदिया, 'बेइंदिया, तेइंदिया, एकेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, वीन्द्रियाः, चरिदिया, चिदिया, चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः, अणि दिया।
अनिन्द्रियाः। अहवा–छव्विहा सव्वजीवा अथवा षड्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाओरालियसरीरी, वेउब्वियसरीरी, औदारिकशरीरिणः, वैक्रियशरीरिणः, आहारगसरीरी, तेअगसरीरी, आहारकशरोरिणः, तैजसशरीरिणः, कम्मगसरीरी, असरीरी। कर्मकशरीरिणः, अशरीरिणः ।
अथवा सब जीव छह प्रकार के हैं१. औदारिकशरीरी, २. वैक्रियशरीरी, ३. आहारकशरीरी, ४. तेजसशरीरी, ५. कार्मणशरीरी, ६. अशरीरी।
ह'
तणवणस्सइ-पदं तृणवनस्पति-पदम्
तृणवनस्पति-पद १२. छव्विहा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, पड्विधाः तृणवनस्पतिकायिकाः १२. तृणवनस्पतिकायिक जीव छह प्रकार के तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. अग्रबीज, २. मूलबीज, ३. पर्वबीज अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, अग्रबीजाः, मूलबीजाः, पर्वबीजाः,
४. स्कन्धबीज, ५. बीजरूह, खंधबीया, बीयरुहा, संमुच्छिमा। स्कन्धवीजाः, बीजरुहाः सम्मूच्छिमाः।
६. सम्मूच्छिम। णो-सुलभ-पदं नो-सुलभ-पदम्
नो-सुलभ-पद १३. छट्ठाणाइं सव्वजीवाणं णो सुलभाई पट्स्थानानि सर्वजीवानां नो सुलभानि १३. छह स्थान सब जीवों के लिए सुलभ नहीं भवंति, तं जहाभवन्ति, तद्यथा
होते --- माणुस्सए भवे। मानुष्य कः भवः ।
१. मनुष्यभव, २. आर्यक्षेत्र में जन्म, आरिए खेत्ते जम्म। आर्य क्षेत्रे जन्म।
३. सुकुल में उत्पन्न होना, सुकुले पच्चायाती। सुकुले प्रत्याजातिः।
४. केवलीप्रज्ञप्त धर्म का सुनना। केवलीपण्णत्तस्स धम्मस्स सवणता। केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रवणं ।
५. सुने हुए धर्म पर श्रद्धा, सुत्तस्स वा सद्दहणता। श्रुतस्य वा श्रद्धानं।
६. द्धित, प्रतीत तथा रोचित धर्म का सद्दहितस्स वा पत्तितस्स वा रोइतस्स श्रद्धितस्य वा प्रतीतस्य वा रोचितस्य सम्यक कायस्पर्श-आचरण। वा सम्मं कारणं फासणता। वा सम्यक् कायेन स्पर्शनम् । इंदियत्थ-पदं इन्द्रियार्थ-पदम्
इन्द्रियार्थ-पद १४. छ इंदियत्था पण्णत्ता, तं जहा. पड इन्द्रियार्थाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा- १४. इन्द्रियों के अर्थ | विषय | छह हैं -- सोइंदियत्थे, 'चक्खिदियत्थे,
१. थोवेन्द्रिय का अर्थ-शब्द, श्रोत्रेन्द्रियार्थः, चक्षुरिन्द्रियार्थः,
२. चक्षुरिन्द्रिय का अर्थ-रूप, घाणिदियत्थे, जिभिदियत्थे,' ब्राणेन्द्रियार्थः, जिह्वन्द्रियार्थः, ३. घ्राणेन्द्रिय का अर्थ-गन्ध, फासिदियत्थे, णोइंदियत्थे। स्पर्शेन्द्रियार्थः, नोइन्द्रियार्थः । ४. जिह्वन्द्रिय का अर्थ---रस,
५. स्पर्शनेन्द्रिय का अर्थ--स्पर्श, ६. नो-इन्द्रिय [मन] का अर्थ-श्रुत।
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ठाणं (स्थान)
६५६
स्थान ६ : सूत्र १५-१६
संवर-असंवर-पदं संवराऽसंवर-पदम् १५. छबिहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा- षडविधः संवरः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
सोतिदियसंवरे, चक्खिदियसंवरे, श्रोत्रेन्द्रियसंवरः, चक्षुरिन्द्रियसंवरः, धाणिदियसंवरे, जिभिदियसंवरे, घ्राणेन्द्रियसंवरः, जिह्वन्द्रियसंवरः, फासिदियसंवरे, णोइंदियसंवरे। स्पर्शेन्द्रियसंवरः, नोइन्द्रियसंवरः ।
१६. छविहे असंवरे पण्णते, तं जहा- षड्विधः असंवरः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा- सोतिदियअसंवरे, 'चक्खिदियअसंवरे श्रोत्रेन्द्रियासंवरः, चक्षुरिन्द्रियासंवरः, घाणिदियअसंवरे, जिभिदियअसंवरे घ्राणेन्द्रियासंवरः, जिह्वन्द्रियासंवरः, फासिदियअसंवरे, णोइंदियअसंवरे। स्पर्शेन्द्रियासंवरः, नोइन्द्रियासंवरः ।
संवराऽसंवर-पद १५. संवर के छह प्रकार हैं---
१. थोत्रेन्द्रिय संवर, २. चक्षुरिन्द्रिय संवर, ३. प्राणेन्द्रिय संवर, ३. जिह्वन्द्रिय संवर, ५. स्पर्शनेन्द्रिय संवर, ६. नो-इन्द्रिय
संवर। १६. असंवर के छह प्रकार हैं---
१. श्रोवेन्द्रिय असंवर, २. चक्षुरिन्द्रिय असंवर, ३. घ्राणेन्द्रिय असंवर, ४. जिह्वन्द्रिय असंबर, ५. स्पर्शनेन्द्रिय असंवर, ६. नो-इन्द्रिय असंवर।
सात-असात-पदं
सात-असात-पदम् १७. छविहे साते, पण्णत्ते, तं जहा- षड्विधं सातं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-
सोतिदियसाते, 'चक्खिदियसाते, श्रोत्रेन्द्रियसातं, चक्षुरिन्द्रियसातं, घाणिदियसाते, जिभिदियसाते, घ्राणेन्द्रियसातं, जिह्वन्द्रियसातं,
फासिदियसाते, णोइंदियसाते। स्पर्शेन्द्रियसातं, नोइन्द्रियसातम्। १८. छविहे असाते पण्णत्ते, तं जहा- षड्विधं असातं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-
सोतिदियअसाते, 'चक्खिदियअसाते श्रोत्रेन्द्रियासातं, चक्षुरिन्द्रियासातं, घाणिदियअसाते, जिभिदियअसाते, घ्राणेन्द्रियासातं, जिह्वन्द्रियासातं, फासिदियअसाते, णोइंदियअसाते। स्पर्शेन्द्रियासातं, नोइन्द्रियासातम् ।
सात-असात-पद १७. सुख के छह प्रकार हैं
१. श्रोत्रेन्द्रिय सुख, २. चक्षुरिन्द्रिय सुख, ३. घाणेन्द्रिय सुख, ४. जिह्वन्द्रिय सुख,
५. स्पर्शनेन्द्रिय सुख, ६. नो-इन्द्रिय सुख । १८. असुख के छह प्रकार हैं.....
१. श्रोवेन्द्रिय असुन, २. चक्षुरिन्द्रिय असुख, ३. घाणेन्द्रिय असुख, ४. जिह्वन्द्रिय असुख, ५. स्पर्शनेन्द्रिय असुख, ६. नो-इन्द्रिय असुख।
प्रायश्चित्त-पदम्
पायच्छित्त-पदं १६. छविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं
पडविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम, तदयथा-
जहा...
प्रायश्चित्त-पद १६. प्रायश्चित्त के छह प्रकार हैं
१. आलोचना-योग्य, २. प्रतिक्रमण-योग्य, ३. तदुभय-योग्य, ४. विवेक-योग्य, ५. व्युत्सर्ग-योग्य, ६. तप-योग्य ।
आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, आलोचनाह, प्रतिक्रमणाह, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, तदुभयाई, विवेकाह, विउस्सग्गारिहे, तवारिहे। व्युत्सहिं, तपोऽहम् ।
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ठाणं (स्थान)
मस्स-पदं
मनुष्य-पदम्
२०. छविवहा मणुस्सा पण्णत्ता, तं षड्विधाः मनुष्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
जहा
जंबूदीवगा,
जम्बूद्वीपगाः, धातकीपण्डद्वीपपौरस्त्यार्धगाः,
धातकीपण्डद्वीपपाश्चात्यार्धगाः,
पुष्करवरद्वीपार्धपौरस्त्यार्धगाः, पुष्करवरद्वीपार्धपाश्चात्यार्धगाः, अन्तद्वीपगाः ।
धाय संदीपुर स्थिमद्धगा, धायइसंडदीवपच्चत्थिमद्धगा,
पुवखरवर दीवडूपुर स्थिमद्धगा,
पुक्खरवरदीव पच्चत्थिमद्धगा,
अंतरदीवगा।
अहवा छविवहा मणुस्सा पण्णत्ता, अथवा षड्विधाः मनुष्याः, प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा
तं जहासंमुच्छममणुस्सा
कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा,
गब्भवक्कंति अमणुस्सा
कम्मभूमगा
अंतरदीवगा ।
६६०
अम्मभूमगा
सम्मूच्छिममनुष्याः—
कर्मभूमिगाः (जाः ) अकर्मभूमिगाः अन्तद्वीपगाः,
गर्भावक्रान्तिकमनुष्याः
कर्मभूमिगाः अकर्मभूमिगाः अन्तर्द्वीपगाः ।
२१. छव्विा इड्डिता मणुस्सा पण्णत्ता, षड्विधाः ऋद्धिमन्तः मनुष्याः प्रज्ञप्ताः,
तं जहा -
अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, चारणा, विज्जाहारा । २२. छविहा अणिड्डिमंता मणुस्सा
पण्णत्ता, तं जहाहेमवतगर, हेरण्णवतगा, हरिवासगा, रम्मगवासगा, कुरुवासिणो, अंतरदीवगा ।
कालचक्क - पदं
२३. छव्विहा ओसप्पिणी पण्णत्ता, तं पविधा
जहा -
तद्यथा—
तद्यथाअर्हन्तः, चक्रवत्तिनः, बलदेवाः, वासुदेवाः, चारणाः, विद्याधराः । षड्विधाः अनृद्धिमन्तः मनुष्याः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा
हैमवतगाः हैरण्यवतगाः, हरिवर्षगाः, रम्यक्वर्षगाः कुरुवासिनः अन्तर्द्वीपगाः ।
कालचक्र-पदम्
अवसर्पिणी प्रज्ञप्ता,
स्थान ६ : सूत्र २० - २३
मनुष्य-पद
२०. मनुष्य छह प्रकार के होते हैं१. जम्बूद्वीप में उत्पन्न,
२. धातकीपण्ड द्वीप के पूर्वार्द्ध में उत्पन्न,
३. धातकीपण्ड द्वीप के पश्चिमार्द्ध में उत्पन्न,
४. अर्धपुष्करवरद्वीप के पूर्वार्द्ध में उत्पन्न,
५. अर्धपुष्करवरद्वीप के पश्चिमार्द्ध में उत्पन्न, ६. अन्तद्वीप में उत्पन्न ।
अथवा - मनुष्य छह प्रकार के होते हैं
१. कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले सम्मूच्छिम |
२. अकर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले सम्मूच्छिम |
३. अन्तद्वीप में उत्पन्न होने वाले सम्मूच्छिम |
४. कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले गर्भज
५. अकर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले गर्भज । ६. अन्तद्वीप में उत्पन्न होने वाले गर्भज ।
२१. ऋद्धिमान् पुरुष छह प्रकार के होते हैं
१. अर्हन्त, २ . चक्रवर्ती, ३. बलदेव, ४. वासुदेव, ५. चारण', ६. विद्याधर ।
२२. अनृद्धिमान् पुरुष छह प्रकार के होते हैं
१. हैमवतज - हैमवत क्षेत्र में पैदा होने वाले, २. हैरण्यवतज, ३. हरिवर्षज, ४. रम्यकवर्षज, ५. कुरुवर्षज,
६. अन्तद्वीपज ।
कालचक्र पद २३. अवसर्पिणी के छह प्रकार हैं
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र २४ - २६
१. सुषम- सुषमा,
२. सुषमा,
सुसम सुसमा, सुसमा, सुसम दूसमा, दूसम- सुसमा, दूसमा, दूसमदुसमा ।
३. सुषम दुःषमा, ४. दुःषम- सुषमा,
५. दु:षमा,
६. दुःषम- दुःषमा ।
२४. छव्विहा उस्सप्पिणी पण्णत्ता, तं षड्विधा उत्सर्पिणी प्रज्ञप्ता, तद्यथा— २४. उत्सर्पिणी के छह प्रकार हैं—
जहा -
दुस्सम- दुस्समा, 'दुस्समा, दुस्समसुसमा, सुसम - दुस्समा, सुसमा सुसम सुसमा ।
२५. जंबुद्दीवे दीवे भरहेर एसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसम सुसमाए समाए मणुया छ धणुसहस्साई उड्डमुच्चत्तेणं हुत्था, छच्च अद्धपलि - ओवमाई परमाउं पालयित्था । २६. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु इसे ओस विणीए सुसम सुसमाए समाए मया छ धणुसहस्साइं उड्डमुच्चतेणं पण्णत्ता, अद्धपलिओ माई पालयित्था ।
छच्च
परमाउं
२७. जंबुद्दीवे दोवे भरहेरवएसु वासेसु आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सुसम - सुसमा समाए मणुया छ धणुसहस्साई उड्डमुच्चत्तेण भविस्संति, छच्च अद्धपलिओ माई परमाउं पालइस्संति ।
२८. जंबुद्दीवे दीवे देवकुरु - उत्तरकुरुकुरा मया छ धणुसहस्साई उड्ड उच्तणं पण्णत्ता, छच्च अद्धपलिओ माई परमाउं पालेंति । २६. एवं संदीपुर स्थिमद्धे चत्तारि आलावगा जाव पुक्खरवरदीवडूपच्चत्थिमद्धे चत्तारि
आलावगा ।
६६१
सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम- दुःषमा, दुःषम-सुषमा, दुःषमा, दुःषम दुःषमा ।
दुःषम- दुःषमा, दुःषमा, दुःषम-सुषमा, सुषम दुःषमा, सुषमा, सुषम- सुषमा ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः अतीतायां उत्सर्पिण्यां सुषम-सुषमायां समायां मनुजाः पड् धनुःसहस्राणि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन अभुवन्, षड् च अर्द्धपल्योपमानि परमायुः अपालयन् । जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः अस्यां अवसर्पिण्यां सुषम-सुषमायां समायां मनुजाः षड् धनुःसहस्राणि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः, षड् च अर्द्धपल्योपमानि परमायुः अपालयन् ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः आगमिष्यन्त्यां उत्सर्पिण्यां सुषमसुषमायां समायां मनुजाः षड् धनु:सहस्राणि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन भविष्यन्ति, षड्च अर्द्धपल्योपमानि परमायुः पालयिष्यन्ति ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे देवकुरूत्तरकुरुकुर्वीः मनुजाः षड् धनुःसहस्राणि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः, षड् च अर्द्धपल्योपमानि परमायुः पालयन्ति । एवं धातकीषण्डद्वीप पौरस्त्यार्थे चत्वारः आलापकाः यावत् पुष्करवरद्वीपार्धपाश्चात्यार्धे चत्वारः आलापकाः ।
१. दुःषम दुःषमा,
२. दु:षमा,
४. सुषम दुःषमा,
३. दु:षम-सुषमा, ५. सुषमा, ६. सुषम- सुषमा । २५. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत - ऐरवत क्षेत्र की अतीत उत्सर्पिणी के सुषम- सुषमा काल में मनुष्यों की ऊंचाई छह हजार धनुष्य की थी तथा उनकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम की थी।
२६ जम्बूद्वीप द्वीप के भरत - ऐरवत क्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी के सुषम-सुषमा काल में मनुष्यों की ऊंचाई छह हजार धनुष्य तथा उनकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम की है।
२७. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत ऐरवत क्षेत्र की आगामी उत्सर्पिणी के सुषम-सुषमा काल में मनुष्यों की ऊंचाई छह हजार धनुष्य होगी तथा उनकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम की होगी ।
२८. जम्बूद्वीप द्वीप में देवकुरु तथा उत्तरकुरु में मनुष्यों की ऊंचाई छह हजार धनुष्य तथा उनकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम की है।
२६. इसी प्रकार धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्द्ध और पश्चिमार्ध तथा अर्ध पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी मनुष्यों की ऊंचाई (सू० २६-२८ वत्) । छह हजार धनुष्य तथा उनकी आयु तीन पल्योपम की थी है और होगी।
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ठाणं (स्थान)
६६२
स्थान ६ : सूत्र ३०-३४
संघयण-पदं
संहनन-पदम् ३०. छविहे संघयणे पण्णत्ते, तं जहा.- षड्विधं संहननं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-
वइरोसभ-णाराय-संघयणे, उसम- वज्रर्षभ-नाराच-संहननं, णाराय-संघयणे, णाराय-संघयणे, ऋषभ-नाराच-संहननं, नाराच-संहननं, अद्धणाराय-संघयणे, खोलिया- अर्धनाराच-संहननं, कीलिका-संहननं, संघयणे, छेवट-संघयणे। सेवात-संहननम्।
संहनन-पद ३०. संहनन के छह प्रकार हैं
१. वज्रऋषभनाराच संहनन, २. ऋषभनाराच संहनन, ३. नाराच संहनन, ४. अर्धनाराच नंहनन, ५. कीलिका संहनन, ६. सेवा संहनन ।
संठाण-पदं
संस्थान-पदम् ३१. छविहे संठाणे, पण्णत्ते तं जहा- षडविध संस्थानं प्रज्ञप्तम, तदयथा.
समचउरंसे, णग्गोहपरिमंडले, साई, समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डलं, सादि, खुज्जे, वामणे, हुंडे।
कुब्ज, वामन, हुण्डम् ।
संस्थान-पद ३१. संस्थान के छह प्रकार हैं
१. समचतुरस्र, २. न्यग्रोधपरिमण्डल, ३. स्वाती, ४. कुब्ज, ५. वामन, ६. हुण्ड ।
अणत्तव-अत्तव-पदं
अनात्मवत्-आत्मवत्-पदम् । अनात्मवत् आत्मवत्-पद ३२. छठाणा अणत्तवओ अहिताए असुभाए षट्स्थानानि अनात्मवतः अहिताय ३२. अनात्मवान् के लिए छह स्थान अहित,
अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस तथा अनानुअखमाए अणीसेसाए अणाणु- अशुभाय अक्षमाय अनिःश्रेयसाय अनानु
गामिकता [अशुभ अनुबन्ध] के हेतु होते गामियत्ताए भवंति, तं जहा- गामिकत्वाय भवन्ति, तद्यथा
१. पर्याय—अवस्था या दीक्षा में बड़ा परियाए, परियाले, सुते, तवे, पर्यायः, परिवारः, श्रुतं, तपः, लाभः,
होना, २. परिवार, ३. श्रुत, ४. तप, लाभे, पूयासक्कारे। पूजासत्कारः ।
५. लाभ, ६. पूजा-सत्कार। ३३. छट्ठाणा अत्तवतो हिताए 'सुभाए षट्स्थानानि आत्मवत: हिताय शुभाय ३३. आत्मवान् के लिए छह स्थान हित, शुभ,
खमाए णीसेसाए आणुगामियत्ताए क्षमाय निःश्रेयसाय आनुगामिकत्वाय क्षम, निःश्रेयस तथा आनुगामिकता के भवंति, तं जहाभवन्ति, तद्यथा
हेतु होते हैं ! परियाए, परियाले, 'सुते, तवे, पर्यायः, परिवारः, श्रुतं, तपः, लाभ: १. पर्याय, २. परिवार, ३. श्रुत, ४. तप, लाभे,° पूयासक्कारे। पूजासत्कारः।
५. लाभ, ६. पूजा-सत्कार। आरिय-पदं आर्य-पदम्
आर्य-पद ३४. छविहा जाइ-आरिया मणुस्सा षड्विधाः जात्यार्या मनुष्याः प्रज्ञप्ताः, ३४. जाति से आर्य मनुष्य छह प्रकार के होते पण्णता, तं जहा
तद्यथा
संगहणी-गाहा १. अंबढा य कलंदा य, वेदेहा वेदिगादिया। हरिता चुंचुणा चेव, छप्पेता इन्भजातिओ।
संग्रहणी-गाथा १. अम्बष्ठाश्च कलन्दाश्च, वैदेहाः वैदिकादिकाः। हरिता चुञ्चुणाः चैव, षडप्येताः इभ्यजातयः॥
संग्रहणी-गाथा १. अंबष्ठ, २. कलन्द, ३. वैदेह, ४. वैदिक, ५.हरित, ६. चुचुण। ये छहों इभ्य जाति के मनुष्य हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र ३५-३६ ३५. छविहा कुलारिया मणुस्सा षड्विधाः कुलार्याः मनुष्याः प्रज्ञप्ताः, ३५. कुल से आर्य मनुष्य छह प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथाउग्गा, भोगा, राइण्णा, उग्राः, भोजाः, राजन्याः,
१. उग्र, २. भोज, ३. राजन्य ४. इक्ष्वाकु, इक्खागा, णाता, कोरवा। इक्षाकाः, ज्ञाता:, कौरव्याः ।
५. ज्ञात, ६. कौरव। लोगद्विती-पदं लोकस्थिति-पदम
लोकस्थिति-पद ३६. छव्विहा लोगद्विती पण्णत्ता, तं जहा- षड्विधा लोकस्थितिः प्रज्ञप्ताः,तद्यथा- ३६. लोक-स्थिति छह प्रकार की हैआगासपतिद्वते वाए, आकाशप्रतिष्ठितो वातः,
१. आकाश पर वायुप्रतिष्ठित है, वातपतिढते उदही, वातप्रतिष्ठित उदधिः ,
२. वायु पर उदधिप्रतिष्ठित है, उदधिपतिट्टिता पुढवी, उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी,
३. उदधि पर पृथ्वीप्रतिष्ठित है, पुढविपतिद्विता तसाथावरापाणा, पृथिवीप्रतिष्ठिताः त्रसाः स्थावरा:प्राणाः. ४. पृथ्वी पर त्रस-स्थावर जीवप्रतिष्ठित हैं, अजीवा जीवपतिहिता, अजीवाः जीवप्रतिष्ठिताः,
५. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है। जीवा कम्मपतिहिता। जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः ।
६. जीव कर्मों पर प्रतिष्ठित है। दिसा-पदं दिशा-पदम्
दिशा-पद ३७. छद्दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- पड्दिशः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
३७. दिशाएं छह हैं१४ -- पाईणा, पडीणा, दाहिणा, प्राचीना, प्रतीचीना, दक्षिणा,
१. पूर्व, २. पश्चिम, ३. दक्षिण, ४. उत्तर, उदीणा, उड्डा, अधा। उदीचीना, ऊवं, अधः ।
५. ऊव, ६. अधः। ३८. छहि दिसाहिं जीवाणं गति पवत्तति, षट्सु दिक्षु जीवानां गतिः प्रवर्तते, ३८. छहों ही दिशाओं में जीवों की गति
(वर्तमान भव से अग्रिम भव में जाना] तं जहातद्यथा
होती हैपाईणाए, 'पडीणाए, दाहिणाए, प्राचीनायां, प्रतीचीनायां, दक्षिणायां, १. पूर्व में, २. पश्चिम में, ३. दक्षिण में, उदीणाए, उड्डाए, अधाए। उदीचीनायां, ऊष, अधः ।
४. उत्तर में, ५. ऊर्ध्वदिशा में,
६. अधो दिशा में। ३६. 'हिं दिसाहि जीवाणं - षट्सु दिक्षु जीवानां
३६. छहों ही दिशाओं में जीवों केआगई, वक्कंती, आहारे, वुड्डी, आगतिः, अवक्रान्तिः, आहारः,
आगति---पूर्व भव से प्रस्तुत भव में आना
अवक्रान्ति-उत्पत्ति स्थान में जाकर णिवुड्डी, विगुव्वणा, गतिपरियाए, वृद्धि: निवृद्धिः, विकरणं,
उत्पन्न होना। समुग्घाते, कालसंजोगे, गतिपर्याय:, समुद्धात:, कालसंयोगः,
आहार-प्रथम समय में जीवनोपयोगी दसंणाभिगमे, णाणाभिगमे,
पुद्गलों का संचय करना। दर्शनाभिगमः, ज्ञानाभिगमः,
वृद्धि-शरीर की वृद्धि। जीवाभिगमे, अजीवाभिगमे, जीवाभिगमः, अजीवाभिगमः
हानि-शरीर की हानि। 'पण्णत्ते, तं जहा
विक्रिया--विकुर्वणा करना। प्रज्ञप्तः, तद्यथा
गति-पर्याय-गमन करना। यहां इसका पाईणाए, पडीणाए, दाहिणाए, प्राचीनायां, प्रतीचीनायां, दक्षिणायां, अर्थ परलोकगमन नहीं है। उदीणाए, उडाए, अधाए। उदीचीनायाः ऊर्ध्व, अधः।
समुद्घात५-वेदना आदि में तन्मय होकर आत्मप्रदेशों का इधर-उधर प्रक्षेप करना। काल-संयोग-सूर्य आदि द्वारा कृत कालविभाग। दर्शनाभिगम-अवधि आदि दर्शन के द्वारा वस्तु का परिज्ञान। ज्ञानाभिगम---अवधि आदि ज्ञान के द्वारा वस्तु का परिज्ञान।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र ४०-४२
जीवाभिगम अवधि आदि ज्ञान के द्वारा जीवों का परिज्ञान । आजीवाभिगम [ अवधि आदि ज्ञान के द्वारा पुद्गलों का परिज्ञान] होते हैं१. पूर्व में, २. पश्चिम में, ३. दक्षिण में, ४. उत्तर में, ५. ऊर्ध्वदिशा में,
६. अधोदिशा में ।
४०. एवं पंचिदिति रिवखजोणियाणवि एवं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामपि ४०. इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और
मस्साणवि ।
मनुष्याणामपि ।
मनुष्यों की गति आगति आदि छह दिशाओं में होती हैं।
आहार -पदं ४१. छहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारमाहारेमाणे णातिक्कमति, तं
जहा -
संगहणी - गाहा
१. वेयण - वेयावच्चे, ईरियट्टाए य संजमट्टाए । तह पाणवत्तियाए,
पुण धर्माचिताए ।
४२. छह ठाणेह समणे णिग्गंथे आहारं वोच्छिदमाणे णातिक्कमति, तं
जहा -
संग्रहणी - गाहा
१. आतंके उवसग्गे,
तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए । पाणिदया-तवहे,
सरीरवृच्छेयणट्टाए ||
६६४
आहार-पदम्
षड्भिः स्थानैः श्रमणः निर्ग्रन्थः आहारं आहरन् नातिक्रामति, तद्यथा
संग्रहणी - गाथा
१. वेदना-वैयावृत्त्याय, ईर्याय च संयमार्थाय ।
तथा प्राणवृत्तिकायै,
षष्ठं
पुनः
धर्मचिन्तायै ॥
पड्भिः स्थानंः श्रमणः निर्ग्रन्थः आहारं व्युच्छिन्दन् नातिक्रामति, तद्यथा—
संग्रहणी - गाथा
१. आतङ्क ब्रह्मचर्यगुप्त्याम् । प्राणिदया - तपोहेतोः,
र्थाय ॥
उपसर्गे, तितिक्षणे
शरीरव्युच्छेदना
आहार पद
४१. श्रमण-निर्ग्रन्थ छह कारणों से आहार करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता "
संग्रहणी - गाथा
१. वेदना -- भूख की पीड़ा मिटाने के लिए।
२. वैयावृत्त्य करने के लिए ।
३. ईयसमिति का पालन करने के लिए।
४. संयम की रक्षा के लिए।
५. प्राण धारण के लिए ।
६. धर्म - चिन्ता के लिए ।
४२. श्रमण-निर्ग्रन्थ छह कारणों से आहार का परित्याग करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता
संग्रहणी - गाथा
१. आतंक ज्वर आदि आकस्मिक बीमारी हो जाने पर ।
२. राजा आदि का उपसर्ग हो जाने पर । ३. ब्रह्मचर्य की तितिक्षा [ सुरक्षा ] के लिए
४. प्राणिदया के लिए।
५. तपस्या के लिए।
६. शरीर का उत्सर्ग करने के लिए।
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ठाणं स्थान
६६५
स्थान ६ : सूत्र ४३-४६
उम्माय-पदं उन्माद-पदम्
उन्माद-पद ४३. छहि ठाणेहि आया उम्मायं षड्भिः स्थानःआत्मा उन्मादं प्राप्नुयात्, ४३. छह स्थानों से आत्मा उन्माद को प्राप्त पाउणेज्जा, तं जहा... तद्यथा
होता हैअरहताणं अवण्णं बदमाणे। अर्हतां अवर्णं वदन्।
१. अर्हन्तों का अवर्णवाद करता हुआ। अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अवर्ण वदन् । २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता वदमाणे।
हुआ। आयरिय-उवझायाणं अवण्णं आचार्योपाध्याययोः अवर्ण वदन ।
३. आचार्य तथा उपाध्याय का अवर्णवाद वदमाणे।
करता हुआ। चाउव्वण्णस्स संघस्स अवण्णं चतुर्वर्णस्य संघस्य अवर्ण वदन् । ४. चतुर्वर्ण संघ का अवर्णवाद करता हुआ वदमाणे।
५. यक्षावेश से। जक्खावेसेण चेव। यक्षावेशेन चैव ।
६. मोहनीय कर्म के उदय से। मोहणिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं। मोहनीयस्य चैव कर्मणः उदयेन । पमाद-पदं प्रमाद-पदम्
प्रमाद-पद ४४. छविहे पमाए पण्णत्ते, तं जहा- षड्विधः प्रमादः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--
४४. प्रमाद के छह प्रकार हैंमज्जपमाए, जिद्दपमाए, मद्यप्रमादः निद्राप्रमादः विषयप्रमादः १. मद्यप्रमाद, २. निद्राप्रमाद विसयपमाए, कसायपमाए,
कषायप्रमादः द्यूतप्रमाद: प्रतिलेखना- ३. विषयप्रमाद, ४. कषायप्रमाद, जूतपमाए, पडिलेहणापमाए। प्रमादः।
५. द्यूतप्रमाद, ६. प्रतिलेखनाप्रमाद । पडिलेहणा-पदं प्रतिलेखना-पदम्
प्रतिलेखना-पद ४५. छव्विहा पमायपडिलेहणा पण्णत्ता, षडविधा प्रमादप्रतिलेखना प्रज्ञप्ता, ४५. प्रमादयुक्त प्रतिलेखना के छह प्रकार तं जहा
तद्यथासंगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
संग्रहणी-गाथा १. आरभडा संमद्दा, १. आरभटा सम्मर्दा,
१. आरभटा, २. सम्मर्दा, ३. मोशली, वज्जयव्वा य मोसली ततिया। वर्जयितव्या च मौशली तृतीया।
४. प्रस्फोटा, ५. विक्षिप्ता, ६. वेदिका। पप्भोडणा चउत्थी,
प्रस्फोटना चतुर्थी, विक्खित्ता वेइया छट्टी॥ विक्षिप्ता वेदिका षष्ठी ॥ ४६. छव्विहा अप्पमायपडिलेहणा षडविधा अप्रमादप्रतिलेखना प्रज्ञप्ता४६. अप्रमादयुक्त प्रतिलेखना के छह प्रकार पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथासंगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
संग्रहणी-गाथा १. अणच्चावितं अवलितं, १. अनतितं अवलितं,
१. अनर्तित, २. अवलित, ३. अनानुबंधि, अणाणुबंधि अमोलि चेव। अननुबन्धि: अमोशली चैव।
४. अमोशली, ५. षट्पूर्व-नवखोटक, छप्पुरिमा णव खोडा, षट्पूर्वाः नव 'खोडा',
६. हाथ में प्राणियों का विशोधन करना। पाणीपाणविसोहणी॥ पाणिप्राणविशोधिनी॥
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र ४७-५४ लेसा-पदं लेश्या-पदम्
लेश्या-पद ४७. छ लेसाओ पण्णताओ, तं जहा.- षड् लेश्याः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- ४७. लेश्याएं छह हैं---
कण्हलेसा, 'णीललेसा, काउलेसा, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, तेउलेसा, पम्हलेसा सुक्कलेसा। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। ३. कापोतलेश्या, ४. तेजोलेश्या,
५. पद्मलेश्या, ६. शुक्ललेश्या। ४८. पंचिदयतिरिक्खजोणियाणं छ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां षड् लेश्याः ४८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यक-योनिकों के छह लेश्याएं लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होती हैंकण्हलेसा, 'णीललेसा, काउलेसा, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। ३. कापोतलेश्या, ४. तेजोलेश्या,
५. पद्मलेश्या, ६. शुक्ललेश्या। ४६. एवं—मणुस्स-देवाण वि। __ एवं मनुष्य-देवानामपि।
४६. इसी प्रकार मनुष्यों तथा देवों के छह-छह
लेश्याएं होती हैं। अग्गमहिसी-पदं अग्रमहिषी-पदम्
अग्रमहिषी-पद ५०. सक्कस्स णं देविदस्स देवरष्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य ५०. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज
सोमस्स महारण्णो छ अग्गमहि- महाराजस्य षड् अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः। सोम के छह अग्रमहिषियां हैं।
सीओ पण्णत्ताओ। ५१. सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य ५१. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज
जमस्स महारपणो छ अगमाहिसीओ महाराजस्य षड़ अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः। यम के छह अग्रमहिषियां हैं। पण्णताओ।
देवठिति-पदं देवस्थिति-पदम्
देवस्थिति-पद ५२. ईसाणस्स णं देविदस्स [देवरणो?] ईशानस्य देवेन्द्रस्य (देवराजस्य ?) ५२. देवेन्द्र देवराज ईशान की मध्यम परिषद्
मझिमपरिसाए देवाणं छ पलि- मध्यमपरिषदः देवानां षट् पल्योपमानि के देवों की स्थिति छह पल्योपम की है। ओवमाइंठिती पण्णत्ता। स्थिति: प्रज्ञप्ता।
महत्तरिया-पदं महत्तरिका पदम्
महत्तरिका-पद ५३. छ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ षड् दिक्कुमारीमहत्तरिका: प्रज्ञप्ताः, ५३. दिशाकुमारियों के छह महत्तरिकाएं हैं-- पण्णत्ताओ, तं जहा.
तद्यथारूवा, रूवंसा, सुरूवा, रूववती, रूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपवती, १. रूपा, २. रूपांशा, ३. सुरूपा, रूवकता, रूबप्पभा। रूपकान्ता, रूपप्रभा।
४. रूपवती, ५. रूपकांता, ६. रूपप्रभा। ५४. छ विज्जुकुमारिमहत्तरिताओ षड् विद्युत्कुमारीमहत्तरिकाः प्रज्ञप्ताः, ५४. विद्युत्कुमारियों के छह महत्तरिकाएं हैं - पण्णत्ताओ, तं जहा
तद्यथाअला, सक्का, सतेरा, सोतामणी, अला, शक्रा, शतेरा, सौदामिनी, १. अला, २. शक्रा, ३. शतेरा, इंदा, घणविज्जया। विजया। इन्द्रा, घनविद्युत् ।
४. सौदामिनी, ५. इन्द्रा, ६. घनविद्युत् ।
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ठाणं (स्थान)
६६७
स्थान ६ : सून ५५-६१ ____ अग्गमहिसी-पदं अग्रमहिषी-पदम्
अग्रमहिषी-पद ५५. धरणस्स णंणागकुमारिदस्स णाग- धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमार- ५५. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के
कुमाररण्णो छ अग्गमहिसीओ राजस्य षड् अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, छह अग्रमहिषियां हैं--- पण्णत्ताओ, तं जहा
तद्यथाअला, सक्का सतेरा,
अला, शक्रा, शतेरा, सौदामिनी, १. अला, २. शक्रा, ३. शतेरा, सोतामणी, इंदा, घणविज्जुया। इन्द्रा, घनविद्युत् ।
४. सौदामिनी, ५. इन्द्रा, ६. घनविद्युत् । ५६. भूताणंदस्स णं णागकुमारिदस्स भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नाग- ५६. नागाकुमारेन्द्र नागकुमारराज भुतानन्द
णागकुमाररण्णो छ अग्गमहिसीओ कुमारराजस्य षड् अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, के छह अग्रमहिषियां हैंपण्णत्ताओ, तं जहा
तद्यथारूवा, रूवंसा, सुरुवा, रूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपवती, १. रूपा, २. रूपांशा, ३. सुरूपा, रूववंतो, रूवकता, रूवप्पभा। रूपकांता, रूपप्रभा।
४. रूपवती, ५. रूपकांता, ६.रूपप्रभा। ५७. जहा धरणस्स तहा सव्वेसि दाहि- यथा धरणस्य तथा सर्वेषां दाक्षिणात्यानां ५७. दक्षिण दिशा के भवनपति इन्द्र वेणदेव, णिल्लाणं जाव घोसस्स। यावत् घोषस्य।
हरिकांत, अग्निशिख, पूर्ण, जलकांत, अमितगति, वेलम्ब तथा घोष के भी [धरण की भांति छह-छह अग्रमहिषियां
५८. जहा भूताणंदस्स तहा सव्वेसि यथा भूतानन्दस्य तथा सर्वेषां ५८. उत्तर दिशा के भवनपति इन्द्र वेणुदालि, उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स। औदीच्यानां यावत् महाघोषस्य । हरिस्सह, अग्निमानव, दिशिष्ट, जलप्रभ,
अमितवाहन, प्रभजन और महाघोष के भी [भूतानन्द की भांति ] छह-छह अग्रमहिषियां हैं।
सामाणिय-पदं सामानिक-पदम्
सामानिक-पद ५६. धरणस्सणं णागकुमारिदस्स णाग- धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमार- ५६. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के
कुमाररण्णो छस्सामाणिय- राजस्य षट् सामानिकसाहस्त्र्य: छह हजार सामानिक हैं।
साहस्सीओ पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ताः । ६०. एवं भूताणंदस्सवि जाव महा- एवं भूतानन्दस्यापि यावत् महाघोषस्य। ६०. इसी प्रकार नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज घोसस्स।
भूतानन्द, वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमानव, विशिष्ट, जलपुत्र, अमितावहन, प्रभजन और महाघोष के छह-छह हजार सामा
निक हैं। मइ-पदं मति-पदम्
मति-पद ६१. छव्विहा ओगहमती पण्णत्ता, तं षड्विधा अवग्रहमतिः प्रज्ञप्ता, ६१. अवग्रहमति [सामान्य अर्थ के ग्रहण] के जहातद्यथा
छह प्रकार हैं
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ठाणं (स्थान)
खिमोहिति, बहुमोगिण्हति क्षिप्रमवगृह्णाति बहुगृह्णाति बहुविधमोहित, धुवमोगिण्हति, बहुविधमवगृह्णाति ध्रुवमवगृह्णाति अणि सियोगिहति अनिश्रितमवगृह्णाति असंदिद्धमोगिण्हति । असंदिग्धमवगृह्णाति ।
जहा
६२. छविबहा ईहामती पण्णत्ता, तं षड्विधा ईहामतिः प्रज्ञप्ता, तद्यथाक्षिप्रमीहते, बहुमीहते, बहुविधमीहते, ध्रुवमीहते, अनिश्रितमीहते, असंदिग्धमीहते ।
खिमीहति, बहुमीहति, "बहुविधमीहति, धुवमीहति, अस्सिमहति
असंदिद्धमीहति ।
६३. छविधा अवायमती पण्णत्ता, तं षड्विधा अवायमतिः प्रज्ञप्ता,
जहा -
तद्यथा
खपवेति बहुमवेति,
क्षिप्रमवैति बहुमत,
बहुविधमवेति धुवमवेति
बहुविधमवैति ध्रुवमवैति,
अणिस्सियमवेति असंदिद्धमवेति । अनिश्रितमवैति असंदिग्धमवैति ।
६६८
६४. छविधा धारण [मती ? ] पण्णत्ता, षड्विधा धारणा ( मति: ? ) प्रज्ञप्ता,
तं जहा
तद्यथा
बहुं धरेति, बहुविहं धरेति, पोराणं धरेति, दुद्धरं धरेति, अणिस्सितं
धरेति ।
धरेति, असंदिद्धं
बहुं धरति, बहुविधं धरति, पुराणं धरति, दुर्धरं धरति, अनिश्रितं धरति, असंदिग्धं धरति ।
तव पदं
तपः-पदम्
६५. छविहे बाहिरए तवे पण्णत्ते, तं षड्विधं बाह्यकं तपः
जहा --
तद्यथा—
प्रज्ञप्तम्,
स्थान ६ : सूत्र ६२-६५
१. शीघ्र ग्रहण करना,
२. बहुत ग्रहण करना,
३. बहुत प्रकार की वस्तुओं को ग्रहण करना
४. ध्रुव [निश्चल ] ग्रहण करना,
५. अनिश्रित अनुमान आदि का सहारा
लिए बिना ग्रहण करना,
६. असंदिग्ध ग्रहण करना ।
६२. ईहामति [ अवग्रह के द्वारा ज्ञात विषय की जिज्ञासा] के छह प्रकार हैं".
१. शीघ्र ईहा करना, २ . बहुत ईहा करना, ३. बहुत प्रकार की वस्तुओं की ईहा करना, ४. ध्रुव ईहा करना, ५. अनिश्रित ईहा करना, ६ . असंदिग्ध करना ।
६३. अवायमति [ ईहा के द्वारा ज्ञात विषय का निर्णय ] के छह प्रकार हैं
१. शीघ्र अवाय करना,
२. बहुत अवाय करना,
३. बहुत प्रकारकी वस्तुओं का अवाय करना,
४. ध्रुव अवाय करना,
५. अनिश्रित अवाय करना,
६. असंदिग्ध अवाय करना ।
६४. धारणामति [ निर्णीत विषय को स्थिर
करने ] के छह प्रकार हैं" -
१. बहुत धारणा करना,
२. बहुत प्रकार की वस्तुओं की धारणा करना, ३ . पुराने की धारणा करना, ४. दुर्द्धर की धारणा करना,
५. अनिश्रित धारणा करना,
६. असंदिग्ध धारणा करना।
तपः-पद
६५. बाह्य तप के छह प्रकार हैं
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ठाणं (स्थान)
६६६
स्थान ६ : सूत्र ६६-६८
अणसणं, ओमोदरिया,
अनशनं, अवमोदरिका, भिक्षाचर्या, १. अनशन, २. अवमोदरिका, भिक्खायरिया, रसपरिच्चाए, रसपरित्यागः, कायक्लेशः, ३. भिक्षाचर्या, ४. रस-परित्याग, कायकिलेसो, पडिसंलोणता। प्रतिसंलीनता।
५. काय-क्लेश, ६. प्रतिसंलीनता। ६६. छविहे अब्भंतरिए तवे पण्णत्ते, षड्विधं आभ्यन्तरिक तपः प्रज्ञप्तम्, ६६. आभ्यन्तरिक-तप के छह प्रकार हैं...... तं जहा
तद्यथापायच्छित्तं, विणओ, वेयावच्चं, प्रायश्चित्तं, विनयः, वैयावृत्त्यं, १. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्त्य, सभाओ, झाणं, विउस्सग्गो। स्वाध्यायः, ध्यानं, व्युत्सर्गः। ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान, ६. व्युत्सर्ग।
विवाद-पदं ६७. छविहे विवादे पण्णत्ते, तं जहा..
ओसक्कइत्ता, उस्सक्कइत्ता, अणुलोमइत्ता, पडिलोमइत्ता, भइत्ता, भेलइत्ता।
विवाद-पदम् षडविधः विवादः प्रज्ञप्तः. तदयथा- अवष्वष्क्य, उत्ष्वष्क्य, अनुलोम्य, प्रतिलोम्य, भक्त्वा, मिश्रीकृत्य ।
विवाद-पद ६७. विवाद के छह अंग हैं [वादी अपनी
विजय के लिए इनका सहारा लेता है]१. वादी के तर्क का उत्तर ध्यान में न आने पर कालक्षेप करने के लिए प्रस्तुत विषय से हट जाना। २. पूर्ण तैयारी होते ही वादी को पराजित करने के लिए आगे आना। ३. विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बना लेना अथवा प्रतिपक्षी के पक्ष का एक बार समर्थन कर उसे अपने अनुकूल बना
लेना।
४. पूर्ण तयारी होने पर विवादाध्यक्ष तथा प्रतिपक्षी की उपेक्षा कर देना। ५. सभापति की सेवा कर उसे अपने पक्ष में कर लेना। ६. निर्णायकों में अपने समर्थकों का बहुमत करना।
खुड्डपाण-पदं क्षुद्रप्राण-पदम्
क्षुद्रप्राण-पद ६८. छव्विहा खुड्डा पाणा पण्णत्ता, तं षड्विधाः क्षुद्राः प्राणाः प्रज्ञप्ताः, ६८. क्षुद्र प्राणी छह प्रकार के होते हैंजहा
तदयथाबेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, १. द्वीन्द्रिय, २. वीन्द्रिय, ३. चतुरिन्द्रिय, समुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया, सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, ४. सम्मच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यकयौनिक, तेउकाइया, वाउकाइया। तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः ।
५. तेजस्कायिक, ६. वायुकायिक ।
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ठाणं (स्थान)
६७०
स्थान ६ : सूत्र ६३-७३
गोयरचरिया-पदं गोचरचर्या-पदम्
गोचरचर्या-पद ६६. छन्विहा गोयरचरिया पण्णत्ता, तं षड्विधा गोचरचर्या प्रज्ञप्ता, ६६. गोचरचर्या के छह प्रकार हैंजहातद्यथा
१. पेटा, २. अर्धपेटा, ३. गोमूत्रिका, पेडा, अद्धपेडा, गोमुत्तिया, पेटा, अर्धपेटा, गोमूत्रिका, ४. पतंगवीथिका, ५. शम्बुकावर्ता, पतंगवीहिया, संबुक्कावट्टा, पतङ्गवीथिका, शम्बूकावर्ता,
६. गत्वाप्रत्यागता। गंतुंपच्चागता।
गत्वाप्रत्यागता। महाणिरय-पदं महानिरय-पदम्
महानिरय-पद ७०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ७०. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए अस्यां रत्नप्रभायां पथिव्यां षट् अप- भाग में इस रत्नप्रभा पृथ्वी में छह अपपुढवीए छ अवक्कंतमहाणिरया क्रान्तमहानिरयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- क्रांत [अतिनिकृष्ट] नरकावास हैं१८ -- पण्णत्ता, तं जहालोलः, लोलुपः, उद्दग्धः,
१. लोल, २. लोलुप, ३. उद्दग्ध, लोले, लोलुए, उद्दड्डे निर्दग्धः, जरकः, प्रजरकः ।
४. निर्दग्ध, ५. जरक, ६. प्रजरक । णिद्दड्ड, जरए, पज्जरए। ७१. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां षड् ७१. चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में छह अपक्रांत
छ अवक्कंतमहाणिरया पण्णत्ता, अपक्रान्तमहानिरयाः प्रज्ञप्ताः , महानरकावास हैंतं जहातद्यथा
१. आर, २. वार, ३. मार, आरे, वारे, मारे, रोरे, रोरुए, आरः, वारः, मारः, रोरः, रोरुकः, ४.रौर, ५.रौरूक, ६.खाडखड । खाडखडे ।
खाडखडः ।
विमाण-पत्थड-पदं विमान-प्रस्तट-पदम्
विमान-प्रस्तट-पद ७२. बंभलोगे णं कप्पे छ विमाण- ब्रह्मलोके कल्पे षड़ विमान-प्रस्तटाः ७२. ब्रह्मलोक देवलोक में छह विमान-प्रस्तट
पत्थडा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः , तद्यथा.... अरए, विरए, णीरए, णिम्मले, अरजाः, विरजाः, नीरजाः, निर्मलः, १. अरजस्, २. विरजस्, ३. नीरजस्, वितिमिरे, विसुद्धे। वितिमिरः, विशुद्धः ।
४. निर्मल, ५. वितिमिर, ६. विशुद्ध ।
णक्खत्त-पदं नक्षत्र-पदम्
नक्षत्र-पद ७३. चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोति- चन्द्रस्य ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य ७३. ज्यौतिषेन्द्र ज्यौतिषराज चन्द्र के अग्र
सरणो छ णक्खत्ता पुव्वंभागा षड् नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि योगी, समक्षेत्री और तीस मुहूर्त तक भोग समखेत्ता तीसतिमुहत्ता पण्णत्ता, त्रिशमुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- करने वाले नक्षत्र छह हैं।...--- तं जहापुव्वाभद्दवया, कत्तिया, महा, पूर्व भद्रपदा, कृत्तिका, मघा,
१. पूर्वभाद्रपद, २. कृतिका, ३. मघा, पुव्वफग्गुणी, मूलो, पुव्वासाढा। पूर्वफाल्गुनी, मूला, पूर्वाषाढा। ४. पूर्वफाल्गुनी, ५. मूल, ६. पूर्वाषाढा।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : सूत्र ७४-८१ ७४. चंदस्स णं जोतिसिदस्स जोति- चन्द्रस्य ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य ७४. ज्यौतिषेन्द्र ज्यौतिषराज चन्द्र के सम
सरणो छ णक्खत्ता णतंभागा षड नक्षत्राणि नक्तंभागानि अपार्ध- योगी, अपार्ध क्षेत्री और पन्द्रह मुहुर्त तक अवडक्खेत्ता पण्णरसमुहुत्ता पण्णत्ता, क्षेत्राणि पञ्चदशमुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि, भोग करने वाले नक्षत्र छह हैंतं जहा.-- तद्यथा
१. शतभिषा, २. भरणी, ३. भद्रा, सयभिसया, भरणी, भद्दा, शतभिषक्, भरणी, भद्रा,
४. अश्लेषा, ५. स्वाति, ६. ज्येष्ठा। अस्सेसा, साती, जेट्ठा। अश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा। ७५. चंदस्स णं जोइसिदस्स जोतिसरणो चन्द्रस्य ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य ७५. ज्यौतिषेन्द्र ज्यौतिषराज चन्द्र के उभय
छ णक्खत्ता उभयभागा दिवड्ड- षड् नक्षत्राणि उभयभागानि द्वयर्ध- योगी, द्वयर्थ क्षेत्री और पैंतालीस मुहूर्त खेत्ता पणयालीसमुहुत्ता पण्णत्ता, क्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशमुहूर्तानि तक भोग करने वाले नक्षत्र छह हैं। तं जहाप्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. रोहिणी, २. पुनर्वसु, रोहिणी, पुणव्वसू, उत्तराफग्गुणी, रोहिणी, पुनर्वसुः, उत्तरफाल्गुनी, ३. उत्तरफाल्गुनी, ४. विशाखा, विसाहा, उत्तरासाढा, विशाखा, उत्तराषाढा, उत्तरभद्रपदा । ५. उत्तराषाढा, ६. उत्तरभाद्रपद। उत्तराभद्दवया। इतिहास-पदं इतिहास-पदम्
इतिहास-पद ७६. अभिचंदे णं कुलकरे छ धणुसयाइं अभिचन्द्रः कुलकर: षड् धनुःशतानि ७६. अभिचन्द्र कुलकर की ऊंचाई छह सौ उड्ड उच्चत्तेणं हुत्था। ऊर्ध्व उच्चत्वेन अभवत् ।
धनुष्य की थी। ७७. भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी भरत: राजा चातुरन्तचक्रवर्ती षड् ७७. चतुरन्तचक्रवर्ती राजा भरत छह लाख
छ पुव्वसतसहस्साई महाराया पूर्वशतसहस्राणि महाराजः अभवत्। पूर्वो तक महाराज रहे।
हुत्था।
७८. पासस्स णं अरहओ पुरिसा- पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य षड् ७८. पुरुषादानीय [पुरुषप्रिय ] अर्हत् पार्श्व के
दाणियस्स छ सता वादीणं सदेव- शतानि वादिनां सदेवमनुजासुरायां देवों, मनुष्यों तथा असुरों की परिषद् में मणुयासुराए परिसाए अपरा- परिषदि अपराजितानां संपत् अभवत्। अपराजेय छह सौ वादी थे ।
जियाणं संपया होत्था। ७६. वासुपुज्जे णं अरहा हि पुरिसस- वासुपूज्यः अर्हन् षडभिः पुरुषशतैः ७६. वासुपूज्य अर्हत् छह सौ पुरुषों के साथ मुंड
तेहिं सद्धि मुंडे भवित्ता अगाराओ सार्धं मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित अणगारियं पन्वइए। प्रजितः ।।
हुए। ८०. चंदप्पभे णं अरहा छम्मासे छउ- चन्द्रप्रभः अर्हन् षण्मासान् छद्मस्थः ८०. चन्द्रप्रभ अर्हत् छह महीनों तक छद्मस्थ मत्थे हुत्था। अभवत् ।
रहे। संजम-असंजम-पदं संयम-असंयम-पदम्
संयम-असंयम-पद ८१. तेइंदिया णं जीवा असमारभमा- त्रीन्द्रियान् जीवान् असमारभमाणस्य ८१. त्रीन्द्रिय जीवों का आरम्भ न करने वाले
णस्स छविहे संजमे कज्जति, तं षड्विधः संयमः क्रियते, तद्यथा- के छः प्रकार का संयम होता हैजहा
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ठाणं (स्थान)
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घाणामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता घ्राणमयात् सौख्याद् अव्यपरोपयिता भवति । भवति । घाणामणं दुक्खेणं असंजोएत्ता घ्राणमयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति । भवति ।
जिन्भामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता जिह्वामयात् सौख्याद् अव्यपरोपयिता भवति । भवति ।
• जिन्भामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता जिह्वामयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति । भवति । फासामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता स्पर्शमयात् सौख्याद् अव्यपरोपयिता भवति । भवति । फासामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता स्पर्शमयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति । भवति ।°
८२. इंदिया णं जीवा समारभमाणस्स छवि असंजमे कज्जति तं जहा - घाणामातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति । घाणामाएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति ।
• जिभामा तो सोक्खातो ववरोवेत्ता जिह्वामयात् सौख्याद् व्यपरोपयिता भवति । भवति । जिन्भामरणं दुक्खेणं संजोगेत्ता जिह्वामयेन दुःखेन संयोजयिता भवति । भवति । °
फासामातो सोक्खातो ववरोवेत्ता स्पर्शमयात् सौख्याद् व्यपरोपयिता भवति । भवति । फासामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता स्पर्शमयेन दुःखेन संयोजयिता भवति । भवति ।
खेत्त-पव्वय-पदं
८३. जंबुद्दीवे दीवे छ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - हेमवते, हेरण्णवते, हरिवस्से, रम्मगवासे, देवकुरा, उत्तरकुरा ।
त्रीन्द्रियान् जीवान् समारभमाणस्य षड्विधः असंयमः क्रियते, तद्यथा— घ्राणमयात् सौख्याद् व्यपरोपयिता भवति ।
घ्राणमयेन दुःखेन संयोजयिता भवति ।
क्षेत्र पर्वत-पदम्
जम्बूद्वीपे द्वीपे षड् अकर्मभूम्यः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा—
हैमवतं, हैरण्यवतं, हरिवर्ष, रम्यक्वर्षं, देवकुरुः, उत्तरकुरुः ।
स्थान ६ सूत्र ८२-८३
१. घ्राणमय सुख का वियोग नहीं करने से, २. घ्राणमय दुःख का संयोग नहीं करने से, ३. रसमय सुख का वियोग नहीं करने से, ४. रसमय दुःख का संयोग नहीं करने से, ५. स्पर्शमय सुख का वियोग नहीं करने से, ६. स्पर्श मय दुःख का संयोग नहीं करने से ।
८२. वीन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले के छह प्रकार का असंयम होता है१. घ्राणमय सुख का वियोग करने से । २. घ्राणमय दुःख का संयोग करने से । ३. रसमय सुख का वियोग करने से । ४. रसमय दुःख का संयोग करने से ।
५. स्पर्शमय सुख का वियोग करने से । ६. स्पर्शमय दुःख का संयोग करने से ।
क्षेत्र पर्वत पद
८३. जम्बूद्वीप द्वीप में छह अकर्मभूमियां हैं
१. हैमवत, २. हैरण्यवत, ३. हरिवर्ष, ४. रम्यकवर्ष, ५. देवकुरु, ६. उत्तरकुरु ।
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ठाणं (स्थान)
६७३
८४. जंबुद्दीवे दीवे छव्वासा पण्णत्ता, तं जम्बूद्वीपे द्वीपे षड्वर्षाः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथाभरतं, ऐरवतं, हैमवतं, हैरण्यवतं, हरिवर्षं, रम्यक्वर्षम् । जम्बूद्वीपे द्वीपे षड् वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - क्षुद्रहिमवान्, महाहिमवान्, निषध:, नीलवान्, रुक्मी, शिखरी । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे पट् कूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा—
जहा -
भरहे, एरवते, हमवते,
रण्णव, हरिवासे, रम्मगवासे । ८५. जंबुद्दीवे दीवे छ वासहरपव्वता
पण्णत्ता, तं जहा... चुल्ल हिमवंते, महाहिमवंते, णिसढे, नीलवंते, रुप्पी, सिहरी । ८६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं छ कूडा पण्णत्ता, तं
जहा - चुल्लहिमवंत कूडे, वेसमणकूडे, महाहिमवंतकडे, वेरुलियकूडे, सिढकूडे, रुयगकूडे | ८७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं छकूडा पण्णत्ता, तं जहालवंतकडे, उवदंसणकडे, रुप्पिकडे, मणिकंचणकूडे, सिहरिकुडे, तिगिछिकूडे ।
क्षुद्रहिमवत्कूटं वैश्रमणकूट, महाहिमवत्कूटं वैडूर्यकूट, निषधकूटं, रूचककूटम् । जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे षट् कूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथानीलवत्कूट, उपदर्शनकूट, रुक्मिकूट, मणिकाञ्चनकूट, शिखरिकूट, तिगिञ्छिकूटम् ।
महादह-पदं
महाद्रह-पदम्
८. जंबुद्दीवे दीवे छ महद्दहा पण्णत्ता, जम्बूद्वीपे द्वीपे षड् महाद्रहाः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा—
पद्मद्रहः, महापद्मद्रहः, तिगिञ्छिद्रहः केशरीद्रहः, महापुण्डरीकद्रहः,
पुण्डरीकद्रहः ।
तं जहा - पउमद्द हे, महापउमद्द, छिद्द, केस रद्द, महापोंडरी यद्द हे, पुंडरीयद्द हे । तत्थ णं छ देवयाओ महिड्डियाओ पलिओवर्मा द्वितियाओ परिवसंति, तं जहा - सिरी, हिरी, धित्ती, कित्ती, बुद्धी, श्री, ह्रीः, धृतिः, कीर्तिः, बुद्धि:, लच्छी ।
तत्र षड् देव्यः महद्धिकाः यावत् पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा-
जाव
लक्ष्मीः ।
स्थान ६ : सूत्र ८४-८८
८४. जम्बूद्वीप में छह वर्ष [ क्षेत्र ] हैं
१. भरत, २. ऐरवत, ३. हैमवत, ४. हैरण्यवत, ५. हरिवर्ष, ६. रम्यकवर्ष । ८५. जम्बूद्वीप द्वीप में छह वर्षधर पर्वत हैं
१. क्षुद्रहिमवान्, २. महान्हिमवान् ३. निषेध, ४. नीलवान्, ५. रुक्मी, ६. शिखरी ।
८६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिणभाग में छह कूट [ चोटियां ] हैं—
१. क्षुद्रहिमवत्कूट, २. वैश्रमणकूट, ३. महाहिमवत्कूट, ४. वैडूर्यकूट, ५. निषेधकूट, ६. रुचककूट । ८७. जम्बूद्वीप द्वीप में नन्दर पर्वत के उत्तर
भाग में छह कूट हैं
१. नीलवत्कूट, २. उपदर्शनकूट,
३. रुक्मिकूट, ४. मणिकाञ्चनकूट,
५. शिखरीकूट, ६. तिगिञ्छिकूट ।
महाद्रह-पद
८८. जम्बूद्वीप द्वीप में छह महाद्रह हैं१. पद्मद्रह, २. महापद्मद्रह
३. तिगिञ्छिद्र, ४. केशरिद्रह,
५. महापुण्डरीकद्रह, ६. पुण्डरीकद्रह् । उनमें छह महद्धिक, महाद्युति, महाशक्ति, महाशय, महाबल, महासुख तथा पल्योपम की स्थिति वाली छह देवियां परिवास करती हैं
१. श्री, २. ह्री, ३. धृति ४. कीर्ति, ५. बुद्धि, ६. लक्ष्मी ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६: सूत्र८६-६४
तं जहा.
पता,
णदो-पदं नदी-पदम्
नदी-पद ८६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वोपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ८६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण
दाहिणेणं छ महाणदीओ पण्णत्ताओ, षड् महानद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- भाग में छह महानदियां हैं--- तं जहागंगा, सिंधू, रोहिया, रोहितंसा, गङ्गा, सिन्धुः, रोहिता, रोहितांशा, १. गंगा, २. सिन्धु, ३. रोहिता, हरी, हरिकता। हरित्, हरिकान्ता।
४. रोहितांशा, ५. हरि, ६. हरिकांता। ६०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे ६०. जम्बुद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तरउत्तरे णं छ महाणदीओ पण्णत्ताओ, षड् महानद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- भाग में छह महानदियां हैं
१. नरकांता, २. नारीकांता णरकता, णारिकता, सवण्णकला, नरकान्ता. नारीकान्ता. स्वर्णकला. ३. सुवर्णकूला, ४. रूप्यकूला, रुप्पकूला, रत्ता, रत्तवती। रूप्यकूला, रक्ता, रक्तवती।
५. रक्ता, ६. रक्तवती। ६१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्व- ६१. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्वभाग
पुरस्थिमेणं सीताए महाणदीए स्मिन् शीतायाः महानद्याः उभयकूले में सीता महानदी के दोनों किनारों में उभयकले छ अंतरणदीओ षड् अन्तर्नद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- मिलने वाली छह अन्तर्नदियां हैं--- पण्णत्ताओ, तं जहा...
१. ग्राहवती, २. द्रहवती, ३. पंकवती, गाहावती, रहवती, पंकवती, ग्राहवती, द्रवती, पङ्कवती, ४. तप्तजला, ५. मत्तजला,
तत्तयला, मत्तयला, उम्मत्तयला। तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला । ६. उन्मत्तजला। ६२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ६२. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत से पश्चिम
पच्चत्थिमेणं सीतोदाए महाणदीए पश्चिमे शीतोदायाः महानद्या: उभयकले भाग में सीतोदा महानदी के दोनों किनारों उभयकले छ अंतरणदीओ षड् अन्तर्नद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
में मिलने वाली छह अन्तर्नदियां हैंपग्णत्ताओ, तं जहाखीरोदा, सीहसोता, अंतोवाहिणी, क्षीरोदा, सिंहस्रोताः, अन्तर्वाहिनी, १.क्षीरोदा, २. सिंहस्रोता, उम्मिमालिणी, फेणमालिणी, उर्मिमालिनी, फेनमालिनी, ३. अन्तर्वाहिनी, ४. उमिमालिनी, गंभीरमालिणी। गम्भीरमालिनी।
५. फेनमालिनी, ६. गम्भीरमालिनी। धायइसंड-पुक्खरवर-पदं धातकीषण्ड-पुष्करवर-पदम् धातकीषण्ड-पुष्करवर-पद ६३. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं छ धातकीषण्डद्वीपपौरस्त्यार्धे षड् अकर्म- ६३. धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में छह अकर्मअकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं भूम्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
भुमियां हैं-- जहा..हेमवए, 'हेरण्णवते, हरिवस्से, हैमवतं, हैरण्यवतं, हरिवर्ष, १. हैमवत, २. हैरण्यवत, ३. हरिवर्ष,
रम्मगवासे, देवकुरा, उत्तरकुरा। रम्यकवर्ष, देवकुरुः, उत्तरकुरुः । ४. रम्यकवर्ष, ५. देवकुरु, ६. उत्तरकुरु । १४. एवं जहा जंबुद्दीवे दीवे जाव एवं यथा जम्बुद्वीपे द्वीपे यावत् ६४. इसी प्रकार जम्बूद्वीप द्वीप में जैसे वर्ष,
वर्षधर आदि से अन्तर्-नदी तक का वर्णन अंतरणदीओ अन्तर्नद्यः
किया गया है, वैसे ही यहां जानना चाहिए।
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ठाणं (स्थान)
जाव पुक्खरवर दीवद्धपच्चत्थिमद्धे यावत् पुष्करवरद्वीपार्धपाश्चात्यार्धे भाणितव्वं ।
भणितव्यम् ।
उउ-पदं
६५. छ उदू पण्णत्ता, तं जहापाउसे, वरिसारते, सरए, हेमंते, वसंते, गिम्हे ।
ओमरत्त-पदं
६. छ ओमरत्ता पण्णत्ता, तं जहाततिए पब्वे, सत्तमे पव्वे, एक्कारसमे पव्वे, पण्णरसमे पव्वे, एगूणवीस इमे पव्वे, तेवीस इमे पव्वे ।
अतिरक्त पदं
६७. छ अतिरित्ता पण्णत्ता, तं जहा-उत्थे पव्वे, असे पव्वे, दुवालसमे पव्वे, सोलसमे पव्वे, वीस मे पव्ये, चवीस मे पव्वे ।
अत्थोग्गह-पदं
६८. आभिणिबोहियणाणस्स णं छव्विहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते, तं जहा
६७५
ऋतु - पदम्
षड् ऋतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाप्रावृड्, वर्षारात्रः, शरद्, हेमन्तः वसन्तः, ग्रीष्मः ।
-|
अवमरात्र-पदम्
षड् अवमरात्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथातृतीयं पर्व, सप्तमं पर्व, एकादशं पर्व, पञ्चदशं पर्व, एकोनविंशतितमं पर्व, त्रिविशतितमं पर्व |
अतिरात्र-पदम्
षड् अतिरात्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— चतुर्थं पर्व, अष्टमं पर्व, द्वादशं पर्व, षोडशं पर्व, विंशतितमं पर्व, चतुर्विंशतितमं पर्व ।
अर्थावग्रह-पदम् आभिनिबोधिकज्ञानस्य षड्विधः अर्थावग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
स्थान ६ : सूत्र ५-६८
इसी प्रकार धातकीपण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध, पुष्करवरद्वीपा के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में जानना चाहिए।
ऋतु-पद
६५. ऋतुएं छह हैं"
१. प्रावृट् आषाढ और श्रावण,
२. वर्षा - भाद्रपद और आश्विन,
३. शरद् कार्तिक और मृगशिर,
४. हेमन्त पौष और माघ,
५. वसन्त -- फाल्गुन और चैत्र,
६. ग्रीष्म वैशाख और ज्येष्ठ ।
अवसरात्र - पद
९६. छह अवमरात [ तिथिक्षय ] होते हैं१. तीसरे पर्व- आषाढ- कृष्णपक्ष में, २. सातवें पर्व भाद्रपद कृष्णपक्ष में,
३. ग्यारहवें पर्व
कार्तिक कृष्णपक्ष में,
४. पन्द्रहवें पर्व
पौष कृष्णपक्ष में,
५. उन्नीसवें पर्व - फाल्गुन-कृष्णपक्ष में, ६. तेईसवें पर्व – वैसाख कृष्णपक्ष में ।
अतिरात्र - पद
६७. छह अतिरात्र [तिथिवृद्धि ] होते हैं -
१. चौथे पर्व – आषाढ शुक्लपक्ष में, २. आठवें पर्व - भाद्रपद शुक्लपक्ष में, ३. बारहवें पर्व - कार्तिक शुक्लपक्ष में,
४. सोलहवें पर्व - पौष शुक्लपक्ष में,
५. बीसवें पर्व - फाल्गुन शुक्लपक्ष में,
६. चौबीसवें पर्व - वैसाख-शुक्लपक्ष में,
अर्थावग्रह-पद
६८. आभिनिबोधिक ज्ञान का अर्थविग्रह छह प्रकार का होता है -
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र ६९-१०१ सोइंदियत्थोग्गहे, श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः,
१. थोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, 'चविखदियत्थोग्गहे, चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहः,
२. चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह, घाणिदियत्थोग्गहे, घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहः,
३. घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, जिभिदियत्थोग्गहे, जिह्वन्द्रियार्थावग्रहः,
४. जिह्वन्द्रिय अर्थावग्रह, फासिदियत्थोग्गहे, स्पर्शेन्द्रियार्थावग्रहः,
५. स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह, णोइंदियत्थोग्गहे। नो इन्द्रियार्थावग्रहः ।
६. नोइन्द्रिय अर्थावग्रह। ओहिणाण-पदं अवधिज्ञान-पदम्
अवधिज्ञान-पद ६६. छविहे ओहिणाणे पण्णत्ते, तं षड्विधं अवधिज्ञानं प्रज्ञप्तम्, ६६. अवधिज्ञान के छह प्रकार हैंजहातद्यथा
१. आनुगामिक, २. अनानुगामिक, आणुगामिए, अणाणुगामिए, आनुगामिक, अनानुगामिक, वर्धमानकं, ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. प्रतिपाति, वड्डमाणए, हायमाणए, पडिवाती, हीयमानकं, प्रतिपाति, अप्रतिपाति। ६. अप्रतिपाति । अपडिवाती।
अवयण-पदं अवचन-पदम्
अवचन-पद
. १००. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को छह अवचन १००. णो कप्पई णिग्गंथाण वा नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां "
[गहित वचन नहीं बोलने चाहिए.--- णिग्गंथीण वा इमाइं छ अवयणाई वा इमानि षड़ अवचनानि वदितुम.
१. अलीकवचन---असत्यवचन, वदित्तए, तं जहा तद्यथा
२. हीलितवचन-- अवहेलनायुक्तवचन, अलियवयणे, होलियवयणे, अलीकवचनं, हीलितवचनं,
३. खिसितवचन-मर्मवेधीवचन, खिसितवयणे, फरुसवयणे, खिसितवचनं, परुषवचनं,
४. परुषवचन-कटुकवचन, गारत्थियवयणे, अगारस्थितवचनं,
५. अगारस्थितवचन-मेरा पुत्र, मेरी विउसवितं वा पुणो उदीरित्तए। व्यवशमितं वा पुनः उदीरयितुम् । माता—ऐसा सम्बन्ध सूचक वचन ।
६. उपशांत कलह को उभाड़ने वाला वचन ।
कप्पस्स पत्थार-पदं कल्पस्यप्रस्तार-पदम्
कल्प-प्रस्तार-पद १०१. छ कप्पस पत्थारा पण्णत्ता, तं षड् कल्पस्य प्रस्ताराः प्रज्ञप्ताः, १०१. कल्प [साध्वाचार] के छह प्रस्तार
[प्रायश्चित्त-रचना के विकल्प हैंजहातद्यथा
१. प्राणातिपातसम्बन्धी आरोपात्मक पाणातिवायस्स वायं वयमाणे। प्राणातिपातस्य वादं वदन्,
वचन बोलने वाला। मुसावायरस वायं बयाणे, मृषावादस्य वादं वदन्,
२.नषावादसम्बन्धी आरोपात्मक वचन अदिष्णादाणस्स वायं वयमाणे, अदत्तादानस्य वादं वदन,
बोलने वाला।
३. अदत्तादानसम्बन्धी आरोपात्मक वचन अविरतिवायं वयमाणे, अविरतिवादं वदन,
बोलने वाला। अपुरिसवायं वयमाणे, अपुरुषवादं वदन्,
४. अब्रह्मचर्यसम्बन्धी आरोपात्मक वचन दासवायं वयमाणेदासवादं वदन्
बोलने वाला। ५. नपुंसक होने का आरोप लगाने वाला। ६. दास होने का आरोप लगाने वाला
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स्थान ४ : सूत्र १०२-१०३
ठाणं (स्थान)
६७७ इच्चेते छ कप्पस्स पत्थारे पत्थरेत्ता इत्येतान् षट् कल्पस्य प्रस्तारान् प्रस्तार्य । सम्ममपडिपूरेमाणे तट्टाणपत्ते। सम्यक् अप्रतिपूरयन् तत्स्थानप्राप्तः।
इस प्रकार कल्प के प्रस्तारों को स्थापित कर यदि कोई साधु उन्हें प्रमाणित न कर सके तो वह तत्स्थान प्राप्त होता हैआरोपित दोष के प्रायश्चित्त का भागी होता है।
पलिमंथु-पदं पलिमन्थ-पदम्
पलिमन्थु-पद १०२. छ कप्पस्स पलिमंथु पण्णत्ता, तं षड् कल्पस्य परिमन्थवः प्रज्ञप्ताः, १०२. कल्प [साध्वाचार] के छह परिमंथु जहातद्यथा
[प्रतिपक्षी] हैं"कोकुइते संजमस्स पलिमंथू, कौकुचितः संयमस्य परिमन्थुः,
१. कौकुचित-चपलता करने वाला संयम मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथ, मौखरिकः सत्यवचनस्य परिमन्थः, का परिमंथु है। चक्खुलोलुए ईरियावहियाए चक्षुर्लोलुपः ऐपिथिक्याः परिमन्युः,
२. मौखरिक-वाचाल सत्यवचन का पलिमंथ, तितिणिए एसणागोयरस्स तितिणिकः' एषणागोचरस्य परिमन्युः,
परिमंथ है। पलिमंथू, इच्छालोभिते मोत्ति- इच्छालोभिकः मुक्तिमार्गस्य परिमन्थुः, ३. चक्षुलोलुप ---दृष्टि-आसक्त ईपिथिक मग्गस्स पलिमंथू, भिज्जाणिदाण- भिध्यानिदानकरणं मोक्षमार्गस्य का परिमंथु है। करणे मोक्खमग्गस्स पलिमंथू, परिमन्थः,
४. तितिणक --चिड़चिड़े स्वभाव वाला सव्वत्थ भगवता अणिदाणता सर्वत्र भगवता अनिदानता प्रशस्ता। भिक्षा की एषणा का परिमंथु है। पसत्था।
५. इच्छालोभिक—अतिलोभी मुक्तिमार्ग का परिमंथु है। ६. भिध्यानिदानकरण-आसक्तभाव से किया जाने वाला पौद्गलिक सुखों का संकल्प मोक्षमार्ग का परिमंथ है। भगवान् ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त कहा है।
कप्पठिति-पदं कल्पस्थिति-पदम्
कल्पस्थिति-पद १०३. छन्विहा कप्पद्विती पण्णत्ता, तं षड्विधा कल्पस्थितिः प्रज्ञप्ताः, १०३. कल्पस्थिति छह प्रकार की है." जहातद्यथा--
१. सामायिककल्पस्थिति, सामाइयकप्पद्विती, सामायिककल्पस्थिति:,
२. छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति, छेओवट्ठावणियकप्पद्विती, छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति:,
३. निर्विशमानकल्पस्थिति, णिव्विसमाणकप्पद्विती, निर्विशमानकल्पस्थितिः,
४. निविष्टकल्पस्थिति, णिन्वटुकप्पद्विती, निविष्टकल्पस्थितिः,
५. जिनकल्पस्थिति, जिणकप्पद्विती, जिनकल्पस्थितिः,
६. स्थविरकल्पस्थिति। थेरकप्पद्विती।
स्थविरकल्पस्थितिः ।
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ठाणं (स्थान)
६७८
स्थान ४ : सूत्र १०४-१०६ महावीरस्स छट्ठभत्त-पदं महावीरस्य षष्ठभक्त-पदम्
का षष्ठभक्त-पद १०४. समणे भगवं महावीरे छठेणं श्रमणः भगवान् महावीरः षष्ठेन भक्तेन १०४. श्रमण भगवान् महावीर अपानक छ?
भत्तेणं अपाणएणं मुंडे भवित्ता अपानकेन मुण्डो भूत्वा अगारात् भक्त तपस्या में मुण्ड होकर अगार से अगाराओ अणगारियं° पव्वइए। अनगारितां प्रव्रजितः ।
अनगारत्व में प्रवजित हुए। १०५. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य षष्ठेन १०५. श्रमण भगवान् महावीर को अपानक छट्ठ
छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं अणंते भक्तेन अपानकेन अनन्तं अनुत्तरं भक्त की तपस्या में अनन्त, अनुत्तर, अगुत्तरे 'णिव्वाघाए णिरावरणे निर्व्याघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण नियाघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाण- केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्। केवलवरज्ञानदर्शन उत्पन्न हुआ।
दसणे समुप्पण्णे। १०६. समणे भगवं महावीरे छठेणं श्रमणः भगवान् महावीरः षष्ठेन भक्तेन १०६. श्रमण भगवान् महावीर अपानक छट्ठ
भत्तेणं अपाणएणं सिद्ध 'बुद्धे मुत्ते अपानकेन सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः भवत में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और अंतगडे परिणिव्वुडे सव्व- परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रक्षीणः । सर्वदुःखों से रहित हुए। दुक्खप्पहीणे। विमाण-पदं विमान-पदम्
विमान-पद १०७. सणंकुमार-माहिदेसु णं कप्पेसु सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोः १०७. सनत्कुमार तथा माहेन्द्र देवलोक के
विमाणा छ जोयणसयाई उड्ड विमानानि षड् योजनशतानि ऊवं विमान छह सौ योजन ऊंचे होते हैं। उच्चत्तणं पण्णत्ता।
उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि।
देव-पदं देव-पदम्
देव-पद १०८. सणंकुमार-माहिदेसु णं कप्पेसु सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोः देवानां १०८. सनत्कुमार तथा माहेन्द्र देवलोक में देवों
देवाणं भवधारणिज्जगा सरीरगा भवधारणीयकानि शरीरकाणि उत्कर्षण का भवधारणीय शरीर ऊंचाई में छह उक्कोसेणं छ रयणीओ उड्ड षड् रत्नीः ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि। रत्नि का होता है। उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
भोयण-परिणाम-पदं भोजन-परिणाम-पदम्
भोजन-परिणाम-पद १०६. छविहे भोयणपरिणामे पण्णत्ते, तं षड्विधः भोजनपरिणामः प्रज्ञप्तः, १०६. भोजन का परिणाम छह प्रकार का जहातद्यथा
होता है१. मनोज्ञ-मन में आह्लाद उत्पन्न करने
वाला। २. रसिक-रसयुक्त। मणुण्णे, रसिए, पीणणिज्जे, मनोज्ञः, रसिकः, प्रीणनीयः,
३. प्रीणनीय-रस, रक्त आदि धातुओं बिहणिज्जे, मयणिज्जे, दप्पणिज्जे। बृहणीयः, मदनीयः, दर्पणीयः ।
में समता लाने वाला। ४. बृहणीय-धातुओं को उपचित करने वाला। ५. मदनीय-काम को बढ़ाने वाला। ६. दर्पणीय-पुष्टिकारक।
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ठाणं (स्थान)
६७६
विस- परिणाम-पदं
विष- परिणाम-पदम्
विष परिणाम- पद
११०. छविहे विसपरिणामे पण्णसे, तं षड्विधः विषपरिणामः प्रज्ञप्तः, ११०. विष का परिणाम छह प्रकार का होता
है—
१. दष्ट- किसी विषैले प्राणी द्वारा काटे जाने पर प्रभाव डालने वाला ।
२. भुक्त - खाए जाने पर प्रभाव डालने
वाला ।
३. निपतित-शरीर के बाहरी भाग से स्पृष्ट होकर प्रभाव डालने वाला - त्वग्विष, दृष्टिविष आदि ।
४. मांसानुसारी-मांस तक की धातुओं को प्रभावित करने वाला ।
तद्यथा
जहा - क्के, भुत्ते, णिवतिते, मंसाणुसारी, दष्टं भुक्तं, निपतितं, मांसानुसारि, सोणितानुसारी, अमाणुसारी | शोणितानुसारि, अस्थिमज्जानुसारि ।
पटु-पदं १११. छ बिहे पट्ट पण्णत्ते, तं जहासंस्यपट्टे, बुग्गहपट्ट, अणुजोगी, अणुलोमे, तहणाणे, अतहणाणे ।
पृष्ट-पदम् षड्विधं पृष्टं प्रज्ञप्तम्, तद्यथासंशयपृष्टं व्युद्ग्रहपृष्टं, अनुयोगिः, अनुलोमं, तथाज्ञानं, अतथाज्ञानम् ।
स्थान ६ : सूत्र ११०-१११
५. शोणितानुसारी - रक्त तक की धातुओं
को प्रभावित करने वाला ।
६. अस्थिमज्जानुसारी- अस्थि मज्जा
तक की धातुओं को प्रभावित करने
वाला ।
पृष्ट-पद
१११. प्रश्न छह प्रकार के होते हैं-
१. संशयप्रश्न – संशय मिटाने के लिए पूछा जाने वाला ।
२. व्युद्ग्रहप्रश्न – मिथ्या अभिनिवेश से दूसरे को पराजित करने के लिए पूछा जाने वाला ।
३. अनुयोगी व्याख्या के लिए पूछा जाने वाला ।
४. अनुलोम – कुशलकामना से पूछा जाने
वाला |
५. तथाज्ञान --- स्वयं जानते हुए भी दूसरों
की ज्ञानवृद्धि के लिए पूछा जाने वाला ।
६. अतथाज्ञान – स्वयं न जानने की स्थिति पूछा जाने वाला ।
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ठाणं (स्थान)
६८०
स्थान ६ : सूत्र ११२-११८ विरहिय-पदं विरहित-पदम्
विरहित-पद ११२. चमरचंचा णं रायहाणी उक्कोसेणं चमरचञ्चा राजधानी उत्कर्षेण ११२. चमरचञ्चा राजधानी में उत्कृष्टरूप से छम्मासा विरहिया उववातेणं । षण्मासान् विरहिता उपपातेन ।
नेता
छह महीनों तक उपपात का विरह
[व्यवधान हो सकता है। ११३. एगमेगे णं इंददाणे उक्कोसेणं एकैकं इन्द्रस्थानं उत्कर्षेण षण्मासान् ११३. प्रत्येक इन्द्र के स्थान में उत्कृष्टरूप से छम्मासे विरहिते उववातेणं । विरहितं उपपातेन।
छह महीनों तक उपपात का विरह हो
सकता है। ११४. अधोसत्तमा णं पुढवी उक्कोसेणं अधःसप्तमा पृथिवी उत्कर्षेण षण्मासान् ११४. निचली सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट रूप से छम्मासा विरहिता उववातेणं। विरहिता उपपातेन ।
छह महीनों तक उपपात का विरह हो
सकता है। ११५. सिद्धिगती णं उक्कोसेणं छम्मासा सिद्धिगतिः उत्कर्षेण षणमासान ११५. सिद्धिगति में उत्कृष्टरूप से छह महीनों विरहिता उववातेणं । विरहिता उपपातेन।
तक उपपात का विरह हो सकता है।
आउयबंध-पदं आयुर्बन्ध-पदम्
आयुर्बन्ध-पद ११६. छविधे आउयबंधे पण्णत्ते, तं षड्विधः आयुर्बन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ११६. आयुष्य का बंध छह प्रकार का होता है"
जहाजातिणामणिधत्ताउए, जातिनामनिधत्तायुः,
१. जातिनामनिषिक्तायु, गतिणामणिधत्ताउए, गतिनामनिधत्तायुः,
२. गतिनामनिषिक्तायु, ठितिणामणिधत्ताउए, स्थितिनामनिधत्तायुः,
३. स्थितिनामनिषिक्तायु, ओगाहणाणामणिधत्ताउए, अवगाहनानामनिधत्तायुः,
४. अवगाहनानामनिषिक्तायु, पएसणामणिधत्ताउए, प्रदेशनामनिधत्तायु:,
५. प्रदेशनामनिषिक्तायु, अणभागणामणिधत्ताउए। अनुभागनामनिधत्तायुः।
६. अनुभागनामनिषिक्तायु। ११७. गैरइयाणं छविहे आउयबंभे नैरयिकाणां षड्विधः आयुर्बन्धः प्रज्ञप्तः, ११७. नैरयिकों के आयुष्य का बंध छह प्रकार पण्णत्ते, तं जहातद्यथा
का होता हैजातिणामणिहत्ताउए, जातिनामनिधत्तायुः,
१. जातिनामनिषिक्तायु,
२. गतिनामनिषिक्तायु, गतिनामनिधत्तायु:, 'गतिणामणिहत्ताउए, स्थितिनामनिधत्तायु:,
३. स्थितिनामनिषिक्तायु, ठितिणामणिहत्ताउए, अवगाहनानामनिधत्तायुः,
४. अवगाहनानामनिषिक्तायु, ओगाहणाणामणिहत्ताउए, प्रदेशनामनिधत्तायु:,
५. प्रदेशनामनिषिक्ताय, पएसणामणिहत्ताउए, अनुभागनामनिधत्तायुः।
६. अनुभागनामनिषिक्तायु। अणुभागणामणिहत्ताउए। ११८. एवं जाव वेमाणियाणं। एवं यावत् वैमानिकानाम्।
११८. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों
के जीवों में आयुष्य का बंध छह प्रकार का होता है।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र ११६-१२५
परभवियाउय-पदं परभविकायुः-पदम्
परभविकायुः-पद ११६. णेरइया णियमा छम्मासाव- नैरयिका नियम षण्मासावशेषायुषः ११६. नरयिक वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष सेसाउया परभवियाउयं पगरेति। परभविकायुः प्रकुर्वन्ति ।
रह जाने पर निश्चय ही परभव के आयुष्य
का बंध करते हैं। १२०. एवं_असुरकुमारावि जाव एवम्—असुरकुमाराअपि यावत् १२०. इसी प्रकार असुरकुमार से स्तनितकुमार थणियकुमारा। स्तनित कुमाराः।
तक के सभी भवनपति देव वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहने पर निश्चय
ही परभव के आयुष्य का बंध करते हैं। १२१. असंखेज्जवासाउयासण्णिपंचिदिय- असंख्येयवर्षायुषः संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग- १२१. असंख्य वर्ष की आयु वाले समनस्क
तिरिक्खजोणिया णियमं छम्मा- योनिकाः नियमं पण्मासावशेषायुषः तिर्यक्योनिक-पञ्चेन्द्रिय वर्तमान आयुष्य सावसेसाउया परभवियाउयं परभविका
के छह मास शेष रहने पर निश्चय ही पगरति।
परभव के आयुष्य का बंध करते हैं। १२२. असंखेज्जवासाउया सणिमणुस्सा असंख्येयवर्षायुषः संज्ञिमनुष्याः नियम १२२. असंख्य वर्ष की आर वाले समनस्क मनुष्य
णियमं छम्मासावसेसाउया षण्मासावशेषायुषः परभविकायुः दर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहने परभवियाउयं पगरेंति। प्रकुर्वन्ति।
पर निश्चय ही परभव के आयुष्य का बंध
करते हैं। १२३. वाणमंतरा जोतिसवासिया वानमन्तरा: ज्यौतिषवासिकाः १२३. वानमंतर, ज्योतिषक और वैमानिक देव वेमाणिया जहा रइया। वैमानिकाः यथा नै रयिकाः ।
वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहने पर निश्चय ही परभव के आयुष्य का बंध करते हैं।
भाव-पद
भाव-पदं १२४. छविधे भावे पण्णत्ते, तं जहा
ओदइए, उवसमिए, खइए, खओवस मिए, पारिणामिए, सण्णिवातिए।
भाव-पदम् षड्विधः भाव: प्रज्ञप्तः, तद्यथाऔदयिकः, औपशमिकः, क्षायिकः, क्षायोपशमिकः, पारिणामिकः, सान्निपातिकः।
१२४. भाव के छह प्रकार हैं
१. औदयिक, २. औपशमिक, ३. क्षायिक, ४.क्षायोपशमिक, ५. पारिणामिक, ६. सान्निपातिक।
पडिक्कमण-पदं प्रतिक्रमण-पदम्
प्रतिक्रमण-पद १२५. छविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तं षड्विधं प्रतिक्रमणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १२५. प्रतिक्रमण छह प्रकार का होता हैजहाउच्चारप्रतिक्रमणं,
१. उच्चार प्रतिक्रमण-मल-त्याग करने उच्चारपडिक्कमणे,
के बाद वापस आकर ईपिथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना।
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ठाणं (स्थान)
पावणक्किम, इत्तरिए, आवकहिए, किचिमिच्छा, सोमणं तिए ।
णक्खत्त-पदं
१२६. कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते । १२७. असिसाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते ।
पावकम्म-पदं
१२८. जीवा णं छट्टाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ता fafry वा चिणंति चिणिस्संति वा, तं जहापुढ विकाइ वित्तिए, 'आउकाइयणिव्वत्तिए,
काइयव्वित्तिए,
areersaraत्तिए, Treasers णिव्यत्तिए, ae कायव्वित्तिए ।
एवं चिण उवचिण-बंध उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव ।
६८२
प्रस्रवणप्रतिक्रमणं,
इत्त्वरिकं, घावत्कथिकं यत्किञ्चिद्मिथ्या, स्वापनान्तिकम् ।
नक्षत्र-पदम् कृत्तिकानक्षत्रं षट्तारं प्रज्ञप्तम् । अश्लेषानक्षत्रं षट्तारं प्रज्ञप्तम् ।
पापकर्म-पदम्
जीवा षट्स्थाननिर्वर्तितान् पुद्गलान् पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा तद्यथा - पृथिवीकायिकनिर्वर्तितान्, अपकायिक निर्वर्तितान् तेजस्कायिकनिर्वर्तितान्,
वायुकायिकनिर्वर्तितान्, वनस्पतिकायिक निर्वर्तितान्, त्रसकायनिर्वतितान् । एवम् चय - उपचय-बन्ध उदीर-वेदा: तथा निर्जरा चैव ।
स्थान ६ : सूत्र १२६-१२८
२. प्रस्रवण प्रतिक्रमण मूत्र त्याग करने बाद वापस आकर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना ।
३. इत्वरिक प्रतिक्रमण - दैवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना ।
४. यावत्कथिक प्रतिक्रमण - हिंसा आदि
से सर्वथा निवृत्त होना अथवा आजीवन
अनशन करना ।
५. यत्किचित् मिथ्यादुष्कृत प्रतिक्रमणसाधारण अयतना होने पर उसकी विशुद्धि के लिए 'मिच्छामिदुक्कड' इस भाषा में खेद प्रकट करना ।
६. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण - सोकर उठने के पश्चात् ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रति
क्रमण करना ।
नक्षत्र - पद
१२६. कृत्तिका नक्षत्र के छह तारे हैं । १२७. अश्लेषा नक्षत्र के छह तारे हैं।
पापकर्म - पद
१२८. जीवों ने छह स्थान निर्वर्तित पुद्गलों को पापकर्म के रूप में ग्रहण किया था, करते हैं और करेंगे
१. पृथ्वी कायनिर्वर्तित,
२. अप्कायनिर्वर्तित,
३. तेजस्कायनिर्वर्तित,
४. वायुकायनिर्वर्तित,
५. वनस्पतिकायनिर्वर्तित,
६. तकाय निर्वर्तित।
इसी प्रकार जीवों के षटुकाय निवर्तित पुद्गलों का पापकर्म के रूप में उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे ।
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ori (स्थान)
१३२. छगुणकालगा पोग्गला जाव छगुणलुक्खा पोग्गला अनंता पण्णत्ता ।
६८३
पोग्गल - पदं
पुद्गल-पदम्
पुद् गल-पद
१२६. छप्पएसिया णं खंधा अनंता षट्प्रदेशिकाः स्कन्धाः अनन्ताः प्रज्ञप्ताः । १२६. छह प्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं ।
पण्णत्ता ।
१३०. छप्पएसोगाढा पोग्गला अनंता षट् प्रदेशावगाढा: पुद्गलाः अनन्ताः १३०. छह प्रदेशावगाढ़ पुद्गल अनन्त हैं ।
पण्णत्ता ।
प्रज्ञप्ताः ।
१३१. छसमय द्वितीया पोग्गला अणंता षट्समयस्थितिकाः पुद्गलाः अनन्ताः १३१. छह समय की स्थिति वाले पुद्गल
पण्णत्ता ।
प्रज्ञप्ताः ।
अनन्त हैं ।
षट्गुणकालकाः
षड्गुणरूक्षाः प्रज्ञप्ताः ।
पुद्गलाः यावत् अनन्ताः
पुद्गलाः
स्थान ६ : टि० १२६-१३२
१३२. छह गुण काले पुद्गल अनन्त हैं— इसी प्रकार शेष वर्ण तथा गंध, रस और स्पर्शो के छह गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं ।
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टिप्पणियाँ स्थान-६
१. (सू० १)
प्रस्तुत सूत्र में गण धारण करनेवाले व्यक्ति के लिए छह कसौटियां निर्दिष्ट हैं ----
१-श्रद्धा--अश्रद्धावान् पुरुष मर्यादानिष्ठ नहीं हो सकता। जो स्वयं मर्यादानिष्ठ नहीं होता वह दूसरों को मर्यादा में स्थापित नहीं कर सकता। इसलिए गणी की प्रथम योग्यता 'श्रद्धा'--मर्यादाओं के प्रति विश्वास है।
२-सत्य-इसके दो अर्थ हैं
१. यथार्थवचन ।
२. प्रतिज्ञा के निर्वाह में समर्थ । यथार्थभाषी पुरुष ही यथार्थ का प्रतिपादन कर सकता है। जो की हुई प्रतिज्ञा के निर्वाह में समर्थ होता है, वही दूसरों में विश्वास उत्पन्न कर सकता है। गणी दूसरों के लिए विश्वस्त होना चाहिए। इसलिए उसकी दूसरी योग्यता 'सत्य' है।
३--- मेधा--आगम साहित्य में मेधावी के दो अर्थ प्राप्त होते हैं
१. मर्यादावान् ।
२. श्रुतग्रहण करने की शक्ति से संपन्न ।
जो व्यक्ति स्वयं मर्यादावान् है, वही दूसरों को मर्यादा में रख सकता है और वही व्यक्ति अपने गण में मर्यादाओं का अक्षुण्ण पालन करा सकता है।
जो व्यक्ति तीक्ष्ण बुद्धि से संपन्न होता है, वही श्रुतग्रहण करने में समर्थ होता है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरों से श्रुतग्रहण कर अपने शिष्यों को उसका अध्यापन कराने में समर्थ हो सकता है। इस प्रकार वह स्वयं अनेक विषयों का ज्ञाता होकर अपने गण में शिष्यों को भी इसी ओर प्रेरित कर सकता है। इसलिए उसकी तीसरी योग्यता 'मेधा' है।
४-बहुश्रुतता-जैन परम्परा में 'बहुश्रुत' व्यक्ति का बहुत समादर रहा है। उसे गण का एकमात्र उपष्टम्भ माना है। उत्तराध्ययन सूत्र में 'बहुस्सुयपूआ' नाम का ग्यारहवां अध्ययन है। उसमें बहुश्रुत की महिमा बतलाई गई है। उत्तरवर्ती व्याख्या-ग्रंथों में भी बहुश्रुत व्यक्ति के विषय में अनेक विशेष नियम उपलब्ध होते हैं।'
प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में बताया गया है कि जो गणनायक बहुश्रुत नहीं होता, वह गण का अनुपकारी होता है। वह अपने शिष्यों की ज्ञानसंपदा कैसे बढ़ा सकता है ? जो गण या कुल अगीतार्थ (अबहुश्रुत) की निश्रा में रहता है, उसका
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३३५ : सद्धि ति श्रद्धावान्, अश्रद्धावतो
हि स्वयममर्यादावत्तितया परेषां मर्यादास्थापनायामसमर्थत्वात्
गणधारणानहत्वम् । २. वही. पत्र ३३५ : सत्यं सद्भ्यो-जीवेभ्यो हिततया प्रतिज्ञात
शूरतया वा, एबंभूतो हि पुरुषो गणपालक आदेयश्च स्यादिति ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३३५ : मेधावि मर्यादया धावतीत्येवंशीलमिति निरुक्तिवशात्, एवंभूतो हि गणस्य मर्यादाप्रवर्तको भवति, अथवा मेधाश्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वत्, एवंभूतो हि श्रुत
मन्यतो झगिति गृहीत्वा शिष्याध्यापने समर्थो भवतीति । ४. देखो-व्यवहार, उद्देशक १०, सून १५; भाष्य गाथा
४६-४६।
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विस्तार नहीं होता । अगीतार्थं व्यक्ति बालवृद्धाकुलगच्छ का सम्यक् प्रवर्तन नहीं कर पाता । '
इसलिए उसकी चौथी योग्यता 'बहुश्रुतता' है।
५ – शक्ति – गणनायक को शक्तिसम्पन्न होना चाहिए। उसकी शक्तिसंपन्नता के चार अवयव हैं—
१. शरीर से स्वस्थ व दृढ़संहनन वाला होना ।
२. मंत्र के विधि-विधानों का ज्ञाता तथा अनेक मंत्रों की सिद्धियों से संपन्न ।
३. तंत्र की सिद्धियों से संपन्न ।
४. परिवार से संपन्न अर्थात् विशिष्ट शिष्यसंपदा से युक्त; विविध विषयों में निष्णात शिष्यों से परिवृत । * इसलिए उसकी पांचवीं योग्यता 'शक्ति' है ।
६. अल्पाधिकरणता - अधिकरण का अर्थ है- कलह या विग्रह। जो पुरुष स्वपक्ष या परपक्ष के साथ कलह करता रहता है उसका गौरव नहीं बढ़ता। जिसके प्रति गुरुत्व की भावना नहीं होती वह गण को लाभान्वित नहीं कर सकता। इसलिए गणी की छठी योग्यता अकलह ' ( प्रशान्त भाव) है ।
२. (सू० ३)
प्रस्तुत सूत्र में कालगत निग्रंथ अथवा निग्रंथी की निर्हरण क्रिया का उल्लेख है। इसमें छह बातों का निर्देश है१. मृतक को उपाश्रय से बाहर लाकर रखना ।
किसी साधु के कालगत हो जाने पर कुछेक विधियों का पालन कर उसे उपाश्रय से बाहर लाकर परिस्थापित कर
देना ।
२. मृतक को उपाश्रय से बहिर्भाग से बस्ती के बाहर ले जाना साधु की उपस्थिति में मृतक का वहन साधु को ही करना चाहिए। इसकी विधि निम्न विवरण में द्रष्टव्य है ।
स्थान ६ : टि०२
३. उपेक्षा — वृत्तिकार ने यहां उपेक्षा के दो प्रकारों की सूचना दी है
१. व्यापार की उपेक्षा ।
२. अव्यापार की उपेक्षा ।
उन्होंने प्रसंगवश उपेक्षा के अर्थ भी भिन्न-भिन्न किए हैं। व्यापार उपेक्षा में उपेक्षा का अर्थ प्रवृत्ति और अव्यापार उपेक्षा में उपेक्षा का अर्थ उदासीन भाव किया है।
(१) व्यापार की उपेक्षा का अर्थ है- मृतक विषयक छेदन, बंधन आदि क्रियाएं जो परंपरा से प्रसिद्ध हैं, उनमें प्रवृत्त होना ।
(२) अव्यापार की उपेक्षा का अर्थ है मृतक के संबंधियों द्वारा किए जाने वाले सत्कार की उपेक्षा करना - उसमें उदासीन रहना । यह अर्थ बहुत ही संक्षिप्त है । वृत्तिकार के समय में ये बंधन और छेदन की परंपराएं प्रचलित रही हों,
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३३५ : बहु-प्रभूतं श्रुतं - सूत्रार्थरूपं यस्य तत्तथा, अन्यथा हि गणानुपकारी स्थात्, उक्तं च"सीसाण कुणइ कह सो ताविहो हंदि नाणमाईणं । अहिया हियसंपत्ति संसारुच्छेयणं परमं ॥ कह सो जयउ अगीओ कह वा कुणउ अगोयनिस्साए । कह वा करेउ गच्छं सबालवृड्डाउलं सो उ ।।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३३५ : शक्तिमत् शरीरमन्त्रतन्त्रपरिवारादिसामर्थ्ययुक्तं तद्धि विविधास्वापत्सु गणस्यात्मनश्च निस्तारकं भवतीति ।
३ वही पत्र ३३५ अपाहिगरणन्ति अल्प- अविद्यमानमधिकरणं स्वपक्षपरपक्षविषयो विग्रहो यस्य तत्तथा तद्धनुवर्त्तकतया गणस्याहानिकारकं भवतीति ।
४. स्थानांगवृत्ति पत्र ३३५ उपेक्षा द्विविधा व्यापारोपेक्षा अव्यापारोपेक्षा च तत्र व्यापारोपेक्षया तमुपेक्षमाणाः, तद्विषयायां छेदनबन्धनादिकायां समयप्रसिद्ध क्रियायां व्याप्रियमाणा इत्यर्थः अव्यापारोपेक्षया च मृतकस्वजनादिभिरत्तं सत्क्रियमाणमुपेक्षमाणाः तनोदासीना इत्यर्थः ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : टि०२
किन्तु आज इन परंपराओं का प्रचलन नहीं है, अतः इनका हार्द समझ पाना अत्यन्त कठिन है। इन परंपराओं का विस्तृत उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य तथा व्यवहारभाष्य में प्राप्त है। उनके संदर्भ में 'उपेक्षा' का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
बृहत्कल्पभाष्य में इस प्रसंग में आए हुए बंधन और छेदन का अर्थ इस प्रकार है
बंधन ---मृतक के दोनों पैरों के दोनों अंगूठे तथा दोनों हाथों के दोनों अंगूठे---चारों अंगूठों को रस्सी से बांधना तथा मुखवस्त्रिका से मुंह को ढंकना।
छेदन-मृतक के अक्षत देह में अंगुली के बीच के पर्व का कुछ छेदन करना।
व्यापार उपेक्षा का यह विस्तृत अर्थ है। अव्यापार उपेक्षा का तात्पर्य स्पष्ट नहीं है। भाष्यों में भी उसका कोई विवरण प्राप्त नहीं है। प्राचीन काल में मृतक मुनि के संबंधी किस प्रकार से मृतक मुनि का सत्कार करते थे, यह ज्ञात नहीं है।
किन्तु यह संभव है कि अपने संबंधी मुनि के कालगत होने पर गृहस्थ मरण-महोत्सव आदि मनाते हों, मृतक के शरीर पर सुगंधित द्रव्य आदि चढ़ाते हों तथा पूर्ण साज-सज्जा से शव-यात्रा निकालते हों।
४. शव के पास रात्रिजागरण-प्राचीन विधि के अनुसार जो मुनि निद्राजयी उपायकुशल, महापराक्रमी, धैर्यसंपन्न, कृतकरण (उस विधि के ज्ञाता), अप्रमादी और अभीरु होते थे, वे ही मृतक के पास बैठकर रात्रिजागरण करते थे।
रात्रि में वे मुनि परस्पर धर्मकथा करते अथवा उपस्थित श्रावकों को धर्मचर्चा सुनाते अथवा स्वयं सूत्र या धार्मिक आख्यानक का स्वाध्याय मधुर और उच्चस्वर से करते थे। वृत्तिकार ने यहां दो पाठान्तरों की सूचना दी है-'भयमाणा और अवसामेमाणा' । ये पाठान्तर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । इनके पीछे एक पुष्ट परंपरा का संकेत है।
__ शव के पास रात्रिजागरण करनेवाला भयभीत न हो। वह अत्यन्त अभय और धैर्यशाली हो तथा उपरोक्त गुणों से युक्त हो।
दूसरा पाठान्तर है 'अवसामेमाणा' । इसका अर्थ है--उपशमन करनेवाला। इसके पीछे रही अर्थ-परंपरा इस प्रकार
शव का परिष्ठापन करने के बाद यदि वह व्यन्तराधिष्ठित होकर दो-तीन बार उपाश्रय में आ जाए तो मुनियों को अपने-अपने तपयोग की वृद्धि करनी चाहिए। इस प्रकार योग-परिवृद्धि करने पर भी वह व्यन्तराधिष्ठित मृतक वहां आए तो मुनि अपने बाएं हाथ में मूत्र लेकर उसका सिंचन करे और कहे-'अरे गुह्यक ! सचेत हो, सचेत हो । मूढ़ मत हो, प्रमाद मत कर।'
इतना करने पर भी वह गुह्यक एक, दो या उपस्थित सभी श्रमणों के नाम बताए तो उन-उन नाम वाले साधुओं को लुंचन करा लेना चाहिए और पांच दिन का उपवास करना चाहिए। जो इतना तप न कर सकें, वे एक, दो, तीन, चार उपवास करें। यह भी न करने पर गण से अलग होकर विहरण करें। उस उपद्रव के निवारण के लिए अजितनाथ और शांतिनाथ का स्तवन करें। यह उपशमन की विधि है।'
५. मृतक के संबंधियों को जताना—यह विधि रही है कि जो मुनि कालगत हुआ है और उसके ज्ञातिजन उस नगर में हैं तो उनको उसकी मृत्यु की सूचना देनी चाहिए। अन्यथा वे ऐसा कह सकते हैं कि हमें बिना पूछे ही आपने शव का परिष्ठापन कैसे कर दिया? वे कलह आदि उत्पन्न कर सकते हैं।
१. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५२४ :
करपायंग? दोरेण बंधिउं पुत्तीए मुंह छाए।
अक्खयदेहे खणणं अंगुलिविच्चे ण बाहिरतो ।। २. (क) बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५२२, ५५२३ :
जितणिदुवायकुसला, ओरस्सबली य सत्तजुत्ता य । कतकरण अप्पमादी, अभीरुगा जागरंति तहिं ।।
जागरणट्ठाए तहिं, अन्नैसि वा वि तत्थ धम्मकहा ।
सुत्तं धम्मकहं बा, मधुरगिरो उच्चसद्देणं । (ख) आवश्यकचूणि, उत्तरभाग, पृष्ठ १०४ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३३५ : पाठान्तरेण "भयमाणत्ति वा,"
उवसामेमाणति । ४. बहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५४४-५५४६ !
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स्थान : ६ टि०२
६. विसर्जित करने के लिए मौन भाव से जाना
निर्हरण के लिए जानेवाले को किसी से बातचीत नहीं करनी चाहिए। इधर-उधर दृष्टि-विक्षेप भी नहीं करना चाहिए।
कालगत मुनि की निर्हरण क्रिया की विधि का विस्तृत उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य', व्यवहारभाष्य और आवश्यकचूणि' में मिलता है । बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार उसका विवरण इस प्रकार है--
मुनि के शव को ले जाने के लिए वहनकाष्ठ और महास्थंडिल (जहां मृतक को परिष्ठापित किया जाता है) का निरीक्षण करना चाहिए । तीन स्थंडिलों का निरीक्षण आवश्यक होता है--
१. गांव के नजदीक, २. गांव के बीच में, ३. गांव से दूर।
इन तीनों की अपेक्षा इसलिए है कि एक के अव्यवहार्य होने पर दूसरा स्थंडिल काम में आ सके। संभव है, देखे हुए स्थंडिल को खेत के रूप में परिवर्तित कर दिया गया हो, अथवा उस क्षेत्र में पानी का जमाव हो गया हो, अथवा वहां हरियाली हो गई हो, अथवा वहां त्रस प्राणियों का उद्भव हो गया हो अथवा वहां नया गाँव बसा दिया हो अथवा वहां किसी सार्थ ने अपना पड़ाव डाल दिया हो—इन सब संभावनाओं के कारण तीन स्थंडिल अपेक्षित होते हैं। एक के अवरुद्ध होने पर दूसरे और दूसरे के अवरुद्ध होने पर तीसरे स्थंडिल को काम में लेना चाहिए। मृतक को ढाई हाथ लम्बे सफेद और सुगंधित वस्त्र से ढंकना चाहिए। उसके नीचे भी वैसा ही एक वस्त्र बिछाना चाहिए। तत्पश्चात् उसको उन वस्त्रों सहित एक डोरी से बांधकर, उस डोरी को ढंकने के लिए तीसरा अति उज्ज्वल वस्त्र ऊपर डाल देना चाहिए। सामान्यतः तीन वस्त्रों का उपयोग अवश्य होना चाहिए और आवश्यकतावश अधिक वस्त्रों का भी उपयोग किया जा सकता है। शव को मलिन वस्त्रों से ढंकने से प्रवचन की अवज्ञा होती है। लोक कहने लगते हैं-'अरे! ये साधु मरने पर भी शोभा प्राप्त कहीं करते।' मलिन वस्त्रों के कारण दो दोष उत्पन्न होते हैं—एक तो जो व्यक्ति उस सम्प्रदाय में सम्यक्त्व ग्रहण करना चाहते हैं, उनका मन उससे हट जाता है और जो व्यक्ति उस संघ में प्रवजित होना चाहते हैं, वे भी उससे दूर हो जाते हैं। अतः शव को अत्यन्त शुक्ल और सुन्दर वस्त्रो से ढंकना चाहिए। जब भी साधु कालगत हुआ हो उसे उसी समय निकालना चाहिए, फिर चाहे रात हो या दिन । लेकिन रात्रि में विशेष हिम गिरता हो, चोरों या हिंसक जानवरों का भय हो, नगर के द्वार बन्द हों, मृतक महाजनों द्वारा ज्ञात हो अथवा किसी ग्राम की ऐसी व्यवस्था हो कि वहां रात्रि में शव को बाहर नहीं ले जाया जाता, मृतक के संबंधियों ने पहले से ऐसा कहा हो कि हमको पूछे बिना मृतक को न ले जाया जाए अथवा मृतक मुनि प्रसिद्ध आचार्य अथवा लम्बे समय तक अनशन का पालन कर कालगत हुआ हो, अथवा मास-मास की तपस्या करने वाला महान् तपस्वी हो तो शव को रात्रि के समय नहीं ले जाना चाहिए।
इसी प्रकार यदि सफेद कपड़ों का अभाव हो, अथवा राजा अपने अन्तःपुर के साथ तथा पुरस्वामी नगर में प्रवेश कर रहा हो अथवा वह भट, भोजिक आदि के विशाल समूह के साथ नगर के बाहर जा रहा हो, उस समय नगर के द्वार लोगों से आकीर्ण रहते हैं, अतः शव को दिन में नहीं ले जाना चाहिए। रात्रि में उसका निर्हरण करना चाहिए।
साधु को कालगत होते ही, जब तक कि वायु से सारा शरीर अकड़ न जाए, उसके हाथ और पैरों को एकदम सीधे लम्बे फैला दें, और मुंह तथा आंखों के पुटों को बंद कर दें।
साधु के शव को देखकर मुनि विषाद न करें किन्तु उसका विधि से व्युत्सर्जन करे। वहां यदि आचार्य हों तो वे सारी विधि का निर्वाह करें। उनके अभाव में गीतार्थ मुनि, उसके अभाव में अगीतार्थ मुनि जिसको मृतक की विधि का पूर्व अनुभव
१. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५४६६-५५६५ । २. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ४२०-४५६ । ३. आवश्यकचूणि, उत्तरभाग, पृष्ठ १०२-१०६ । ४. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५०७ :
आसन्न मज्झ दूरे वाधातठ्ठा तु थंडिले तिन्नि । खेत्तुदय-हरिय-पाणा, णिविट्ठमादी व वाघाए ।
५. बृहत्कल्प के वृत्तिकार ने ‘महानिनाद' का अर्थ महाजनों
द्वारा ज्ञात किया है। किन्तु चूणि तथा विशेषणि में इसका अर्थ महान्निनाद (कोलाहल) किया है-देखो बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५१६, वृत्ति, भाग ५, पृष्ठ १४६३ पर पादटिप्पण।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६: टि०२ हो, उसके अभाव में धैर्य आदि गुणों से संपन्न मुनि से सारी विधि कराई जाए। किन्तु शोक से या भय से विधि में प्रमाद न करे।
शव के पास बैठे मूनि रात्रि जागरण करें जो निद्राजयी, उपायकुशल, शक्तिसंपन्न, धैर्यशाली, कृतकरण, अप्रमादी तथा अभीरु हों। शव के पास बैठकर वे उच्च स्वर से धर्मकथा करें।
मृतक के हाथ और पैरों के अंगूठों को रस्सी से बांधकर उसके मुंह को मुखवस्त्रिका से ढंक दें तथा मृतक के अक्षत देह में उसकी अंगुली को मध्य से छेद डालें। फिर यदि शरीर में कोई व्यन्तर या प्रत्यनीक देवता प्रवेश कर दे तो बाएं हाथ में मूत्र लेकर मृतक के शरीर का सिंचन करते हुए ऐसा कहे - हे गुह्यक ! सचेत हो, सचेत हो। मूढ़ मत बन, प्रमाद मत कर, संस्तारक से मत उठ।
उस समय उस मृत कलेवर में प्रवेश कर कोई दूसरा अपने विकराल रूप से डराए, अट्टहास करे, अथवा भयंकर शब्द करे तो भी उपस्थित मनि उससे भयभीत न हों और विधि से शव का व्युत्सर्ग करें।
शव के परिष्ठापन के लिए नैऋत कोण सबसे श्रेष्ठ है। उसके अभाव में दक्षिण दिशा, उसके अभाव में पश्चिम, उसके अभाव में आग्नेयी (दक्षिण-पूर्व) उसके अभाव में वायवी (पश्चिम-उत्तर), उसके अभाव में पूर्व, उसके अभाव में उत्तर-पूर्व दिशा का उपयोग करे।
इन दिशाओं में परिष्ठापन करने से अनेक हानि-लाभ होते हैं।
नैऋत में परिष्ठापन करने से अन्न-पान और वस्त्र का प्रचर लाभ होता है और समूचे संघ में समाधि होती है। दक्षिण में परिष्ठापन करने से अन्न-पान का अभाव होता है, पश्चिम में करने से उपकरणों का अलाभ होता है, आग्नेयी में करने से साधुओं में परस्पर तू-तू मैं-मैं होती है, वायवी में करने से साधुओं में परस्सर तथा गृहस्थ और अन्य तीथिकों के साथ कलह बढ़ता है, पूर्व में करने से गण-भेद और चारित्र-भेद होता है, उत्तर में करने से रोग बढ़ता है और उत्तर-पूर्व में करने से दूसरा कोई साधु (निकट काल में) मृत्यु को प्राप्त होता है।'
शव को परिष्टापन के लिए ले जाते समय एक मुनि पात्र में शुद्ध पानक ले तथा उसमें चार अंगुल प्रमाण समान रूप से काटे हुए कुश लेकर, पीछे मुड़कर न देखते हुए, स्थंडिल की ओर गमन करे! यदि उस समय दर्भ प्राप्त न हो तो उसके स्थान पर चूर्ण अथवा केशर का उपयोग किया जा सकता है। यदि वहां कोई गृहस्थ हो तो शव को वहां रखकर हाथ-पैर धोएं तथा अन्यान्य विधियों का भी पालन करें, जिससे कि प्रवचन का उड्डाह न हो।
शव को उपाथय से निकालते समय या उसका परिष्ठापन करते समय उसका शिर गांव की ओर करे। गांव की ओर पैर रखने से अमंगल समझा जाता है।
स्थंडिल भूमि में पहुंच कर एक मुनि उस कुश से संस्तारक तैयार करे। वह संस्तारक सर्वत्र होना चाहिए, ऊंचानीचा नहीं होना चाहिए। यदि कुश न मिले तो चूर्ण या नागकेशर के द्वारा अव्यवच्छिन्न रूप से ककार और उसके नीचे तकार बनाए। चूर्ण या नागकेशर के अभाव में किसी प्रलेप आदि के द्वारा भी ऐसा किया जा सकता है। यह विधि संपन्न कर शव को उस पर परिष्ठापित कर और उसके पास रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टक रखने चाहिए। इन यथाजात चिन्हों के न रखने से कालगत साधु मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है तथा चिन्हों के अभाव में राजा के पास जाकर कोई शिकायत कर सकता है कि एक मृत शव पड़ा है ---यह सुनकर राजा कुपित होकर, आसपास के दो-तीन गांवों का उच्छेद भी कर सकता है।
१. बहतकल्पभाष्य, गाथा ५५०५, ५५०६:
दिस अवरदक्षिणा दक्षिणा य अवरा य दक्खिणापुब्वा । अवरुत्तरा य पुवा, उत्तर पुवुत्तरा चेव ।। समाही ब भत्त-पाणे, उवकरणे तुमंतुमा य कलहो य । भेदो गेलन्न वा, चरिमा पुण कड्डए अण्णं ।।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि०२ स्थंडिल भूमि में मृतक का व्युत्सर्जन कर मुनि वहीं कायोत्सर्ग न करे किन्तु उपाश्रय में आकर आचार्य के पास, परिष्ठापन में कोई अविधि हुई हो तो उसकी आलोचना करे।
यदि कालगत मुनि के शरीर में यक्ष प्रविष्ट हो जाए और शव उठ खड़ा हो तो मुनियों को इस विधि का पालन करना चाहिए-यदि शव उपाश्रय में ही उठ जाए तो उपाश्रय को छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार वह यदि मोहल्ले में उठे तो मोहल्ले को, गली में उठे तो गली को, गांव के बीच में उठे तो ग्रामार्द्ध को, ग्रामद्वार में उठे तो गांव को, गांव और उद्यान के बीच में उठे तो मंडल को, उद्यान में उठे तो देशखंड को, उद्यान और स्वाध्याय भूमि के बीच में उठे तो देश को तथा स्वाध्याय भूमि में उठे तो राज्य को छोड़ देना चाहिए।
शव का परिष्ठापन कर गीतार्थ मुनि एक ओर ठहर कर मुहूर्त मात्र प्रतीक्षा करे कि कहीं कालगत मुनि पुनः उठ न जाए।
परिष्ठापन करने के बाद शव के उठ जाने पर मुनि को क्या करना चाहिए-इस विधि के निदर्शन में बृहत्कल्पभाष्य में टीकाकार वृद्धसंप्रदाय का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि--
स्वाध्याय भूमि में शव का परिष्ठापन करने पर यदि वह किसी कारणवश उठे और वहीं पुनः गिर जाए तो मुनि को उपाश्रय छोड़ देना चाहिए। यदि वह उठा हुआ शव स्वाध्याय-भूमि और उद्यान के बीच में गिरे तो निवेसन (मोहल्ले) का त्याग कर दे। यदि उद्यान में गिरे तो उस गृहपंवित (साही) को छोड़ दे। यदि उद्यान और गांव के बीच में गिरे तो ग्रामार्द्ध को छोड़ दे। यदि गांव के द्वार पर गिरे तो गांव को, गांव के मध्य गिरे तो मंडल को, गृहपंक्ति के बीच गिरे तो देशखंड को, निवेसन में गिरे तो देश को और वसति में गिरे तो राज्य को छोड़ दे।
मृतक साधु के उच्चारपात्र, प्रश्रवणपात्र और श्लेष्मपात्र तथा सभी प्रकार के संस्तारकों का परिष्ठापन कर देना चाहिए और यदि कोई बीमार मुनि हो तो उसके लिए इनका उपयोग भी किया जा सकता है।
यदि मुनि महामारी आदि किसी छूत की बीमारी से मरा हो तो, जिस संस्तारक से उसे ले जाया जाए, उसके टुकड़ेटुकड़े कर परिष्ठापन कर दें। इसी प्रकार उसके अन्य उपकरण, जो उसके शरीर छुए गए हों, उनका भी परिष्ठापन कर दें।
यदि साधु की मृत्यु महामारी आदि से न होकर, स्वाभाविक रूप से हुई हो तो मुहूर्त मात्र तक उसके शव को उपाश्रय में ही रखें। गांव के बाहर परिष्ठापित शव को देखने के लिए निमित्तज्ञ मुनि दूसरे दिन जाएं और शुभ-अशुभ का निर्णय करें।
जिस दिशा में मृतक का शरीर शृगाल आदि के द्वारा आकर्षित होता है उस दिशा में सुभिक्ष होता है और उस ओर विहार भी सुखपूर्वक हो सकता है। जितने दिन तक वह कलेवर जिस दिशा में अक्षतरूप से स्थित होता है, उस दिशा में उतने ही वर्षों तक सुभिक्ष होता है तथा पर-चक्र के उपद्रवों का अभाव रहता है। इससे विपरीत यदि उसका शरीर क्षत हो जाता है तो उस दिशा में दुभिक्ष तथा उपद्रव उत्पन्न होते हैं। यदि वह मृतक शरीर सीधा रहता है तो सर्वत्र सुभिक्ष और सुखविहार होता है। यह निमित्त-बोध केवल तपस्वी, आचार्य तथा लम्बे समय के अनशन से कालगत होनेवाले, मुनियों से ही प्राप्त होता है। सामान्य मुनियों के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है।
यदि साधु रात्रि में कालगत हुआ हो तो वहनकाष्ठ की आज्ञा लेने के लिए शय्यातर को जगाए। किन्तु यदि एक ही मुनि शव को उठाकर ले जाने में समर्थ हो तो वहनकाष्ठ की कोई आवश्यकता नहीं रहती। अन्यथा दो, तीन, चार मुनि बहनकाष्ठ से मृतक को ले जाकर पुनः उस वहनकाष्ठ को यथास्थान लाकर रख दे।'
___ व्यवहारभाष्य में स्थंडिल के विषय में जानकारी देते हुए लिखा है कि शिलातल या शिलातल जैसा भूमिभाग प्रशस्त स्थंडिल है । अथवा जिस स्थान में गाएं बैटती हों, बकरी आदि रहती हों, जो स्थान दग्ध हो, जिस वृक्ष-समूह के नीचे बड़े-बड़े सार्थ विश्राम करते हों, वैसे स्थान स्थंडिल के योग्य होते हैं।'
१. बृहत्कल्पभाष्य, गाया ५५४३ वृत्ति, भाग ५, पन्न १४६८ । २. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५४६६-५५६५। ३. व्यवहारभाष्य, ७।४४१:
सिलायलं पसत्थं तु जत्थत्याविफासुयं।झाम थंडिलमादिच्चबिबादीण समीपे वा ।।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि० ३
कहीं-कहीं बहुत समय से आचीर्ण कुछ परंपराएं होती हैं । कुछ गांव या नगरों में ऐसी मर्यादा होती है कि अमुक प्रदेश में ही मृतक का दाह-संस्कार होना चाहिए। कहीं वर्षा ऋतु में नदी के प्रवाह से स्थंडिल- प्रदेश बह जाता है, वहां स्थंडिल- प्रदेश की सुविधा नहीं होती । आनदपुर में उत्तरदिशा में ही मृत मुनियों का परिष्ठापन किया जाता था । '
इन सभी स्थानों में उस-उस मर्यादा का पालन करने में भी विधि का अपक्रमण नहीं होता। किसी गांव में सारा क्षेत्र यदि खेतों में विभक्त कर दिया गया, और वहां खेतों की सीमा में परिष्ठापन की आज्ञा न मिले तो मुनि शव को राजपथ में अथवा दो गांवों के बीच की सीमा में परिष्ठापित करे। यदि इन स्थानों का अभाव हो तो सामान्य श्मशान में मृतक को ले जाए। और यदि वहां श्मशान पालक द्वार परही शव को रोक ले और अपना 'कर' मांगे तो वहां से हटकर ऐसे श्मशान में जाएं जहां अनाथ व्यक्तियों का दाह संस्कार होता हो । यदि ऐसा स्थान न मिले तो पुनः नगर के उसी श्मशान पर जाए और श्मशान - पालक को उपदेश द्वारा समझाए। यदि वह न माने तो उसे मृतक के वस्त्र देकर शान्त करे। फिर भी यदि वह प्रवेश का निषेध करे तो नए वस्त्र लाने के लिए गांव में जाए। नए वस्त्र न मिलने पर राजा के पास जाकर यह शिकायत करे कि 'आपका श्मशानपालक मुनि का दाह संस्कार करने नहीं देता। हम अकिंचन हैं। उसे 'कर' कैसे दें ? यदि राजा कहे कि श्मशानपालन अपने कर्त्तव्य में स्वतंत्र है । वह जैसा कहे वैसा आप करें, तो मुनि अस्थंडिल हरितकाय आदि के ऊपर धर्मास्तिकाय की कल्पना कर मृतक के शरीर का परिष्ठापन कर दे ।
साधु यदि विद्यमान हों तो शव को साधु ही ले जाएं। उनके न होने पर मृतक को गृहस्थ ले जाएं अथवा बैलगाड़ी द्वारा उसे श्मशान तक पहुंचाए अथवा मल्लों के द्वारा वह कार्य सम्पन्न कराएं। यदि पाण-चांडाल आदि शव को उठाते हैं। तो प्रवचन का उड्डाह होता है।
एक साधु मृतक को वहन करने में असमर्थ हो तो गाँव में दूसरे संविग्न असांभोगिक मुनि हों तो उनकी सहायता ले । उनके अभाव में पार्श्वस्थ मुनियों का या सारूपिक या सिद्धपुत्र या श्रावकों का सहयोग ले । यदि ये न मिलें तो स्त्रियों की सहायता ले। इनका योग न मिलने पर मल्लगण, हस्तिपालगण, कुंभकारगण से सहयोग ले । यदि यह भी संभव न हो तो भोजिक ( ग्राम- महत्तर, ग्रामपंच) से सहयोग मांगे । उसके निषेध करने पर संवर ( कचरा उठाने वाले), नख-शोधक, स्नानकारक और क्षालप्रक्षालकों से सहयोग ले । यदि वे बिना मूल्य मृतक को ढोने से इन्कार करें तो उन्हें वस्त्रों से संतुष्ट कर अपना कार्य संपन्न कराएं।
इस प्रकार परिष्ठापन विधि को संपन्न कर मुनि कालगत साधु के उपकरण ले आचार्य के पास आए और उन्हें सारी चीज सौंप दे। आचार्य उन चीजों को देखकर पुनः उसी मुनि को दें तब मुनि 'मस्तकेन वंदे' इस प्रकार कहता हुआ आचार्य के वचन को स्वीकार करे ।
मुनि शव को जिस मार्ग से ले जाए उसी मार्ग से लौटकर न आए किन्तु दूसरा मार्ग ले । स्थंडिल भूमि में अविधि परिष्ठापन का कायोत्सर्ग न करे किन्तु गुरु के पास आकर कायोत्सर्ग करे । स्वाध्याय और तप की मार्गणा करे। शव का परिष्ठापन कर लौटते समय प्रदक्षिणा न दे। मृतक के उच्चार आदि के पात्रों का विसर्जन करे। दूसरे दिन यह जानने के लिए शव को देखने जाए कि उसकी गति शुभ हुई है या अशुभ तथा शव के लक्षण कैसे हैं ।
३. सर्वभावेन (सूत्र ४)
नंदीसूत में केवलज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों का विषय समान बतलाया गया है। दोनों में अन्तर इतना सा है कि
१. व्यवहारभाष्य ७ । ४४२ वृत्ति - केषुचित् क्षेत्रेषु दिक्षु बहुकालाचीर्णाः कल्पा भवन्ति । यथा आनन्दपुरे उत्तरस्यां दिशि संयताः परिष्ठापयन्ति ।
२. व्यवहार, उद्देशक ७, भाष्यगाथा ४२०-४५६ ।
३. व्यवहार, उद्देशक ७, भाष्यगाथा ४२०, वृत्ति पत्र ७२ ।
४. नंदी सूत्र ३३ दव्वओ णं केवलनाणी सव्वदव्वाई जाणइ
पासइ, खेत्तओ णं केवलनाणी सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ, कालओ णं केवलनाणी सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावओ णं केवलनाणी सव्वे भावे जाणइ पासइ ।
नंदी सूत्र १२७ : दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सन्वदन्बाइ जाणइ पासइभावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सब्वे भावे जाणइ पासइ ।
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ari (स्थान)
६६१
स्थान ६ : टि०४-८
केवली प्रत्यक्षज्ञान से जानता है और श्रुतज्ञानी परोक्ष ज्ञान से। केवली द्रव्य को सब पर्यायों से जानता है और श्रुतकेवली कुछेक पर्यायों से जानता है। जो 'सर्वभावेन' किसी एक वस्तु को जानता है, वह सब कुछ जान लेता है । आचारांग में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है—
जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।। '
इसी आशय का एक श्लोक न्यायशास्त्र में उपलब्ध होता है
४. तारों के आकारवाले ग्रह ( सू०७ )
जो तारों के आकार वाले ग्रह हैं, उन्हें ताराग्रह कहा जाता है। ग्रह नौ हैं—सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुद्ध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतू । इनमें सूर्य, चन्द्र और राहु ये तीन ग्रह तारा के आकार वाले नहीं हैं। शेष छह ग्रह तारा के आकार वाले हैं। इसलिए उन्हें ताराग्रह' कहा गया है ।"
५. ( सू० १२)
'एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावा: सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।।
६. ( सू० १३ )
देखें – दसवेआलिय ४ । सूत्र ८ का टिप्पण ।
मिलाइए - उत्तरज्झयणाणि ३।७-११ ।
७. ( सू० १४ )
इन्द्रियां पांच हैं। उनके विषय नियत हैं, जैसे—श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द, चक्षु इन्द्रिय का रूप घ्राण इन्द्रिय का गन्ध, जिह्वन्द्रिय का रस और स्पर्शनेन्द्रिय का स्पर्श । नोइन्द्रिय- मन का विषय नियत नहीं होता। वह 'सर्वार्थग्राही' होता है। तत्त्वार्थ में उसका विषय 'श्रुत' बतलाया है' । श्रुत का अर्थ है शब्दात्मक ज्ञान । इसका तात्पर्य है कि मन सभी इन्द्रियों द्वारा गृहीत पदार्थों का ज्ञान करता है तथा शब्दानुसारी ज्ञान भी कर सकता है ।
प्रस्तुत सूत्र में इन्द्रियों के विषय निर्दिष्ट नहीं हैं।
८. चारण (सू० २१)
चारण का अर्थ है -गमन और आगमन की विशेष लब्धि से सम्पन्न मुनि । वे मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं१. जंघाचारण- जिन्हें चारित्र और तप की विशेष आराधना के कारण गमनागमन को लब्धि प्राप्त होती है, वे जंघाचारण कहलाते हैं ।
२. विद्याचारण- जिन्हें विद्या की आराधना के कारण गमनागमन की लब्धि प्राप्त होती है वे विद्याचारण कहलाते हैं ।
चारणों के कुछ अन्य प्रकारों का उल्लेख भी मिलता है। जैसे
१. आयारो ३।७४ ।
२. स्थानांगवृत्ति पत्र ३३७ तारकाकारा ग्रहास्तारकग्रहाः, लोके
हि नव ग्रहाः प्रसिद्धाः तत्र च चन्द्रादित्यराहूणामतारकारत्वादन्ये पट् तथोक्ता इति ।
३. तत्त्वार्थ सूत्र २।२१ : श्रुतमनिन्द्रियस्य ।
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ठाणं (स्थान)
६६२
स्थान ६: टि०६
१. व्योमचारण-पर्यंकासन में बैठकर अथवा कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित होकर पैरों को हिलाए-डुलाए बिना आकाश में गमन करने वाले।
२. जलचारण --जलाशय के जीवों को कष्ट पहुंचाए बिना जल पर भूमि की तरह गमन करने वाले। ३. जंघाचारण-भूमि से चार अंगुल ऊपर गमन करने वाले। ४. पुष्पचारण--पुष्प के दल का आलंबन लेकर गमन करने वाले। ५. श्रेणिचारण-----पर्वत श्रेणि के आधार पर ऊपर-नीचे गमन करने वाले। ६. अग्निशिखाचारण-अग्नि की शिखा को पकड़ कर अपने को बिना जलाए गमन करने वाले। ७. धूमचारण-तिरछी या ऊंची गतिवाले धुएं का आलंबन ले तिरछी या ऊंची गति करने वाले। ८. मर्कटतन्तुचारण-मकड़ी के जाल का सहारा ले गमन करने वाले ।
६. ज्योतिरश्मिचारण-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि में से किसी की भी किरणों का आलंबन ले पृथ्वी की भांति अन्तरिक्ष में चलने वाले।
१०. वायुचारण--वायु के सहारे चलने वाले। ११. नीहारचारण-हिमपात का सहारा लेकर निरालम्बन गति करने वाले। १२. जलदचारण-बादलों का आलम्बन ले गति करने वाले। १३. अवश्यायचारण —ओस का आलम्बन ले गति करने वाले। १४. फलचारण-फलों का आलम्बन ले गति करने वाले।
तत्त्वार्थ राजवार्तिक में क्रिया विषयक ऋद्धि दो प्रकार की मानी है---चारणत्व और आकाशगामित्व। जल, जंया पुष्प आदि का आलम्बन लेकर गति करना चारणत्व है और आकाश में गमन करना आकाशगामित्व है।
श्वेताम्बर आचार्यों ने ये भेद नहीं दिए हैं। किन्तु चारण के भेद-प्रभेदों में ये दोनों विभाग समा जाते हैं।
६. संस्थान (सू० ३१)
इसका अर्थ है--शरीर के अवयवों की रचना, आकृति । ये छह हैं। वृत्तिकार के अनुसार इनकी व्याख्या इस प्रकार है----
१. समचतुरस्र-शरीर के सभी अवयव जहां अपने-अपने प्रमाण के अनुसार होते हैं, वह समचतुरस्र सस्थान है। अस्र का अर्थ है-कोण। जहां शरीर के चारों कोण समान हों वह समचतुरस्र है।
२. न्यग्रोधपरिमण्डल-न्यग्रोध [वट] वृक्ष की भांति परिमण्डल संस्थान को न्यग्रोधपरिमण्डल कहा जाता है। न्यग्रोध [वट] का ऊपरी भाग विस्तृत अवयवों वाला होता है, किन्तु नीचे का भाग वैसा नहीं होता। उसी प्रकार न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान वाले व्यक्ति के नाभि के ऊपर के अवयव विस्तृत अर्थात् प्रमाणोपेत और नीचे के अवयव प्रमाण से अधिक या न्यून होते हैं।
३. सादि-इसमें दो शब्द है.-स+आदि। आदि का अर्थ है-नाभि के नीचे का भाग। जिस शरीर में नाभि के नोच का भाग प्रमाणोपेत है उस संस्थान का नाम सादि संस्थान है।
४. कुब्ज-जिस शरीर रचना में पैर, हाथ, शिर और गरदन प्रमाणोपेत नहीं होते, शेष अवयव प्रमाणयुक्त होते हैं, उसे कुब्ज संस्थान कहा जाता है।
५. वामन-जिस शरीर रचना में पैर, हाथ, शिर और गरदन प्रमाणोपेत होते हैं, शेष अवयव प्रमाण युक्त नहीं होते, उसे वामन संस्थान कहा जाता है।
१. प्रवचनसारोद्धार, द्वार ६८, वृत्ति पत्र १६८, १६६ । २. तत्त्वार्थ राजवातिक, ३३६, वृत्ति पृष्ठ २०२ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३३६ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ :टि०१०-११
६. हुंडक—जिस शरीर रचना में कोई भी अवयव प्रमाणोपेत नहीं होता, उसे हुंडक संस्थान कहा जाता है। तत्त्वार्थवातिक में इनकी व्याख्या कुछ भिन्न प्रकार से की गई है, जैसे
१. समचतुरस्र-जिस शरीर-रचना में ऊर्ध्व, अधः और मध्यभाग सम होता है उसे समचतुरस्रसंस्थान कहा जाता है। एक कुशल शिल्पी द्वारा निर्मित चक्र की सभी रेखाएं समान होती हैं, इसी प्रकार इस संस्थान में सब भाग समान होते हैं।
२. न्यग्रोधपरिमण्डल-जिस शरीर-रचना में नाभि के ऊपर का भाग बड़ा [विस्तृत तथा नीचे का भाग छोटा होता है उसे न्यग्रोधपरिमण्डल कहा जाता है। इसका यह नाम इसीलिए दिया गया है कि इस संस्थान की तुलना न्यग्रोध (वट) वृक्ष के साथ होती है।
३. स्वाति—इसमें नाभि के ऊपर का भाग छोटा और नीचे का बड़ा होता है। इसका आकार बल्मीक की तरह होता है।
४. कुब्ज-जिस शरीर-रचना में पीठ पर पुद्गलों का अधिक संचय हो, उसे कुब्ज संस्थान कहते हैं। ५. वामन–जिसमें सभी अंग-उपांग छोटे हों, उसे वामन संस्थान रहते हैं। ६. हण्ड-जिसमें सभी अंग-उपांग हुण्ड की तरह संस्थित हों, उसे हुण्ड संस्थान कहते हैं।
इनमें समचतुरस्र और न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानों की व्याख्या भिन्न नहीं है। तीसरे संस्थान का नाम और अर्थदोनों भिन्न हैं । अन्तिम तीनों संस्थानों के अर्थ दोनों व्याख्याओं में भिन्न हैं। राजवार्तिक की व्याख्या स्वाभाविक लगती है।
१०, ११. (सू० ३२, ३३)
प्रस्तुत सूत्रों में आत्मवान् और अनात्मवान्--ये दोनों शब्द विशेष विमर्शणीय हैं। प्रत्येक प्राणी आत्मवान् होता है, किन्तु यहाँ आत्मवान् विशेष अर्थ का सूचक है। जिस व्यक्ति को आत्मा उपलब्ध हो गई है, अहं विसर्जित हो गया है, वह आत्मवान् है।
साधना के क्षेत्र में दो तत्त्व महत्त्वपूर्ण होते हैं१. अहं का विसर्जन। २. ममकार का विसर्जन ।
जिस व्यक्ति का अहं छूट जाता है, उसके लिए ज्ञान, तप, लाभ, पूजा-सत्कार आदि-आदि विकास के हेतू बनते हैं। वह आत्मवान् ब्यक्ति इन स्थितियों में सम रहता है।
अनात्मवान् व्यक्ति अहं को विसर्जित नहीं कर पाता। उसे जैसे-जैसे लाभ या पूजा-सत्कार मिलता रहता है, वैसेवैसे उसका अहं बढ़ता है और वह किसी भी स्थिति का अंकन सम्यक नहीं कर पाता। ये सभी स्थितियाँ उसके विकास में बाधक होती हैं। अपने अहं के कारण वह दूसरों को तुच्छ समझने लगता है।
१. अवस्था या दीक्षा-पर्याय के अहं से उसमें विनम्रता का अभाव हो जाता है। २. परिवार के अहं से बह दूसरों को हीन समझने लगता है। ३. श्रुत के अहं से उसमें जिज्ञासा का अभाव हो जाता है। ४. तप के अहं से उसमें क्रोध की मात्रा बढ़ती है। ५. लाभ के अहं से उसमें ममकार बढ़ता है। ६. पूजा-सत्कार के अहं से उसमें लोकैपणा बढ़ती है।
१२, १३. (सू० ३४, ३५)
वृत्तिकार ने जात्यार्य का अर्थ विशुद्धमातृक [जिसका मातृपक्ष विशुद्ध हो] और कुल-आर्य का अर्थ विशुद्ध-पितृक
१. तत्त्वार्थवात्तिक पृष्ठ ५७६, ५७७ ।
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स्थान ६:टि०१३ [जिसका पितृपक्ष विशुद्ध हो] किया है । ऐतिहासिक दृष्टि से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में दो प्रकार की व्यवस्थाए रही हैं—मातृसत्ताक और पितृसत्ताक । मातृसत्ताक व्यवस्था को 'जाति' और पितृसत्ताक व्यवस्था को 'कुल' कहा गया है।
नागों की संस्था मातृसत्ताक थी। वैदिक आर्यों के कुछ समूहों में मातृसत्ताक व्यवस्था विद्यमान थी। ऋग्वेद में वरुण, मित्र, सविता, पूषन आदि के लिए 'आदित्य' विशेषण मिलता था। अदिति कुछ बड़े देवों की माता थी। यह भी मातृसत्ताक व्यवस्था की सूचक है।
ऋग्वेद में पितृसत्ताक व्यवस्था भी निर्मित होने लगी थी। दक्षिण के केरल आदि प्रदेशों में आज भी मातृसत्ताक व्यवस्था विद्यमान है।
इतिहासकारों की मान्यता है कि देवी-पूजा मातृसत्ताक व्यवस्था की प्रतीक है। मातृपूजा की संस्था चीन से योरोप तक फैली हुई थी। ईसाई धर्म में मेरी की पूजा भी इसी की प्रतीक है।
यह भी माना जाता है कि वैदिक गृहसंस्था पितृप्रधान थी और अवैदिक गृहसंस्था मातृप्रधान। प्रस्तुत सूत्रों (३४-३५) में छह मातृसत्ताक जातियों तथा छह पितृसत्ताक कुलों का उल्लेख है।
प्रस्तुत सूत्र (३४) में अंब? आदि छह जातियों को इभ्य जाति माना है। जो व्यक्ति इभ---हाथी रखने में समर्थ होता है, वह इभ्य कहलाता है। जनश्रुति के अनुसार इनके पास इतना धन होता था कि उसकी राशि में सूड को ऊंची किया हुआ हाथी भी नहीं दीख पाता था।
अंबष्ठ—इनका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण [२१] में भी हुआ है। एरियन [६३१५] इन्हें अम्बस्तनोई के नाम से सम्बोधित करता है। ग्रीक आधारों से पता चलता है कि चिनाब के निचले हिस्से पर ये बसे हुए थे।
वृत्तिकार ने कुल-आर्यों का विवरण इस प्रकार किया है
उग्र-----भगवान् ऋषभ ने आरक्षक वर्ग के रूप में जिनकी नियुक्ति की थी, वे उग्र कहलाए। उनके वंशजों को भी उग्र कहा गया है।
भोज-जो गुरु स्थानीय थे वे तथा उनके वंशज। राजन्य-जो मित्र स्थानीय थे वे तथा उनके वंशज । ईक्ष्वाकु--भगवान् ऋषभ के वंशज । ज्ञात' -भगवान् महावीर के वंशज । कौरव-भगवान् शान्ति के वंशज। वृत्तिकार ने यह भी बताया है कि उग्र आदि के अर्थ लौकिक रूढि से जान लेने चाहिए।
सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य में पित्रन्वय को जाति और मात्रन्वय को कुल माना है। उन्होंने जाति-आर्य में ईक्ष्वाकु, विदेह, हरि, अम्बष्ठ, ज्ञात, कुरु, बुम्वनाल [बुचनाल], उग्र, भोग [भोज] और राजन्य आदि को माना है तथा कुल-आर्य में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव के वंशजों को गिनाया है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४० : जात्यार्याः विशुद्धमातृका इत्यर्थः,."
कुल पैतृकः पक्षः। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४० : इभमहन्तीतीभ्याः, यद् द्रव्यस्तू
पान्तरित उच्छ्रितकदलिकादण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति
श्रुतिः । ३. मैकक्रिडिल, पृष्ठ १५५ नो० २ । ४. देखें-दशवकालिक रा८ का टिप्पण।
५. 'नाय' का संस्कृत रूपान्तर 'ज्ञात' किया जाता है। हमारे मत
में वह 'नाग' होना चाहिए । भगवान् महावीर 'नाग' वंश में उत्पन्न हुए थे। इसके पूरे विवरण के लिए देखें हमारी पुस्तक - 'अतीत का अनावरण'---पृष्ठ १३१-१४३। स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४० : कुल पंतक: पक्षः, उग्रा आदिराजेनारक्षकत्वेन ये व्यवस्थापितास्तद्वंश्याश्च, ये तु गुरुत्वेन ते भोगास्तद्वेश्याश्च ये तु वयस्थतयाऽचरितास्ते राजन्यास्तद्वंश्याश्च इक्ष्वाकवः प्रथमप्रजापतिवंशजा: ज्ञाताः कुरवश्च महावीर.
शांतिजिनपूर्वजाः: अथवैते लोकरूढितो ज्ञयाः। ७. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, ३॥१५, भाष्य तथा वृत्ति ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि० १४-१६
तत्त्वार्थराजवातिक में भी ईक्ष्वाकु जाति और भोज कुल में उत्पन्न व्यक्तियों को जाति-आर्य माना है। उन्होंने अद्धिप्राप्त आर्यों की गिनती में जाति-आर्य को माना है, किन्तु कुल-आर्य के विषय में कुछ नहीं कहा है।
१४. (सू०३७)
प्रस्तुत सूत्र में छह दिशाओं का उल्लेख है। इसमें विदिशाओं का ग्रहण नहीं किया गया है। वृत्तिकार ने इस अग्रहण के तीन संभावित कारण माने हैं -
१. विदिशाएं दिशाएं नहीं हैं। २. जीवों की गति आदि सभी प्रवृत्तियां इन छह दिशाओं में ही होती हैं। ३. यह छठा स्थान है, इसलिए छह दिशाओं का ही ग्रहण किया गया है।
१५. समुद्घात (सू० ३६)
विशेष विवरण के लिए देखें-७।१३८,८।११० ।
१६, १७. (सू० ४१, ४२)
विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ १६५, १६६ ।
१८, १६. (सू० ४५, ४६)
उत्तराध्ययन २६।२५, २६ में प्रतिलेखना की विधि और दोषों का उल्लेख है। यहाँ उनको प्रमाद प्रतिलेखना और अप्रमाद प्रतिलेखना के रूप में समझाया गया है।
विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि, भाग १, पृष्ठ ३५३, ३५४ । उत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ १६४, १६५ ।
२०-२३. (सू० ६१-६४)
सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान के चार प्रकार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। प्रस्तुत चार सूत्रों (६१-६४) में एक-एक के छह-छह प्रकार बतलाए हैं, किन्तु उनके प्रतिपक्षी विकल्पों का उल्लेख नहीं है। धारणा के छह प्रकारों में, 'क्षिप्र' और 'ध्रुव' के स्थान पर 'पुराण' और 'दुर्धर' का उल्लेख है।
तत्त्वार्थ सूत्र की श्वेताम्बरीय भाष्यानुसारिणी टीका में अवग्रह आदि के बारह-बारह प्रकार किए हैं। इस प्रकार उन चारों भेदों के कुल ४८ प्रकार होते हैं।
तत्त्वार्थ (दिगम्बरीय परम्परा) में 'असंदिग्ध' और 'संदिग्ध' के स्थान पर 'अनुक्त' और 'उक्त' का निर्देश है।' तत्त्वार्थ (श्वेताम्बरीय परम्परा) में असंदिग्ध और संदिग्ध ही उल्लिखित है।
१. तत्त्वार्थराजबतिक, ३।३६, वृत्ति। २. स्यानांगवृत्ति, पत्र ३४१ : विदिशो न दिशो विदिक्त्वादिति
षडेवोक्ताः, अथवा एभिरेव जीवानां वक्ष्यमाणा गतिप्रभृतयः पदार्थाः प्रायः प्रवर्त्तन्ते, षट्स्थानकानुरोधेन वा विदिशो न विवक्षिता पडेव दिश उक्ता इति ।
३. तत्त्वार्थ, १।१६, भाष्यानुसारिणी टीका, पृष्ठ ८४ । ४. वही, १।१६ : बहुबहुविधक्षिप्रानि:श्रितानुक्त ध्रुवाणां सेत
राणाम् । ५. वही, १।१६ : बहुबहुविधक्षिप्रानि:श्रितासन्दिग्ध ध्रुवाणां सेत
राणाम् ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि० २३
यन्त्र सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष
अवग्रह
ईहा
अवाय
धारणा
१. क्षिप्र-अक्षिप्र २. बहु---अबहु ३. बहुविध ...अबहुविध ४. ध्रुव-अध्रुव ५. अनिधित—निश्रित ६. असंदिग्ध–संदिग्ध
१. क्षिप्र—अक्षित २. बहु—अबहु ३. बहुविध-अबहुविध ४. ध्रुव-अध्रुव ५. अनिश्रित—निथित ६. असंदिग्ध-संदिग्ध
१. क्षिप्र--अक्षिप्र २. बहु-अबहु ३. बहुविध-अबहुविध ४. ध्रुव-अध्रुव ५. अनिधित-निश्रित ६. असंदिग्ध-संदिग्ध
१. बहु-अबहु २. बहुविध-अबहुविध ३. पुराण—अपुराण ४. दुर्द्धर—अदुर्द्धर ५. अनिश्रित—निश्रित ६. असंदिग्ध--संदिग्ध
पाव
१. क्षिप्र-शीघ्रता से जानना। २. बहु-अनेक पदार्थों को एक-एक कर जानना।
व्यवहारभाष्य के अनुसार इसका अर्थ है---पांच, छह अथवा सात सौ ग्रन्थों (श्लोकों) को एक बार में ही ग्रहण कर लेना।
३. बहुविध-अनेक पदार्थों को अनेक पर्यायों को जानना।
व्यवहारभाष्य के अनुसार इसका अर्थ है—अनेक प्रकार से अवग्रहण करना। जैसे--स्वयं कुछ लिख रहा है; साथसाथ दूसरे द्वारा कथित वचनों का अवधारण भी कर रहा है तथा वस्तुओं को गिन रहा है और साथ-साथ प्रवचन भी कर रहा है। ये सभी प्रवृत्तियां एक साथ चल रही हैं।
इसका दूसरा अर्थ है-अनेक लोगों द्वारा उच्चारित तथा अनेक वाद्यों द्वारा दादित अनेक प्रकार के शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप से ग्रहण करना।
वर्तमान में सप्तसंधान नामक अवधान किया जाता है। उसमें अवधानकार के समक्ष तीन व्यक्ति तथा दो व्यक्ति दोनों पावों में और दो व्यक्ति पीछे खड़े होते हैं। सामने वाले तीन व्यक्ति भिन्न-भिन्न चीजें दिखाते हैं; एक पार्श्व वाला एक शब्द बोलता है, दूसरे पार्श्व वाला तीन अंकों की एक संख्या कहता है; पीछे खड़े दो व्यक्ति अवधानकार के दोनों हाथों में दो वस्तुओं का स्पर्श करवाते हैं। ये सातों क्रियाएं एक साथ होती हैं।
४. ध्रुव-सार्वदिक एकरूप जानना ! ५. अनिश्रित-बिना किसी हेतु की सहायता लिए जानना।
व्यवहारभाष्य में इसका अर्थ है-जो न पुस्तकों में लिखा गया है और जो न कहा गया है, उसका अवग्रहण करना।
६. असंदिग्ध-निश्चित रूप से जानना।
१. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २७८ :
"बहुग पुण पंच व छस्सत्त गंथसया।। २.३. वही, भाष्यगाथा २७६ :
बहुहाणेगपयारं जह लिहति व धारए गणेइ वि या।
अक्खाणगं कहेइ सहसमूहं व गविहं । ४. वही, भाष्यगाथा २८० :
"" अणिस्सियं जन्न पोत्थए लिहिया।
अणभासियं च.........
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ठाणं (स्थना)
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स्थान ६ : टि० २४-२६
२४, २५. (सू० ६५, ६६)
विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ २५१-२८५।
२६. (सू०६८)
प्राचीन मान्यता के अनुसार ये छह शूद्र कहलाते हैं'-- १. अल्प, २. अधम, ३. वैश्या, ४. क्रूरप्राणी, ५. मधुमक्खी , ६. नटी।
वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र में क्षुद्र का अर्थ अधम किया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा तेजस्कायिक और वायुकायिक प्राणियों को अधम मानने के दो हेतु हैं....
१. इनमें देवताओं का उत्पन्न न होना। २. दूसरे भव में सिद्ध न हो पाना। सम्मच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों को अधम मानने के दो हेतु हैं-- १. इनमें देवताओं का उत्पन्न न होना। २. अमनस्क होने के कारण पूर्ण विवेक का न होना।' वाचनान्तर के अनुसार क्षुद्र प्राणी निम्न छह प्रकार के होते हैं१. सिंह, २. व्याघ्र, ३. भेडिया, ४. चीता, ५. रीछ, ६. जरख ।
२७. (सू० ६६)
विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ २६६-२६६ ।
२८-२९. (सू० ७०-७१)
नरक पृथिवियां सात हैं। उनमें क्रमशः १३, ११, ६, ७, ५, ३ और एक प्रस्तट हैं। इस प्रकार कुल ४६ प्रस्तट हैं । इन नरक पृथिवियों में क्रमश: इतने ही सीमन्तक आदि गोल नरकेन्द्रक हैं। सीमन्तक के चारों दिशाओं में ४६ नरकावली और विदिशाओं में ४८ नरकावली हैं। सारे प्रस्तट ४६ हैं। प्रत्येक प्रस्तट की दिशा और विदिशा-उभयतः एक-एक नरक की हानि करने से सातवीं पृथ्वी में चारों दिशाओं में केवल एक-एक नरक और विदिशा में कुछ भी शेष नहीं रहता।
सीमन्तक की पूर्व दिशा में सीमन्तकप्रभ, उत्तर में सीमन्तक मध्यम, पश्चिम में सीमन्तकावर्त्त और दक्षिण में सीमन्तकावशिष्ट नरक है।
सीमन्तक की अपेक्षा से चारों दिशाओं में तृतीय आदि नरक और प्रत्येक आवलिका में विलय आदि नरक होते हैं।
इस सूत्र में वर्णित लोल आदि छह नरक आवलिकागत नरकों में गिने गए हैं। वृत्तिकार के कथनानुसार यह उल्लेख 'विमाननरकेन्द्र' ग्रन्थ में है। उसके अनुसार लोल और लोलुप–ये दोनों आवलिका के अन्त में हैं; उद्दग्ध, निर्दग्ध-ये दोनों
१. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३४७ : अल्पमधमं पणस्त्रीं क्रूरं सरघां नटी
व षट् क्षुद्वान् । २. वही, पन ३४७ : परमिह क्षुद्रा:-अधमाः । ३. वही, पन ३४७ : अधमत्वं च विकलेन्द्रियतेजोवायूनामनन्तर
भवे सिद्धिगमनाभावाद् तथा एतेषु देवानुत्पत्तेषच ।
४. वही, पन ३४७ : सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियातिरश्चां चाधमत्वं तेषु
देवानुत्पत्तेः, तथा पञ्चेन्द्रियत्वेऽप्पमनस्कतया विवेकाभावेन निर्गुणत्वादिति। ५. वही, पन ३४७ : वाचनान्तरे तु सिंहाः व्याघ्रा वृका दीपिका
ऋक्षास्तरक्षा इति क्षुद्रा उक्ताः क्रूरा इत्यर्थः ।
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स्थान ६ : टि० ३०-३१
सीमन्तकप्रभ से बीसवें और इक्कीसवें नरक हैं; जरक और प्रजरक-ये दोनों सीमन्तकप्रभ से पैतीसवें और छत्तीसवें नरक हैं। ये सारे नरक पूर्व दिशा की आवलिका में ही हैं।
उत्तरदिशा की आवलिका में-लोलमध्य और लोलुपमध्य । पश्चिमदिशा की आवलिका में-लोलावत और लोलुपावर्त । दक्षिणदिशा की आवलिका में--लोलावशिष्ट और लोलुपावशिष्ट ।
चौथी नरकपृथ्वी में सात प्रस्तट और सात नरकेन्द्रक हैं। वृत्तिकार ने संग्रहगाथा का उल्लेख कर उनके नाम इस प्रकार दिए हैं-आर, मार, नार, ताम्र, तमस्क, खाडखड और खण्डखड ।
प्रस्तुत सूत्र में छह नाम उल्लिखित हैं-आर, वार, मार, रौर, रौरुक और खाडखड। ये नाम संग्रहगाथागत नामों से भिन्न-भिन्न हैं । छह नाम देने का कारण सम्भवत यह है कि ये छह अत्यन्त निकृष्ट हैं।
वृत्तिकार के अनुसार आर, मार और खांडखड-ये तीन नरकेन्द्रक हैं। कई बार, रौर और रोरुक को प्रकीर्णक मानते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि ये तीन भी नरकेन्द्रक हों, जो नामान्तर से उल्लिखित हुए हैं।'
३० (सू० ७२)
वैमानिक देवों के तीन भेद हैंकल्प देवलोक [१२ देवलोक] प्रैवेयक [ ६ देवलोक] अनुत्तर [५ देवलोक] इन सब में कुल ६२ विमान प्रस्तट हैं
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११-१२ ग्रेवेयक अनुत्तर
कुल
प्रस्तुतसूत्र में पांचवें देवलोक के छह विमान-प्रस्तटों का उल्लेख है।
३१-३३. (सू०७३-७५)
नक्षत्र-क्षेत्र के तीन भेद हैं१. समक्षेत्र---चन्द्रमा द्वारा तीस मुहर्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र-क्षेत्र [आकाश-भाग] । २. अर्द्धसमक्षेत्र–चन्द्रमा द्वारा १५ मुहूर्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र-क्षेत्र।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४८ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४६ ।
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३. द्वयर्द्ध समक्षेत्र–चन्द्रमा द्वारा ४५ मुहूर्त्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र-क्षेत्र ।
समक्षेत्र में भोग में आने वाले छह नक्षत्र' चन्द्र द्वारा पूर्व भाग - अग्र से सेवित होते हैं । चन्द्र इन नक्षत्रों को प्राप्त किए बिना ही इनका भोग करता है। ये चन्द्र के अग्रयोगी माने जाते हैं । अर्द्धसमक्षेत्र में भोग में आने वाले छह नक्षत्र चन्द्र द्वारा पहले तथा पीछे सेवित होते हैं। ये चन्द्र के समयोगी माने जाते हैं ।
लोकश्री सूत्र में 'भरणी' नक्षत्र के स्थान पर 'अभिजित् ' नक्षत्र का उल्लेख है । '
डेढ समक्षेत्र के नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त्त तक चन्द्र के साथ योग करते हैं। ये नक्षत्र चन्द्र द्वारा आगे-पीछे दोनों ओर से भोगे जाते हैं ।
वृत्तिकार ने यहां एक संकेत देते हुए बताया है कि निर्धारित क्रम के अनुसार नक्षत्रों द्वारा युक्त होता हुआ चन्द्रमा सुभिक्ष करने वाला होता है और इसके विपरीत योग करने वाला दुर्भिक्ष उत्पन्न करता है' ।
समवायांग १५।५ में १५ मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्रों का, तथा ४५।७ में ४५ मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्रों का उल्लेख है।
३४. ( सू० ८० )
आवश्यकनिर्युक्ति में चन्द्रप्रभ का छद्यस्थ- काल तीन मास का और पद्म प्रभ का छह मास का बतलाया है । वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत उल्लेख मतान्तर का है ।
३५. ( सू० ६५)
प्रस्तुत सूत्र में छह ऋतुओं का प्रतिपादन है । प्रत्येक ऋतु का कालमान दो-दो मास का है—
प्रावृट् — आषाढ और श्रावण ।
वर्षा भाद्रपद और आश्विन । शरद् – कार्तिक और मृगशिर । हेमन्त – पौष और माघ ।
वसन्त-- फाल्गुन और चैत्र ।
ग्रीष्म-वैसाख और ज्येष्ठ ।
लौकिक व्यवहार के अनुसार छह ऋतुएं ये हैं
१. वर्षा, २. शरद्, ३. हेमन्त, ४. शिशिर, ५. वसन्त और ६. ग्रीष्म ।
ऋतुएं भी दो-दो महीने की हैं और इनका प्रारम्भ श्रावण से होता है । ' यह क्रम और व्याख्या आगमिक क्रम और व्याख्या से भिन्न है ।
१. बृहत्कल्प, भाष्यगाथा ५५२७ की वृत्ति में समक्षेत्र के १५ नक्षत्र माने हैं- अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वभाद्रपदा और रेवती ।
स्थान ६ : टि० ३४-३५
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४९
३. वही, पत्न ३४९ :
उक्तक्रमेण नक्षत्रैर्युज्यमानस्तु चन्द्रमाः । सुभिक्षद्विपरीतं युज्यमानोऽन्यथा भवेत् ॥
४. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा २६०, मलयगिरिवृत्ति पत्र २०६ :
पद्मप्रभस्य षण्मासा, चन्द्रप्रभस्य त्रयः ।
५. स्थानांगवृत्ति, पन ३५० : चन्द्रप्रभस्य तु नीनिति मतान्तरमिदमिति ।
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३५१: द्विमासप्रमाणकाल विशेष ऋतुः, तत्राषाढश्रावणलक्षणा प्रावृट् एवं शेषाः क्रमेण, लौकिकव्यवहारस्तु श्रावणाद्याः वर्षा- शरद्धेमन्त शिशिरवसन्त ग्रीष्माच्या तव इति ।
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३६. अवधिज्ञान (सू० हह )
इसका शाब्दिक अर्थ है - मर्यादा से होने वाला मूर्त पदार्थों का ज्ञान । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से इसकी अनेक अवधियां - मर्यादाएं हैं, इसलिए इसे अवधिज्ञान कहा जाता है ।
७००
स्थान ६ : टि० ३६-३७
प्रस्तुत सूत्र में इसके छह प्रकारों का उल्लेख है
१. आनुगामिक – जो ज्ञान अपने स्वामी का सर्वत्र अनुगमन करता है उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहा जाता है । इसमें क्षेत्र की प्रतिबद्धता नहीं होती ।
२. अनानुगामिक -- जो ज्ञान अपने उत्पत्ति क्षेत्र में ही बना रहता है उसे अनानुगामिक अवधिज्ञान कहा जाता है । यह एक स्थान पर रखे दीपक की भांति स्थित होता है। स्वामी जब उस क्षेत्र को छोड़ चला जाता है तब उसका ज्ञान भी लुप्त हो जाता है ।
३. वर्धमानक - जो ज्ञान उत्पत्तिकाल में छोटा हो और क्रमशः बढ़ता रहे, उसे वर्धमानक अवधिज्ञान कहा जाता है । यह वृद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों में होती है।
४. हीयमानक -- जो ज्ञान उत्पत्तिकाल में वडा हो और बाद में क्रमशः घटता जाए, उसे हीयमानक अवधिज्ञान कहा जाता है। इसमें विषय का ह्रास होता जाता है।
५. प्रतिपाति - जो ज्ञान एक बार उत्पन्न होकर पुनः चला जाए, उसे प्रतिपाति अवधिज्ञान कहा जाता है ।
६. अप्रतिपाति - जो ज्ञान एक बार उत्पन्न हो जाने पर नष्ट न हो, उसे अप्रतिपाति अवधिज्ञान कहा जाता है । अवधिज्ञान के दो प्रकार प्रस्तुत सूत्र के २६६-६८ में बतलाए गए हैं।
विशेष विवरण के लिए देखें- समवायांग, प्रकीर्ण समवाय १७२ तथा प्रज्ञापना पद ३३ ।
३७ (सू० १०१ ) :
कल्प का अर्थ है - साधु का आचार और प्रस्तार का अर्थ है - प्रायश्चित्त की उत्तरोत्तर वृद्धि । प्रस्तुत सूत्र में छह प्रस्तारों का उल्लेख है । उनका वर्णन इस प्रकार है-
कहीं जा रहे थे। बड़े साधु का पैर एक मरे हुए मेंढक पर पड़ा। तब छोटे साधु ने आरोप की भाषा में कहा - 'आपने इस मेंढक को मार डाला ?' उसने कहा - 'नहीं'। तब छोटे साधु ने कहा- आपका दूसरा व्रत [ सत्यव्रत ] भी टूट गया।' इस प्रकार किसी साधु पर आरोप लगाकर वह गुरु के समीप आता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह पहला प्रायश्चित्त-स्थान है ।
वह गुरु से कहता है - इसने मेंढक की हत्या की है।' तब उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । यह दूसरा प्रायश्चित स्थान है।
तब आचार्य बड़े साधु से कहते हैं क्या तुमने मेंढक को मारा है ?' वह कहता है नहीं ।' तब आरोप लगाने वाले को चतुधु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । यह तीसरा प्रायश्चित स्थान है। वह अवमरानिक पुनः अपनी बात दोहराता है और जब रालिक मुनि पुनः यही कहता है कि मैंने में इक को नहीं 'मारा' तब उसे चतुर्गुरु प्रायश्वित्त प्राप्त होता है । यह चौथा प्रायश्चित्त स्थान है।
तब अवमरालिक आचार्य से कहता है- 'यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो आप गृहस्थों से पूछ लें ।' आचार्य अपने वृषभों [सेवारत साधुओं ] को भेजते हैं । वे जाकर पूछताछ करते हैं, तब उस काल में अवमरात्निक को षड्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह पांचवां प्रायश्चित्त- स्थान है ।
उनके पूछने पर गृहस्थ कहें कि हमने इसको मेंढक मारते नहीं देखा है तब अवमरानिक को षड्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । यह छठा प्रायश्चित्त-स्थान है।
वे वृषभ वापस आकर आचार्य से निवेदन करते हैं कि उस साधु ने कोई प्राणातिपाति नहीं किया तब आरोप लगाने वाले को छेद प्रायश्चित प्राप्त होता है। यह सातवां प्रायश्चित्त-स्थान है।
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स्थान ६ :टि० ३८
उस समय अवमरात्निक कहता है-'ये गृहस्थ हैं। ये झूठ बोलते हैं या सच-इसका क्या विश्वास ?' ऐसा कहने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह आठवां प्रायश्चित्त-स्थान है।
यदि अवमरात्निक कहे कि 'ये साधु और गृहस्थ मिले हुए हैं, मैं अकेला रह गया हूं', तो उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह नौवां प्रायश्चित्त-स्थान है।
वह यदि यह कहे कि 'तुम सब प्रवचन से बाहर हो—जिनशासन से विलग हो', तब उसे पाराञ्चिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह दसवां प्रायश्चित्त-स्थान है।
इस प्रकार ज्यों-ज्यों वह अपने आरोप को सिद्ध करता है त्यों-त्यों उसका प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है और वह अन्तिम प्रायश्चित्त 'पाराञ्चित' तक पहुंच जाता है।
जो अपने अपराध का निन्दवन करता है और जो अपने झूठे आरोप को साधने का प्रयत्न करता है—दोनों के उत्तरोत्तर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है।
यदि कोई आरोप लगाकर उसको साधने की चेष्टा नहीं करता और जो आरोप लगाने वाले पर रुष्ट नहीं होतादोनों के प्रायश्चित्त की वृद्धि नहीं होती और यदि आरोप लगाने वाला बार-बार आरोप को साधने की चेष्टा करता है और दूसरा जिस पर आरोप लगाया गया है वह, उस पर बार-बार रुष्ट होता है----दोनों के प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है।
प्राणातिपात के विषय में होने वाली प्रायश्चित्त की वृद्धि के समान ही शेष मृषावाद आदि पांचों स्थानों में प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है।
विशेष विवरण के लिए देखेंवृहत्कल्पभाष्य, गाथा ६१२६-६१६२ ।
३८ (सू० १०२) : कौकुचित—इसका अर्थ है--चपलता। वह तीन प्रकार की होती है.....
१. स्थान से। २. शरीर से।
३. भाषा से। स्थान से--- अपने स्थान से इधर-उधर घूमना; यन्त्र और नर्तक की भांति अपने शरीर को नचाना। शरीर से हाथ या गोफण से पत्थर फेंकना; भौंह, दाढ़ी, स्तन और पुतों को कम्पित करना।
भाषा से-सीटी बजाना, लोगों को हंसाने के लिए विचित्र प्रकार से बोलना, अनेक प्रकार की आवाजें करना और भिन्न-भिन्न देशी भाषाओं में बोलना।
२. तितिणक--- इसका अर्थ है-वस्तु की प्राप्ति न होने पर खिन्न हो बकवास करना। साधु जब गोचरी में जाता है और किसी वस्तु का लाभ न होने पर खिन्न हो जाता है तो वह एषणा की शुद्धि नहीं रख सकता। वह वैसी स्थिति में एषणीय या अनेषणीय की परवाह न कर ज्यों-त्यों वस्तु की प्राप्ति करना चाहता है। इसलिए यह एषणा का प्रतिपक्षी है।
भिध्या निदान करण-भिध्या का अर्थ है-लोभ और निदान का अर्थ है-प्रार्थना या अभिलाषा। लोभ से की जाने वाली प्रार्थना आतध्यान को पोषण देती है, अत: वह मोक्ष मार्ग की पलिमन्थ है।
भ० महावीर ने निदानता को सर्वत्र अप्रशस्त कहा है, फिर निदान के साथ भिध्या' [लोभ ] शब्द का प्रयोग क्योंयह सहज ही प्रश्न उठता है।
वृत्तिकार का अभिमत है कि वैराग्य आदि गुणों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले निदान में आसक्ति भाव नहीं होता। वह वजित नहीं है । इस तथ्य को सूचित करने के लिए ही निदान के साथ भिध्या' शब्द का प्रयोग किया गया है।
१. (क) स्थानांमवृत्ति, पत्न ३५४ ।
(ख) देखें--उत्तरज्झयणाणि, भाग २।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३५५ ।
विशेष विवरण के लिए देखें-बृहत्कल्पसूत्र ४।१६, भाष्यगाथा-६३११-६३४८ ।
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स्थान ६ : टि० ३६
३९. (सू० १०३)
इस सूत्र में विभिन्न संयमों व साधना के स्तरों की सूचना दी गई है। मुनि के लिए पांच संयम होते हैं ---सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात ।'
भगवान पार्श्व के समय में सामायिक संयम की व्यवस्था थी। भगवान महावीर ने उसके स्थान पर छेदोपस्थापनीय संयम की व्यवस्था की। इन दोनों संयमों की मर्यादाएं अनेक दृष्टिकोणों से भिन्न थीं। पृथक-पृथक स्थानों में उनके संकेत मिलते हैं। भाष्यकारों ने दस कल्पों के द्वारा इन दोनों संयमों की मर्यादाओं की पृथक्ता प्रदर्शित की है। दस कल्प श्वेताम्बर और दिगम्बर–दोनों परम्पराओं द्वारा सम्मत हैं
१. आचेलक्य-वस्त्र न रखना अथवा अल्प वस्त्र रखना। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इसका अर्थ है-सकल परिग्रह का त्याग।
२. औद्देशिक-एक साधु के लिए बनाए गए आहार का दूसरे सांभोगिक साधु द्वारा अग्रहण। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इसका अर्थ है--साधु को उद्दिष्ट कर बनाए हुए भक्त-पान का अग्रहण।'
३. शय्यातरपिंड---स्थानदाता से भक्त-पान लेने का त्याग । ४. राजपिंड—राजपिंड का वर्जन। ५. कृतिकर्म-प्रतिक्रमण के समय किया जाने वाला बन्दन आदि । ६. ब्रत-चतुर्याम या पंचमहाव्रत। ७. ज्येष्ठ-दीक्षा पर्याय की ज्येष्ठता का स्वीकार। ८. प्रतिक्रमण। ६. मास- शेषकाल में मासकल्प का विहार। १०. पर्युषणाकल्प-वर्षावासीय आवास की व्यवस्था ।
भगवान् पार्श्व के समय में (१) शय्यातरपिंड का वर्जन, (२) चतुर्याम, (३) पुरुपज्येष्ठत्व और (४) कृतिकर्मये चार कल्प अनिवार्य तथा शेष छह कल्प ऐच्छिक होते हैं। यह सामायिक संयम की भर्यादा है। भगवान महावीर ने उक्त दसों कल्पों को श्रमण के लिए अनिवार्य बना दिया। फलतः छेदोपस्थापनीय संयम की मर्यादा में ये दसों कल्प अनिवार्य हो गए।
परिहारविशुद्धिक संयम तपस्या की विशेष साधना का एक स्तर है। निविशमानकल्प और निविष्टकल्प-ये दोनों परिहारविशुद्धिक संयम के अंग हैं।
निविशमानकल्पस्थिति-परिहारविशुद्ध चरित्र की साधना में अवस्थित चार तपोभिमुख साधुओं की आचार संहिता को निर्विशमानकल्प कहा जाता है। वे मुनि ग्रीष्म, शीत तथा वर्षा ऋतु में जघन्यतः क्रमश: चतुर्थभक्त (एक उपवास), षष्ठ भक्त (दो उपवास) तथा अष्टमभक्त (तीन उपवास), मध्यमतः क्रमशः षष्ठभक्त, अष्टमभक्त तथा दशमभक्त (चार उपवास) और उत्कृष्टतः अष्टमभक्त, दशमभक्त तथा द्वादशभक्त (पांच उपवास) तपस्या करते हैं । पारणा में भी अभिग्रह सहित आयंबिल की तपस्या करते हैं। सभी तपस्वी जघन्यतः नव पूर्वो तथा उत्कृष्टतः दस पूर्वो के ज्ञाता होते हैं।
१. स्थानांग ५१३६। २. मूलाराधना, पष्ठ ६०६ :
संकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते । ३. वही, पृष्ठ ६०६ ।
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स्थान ६ : टि० ३६
निविष्टकल्पस्थिति- इसका अर्थ है-परिहारविशुद्ध चरित्र में पूर्वाभिहित तपस्या कर लेने के बाद जो पूर्व परिचारकों की सेवा में संलग्न रहते हैं, उनकी आचार-विधि।
परिहारविशुद्ध चरित्र की साधना में नौ साधु एक-साथ अवस्थित होते हैं। उनमें चार साधुओं का पहला वर्ग तपस्या करता है । उस वर्ग को निर्विशमानकल्प कहा जाता है। चार साधुओं का दूसरा वर्ग उसकी परिचर्या करता है तथा एक साधु आचार्य होता है। उन चारों की तपस्या पूर्ण हो जाने पर शेष चार साधु तपस्या करते हैं तथा जो तपस्या कर चुके, बे तपस्या में संलग्न साधुओं की परिचर्या करते हैं।
दोनों वर्गों की तपस्या पूर्ण हो जाने के बाद आचार्य तपस्या में अव्यवस्थित होते हैं और आठों ही साधु उनकी परिचर्या करते हैं।'
जिनकल्पस्थिति-विशेष साधना के लिए जो संघ से अलग होकर रहते हैं, उनकी आचार-मर्यादा को जिनकल्पस्थिति कहा जाता है। वे अकेले रहते हैं। वे शारीरिक शक्ति और मानसिक दृढ़ता से सम्पन्न होते हैं। वे धृतिमान् और अच्छे संहनन से युक्त होते हैं । वे सभी प्रकार के उपसर्ग सहने में समर्थ तथा परीषहों का सामना करने में निडर रहते हैं।'
प्रवचनसारोद्धार के अनुसार जिनकल्पस्थिति का वर्णन इस प्रकार है
आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक-इन पांचों में से जो जिनकल्प को स्वीकार करना चाहते हैं, वे पहले तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच तुलाओं से अपने-आप को तौलते हैं और इनमें पूर्ण हो जाने पर जिनकल्प स्वीकार करते हैं । इनके अतिरिक्त जो मुनि इस कल्प को अपनाना चाहते हैं, उनके लिए इन पांच तुलाओं का अभ्यास अनिवार्य नहीं होता। वे गच्छ के अन्दर रहते हुए आगमोक्त विधि से अपनी आत्मा का परिकर्म करते हैं और जब जिनकल्प स्वीकार करना होता है तब सबसे पहले वे सारे संघ को एकत्रित करते हैं। यदि ऐसा संभव न हो सके तो अपने गण को अवश्य ही एकत्रित करते हैं। पश्चात् तीर्थकर, गणधर, चतुर्दशपूर्वधर या संपूर्ण दशपूर्वधर के पास जिनकल्प स्वीकार करते हैं। इनमें से कोई उपलब्ध न होने पर वे वट, अश्वत्थ, अशोक आदि वृक्षों के समीप जाकर जिनकल्प स्वीकार करते हैं । यदि वे गणी होते हैं तो अपने गण में गणधर की नियुक्ति कर सारे संघ से क्षमायाचना करते हैं। यदि वे गणी नहीं हैं, सामान्य साधु हैं, तो वे किसी की नियुक्ति नहीं करते किन्तु समूचे गण से क्षमायाचना करते हैं। यदि समूचा गण उपस्थित न हो तो अपने गच्छ वाले श्रमणों से क्षमायाचना करते हैं। वे कहते हैं-'यदि प्रमादवश मैंने आपके प्रति सद्व्यवहार नहीं किया हो तो आप मुझे क्षमा करें। मैं निःशल्य और निष्कषाय होकर आपसे क्षमायाचना करता हूं।' तब सभी साधु आनन्द के आंसू बहाते हए हाथ जोड़कर, भूमि पर सिर को टिकाए, छोटे-बड़े के क्रम से क्षमायाचना करते हैं। इस क्षमायाचना से निम्न गुणों का उद्दीपन होता है।
१. निःशल्यता। २. विनय। ३. दूसरों को क्षमायाचना की प्रेरणा। ४. हल्कापन । ५. क्षमायाचना के कारण अकेलेपन का स्थिर ध्यान या अनुभव। ६. ममत्व का छेद।
१. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ६४४७-६४८१ । २. वही, गाथा ६४८४, वृत्ति३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा १३७० :
खामितस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे । लावियं एगतं, अप्पडिबंधो अ जिणकप्पे ।
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स्थान ५ : टि० ३६
इस प्रकार क्षमायाचना कर वे अपने उत्तराधिकारी आचार्य को शिक्षा देते हुए कहते हैं— 'गण में बाल, वृद्ध सभी प्रकार के मुनि हैं । सारणा वारणा से संघ की सम्यक् देख-रेख करना । शिष्य और आचार्य का यही क्रम है कि आचार्य अव्यवच्छित्तिकारक शिष्य का निष्पादन कर, शक्ति रहते-रहते, जिनकल्प को स्वीकार कर ले। तुम भी योग्य शिष्य का निष्पादन करने के पश्चात् इस कल्प को स्वीकार कर लेना । जो बहुश्रुत और पर्याय ज्येष्ठ मुनि हैं, उनके प्रति यथोचित विनय करने में प्रमाद मत करना ।
तप, स्वाध्याय, वैयावृत्य आदि-आदि साधनों के विभिन्न कार्य हैं। इनमें जो साधु जिस कार्य में रुचि रखता है, उस उसी कार्य में योजित करना। गण में छोटे बड़े, अल्पश्रुत या बहुश्रुत --- किसी प्रकार के मुनियों का तिरस्कार मत
करना ।
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साधुओं को इंगित कर कहते हैं-"आर्यो ! मैंने अमुक मुनि को योग्य समझ कर गण का भार सौंपा है। तुम कभी यह मत सोचना कि यह हमसे छोटा है, समान है, अल्पश्रुत वाला है। हम इसकी आज्ञा का पालन क्यों करें ? तुम हमेशा यह सोचना कि 'यह मेरे स्थान पर नियुक्त हैं, अतः पूज्य है।' यह सोचकर उसकी पूजा करना, उसकी आज्ञा का अखंड पालन करना।"
यह शिक्षा देकर वे वहां से अकेले ही चल पड़ते हैं । सारा संघ उनके पीछे-पीछे कुछ दूर तक चलता है। कुछ दूर जाकर संघ रुक जाता है और जिनकल्प प्रतिपन्न मुनि अकेले चले चलते हैं। जब तक वे दीखते हैं, तब तक सभी मुनि उन्हें एकटक देखते रहते हैं और जब वे दीखने बन्द हो जाते हैं तब वे अपने-अपने स्थान पर अत्यन्त आनन्दित होकर लौट आते हैं। वे मन ही मन कहते हैं अहो ! हमारे गुरुदेव ने सुखसेवनीय स्थविरकल्प को छोड़कर, अतिदुष्कर, जिनकल्प को स्वीकार किया है। '
जनकल्पिक मुनियों की चर्या आदि का विशेष विवरण बृहत्कल्पभाष्य में प्राप्त होता है। वह इस प्रकार है१. श्रुत – जिनकल्पी जघन्यतः प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु के ज्ञाता तथा उत्कृष्टत: अपूर्ण दशपूर्वधर होते हैं। संपूर्ण दशपूर्वधर जिनकल्प अवस्था स्वीकार नहीं करते ।
२. संहनन– वे वज्रऋषभनाराच संहनन वाले होते हैं।
३. उपसर्ग— उनके उपसर्ग हों ही, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु जो भी उपसर्ग उत्पन्न होते हैं, उन सबको वे समभाव से सहन करते हैं।
४. आतंक – रोग या आतंक उत्पन्न होने पर वे उन्हें समभाव से सहन करते हैं ।
५. वेदना उनके दो प्रकार की वेदनाएं होती हैं
१. आभ्युपगमिकी - लुंचन, आतापना, तपस्या आदि करने से उत्पन्न वेदना ।
२. औपक्रमिकी अवस्था से उत्पन्न तथा कर्मों के उदय से उत्पन्न वेदना ।
६. कतिजन - वे अकेले ही होते हैं ।
७. स्थंडिल --- वे उच्चार और प्रस्रवण का उत्सर्ग विजन तथा जहां लोग न देखते हों, ऐसे स्थान में करते हैं ।
वे कृतकार्य होने पर (हेमन्त ऋतु के चले जाने पर ) उसी स्थंडिल में वस्त्रों का परिष्ठापन कर देते हैं। अल्पभोजी और रूक्षभोजी होने के कारण उनके मल बहुत थोड़ा बंधा हुआ होता है, इसलिए उन्हें निर्लेपन ( शुचि लेने की आवश्यकता नहीं होती । बहुदिवसीय उपसर्ग प्राप्त होने पर भी वे अस्थंडिल में मल-मूत्र का उत्सर्ग नहीं करते ।
८. वसति - वे जैसा स्थान मिले वैसे में ही ठहर जाते हैं। वे साधु के लिए लीपी पुती वसति में नहीं ठहरते। बिलों धूल आदि से नहीं ढँकते; पशुओं द्वारा खाए जाने पर या तोड़े जाने पर भी वसति की रक्षा के लिए पशुओं का निवारण नहीं करते; द्वार बन्द नहीं करते; अर्गला नहीं लगाते ।
६. उनके द्वारा वसति की याचना करने पर यदि गृहस्वामी पूछे कि आप यहां कितने समय तक रहेंगे? इस जगह आप को मल-मूत्र का त्याग करना है, यहां नहीं करना है। यहां बैठें, यहां न बैठें। इन निर्दिष्ट तृण- फलकों का उपयोग
१. प्रवचनसारोद्वार गाथा ५४०, वृत्ति पत्र १२६-१२८ ।
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स्थान ६ : टि० ३६
करें, इनका न करें। गाय आदि पशुओं की देख-भाल करें, मकान की उपेक्षा न करें, उसकी सार-संभाल करते रहें तथा इसी प्रकार के अन्य नियंत्रणों की बातें कहे तो जिनकल्पिक मुनि ऐसे स्थान में कभी न रहे।
१०. जिस वसति में बलि दी जाती हो, दीपक जलता हो, अग्नि आदि का प्रकाश हो तथा गृहस्वामी कहे कि मकान का भी थोड़ा ध्यान रखें या बह पूछे कि आप इस मकान में कितने व्यक्ति रहेंगे ?-ऐसे स्थान में भी वे नहीं रहते। वे दूसरे के मन में सूक्ष्म अप्रीति भी उत्पन्न करना नहीं चाहते, इसलिए इन सबका वर्जन करते हैं।
११. भिक्षाचर्या के लिए तीसरे प्रहर में जाते हैं। १२. सात पिडैषणाओं में से प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच एषणाओं से अलेपकृत भक्त-पान लेते हैं।
१३. मल-भेद आदि दोष उत्पन्न होने की संभावना के कारण वे आचामाम्ल नहीं करते। वे मासिकी आदि भिक्षु प्रतिमा तथा भद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा आदि प्रतिमाएं स्वीकार नहीं करते।
१४. जहां मासकल्प करते हैं, वहां उस गांव या नगर को छह भागों में विभक्त कर, प्रतिदिन एक-एक विभाग में भिक्षा के लिए जाते हैं।
१५. वे एक ही वसति में सात (जिनकल्पिकों) से अधिक नहीं रहते। वे एक साथ रहते हुए भी परस्पर संभाषण नहीं करते । भिक्षा के लिए एक ही वीथि में दो नहीं जाते।
१६. क्षेत्र—जिनकल्प मुनि का जन्म और कल्पग्रहण कर्मभूमि में ही होता है। देवादि द्वारा संहरण किए जाने पर वे अकर्मभूमि में भी प्राप्त हो सकते हैं।
१७. काल—अवसर्पिणी काल में उत्पन्न हों तो उनका जन्म तीसरे-चौथे अर में होता है और जिनकल्प का स्वीकार तीसरे, चौथे और पांचवें में भी हो सकता है। यदि उत्सपिणी काल में उत्पन्न हों तो दूसरे, तीसरे और चौथे अर में जन्म लेते हैं और जिनकल्प का स्वीकार तीसरे और चौथे अर में ही करते हैं।
१८. चारित्र--सामायिक अथवा छेदोपस्थानीय संयम में वर्तमान मुनि जिनकल्प स्वीकार करते हैं। उसके स्वीकार के पश्चात् वे सूक्ष्मसंपराय आदि चारित्न में भी जा सकते हैं।
१६. तीर्थ-वे नियमतः तीर्थ में ही होते हैं।
२०. पर्याय-जघन्यतः उनतीस वर्ष की अवस्था में (E गृहवास के और २० श्रमण-पर्याय के) और उत्कृष्टतः गृहस्थ और साधु-पर्याय की कुछ न्यून करोड़ पूर्व में, इस कल्प को ग्रहण करते हैं।
२१. आगम—जिनकल्प स्वीकार करने के बाद वे नए श्रुत का अध्ययन नहीं करते, किन्तु चित्त-विक्षेप से बचने के लिए पहले पढ़े हुए श्रुत का स्वाध्याय करते हैं।
२२. वेद—स्त्रीवेद के अतिरिक्त पुरुषवेद तथा असंक्लिष्ट नपंसकवेद वाले व्यक्ति इसे स्वीकार करते हैं । स्वीकार करने के बाद वे सवेद या अवेद भी हो सकते हैं। यहां अवेद का तात्पर्य उपशान्त वेद से है। क्योंकि वे क्षपकश्रेणी नहीं ले सकते, उपशमश्रेणी लेते हैं। उन्हें उस भव में केवलज्ञान नहीं होता।
२३. कल्प-वे दोनों कल्प-स्थितकल्प अथवा अस्थितकल्प वाले होते हैं।
२४. लिंग-कल्प स्वीकार करते समय वे नियमतः द्रव्य और भाव-दोनों लिंगों से युक्त होते हैं। आगे भावलिंग तो निश्चय ही होता है । द्रव्य लिंग जीर्ण या चोरों द्वारा अपहृत हो जाने पर हो भी सकता है और नहीं भी।
२५. लेश्या-उनमें कल्प स्वीकार के समय तीन प्रशस्त लेश्याएं (तंजस, पद्म और शुक्ल) होती हैं। बाद में उनमें छहों लेश्याएं हो सकती हैं, किन्तु वे अप्रशस्त लेश्याओं में बहुत समय तक नहीं रहते और वे अप्रशस्त लेश्याएं अति संक्लिष्ट नहीं होती।
२६. ध्यान-वे प्रवर्द्ध मान धर्य ध्यान में कल्प का स्वीकरण करते हैं, किन्तु बाद में उनमें आतं-रौद्र ध्यान की सद्भावना भी हो सकती है। उनमें कुशल परिणामों की उद्दामता रहती है, अत: ये आर्त्त-रौद्र ध्यान भी प्रायः निरनुबंध होते हैं।
२७. गणना-एक समय में इस कल्प को स्वीकार करने वालों की उत्कृष्ट संख्या शतपृथक्त्व (९००) और पूर्व स्वीकृत के अनुसार यह सख्या सहस्रपृथक्त्व (६०००) होती है। पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्कृष्टतः इतने ही जिनकल्पी प्राप्त हो सकते हैं।
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स्थान ६ : टि० ३६ २८. अभिग्रह-वे अल्पकालिक कोई भी अभिग्रह स्वीकार नहीं करते। उनके जिनकल्प अभिग्रह जीवन पर्यन्त होता है। उसमें गोचर आदि प्रतिनियत व निरपवाद होते हैं, अतः उनके लिए जिनकल्प का पालन ही परम विशुद्धि का स्थान है।
२६. प्रव्रज्या-वे किसी को दीक्षित नहीं करते, किसी को मुंड नहीं करते। यदि ये जान जाए कि अमुक व्यक्ति अवश्य ही दीक्षा लेगा, तो वे उसे उपदेश देते हैं और उसे दीक्षा-ग्रहण करने के लिए संविग्न गीतार्थ साधु के पास भेज देते हैं।
३०. प्रायश्चित्त-मानसिक सूक्ष्म अतिचार के लिए भी उनको जघन्यतः चतुर्गुरुक मासिक प्रायश्चित्त लेना होता है।
३१. निष्प्रतिकर्म-वे शरीर का किसी भी प्रकार से प्रतिकर्म नहीं करते। आंख आदि का मैल भी नहीं निकालते और न कभी किसी प्रकार की चिकित्सा ही करवाते हैं।
३२. कारण--वे किसी प्रकार के अपवाद का सेवन नहीं करते।
३३. काल-वे तीसरे प्रहर में भिक्षा करते हैं और विहार भी तीसरे प्रहर में ही करते हैं। शेष समय में वे प्रायः कायोत्सर्ग में स्थित रहते हैं।
३४. स्थिति--विहरण करने में असमर्थ होने पर वे एक स्थान पर रहते हैं, किन्तु किसी प्रकार के दोष का सेवन नहीं करते।
३५. सामाचारी–साधु-सामाचारी के दस भेद हैं। इनमें से वे आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्याकार, आपृच्छा और उपसंपद्-इन पांच सामाचारियों का पालन करते हैं।
स्थविरकल्पस्थिति—जो संघ में रहकर साधना करते हैं, उनकी आचार-मर्यादा को स्थविरकल्पस्थिति कहा जाता है। उनके मुख्य अंग ये हैं
(१) सतरह प्रकार के संयम का पालन। (२) ज्ञान, दर्शन, चारित्र की परम्परा का विच्छेद न होने देना। इसके लिए शिष्यों को ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निपुण करना। (३) वृद्धा अवस्था में जंघाबल क्षीण होने पर स्थिरवास
करना। भावसंग्रह के अनुसार जिनकल्पी और स्थविरकल्पी का स्वरूपचित्रण इस प्रकार है
जिनकल्पी--जिनकल्प में स्थित श्रमण बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थियों से रहित, निस्नेह, निस्पृह और वाग्गुप्त होते हैं । वे सदा जिन भगवान् की भांति विहरण करते रहते हैं।
यदि उनके पैरों में कांटा चुभ जाए या आंखो में धूलि गिर जाए तो भी वे अपने हाथों से न कांटा निकालते हैं और न धूल ही पोंछते हैं । यदि कोई दूसरा व्यक्ति वैसा करता है तो वे मौन रहते हैं।
वे ग्यारह अंगों के धारक होते हैं। वे अकेले रहते हैं और धर्म्य-शुक्ल ध्यान में लीन रहते हैं। वे सम्पूर्ण कषायों के त्यागी, मौनव्रती और कन्दराओं में रहते हैं।
स्थविरकल्पी---इस दुःषमकाल में संहनन और गुणों की क्षीणता के कारण मुनि पुर, नगर और ग्राम में रहने लगे हैं, वे तप की प्रभावना करते हैं। वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं।
वे मुनि समुदाय रूप में विहार कर अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की प्रभावना करते हैं। वे भव्य व्यक्तियों को धर्म का श्रवण कराते हैं तथा शिष्यों का ग्रहण और पालन करते हैं ।
१. बहत्कल्पभाष्य, गाथा ६४८५ । २. भावसंग्रह, गाथा १२३:
बहिरंतरंगथचुवा णिणेहा णिप्पिहा य ज इवइणो।
जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणा ।। ३. वही, गाथा १२०
जत्थ य कटयभग्गो पाए णयणम्मि रयपविम्मि ।
फेडंति सयं मुणिणा परावहारे य तुहिक्का । ४. वही, गाथा १२२:
एगारसंगधारी एआई धम्मसुक्क झाणी य। चत्तासेसकसाया मोणबई कंदरावासी ॥
५. वही, गाथा १२७:
संहणणस्स य, दुस्समकालस्स तवपहावेण ।
पुरनयरगामवासी, थविरे कप्पे ठिया जाया। ६. वही, गाथा १२६:
समुदायेण विहारो, धम्मस्स पहावणं ससत्तीए। भवियाणं धम्मसवणं, सिस्साणं च पालणं गहणं ॥
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स्थान ६ : टि० ४०-४२
पहले मुनिगण जितने कमों को हजार वर्षों में क्षीण करते थे, उतने कमों को वर्तमान में हीन संहनन वाले, स्थविरकल्पी मुनि, एक वर्ष में क्षीण कर देते हैं।
४०. परिणाम (सू० १०६) :
वृत्तिकार ने परिणाम के चार अर्थ किए हैं...१. पर्याय, २. स्वभाव, ३. धर्म, ४. विपाक ।
प्रस्तुत सूत्र में परिणाम शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है—पर्याय और विपाक । प्रथम दो विभाग पर्याय के और शेष चार विपाक के उदाहरण हैं। ४१. (सू० ११६):
एक साथ जितने कर्म-पुद्गल जिस रूप में भोगे जाते हैं उस रूप-रचना का नाम निषेक है। निधत्त का अर्थ हैकर्म का निषेक के रूप में बन्ध होना । जिस समय आयु का बन्ध होता है तब वह जाति आदि छहों के साथ निधत्त—निषिक्त होता है। अमुक आयु का बन्ध करने वाला जीव उसके साथ-साथ एकेन्द्रिय आदि पांच जातियों में से किसी एक जाति का, नरक आदि चार गतियों में से किसी एक गति का, अमुक समय की स्थिति-काल-मर्यादा का, अवगाहना----औदारिक या वक्रिय शरीर में से किसी एक शरीर का तथा आयुष्य के प्रदेशों-परमाणु-संचयों का और उसके अनुभाव--विपाकशवित का भी बन्ध करता है।
४२. भाव (सू० १२४) :
कर्म आठ हैं—ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, देदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनके मुख्य दो वर्ग हैं-- घात्य और अघात्य । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घात्य-कोटि और शेष चार अघात्य-कोटि के कर्म हैं। इनके उदय आदि से तथा काल-परिणमन से होने वाली जीव की अवस्था को भाव कहा जाता है। भाव छह हैं
औदयिक-कर्मों के उदय से होने वाली जीव की अवस्था। औपशमिक---मोह कर्म के उपशम से होने वाली जीव की अवस्था। क्षायिक-कर्मों के क्षय से होने वाली जीव की अवस्था।
क्षायोपशमिक—घात्य कर्मों के क्षयोपशम [उदित कर्मों के क्षय और अनुदित कर्मों के उपशम] से होने वाली जीव की अवस्था।
पारिणामिक-काल-परिणमन से होने वाली जीव की अवस्था । सान्निपातिक-दो या अधिक भावों के योग से होने वाली जीव की अवस्था। इसके २६ विकल्प होते हैंदो के संयोग से
१० विकल्प तीन के संयोग से
१० विकल्प चार के संयोग से
५ विकल्प पांच के संयोग से--
१ विकल्प इनके विस्तार के लिए देखें-अनुयोगद्वार, सूत्र २८६-२६७ ।
१. भावसंग्रह, गाथा १३१ :
बरिससहस्सेण पुरा जं कम्म हणइ तेण काएण। तं संपइ वरिसैण हु णिज्जरयइ होणसंहणणे ॥
२. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३५६ :
परिणाम :-पर्यायः स्वभावो धर्म इति यावत् । "परिणामो-विपाकः।
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परस्पर अविरुद्ध विकल्पों के आधार पर इसके १५ भेद होते हैं
इसका विस्तार इस प्रकार है
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उदय, क्षयोपशम और परिणाम से निष्पन्न सान्निपातिक के चार विकल्प
औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक चारों गतियों में एक-एक - ४ विकल्प क्षायिक चारों गतियों में४ विकल्प
औपशमिक चारों गतियों में४ विकल्प
उपशम श्रेणी का - [ यह केवल एक मनुष्य गति में ही होता है ]केवली का --- [ केवल मनुष्य में ही ] -१ विकल्प सिद्ध का
१ विकल्प
० नरक - औदयिक - नारकत्व, क्षायोपशमिक इन्द्रियां, पारिणामिक जीवत्व । ० तिर्यञ्च - औदयिक - तिर्यञ्चत्व, क्षायोपशमिक इन्द्रियां, पारिणामिक जीवत्व । ● मनुष्य – औदयिक - मनुष्यत्व, क्षायोपशमिक-इन्द्रियां, पारिणामिक जीवत्व । • देव - औदयिक देवत्व, क्षायोपशमिक- इन्द्रियां, पारिणामिक जीवत्व ।
क्षय के योग से निष्पन्न सान्निपातिक के चार विकल्प --
० नरक - औदयिक-नारकत्व, क्षायोपशमिक इन्द्रियां, क्षायिक सम्यक्त्व, पारिणामिक जीवत्व ।
इसी प्रकार अन्य तीन गतियों में योजना करनी चाहिए ।
उपशम के योग से निष्पन्न सान्निपातिक के चार विकल्प
० नरक-- औदयिक- नारकत्व, क्षायोपशमिक-इन्द्रियां, औपशमिक सम्यक्त्व, पारिणामिक जीवत्व | इसी प्रकार अन्य तीन गतियों में योजना करनी चाहिए।
• उपशम श्रेणी से निष्पन्न सान्निपातिक का एक विकल्प केवल मनुष्य के ही होता है ।
औदयिक मनुष्यत्व, क्षायोपशमिक इन्द्रियां, उपशान्त कषाय, पारिणामिक जीवत्व ।
• केवली से निष्पन्न सान्निपातिक का एक विकल्प ---
स्थान ६ : टि०४२
औदयिक मनुष्यत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, पारिणामिक जीवत्व ।
• सिद्ध से निष्पन्न सान्निपातिक का एक विकल्प -
क्षायिक सम्यक्त्व, पारिणामिक जीवत्व ।
इन विकल्पों की समस्त संख्या १५ है ।
पांचों भावों के ५३ भेद भी किए गए हैं
१. औपशमिक भाव के दो भेद - औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ।
२. क्षायिक भाव के नौ भेद - दर्शन, ज्ञान, दान, लाभ, उपभोग, भोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र । ३. क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद--चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पांच लब्धि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयम ।
४. औदयिकभाव के २१ भेद --चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, छह लेश्या, अज्ञान, मिथ्यात्व, असिद्धत्व और
असंयम ।
५. पारिणामिक भाव के तीन भेद - जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व' ।
१. अनुयोगद्वार सूत्र २७१-२६७ ।
| -१ विकल्प
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सत्तमं ठाणं
सप्तम स्थान
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आमुख
साधना व्यक्तिगत होती है, फिर भी कुछ कारणों से उसे सामुदायिकरूप दिया गया। इस कार्य में जैन तीर्थंकरों का महत्वपूर्ण योगदान है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना सम्यकप से करने के लिए साधु संघ का सदस्य होता है। संघ में अनेक गण होते हैं। जिस गण में साधु रहता है उसकी व्यवस्था का पालन वह निष्ठा के साथ करता है। जब उसे यह अनुभूति होने लग जाय कि इस गण में रहने से मेरा विकास नहीं होता तो वह गण परिवर्तन के लिए स्वतन्त्र होता है। साधना की भूमिका के परिपक्व होने पर वह एकाकी रहने की स्वीकृति भी प्राप्त कर सकता है। प्रस्तुत स्थान में गणपरिवर्तन के साथ हेतु बतलाए गए हैं।
साधना का सूत्र है अभय । भगवान् महावीर ने कहा--जो भय को नहीं जानता और नहीं छोड़ता वह अहिंसक नहीं हो सकता, सत्यवादी और अपरिग्ररही भी नहीं हो सकता। भय का प्रवेश तब होता है जब व्यक्ति दूसरे से अपने को हीन मानता है। मनुष्य को मनुष्य से भय होता है, यह इहलोक भय है। मनुष्य को पशु आदि से भय होता है, यह परलोक भय है। धन आदि पदार्थों के अपहरण का भय होता है। मृत्यु का भय होता है। पीड़ा या रोग का भय होता है। अपयश का भय होता है।
अहिंसा के आचार्यों ने अभय को महत्वपूर्ण स्थान दिया। राजनीति के मनीषी भय की भी उपयोगिता स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि दण्ड-भय के बिना समाज नहीं चल सकता। प्रस्तुत आगम में विविध विषय संकलित हैं, इसलिए इसमें भय और दण्ड के प्रकार भी प्रतिपादित हैं। दण्डनीति के सात प्रकार बतलाए गए हैं, इनमें उनके क्रमिक विकास का इतिहास है। प्रथम कुलकर विमलवाहन के समय में हाकार नीति का प्रयोग शुरू हुआ। उस समय कोई अपराध करता उन्हें "हा! तूने ऐसा किया" यह कहा जाता। यह उनके लिए महान दण्ड होता। वे स्वयं अनुशासित और लज्जाशील थे। यह दण्ड नीति दूसरे कुलकर के समय तक चली। तीसरे कुलकर यशस्वी और चौथे कुलकर अभिचन्द्र के समय में दो दण्ड नीतियों का प्रयोग होने लगा। सामान्य अपराध के लिए हाकार और बड़े अपराध के लिए माकारनीति (मत करो) का प्रयोग किया जाता था। पांचवें प्रसेनजित, छटै मरुदेव और सातवें नाभि कुलकर के समय में तीन दण्डनीतियां प्रचलित थीं। छोटे अपराध के लिए हाकार मध्यम अपराध के लिए माकार और बड़े अपराध के लिए धिक्कार की नीति का प्रयोग किया जाता था। उस समय तक मनुष्य ऋजु, मर्यादा-प्रिय और स्वयंशासित थे। जैसे-जैसे समाज व्यवस्था विकसित होती गई स्वयं का अनुशासन कम होता गया, वैसे-वैसे सामाजिक दण्ड का भी विकास होता गया। राज्य की स्थापना के साथ अनेक दण्ड प्रचलित हो गए, जैसे
परिभाषक-थोड़े समय के लिए नजरबंद करना-क्रोधपूर्ण शब्दों में अपराधी को 'यहीं बैठ जाओ' ऐसा आदेश देना।
मंडलिबंध-नजरबंद करना-नियमित क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना। चारक-कैद में डालना। छविच्छेद---हाथ पैर आदि काटना।'
१७१। २.७।२७। ३. ७४०.४३।
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स्थान ७ : आमुख
दण्डनीति का विकास इस बात का सूचक है कि मनुष्य जितना स्वयं-शासित होता है, दण्ड का प्रयोग उतना ही कम होता है। और आत्मानुशासन जितना कम होता है, दण्ड का प्रयोग उतना ही बढ़ता है। याज्ञवल्क्यस्मृति में भी धिग्दण्ड का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार दण्ड के चार प्रकार हैं
धिग्दण्ड-धिक्कार युक्त वचनों द्वारा बुरे मार्ग पर जाने से रोकना। वाग्दण्ड-कठोर वचनों के द्वारा अपराध करने वाले व्यक्ति को वैसा न करने की शिक्षा देना।
धनदण्ड-पंसे का दण्ड । बार-बार अपराध न करने के लिए निषेध करने पर भी न माने तब धन के रूप में जो दण्ड दिया जाता है, उसे धनदण्ड कहते हैं।
वधदण्ड---अनेक बार समझाने पर जब अपराधी अपने स्वभाव को नहीं बदलता, तब उसे वध करने का दण्ड दिया जाता है।
मनुष्य अनेक शक्तियों का पुञ्ज है। उसमें विवेक है, चिंतन है। उसके पास भावाभिव्यक्ति के लिए भाषा का सशक्त माध्यम भी है। वह प्रारम्भ में अपने भावों को कुछेक शब्दों में अभिव्यक्त करता था, किन्तु विकसित अवस्था में उसकी भाषा विकसित हो गई और उसने अभिव्यक्ति में सौन्दर्य लाने का प्रयत्न किया। उस प्रयत्न में गद्य और पद्य शैली का विकास हुआ। लौकिक ग्रन्थों में उसकी विशद चर्चा मिलती है। काव्यशास्त्र और संगीत शास्त्र की दीर्घकालीन परम्परा है । सूत्रकार ने हेय और उपादेय की मीमांसा के साथ-साथ ज्ञेय विषयों का संकलन भी किया है। स्वर-मण्डल उसका एक उदाहरण है। इस संग्रह सूत्र में अन्यान्य विषयों का जहां नाम-निर्देश है वहां स्वर-मंडल का विशद वर्णन मिलता है।
प्रस्तुत स्थान सात की संख्या से सम्बन्धित है। इसमें जीव-विज्ञान, लोक-स्थिति संस्थान, गोत्र, नय, आसन, पर्वत, चक्रवर्तीरत्न, दुषमाकाल की पहचान, सुषमाकाल की पहचान, संयम-असंयम, आरंभ, धान्य की स्थिति का समय, देवपद, समुद्घात, प्रवचन-निण्हव, नक्षत्र, विनय के प्रकार, इतिहास और भूगोल-सम्बन्धी अनेक विषय संकलित हैं।
१. याज्ञवल्क्यस्मृति, आचाराध्याय, राजधर्म, श्लोक ३६७ । धिग्दण्डस्त्वथ वाग्दण्डो, धनदण्डो वधस्तथा योज्या व्यस्ताः समस्ता था, ह्यपराधवशादिमे ।
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सत्तमं ठाणं
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
गणावक्कमण-पदं
गणापक्रमण-पदम् १. सत्तविहे गणावक्कमणे पण्णत्ते, तं सप्तविधं गणापक्रमणं प्रज्ञप्तम्, जहा
तद्यथासव्वधम्मा रोएमि।
सर्वधर्मान रोचयामि। एगइया रोएमि,
एककान् रोचयामि, एगइया णो रोएमि। एककान् नो रोचयामि। सव्वधम्मा वितिगिच्छामि । सर्वधर्मान् विचिकित्सामि। एगइया वितिगिच्छामि, एककान् विचिकित्सामि, एगइया णो वितिगिच्छामि। एककान् नो विचिकित्सामि। सव्वधम्मा जुहुणामि। सर्वधर्मान् जुहोमि। एगइया जुहुणामि,
एककान् जुहोमि, एगइया णो जुहुणामि। एककान् नो जुहोमि । इच्छामि णं भंते ! एगल्लविहार- इच्छामि भदन्त ! एकाकिविहारपडिमं उबसंपिज्जत्ता णं प्रतिमां उपसंपद्य विहर्तुम् । विहरित्तए।
गणापक्रमण-पद १. सात कारणों से गण से अपक्रमण किया
जा सकता है१. सब धर्मों [श्रुत व चारित्र के प्रकारों] में मेरी रुचि है। यहां उनकी पुति के साधन नहीं हैं। इसलिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूं। २. कुछेक धर्मों में मेरी रुचि है और कुछेक धर्मों में मेरी रुचि नहीं है। जिनमें मेरी रुचि है उनकी पूर्ति के साधन यहां नहीं हैं। इसलिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूं। ३. सब धर्मों के प्रति मेरा संशय है । संशय को दूर करने के लिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूँ। ४. कुछेक धर्मों के प्रति मेरा संशय है और कुछेक धमों के प्रति मेरा संशय नहीं है। संशय को दूर करने के लिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूं। ५. मैं सब धर्मों को दूसरों को देना चाहता हं । इस गण में कोई योग्य व्यक्ति नहीं है जिसे कि मैं सब धर्म दे सकू। इसलिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता है। ६. मैं कुछेक धर्मों को दूसरों को देना चाहता हूं और कुछेक धर्मों को नहीं देना चाहता। इस गण में कोई योग्य व्यक्ति नहीं है जिसे कि मैं जो देना चाहता हूं वह दे सकू। इसलिए भंते! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूं। ७. भंते ! मैं ‘एकलविहार प्रतिमा' को स्वीकार कर विहरण करना चाहता हूं। इसलिए इस गण से अपक्रमण करता हूं।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७: सूत्र २
विभंगणाण-पदं विभंगज्ञान-पदम्
विभंगज्ञान-पद २. सत्तविहे विभंगणाणे पण्णत्ते, तं सप्तविधं विभङ्गज्ञानं प्रज्ञप्तम्, २. विभंगज्ञान [मिथ्यात्वी का अवधिज्ञान] जहातयथा
सात प्रकार का होता हैएगदिस लोगाभिगमे, एकदिशि लोकाभिगमः,
१. एकदिग्लोकाभिगम--लोक एक दिशा
में ही है। पंचदिसि लोगाभिगमे, पञ्चदिशि लोकाभिगमः,
२. पंचदिग्लोकाभिगम —लोक पांचों किरियावरणे जीवे, क्रियावरण: जीवः,
दिशाओं में ही है, एक दिशा में नहीं है। मुदग्गे जीवे, अमुदग्गे जीवे, 'मुदग्गः' जीवः, 'अमुदग्गाः' जीवः,
३. क्रियावरणजीव---जीव के क्रिया का रूवी जीवे, सव्वमिणं जीवा। रूपी जीवः, सर्वमिदं जीवः ।
ही आवरण है, कर्म का नहीं। तत्थ खलु इमे पढमे विभंगणाणे- तत्र खलु इदं प्रथमं विभङ्गज्ञानम्- ४. मुदग्गजीव-जीव पुद्गल निर्मित ही है। जया णं तहारूवस्स समणस्स वा यदा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य ५. अमुदग्गजीव-जीव पुद्गल निर्मित माहणस्स वा विभंगणाणे वा विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते । स तेन
नहीं ही है।
६. रूपीजीव-जीव रूपी ही है। समुप्पज्जति । से णं तेणं विभंग- विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन पश्यति प्राचीनं
७. ये सब जीव हैं-सब जीव ही जीव हैं। णाणणं समुप्पण्णणं पासति पाईणं वा प्रतीचीनां वा दक्षिणां वा उदीचीनां
पहला विभंगज्ञान-- वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा ऊर्ध्व वा यावत् सौधर्म कल्पम् ।
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान वा उड्ढवा जाव सोहम्मे कप्पे। तस्य एवं भवति–अस्ति मम अतिशेष
प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से तस्स णं एवं भवति_अस्थि णं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्-एकदिशि लोका
पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर व सौधर्म मम अतिसेसे पाणदंसणे समुप्पण्णे- भिगमः । सन्त्येकके श्रमणा वा माहना देवलोक तक की ऊर्ध्व दिशा में से किसी एगदिसि लोगाभिगमे। संतेगइया वा एवमाहुः पञ्चदिशि लोकाभिगमः । एक दिशा को देखता है, तब उसके मन में समणा वा माहणा वा एवमाहंसु- ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः- ऐसा विचार उत्पन्न होता है--"मुझे पंचदिसि लोगाभिगमे। प्रथम विभङ्गज्ञानम् ।
अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं जे ते एवमासु, मिच्छं ते एव
एक दिशा में ही लोक को देख रहा हूं।
कुछ श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक माहंसु-पढमे विभंगणाणे।
पांच दिशाओं में है। जो ऐसा कहते हैं, अहावरे दोच्चे विभंगणाणे-जया अथापरं द्वितीयं विभङ्गज्ञानम् । यद
वे मिथ्या कहते हैं"-यह पहला विभंगणं तहारूवस्स समणस्स वा माह- तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा ज्ञान है। णस्स वा विभंगणाणे समुप्पज्जति। विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते। स तेन विभङ्ग- दूसरा विभंगज्ञान --- से णं तेणं विभंगणाणेणं ज्ञानेन समुत्पन्नेन पश्यति प्राचीनां वा जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान समुप्पण्णेणं पासति पाईणं वा प्रतीचीनां वा दक्षिणां वा उदीचीनां वा प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा ऊर्ध्वं वा यावत् सौधर्म कल्पम् ।
पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण व सौधर्म
देवलोक तक की ऊर्ध्व दिशा--इन पांचों उड्डू जाव सोहम्मे कप्पे । तस्स णं तस्य एवं भवति–अस्ति मम अतिशेषं
दिशाओं को देखता है। तब उसके मन में एवं भवति–अस्थि णं मम अति- ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्-पञ्चदिशि
ऐसा विचार उत्पन्न होता है-"मुझे सेसे पाणदंसणे समुप्पण्णे_पंच- लोकाभिगमः । सन्त्येकके श्रमणा वा
अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं दिसि लोगाभिगमे। संतेगइया माहना वा एवमाहुः—एकदिशि लोका- पांचों दिशाओं में ही लोक को देख समणा वा माहणा वा एवमाहंसु- भिगमः । ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते रहा हूं।
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ठाणं (स्थान)
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एगदिस लोगाभिगमे । जे ते एवमाहुः द्वितीयं विभङ्गज्ञानम् ।
एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसुदोच्चे विभंगणाणे |
।
अहावरे तच्चे विभंगणाणे – जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहस्वा विभंगणाणे समुपज्जति से णं तेणं विभंगणाणेणं समुपणेणं पासति पाणे अतिवातेमाणे, मुसं वयमाणे, अदिण्णमादिय माणे, मेहुणं पडिसेवमाणे, परिग्गहं परिगिण्हमाणे, राइभोयणं भुजमाणे पावं च णं कम्मं कीरमाणं णो पासति । तस्स णं एवं भवति अणं मम असे णाणदंसणे समुप्पण्णे किरियावरणे जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु - णो किरियावरणे जीवे । जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु तच्चे विगणाणे । अहावरे चउत्थे विभंगणाणे – जया णं तथारूवस्स समणस्स वा माहस् वा विभंगणाणे समुप्पजयति । से णं तेणं विभंगणाणेणं सपणे देवामेव पासति बाहिर अंतरए पोग्गले परियाइत्ता पुढेगत्तं णाणत्तं फुसित्ता फुरिता फुट्टित्ता विकुव्वित्ता णं चिट्टित्तए । तस्स णं एवं भवति अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुपणे मुदग्गे जीवे संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु — अमुदग्गे जीवे । जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसुत्थे विभंगणाणे ।
अथापरं तृतीयं विभङ्गज्ञानम् - यदा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते । स तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन पश्यति प्राणान् अतिपातयतः, मृषा वदतः, अदत्तमाददतः, मैथुनं प्रतिषेवमाणान् परिग्रहं परिगृह्णतः, रात्रिभोजनं भुञ्जानान्, पापं च कर्म क्रियमाणं नो पश्यति । तस्य एवं भवति अस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् - क्रियावरणः जीवः । सन्त्येक के श्रमणा वा माहना वा एवमाहुः — नो क्रियावरण: जीवः । ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः - तृतीयं विभङ्गज्ञानम् ।
अथापरं चतुर्थं विभङ्गज्ञानम् - यदा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते । स तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन देवानेव पश्यति बाह्याभ्यन्तरान् पुद्गलान् पर्यादाय पृथगेकत्वं नानात्वं स्पृष्ट्वा स्फोरयित्वा स्फोटयित्वा विकृत्य स्थातुम् । तस्य एवं भवति — अस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् — ' मुदग्ग:' जीव | सन्त्येकके श्रमणा वा माहना वा एवमाहुः - 'अमुदग्ग' जीवः । ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः — चतुर्थ विभङ्गज्ञानम् ।
स्थान ७ : सूत्र २
कुछ श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक एक दिशा में ही है । जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं यह दूसरा विभंगज्ञान है ।
तीसरा विभंगज्ञान
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से जीवों को हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, अदत्त ग्रहण करते हुए, मैथुन सेवन करते हुए, परिग्रह ग्रहण करते हुए और रात्रीभोजन करते हुए देखता है, किन्तु उन प्रवृत्तियों के द्वारा होते हुए कर्म-बन्ध को नहीं देखता, तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है- "मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूं कि जीव क्रिया से ही आवृत है, कर्म से नही ।
कुछ श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव क्रिया से आवृत नहीं है । जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं—यह तीसरा विभंगज्ञान है।
चौथा विभंगज्ञान---
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से देवों को बाह्य [ शरीर के अवगाव-क्षेत्र के बाहर ] और अभ्यन्तर [ शरीर के अव गाढ क्षेत्र के भीतर ] पुद्गलों को ग्रहण कर विक्रिया करते हुए देखता है। वे देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उन में हलचल पैदा कर, उनका स्फोट कर, पृथक-पृथक काल व देश में कभी एक रूप व कभी विविध रूपों की विक्रिया करते हैं । यह देख उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है। - "मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूं कि जीव पुद्गलों से ही बना हुआ है।
कुछ श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव पुद्गलों से बना हुआ नहीं है । जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं - यह चौथा विभंगज्ञान है।
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ठाणं (स्थान)
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अहावरे पंचमे विभंगणाणे जया णं तधाख्वस्स समणस्स वा माह
अथापरं पञ्चमं विभङ्गज्ञानम् - यदा तथारूपस्य श्रमणस्य वा मानस्य वा विभंगणा समुपज्जति । विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते । स तेन विभङ्गविभंगणा समुप्पण्णेणं ज्ञानेन समुत्पन्नेन देवानेव पश्यति देवामेव पासति बाहिरब्भंतरए बाह्याभ्यन्तरान् पुद्गलकान् अपर्यादाय पोगलए अपरियाइत्ता पुढेगत्तं पृथगेकत्वं नानात्वं स्पृष्ट्वा स्फोरयित्वा णाणत्तं 'फुसित्ता फुरिता फुट्टित्ता स्फोटयित्वा विकृत्य स्थातुम् । तस्य एवं विवित्ताणं चिति । तस्स भवति अस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं एवं भवति अस्थि णं मम समुत्पन्नम् — 'अमुदग्गः' जीवः । असे जाणणे समुप्पण्णे सन्त्येकके श्रमणा वा माना वा एवअमुदगे जीवे | संतेगइया समणा माहुः - ' मुदग्गः ' जीवः । ये ते एवमाहुः, वा माहणा वा एवमाहंसु मिथ्या ते एवमाहुः पञ्चमं विभङ्गमुदगे जीवे । जे ते एवमाहंसु, ज्ञानम् । मिच्छं ते एवमाहंसु — पंचमे विभंगणाणे ।
अहावरे छट्ठे विभंगणाणे – जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स विभंगणा समुपज्जति । से णं तेणं विभंगणाणेणं समुपणं देवामेव पासति बाहि - रब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता वा अपरियाइत्ता वा पुढेगत्तं णाणत्तं फुसित्ता फुरिता फुट्टित्ता विकुव्वित्ताणं चित्तिए । तस्स णं एवं भवति अस्थि णं मम अतिसेसे जाणदंसणे समुपणे रूबी जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु अरुवी जीवे । जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसुछ विभंगणाणे ।
अहावरे सत्तमे विभंगणाणे – जया तहारुवस्स समणस्स वा माहस्वाविभंगणाणे समुपज्जति । से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं
1- यदा
अथापरं पष्ठं विभङ्गज्ञानम् - तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते । स तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन देवानेव पश्यति बाह्याभ्यन्तरान् पुद्गलान् पर्यादाय वा अपर्यादाय वा पृथगेकत्वं नानात्वं स्पृष्ट्वा स्फोरयित्वा स्फोटयित्वा विकृत्य स्थातुम् । तस्य एवं भवति अस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् - रूपी जीवः । सन्त्येक के श्रमणा वा माहना वा एवमाहु:-अरूपी जीवः । ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः षष्ठं विभङ्गज्ञानम् ।
अथापरं सप्तमं विभङ्गज्ञानम् — यदा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते । स तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन पश्यति सूक्ष्मेण वायु
स्थान ७ : सूत्र २
पांचवां विभंगज्ञान
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से देवों को बाह्य और आभ्यंतर पुद्गलों को ग्रहण किए बिना विक्रिया करते हुए देखता है। वे देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हलचल पैदा कर, उनका स्फोट कर, पृथक्-पृथक् काल व देश में कभी एक रूप कभी विविध रूपों की विक्रिया करते हैं। यह देख उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है - "मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूं कि जीव पुद्गलों से बना हुआ नहीं ही है। कुछ श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव पुद्गलों से बना हुआ है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं - यह पांचवां विभंगज्ञान है।
छठा विभंगज्ञान
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से देवों को बाह्य और आभ्यंतर पुद्गलों को ग्रहण करके और ग्रहण किए बिना विक्रिया करते हुए देखता है। वे देव पुगलों का स्पर्श कर उनमें हलचल दा कर, उनका स्फोट कर, पृथक्-पृथक् काल व देश में कभी एक रूप व कभी विविध रूपों की विक्रिया करते हैं यह देख उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है"मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है । मैं देख रहा हूं कि जीव रूपी ही है। कुछ श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव अरूपी है जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं - यह छठा विभंगज्ञान है ।
सातवां विभंगज्ञान
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान प्राप्त होता है तब वह उस विभंगज्ञान से
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७: सूत्र ३-४ पासई सुहुमेणं वायुकाएणं फुडं पोग्ग- कायेन स्फुटं पुद्गलकार्य एजमानं व्येजमान सूक्ष्म वायु [मन्द वायु] के स्पर्श से पुद्लकायं एयंत वेयंतं चलंत खुब्भंतं चलन्त क्षुभ्यन्तं स्पन्दमानं घट्टयन्तं गल-काय [पुद्गल राशि] को कम्पित फंदतं घट्टतं उदीरतं तं तं भावं उदीरयन्तं तं तं भावं परिणमन्तम् । तस्य
होते हुए विशेष रूप से कम्पित होते हुए, परिणमंत । तस्स णं एवं भवति– एवं भवति—अस्ति मम अतिशेषं ज्ञान
चलित होते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पंदित
होते हुए, दूसरे पदार्थों का स्पर्श करते हुए, अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे दर्शनं समुत्पन्नम् ...सर्वे एते जीवाः ।
दूसरे पदार्थों को प्रेरित करते हुए, विविध समुप्पण्णे-सव्वमिणं जीवा। सन्त्येकके श्रमणा वा माहना वा एव
प्रकार के पर्यायों में परिणत होते हुए देखता संतेगइया समणा वा माहणा वा माहुः-जीवाश्चैव अजीवाश्चैव। ये है। तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न एवमाहंसु-जीवा चेव अजीवा ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः । तस्य होता है -..."मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन चेव । जे ते एवमासु, मिच्छं ते इमे चत्वारः जीवनिकायाः नो सम्यग्- प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूं किये एवमाहंसु । तस्स णं इमे चत्तारि उपगता भवन्ति, तद्यथा...
सभी जीव ही जीव हैं। जीवणिकाया णो सम्ममुवगता पृथिवीकायिकाः, अपकायिकाः,
कुछ श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि
जीव भी हैं और अजीव भी हैं। जो भवंति, तं जहातेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः ।
ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। पूढ विकाइया, आउकाइया, इतिएतैः चतुभिः जीवनिकायैः मिथ्या
उस विभंगज्ञानी को पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाइया, वाउकाइया। दण्ड प्रवर्तयति--
तेजस्काय और वायुकाय --इन चार जीवइच्चेतेहि चहि जीवणिकाहिं सप्तमं विभङ्गज्ञानम् ।
निकायों का सम्यग् ज्ञान नहीं होता। वह मिच्छादंड पवत्तेइ
इन चार जीवनिकायों पर मिथ्यादण्ड का
प्रयोग करता है-यह सातवां विभंगसत्तमे विभंगणाणे।
ज्ञान है। जोणिसंगह-पदं योनिसंग्रह--पदम्
योनिसंग्रह-पद ३. सत्तविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं सप्तविधः योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ३. योनि-संग्रह के सात प्रकार हैंजहा
अण्डजाः, पोतजाः, जरायुजाः, रसजाः, १. अण्डज, २. पोतज, ३. जरायुज, अंडजा, पोतजा, जराउजा, रसजा, संस्वेदजाः, सम्मूच्छिमाः, उद्भिज्जाः।। ४. रसज, ५. संस्वेदज, ६. सम्मूच्छिम, संसेयगा, समुच्छिमा, उब्भिगा।
७. उद्भिज्ज। गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम्
गति-आगति-पद ४. अंडगा सत्तगतिया सत्तागतिया अण्डजा: सप्तगतिका: सप्तागतिकाः ४. अण्डज जीवों की सात गति और सात पण्णता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--
आगति होती है.- अंडगे अंडगेसु उववज्जमाणे अंड- अण्डजः अण्डजेषु उपपद्यमानः जो जीव अण्डजयोनि में उत्पन्न होता है गेहितो वा, पोतहितो वा, अण्डजेभ्यो वा पोतजेभ्यो वा जरायु- वह अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, 'जराउहितो वा, रसहिंतो वा, जेभ्यो वा रसजेभ्यो वा संस्वेदजेभ्यो वा संस्वेदज, सम्मूच्छिम और उद्भिज्जसंसेयरोहितो वा, सम्मच्छिमेहितो सम्मूच्छिमेभ्यो वा उद्भिज्जेभ्यो वा इन सातों योनियों से आता है। वा, उभिगेहितो वा उववज्जेज्जा। उपपद्येत ।
जो जीव अण्डजयोनि को छोड़कर दुसरी सच्चेव णं से अंडए अंडगत्तं स चैव असौ अण्डजः अण्डजत्वं विप्र- योनि में जाता है वह अण्डज, पोतज, विप्पजहमाणे अंडगत्ताए वा, जहत अण्डजतया वा पोतजतया जराघुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूच्छिम
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स्थान ७ : सूत्र ५-६
और उद्भिज्ज-इन सातों योनियों में जाता है ।
पोतगत्ताए वा, 'जराउजत्ताए वा, वा जरायुजतया वा रसजतया वा रसजत्ताए वा, संसेयगत्ताए वा, संस्वेदजतया वा सम्मूच्छिमतया वा संमुच्छिमत्ताए वा , उब्भिगत्ताए उद्भिज्जतया वा गच्छेत् ।
वा गच्छेज्जा। ५. पोतगा सत्तगतिया सत्तागतिया पोतजाः सप्तगतिकाः सप्तागतिका: एवं एवं चेव। सत्तण्हवि गतिरागती चैव । सप्तानामपि गतिरागतिः भाणियन्वा जाव उभियत्ति। भणितव्या यावत् उदभिज्ज इति ।
५. पोतज जीवों की सात गति और सात
आगति होती है। इस प्रकार सभी योनि-संग्रहों की सातसात गति और सात-सात आगति होती
संगहट्ठाण-पदं संग्रहस्थान-पदम्
संग्रहस्थान-पद ६. आयरिय-उबज्झायस्स णं गणंसि आचार्योपाध्यायस्य गणे सप्त संग्रह- ६. आचार्य तथा उपाध्याय के लिए गण में सत्त संगहठाणा एण्णत्ता, तं स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
सात संग्रह के हेतु हैंजहा१. आयरिय-उवन्झाए णं गणंसि १. आचार्योपाध्यायः गणे आज्ञां वा धारणां १. आचार्य तथा उपाध्याय गण में आज्ञा आणं वा धारणं वा सम्मं पउंजित्ता वा सम्यक प्रयोक्ता भवति ।
व धारणा का सम्यक् प्रयोग करें। भवति । २. आयरिय-उवज्झाए णं २. आचार्योपाध्यायः गणे यथारात्नि- २. आचार्य तथा उपाध्याय गण में यथागणंसि आधारातिणियाए किति- कतया कृतिकर्म सम्यक् प्रयोक्ता भवति । रानिक-बड़े-छोटे के क्रम से कृतिकर्म कम्म सम्म पउंजित्ता भवति।
[वन्दना] का सम्यक् प्रयोग करें। ३. आयरिय-उवज्झाए णं गणसि ३. आचार्योपाध्यायः गणे यानि सूत्र- ३. आचार्य तथा उपाध्याय जिन-जिन सूत्रजे सूतपज्जवजाते धारेतिते काले- पर्यवजातानिधारयति तानि काले-काले
पर्यवजातों को धारण करते हैं, उनकी काले सम्मभणुप्पवाइसा भवति। सम्यग् अनुप्रवाचयिता भवति। उचित समय पर गण को सम्यक वाचना दें। ४. आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि ४. आचार्योपाध्यायः गणे ग्लानशैक्ष- ४. आचार्य तथा उपाध्याय गण के ग्लान गिलाणसेहवेयावच्चं सम्ममभुट्टित्ता वैयावृत्यं सम्यग् अभ्युत्थाता भवति ।
तथा नवदीक्षित साधुओं की यथोचित भवति।
सेवा के लिए सतत जागरूक रहें। ५. आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि ५. आचार्योपाध्यायः गणे आपृच्छ्यचारी ५. आचार्य तथा उपाध्याय गण को पुछआपुच्छियचारी यावि भवति, णो चापि भवति, नो अनापृच्छ्यचारी। कर अन्य प्रदेश में विहार करें, उसे पूछे अणाणुपुच्छियचारी॥
बिना विहार न करें। ६. आयरिय-उवझाए णं गणंसि ६. आचार्योपाध्यायः गणे अनुत्पन्नानि ६. आचार्य तथा उपाध्याय गण के लिए अणुप्पण्णाइं उवगरणाई सम्मं उपकरणानि सम्यग् उत्पादयिता भवति। अनुपलब्ध उपकरणों को यथाविधि उपउप्पाइत्ता भवति।
लब्ध करें।
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स्थान ७ : सूत्र ७-८ ७. आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि ७. आचार्योपाध्यायः गणे पूर्वोत्पन्नानि ७. आचार्य तथा उपाध्याय गण में प्राप्त पुवुप्पण्णाइं उवकरणाई सम्म उपकरणानि सम्यक् संरक्षयिता संगोप- उपकरणों का सम्यक् प्रकार से संरक्षण सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति, यिता भवति, नो असम्यक संरक्षयिता तथा संगोपन करें, विधि का अतिक्रमण णो असम्मं सारक्खेत्ता संगोवित्ता संगोपयिता भवति ।
कर संरक्षण और संगोपन न करें। भवति। असंगहट्ठाण-पदं असंग्रहस्थान-पदम्
असंग्रहस्थान-पद ७. आयरिय-उवज्झायस्स णं गर्णसि आचार्योपाध्यायस्य गणे सप्त असंग्रह- ७. आचार्य तथा उपाध्याय के लिए गण में सत्त असंगहठाणा पण्णत्ता, तं स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
सात असंग्रह के हेतु हैंजहा१. आयरिय-उवज्झाए णं गणं सि १. आचार्योपाध्यायः गणे आज्ञा वा १. आचार्य तथा उपाध्याय गण में आज्ञा आणं वा धारणं वा णो सम्मं धारणां वा नो सम्यक प्रयोक्ता भवति । व धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें। पउंजित्ता भवति। २. 'आयरिय-उवज्झाए णं २. आचार्योपाध्यायः गणे यथारात्नि- २. आचार्य तथा उपाध्याय गण में यथागणंसि आधारातिणियाए किति- कतया कृतिकर्म नो सम्यक् प्रयोक्ता । रात्निक कृतिकर्म का सम्यक् प्रयोग न कम्मं णो सम्मं पउंजित्ता भवति। भवति ।
करें। ३. आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि ३. आचार्योपाध्यायः गणे यानि सूत्रपर्य- ३. आचार्य तथा उपाध्याय जिन-जिन जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले- वजातनि धारयति तानि काले-काले नो । सुत्र-पर्यवजातों को धारण करते हैं, उनकी काले णो सम्ममणुप्पदाइत्ता सम्यक्अनुप्रवाचयिता भवति ।
उचित समय पर गण को सम्यक् वाचना भवति ।
न दें। ४. आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि ४. आचार्योपाध्यायःगणे ग्लानशैक्षवैया- ४. आचार्य तथा उपाध्याय ग्लान तथा गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्म- वृत्यं नो सम्यग्अभ्युत्थाता भवति । नवदीक्षित साधुओं की यथोचित सेवा के मन्भुद्वित्ता भवति।
लिए सतत जागरूक न रहें। ५. आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि ५. आचार्योपाध्यायः गणे अनापृच्छ्य- ५. आचार्य तथा उपाध्याय गण को पूछे अणापुच्छियचारी यावि हवइ, चारी चापि भवति, नो आपृच्छ्यचारी।। विना अन्य प्रदेशों में विहार करें, उसे णो आपुच्छियचारी।
पूछकर विहार न करें। ६. आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि ६. आचार्योपाध्यायः गणे अनुत्पन्नानि ६. आचार्य तथा उपाध्याय गण के लिए अणुप्पण्णाई उवगरणाई णो सम्मं उपकरणानि नो सम्यक् उत्पादयिता अनुपलब्ध उपकरणों को यथाविधि उपउप्पाइत्ता भवति। भवति ।
लब्ध न करें। ७. आयरिय-उवज्झाए णंगणं सि ७. आचार्योपाध्यायः गणे प्रत्युत्प- ७. आचार्य तथा उपाध्याय गण में प्राप्त पच्चुप्पण्णाणं उबगरणाणं णो न्नानां उपकरणानां नो सम्यक संरक्ष- उपकरणों का सम्यक् प्रकार से संरक्षण सम्मं सारक्खेत्ता संगोवेत्ता भवति। यिता संगोपयिता भवति ।
और संगोपन न करें।
पडिमा-पदं ८. सत्त पिंडेसणाओ पण्णत्ताओ।
प्रतिमा-पदम् सप्त पिण्डैषणाः प्रज्ञप्ताः ।
प्रतिमा-पद ८. पिण्ड-एषणाएं सात हैं।'
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : सूत्र ६-२२
है. सत्त पाणेसणाओ पण्णत्ताओ। सप्त पानेषणा: प्रज्ञप्ताः । १०. सत्त उग्गहपडिमाओ पण्णत्ताओ। सप्त अवग्रह-प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः ।
६. पान-एषणाएं सात हैं। १०. अवग्रह-प्रतिमाएं सात हैं।
आयारचूला-पदं आचारचूला-पदम्
आचारचूला-पद ११. सत्तसत्तिक्कया पण्णत्ता। सप्तसप्तककाः प्रज्ञप्ताः।
११. सात सप्तकक' हैं--आचारचूला की
दूसरी चूलिका के उद्देशक-रहित अध्ययन
सात हैं। १२. सत्त महज्झयणा पण्णत्ता। सप्त महाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि। १२. महान् अध्ययन सात हैं।' पडिमा-पद प्रतिमा-पदम्
प्रतिमा-पद १३. सत्तसत्तमिया णं भिक्ख पडिमा सप्तसप्तमिका भिक्षप्रतिमा एकोनपञ्चा- १३. सप्त-सप्तमिका(७ x ७)भिक्षप्रतिमा ४६
एकूणपण्णत्ताए राइदिएहि ऐगेण य शद्भिः रात्रिदिवैः एकेन च षण्णवत्या दिन-रात तथा १६६ भिक्षादत्तियों द्वारा छण्णउएणं भिवखासतेणं अहासुत्तं भिक्षाशतेन यथासूत्र यथार्थ यथातत्त्वं यथासूत्र, यथाअर्थ, यथातत्त्व, यथामार्ग, 'अहाअत्थं अहातच्चं अहामग्गं यथामार्ग यथाकल्पं सम्यक् कायेन यथाकल्प तथा सम्यक् प्रकार से काया से अहाकप्पं सम्म काएणं फासिया स्पृष्टा पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आचीर्ण, पालित, शोधित, पूरित, कीर्तित पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आराधिता चापि भवति।
और आराधित की जाती है। आराहिया यावि भवति। अहेलोगद्विति-पदं अधोलोकस्थिति-पदम्
अधोलोकस्थिति-पद १४. अहेलोगे णं सत्त पुढवीओ अधोलोके सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः।। १४. अधोलोक में सात पृथ्वियां हैं।
पण्णत्ताओ। १५. सात घणोदधीओ पग्णत्ताओ। सप्त घनोदधयः प्रज्ञप्ताः ।
१५. सात घनोदधि [ठोस समुद्र] हैं। १६. सत्त घणवाता पण्णत्ता। सप्त धनवाता: प्रज्ञप्ताः ।
१६. सात घनवात [ठोस वायु] हैं। १७. सत्त तणुवाता पण्णत्ता। सप्त तनुवाता: प्रज्ञप्ताः ।
१७. सात तनुवात [पतली वायु] हैं। १८. सत्त ओवासंतरा पण्णत्ता। सप्त अवकाशान्तराः प्रज्ञप्ताः ।
१८. सात अवकाशान्तर [तनुवात, धनवात
आदि के मध्यवर्ती आकाश] है। १६. एतेसु णं सत्तसु ओवासंतरेसु सत्त एतेषु सप्तसु अवकाशान्तरेषु सप्त तनु- १६. इन सात अवकाशान्तरों में सात तनुवात तणुवाया पइट्ठिया। वाताः प्रतिष्ठिताः।
प्रतिष्ठित हैं। २०. एतेसु णं सत्तसु तणुवातेसु सत्त एतेषु सप्तसु तनुवातेसु सप्त धनवाताः २०. इन सात तनुवातों पर सात घनवात घणवाता पइट्ठिया। प्रतिष्ठिताः।
प्रतिष्ठित हैं। २१. एतेसु णं सत्तसु घणवातेसु सत्त एतेषु सप्तसु घनवातेषु सप्त धनोदधयः २१. इन सात धनवातों पर सात घनोदधि घणोदधी पतिट्टिता। प्रतिष्ठिताः।
प्रतिष्ठित हैं। २२. एतेसु णं सत्तसु घणोदधीसु पिंड- एतेषु सप्तसु घनोदधिषु पिण्डलकपृथुल- २२. इन सात घनोदधियों पर फूल की टोकरी
लगपिहल-संठाण-संठियाओ सत्त संस्थान-संस्थिताः सप्त पथिव्यः प्रज्ञप्ताः, की भांति चौड़े संस्थान वाली' सात पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- तद्यथा
पृथ्वियां प्रज्ञप्त हैंपढमा जाव सत्तमा। प्रथमा यावत् सप्तमा।
प्रथमा यावत् सप्तमी।
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ठाणं (स्थान)
७२१
स्थान ७ : सूत्र २३-२७ २३. एतासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त एतासां सप्तानां पृथिवीनां सप्त नाम- २३. इन सात पृथ्वियों के नाम सात हैंणामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा- धेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-
१. धर्मा, २. वंशा, ३. शैला, घम्मा, वसा, सेला, अंजणा, घर्मा, वंशा, शैला, अञ्जना, रिष्टा, ४. अंजना, ५. रिष्टा, ६. मघा, रिट्ठा, मघा, माघवती।। मघा, माघवती।
७. माघवती। २४. एतासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त एतासां सप्तानां पृथिवीनां सप्त २४. इन सात पृथ्वियों के गोत्र सात हैंगोत्ता पण्णत्ता, तं जहा- गोत्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. रत्नप्रभा, २. शर्कराप्रभा, रयणप्पभा, सक्करप्पभा, रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालकाप्रभा, ३. बालुकाप्रभा, ४. पंकप्रभा, वालुअप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमा, तमस्तमा। ५. धूमप्रभा, ६. तमा, तमा, तमतमा।
७. तमस्तमा।
बायरवाउकाइय-पदं बादरवायुकायिक-पदम् । बादरवायुकायिक-पद २५. सत्तविहा बायरवाउकाइया पण्णत्ता, सप्तविधा बादरवायुकायिका: प्रज्ञप्ताः, २५. बादरवायुकायिक जीव सात प्रकार के तं जहातद्यथा
होते हैंपाईणवाते, पडीणवाते, दाहिणवाते, प्राचीनवातः, प्रतिचीनवातः, १. पूर्व की वायु, २. पश्चिम की वायु, उदीणवाते, उड्डवाते, अहेवाते, दक्षिणवातः, उदीचीनवातः,
३. दक्षिण की वायु, ४. उत्तर की वायु, विदिसिवाते। ऊर्ध्ववातः, अधोवातः,
५. ऊर्ध्व दिशा की वायु, विदिग्वातः ।
६. अधोदिशा की वायू, ७. विदिशा की वायु।
संठाण-पदं २६. सत्त संठाणा पण्णत्ता, तं जहा
दीहे, रहस्से, वट्टे, तसे, चउरंसे, पिहुले, परिमंडले।
संस्थान-पदम्
संस्थान-पद सप्त संस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तदयथा- २६. संस्थान सात हैदीर्घ, ह्रस्वं, वृत्तं, त्र्यस्र, चतुरस्र, पृथुलं, १. दीर्घ, २. ह्रस्व, ३. वृत्त-गेंद की परिमण्डलम्।
भांति गोल, ४. त्रिकोण, ५. चतुष्कोण, ६. पृथुल-विस्तीर्ण, ७. परिमण्डलवलय की भांति गोल।
भयट्ठाण-पदं भयस्थान-पदम्
भयस्थान-पद २७. सत्त भयाणा पण्णत्ता, सप्त भयस्थानानि, प्रज्ञप्तानि, २७. भय के स्थान सात हैंतं जहातद्यथा
१. इहलोक भय-सजातीय से भय, इहलोगभए,परलोगभए,आदाणभए, इहलोकभयं, परलोकभयं, आदानभयं, जैसे—मनुष्य को मनुष्य से होने वाला भय, अकम्हाभए, वेयणभए, मरणभए, अकस्माद्भयं, वेदनाभयं, मरणभयं, २. परलोक भय–विजातीय से भय, असिलोगभए। अश्लोकभयम्।
जैसे-मनुष्य को तिर्यञ्च आदि से होने वाला भय। ३. आदान भय-धन आदि पदार्थों के अपहरण करने वाले से होने वाला भय ।
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ठाणं (स्थान)
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छउमत्थ-पदं
छद्मस्थ-पदम्
२८. सतह ठाणेहि छउ मत्थं जाणेज्जा, सप्तभिः स्थानैः छद्मस्थं जानीयात्,
तं जहा
तद्यथा—
पाणे अइवात्ता भवति । मुसं वइत्ता भवति । अदिणं आदित्ता भवति । सफरिसर सरूवगंधे आसादेत्ता भवति ।
प्राणान् अतिपातयिता भवति । मृषा वदिता भवति । अदत्तमादाता भवति ।
शब्दस्पर्शरसरूपगन्धानास्वादयिता
भवति ।
यासक्कारं अणुवत्ता भवति । इमं सावज्जति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति ।
पूजासत्कारं अनुबू हयिता भवति । इदं सावद्यमिति प्रज्ञाप्य प्रतिषेवयिता भवति ।
णो जहावादी तहाकारी यावि नो यथावादी तथाकारी चापि भवति ।
भवति ।
har - पदं
केवली -पदम्
२६. सतह ठाणेह केवली जाणेज्जा, सप्तभिः स्थानैः केवलिनं जानीयात्, तं जहा -
तद्यथा
णी पाणे अइवाइत्ता भवति ।
● जो मुसं वइत्ता भवति । जो अदिण्णं आदित्ता भवति । सफरिस रस रूवगंधे आसादेत्ता
भवति ।
नो प्राणान् अतिपातयिता भवति । नो मृषा वदिता
भवति । भवति ।
नो
अदत्तमादाता
नो शब्दस्पर्श र सरूपगन्धानास्वादयिता भवति ।
।
यासकार अणुवहेत्ता भवति इमं सावज्जंति पण्णवेत्ता णो पडिसेवेत्ता भवति । °
नो पूजासत्कारं अनुबू हयिता भवति । इदं सावद्यमिति प्रज्ञाप्य नो प्रतिषेवयिता भवति ।
जहावादी तहाकारी यावि भवति । यथावादी तथाकारी चापि भवति ।
स्थान ७ : सूत्र २८ - २६
४. अकस्मात् भय -- किसी वाह्य निमित्त के बिना ही उत्पन्न होने वाला भय, अपने ही विकल्पों से होने वाला भय ।
५. वेदना भय - पीड़ा आदि से उत्पन्न
भय ।
६. मरण भय मृत्यु का भय ।
७. अश्लोक भय - अकीति का भय ।
छदमस्थ-पद
२८. सात हेतुओं से छद्मस्थ जाना जाता है
१. जो प्राणों का अतिपात करता है ।
२. जो मृषा बोलता है ।
३. जो अदत्त का ग्रहण करता है।
४. जो शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का आस्वादक होता है।
५. जो पूजा और सरकार का अनुमोदन करता है ।
६. जो 'यह सावध – सपाप हैं ऐसा
कहकर भी उसका आसेवन करता है।
७. जो जैसा कहता है वैसा नहीं करता ।
केवली - पद
२६. सात हेतुओं से केवली जाना जाता है
१. जो प्राणों का अतिपात नहीं करता।
२. जो मृषा नहीं बोलता |
३. जो अदत्त का ग्रहण नहीं करता । ४. जो शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का
आस्वादक नहीं होता ।
५. जो पूजा और सत्कार का अनुमोदन नहीं करता ।
६. जो 'यह सावध - सपाप है' ऐसा कहकर उसका सेवन नहीं करता ।
७. जो जैसा कहता है वैसा करता है ।
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ठाणं (स्थान)
७२३
स्थान ७: सूत्र ३०-३५
तं जहा
गोत्त-पदं गोत्र-पदम्
गोत्र-पद ३०. सत्त मूलगोत्ता पण्णत्ता, तं जहा- सप्त मूलगोत्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३०. मूल गोत्र [एक पुरुष से उत्पन्न वंश
कासवा गोतमा वच्छा कोच्छा काश्यपाः गोतमाः वत्साः कुत्साः परम्परा] सात हैंकोसिआ मंडवा वासिट्रा। कौशिकाः माण्डवाः वाशिष्ठाः।
१. काश्यप, २. गौतम, ३. वत्स, ४. कुत्स, ५. कौशिक, ६. माण्डव (व्य)
७. वाशिष्ठ। ३१. जे कासवा ते सत्तविधा पण्णत्ता, ये काश्यपाः ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, ३१. जो काश्यप हैं, वे सात प्रकार के हैंतं जहातद्यथा
१. काश्यप, २. शाण्डिल्य, ३. गोल, ते कासवा ते संडिल्ला ते गोला ते ते काश्यपाः ते शाण्डिल्याः ते गोलाः ते ४. बाल, ५. मौजकी, ६. पर्वती, वाला ते मुंजइणो ते पदतिणो ते बाला: ते मौजकिनः ते पर्वतिनः ते ७. वर्षकृष्ण। वरिसकण्हा।
वर्षकृष्णाः । ३२. जे गोतमा ते सत्तविधा पण्णत्ता, ये गोतमाः ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, ३२. जो गौतम हैं, वे सात प्रकार के हैंतद्यथा
१. गौतम, २. गार्ग्य, ३. भारद्वाज, ते गोतमा ते गग्गा ते भारद्वा ते ते गोतमाः ते गााः ते भारद्वाजाः ते ४. आंगिरस, ५. शर्कराभ, ६. भास्कराभ, अंगिरसा ते सक्कराभा ले भक्खराभा आङ्गिरसाः ते शर्कराभाः ते भास्कराभाः ७. उदत्ताभ। ते उदत्ताभा।
ते उदात्ताभाः। ३३. जे वच्छा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं ये वत्साः ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ता, ३३. जो वत्स हैं, वे सात प्रकार के हैं -- जहातद्यथा
१. वत्स, २. आग्नेय, ३. मैत्रेय, ते वच्छा ते अग्गेया ते मित्तेया ते वत्साः ते आग्नेयाः ते मैत्रयाः ते ४. शाल्मली, ५. शैलक (शैलनक) ते सेलयया ते अटिसेणा ते वीय- शाल्मलिनः ते शैलककाः ते अस्थि- ६. अस्थिषेण, ७. वीतकृष्ण । कण्हा ।
षेणाः ते वीतकृष्णाः। ३४. जे कोच्छा ते सत्तविधा पण्णत्ता, ये कुत्सा, ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, ३४. जो कौत्स हैं, वे सात प्रकार के हैंतं कहातद्यथा
१. कौत्स, २. मौद्गलायन, ते कोच्छा ते मोंग्गलायणा ते ते कौत्साः मौद्गलायनाः ते पि[पै]- ३. पिंगलायन, ४. कौडिन्य, पिंगलायणा ते कोडिणो [ग्णा?] ङ्गलायनाः ते कौडिन्याः ते मण्डलिनः ५. मण्डली, ६. हारित, ७. सौम्य ।
ते मंडलिणो ते हारिता ते सोमया। ते हारिताः ते सौम्याः । ३५. जे कोसिया ते सत्तविधा पण्णत्ता, ये कौशिका: ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ता:, ३५. जो कौशिक हैं, वे सात प्रकार के हैंतं जहातद्यथा
१. कौशिक, २. कात्यायन, ते कोसिआ ते कच्चायणा ते ते कौशिकाः ते कात्यायनाः ते सालं- ३. सालंकायन, ४. गोलिकायन, सालंकायणा ते गोलिकायणा ते कायनाः ते गोलिकायनाः ते पाक्षि- ५. पाक्षिकायन, ६. आग्नेय, परिखकायणा ते अगिच्चा ते कायणाः ते आग्नेयाः ते लौहित्याः। ७. लौहित्य। लोहिच्चा।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : सूत्र ३६-४० ३६. जे मंडवा ते सत्तविधा पण्णता, तं ये माण्डवाः ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, ३६. जो माण्डव हैं, वे सात प्रकार के हैं-- जहा
तद्यथाते मंडवा ते आरिट्ठा ते संमुता ते ते माण्डवाः ते आरिष्टाः ते सम्मुताः १. माण्डव, २. अरिष्ट, ३. संमुत, तेला ते एलावच्चा ते कंडिल्ला ते ते तैलाः ते ऐलापत्याः ते काण्डिल्याः ते ४. तैल, ५.ऐलापत्य, ६. काण्डिल्य, खारायणा। क्षारायणाः ।
७. क्षारायण । ३७. जे वासिट्टा ते सत्तविधा पण्णत्ता, ये वाशिष्ठाः ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, ३७. जो वाशिष्ठ हैं, वे सात प्रकार के हैंतं जहातद्यथा
१. वाशिष्ठ, २. उजायन, ३. जरत्कृष्ण, ते वासिहा ते उंजायणा ते जारु- ते वाशिष्ठाः ते उजायनाः ते जर- ४. व्याघ्रापत्य, ५. कौण्डिन्य, ६. संज्ञी, कण्हा ते वग्धावच्चा ते कोंडिण्णा कृष्णा: ते व्याघ्रापत्याः ते कौण्डिन्याः । ७. पाराशर। ते सण्णी ते पारासरा।
ते संज्ञिनः ते पाराशराः।
णय-पदं नय-पदम्
नय-पद ३८. सत्त मूलणया पण्णत्ता, तं जहा- सप्त मूलनयाः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- ३८. मूलनय सात हैं
णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुते, नैगमः, संग्रहः, व्यवहारः, ऋजुसूत्रं, शब्दः, १. नगम-भेद और अभेदपरक दृष्टिकोणा सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते। समभिरूढः, एवंभूतः ।
२. संग्रह --केवल अभेदपरक दृष्टिकोण। ३. व्यवहार--केवल भेदपरक दृष्टिकोण । ४. ऋजुसूत्र-वर्तमान क्षण को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण। ५. शब्द-रूढि से होने वाली शब्द की प्रवृत्ति को बताने वाला दृष्टिकोण। ६. समभिरूढ-व्युत्पत्ति से होने वाली शब्द की प्रवृत्ति को बतानेवाला दृष्टिकोण। ७. एवंभूत-वर्तमान प्रवृत्ति के अनुसार वाचक के प्रयोग को मान्य करने वाला
दृष्टिकोण । सरमंडल-पदं स्वरमण्डल-पदम्
स्वरमण्डल-पद ३६. सत्त सरा पण्णत्ता, तं जहा- सप्त स्वराः प्रज्ञप्ताः,तद्यथा
३६. स्वर सात हैं
संगहणी-गाहा १. सज्जे रिसभे गंधारे,
मज्झिमे पंचमे सरे। धेवते चेव णेसादे,
सरा सत्त वियाहिता ॥ ४०. एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त
सरद्वाणा पण्णत्ता, तं जहा-
संग्रहणी-गाथा १. षड्ज: ऋषभः गान्धारः,
१. षड्ज, २. ऋषभ, ३. गांधार, मध्यमः पञ्चमः स्वरः ।
४. मध्यम, ५. पंचम, ६. धैवत, धैवतः चैव निषादः,
७. निषाद। स्वराः सप्त व्याहृताः ।। एतेषां सप्तानां स्वरानां सप्त स्वर- ४०. इन सात स्वरों के सात स्वर-स्थान हैंस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
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७२५
ठाणं (स्थान)
स्थान ७ : सूत्र ४१-४३ १. सज्जं तु अग्गजिन्भाए, १. षड्जं त्वग्रजिह्वया,
१. षड्ज का स्थान जिह्वा का अग्र भाग। उरेण रिसभं सरं। उरसा ऋषभं स्वरम् ।
२. ऋषभ का वक्ष। कंठुग्गतेणं गंधार, कण्ठोद्गतेन गान्धारं,
३. गांधार कण्ठ । मज्झजिब्भाए मज्झिमं॥ मध्यजिह्वया मध्यमम् ॥
४. मध्यम का जिह्वा का मध्य भाग। २. णासाए पंचमं बूया. २. नासया पञ्चमं ब्र यात्,
५. पंचम का नासा। दंतोट्टण य धेवतं। दन्तौष्ठेन च धैवतम्।
६. धैवत का दांत और होठ का संयोग । मुद्धाणेण य सादं, मूर्ना च निषाद,
७. निषाद का मूर्धा (सिर)। सरढाणा वियाहिता ॥ स्वरस्थानानि व्याहृतानि ।। ४१. सत्त सरा जीवणिस्सिता पण्णत्ता, सप्त स्वरा: जीवनिःश्रिताः ४१. जीवनिःश्रित स्वर सात हैं१२... तं जहाप्रज्ञप्ता:, तद्यथा
१. मयूर षड्ज स्वर में बोलता है। १. सज्ज रवति मयूरो, १. षड्ज रौति मयूरः,
२. कुक्कुट ऋषभ स्वर में बोलता है। कुक्कुडो रिसभं सरं। कुक्कुट: ऋषभं स्वरम् ।
३. हंस गांधार स्वर में बोलता है। हंसो णदति गंधारं, हंसो नदति गान्धारं,
४. गवेलक मध्यम स्वर में बोलता है। मझिमं तु गवेलगा॥ मध्यमं तु गवेलकाः ।।
५. वसन्त में कोयल पंचम स्वर" में २. अह कुसुमसंभवे काले, २. अथ कुसुमसंभवे काले,
बोलता है। कोइला पंचमं सरं। कोकिलाः पञ्चमं स्वरम् ।
६. क्रौंच और सारस धैवत स्वर में छट्टच सारसा कोंचा, षष्ठं च सारसाः क्रौञ्चाः,
बोलते हैं। णेसायं सत्तमं गजो॥ निषादं सप्तमं गजः ॥
७. हाथी निषाद स्वर में बोलता है। ४२. सत्तसरा अजीवणिस्सिता पण्णत्ता, सप्त स्वराः अजीवनि:श्रिताः प्रज्ञप्ताः, ४२. अजीवनि:श्रित स्वर सात हैंतं जहातद्यथा
१. मृदङ्ग से षड्ज स्वर निकलता है। १. सज्ज रवति मुइंगो, १. षड्जं रौति मृदङ्गः,
२. गोमुखी-नरसिंघा नामक बाजे से गोमुही रिसभं सरं। गोमुखी ऋषभं स्वरम् ।
ऋषभ स्वर निकलता है। संखो णदति गंधारं, शङ्खो नदति गान्धारं,
३. शंख से गांधार स्वर निकलता है। मज्झिमं पुण झल्लरी॥ मध्यमं पुनः झल्लरी॥
४. झल्लरी-झांझ से मध्यम स्वर निक२. चउचलणपतिट्ठाणा, २. चतुश्चरणप्रतिष्ठाना,
लता है। गोहिया पंचमं सरं। गोधिका पञ्चमं स्वरम् ।
५. चार चरणों पर प्रतिष्ठित गोधिका से आडंबरो धेवतियं, आडम्बरो धैवतिक,
पंचम स्वर निकलता है। महाभेरी य सत्तम। महाभेरी च सप्तमम् ॥
६. ढोल से धैवत स्वर निकलता है।
७. महाभेरी से निपाद स्वर निकलता है। ४३. एतेसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त स्वर- ४३. इन सातों स्वरों के स्वर-लक्षण सात हैंसरलक्खणा पण्णत्ता, तं नहा- लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. षड्ज स्वर वाले व्यक्ति आजीविका १. सज्जेण लभति वित्ति, १. षड्जेन लभते वृत्ति,
पाते हैं। उनका प्रयत्न निष्फल नहीं कतं च ण विणस्सति । कृतं च न विनश्यति।
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ठाणं (स्थान)
गावो मित्ताय पुत्ताय, णारीणं चैव वल्लभो ॥ २. रिसभेण उ एसज्जं, सेणावच्च धणाणि य ।
वत्थगंधमलंकार,
इथिओ सयणाणि य ॥
३. गंधारे गीतजुत्तिष्णा, वज्जवित्ती कलाहिया ।
भवंति कइणो पण्णा,
जे अण्णे सत्यपारगा ॥
४. मज्झिमसर संपण्णा,
भवंति सुहजीविणो । खाती पियती देती, मज्झिम-सरमस्तितो ॥ ५. पंचमसर संपण्णा,
भवंतिपुढतीपती । सूरा संग्रहकतारी,
गामा पण्णत्ता, त जहा
।
सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे ४५. सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. मंगी कोरीया,
हरी य रयणीय सारकंता य । छुट्टीय सारसी णाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा ॥
७२६
गावो मित्राणि च पुत्राश्च,
नारीणां चैव वल्लभः ॥
२. ऋषभेण तु ऐश्वर्य, सैनापत्यं धनानि च । वस्त्रगंधालंकार,
स्त्रियः शयनानि च ॥
३. गान्धारे गीतयुक्तिज्ञाः, वाद्यवृत्तयः कलाधिकाः ।
भवन्ति कवयः प्राज्ञाः,
ये अन्ये शास्त्रपारगाः ॥
४. मध्यमस्वरसम्पन्नाः,
भवन्ति सुख - जीविन: । खादन्ति पिबन्ति ददति, मध्यमस्वरमाश्रिताः ॥
अगगणणायगा ।
६. धेवतसर संपण्णा,
भवंति कलहप्पिया । सानिया वग्गुरिया, सोयरिया मच्छबंधा य ॥ ७. चंडाला मुट्ठिया मेया, जे अण्णे पावकम्मिणो । गोघातगा य जे चोरा,
गोघातकाश्च ये चौराः, निषादं स्वरमाश्रिताः ॥
सायं सरमस्सिता ॥
४४. एतेसि णं सत्तण्हं सराणं तओ एतेषां सप्तानां स्वराणां त्रयः ग्रामाः
५. पञ्चमस्वरसम्पनाः, भवन्ति पृथिवीपतयः । शूराः संग्रहकर्तारः, अनेकगणनायकाः ।।
६. धैवतस्वरसम्पन्नाः, भवन्ति कलहप्रियाः । शाकुनिकाः वागुरिकाः, शौकरिका मत्स्यबन्धाश्च ॥ ७. चाण्डालाः मौष्टिका मेदाः, ये अन्ये पापकर्मिणः ।
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
षड्जग्रामः मध्यमग्रामः गान्धारग्रामः षड्जग्रामस्य सप्त मूर्च्छनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
१. मङ्गी कौरव्या,
हरित् च रजनी च सारकान्ता च । षष्ठी च सारसी नाम्नी,
शुद्धषड्जा च सप्तमी ॥
स्थान ७ : सूत्र ४४-४५
होता। उनके गाएं, मित्र और पुत्र होते हैं। वे स्त्रियों को प्रिय होते हैं।
२. ऋषभ स्वर वाले व्यक्ति को ऐश्वर्य, सेनापतित्व, धन, वस्त्र, गंध, आभूषण, स्त्री, शयन और आसन प्राप्त होते हैं।
३. गांधार स्वर वाले व्यक्ति गाने में कुशल श्रेष्ठ जीविका वाले, कला में कुशल, कवि, प्राज्ञ और विभिन्न शास्त्रों के पारगामी होते हैं ।
४. मध्यम स्वर वाले व्यक्ति सुख से जीते हैं, खाते-पीते हैं और दान देते हैं ।
५. पंचम स्वर वाले व्यक्ति राजा, शूर, संग्रहकर्ता और अनेक गणों के नायक होते हैं ।
६. धैवत स्वर वाले व्यक्ति कलहप्रिय, पक्षियों को मारने वाले तथा हिरणों, सूअरों और मछलियों को मारने वाले होते हैं ।
७. निषाद स्वर वाले व्यक्ति चाण्डालफांसी देने वाले मुट्ठीबाज (Boxers), विभिन्न पाप कर्म करने वाले, गो-धातक और चोर होते हैं।
४४. इन सात स्वरों के तीन ग्राम हैं-
२. मध्यमग्राम,
१. षड्जग्राम, ३. गांधारग्राम ।
४५. षड्जग्राम की मूर्च्छनाएं" सात हैं-१. मंगी, २. कौरवीया, ३. हरित् ४. रजनी, ५. सारकान्ता, ६. सारसी, ७. शुद्ध षड्जा ।
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ठाणं (स्थान)
७२७
स्थान ७: सूत्र ४६-४८ ४६. मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ मध्यमग्रामस्य सप्त मूर्च्छनाः प्रज्ञप्ताः, ४६. मध्यमग्राम की मूर्च्छनाएं" सात हैंपण्णत्ताओ, तं जहातद्यथा
१. उत्तरमन्द्रा, २. रजनी, ३. उत्तरा, १. उत्तरमंदा रयणी, १. उत्तरमन्द्रा रजनी,
४. उत्तरायता, ५. अश्वक्रान्ता, उत्तरा उत्तरायता। उत्तरा उत्तरायता।
६. सौवीरा, ७. अभिरुद्गता। अस्सोकंता य सोवीरा, अश्वक्रान्ता च सौवीरा,
अभिरू हवति सत्तमा॥ अभिरु (द्गता) भवति सप्तमी ।। ४७. गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ गान्धारग्रामस्य सप्त मूर्च्छनाः ४७. गांधारग्राम की मूछनाएं" सात हैंपण्णत्ताओ, तं जहा.- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. नंदी, २. क्षुद्रिका, ३. पूरका, १. णंदी य खुदिमा पूरिमा, १. नंदी च क्षुद्रिका पूरिका,
४. शुद्धगांधारा, ५. उत्तरगांधारा, य चउत्थी य सुद्धगंधारा। च चतुर्थी च शुद्धगांधरा।
६. सुष्ठुतर आयामा, ७. उत्तरायता उत्तरगंधारावि य, उत्तरगांधारापि च,
कोटिमा। पंचमिया हवती मुच्छा उ॥ पंचमिका भवती मूर्छा तु ॥ २. सुठुत्तरमायामा,
२. सुष्ठूत्तरायामा, सा छट्ठी णियमसो उ णायव्वा। सा षष्ठी नियमतस्तु ज्ञातव्या। अह उत्तरायता,
अथ उत्तरायता, कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा॥ कोटिमा च सा सप्तमी मूर्छा ॥ ४८. १. सत्त सरा कतो संभवंति ? १. सप्त स्वराः कतः संभवन्ति ? गीतस्य ४८. सात स्वर किनसे उत्पन्न होते हैं ?
गीत की योनि-जाति क्या है? उसका गीतस्स का भवति जोणी? का भवति योनिः ?
उच्छवास-काल परिमाण-काल] कितना कतिसमया उस्साया ? कतिसमयाः उच्छ्वासा: ?
होता है? और उसके आकर कितने होते हैं?
सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। रुदन कति वा गीतस्स आगारा? कति वा गीतस्याकारा:?
गेय की योनि हैं। जितने समय में किसी २. सत्त सरा णाभीतो, २. सप्त स्वराः नाभितो,
छन्द का एक चरण गाया जाता है, उतना भवंति गोतं च रुण्णजोणीयं । भवन्ति गीतं च रुदितयोनिकम् ।
उसका उच्छ्वास-काल होता है और उसके
आकार तीन होते हैं-आदि में मद, मध्य पदसमया ऊसासा, पदसमयाः उच्छ्वासाः,
में तीव्र और अन्त में मंद। तिणि य गीयस्स आगारा॥ जयश्च गीतस्याकाराः ॥
गीत के छह दोष, आठ गुण, तीन वृत्त
और दो भणितियां होती हैं। जो ३. आइमिउ आरभंता, ३. आदिमृदु आरभमाणाः,
इन्हें जानता है, वह सुशिक्षित व्यक्ति ही समुव्बहता य मझगारंमि । समुद्वहन्तश्च मध्यकारे।
इन्हें रंगमञ्च पर गाता है।
गीत के छह दोषअवसाणे य झवता, अवसाने च क्षपयन्त:,
१. भीत-भयभीत होते हुए गाना। तिणि य गेयस्स आगारा॥ त्रयश्च गेयस्याकाराः॥
२.द्रत--शीघ्रता से गाना ४. छद्दोसे अद्वगुणे, ४. षड्दोषाः अष्टगुणाः,
३. हस्व-शब्दों को लघु बनाकर गाना।
४. उत्ताल--ताल से आगे बढ़कर या तिणि यवित्ताई दो य भणितीओ। त्रीणि च वृत्तानि द्वे च भणिती। ताल के अनुसार न गाना। जो णाहिति सो गाहिइ, यः ज्ञास्यति स गास्यति,
५. काक स्वर-कौए की भांति कर्णकटु
स्वर से गाना। सुसिक्खिओ रंगमज्झम्मि ॥ सुशिक्षितः रंगमध्ये ।।
६. अनुनास-नाक से गाना। ५. भीतं दुतं रहस्सं, ५. भीतं द्रुतं ह्रस्वं,
गीत के आठ गुण
१. पूर्ण-स्वर के आरोह-अवरोह आदि गायंतो मा य गाहि उत्तालं। गायन् मा च गासी: उत्तालम् ।
परिपूर्ण होना।
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स्थान ७ : सूत्र ४८
ठाणं (स्थान)
७२८ काकस्सरमणुणासं, काकस्वरं अनुनासं, च होंति गेयस्स छद्दोसा॥ च भवन्ति गेयस्य षड्दोषाः ॥ ६. पुण्णं रत्तं च अलंकियं, ६. पूर्ण रक्तं च अलंकृतं, च वत्तं तहा अविधुटुं। च व्यक्तं तथा अविघुष्टम् । मधुरं समं सुललियं, मधुरं समं सुललितं, अट्ठ गुणा होति गेयस्स ॥ अष्टगुणाः भवन्ति गेयस्य ॥ ७. उर-कंठ-सिर-विसुद्धं, ७. उर:-कण्ठ-शिरो-विशुद्धं, च गिज्जते मउय-रिभिअ-पदबद्धं। च गीयते मदुक-रिभित-पदबद्धम् ।' समतालपदुक्खेवं,
समतालपदोत्क्षेपं, सत्तसरसीहरं गेयं ।।
सप्तस्वरसीभरं गेयम॥ ८. जिद्दोसं सारवंतं च, ८ निर्दोष सारवन्तं च, हेउजुत्त मलंकियं ।
हेतुयुक्त मलंकृतम् । उवणीतं सोवयारंच,
उपनीतं सोपचारं च, मितं मधुर मेव य॥ मितं मधुरमेव च । ६. सममद्धसमं चेव,
६. सममर्धसमं चैव, सव्वत्थ विसमं च जं। सर्वत्र विषमं च यत्। तिणि वित्तप्पयाराई,
त्रयो वृत्तप्रकारा:, चउत्थं णोपलब्भती।
चतुर्थो नोपलभ्यते ।। १०. सक्कता पागता चेव, १०. संस्कृता प्राकृता चैव, दोणि य भणिति आहिया। द्वे च भणिती आहृते। सरमंडलंमि गिज्जते,
स्वरमण्डले गीयमाने, पसत्था इसिभासिता॥
प्रशस्त ऋषिभाषिते॥ ११. केसी गायति मधरं?
११. कीदृशी गायति मधुरं ? केसि गायति खरंच रुक्खं च?
कीदृशी गायति खरं च रूक्षञ्च ? केसी गायति चउरं?
कीदृशी गायति चतुरं? केसि विलंबं ? दुत केसी? कीदृशी विलम्ब ? द्रुतं कीदृशी? विस्सरं पुण केरिसी?
विस्वरं पुनः कीदृशी? १२. सामा गायइ मधुरं, १२. श्यामा गायति मधुरं, काली गायइ खरंच रुक्खं च। काली गायति खरञ्च रूक्षञ्च। गोरी गायति चउरं,
गौरी गायति चतुरं, काण विलंब, दुतं अंधा॥ काणा विलम्बं, दूतं अन्धा ॥ विस्सरं पुण पिंगला।
विस्वरं पुनः पिङ्गला। १३. तंतिसमं तालसम,
१३. तन्त्रीसमं तालसम, पादसमं लयसमं गहसमं च।। पादसमं लयसमं ग्रहसमं च।
२. रक्त—गाए जाने वाले राग से परिष्कृत होना। ३. अलंकृत-विभिन्न स्वरों से सुशोभित होना। ४. व्यक्त--स्पष्ट स्वर वाला होना। ५. अविघुष्ट-नियत या नियमित स्वरयुक्त होना। ६. मधुर-मधुर स्वरयुक्त होना। ७. सम-ताल, वीणा आदि का अनुगमन करना। ८. सुकुमार-ललित, कोमल-लययुक्त होना। गीत के ये आठ गुण और है१. उरोविशुद्ध-जो स्वर वक्ष में विशाल होता है। २. कण्ठविशुद्ध-जो स्वर कण्ठ में नहीं फटता। ३. शिरोविशुद्ध-जो स्वर सिर से उत्पन्न होकर भी नासिका से मिश्रित नहीं होता। ४. मृदु---जो राग कोमल स्वर से गाया जाता है। ५. रिभित-घोलना-बहुल आलाप के कारण खेल-सा करते हुए स्वर। ६. पदबद्ध --गेय पदों से निबद्ध रचना। ७. समताल पदोत्क्षेप-जिसमें ताल, झांझ आदि का शब्द और नर्तक का पादनिक्षेप–ये सब सम हों-एक दूसरे से मिलते हों। ८. सप्तस्वरसीभर—जिसमें सातों स्वर तन्त्री आदि के सम हों। गेयपदों के आठ गुण इस प्रकार हैं१. निर्दोष----बत्तीस दोष रहित होना। २. सारवत्-अर्थयुक्त होना । ३. हेतुयुक्त--हेतुयुक्त होना। ४. अलंकृत-काव्य के अलंकारों से युक्त होना। ५. उपनीत-उपसंहार युक्त होना। ६. सोपचार--कोमल, अविरुद्ध और अलज्जनीय का प्रतिपादन करना अथवा व्यंग या हंसी युक्त होना। ७. मित-पद और उसके अक्षरों से परिमित होना। ८. मधुर-शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की दृष्टि से प्रिय होना। वृत्त--छन्द तीन प्रकार का होता है१. सम-जिसमें चरण और अक्षर सम हों-चार चरण हों और उनमें लघु-गुरु अक्षर समान हों।
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ठाणं (स्थान)
७२६
स्थान ७ : सूत्र ४८
णीस सिऊस सियसम, संचारसमा सरा सत्त॥ १४. सत्त सरा तओ गामा, मुच्छणा एकविसती। ताणा एगणपण्णासा, समत्तं सरमंडलं॥
निःश्वसितोच्छ्वसितसमं, संचारसमा स्वराः सप्त ।। १४. सप्त स्वराः त्रयः ग्रामाः, मूर्च्छना एकविंशतिः । ताना एकोनपञ्चाशत्, समाप्तं स्वरमण्डलम् ।।
२. अर्द्धसम-जिसमें चरण या अक्षरो में से कोई एक सम हो, या तो चार चरण हों या विषम चरण होने पर भी उनमें लघुगुरु अक्षर समान हों। ३. सर्वविषम-जिसमें चरण और अक्षर सब विषम हों। भणितियां-गीत की भाषाएं दो हैं - १. संस्कृत, २. प्राकृत। ये दोनों प्रशस्त और ऋषिभाषित हैं। ये स्वरमण्डल में गाई जाती हैं। मधुर गीत कौन गाती है ? परुष और रूखा गीत कौन गाती है ? चतुर गीत कौन गाती है ? विलम्ब गीत कौन गाती है ? द्रुत-शीघ्र गीत कौन गाती है ? विस्वर गीत कौन गाती है ? श्यामा स्त्री मधुर गीत गाती है। काली स्त्री परुष और रूखा गाती है। केशी स्त्री चतुर गीत गाती है। काणी स्त्री विलम्ब गीत गाती है। अंधी स्त्री द्रुत गीत गाती है। पिंगला स्त्री विस्वर गीत गाती है। सप्तस्वर-सीभर की व्याख्या इस प्रकार
१. तन्त्रीसम--तन्त्री-स्वरों के साथसाथ गाया जाने वाला गीत । २. तालसम-ताल-वादन के साथ-साथ गाया जाने वाला गीत। ३. पादसम८-स्वर के अनुकूल निर्मित गेय पद के अनुसार गाया जाने वाला गीत । ४. लयसम-वीणा आदि को आहत करने पर जो लय उत्पन्न होती है, उसके अनुसार गाया जाने वाला गीत। ५. ग्रहसम-वीणा आदि के द्वारा जो स्वर पकड़े, उसी के अनुसार गाया जाने वाला गीत। ६. निःश्वसितोच्छ्वसितसम-सांस लेने और छोड़ने के क्रम का अतिक्रमण न करते हुए गाया जाने वाला गीत । ७. संचारसम-सितार आदि के साथ गाया जाने वाला गीत। इस प्रकार गीत-स्वर तन्त्री आदि से सम्बन्धित होकर सात प्रकार का हो जाता है। सात स्वर, तीन ग्राम और इक्कीस मुर्छनाएं हैं। प्रत्येक स्वर सात तानों" से गाया जाता हैं, इसलिए उसके ४६ भेद हो जाते हैं। इस प्रकार स्वरमण्डल समाप्त होता है।
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ठाणं (स्थान)
७३०
स्थान ७ : सूत्र ४६-५४
कायकिलेस-पदं कायक्लेश-पदम् ४६. सत्तविधे कायकिलेसे पण्णत्ते, सप्तविधः कायक्लेशः प्रज्ञप्तः, तं जहा
तद्यथाठाणातिए, उक्कुडुयासणिए, स्थानायतिकः, उत्कुटुकासनिकः, पडिमठाई, वीरासणिए, णेसज्जिए, प्रतिमास्थायी, वीरासनिकः, नैषधिकः, दंडायतिए, लगंडसाई। दण्डायतिकः, लगण्डशायी।
कायक्लेश-पद ४६. कायक्लेश के सात प्रकार हैं
१.स्थानायतिक, २. उत्कुटकासनिक, ३. प्रतिमास्थायी. ४. वीरासनिक, ५.नषधिक, ६. दण्डायतिक, ७. लगंडशायी।
खेत्त-पव्वय-णदी-पदं क्षेत्र-पर्वत-नदी-पदम्
क्षेत्र-पर्वत-नदी-पद ५०. जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासा पण्णत्ता, जम्बूद्वीपे द्वीपे सप्त वर्षाणि प्रज्ञप्तानि, ५०. जम्बूद्वीप द्वीप में सात वर्ष-क्षेत्र हैंतं जहा... तद्यथा---
१. भरत, २. ऐरवत, ३. हैनवत, भरहे, एरवते, हेमवते, हेरण्णवते, भरतं, ऐरवतं, हैमवतं, हैरण्यवतं, ४. हैरण्यवत, ५. हरिवर्ष, ६. रम्यकवर्ष,
हरिदासे, रम्भगवासे, महाविदेहे। हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, महाविदेहः । ७. महाविदेह। ५१. जंबुद्दीवे दीवे सत्त वास हरपक्वता जम्बूद्वीपे द्वीपे सप्त वर्षधरपर्वताः ५१. जम्बूद्वीप द्वीप में सात वर्षधर पर्वत हैं--- पण्णत्ता, तं जहा.- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. क्षुद्रहिमवान्, २. महाहिमवान्, चुल्ल हिमवंते, महाहिमवंते, णिस ढे, क्षुद्रहिमवान्, महाहिमवान्, निषधः, ३. निषध, ४. नीलवान्, ५. रुक्मी,
णीलवंते, रुप्पी, सिहरी, मंदरे। नीलवान्, रुक्मी, शिखरी, मन्दरः। ६. शिखरी, ७. मन्दर। ५२. जंबुद्दीवे दीवे सत्त महाणदीओ जम्बू द्वीपे द्वीपे सप्त महानद्यः, पूर्वाभि- ५२. जम्बुद्वीप द्वीप में सात महानदियां पूर्या
पुरत्याभिमुहीओ लवणसमुदं मुखाः लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, तद्यथा- भिमुख होती हुई लवण-समुद्र में समाप्त समप्पति, तं जहा
होती हैंगंगा, रोहिता, हरी, सीता, गङ्गा, रोहिता, हरित्, शीता, १. गंगा, २. रोहिता, ३. हरित्, णरकता, सुवण्णकूला, रत्ता। नरकान्ता, स्वर्णकूला, रक्ता।
४. शीता, ५. नरकान्ता, ६. सुवर्णकूला,
७. रक्ता । ५३. जंबुद्दीवे दीवे सत्त महाणदीओ जम्बूद्वीपे द्वीपे सप्त महानद्यः पश्चिमाभि- ५३. जम्बूद्वीप द्वीप में सात महानदियां
पच्चत्वाभिमुहीओ लवणसमुदं मुखाः लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, तद्यथा- पश्चिमाभिमुख होती हुई लवण-समुद्र में समप्पंति, तं जहा
समाप्त होती हैंसिंधू, रोहितंसा, हरिकता, सिन्धूः, रोहितांशा, हरिकान्ता, शीतोदा, । १. सिंध, २. रोहितांशा, ३.हरिकांता, सीतोदा, णारिकता, रुप्पकूला, नारीकान्ता, रूप्यकूला, रक्तवती। ४. शीतोदा, ५. नारीकांता, ६. रुप्याला, रत्तावतो।
७. रक्तवती। ५४. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं सप्त धातकीषण्डद्वीपपौरस्त्याधं सप्त वर्षाणि ५४. धातकोषण्डद्वीप के पूर्वार्द्ध में सात क्षेत्र
वासा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथाभरहे, एरवते, हेमवते, हेरण्णवते, भरतं, ऐरवतं, हैमवतं, हैरण्यवतं, १. भरत, २. ऐरवत, ३. हैमवत, हरिवासे, रम्मगवासे, महाविदेहे। हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, महाविदेहः । ४. हैरण्यवत, ५. हरिवर्ष, ६. रम्यकवर्ष,
७. महाविदेह।
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ठाणं (स्थान)
५५. धायइडदीवपुर स्थिमद्धे णं सत्त वासहरपव्वता पण्णत्ता, तं जहा चुल्ल हिमवंते, ● महाहिमवंते, सिढे, णीलवंते, रुप्पी, सिहरी, मंदरे ।
५६. धायइडदीवपुर स्थिमद्धे णं सत्त महानदीओ पुरस्थाभिमुहीओ कालोस मुद्दे समति, तं जहा— गंगा, रोहिता, हरी, सीता, परकता, सुवण्णकूला, रत्ता । ५७. धायइडदीवपु रत्थिमद्धे णं सत्त महानदीओ पच्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुद्दे समप्र्पति तं जहा— सिंधु, रोहितंसा, हरिकंता, सीतोदा, णारिकता, रुप्पकूला, रत्तावत्ती ।
५८. धायइसंडदीवे, पच्चत्थिमद्धे णं सत्तवासा एवं चेव, णवरं पुरत्था - भिमुहीओ लवणसमुद्दं समप्र्पति, पच्चत्थाभिमुहीओ कालोदं । सेसं तं चैव ।
५६. पुक्रवरदीवडपुर स्थिमद्धे णं सत्त वासा तहेव, वरं पुरस्थाभिमुहीओ पुक्खरोदं समुद्द समप्र्पति, पच्चत्याभिमुहीओ कालोदं समुदं समप्र्पति । सेसं तं चैव ।
६०. एवं पच्चत्थिमद्धेवि । वरं पुरत्थाभिमुहीओ कालोदं समुदं समप्पेंति, पच्चत्याभिमुहीओ पुक्रोदं समप्र्पति । सव्वत्थ वासा वासह रपव्वता णदीओ भाणितव्वाणि ।
य
७३१
स्थान ७ : सूत्र ५५-६०
पर्वत हैं
धातकीषण्डद्वीपपौरस्त्यार्थे सप्त वर्षधर - ५५. धातकीषण्डद्वीप के पूर्वार्द्ध में सात वर्षधर पर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— क्षुद्रहिमवान्, महाहिमवान्, निषधः, नीलवान्, रुक्मी, शिखरी, मन्दरः ।
१. क्षुद्रहिमवान्
२. महाहिमवान्
३. निषध, ४. नीलवान्, ५. रुक्मी, ६. शिखरी, ५. मन्दर ।
५६. धातकीषण्डद्वीप के पूर्वार्द्ध में सात महानदियां पूर्वाभिमुख होती हुई कालोद समुद्र में समाप्त होती हैं
धातकीपण्डद्वीप पौरस्त्यार्धे सप्त महानद्यः पूर्वाभिमुखाः कालोदसमुद्रं समपर्यन्ति, तद्यथा—
गङ्गा, रोहिता, हरित्, शीता, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रक्ता ।
धातकीषण्डद्वीपे पौरस्त्यार्धे सप्त महानद्यः पश्चिमाभिमुखाः लवण समुद्रं समर्पयन्ति, तद्यथा—
सिन्धू, रोहितांशा, हरिकान्ता, शीतोदा, नारीकान्ता, रूप्यकूला, रक्तवती ।
धातकीषण्डद्वीपे पाश्चात्यार्धे सप्त वर्षाणि एवं चैव, नवरं - पूर्वाभिमुखा लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, पश्चिमाभिमुखाः कालोदम् । शेषं तच्चैव ।
सप्त
पुष्करवरद्वीपार्धपौरस्त्यार्धे वर्षाणि तथैव, नवरम् — पूर्वाभिमुखा पुष्करोदं समुद्रं समर्पयन्ति, पश्चिमाभिमुखाः कालोदं समुद्रं समर्पयन्ति । शेषं तच्चैव ।
एवं पाश्चात्यार्धेऽपि । नवरम्पूर्वाभिमुखाः कालोदं समुद्रं समर्पयन्ति, पश्चिमाभिमुखाः पुष्करोदं समर्पयन्ति सर्वत्र वर्षाणि वर्षधरपर्वताः नद्यः च भणितव्याः ।
1
१. गंगा, २. रोहिता, ३. हरित्, ४. शीता. ५. नरकांता, ६. सुवर्णकूला,
७. रक्ता ।
५७. धातकीषण्डद्वीप के पूर्वार्द्ध में सात महानदियां पश्चिमाभिमुख होती हुई कालोद समुद्र में समाप्त होती हैं
१. सिंधू, २. रोहितांशा, ३. हरिकांता, ४. शीतोदा, ५. नारीकांता,
६. रूप्यकूला, ७. रक्तवती । ५८. धातकीषण्डद्वीप के पश्चिमार्ध में सात
वर्ष, सात वर्षधर पर्वत और सात नदियों के नाम पूर्वार्धवर्ती वर्ष आदि के समान ही हैं। केवल इतना अन्तर आता है कि पूर्वाभिमुखी नदियां लवण समुद्र में और पश्चिमाभिमुखी नदियां कालोद समुद्र में समाप्त होती हैं ।
५६. अर्धपुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध में सात वर्ष, सात वर्षधर पर्वत और सात नदियों के नाम धातकीषण्डद्वीपवर्ती वर्ष आदि के समान ही हैं। केवल इतना अन्तर आता है कि पूर्वाभिमुखी नदियां पुष्करोद समुद्र में और पश्चिमाभिमुखी नदियां कालोद समुद्र में समाप्त होती हैं ।
६०. अर्धपुष्करवरद्वीप के पश्चिमार्ध में सात वर्ष, सात वर्षधर पर्वत और सात नदियों के नाम धातकीषण्डद्वीपवर्ती वर्ष आदि के समान ही हैं । केवल इतना अन्तर आता है कि पूर्वाभिमुखी नदियां कालोद समुद्र में और पश्चिमाभिमुख नदियां पुष्करोद समुद्र में समाप्त होती हैं ।
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ठाणं (स्थान)
कुलगर - पदं
६१. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तीताए उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा हुत्था,
तं जहा
संग्रहणी - गाहा १. मित्तदामे सुदामे य
सुपाय सप ।
विमलघोसे सुधोसे य महाघोसे य सत्तमे । ६२. जंबुद्दीवे दीवे भारहे बासे इमीसे ओसप्पिणीए सत्त कुलगरा हुत्था — १. पढमित्थ विमलवाहण, म जसमं उत्थमभिचंदे |
तत्तो य पसेणइए, मरुदेवे चेव णाभी य । ६३. एएसि णं सत्तण्हं कुलगराणं सत्त भारियाओ हुत्था, तं जहा - १. चंदजस चंदकता, सुरूव परूिव चक्खुकता य । सिरिकंता मरुदेवी, कुलकरइत्थीण णामाई ॥ ६४. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सत्त कुलकरा भविस्संति_
१. मत्तवाहण सुभो य सुभे यसप
दत्ते हुमे सुबंधू य आगमिस्से होक्खती ॥
६५. विमलवाहणे णं कुलकरे सप्तविधा रुक्खा उवभोगत्ताए हव्वमार्गाच्छसु, तं जहा
७३२
कुलकर- पदम् जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे अतीतायां उत्सर्पिण्यां सप्त कुलकराः अभूवन्, तद्यथा
संग्रहणी - गाथा
१. मित्रदामा सुदामा च, सुपार्श्वच स्वयंप्रभः । विमलघोषः सुघोषश्च, महाघोषश्च सप्तमः ॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे अस्यां अवसपिण्यां सप्त कुलकराः अभूवन्१. प्रथमो विमलवाहनः, चक्षुष्मान् यशस्वान् चतुर्थोभिचन्द्रः । ततः प्रसेनजित्, मरुदेवश्चैव नाभिश्च ॥
एतेषां सप्तानां कुलकराणां सप्त भार्या: अभूवन्, तद्यथा—
१. चन्द्रयशाः चन्द्रकान्ता,
सुरूपा प्रतिरूपा चक्षुष्कान्ता च । श्रीकान्ता मरुदेवी, कुलकरस्त्रीणां नामानि ॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्यां उत्सर्पिण्यां सप्त कुलकराः भविष्यन्ति
१. मित्रवाहनः सुभौमश्च, सुप्रभश्च स्वयंप्रभः । दत्तः सूक्ष्मः सुबन्धुश्च, आगमिष्यताभविष्यति ॥
विमलवाहने कुलकरे सप्तविधाः रुक्षाः उपभोग्यतायै अर्वाक् आगच्छन्,
तद्यथा
स्थान ७ : सूत्र ६१-६५
कुलकर- पद
६१. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतक्षेत्र में उत्सर्पिणी में सात कुलकर हुए थे
१. मित्रदामा, २. सुदामा, ३. सुपार्श्व,
४. स्वयंप्रभ, ५. विमलघोष, ६. सुघोष, ७. महाघोष ।
६२. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतक्षेत्र में इस अवसर्पिणी में सात कुलकर" हुए थे१. विमलवाहन, २. चक्षुष्मान, ३. यशस्वी, ४. अभिचन्द्र, ५ प्रसेनजित्, ६. मरुदेव, ७. नाभि ।
६३. इन सात कुलकरों के सात भार्याएं थीं---
१. चन्द्रयशा, २. चन्द्रकांता, ३. सुरूपा,
४. प्रतिरूपा, ५. चक्षुष्कांता. ६. श्रीकांता, ७. मरूदेवी ।
६४. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतक्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी में सात कुलकर होंगे
१. मित्रवाहन, २. सुभौम, ३. सुप्रभ, ४. स्वयंप्रभ, ६. सूक्ष्म, ७. सुबन्धु ।
५. दत्त,
६५. विमलवाहन कुलकर के सात प्रकार के वृक्ष निरन्तर उपभोग में आते थे
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७३३
जहा
ठाणं (स्थान)
स्थान ७ : सूत्र ६६-६६ १. मतंगया य भिंगा, १. मदाङ्गकाश्च भृङ्गा,
१. मदाङ्गक, २. भृङ्ग, ३. चित्राङ्ग, चित्तंगा चेव होंति चित्तरसा। श्चित्राङ्गाश्चैव भवन्ति चित्र रसाः । ४. चित्ररस, ५. मण्यङ्ग, ६. अनग्नक, मणियंगा य अणियणा, मण्यङ्गाश्च अनग्नाः,
७. कल्पवृक्ष। सत्तमगा कप्परक्खा य ॥ सप्तमक: कल्परक्षाश्च ।। ६६. सत्तविधा दंडनीति पण्णत्ता, तं
६६. दण्डनीति के सात प्रकार हैं
१. हाकार-हा ! तूने यह क्या किया ? हक्कारे, मक्कारे, धिक्कारे, सप्तविधा दण्डनीतिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- २. माकार---आगे ऐसा मत करना। परिभासे, मंडलबंधे, चारए, हाकारः, माकारः, धिक्कारः, परिभाष:, ३. धिक्कार-धिक्कार है तुझे, तूने ऐसा छविच्छेदे। मण्डलबन्धः, चारकः, छविच्छेदः ।
किया? ४. परिभाष-थोड़े समय के लिए नजरबन्द करना, क्रोधपूर्ण शब्दों में 'यहीं बैठ जाओ' का आदेश देना। ५. मण्डलबंध----नियमित क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना। ६. चारक-कैद में डालना। ७. छविच्छेद हाथ-पैर आदि काटना।
चक्कवट्टिरयण-पदं चक्रवत्तिरत्न-पदम्
चक्रवत्ति रत्न-पद ६७. एगमेगस्स पं रणो चाउरंत- एकैकस्य राज्ञ: चातुरन्तचक्रवर्तिनः सप्त ६७. प्रत्येक चतुरंत चक्रवर्ती राजा के सात
चक्कवट्टिस्स सत्त एगिदियरतणा एकेन्द्रियरत्नानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- एकेन्द्रिय रत्न होते हैं.५... पण्णता, तं जहा.
१. चक्ररत्न, २. छत्ररत्न, ३. चर्मरत्न, चक्करयणे, छत्त रयणे, चम्मरयणे, चक्ररत्नं, छत्ररत्न, चर्मरत्नं, दण्डरत्नं, ४. दण्डरत्न, ५. असिरत्न, ६. मणिरत्न, दंडरयणे, असिरयण, मणिरयणे, असिरत्नं, मणिरत्नं, काकिनीरत्नम।। ७. काकणीरत्न।
काकणिरयणे। ६८. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंत- एकैकस्य राज्ञः चातुरन्तचक्रवर्तिनः ६८. चतुरन्त चक्रवर्ती राजा के सात पञ्चेन्द्रिय
चक्कवट्टिस्स सत्त पंचिदियरतणा सप्त पञ्चेन्द्रिय रत्नानि प्रज्ञप्तानि, रत्न होते हैं - पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
१. सेनापतिरत्न, २. गृहपतिरत्न, सेणावतिरयणे, गाहावतिरयणे, सेनापतिरत्नं, गृहपतिरत्नं, वर्धकिरत्नं, ३. वर्द्धकीरत्न, ४. पुरोहितरत्न, वड्डइरयणे, पुरोहितरयणे, पुरोहितरत्नं, स्त्रीरत्नं, अश्वरत्नं, ५. स्त्रीरत्न, ६. अश्वरत्न, ७. हस्तिरत्न। इत्थिरयणे, आस रयणे, हत्थिरयणे। हस्ति रत्नम् ।
दुस्समा-लक्खण-पदं दुःषमा-लक्षण-पदम्
दुःषमा-लक्षण-पद ६६. सहि ठाणेहि ओगाढं दुस्समं सप्तभिः स्थान: अवगाढां दुष्षमा ६६. सात स्थानों से दुष्षमाकाल की अवस्थिति जाणेज्जा, तं जहाजानीयात्, तद्यथा
जानी जाती है
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स्थान ७ : सूत्र ७०-७२
ठाणं (स्थान)
७३४ अकाले वरिसइ, काले ण वरिसइ, अकाले वर्षति, काले न वर्षति, असाधू पुज्जंति, साधू ण पुज्जंति, असाधवः पूज्यन्ते, साधवो न पूज्यन्ते, गुरूहि जणो मिच्छं पडिवण्णो, गुरुभिः जनः मिथ्या प्रतिपन्नः, मणोदुहता, वइदुहता। मनोदुःखता, वाग्दुःखता।
१. अकाल में वर्षा होती है। २, समय पर वर्षा नहीं होती। ३. असाधुओं की पूजा होती है। ४. साधुओं की पूजा नहीं होती। ५. व्यक्ति गुरुजनों के प्रति मिथ्याअविनयपूर्ण व्यवहार करता है। ६. मन-सम्बन्धी दुःख होता है। ७. वचन-सम्बन्धी दुःख होता है।
सुसमा-लक्खण-पदं सुषमा-लक्षण-पदम्
सुषमा-लक्षण-पद ७०. सहि ठाणेहि ओगाढं सुसमं सप्तभिः स्थान: अवगाढां सुषमा ७०. सात स्थानों से सुषमाकाल की अवस्थिति जाणेज्जा, तं जहाजानीयात्, तद्यथा
जानी जाती हैअकाले ण वरिसइ, काले वरिसइ, अकाले न वर्षति, काले वर्षति, १. अकाल में वर्षा नहीं होती। असाधू ण पुज्जंति, साधू पुज्जति असाधवो न पूज्यन्ते, साधवः पूज्यन्ते, २. समय पर वर्षा होती है। गुरूहि जणो सम्म पडिवण्णो, गुरुभिः जनः सम्यक् प्रतिपन्न:, ३. असाधुओं की पूजा नहीं होती। मणोसुहता, वइसुहता। मनःसुखता, वाक्सुखता।
४. साधुओं की पूजा होती है। ५. व्यक्ति गुरुजनों के प्रति मिथ्या व्यवहार नहीं करता। ६. मन-सम्बन्धी सुख होता है। ७. वचन-सम्बन्धी सुख होता है।
जीव-पदम्
जीव-पदं
जीव-पद ७१. सत्तविहा संसारसमावण्णगा जीवा सप्तविधाः संसारसमापन्नकाः जीवाः ७१. संसारसमापन्नक जीव सात प्रकार के पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होते हैं--- णेरइया, तिरिक्खजोणिया, नैरयिकाः, तिर्यग्योनिकाः,
१. नैरयिक, २. तिर्यञ्चयोनिक, तिरिक्खजोणिणीओ, मणुस्सा, तिर्यग्योनिक्यः, मनुष्याः,
३. तिर्यञ्चयोनिकी, ४. मनुष्य, मणुस्सीओ, देवा, देवीओ। मानुष्यः, देवाः, देव्यः ।
५. मानुषी, ६. देव, ७. देवी।
आउभेद-पदं आयुर्भेद-पदम्
आयुर्भेद-पद ७२. सत्तविधे आउभेदे पण्णत्ते,तं जहा- सप्तविधः आयुर्भेदः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ७२. आयुष्य-भेद" [अकालमृत्यु] के सात
कारण हैं
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ठाणं (स्थान)
संग्रहणी - गाहा
१. अज्भवसाण - णिभित्ते, आहारे वेणा पराघाते ।
फासे आणापाण सत्तविधं भिज्जए आउं ॥
जीव-पदं
७३. सत्तविधा सव्वजीवा पण्णत्ता,
तं जहापुढविकाइया, आउकाइया,
वाउकाइया,
उकाइया, वणस्सतिकाइया, तसकाइया,
अकाइया । अहवा—सत्तविहा
पण्णत्ता, तं जहाकण्हलेसा 'णीललेसा काउलेसा तेउलेसा म्ह लेसा सुक्कलेसा अलेसा ।
बंभदत्त-पदं
७४. बंभदत्ते णं राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्त धणूई उड्ड उच्चतेणं, सत्त य वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा अधेसत्तमाए पुढवीए अप्पतिट्ठाणे णरए इयत्ताए उववण्णे |
मल्ली - पव्वज्जा-पदं
७५. मल्ली णं अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तं जहा
७३५
पृथिवीकायिकाः, अपकायिकाः, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, वनस्पतिकायिकाः, वसकायिकाः, अकायिकाः ।
Roaster अथवा सप्तविधः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
कृष्णलेश्याः नीललेश्याः कापोतलेश्याः तेजोलेश्याः पद्मलेश्या: शुक्ललेश्या: अलेश्याः ।
संग्रहणी - गाथा
१. अध्यवसान - निमित्ते, आहारो वेदना पराघातः । स्पर्शः आनापानौ, सप्तविधं भिद्यतेः आयुः ॥
जीव-पदम्
सप्तविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा
ब्रह्मदत्त-पदम्
ब्रह्मदत्तः राजा चातुरन्तचक्रवर्ती सप्त धनूंषि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन, सप्त च वर्ष - शतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अधः सप्तमायां पृथिव्यां अप्रतिष्ठाने नरके नैरयिकत्वेन उपपन्नः ।
मल्ली-प्रव्रज्या-पदम्
मल्ली अर्हन् आत्मसप्तमः मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः,
तद्यथा
स्थान ७ : सूत्र ७३-७५
१. अध्यवसान - राग, स्नेह और भय आदि की तीव्रता ।
२. निमित्त शस्त्रप्रयोग आदि ।
३. आहार - आहार की न्यूनाधिकता ।
४. वेदना -- नयन आदि की तीव्रतम वेदना
५. पराघात गढ़े आदि में गिरना ।
६. स्पर्श सांप आदि का स्पर्श ।
७. आन अपान - उच्छ्वास - निःश्वास का निरोध ।
जीव- पद
७३. सभी जीव सात प्रकार के हैं
१. पृथ्वीकायिक,
२. अष्कायिक,
३. तेजस्कायिक, ४. वालुकायिक,
५. वनस्पतिकायिक,
६. वसकायिक,
७. अकायिक ।
अथवा सभी जीव सात प्रकार के हैं---
१. कृष्णलेश्या वाले, २. नीललेश्या वाले, ३. कापोतलेच्या वाले, ४. तेजस् लेश्या वाले, ५. पद्मलेश्या वाले, ६. शुक्ललेश्या वाले, ७. अलेश्य ।
ब्रह्मदत्त-पद
७४. चतुरंत चक्रवर्ती राजा ब्रह्मदत्त की ऊंचाई
सात धनुष्य की थी। वे सात सौ वर्षों की उत्कृष्ट आयु का पालन कर, मरणकाल
में मरकर, निचली सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए ।
मल्ली - प्रव्रज्या पद
७५ अर्हत् मल्ली", अपने सहित सात राजाओं के साथ, मुण्डित होकर अगार से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए
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ori (स्थान)
मल्ली विदेहरायवरकण्णगा, पडिबुद्धी इक्खागराया,
चंदच्छाये अंगराया,
रुपी कुणालाधिपती, संखे कासीराया,
अदीणसत्तू कुरुराया, जितसत्तू पंचालराया।
दंसण-पदं
दर्शन-पदम्
७६. सत्तविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा - सप्तविधं दर्शनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा— सम्मदंसणे, मिच्छदंसणे, सम्यग्दर्शनं, मिथ्यादर्शनं, सम्यग्मिथ्यादर्शनं चक्षुर्दर्शनं, अचक्षुर्दर्शनं, अवधिदर्शनं, केवलदर्शनम् ।
सम्मा मिच्छदंसणे, चक्खदंसणे, अचक्खुदंसणे. ओहिदंसणे,
केवलदंसणे ।
छउमत्थ- केवलि-पदं
७७. छउमत्थ- वीयरागेणं मोहणिज्ज वज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ वेदेति, तं जहाणाणावर णिज्जं, दंसणावर णिज्जं वेय णिज्जं, आउयं, णामं, गोतं, अंतराइयं ।
७८. सत्त ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं
ण याणति ण पासति तं जहाधम्मत्थिकार्य, अधम्मत्थिकार्य, आगासत्थिकार्य, जीवं
असरीरपडिबद्ध,
परमाणु पोग्गलं सद्दं, गंध । याणि चैव उपण्णा दंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं
जाणति पासति, तं जहा
७३६
मल्ली विदेहराजवरकन्यका,
प्रतिबुद्धिः इक्ष्वाकराजः
चन्द्रच्छायः
अङ्गराजः,
रुक्मी
कुणालाधिपतिः, काशीराजः,
शङ्खः
अदीनशत्रुः कुरुराजः,
जितशत्रुः
पञ्चालराजः ।
छद्मस्थ- केवलि-पदम्
छद्मस्थ- वीतरागः मोहनीयवर्णाः सप्त कर्मप्रकृतीः वेदयति, तद्यथा -
ज्ञानावरणीयं, दर्शनावरणीय, वेदनीयं आयुः, नाम, गोत्रं, अन्तरायिकम् ।
सप्त स्थानानि छद्मस्थः सर्वभावेन न जानाति न पश्यति, तद्यथाधर्मास्तिकायं, अधर्मास्तिकायं, आकाशास्तिकायं, जीवं अशरीरप्रतिबद्ध, परमाणुपुद्गलं, शब्द, गन्धम् ।
एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन् जिनः केवली सर्वभावेन जानाति पश्यति, तद्यथा—
स्थान ७ : सूत्र ७६-२१
१. विदेह राजा की वरकन्या मल्ली ।
२. इक्ष्वाकुराज प्रतिबुद्धि-साकेत निवासी । ३. अंग जनपद का राजा चन्द्रच्छाय - चम्पा निवासी ।
४. कुणाल जनपद का राजा रुक्मी-श्रावस्ती निवासी ।
५. काशी जनपद का राजा शंख ---वाराणसी निवासी ।
६. कुरु देश का राजा अदीनशत्रुहस्तिनापुर निवासी ।
७. पञ्चाल जनपद का राजा जितशत्रुकम्पिल्लपुर निवासी ।
दर्शन-पद
७६. दर्शन के सात प्रकार हैं
१. सम्यग्दर्शन,
३. सम्यग्मिथ्यादर्शन, ५. अचक्षुदर्शन,
७. केवलदर्शन ।
२. मिथ्यादर्शन, ४. चक्षुदर्शन ६. अवधिदर्शन,
छद्मस्थ- केवलि-पद
७७. छद्मस्थ- वीतराग मोहनीय कर्म को छोड़कर सात कर्म प्रकृत्तियों का वेदन करता है—
१. ज्ञानावरणीय,
३. वेदनीय,
२. दर्शनावरणीय, ५. नाम,
४. आयुष्य,
७. अन्तराय ।
६. गोत्र, ७८. सात पदार्थों को छद्मस्थ सम्पूर्ण रूप से न जाता है, न देखता है—
१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४. शरीरमुक्तजीव, ५. परमाणुपुद्गल, ६. शब्द, ७. गंध ।
विशिष्ट ज्ञान दर्शन को धारणा करने वाले अर्हत्, जिन, केवली, इन पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से जानते-देखते हैं
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ठाणं (स्थान)
७३७
स्थान ७: सूत्र ७६-८१
धम्मत्थिकायं, 'अधम्मत्थिकायं, धर्मास्तिकायं, अधर्मास्तिकायं, १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, आगासत्थिकायं, आकाशास्तिकायं,
३. आकाशास्तिकाय, ४. शरीरमुक्तजीव, जीवं असरीरपडिबद्धं,
जीवं अशरीरप्रतिबद्धं, परमाणुपुद्गलं, ५. परमाणुपुद्गल, ६. शब्द, ७. गंध । परमाणुपोग्गलं, सई, गंधं। शब्द, गन्धम्। महावीर-पदं महावीर-पदम्
महावीर-पद ७६. समणे भगवं महावीरे वइरोस- श्रमणः भगवान् महावीरः वज्रर्षभना- ७६. श्रमण भगवान् महावीर वज्रऋषभनाराच
भणारायसंघयणे समचउरंस- राचसंहननः समचतुरस्र-संस्थान-संस्थितः संघयण और समनतुरस्र संस्थान से संस्थित संठाण-संठिते सत्त रयणीओ उड्ड सप्त रत्नी: ऊर्ध्वं उच्चत्वेन अभवत्। थे। उनकी ऊंचाई सात रत्नि की थी। उच्चत्तेणं हुत्था।
विकथा-पद ८०. विकथाएं सात हैं---
विकहा-पदं
विकथा-पदम् ८०. सत्त विकहाओ पण्णत्ताओ, तं सप्त विकथाः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
जहाइत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा, स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, रायकहा, मिउकालुणिया, राजकथा, मृदुकारुणिकी, दर्शनभेदिनी, दसणभेयणी, चरित्तभेयणी। चरित्रभेदिनी।
१. स्त्रीकथा, २. भक्तकथा, ३. देशकथा, ४. राज्यकथा, ५. मृदुकारुणिकीवियोग के समय करुणरस प्रधान वार्ता । ६. दर्शनभेदिनी-सम्यकदर्शन का विनाश करने वाली वार्ता । ७. चारित्रभेदिनीचारित्र का विनाश करने वाली वार्ता ।
आयरिय-उवज्झाय-अइसेस-पदं आचार्य-उपाध्याय-अतिशेष पदम् । आचार्य-उपाध्याय-अतिशेष-पद ८१. आयरिय-उवज्झायस्स णं गणंसि आचार्योपाध्यायस्य गणे सप्तातिशेषाः ८१. गण में आचार्य और उपाध्याय के सात सत्त अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
अतिशेष होते हैं१. आयरिय-उवझाए अंतो १. आचार्योपाध्यायः अन्त: उपाश्रयस्य । १. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में उवस्सयस्स पाए णिगिझिय- पादौ निगृह्य-निगृह्य प्रस्फोटयन् वा पैरों की धूलि को [दूसरों पर न गिरे णिगिझिय पप्फोडेमाणे वा प्रमार्जयन् वा नातिकामति।
वैसे] झाड़ते हुए, प्रमाणित करते हुए पमज्जमाणे वा णातिक्कमति।।
आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। २. 'आयरिय-उवज्झाए अंतो २. आचार्योपाध्यायः अन्तः उपाश्रयस्य । २. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में उवस्सयस्स उच्चारपासवणं उच्चारप्रश्रवणं विवेचयन् वा विशोधयन् उच्चार-प्रस्रवण का व्युत्सर्ग और विशोविगिचमाणे वा विसोधेमाणे वा वा नातिकामति ।
धन करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं णातिक्कमति।
करते। ३. आयरिय-उवज्झाए पभू इच्छा ३. आचार्योपाध्यायः प्रभुः इच्छा वैया- ३. आचार्य और उपाध्याय की इच्छा पर वेयावडियं करेज्जा, इच्छा णो वृत्त्यं कुर्यात्, इच्छा नो कुर्यात् । निर्भर है कि वे किसी साधु की सेवा करें करेज्जा।
या न करें।
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स्थान ७ : सूत्र ८२-८३
मगं (स्थान)
७३८ ४. आयरिय-उवज्झाए अंतो ४. आचार्योपाध्यायः अन्त: उपाश्रयस्य उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा एकरात्रं वा द्विरात्रं वा एकको वसन् एगगो वसमाणे णातिक्कमति। नातिक्रामति । ५. आयरिय-उवज्झाए' बाहि ५. आचार्योपाध्यायः बहिः उपाश्रयस्य उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा एकरात्रं वा द्विरात्रं वा (एककः?) (एगओ ?) वसमाणे णाति- वसन् नातिक्रामति । क्कमति। ६. उवकरणातिसेसे।
६. उपकरणातिशेषः। ७. भत्तपाणातिसेसे।
७. भक्तपानातिशेषः।
४. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर एक रात या दो रात तक अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। ५. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर एक रात या दो रात तक अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। ६. उपकरण की विशेषता...-उज्ज्वल वस्त्र धारण करना। ७. भक्त-पान की विशेषता-स्थिरबुद्धि के लिए उपयुक्त मृदु-स्निग्ध भोजन करना।
संयम-असंयम-पद ८२. संयम के सात प्रकार है
१. पृथ्वीकायिक संयम। २. अप्कायिक संयम। ३. तेजस्कायिक संयम। ४. वायुकायिक संयम। ५. वनस्पतिकायिक संयम । ६. वसका यिक संयम। ७. अजीवकायिक संयम - अजीव वस्तुओं
के ग्रहण और उपभोग की विरति करना। ८३. असंयम के सात प्रकार हैं
संजम-असंजम-पदं संयम-असंयम-पदम् ८२. सत्तावध सजमे पण्णत्त, त जहा- सप्तविधः संयमः प्रज्ञप्तः, तदयथा पुढविकाइयसंजमे,
पृथिवीकायिकसंयमः, 'आउकाइयसंजमे,
अपकायिकसंयमः, तेउकाइयसंजमे, वाउकाइयसंजमे, तेजस्कायिकसंयमः, वायूकायिकसंयमः, वणस्सइकाइयसंजमे,
वनस्पतिकायिकसंयमः, तसकाइयसंजमे,
प्रसकायिकसंयमः, अजीवकाइयसंजमे।
अजीवकायिकसंयमः।
सप्तविधः असंयमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
८३. सत्तविधे असंजमे पण्णत्ते, तं
जहापुढविकाइयअसंजमे, •आउकाइयअसंजमे, तेउकाइयअसंजमे, वाउकाइयअसंजमे, वणस्सइकाइयअसंजमे, तसकाइयअसंजमे, अजीवकाइयअसंजमे।
पथिवीकायिकासंयमः, अप्कायिकासंयमः, तेजस्कायिकासंयमः, वायुकायिकासंयमः, वनस्पतिकायिकासंयम:, त्रसकायिकासंयमः, अजीवकायिकासंयमः।
१. पृथ्वीकायिक असंयम। २. अप्कायिक असंयम। ३. तेजस्कायिक असंयम। ४. वायुकायिक असंयम। ५. वनस्पतिकायिक असंयम। ६. सकायिक असंयम। ७. अजीवकायिक असंयम ।
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ठाणं (स्थान)
७३६
स्थान ७: सूत्र ८४-६०
आरंभ-पदं आरम्भ-पदम्
आरम्भ-पद ८४. सत्तविहे आरंभे पण्णत्ते, तं जहा- सप्तविधः आरम्भः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ८४. आरम्भ के सात प्रकार हैंपुढविकाइयआरंभे, पथिवीकायिकारम्भः,
१. पृथ्वीकायिक आरम्भ। •आउकाइयआरभे, अप्कायिकारम्भः,
२. अप्कायिक आरम्भ। तेउकाइयआरंभे, तेजस्कायिकारम्भः,
३. तेजस्कायिक आरम्भ। वाउकाइयआरंभे, वायुकायिकारम्भः,
४. बायुकायिक आरम्भ। वणस्सइकाइयआरंभे, वनस्पतिकायिकारम्भः,
५. वनस्पतिकायिक आरम्भ। तसकाइयआरंभे त्रसकायिकारम्भः,
६. नसकायिक आरम्भ। अजीवकाइयआरंभ। अजीवकायारम्भः।
७. अजीवकायिक आरम्भ ।। ८५. 'सत्तविहे अणारंभे पण्णत्ते, तं सप्तविधः अनारम्भः प्रज्ञप्तः, तदयथा_ ८५. अनारम्भ के सात प्रकार हैंजहा
पृथ्वीकायिक अनारम्भ। पुढविकाइयअणारंभे । पथिवीकायिकानारम्भः । ८६. सत्तविहे सारंभे पण्णत्ते, तं जहा- सप्तविधः संरम्भः प्रज्ञप्तः,तदयथा- ८६. संरम्भ के सात प्रकार हैं..... ___पुढविकाइयसारंभे । पृथिवीकायिकसंरम्भः ।
पृथ्वीकायिक संरम्भ। ८७. सत्तविहे असारंभे पण्णत्ते, तं जहा- सप्तविधः असंरम्भः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ८७. असंरम्भ के सात प्रकार हैंपुढविकाइयअसारंभे । पृथिवीकायिकासंरम्भः ।
पृथ्वीकायिक असंरम्भः। ५८. सत्तविहे समारंभे पण्णते, तं सप्तविधः समारम्भः प्रज्ञप्तः. तदयथा- ८८. समारम्भ के सात प्रकार हैंजहा
पृथ्वीकायिक समारम्भ। पूढविकाइयसमारंभे।
पथिवीकायिकसमारम्भः । ८६. सत्तविहे असमारंभे पण्णत्ते, तं सप्तविधः असमारम्भः प्रज्ञप्तः, ८६. असमारम्भ के सात प्रकार हैंजहातद्यथा
पृथ्वीकायिक असमारम्भ। पुढविकाइयअसमारंभे। पृथिवीकायिकासमारम्भः ।
जोणि-ठिइ-पदं योनि-स्थिति-पदम्
योनि-स्थिति-पद ६०. अध भंते ! अदसि-कुसुम्भ-कोदव- अथ भन्ते ! अतसी-कुसुम्भ-कोद्रव-कंगू- ६०. भगवन् ! अलसी, कुसुम्भ, कोदव, कंगु,
कंगु-रालग-वरट्ट-कोदूसग-सण- रालक-वरट-कोदूषक-सन-सर्षप-मूलक- राल, गोलचना, कोदव की एक जाति, सन, सरिसव-मुलगबीयाणं...एतेसि णं बीजानाम्-एतेषां धान्यानां कोष्ठा- सर्षप, मूलकबीज-ये धान्य जो कोष्ठधण्णाणं कोटाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं गुप्तानां पल्यागुप्तानां मञ्चागुप्तानां गुप्त, पल्यगुप्त, मञ्चगुप्त, मालागुप्त, •मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं मालागुप्तानां अवलिप्तानां लिप्तानां अवलिप्त, लिप्त, लांछित, मुद्रित, पिहित ओलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं लाच्छितानां मुद्रितानां पिहितानां हैं, उनकी योनि कितने काल तक रहती मुद्दियाणं पिहियाणं केवइयं कालं कियत् कालं योनिः संतिष्ठते ? जोणी संचिटूति ?
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ठाणं (स्थान)
गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त संवच्छ राई । तेण परं जोणी पमिलायति 'तेण परं जोणी पविद्धसति, तेण परं जोणी विद्वंसति, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं जोणी वोच्छेदे
पण्णत्ते ।
ठिति-पदं
१. बायरआउकाइयाणं
उक्कोसेणं
सत्त वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता । ६२. तच्चाए णं वालुयप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं णेरइयाणं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । ६३. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए जहणणं णेरइयाणं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ।
अगमहिसी - पदं
६४. सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ।
६५. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ।
६६. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ।
देव-पदं
७. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अभितरपरिसाए देवाणं सत्त पलिओ माई ठिती पण्णत्ता ।
७४०
गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षेण सप्त संवत्सराणि । तेन परं योनि प्रम्लायति, तेन परं योनि प्रविध्वंसते, तेन परं योनि विध्वंसते, तेन परं वीजं अबीजं भवति, तेन परं योनि व्यवच्छेदः प्रज्ञप्तः ।
स्थिति-पदम्
स्थिति-पद
बादरअप्कायिकानां उत्कर्षेण सप्त वर्ष ९१. बादर अष्कायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति सहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ताः । तृतीयायाः बालुकाप्रभायाः पृथिव्याः उत्कर्षेण नैरयिकाणां सप्त सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
है ।
चतुर्थ्याः पङ्कप्रभायाः पृथिव्याः जघन्येन ९३. चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की नैरयिकाणां सप्त सागरोपमाणि स्थितिः जघन्य स्थिति सात सागरोपम की है।
प्रज्ञप्ता ।
अग्रमहिषी-पदम्
शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य सप्त अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ।
ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सप्त अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ।
ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महाराजस्य सप्त अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ।
देव-पदम्
ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य आभ्यन्तरपरिषदः देवानां सप्त पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
स्थान ७ : सूत्र ६१-६७ गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः सात वर्ष तक । उसके बाद योनि म्लान हो जाती है, प्रविध्वस्त जाती है, विध्वस्त हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है, योनि का व्युच्छेद हो जाता है" ।
सात हजार वर्ष की है।
६२. तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की
अग्रमहिषी-पद
ε४. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वरुण के सात अग्रमहिषियां हैं।
६५. देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महा
राज सोम के सात अग्रमहिषियां हैं।
९६. देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महाराज यम के सात अग्रमहिषियां हैं ।
देव-पद
६७. देवेन्द्र देवराज ईशान के आभ्यन्तर परिपद वाले देवों की स्थिति सात पल्योपम की है ।
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ठाणं (स्थान)
७४१
स्थान ७ : सूत्र ६८-१०६ ६८. सक्कस्त णं देविदस्स देवरणो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अग्रमहि- ९८. देवेन्द्र देवराज शक्र के अग्रमहिषी देवियों
अग्गम हिसीणं देवीणं सत्त पलि- षीणां देवीनां सप्त पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति सात पल्योपम की है।
ओवमाई ठिती पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । ६६. सोहम्मे कप्पे परि गहियाणं देवीणं सौधर्मे कल्पे परिगृहीतानां देवीनां ६६. सौधर्मकल्प में परिगृहीत देवियों की
उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाइं उत्कर्षेण सप्त पल्योपमानि स्थितिः उत्कृष्ट स्थिति सात पल्योपम को है। ठिती पण्णता।
प्रज्ञप्ता। १००. सारस्सयमाइच्चाणं (देवाणं?) सारस्वतादित्यानां (देवानां ?) सप्त १००. सारस्वत और आदित्य जाति के देव सत्त देवा सत्तदेवसता पण्णत्ता। देवाः सप्तदेवशतानि प्रज्ञप्तानि ।
स्वामीरूप में सात हैं और उनके सात सौ
देवों का परिवार है। १०१. गद्दतोयतुसियाणं देवाणं सत्त देवा गर्दतोयतुषितानां देवानां सप्त देवाः १०१. गर्दतोय और तुषित जाति के देव स्वामीसत्त देवसहस्सा पण्णत्ता। सप्त देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि।
रूप में सात हैं और उनके सात हजार
देवों का परिवार है। १०२. सणंकमारे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं सनत्कुमारे कल्पे उत्कर्षेण देवानां सप्त १०२. सनत्कुमारकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थिति: प्रज्ञप्ता।
सात सागरोपम की है। मडिटे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं माहेन्द्र कल्पे उत्कर्षण देवानां सातिरे- १०३. माहेन्द्रकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति मानिशा सत्त सागरोवमा काणि सप्न सागरोपमाणि स्थिति: कुछ अधिक सात सागरोपम की है। ठिती पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ता। १०४. बंभलोगे कप्पे जहण्णणं देवाणं सत्त ब्रह्मलोके कल्पे जघन्येन देवानां सप्त १०४. ब्रह्मलोककल्प के देवों की जघन्य स्थिति
सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थिति: प्रज्ञप्ताः। सात सागरोपम की है। १०५. बंभलोय-लंतएसुणं कप्पेसु विमाणा ब्रह्मलोक-लान्तकयोः कल्पयोः विमा- १०५. ब्रह्मलोक और लान्तक कल्पों में विमानों
सत्त जोयणसताई उद्धृ उच्चत्तेणं नानि सप्त योजनशतानि ऊर्ध्व उच्चत्वेन की ऊंचाई सात सौ योजन की है। पण्णत्ता।
प्रज्ञप्तानि । १०६. भवणवासोणं देवाणं भवधारणिज्जा भवनवासिनां देवानां भवधारणीयानि १०६. भवनवासी देवों के भवधारणीय शरीर की
सरीरगा उक्कोसेणं सत्त रयणीओ शरीरकाणि उत्कर्षेण सप्त रत्नीः ऊवं उत्कृष्ट ऊंचाई सात रत्नि की है।
उडू उच्चत्तेणं पण्णत्ता। उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि। १०७. 'वाणमंतराणं देवाणं भवधार- वानमन्तराणां देवानां भवधारणीयानि १०७. वानमंतर देवों के भवधारणीय शरीर की
णिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं सत्त शरीरकाणि उत्कर्षेण सप्त रत्नी: ऊवं उत्कृष्ट ऊंचाई सात रत्नि की है।
रयणीओ उड्ड उच्चत्तेणं पण्णत्ता। उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि । १०८. जोइसियाणं देवाणं भवधारणिज्जा ज्योतिष्काणां देवानां भवधारणीयानि १०८. ज्योतिष्क देवों के भवधारणीय शरीर की
सरीरगा उक्कोसेणं सत्त रयणीओ शरीरकाणि उत्कर्षेण सप्त रत्नीः ऊवं उत्कृष्ट ऊंचाई सात रनि की है।
उड्डू उच्चत्तेणं पण्णत्ता। उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि। १०६. सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु देवाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोः देवानां भव- १०६. सौधर्म और ईशानकल्प के देवों के भव
भवधारणिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं धारणीयानि शरीरकाणि उत्कर्षेण सप्त धारणीय शरीर की उत्कृष्ट ऊंचाई सात सत्त रयणीओ उड्ड उच्चत्तेणं रत्नीः ऊर्ध्व उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि। रनि की है। पण्णत्ता।
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ठाणं (स्थान)
७४२
स्थान ७: सूत्र ११०-११३
णंदीसरवर-पदं नन्दीश्वरवर-पदम्
नन्दीश्वरवर-पद ११०. णंदिस्सरवरस्स णं दीवस्स अंतो नन्दीश्वरवरस्य द्वीपस्य अन्तः सप्त द्वीपाः ११०. नन्दीश्वर वरद्वीप के अन्तराल में सात सत्त दीवा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--
द्वीप हैं। जंबुद्दीवे, धायइसंडे, पोक्खरवरे, जम्बूद्वीपः, धातकीषण्डः, पुष्करवरः, १. जम्बूद्वीप, २. धातकीषण्ड, वरुणवरे, खीरवरे, घयवरे, वरुणवरः क्षीरवरः, घृतवरः, क्षोदवरः। ३. पुष्करवर, ४. वरुणवर, ५. क्षीरवर, खोयवरे।
६. घृतवर, ७. क्षोदवर। १११. णंदीसरवरस्स णं दीवस्स अंतो नन्दीश्वरवरस्य द्वीपस्य अन्तः सप्त १११. नन्दीश्वरवरद्वीप के अन्तराल में सात सत्त समुद्दा पण्णत्ता, तं जहा- समुद्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
समुद्र हैं--- लवणे, कालोदे, पुवखरोदे, वरुणोदे, लवणः, कालोदः, पुष्करोदः, वरुणोदः, । १. लवण, २. कालोद, ३. पुष्करोद, खीरोदे, घओदे, खोओदे। क्षीरोदः, घृतोदः, क्षोदोदः।
४. वरुणोद, ५.क्षीरोद, ६. घृतोद, ७. क्षोदोद।
सेढि-पदं श्रेणि-पदम्
श्रेणि-पद ११२. सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- सप्त श्रेण्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ११२. श्रेणियां -आकाश की प्रदेशपंक्तियां
उज्जुआयता,एगतोवंका,दुहतोवंका, ऋज्वायता, एकतोवक्रा, द्वितोवक्रा, सात हैंएगतोखहा, दुहतोखहा, एकतःखहा, द्वितःखहा, चक्रवाला, १. ऋजुआयता--जो सीधी और लंबी हो। चक्कवाला, अद्धचक्कवाला। अर्धचक्रवाला।
२. एकतोवक्रा-जो एक दिशा में वक्र हो। ३. द्वितोवक्रा--जो दोनों ओर वक्र हो। ४. एकतःखहा-जो एक दिशा में अंकुश की तरह मुड़ी हुई हो; जिसके एक ओर वसनाड़ी का आकाश हो। ५. द्वितः खहा--जो दोनों ओर अंकुश की तरह मुड़ी हुई हो; जिसके दोनों ओर वसनाड़ी के बाहर का आकाश हो। ६. चक्रवाला-जो वलय की आकृतिवाली हो। ७. अर्द्धचक्रवाला—जो अर्द्धवलय की
आतिवाली हो। अणिय-अणियाहिवइ-पदं अनीक-अनीकाधिपति-पदम् अनीक-अनीकाधिपति-पद ११३. चमरस णं असुरिंदस्स असुर- चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य ११३. असुरेन्द्र असुरकुमारराजचमर के सात
कुमाररण्णो सत्त अणिया, सत्त सप्त अनीकानि, सप्त अनीकाधिपतयः सेनाएं और सात सेनापति हैंअणियाधिपती पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
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स्थान ७ : सूत्र ११४
ठाणं (स्थान)
७४३ पायत्ताणिए, पोढाणिए, पादातानीकं, पीठानीकं, कजरानीकं, कुंजराणिए, महिसाहिए, महिषानीक, रथानीकं, नाट्यानीकं, रहाणिए, णट्टाणिए, गन्धर्वानीकम् । गंधवाणिए। 'दुमे पायत्ताणियाधिवती, द्रुमः पादातानीकाधिपतिः सुदामा सोदामे आसराया पीढाणिया- अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः, कुन्थुः । धिवती, कुंथू हस्थिराया कुंजरा- हस्तिराजः कुञ्जरानीकाधिपतिः, । णियाधिवती, लोहितक्खे महिसा- लोहिताक्षः महिषानीकाधिपतिः, किन्नरः णियाधिवती, किण्णरे रधाणिया- रथानीकाधिपतिः, रिष्ट: नाट्याधिवती, रिट्ठ पट्टाणियाधिवती, नीकाधिपतिः, गीतरतिः गन्धर्वागीतरती गंधवाणियाधिवती। नीकाधिपतिः।
सेनाएं१. पदातिसेना, २. अश्वसेना, ३. हस्तिसेना, ४. महिषसेना, ५. रथसेना,
६. नर्तकसेना, ७. गन्धर्वसेना-गायकसेना। सेनापति१. द्रुम-पदातिसेना का अधिपति । २. अश्वराज सुदामा-अश्वसेना का अधिपति । ३. हस्तिराज कुन्थुहस्तिसेना का अधिपति । ४. लोहिताक्ष-महिषसेना का अधिपति। ५. किन्नर-रथसेना का अधिपति । ६. रिष्ट-नर्तकसेना का अधिपति । ७. गीतरति--गंधर्वसेना का अधिपति ।
११४. बलिस्स णं वइरोणिदस्स वइरो- बले: वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य ११४. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बली के सात
यणरणो सत्ताणिया, सत्त अणिया- सप्तानीकानि, सप्तानीकाधिपतयः सेनाएं और सात सेनापति हैंधिपती पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
सेनाएंपायत्ताणिए जाव गंधवाणिए। पादातानीकं यावत् गन्धर्वानीकम्।। १. पदातिसेना, २. अश्वसेना, महढुमे पायत्ताणियाधिपती जाव महाद्रुमः पादातानीकाधिपतिः यावत् ३. हस्तिसेना, ४. महिषसेना, किंपुरिसे रधाणियाधिपती, किंपुरुषः रथानीकाधिपतिः, ५. रथसेना, ६. नर्तकसेना, महारितु णट्टाणियाधिपती, महारिष्ट: नाट्यानीकाधिपतिः,
७. गन्धर्वसेना। गीतजसे गंधवाणियाधिपती। गीतयशाः गन्धर्वानीकाधिपतिः । सेनापति
१. महाद्रुम-पदातिसेना का अधिपति। २. अश्वराज महासुदामा--अश्वसेना का अधिपति। ३. हस्तिराज मालंकार-हस्तिसेना का अधिपति। ४. महालोहिताक्ष-महिषसेना का अधिपति। ५. किंपुरुष-रथसेना का अधिपति। ६. महारिष्ट-नर्तकसेना का अधिपति । ७. गीतयश-गायकसेना का अधिपति ।
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ठाणं (स्थान)
७४४
स्थान ७: सूत्र ११५-११६ ११५. धरणस्स णं णागकुमारिदस्स नाग- धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमार- ११५. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के कुमाररणो सत्त अणिया, सत्त राजस्य सप्तानीकानि सप्तानीकाधि
सात सेनाएं और सात सेनापति हैं
सेनाएंअणियाधिपती पण्णत्ता, तं जहा- पतयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा
१. पदातिसेना, २. अश्वसेना, पायत्ताणिए जाव गंधव्वाणिए। पादातानीकं यावत् गन्धर्वानीकम् ।।
३. हस्तिसेना, ४. महिषसेना, भद्दसेणे पायत्ताणियाधिपती जाव भद्रसेनः पादातानीकाधिपति: यावत्
५. रथसेना, आनन्द: रथानीकाधिपतिः, आणंदे रधाणियाधिपती,
६ नर्तकसेना,
७. गन्धर्वसेना। णंदणे णट्टाणियाधिपती, नन्दनः नाट्यानीकाधिपतिः,
सेनापतितेतली गंधवाणियाधिपती। तेतलिः गन्धर्वानीकाधिपतिः ।
१. भद्रसेन-पदातिसेना का अधिपति। २. अश्वराज यशोधर-अश्वसेना का अधिपति । ३. हस्तिराज सुदर्शन--हस्तिसेना का अधिपति । ४. नीलकण्ठ–महिषसेना का अधिपति । ५. आनन्द-रथसेना का अधिपति । ६. नन्दन-नर्तकसेना का अधिपति ।
७. तेतली-गन्धर्वसेना का अधिपति । ११६. भताणंदस्स णं नागकुमारिदस्स भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमार- ११६. नागकुमारेन्द्र नागकमारराज भतान के
नागकमाररण्णो सत्त अणिया, राजस्य सप्त अनीकानि, सप्त अनी- सात सेनाएं और सात सेनापति सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता, तं काधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
सेनाएंजहा
१. पदातिसेना, २. अश्वसेना, पायत्ताणिए जाव गंधव्वाणिए। पादातानीकं यावत् गन्धर्वानीकम्।
३. हस्तिसेना, ४. महिषसेना, दक्खे पायत्ताणियाहिवती जाव दक्षः पादातानीकाधिपतिः याव
५. रथसेना, ६. नर्तकसेना, णंदुत्तरे रहाणियाहिवई, नन्दोत्तरः रथानीकाधिपतिः,
७. गन्धर्वसेना। रती पट्टाणियाहिवई, रतिः नाट्यानीकाधिपतिः,
सेनापतिमाणसे गंधवाणियाहिवई। मानसः गन्धर्वानीकाधिपतिः ।
१. दक्ष---पदातिसेना का अधिपति । २. अश्वराज सुग्रीव-अश्वसेना का अधिपति। ३. हस्तिराज सुविक्रम-हस्तिसेना का अधिपति। ४. श्वेत कण्ठ–महिषसेना का अधिपति। ५. नन्दोत्तर-रथसेना का अधिपति । ६. रति-नर्तकसेना का अधिपति । ७. मानस-गन्धर्वसेना का अधिपति ।
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ठाणं (स्थान)
७४५
स्थान ७ : सूत्र ११७-१२० ११७. 'जधा धरणस्स तधा सम्वेसि यथा धरणस्य तथा सर्वेषां दाक्षिणा- ११७. दक्षिण दिशा के भवनपति देवों के इन्द्र दाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स। त्यानां यावत् घोषस्य ।
वेणुदेव, हरिकांत, अग्निशिख, पूर्ण, जलकांत, अमितगति, वेलम्ब तथा धोष के धरण की भांति सात-सात सेनाएं और
सात-सात सेनापति हैं। ११८. जधा भूताणंदस्स तधा सव्वेसि यथा भूतानन्दस्य तथा सर्वेषां औदी- ११८. उत्तर दिशा के भवनपति देवों के इन्द्र, उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स।' च्यानां यावत् महाघोषस्य ।
वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमानव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभञ्जन और महाघोष के भूतानन्द की भांति सात-सात
सेनाएं और सात-सात सेनापति हैं। ११६. सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सप्त अनी- ११६. देवेन्द्र देवराज शक्र के सात सेनाएं और सत्त अणिया, सत्त अणियाहिवती कानि, सप्त अनीकाधिपतयः प्रज्ञप्ता:,
सात सेनापति हैं
सेनाएंपण्णत्ता, तं जहा- तद्यथा--
१. पदातिसेना, २. अश्वसेना, ३. हस्तिसेना, पायत्ताणीए जाव रहाणिए, पादातानीकं यावत् रथानीकम्, नाट्या
४. महिषसेना, ५. रथसेना, ६. नर्तकसेना,
७. गन्धर्वसेना। गट्टाणिए, गंधव्वाणिए। नीकं, गन्धर्वानीकम् ।
सेनापतिहरिणेगमेसी पायत्ताणीयाधिपती हरिनैगमेषी पादातानीकाधिपतिः यावत् १.हरिनगमेषी-पदातिसेना
अधिपति। जाव माढरे रधाणियाधिपती, माठर: रथानीकाधिपतिः,
२. अश्वराज वायु-अश्वसेना का सेते णट्टाणियाहिवती, श्वेत: नाट्यानीकाधिपतिः,
अधिपति। तंबरू गंधव्वाणियाधिपती। तुम्बरुः गन्धर्वानीकाधिपतिः ।
३. हस्तिराज ऐरावण-हस्तिसेना का अधिपति। ४. दामद्धि-महिषसेना का अधिपति । ५. माठर--रथसेना का अधिपति । ६. श्वेत--नर्तकसेना का अधिपति ।
७. तुम्बुरु-गन्धर्वसेना का अधिपति । १२०. ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सप्त १२०. देवेन्द्र देवराज ईशान के सात सेनाएं और
सात सेनापति हैंसत्त अणिया, सत्त अणियाहिवई अनीकानि, सप्त अनीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः,
सेनाएंपण्णत्ता, तं जहातद्यथा
१. पदातिसेना, २. अश्वसेना, ३. हस्तिसेना पायत्ताणिए जाव गंधव्वाणिए। पादातानीकं यावत् गन्धर्वानीकम् ।
४. महिषसेना, ५. रथसेना, ६. नर्तकसेना,
७. गंधर्व सेना। लहुपरक्कमे पायत्ताणियाहिवती लघुपराक्रमः पादातानीकाधिपतिः सेनापतिजाव महासेते णट्टाणियाहिवती, यावत् महाश्वेतः नाट्यानीकाधिपतिः । १. लघुपराक्रम-पदातिसेना
अधिपति। रते गंध व्वाणियाधिपती। रतः गन्धर्वानीकाधिपतिः।
२. अश्वराज महावायु---अश्वसेना का अधिपति। ३. हस्तिराज पुष्पदन्त-हस्तिसेना का अधिपति । ४. महादामद्धि-महिषसेना का अधिपति ५. महामाठर-रथसेना का अधिपति। ६. महाश्वेत-नर्तकसेना का अधिपति । ७. रत-गन्धर्वसेना का अधिपति ।
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ठाणं (स्थान)
७४६
स्थान ७ : सूत्र १२१-१२७ १२१. 'जधा सक्कस्स तहा सव्वेसि यथा शक्रस्य तथा सर्वेणां दाक्षिणात्यानां १२१. दक्षिण दिशा के देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, दाहिणिल्लाणं जाव आरणस्स। यावत् आरणस्य ।
ब्रह्म, शुक्र, आनत और आरण के, शक्र की भांति, सात-सात सेनाएं और सात
सात सेनापति हैं। १२२. जधा ईसाणस्स तहा सव्वेसि यथा ईशानस्य तथा सर्वेणां औदीच्यानां १२२. उत्तर दिशा के देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र,
लांतक, सहस्रार, प्राणत और अच्युत के उत्तरिल्लाणं जाव अच्चुतस्स। यावत् अच्युतस्य ।
ईशान की भांति, सात-सात सेनाएं और
सात-सात सेनापति हैं। १२३. चमरस्स णं असुरिदस्स असुर- चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य १२३. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के पदाति
कुमाररण्णो दुमस्स पायत्ताणिया- द्रुमस्य पादातानीकाधिपतेः सप्त कक्षाः सेना के अधिपति द्रुम के सात कक्षाएं हैंहिवतिस्स सत्त कच्छाओ प्रज्ञप्ताः, तद्यथापण्णत्ताओ, तं जहा
पढमा कच्छा जाव सत्तमा कच्छा। प्रथमा कक्षा यावत् सप्तमी कक्षा। पहली यावत् सातवीं। १२४. चमरस्स णं असुरिदस्स असुर- चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य १२४. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के पदाति
कुमाररण्णो दुमस्स पायत्ताणिया- द्रुमस्य पादातानीकाधिपतेः प्रथमायां सेना के अधिपति द्रुम की प्रथम कक्षा में धिपतिस्स पढमाए कच्छाए कक्षायां चतुःषष्ठि देवसहस्राणि ६४ हजार देव हैं। दूसरी कक्षा में उससे चउसट्ठि देवसहस्सा पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि ।
दुगुने–१२८००० देव हैं । तीसरी कक्षा जावतिया पढमा कच्छा तम्विगुणा यावती प्रथमा कक्षा तद्विगुणा द्वितीया में दूसरी से दुगुने–२५६००० देव हैं। दोच्चा कच्छा । जावतिया दोच्चा कक्षा । यावती द्वितीया कक्षा तद्वि गुणा इसी प्रकार सातवीं कक्षा में छठी से दुगुने कच्छा तस्विगुणा तच्चा कच्छा। तृतीया कक्षा । एवं यावत् यावती षष्ठी देव हैं। एवं जाव जावतिया छट्ठा कच्छा कक्षा तद्विगुणा सप्तमी कक्षा। तन्विगुणा सत्तमा कच्छा।
१२५. एवं बलिस्सवि, णवरं—महद्दुमे एवं बलेरपि, नवरं_महाद्रुमः षष्ठि- १२५. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बली के पदातिसट्ठिदेवसाहस्सिओ । सेसं तं चेव। देवसाहसिकः शेषं तच्चैव ।
सेना के अधिपति महाद्रुम की प्रथम कक्षा में ६० हजार देव हैं। अग्रिम कक्षाओं में
क्रमशः दुगुने-दुगुने हैं। १२६. धरणस्स एवं_चेव, णवरं धरणस्य एवम् चैव, नवरं-अष्टा- १२६. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के
पदातिसेना के अधिपति भद्रसेन की प्रथम अट्ठावीसं देवसहस्सा । सेसं तं चेव। विंशतिः देवसहस्राणि शेषं तच्चैव।
कक्षा में २८ हजार देव हैं। अग्रिम कक्षाओं
में क्रमशः दुगुने-दुगुने हैं। १२७. जधा धरणस्स एवं जाव महा- यथा धरणस्य एवं यावत महाघोषस्य, १२७. भूतानन्द से महाघोष तक के सभी इन्द्रों
घोसस्स, णवरं-पायत्ताणियाधिपती नवरं_पादातानिकाधिपतयः अन्ये, ते के पदाति सेनापतियों की कक्षाओं की अण्णे, ते पुव्वभणिता। पूर्वभणिताः।
देव-संख्या धरण की भांति ज्ञातव्य है। उनके सेनापति दक्षिण और उत्तर दिशा के भेद से भिन्न-भिन्न हैं, जो पहले बताए जा चुके हैं।
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ठाणं (स्थान)
७४७
स्थान ७: सूत्र १२८ १२८. सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य हरिनैग- १२८. देवेन्द्र देवराज शक्र के पदातिसेना के
हरिणेगमेसिस्स सत्त कच्छाओ मेषिनः सप्त कक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- अधिपति हरिनगमेषी के सात कक्षाएं हैंपण्णत्ताओ, तं जहा
प्रथमा कक्षा एवं यथा चमरस्य तथा पहली यावत् सातवीं। पढमा कच्छा एवं जहा चमरस्स यावत् अच्युतस्य ।
इसी प्रकार अच्युत तक के सभी देवेन्द्रों के तहा जाव अच्चुतस्स।
नानात्वं पादातानीकाधिपतीनाम । ते पदातिसेना के अधिपतियों के सात-सात णाणत्तं पायत्ताणियाधिपतीणं । ते पूर्वभणिता। देवपरिमाणं इदम्- कक्षाएं हैं। पुत्वभणिता। देवपरिमाणं इमं शक्रस्य चतुरशीतिः देवसहस्राणि, ईशा- उनके पदातिसेना के अधिपति भिन्न-भिन्न सक्कस्स चउरासीति देवसहस्सा, नस्य अशीतिः देवसहस्राणि यावत् हैं, जो पहले बताए जा चुके हैं। उनकी ईसाणस्स असीति देवसहस्साई अच्युतस्य लघुपराक्रमस्य दश देवसह- कक्षाओं का देव-परिमाण इस प्रकार हैजाव अच्चुतस्स लहुपरक्कमस्स स्राणि यावत् यावती षष्ठी कक्षा तद्वि- शक्र के पदातिसेना के अधिपति की प्रथम दस देवसहस्सा जाव जावतिया गुणा सप्तमी कक्षा ।
कक्षा में ८४ हजार देव हैं। छट्ठा कच्छा तव्विगुणा सत्तमा देवाः अनया गाथया अनुगन्तव्याः- ईशान के पदातिसेना के अधिपति की कच्छा ।
प्रथम कक्षा में ८० हजार देव हैं। देवा इमाए गाथाए अणुगंतव्वा
सनत्कुमार के पदातिसेना के अधिपति की १. चउरासीति असीति, १. चतुरशीतिरशीतिः,
प्रथम कक्षा में ७२ हजार देव हैं। बावत्तरी सत्तरी य सट्ठी य।। द्विसप्ततिः सप्ततिश्च षष्ठिश्च । माहेन्द्र के पदातिसेना के अधिपति की पण्णा चत्तालीसा, पञ्चाशत् चत्वारिंशत्,
प्रथम कक्षा में ७० हजार देव हैं। तीसा बीसा य दससहस्सा ॥ त्रिशत विंशतिश्च दशसहस्राणि ।। ब्रह्म के पदातिसेना के अधिपति की प्रथम
कक्षा में ६० हजार देव हैं। लान्तक के पदातिसेना के अधिपति की प्रथम कक्षा में ५० हजार देव हैं। शुक्र के पदातिसेना के अधिपति की प्रथम कक्षा में ४० हजार देव हैं। सहस्रार के पदातिसेना के अधिपति की प्रथम कक्षा में ३० हजार देव हैं। प्राणत के पदातिसेना के अधिपति की प्रथम कक्षा में २० हजार देव हैं। अच्युत के पदातिसेना के अधिपति की प्रथम कक्षा में १० हजार देव हैं। इन सब के शेष छहों कक्षाओं में पूर्ववत उत्तरोत्तर दुगुने-दुगुने देव हैं।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : सूत्र १२६-१३१
वयणविकप्प-पदं वचनविकल्प-पदम्
वचनविकल्प-पद १२६. सत्तविहे वयणविकप्पे पण्णत्ते, तं सप्तविधः वचनविकल्पः प्रज्ञप्तः, १२६. वचन के सात विकल्प हैंजहातद्यथा
१. आलाप-थोड़ा बोलना। आलावे, अणालावे, उल्लावे, आलापः, अनालापः, उल्लापः, अनुल्लापः, २. अनालाप-कुत्सित आलाप करना। अणुल्लावे, संलावे, पलावे, संलापः, प्रलापः, विप्रलापः।
३. उल्लाप-काकु-ध्वनिविकार के द्वारा विप्पलावे।
बोलना। ४. अनुल्लाप-कुत्सित ध्वनिविकार के द्वारा बोलना। ५. संलाप-परस्पर भाषण करना । ६. प्रलाप–निरर्थक बोलना। ७. विप्रलाप–विरुद्ध वचन बोलना।
विणय-पदं विनय-पदम्
विनय-पद १३०. सत्तविहे विणए पण्णत्ते, तं जहा- सप्तविधः विनयः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १३०. विनय के सात प्रकार हैंणाणविणए, दंसणविणए, ज्ञानविनयः, दर्शनविनयः, चरित्रविनयः, ।
१. ज्ञानविनय, २. दर्शनविनय, चरित्तविणए, मणविणए, मनोविनयः, वागविनयः, कायविनयः,
३. चरित्नविनय, ४. मनविनय
अकुशल मन का निरोध और कुशल की वइविणए, कायविणए, लोकोपचारविनयः।
प्रवृत्ति, ५. वचनविनय-अकुशल वचन लोगोवयारविणए।
का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति। ६. कायविनय-अकुशल काय का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति। ७. लोकोपचारविनय-लोक-व्यवहार के
अनुसार विनय करना। १३१. पसत्थमणविणए सत्तविधे पण्णत्ते, प्रशस्तमनोविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, १३१. प्रशस्त मनविनय के सात प्रकार हैंतं जहातद्यथा
१. अपापक---मन को शुभ चिन्तन में
प्रवृत्त करना। अपावए, असावज्जे, अकिरिए, अपापकः, असावद्यः, अक्रियः, निरुप
२.असावद्य-मन को चोरी आदि गहित णिरुवक्केसे, अणण्हयकरे, क्लेशः, अनास्नवकरः, अक्षयिकरः, कर्मों में न लगाना। अच्छविकरे, अभूताभिसंकणे।
३. अक्रिय-मन को कायिकी, आधिअभूताभिशङ्कनः ।
करणिकी आदि क्रियाओं में प्रवृत्त न करना। ४. निरुपक्लेश-मन को शोक, चिन्ता आदि में प्रवृत्त न करना। ५. अनास्नवकर--मन को प्राणातिपात आदि पांच आश्रवों में प्रवृत्त न करना। ६. अक्षयिकर-मन को प्राणियों को व्यथित करने में न लगाना। ७. अभूताभिशकुन-मन को अभयंकर बनाना।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : सूत्र १३२-१३६ १३२. अपसत्थमणविणए सत्तविधे पण्णत्ते, अप्रशस्तमनोविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, १३२. अप्रशस्त मनविनय के सात प्रकार हैंतं जहा
तदयथापावए, सावज्जे, सकिरिए, पापकः, सावद्यः, सक्रियः, सोपक्लेश:, १. पापक, २. साबद्य, ३. सक्रिय, सउवक्केसे, अण्हयकरे, आस्नवकरः, क्षयिकरः, भूताभिशङ्कनः। ४. सोपक्लेश, ५. आस्नवकर, छविकरे, भूताभिसंकणे।
६. क्षयिकर, ७. भूताभिशङ्कन । १३३. पसत्थवइविणए सत्तविधे पण्णत्ते, प्रशस्तवागविनय: सप्तविधः प्रज्ञप्तः, १३३. प्रशस्त वचनविनय के सात प्रकार हैंतं जहा
तद्यथाअपावरा असावज्जे. अकिरिए, अपापकः, असावद्यः. अक्रियः. निरुप
१. अपापक, २. असावद्य, ३. अक्रिय, णिरुवक्केसे, अणण्हयकरे, क्लेशः, अनास्नवकरः, अक्षयिकरः, ४. निरुपक्लेश, ५. अनास्नवकर, अच्छविकरे, अभूताभिसंकणे। अभूताभिशङ्कनः ।
६. अक्षयिकर, ७. अभूताभिशङ्कन । १३४. अपसत्थवइ विणए सत्तविधे पण्णत्ते, अप्रशस्तवाविनयः सप्तविध: प्रज्ञप्तः, १३४. अप्रशस्त वचनविनय के सात प्रकार हैंतं जहा--
तद्यथापावए, सावज्जे, सकिरिए, पापकः, सावद्यः, सक्रियः, सोपक्लेशः, १. पापक, २. सावध, ३. सक्रिय, सउवक्केसे, अण्हयकरे, छविकरे,° आस्नवकरः, क्षयिकरः, भूताशिङ्कनः । ४. सोपक्लेश, ५. आस्नवकर, भूताभिसंकणे।
६. क्षयिकर, ७. भूताभिशङ्कन । १३५. पसत्थकायविणए सत्तविधे पण्णत्ते प्रशस्तकायविनयः सप्तविध: प्रज्ञप्तः, १३५. प्रशस्त कायविनय के सात प्रकार हैंतं जहातद्यथा
१. आयुक्त गमन—यतनापूर्वक चलना। आउत्तं गमणं, आउत्तं ठाणं, आयुक्तं गमनं, आयुक्तं स्थानं, आयुक्तं ।
२. आयुक्त स्थान ---यतनापूर्वक खड़ा
होना, कायोत्सर्ग करना। आउत्तं णिसीयणं, आउत्तं, निषदनं, आयुक्तं त्वग्वर्तनं, आयुक्तं
३. आयुक्त निषदन-यतनापूर्वक बैठना। तुअट्टणं, आउत्तं उल्लंघणं, उल्लङघनं, आयुक्तं प्रलङ्घनं,
४. आयुक्त त्वग्वर्तन-यतनापूर्वक सोना। आउत्तं पल्लंघणं, आउत्तं आयुक्तं सर्वेन्द्रिययोगयोजनम् । ५. आयुक्त उल्लंघन-यतनापूर्वक उल्लंसविदियजोगजुंजणता।
घन करना। ६. आयुक्त प्रलंघन -यतनापूर्वक प्रलंघन करना। ७. आयुक्त सर्वेन्द्रिययोगयोजना–यतनापूर्वक सब इन्द्रियों का प्रयोग करना।
१३६. अपसत्थकायविणय सत्तविधे पण्णत्ते, अप्रशस्तकायविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, १३६. अप्रशस्त कायविनय के सात प्रकार हैंतं जहा
तद्यथाअणाउत्तं गमणं, 'अणाउत्तं ठाणं, अनायुक्तं गमनं, अनायुक्तं स्थानं, १. अनायुक्त गमन । अणाउत्तं णिसीयणं, अनायुक्तं निषदनं, अनायुक्तं त्वग्वर्तनं, २. अनायुक्त स्थान । अणाउत्तं तुअट्टणं, अनायुक्तं उल्लङ्घनं, अनायुक्तं प्रलङ्घनं,
३. अनायुक्त निषदन : अणाउत्तं उल्लंघणं,
४. अनायुक्त त्वग्वर्तन। अनायुक्तं सर्वेन्द्रिययोगयोजनम् ।
५. अनायुक्त उल्लंघन। अणाउत्तं पल्लंघणं,
६. अनायुक्त प्रलंघन। अणाउत्तं सव्विदियजोगजुंजणता ।
७. अनायुक्त सर्वेन्द्रिययोगयोजनता।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : सूत्र १३७-१३८ १३७. लोगोवयारविणए सत्तविधे पण्णत्ते, लोकोपचारविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, १३७. लोकोपचारविनय के सात प्रकार हैंतं जहातद्यथा
१. अभ्यासवर्तित्व-श्रुत-ग्रहण करने के अब्भासवत्तितं, परच्छंदाणुवत्तितं, अभ्यासवर्तितं, परच्छन्दानुवतितं, लिए आचार्य के समीप बैठना। कज्जहेडं, कतपडिकतिता, कार्यहेतोः, कृतप्रतिकृतिता, आर्त्त- २. परछन्दानुवतित्व-दूसरों के अभिअत्तगवेसणता, देसकालण्णता, गवेषणता, देशकालज्ञता, सर्वार्थेषु प्राय के अनुसार वर्तन करना। सव्वत्थेसु अपडिलोमता। अप्रतिलोमता।
३. कार्य हेतु-'इसने मुझे ज्ञान दिया'इसलिए उसका विनय करना। ४. कृतप्रतिकृतिता—प्रत्युपकार की भावना से विनय करना। ५. आर्तगवेषणता-रोगी के लिए औषध आदि की गवेषणा करना। ६. देशकालज्ञता—अवसर को जानना। ७. सर्वार्थ अप्रतिलोमता--सब विषयों में अनुकूल आचरण करना।
समुग्घात-पदं १३८. सत्त समुग्धाता पण्णत्ता, तं जहा
वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतियसमुग्घाए, वेउब्वियसमुग्धाए, तेजससमुग्घाए, आहारगसमुग्घाए, केवलिसमुग्धाए।
समुद्घात-पदम्
समुद्घात-पद सप्त समुद्घाताः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १३८. समुद्घात सात हैंवेदनासमुद्घातः,
१. वेदनासमुद्घात–असात वेदनीय कर्म कषायसमुद्घातः,
के आश्रित होने वाला समुद्घात । मारणान्तिकसमुद्घातः,
२. कषाय समुद्घात-कषाय मोहकर्म के वैक्रियसमुद्घातः,
आश्रित होने वाला समुद्घात। तेजससमुद्घातः,
३. मारणान्तिक समुद्घात-आयुष्य के आहारकसमुद्घातः,
अन्तर्मुहर्त अवशिष्ट रह जाने पर उसके केवलिसमुद्घातः ।
आश्रित होने वाला समुद्घात । ४. वैक्रिय समुद्घात-वक्रिय नामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । ५. तेजस समुद्घात-तैजनसनामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । ६. आहारक समुद्घात-आहारक नामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात। ७. केवली समुद्धात–वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात।
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ठाणं (स्थान)
७५१
स्थान ७ : सूत्र ९३६-१४३
१३६. मणुस्साणं सत्त सणग्धाता पण्णत्ता मनुष्याणां सप्त समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः १३६. मनुष्यों में ये सातों प्रकार के समुद्घात
एवं चेव ।
एवं चैव ।
होते हैं।
पणि-पदं
१४०. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्यंसि सत्त पवयणणिण्हगा पण्णत्ता, तं जहा -
बहुरता, जीवपएसिया, अवत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया । १४१. एएसि णं सत्तण्हं पवयणणिण्हगाणं सत्त धम्मायरिया हुत्या, तं जहा — जमाली, तीसगुत्ते, आसाढे, आसमित्ते, गंगे, छलुए, महि ।
१४२. एते सिणं सत्तहं पवयणणिव्हगाणं सत्तउपपत्तिणगरा हुत्था, तं जहा
संग्रहणी - गाहा
१. सावत्थी उसभपुरं, सेयविया मिहिलउल्ल गातीरं । पुरिमंतरंज दसपुरं, हिगउपपत्तिणगराई ||
अणुभाव पर्द १४३. सातावेय णिज्जस्स णं कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पण्णत्ते, तं जहा -
मणुण्णा सद्दा, मणुण्णा रूवा, ● मणुण्णा गंधा, मणुष्णा रसा, मण्णा फासा, मणो सुहता, वसुता ।
प्रवचननिह्नव-पदम्
श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य तीर्थे सप्त प्रवचननिह्नवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
बहुरताः, जीवप्रदेशिकाः, अव्यक्तिकाः, सामुच्छेदिकाः, क्रियाः, त्रैराशिकाः, अद्धिकाः ।
एतेषां सप्तानां प्रवचननिवानां सप्त धर्माचार्याः अभवन्, तद्यथाजमालिः, तिष्यगुप्तः, आपाढः, अश्वमित्रः, गङ्गः, षडुलूकः, गोष्ठामाहिलः ।
एतेषां सप्तानां प्रवचननिह्नवानां सप्तोत्पत्तिनगराणि अभवन्, तद्यथा
संग्रहणी - गाथा
१. श्रावस्ती: ऋषभपुरं, श्वेतविका मिथिला उल्लुकातीरम् । पुर्यन्तरञ्जिः दशपुरं, निवोत्पत्तिनगराणि ||
मनोज्ञाः शब्दाः, मनोज्ञानि रूपाणि, मनोज्ञा: गन्धाः, मनोज्ञाः रसाः, मनोज्ञाः स्पर्शाः, मनःसुखता, वाक्सुखता ।
प्रवचननिह्नव पद
१४०. श्रमण भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रवचन-निह्नव" सात हुए हैं
१. बहुरत,
२. जीवप्रादेशिक,
३. अव्यक्तिक,
४. सामुच्छेदिक,
५. द्वैक्रिय, ६. वैराशिक, ७. अबद्धिक । १४१. इन सात प्रवचन -निह्नवों के सात
धर्माचार्य थे
१. जमाली,
३. आषाढ,
५. गंग, ६. षडुलूक, ७. गोष्ठामाहिल । १४२. इन सात प्रवचन- निह्नों के उत्पत्ति-नगर
सात हैं
१. श्रावस्ति,
३. श्वेतविका,
५. उल्लुकातीर,
७. दशपुर ।
अनुभाव-पदम्
अनुभाव-पद
सात वेदनीयस्य कर्म्मणः सप्तविधः अनु- १४३. सातवेदनीय कर्म का अनुभाव सात प्रकार भावः प्रज्ञप्तः, तद्यथा—
का होता है
२. तिष्यगुप्त,
४. अश्वमित्र,
१. मनोज्ञ शब्द,
३. मनोज्ञ गन्ध,
५. मनोज्ञ स्पर्श,
७. वचन की सुखता ।
२. ऋषभपुर,
४. मिथिला,
६. अन्तरंजिका,
२. मनोज्ञ रूप,
४. मनोज्ञ रस,
६. मन की सुखता,
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ठाणं (स्थान)
७५२
स्थान ७ : सूत्र १४४-१५० १४४. असातावेयणिज्जस्स णं कम्मस्स असातवेदनीयस्य कर्मणः सप्तविधः १४४. असातवेदनीय कर्म का अनुभव सात सत्त विधे अणुभावे पण्णत्ते, तं अनुभावः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
प्रकार का होता हैजहा
अमनोज्ञाः शब्दाः, अमनोज्ञानि रूपाणि, १. अमनोज्ञ शब्द, २. अमनोज्ञ रूप, अमणुण्णा सद्दा, अमणुण्णा रूवा, अमनोज्ञाः गन्धाः, अमनोज्ञाः रसाः, ३. अमनोज्ञ गन्ध, ४. अमनोज्ञ रस, अमणुण्णा गंधा, अमणुण्णा रसा, अमनोज्ञाः स्पर्शाः, अमनोदुःखता, वाग्- ५. अमनोज्ञ स्पर्श, ६. मन की दुःखता, अमणुण्णा फासा, मणोदुहता, दुःखता।
७. वचन की दुःखता। वइदुहता। णक्खत्त-पदं नक्षत्र-पदम्
नक्षत्र-पद १४५. महाणक्खत्ते सत्त तारे पण्णत्ते। मघानक्षत्रं सप्त तारं प्रज्ञप्तम् । १४५. मघानक्षत्र सात तारों वाला होता है। १४६. अभिईयादिया णं सत्त णक्खत्ता अभिजिदादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्व- १४६. अभिजित् आदि सात नक्षत्र पूर्वद्वार
पुत्वदारिया पणत्ता, तं जहा- द्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- वाले हैंअभिई, सवणो, धणिट्ठा, अभिजित, श्रवणः, धनिष्ठा, शतभिषक, १. अभिजित्, २. श्रवण, ३. धनिष्ठा, सतभिसया, पुव्वभद्दवया, पूर्वभद्रपदा, उत्तरभद्र पदा, रेवती। ४. शतभिषक्, ५. पूर्वभाद्रपद, उत्तरभद्दवया, रेवती।
६. उत्तरभाद्रपद, ७. रेवती। १४७. अस्सिणियादिया णं सत्तणक्खत्ता अश्विन्यादिकानि सप्त नक्षत्राणि १४७. अश्विनी आदि सात नक्षत्र दक्षिणद्वार वाले
दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा- दक्षिणद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- हैंअस्सिणी, भरणी, कित्तिया, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, १. अश्विनी, २. भरणी, ३. कृत्तिका, रोहिणी, मिगसिरे, अद्दा, मृगशिरः, आर्द्रा, पुनर्वसुः ।
४. रोहिणी, ५. मृगशिर, ६. आर्द्रा, पुणव्वसू।
७. पुनर्वसु । १४८. पुस्सादिया णं सत्त णक्खत्ता पुष्यादिकानि सप्त नक्षत्राणि अपर- १४८. पुष्य आदि सात नक्षत्र पश्चिमद्वार वाले
अवरदारिया पण्णत्ता, तं जहा- द्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- हैं--- पुस्सो, असिलेसा, मघा, पुष्यः, अश्लेषा, मघा, पूर्वफाल्गुनी, १. पुष्य, २. अश्लेषा, ३. मघा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, उत्तरफाल्गुनी, हस्त:, चित्रा।
४. पूर्वफाल्गुनी ५. उत्तरफाल्गुनी, हत्थो, चित्ता।
६. हस्त, ७. चित्रा। १४६. सातियाइया णं सत्त णक्खत्ता स्वात्यादिकानि सप्त नक्षत्राणि १४६. स्वाति आदि सात नक्षत्र उत्तरद्वार वाले उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा- उत्तरद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. स्वाति, २. विशाखा, ३. अनुराधा, साती, विसाहा, अणुराहा, जेट्ठा, स्वातिः, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा,
४. ज्येष्ठा, ५. मूल, ६. पूर्वाषाढ़ा, मूलो, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा। मूलः, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा । ७. उत्तराषाढ़ा। कड-पदं कूट-पदम्
कूट-पद १५०. जंबुद्दीवे दीवे सोमणसे दीवे ववखार- जम्बूद्वीपे द्वीपे सौमनसे वक्षस्कारपर्वते १५०. जम्बूद्वीप द्वीप में सौमनस वक्षस्कारपर्वत
पन्वते सत्त कूडा पण्णत्ता,तं जहा— सप्त कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- के कूट सात हैं
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ठाणं (स्थान)
७५३
स्थान ७ : सूत्र १५१-१५३
संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. सिद्धे सोमणसे या, १. सिद्धः सौमनसश्च,
१. सिद्ध, २. सौमनस, ३. मंगलावती, बोद्धव्वे मंगलावतीकडे । बोद्धव्यं मङ्गलावतीकूटम् ।
४. देवकुरु, ५. विमल, ६. कांचन, देवकुरु विमल कंचण, देवकुरुः विमलः काञ्चनः,
७. विशिष्ट । विसि टुकडे य बोद्धव्वे ॥ विशिष्टकूटं च बोद्धव्यम् । १५१. जंबुद्दीवे दीवे गंधमायणे वक्खार- जम्बूद्वीपे द्वीपे गन्धमादने वक्षस्कार- १५१. जम्बूद्वीप द्वीप में गंधमादन वक्षस्कार
पन्वते सत्त कूडा पण्णत्ता, तं पर्वते सप्त कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- पर्वत के कूट सात हैं
जहा
१. सिद्धे य गंधमायण, १. सिद्धश्च गंधमादनो,
१. सिद्ध, २. गंधमादन, ३. गंधलावती, बोद्धव्वे गंधिलावतीकडे। बोद्धव्यं गन्धिलावतीकूटम् ।
४. उत्तरकुरु, ५. स्फटिक, ६. लोहिताक्ष, उत्तरकुरु फलिहे, उत्तरकुरुः स्फटिकः,
७.आनन्दन। लोहितक्खे आणंदणे चेव॥ लोहिताक्ष आनन्दनश्चैव ॥ कुलकोडि-पदं कुलकोटि-पदम्
कुलकोटि-पद १५२. विइंदियाणं सत्त जाति-कुलकोडि- द्वीन्द्रियाणां सप्त जाति-कुलकोटि-योनि- १५२. द्वीन्द्रिय जाति के योनि-प्रवाह में होने
जोणीपमुह-सयसहस्सा पण्णत्ता। प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ।। वाली कुलकोटियां सात लाख हैं। पावकम्म-पदं पापकर्म-पदम्
पापकर्म-पद १५३. जीवाणं सत्तट्टाणणिव्वत्तिते पोग्गले जीवाः सप्तस्थाननिर्वतितान् पुद्गलान् १५३. जीवों ने सात स्थानों से निर्वतित पुद्गलों
पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा का, पापकर्म के रूप में, चय किया है, वा चिणिस्संति वा, तं जहा- चेष्यन्ति वा तद्यथा
करते हैं और करेंगेरइयनिव्वत्तिते, नैरयिकनिर्वतितान्,
१. नैरयिक निर्वतित पुद्गलों का। 'तिरिक्खजोणियणिब्वत्तिते, तिर्यग्योनिकनिर्वतितान्,
२. तिर्यक्योनिक निर्वतित पुद्गलों का। तिरिक्खजोणिणीणिव्वत्तिते, तिर्यग्योनिकीनिर्वतितान्,
३. तिर्यक्योनिकी निर्वतित पुद्गलों का। मणुस्सणिव्वत्तिते, मनुष्यनिर्वतितान्,
४. मनुष्य निर्वतित पुद्गलों का। मणस्सीणिव्वत्तिते,
५. मानुषी निर्वतित पुद्गलों का। देवणिव्वतिते, देवीणिवत्तिते। देवनिर्वतितान्, देवीनिर्वतितान् । ६. देव निर्वतित पुद्गलों का। एवं—चिण- उवचिण-बंध- एवम्-चय-उपचय-बन्ध
७. देवी निर्वतित पुद्गलों का। उदीर-वेद तह णिज्जरा चेव। उदीर-वेदाः तथा निर्जरा चैव । इसी प्रकार जीवों ने सात स्थानों से
निर्वतित पुद्गलों का पापकर्म के रूप में उपचय,बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे।
मानुषीनिर्वतितान्,
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स्थान ७: सूत्र १५४-१५५
पोग्गल-पदं पुद्गल-पदम्
पुद्गल-पद १५४. सत्तपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। सप्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः अनन्ताः प्रज्ञप्ताः । १५४. सप्तप्रदेशी स्कंध अनन्त हैं। १५५. सत्तपएसोगाढा पोग्गला जाव सप्तप्रदेशावगाढाः पुद्गलाः यावत् १५५. सप्तप्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त हैं । सत्तगुणलुक्खा पोग्गला अणंता सप्तगुणरूक्षाः पुद्गलाः अनन्ताः ।
सात समय की स्थिति वाले पुद्गल पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः ।
अनन्त हैं। सात गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं। इस प्रकार शेष वर्ण तथा गंध, रस और स्पर्शों के सात गुण वाले पुद्गल अनन्त
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१,२ (सू०८, ६)
टिप्पणियाँ
स्थान- ७
पिंड - एषणाएं सात हैं
१. संसृष्ट - देवस्तु से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार लेना ।
२. असंसृष्ट-- देवस्तु से अलिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार लेना ।
३. उद्धृत - थाली, बटलोई आदि से परोसने के लिए निकालकर दूसरे बर्तन में डाला हुआ आहार लेना ।
४. अल्पलेपिक - रूखा आहार लेना ।
५. अवगृहीत - खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना ।
६. प्रगृहीत- परोसने के लिए कड़छी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना ।
७. उज्झितधर्मा - जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना ।
पान- एषणा के प्रकार भी पिण्ड - एषणा के समान हैं। यहां अल्पलेपिक पानैषणा का अर्थ इस प्रकार है-काञ्जी, ओसामण, गरम जल चावलों का धोवन आदि अलेपकृत हैं और इक्षुरस, द्राक्षापानक, अम्लिका पानक आदि लेपकृत हैं।'
३. ( सू० १० )
अवग्रह प्रतिमा का अर्थ है-स्थान के लिए प्रतिज्ञा या संकल्प । वे सात हैं—
१. मैं अमुक प्रकार के स्थान में रहूँगा दूसरे में नहीं ।
२. मैं दूसरे साधुओं के लिए स्थान की याचना करूंगा तथा दूसरों के द्वारा याचित स्थान में रहूँगा। यह गच्छान्त साधुओं के होती है।
३. मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूंगा, किन्तु दूसरों के द्वारा याचित स्थान में नहीं रहूंगा। यह यथालन्दिक साधुओं के होती है। उन मुनियों के सूत्र का अध्ययन जो शेष रह जाता है उसे पूर्ण करने के लिए वे आचार्य से सम्बन्ध रखते हैं । इसलिए वे आचार्य के लिए स्थान की याचना करते हैं, किन्तु स्वयं दूसरे साधुओं द्वारा याचित स्थान में नहीं रहते।
४. मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना नहीं करूंगा, परन्तु दूसरों के द्वारा याचित स्थान में रहूंगा। यह जिनकल्प दशा का अभ्यास करने वाले साधुओं के होती है।
५. मैं अपने लिए स्थान की याचना करूंगा, दूसरों के लिए नहीं। यह जिनकल्पिक साधुओं के होती है ।
६. जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा उसी के यहां पलाल आदि का संस्तारक प्राप्त 'तो लूंगा अन्यथा ऊकडू या कि आसन में बैठा-बैठा रात बिताऊंगा। यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधुओं के होती है।
७. जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा उसी के यहां सहज ही बिछे हुए सिलापट्ट या काष्ठपट्ट प्राप्त हो तो लूंगा, अन्यथा कडू या नैषयिक आसन में बैठा-बैठा रात बिताऊंगा। यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधुओं के होती है।
१. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४४, वृत्ति पत्र २१५, २१६ ।
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स्थान ७:टि०४-७
४. (सू० ११)
सात सप्तकक१. स्थान सप्तकक २. नैषेधिकी सप्तकक ३. उच्चारप्रस्रवणविधि सप्तकक ४. शब्द सप्तकक ५. रूप सप्तकक ६. परक्रिया सप्तकक ७. अन्योन्यक्रिया सप्तकक ।
५. (सू० १२)
सूत्रकृताङ्ग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के अध्ययन पहले श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों की अपेक्षा बड़े हैं, अत: उन्हें महान् अध्ययन कहे गए हैं। वे सात हैं
१. पुण्डरीक २. क्रियास्थान ३. आहारपरिज्ञा ४. प्रत्याख्यानक्रिया ५. अनाचारश्रुत ६. आर्द्र ककुमारीय ७. नालन्दीय।
६. भिक्षादत्तियों (सू० १३) भिक्षादत्तियों का क्रम यह है
प्रथम सप्तक में दूसरे सप्तक में तीसरे सप्तक में चौथे सप्तक में पांचवें सप्तक में छठे सप्तक में सातवें सप्तक में
- ७ भिक्षादत्तियां -----१४ भिक्षादत्तियां
-२१ भिक्षादत्तियां --२८ भिक्षादत्तियां -३५ भिक्षादत्तियां -४२ भिक्षादत्तियां ----४६ भिक्षादत्तियां
कुल १६६ भिक्षादतियां
७. चौड़े संस्थान वाली (सू० २२)
वत्तिकार ने 'पिंडलगपिठलसंठाणसंठियाओ' को पाठान्तर माना है। उनके अनुसार मूल पाठ है.---'छत्तातिच्छत्तसंठाणसंठियाओ'। इसका अर्थ है- एक छत्ते के बाद दूसरा छत्ता, इस प्रकार सात छत्ते हैं। उनमें नीचे का सबसे बड़ा है, ऊपर के क्रमशः छोटे हैं। सातों पृथ्वियों का भी यही आकार है । वे क्रमशः नीचे-नीचे हैं।'
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६६ ॥
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८. गोत्र ( सू० ३० )
गोत्र का अर्थ है – एक पुरुष से उत्पन्न वंश-परम्परा । प्रस्तुत सूत्र में सात मुलगोत्र बतलाए हैं। उस समय ये मुख्य गोत्र थे और धीरे-धीरे काल व्यवधान से अनेक अनेक उत्तर गोत्र विकसित होते गए। वृत्तिकार ने इन सातों गोत्रों के कुछ उदाहरण दिए हैं, जैसे
( १ ) काश्यप गोत्र - मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि को छोड़कर शेष बावीस तीर्थकर, सभी चक्रवर्ती [ क्षत्रिय ], सातवें से ग्यारहवें गणधर [ ब्राह्मण] तथा जम्बूस्वामी आदि [ वैश्य ] - ये सभी कश्यप गोत्रीय थे । इसका तात्पर्य है कि इस गोत्र में इन तीनों वर्गों का समावेश था।
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(३) वत्सगोत्र - दशवेकालिक के रचयिता शय्यंभव आदि वत्सगोती थे ।
(४) कौत्सगोत्र - शिवभूति आदि ।
(५) कौशिकगोत्र - पडूलुक, [रोहगुप्त ] आदि ।
(६) मांडव्य गोव- मण्डुऋषि के वंशज ।
(७) वाशिष्ठ गोत्र – वशिष्ठ के वंशज, छठे गणधर तथा आर्य सुहस्ती आदि । '
स्थान ७ :
टि० ८-६
(२) गोतम गोत्र - मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि, नारायण और पद्म को छोड़कर सभी बलदेव वासुदेव तथा इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीन गणधर गोतम गोत्रीय थे ।
६. नय ( सू० ३८ )
ज्ञान करने की दो पद्धतियां हैं-पदार्थग्राही और पर्यायग्राही पदार्थग्राही में अनन्त धर्मात्मक पदार्थ को किसी एक धर्म के माध्यम से जाना जाता है। पर्यायग्राही पद्धति में पदार्थ के एक पर्याय [धर्म या अवस्था] को जाना जाता है। पदार्थग्राही पद्धतिको 'प्रमाण' और पर्यायग्राही पद्धति को 'नय' कहा जाता है। प्रमाण इन्द्रिय और मन दोनों से होता है, किन्तु नय केवल मन से ही होता है, क्योंकि अंशों का ग्रहण मानसिक अभिप्राय से ही हो सकता है। नय सात हैं
१. नैगमनयद्रव्य में सामान्य और विशेष, भेद और अभेद आदि अनेक धर्मों के विरोधी युगल रहते हैं। नैगमन दोनों की एकाश्रयता का साधक है। वह दोनों को यथास्थान मुख्यता और गौणता देता है। जब भेद प्रधान होता है तब अभेद गौण हो जाता है और जब अभेद प्रधान होता है तब भेद गौण हो जाता है । नैगमनय के अनेक भेद हैं-भूतनैगम, वर्तमाननैगम, भावीनंगम अथवा द्रव्य-नैगम, पर्याय- नैगम, द्रव्य-पर्याय- नैगम |
२. संग्रहनय - यह अभेददृष्टि प्रधान है। यह भेद से अभेद की ओर बढ़ता है। सत्ता सामान्य- जैसे विश्व एक है, यह इसका चरम रूप है । गाय और भैंस में पशुत्व की समानता है। गाय और मनुष्य में भी समानता है, दोनों शरीरधारी हैं। गाय और परमाणु में भी ऐक्य है, क्योंकि दोनों प्रमेय हैं।
३. व्यवहारनय – जितने पदार्थ लोक में प्रसिद्ध हैं, अथवा जो-जो पदार्थ लोक व्यवहार में आते हैं, उन्हीं को मानने और अदृष्ट तथा अव्यवहार्य पदार्थों को न मानने को व्यवहारनय कहा जाता है। यह विभाजन की दृष्टि है। यह अभेद से भेद की ओर बढ़ता है । यह पदार्थ में अनन्त भेद कर डालता है, जैसे- विश्व के दो रूप हैं—चेतन और अचेतन । चेतन के दो प्रकार हैं, आदि-आदि।
यह नय दो प्रकार का है— उपचारबहुल और लौकिक ।
उपचारबहुल, , जैसे- पहाड़ जलता है ।
लौकिक, जैसे- भौंरा काला है।
४. ऋजुसूवनय - यह वर्तमानपरक दृष्टि है। यह अतीत और भविष्य में वास्तविक सत्ता स्वीकार नहीं करती । ५. शब्दtय - यह भिन्न-भिन्न लिंग, वचन आदि से युक्त शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। यह शब्द, रूप और उसके अर्थ का नियामक है। इसके अनुसार पहाड़ का जो अर्थ है वह 'पहाड़ी' शब्द व्यक्त नहीं कर सकता। जो
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७० ॥
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स्थान ७ : टि० १०
अर्थ 'नदी' शब्द में है वह 'नद' में नहीं है। 'स्तुति' और 'स्तोत्र' के अर्थों में भी भिन्नता है । 'मनुष्य है' और 'मनुष्य हैं' इनमें एकवचन और बहुवचन के कारण अर्थ में भिन्नता है।
६. समभिरूढनय- इसका कथन है कि जो शब्द जहां रूढ है, उसका वहीं प्रयोग करना चाहिए। स्थूल दृष्टि में घट, कुट, कुम्भ एकार्थक हैं। समभिरूढनय इसे स्वीकार नहीं करता। इसके अनुसार 'घट' और 'कुट' एक नहीं है। घट वह वस्तु है जो माथे पर रखा जाये और कुट वह पदार्थ है, जो कहीं बडा, कहीं चौड़ा, कहीं संकड़ा-इस प्रकार कुटिल आकारवाला हो। इसके अनुसार कोई भी शब्द किसी का पर्यायवाची नहीं है। पर्यायवाची माने जाने वाले शब्दों में भी अर्थ का बहुत बड़ा भेद है।
७. एवम्भूतनय—यह नय क्रिया में प्रवर्त्तमान अर्थ में ही उसके वाचक शब्द को मान्य करता है। इसके अनुसार अध्यापक तभी अध्यापक है जब वह अध्यापन क्रिया में प्रवर्तमान है । अध्यापन कराया था या कराएगा इसलिए वह अध्यापक नहीं है।
१०. स्वर (सू० ३९)
स्वर का सामान्य अर्थ है-ध्वनि, नाद । संगीत में प्रयुक्त स्वर शब्द का कुछ विशेष अर्थ होता है। संगीतरत्नाकर में स्वर की व्याख्या करते हुए लिखा है--जो ध्वनि अपनी-अपनी श्रुतियों के अनुसार मर्यादित अन्तरों पर स्थित हो, जो स्निग्ध हो, जिसमें मर्यादित कम्पन हो और अनायास ही श्रोताओं को आकृष्ट कर लेती हो, उसे स्वर कहते हैं । इसकी चार अवस्थाएं हैं
(१) स्थानभेद (Pitch) (२) रूप भेद या परिणाम भेद (Intensity) (३) जातिभेद (Quality) (४) स्थिति (Duration)
स्वर सात हैं-षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद। इन्हें संक्षेप में -स, रि, ग, म, प, ध, नी कहा जाता है । अंग्रेजी में क्रमशः Do, Re, Mi, Fa, So, Ka, Si, कहते हैं और इनके सांकेतिक चिन्ह क्रमशः C, D, E, F,G, A, B हैं। सात स्वरों की २२ श्रुतियां [स्वरों के अतिरिक्त छोटी-छोटी सुरीली ध्वनियां ] हैं—षड्ज, मध्यम और पञ्चम की चार-चार, निषाद और गान्धार की दो-दो और ऋषभ और धैवत की तीन-तीन श्रुतियां हैं।
अनुयोगद्वार सूत्र [२६८-३०७] में भी पूरा स्वर-मंडल मिलता है। अनुयोगद्वार तथा स्थानांग-दोनों में प्रकरण की समानता है। कहीं-कहीं शब्द-भेद है।
सात स्वरों की व्याख्या इस प्रकार है
(१) षड्ज-नासा, कंठ, छाती, तालु, जिह्वा और दन्त- इन छह स्थानों से उत्पन्न होने वाले स्वर को षड्ज कहा जाता है।
(२) ऋषभ---नाभि से उठा हुआ वायु कंठ और शिर से आहत होकर वृषभ की तरह गर्जन करता है, उसे ऋषभ कहा जाता है।
(३) गान्धार--नाभि से उठा हुआ वायु कण्ठ और शिर से आहत होकर व्यक्त होता है और इसमें एक विशेष प्रकार की गन्ध होती है, इसलिए इसे गान्धार कहा जाता है।
(४) मध्यम-- नाभि से उठा हुआ वायु वक्ष और हृदय में आहत होकर फिर नाभि में जाता है । यह काया के मध्य-भाग में उत्पन्न होता है, इसलिए इसे मध्यम स्वर कहा जाता है।
(५) पंचम-नाभि से उठा हुआ वायु वक्ष, हृदय, कंठ और सिर से आहत होकर व्यक्त होता है । यह पांच स्थानों से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे पंचम स्वर कहा जाता है।
(६) धैवत—यह पूर्वोत्थित स्वरों का अनुसन्धान करता है, इसलिए इसे धैवत कहा जाता है।
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स्थान ७ : टि० ११ १२
(७) निषाद - इसमें सब स्वर निषण्ण होते हैं- इससे सब अभिभूत होते हैं, इसलिए इसे निषाद कहा जाता है । ' बौद्ध परम्परा में सात स्वरों के नाम ये हैं
सहय, ऋषभ, गान्धार, धैवत, निषाद, मध्यम तथा कैशिक ।
कई विद्वान् सहर्घ्यं को षड्ज के पर्याय स्वरूप तथा कैशिक को पंचम स्थान पर मानते हैं।
११. स्वर स्थान ( सू० ४० )
स्वर के उपकारी — विशेषता प्रदान करने वाले स्थान को स्वर स्थान कहा जाता है। षड्जस्वर का स्थान जिह्वाग्र है । यद्यपि उसकी उत्पत्ति में दूसरे स्थान भी व्यापृत होते हैं और जिह्वाग्र भी दूसरे स्वरों की उत्पत्ति में व्यापृत होता है, फिर भी जिस स्वर की उत्पत्ति में जिस स्थान का व्यापार प्रधान होता है, उसे उसी स्वर का स्थान कहा जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में सात स्वरों के सात स्वर स्थान बतलाए गए हैं।
नारदी शिक्षा में ये स्वर स्थान कुछ भिन्न प्रकार से उल्लिखित हुए हैं -
षड्ज कंठ से उत्पन्न होता है, ऋषभ सिर से, गांधार नासिका से मध्यम उर से, पंचम उर, सिर तथा कंठ से, धैवत ललाट से तथा निषाद शरीर की संधियों से उत्पन्न होता है।
इन सात स्वरों के नामों की सार्थकता बताते हुए नारदी शिक्षा में कहा गया है कि- 'षड्ज' संज्ञा की सार्थकता इसमें है कि वह नासा, कण्ठ, उर, तालु, जिह्वा तथा दन्त इन छह स्थानों से उद्भूत होता है । 'ऋषभ' की सार्थकता इसमें है कि वह ऋषभ अर्थात् बैल के समान नाद करने वाला है। 'गांधार' नासिका के लिए गन्धावह होने के कारण अन्वर्थक बताया गया हैं । 'मध्यम' की अन्वर्थकता इसमें है कि वह उरस् जैसे मध्यवर्ती स्थान में आहत होता है । 'पंचम' संज्ञा इसलिए सार्थक है कि इसका उच्चारण नाभि, उर, हृदय, कण्ठ तथा सिर- इन पांच स्थानों में सम्मिलित रूप से होता है।"
१२. (सू०४१ )
नारदीशिक्षा में प्राणियों की ध्वनि के साथ सप्त स्वरों का उल्लेख नितान्त भिन्न प्रकार से मिलता है—
षड्ज स्वर -- मयूर |
ऋषभ स्वर -- गाय |
गांधार स्वर - बकरी ।
मध्यम स्वर- क्रौंच ।
पंचम स्वर- कोयल ।
धैवत स्वर - अश्व ।
निषाद स्वर - कुंजर ।
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ३७४ ॥
२. लंकावतार सूत्र - अथ रावणो सहष्यं ऋषभ - गान्धारवित-निषाद-मध्यम- कैशिक गीतस्वरग्राममूर्च्छनादियुक्तेन ....... गाथाभिर्गीत रनु गायतिस्म ।
३. जरनल ऑफ म्यूजिक एकेडमी, मद्रास, सन् १९४५, खंड १६, पृष्ठ ३७ ।
४. नारदीशिक्षा ११५४६,७ :
कण्ठादुत्तिष्ठते षड्जः शिरसस्त्वृषभः स्मृतः । गान्धारस्त्वनुनासिक्य उरसो मध्यमः स्वरः ।। उरसः शिरसः कण्ठादुत्थितः पंचमः स्वरः । ललाटार्द्धवतं विद्यान्निषादं सर्वसन्धिजम् ।।
५. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ १२१ । नारदीशिक्षा १२५ ४, ५ :
६.
षड्जं मयूरो वदति, गावो रंमन्ति चर्षभम् । अजावदति तु गान्धारं, क्रौंचो वदति मध्यमम् ।। पुष्पसाधारणे काले, पिको वक्ति च पंचमम् । अश्वस्तु धैवतं वक्ति, निषादं कुञ्जरः ॥
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स्थान ७ : टि० १३-१६ १३. गवेलक (सू० ४१)
वृत्तिकार ने गवेलक को दो शब्द-गव+ एलक मानकर इससे गाय और भेड़-दोनों का ग्रहण किया है और विकल्प में इसे केवल भेड़ का पर्यायवाची माना है।'
१४. पंचम स्वर (सू० ४१)
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अथ' शब्द का विशेष अर्थ है। गवेलक सदा मध्यम स्वर में बोलते हैं, वैसे ही कोयल सदा पञ्चम स्वर में नहीं बोलता। वह केवल वसन्त ऋतु में ही पञ्चम स्वर में बोलता है।'
१५. नरसिंघा (सू० ४२)
एक प्रकार का बड़ा बाजा जो तुरही के समान होता है। यह फंक से बजाया जाता है। जिस स्थान से फूंका जाता है वह संकडा और आगे का भाग क्रमशः चौड़ा होता चला जाता है।
१६. ग्राम (सू० ४४)
यह शब्द समूहवाची है। संवादी स्वरों का वह समूह ग्राम है जिसमें श्रतियां व्यवस्थित रूप में विद्यमान हों और जो मूर्च्छना, तान, वर्ण, क्रम, अलंकार इत्यादि का आश्रय हो।' ग्राम तीन हैं
षड्ज ग्राम, मध्यमग्राम और गान्धारग्राम।
षड्जग्राम—इसमें षड्ज स्वर चतुःश्रुति, ऋषभ विश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम चतुःश्रुति, धैवत विश्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है। इसमें 'षड्ज-पञ्चम', 'ऋषभ-धैवत', 'गान्धार-निषाद' और 'षड्ज-मध्यम'ये परस्पर संवादी हैं। जिन दो स्वरों में नौ अथवा तेरह श्रुतियों का अन्तर हो, वे परस्पर संवादी हैं।
शाङ्गदेव कहते हैं-षड्जग्राम नामक राग षड्ज मध्यमा जाति से उत्पन्न सम्पूर्ण राग है। इसका ग्रह एवं अंशस्वर तार षड्ज है, न्यासस्वर मध्यम है, अपन्यासस्वर षड्ज है, अबरोही और प्रसन्नान्त अलंकार इसमें प्रयोज्य हैं। इसकी मूर्च्छना षड्जादि | उत्तरमन्द्रा] है। इसमें काकली-निषाद एवं अन्तर-गान्धार का प्रयोग होता है; वीर, रौद्र, अद्भुत रसों में नाटक की सन्धि में इसका विनियोग है। इस राग का देवता बृहस्पति है और वर्षाऋतु में, दिन के प्रथम प्रहर में, यह गेय है। यह शुद्ध राग है।
मध्यमग्राम—इसमें 'ऋषभ-पञ्चम', 'ऋषभ-वत', 'गान्धार-निषाद' और 'षड्ज-मध्यम' परस्पर संवादी हैं। शाङ्गदेव का विधान है कि
मध्यमग्राम राग का विनियोग हास्य एवं शृंगार में है। यह राग गान्धारी, मध्यमा और पञ्चमी जातियों से मिलकर उत्पन्न हुआ है। काकली-निषाद का प्रयोग इसमें विहित है। इस राग का अंश-ग्रह-स्वर मन्द्र षड्ज, न्याय-स्वर मध्यम और मूर्च्छना 'सौवीरी' है। प्रसन्नादि और अवरोही के द्वारा मुखसन्धि में इसका विनियोग है। यह राग ग्रीष्म ऋतु के प्रथम प्रहर में गाया जाता है। महर्षि भरत ने सात शुद्ध रागों में इसे गिना है। इसमें षड्जस्वर चतुःश्रुति, ऋषभ विश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम विश्रुति, धंवत चतु:श्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है।
गान्धार ग्राम-महर्षि भरत ने इसकी कोई चर्चा नहीं की है। उन्होंने केवल दो ग्रामों को ही माना है। कुछ आचार्यों ने गान्धार ग्राम और तज्जन्य रागों का वर्णन करके लौकिक विनोद के लिए भी उनके प्रयोग का विधान किया है।'
१. स्थानांगवत्ति, पत्न ३७४ : गवेलग त्ति गावश्च एलकाश्च
ऊरणका गवेलकाः अथवा गवेलका-ऊरणका एव इति । २. स्यानांगवृत्ति, पत्र ३७५ : अथे ति विशेषार्थः, विशेषार्थता
चैवं—यथा गवेलका अविशेषेण मध्यम स्वरं नदन्ति न तथा कोकिला: पञ्चमं, अपि तु कुसुमसम्भवे काल इति ।
३. मतङ्गः भरतकोश, पृष्ठ १८६ । ४. भरत : (बम्बई संस्करण) अध्याय २८ पृष्ठ ४३४ । ५. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ २६-२७ । ६. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ ५६ । ७. प्रो. रामकृष्णकवि, भरतकोश, पृष्ठ ५४२ ।
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स्थान ७ : टि० १७-१६
परन्तु अन्य आचार्यों ने लौकिक विनोद के लिए ग्रामजन्य रागों का प्रयोग निषिद्ध बतलाया है।' नारद की सम्मति के अनुसार गान्धारग्राम का प्रयोग स्वर्ग में ही होता है।' इसमें षड्ज स्वर विश्रुति, ऋषभ द्विश्रुति, गान्धार चतुःश्रुति, मध्यम - पञ्चम और धैवत त्रि विश्रुति और निषाद चतुःश्रुति होता है । गान्धार ग्राम का वर्णन केवल संगीतरत्नाकर या उसके आधार पर लिखे गए ग्रन्थों में है।
इस ग्राम के स्वर बहुत टेढ़े-मेढ़े हैं अतः गाने में बहुत कठिनाइयां आती हैं। इसी दुख्हता के कारण 'इसका प्रयोग स्वर्ग में होता है - ऐसा कह दिया गया है।
वृत्तिकार के अनुसार 'मंगी' आदि इक्कीस प्रकार की मूर्च्छनाओं के स्वरों की विशद व्याख्या पूर्वगत के स्वर-प्राभृत में । वह अब लुप्त हो चुका है। इस समय इनकी जानकारी उसके आधार पर निर्मित भरतनाट्य, वैशाखिल आदि ग्रन्थों से जाननी चाहिए।
१७-१६. मूर्च्छना (सू० ४५-४७ )
इसका अर्थ है - सात स्वरों का क्रमपूर्वक आरोह और अवरोह । महर्षि भरत ने इसका अर्थ सात स्वरों का क्रम - पूर्वक प्रयोग किया है। मूर्च्छना समस्त रागों की जन्मभूमि है। यह चार प्रकार की होती है
१. पूर्णा २. षाडवा ३. ओडुविता ४. साधारणा । "
अथवा - १. शुद्धा २. अंतरसंहिता ३. काकलीसंहिता ४. अन्तरकाकलीसंहिता । "
तीन सूत्रों [ ४५,४६, ४७ ] में षड्ज आदि तीन ग्रामों की सात-सात मूर्च्छनाएं उल्लिखित हैं।
भरतनाट्य, संगीतदामोदर, नारदीशिक्षा' आदि ग्रंथों में भी मूर्च्छनाओं का उल्लेख है । वे भिन्न-भिन्न प्रकार से हैं। भरतनाट्य में गांधार ग्राम को मान्यता नहीं दी गई है।
मूल सूत्र
मंगी कौरवीया
हरित्
रजनी
सारकान्ता
सारसी
शुद्धषड्जा
भरतनाट्य
उत्तरमंद्रा
रजनी
उत्तरायता
शुद्ध षड्जा
मत्सरीकृता
अश्वकान्ता
अभिरुद्गता
१. प्रो० रामकृष्ण कवि, भरतकोश, पृष्ठ २४२ ।
२. वही, पृष्ठ ५४२ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७५ :
४. संगीतरत्नाकर, स्वर प्रकरण, पृष्ठ १०३, १०४ । ५. वही, पृष्ठ ११४ ।
६. भरत अध्याय २८, पृष्ठ ४३५ ।
इह च मङ्गीप्रभृतीनामेकविंशतिमूर्च्छनानां स्वरविशेषाः 'पूर्वगते स्वरप्राभृते भणिताः अधुना तु तद्विनिर्गतेभ्यो भरतवंशा खिलादिशास्त्रेभ्यो विज्ञेया इति' ।
संगीतदामोदर
षड्जग्राम की मूर्च्छनाएं
ललिता
मध्यमा
चित्रा
रोहिणी
मतंगजा
सौवीरी
षण्मध्या
नारदीशिक्षा
उत्तरमंद्रा अभिरुद्गता
अश्वक्रान्ता
सौवीरा
हृष्यका
उत्तरायता
रजनी
७. भरतनाट्य २८।२७-३० :
आद्या त्तरमन्द्रा स्याद्, रजनी चोत्तरायता । चतुर्थी शुद्धषड्जा तु पंचमी मत्सरीकृता ।। अश्वक्रान्ता तु षष्ठी स्यात्, सप्तमी चाभिरुद्गता । षड्जग्रामाश्रिता एता, विज्ञेयाः सप्त मूच्र्छनाः । सौवीरी हरिणाश्वा च स्यात् कलोपनता तथा ॥ चतुर्थी शुद्धमध्यमा तु, मागंबी पौरवी तथा ।। हृष्यका चैव विज्ञेया, सप्तमी द्विजसत्तमाः । मध्यमग्रामजा ह्यता, विज्ञेयाः सप्त मूच्र्छनाः ॥ ८. नारदीशिक्षा १२/१३, १४ ।
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स्थान ७ : टि० २०-२२
उत्तरमंद्रा रजनी उत्तरा उत्तरायता अश्वक्रान्ता सौवीरा अभिरुद्गता
सौवीरी हरिणाश्वा कलोपनता शुद्धमध्या
मध्यमग्राम की मूर्छनाएं
पंचमा मत्सरी मृदुमध्यमा शुद्धा अन्द्रा कलावती
| नंदी विशाला सुमुखी चिना चित्रवती सुखा
मार्गी पौरवी
| कृष्यका
तीव्रा
बला
नंदी
क्षुद्रिका पूरका शुद्धगांधारा उत्तरगांधारा सुष्ठतरआयामा उत्तरायता कोटिमा
गान्धारग्राम की मूर्च्छनाएं
सौद्री
ब्राह्मी गान्धार ग्राम का
वैष्णवी अस्तित्व नहीं
खेदरी माना है।
नादावती विशाला
आप्यायनी विश्वचूला चन्द्रा हैमा कपदिनी मैत्री बाहती
प्रस्तुत चार्ट से मूर्च्छनाओं के नामों में कितना भेद है, यह स्पष्ट हो जाता है।
नारदीशिक्षा में जो २१ मूर्च्छनाएं बताई गई हैं उनमें सात का सम्बन्ध देवताओं से, सात का पितरों से और सात का ऋषियों से है। शिक्षाकार के अनुसार मध्यमग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग यक्षों द्वारा, षड्जग्रामीय मूर्च्छनाओं का ऋषियों तथा लौकिक गायकों द्वारा तथा गान्धारग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग गन्धर्वो द्वारा होता है।
इस आधार पर मूर्च्छनाओं के तीन प्रकार होते हैं-देवमूर्च्छनाएं, पितृमूर्च्छनाएं और ऋषिमूर्च्छनाएं। २०. गीत (सू० ४८)
दशांशलक्षणों से लक्षित स्वरसग्निवेश, पद, ताल एवं मार्ग-इन चार अंगों से युक्त गान 'गीत' कहलाता है। २१, २२. गीत के छह दोष, गीत के आठ गुण (सूत्र ४८)
नारदीशिक्षा में गीत के दोषों और गुणों का सुन्दर विवेचन प्राप्त होता है। उसके अनुसार दोष चौदह और गुण दस हैं। वे इस प्रकार हैंचौदह दोष'
शंकित, भीत, उद्धृष्ट, अव्यक्त, अनुनासिक, काकस्वर, शिरोगत, स्थानवर्जित, विस्वर, विरस, विश्लिष्ट, विषमाहत, व्याकुल तथा तालहीन। प्रस्तुत सूत्रगत छह दोषों का समावेश इनमें हो जाता हैभीत-भीत
ताल-वजित-तालहीन द्रुत--विषमाहत
काकस्वर-काकस्वर ह्रस्व-अव्यक्त
अनुनास-अनुनासिक दस गुणरक्त, पूर्ण, अलंकृत, प्रसन्न, व्यक्त, विकृष्ट, श्लक्ष्ण, सम, सुकुमार और मधुर ।
१. नारदीशिक्षा १।२।१३, १४ ।। २. संगीतरत्नाकर, कल्लीनायकृत टीका, पृष्ठ ३३ ।
३. नारदीशिक्षा १।३।१२,१३ । ४. वही, १।३।१
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स्थान ७ : टि० २३-२५
नारदीशिक्षा के अनुसार इन दस गुणों की व्याख्या इस प्रकार है१. रक्त—जिसमें वेणु तथा वीणा के स्वरों का गानस्वर के साथ सम्पूर्ण सामंजस्य हो। २. पूर्ण-जो स्वर और श्रुति से पूरित हो तथा छन्द, पाद और अक्षरों के संयोग से सहित हो। ३. अलंकृत—जिसमें उर, सिर और कण्ठ–तीनों का उचित प्रयोग हो। ४. प्रसन्न-जिसमें गद्गद् आदि कण्ठ दोष न हो तथा जो निःशंकतायुक्त हो।
५. व्यक्त—जिसमें गीत के पदों का स्पष्ट उच्चारण हो, जिससे कि श्रोता स्वर, लिंग, वृत्ति, वार्तिक, वचन, विभक्ति आदि अंगों को स्पष्ट समझ सके।
६. विकृष्ट जिसमें पद उच्चस्वर से गाए जाते हों। ७. श्लक्ष्ण-जिसमें ताल की लय आद्योपान्त समान हो। ८. सम-जिसमें लय की समरसता विद्यमान हो। ६. सुकुमार-जिसमें स्वरों का उच्चारण मृदु हो। १०. मधुर-जिसमें सहजकण्ठ से ललित पद, वर्ण और स्वर का उच्चारण हो ।
प्रस्तुत सूत्र में आठ गुणों का उल्लेख है। उपर्युक्त दस गुणों में से सात गुणों के नाम प्रस्तुत सूत्रगत नामों के समान हैं। अविघुष्ट नामक गुण का नारदीशिक्षा में उल्लेख नहीं है। अभयदेवकृत वृत्ति की व्याख्या का उल्लेख हम अनुवाद में दे चके हैं। यह अन्वेषणीय है कि वृत्तिकार ने ये व्याख्याएं कहाँ से ली थीं।
२३. सम (सू० ४८)
जहाँ स्वर-ध्वनि को गुरु अथवा लघु न कर आद्योपान्त एक ही ध्वनि में उच्चारित किया जाता है, वह 'सम' कहलाता है।
२४. पदबद्ध (सू० ४८)
इसे निबद्धपद भी कहा जाता है। पद दो प्रकार का है—निबद्ध और अनिबद्ध । अक्षरों की नियत संख्या, छन्द तथा यति के नियमों से नियन्त्रित पदसमूह 'निबद्ध-पद' कहलाता है।
२५. छन्द (सू० ४८)
तीन प्रकार के छन्द की दूसरी व्याख्या इस प्रकार है• सम—जिसमें चारों चरणों के अक्षर समान हों। • अर्द्धसम-जिसमें पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरण के अक्षर समान हों। • सर्व विषम-जिसमें सभी चरणों के अक्षर विषम हों।
१. नारदीशिक्षा १।३।१-११। २. भरत का नाट्यशास्त्र २६४७:
सर्वसाम्यात् समो ज्ञेयः, स्थिरस्त्वेकस्वरोऽपि यः ।। ३. भरत का नाट्यशास्त्र ३२२३६ ।
नियताक्षरसंबंध, छन्दोयतिसमन्वितम् । निबद्धं तु पदं ज्ञेयं, नानाछन्दःसमुद्भवम् ॥
४. स्थानांगवृत्ति, पन ३७६ : अन्ये तु व्याचक्षते समं यन्त्र
चतुष्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीययोद्वितीयचतुर्थयोश्च समत्व, तथा सर्वत्र सर्वपादेषु विषमं च विषमाक्षरम् ।
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स्थान ७ : टि० २६-३२ २६. तन्त्रीसम (सू० ४८)
अनुयोगद्वार में इसके स्थान पर अक्षरसम है। जहाँ दीर्घ, ह्रस्व, प्लुत और सानुनासिक अक्षर के स्थान पर उसके जैसा ही स्वर गाया जाए, उसे अक्षरसम कहा जाता है। २७. तालसम (सू०४८)
दाहिने हाथ से ताली बजाना 'काम्या' है। बाएं हाथ से ताली बजाना 'ताल' और दोनों हाथों से ताली बजाना संनिपात' है। २८. पादसम (सू० ४८)
अनुयोगद्वार में इसके स्थान पर 'पदसम' है।
२६. लयसम (सू० ४८)
तालक्रिया के अनन्तर [अगली तालक्रिया से पूर्व तक किया जाने वाला विश्राम लय कहलाता है।
३०. ग्रहसम (सू० ४८)
इसे समग्रह भी कहा जाता है। ताल में सम, अतीत और अनागत-ये तीन ग्रह हैं। गीत, वाद्य और नृत्य के साथ होने वाला ताल का आरम्भ अवपाणि या समग्रह, गीत आदि के पश्चात् होने वाला ताल आरम्भ अवपाणि या अतीतग्रह तथा गीत आदि से पूर्व होने वाला ताल का प्रारम्भ उपरिपाणि या अनागतग्रह कहलाता है। सम, अतीत और अनागत ग्रहों में क्रमशः मध्य, द्रुत और विलंबित लय होता है।
३१. तानों (सू० ४८) - इसका अर्थ है-स्वर-विस्तार, एक प्रकार की भाषाजनक राग। ग्राम रागों के आलाप-प्रकार भाषा कहलाते
३२. कायक्लेश (सू० ४६)
कायक्लेश बाह्य तप का पांचवां प्रकार है। इसका अर्थ जिस किसी प्रकार से शरीर को कष्ट देना नहीं है, किन्तु आसन तथा देह-मूर्छा विसर्जन को कुछ प्रक्रियाओं से शरीर को जो कष्ट होता है, उसका नाम कायक्लेश है। प्रस्तुत सूत्र में इसके सात प्रकार निर्दिष्ट हैं। ये सब आसन से सम्बन्धित हैं। उत्तराध्ययन में भी कायक्लेश की परिभाषा आसन के सन्दर्भ में की गई है । औपपातिक सूत्र में आसनों के अतिरिक्त सूर्य की आतापना, सर्दी में वस्त्रविहीन रहना, शरीर को न खुजलाना, न थूकना तथा शरीर का परिकर्म और विभूषा न करना----ये भी कायक्लेश के प्रकार बतलाए गए हैं।
१. स्थानायतिक-कायोत्सर्ग में स्थिर होना। देखें-उत्तरज्झयणाणि भाग २, पृष्ठ २७१-२७४ ।
१. अनुयोगद्वार ३०७।८ वृत्ति पन्न १२२ : यत्र दीर्घ अक्षरे दीर्घा
गीतस्वरः क्रियते ह्रस्बे ह्रस्वः प्लुते प्लुत: सानुनासिके तु सानु -
नासिक: तदक्षरसमम् । २. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृष्ठ २३५ । ३. अनुयोगद्वार ३०७८ । ४. भरत का संगीतसिद्धान्त, पृष्ठ २४२ । ५. संगीतरत्नाकर, ताल, पृष्ठ २६ । ६. भरत का संगीतसिद्धान्त, पृष्ठ २२६ ।
७. उत्तराध्ययन ३०१२६:
ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उसुहावहा ।
उग्गा जहा धरिजंति, कायकिलेसं तमाहियं । ८. ओपपातिक, सूत्र ३६ : से कि तं कायकिलेसे ? कायकिलेसे
अणेगविहे पण्णते, तंजहा-ठाणट्टिइए उक्कुडुयासगिए पडिमट्ठाई वीरासणिए नेसज्जिए आयावए अवाउदए अकंडयए अणिठ्ठहए सव्वगाय-परिकम्म-विभूस-विप्पमुक्के ।
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स्थान ७ : टि० ३३-३४
२. उत्कुट कासन-दोनों पैरों को भूमि पर टिकाकर दोनों पुतों को भूमि से न छुहाते हुए जमीन पर बैठना। इसका प्रभाव वीर्यग्रन्थियों पर पड़ता है और यह ब्रह्मचर्य की साधना में बहुत फलदायी है।
३. प्रतिमास्थायी--भिक्ष-प्रतिमाओं की विविध मुद्राओं में स्थित रहना। देखें-दशाश्रुतस्कन्ध, दशा सात ।
४. वीरासनिक-बद्धपद्मासन की भांति दोनों पैरों को रख, हाथों को पद्मासन की तरह रखकर बैठना। आचार्य अभयदेवसूरी ने सिंहासन पर बैठकर उसे निकाल देने पर जो मुद्रा होती है, उसे वीरासन माना है। इससे धैर्य, सन्तुलन और कष्टसहिष्णुता का विकास होता है। ५. नैषद्यिक - इसका अर्थ है बैठकर किए जाने वाले आसन । स्थानांग ५०५० में निषद्या के पांच प्रकार बतलाए हैं
१. उत्कुटुका-[पूर्ववत्] २. गोदोहिका-घुटनों को ऊंचा रखकर पंजों के बल पर बैठना तथा दोनों हाथों को दोनों साथलों पर टिकाना। ३. समपादपूता-दोनों पैरों और पुतों को समरेखा में भूमि से सटाकर बैठना। ४. पर्यङ्का--जिनप्रतिमा की भांति पद्मासन में बैठना। ५. अर्द्धपर्यङ्का-एक पैर को ऊरु पर टिकाकर बैठना।
६. दण्डायतिक-दण्ड की तरह सीधे लेटकर दोनों पैरों को परस्पर सटाकर दोनों हाथों को दोनों पैरों से सटाना । इससे दैहिक प्रवृत्ति और स्नायविक तनाव का विसर्जन होता है।
७. लगंडशायी-भूमि पर सीधे लेटकर लकुट की भांति एडियों और सिर को भूमि से सटाकर शरीर को ऊपर उठाना । इससे कटि के स्नायुओं की शुद्धि और उदर-दोषों का शमन होता है।
विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि-भाग २, पृष्ठ २७१-२७४ ।
३३. कुलकर (सू० ६२)
सुदुर अतीत में भगवान ऋषभ के पहले यौगलिक व्यवस्था चल रही थी। उसमें न कुल था, न वर्ग और न जाति । उस समय एक युगल ही सब कुछ होता था। काल के परिवर्तन के साथ यह व्यवस्था टूटने लगी तब 'कुल' व्यवस्था का विकास हुआ। इस व्यवस्था में लोग 'कुल' के रूप में संगठित होकर रहने लगे। प्रत्येक कुल का एक मुखिया होता उसे 'कलकर' कहा जाता। वह कूल का सर्वेसर्वा होता और उसे व्यवस्था बनाए रखने के लिए अपराधी को दण्ड देने का अधिकार भी होता था। उस समय मुख्य कुलकर सात हुए थे, जिनके नाम प्रस्तुत सूत्र में दिए गए हैं। इनका विस्तार से वर्णन आवश्यकनियुक्ति गाथा १५२-१६६ में हुआ है।
देखें-स्थानांग १०।१४३, १४४ का टिप्पण।
३४. दंडनीति (सू०६६) :
प्रथम तीन दंडनीतियाँ कुलकरों के समय में प्रवर्तमान थीं। पहले और दूसरे कुलकर के समय में 'हाकार', तीसरे और चौथे कुलकर के समय में छोटे अपराध में हाकार और बड़े अपराध में 'माकार' दंडनीति प्रचलित थी। पाँचवें, छठे और सातवें कुलकरों के समय में छोटे अपराध के लिए हाकार, मध्यम अपराध के लिए माकार और बड़े अपराध के लिए धिक्कार दंडनीति प्रचलित थी। शेष चार चक्रवर्ती भरत के समय में प्रवर्तित हुई। एक अभिमत यह भी है कि अन्तिम चारों
१. स्थानांगवृत्ति, पब ३७८ :
वीरास निको---यः सिंहासननिविष्टमिवास्ते । २. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १६७, १६ :
हक्कारे मक्कारे धिक्कारे चेव दंडनीईओ। वच्छ तासि विसेसं जहक्कम आणपुचए । पढ़मबीयाण पढमा तइयचउत्थाण अभिनवा बीया। पंचमछट्टरस य, सत्तमस्स तइया अभिनवा उ ।।
३. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा १६६ :
सेसा उ दंडनीई, माणकानिहीओ होति भरहस्स । आवश्यकनियुक्तिभाष्य, गाथा ३ (आवश्यकनियुक्ति अवचूणि पृष्ठ १७५ पर उद्धृत) परिभाषणा उ पढमा, मंडलबंधमि होइ बीया उ । चारग छविच्छेआई, भरहस्स च उबिहानीई ।।
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स्थान ७ : टि० ३५-३६
में से प्रथम दो - परिभाषा और मंडलबंध -- भगवान् ऋषभ ने प्रवर्तित की और अन्तिम दो चक्रवर्ती भरत के माणवक निधि से उत्पन्न हुई तथा वे चारों भरत के शासनकाल में प्रचलित रहीं।' आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति में चारों दंडनीतियों को भरत द्वारा ही प्रवर्तित माना है। यह भी माना गया है कि बंध - बेड़ी का प्रयोग और घात-डंडे का प्रयोग ऋषभ के राज्य में प्रवृत्त हुए तथा मृत्युदंड भरत के राज्य से चला ।'
३५-३६. (सू० ६७, ६८ ) :
प्रस्तुत दो सूत्रों में चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय रत्न और सात पञ्चेन्द्रिय रत्नों का उल्लेख है ।
इन्हें रत्न इसलिए कहा गया है कि ये अपनी-अपनी जाति के सर्वोत्कृष्ट होते हैं ।
आदि सात रत्न पृथ्वीकाय के जीवों के शरीर से बने हुए होते हैं, इसलिए इन्हें एकेन्द्रिय कहा जाता है । इन सातों का प्रमाण इस प्रकार है ५ चक्र, छत और दंड – ये तीनों व्याम'-तुल्य हैं--तिरछे फैलाए हुए दोनों हाथों की अंगुलियों के अंतराल जितने बड़े हैं । चर्म दो हाथ लम्बा होता है। असि बत्तीस अंगुल का, मणि चार अंगुल लम्बा और दो अंगुल चौड़ा होता है तथा काकिणी की लम्बाई चार अंगुल होती है। इन रत्नों का मान तत् तत् चक्रवर्ती की अपनी-अपनी
प्रमाण है।
इनमें चक्र, छत, दंड और असि की उत्पत्ति चक्रवर्ती की आयुधशाला में तथा चर्म, मणि और कागणि की उत्पत्ति चक्रवर्ती के श्रीघर में होती है।
सेनापति, गृहपति, वर्द्धक और पुरोहित -- ये चार पुरुषरत्न हैं। इनकी उत्पत्ति चक्रवर्ती की राजधानी विनीता में
होती है ।
अश्व और हस्ती - ये दो पञ्चेन्द्रिय रत्न हैं । इनकी उत्पत्ति वैताढधगिरि की उपत्यका में होती है ।
स्त्री रत्न की उत्पत्ति उत्तरदिशा की विद्याधर श्रेणी में होती है। "
प्रवचनसारोद्धार में इन चौदह रत्नों की व्याख्या इस प्रकार हैं
१. सेनापति – यह दलनायक होता है तथा गंगा और सिन्धु नदी के पार वाले देशों को जीतने में बलिष्ठ होता है । २. गृहपति - चक्रवर्ती के गृह की समुचित व्यवस्था में तत्पर रहने वाला । इसका काम है शाली आदि सभी धान्यों सभी प्रकार के फलों और सभी प्रकार की शाक-सब्जियों का निष्पादन करना ।
१. आवश्यकचूर्णि, पृष्ठ १३१ : अन्नेसि परिभासा मंडलबंधो य उसभसा मिणा उप्पावितो, चारगच्छविच्छेदो माणवर्गाणि धीतो ।
२. आवश्यक निर्युक्ति, अवचूर्णि पृष्ठ १७६ में उद्धृत :- हारिभद्रीयवृत्तौ तु चतुर्विधापि भरतेनैव प्रवत्तितेति ।
३. आवश्यकभाष्य गाथा १८, १९, आवश्यक निर्युक्ति अवचूर्णि
पृ० १६३, १६४ ।
४. स्थानांमवृत्ति, पत्र ३७६ : रत्नं निगद्यते तत् जाती जाती यदुत्कृष्ट मितिवचनात् चक्रादिजातिषु यानि वीर्यंत उत्कृष्टानि तानि चक्ररत्नादीनि मन्तव्यानि तत्र चक्रादीनि सप्त केन्द्रि याणि - पृथिवीपरिणामरूपाणि ।
५. प्रवचनसारोद्वार गाथा १२१६, १२१७:
चक्कं छत्तं दंडं तिन्निवि एयाई वाममित्ताई । चम्मं दुहत्यदीहं बत्तीसं अंगुलाई असी || चउरंगुली मणी पुण तस्सद्धं चेव होई विच्छिन्नो । चउरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरकागिणी नेया ॥
६. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति पत्र ३५१ : चक्रं छतं दंडमित्येतानि तीण्यपि रत्नानि व्यामप्रमाणानि । व्यामो नाम प्रसारितोभयबाहोः पुंसस्तियं गृहस्तद्वयांगुलयोरंत रालम् ।
७. आवश्यकचूणि, पृष्ठ २०७: भरहस्स णं रन्नो चक्करयणे छत्तरयणे दंडरयणे असिरयणे एते णं चत्तारि एगिदियरयणा आयुधसालाए सप्पन्ना, चम्मरयणे मणिरयणे कागणिरयणे णव य महाणिहओ एते णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा, सेणावतिरयणे गाहावतिरयणे बडतिरयणे पुरोहितरयणे एते णं चत्तारि मणुरयणा विणीता रायहाणीए समुप्पन्ना, आसरयणे हत्थिरयणेएते णं दुवे पंचेंदियरयणा वेयडुगिरिपादमूले समुप्पण्णा, इत्थिरयणे उत्तरिल्लाए बिज्जाहरसेढीए समुप्पन्ने । ८. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र ३५०, ३५१ ।
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स्थान ७:टि०३७
४. हाथी
३. पुरोहित-ग्रहों की शांति के लिए उपक्रम करने वाला। ५. घोड़ा
। अत्यन्त वेग और महान् पराक्रम से युक्त । ६. वर्धकी--गृह, निवेश आदि के निर्माण का कार्य करने वाला। यह तमिस्रगुहा में उन्मग्नजला और निमग्नजलाइन दो नदियों को पार करने के लिए सेतु का निर्माण करता है। चक्रवर्ती की सेना इन्हीं सेतुओं से नदी पार करती है।
७. स्त्री-अत्यन्त अद्भुत काम-जन्य सुख को देने वाली होती है। ८. चक्र--सभी आयुधों में श्रेष्ठ तथा दुर्दम शत्रु पर विजय पाने में समर्थ ।
६. छत्र ---यह चक्रवर्ती के हाथ का स्पर्श पाकर बारह योजन लम्बा-चौड़ा हो जाता है। यह विशिष्ट प्रकार से निर्मित, विविध धातुओं से समलंकृत, विविध चिह्नों से मंडित तथा धूप, हवा, वर्षा से बचाने में समर्थ होता है।
१०. चर्म-बारह योजन लम्बे चौड़े छत्र के नीचे प्रातःकाल में बोए गए शाली आदि बीजों को मध्याह्न में उपभोग योग्य बनाने में समर्थ ।
११. मणि-यह वैडूर्यमय, तीन कोने और छह अंश वाला होता है । यह छत्र और चर्म-इन दो रत्नों के बीच स्थित होता है। यह बारह योजन में विस्तृत चक्रवर्ती की सेना में सर्वत्र प्रकाश बिखेरता है। जब चक्रवर्ती तमिस्रगुहा और खंडप्रपात गुहा में प्रवेश करता है तब उसके हस्तिरत्न के शिर के दाहिनी ओर इस मणि को बाँध दिया जाता है। तब बारह योजन तक तीनों दिशाओं में दोनों पावों में तथा आगे इसका प्रकाश फैलता है। इसको हाथ या सिर पर बाँधने से देव, तिर्यञ्च "और मनुष्य द्वारा कृत सभी प्रकार के उपद्रव तथा रोग नष्ट हो जाते हैं। इसको सिर पर या शरीर के किसी अंग-उपांग पर धारण कर संग्राम में जाने से किसी भी शस्त्र-अस्त्र से वह व्यक्ति अवध्य और सभी प्रकार के भयों से मुक्त होता है। इस मणिरत्न को अपनी कलाई पर बाँध कर रखने वाले व्यक्ति का यौवन स्थिर रहता है तथा उसके केश और नख भी बढ़ते-घटते नहीं।
१२. काकिणी-यह आठ सौवणिक प्रमाण का होता है। यह चारों ओर से सम तथा विष को नष्ट करने में समर्थ होता है । जहाँ चाँद, सूरज, अग्नि आदि अंधकार को नष्ट करने में समर्थ नहीं होते, वैसी तमिस्रगुहा में यह काकिणी रत्न अन्धकार को समूल नष्ट कर देता है। इसकी किरणें बारह योजन तक फैलती हैं। यह सदा चक्रवर्ती के स्कंधावार में स्थापित रहता है। इसका प्रकाश रात को भी दिन बना देता है। इसके प्रभाव से चक्रवर्ती द्वितीय अर्धभरत को जीतने के लिए सारी सेना के साथ तमिस्रगुहा में प्रवेश करता है।
१३. खड्ग (असि)-संग्राम भूमि में इसकी शक्ति अप्रतिहत होती है। इसका वार खाली नहीं जाता।
१४. दंड-यह वज्रमय होता है। इसकी पांचों लताएँ रत्नमय होती हैं और यह सभी शत्रुओं की सेनाओं को नष्ट करने में समर्थ होता है। यह चक्रवर्ती के स्कंधावार में जहाँ कहीं विषमता होती है, उसे सम करता है और सर्वत्र शांति स्थापित करता है। यह चक्रवर्ती के सभी मनोरथों को पूरा करता है तथा उसके हितों को साधता है। यह दिव्य और अप्रतिहत होता है। विशेष प्रयत्न से इसका प्रहार करने पर यह हजार योजन तक नीचे जा सकता है।
३७ आयुष्य-भेद (सू० ७२)
षट्प्राभृत में आयुःक्षय के कई कारण माने हैं
१. षट्प्रामृत, भावप्राभृत गाथा २५, २६ :
बिसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं । आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ।। हिमजलणसलिलगुरुयरपव्वयतरुषहणपहणभंगेहिं । रसविज्जजोयधारणअणयषसंगेहि विविहेहिं ।।
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स्थान ७ : टि०३८
६. भूत, पिशाच आदि से ग्रस्त ७. संक्लेश ८. आहार का निरोध ६. श्वासोच्छवास का निरोध
१. विष का सेवन २. वेदना ३. रक्तक्षय ४. भय
५. शस्त्र इनके अतिरिक्त
१. हिम-अत्यधिक ठंड २. अग्नि
३. जल ये भी अपमत्यु के कारण होते हैं।
४. ऊँचे पर्वत से गिरना ५. ऊँचे वृक्ष से गिरना ६. रसों या विधाओं का अविधिपूर्वक सेवन ।
३८. अर्हत्-मल्ली (सू० ७५) :
आवश्यकनियुक्ति के अनुसार मल्लीनाथ के साथ तीन सौ पुरुष प्रवजित हुए थे।' स्थानांग में भी इनके साथ तीन सौ पुरुषों के प्रवजित होने का ही उल्लेख है।'
स्थानांग की वृत्ति में अभयदेवसूरि ने मल्लिजिनः स्त्रीशतरपित्रिभिः'-मल्ली के साथ तीन सौ स्त्रियों के प्रवजित होने की भी बात स्वीकार की है।
आवश्यकनिर्यक्ति गाथा २२४ की दीपिका में मल्लीनाथ के साथ तीन सौ पुरुष और तीन सौ स्त्रियों---छह सौ व्यक्तियों के प्रवजित होने का उल्लेख है।'
प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार का अभिमत भी यही है।'
प्रस्तुत सूत्र में मल्ली के अतिरिक्त छह प्रधान व्यक्तियों के नाम गिनाए गए हैं। वे सब मल्ली के पूर्वभव के साथी थे और वे सब साथ-साथ दीक्षित भी हुए थे। प्रस्तुत भव में भी वे मल्ली के साथ दीक्षित होते हैं। वे मल्ली के साथ प्रव्रजित होने वाले तीन सौ पुरुषों में से ही थे। वे विशेष व्यक्ति थे तथा मल्ली के पूर्वभव के साथी थे, अतः उनका पृथक् उल्लेख किया गया है। उन सबका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१. मल्ली-विदेह जनपद की राजधानी मिथिला में कुंभ नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम प्रभावती था। उसने एक पुत्री को जन्म दिया। माता-पिता ने उसका नाम मल्ली रखा। वह जब लगभग सौ वर्ष की हुई तब एक दिन उसने अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव के छह मित्रों की उत्पत्ति के विषय में जाना और उनको प्रतिबोध देने के लिए एक उपाय ढूंढा। उसने अपने घर के उपवन में अपना सोने का एक पोला प्रतिविम्ब बनाया । उसके मस्तक में एक छिद्र रखा गया था। वह उस छिद्र में प्रतिदिन अपने भोजन का एक ग्रास डाल देती और उस छिद्र को ढंक देती।
२. राजा प्रतिबुद्धि-साकेत नगरी में प्रतिबुद्धि राजा राज्य करता था। एक बार वह पद्मावती देवी द्वारा किये जाने वाले नागयज्ञ में भाग लेने गया और वहाँ अपूर्व श्रीदामगंडक (माला) को देखकर अतिविस्मित हुआ और अपने अमात्य से पूछा- क्या तुमने पहले कहीं ऐसी माला देखी है ?' अमात्य ने कहा-'देव ! विदेह राजा की कन्या मल्ली के पास जो दामगंडक है, उसके लक्षांश से भी यह तुलनीय नहीं होती।' राजा ने पुनः पूछा-'बताओ वह कैसी है ?' अमात्य ने कहा-'राजन् ! उस जैसी दूसरी है ही नहीं, तब भला मैं कैसे बताऊँ कि वह कैसी है ?'
१. आवश्यकनियुक्ति, गाथा २२४ :
पासो मल्लीअ तिहि तिहि सएहि । २. स्थानांग ३।५३० । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १६८ ।
४. आवश्यकनियुक्ति दीपिका, पन ६३ : मल्लिस्त्रिभिशते: स्त्री
शतश्चेत्यनुक्तमपि ज्ञेयम्। ५. प्रवचनसारोदारवृत्ति, पत्र ६६ ।
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ठाणं (स्थान)
७६६
स्थान ७ : टि० ३८
राजा का मन विस्मय से भर गया । उसका सारा अध्यवसाय मल्ली की ओर लग गया और उसने विवाह का प्रस्ताव देकर अपने दूत को मिथिला की ओर प्रस्थान कराया ।
३. राजा चन्द्रच्छाय - चम्पा नगरी में चन्द्रच्छाय नाम का राजा राज्य करता था । वहाँ अर्हन्नक नाम का एक समुद्र-व्यापारी रहता था । एक बार वह लम्बी सामुद्रिक यात्रा से निवृत्त हो अपने नगर में आया और दो दिव्य कुंडल राजा को भेंट देने राजसभा में गया। राजा ने पूछा- तुम लोग अनेक-अनेक देशों में घूमते हो। वहाँ तुमने कहीं कुछ आश्चर्य देखा है ।' अर्हन्नक ने कहा- स्वामिन्! इस बार सामुद्रिक यात्रा में एक देव ने हमको धर्म से विचलित करने के लिए अनेक उपसर्ग उत्पन्न किए। हम धर्म पर अडिग रहे । देव ने विविध प्रकार से प्रयास किया, परन्तु वह हमें विचलित करने में असफल रहा तब उसने प्रसन्न होकर हमें दो कुंडल युगल दिये। हम जब मिथिला में गए तब एक कुंडल युगल हमने राजा कुंभ को उपहार रूप दिया। उसने अपने हाथों से मल्ली को वे कुंडल पहनाए । उस कन्या को देख हम अत्यन्त विस्मित हुए। ऐसा रूप और लावण्य हमने अन्यत्र कहीं नहीं देखा ।'
राजा ने यह सुना और मल्ली कन्या को पाने के लिए छटपटा उठा। उसने अपने दूत को मिथिला की ओर प्रस्थान कराया ।
४. राजा रुवमी - श्रावस्ती नगरी में रुक्मीराज नाम का राजा राज्य करता था । उसकी पुत्री का नाम सुबाहु था। एक बार उसके चातुर्मासिक मज्जनक महोत्सव के समय राजा ने नगर के चौराहे पर एक सुन्दर मंडप बनवाया और उस दिन वह वहीं बैठा रहा। कन्या सुबाहु सज्जित होकर अपने पिता को वन्दन करने वहाँ आई । राजा ने उसे गोद में बिठा लिया और उसके रूप- लावण्य को अत्यन्त गौर से देखने लगा। उसने वर्षधर से पूछा - 'क्या अन्य किसी कन्या का ऐसा मज्जनक महोत्सव कहीं देखा है ?' उसने कहा- 'राजन् ! जैसा मज्जनक महोत्सव मल्ली कन्या का देखा है, उसकी तुलना में यह कुछ नहीं है । उसकी रमणीयता का यह लक्षांश भी नहीं है।'
राजा ने मल्ली का वरण करने के लिए अपने दूत के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजा । दूत मिथिला की ओर चल
पड़ा।
५. राजा शंख -- एक बार कन्या मल्ली के कुंडलों की संधि टूट गई। उसे जोड़ने के लिए महाराज कुंभक ने स्वर्णकारों को बुलाया और कुंडलों को ठीक करने के लिए कहा। स्वर्णकार उन्हें ठीक करने में असमर्थ रहे। राजा ने उन्हें देशनिकाला दे दिया ।
वे स्वर्णकार वाणारसी के राजा शंखराज की शरण में आए। राजा ने उनके देश- निष्कासन का कारण पूछा। उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजा ने पूछा - ' मल्ली कन्या कैसी है ?' उन्होंने उसके रूप और लावण्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
राजा मल्ली में आसक्त हो गया। उसने विवाह का प्रस्ताव देकर अपने दूत को मिथिला की ओर भेजा ।
६. राजा अदीनशत्रु- एक बार मल्लीकुमारी के छोटे भाई मल्लदिन्न ने अपनी अन्तःपुर की चित्रशाला को चित्रकारों से चित्रित कराया। उन चित्रकारों में एक युवक चित्रकार था। उसे चित्रकला में विशेष लब्धि प्राप्त थी। एक बार उसने परदे के भीतर बैठी हुई मल्ली का अंगूठा देख लिया । उस अंगूठे के आकार के आधार पर उसने मल्ली का पूरा चित्र चित्रित कर डाला । कुमार मल्ल दिन्न अन्तःपुर की चित्रशाला में पहुंचा और विविध प्रकार के चित्रों को देख बिस्मय से भर गया। देखते-देखते उसने मल्ली का रूप देखा। उसे साक्षात् मल्लीकुमारी समझकर सोचा- 'अहो ! यह तो मेरी बड़ी बहिन मल्ली है। मैंने यहां आकर इसका अविनय किया है।' वह अत्यन्त लज्जित हो, एक ओर जाने लगा। जो धाय माता वहां उपस्थित थी, उसने कहा - ' कुमार ! यह तो आपके भगिनी का चित्र मात्र है।' यह सुनकर कुमार स्तंभित सा रह गया। अस्थान पर ऐसे चित्र को चित्रित करने के कारण उसने चित्रकार के वध का आदेश दे दिया। चित्रकारों का मन बहुत दुःखी हुआ । उन्होंने उसे छोड़ने के लिए कुमार से प्रार्थना की। किन्तु कुमार ने उसकी छेनी को तोड़कर उसे देश से निष्कासित कर
डाला ।
वह युवा चित्रकार हस्तिनागपुर के राजा अदीनशत्रु की शरण में चला गया। राजा ने उसके आगमन का कारण पूछा। उसने सारी घटना कह सुनाई ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : टि०३६
दिया।
राजा ने अपने दूत को विवाह का प्रस्ताव देकर मिथिला की ओर भेजा।
७. राजा जितशत्रु - एक बार चोक्षा नाम की परिव्राजिका मल्ली के भवन में आई। वह दानधर्म और शौचधर्म का निरूपण करती थी। मल्ली ने उसे पराजित कर दिया। परिव्राजिका कुपित होकर कांपिल्यपुर के राजा जितशत्रु की शरण में चली गई। राजा ने कहा-तुम देश-देशांतरों में घूमती हो। क्या कहीं तुमने हमारे अन्तःपुर की रानियों के सदृश रूप और लावण्य देखा है ? उसने कहा--महाराज! मल्ली कन्या के समक्ष आपकी सभी रानियां फीकी लगती हैं। ये सब उसके पद-नख से भी तुलनीय नहीं हैं।
राजा मल्ली को पाने अधीर हो उठा। उसने भी अपना दूत वहां भेज दिया।
इस प्रकार साकेत, चम्पा, श्रावस्ती, वाणारसी, हस्तिनागपुर और कांपिल्य के राजाओं के दूत मिथिला पहुंचे और अपने-अपने महाराजा के लिए मल्ली की याचना की । राजा कुम्भ ने उन्हें तिरस्कृत कर नगर से निकाल दिया।
वे छहों दूत अपने-अपने स्वामी के पास आए और सारी घटना कह सुनाई। छहों राजाओं ने अत्यन्त कुपित होकर मिथिला की ओर प्रस्थान कर दिया।
राजा कुंभ ने यह सुना और वह अपनी सेना को सज्जित कर सीमा पर जा बैठा। युद्ध प्रारंभ हुआ। छहों राजाओं की सेना के समक्ष राजा कुम्भ की सेना ठहर नहीं सकी। वह हार गया। तब मल्ली ने गुप्त रूप से छहों राजाओं के पास एक-एक व्यक्ति को भेजकर यह कहलाया कि-आपको मल्ली वरण करना चाहती है। छहों राजा नगर में आए और उसी उद्यान में ठहरे जहां मल्ली की प्रतिमा स्थित थी। मल्ली की प्रतिमा को देख वे अत्यन्त आसक्त हो गए और निनिमेष दृष्टि से उसे देखने लगे। मल्लीकुमारी वहां आई और प्रतिमा के शिर पर दिए ढक्कन को उठाया। उससे दुर्गन्ध फटने लगी। सभी नाक बंद कर दूर जा बैठे। मल्ली उनके समक्ष आकर बोली-'अरे! आपने नाक क्यों बंद कर डाला है?' उन्होंने कहा-'दुर्गन्ध फूट रही है।' मल्ली ने पुद्गलों के परिणाम की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करते हुए उन्हें कामभोगों में आसक्त न होने के लिए प्रेरित किया।
सभी को जातिस्मृति उत्पन्न हुई। सभी प्रव्रज्या के लिए तैयार हुए। मल्ली ने कहा-'आप अपने-अपने राज्य में जाकर राज्य की व्यवस्था कर मेरे पास आएं।' सबने यह स्वीकार किया। पश्चात् मल्लीकुमारी छहों राजाओं को राजा कुंभ के पास ले आई और उन्हें कुंभ के चरणों में प्रणत कर विजित किया। अन्त में 'पोष शुक्ला एकादशी को कुमारी मल्ली इन छहों राजाओं के साथ तथा नन्द और नंदिमिन आदि नागवंशीय कुमारों तथा तीन सौ पुरुषों और तीन सौ स्त्रियों के साथ दीक्षित हुई।
वृत्तिकार का अभिमत है कि मल्ली को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद उसने इन सबको दीक्षित किया था।' वृत्तिकार के इस अभिमत का आधार क्या है, वह अन्वेष्टव्य है ।
३६. उपकरण की विशेषता (सू०८१)
आचार्य और उपाध्याय के सात अतिशेष होते हैं, उनमें छठा है उपकरण-अतिशेष। इसका अर्थ है-अच्छे और उज्ज्वल वस्त्र आदि उपकरण रखना। यह पुष्ट परंपरा रही है कि आचार्य और रोगी साधु के वस्त्र बार-बार धोने चाहिए। क्योंकि आचार्य के वस्त्र न धोने से लोगों में अवज्ञा होती है और रोगी के वस्त्र न धोने से उसे अजीर्ण आदि रोग उत्पन्न होते हैं।
देखें - ५।१६६ का टिप्पण।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३८०-३८२ । २. वही, पत्र ३८२ : पोषशुद्धकादश्यामष्टमभक्तेनाश्विनीनक्षत्र :
षडभिनपतिभिनन्दनन्दिमित्रादिभिर्नागवंशकुमारंस्तथा बाह्यपर्षदा पुरुषाणां विभिः शतैरभ्यन्तरपर्षदा च त्रिभिः शत: सह प्रवत्राज।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३५२: उत्पन्न केवलश्च तान् प्रबाजित
वानिति । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८४ :
आयरियगिलाणाणं मइला मइला पुणोवि धोदति । मा हु गुरूण अवन्नो लोगम्मि अजीरणं इयरे ।।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७:टि० ४०-४७
४०-४१ (सू० ८२,८३)
समवायांग में संयम और असंयम के सतरह-सतरह प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें से यहां सात-सात प्रकारों का निर्देश है।
४२-४४ (सू० ८४-८६)
प्रस्तुत सूत्रों में---आरंभ, संरंभ और समारंभ- इन तीन शब्दों का उल्लेख है। ये क्रमबद्ध नहीं हैं। इनका क्रम है-संरंभ, समारंभ और आरंभ । वृत्तिकार ने इनका अर्थ इस प्रकार किया है
आरम्भ-वध। संरंभ-वध का संकल्प। समारंभ-परिताप। उत्तराध्ययन २४।२०-२५ तथा तत्त्वार्थ ६८ में इनका क्रमबद्ध उल्लेख है। तत्त्वार्थवार्तिक में इनकी व्याख्या इस प्रकार हैसंरंभ-प्रवृत्ति का संकल्प। समारंभ-प्रवृत्ति के लिए साधन-सामग्री को जुटाना। आरंभ-प्रवृत्ति का प्रारंभ।
४५. (सू०६०)
तीसरे स्थान [ सूत्र १२५] में शाली, ब्रीहि आदि कुछ धान्यों के योनि-विच्छेद का निरूपण किया है। प्रस्तुत सूत्र में उन धान्यों का निरूपण है जिनका योनि-विच्छेद सात वर्षों के पश्चात होता है।
देखें-३।१२५ का टिप्पण।
४६. (सू० १०१)
समवायांग ७७।३ में गर्दतोय और तुषित-दोनों के संयुक्त परिवार की संख्या सतहत्तर हजार बतलाई है। प्रस्तुत सूत्र से वह भिन्न है।
देखें-समवायांग ७७१३ का टिप्पण।
४७. श्रेणियां (सू० ११२)
श्रेणी का अर्थ है-आकाश प्रदेश की वह पंक्ति जिसके माध्यम से जीव और पुद्गलों की गति होती है। जीव और पुद्गल श्रेणी के अनुसार ही गति करते हैं-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाते हैं। श्रेणियां सात हैं
१. ऋजु-आयता--जब जीव और पुद्गल ऊंचे लोक से नीचे लोक में और नीचे लोक से ऊंचे लोक में जाते हुए सम-रेखा में गति करते हैं, कोई घुमाव नहीं लेते, उस मार्ग को ऋजु-आयात [सीधी और लंबी] श्रेणी कहा जाता है। इस गति में केवल एक समय लगता है।
२. एकतोवक्रा-आकाश प्रदेश की पंक्तियां श्रेणियाँ-ऋजु ही होती हैं। उन्हें जीव या पुद्गल की घुमावदार गति–एक दिशा से दूसरी दिशा में गमन करने की अपेक्षा से वक्रा कहा गया है। जब जीव और पुद्गल ऋजु गति करतेकरते दूसरी श्रेणी में प्रवेश करते हैं तब उन्हें एक घुमाव लेना होता है इसलिए उस मार्ग को 'एकतोवका श्रेणी' कहा जाता
१. समवायांग, १७२। २. वही, १७१।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८४ ॥ ४. तत्वार्थवार्तिक, पृष्ठ ५१३, ५१४ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : टि०४८
है, जैसे—कोई जीव या पुद्गल नीचे लोक की पूर्व दिशा से च्युत होकर ऊंचे लोक की पश्चिम दिशा में जाता है तो पहलेपहल वह ऋजुगति के द्वारा ऊंचे लोक की पूर्व दिशा में पहुंचता है-समश्रेणी गति करता है। वहां से वह पश्चिम दिशा की ओर जाने के लिए एक घुमाव लेता है।
३. द्वितोवक्रा--जिस श्रेणी में दो घुमाव लेने पड़ते हैं उसे 'द्वितोवक्रा' कहा जाता है। जब जीव ऊंचे लोक के अग्निकोण [पूर्व-दक्षिण में मरकर नीचे लोक के वायव्य कोण [उत्तर-पश्चिम] में उत्पन्न होता है तब वह पहले समय में अग्निकोण से तिरछी-गति कर नैऋत कोण की ओर जाता है। दूसरे समय में वहां से तिरछा होकर वायव्य कोण की ओर जाता है । तीसरे समय में नीचे वायव्य कोण में जाता है । यह तीन समय की गति वसनाड़ी अथवा उसके बाहरी भाग में होती है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार होती है।
__४. एकत:खहा-जब स्थावर जीव वसनाड़ी के बायें पार्श्व से उसमें प्रवेश कर उसके बायें या दाएँ किसी पार्श्व में दो या तीन घुमाव लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है। उसके वसनाड़ी के बाहर का आकाश एक ओर से स्पृष्ट होता है है इसलिए इसे 'एकत.खहा' कहा जाता है। इसमें भी एकतोवक्रा, द्वितोवक्रा श्रेणी की भांति वक्र गति होती है किन्तु वसनाड़ी की अपेक्षा से इसका स्वरूप उनसे भिन्न है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार की होती है।
५. द्वितःखहा-जब स्थावर जीव वसनाड़ी के किसी एक पार्श्व से उसमें प्रवेश कर उसके बाह्यवर्ती दूसरे पार्श्व में दो या तीन घुमाव लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है, उसके वसनाड़ी के बाहर का दोनों ओर का आकाश स्पृष्ट होता है इसलिए उसे 'द्वितःखहा' कहा जाता है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार होती है।
६. चक्रवाला—इस आकार में जीव की गति नहीं होती, केवल पुद्गल की ही गति होती है। ७. अर्द्धचक्रवाला।
इन सात श्रेणियों का उल्लेख भगवती २५।३ और ३४।१ में भी मिलता है। ३४।१ में बताया गया है.----ऋजु-आयत श्रेणी में उत्पन्न होने वाला जीव एक सामयिक विग्रहगति से उत्पन्न होता है। एकतोवक्रा श्रेणी में उत्पन्न होने वाला जीव द्वि-सामयिक विग्रहगति से उत्पन्न होता है। द्वितोवका श्रेणी में उत्पन्न होने वाला जीव एक प्रतर में समश्रेणी में उत्पन्न होता है तो वह त्रि-सामयिक विग्रहगति करता है और यदि वह विश्रेणी में उत्पन्न होता है तो चतुःसामयिक विग्रहगति करता है।
एक ओर से वक्र आदि आकारवाली प्रदेशों की पंक्तियां लोक के अन्त में स्थित प्रदेशों की अपेक्षा से हैं। इन सातों श्रेणियों की स्थापना इस प्रकार हैश्रेणी
स्थापना १, ऋजु-आयत २. एकतोवा ३. द्वितोवक्रा ४. एकतःखहा ५. द्वित:खहा ६. चक्रवाला
७. अर्द्धचक्रवाला ४८. विनय (सू० १३०)
विनय का एक अर्थ है—कर्म पुद्गलों का विनयन-विनाश करने वाला प्रयत्न। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान, दर्शन आदि को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्म पुद्गलों का विनयन होता है। विनय का दूसरा अर्थ है ---भक्तिबहमान आदि करना। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान-विनय का अर्थ है-ज्ञान की भक्ति-बहुमान करना। तपस्या का पूर्णांग एवं व्यवस्थित निरूपण औपपातिक में मिलता है। वहां ज्ञान-विनय के पांच, दर्शन-विनय के दो, चारित्र-विनय के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। संख्या की असमानता के कारण वे यहाँ निर्दिष्ट नहीं हैं।
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१. ओवाइयं, सून ४०।
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ari (स्थान)
७७३
स्थान ७ : टि० ४६
पातिक [सू० ४० ] में प्रशस्त और अप्रशस्त मन तथा वचन विनय के बारह-बारह प्रकार निर्दिष्ट हैं । किन्तु यहां संख्या नियमन के कारण उनके सात भेद प्रतिपादित हैं । कायविनय और लोकोपचार विनय के प्रकार दोनों में समान हैं ।
४६. प्रवचन- निन्हव (सू० १४० )
दीर्घकालीन परंपरा में विचारभेद होना अस्वाभाविक नहीं है। जैन परंपरा में भी ऐसा हुआ है। आमूलचूल विचार परिवर्तन होने पर कुछ साधुओं ने अन्य धर्म को स्वीकार किया, उनका यहाँ उल्लेख नहीं है। यहां उन साधुओं का उल्लेख है जिनका किसी एक विषय में, चालू परंपरा के साथ, मतभेद हो गया और वे वर्तमान शासन से पृथक् हो गए, किन्तु किसी अन्य धर्म को स्वीकार नहीं किया । इसलिए उन्हें अन्य धर्मी नहीं कहा गया, किन्तु जैन शासन के निन्हव [किसी एक विषय का अपलाप करने वाले ] कहा गया है। इस प्रकार के निन्हव सात हुए हैं। इनमें से दो भगवान् महावीर की कैवल्यप्राप्ति के बाद हुए हैं और शेष पाँच निर्वाण के बाद। इनका अस्तित्व काल भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के चौदह वर्ष से निर्वाण के बाद ५८४ वर्ष तक का है। यह विषय आगम - संकलन काल में कल्पसूत्र से प्रस्तुत सूत्र में संक्रान्त हुआ है। उनका विवरण इस प्रकार है
१. बहुरत - भगवान महावीर के कैवल्यप्राप्ति के चौदह वर्ष पश्चात् श्रावस्ती नगरी में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्ररूपक आचार्य जमाली थे।
जमालि कुंडपुर नगर के रहने वाले थे । उनकी माता का नाम सुदर्शना था। वह भगवान् महावीर की बड़ी बहन थीं । जमाली का विवाह भगवान् की ! प्रियदर्शना के साथ हुआ।
वे पांच सौ पुरुषों के साथ भगवान् महावीर के पास दीक्षित हुए। उनके साथ-साथ उनकी पत्नी प्रियदर्शना भी हजार स्त्रियों के साथ दीक्षित हुई । जमाली ने ग्यारह अंग पढ़े। वे अनेक प्रकार की तपस्याओं से अपनी आत्मा को भावित कर विहार करने लगे ।
एक बार वे भगवान् के पास आये और उनसे अलग विहार करने की आज्ञा मांगी। भगवान् मौन रहे । वे भगवान् को वन्दना कर अपने पांच सौ निर्ग्रन्थों को साथ ले अलग विहार करने लगे ।
विहार करते-करते वे एकवार श्रावस्ती नगरी में पहुंचे। वहां तिन्दुक उद्यान के कोष्ठक चैत्य में ठहरे। तपस्या चालू थी। पारणा में वे अन्त-प्रान्त आहार का सेवन करते । उनका शरीर रोगाक्रान्त हो गया । पित्तज्वर से उनका शरीर जलने लगा । वे बैठे रहने में असमर्थ थे । एक दिन घोरतम वेदना से पीड़ित होकर उन्होंने अपने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा - श्रमणो ! बिछौना करो। वे बिछौना करने लगे । पित्तज्वर की वेदना बढ़ने लगी। उन्हें एक-एक पल भारी लग रहा था। उन्होंने पूछा- बिछौना कर लिया या किया जा रहा है।" श्रमणों ने कहा- देवानुप्रिय ! बिछौना किया नहीं, किया
१. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ७८४ :
णाणुप्पत्तीय दुवे, उप्पण्णा णिव्वुए सेसा ।
२. वही गाथा ७८३, ७८४ :
चोट्स सोलहसवासा, चोट्स वीसुत्तरा य दोण्णिसया । अट्ठावीसा यदुवे, पंचैव सया उ चोयाला । पंचसया चुलसीया
३. आवश्यकभाष्य, गाथा १२५ :
चउदस वासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्सा |
तो बहुरयाणदिट्ठी सावत्थीए समुप्पन्ना ॥
४. कुछ आचार्य यह भी मानते हैं कि ज्येष्ठा, सुदर्शना, अनवद्यांगी- ये सभी नाम जमाली की पत्नी के हैं—अन्येतु व्याचक्षते - ज्येष्ठा सुदर्शना अनवद्यांगीति जमालिगृहिणी नामानि । ( आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०५ । )
५. यहाँ आचार्य मलयगिरि ने घटनाक्रम और सिद्धान्त पक्ष का निरूपण किया है, वह भगवती सूत्र के निरूपण से भिन्न है । उनके अनुसार जमाली ने अपने श्रमणों से पूछा - 'बिछौना किया या नहीं ? श्रमणों ने उत्तर दिया- 'कर दिया।' जमालि उठा और उसने देखा कि बिछोना अभी पूरा नहीं किया गया है। यह देख वह क्रुद्ध हो उठा । उसने सोचा -- क्रियमाण को कृत कहना मिथ्या है। अर्द्धसंस्तृत संस्तारक (बिछौना) असंस्तृत ही है। उसे संस्तृत नहीं माना
जा सकता ।
( आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०२ ।)
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ठाणं (स्थान)
७७४
स्थान : ७ टि० ४६
जा रहा है। यह सुन उनके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई - भगवान् क्रियमाण को कृत कहते हैं, यह सिद्धान्त मिथ्या है। मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूं कि बिछौना किया जा रहा है, उसे कृत कैसे माना जा सकता है ? उन्होंने तात्कालिक घटना से प्राप्त अनुभव के आधार पर यह निश्चय किया- 'क्रियमाण को कृत नहीं कहा जा सकता। जो सम्पन्न हो चुका है, उसे ही कृत कहा जा सकता है। कार्य की निष्पत्ति अंतिम क्षण में ही होती है, पहले दूसरे आदि क्षणों में नहीं।' उन्होंने अपने निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा - भगवान महावीर कहते हैं
'जो चल्यमान है वह चलित है, जो उदीर्यमाण है, वह उदीरित है और जो निर्जीर्यमाण है वह निर्जीर्ण है । किन्तु मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि यह मिथ्या सिद्धान्त है । यह प्रत्यक्ष घटना है कि बिछौना क्रियमाण है, किन्तु कृत नहीं है। वह संस्तीर्यमाण है, किन्तु संस्तृत नहीं है।'
कुछ निर्ग्रन्थ उनकी बात से सहमत हुए और कुछ नहीं हुए। उस समय कुछ स्थविरों ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु उन्होंने स्थविरों का अभिमत नहीं माना। कुछ श्रमणों को जमाली के निरूपण में विश्वास हो गया । वे उनके पास रहे। कुछ श्रमणों को उनके निरूपण में विश्वास नहीं हुआ वे भगवान् महावीर के पास चले गए ।
साध्वी प्रियदर्शना भी वहीं ( श्रावस्ती में ) कुंभकार ढंक के घर में ठहरी हुई थी। वह जमाली के दर्शनार्थ आई । जमाली ने अपनी सारी बात उसे कही। उसने पूर्व अनुराग के कारण जमाली की बात मान ली उसने आर्याओं को बुलाकर उन्हें जमाली का सिद्धान्त समझाया और कुंभकार को भी उससे अवगत किया। कुंभकार ने मन ही मन सोचा - साध्वी के मन में शंका उत्पन्न हो गई है, किन्तु मैं शंकित नहीं होऊंगा। उसने साध्वी से कहा- मैं इस सिद्धान्त का मर्म नहीं
समझ सकता ।
एक बार साध्वी प्रियदर्शना अपने स्थान पर स्वाध्याय- पौरुषी कर रही थी। ढंक ने एक अंगारा उस पर फेंका। साध्वी की घाटी का एक कोना जल गया। साध्वी ने कहा- ढंक ! मेरी संघाटी क्यों जला दी ? तब ढंक ने कहा - 'नहीं, संघाटी जली कहां है, वह जल रही है।' उसने विस्तार से 'क्रियमाण कृत' की बात समझाई। साध्वी प्रियदर्शना ने इसके मर्म को समझा और जमाली को समझाने गई । जमाली नहीं समझा, तब वह अपनी हजार साध्वियों तथा शेष साधुओं के साथ भगवान् की शरण में चली गई।
जमाली अकेले रह गए । वे चंपा नगरी में गए। भगवान् महावीर भी वहीं समवसृत थे। वे भगवान के समवसरण में गए और बोले – 'देवानुप्रिय ! आपके बहुत सारे शिष्य असर्वज्ञदशा में गुरुकुल से अलग हुए हैं, वैसे मैं नहीं हुआ हूं । मैं सर्वज्ञ होकर आपसे अलग हुआ हूं।' फिर कुछ प्रश्नोत्तर हुए। जमाली ने भगवान् की बातें सुनी पर वे उन्हें अच्छी नहीं लगी। वे उठे और भगवान् से अलग चले गए और अन्त तक 'क्रियमाण कृत नहीं है - इस सिद्धान्त का प्रचार करते रहे।
बहुत रतवादी द्रव्य की निष्पत्ति में दीर्घकाल की अपेक्षा मानते हैं । वे क्रियमाण को कृत नहीं मानते किन्तु वस्तु के निष्पन्न होने पर ही उसका अस्तित्व स्वीकार करते हैं ।
२. जीवप्रादेशिक - भगवान् महावीर के कैवल्यप्राप्ति के सोलह वर्ष पश्चात् ऋषभपुर' में जीवप्रादेशिकवाद की उत्पत्ति हुई ।
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एक बार ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आचार्य वसु राजगृह नगर में आए और गुणशील चैत्य में ठहरे। वे चौदहपूर्वी थे। उनके शिष्य का नाम तिष्यगुप्त था। वह उनसे आत्मप्रवाद-पूर्व पढ़ रहा था। उसमें भगवान् महावीर और गौतम का संवाद आया ।
गौतम ने पूछा - भगवन् ! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ? भगवान् — नहीं !
१. भगवती । ३३; आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०२-४०५ । २. यह राजगृह का प्राचीन नाम था ।
( आवश्यक निर्युक्ति दीपिका पत्र १४३ ऋषभपुरं राजगृहस्माद्याह्ना)
३. आवश्यक भाष्यगाथा, १२७
सोलसवासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नास्णस्स । जीवपएसिअ दिट्ठी उसभपुरम्मी समुप्पन्ना ||
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७:टि० ४६
गौतम-भगवन् ! क्या दो, तीन यावत् संख्यात् प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ? भगवान्--'नहीं। अखंड चेतन द्रव्य में एक प्रदेशन्यून को भी जीव नहीं कहा जा सकता है।'
यह सुन तिष्यगुप्त का मन शंकित हो गया। उसने कहा-'अंतिम प्रदेश के बिना शेष प्रदेश जीव नहीं है, इसलिए अंतिम प्रदेश ही जीव है।' गुरु ने उसे समझाया, परन्तु उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तब उसे संघ से अलग कर दिया।
____ अब तिष्यगुप्त अपनी बात का प्रचार करते हुए अनेक गांवों-नगरों में गये। अनेक व्यक्तियों को अपनी बात समझाई । एक बार वे आलमकल्पा नगरी में आये और अंबसालवन में ठहरे। उस नगर में मित्र श्री नामका श्रमणोपासक रहता था। वह तथा दूसरे थावक धर्मोपदेश सुनने आए। तिष्यगुप्त ने अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया। मित्रधी ने जान लिया कि ये मिथ्या प्ररूपण कर रहे हैं। फिर भी वह प्रतिदिन प्रवचन सुनने आता रहा। एक दिन उसके घर में जीमनवार था। उसने तिष्यगुप्त को घर आने का निमन्त्रण दिया। तिष्यगुप्त भिक्षा के लिए गये, तब मित्रश्री ने अनेक प्रकार के खाद्य उनके सामने प्रस्तुत किए और प्रत्येक पदार्थ का एक-एक छोटा टुकड़ा उन्हें देने लगा। इसी प्रकार चावल का एक-एक दाना, घास का एक-एक तिनका और वस्त्र का एक-एक तार उन्हें दिया। तिष्य गुप्त ने मन ही मन सोचा कि यह अन्य सामग्री मुझे बाद में देगा। किन्तु इतना देने पर मित्रश्री तिष्यगुप्त के चरणों में वन्दन कर बोला-'अहो मैं धन्य हूं, कृतपुण्य हूं कि आप जैसे गुरुजनों का मेरे घर पादार्पण हुआ है।' इतना सुनते ही तिष्यगुप्त को क्रोध आ गया और वे बोले- 'तुमने मेरा तिरस्कार किया है।' मित्र श्री बोला-'नहीं, मैं भला आपका तिरस्कार क्यों करता? मैंने आपके सिद्धान्त के अनुसार ही आपको भिक्षा दी है, भगवान् महावीर के सिद्धान्त के अनुसार नहीं। आप अंतिम प्रदेश को ही वास्तविक मानते हैं, दूसरे प्रदेशों को नहीं । अत: मैंने प्रत्येक पदार्थ का अंतिम भाग आपको दिया है, शेष नहीं।'
तिष्यगुप्त समझ गए। उन्होंने कहा—'आर्य ! इस विषय में मैं तुम्हारा अनुशासन चाहता हूं।' मिनश्री ने उन्हें समझा कर मूल विधि से भिक्षा दी।
तिष्यगुप्त सिद्धान्त के मर्म को समझ कर पुन. भगवान् के शासन में सम्मिलित हो गए।'
जीव के असंख्य प्रदेश हैं। किन्तु जीव प्रादेशिक मतानुसारी जीव के चरम प्रदेश को ही जीव मानते हैं, शेष प्रदेशों को नहीं।
३. अव्यक्तिक-भगवान महावीर के निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात् श्वेतबिका नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढ़ के शिष्य थे।
श्वेतबिका नगरी के पोसाल उद्यान में आचार्य आषाढ़ ठहरे हुए थे। वे अपने शिष्यों को योगाभ्यास कराते थे। उस गण में एकमान वे ही वाचनाचार्य थे।
एक बार आचार्य आषाढ़ को हृदयशूल उत्पन्न हुआ और वे उसी रोग से मर गए। मर कर वे सौधर्म कल्प के नलिनीगुल्म विमान में उत्पन्न हुए। उन्होंने अवधिज्ञान से अपने मृत शरीर को देखा और देखा कि उनके शिष्य आगाढ योग में लीन हैं तथा उन्हें आचार्य की मृत्यु की जानकारी भी नहीं है। तब देवरूप में आचार्य आषाढ नीचे आए और पून उन्होंने अपने मृत शरीर में प्रवेश कर दिया। तत् पश्चात् उन्होंने अपने शिष्यों को जागृत कर कहा- वैरात्रिक करो।' शिष्यों ने वैसा ही किया । जब उनकी योग-साधना का क्रम पूरा हुआ तब आचार्य आषाढ देवरूप में प्रकट होकर बोले'श्रमणो ! मुझे क्षमा करें। मैंने असंयती होते हुए भी संयतात्माओं से बंदना करवाई है।' अपनी मृत्यु की सारी बात बता वे अपने स्थान पर चले गए।
श्रमणों को संदेह हो गया कि कौन जाने कौन साधु है और कौन देव ? निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। सभी चीजें अव्यक्त हैं। उनका मन सन्देह में डोलने लगा। अन्य स्थविरों ने उन्हें समझाया, पर वे नहीं समझे। उन्हें संघ से अलग कर दिया।
१. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पन ४०५, ४०६ । २. आवश्यकभाष्य, गाथा १२६ :
चउदस दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । अब्बत्तगाण दिट्ठी सेअबिआए समुप्पन्ना ।।
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स्थान ७: टि०४६
एक बार वे श्रमण विहार करते हुए राजगृह में आए। वहां मौर्यवंशी राजा बलभद्र श्रमणोपासक था। उसने श्रमणों के आगमन तथा उनके दर्शन की बात सुनी। उसने अपने चार पुरुषों को बुलाकर कहा - 'जाओ, उन श्रमणों को यहाँ ले आओ।' वे गए और श्रमणों को ले आए। राजा ने कहा--'इन सभी श्रमणों के कोड़े मारो।' चार पुरुष गए और हाथी को मारने के कोड़े ले आए। साधुओं ने कहा- 'राजन् ! हम तो जानते थे कि तुम श्रावक हो तुम हमें मरवाओगे?' राजा ने कहा-'तुम चोर हो या चारक हो या गुप्तचर हो ? यह कौन जानता है ?' उन्होंने कहा-हम साधु हैं। राजा बोला'तुम श्रमण हो या चारक तथा मैं ही धावक हूं या नहीं—यह निश्चयपूर्वक कौन कह सकता है ?' इस घटना से वे सब समझ गए। उन्हें अपने अज्ञान पर खेद हुआ। उन्होंने अपनी भ्रांति का निराकरण कर सत्य को पहचान लिया। राजा ने क्षमायाचना करते हुए कहा-'श्रमणो! मैंने आपको प्रतिबोध देने के लिए ऐसा किया था। आप क्षमा करें।
अव्यक्तवाद को मानने वालों का कथन है कि किसी भी वस्तु के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। सब कुछ अनिश्चित है, अव्यक्त है।
अव्यक्तवाद मत का प्रवर्तन आचार्य आषाढ ने नहीं किया था। इसके प्रवर्तक थे उनके शिष्य । किन्तु इस मत के प्रवर्तन में आचार्य आषाढ का देवरूप निमित्त बना था अत: उन्हें इस मत का आचार्य मान लिया गया। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि आचार्य आषाढ के शिष्यों ने अव्यक्तवाद का प्रतिपादन किया। जिस समय यह घटना लिखी गई उस समय उनके शिष्यों के नाम का परिचय न रहा हो, अत: सांकेतिक रूप में अभेदोपचार की दृष्टि से आचार्य आषाढ़ को ही उस मत का प्रवर्तक बतलाया गया। इस प्रश्न के एक पहलू पर अभयदेवसूरि ने विमर्श प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार आचार्य आषाढ अव्यक्त मत को संस्थापित करने वाले श्रमणों के आचार्य थे। इसीलिए उन्हें अव्यक्तवाद के आचार्य के रूप में उल्लिखित किया गया है।
४. समुच्छेदिक-भगवान महावीर के निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात् मिथिला पुरी में समुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई।' इसके प्रवर्तक आचार्य अश्वमित्र थे।
एक बार मिथिलानगरी के लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि ठहरे हुए थे। उनके शिष्य का नाम कोण्डिन्य और प्रशिष्य का नाम अश्वमित्र था। वह दसवें अनुप्रवाद (विद्यानुप्रवाद) पूर्व के नपुणिक वस्तु (अध्याय) का अध्ययन कर रहा था। उसमें छिन्नछेदनय के अनुसार एक आलापक यह था कि पहले समय में उत्पन्न सभी नारक विच्छिन्न हो जाएंगे, दूसरे-तीसरे समय में उत्पन्न नैरयिक भी विच्छिन्न हो जाएंगे। इस प्रकार सभी जीव विच्छिन्न हो जाएंगे। इस पर्यायवाद के प्रकरण को सुनकर अश्वमित्र का मन शंकायुक्त हो गया। उसने सोचा, यदि वर्तमान समय में उत्पन्न सभी जीव विच्छिन्न हो जायेंगे तो सुकृत और दुष्कृत कर्मों का वेदन कौन करेगा? क्योंकि उत्पन्न होने के अन्तर ही सबकी मृत्यु हो जाती है।
गुरु ने कहा-'वत्स । ऋजुसूत्र नय के अभिप्राय से ऐसा कहा गया है, सभी नयों की अपेक्षा से नहीं । निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वनयसापेक्ष होता है । अत: शंका मत कर । वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं। एक पर्याय के विनाश से वस्तु का सर्वथा नाश नहीं होता, आदि-आदि।' आचार्य के बहुत समझाने पर भी वह नहीं समझा। तब आचार्य ने उसे संघ से अलग कर दिया।
एक बार वह समुच्छेदवाद का निरूपण करता हुआ कंपिल्लपुर में आया। वहां खंडरक्षा नाम के श्रावक थे। वे सभी शुल्कपाल (चुंगी अधिकारी)थे। उन्होंने उसे पकड़कर पीटा। उसने कहा- 'मैंने तो सुना था कि तुम सब श्रावक हो । श्रावक होते हुए भी तुम साधुओं को पीटते हो? यह उचित नहीं है।'
श्रावकों ने उत्तर देते हुए कहा-'आपके मत के अनुसार वे श्रावक विच्छिन्न हो गए और जो प्रवजित हुए थे वे भी व्युच्छिन्न हो गए । न हम श्रावक हैं और न आप साधु । आप कोई चोर हैं।'
यह सुन उसने कहा- 'मुझे मत पीटो, मैं समझ गया।' वह इस घटना से प्रतिबद्ध हो संघ में सम्मिलित हो गया।
१. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०६, ४०७ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६१ :
सोऽमव्यक्तमतधर्माचार्यों, न चायं तन्मतप्ररूपकत्वेन किन्तु प्रागवस्थायामिति ।
३. आवश्यकभाष्य, गाथा १३१ :
वीसा दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स ।
सामुच्छेइअदिट्टी, मिहिलपुरीए समुष्पम्ना । ४. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०८, ४०६ ।
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स्थान ७: टि०४६
समुच्छेदवादी प्रत्येक पदार्थ का संपूर्ण विनाश मानते हैं वे एकान्त समूच्छेद का निरूपण करते हैं।
५. द्वैक्रिय--भगवान् महावीर के निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात् उल्लुकातीर नगर में द्विक्रियावाद की उत्पत्ति हुई।' इसके प्रवर्तक आचार्य गंग थे।
प्राचीन काल में उल्लुका नदी के एक किनारे खेड़ा था और दूसरे किनारे उल्लुकातीर नाम का नगर था। वहां आचार्य महागिरी के शिष्य आचार्य धनगुप्त रहते थे। उनके शिष्य का नाम गंग था। वे भी आचार्य थे। वे उल्लका नदी के इस ओर खेड़े में वास करते थे। एक बार वे शरद् ऋतु में अपने आचार्य को वंदना करने निकले। मार्ग में उल्लुका नदी थी। वे नदी में उतरे। वे गंजे थे। ऊपर सुरज तप रहा था। नीचे पानी की ठंडक थी। उन्हें नदी पार करते समय सिर को सूर्य की गर्मी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। उन्होंने सोचा-'आगमों में ऐसा कहा है कि एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो का नहीं। किन्तु मुझे प्रत्यक्षतः एक साथ दो क्रियाओं का वेदन हो रहा है। वे अपने आचार्य के पास पहुंचे और अपना अनुभव उन्हें सुनाया। गुरु ने कहा--'वत्स ! वास्तव में एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो का नहीं। मन का क्रम बहुत सूक्ष्म है, अत: हमें उसकी पृथक्ता का पता नहीं लगता।' गुरु के समझाने पर भी वे नहीं समझे, तब उन्हें संघ से अलग कर दिया।
अब आचार्य गंग संघ से अलग होकर अकेले विहरण करने लगे। एक बार वे राजगृह नगर में आए। वहाँ महातपःतीरप्रभ नामका एक झरना था। वहां मणिनाग नामक नाग का चैत्य था। आचार्य गंग उस चैत्य में ठहरे। धर्म-प्रवचन सुनने के लिए पर्षद् जुड़ी। आचार्य गंग ने अपने द्वैक्रियवाद के मत का प्रतिपादन किया। तब मणिनाग ने उस परिषद में कहा-अरे दुष्ट शिष्य ! तू अप्रज्ञापनीय का प्रज्ञापन क्यों कर रहा है ? इसी स्थान पर एक बार भगवान् ने एक समय में एक ही क्रिया के वेदन की बात का प्रतिपादन किया था। तु क्या उनसे अधिक ज्ञानी है ?अपनी विपरीत प्ररूपणा को छोड़ा, अन्यथा तेरा कल्याण नहीं होगा। मणिनाग की बात सुन आचार्य गंग के मन में प्रकम्पन पैदा हुआ और उन्होंने सोचा कि मैंने यह ठीक नहीं किया। वे अपने गुरु के पास आए और प्रायश्चित्त ले संघ में सम्मिलित हो गए।
द्वैक्रियवादी एक ही क्षण में एक साथ दो क्रियाओं का अनवेदन मानते हैं।
६. राशिक-भगवान महावीर के निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात् अंतरंजिका नगरी में राशिक मत का प्रवर्तन हुआ। इसके प्रवर्तक आचार्य रोहगुप्त (षडूलुक) थे।
प्राचीन काल में अंतरंजिका नाम की नगरी थी। वहाँ के राजा का नाम बलथी था। वहां भूतगृह नाम का एक चैत्य था। एक बार आचार्य श्रीगुप्त वहाँ ठहरे हुए थे। उनके संसारपक्षीय भानेज रोहगुप्त उनका शिष्य था। एक बार वह दूसरे गांव से आचार्य को वंदना करने आ रहा था। वहाँ एक परिव्राजक रहता था। उसका नाम था पोट्टशाल। वह अपने पेट को लोहे की पट्टी से बांध कर, जंबू वृक्ष की एक टहनी को हाथ में ले घूमता था। किसी के पूछने पर वह कहता-ज्ञान के भार से मेरा पेट फट न जाए इसलिए मैं अपने पेट को लोहे की पट्टियों से बांधे रहता हूं तथा इस समूचे जम्बूद्वीप में मेरा प्रतिवाद करने वाला कोई नहीं, अतः जम्बू वृक्ष की शाखा को हाथ में ले घूमता हूं।' वह सभी धार्मिकों को वाद के लिए चुनौती दे रहा था। सारे गांव में चुनौती का पटह फेरा । रोहगुप्त ने उसकी चुनौती स्वीकार कर आचार्य को सारी बात सुनाई। आचार्य ने कहा----वत्स ! तूने ठीक नहीं किया। वह परिव्राजक अनेक विद्याओं का ज्ञाता है। इस दृष्टि से वह तुझसे बलवान् है । वह सात विद्याओं में पारंगत है
३. आवश्यकभाष्य, गाथा १३५ :
पंच सया चोयाला तइया सिद्धि गयस्स बीरस्स । पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिट्ठि उप्पन्ना।
१. आवश्यकभाष्य, गाथा १३३ :
अट्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धिगयस्स वीरस्स।
दो किरियाणं दिट्ठी उल्लुगतीरे समुप्पन्ना ।। २. (क) आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ४०६, ४१० । (ख) विशेषआवश्यकभाष्य गाथा २४५०
मणिनागेणारद्धो भयोववत्तिपडिवोहितोवोत्तुं । इच्छामो गुरुमूलं गंतूण ततो पडिक्कतो॥
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स्थान ७:टि०४६ १. वृश्चिकविद्या ३. मूषकविद्या ५. वराहीविद्या ७. पोताकीविद्या
२. सर्पविद्या ४. मृगीविद्या ६. काकविद्या रोहगुप्त ने यह सुना। वह अवाक रह गया। कुछ क्षणों के बाद वह बोला.....गुरुदेव ! अब क्या किया जाए? क्या मैं कहीं भाग जाऊं?' आचार्य ने कहा---'वत्स ! भय मत खा । मैं तुझे इन विद्याओं की प्रतिपक्षी सात विद्याएं सिखा देता हूं। तू आवश्यकतावश उनका प्रयोग करना।' रोहगुप्त अत्यन्त प्रसन्न हो गया। आचार्य ने सात विद्याएं उसे सिखाई१. मायूरी
५. सिंही २. नाकुली
६. उलूकी ३. विडाली
७. उलावकी ४. व्याघ्री आचार्य ने रजोहरण को मंत्रित कर रोहगुप्त को देते हुए कहा--'वत्स ! इन सात विद्याओं से तू उस परिव्राजक को पराजित कर सकेगा। यदि इन विद्याओं के अतिरिक्त किसी दूसरी विद्या की आवश्यकता पड़े तो तू इस रजोहरण को घुमाना । तू अजेय होगा, तुझे तब कोई पराजित नहीं कर सकेगा। इन्द्र भी तुझे जीतने में समर्थ नहीं हो सकेगा।'
रोहगुप्त गुरु का आशीर्वाद ले राजसभा में गया। राजा बलश्री के समक्ष वाद करने का निश्चय कर परिव्राजक पोट्टशाल को बुला भेजा। दोनों वाद के लिए प्रस्तुत हुए। परिव्राजक ने अपने पक्ष की स्थापना करते हुए कहा-राशि दो हैं—जीव राशि और अजीव राशि। रोहगुप्त ने जीव, अजीव और नोजीव इन तीन राशियों की स्थापना करते हुए कहापरिव्राजक का कथन मिथ्या है। विश्व में प्रत्यक्षत: तीन राशियाँ उपलब्ध होती हैं। नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि जीव हैं। घट, पट आदि अजीव हैं और छुछंदर की कटी हुई पूंछ नोजीव है आदि-आदि। इस प्रकार अनेक युक्तियों के द्वारा रोहगुप्त ने परिव्राजक को निरुत्तर कर दिया।
अपनी पराजय देख परिव्राजक अत्यन्त क्रुद्ध हो एक-एक कर सभी विद्याओं का प्रयोग करने लगा। रोहगुप्त सावधान था ही, उसने भी बारी-बारी से उन विद्याओं की प्रतिपक्षी विद्याओं का प्रयोग कर उनको विफल बना दिया। परिव्राजक ने जब देखा कि उसकी सभी विद्याएँ विफल हो रही हैं, तब उसने अन्तिम अस्त्र के रूप में गर्दभी विद्या का प्रयोग किया। रोहगुप्त ने भी अपने आचार्य द्वारा प्रदत्त अभिमंत्रित रजोहरण का प्रयोग कर उसे भी विफल कर डाला। सभी सभासदों ने परिव्राजक को पराजित घोषित कर उसका तिरस्कार किया।
विजय प्राप्त कर रोहगुप्त आचार्य के पास आया और सारी घटना ज्यों की त्यों उन्हें सुनाई। आचार्य ने कहाशिष्य ! तूने असत्य प्ररूपणा कैसे की ? तूने क्यों नहीं कहा कि राशि तीन नहीं हैं ?
रोहगुप्त बोला-भगवन् ! मैं उसकी प्रज्ञा को नीचा दिखाना चाहता था। अतः मैंने ऐसी प्ररूपणा कर उसको सिद्ध भी किया है।
आचार्य ने कहा-अभी समय है। जा और अपनी भूल स्वीकार कर आ ।
रोहगुप्त अपनी भूल स्वीकार करने के लिए तैयार न हुआ और अन्त में आचार्य से कहा--यदि मैंने तीन राशि की स्थापना की है तो उसमें दोष ही क्या है ? उसने अपनी बात को विविध प्रकार से सिद्ध करने का प्रयत्न किया। आचार्य ने अनेक युक्तियों से तीन राशि के मत का खंडन कर उसे सही तत्त्व पहचानने के लिए प्रेरित किया, परन्तु सब व्यर्थ । अन्त में आचार्य ने सोचा-यह स्वयं नष्ट होकर अनेक दूसरे व्यक्तियों को भी भ्रान्त करेगा। अच्छा है कि मैं लोगों के समक्ष राजसभा में इसका निग्रह करूं। ऐसा करने से लोगों का इस पर विश्वास नहीं रहेगा और मिथ्या तत्त्व का प्रचार भी रुक जायगा।
___आचार्य राजसभा में गए और महाराज बलश्री से कहा-'राजन् ! मेरे शिष्य रोहगुप्त ने सिद्धान्त के विपरीत तथ्य की स्थापना की है। हम जैन दो ही राशि स्वीकार करते हैं, किन्तु वह आग्रहवश इसको स्वीकार नहीं कर रहा है। आप उसको राजसभा में बुलाएं और मैं जो चर्चा करूं, वह आप सुनें।' राजा ने आचार्य की बात मान ली।
चर्चा प्रारंभ हुई। छह मास बीत गए। एक दिन राजा ने आचार्य से कहा-इतना समय बीत गया। मेरे राज्य का सारा कार्य अव्यवस्थित हो रहा है। यह वाद कब तक चलेगा ? आचार्य ने कहा-'राजन् ! मैंने जानबूझकर इतना समय
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स्थान ७ : टि०४६
बिताया है। आज मैं उसका निग्रह करूंगा।'
दूसरे दिन प्रात: वाद प्रारम्भ हुआ। आचार्य ने कहा- यदि तीन राशि वाली बात सही है तो कुत्रिकापण में चलें। वहाँ सभी वस्तुएं उपलब्ध होती हैं।
राजा को साथ लेकर सभी कुत्रिकापण में गए और वहां के अधिकारी से कहा-'हमें जीव, अजीव और नोजीवये पदार्थ दो।' वहाँ के अधिकारी देव ने जीव और अजीव ला दिए और कहा-नोजीव की श्रेणि का कोई पदार्थ विश्व में है ही नहीं। राजा को आचार्य के कथन की यथार्थता प्रतीत हुई।
इस प्रकार आचार्य ने १४४ प्रश्नो द्वारा रोहगुप्त का निग्रह कर उसे पराजित किया। राजा ने आचार्य श्रीगुप्त का बहुत सम्मान किया और सभी पार्षदों ने रोहगुप्त का तिरस्कार कर उसे राजसभा से निष्काषित कर भगा दिया। राजा ने उसे अपने देश से निकल जाने का आदेश दिया और सारे नगर में जैन शासन के विजय की घोषणा करवाई।
रोहगुप्त मेरा भानजा है, उसने मेरे साथ इतनी प्रत्यनीकता बरती है। वह मेरे साथ रहने के योग्य नहीं है। आचार्य के मन में क्रोध उभर आया और उन्होंने उसके सिर पर 'खेल-मल्लक' (श्लेष्म पात्र) फेंका, उससे रोहगुप्त का सारा शरीर राख से भर गया और वह अपने आग्रह के लिए संघ से पृथक् हो गया।
रोहगुप्त ने अपनी मति से तत्त्वों का निरूपण किया और वैशेषिक मत की प्ररूपणा की। उसके अनेक शिष्यों ने अपनी मेधा शक्ति से उन तत्त्वों को आगे बढ़ाकर उसको प्रसिद्ध किया।
७ अबद्धिक-भगवान महावीर के निर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात् दशपुर नगर में अबद्धिक मत का प्रारम्भ हुआ। इसके प्रवर्तक थे आचार्य गोष्ठामाहिल ।
उस समय दसपुर नाम का नगर था। वहाँ राजकुल से सम्मानित ब्राह्मणपुत्र आर्यरक्षित रहता था। उसने अपने पिता से पढ़ना प्रारम्भ किया। पिता का सारा ज्ञान जब वह पढ़ चुका तब विशेष अध्ययन के लिए पाटलिपुत्र नगर में गया
और वहाँ चारों वेद, उनके अंग और उपांग तथा अन्य अनेक विद्याओं को सीखकर घर लौटा। माता के द्वारा प्रेरित होकर उसने जैन आचार्य तोसलिपुत्र से भागवती दीक्षा ग्रहण कर दृष्टिवाद का अध्ययन प्रारम्भ किया और तदनन्तर आर्य वज्र के पास नौ पूर्वो का अध्ययन सम्पन्न कर दसवें पूर्व के चौबीस यविक ग्रहण किए।
आचार्य आर्यरक्षित के तीन प्रमुख शिष्य थे-दुर्बलिकापुष्यमित्र, फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल । उन्होंने अन्तिम समय में दुर्बलिकापुष्यमित्र को गण का भार सौंपा।
एक बार आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र अर्थ की वाचना दे रहे थे। उनके जाने के बाद विध्य उस वाचना का अनुभाषण कर रहा था। गोष्ठामाहिल उसे सुन रहा था। उस समय आठवें कर्मप्रदाद पूर्व के अंतर्गत कर्म का विवेचन चल रहा था। उसमें एक प्रश्न यह था कि जीव के साथ कर्मों का बंध किस प्रकार होता है ? उसके समाधान में कहा गया था कि कर्म का बंध तीन प्रकार से होता है१. आवश्यकनियुक्तिदीपिका में १४४ प्रश्नों का विवरण इस
सत्ता के पांच भेद हैं- सत्ता, सामान्य, सामान्यविशेष, प्रकार प्राप्त है
विशेष और समवाय। वैशेषिक षट् पदार्थ का निरूपण करते हैं
इन भेदों का योग (6+१७-५+५)=३६ होता १. द्रव्य ४. सामान्य
है । इनको पृथ्वी , अपृथ्वी, नो पृथ्वी, नो अपृथ्वी- इन चार २. गुण ५. विशेष
विकल्पों से गुणित करने पर ३६x४=१४४ भेद प्राप्त ३. कर्म ६. समवाय
होते हैं। द्रव्य के नौ भेद हैं--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ____ आचार्य ने इसी प्रकार के १४४ प्रश्नों द्वारा रोहगुप्त काल, दिक, मन और आत्मा ।
को निरुत्तर कर उसका निग्रह किया। (आवश्यकनियुक्ति गुण में सतरह भेद हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, दीपिका पत्र १४५, १४६) परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, २. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति पत्र ४११-४१५ दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयल ।
३. आवश्यकभाष्य, गाथा १४१ : कर्म के पांच भेद हैं--उत्क्षेपण, अवक्षेपण प्रसारण,
पंचसया चूलसीआ तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । आकुंचन और गमन।
अबद्धिगाण दिट्ठि दसपुरनयरे समुप्पन्ना।।
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चाहा
ठाणं (स्थान)
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स्थान ७:टि०४६ १. स्पृष्ट-कुछ कर्म जीव प्रदेशों के साथ स्पर्श मात्र करते हैं और कालान्तर में स्थिति का परिपाक होने पर उनसे विलग हो जाते हैं। जैसे—सूखी भीत पर फेंकी गई रेत भीत का स्पर्श मात्र कर नीचे गिर जाती है।
२ स्पृष्टबद्ध - कुछ कर्म जीव-प्रदेशों का स्पर्श कर बद्ध होते हैं और वे भी कालान्तर में विलग हो जाते हैं। जैसेगीली भीत पर फेंकी गई रेत, कुछ चिपक जाती है और कुछ नीचे गिर जाती है।
३. स्पृष्टबद्ध निकाचित-कुछ कर्म जीव-प्रदेशों के साथ गाढ़ रूप में बंध प्राप्त करते हैं। वे भी कालान्तर में विलग हो जाते हैं।
यह प्रतिपादन सुनकर गोष्ठामाहिल का मन विचिकित्सा से भर गया। उसने कहा -कर्म को जीव के साथ बद्ध मानने से मोक्ष का अभाव हो जाएगा, कोई भी प्राणी मोक्ष नहीं जा सकेगा। अतः सही सिद्धान्त यही है कि कर्म जीव के साथ स्पृष्ट होते हैं, बद्ध नहीं, क्योंकि कालान्तर में वे वियुक्त होते हैं। जो वियुक्त होता है, वह एकात्मक से बद्ध नहीं हो सकता। उसने अपनी शंका विध्य के समक्ष रखी। विध्य ने बताया कि आचार्य ने इसी प्रकार का अर्थ बताया है।
गोष्ठामाहिल के गले यह बात नहीं उतरी। वह मौन रहा। एक बार नौवें पूर्व की बाचना चल रही थी। उसमें साधुओं के प्रत्याख्यान का वर्णन आया। उसका प्रतिपाद्य था कि यथाशक्ति और यथाकाल प्रत्याख्यान करना चाहिए । गोष्ठामाहिल ने सोचा-अपरिमाण प्रत्याख्यान ही श्रेयस्कर होता है, परिमाण प्रत्याख्यान में बांछा का दोष उत्पन्न होता है। एक व्यक्ति परिमाण प्रत्याख्यान के अनुसार पौरुषी, उपवास आदि करता है, किन्तु पौरुषी या उपवास का कालमान पूर्ण होते ही उसमें खाने-पीने की आशा तीव्र हो जाती है । अतः यह सदोष है। यह सोचकर वह विध्य के पास गया और अपने विचार उनके समक्ष रखे। विंध्य ने उसे सुना-अनसुना कर, उसकी उपेक्षा की। तब गोष्ठामाहिल ने आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के पास जाकर अपने विचार व्यक्त किए। आचार्य ने कहा-अपरिमाण का अर्थ क्या है ? क्या इसका अर्थ यावत् शक्ति है या भविष्यत् काल है ? यदि यावत् शक्ति अर्थ को स्वीकार किया जाए तो वह हमारे मन्तव्य का ही स्वीकार होगा और यदि दूसरा अर्थ लिया जाए तो जो व्यक्ति यहाँ से मर कर देवरूप में उत्पन्न होते हैं, उनमें सभी व्रतों के भंग का प्रसंग आ जाता है। अत: अपरिमित प्रत्याख्यान का सिद्धान्त अयथार्थ है। गोष्ठामाहिल को उसमें भी श्रद्धा नहीं हुई और वह विप्रतिपन्न हो गया। आचार्यने उसे समझाया। अपने आग्रह को छोड़ना उसके लिए संभव नहीं था। वह और आग्रह करने लगा। दूसरे गच्छों के स्थविरों को इसी विषय में पूछा। उन्होंने कहा--'आचार्य ने जो अर्थ दिया है, वह सही है।' गोष्ठामाहिल ने कहा-आप नहीं जानते। मैंने जैसा कहा है, वैसे ही तीर्थंकरों ने भी कहा है। स्थविरों ने पुन: कहा'आर्य! तुम नहीं जानते, तीर्थंकरों की आशातना मत करो।' परन्तु गोष्ठामाहिल अपने आग्रह पर दृढ़ रहा। तब स्थविरों ने सारे संघ को एकत्रित किया। समूचे संघ ने देवता के लिए कायोत्सर्ग किया। देवता उपस्थित होकर बोलाकहो, क्या आदेश है ? संघ ने कहा--तीर्थकर के पास जाओ और यह पूछो कि जो गोष्ठामाहिल कह रहा है वह सत्य है या दुर्बलिकापुष्यमित्र आदि संघ का कथन सत्य है ? देवता ने कहा-'मुझ पर अनुग्रह करें तथा मेरे गमन में कोई प्रतिघात न हो इसलिए आप सब कायोत्सर्ग करें।' सारा संघ कायोत्सर्ग में स्थित हुआ। देवता गया और भगवान् तीर्थंकर से पूछकर लौटा। उसने कहा---'संघ जो कह रहा है वह सत्य है; गोष्ठामाहिल का कथन मिथ्या है।' देवता का कथन सुनकर सब प्रसन्न हुए।
गोष्ठामाहिल ने कहा-इस बेचारे में कौन सी शक्ति है कि यह तीर्थकर के पास जाकर कुछ पूछे ?
लोगों ने उसे समझाया, पर वह नहीं माना । अन्त में पुष्पमित्र उसके साथ आकर बोले-आर्य! तुम इस सिद्धान्त पर पुनर्विचार करो, अन्यथा तुम संघ में नहीं रह सकोगे। गोष्ठामाहिल ने उनके वचनों का भी आदर नहीं किया। उसका आग्रह पूर्ववत् रहा । तब संघ ने उसे बहिष्कृत कर डाला।
___ अबद्धिक मतवादी मानते हैं कि कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं, उसके साथ एकीभूत नहीं होते।
२. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पन ४१५-४१८ ।
१. आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति पत्र ४१६ में इनके स्थान पर
बद्ध, बद्धस्पृष्ट और बद्धस्पृष्टनिकाचित-ये शब्द हैं ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : टि०४६
इन सात निन्हवों में जमाली, रोहगुप्त तथा गोष्ठामाहिल ये तीन अन्त तक अलग रहे, भगवान् के शासन में पुनः सम्मिलित नहीं हुए, शेष चार पुन: शासन में आ गए।
संख्या
प्रवर्तक आचार्य
नगरी
प्रतित मत
समय
जमाली
श्रावस्ती
बहुरतवाद
| तिष्यगुप्त
ऋषभपुर
जीवप्रादेशिकवाद
or my w
आचार्य आषाढ़ अश्वमित्र गंग रोहगुप्त (पडुलुक) गोष्ठामाहिल
श्वेतबिका मिथिला उल्लुकातीर नगर अंतरंजिका दशपुर
अव्यक्तवाद समूच्छेदवाद द्वैक्रिय वैराशिक अबद्धिक
भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १४ वर्ष बाद।। भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १६ वर्ष बाद। निर्वाण के २१४ वर्ष बाद। निर्वाण के २२० वर्ष बाद। निर्वाण के २२८ वर्ष बाद । निर्वाण के ५४४ वर्ष बाद। निर्वाण के ५८४ वर्ष बाद।
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अट्ठमं ठाणं
अष्टम स्थान
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आमुख
प्रस्तुत स्थान आठ की संख्या से सम्बन्धित है। इसके उद्देशक नहीं हैं। इसमें जीवविज्ञान, कर्मशास्त्र, लोकस्थिति, गणव्यवस्था, ज्योतिष, आयुर्वेद, इतिहास, भूगोल आदि अनेक विषय संकलित हैं । वे एक विषय से सम्बन्धित नहीं हैं । उनमें परस्पर भी सम्बद्धता नहीं है।
मनुष्य की प्रकृति समान नहीं होती। कोई व्यक्ति सरल होता है, वह माया का आचरण नहीं करता । कोई व्यक्ति माया करता है और उसे अपना चातुर्य मानता है। जिसकी आत्मा में पाप के प्रति ग्लानि होती है, धर्म के प्रति आस्था होती है, कृत कर्मों का फल अवश्य मिलता है - इस सिद्धान्त के प्रति विश्वास होता है, वह माया करके प्रसन्न नहीं होता। उसके हृदय में माया शल्य के समान सदा चुभती रहती है। व्यवहार में भी माया का फल अच्छा नहीं मिलता। परस्पर का सम्बन्ध टूट जाता है। दोनों दृष्टियों से माया का व्यवहार उसके लिए चिन्तनीय बन जाता है । वह माया की आलोचना करता है, प्रायश्चित्त और तपःकर्म स्वीकार कर आत्मा को शुद्ध बनाता है।
कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो माया करके मन में प्रसन्न होते हैं। अपने अहं को और अधिक जगाते हैं। मैंने जो कुछ किया दूसरा उसको समझ ही नहीं पाया। ऐसी भावना वाले व्यक्ति कभी माया को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करते। वे सोचते हैं कि आलोचना करने से मेरी प्रतिष्ठा कम होगी, मेरा अपयश होगा। ऐसा सोचकर वे मायाचरण की आलोचना नहीं करते ।
अहं वस्तु से नहीं आता । अहं जागता है भावना से । अपनी भावना के द्वारा मनुष्य वस्तु में से अहं निकालता है। दूसरों से अपने को बड़ा समझने की भावना जाग जाती है या जगा दी जाती है, तब अहं अस्तित्व में आ जाता है और वह आकार ले लेता है । अहं का दूसरा नाम मद है । प्रस्तुत स्थान में आठ प्रकार के मद बतलाए गए हैं । जातक किसी-न-किसी जाति में पैदा होता ही है । उच्चजाति और नीचजाति का विभाजन ही मद का कारण बनता है । कुल का मद होता है। कामद होता है, मैं शक्तिशाली हूँ । रूप का मद होता है, मैं सबसे सुन्दर हूँ। तपस्या का भी मद हो सकता है, जितना मैंने तप किया है, दूसरे वैसा तप नहीं कर सकते। ज्ञान का भी मद हो सकता है, मैंने इतना अध्ययन किया है । ऐश्वर्य का मद होता है । ये मद मनुष्य को भटका देते हैं । मद करने वाले की मृदुता समाप्त हो जाती है।
माया और मद ये दोनों मनुष्य में मानसिक विकार पैदा करते हैं। जो व्यक्ति मन से विकृत होता है वह शरीर से भी स्वस्थ नहीं होता । बहुत सारे शारीरिक रोगों के निमित्त मानसिक विकार बनते हैं। रुग्णमन शरीर को भी रुग्ण बना देता है । मानसिक रोगों की चिकित्सा का उपाय है धर्म । माया की चिकित्सा ऋजुता और मद की चिकित्सा मृदुता के द्वारा हो सकती है। मानसिक विकार मिटने पर शारीरिक रोग भी मिट जाते हैं। कुछ शारीरिक रोग शारीरिक दोषों से भी उत्पन्न होते हैं, उनकी चिकित्सा आयुर्वेद की पद्धति से की जाती है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में चिकित्सा पद्धति के आठ अंग मिलते हैं । सूत्रकार ने आठ की संख्या में उनका भी संकलन किया है। इसी प्रकार निमित्त आदि लौकिक विषय भी इसमें संकलित है। *
१.८६, १०
२. ८ । २१
३. ८ । २६
४. ८।२३
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ठाणं (स्थान)
७८६
स्थान ८: आमुख
जनदर्शन ने तत्त्ववाद के क्षेत्र में ही अनेकान्त का प्रयोग नहीं किया है; आचार और व्यवस्था के क्षेत्र में भी उसका प्रयोग किया है। साधना अकेले में हो सकती है या संघबद्धता में इस प्रश्न पर जैन आचार्यों ने सर्वांगीण दृष्टि से विचार किया। उन्होंने संघ को बहुत महत्त्व दिया। साधना करने वाला संघ में दीक्षित होकर ही विकास करता है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं कि वह अकेला रहकर साधना के उच्च शिखर पर पहुँच सके। किन्तु संघबद्धता साधना का एकमान विकल्प नहीं है । अकेलेपन में भी साधना की जा सकती है। किन्तु यह कठिनाइयों से भरा हुआ मार्ग है । अकेला रहकर वही साधना कर सकता है जिसे विशिष्ट योग्यता उपलब्ध हो। सूत्रकार ने एकाकी साधना की योग्यता के आठ मानदण्ड बतलाए हैं१ श्रद्धा
५ शक्ति २. सत्य
६ अकलहत्व ३ मेधा
७ धृति ४. बहुश्रुतत्व
८. वीर्यसम्पन्नता ये योग्यताऐं संघबद्धता में भी अपेक्षित हैं किन्तु एकाको साधना में इनकी अनिवार्यता है। संघबद्धता योग्यता के विकास के लिए है। उसका विकास हो जाए और साधक अकेले में साधना की अपेक्षा का अनुभव करे तो वह एकाकी विहार भी कर सकता है। इस प्रकार संघबद्धता और एकाको विहार दोनों को स्वीकृति देकर सूत्रकार ने यह प्रमाणित कर दिया कि आचार और व्यवस्था को अनेकान्त की कसौटी पर कस कर ही उनकी वास्तविकता को समझा जा सकता है।
१.८।१
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अट्ठमं ठाणं
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद एगल्लविहार-पडिमा-पदं एकलविहार-प्रतिमा-पदम् एकलविहार-प्रतिमा-पद १. अहिं ठाणेहि संपण्णे अणगारे अष्टभिः स्थानैः सम्पन्न: अनगारःअर्हति १. आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार 'एकल
अरिहति एगल्लविहारपडिम एकलविहारप्रतिमां उपसंपद्य विहर्तुम्, विहार प्रतिमा' को स्वीकार कर विहार उवसंपिज्जित्ता णं विहरित्तए, तं तद्यथा
कर सकता हैजहासडी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, श्रद्धी पुरुषजातः, सत्यः पुरुषजातः, १. श्रद्धावान् पुरुष, २. सत्यवादी पुरुष, मेहावी पुरिसजाते, मेधावी पुरुषजातः,
३. मेधावी पुरुष, ४. बहुश्रुत पुरुष, बहुस्सुते पुरिसजाते, बहुश्रुतः पुरुषजातः,
५. शक्तिमान् पुरुष, ६. अल्पाधिकरण सत्तिमं, अप्पाधिगरणे, शक्तिमान्, अल्पाधिकरणः,
पुरुष, ७. धृतिमान् पुरुष, ८. वीर्यसम्पन्न धितिमं, वीरियसंपण्णे। धृतिमान्, वीर्यसम्पन्नः ।
पुरुष। जोणिसंगह--पदं योनिसंग्रह-पदम्
योनिसंग्रह-पद २. अट्टविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं अष्टविधः योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- २. योनिसंग्रह' आठ प्रकार का है
जहाअंडगा, पोतगा, 'जराउजा, अण्डजाः, पोतजाः, जरायुजाः, रसजाः, १. अण्डज, २. पोतज, ३. जरायुज, रसजा, संसेयगा, संमुच्छिमा, संस्वेदजाः, सम्मूच्छिमाः, उद्भिज्जाः, ४. रसज, ५. संस्वेदज, ६. सम्मूच्छिम, उभिगा, उववातिया। औपपातिकाः।
७. उद्भिज्ज, ८. औपपातिक । गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम्
गति-आगति-पद ३. अंडगा अढगतिया अट्ठागतिआ अण्डजाः अष्टगतिका: अष्टागतिका: ३. अण्डज की आठ गति और आठ आगति पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्ता:, तद्यथा
होती हैअंडए अंडएसु उववज्जमाणे | अण्डजः अण्डजेषु उपपद्यमानः जो जीव अण्डज योनि में उत्पन्न होता है अंडएहितो वा, अण्डजेभ्यो वा,
वह अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, पोतएहितोबा, 'जराउजेहितो वा, पोतजेभ्यो वा, जरायुजेभ्यो वा, संस्वेदज, सम्मूच्छिम, उद्भिज्ज और रसहिंतो वा, संसेयरोहितो वा, रसजेभ्यो वा, संस्वेदजेभ्यो वा, औपपातिक-इन आठों यौनियों से संमुच्छिमेहितो वा, सम्मूच्छिमेभ्यो वा,
आता है। उभिएहितो वा,
उदभिज्जेभ्यो वा, उववातिएहितो वा उववज्जेज्जा। औपपातिकेभ्यो वा उपपद्येत ।
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स्थान ८:सूत्र ४-६
ठाणं (स्थान)
७८८ से चेव णं से अंडए अंडगत्तं विप्प- स चैव असौ अण्डज: अण्डजत्वं विप्रजहमाणे अंडगत्ताए वा, पोतगत्ताए जहत् अण्डजतया वा, पोतजतया वा, वा, 'जराउजत्ताए वा, रसजत्ताए जरायुजतया वा, रसजतया वा, वा, संसेयगत्ताए वा, संमुच्छिमत्ताए संस्वेदजतया वा, सम्मूच्छिमतया वा, वा,उब्भियत्ताएवा, उववातियत्ताए उद्भिज्जतया वा, औपपातिकतया वा वा गच्छेजा।
गच्छेत् । ४. एवं पोतगावि जराउजावि सेसाणं एवं पोतजा अपि जरायुजा अपि शेषाणां गतिरागति णत्थि।
गतिः आगतिः नास्ति।
जो जीव अण्डज योनि को छोड़कर दूसरी योनि में जाता है वह अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूच्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक-इन आठों योनियों में जाता है।
४. इसी प्रकार पोतज और जरायुज जीवों
की भी गति और आगति आठ प्रकार की होती है। शेष रसज आदि जीवों की गति और आगति आठ प्रकार की नहीं होती।
कम्म-बंध-पदं
कर्म-बन्ध-पदम् ५. जीवा णं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसु जीवा अष्ट कर्मप्रकृती: अचिन्वन् वा
वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा, तद्यथातं जहाणाणावरणिज्जं, दरिसणावरणिज्ज, ज्ञानावरणीयं,
दर्शनावरणीयं, वेयणिज्ज, मोहणिज्ज, आउयं, वेदनीयं, मोहनीयं, आयुः,
णाम, गोतं, अंतराइयं । नाम, गोत्रं, अन्तरायिकम् । ६. जेरइया णं अट्ठ कम्मपगडीओ नैरयिका अष्ट कर्मप्रकृती: अचिन्वन् चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा एवं चैव। वा एवं चेव।
कर्म-बन्ध-पद ५. जीवों ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय--इन आठ कर्म-प्रकृतियों का चय किया है, करते हैं और करेंगे।
७. एवं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं।
एवं निरन्तरं यावत् वैमानिकानाम्।
६. नैरकियों ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्म-प्रकृतियों
का चय किया है, करते हैं और करेंगे। ७. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डको
ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय किया है, करते हैं और करेंगे। ८. जीवों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय,
उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे। नैरयिक से वैमानिक तक के सभी दण्डकों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय, उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे।
८. जीवा णं अट्ठ कम्मपगडीओ उव- जीवा अष्ट कर्मप्रकृतीः उपाचिन्वन्
चिणिसु वा उवचिणंति वा उव- वा उपचिन्वन्ति वा उपचेष्यन्ति वा चिणिस्संति वा एवं चेव। एवं चैव। एवं_विण-उवचिण-बंध एवम्-चय-उपचय-बन्ध उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव। उदीर-वेदाः तथा निर्जरा चैव । एते छ चउवीसा दंडगा भाणियव्वा। एते षट् चतुर्विशति दण्डका भणितव्याः।
आलोयणा-पदं
आलोचना-पदम् ६. अहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु- अष्टभिः स्थानैः मायी मायां कृत्वा-
आलोचना-पद ६. आठ कारणों से मायावी माया करके
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स्थान ८: सूत्र १०
उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, ब्यावर्तन तथा विशुद्धि नहीं करता, 'फिर ऐसा नहीं करूंगा'-ऐसा नहीं कहता, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार नहीं करता१. मैंने अकरणीय कार्य किया है, २. मैं अकरणीय कार्य कर रहा हूं, ३. मैं अकरणीय कार्य करूंगा, ४. मेरी अकीर्ति होगी, ५. मेरा अवर्ण होगा, ६. मेरा अविनय होगा-पूजा सत्कार नहीं होगा, ७. मेरी कीर्ति कम हो जाएगी, ८. मेरा यश कम हो जाएगा।
ठाणं (स्थान)
७८६ णो आलोएज्जा, णो पडिक्कमेज्जा, नो आलोचयेत्, नो प्रतिक्रामेत्, । *णो णिदेज्जा, णो गरिहेज्जा, नो निन्देत्, नो गर्हेत, । णो विउद्देज्जा, णो विसोहेज्जा, नो व्यावर्तेत, नो विशोधयेत्, णो अकरणयाए अन्भटुज्जा, नो अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, णो अहारिहं पायच्छित्तंतवोकम्मं नो यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म पडिवज्जेज्जा, तं जहा- प्रतिपद्येत, तद्यथाकरिसु वाहं, करेमि वाहं, अकार्ष वाहं, करोमि वाहं, करिस्सामि वाहं,
करिष्यामि वाह, अकित्ती वा मे सिया, अकीतिः वा मे स्यात्, अवण्णे वा मे सिया,
अवर्णो वा मे स्यात्, अविणए वा मे सिया, अविनयो वा मे स्यात, कित्ती वा मे परिहाइस्सइ, कीतिः वा मे परिहास्यति,
जसे वा मे परिहाइस्सइ। यशो वा मे परिहास्यति। १०. अहि ठाणेहि मायी मायं कट- अष्टभिः स्थानः मायी मायां कृत्वा
आलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, आलोचयेत, प्रतिक्रामेत. निन्देत. णिदेज्जा, गरिहेज्जा, विउट्टेज्जा, गहेंत, व्यावर्तेत, विशोधयेत्, विसोहेज्जा, अकरणयाए अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, अन्भुट्ठज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्येत, पडिवज्जेज्जा, तं जहा
तद्यथा१. मायिस्स णंअस्सि लोए गरहिते १. मायिनः अयं लोकः गहितो भवति । भवति। २. उववाए गरहिते भवति। २. उपपातः गहितो भवति । ३. आयाती गरहिता भवति। ३. आजातिः गहिता भवति। ४. एगमवि मायी मायं कटट. ४. एकामपि मायी मायां कृत्वाणोआलोएज्जा, णो पडिक्कमेज्जा, नो आलोचयेत्, नो प्रतिक्रामेत्, । णो णिदेज्जा, णो गरिहेज्जा, नो निन्देत्, नो गहेत, णो विउद्देज्जा, णो विसोहेज्जा, नो व्यावर्तेत, नो विशोधयेत्, णो अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा, नो अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं नो यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म पडिवज्जेजा,
प्रतिपद्येत, णत्थि तस्स आराहणा।
नास्ति तस्य आराधना। ५. एगमवि मायो मायं कट्ट - ५. एकामपि मायो मायां कृत्वा.. आलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, आलोचयेत्, प्रतिक्रामेत्, निन्देत्,
उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, 'फिर ऐसा नहीं करूंगा'—ऐसा कहता है, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करता है
१. मायावीं का इहलोक गहित होता है,
२. उपपात गहित होता है, ३. आजाति-जन्म गहित होता है, ४. जो मायावी एक भी माया का आचरण कर उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि नहीं करता, 'फिर ऐसा नहीं करूंगा'—ऐसा नहीं कहता, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार नहीं करता उसके आराधना नहीं होती।
५. जो मायावी एक भी माया का आचरण कर उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण,
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स्थान ८: सूत्र १०
निन्दा, गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, फिर से ऐसा नहीं करूंगा'-- ऐसा कहता है, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती है।
ठाणं (स्थान)
७६० णिदेज्जा, गरिहेज्जा, विउद्देज्जा, गर्हेत, व्यावर्तेत, विशोधयेत्, विसोहेज्जा, अकरणायाए अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, अब्भुज्जा,
यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्यत, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा, अस्थि तस्स आराहणा। अस्ति तस्य आराधना। ६. बहुओवि मायी मायं कटु- ६. बह्वीमपि मायी मायां कृत्वाणो आलोएज्जा,
नो आलोचयेत्, •णो पडिक्कमेज्जा,
नो प्रतिक्रामेत्, णो णिदेज्जा, णो गरिहेज्जा, नो निन्देत्, नो गर्हेत, णो विउट्टे ज्जा, णो विसोहेज्जा, नो व्यावर्तेत, नो विशोधयेत्, णो अकरणाए अब्भुट्ठज्जा, नो अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म० नो यथाई प्रायश्चित्तं तपःकर्म पडिवज्जेज्जा,
प्रतिपद्येत, णत्थि तस्स आराहणा। नास्ति तस्य आराधना। ७. बहुओवि मायी मायं कटु- ७. बह्वीमपि मायी मायां कृत्वाआलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, आलोचयेत्, प्रतिक्रामेत्, निन्देत्, । णिदेज्जा, गरिहेज्जा, गहेत, व्यावर्तेत, विशोधयेत्, विउद्देज्जा, विसोहेज्जा, अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्येत, पडिवज्जेज्जा, अस्थि तस्स आराहणा। अस्ति तस्य आराधना। ८. आयरिय-उवज्झायस्स वा मे ८. आचार्य-उपाध्यायस्य वा मे अतिशेष अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जेज्जा, ज्ञानदर्शनं समुत्पद्येत, स च मां से य मममालोएज्जा मायी णं आलोकयेत मायी एषः ।
६. जो मायावी बहुत माया का आचरण कर उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि नहीं करता, 'फिर ऐसा नहीं करूंगा'—ऐसा नहीं कहता, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार नहीं करता, उसके आराधना नहीं होती।
७. जो मायावी बहुत माया का आचरण कर उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, 'फिर से ऐसा नहीं करूंगा'—ऐसा कहता है, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती
एसे।
मायो णं मायं कटु से जहाणामए- मायी मायां कृत्वा स यथानामकःअयागरेति वा तंबागरेति वा अयआकरः इति वा ताम्राकर: इति वा तउआगरेति वा सीसागरेति वा त्रपुआकर: इति वा शीशाकरः इति वा रुप्पागरेति वा सुवण्णागरेति वा रूप्याकरः इति वा सुवर्णाकरः इति वा तिलागणीति वा तुसागणीति वा तिलाग्निरिति वा तुषाग्निरिति वा बुसागणीति वा णलागणीति वा बुसाग्निरिति वा नलाग्निरिति वा दलागणीति वा सोंडियालिछाणि दलाग्निरिति वा शुण्डिकालिञ्छाणि वा
८. मेरे आचार्य या उपाध्याय को अतिशायी ज्ञान और दर्शन प्राप्त होने पर कहीं ऐसा जान न लें कि 'यह मायावी है।' अकरणीय कार्य करने के बाद मायावी उसी प्रकार अन्दर ही अन्दर जलता है, जैसेलोहे को गालने की भट्टी, ताम्बे को गालने की भट्टी, वपु को गालने की भट्टी, शीशे को गालने की भट्टी, चांदी को गालने की भट्टी, सोने को जलाने की भट्टी, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि,
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स्थान ८: सूत्र १०
भूसे की अग्नि, नलाग्नि-नरकट की अग्नि, पत्तों की अग्नि, सुण्डिका का चूल्हा', भण्डिका का चूल्हा, गोलिका का चूल्हा', घड़ों का कजावा, खपरैलों का कजावा, ईंटों का कजावा, गुड़ बनाने की भट्टी, लोहकार, की भट्टीतपती हुई, अग्निमय होती हुई, किंशुकफूल के समान लाल होती हुई, सहस्रों उल्काओं और सहस्रों ज्वालाओं को छोड़ती हुई, सहस्रों अग्निकणों को फेंकती हुई, अन्दर ही अन्दर जलती है, इसी प्रकार मायावी माया करके अन्दर ही अन्दर जलता है।
ठाणं (स्थान)
७६१ वा भंडियालिछाणि वा गोलिया- भण्डिकालिञ्छाणि वा गोलिकालिञ्छाणि लिछाणि वा कुंभारावाएति वा वा कुम्भकारापाकः इति वा कवेल्लुआवाएति वा इट्टावाएति कवेल्लुकापाकः इति वा इष्टापाकः इति वा जंतवाडचुल्लीति वा लोहारं वा यंत्रपाटचुल्लीति वा लोहका राम्बरीषा बरिसाणि वा।
वा। तत्ताणि समजोतिभूताणि किसुक- तप्तानि समज्योतिर्भूतानि किंशुकपुष्पफुल्लसमाणाणि उक्कासहस्साई समानानि उल्कासहस्राणि विनिर्मुञ्चन्ति विणिम्मयमाणाई विणिम्मुयमा- विनिर्मुञ्चन्ति, ज्वालासहस्राणि णाई, जालासहस्साइं पहुंचमाणाई प्रमुञ्चन्ति-प्रमुञ्चन्ति, अङ्गारसहस्राणि पमुंचमाणाई, इंगालसहस्साई प्रविकिरन्ति-प्रविकिरन्ति, अन्तरन्तः पविक्खिरमाणाई-पविक्खिरमाणाई, ध्मायन्ति, एवमेव मायी मायां कृत्वा अंतो-अंतो झियायंति, एवामेव अन्तरन्त: मायति । मायी मायं कटु अंतो-अंतो भियाइ। जंवि य णं अण्णे केइ वदंति तंपि यद्यपि च अन्ये केपि वदन्ति तमपि च यणं मायी जाणति अहमेसे अभि- मायी जानाति अहमेषोऽभिशङक्येसंकिज्जामि-अभिसंकिज्जामि। अभिशये । मायी णं मायं कटु अणालोइय- मायी मायां कृत्वा अनालोचिताप्रतिपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा क्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए देवलोकेषु देवतया उपपत्ता भवति, उववत्तारो भवंति, तं जहा- तद्यथाणो महिडिएसु णो महज्जुइएसु नो महद्धिकेषु, नो महाद्युतिकेषु, णो महाणुभागेसु णो महायसेसु नो महानुभागेसु, नो महायशस्सु, णो महाबलेसु णो महासोक्खेसु० नो महाबलेषु, नो महासौख्येषु, णो दुरंगतिएसु, णो चिरहितिएसु। नो दूरंगतिकेषु, नो चिरस्थितिकेषु । से णं तत्थ देवे भवति णो महिड्डिए स तत्र देवः भवति नो महद्धिकः •णो महज्जुइए णो महाणुभागे नो महाद्युतिक: नो महानुभागः नो महाणो महायसे णो महाबले णो महा- यशा: नो महाबल: नो महासौख्यः सोक्खे णो दुरंगतिए णो नो दूरंगतिकः नो चिरस्थितिकः । चिरदितिए। जावि य से तत्थ बाहिरभंतरिया यापि च तस्य तत्र बाह्याभ्यन्तरिका परिसा भवति, सावि य णं णो परिषद् भवति, साऽपि च नो आद्रियते आढाति णो परिजाणाति णो नो परिजानाति नो महार्हेन आसनेन महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, उपनिमन्त्रयते, भाषामपि च तस्य भाष
यदि कोई आपस में बात करते हैं तो मायावी समझता है कि 'ये मेरे बारे में ही शंका करते हैं।' कोई मायावी माया करके उसकी आलोचना या प्रतिक्रमण किए बिना ही मरणकाल में मरकर किसी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होता है। किन्तु वह महान् ऋद्धिवाले, महान् द्युतिवाले, वैक्रियादि शक्ति से युक्त, महान् यशस्वी, महान् बलवाले, महान् सौख्यवाले, ऊंची गति वाले और लम्बी स्थिति वाले देवों में उत्पन्न नहीं होता। वह देव होता है किन्तु महान् ऋद्धिवाला, महान् द्युतिवाला, वैक्रिय आदि शक्ति से युक्त, महान् यशस्वी, महान् बलवाला, महान् सौख्यवाला ऊंची गति वाला और लम्बी स्थिति वाला देव नहीं होता।
वहां देवलोक में उसके बाह्य और आभ्यन्तर परिषद्' होती है। परन्तु इन दोनों परिषदों के सदस्य न उसको आदर देते हैं, न उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं और न महान व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमन्त्रित करते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
भासंपिय से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा अणुत्ता चेव अतिमा बहुं देवे ! भासउ
भासउ ।
ततो देवलगाओ आउक्खएणं भवक्खणं ठितिक्खएणं अनंतरं चयं चत्ता इहेव माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति तं जहा—
अंतकुलाणि वा पंतकुलाणि वा तुच्छकुलाणि वा दरिद्दकुलाणि वा भिक्खाकुलाणि वा विणकुलाणि वा, तहपगारे कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति ।
सेणं तत्थ मे भवति दुवे दुवण्णे गंधे से फासे अणि अकंते अपि अमणे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिट्टस्सरे अकंतस्सरे अपियस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणाज्जवयणे पच्चायाते ।
जावि य से तत्थ बाहिरब्भतरिया परिसा भवति, सावि य णं णो आढाति णो परिजानाति णो महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अणुत्ता चैव अट्ठतिमा बहुं अज्जउत्तो !
भासउ भासउ ।
मायी गं मायं कट्टु आलोचित पक्कि कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति तं जहा
७६२
माणस्य यावत् चत्वारः पञ्च देवाः अनुक्ताश्चैव अभ्युत्तिष्ठन्तिमा बहु देवः भाषतां भाषताम् ।
स ततः देवलोकात् आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा इहैव मानुष्यके भवेयानि इमान कुलानि भवन्ति, तद्यथा—
अन्तकुलानि वा प्रान्त कुलानि वा तुच्छकुलानि वा दरिद्रकुलानि वा भिक्षाककुलानि वा कृपणकुलानि वा तथाप्रकारेषु कुलेषु पुंस्त्वेन प्रत्यायाति ।
स तत्र पुमान् भवति दुरूपः दुर्वर्णः दुर्गन्धः दूरसः दुःस्पर्शः अनिष्टः अकान्तः अप्रियः अमनोज्ञः अमनआपः हीनस्वरः दीनस्वरः अनिष्टस्वरः अकान्तस्वरः अप्रियस्वरः अमनोज्ञस्वर: अमन आपस्वरः अनादेयवचनः प्रत्याजातः ।
यापि च तस्य तत्र बाह्याभ्यन्तरिका परिषद् भवति, सापि च नो आद्रियते तो परिजानाति नो महार्हेन आसनन उपनिमन्त्रयते, भाषामपि च तस्य भाषमाणस्य यावत् चत्वारः पञ्च जना:
अनुक्ताः चैव अभ्युत्तिष्ठन्ति मा बहु आर्यपुत्र ! भाषतां भाषताम् ।
मायी मायां कृत्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्ता भवति, तद्यथा—
स्थान ८: सूत्र १०
जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तब चार-पांच देव बिना कहे ही खड़े होते हैं। और कहते हैं - 'देव ! अधिक मत बोलो, अधिक मत बोलो।'
वह देव आयु, भव और स्थिति के क्षय होने के अनन्तर ही देवलोक से च्युत होकर इसी मनुष्य भव में अन्तकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, भिक्षाककुल, कृपणकुल तथा इसी प्रकार के कुलों में मनुष्य के रूप उत्पन्न होता है ।
वहां वह कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध, अनिष्ट रस और कठोर स्पर्श वाला होता है। वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज और
के लिए अगम्य होता है। वह हीनस्वर, दीनस्वर, अनिष्टस्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञस्वर, अरुचिकरस्वर, और अनादेय वचन वाला होता है।
वहां उसके बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है । परन्तु इन दोनों परिषद् के सदस्य न उसको आदर देते हैं. न उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं, न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमन्त्रित करते हैं। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तब चार-पांच मनुष्य बिना कहे ही खड़े होते हैं और कहते हैं - आर्यपुत्र ! अधिक मत बोलो, अधिक मत बोलो।'
मायावी माया करके उसकी आलोचनाप्रतिक्रमण कर मरणकाल में मृत्यु को पाकर किसी एक देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होता है । वह महान ऋद्धि वाले, महान् द्यति वाले, वैकिय आदि शक्ति से युक्त, महान् यशस्वी, महान् बल वाले, महान् सौख्य वाले, ऊंची गति वाले और लम्बी स्थिति वाले देवों में उत्पन्न होता है।
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स्थान ८ : सूत्र १०
ठाणं (स्थान)
७६३ महिड्डिएसु •महज्जुइएसु महाणु- महद्धिकेषु महाद्युतिकेषु महानुभागेषु भागेसु महायसेसु महाबलेसु महा- महायशस्सु महाबलेषु महासौख्येषु सोक्खेसु दूरंगतिएसु' चिरट्ठि- दूरंगतिकेषु चिरस्थितिकेषु । तिएस। से णं तत्थ देवे भवति महिट्टिए स तत्र देवो भवति महद्धिक: •महज्जुइए महाणुभागे महायसे महाद्युतिक: महानुभाग: महायशाः महाबले महासोक्खे दुरंगतिए• महाबल: महासौख्यः दूरंगतिक: चिरचिरहितिए हारविराइयवच्छे स्थितिक: हारविराजितवक्षाः कटककडक-तुडितथंभितभूए अंगद- त्रुटितस्तंभितभुजः अङ्गद-कुण्डल-मृष्टकुंडल मढगंडतलकण्णपीढधारी गण्डतलकर्णपीठधारी विचित्रहस्ताविचित्तहत्याभरणे विचित्त- भरणः विचित्रवस्त्राभरणः विचित्रवत्थाभरणे विचित्तमाला- मालामौलिः कल्याणकप्रवरवस्त्रमउली कल्लाणगपवरवत्थ- परिहितः कल्याणकप्रवरगन्धपरिहिते कल्लाणगपवर-गंध माल्यानुलेपनधरः भास्वरबोन्दी प्रलम्बमल्लाणु लेवणधरे भासुरबोंदी वनमालाधर: दिव्येन वर्णन दिव्येन पलंबवणमालधरे दिव्वेणं वण्णेणं गन्धेन दिव्येन रसेन दिव्येन स्पर्शन दिव्वेणं गंधणं दिव्वेणं रसेणं दिव्येन संघातेन दिव्येन संस्थानेन दिव्यया दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघातेणं ऋद्धया दिव्यया द्युत्या दिव्यया प्रभया दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्यया छायया दिव्यया अच्चिषा दिव्येन दिव्वाए जुईए दिव्वाए पभाए तेजसा दिव्यया लेश्यया दश दिशः दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए उद्योतयमानः प्रभासयमानः महताऽऽहतदिवेणं तेएणं दिव्वाए लेस्साए दस नृत्य-गीत-वादित-तन्त्री-तल-ताल-तूर्यदिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे घन-मृदङ्ग-पटुप्रवादित-रवेण दिव्यान् महयाहत-गट्ट-गीत-वादित-तंती- भोगभोगान् भुजानः विहरति । तल-ताल-तुडित-घणमुइंग-पडुप्पवादितरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। जावि य से तत्थ बाहिरभंतरिया यावि च तस्य तत्र बाह्याभ्यन्तरिका परिसा भवति, सावि य णं आढाइ परिषद् भवति, सापि च आद्रियते परिजाणाति महरिहेणं आसणेणं परिजानाति महान आसनेन उवणिमंतेति, भासंपि य से भास- उपनिमन्त्रयते, भाषामपि च तस्य भाषमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा माणस्य यावत् चत्वारः पञ्च देवा अणुत्ता चेव अब्भुटुंति—बहुं देवे ! अनुक्ताश्चैव अभ्युत्तिष्ठन्ति-बहु देव ! भासउ-भासउ।
भाषतां-भाषताम्।
वह महान् ऋद्धिवाला, महान् द्युतिवाला, वैक्रिय आदि शक्ति से युक्त, महान् यशस्वी, महान् बल वाला, महान् सौख्य वाला, ऊंची गति वाला और लम्बी स्थिति वाला देव होता है। उसका वक्ष हार से शोभित होता है। वह भुजा में कड़े, त्रुटित और अंगद [बाजूबन्द] पहने हुए होता है। उसके कानों में लोल तथा कपोल तक कानों को घिसते हुए कुण्डल होते हैं। उसके हाथ में नाना प्रकार के आभूषण होते हैं। वह विचिन वस्त्राभरणों, विचित्र मालाओं व सेहरों, मंगल व प्रवर वस्त्रों को पहने हुए होता है। वह मंगल और प्रबर सुगन्धित पुष्प तथा विलेपन को धारण किए हुए होता है। उसका शरीर तेजस्वी होता है। वह प्रलम्ब वनमाला [आभूषण] को धारण किए हुए होता है। वह दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श, दिव्य संघात [शरीर की बनावट], दिव्य संस्थान [शरीर की आकृति ] और दिव्य ऋद्धि से युक्त होता है। वह दिव्यधुति" दिव्यप्रभा, दिव्यछाया, दिव्यअचिं, दिव्यतेज
और दिव्यलेश्या२ से दशों दिशाओं को उद्योतित करता है, प्रभासित करता है। वह आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए हुए वादिन, तन्त्री, तल, ताल, त्रुटित, धन और मृदङ्ग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगों को भोगता हुआ रहता है।
उसके बाह्य और आभ्यन्तर दो परिषदें होती हैं। दोनों परिषदों के सदस्य उसका आदर करते हैं, उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं और उसे महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते हैं। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तब चार-पांच देव बिना कहे ही खड़े होते हैं और कहते हैं-'देव ! और अधिक बोलो, और अधिक बोलो।'
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स्थान ८: सूत्र ११
वह देव आयु, भव, और स्थिति के क्षय होने के अनन्तर ही देवलोक से च्युत होकर इसी मनुष्य भव में आढ्य, दीप्त तथा विस्तीर्ण और विपुल भवन, शयन, आसन, यान और वाहन वाले, बहुधनबहुस्वर्ण तथा चांदी वाले, आयोग और प्रयोग [ऋण देने] में संप्रयुक्त, प्रचुर भक्त-पान का संग्रह रखने वाले, अनेक दासी-दास, गाय-भैंस, भेड़ आदि रखने वाले और बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित--ऐसे कुलों में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है।
ठाणं (स्थान)
७६४ से गं ताओ देवलोगाओ स ततः देवलोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण आउक्खएणं 'भवक्खएणं ठिति- स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा इहैव । क्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव मानुष्यके भवे यानि इमानि कुलानि माणुस्सए भवे जाइं इमाइं कुलाइं भवन्ति--आढ्यानि दीप्तानि विस्तीर्णभवंति—अड्डाई 'दित्ताइं विपुल-भवन-शयनासन-यान-वाहनानि विच्छिण्णविउल-भवण-सयणासण- बहधन-बहुजातरूप-रजतानि आयोगजाण-वाहणाई बहुधण-बहुजायरूव- प्रयोग-संप्रयुक्तानि विच्छद्दित-प्रचुररययाइं आओग-पओग-संपउत्ताई- भक्तपानानि बहुदासी-दास-गो-महिषविच्छड्डियं-पउर-भत्तपाणाई बहु- गवेलक-प्रभूतानि बहुजनस्य अपरिदासी-दास-गो-महिस-गवेलय- भूतानि, तथाप्रकारेषु कुलेषु पुंस्त्वेन प्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूताई, प्रत्यायाति । तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति। से णं तत्थ पुमे भवति सुरूवे सुवण्णे स तत्र पुमान् भवति सुरूपः सुवर्णः सुगंधे सुरसे सुफासे इ8 कते 'पिए सुगन्धः सुरसः सुस्पर्शः इष्टः कान्तः प्रियः मणुणे मणामे अहीणस्सरे मनोज्ञः मनआपः अहीनस्वरः अदीनस्वरः 'अदीणस्सरे इट्ठस्सरे कंतस्सरे इष्टस्वरः कान्तस्वरः प्रियस्वरः मनोज्ञपियस्सरे मणुण्णस्सरे मणामस्सरे स्वरः मनआपस्वरः आदेयवचनः आदेज्जवयणे पच्चायाते। प्रत्याजातः । जाविय से तत्थ बाहिरब्भंतरिया यापि च तस्य तत्र बाह्याभ्यन्तरिका परिसा भवति, सावि यणंआढाति परिषद् भवति, सापि च आद्रियते परिजाणाति महरिहेणं आसणेणं परिजानाति महार्हेन आसनेन उवणिमंतेति, भासंपि य से भास- उपनिमन्त्रयते, भाषामपि तस्य स भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा माणस्य यावत चत्वारः पञ्च जनाः अणुत्ता चेव अब्भुटुंति बहुं अनुक्ताश्चैव अभ्युत्तिष्ठन्ति—बहु आर्यअज्जउत्ते! भासउ-भासउ। पुत्र ! भाषतां-भाषताम् ।
वहां वह सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस और सुस्पर्श वाला होता है। वह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मन के लिए गम्य होता है। वह अहीन स्वर, अदीन स्वर, इष्ट स्वर, कांत स्वर, प्रिय स्वर, मनोज्ञ स्वर, रुचिकर स्वर और आदेय वचन वाला होता है। वहां उसके बाह्य और आभ्यन्तर दो परिषदें होती हैं। दोनों परिषदों के सदस्य उसका आदर करते हैं, उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं और उसे महान व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमत्रित करते हैं । जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तब चार-पांच मनुष्य बिना कहे ही खड़े होते हैं और कहते हैं-'आर्यपुत्र ! और अधिक बोलो, और अधिक बोलो।'
संवर-असंवर-पदं
संवर-असंवर-पदम् ११. अट्टविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा- अष्टविधः संवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
सोइंदियसंवरे, 'चक्खिदियसंवरे, श्रोनेन्द्रियसंवरः, चक्षुरिन्द्रियसंवरः, घाणिदियसंवरे, जिभिदियसंवरे, घ्राणेन्द्रियसंवरः, जिह्वन्द्रियसंवरः, फार्सािदयसंवरे, मणसंवरे, स्पर्शेन्द्रियसंवरः, मनःसंवरः, वइसंवरे, कायसंवरे । वाक्संवरः, कायसंवरः।
संवर-असंवर-पद ११. संवर आठ प्रकार का होता है
१. श्रोत्रेन्द्रिय संवर, २. चक्षुइन्द्रिय संवर, ३. घ्राणइन्द्रिय संवर, ४. जिह्वाइन्द्रिय संवर, ५. स्पर्शइन्द्रिय संवर, ६. मन संवर, ७. वचन संवर, ८. काय संवर।
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ठाणं (स्थान)
७६५
१२. अट्ठविहे असंवरे पण्णत्ते, तं जहा— अष्टविधः असंवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
सोति दियअसंवरे,
• चक्ख दियअसंवरे, घाणिदियअसंवरे,
जिfor दियअसंवरे,
फासि दियअसंवरे, मणअसंवरे,
वइअसंवरे,
काय असंवरे ।
फास-पदं
१३. अटू फासा पण्णत्ता, तं जहा कक्खडे, मउए, गरुए, लहुए, सीते, उस द्धेि, लुक् ।
श्रोत्रेन्द्रियासंवरः, चक्षुरिन्द्रियासंवरः, घ्राणेन्द्रियासंवरः जिह्व े न्द्रियासंवरः, स्पर्शेन्द्रियासंवरः,
मनोऽसंवरः,
वागसंवरः, कायासंवरः ।
लोकस्थिति-पदम्
लोगट्टिति-पदं १४. अटूविधा लोगट्टिती पण्णत्ता, तं अष्टविधा लोकस्थितिः
तद्यथा—
जहा - आगासपतिट्ठिते वाते, वातपतिद्विते उदही, उदधिपतिट्ठिता पुढवी, पुढविपतिट्ठिता तसाथावरा पाणा, अजीवा जीवपतिट्ठिता, जीवा कम्मपतिट्ठिता, अजीवा जीवसंगहीता, जीवा कम्मसंगहिता ।
आकाशप्रतिष्ठितो वातः, वातप्रतिष्ठितः उदधि, उदधिप्रतिष्ठिता पृथ्वी, पृथ्वीप्रतिष्ठिता त्रसाः स्थावराः प्राणाः, अजीवाः जीवप्रतिष्ठिताः, जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः, अजीवाः जीवसंगृहीताः, जीवाः कर्मसंगृहीताः ।
जहा -
आचारसंपया, सुयसंपया, सरीरसंपया, वयणसंपया, वायणासंपया, मतिसंपया, पओगसंपया, संगहपरिण्णा णाम अट्ठमा ।
स्पर्श-पदम्
अष्ट स्पर्शाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाकर्कशः, मृदुकः, गुरुकः, लघुकः, शीतः, उष्णः, स्निग्धः, रूक्षः ।
गणि संपया-पदं
गणि संपत्-पदम्
१५. अट्ठविहा गणिसंपया पण्णत्ता, तं अष्टविधा गणिसंपत् प्रज्ञप्ता, तद्यथा—
प्रज्ञप्ता,
आचारसम्पत्, श्रुतसम्पत्, शरीरसम्पत्, वचनसम्पत्, वाचनासम्पत्, मतिसम्पत्, प्रयोगसम्पत्, संग्रहपरिज्ञा नाम अष्टमी ।
स्थान ८ : सूत्र १२-१५
१२. असंबर आठ प्रकार का होता है१. श्रोत्रेन्द्रिय असंवर,
२. चक्षुइन्द्रिय असंवर,
३. प्राणइन्द्रिय असंवर,
४. जिह्वाइन्द्रिय असंवर,
५. स्पर्श इन्द्रिय असंवर,
६. मन असंवर, ७. वचन असंवर,
८. काय असंवर ।
स्पर्श-पद
१३. स्पर्श आठ प्रकार का होता है
१. कर्कश, २. मृदु, ३. गुरु, ४. लघु,
५. शीत, ६. उष्ण, ७. स्निग्ध, ८. रूक्ष ।
लोकस्थिति-पद
१४. लोकस्थिति आठ प्रकार की होती है"
१. वायु आकाश पर टिका हुआ है, २. समुद्र वायु पर टिका हुआ है, ३. पृथ्वी समुद्र पर टिकी हुई है, ४. वस स्थावर प्राणी पृथ्वी पर टिके हुए हैं,
५. अजीव जीव पर आधारित हैं,
६. जीव कर्म पर आधारित हैं,
७. अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं, ८. जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं।
गणि संपत्-पद
१५. गणिसम्पदा" आठ प्रकार की होती है
१. आचार-सम्पदा - संयम की समृद्धि, २. श्रुत-सम्पदा श्रुत की समृद्धि, ३. शरीर-सम्पदा - शरीर सौंदर्य, ४. वचन- सम्पदा – वचन कौशल, ५. वाचना-सम्पदा --अध्यापन- पटुता, ६. मति - सम्पदा - बुद्धि-कौशल,
७. प्रयोग. सम्पदा - वाद - कौशल,
८.
. संग्रह - परिज्ञा-संघ - व्यवस्था में
निपुणता ।
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ठाणं (स्थान)
७६६
स्थान ८ : सूत्र १६-१८
महाणिहि-पदं महानिधि-पदम्
महानिधि-पद १६. एगमेगे णं महाणिही अट्टचक्क- एककः महानिधिः अष्टचक्रवालप्रतिष्ठानः १६. प्रत्येक महानिधि आठ-आठ पहियों पर
वालपतिट्टाणे अट्ठजोयणाई उड्ड अष्टाष्टयोजनानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन आधारित है और आठ-आठ योजन ऊंचा उच्चत्तणं पण्णत्ते।
प्रज्ञप्तः।
समिति-पदं समिति-पदम्
समिति-पद १७. अट्ठ समितीओ पण्णत्ताओ, तं अष्ट समितयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७. समितियां आठ हैं
जहाइरियासमिती, भासासमिती, ईर्यासमितिः, भाषासमितिः,
१. ईर्यासमिति, २. भाषासमिति, एसणासमिती, आयाणभंड-मत्त- एषणासमितिः, आदानभण्ड-अमत्र
३. एषणासमिति, ४. आदान-भांडणिक्खेवणासमिती, उच्चार- निक्षेपणासमितिः, उच्चार
अमत्र-निक्षेपणासमिति,
५. उच्चार-प्रस्रवण-क्ष्वेल-सिंघाणपासवण-खेल-सिंघाण जल्ल-परि- प्रस्रवण-क्ष्वेल, सिङ्घाण, जल्लठावणियासमिती, मणसमिती, पारिष्ठापनिकासमिति, मनःसमितिः,
जल्ल-परिष्ठापनासमिति, वइसमिती, कायसमिती। वाकसमितिः, कायसमितिः ।
६. मनसमिति, ७. वचनसमिति,
८. कायसमिति। आलोयणा-पदं आलोचना-पदम्
आलोचना-पद १८. अहि ठाणेहि संपण्णे अणगारे अष्टभिः स्थानः सम्पन्नः अनगार: अर्हति १८. आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोअरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, आलोचनां प्रत्येषितुम्, तद्यथा
चना देने के योग्य होता है
१. आचारवान्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तं जहा
तप और वीर्य-इन पांच आचारों से आयारवं, आधारवं, ववहारवं, आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्,
युक्त।
२. आधारवान्-आलोचना लेने वाले के ओवीलए, पकुव्वए, अपरिस्साई, अपवीडकः, प्रकारी, अपरिश्रावी, द्वारा आलोच्यमान समस्त अतिचारों को णिज्जावए, अवायदंसी। निर्यापकः, अपायदर्शी।
जानने वाला, ३. व्यवहारवान् -आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत--इन पांच व्यवहारों को जानने वाला। ४. अपनीडक आलोचना करने वाले व्यक्ति में, वह लाज या संकोच से मुक्त होकर सम्यक आलोचना कर सके वैसा, साहस उत्पन्न करने वाला। ५. प्रकारी-आलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला। ६. अपरिश्रावी-आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरे के सामने प्रकट न करने वाला। ७. निर्यापक-बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके-ऐसा सहयोग देने वाला। ८. अपायदर्शी-प्रायश्चित्त-भङ्ग से तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला।
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ठाणं (स्थान)
७६७
स्थान ८ : सूत्र १६-२२ १६. अहि ठाहिं संपण्णे अणगारे अष्टभिः स्थानः सम्पन्नः अनगारः अर्हति १६. आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार अपने
अरिहति अत्तदोसमालोइत्तए, तं आत्मदोषं आलोचयितुम्, तद्यथा- दोषों की आलोचना करने के लिए योग्य जहा
होता है-- जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, विणय- जातिसम्पन्नः, कुलसम्पन्नः, विनय- १. जाति सम्पन्न, २. कुल सम्पन्न, संपण्णे, णाणसंपण्णे, सणसंपण्ण, सम्पन्नः, ज्ञानसम्पन्नः, दर्शनसम्पन्नः, ३. विनय सम्पन्न, ४. ज्ञान सम्पन्न, चरित्तसंपण्णे, खते, दंते। चरित्रसम्पन्न:, क्षान्तः, दान्तः ।
५. दर्शन सम्पन्न, ६. चरित्र सम्पन्न, ७. क्षान्त, ६. दान्त।
पायच्छित्त-पदं प्रायश्चित्त-पदम्
प्रायश्चित्त-पद २०. अट्टविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं अष्टविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम, २०. प्रायश्चित्त आठ प्रकार का होता है
१. आलोचना के योग्य, जहातद्यथा
२. प्रतिक्रमण के योग्य, आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, आलोचनाह, प्रतिक्रमणाह,
३. आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों के तदुभयारिहे, विवेगारिहे, तदुभयाई, विवेकाह, व्युत्सर्गाह, योग्य, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे, तपोर्ह, छेदार्ह, मूलाहम्।
४. विवेक के योग्य, मूलारिहे।
५. व्युत्सर्ग के योग्य, ६. तप के योग्य,
७. छेद के योग्य, ८. मूल के योग्य । मट्ठाण-पदं मदस्थान-पदम्
मदस्थान-पद २१. अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा- अष्ट मदस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २१. मद" के स्थान आठ हैं --- जातिमए, कुलमए, बलमए, जातिमदः, कुलमदः, बलमदः,
१. जातिमद, २. कुलमद, ३. बलमद, रूवमए, तवमए,सुतमए, लाभमए, रूपमदः, तपोमदः, श्रुतमदः, लाभमदः,
४. रूपमद, ५. तपोमद, ६. श्रुतमद, इस्सरियमए। ऐश्वर्यमदः ।
७. लाभमद, ८. ऐश्वर्यमद।
अकिरियावादि-पदं अक्रियावादि-पदम्
अक्रियावादि-पद २२. अट्ट अकिरियावाई पण्णत्ता, तं जहा- अष्ट अक्रियावादिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २२. अक्रियावादी" आठ हैंएगावाई, अणेगावाई, मितवाई, एकवादी, अनेकवादी, मितवादी,
१. एकवादी-एक ही तत्त्व को स्वीकार
करने वाले, २. अनेकवादी--धर्म और णिम्मितवाई, सायवाई, निर्मितवादी, सातवादी, समुच्छेदवादी,
धर्मी को सर्वथा भिन्न मानने वाले अथवा समुच्छेदवाई, णितावाई, णसंतपर- नित्यवादी, असत्परलोकवादी । सकल पदार्थों को विलक्षण मानने
वाले, एकत्व को सर्वथा अस्वीकार लोगवाई।
करने वाले, ३. मितवादी-जीवों को परिमित मानने वाले, ४. निमितवादीईश्वरकर्तृत्ववादी, ५. सातवादी–सुख से ही सुख की प्राप्ति मानने वाले, सुखवादी, ६. समुच्छेदवादी-क्षणिकवादी। ७. नित्यवादी-लोक को एकान्त मानने वाले, ८. असत्परलोकवादीपरलोक में विश्वास न करने वाले।
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ठाणं (स्थान)
महानिमित्त-पदं
२३. अटूविहे : महाणिमित्तं पण्णत्ते, तं अष्टविधं
महानिमित्तं प्रज्ञप्तम्,
तद्यथा—
भौमं उत्पातं, स्वप्नं, अन्तरिक्षं, अङ्ग, स्वरं, लक्षणं, व्यञ्जनम् ।
जहा -
भो, उप्पाते, सुविणे, अंत लिक्ख, अंगे, सरे, लवखणे, वंजणे ।
७६८
संग्रहणी - गाहा १. जिसे पढमा होती,
बितिया
बसणे ।
ततिया करणम्मि कता, चउत्थी संपदावणे ॥ २. पंचमीय अवदाणे, छुट्टी सस्सा मिवादणे | सत्तमी सष्णिहाणत्थे,
अमी आमंतणी भवे ॥ ३. तत्थ पढमा विभत्ती, जिसे सो इमो अहं वत्ति । बितिया उण उवसे भण कुण व इमं व तं वत्ति ॥ ४. ततिया करणम्मि कयाणीतं व कतं व तेण व मए वा । हंदि णमो साहाए, हवति चउत्थी पदामि ॥ ५. अवणे हि तत्तो, इत्तोत्ति वा पंचमी अवादाणे । छुट्टी तस्स इमस्स वा गतस्स वा सामि-संबंधे ॥
महानिमित्त-पदम्
वयणविभत्ति-पदं
वचनविभक्ति-पदम्
२४. अट्टविधा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं अष्टविधा वचनविभक्तिः प्रज्ञप्ता,
जहा -
तद्यथा—
संग्रहणी - गाथा
निर्देशे प्रथमा भवति,
१.
द्वितीया उपदेश | तृतीया करणे कृता,
चतुर्थी संप्रदाने । २. पञ्चमी च अपादाने, षष्ठी स्वस्वामिवादने । सप्तमी सन्निधानार्थे, अष्टम्यामन्त्रणी भवेत् ॥ ३. तत्र प्रथमा विभक्तिः, निर्देश सः अयं अहं वेति । द्वितीया पुनः उपदेशेभण कुरु वा इमं वा तं वेति ॥ ४. तृतीया करणे कृता—
तं वा कृतं वा तेन वा मया वा । हंदि नमः स्वाहा, भवति चतुर्थी प्रदाने ||
५. अपनय गृहाण ततः, इतः इति वा पञ्चमी अपादाने । षष्ठी तस्यास्य वा, गतस्य वा स्वामि-सम्बन्धे ॥
स्थान ८ : सूत्र २३-२४
महानिमित्त पद
२३. महानिमित्त आठ प्रकार का होता है१. भौम, २. उत्पात, ३. स्वप्न, ४. आन्तरिक्ष, ५. आङ्ग, ६. स्वर,
७. लक्षण,
८. व्यञ्जन ।
वचनविभक्ति-पद
२४. वचन-विभक्ति के आठ प्रकार हैं
१. निर्देश, २. उपदेश, ३. करण, ४. सम्प्रदान,
५. अपादान, ६. स्वस्वामिवचन, ७. सन्निधानार्थ, ८. आमंत्रणी ।
निर्देश के अर्थ में प्रथमा विभक्ति होती है, जैसे - वह, यह, मैं । उपदेश में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे- इसे बता, वह
कर ।
करण में तृतीया विभक्ति होती है, जैसेशकट से लाया गया है, मेरे द्वारा किया गया है । सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है, जैसे -- नमः स्वाहा ।
अपादान में पंचमी विभक्ति होती है, जैसे-घर से दूर ले जा, इस कोठे से ले जा । स्वस्वामिवचन में षष्ठी विभक्ति होती है, जैसे-यह उसका या इसका नौकर है।
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स्थान ८: सूत्र २५-२६
ठाणं (स्थान)
७६६ ६. हवइ पुण सत्तमी ६. भवति पुनः सप्तमी तमिमम्मि आहारकालभावे य। तस्मिन् अस्मिन् आधारकालभावे च।। आमंतणी भवे अट्टमी आमन्त्रणी भवेत अष्टमी उ जह हे जुवाण ! ति॥ तु यथा हे युवन् ! इति ॥
सन्निधानार्थ में सप्तमी विभक्ति होती है, जैसे-उसमें, इसमें। आमंत्रणी में आठवीं विभक्ति होती है, जैसे-हे जवान !
छउमत्थ-केवलि-पदं छद्मस्थ-केवलि-पद्म
छद्मस्थ-केवलि-पद २५. अट्ट ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं अष्ट स्थानानि छद्मस्थः सर्वभावेन न २५. आठ पदार्थों को छद्ममस्थ सम्पूर्णरूप से न ण याणति पासति, तं जहा- जानाति न पश्यति, तद्यथा
जानता है, न देखता हैधम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, धर्मास्तिकायं अधर्मास्तिकायं,
१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, आगासस्थिकायं, आकाशास्तिकायं,
३. आकाशास्तिकाय ४. शरीरमुक्तजीव, जीवं असरीरपडिबद्धं, जीवं अशरीरप्रतिबद्धं,
५. परमाणुपुद्गल ६. शब्द, परमाणुपोग्गलं, सई, गंध, वातं। परमाणुपुद्गलं, शब्दं, गन्धं, वातम् ।। ७. गंध, ८. वायु। एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन् । प्रत्यक्ष ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले अरहा जिणे केवली 'सव्वभावेणं जिनः केवली सर्वभावेन जानाति पश्यति. अर्हत्, जिन, केवली इन्हें सम्पूर्णरूप से जाणइ पासइ, तं जहा- तद्यथा
जानते-देखते हैंधम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायं, १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, आगासत्थिकायं, आकाशास्तिकायं,
३. आकाशास्तिकाय, ४. शरीरमुक्तजीव, जीवं असरीरपडिबद्ध, जीवं अशरीरप्रतिबद्धं,
५. परमाणुपुद्गल, ६. शब्द, परमाणुपोग्गलं, परमाणुपुद्गलं,
७. गंध, ८. वायु। सदं, गंध, वातं ।
शब्द, गन्धं, वातम् ।
आउदेद-पदं आयुर्वेद-पदम्
आयुर्वेद-पद २६. अट्टविधे आउवेदे पण्णत्ते, तं जहा- अष्टविधः आयुर्वेदः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- २६. आयुर्वेद" के आठ प्रकार हैं
१. कुमारभृत्य-बालकों का चिकित्साकुमारभिच्चे, कायतिगिच्छा, कुमारभृत्यं, कायचिकित्सा, शालाक्यं,
शास्त्र। सालाई, सल्लहत्ता, जंगोली, शाल्यहत्यं, जंगोली, भूतविद्या, २. कायचिकित्सा-ज्वर आदि रोगों का भूतवेज्जा, खारतंते, रसायणे। क्षारतन्त्रं, रसायनम् ।
चिकित्सा-शास्त्र। ३. शालाक्य-कान, मुंह, नाक आदि के रोगों की शल्य-चिकित्सा का शास्त्र । ४. शल्यहत्या-शल्य-चिकित्सा का शास्त्र ५. जंगोली-अंगदतंत्र-विष-चिकित्सा का शास्त्र । ६. भूतविद्या-देव, असुर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पिशाच आदि से ग्रस्त व्यक्तियों की चिकित्सा का शास्त्र। ७. क्षारतन्त्र–वाजीकरण तंत्र-वीर्यपुष्टि का शास्त्र । ८. रसायन-पारद आदि धातुओं के द्वारा की जाने वाली चिकित्सा का शास्त्र।
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ठाणं (स्थान)
८००
स्थान ८: सूत्र २७-३३
अग्गमहिसी-पदं अग्रमहिषी-पदम्
अग्रमहिषी-पद २७. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरगणो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अष्टाग्र- २७. देवेन्द्र देवराज शक्र के आठ अग्रमहिषियां
अटुग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं महिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाजहापउमा, सिवा, सची, अंजू, अमला, पद्मा, शिवा, शची, अजूः, १. पद्मा, २. शिवा, ३. शची,
४. अंज, अच्छरा, णवमिया, रोहिणी। अमला, अप्सराः, नवमिका, रोहिणी।
५. अमला, ६. अप्सरा,
७. नवमिका, ८. रोहिणी। २८.ईसाणस्सणं देविदस्स देवरणो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अष्टान- २८. देवेन्द्र देवराज ईशान के आठ अग्रअटुग्गम हिसीओ पण्णत्ताओ, तं महिष्य: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
महिषियां हैं
कण्हा, कण्हराई, रामा, कृष्णा, कृष्णराजी, रामा, रामरक्षिता, १. कृष्णा, २. कृष्णराजी, ३. रामा, रामरविखता, वसू, वसुगुत्ता, वसूः, वसुगुप्ता, वसुमित्रा, वसुंधरा। ४. रामरक्षिता, ५. वसु, ६. वसुगुप्ता, वसुमित्ता, वसुंधरा।
७. वसुमित्रा, ८. वसुन्धरा। २६. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य २६. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज
सोमस्स महारण्णो अटुग्गम हिसीओ महाराजस्य अष्टाग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः। सोम के आठ अग्रमहिपिया हैं ।
पण्णत्ताओ। ३०. ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रमणस्य ३०. देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महा
वेसमणस्स महारण्णो अट्रग्गमहि- महाराजस्य अष्टाग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः । राज वैश्रमण के आठ अग्रमहिषियां हैं। सीओ पण्णत्ताओ।
महग्गह-पदं महाग्रह-पदम्
महाग्रह-पद ३१. अट्ठ महग्गहा पण्णत्ता, तं जहा- अष्ट महाग्रहाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३१. महाग्रह आठ हैं-- चंदे, सूरे, सुक्के, बुहे, बहस्सती, चन्द्रः, सूरः, शुक्रः, बुधः,
१. चन्द्र, २. सूर्य, ३. शुक्र, ४. बुध, अंगारे, सणिचरे, केऊ। बृहस्पतिः, अङ्गारः, शनैश्चरः, केतुः ।।
५. बृहस्पति, ६. अंगार, ७. शनिश्चर,
८. केतु । तणवणस्सइ-पदं तृणवनस्पति-पदम्
तृणवनस्पति-पद ३२. अट्ठविधा तणवणस्सतिकाइया अष्टविधाः तृणवनस्पतिकायिकाः ३२. तृणवनस्पतिकायिक आठ प्रकार के पण्णता, तं जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
होते हैंमूले, कंदे, खंधे, तया, साले, पवाले, मूलं, कन्दः, स्कन्धः, त्वक्,
१. मूल, २. कंद, ३. स्कंद, ४. त्वक, पत्ते, पुप्फे। शाला, प्रवाल, पत्रं, पुष्पम् ।
५. शाखा, ६. प्रवाल, ७. पत्र, ८. पुष्प । संजम-असंजम-पदं संयम-असंयम-पदम्
संयम-असंयम-पद ३३. चरिदिया णं जीदा असमारभ- चतुरिन्द्रियान जीवान असमारभमाणस्य ३३. चतुरिन्द्रिय जीवों का आरम्भ नहीं करने माणस्स अविध संजमे कज्जति, अष्टविधः संयमः क्रियते, तदयथा
वाले के आठ प्रकार का संयम होता हैतं जहा
|
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ठाणं (स्थान)
८०१
चक्मातो सोक्खातो अववरो- चक्षुर्मयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता वेत्ता भवति । भवति । चक्मणं दुक्खेणं असंजोएत्ता चक्षुर्मयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति । भवति ।
• घाणामातो सोक्खातो अववरो- घ्राणमयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता वेत्ता भवति । भवति । घाणामरणं दुक्खेणं असंजोएत्ता घ्राणमयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति । भवति । जिभामातो सोक्खातो अववरो- जिह्वामयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता वेत्ता भवति । भवति । जिभामणं दुक्खेणं असंजोएत्ता जिह्वामयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति । भवति । फासामातो सोवखातो अववरोवेत्ता स्पर्शमयात् सोख्यात् अव्यपरोपयिता भवति । भवति । फासामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता स्पर्शमयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति । भवति ।
३४. चउरिदियाणं जीवा समारंभविधे असं कज्जति,
चतुरिन्द्रियान् जीवान् समारभमाणस्य अष्टविधः असंयमः क्रियते, तद्यथा—
तं जहा -
दुःखेन संयोजयिता
चक्खमातो सोक्खातो ववरोवेत्ता चक्षुर्मयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता भवति । भवति । चक्खमएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता चक्षुर्मयेन भवति । भवति । • घाणामातो सोक्खातो ववरोवेत्ता घ्राणमयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता भवति । भवति । घाणामरणं दुक्खेणं संजोगेत्ता घ्राणमयेन दुःखेन संयोजयिता भवति । भवति । जिन्भामातो सोक्खातो ववशेवेत्ता जिह्वामयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता भवति । भवति । जिन्भामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता जिह्वामयेन दुःखेन संयोजयिता भवति । भवति । फासामातो सोक्खातो ववरोवेत्ता स्पर्शमयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता भवति ।
भवति ।
स्थान ८ : सूत्र ३४
१. चक्षु मय सुख का वियोग नही करने से,
२. चक्षुमय दुःख का संयोग नहीं करने से,
३. घ्राणमय सुख का वियोग नहीं करने से,
४. घ्राणमय दुःख का संयोग नहीं करने से,
५. रसमय सुख का वियोग नहीं करने से,
६. रसमय दुःख का संयोग नहीं करने से,
७. स्पर्शमय सुख का वियोग नहीं करने से,
८. स्पर्शमय दुःख का संयोग नहीं करने से ।
३४. चतुरिन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले के आठ प्रकार का असंयम होता है।
---
१. चक्षुमय सुख का वियोग करने से,
२. चक्षुमय दुःख का संयोग करने से,
३. घ्राणमय सुख का वियोग करने से,
४. घ्राणमय दुःख का संयोग करने से,
५. रसमय सुख का वियोग करने से,
६. रसमय दुःख का संयोग करने से,
७. स्पर्शमय सुख का वियोग करने से,
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ठाणं (स्थान)
८०२
स्थान ८ : सूत्र ३५-३८
दुःखेन
संयोजयिता
८. स्पर्शमय दुःख का संयोग करने से।
फासामएणं दुक्खणं संजोगेत्ता स्पर्शमयेन भवति।
भवति ।
सुहम-पदं
सूक्ष्म-पदम् ३५. अट्ट सुहुमा पण्णता, तं जहा- अष्ट सूक्ष्मानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-
पाणसुहुमे, पणगसुहुमे, बीयसुहुमे, प्राणसूक्ष्म, पनकसूक्ष्म, बीजसूक्ष्म, हरितसुहुमे, पुष्फसुहुमे, अंडसुहुमे, हरितसूक्ष्म, पुष्पसूक्ष्म, अण्डसूक्ष्म, लेणसुहुमे, सिणेहसुहुमे। लयनसूक्ष्म, स्नेहसूक्ष्म ।
सूक्ष्म-पद ३५. सूक्ष्म आठ हैं
१. प्राणसूक्ष्म, ३. बीजसूक्ष्म, ५. पुष्पसूक्ष्म, ७. लयनसूक्ष्म,
२. पनकसूक्ष्म, ४. हरितसूक्ष्म, ६. अण्डसूक्ष्म, ८.स्नहसूक्ष्म।
भरहचक्कवट्टि-पदं भरतचक्रवति-पदम्
भरतचक्रवति-पद ३६. भरहस्स णं रण्णो चाउरंतचक्क- भरतस्य राज्ञः चतुरन्तचक्रवत्तिनः ३६. चतुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत के आठ
वट्टिस्स अट्ठ पुरिसजुगाइं अणुबद्धं अष्ट पुरुषयुगानि अनुबद्धं सिद्धाः बुद्धाः उत्तराधिकारी पुरुषयुग-राजा लगातार सिद्धाइं 'बुद्धाई मुत्ताई अंतगडाई मुक्ताः अन्तकृताः परिनिर्वृताः सर्वदुःख- सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत और समस्त परिणिव्वुडाई सव्वदुक्खप्पहीणाई, प्रक्षीणाः, तद्यथा
दुःखों से रहित हुए२– तं जहाआदिच्चजसे, महाजसे, अतिबले, आदित्ययशाः, महायशाः, अतिबलः,
१. आदित्ययशा, २. महायशा,
३. अतिबल, ४. महाबल, महाबले, तेयवीरिए, कत्तवीरिए, महाबलः, तेजोवीर्यः, कार्तवीर्यः,
५. तेजोवीर्य, ६. कार्तवीर्य, दंडवीरिए, जलवीरिए। दण्डवीर्यः जलवीर्यः।
७. दण्डवीर्य, ८. जलवीर्य ।
पास-गण-पदं पार्श्व-गण-पदम्
पार्श्व-पग-पद ३७. पासस्स णं अरहओ पुरिसा- पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य अष्ट ३७. पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के आठ गण
दाणियस्स अट्ठगणा अट्ठ गणहरा गणाः अष्ट गणधराः अभवन् और आठ गणधर थेहोत्था., तं जहा-
तद्यथासुभे, अज्जघोसे, वसि?,बंभचारी, शुभः, आर्यघोष:, वशिष्ठः, ब्रह्मचारी, १. शुभ, २. आर्यघोष, ३. वशिष्ठ, सोमे, लिरिधरे, वीरभद्दे, जसोभद्दे। सोमः, श्रीधरः, वीरभद्रः, यशोभद्रः ।
४. ब्रह्मचारी, ५. सोम, ६. श्रीधर,
७. बीरभद्र, ८. यशोभद्र। दसण-पदं दर्शन-पदम्
दर्शन-पद ३८. अढविधे दसणे पण्णत्ते, तं जहा- अष्टविधं दर्शनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ३८. दर्शन आठ प्रकार का होता हैसम्भदंसणे, मिच्छदंसणे, सम्यग्दर्शनं, मिथ्यादर्शनं,
१. सम्यग्दर्शन, २. मिथ्यादर्शन, सम्मामिच्छदसणे, चक्खुदंसणे, सम्यग्मिथ्यादर्शनं, चक्षुर्दर्शनं, ३. सम्यमिथ्यादर्शन, ४. चक्षुदर्शन, 'अबक्खुदंसले, ओहिदंसणे, अचक्षुर्दर्शनं, अवधिदर्शनं,
५. अचक्षुदर्शन, ६. अवधिदर्शन, केवलदंसणे, सुविणसणे। केवलदर्शनं, स्वप्नदर्शनम् ।
७. केवलदर्शन, ८. स्वप्नदर्शन ।
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ठाणं (स्थान)
८०३
स्थान ८: सूत्र ३६-४२
ओवमिय-काल-पदं औपमिक-काल-पदम्
औपमिक-काल-पद ३९. अट्ठविधे अद्धोवमिए पण्णत्ते, अष्टविधं अद्ध्वौपम्यं प्रज्ञप्तम्, ३९. औपमिक अद्धा [काल] आठ प्रकार का तं जहातद्यथा
होता हैपलिओवमे, सागरोवमे, पल्योपमं, सागरोपमं, अवसर्पिणी, १. पल्योपम, २. सागरोपम, ओसप्पिणी, उस्सप्पिणी, उत्सर्पिणी, पुद्गलपरिवर्त्त, अतीताद्ध्वा, ३. अवसर्पिणी, ४. उत्सपिणी, पोग्गलपरियो, तीतद्धा, अनागताद्ध्वा, सर्वाद्ध्वा।
५. पुद्गलपरिवर्त, ६. अतीत-अद्धा, अणागतद्धा, सव्वद्धा।
७. अनागत-अद्धा, ८. सर्व-अद्धा।
अरिट्ठणेमि-पदं
अरिष्टनेमि-पदम् ४०. अरहतो णं अरिडणेमिस्स जाव अर्हतः अरिष्टनेमे: यावत् अष्टमं
अट्ठमातो पुरिसजुगातो जुगंतकर- पुरुषयुगं युगान्तकरभूमिः । भूमि। दुवासपरियाए अंतमकासी। द्विवर्षपर्याये अन्तमकार्षः।
अरिष्टनेमि-पद ४०. अर्हत् अरिष्टनेमि से आठवें पुरुषयुग तक
युगान्तकर भूमि रही—मोक्ष जाने का क्रम रहा, आगे नहीं। अर्हत् अरिष्टनेमि को केवलज्ञान प्राप्त किए दो वर्ष हुए थे, उसी समय से उनके शिष्य मोक्ष जाने लगे।
महावीर-पदं महावीर-पदम्
महावीर-पद ४१. समणेणं भगवता महावीरेणं अट्ठ श्रमणेन भगवता महावीरेण अष्ट ४१. श्रमण भगवान् महावीर ने आठ राजाओं
रायाणो मुंडे भवेत्ता अगाराओ राजानः मुण्डान् भावयित्वा अगाराद् को मुण्डित कर, अगार से अनगार अवस्था अणगारित पव्वाइया, तं जहा- अनगारितां प्रवाजिताः, तद्यथा
में प्रव्रजित किया
संगहणी-गाहा १. वीरंगए वीरजसे, संजय एणिज्जए य रायरिसी। सेये सिवे उद्दायणे, तह संखे कासिवद्धणे॥
संग्रहणी-गाथा १. वीराङ्गक: वीरयशाः, संजय एणेयकश्च राजर्षिः। श्वेतः शिवः, उद्रायणः, तथा शङ्खः काशीवर्द्धनः ।।
१. वीराङ्गक, २. वीरयशा, ३. संजय, ४. एणेयक, ५. सेय, ६. शिव, ७. उद्रायण, ८. शंख-काशीवर्द्धन ।
आहार-पदं
आहार-पदम् ४२. अट्टविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा.- अष्टविधः आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
मणुण्णे असणे पाणे खाइमें मनोज्ञं—अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् । साइमे। अमणुण्णे—'असणे पाणे खाइमे' अमनोज्ञं—अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् । साइमे॥
आहार-पद ४२. आहार आठ प्रकार का होता है
१. मनोज्ञ अशन, २. मनोज्ञ पान, ३. मनोज्ञ खाद्य, ४. मनोज्ञ स्वाद्य, ५. अमनोज्ञ अशन, ६. अमनोज पान, ७. अमनोज्ञ खाद्य, ८. अमनोज्ञ स्वाद्य ।
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ठाणं (स्थान)
८०४
स्थान ८ : सूत्र ४३-४५
कण्हराइ-पदं कृष्णराजि-पदम्
कृष्णराजि-पद ४३. उपि सणंकुमार-माहिंदाणं उपरि सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोः ४३. सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के ऊपर
कप्पाणं हेट्टि बंभलोगे कप्पे रिट- अधस्तात् ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टविमान- तथा ब्रह्मलोक देवलोक के नीचे रिष्टविमाण-पत्थडे, एत्थ णं अक्खाडग- प्रस्तटे, अत्र अक्षवाटक-समचतुरस्र- विमान का प्रस्तट है। वहां अखाड़े के समचउरंस-संठाण-संठिताओ संस्थान-संस्थिताः अष्ट कृष्णराजयः समान समचतुरस्र [चतुष्कोण] संस्थान अट्ट कण्हराईओ पण्णत्ताओ, तं प्रज्ञप्ता:, तद्यथा
वाली आठ कृष्णराजियां—काले पुद्गलों जहा
की पंक्तियां हैंपुरथिमे णं दो कण्हराईओ, पौरस्त्ये द्वे कृष्णराजी,
१. पूर्व में दो (१, २) कृष्णराजियां हैं, दाहिणे णं दो कण्हराईओ, दक्षिणस्यां द्वे कृष्णराजी,
२. दक्षिण में दो (३,४) कृष्णराजियां हैं, पच्चत्थिमे णं दो कण्हराईओ, पाश्चात्ये द्वे कृष्णराजी,
३. पश्चिम में दो (५,६) कृष्णराजियां हैं, उत्तरे णं दो कण्हराईओ। उत्तरस्यां द्वे कृष्णराजी।
४. उत्तर में दो (७,८) कृष्ण राजियां हैं। पुरथिमा अभंतरा कण्हराई पौरस्त्या अभ्यन्तरा कृष्णराजिः । पूर्व की आभ्यन्तर कृष्णराजी दक्षिण की दाहिणं बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा। दाक्षिणात्यां बाह्यां कृष्णराजि स्पृष्टा । बाह्य कृष्णराजी से स्पृष्ट है। दाहिणा अभंतरा कण्हराई दक्षिणा अभ्यन्तरा कृष्ण राजिः । दक्षिण की आभ्यन्तर कृष्णराजी पश्चिम पच्चत्थिमं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा। पाश्चात्यां बाह्यां कृष्णराजि स्पृष्टा।। की बाह्य कृष्णराजी से स्पृष्ट है। पच्चत्थिमा अब्भतरा कण्हराई पाश्चात्या अभ्यन्तरा कृष्णराजिः पश्चिम की आभ्यन्तर कृष्णराजी उत्तर उत्तरं बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा। ओत्तराही बाह्यां कृष्णराजि स्पृष्टा। की बाह्य कृष्णराजी से स्पृष्ट है। उत्तरा अब्भंतरा कण्हराई पुरथिमं उत्तरा अभ्यन्तरा कृष्णराजिः पौरस्त्यां उत्तर की आभ्यन्तर कृष्णराजी पूर्व की बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा। बाह्यां कृष्णराजि स्पृष्टा।
बाह्य कृष्णराजी से स्पृष्ट है। पुरथिमपच्चथिमिल्लाओ बाहि- पौरस्त्यपाश्चात्ये बाह्य द्वे कृष्णराजी पूर्व और पश्चिम की बाह्य दो कृष्णराओ दो कण्हराईओ छलंसाओ। षडस्र ।
राजियां षट्कोण वाली हैं। उत्तरदाहिणाओ बाहिराओ दो उत्तरदक्षिणे बाह्य द्वे कृष्णराजी उत्तर और दक्षिण की बाह्य दो कृष्णकण्हराईओ तंसाओ। व्यस्र।
राजियां त्रिकोण वाली हैं। सव्वाओ वि णं अब्भंत रकण्ह- सर्वा अपि अभ्यन्तरकृष्णराजयः समस्त आभ्यन्तर कृष्णराजियां चतुष्कोण राईओ चउरंसाओ। चतुरस्राः ।
वाली हैं। ४४. एतासि णं अटण्हं कण्हराईणं अटू एतासां अष्टानां कृष्णराजीनां अष्ट ४४. इन आठ कृष्णराजियों के आठ नाम हैं
णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा- नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाकण्हराईति वा, मेहराईति वा, कृष्णराजीति वा, मेघराजीति वा, १. कृष्णराजी, २. मेघराजी, ३. मघा, मघाति वा, माघवतीति वा, मघेति वा, माघवतीति वा, । ४. माघवती, ५. वातपरिघ, वातफलिहेति वा, वातपलिक्खो- वातपरिघा इति वा, वातपरिक्षोभा ६. वातपरिक्षोभ, ७. देवपरिघ, भेति वा, देवफलिहेति वा, इति वा, देवपरिघा इति वा,
८. देवपरिक्षोभ। देवपलिक्खोभेति वा।
देवपरिक्षोभा इति वा।
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ठाणं (स्थान)
८०५
स्थान ८ : सूत्र ४६-५२ ४५. एतासि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं एतासां अष्टानां कृष्णराजीनां अष्टसु ४५. इन आठ कृष्णराजियों के आठ अवका
अदृसु ओवासंतरेसु अटु लोगंतिय- अवकाशान्तरेषु अष्ट लोकान्तिक- शान्तरों में आठ लोकान्तिक विमान हैंविमाणा पण्णत्ता, तं जहा- विमानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
१. अचि, २. अचिमाली, ३. वैरोचन, अच्ची, अच्चिमाली, बइरोअणे, अचिः, अचिर्माली, वैरोचनः, ४. प्रभंकर, ५. चन्द्राभ, ६. सूराभ, पभंकरे, चंदाभे, सूराभे, सुपइट्टाभे, प्रभंकरः, चन्द्राभः, सूराभः, ७. सुप्रतिष्ठाभ, ८. अग्न्यर्चाभ । अग्यिच्चाभ।
सुप्रतिष्ठाभः, अग्न्याभः ।। ४६. एतेसु णं अट्ठसु लोगंतियविमाणेसु एतेषु अष्टसु लोकान्तिकविमानेषु ४६. इन आठ लोकान्तिक विमानों में आठ
अविधा लोगंतिया देवा पण्णत्ता, अष्टविधा: लोकान्तिका: देवाः प्रज्ञप्ताः, प्रकार के लोकान्तिक देव हैंतं जहा
तद्यथा
संगहणी-गाहा
संग्रहणो-गाथा १. सारस्सतमाइच्चा, १. सारस्वता: आदित्याः,
१. सारस्वत, २. आदित्य, ३. वह्नि, वण्ही वरुणाय गहतोया य। वह्नयः वरुणाश्च गर्दतोयाश्च ।
४. वरुण, ५. गर्दतोय, ६. तुषित, तुसिता अव्वाबाहा, तुषिताः अव्याबाधाः,
७. अव्याबाध, ८, अग्न्यर्च। अग्गिच्चा चेव बोद्धव्वा॥ अग्न्र्चाः चैव बोद्धव्याः ॥ ४७. एतेसि णं अटुण्हं लोगंतिय- एतेषां अष्टानां लोकान्तिकदेवानां ४७. इन आठ लोकान्तिक देवों की जघन्य और
देवाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं अट्ठ अजघन्योत्कर्षेण अष्ट सागरोपमाणि उत्कृष्ट स्थिति आठ-आठ सागरोपम की सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। मज्झपदेस-पदं मध्यप्रदेश-पदम्
मध्यप्रदेश-पद ४८. अटू धम्मत्थिकाय-मज्झपएसा अष्ट धर्मास्तिकाय-मध्यप्रदेशः प्रज्ञप्ताः। ४८. धर्मास्तिकाय के आठ मध्यप्रदेश (रुचक पण्णत्ता।
प्रदेश) हैं। ४६. अट्ठ अधम्मत्थिकाय- मज्झपएसा अष्ट अधर्मास्तिकाय-मध्यप्रदेशाः ४६. अधर्मास्तिकाय के आठ मध्यप्रदेश हैं। पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । ५०. अट्र आगास स्थिकाय- मझपएसा अष्ट आकाशास्तिकाय-मध्यप्रदेशा: ५०. आकाशास्तिकाय के आठ मध्यप्रदेश हैं। पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । ५१. अट्ट जीव-मज्झपएसा पण्णत्ता। अष्ट जीव-मध्यप्रदेशाः प्रज्ञप्ताः। ५१. जीव के आठ मध्यप्रदेश हैं।
महापउम-पदं महापद्म-पदम्
महापद्म-पद ५२. अरहा णं महापउमे अट्ठ रायाणो अर्हन् महापद्मः अष्ट राज्ञः मुण्डान् ५२. अर्हत् महापद्म आठ राजाओं को मुण्डित
मुंडा भवित्ता अगाराओअणगारितं भावयित्वा अगाराद् अनगारितां । कर, अगार से अनगार अवस्था में प्रवपवावेस्सति, तं जहा- प्रव्राजयिष्यति, तद्यथा
जित करेंगे-- पउमं, पउमगुम्मं, गलिणं, पद्म, पद्मगुल्म, नलिनं, नलिनगुल्म, १. पद्म, २. पद्मगुल्म, ३. नलिन, णलिणगुम्म, पउमद्धयं, धणुद्धयं, पद्मध्वजं, धनुर्ध्वज, कनकरथं, ४. नलिनगुल्म, ५. पद्मध्वज, कणगरह, भरहं। भरतम्।
६. धनुर्ध्वज, ७. कनकरथ, ८. भरत ।
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ठाणं (स्थान)
८०६
स्थान ८: सूत्र ५३-५७
कण्ह-अग्गमहिसी-पदं कृष्ण-अग्नमहिषी-पदम् कृष्ण-अग्रमहिषी-पद ५३. कण्हस्स णं वासुदेवस्स अट्ठ अग्ग- कृष्णस्य वासुदेवस्य अष्टाग्रमहिष्यः ५३. वासुदेव कृष्ण की आठ अग्रमहिषिया अर्हत्
महिसोओ अरहतो णं अरिद्व- अर्हतः अरिष्टनेमे: अन्तिके मुण्डाः अरिष्टनेमि के पास मुण्डित होकर, अगार
मिस्स अंतिते मुंडा भवेत्ता भूत्वा अगाराद् अनगारिता प्रव्रजिताः से अनगार अवस्था में प्रवजित होकर अगाराओ अणगारितं पवइया सिद्धाः बुद्धाः मुक्ताः अन्तकृताः । सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत सिद्धाओ 'बुद्धाओ मुत्ताओ परिनिर्वृताः सव्वदुःखप्रक्षीणाः, और समस्त दुःखों से रहित हुईअंतगडाओ परिणिव्वुडाओ' तद्यथासव्वदुक्खप्पहीणाओ, तं जहा
संगहणी-गाहा १.पउमावती य गोरी, गंधारी लक्खणा सुसीमा य।। जंबवती सच्चभामा, रुप्पिणी अग्गमाहिसीओ॥
संग्रहणी-गाथा १. पद्मावती च गौरी, गान्धारी लक्ष्मणा सुसीमा च । जाम्बवती सत्यभामा, रुक्मिणी अग्रमहिष्यः ॥
१. पद्मावती, २. गोरी, ३. गांधारी, ४. लक्ष्मणा, ५. सुसीमा, ६. जाम्बवती, ७. सत्यभामा, ८. रुक्मिणी।
पुव्ववत्थु-पदं
पुर्ववस्तु-पदम् ५४. वीरियपुव्वस्स णं अट्ठ वत्थू अट्ठ वीर्यपूर्वस्य अष्ट वस्तूनि चूलवत्थू पण्णत्ता।
चूलावस्तूनि प्रज्ञप्तानि।
पुर्ववस्तु-पद अष्ट ५४. वीर्यप्रवाद पूर्व के आठ वस्तु [मूल
अध्ययन] और आठ चूलिका-वस्तु हैं।
गति-पदं गति-पदम्
गति-पद ५५. अट्ठगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- अष्टगतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
५५. गतिया आठ है। णिरयगती, तिरियगती, निरयगतिः, तिर्यग्गतिः, मनुजगतिः, । १. नरकगति, २.तिर्यञ्चगति, •मणुयगती, देवगती, देवगतिः, सिद्धिगतिः, गुरुगतिः, ३. मनुष्यगति, ४. देवगति सिद्धिगती, गुरुगती, प्रणोदनगतिः, प्राग्भारगतिः।
५. सिद्धिगति, ६. गुरुगति, पणोल्लणगती, पब्भारगती।
७. प्रणोदनगति, ८. प्राग्भारगति ।
दीवसमुद्द-पदं द्वीपसमुद्र-पदम्
द्वीपसमुद्र-पद ५६. गंगा-सिंधु-रत्त-रत्तवति-देवीणं दीवा गङ्गा-सिन्धू-रक्ता-रक्तवती-देवीना ५६. गंगा, सिन्धू, रक्ता और रक्तवती नदियों
अट्ठ-अट्ठ जोयणाई आयामविक्खं- द्वीपा: अष्टाऽष्ट योजनानि आयाम- की अधिष्ठात्री देवियों के द्वीप आठ-आठ भेणं पण्णत्ता। विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः।
योजन लम्बे-चौड़े हैं। ५७. उक्कामुह-मेहमुह-विज्जमुह-विज्जु- उल्कामुख-मेघमुख विद्युन्मुख-विद्युद्दन्त- ५७. उल्कामुख, मेघमुख, विद्युत्मुख और विद्यु
दंतदीवा णं दीवा अट्ठ-अट्ठ जोयण- द्वीपा द्वीपाः अष्टाऽष्ट योजनशतानि दन्त द्वीप आठ-आठ सौ योजन लम्बेसयाइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता। आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
चौड़े हैं।
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ठाणं (स्थान)
८०७
स्थान ८ : सूत्र ५८-६७ ५८. कालोदे णं समुद्दे अट्ट जोयणसय- कालोदः समुद्रः अष्ट योजनशतसहस्राणि ५८. कालोद समुद्र की गोलाकार चौड़ाई आठ सहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं चक्रवाल विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः ।
लाख योजन की है। पण्णत्ते। ५६. अब्भंतरपुक्खरद्धे णं अट्ट जोयण- अभ्यन्तरपुष्कराध: अष्ट योजनशत- ५६. आभ्यन्तर पुष्करार्ध की गोलाकार चौड़ाई
सयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं सहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः। आठ लाख योजन की है।
पण्णत्ते। ६०. एवं बाहिरयुक्खरद्धेवि। __ एवं वाह्यपुष्करा!पि।
६०. इसी प्रकार वाह्य पुष्कराध की गोलाकार
चौड़ाई आठ लाख योजन की है।
काकणिरयण-पदं काकिनीरत्न-पदम्
काकिनीरत्न-पद ६१. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरतचक्क- एकैकस्य राज्ञः चतुरन्तचक्रवत्तिनः ६१. प्रत्येक चतुरन्त चक्रवर्ती राजा के आठ
वट्टिस्स अट्ठसोवण्णिए काकणि- अष्टसौवणिकं काकिनीरत्नं पट्तलं सुवर्ण जितना भारी काकिणी रत्न होता रयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्ठ- द्वादशास्रिकं अष्टकणिकं अधिकरणीय- है। वह छह तल (मध्यखण्ड), बारहकोण, कण्णिए अधिकरणिसं ठिते। संस्थितम् ।
आठ कणिका (कोण-विभाग) और अहरन के संस्थान वाला होता है।
मागध-जोयण-पदं मागध-योजना-पदम्
मागध-योजना-पद ६२. मागधस्स णं जोयणस्स अट्ट धणु- मागधस्य योजनस्य अष्ट धनुःसहस्राणि ६२. मगध में योजन" का प्रमाण आठ हजार सहस्साई णित्ते पण्णत्ते। निधत्तं प्रज्ञप्तम्।
धनुष्य का है।
जंबूदीव-पदं जम्बूद्वीप-पदम्
जम्बूद्वीप-पद ६३. जंबू णं सुदंसणा अट्ट जोयणाई जम्बूः सुदर्शना अष्ट योजनानि ६३. सुदर्शना जम्बू वृक्ष आठ योजन ऊँचा है।
उड उच्चत्तेणं, बहुमज्झदेसभाए ऊर्ध्व उच्चत्वेन, बहुमध्यदेशभागे अष्ट वह बहुमध्य-देशभाग [ठीक बीच में अट्र जोयणाई विक्खंभेणं, साति- योजनानि विष्कम्भेण, सातिरेकानि अष्ट आठ योजन चौड़ा और सर्व परिमाण में रेगाई अटु जोयणाई सव्वग्गेणं योजनानि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ता।
आठ योजन से अधिक है। पण्णत्ता। ६४. कूडसामली णं अट्ठ जोयणाई एवं कूटशाल्मली अष्ट योजनानि एवं ६४. कूटशाल्मली वृक्ष आठ योजन ऊंचा है।
वह बहुमध्य-देशभाग में आठ योजन चौडा चैव।
और सर्व परिमाण में आठ योजन से
अधिक है। ६५. तिमिसगुहा णं अटु जोयणाई उड्ड तमिस्रगुहा अष्ट योजनानि ऊर्व ६५. तमिस्र गुफा आठ योजन ऊंची है। उच्चत्तणं।
उच्चत्वेन । ६६. खंडप्पवातगुहा णं अट्ठ 'जोयणाई खण्डप्रपातगुहा अष्ट योजनानि ऊर्ध्व ६६. खण्डप्रपात गुफा आठ योजन ऊंची है। उड्ड उच्चत्तेणं।
उच्चत्वेन । ६७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये ६७. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में
चेव।
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ठाणं (स्थान)
पुरत्थिमे णं सीताए महानदीए उभतो कूले अटु वक्aारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा
चित्तकूडे, पम्हकूडे, णलिणकूडे, एगसेले, तिकडे, वेसमणकूडे, अंजणे, मायंजणे ।
म्हे, सुम्हे, महपम्हे, म्हगावती, संखे, णलिणे,
कुमुए, °
सलिलावती ।
५०८
शीतायाः महानद्याः उभतः कूले अष्ट वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
चित्रकूट:, पक्ष्मकूट:, नलिनकूट:, एकशैलः, त्रिकूट:, वैश्रमणकूट:, अञ्जनः,
माताञ्जनः ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः उभतः कूले अष्ट वक्षस्कारपर्वताः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
अङ्कावती, सुखावहः,
नागपर्वतः देवपर्वतः ।
६८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सोतोयाए महाणदीए उभतो कूले अटू वक्ष्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहाअंकावती, पम्हावती, आसीविसे, सुहावहे, चंदपव्वते, सूरपव्वते नागपव्वते, देवपव्वते । ६६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीताए महानदीए उत्तरे णं अट्ठ चक्कवट्टिविजया पण्णत्ता, तं जहा - कच्छे, सुकच्छे, महाकच्छे, कच्छगावती, आवत्ते, "मंगलावत्ते, क्खले, पुक्खलावती | . जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीताए महानदीए दाहिणे णं अटू चक्कवट्टिविजया पण्णत्ता, त जहा वच्छे, सुवच्छे, 'महावच्छे, वच्छगावती, रम्मे, रम्मगे, रमणिज्ले, मंगलावती । ७१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पच्चत्थिमे णं सीतोयाए महाणदीए पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः दक्षिणे दाहिणे णं अट्ठ चक्कवट्टिविजया अष्ट चक्रवत्तिविजयाः प्रज्ञप्ताः, पण्णत्ता, तं जहा
७०.
तद्यथा
पक्ष्म, सुपक्ष्म, महापक्ष्म, पक्ष्मकावती, शङ्खः, नलिनं, कुमुदः, सलिलावती ।
पक्ष्मावती, आशीविषः, सूरपर्वतः,
चन्द्रपर्वतः
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये शीतायाः महानद्याः उत्तरे अष्ट चक्रवत्तिविजयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
कच्छः, सुकच्छः, महाकच्छ:, कच्छकावती, आवर्त्तः, मङ्गलावर्त्तः, पुष्कलः, पुष्कलावती ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये शीताया: महानद्याः दक्षिणे अष्ट चक्रवत्तिविजयाः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा
वत्सः, सुवत्सः, महावत्सः, वत्सकावती, रम्यः, रम्यकः, रमणीयः, मङ्गलावती ।
स्थान : सूत्र ६८-७१
शीता महानदी के दोनों तटों पर आठ वक्षस्कार पर्वत हैं
१. चित्रकूट,
२. पक्ष्मकूट,
३. नलिनकूट, ४. एकशैल, ५. त्रिकूट, ६. वैश्रमणकूट, ७. अञ्जन,
८. माताञ्जन ।
६८. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम में शीतोदा महानदी के दोनों तटों पर आठ वक्षस्कार पर्वत हैं
१. अंकावती,
३. आशीविष, ५. चन्द्रपर्वत, ७. नागपर्वत,
२. पक्ष्मावती.
४. सुखावह,
६. सुरपर्वत, ८. देवपर्वत ।
६६. जम्बूद्वीप द्वीप के
मन्दर पर्वत के पूर्व में
शीता महानदी के उत्तर में चक्रवर्ती के आठ विजय हैं
१. कच्छ, २. सुकच्छ, ३. महाकच्छ, ४. कच्छकावती, ५. आवर्त, ७. पुष्कल,
६. मंगलावर्त्त,
८. पुष्कलावती । ७०. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दरपर्वत के पूर्व में शीता महानदी के दक्षिण में चक्रवर्ती के आठ विजय हैं
१. वत्स,
२. सुवत्स, ३. महावत्स, ४. वत्सकावती, ५. रम्य, ६. रम्यक, ७. रमणीय, ८. मंगलावती । ७१. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
में शीतोदा महानदी के दक्षिण में चक्रवर्ती के आठ विजय हैं
१. पक्ष्म, २. सुपक्ष्म, ३. महापक्ष्म, ४. पक्ष्मकावती, ५. शंख, ६ नलिन,
७. कुमुद, ५ सलिलावती ।
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ठाणं (स्थान)
८०६
स्थान ८: सत्र ७२-७६ ७२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ७२. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चत्थिमे णं सीतोयाए महाणदीए पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः उत्तरे में शीतोदा महानदी के उत्तर में चक्रवर्ती उत्तरे णं अट्ठ चक्कवट्टिविजया अष्ट चक्रवत्तिविजया: प्रज्ञप्ताः , के आठ विजय हैंपण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा-- वप्पे, सुवप्पे, 'महावप्पे, वप्रः, सुवप्रः, महावप्रः, वप्रकावती, १. वप्र, २. सुवप्र, ३. महावप्र, वप्पगावती, वग्ग, सुवग्गू, वल्गुः, सुवल्गुः, गन्धिलः, गन्धिलावती। ४. वप्रकावती, ५. वल्गु, ६. सुवल्गु, गंधिले, गंधिलावती।
७. गन्धिल, ८. गन्धिलावती। ७३. जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ७३. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दरपर्वत के पूर्व में
पुरथिमे णं सीताए महाणदीए पौरस्त्ये शीतायाः महानद्याः उत्तरे शीता महानदी के उत्तर में आठ राजउत्तरे णं अट्ठ रायहाणीओ अष्ट राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- धानियां हैंपण्णत्ताओ, तं जहा.-. खेमा, खेमपुरी, 'रिट्ठा, रिट्टपुरी, क्षेमा, क्षेमपुरी, रिष्टा, रिष्टपुरी, १. क्षेमा, . २. क्षेमपुरी ६. रिष्टा, खग्गी, मंजसा, ओसधी, पुंडरीगिणी। खड्गी, मञ्जूषा, औषधिः,पौंडरीकिणी।
४. रिष्टपुरी, ५ खड्गी, ६. मंजुषा,
औषधि,” पाँडेरी किणी ७४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये ७४. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में
पुरथिमे णं सीताए महाणईए शीतायाः महानद्याः दक्षिणे अष्ट शीता महानदी के दक्षिण में आठ राजदाहिणे णं अट्ठ रायहाणीओ राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
धानियां हैंपण्णत्ताओ, तं जहासुसीमा, कुंडला, 'अपराजिया, सुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभाकरा, १. सुसीमा, २. कुण्डला, ३. अपराजिता, पभंकरा, अंकावई, पम्हावई, अनावती, पक्ष्मावती, शुभा, ४. प्रभाकरा, ५. अंकावती, ६. पक्ष्मावती, सुभा, रयणसंचया। रत्नसंचया।
७. शुभा, ८. रत्नसंचया। ७५. जंबूहीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ७५. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चत्थिमे णं सीओदाए महाणदीए पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः दक्षिणे में शीतोदा महानदी के दक्षिण में आठ दाहिणे णं अट्ठ रायहाणीओ अष्ट राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- राजधानियां हैंपण्णत्ताओ, तं जहाआसपुरा, 'सीहपुरा, महापुरा, अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, १. अश्वपुरी, २. सिंहपुरी, ३. महापुरी, विजयपुरा, अवराजिता, अवरा, विजयपुरी, अपराजिता, अपरा,अशोका, ४. विजयपुरी, ५. अपराजिता, असोया, वीतसोगा। बीतशोका।
६. अपरा, ७. अशोका, ८. वीतशोका। ७६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ७६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चत्थिमे णं सीतोयाए महाणईए पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्या: उत्तरे में शीतोदा महानदी के उत्तर में आठ उत्तरे णं अट्ठ रायहाणीओ अष्ट राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- राजधानियां हैंपण्णत्ताओं, तं जहाविजया, वेजयंती, जयंती, विजया, वैजयन्ती, जयंती, अपराजिता, १. विजया, २. वैजयन्ती, ३. जयन्ती, अपराजिया, चक्कपुरा, खग्गपुरा, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अवध्या, ४. अपराजिता, ५. चक्रपुरी, अवज्झा, अउज्झा। अयोध्या।
६. खड्गपुरी, ७. अवध्या, ८. अयोध्या।
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ari (स्थान)
७७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थि मे णं सीताए महानदीए उत्तरे णं उक्कोसपर अटू अरहंता, अचक्कट्टी, अट्ठ बलदेवा, अट्ठ वासुदेवा उपज्जसु वा उप्पज्जंति वा उपज्जिस्संति वा । ७८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थमे सीता [ महाणदीए ? दाहिणे णं उक्कोसपए एवं चेव ।
]
७९. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीओयाए महानदीए दाहिणे णं उक्कोसपए एवं चेव ।
८०. एवं उत्तरेणवि ।
८१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थमेणं सीता महाणईए उत्तरे अदीवेयड्डा, अट्ट तिमिसगुहाओ, अट्ठ खंडगप्पवातगुहाओ, अट्ठ कमालगा देवा, अट्ठ गट्टमालगा देवा, अट्ठ गंगाकुंडा, अट्ठ सिंधु कुंडा, अगंगाओ, अट्ठसिंधुओ, अट्ठ उसभकूडा पव्वता, अट्ठ उसका देवा पण्णत्ता । ८२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीताए महाणदीए अदीवेअड्डा एवं चेव जाव अट्ठ उसभकूडा देवा पण्णत्ता ।
८१०
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये शीताया: महानद्याः उत्तरे उत्कर्ष पदे अष्ट अर्हन्तः, अष्ट चक्रवर्तिनः, अष्ट बलदेवाः, अष्ट वासुदेवा उदपदिषत वा उत्पद्यन्ते वा उत्पत्स्यन्ते
TI
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये शीतायाः ( महानद्या: ? ) उत्कर्ष पदे एवं चैव ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः दक्षिणे उत्कर्ष पदे एवं चैव ।
एवं उत्तरेणापि ।
७८. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में दक्षिणे शीता [ महानदी ? ] के दक्षिण में उत्कृष्टतः आठ अर्हत्, आठ चक्रवर्ती, आठ वलदेव और आठ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, होते हैं और होंगे" । ७६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
में शीतोदा महानदी के दक्षिण में उत्कृष्टत: आठ अर्हत्, आठ चक्रवर्ती, आठ बलदेव और आठ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, होते हैं और होंगे" ।
८०. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम में शीतोदा महानदी के उत्तर में उत्कृष्टतः आठ अर्हत्, आठ चक्रवर्ती, आठ बलदेव और आठ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, होते हैं और होंगे" ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये शीतायाः महानद्या: उत्तरे अष्ट दीर्घवैताढ्याः, अष्ट तमिस्रगुहाः, अष्ट खण्डकप्रपातगुहाः, अष्ट कृत मालकाः देवाः, अष्ट नृत्यमालकाः देवाः, अष्ट गङ्गाकुण्डानि, अष्ट सिन्धु कुण्डानि, अष्ट गंगाः, अष्ट सिन्धवः, अष्ट ऋषभकूटाः पर्वताः, अष्ट ऋषभकूटाः देवाः प्रज्ञप्ताः । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये शीतायाः महानद्याः दक्षिणे अष्ट दीर्घवैताढ्याः एवं चैव यावत् अष्ट ऋषभकूटा देवाः प्रज्ञप्ताः ।
स्थान : सूत्र ७७-८२
७७. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में
शीता महानदी के उत्तर में उत्कृष्टतः आठ अर्हत्, आठ चक्रवर्ती, आठ बलदेव और आठ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, होते हैं। और होंगे।
८१. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में
शीता महानदी के उत्तर में आठ दीर्घवैताढ्य, आठ तमिस्रगुफाएं, आठ खण्डकप्रपातगुफाएं, आठ कृतमालक देव, आठ नृत्यमालक देव, आठ गंगाकुण्ड, आठ सिन्धुकुण्ड, आठ गंगा, आठ सिन्धू, आठ ऋषभकूट पर्वत और आठ ऋषभकूट देव हैं ।
८२. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में शीता महानदी के दक्षिण में आठ दीर्घवैताढ्य, आठ तमिस्रगुफाएं, आठ खण्डकप्रपातगुफाएं, आठ कृतमालक देव, आठ
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ठाणं (स्थान)
स्थान ८: सूत्र ८३-८७ णवरमेत्थ रत्त-रत्तावती, तासि नवरं-अत्र रक्ता-रक्तवती, तासां नृत्यमालक देव, आठ रक्ताकुण्ड, आठ चेव कुंडा। चैव कुण्डानि।
रक्तवतीकुण्ड, आठ रक्ता, आठ रक्तवती, आठ ऋषभकूट पर्वत और आठ
ऋषभकूट देव है। ८३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वोपे मन्दरस्य पर्वतस्य ८३. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चस्थिमे णं सीतोयाए महाणदीए पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः दक्षिणे में शीतोदा महानदी के दक्षिण में आठ दाहिणे णं अटु दीयवेयड्डा जाव अष्ट दीर्घवैताढ्याः यावत् अष्ट नृत्य- दीर्घवैताढ्य, आठ तमिस्रगुफाएं, आठ अट्ठ णट्टमालगा देवा,अट्ट गंगाकुंडा, मालकाः देवाः, अष्ट गंगाकुण्डानि, खण्डकप्रपातगुफाएं, आठ कृतमालक देव, अट्ट सिंधुकंडा, अट्ठ गंगाओ, अट्ठ अष्ट' सिन्धूकुण्डानि, अष्ट गंगाः, आठ नृत्यमालक देव, आठ गंगाकुण्ड, सिंधूओ, अट्ट उसभकूडा पव्वता, अष्ट सिन्धवः, अष्ट ऋषभकूटाः पर्वताः, आठ सिन्धू कुण्ड, आठ गंगा, आठ सिन्धू, अट्ट उसभकूडा देवा पण्णत्ता। अष्ट ऋषभकूटाः देवाः प्रज्ञप्ताः । आठ ऋषभकूट पर्वत और आठ ऋषभकूट
देव हैं। ८४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ८४. जम्बुद्वीप द्वीप से मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चत्थिमे णं सीओयाए महाणदीए पाश्चात्ये शीतोदायाः महानद्याः उत्तरे में शीतोदा महानदी के उत्तर में आठ उत्तरे णं अट्ठ दीहवेयड्डा जाव अट्ठ अष्ट दीर्घवैताढ्याः यावत् अष्ट नृत्य- दीर्घवैताढ्य, आठ तमित्रगुफाएं, आठ णट्टमालगा देवा पण्णत्ता । अट्ठ मालकाः देवाः प्रज्ञप्ताः ।। खण्डकप्रपातगुफाएं, आठ कृतमालक देव, रत्ता कुंडा, अट्ठ रत्तावतिकुंडा, अट्ट अष्ट
रक्ताकुण्डानि, आठ नृत्यमालक देव, आठ रक्ताकुण्ड, रत्ताओ, अट्ठ रत्तावतीओ, अट्ठ अष्ट रक्तवतीकुण्डानि, अष्ट रक्ताः, आठ रक्तवतीकुण्ड, आठ रक्ता, आठ उसभकूडा पव्वता, अट्ठ उसभ- अष्ट रक्तवत्यः, अष्ट ऋषभकूटा: रक्तवती, आठ ऋषभकूट पर्वत और कूडा देवा पण्णत्ता।
पर्वताः, अष्ट ऋषभकूटा देवाः प्रज्ञप्ताः । आठ ऋषभकूट देव हैं । ८५. मंदरचूलिया णं बहुमज्झदेसभाए मन्दरचूलिका बहुमध्यदेशभागे अष्ट ८५. मन्दरचूलिका बहुमध्य-देशभाग में आठ
अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। योजनानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ता। योजन चौड़ी है।
धायइसंड-पदं धातकीषण्ड-पदम्
धातकीषण्ड-पद ८६. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं धातकीषण्डद्वीपपौरस्त्यार्धे धातकीरुक्षः ८६. धातकीषण्डद्वीप के पूर्वार्ध में धातकीवृक्ष
धायइरुक्खे अट्ठ जोयणाई उड्ड अष्ट योजनानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन, आठ योजन ऊंचा है। वह बहुमध्यदेशभाग उच्चत्तेणं, बहुमज्झदेसभाए बहुमध्यदेशभागे, अष्ट योजनानि में आठ योजन चौड़ा और सर्वपरिणाम में
अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं, विष्कम्भेण, सातिरेकाणि अष्ट योजनानि आठ योजन से अधिक है। साइरेगाइं अट्ठ जोयणाई सव्वग्गेणं सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तः ।
पण्णत्ते। ८७. एवं धायइरुक्खाओ आढवेत्ता एवं धातकीरुक्षात् आरभ्य सा एव ८७. इसी प्रकार धातकीषण्ड के पूर्वार्ध में
सच्चेव जंबूदीववत्तव्वता भाणि- जम्बूद्वीपवक्तव्यता भणितव्या यावत् धातकीवृक्ष से लेकर मन्दरचूलिका तक यव्वा जाव मंदरचूलियत्ति। मन्दरचूलिकेति ।
का वर्णन जम्बूद्वीप की भांति वक्तव्य हैं।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ८ : सूत्र ८८-६३ ५८. एवं पच्चत्थिमद्धेवि महाधातइ- एवं पाश्चात्यार्धेऽपि महाधातकीरुक्षात् ८८. इसी प्रकार धातकीषण्ड के पश्चिमार्द्ध में
रुक्खातो आढवेत्ता जाव मंदर- आरभ्य यावत् मन्दरचूलिकेति । महाधातकी वृक्ष से लेकर मन्दरचूलिका तक चूलियत्ति।
का वर्णन जम्बूद्वीप की भांति वक्तव्य है।
पुक्खरवर-पदं पुष्करवर-पदम्
पुष्करवर-पद ८६. एवं पुक्खरवरदीवडपुरथिमद्धेवि एवं पुष्करवरद्वीपार्धपौरस्त्याऽपि ८६. इसी प्रकार अर्द्धपुष्करवरद्वीप के पूर्वार्द्ध
पउमरुक्खाओ आढवेत्ता जाव पद्मरुक्षात् आरभ्य यावत् मन्दर- में पद्म वृक्ष से लेकर मन्दरचूलिका तक मंदरचूलियत्ति। चूलिकेति ।
का वर्णन जम्बूद्वीप की भांति वक्तव्य है। ६०. एवं पुक्खरवरदीवड्पच्चत्थिमद्धेवि एवं पुष्करवरद्वीपार्धपाश्चात्याधेऽपि ६०. इसी प्रकार अर्धपुष्करवरद्वीप के पश्चि
महापउमरुक्खातो जाव मंदर- महापद्म रुक्षात् यावत् मन्दरचूलिकेति। मार्द्ध में महापद्म वृक्ष से लेकर मन्दरचलियत्ति।
चूलिका तक का वर्णन जम्बूद्वीप की भांति वक्तव्य है।
कूड-पदं कूट-पदम्
कूट-पद ६१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पन्वते भद्द- जम्बद्वीपे द्वीपे मन्दरे पर्वते भद्रशालवने ६१. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के भद्र
सालवणे अट्ठ दिसाहत्थिकूडा अष्ट दिशाहस्तिकूटानि प्रज्ञप्तानि, शालवन में आठ दिशा-हस्तिकूट [पूर्व पण्णत्ता, तं जहातद्यथा
आदि दिशाओं में हाथी के आकार वाले
शिखर हैंसंगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. पउमुत्तर णीलवंते, १. पद्मोत्तरं नीलवान्,
१. पद्मोत्तर, २. नीलवान् ३. सुहस्ती, सुहत्थि अंजणागिरी। सुहस्ती अञ्जनगिरिः।
४. अंजनगिरि, ५. कुमुक, ६. पलाश, कुमुदे य पलासे य, कुमुदश्च पलाशश्च,
७. अवतंसक, ८. रोचनगिरि । वडेसे रोयणागिरी॥
अवतंस: रोचनगिरिः ॥
जगती-पदं जगती-पदम्
जगती-पद ६२. जंबूदीवस्स णं दीवस्स जगती अट्ठ जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य जगती अष्ट ६२. जम्बूद्वीप द्वीप की जगती आठ योजन
जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं, बहुमज्झ- योजनानि ऊर्ध्व उच्चत्वेन, बहुमध्यदेश- ऊंची और वहुमध्यदेशभाग में आठ योजन देसभाए अद्र जोयणाई विक्खंभेणं भागे अष्ट योजनानि विष्कम्भेण चौड़ी है। पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ता ।
मण
कूड-पदं कूट-पदम्
कूट-पद ६३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ६३. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं महाहिमवंते वासहर- महाहिमवति वर्षधरपर्वते अष्ट कूटानि में महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के आठ कूट पव्वते अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा– प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
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ठाणं (स्थान
संग्रहणी - गाहा १. सिद्ध महाहिमवंते, हिमवंते रोहिता हिरीकडे । हरिकंता हरिवासे,
doलिए चैव कूडा उ ॥ ६४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रुप्पिमि वासहरपव्वते अट्ठ कूडा पण्णत्ता, त जहा१. सिद्धे य रुप्पि रम्मग, रकता बुद्धि रुपकूडे । हिरण्णवते मणिकंचणे, य रुपिम्मि कडा उ ॥ ६५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थमे णं रुयगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा १. रिट्ठ तवणिज्ज कंचण, रयत दिसासोत्थिते पलंबे य । अंजणे अंजणपुलए, ore रत्थमे कूडा || तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिड्डियाओ जाव पलि - ओवमद्वितीओ परिवति, तं जहा २. दुत्तरा य णंदा,
आणंदा दिवद्वणा ।
विजया य वेजयंती,
जयंती अपराजिया | ६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणं गव पव्वते अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा १. कण कंचणे उमे, लिणे ससि दिवायरे चेव । वेसमणे बेरुलिए, यस उ दाहिणे कडा ॥
८१३
ग्रहणी - गाथा
१. सिद्ध: महाहिमवान्, हिमवान् रोहितः ह्रीकूटं । हरिकान्ता हरिवर्ष
वैचैव कूटानि तु ॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे रुक्मिणि वर्षधर पर्वते अष्ट कूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा१. सिद्धश्च रुक्मी रम्यकः, नरकान्तः बुद्धिः रूप्यकूटं च । हिरण्यवान् मणिकाञ्चनं च रुक्मिणि कूटानि तु ।। जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये रुचकवरे पर्वते अष्ट कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा -
१.
रिष्टं तपनीयं काञ्चनं, रजतं दिशासौवस्तिकं प्रलम्बश्च । अञ्जनं अञ्जनपुलकं, रुचकस्य पौरस्त्ये कूटानि ॥ तत्र अष्ट दिशाकुमारी महत्तरिका: महद्धिकाः यावत् पत्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा— २. नन्दोत्तरा च नन्दा, आनन्दा नन्दिवर्धना ।
विजया च वैजयन्ती, जयन्ती अपराजिता ॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे रुचकबरे पर्वते अष्ट कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा—
१. कनकं काञ्चनं पद्म, नलिनं शशी दिवाकरश्चैव । वैश्रमणः वैडूर्य, रुचकस्य तु दक्षिणे कूटानि ॥
स्थान ८ : सूत्र ६४-६६
१. सिद्ध, २. महाहिमवान्, ३. हिमवान्,
४. रोहित, ५. ह्रीकूट, ६. हरिकांत, ७. हरिवर्ष, ८ वैडूर्य ।
६४. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में रुक्मी वर्षधर पर्वत के आठ कूट हैं
३. रम्यक,
१. सिद्ध, २. रुक्मी, ४. नरकांत, ५. बुद्धि, ६. रूप्यकूट, ७. हैरण्यवत, ८. मणिकाञ्चन ।
६५. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में रुचकवर पर्वत के आठ कूट हैं
१. रिष्ट,
२. तपनीय, ३. कांचन, ४. रजत, ५. दिशास्वस्तिक, ६. प्रलंब, ७. अंजन, ८. अंजनपुलक ।
वहां महान् ऋद्धिवाली यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाली दिशाकुमारी महत्तरिकाएं रहती हैं-१. नन्दोत्तरा, २. नन्दा, ३. आनन्दा, ४. नन्दिवर्धना, ५. विजया ६. वैजयन्ती, ७. जयन्ती, ८. अपराजिता ।
६६. जम्बुद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के दक्षिण में रुचकर पर्वत के आठ कूट हैं
१. कनक, २. काञ्चन, ३. पद्म, ४. नलिन, ५. शशी, ६. दिवाकर, ७. वैश्रमण, ८. वैडूर्य ।
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ठाणं (स्थान)
८१४
स्थान ८ : सूत्र ६७-६८ तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्त- तत्र अष्ट दिशाकुमारीमहत्तरिकाः वहां महान् ऋद्धिवाली यावत् एक पल्योरियाओ महिड्डियाओ जाव पलि- महद्धिका: यावत् पल्योपमस्थितिकाः पम की स्थिति वाली आठ दिशाकुमारी ओवमट्टितीयाओ परिवसंति, तं परिवसन्ति, तद्यथा
महत्तरिकाएं रहती हैंजहा२. समाहारा सुप्पतिण्णा, २. समाहारा सुप्रतिज्ञा,
१. समाहारा, २. सुप्रतिज्ञा, सुप्पबुद्धा जसोहरा। सुप्रबुद्धा यशोधरा।
३. सुप्रबुद्धा, ४. यशोधरा, लच्छिवती सेसवती, लक्ष्मीवती शेषवती,
५. लक्ष्मीवती, ६. शेषवती, चित्तगुत्ता वसुंधरा। चित्रगुप्ता वसुन्धरा
७.चित्रगुप्ता, ८. वसुन्धरा। ६७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ९७. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चत्थिमे णं रुयगवरे पन्वते अट्ठ पाश्चात्ये रुचकवरे पर्वते अष्ट कूटानि में रुचकवर पर्वत के आठ कूट हैंकूडा पण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्तानि, तद्यथा१. सोत्थिते य अमोहे य, १. स्वस्तिकश्च अमोहश्च,
१. स्वस्तिक, २. अमोह, ३. हिमवान्, हिमवं मंदरे तहा। हिमवान् मन्दरस्तथा।
४. मन्दर, ५. रुचक, ६. रुचकोत्तम, रुअगे रुयगुत्तमे चंदे, रुचकः रुचकोत्तमः चन्द्रः,
७. चन्द्र, ८. सुदर्शन। अट्ठमे य सुदंसणे॥
अष्टमश्च सुदर्शनः॥ तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्त- तत्र अष्ट दिशाकुमारोमहत्तरिकाः वहां महान ऋद्धिवाली यावत् एक पल्योरियाओ महिडियाओ जाव पलि- महद्धिकाः यावत् पल्योपमस्थितिकाः पम की स्थिति वाली आठ दिशाकुमारी ओवमद्वितीयाओ परिवसंति, तं परिवसन्ति, तद्यथा
महत्तरिकाएं रहती हैंजहा२. इलादेवी सुरादेवी, २. इलादेवी सुरादेवी,
१. इलादेवी, २. सुरादेवी, ३. पृथ्वी, पुढवी पउमावती। पृथ्वी पद्मावती।
४. पद्मावती. ५. एकनासा, ६. नवमिका, एगणासा णवमिया, एकनाशा नवमिका,
७. सीता, ८. भद्रा। सीता भद्दा य अटुमा॥ शीता भद्रा च अष्टमी। १८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे ६८. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में
उत्तरे णं रुअगवरे पव्वते अट्ठ कूडा रुचकवरे पर्वते अष्ट कूटानि प्रज्ञप्तानि, रुचकवर पर्वत के आठ कूट हैंपण्णत्ता, तं जहा.--
तद्यथा.. १. रयण-रयणुच्चए या, १. रत्नं रत्नोच्चयश्च,
१. रत्न, २. रत्नोच्चय, ३. सर्वरत्न, सव्वरयण रयणसंचए चेव । सर्वरत्नं रत्नसंचयश्चैव ।
४. रत्नसञ्चय, ५. विजय, ६. वैजयन्त, विजये य वेजयंते, विजयश्च वैजयन्तः,
७. जयन्त, ८. अपराजित । जयंते अपराजिते॥ जयन्तः अपराजितः ।। तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्त- तत्र अष्ट दिशाकुमारीमहत्तरिकाः । वहां महान ऋद्धिवाली यावत् एक पल्योरियाओ महड्डियाओ जाव पलि- महद्धिकाः यावत् पल्योपमस्थितिकाः पम की स्थिति वाली आठ दिशाकुमारी ओवमट्रितीयाओ परिवसंति, तं परिवसन्ति, तद्यथा
महत्तरिकाएं रहती हैंजहा
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८१५
स्थान ८ : सूत्र ६६-१०२
ठाणं (स्थान)
२. अलंबुसा मिस्स केसी, पोंडरिगीय वारुणी। आसा सव्वगा चेव, सिरी हिरी चेव उत्तरतो॥
२. अलंबुषा मिश्रकेशी, पौंडरिकी च वारुणी। आशा सर्वगा चैव, श्रीः ह्रीः चैव उत्तरतः॥
१. अलंबुषा, २. मिश्रकेशी, ३. पौण्डरिकी ४. वारुणी, ५. आशा, ६. सर्वगा, ७. श्री, ८. ह्री।
महत्तरिया-पदं महत्तरिका-पदम्
महत्तरिका-पद ६६. अट्ठ अहेलोगवत्थव्वाओ दिसा- अष्ट अधोलोकवास्तव्याः दिशाकुमारी- ६६. अधोलोक में रहने वाली दिशाकुमारियों कुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, महत्तरिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
की महत्तरिकाएं आठ हैंतं जहासंगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. भोगकरा भोगवती, १. भोगकरा भोगवती,
१. भोगंकरा, २. भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी। सुभोगा भोगमालिनी।
३. सुभोगा, ४. भोगमालिनी, सुवच्छा वच्छमित्ता य, सुवत्सा वत्समित्रा च,
५. सुवत्सा, ६. वत्समित्रा, वारिसेणा बलाहगा॥ वारिषेणा बलाहका ।।
७. वारिषेणा, ८. बलाहका। १००. अट्ट उड्लोगवत्थव्वाओ दिसा- अष्ट ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः दिशाकुमारी- १००. ऊंचे लोक में रहने वाली दिशाकुमारियों कुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, महत्तरिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
की महत्तरिकाएं आठ हैंतं जहा१. मेघंकरा मेघवती, १. मेघकरा मेघवती,
१. मेघंकरा, २. मेघवती, सुमेघा मेघमालिणी। सुमेघा मेघमालिनी।
३. सुमेघा, ४. मेघमालिनी, तोयधारा विचित्ता य, तोयधारा विचित्रा च,
५. तोयधारा, ६. विचित्रा, पुप्फमाला अणिदिता॥ पुष्पमाला अनिन्दिता॥
७. पुष्पमाला, ८. अनिन्दिता।
कप्प-पदं कल्प-पदम्
कल्प-पद १०१. अट्ट कप्पा तिरिय-मिस्सोव- अष्ट कल्पाः तिर्यग-मिश्रोपपन्नकाः १०१. आठ कल्प [देवलोक ] तिर्यग-मिथोप
पन्नक [तिर्यञ्च और मनुष्य दोनों के वण्णगा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
उत्पन्न होने योग्य ] हैंसोहम्मे, 'ईसाणे, सणंकुमारे, सौधर्मः, ईशानः, सनत्कुमारः, माहेन्द्रः,
१. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, माहिंदे, बंभलोगे, लंतए, ब्रह्मलोकः, लान्तकः, महाशुक्रः,
४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. लान्तक, महासुक्के, सहस्सारे। सहस्रारः।
७. महाशुक्र, ८. सहस्रार। १०२ एतेसु णं असु कप्पेसु अट्ठ इंदा एतेषु अष्टसु कल्पेषु अष्टेन्द्राः प्रज्ञप्ताः, १०२. इन आठ कल्पों में आठ इन्द्र हैंपण्णत्ता तं जहातद्यथा
१. शक्र, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, सक्के, 'ईसाणे, सणंकुमारे, शक्रः, ईशानः, सनत्कुमारः, माहेन्द्रः, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. लान्तक, माहिदे, बंभे, लंतए, महासुक्के, ब्रह्मा, लांतकः, महाशुक्रः, सहस्रारः। ७. महाशुक्र, ८. सहस्रार। सहस्सारे।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ८: सूत्र १०३-१०६ १०३. एतेसि णं अट्ठण्हं इंदाणं अट्ठ परिया- एतेषां अष्टानां इन्द्राणां अष्ट १०३. इन आठ इन्द्रों के आठ पारियानिक
णिया विमाणा पण्णत्ता, तं जहा- पारियानिकानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, विमान हैं -- पालए, पुप्फए, सोमणसे, तद्यथा
१. पालक, २. पुष्पक, ३. सौमनस, सिरिवच्छे, णंदियावत्ते, पालक, पुष्पकं, सौमनसं, श्रीवत्सं, ४. श्रीवत्स, ५. नन्द्यावर्त्त, ६. कामक्रम, कामकमे, पीतिमणे, मणोरमे।। नन्द्यावर्त,कामक्रम,प्रीतिमनः,मनोरमम। ७. प्रीतिमन, ८. मनोरम।
पडिमा-पदं प्रतिमा-पदम्
प्रतिमा-पद १०४. अट्टमिया णं भिक्खुपडिमा अष्टाष्टमिका भिक्षुप्रतिमा चतुःषष्ठिक १०४. अष्टाष्टमिका (८४८) भिक्षु-प्रतिमा
चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य रात्रिदिवः द्वाभ्यां च आष्टाशीतैः ६४ दिन-रात तथा २८८ भिक्षादत्तियों अट्ठासीतेहि भिक्खासतेहि अहासुत्तं भिक्षाशतैः यथासूत्रं यथार्थ यथातत्त्वं । द्वारा यथासूत्र, यथाअर्थ, यथातत्त्व, यथा'अहाअत्थं अहातच्चं अहामग्गं यथामार्ग यथाकल्पं सम्यक् कायेन स्पृष्टा । मार्ग, यथाकल्प तथा सम्यक् प्रकार से अहाकप्पं सम्मं काएणं फासिया पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता काया से आचीर्ण, पालित, शोधित,पूरित, पालिया सोहिया तीरिया किट्रिया अनपालिता अपि भवति ।
कीर्तित और अनुपालित की जाती है। अणुपालितावि भवति ।
जीव-पदं जीव-पदम्
जीव-पद १०५. अविधा संसारसमावण्णगा जीवा अष्टविधाः संसारसमापन्नका: जीवाः १०५. संसारसमापन्नक जीव आठ प्रकार के पण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्ताः, तद्यथापढमसमयणेरइया, प्रथमसमयनैरयिकाः,
१. प्रथम समय नैरयिक। अपढमसमयणेरइया, अप्रथमसमयनै रयिका:,
२. अप्रथम समय नैरयिक। •पढमसमयतिरिया, प्रथमसमयतिर्यञ्चः,
३. प्रथम समय तिर्यञ्च । अपढमसमयतिरिया, अप्रथमसमयतिर्यञ्च:,
४. अप्रथम समय तिर्यञ्च। पढमसमयमणुया, प्रथमसमयमनुजाः,
५. प्रथम समय मनुष्य। अपढमसमयमणुया, अप्रथमसमयमनुजाः,
६. अप्रथम समय मनुष्य। पढमसमयदेवा, प्रथमसमयदेवाः,
७. प्रथम समय देव। अपढमसमयदेवा। अप्रथमसमयदेवाः।
८. अप्रथम समय देव। १०६. अटूविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं अष्टविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, १०६. सभी जीव आठ प्रकार के हैंजहातद्यथा
१. नैरयिक, २. तिर्यञ्चयोनिक, रइया, तिरिक्खजोणिया, नैरयिकाः, तिर्यग्योनिकाः,
३.तिर्यञ्चयोनिकी, ४. मनुष्य, तिरिक्खजोणिणीओ, मणुस्सा, तिर्यग्योनिक्यः,
५. मानुषी, ६. देव, ७. देवी, मणस्सीओ, देवा, देवीओ, सिद्धा। मनष्याः, मानष्यः, देवाः, देव्यः, सिद्धाः। ८. सिद्ध । अहवा–अटुविधा सध्वजीवा अथवा अष्टविधा, सर्वजीवा: अथवा-सभी जीव आठ प्रकार के हैंपण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
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८१७
ठाणं (स्थान)
आभिणिबोहियणाणी, 'सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी, केवलणाणी, मतिअण्णाणी, सुत्तअण्णाणी, विभंगणाणी।
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मत्यऽज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी।
स्थान ८ : सूत्र १०७-१०६ १. आभिनिवोधिकज्ञानी, २. श्रुतज्ञानी, ३. अवधिज्ञानी, ४. मनःपर्यवज्ञानी, ५. केवलज्ञानी, ६. मतिअज्ञानी, ७. श्रुतअज्ञानी, ८. विभंगज्ञानी।
संजम-पदं संयम-पदम्
संयम-पद १०७. अविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा- अष्टविधः संयमः प्रज्ञप्तः, तदयथा- १०७. संयम के आठ प्रकार है
पढमसमयसुहमसंपरागस राग- प्रथमसमयसूक्ष्मसंपरायसरागसंयमः, १. प्रथमसमय सूक्ष्मसंपराय सरागसंजमे,
संयम । अपढमसमयसुहमसंपरागसराग- अप्रथमसमयसूक्ष्मसंपरायसरागसंयमः,
२. अप्रथमसमय सूक्ष्मसंपराय सरागसंजमे,
संयम । पढमसमयबादरसंपरागसराग- प्रथमसमयबादरसंपरायसरागसंयमः,
३. प्रथमसमय बादरसंपराय सरागसंजमे,
संयम। अपढमसमयबादरसंपरागसराग- अप्रथमसमयबादरसंपरायसरागसंयमः,
४. अप्रथमसमय बादरसंपराय सरागसंजमे,
संयम । पढमसमयउवसंतकसायवीतराग- प्रथमसमयोपशान्तकषायवीतराग- ५. प्रथमसमय उपशांतकषाय वीतरागसंजमे, संयमः,
संयम। अपढमसमयउवसंतकसायवीतराग- अप्रथमसमयोपशान्तकषायवीतराग- ६. अप्रथमममय उपशांतकषाय वीतरागसंजमे, संयमः,
संयम। पढमसमयखीणकसायवीतराग- प्रथमसमयक्षीणकषायवीतराग
७. प्रथमसमय क्षीणकपाय वीतरागसंजमे, संयमः,
संयम। अपढमसमयखीणकसायवीतराग- अप्रथमसमयक्षीणकषायवीतराग
८. अप्रथम समय क्षीणकषाय बीतरागसंजमे। संयमः।
संयम ।
पुढवि-पदं पृथिवी-पदम्
पृथिवी-पद १०८. अट्ट पुढवीओ पण्णताओ, तं जहा- अष्ट पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- १०८. पृथ्वियां आठ हैं
रयणप्पभा, 'सक्करप्पभा, रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, १. रत्नप्रभा, २. शर्कराप्रभा, वालुअप्पभा, पंकप्पभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमा, ३. बालुकाप्रमा, ४. पंकप्रभा, अधःसप्तमी, ईषत्प्राग्भारा।
५. धूमप्रभा, धूमप्पभा, तमा, अहेसत्तमा,
६. तनःप्रभा,
७. अधःसप्तमी (महातमःप्रभा), ईसिपब्भारा।
८. ईषत्प्रागभारा। १०६. ईसिपब्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झ- ईषत्प्राग्भारायाः पृथिव्याः बहुमध्य- १०८. ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बहुमध्यदेशभाग
देसभागे अट्ठजोयणिए खेत्ते अट्ठ देशभागे अष्टयोजनिक क्षेत्रं अष्ट में आठ योजन लम्बे-चौड़े क्षेत्र की मोटाई जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। योजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ।
आठ योजन की है।
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ठाणं (स्थान)
८१८
स्थान ८ : सूत्र ११०-१११ ११०. ईसिपब्भाराए णं पुढवीए अट्ठ ईषत्प्राग्भारायाः पृथिव्याः अष्ट ११०. ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के आठ नाम हैं--
णामधे जा पणत्ता, तं जहा- नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाईसति वा, ईसिपब्भाराति वा, ईषत् इति वा, ईषतप्रागभारेति वा. १. इषत्, २. इषत्प्रारभारा, ३. तनु, तणूति वा, तणुतणूइ वा, तनुरिति वा, तनुतनुरिति वा,
४. तनुतनु, ५. सिद्धि, ६. सिद्धालय, सिद्धीति वा, सिद्धालएति वा, सिद्धिरिति वा, सिद्धालय इति वा,
७. मुक्ति, ८. मुक्तालय। मुत्तीति वा, मुत्तालएति वा। मुक्तिरिति वा, मुक्तालय इति वा ।
अब्भुट्ठ तव्व-पदं अभ्युत्थातव्य-पदम्
अभ्युत्थातव्य-पद १११. अहि ठाणेहि सम्मं घडितव्वं अष्टाभिः स्थानः सम्यग् घटितव्यं १११. साधक आठ वस्तुओं के लिए सम्यक् जतितव्वं परक्कमितव्वं अस्सि च यतितव्यं पराक्रमितव्यं अस्मिन् च अर्थे
चेष्टा" करे, सम्यक् प्रयत्न करे, सम्यक
पराक्रम" करे और इन आठ स्थानों में णं अट्ठ णो पमाएतव्वं भवति- नो प्रमदितव्यं भवति
किचित् भी प्रमाद न करे१. असुयाणं धम्माणं सम्म १. अश्रुतानां धर्माणां सम्यक् श्रवणतायै १. अश्रुत धर्मों को सम्यक् प्रकार से सुनने सुणणत्ताए अभट्टतव्वं भवति। अभ्युत्थातव्यं भवति।
के लिए जागरूक रहे। २. सुताणं धम्माणं ओगिण्हणयाए २. श्रुतानां धर्माणां अवग्रहणतायै उप- २. सुने हुए धर्मों के मानसिक ग्रहण और उवधारणयाए अब्भुट्ठ तव्वं भवति । धारणतायै अभ्युत्थातव्यं भवति। उनकी स्थिर स्मृति के लिए जागरूक रहे। ३. णवाणं कम्माणं संजमेणम- ३. नवानां कर्मणां संयमेन अकारणतायै ३. संयम के द्वारा नए कर्मों का निरोध करणताए अन्भुट्ठयव्वं भवति। अभ्युत्थातव्यं भवति ।
करने के लिए जागरूक रहे। ४. पोराणाणं कम्माणं तवसा ४. पुराणानां कर्मणां तपसा विवेचनताये ४. तपस्या के द्वारा पुराने कर्मों का विवेविगिचणताए विसोहणताए विशोधनतायै अभ्युत्थातव्यं भवति । चन-पृथक्करण और विशोधन करने अब्भुट्ठतव्वं भवति।
के लिए जागरूक रहे। ५. असंगिहीतपरिजणस्स संगिण्हण- ५. असंगृहीतपरिजनस्य संग्रहणताये ५. असंगृहीत परिजनों-शिष्यों को ताए अब्भुट्ठ यव्वं भवति । अभ्युत्थातव्यं भवति।
आश्रय देने के लिए जागरूक रहे। ६. सेहं आयारगोयरं गाहणताए ६. शैक्षं आचारगोचरं ग्राहणतायै ६. शैक्ष-नव-दीक्षित मुनि को आचार अब्भुट्ठयव्वं भवति। अभ्युत्थातव्यं भवति ।
गोचर" का सम्यग् बोध कराने के लिए
जागरूक रहे। ७. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्च- ७. ग्लानस्य अग्लान्या वैयावृत्य- ७. ग्लान की अग्लानभाव से वैयावृत्य करणताए अब्भुट्ठयव्वं भवति। करणताय अभ्युत्थातव्यं भवति ।
करने के लिए जागरूक रहे। ८. साहम्मियाणमधिकरणंसि ८. साधर्मिकानां अधिकरणे उत्पन्ने तत्र ८. सार्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सितो अनिश्रितोपाश्रितो अपक्षग्राही मध्यस्थ- होने पर ये मेरे सार्मिक किस प्रकार अपक्खग्गाही मज्झत्थभावभूते कह भावभूतः कथं नु सामिकाः अल्पशब्दाः अपशब्द, कलह और तू-तू मैं-मैं से मुक्त गु साहम्मिया अप्पसद्दा अप्पझ्झा अल्पझ्झा: अल्पतुमन्तुमाः ? उपशमन- हों—ऐसा चिन्तन करते हुए लिप्सा और अप्पतुमंतुमा? उवसामणताए तायै अभ्युत्थातव्यं भवति ।
अपेक्षा-रहित होकर, किसी का पक्ष न अन्भुट्ठ यन्वं भवति।
लेकर, मध्यस्थ-भाव को स्वीकार कर उसे उपशांत करने के लिए जागरूक रहे।
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ठाणं (स्थान)
८१६
स्थान ८ : सूत्र ११२-११५
विमाण-पदं विमान-पदम्
विमान-पद ११२. महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु महाशुक्र-सहस्रारेषु कल्पेषु विमानानि ११२. महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में विमान
विमाणा अट्ठ जोयणसताई उड्ड अष्ट योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन आठ सौ योजन ऊंचे हैं। उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
प्रज्ञप्तानि।
वादि-पदं वादि-पदम्
वादि-पद ११३. अरहतो णं अरिटणे मिस्स अट्ठसया अर्हतः अरिष्टनेमे: अष्टशतानि वादिनां ११३. अर्हत् अरिष्टनेमि के आठ सौ साधु वादी
वादीणं सदेवमणुयासुराए परिसाए सदेवमनुजासुरायां परिषदि वादे थे। वे देव, मनुष्य और असुर-किसी वादे अपराजिताणं उक्कोसिया अपराजितानां उत्कर्षिता वादिसंपत् । की भी परिषद् में वादकाल में पराजित वादिसंपया हुत्था। अभवत्।
नहीं होते थे। यह उनकी उत्कृष्टवादी सम्पदा थी।
केवलिसमुग्घात-पदं केवलिसमुद्घात-पदम्
केवलिसमुद्घात-पद ११४. अटुसमइए केवलिसमुग्घाते अष्ट सामयिक: केवलिसमुद्घात: ११४. केवली-समुद्घात आठ समय का पण्णत्ते, तं जहाप्रज्ञप्तः, तद्यथा
होता है--- पढमे समए दंडं करेति, प्रथमे समये दण्डं करोति, १. केवली पहले समय में दण्ड करते हैं। बीए समए कवाडं करेति, द्वितीये समये कपाटं करोति,
२. दूसरे समय में कपाट करते हैं।
३. तीसरे समय में मंथान करते हैं। ततिए समए मंथं करेति, तृतीये समये मन्थं करोति,
४. चौथे समय में समूचे लोक को भर चउत्थे समए लोगं करेति, चतुर्थ समये लोकं करोति, देते हैं। पंचमे समए लोग पडिसाहरति, पञ्चमे समये लोकं प्रतिसंहरति, ५. पांचवें समय में लोक का-लोक में
परिव्याप्त आत्म-प्रदेशों का संहरण करते छट्टै समए मंथं पडिसाहरति, षष्ठे समये मन्थं प्रतिसंहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, सप्तमे समये कपाट प्रतिसंहरति, ६. छठे समय में मंथान का संहरण करते अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति । अष्टमे समये दण्डं प्रतिसंहरति ।
७. सातवें समय में कपाट का संहरण करते
८. आठवें समय में दण्ड का संहरण करते
अणुत्तरोववाइय-पदं अनुत्तरोपपातिक-पदम्
अनुत्तरोपपातिक-पद ११५. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अष्ट ११५. श्रमण भगवान् महावीर के अनुत्तरविमान
अट्ठ सया अणुतरोववाइयाणं शतानि अनुत्तरोपपातिकानां गति- में उत्पन्न होने वाले साधु आठ सौ थे। वे गतिकल्लाणाणं 'ठितिकल्लाणाणं,' कल्याणानां स्थितिकल्याणानां कल्याण-गतिवाले, कल्याण-स्थिति आगमेसिभद्दाणं उक्कोसिया आगमिष्यद्भद्राणां उत्कर्षिता अनु- वाले तथा भविष्य में निर्वाण प्राप्त करने अणुत्तरोववाइयसंपया हुत्था। तरोपपातिकसंपत् अभवत् ।
वाले थे। वह उनकी उत्कृष्ट अनुत्तरोपपातिक सम्पदा थी।
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ठाणं (स्थान)
वाणमंतर - पदं
वानमन्तर-पदम्
वानमन्तर पद
११६. अट्ठविधा वाणमंतरा देवा पण्णत्ता, अष्टविधाः वानमन्तराः देवाः प्रज्ञप्ताः, ११६. वाणमंतर आठ प्रकार के हैं
तं जहा
पिसाया, भूता, जक्खा, रक्खसा, किष्णरा, किंपुरिसा, महोरगा,
१. पिशाच, २. भूत, ३. यक्ष, ४. राक्षस, ५. किन्नर, ६. किंपुरुष, ७. महोरग, ८. गन्धर्व ।
गंधaar |
११७. एतेसि णं अट्ठविहाणं वाणमंतर देवा अट्ठ चेइयरुक्खा पण्णत्ता, तं जहासंग्रहणी - गाहा १. कलंबो उ पिसायाणं,
ast जक्खाण चेइयं ।
तुलसी भूयाण भवे, रक्खाणं च कंडओ ॥ २. असोओ किण्णराणं च, करिसाणं तु चंपओ |
erroral भुयंगाणं, गंधवाय तेंदुओ ॥
दार-पदं
१२०. जंबुद्दीवरस णं दीवस्स दारा अट्ठ जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं पण्णत्ता
।
८२०
तद्यथा
पिशाचाः, किन्नराः,
गन्धर्वाः ।
भूताः, यक्षा, राक्षसाः, किंपुरुषाः, महोरगाः,
एतेषां अष्टविधानां वानमन्तरदेवानां अष्ट चैत्यरुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
संग्रहणी - गाथा
१. कदम्बस्तु पिशाचानां, वटो यक्षानां चैत्यम् ।
तुलसी : भूतानां भवेत्,
राक्षसानां च काण्डकः ॥ २. अशोकः किन्नराणां च, किंपुरुषाणां तु चम्पकः । नागरुक्ष: भुजङ्गानां, गन्धर्वाणां
तिन्दुक: ॥
ज्योतिष-पदम्
अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसम - रमणीयात् भूमिभागात् अष्टयोजनशतं ऊर्ध्व अबाधया सूरविमानं चारं चरति ।
जोइस-पदं
११८. इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम - रमणिज्जाओ भूमिभागाओ अजोणसते उड्डमबाहाए सूरविमाणे चारं चरति ।
११. अट्ठ णवखत्ता चंदेणं सद्धि पमद्दं अष्ट नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्धं प्रमदं योगं ११६. आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ प्रमर्द [ स्पर्श ]
योग करते हैं
जोगं जोएंति, तं जहाकत्तिया, रोहिणी, पुणव्वसू, महा, चित्ता, विसाहा, अणुराधा,
१. कृत्तिका, २. रोहिणी, ३. पुनर्वसु, ४. मघा, ५. चित्रा, ६. विशाखा, ७. अनुराधा, ८ ज्येष्ठा ।
जेट्ठा ।
योजयन्ति, तद्यथा—
कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसुः, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा ।
स्थान ८ : सूत्र ९१६-१२०
द्वार-पदम्
जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य द्वाराणि अष्ट योजनानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि ।
११७. इन आठ वाणमंतर देवों के चैत्यवृक्ष आठ हैं
१. पिशाचों का चैत्यवृक्ष कदंब है।
२. यक्षों का चैत्यवृक्ष बट है ।
३. भूतों का चैत्यवृक्ष तुलसी है ।
४. राक्षसों का चैत्यवृक्ष काण्डक है।
५. किन्नरों का चैत्यवृक्ष अशोक है ।
६. किंपुरुषों का चैत्यवृक्ष चम्पक है ।
७. महोरगों का चैत्यवृक्ष नागवृक्ष है। ८. गंधर्वो का चैत्यवृक्ष तेंदुक - आबनूस है ।
ज्योतिष-पद
११८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम [ समतल ]
रमणीय भूभाग से आठ सौ योजन की ऊंचाई पर सूर्य विमान गति करता है।
द्वार-पद
१२०. जम्बुद्वीप द्वीप के द्वार आठ-आठ योजन
ऊंचे हैं।
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ठाणं (स्थान)
१२१. सर्व्वेसिपि णं दीवसमुद्दाणं दारा अजोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं
पण्णत्ता ।
बंध ठिति-पदं
१२२. पुरिस वेयणिज्जस्स णं कम्मस्स जहणणं असंच्छराई बंधठिति
पण्णत्ता ।
१२३. जसो कित्तीणामस्स णं कम्मस्स जगणं अटू मुत्ताई बंधठिती
पण्णत्ता ।
१२४. उच्चागोतस्स णं कम्मस्स 'जहणणेणं अट्ठाई बंधठती पण्णत्ता ।
कुलकोड-पदं
१२५. इंदियाणं अट्ठ जाति-कुलकोडि - जो मुह-सतसहस्सा पण्णत्ता ।
पावकम्म- पदं
१२६. जीवा णं अट्ठठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणि वाचिणंति वाचिणिस्संति वा, तं जहा - पढमसमयणेरइयणिव्वत्तिते, अपढमसमयणेरइयणिव्यत्तिते, पढमसमय तिरिय णिव्वत्तिते, अपढमसमय तिरियणिव्वत्तिते,
पढसमयमणिव्वत्तिते, अपढमसमयमणुयणिव्वत्तिते,
पढमसमयदेव णिव्वत्तिते, ' अपढमसमयदेव णिव्वत्तिते ।
एवं चिण उवचिण बंध उदीर - वेद तह' णिज्जरा चेव ।
८२१
सर्वेषामपि द्वीपसमुद्राणां द्वाराणि अष्ट योजनानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि ।
बन्धस्थिति-पदम् पुरुषवेदनीयस्य कर्मणः जघन्येन अष्ट संवत्सराणि बन्धस्थिति: प्रज्ञप्ता । यशोकीर्त्तिनाम्नः कर्मण: जघन्येन अष्ट मुहूर्ता बन्धस्थितिः प्रज्ञप्ता |
पापकर्म-पदम्
जोवा : अष्टस्थाननिर्वतितान् पुद्गलान् पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति चेष्यन्ति वा तद्यथाप्रथमसमयनै रयिकनिर्वर्तितान्, अप्रथमसमयनै रयिकनिर्वर्तितान्, प्रथमसमय तिर्यग्निर्वर्तितान्, अप्रथमसमयतिर्यग्निर्वर्तितान्, प्रथमसमयमनुजनिर्वर्तितान्, अप्रथमसमयमनुजनिर्वर्तितान्, प्रथमसमयदेवनिर्वर्तितान्, अप्रथमसमयदेवनिर्वतितान् ।
स्थान : सूत्र १२१-१२६ १२१. सभी द्वीप-समुद्रों के द्वार आठ-आठ योजन ऊंचे हैं ।
उच्चगोत्रस्य कर्मणः जघन्येन अष्ट १२४. उच्च गोत्र कर्म की बंध- स्थिति कम से मुहूर्त्ता बन्धस्थितिः प्रज्ञप्ता । कम आठ मुहूर्त्त की है।
एवम् — चय- उपचय-बन्ध उदीर-वेदा: तथा निर्जरा चैव ।
बन्धस्थिति पद
१२२. पुरुषवेदनीय कर्म की बंध-स्थिति कम से कम आठ वर्षों की है।
कुल कोटि-पदम्
कुलकोटि-पद
त्रीन्द्रियाणां अष्ट जाति-कुल कोटि-योनि- १२५ त्रीन्द्रिय जाति के योनि - प्रवाह में होने प्रमुख - शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । वाली कुल कोटियां आठ लाख हैं" ।
१२३. यशः कीर्ति नाम कर्म की बंध- स्थिति कम से कम आठ मुहूर्त की है ।
पापकर्म - पद
१२६. जीवों ने आठ स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्म के रूप में चय किया है, करते हैं और करेंगे
१. प्रथमसमय नैरयिकनिर्वर्तित पुदगलों का ।
२. अप्रथमसमय नैरयिकनिर्वर्तित पुद्गलों
का ।
३. प्रथमसमय तिर्यञ्चनिर्वर्तित पुद्गलों
का ।
४. अप्रथमसमय तिर्यञ्चनिर्वर्तित पुद्गलों
का ।
५. प्रथमसमय मनुष्यनिर्वर्तित पुद्गलों
का |
६. प्रथमसमय मनुष्य निर्वर्तित पुद्गलों
का ।
७. प्रथमसमय देवनिर्वर्तित पुद्गलों का । ८. अप्रथमसमय देवनिर्वर्तित पुद्गलों का। इसी प्रकार उनका उपचय, बन्धन, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे।
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ठाणं (स्थान)
पोग्गल - पदं
पुद्गल-पदम्
१२७. अट्टएसिया खंधा अनंता पण्णत्ता । अष्टप्रदेशिकाः
१२८. अपएसो गाढा पोग्गला अनंता पण्णत्ता जाव अट्टगुणलुक्खा पोग्गला अनंता पण्णत्ता ।
८२२
पुद्गल-पद
स्कन्धाः अनन्ता : १२७. अष्टप्रदेशी स्कंध अनन्त हैं ।
प्रज्ञप्ताः ।
अष्टप्रदेशावगाढा : पुद्गलाः अनन्ताः प्रज्ञप्ताः यावत् अष्टगुणरूक्षाः पुद्गलाः अनन्ताः प्रज्ञप्ताः ।
स्थान ५ : सूत्र १२७-१२८
१२८. अष्टप्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त हैं । आठ समय की स्थिति वाले पुदगल अनन्त हैं।
आठ गुण काले पुद्गल अनन्त हैं ।
इसी प्रकार शेष वर्णं तथा गंध, रस और स्पर्शो के आठ गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं ।
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१. एकलविहार प्रतिमा ( सू० १)
एकलविहार प्रतिमा का अर्थ है-अकेला रहकर साधना करने का संकल्प जैन परंपरा के अनुसार साधक तीन स्थितियों में अकेला रह सकता है'
१. एकाकिविहार प्रतिमा स्वीकार करने पर ।
२. जिनकल्प प्रतिमा स्वीकार करने पर ।
३. मासिक आदि भिक्षु प्रतिमाएं स्वीकार करने पर ।
प्रस्तुत सूत्र में एकाकिविहार प्रतिमा स्वीकार करने की योग्यता के आठ अंग बतलाए गए हैं। वे ये हैं
१. श्रद्धावान् — अपने अनुष्ठानों के प्रति पूर्ण आस्थावान् । ऐसे व्यक्ति का सम्यक्त्व और चारित्र मेरु की भांति होता है।
२. सत्य पुरुष - सत्यवादी। ऐसा व्यक्ति अपनी प्रतिज्ञा के पालन में निडर होता है, सत्याग्रही होता है।
टिप्पणियाँ
स्थान- ८
मान कहा जाता है। छह मास तक भोजन न मिलने पर भी जो भूख से पराजित न हो, ऐसा अभ्यास तपस्या- तुला है । भय और निद्रा को जीतने का अभ्यास सत्त्व तुला है। उन्हें जीतने के लिए वह पहली रात को, सब साधुओं के सो जाने पर, उपाश्रय में ही कायोत्सर्ग करता है । दूसरी बार उपाश्रय से बाहर, तीसरे चरण में किसी चौक में, चौथे में शून्य घर में और पांचवें क्रम में श्मशान में रात में कायोत्सर्ग करता है। तीसरी तुला है सूत्र भावना । वह सूत्र के परावर्तन से उच्छ्वास आदि काल के भेद को जानने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। एकत्व तुला के द्वारा वह आत्मा को शरीर से भिन्न जानने का अभ्यास कर लेता
है। बल-तुला के द्वारा यह मानसिक बल को इतना विकसित कर लेता है कि जिससे भयंकर उपसर्ग उपस्थित होने पर भी उनसे विचलित नहीं होता ।
समर्थ ।
३. मेधावी - श्रुतग्रहण की मेधा से सम्पन्न ।
४. बहुश्रुत - जघन्यतः नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु को तथा उत्कृष्टतः असम्पूर्ण दस पूर्वो को जानने वाला ।
५. शक्तिमान् –तपस्या, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल इन पाँच तुलाओं से जो अपने आपको तोल लेता है उसे शक्ति
जो साधक जिनकल्प प्रतिमा स्वीकार करता है. उसके लिए ये पांच तुलाएं हैं। इनमें उत्तीर्ण होने पर ही वह जिनकल्प प्रतिमा स्वीकार कर सकता है।
६. अल्पाधिकरण - उपशान्त कलह की उदीरणा तथा नए कलहों का उद्भावन न करने वाला ।
७. धृतिमान् - अरति और रति में समभाव रखने वाला तथा अनुलोम और प्रतिलोम उपसर्गों को सहने में
८. वीर्यसंपन्न स्वीकृत साधना से सतत उत्साह रखने वाला ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३९५ एकाकिनो विहारो - ग्रामादिचर्या स एव प्रतिमाभिग्रहः एकाकिविहार प्रतिमा जिनकल्प प्रतिमा मासिक्यादिका वा भिक्षु प्रतिमा ।
२. वही, पत्र, ३६५ ।
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स्थान ८ : टि० २-३
२. योनि-संग्रह (सू० २)
योनि-संग्रह का अर्थ है---प्राणियों की उत्पत्ति के स्थानों का संग्रह।
जीव यहां से मरकर जहां उत्पन्न होता है, उसे 'गति' और जहाँ से आकर यहां उत्पन्न होता है, उसे 'आगति' कहते हैं।
अंडज, पोतज और जरायुज-इन तीन प्रकार के जीवों की गति और आगति आठ-आठ प्रकार की होती है।
शेष रसज, संस्वेदिम, सम्मूच्छिम, उद्भिन्न और औपपातिक नरक और देव] जीवों की गति और आगति आठ प्रकार की नहीं होती। ये नारक या देवयोनि में उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि इनमें (नारक तथा देवयोनि में) केवल पञ्चेन्द्रिय जीव ही उत्पन्न होते हैं। औपपातिक जीव भी रसज आदि योनियों में उत्पन्न नहीं होते। वे केवल पञ्चेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवों की योनियों में ही उत्पन्न होते हैं।' ३. (सू० १०)
जो व्यक्ति एक भी माया का आचरण कर उसकी विशुद्धि नहीं करता. उसके तीनों जन्म गहित होते हैं
१. उसका वर्तमान जीवन गहित होता है। लोग स्थान-स्थान पर उसकी निन्दा करते हैं और उसे बुरा-भला कहते हैं। वह अपने दोष के कारण सदा भीत और उद्विग्न रहता है तथा अपने प्रकट और प्रच्छन्न दोषों को घुमाता रहता है। इन आचरणों से वह अपना विश्वास खो देता है। इस प्रकार उसका वर्तमान जीवन निन्दित हो जाता है।
२. उसका उपपात (देव जीवन) गहित होता है। मायावी व्यक्ति मरकर यदि देवयोनि में उत्पन्न होता है तो वह किल्बिषिक आदि नीच देवों के रूप में उत्पन्न होता है।
३. उसका आयाति-जन्म गहित होता है। मायावी किल्बिषिक आदि देवस्थानों से च्युत होकर पुनः मनुष्य जन्म में आता है तब वह गहित होता है, जनता द्वारा सम्मानित नहीं होता।'
जो मायावी अपनी माया की विशुद्धि नहीं करता, उसके अनर्थों की ओर संकेत करते हुए वृत्तिकार ने बताया
जो व्यक्ति लज्जा, गौरव या विद्वता के मद से अपने अपराध को गुरु के समक्ष स्पष्ट नहीं करते, वे कभी आराधक नहीं हो सकते।
जितना अनर्थ शस्त्र, विष, दुष्प्रयुक्त बैताल (भूत) और यंत्र तथा क्रुद्ध सर्प नहीं करता उतना अनर्थ आत्मा में रहा हुआ माया-शल्य करता है। इसके अस्तित्व-काल में सम्बोधि अत्यन्त दुर्लभ हो जाती है और प्राणी अनन्त जन्म-मरण करता है।
प्रस्तुत सत्र में माया का आचरण कर उसकी आलोचना करने और न करने से होने वाले अनर्थों का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन हुआ है । वृत्तिकार ने आलोचना करने वालों के कुछेक गुणों की ओर संकेत किया है। गुण मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६५ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६७ । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६७ :
लज्जाए गारवेण य बहुस्सुयमएण वावि दुच्चरियं । जे न कहिंति गुरूणं न हु ते माराहगा होति ॥ नवि तं सत्यं ब विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइओ कुद्धो । जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि ! दुल्लहबोहीअत्तं
अणंतसंसारियत्तं वा ।।
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स्थान ८: सूत्र ४-६
आलोचना से आठ गुण निष्पन्न होते हैं१. लघुता-मन अत्यन्त हल्का हो जाता है। २. प्रसन्नता-मानसिक प्रसक्ति बनी रहती है। ३. आत्मपर नियंत्रिता---स्व और पर नियंत्रण सहज फलित होता है। ४. आर्जव-ऋजुता बढ़ती है। ५. शोधि-दोषों की विशुद्धि होती है। ६. दुष्करकरण-दुष्कर कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। ७. आदर--आदर भाव बढ़ता है। ८. निःशल्यता-मानसिक गांठे खुल जाती हैं और नई गांठें नहीं घलती; ग्रन्थि-भेद हो जाता है।
४. नलाग्नि (सू० १०)
- इसका अर्थ है-नरकट की अग्नि । नरकट पतली-लम्बी पत्तियों तथा पतले गांठदार डंटल वाला एक पौधा होता है।
५-७ शुण्डिका भण्डिका गोलिका का चूल्हा (सू० १०)
'सोडिय' पेटी के आकार का एक भाजन होता है जो मद्य पकाने के लिए, आटा सिझाने के काम आता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ कजावा' किया है।
लिंछाणि का अर्थ है...चल्हा। वृत्तिकार ने प्राचीन मत का उल्लेख करते हए गोलिय' 'सोडिय', और 'भंडिय' को अग्नि के आश्रयस्थान-विभिन्न प्रकार के चूल्हे माना है। कुछ व्याख्याकारों ने इन्हें विभिन्न देशों में रूढ आटे को पकाने वाली अग्नियों के प्रकार माना है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक अर्थ करते हुए भंडिका' को छोटी हांडी और गोतिका' को बड़ी हांडी माना है। ८. बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् (सू० १०)
देवताओं के कर्मकर स्थानीय देव और देवियां बाह्य परिषद् की सदस्य होती हैं तथा पुत्र कलत्र स्थानीय देव और देवियां आभ्यन्तर परिषद् के सदस्य होते हैं।
६. आयु, भव और स्थिति के क्षय (सू० १०)
___ आगमों में मृत्यु के वर्णन में प्राय: ये तीन शब्द संयुक्त रूप से प्रयुक्त होते हैं। ऐसे तो ये तीनों शब्द एकार्थक हैं, किन्तु इनमें कुछ भेद भी है।
आयक्षय...मनुष्य आदि की पर्याय के निमित्तभूत आयुष्य कर्म के पुद्गलों का निर्जरण। भवक्षय-वर्तमान भव (पर्याय) का सर्वथा विनाश ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६६ ।
लहुयाल्हाइयजणणं अप्पपर नियति अज्जवं सोही।
दुक्करकरणं पाढा निस्सल्लत्तं च सोहिगुणा॥ २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६८ : सुण्डिकाः पिटकाकाराणि सुरा
पिष्टस्वेदनभाजनानि कवेल्लयो वा संभाव्यन्ते । ३. वही, पत्र ३६८ : उक्तं च वृद्धः-गोलियसोंडियभंडिय
लिहाणि अग्नेरावयाः।
४. वही, पत्र ३६८ : अन्यस्तु देशभेदरूढ्या एते पिष्टपाच
काम्यादि भेदा इत्युक्तम् । ५. वही, पत्र ३९८ : भंडिका...- स्थाल्यः वा एव महत्यो
गोलिकाः। ६. वही, पत्र ३९८: देवलोकेषु बाह्या अप्रत्यासन्ना दासा
दिवत् अभ्यन्तरा प्रत्यासन्ना पुत्रकलबादिवत् परिषत् परिवारो भवति ।
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स्थान ८ : टि० १०-१४
स्थितिक्षय-आयु: स्थिति के बंध का क्षय अथवा वर्तमान भव के कारणभूत सभी कर्मों का क्षय ।'
गा
१०. अंतकुल कृपणकुल (सू० १०)
यहां छह कुलों का नामोल्लेख हुआ है। ये कुल व्यक्तिवाची नहीं किन्तु समूहवाची हैं। इनसे उस समय की सामाजिक व्यवस्था का एक रूप सामने आता है। वृत्तिकार ने उनकी व्याख्या इस प्रकार की है
अंतकुल--म्लेच्छकुल । वरुट, छिपक आदि का कुल । प्रांतकुल-चांडाल आदि के कुल । तुच्छकुल-छोटे परिवार वाले कुल, तुच्छ विचार वाले कुल । दरिद्रकुल-निर्धनकुल। भिक्षाककुल-भिक्षा से जीवन-निर्वाह करने वाले भिखमंगों के कुल ।
कृपणकुल-दान द्वारा आजीविका चलाने वाले कुल ; नट, नग्नाचार्य आदि के कुल जो खेल-तमाशा आदि दिखाकर आजीविका चलाते हैं।
११. दिव्यधुति (सू० १०)
सामान्यतः आगमों में यह पाठ 'जुई या जुति' प्राप्त होता है। उसका अर्थ है 'द्युति' । वृत्तिकार ने जिस आदर्श को मानकर व्याख्या की है, उसमें उन्हें जुत्ति' पाठ मिला है । उसके आधार पर उन्होंने इसका संस्कृत पर्याय 'युक्ति' और उसका अर्थ----अन्यान्य 'भांतों' (विभागों वाला) किया है।' १२. दिव्यप्रभा... दिव्यलेश्या (सू० १०)
प्रभा--माहात्म्य । छाया–प्रतिबिम्ब। अचि-शरीर से निर्गत तेज की ज्वाला। तेज-शरीरस्थ कांति।
लेश्या-शुक्ल आदि अन्तःस्थ परिणाम । १३. उद्योतित ...प्रभासित (सू० १०)
उद्योतित का अर्थ है-स्थूल वस्तुओं को प्रकाशित करना और प्रभासित का अर्थ है-सूक्ष्म वस्तुओं को प्रकाशित करना ऐसे ये दोनों शब्द एकार्थक भी हैं।
१४. आहत नाट्यों, गीतों (सू० १०)
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६८ : देवलोकादवधेः प्रायुः कर्मपुद्गल
निर्जरणेन, भवक्षयेण-प्रायुः कर्मादिनिबन्धनदेवपर्यायनाशेन, स्थितिक्षयेण-आयुः स्थितिबन्धक्षयेण देवभवनिबन्धन
शेषकर्मणां वा। २. स्थानांगवृत्ति पत्र ३९८ : अन्तकुलाणि-वरुटपिकादीना
प्रान्तकुलानि – चण्डालादीनां तुच्छकुलानि–प्रल्पमानुषाणि प्रगम्भीराशयानि वा दरिदकुलानि-अनीश्वराणि कृपणकुलानि-तर्कणवृत्तीनि नटनग्नाचार्यादीनां भिक्षाककुलानि-भिक्षणवृत्तीनि ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६६: युक्त्या-अन्यान्यभक्तिभिस्तथा
विधद्र व्ययोजनेन । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६६ : उद्योतयमानः-स्थूलवस्तूपदर्शनतः
प्रभासयमानस्तु-सूक्ष्मवस्तूपदर्शनत इति, एकाथिकत्वेऽपि
चैतेषां न दोषः। ५. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३६६ : (क) अहत :-अनुबद्धो रवस्यतद्विशेषणं नाट्यं नृत्तं तेन
युक्त गीतं नाट्यगीतम् । (ख) अथवा 'आह-य' ति आख्यानकप्रतिबद्धं यन्नाट्यं तेन युक्तं यत् तद् गीतम् ।
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स्थान ८: टि०१५-१६
१. गायनयुक्त नृत्य। २. आख्यानक (कथानक) प्रतिबद्ध नाट्य और उसके उपयुक्त गीत ।
१५. (सू० १४)
प्रस्तुत सूत्र में लोकस्थिति के आठ प्रकारों में छठा प्रकार है-'जीव कर्म पर आधारित है' तथा आठवां प्रकार है— 'जीव कर्म के द्वारा संगृहीत है। ये दोनों विवक्षा से प्रतिपादित हुए हैं। पहले में जीवों के अपग्राहकत्व के रूप में कर्मों का आधार विवक्षित है और दूसरे में कर्म जीवों को बांधने वाले के रूप में विवक्षित है।
__इसी प्रकार पांचवें और सातवें प्रकार में जीव और पुद्गल एक-दूसरे के उपकारी हैं, इसलिए उन्हें एक-दूसरे पर आधारित कहा है। तथा वे परस्पर एक-दूसरे से बंधे हुए हैं, इसलिए उन्हें एक-दूसरे द्वारा संगृहीत कहा है।
१६. गणि संपदा (सू० १५)
प्रस्तुत सूत्र में गणी-आचार्य की आठ प्रकार की सम्पदाओं का उल्लेख है। दशाश्रुतम्कंध [दशा ४] में इन संपदाओं का पूरा विवरण प्राप्त होता है। वहां प्रत्येक संपदा के चार-चार प्रकार बतलाए हैं।
स्थानांग के वृत्तिकार ने इनके भेदों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। वह इस प्रकार है१. आचार संपदा [संयम की समृद्धि]--
१. संयमध्रुवयोगयुक्तता-चारित्र में सदा समाधियुक्त होना। २. असंप्रग्रह--जाति, श्रुत आदि मदों का परिहार । ३. अनियतवृत्ति-अनियत विहार।। व्यवहार भाष्य में इसका अर्थ अनिकेत भी किया है।'
४. बृद्धशीलता--शरीर और मन की निर्विकारता, अचंचलता। २. श्रुत संपदा [श्रुत की समृद्धि]
१. बहुश्रुतता--अंग और उपांग श्रुत में निष्णातता, युगप्रधान पुरुष । २. परिचितसूत्रता-आगमों से चिर परिचित होना । व्यवहार भाष्य में बताया है कि जो व्यक्ति उत्त्रम,
क्रम आदि अनेक प्रकार से अपने नाम की तरह श्रुत से परिचित होता है उसकी उस निपुणता को
परिचितसूत्रता कहा जाता है। ३. विचित्रसूत्रता----स्व और पर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में निपुणता । व्यवहार भाष्य में इसके साथ
साथ इसका अर्थ उत्सर्ग और अपवाद को जाननेवाला भी किया है।"
४. घोषविशुद्धिकर्ता--अपने शिष्यों को सूत्र उच्चारण का स्पष्ट अभ्यास कराने में समर्थता। ३. शरीर संपदा [शरीर सौन्दर्य] -
१. आरोहपरिणाहयुक्तता-आरोह का अर्थ-ऊँचाई और परिणाह का अर्थ है-विशालता। इस संपदा
का अर्थ है-... शरीर की उचित ऊंचाई और विशालता से सम्पन्न होना।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०० : षष्ठपदे जीवोपग्राहत्वेन कर्मण
आधारता विवक्षितेह तु तस्यैव जीवबन्धनतेति विशेषः । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०१ । ३. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २५८, पन ३७ :
अणिययचारी अणिययवित्ती प्रगिहितो बिहोइ अणिकेता।
४. वही, भाष्यगाथा २६१, पत्न ३८:
सगनार्म व परिचियं उक्कमउक्कमतो बहूहि विगमेहि । ५. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २६१, पत्र ३८ :
ससमयपरसमएहि य उस्सग्गोववायतो चित्तं ।।
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स्थान ८ : टि० १६
२. अनवनपता-अलज्जनीय अंगवाला होना। व्यवहारभाष्य में इसका अर्थ है-अहीनसर्वाङ्ग
जिसके सभी अंग अहीन हों-पूर्ण हों।' ३. परिपूर्ण इन्द्रियता-पांचों इन्द्रिया की परिपूर्णता और स्वस्थता।
४. स्थिरसंहननता-प्रथम संहनन-वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त। ४. वचन संपदा [वचन-कौशल]
१. आदेय वचनता-जिसके वचनों को सभी स्वीकार करते हों। २. मधुर वचनता-व्यवहारभाष्य में इसके तीन अर्थ किए।
१. अर्थयुक्तवचन। २. अपरुषवचन।
३. क्षीरास्रव आदि लब्धियुक्त वचन । ३. अनिश्रितवचनता-मध्यस्थ वचन ।
व्यवहारभाष्य में इसके दो अर्थ किए हैं:१. जो वचन क्रोध आदि से उत्पन्न न हो।
२ जो बचन राग-द्वेष युक्त न हो। ४. असदिग्धवचनता-व्यवहारभाष्य में इसके तीन अर्थ किए हैं
१. अव्यक्तवचन। २. अस्पष्ट अर्थ वाला वचन ।
३. अनेक अर्थों वाला वचन। ५. वाचना संपदा [अध्यापन-कौशल]---
१. विदित्वोद्देशन-शिष्य की योग्यता को जानकर उद्देशन करना। २. विदित्वा समुद्देशन-शिष्य की योग्यता को जानकर समुद्देशन करना। ३. परिनिर्वाप्यवाचना-पहले दी गई वाचना को पूर्ण हृदयंगम कराकर आगे की वाचना देना।
४. अर्थ निर्यापणा--अर्थ के पौर्यापर्य का बोध कराना। ६. मति संपदा [बुद्धि-कौशल]
१. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय ४. धारणा। ७. प्रयोग संपदा [वाद-कौशल]
१. आत्म परिज्ञान-वाद या धर्मकथा में अपने सामर्थ्य का परिज्ञान । २. पुरुष परिज्ञान-वादी के मत का ज्ञान, परिषद् का ज्ञान । ३. क्षेत्र परिज्ञान-वाद करने के क्षेत्र का ज्ञान । ४. वस्तु परिज्ञान-वाद-काल में निर्णायक के रूप में स्वीकृत सभापति आदि का ज्ञान । व्यवहारभाष्य में इसके दो अर्थ किए हैं।
१. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २६५, पत्र ३८ :
तवुलजाए धाऊ अलज्जणीयो अहीणसम्बंगो। २. वही, भाष्यगाथा २६६, पत्र ३८: पढमगसंघयणथिरो। ३. वही, भाष्यगाथा २६७, २६८, पत्र ३६ :
....."अत्यावगाडं भवे महरं ।।
अहवा अपरूसवयणो खीरासवमादिलद्धिजुत्तो वा। ४. वहीं, भाष्यगाथा २६८, पत्र ३६ : ।
निस्सिय कोहाईहिं अहवा वीयरागदोसेहिं ।।
५. वही, भाष्यगाथा २६६, पव ३६ :
अब्वत्तं अफुउत्थं अत्थ बहुत्ता व होति संदिद्धं ।
विवरीयमसंदिद्धं वयणे................॥ ६. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २८७, पत्र, ४१ :
वत्थु परवादी ऊ बहु आगमितो न वा च णाऊणं । रायावरायमच्चो दारुणभहस्सभावोत्ति ।।
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स्थान ८ : टि०१६
१. यह जानना कि परवादी अनेक आगमों का ज्ञाता है या नहीं।
२. यह जानना कि राजा, अमात्य आदि कठोर स्वभाव वाले हैं अथवा भद्र स्वभाव वाले। ८. संग्रह-परिज्ञा [संघ व्यवस्था में निपुणता]
१. बालादियोग्यक्षेत्र स्थानांग के वृत्तिकार ने यहां केवल 'बालादियोग्यक्षेत्र' मात्र लिखा है। इसका स्पष्ट आशय व्यवहार भाष्य में मिलता है। व्यवहारभाष्य में इसके स्थान पर 'बहुजनयोग्यक्षेत्र' शब्द है। भाष्यकार ने इसका अर्थ करते हुए दो विकल्प प्रस्तुत किए है। आचार्य को वर्षा ऋतु के लिए ऐसे क्षेत्र का निर्वाचन करना चाहिए जो विस्तीर्ण हो, जो समूचे संघ के लिए उपयुक्त हो। २. जो क्षेत्र बालक, दुर्बल, ग्लान तथा प्रापर्णकों के लिए उपयुक्त हो।
भाष्यकार ने आगे लिखा है कि ऐसे क्षेत्र की प्रत्युपेक्षणा न करने से साधुओं का संग्रह नहीं हो सकता तथा वे साधु दूसरे गच्छों में भी चले जा सकते हैं। २. पीठ-फलग संप्राप्ति-पीठ-फलग आदि की उपलब्धि करना। व्यवहारभाष्य में इसका आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है कि वर्षाकाल में मुनि अन्यत्र विहार नहीं करते तथा उस समय वस्त्र आदि भी नहीं लेते। वर्षाकाल में पीठ-फलग के बिना संस्तारक आदि मैले हो जाते हैं तथा भूमि की शीतलता से कुन्थु आदि जीवों की उत्पत्ति भी होती है। अत: आचार्य वर्षाकाल में पीठ-फलग आदि की उचित व्यवस्था करें। ३. कालसमानयन-यथा समय स्वाध्याय, भिक्षा आदि की व्यवस्था करना। व्यवहार भाष्य में इसको
स्पष्ट करते हुए बताया है कि आचार्य को यथासमय स्वाध्याय, उपकरणों की प्रत्युप्रेक्षा, उपधि का
संग्रह तथा भिक्षा आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।' ४. गुरु पूजा-यथोचित विनय की व्यवस्था बनाए रखना।
व्यवहार भाष्य में गुरु के तीन प्रकार किए हैं१. प्रव्रज्या देनेवाला गुरु । २. अध्यापन कराने वाला गुरु। ३. दीक्षा पर्याय में बड़े मुनि। इन तीनों प्रकार के गुरुओं की पूजा करना अर्थात् उनके आने पर खड़े होना, उनके दंड (यष्टि) को ग्रहण करना, उनके योग्य आहार का संपादन करना, बिहार आदि में उनके उपकरणों का भार ढोना तथा
उनका मर्दन आदि करना। प्रवचन सारोद्धार में सातवीं सम्पदा का नाम 'प्रयोगमति' है। सम्पदाओं के अवान्तर भेदों में शाब्दिक भिन्नता है
१. व्यवहार सूत्र उद्देशक १०, भाष्यगाथा २६०, पत्र ४१ :
वासे बहुजण जोग विच्छिन्नं जंतु गच्छपायोग ।
अहवा बि बालदुब्बलगिलाणादेसमादीणं ।। २. वही, भाष्यगाथा २६१, पत्र ४१ :
खेत्ते प्रति असंगहिया ताहे वच्चंति ते उ अन्नत्य । ३. वही, भाष्यगाथा २६१, २६२, पत्र ४१ :
.."न उ मइल्लेति निसेज्जा पीढफलगाण गहणमि । वियरे न तु वासासु अन्नकाले उ गम्मते णत्थ ।
पाणासीयल कुथादिया ततो गहण वासासु ।। ४. बही, भाष्यगाथा २६३, पत्र ४१:
जं जंमि होइ काले कायव्व तं समाणए तमि। सज्झाया पट्ट उवही उप्यायण भिक्खमादी य ।।
५. वहीं, भाष्यगाथा २६४, २६५, पत्र ४१, ४२ :
ग्रह गुरु जे णं पब्वावितो उ जस्स व अहीति पासंमि । अहवा अहागुरु खलु हति रायणियतरागा उ ।। तेसि अब्बुट्ठाणं दंडग्गह तह य होइ अाहारे ।
उबही वहणं विस्सामणं य संपूयणा एसा ॥ ६. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५४२ :
आयार सुय शरीरे वयणे वायण मई पोगमई । एएस संपया खलु अमिया संगहपरिण्णा ।।
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तथा कहीं-कहीं आर्थिक भिन्नता भी है। वह इस प्रकार है
१. आचार संपदा -
१. चरणयुत, २. मदरहित, ३. अनियतवृत्ति, ४ अचंचल |
२. श्रुतसंपदा -
१. युग (युग प्रधानता ), २. परिचितसूत्र, ३. उत्सर्गी ४. उदात्तघोष ।
३. शरीर संपदा -
१. चतुरस्र, २. अकुटादि - परिपूर्ण कर्मेन्द्रियता, ३. बधिरत्ववर्जित- अविकल इन्द्रियता ४ तप: समर्थ ---- सभी प्रकार की तपस्या करने में समर्थ ।
४. वचन संपदा ----
१. वादी, २. मधुर वचन, ३. अनिश्रित वचन, ४. स्फुट वचन ।
५. वाचना संपदा -
६. मति संपदा -
१. योग्य वाचना -- शिष्य की योग्यता को जानकर उद्देशन, समुद्देशन देना ।
२. परिणत वाचना - पहले दी हुई वाचना को हृदयंगम कराकर आगे की वाचना देना ।
३. निर्यापयिता - वाचना का अन्त तक निर्वाह करता ।
४. निर्वाहक- पूर्वापर की संगति बिठाकर अर्थ का निर्वाह करना ।
१. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय, ४. धारणा ।
७. प्रयोगमति संपदा ----
१. शक्तिज्ञानवाद करने की अपनी शक्ति का ज्ञान ।
२. पुरुषज्ञान -- वादी के मत का ज्ञान ।
३. क्षेत्रज्ञान,
४. वस्तुज्ञान ।
८. संग्रह परिज्ञा
स्थान ८ : टि० १६
१. गणयोग्य उपग्रह - गण के निर्वाह योग्य क्षेत्र का संकलन ।
२. संसक्त संपद् व्यक्तियों को अनुरूप देशना देकर उन्हें आकृष्ट करना ।
३. स्वाध्याय संपद्यथा समय स्वाध्याय, प्रत्युत्प्रेक्षण, भिक्षाटन उपधिग्रहण की व्यवस्था करना ।
४. शिक्षा उपसंग्रह संपद् गुरु, प्रव्राजक, अध्यापक, रत्नाधिक आदि मुनियों का भार वहन करने, वैयावृत्य करने तथा विनय करने की शिक्षा देने में समर्थ । '
प्रवचन सारोद्धार के वृत्तिकार ने मतान्तरों का भी उल्लेख किया है। उन्होंने जो ये उपभेद किए हैं उनका आधार दशाgतस्कंध से कोई भिन्न ग्रन्थ रहा है।
१. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५४३-५४६
चरणजुओ मयरहियो अनिययवित्ती अचंचलो चैव । जुग परिचिय उस्सग्गी उदत्तघोसाइ विन्नेओ । चसो कुटाई बहिरत्तणवज्जो तवे सत्तो । वाई महुरत्त निस्सिय फुडवयणो संपया वयणेत्ति ॥ जोगो परियणवायण निज्जविया वायणाए निव्वहणे । ओह ईहावाया धारण भइसंपया चउरोति ॥ सत्ती पुरिसं खेत्तं वत्युं नाउं पयोजए वायं । गणजोगं संसतं सज्झाए सिक्खणं जाणे ॥
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स्थान ८: टि० १७-२०
१७. समितियां (सू० १७)
उत्तराध्ययन २४१२ में ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग को समिति और मन, वचन और काया के गोपन को 'गुप्ति' कहा है। प्रस्तुत सूत्र में इन आठों को 'समिति' कहा गया है। मन, वचन और काया का निरोध भी होता है और सम्यक् प्रवर्तन भी । उत्तराध्ययन में जहाँ इनको 'गुप्ति' कहा है, वहां इनके निरोध की अपेक्षा की गई है और यहां इनके सम्यक प्रवर्तन के कारण इनको समिति कहा है।
१८. प्रायश्चित्त (सू० २०)
प्रस्तुत सूत्र में स्खलना हो जाने पर मुनि के लिए आठ प्रकार के प्रायश्चित्त बतलाए गए हैं। अपराध की लघुता और गुरुता के आधार पर इनका प्रतिपादन हुआ है। लघुता और गुरुता का निर्णय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर किया जाता है। एक ही प्रकार के अपराध में भी प्रायश्चित्त की भिन्नता हो सकती है। यह प्रायश्चित्त देने वाले व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपराध के किस पक्ष को कहाँ लघु और गुरु मानता है। प्रायश्चित्त दान की विविधता का हेतु पक्षपात नहीं, किन्तु विवेक है । निशीथ प्रायश्चित्त सूत्र है। उसमें विस्तार से प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। यहां केवल आठ प्रकार के प्रायश्चित्तों का नामोल्लेख मात्र है। स्थानांग १०७३ में प्रायश्चित्त के दस प्रकार बतलाए हैं। विशेष विवरण वहाँ से ज्ञातव्य है।
१६. मद (सू० २१)
अंगुत्तरनिकाय में मद के तीन प्रकार तया उनसे होने वाले अपायों का निर्देश है --- १. यौवन मद, २. आरोग्य मद, ३. जीवन मद।
इनसे मत्त व्यक्ति शरीर, वाणी और मन से दुष्कर्म करता है। वह शिक्षा को त्याग देता है। उसकी दुर्गति और पतन होता है । वह मर कर नरक में जाता है।'
२०. अक्रियावादी (सू० २२)
चार समवसरणों में एक अक्रियावादी है। वहां उसका अर्थ अनात्मवादी–क्रिया के अभाव को मानने वाला, केवल चित्तशुद्धि को आवश्यक एवं क्रिया को अनावश्यक मानने वाला—किया है। प्रस्तुत सूत्र में इसका प्रयोग 'अनात्मवादी'
और 'एकान्तवादी'-दोनों अर्थों में किया गया है। इन आठ वादों में छह वाद एकान्तदृष्टि वाले हैं। 'समुच्छेदवाद' और 'नास्तिमोक्षपरलोकवाद'—ये दो अनात्मवाद हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने धर्म्यश की दृष्टि से जैसे चार्वाक को नास्तिकअक्रियावादी कहा है, वैसे ही धर्माश की दृष्टि से सभी एकांतवादियों को नास्तिक कहा है
'धर्म्य नास्तिको ह्यको, बार्हस्पत्यः प्रकीर्तितः ।
धर्माशे नास्तिका ज्ञेयाः, सर्वेऽपि परतीथिकाः ।।" अक्रियावादियों के चौरासी प्रकार बतलाए गए हैं
असियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीती। अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा॥
१. अंगुत्तरनिकाय, प्रथम भाग, पृष्ठ १४६, १५० । २. सूवकृतांग १।१२।१; भगवती ३०१ । ३. नयोपदेश, श्लोक १२६ । ४. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा ११६ ।
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स्थान ८ : टि० २०
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प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित वादों का संकलन करते समय सूत्रकार के सामने कौन सी दार्शनिक धाराएं रही हैं, इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है, किन्तु वर्तमान में उन धाराओं के संवाहक दार्शनिक ये हैं१. एकवादी -
१. ब्रह्माद्वैतवादी - वेदान्त ।
२. विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध |
३. शब्दाद्वैतवादी वैयाकरण |
ब्रह्माद्वैतवादी के अनुसार ब्रह्म, विज्ञानाद्वैतवादी के अनुसार विज्ञान और शब्दाद्वैतवादी के अनुसार शब्द पारमार्थिक तत्त्व है, शेष तत्त्व अपारमार्थिक हैं, इसलिए ये सारे एकवादी हैं । अनेकान्तदृष्टि के अनुसार सभी पदार्थ संग्रहनय की दृष्टि से एक और व्यवहारनय की दृष्टि से अनेक हैं ।
२. अनेकवादी - वैशेषिक अनेकवादी दर्शन है। उसके अनुसार धर्म-धर्मी, अवयव अवयवी भिन्न-भिन्न हैं ।' ३. मितवादी
१. जीवों की परिमित संख्या मानने वाले । इसका विमर्श स्याद्वादमंजरी में किया गया है।
२. आत्मा को अंगुष्टपर्व जितना अथवा श्यामाक तंदुल जितना मानने वाले । यह औपनिषदिक अभिमत है ।
३. लोक को केवल सात द्वीप समुद्र का मानने वाले । यह पौराणिक अभिमत है ।
४. निर्मितवादी - नैयायिक, वैशेषिक आदि लोक को ईश्वरकृत मानते हैं।'
५. सातवादी बौद्ध |
वृत्तिकार के अनुसार 'सातवाद' बौद्धों का अभिमत है । इसकी पुष्टि सूत्रकृतांग ३।४।६ से होती है। चार्वाक का साध्य सुख है, फिर भी उसे 'सातवादी' नहीं माना जा सकता क्योंकि 'सातं सातेण विज्जति' - सुख का कारण सुख ही है, यह कार्य-कारण का सिद्धान्त चार्वाक के अभिमत में नहीं है। बौद्ध दर्शन पुनर्जन्म में विश्वास करता है और उसकी मध्यम प्रतिपदा भी कठिनाइयों से बचकर चलने की है, इसलिए उसे 'सातवादी' माना जा सकता है।
सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने सातवाद को बौद्ध सिद्धान्त माना है। 'सात सातेण विज्जति' इस श्लोक की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि अब बौद्धों का परामर्श किया जा रहा है--' इदानीं शाक्याः परामृश्यन्ते'' भगवान् महावीर के अनुसार कायक्लेश भी सम्मत था। सूत्रकृतांग में उसका प्रतिनिधिवाक्य है- 'अत्तहियं खु दुहेण लब्भई' - आत्म-हित कष्ट से सिद्ध होता है । 'सात सातेण विज्जई' – इसी का प्रतिपक्षी सिद्धान्त है । इसके माध्यम से बौद्धों ने जैनों के सामने यह विचार प्रस्तुत किया था कि शारीरिक कष्ट की अपेक्षा मानसिक समाधि का सिद्धान्त श्रेष्ठ है। कार्य-कारण के सिद्धान्तानुसार उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि दुःख सुख का कारण नहीं हो सकता, इसलिए सुख सुख से ही लब्ध होता है ।
सूतकृतांग के वृत्तिकार ने सातवाद को बौद्धों का अभिमत माना ही है, किन्तु साथ-साथ इसे परिषह से पराजित कुछ जैन मुनियों का अभिमत माना है।
६. समुच्छेदवादी -- प्रत्येक पदार्थ क्षणिक होता है। दूसरे क्षण में उसका उच्छेद हो जाता है। इसलिए बौद्ध समुच्छेदवादी हैं।
१. स्याद्वादमंजरी, श्लोक ४ :
स्वतोनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो, भावा न भावान्तरनेयरूपाः । परात्मतत्त्वादतथात्मतत्त्वाद् द्वयंवदन्तोकुशलाः स्खलन्ति ॥ २. वही, श्लोक २९ :
मुक्तोपि वाभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योस्तु मितात्मवादे । षड्जीवकार्य त्वमनन्तसंख्य, माख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः ॥
३. न्यायसूत्र ४।१।१६-२१:
ईश्वर: कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् । न पुरुषकर्माभावे तत्कारितत्वादहेतुः ।
फलानिष्पत्तेः ।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०४ ।
५. सूत्रकृतांगचूणि, पृष्ठ १२१ ।
६. सूत्रकृतांगवृत्ति पत्र ६६ : एके शाक्यादयः स्वयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ताः ।
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स्थान : टि०२१
७. नित्यवादी – सांख्याभिमत सत्कार्यवाद के अनुसार पदार्थ कूटस्थ नित्य है । कारणरूप में प्रत्येक वस्तु का तत्व विद्यमान है । कोई भी नया पदार्थ उत्पन्न नहीं होता और कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं होता। केवल उनका आविर्भावतिरोभाव होता है ।"
८. असत् परलोकवादी - चार्वाकदर्शन मोक्ष या परलोक को स्वीकार नहीं करता ।
२१. आयुर्वेद (सू० २६)
आयुर्वेद का अर्थ है - जीवन के उपक्रम और संरक्षण का ज्ञान; चिकित्सा शास्त्र । वह आठ प्रकार का है—
१. कुमारभृत्य -बाल चिकित्सा शास्त्र । इसमें बालकों के पोषण और दूध सम्बन्धी दोषों का संशोधन तथा अन्य दोषजनित व्याधियों के उपशमन के उपाय निर्दिष्ट होते हैं ।
२. कायचिकित्सा - इसमें मध्य अंग से समाश्रित ज्वर, अतिसार, रक्तजनित शोथ, उन्माद, प्रमेह, कुष्ठ आदि रोगों के शमन के उपाय निर्दिष्ट होते हैं ।
३. शालाक्य - मुंह के ऊपर के अंगों में ( कान, मुंह, नयन और नाक) व्याप्त रोगों के उपशमन का उपाय बताने
वाला शास्त्र |
४. शल्य हत्या - शरीर के भीतर रहे हुए तृण, काठ, पाषाण, कण, लोह, लोष्ठ, अस्थि, नख आदि शल्यों के
उद्धरण का शास्त्र ।
५. जंगोली - इसे विष - विद्यातक शास्त्र या अगदतंत्र भी कहते हैं । सर्प आदि विषैले जीवों से इसे जाने पर उसकी चिकित्सा का निर्देश करनेवाला शास्त्र ।
६. भूतविद्या --- भूत आदि के निग्रह के लिए विद्यातंत्र । देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, पिशाच, नाग आदि से आविष्ट चित्तवाले व्यक्तियों के उपद्रव को मिटाने के लिए शांतिकर्म, बलिकर्म आदि का विधान तथा ग्रहों की शांति का निर्देश करने वाला शास्त्र ।
७. क्षारतंत्र – वीर्य पुष्टि के उपाय बताने वाला शास्त्र । सुश्रुत आदि ग्रन्थों में इसे वाजीकरण तंत्र कहा है ! ८. रसायन – इसका शाब्दिक अर्थ है- अमृत तुल्य रस की प्राप्ति । वय को स्थायित्व देने, आयुष्य को बढ़ाने, बुद्धि को वृद्धिगत करने तथा रोगों का अपहरण करने में समर्थ रसायनों का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र ।
जयधवला में आयुर्वेद के आठ अंग इस प्रकार हैं-- १. शालाक्य २. कायचिकित्सा ३. भूततंत्र ४. शल्य ५. अगदतंत्र ६. रसायनतंत्र ७. बालरक्षा ८. बीजवर्द्धन ।
सुश्रुत में आयुर्वेद के आठ अंग ये हैं
१. शल्य, २ . शालाक्य, ३. कायचिकित्सा, ४. भुतविद्या, ५. कौमारभृत्य, ६. अगदतंत्र, ७. रसायनतंत्र, ८. वाजीकरणतंत्र ।
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित आठ नामों से ये कुछ भिन्न हैं; जंगोली के स्थान पर यहां अगदतंत्र' और क्षारतंत्र के स्थान 'वाजीकरण तंत्र' शब्द हैं। इनके क्रम में भी अन्तर है।
१. सांख्यकारिका
२. सत्त्वोपप्लवसिंह, पृष्ठ १ :
पृथिव्यापस्तेजोवायुरितितत्त्वानि । तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा ॥
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०६ ।
४. कसा पाहुड, भाग १, पृष्ठ १४७ शालाक्यं कायचिकित्सा भूततंत्र शल्यमगदतंत्र रसायनतंत्र बालरक्षा बीजवर्द्धनमिति आयुर्वेदस्य अष्टाङ्गानि ।
५. सुश्रुत, पृ० १: शल्यं शालाक्यं कार्याचिकित्सा भूतविद्या कौमारभृत्यमगदतंत्र रसायनतंत्र वाजीकरणतंत्रमिति ।
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स्थान :टि० २२-२६
२२. (सू० ३६)
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित नाम अन्यत्र कुछ व्यत्यय और भिन्नता के साथ भी मिलते हैं१. आदित्ययशा, २. महायशा, ३. अतिबल, ४. बलभद्र, ५. बलवीर्य, ६. कार्तवीर्य, ७. जलवीर्य, ८. दंडवीर्य ।
२३-२४. पुरुषादानीय .....गणधर (सू० ३७)
यह भगवान् पार्श्व की लोकप्रियता का सूचक है। वे जनता को बहुत प्रिय और उपादेय थे। भगवान महावीर ने अनेक स्थानों पर 'पुरुसादाणीय' शब्द से उन्हें सम्बोधित किया है।
___ समवायांग (समवाय ८८) में भगवान् पार्श्व के आठ गणों और आठ गणधरों के नाम कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं
१. शुभ २. शुभघोष ३. वसिष्ठ ४. ब्रह्मचारी ५. सोम ६. श्रीधर ७. वीरभद्र ८. यश । गण और गणधरों के नाम एक ही थे---गण गणधरों के नाम से ही प्रसिद्ध थे।
समवायांग और स्थानांगवृत्ति में अभयदेवसूरि ने लिखा है कि स्थानांग और पर्युषणाकल्प में भगवान् पार्श्व के आठ ही गण माने गये हैं, किन्तु आवश्यकनियुक्ति में दस गणों का उल्लेख है। दो गणधर अल्पायुष्य वाले थे इसलिए यहां उनकी विवक्षा नहीं की गई है।
समवायांग में आठों नाम एक श्लोक में हैं, इसलिए सम्भव है 'यश' यशोभद्र का संक्षेप हो । स्थानांग की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में वीरिते भद्दजसे-ऐसा पाठ है। उसके अनुसार 'वीर्यभद्र' और 'यश'--ये नाम बनते हैं।
२५. दर्शन (सू० ३८)
प्रस्तुत सूत्र में दर्शन शब्द की समानता से आठ पर्याय वर्गीकृत हैं। किन्तु सब में दर्शन शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं है । दर्शन का एक वर्ग है -सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यमिथ्यादर्शन। इसमें दर्शन शब्द का प्रयोग 'श्रद्धा' के अर्थ में हुआ है। इसका दूसरा वर्ग है.-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। इसमें दर्शन शब्द का अर्थ हैनिर्विकल्पबोध, सामान्यबोध या अनाकारबोध।
स्वप्नदर्शन में दर्शन शब्द का अर्थ है--प्रतिभासबोध । वृत्तिकार का अभिमत है कि स्वप्नदर्शन का अचक्षुदर्शन में अन्तर्भाव होने पर भी सुप्तावस्था के भेद प्रभेदों के कारण उसकी पृथक् विवक्षा की है।'
२६. औपमिक अद्धा (सू० ३९)
काल के दो प्रकार हैं-उपमाकाल और अनुपमाकाल (संख्या-परिमितकाल) । पल्य, सागर आदि उपमाकाल हैं । अवसर्पिणी आदि छह विभाग सागरोपम से निष्पन्न होते हैं, अतः उन्हें भी उपमाकाल माना है।
३. (क) तत्त्वार्थसूत्र १।२।
(ख) स्थानांगवृत्ति, पन ४०८ । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ : स्वप्नदर्शनस्याचक्षुदर्शनान्तर्भावेऽपि
सुप्तावस्थोपाधितो भेदो विवक्षित इति ।
१, (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ३६३ :
राया प्राइच्चजसो, महाजसे अइबले य बलभद्दे ।
बलविरिए कत्तविरिए. जलविरिए दंडविरिए य॥ (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०७, ४०८ । २. (क) समवायांगवृति, पत्र १४ : इदं चैतत्प्रमाणं स्थानाने
पर्युषणाकल्पे च श्रूयते, केवलमावश्यके अन्यथा तत्र ह्य क्तम्-'दस नवगं गणाण नाणं जिणिदाणं, [आवश्यकनियुक्ति गाथा २६८] ति कोऽर्थः ? पाश्वस्य दश गणा: गणधराश्च, तदिह द्वयोरल्पायुष्क
त्वादिना कारणेनाविवक्षाऽनुगन्तव्येति । (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ ।
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स्थान ८: टि० २७-२८ 'समय' से लेकर 'शीर्षप्रहेलिका' तक का समय अनुपमाकाल कहा जाता है।' पुद्गल-परिवर्त
जितने समय में जीव समस्त लोकाकाश के पुद्गलों का स्पर्श करता है, उसे पुद्गल-परिवर्त कहते हैं। उसका कालमान असंख्य उत्सपिणी-अवसर्पिणी जितना है। इसके सात भेद हैं
१. औदारिक पुद्गल-परावर्तन औदारिक शरीर के योग्य समस्त पुद्गलों का औदारिक शरीर के रूप में ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने में जितना समय लगता है उसे औदारिक पुद्गल-परावर्तन कहते हैं। इसी प्रकार
२. वैक्रिय पुद्गल-परावर्तन। ३. तेजस पुद्गल-परावर्तन । ४. कार्मण पुद्गल-परावर्तन। ५. मनः पुद्गल-परावर्तन। ६. वचन पुद्गल-परावर्तन।
७. प्राणापान पुद्गल-परावर्तन-होते हैं २७. (सू० ४०)
प्रस्तुत सूत्र में पुरुषयुग का अर्थ है-एक व्यक्ति का अस्तित्वकाल और भूमि का अर्थ है—काल।
इस सूत्र का प्रतिपाद्य यह है कि अरिष्टनेमि के पश्चात् उनके आठ उत्तराधिकारी पुरुषों तक मोक्ष जाने का क्रम रहा । उसके पश्चात् वह क्रम अवरुद्ध हो गया। २८. (सू० ४१)
वृत्तिकार के अनुसार 'वीरंगए वीरजसे...' -इस गाथा के तीन चरण ही आदर्शों में उपलब्ध होते हैं। उन्होंने'तह संखे कासिवद्धणए-इस चतुर्थ चरण के द्वारा गाथा की पूर्ति की है, किन्तु यह चतुर्थ चरण कहाँ से लिया गया, इसका उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया है।
भगवान् महावीर ने आठ राजाओं को दीक्षित किया। उनका परिचय इस प्रकार है--- १. वीरांगक, २. वीरयशा, ३. संजय
वृत्तिकार ने तीनों राजाओं का कोई विवरण प्रस्तुत नहीं किया है। उत्तराध्ययन के अठारहवें अध्ययन में 'संजय' राजा का नाम आता है। किन्तु वह आचार्य गर्दभालि के पास दीक्षित होता है। अतः प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित 'संजय' कोई दूसरा होना चाहिए।
४. एणेयक
वत्तिकार के अनुसार यह केतकार्द्ध जनपद की श्वेतांबी नगरी के राजा प्रदेशी, जो भगवान का थमणोपासक था, का अधीनवर्ती कोई राजा था। इसके विषय में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है।
राजप्रश्नीय सूत्र में प्रदेशी राजा के अंतेवासी राजा का नाम जितशत्रु दिया है। सम्भव है इसका गोत्र 'एणेय' हो
१. स्थानांगवृत्ति पत्र, ४०८ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ : अष्टमं पुरुषयुग-अष्टपुरुष
कालं यावत् युगान्तकरभूमिः पुरुषलक्षणयुगापेक्षयाऽन्तकराणां-भवक्षयकारिणां भूमिः-कालः सा आसीदिति, इदमुक्तं भव ति–नेमिनाथस्य शिष्यप्रशिष्यक्रमेणाष्टौ पुरुषान् यावनिर्वाणं गतवन्तो न परत इति ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ : 'तह संखे कासिवद्धणए' इत्येवं
चतुर्थपादे सति गाथा भवति, न चैवं दृश्यते पुस्तकेष्विति। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ :
स च केतकाद्धजनपदश्वेतंबीनगरीराजस्य प्रदेशिनाम्नः श्रमणोपासकस्य निजकः कश्चिद्राजर्षिः । ५. राजप्रश्नीय ५।६।
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स्थान : टि०२८
और यहां प्रस्तुत सुन में उसका मूल नाम न देकर केवल गोत्र से ही उसका उल्लेख किया गया हो। वृत्तिकार ने भी उसका गोत्र 'एणेय' माना है।'
५. श्वेत - यह आमलकल्पा नगरी का राजा था। उसकी रानी का नाम धारणी था। एक बार भगवान् जब आमलकल्पा नगरी में आए तब राजा और रानी दोनों प्रवचन सुनने गए।
६. शिव - यह हस्तिनापुर का राजा था। इसकी पटरानी का नाम धारणी और पुत्र का नाम शिवभद्र था। एक बार उसने सोचा- 'मेरा ऐश्वर्य प्रतिदिन बढ़ रहा है, यह पूर्वकृत अच्छे कर्मों का फल है । अतः मुझे इस जन्म में भी शुभ कर्मों का संचय करना चाहिए।' उसने सारी व्यवस्था कर अपने पुत्र को राज्यभार सौंप दिया और स्वयं 'दिशाप्रोक्षित तापस' बन गया। वह बेले बेले की तपस्या करता, आतापना लेता और जमीन पर पड़े पत्तों आदि से पारना करता। इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते उसे 'विभंग ज्ञान' उत्पन्न हुआ। उसने सात समुद्र और सात द्वीप देखे और सोचा- 'मुझे दिव्यज्ञान उत्पन्न हुआ है। इनके आगे कोई द्वीप समुद्र नहीं है।' वह तत्काल नगर में आया और अनेक लोगों को अपनी उपलब्धि के विषय में बताया। उन दिनों भगवान् महावीर उसी नगर में समवसृत थे। गणधर गौतम भिक्षाचरी के लिए नगर में गए और उन्होंने तापस शिव द्वारा प्रचारित कथन सुना। वे भगवान् महावीर के पास आए और पूछा भगवान् ने असंख्य द्वीपसमुद्रों की बात कही। तापस शिव ने लोगों से भगवान् का यह कथन सुना। उसके मन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और विभ्रम पैदा हुआ। तत्क्षण उसका विभंग अज्ञान नष्ट हो गया। भगवान् महावीर के प्रति उसके मन में भक्ति उत्पन्न हुई। वह भगवान् के पास आया, निर्ग्रन्थ प्रवचन में अपना विश्वास प्रकट किया और प्रव्रजित हो गया तथा वह ग्यारह अंगों का अध्ययन कर मुक्त हो गया। *
७. उद्रावण -- भगवान् महावीर के समय में सिन्धु-सौवीर आदि १६ जनपदों, वीतभय आदि ३६३ नगरों में उद्रायण राज्य करता था । वह दस मुकुटबद्ध राजाओं का अधिपति और भगवान् महावीर का श्रावक था ।
राजा उद्रायण के पुत्र का नाम अभीचि (अभिजित् ) था। राजा का इस पर बहुत स्नेह था। 'राज्य में गृद्ध होकर यह दुर्गति में न चला जाए' – ऐसा सोचकर उद्रायण ने राज्य भार अपने पुत्र को न देकर अपने भानजे को दिया और स्वय भगवान् महावीर के पास प्रव्रजित हो गया ।
एक बार ऋषि उद्रायण उसी नगर में आया। अकस्मात् उसे रोग उत्पन्न हुआ । वैद्यों ने दही खाने के लिए कहा । महाराज केसी ने सोचा कि उद्रायण पुनः राज्य छीनने आया है। इस आशंका से उसने विषमिश्रित दही दिया और उद्रायण उसे खाते ही मर गया ।
उद्रायण में अनुराग रखने वाली किसी देवी ने वीतभय नगर पर पाषाण की वर्षा की। सारा नगर नष्ट हो गया । केवल उद्रायण का शय्यातर, जो एक कुंभकार था, वह बचा, शेष सारे लोग मारे गए।"
८. शङ्ख – इस राजा के विषय में निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती। मूलपाठगत विशेषण 'कासिवद्धणे' से यह जाना जा सकता है कि यह काशी जनपद के राजाओं की परम्परा में महत्त्वपूर्ण राजा था, जिसके समय में काशी जनपद का विकास हुआ।
वृत्तिकार भी 'अयं च न प्रतीतः' ऐसा कहकर इस विषय का अपना अपरिचय व्यक्त करते हैं। उन्होंने एक तथ्य की ओर ध्यान खींचते हुए बताया है कि अन्तकृतदशा ( ६।१६ ) में ऐसा उल्लेख है कि भगवान् ने वाराणसी में राजा अलक को प्रव्रजित किया था। यदि वह कोई अपर है तो यह 'शंख' नाम नामान्तर है ।
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४०८ एणेयको गोनतः ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ ।
३. इसका अर्थ है कि प्रत्येक पारणा में जो पूर्व आदि दिशाओं
में क्रमश: पानी आदि सींचकर फल-पुष्प आदि खाते हैं
वैसे तापस। औपपातिक ( सू० १४ ) में वानप्रस्थ तापसों के अनेक प्रकार हैं। उनमें यह एक है ।
४. भगवती ११।५७-८७ स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०६
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०६
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स्थान ८ : टि० २६-३३
उत्तराध्ययन वृत्ति (नेमिचन्द्रीय, पत्न १७३) में मथुरा नगरी के राजा शंख के प्रवजित होने का उल्लेख है। विपाक के अनुसार काशीराज अलक भगवान् महावीर के पास प्रव्रजित हुए थे।
ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि जब भगवान् पोतनपुर में समवसृत हुए तब शंख, वीर, शिव, भद्र आदि राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की थी। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि सभी राजे एक ही दिन दीक्षित हुए थे।
२६. महापद्म (सू० ५२)
आगामी उत्सपिणी में होने वाले प्रथम तीर्थंकर । इनका विस्तृत वर्णन ६।६२ में है।
३०. (सू० ५३)
प्रस्तुत सूत्र में कृष्ण की आठ रानियों का उल्लेख है। इनका विस्तृत वर्णन अन्तकृतदशा में है। एक बार तीर्थंकर अरिष्टनेमि द्वारका में आए । वासुदेव कृष्ण के पूछने पर उन्होंने द्वारका के दहन का कारण बताया। तब कृष्ण ने नगर में यह घोषणा करवाई कि 'अरिष्टनेमि ने नगरी का विनाश बताया है। जो कोई व्यक्ति दीक्षित होगा, मैं उसके अभिनिष्क्रमण का सारा भार वहन करूंगा।' यह सुनकर कृष्ण की आठों रानियां भगवान् के पास दीक्षित हो गईं। वे बीस वर्ष तक संयम पर्याय का पालन कर, एक मास की संलेखना कर मुक्त हुई।
३१. (सू०५५)
प्रस्तुत सूत्र में गति के प्रथम पांच प्रकार एक वर्ग के हैं और अन्तिम तीन प्रकार दूसरे वर्ग के हैं। द्वितीय वर्ग में गति का अर्थ है-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना।
गुरुगति
परमाणु आदि की स्वाभाविक गति। इसी गति के कारण परमाणु व सूक्ष्म स्कंध किसी बाह्य प्रेरणा के बिना ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में गति करते हैं।
प्रणोदनगतिदूसरे की प्रेरणा से होने वाली गति-जैसे—मनुष्य आदि के द्वारा प्रक्षिप्त बाण आदि की गति । प्राग्भारगति
दूसरे द्रव्यों से आक्रान्त होने पर होनेवाली गति । जैसे–नौका में भरे हुए माल से उसकी (नौका की) नीचे की ओर होने वाली गति ।
३२. (सू० ५६)
वृत्तिकार के अनुसार ये चारों भरत और ऐरवत की नदियां हैं। इनकी अधिष्ठात देवियों के निवासद्वीप तद्तद् नदियों के प्रपातकुंड के मध्यवर्ती द्वीप हैं।'
३३. सुवर्ण (सू० ६१)
प्रस्तुत सूत्र में काकिणीरत्न का विवरण दिया गया है। वह आठ सुवर्ण जितना भारी होता है। 'सुवर्ण' उस समय का तोल था । उसका विवरण इस प्रकार है
१. श्री गुणचन्द महावीरचरित्त, प्रस्ताव ८, पत्र ३३७ :
पत्तो पोयणपुरं, तहिं च संखवीरसिवभद्दपमुहा नरिंदा दिक्खा गाहिया ।' २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१०, ४११ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४११, ४१२ । ४. स्थानांगवृत्ति पन, ४१२ : नवरं गङ्गाद्या भरतैरवतनद्यस्त
दधिष्ठातृदेवीनां निवासद्वीपा गङ्गादिप्रपातकुण्डमध्यत्तिनः ।
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स्थान:टि०३४
४ मधुर तृणफलों [?] का एक श्वेत सर्षप। १६ श्वेत सर्षपों का एक धान्यमाषकफल। २ धान्यमाषकफलों की एक गुंजा । ५ गुंजाओं का एक कर्ममाषक। १६ कर्ममाषकों का एक सुवर्ण । ये सारे तोल भरत चक्रवर्ती के समय में प्रचलित थे। यह काकिणीरत्न चार अंगुल प्रमाण का होता है।'
३४. योजन (सू० ६२)
वृत्तिकार ने योजन का विस्तार से माप दिया है। उसके अनुसार. अनन्त निश्चयपरमाणुओं का एक परमाणु । .८ परमाणुओं का एक त्रसरेणु । .८ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु। .८ रथरेणुओं का एक बालाग्र । .८ बालारों की एक लिक्षा। .८ लिक्षाओं की एक यूका। .८ यूकाओं का एक यव। .८ यवों का एक अंगुल। . २४ अंगुल का एक हाथ। .४ हाथों का एक धनुष्य। • दो हजार धनुष्यों का एक गव्यूत । • ४ गव्यतों का एक योजन।
प्रस्तुत सूत्र में मगध देश में व्यवहृत योजन का माप बताया है। इसका फलित है कि अन्यान्य देशों में योजन के भिन्न-भिन्न माप प्रचलित थे। जिस देश में सोलह सौ धनुष्यों का एक गव्यूत होता है वहां छह हजार चार सौ [६४००] धनुष्यों का एक योजन होगा। यह सैद्धान्तिक प्रतिपादन है। धनुष्य और योजन के माप के विषय में भिन्नभिन्न मत प्रचलित रहे हैं।
वर्तमान में दक्षिण भारत के मैसूर राज्य में श्रवणबेलगोल में ५७ फुट ऊंची बाहुबली की मूर्ति है । यह माना जाता है कि सम्राट भरत के पुरुदेव ने पौदनपुर के पास ५२५ धनुष्य ऊंची बाहुबली की मूर्ति बनानी चाही। किन्तु स्थान की अनुपयुक्तता के कारण नहीं बना सके। तब चामुण्डराय [सन् १८३] ने उसी प्रमाण की मूर्ति बनाई। इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ५२५ धनुष्य ५७ फुट के बराबर है । इसका फलितार्थ हुआ कि एकफुट लगभग सवा नौ धनुष्य जितना होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ८ हजार धनुष्य या ८७० फुट का एक योजन होता है अर्थात् सवा फलांग से कुछ अधिक का एक योजन होता है।
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४१२ : अष्टसौणिक काकणिरत्नं, सुवर्ण
मान तु चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः श्वेतसर्षपः षोडश श्वेतसर्षपा एक धान्यमाषकफलं द्वे धान्यमाषकफले एका गुञ्जा पञ्च गुञ्जाः एकः कर्ममाषक: पोडश कर्ममाषका: एकः सुवर्णः, एतानि च मधुरतृणफलादीनि भरतकालभावीनि गृह्यन्ते इदञ्च चतुरङ्गुल प्रमाणं चउरंगुलप्पमाणा सुबन्नवरकागणी नेयत्ति वचनादिति।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१२ : मागधग्रहणात् क्वचिदन्यदपि योजन
स्यादिति प्रतिपादितं, तब यस्मिन् देशे षोडशा भिर्धन:शतर्ग___ ब्यूतं स्यात्तत्र षड्भिः सहस्रश्चतुभिःशतेधनुषां योजनं भवतीति । ३. एपिग्राफिक करनाटिका II, 234, Page 98.
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ८: टि० ३५-४६
योजन भी भिन्न २ होते हैं। प्रस्तुत विवरण में भी चार गव्यूत का एक योजन माना है। गव्यूत का अर्थ है-वह दूरी जिसमें गाय का रंभाना सुना जा सके। सामान्यतः गाय का रंभाना एक फांग तक सुना जा सकता है। इसके आधार पर चार फर्लाग का एक योजन होता है। कहीं-कहीं एक माइल का भी योजन माना है। ३५-३६. (सू० ६३, ६४)
जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार ये वृक्ष आधे-आधे योजन भूमि में हैं तथा इनके तने की मोटाई आधे-आधे योजन की है। इस आधे-आधे योजन के कारण ही ऊंचाई या चौड़ाई में सातिरेक' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी आधार पर सर्व परिमाण में ये वृक्ष आठ-आठ योजन से कुछ अधिक हैं । ३७-४०. (सू०७७-८०)
___ इन चार सूत्रों के अनुसार आठ-आठ विजयों में आठ-आठ अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव होते हैं, किन्तु अर्हन्त, चक्रवर्ती बलदेव और वासुदेव एक साथ बत्तीस नहीं हो सकते। महाविदेह में कम से कम चार चक्रवर्ती या चार वासुदेव अवश्य होते हैं। जहां वासुदेव होते हैं वहां चक्रवर्ती नहीं होते । इसलिए एक साथ उत्कृष्टतः २८ चक्रवर्ती या २८ वासुदेव हो सकते हैं।' ४१. पारियानिक विमान (सू० १०३)
जो गमन के हेतुभूत होते हैं उन्हें पारियानिक विमान कहते हैं। पालक आदि आभियोगिक देव अपने-अपने स्वामी इन्द्रों के लिए स्वयं यान के रूप में प्रयुक्त होते हैं। पूर्वसूत्र (१०२) में उल्लिखित इन्द्रों के ये क्रमश: विमान हैं। ये सारे नाम उनके आभियोगिक देवों के हैं। वे यान रूप में काम आते हैं। अत: उन्हीं के नाम से वे यान भी व्यवहृत होते हैं। दसवें स्थान में इनका विवरण दिया गया है। ४२-४५. चेष्टा, प्रयत्न, पराक्रम, आचार-गोचर (सू० १११)
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कुछ विशेष शब्दों का विमर्श१. संघटना-चेष्टा-अप्राप्त की प्राप्ति। २. प्रयत्न–प्राप्त का संरक्षण । ३. पराक्रम--शक्ति-क्षय होने पर भी विशेष उत्साह बनाए रखना। ४. आचार-गोचर
१. साधु के आचार का गोचर [विषय ] महाव्रत आदि ।
२. आचार-ज्ञान आदि पांच आचार । गोचर-भिक्षाचर्या ।। ४६. केवली समुद्घात (सू० ११४)
केवलज्ञानी के वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति से आयुष्य कर्म की स्थिति कम रह जाने पर, दोनों को समान करने के लिए स्वभावतः समुद्घात क्रिया होती है-आत्म-प्रदेश समूचे लोक में फैल जाते हैं। इस क्रिया का कालमान
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१८ : घटितव्यं– अप्राप्तेषु योगः कार्यः,
यतितव्यं--प्राप्तेषु तदवियोगार्थ यत्नः कार्यः, पराक्रमितव्यंशक्तिक्षयेऽपि तत्पालने, पराक्रमः-उत्साहातिरेको विधेय
इति।
१. बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ ४१ :
Gavyuta, A cow's call. २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१५ । ३. स्थानांग वृत्ति, पत्र ४१७ : परियायते-गम्यते यस्तानि परि
यानानि तान्येव परियानिकानि परियानं वा-गमनं प्रयोजनं येषां तानि परियानिकानि यानकारकाभियोगिकपालकादिदेव
कृतानि पालकादीनि! ४. स्थानांग १०/१५०
६. वही, पत्र ४१८ : आचार:- साधुसमाचारस्तस्य, गोचरो
विषयो व्रतषट्कादिराचारगोचर: अथवा आचारश्चज्ञानादिविषयः पञ्चधा, गोचरश्च -भिक्षाचर्येत्याचारगोचरम् ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान ८: टि०४७-४८
आठ समय का है। पहले समय में केवली के आत्म-प्रदेश लोक के अन्त तक ऊर्ध्व और अधो दिशा की तरफ फैल जाते हैं। उनका विष्कंभ (चौड़ाई) शरीर प्रमाण होता है, इसलिए उनका आकार दंड जैसा बन जाता है। दूसरे समय में वे ही प्रदेश चौड़े होकर लोक के अन्त तक जाकर कपाटाकार बन जाते हैं। तीसरे समय में वे प्रदेश वातवलय के सिवाय समूचे लोक में फैल जाते हैं। इसे मन्थान कहते हैं। चौथे समय में वे प्रदेश पूर्ण लोक में फैल जाते हैं-आत्मा लोक व्यापी बन जाती हैं। इसके बाद पांचवें, छठे, सातवें, आठवें समय में आत्मा के प्रदेश क्रमश: मन्थान, कपाट और दण्ड के आकार होकर पूर्ववत् देहस्थित हो जाते हैं। इन आठ समयों में पहले और आठवें समय में औदारिक योग, दूसरे,छठे और सातवें समय में औदारिक मिश्र योग तथा तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण योग होता है।
रत्नशेखर सूरि आदि कई बिद्वान यह मानते हैं कि जिस जीव का आयुष्य छह मास से अधिक है, यदि उसे केवलज्ञान हो जाए तो वह जीव निश्चय ही समुद्घात करता है। किन्तु अन्य केवली समुद्घात करते ही हैं- ऐसा नियम नहीं है। आर्यश्याम ने एक स्थान पर कहा है
अगंतूण समुग्घायमणंता केवली जिणा।
जाइमरणविप्पमुक्का, सिद्धि वरगतिं गया।। अनंत केवली और जिन बिना समुद्घात किये ही जन्म-मरण से विप्रमुक्त हो सिद्ध हो गए।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का अभिमत इससे भिन्न है। वे कहते हैं कि प्रत्येक जीव मोक्ष प्राप्ति से पूर्व समुद्घात करता ही है। समुद्घात करने के पश्चात् ही केवली योग निरोध कर शैलेशी अवस्था को पाकर, अयोगी होता हुआ पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण करने के समय मात्र में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
वैदिकों में प्रचलित आत्म व्यापकता के सिद्धान्त के साथ इसका समन्वय होता है। हेमचन्द्र, यशोविजय आदि विद्वानों ने इसका समन्वय किया है।
दिगम्बरों की यह मान्यता है कि केवली समुद्घात करते हैं, किन्तु सैद्धान्तिक मान्यता यह है कि केवली समुदघात करते नहीं, वह स्वतः होती है। समुद्घात करना आलोचनाह क्रिया है।
वृत्तिकार ने यहां यह उल्लेख किया है कि तीर्थकर नेमिनाथ के शिष्यों में से किसी ने अघाति कर्मों का आयष्य कर्म के साथ समीकरण करने के लिए केवली समुद्घात किया था।
इस उल्लेख से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या और किसी तीर्थकर के शिष्यों ने समुदघात नहीं किया? यदि किया था तो वृत्तिकार ने महावीर के शिष्यों का उल्लेख क्यों नहीं किया ? संभव है परंपरागत यही घटना प्रचलित रही हो, जिसका कि उल्लेख वृत्तिकार ने किया है। ४७. प्रमर्दयोग (सू० ११६)
प्रमर्द योग का अर्थ है--स्पर्श योग। प्रस्तुत सूत्रगत आठ नक्षत्र उभययोगी होते हैं । चन्द्रमा को उत्तर और दक्षिण दोनों ओर से स्पर्श करते हैं। चन्द्रमा इनके बीच से निकल जाता है।
..
.
४८. (सू० १२५)
तीन इन्द्रिय वाले जीवों की योनियां दो लाख हैं और उनकी कुलकोटियां आठ लाख । योनि का अर्थ है --उत्पत्ति स्थान और कुलकोटि का अर्थ है-उस एक ही स्थान में उत्पन्न होने वाली विविध जातियां। गोबर एक योनि है। उसमें कृमि, कीट, बिच्छ आदि अनेक जातियां उत्पन्न होती हैं, उन्हें कुल कहा जाता है। जैसे- कृमिकूल, कीटकुल, वृश्चिककूल आदि।
१. प्रज्ञापना पद ३६ । २. आवश्यक, मलयगिरी वृत्ति पत्र ५३६ में उद्धृत ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१६ : एतेषां च नेमिनाथस्य विनेयानां
मध्ये कश्चित्केवली भूत्वा वेदनीवादिकर्मस्थितीनामायकस्थित्या समीकरणार्थ केलिसमुद्घातं कृत्वानिति ।
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णवमं ठाणं
नवम स्थान
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आमुख
इसमें पचहत्तर सूत्न हैं । इनके विषय भिन्न-भिन्न हैं । इसका पहला सूत्र भगवान महावीर के समय की गण-व्यवस्था पर कुछ प्रकाश डालता हुआ गण की अखंडता के साधनभूत अमात्सर्य का निरूपण करता है। प्रत्यनीकता अखंडता के लिए घुण है, अतः जो श्रमण, आचार्य, उपाध्याय आदि का प्रत्यनीक होता है, कर्तव्य से प्रतिकूल आचरण करता है उसे गण से अलग कर देना ही श्रेयस्कर होता है।
ऐतिहासिक तथ्यों को अभिव्यक्ति देने वाले सूत्र इस स्थान में संकलित हैं। जैसे सूत्र संख्या २९, ६१ आदि-आदि। सूत्र ६० में भगवान महावीर के तीर्थ में तीर्थकर नाम का कर्म-बंध करने वाले नौ व्यक्तियों का कथन है। उसमें सात पुरुष हैं और दो स्त्रियां। इनका अन्यान्य आगम-ग्रन्थों तथा व्याख्या-ग्रन्थों में वर्णन मिलता है। पोट्टिल अनगार का उल्लेख अनुत्तरोपपातिक सूत्र में भी मिलता है, किन्तु वहाँ महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध होने की बात कही है और यहाँ भरत क्षेत्र से सिद्ध होने का उल्लेख है। अतः यह उससे भिन्न होना चाहिए। तीर्थकर नामकर्म बंध के बीस कारण बतलाए हैं। इन नौ व्यक्तियों के तीर्थकर नामकर्म बंध के भिन्न-भिन्न कारण प्रस्तुत हुए हैं।
सूत्र ६२ में महाराज श्रेणिक के भव-भवान्तरों का विवरण है। इस एक ही सूत्र में भगवान महावीर के दर्शन का समग्रता से अवबोध हो जाता है । इसमें समग्र भाव से महावीर का तत्त्वदर्शन, श्रमणचर्या और थावकचर्या का उल्लेख है ।
इस स्थान के सूत्र १३ में रोगोत्पत्ति के नौ कारणों का उल्लेख है। वह बहुत ही मननीय है। इनमें आठ कारण शारीरिक रोगों की उत्पत्ति के हेतु हैं और इन्द्रियार्थ-विकोपन-मानसिक रोग को उत्पन्न करता है । वृत्तिकार ने बताया है कि अधिक बैठने या कठोर आसन पर बैठने से मसे का रोग होता है । अधिक खाने से अथवा थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल में खाने से अजीर्ण तथा अनेक उदर रोग उत्पन्न होते हैं। ये सारे शारीरिक रोग हैं। मानसिक रोग का मूल कारण हैइन्द्रियार्थ-विकोपन अथवा काम-विकार। इससे उन्माद उत्पन्न होता है और वह सारे मानसिक सन्तुलन को बिगाड़ कर व्यक्ति में अनेक प्रकार के मानसिक रोगों की उत्पत्ति करता है। अन्ततः वह मरण के द्वार तक भी पहुंचा देता है। कामविकार से उत्पन्न होने वाले दस दोष ये हैं
१. स्त्री के प्रति अभिलाषा । ३. उसका सतत स्मरण। ५. प्राप्त न होने पर उद्वेग। ७. उन्माद। ९. अकर्मण्यता।
२. उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न । ४. उसका उत्कीर्तन। ६. प्रलाप। ८. व्याधि। १०. मृत्यु।
इसी प्रकार अब्रह्मचर्य से बचने के नौ व्यावहारिक उपायों का भी ब्रह्मचर्य गुप्ति (सूत्र ३) के नाम से उल्लेख हुआ है। उनमें अन्तिम उपाय है-ब्रह्मचारी को सुविधावादी नहीं होना चाहिए। यह उपाय श्रमण को सतत श्रमशील और कष्टसहिष्णु बनने की प्रेरणा देता है।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : आमुख
इसी प्रकार सूत्र १५, १६ नक्षत्रों की चन्द्रमा के साथ स्थिति तथा अन्यान्य ज्योतिष के सूत्र भी संकलित हैं। ६८वें सूत्र में शुक्र-ग्रहण के भ्रमण-क्षेत्र को नौ विधियों में बांटकर उसका विवरण प्रस्तुत किया गया है।
सूत्र ६२ में राजा, ईश्वर, तलवार आदि अधिकारी वर्ग का उल्लेख है। इससे उस समय में प्रचलित विभिन्न नियुक्तियों का आधार मिलता है। टीकाकार ने राजा से महामांडलिक, जो आठ हजार राजाओं का अधिपति होता था, का ग्रहण किया है। इसी प्रकार अन्यान्य व्याख्याओं से भी उस समय की राज्य-व्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था का जवबोध हो आता है। देखें टिप्पण संख्या २९ से ३७ । इस प्रकार इस स्थान में भगवान पार्श्व, भगवान महावीर तथा महाराज श्रेणिक के विषय में विविध जानकारी मिलती है। कुछेक श्रावक-श्राविकाओं के जीवनोत्कर्ष का भी कथन प्राप्त है। इसलिए यह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
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मल
विसंभोग-पदं
१. वह ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे
णातिक्कमति, तं जहा -
आयारियपडिणीयं,
उवज्झायपरिणीयं,
थेरपडिणीयं, कुलपडिणीयं, गणपडिणीयं, संघपडिणीयं,
णापडणी, दंसणपडिणीयं, चरितपडिणीयं ।
बंभचेरअयण-पदं
२. व बंभचेरा पण्णत्ता, तं जहासत्यपरिण्णा, लोगविजओ, • सोओस णिज्जं सम्मत्तं, आवंती, धूतं विमोहो, उवहाणसुयं, महापरिणा ।
इत्सिंसत्ताई णो पसंसत्ताइं जो पंडगसंसत्ताई ।
नवमं ठाणं
संस्कृत छाया
विसंभोग-पदम्
नवभिः स्थानैः श्रमणः निर्ग्रन्थः साम्भोगिकं वैसंभोगिकं कुर्वन् नातिक्रामति, तद्यथा
आचार्य प्रत्यनीकं उपाध्याय प्रत्यनीकं, स्थविरप्रत्यनीकं,
गणप्रत्यनीकं,
कुल प्रत्यनीकं, संघप्रत्यनीकं, दर्शनप्रत्यनीकं,
ज्ञानप्रत्यनीकं,
चरित्रप्रत्यनीकम् ।
बंभर गुत्ति-पदं
३. णव बंभचेरगुत्तीओ पण्णत्ताओ,
तं जहा -
तद्यथा—
१. विवित्ताइं सयणासणाई से वित्ता १. विविक्तानि शयनासनानि सेविता
भवति
ब्रह्मचर्याध्ययन-पदम्
नव ब्रह्मचर्याणि प्रज्ञप्तानि तद्यथाशस्त्रपरिज्ञा, लोकविजयः, शीतोष्णीयं, सम्यक्त्वं, आवन्ती, धूतं विमोहः, उपधानश्रुतं महापरिज्ञा ।
ब्रह्मचर्य गुप्ति-पदम्
नव
ब्रह्मचर्यगुप्तयः प्रज्ञप्ताः,
भवतिनो स्त्रीसंसक्तानि नो पशुसंसक्तानि नो पण्डकसंसक्तानि ।
हिन्दी अनुवाद
विसंभोग - पद
१. नौ स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ सांभोगिक साधु को विसiभोग करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता -
१. आचार्य का प्रत्यनीक ।
२. उपाध्याय का प्रत्यनीक ।
३. स्थविर का प्रत्यनीक ।
४. कुल का प्रत्यनीक ।
५. गण का प्रत्यनीक ।
६. संघ का प्रत्यनीक ।
७. ज्ञान का प्रत्यनीक |
८. दर्शन का प्रत्यनीक |
६. चारित्र का प्रत्यनीक ।
ब्रह्मचर्याध्ययन-पद
२. ब्रह्मचर्य --- आचारांग सूत्र के नौ अध्यययन हैं—
१. शस्त्रपरिज्ञा, २. लोकविजय, ४. सम्यक्त्व, ३. शीतोष्णीय, ५. आवन्ती-लोकसार, ६. धूत, ७. विमोह, ८. उपधानश्रुत, ६. महापरिज्ञा ।
ब्रह्मचर्य गुप्ति-पद
३. ब्रह्मचर्य की गुप्तियां नो हैं'
१. ब्रह्मचारी विविक्त शयन और आसन का सेवन करता है । स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का सेवन नहीं करता ।
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ठाणं (स्थान)
८४६
स्थान::सूत्र ४
२. णो इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति। २. नो स्त्रीणां कथां कथयिता २. वह केवल स्त्रियों में कथा नहीं करता भवति।
अथवा स्त्री की कथा नहीं करता। ३. णो इथिठाणाई सेवित्ता ३. नो स्त्रीस्थानानि सेविता ३. वह स्त्रियों के स्थानों का सेवन नहीं भवति । भवति।
करता। ४. णो इत्थीमिदियाई मणोहराई ४. नो स्त्रीणां इन्द्रियाणि मनोहराणि ४. वह स्त्रियों की मनोहर और मनोरम मणोरमाइं आलोइत्ता णिज्झाइत्ता मनोरमाणि आलोकयिता निध्याता इन्द्रियों को नहीं देखता और न उनका भवति। भवति।
अवधानपूर्वक चिन्तन करता है। ५. णोपणीतरसभोई [ भवति?]। ५. नो प्रणीतरसभोजी (भवति ? )। ५. वह प्रणीतरस का भोजन नहीं करता। ६. णो पाणभोयणस्स अतिमात- ६. नो पानभोजनस्य अतिमात्रं आहारक: ६. वह सदा पान-भोजन का अतिमात्रा में माहारए सया भवति। सदा भवति।
आहार नहीं करता। ७. णो पुव्वरतं पुज्वकीलियं ७. नो पूर्वरतं पूर्वक्रीडितं स्मर्त्ता ७. वह पूर्व अवस्था में आचीर्ण भोग तथा सरेत्ता भवति। भवति।
त्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करता। ८. णो सद्दाणुवाती णो रूवाणु- ८. नो शब्दानुपाती नो रूपानुपाती ८. बह शब्द, रूप और श्लोक [कीति] वाती णो सिलोगाणुवाती नो श्लोकानुपाती (भवति ? )। का अनुपाती नहीं होता-उनमें आसक्त [भवति ?] ।
नहीं होता। ६. णो सातसोक्खपडिबद्धे यावि ६.नो सातसौख्यप्रतिबद्धश्चापि । ६. वह सात और सुख में प्रतिबद्ध नहीं भवति । भवति।
होता। बंभचेरअगुत्ति-पदं ब्रह्मचर्यागुप्ति-पदम्
ब्रह्मचर्या गुप्ति-पद ४. णव बंभचेरअगुत्तीओ पण्णत्ताओ, नव ब्रह्मचर्याऽगुप्तयः प्रज्ञप्ताः, ४. ब्रह्मचर्य की अगुप्तियां नौ हैंतं जहा
तद्यथा१. णो विवित्ताई सयणासणाई नो विविक्तानि शयनासनानि सेविता १. ब्रह्मचारी विविक्त शयन और आसन सेवित्ता भवतिभवति
का सेवन नहीं करता। स्त्री, पुरुष और इत्थीसंसत्ताई पसुसंसत्ताइं स्त्रीसंसक्तानि पशुसंसक्तानि पण्डक- नपुंसक सहित शयन और आसन का सेवन पंडगसंसत्ताई। संसक्तानि ।
करता है। २. इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति। २. स्त्रीणां कथां कथियता । २. वह केवल स्त्रियों में कथा करता है भवति ।
अथवा स्त्री की कथा करता है। ३. इस्थिठाणाइं सेवित्ता भवति। ३. स्त्रीस्थानानि सेविता भवति । ३. वह स्त्रियों के स्थानों का सेवन करता
४. इत्थीणं इंदियाइं 'मणोहराई ४. स्त्रीणां इन्द्रियाणि मनोहराणि मणोरमाइं आलोइत्ता णिज्झाइत्ता मनोरमाणि आलोकयिता निध्याता भवति।
भवति । ५. पणीयरसभोई [भवति ?]। ५. प्रणीतरसभोजी (भवति ?)।।
४. बह स्त्रियों के मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को देखता है और उनका अवधानपूर्वक चिन्तन करता है। ५. वह प्रणीतरस का भोजन करता है।
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स्थान ६: सूत्र ५-८
ठाणं (स्थान)
८४७ ६. पाणभोयणस्स अइमायमाहा- ६. पानभोजनस्य अतिमात्रमाहारक: रए सया भवति।
सदा भवति । ७. पुव्वरयं पुव्वकीलियं सरित्ता ७. पूर्वरतं पूर्वक्रीडितं स्मर्ता भवति।
भवति। ८. सद्दाणुवाई रूवाणुवाई सिलो- ८. शब्दानुपाती रूपानुपाती श्लोकागाणुवाई [भवति ?] नुपाती (भवति ? ) । ६. सायासोक्खपडिबद्धे यावि ६. सातसौख्यप्रतिबद्धश्चापि भवति । भवति ।
६. वह सदा पान-भोजन का अतिमात्रा में आहार करता है। ७. वह पूर्व अवस्था में आचीर्ण भोग तथा क्रीड़ाओं का स्मरण करता है। ८. वह शब्द, रूप और श्लोक कीति] का अनुपाती होता है उनमें आसक्त होता है। ६. वह सात और सुख में प्रतिबद्ध होता
तित्थगर-पदं
तीर्थकर-पदम् ५. अभिणंदणाओ णं अरहओ सुमती अभिनन्दनात् अर्हत: सुमतिः अर्हन्
अरहा णहि सागरोवमकोडी- नवसु सागरोपमकोटिशतसहस्रषु सयसहस्सेहि वीइक्कतेहि व्यतिक्रान्तेषु समुत्पन्नः। समुप्पण्णे।
तीर्थकर-पद ५. अर्हत् अभिनन्दन के पश्चात् नौ लाख करोड़ सागरोपम काल बीत जाने पर अर्हत् सुमति समुत्पन्न हुए।
सब्भावपयत्थ-पदं सद्भावपदार्थ-पदम्
सद्भावपदार्थ-पद ६. णव सम्भावपयत्था पण्णत्ता, तं नव सद्भावपदार्थाः प्रज्ञप्ताः, ६. सद्भाव पदार्थ [अनुपचरित या पारजहातयथा
मार्थिक वस्तु] नौ हैंजीवा, अजीवा, पुण्णं, पावं, जीवाः, अजीवाः, पुण्यं, पापं, आश्रवः, १. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, आसवो, संवरो, णिज्जरा, बंधो, संवरः, निर्जरा, बन्धः, मोक्षः।
४. पाप, ५. आश्रव, ६. संवर, मोक्खो।
७. निर्जरा, ८. बंध, ६. मोक्ष ।
जीव-पदं जीव-पदम्
जीव-पद ७. णवविहा संसारसमावण्णगा जीवा नवविधाः संसारसमापन्नकाः जीवा ७. संसारसमापन्नक जीव नौ प्रकार के हैंपण्णत्ता, त जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, पुढविकाइया, 'आउकाइया, पथिवीकायिकाः, अपकायिकाः, ३. तेजस्काययिक, ४. वायुकायिक, तेउकाइया, वाउकाइया, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, ५. वनस्पतिकायिक, ६. द्वीन्द्रिय, वणस्सइकाइया, बेइंदिया, वनस्पतिकायिकाः, द्वीन्द्रियाः, ७. वीन्द्रिय, ८. चतुरिन्द्रिय, 'तेइंदिया, चरिदिया, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः।। ६. पञ्चेन्द्रिय। पंचिदिया।
गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम्
गति-आगति-पद ८. पुढविकाइया णवगतिया णव- पृथिवीकायिकाः नवगतिकाः ८. पृथ्वीकायिक जीवों की नौ गति और नो आगतिया पण्णत्ता, तं जहा- नवागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
आगति होती है
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ठाणं (
(स्थान)
पुढविकाइए पुढवीकाइएसु उववज्ज- पृथिवीकायिकः माणे पुढविकाइएहिंतो वा, • आउकाइएहितो वा, काइएहितो वा, वाकाइए हितो वा, वणस्सइकाइएहितो वा,
दिति वा
ते दिए हितो वा चरि दिएहितो वा
पंचिदिए हितो वा उववज्जेजा । से चेव णं से पुढविकाइए पुढ विकायत्तं विपजहमाणे पुढविका इयत्ताए वा 'आउका इयत्ताए वा, उकाइयत्ताए वा
वाउका इयत्ताए वा,
वणस्स इकाइयत्ताए वा,
बेदियत्ताए वा
तेइ दियत्ताए वा
चरिदियत्ताए वा पंचिदियत्ताए वा गच्छेज्जा ।
६. एवमाकाइयावि जाव पंचि
दियत्ति ।
जहा — एगिदिया, बेइं दिया, तेइंदिया, चरदिया, रइया, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुया देवा
सिद्धा ।
८४८
पृथिवी कायिकेषु उपपद्यमानः पृथिवीकायिकेभ्यो वा, अपकायिकेभ्यो वा, तेजस्कायिकेभ्यो वा, वायुकायिकेभ्यो
वा,
वनस्पतिकायिकेभ्यो वा, द्वीन्द्रियेभ्यो वा, त्रीन्द्रियेभ्यो वा चतुरिन्द्रियेभ्यो वा पञ्चेन्द्रियेभ्यो वा उपपद्येत ।
स चैव असौ पृथिवीकायिकः पृथिवी - कायत्वं विप्रजहत् पृथिवीकायिकतया वा, अप्कायिकतया वा, तेजस्कायिकतया वा, वायुकायिकतया वा, वनस्पतिकायिकतयावा, द्वीन्द्रियतया वा, त्रीन्द्रियतया वा चतुरिन्द्रियतया वा पञ्चेन्द्रियतया वा गच्छेत् ।
जीव-पदं
जीव-पदम्
१०. णवविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं नवविधाः
सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः,
तद्यथा
एकेन्द्रियाः, हीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, नैरयिकाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका, मनुजाः, देवाः, सिद्धाः ।
एवमपकायिका अपि यावत् पञ्चेन्द्रिया
इति ।
स्थान : सूत्र ६-१०
पृथ्वीका में उत्पन्न होने वाला जीव पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, तीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय-इन नौ जातियों से आता है।
पृथ्वीकाय से निकलने वाला जीव पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय – इन नौ जातियों में जाता है।
६. इसी प्रकार अष्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय इन सभी प्राणियों की गति आगति नौ-नौ हैं ।
जीव- पद
१०. सब जीव नौ प्रकार के हैं----
१. एकेन्द्रिय, २. द्वीन्द्रिय,
३. त्रीन्द्रिय, ४. चतुरिन्द्रिय,
५. नैरयिक, ६. पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक, ७. मनुष्य, ८. देव, ६. सिद्ध ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : सूत्र ११-१२
अहवा..- णवविहा सव्वजीवा। पण्णत्ता, तं जहापढमसमयणेरइया, अपढमसमयणेरइया, 'पढमसमयतिरिया, अपढमसमयतिरिया, पढमसमयमणुया, अपढमसमयमणुया, पढमसमयदेवा, अपढमसमयदेवा, सिद्धा।
अथवा_नवविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाप्रथमसमयनैरयिकाः, अप्रथमसमयनै रयिका:, प्रथमसमयतिर्यञ्च:, अप्रथमसमयतिर्यञ्चः, प्रथमसमयमनुजाः, अप्रथमसमयमनुजाः, प्रथमसमयदेवाः, अप्रथमसमयदेवा:. सिद्धाः।
अथवा-सब जीव नौ प्रकार के हैं१. प्रथम समय नै रयिक। २. अप्रथम समय नरयिक । ३. प्रथम समय तिर्यञ्च। ४. अप्रथम समय तिर्यञ्च । ५. प्रथम समय मनुष्य। ६. अप्रथम समय मनुष्य। ७. प्रथम समय देव। ८. अप्रथम समय देव। ६.सिद्ध।
ओगाहणा-पदं अवगाहना-पदम्
अवगाहना-पद ११. णवविहा सव्वजीवोगाहणा पण्णत्ता, नवविधा सर्वजीवावगाहना प्रज्ञप्ता, ११. सब जीवों को अवगाहना नौ प्रकार की तं जहातद्यथा
होती हैपुढविकाइओगाहणा, पृथिवीकायिकावगाहना,
१. पृथ्वीकायिक अवगाहना। आउकाइओगाहणा, अप्कायिकावगाहना,
२. अप्कायिक अवगाहना। 'तेउकाइओगाहणा, तेजस्कायिकावगाहना,
३. तेजस्कायिक अवगाहना। वाउकाइओगाहणा, वायुकायिकावगाहना,
४. वायुकायिक अवगाहना। वणस्स इकाइओगाहणा, वनस्पतिकायिकावगाहना,
५. वनस्पतिकायिक अवगाहना। बेइंदियओगाहणा, द्वीन्द्रियावगाहना,
६. द्वीन्द्रिय अवगाहना। तेइंदियओगाहणा, त्रीन्द्रियावगाहना,
७. त्रीन्द्रिय अवगाहना। चरिदियओगाहणा, चतुरिन्द्रियावगाहना,
८. चतुरिन्द्रिय अवगाहना। पंचिदियओगाहणा। पञ्चेन्द्रियावगाहना।
६. पञ्चेन्द्रिय अवगाहना।
संसार-पदं संसार-पदम्
संसार-पद १२. जोवा णं णहि ठाणेहि संसारं जीवाः नवभिः स्थानः संसारं अवतिषत १२. जीवों ने नौ स्थानों से संसार में परिवर्तन
किया था, करते हैं और करेंगेवत्तिसु वा वत्तंति वा वत्तिस्संति वा वर्तन्ते वा वतिष्यन्ते वा,
१. पृथ्वीकाय के रूप में। वा, तं जहातद्यथा
२.अप्काय के रूप में।
३. तेजस्काय के रूप में। पुढविकाइयत्ताए, 'आउकाइयत्ताए, पृथिवीकायिकतया, अप्कायिकतया,
४. वायूकाय के रूप में। तेउकाइयत्ताए, वाउकाइयत्ताए, तेजस्कायिकतया, वायुकायिकतया, ५. वनस्पतिकाय के रूप में। वणस्सइकाइयत्ताए, बेइंदियत्ताए, वनस्पतिकायिकतया, द्वीन्द्रियतया,
६. द्वीन्द्रिय के रूप में।
७. वीन्द्रिय के रूप में। तेइंदियत्ताए, चरिंदियत्ताए,' त्रीन्द्रियतया, चतुरिन्द्रियतया,
८. चतुरिन्द्रिय के रूप में। पंचिदियत्ताए। पञ्चेन्द्रियतया।
६. पञ्चेन्द्रिय के रूप में।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : सूत्र १३-१५ रोगुप्पत्ति-पदं रोगोत्पत्ति-पदम्
रागोत्पत्ति-पद १३. णवहिं ठाणेहि रोगुप्पत्ती सिया नवभिः स्थानः रोगोत्पत्तिः स्यात्, १३. रोग की उत्पत्ति के नौ स्थान है'तं जहातद्यथा
१. निरन्तर बैठे रहना या अतिभोजन अच्चासणयाए, अहितासणयाए, अत्यशनतया (अत्यासनतया),
करना। अतिणिद्दाए, अतिजागरितेणं, अहिताशनतया, अति निद्रया, २. अहितकर आसन पर बैठना या अहितउच्चारणिरोहेणं, पासवणणिरोहेणं, अति जागरितेन, उच्चारनिरोधेन, कर भोजन करना। अद्धाणगमणेणं, भोयणपडिकूलताए, प्रस्रवणनिरोधेन, अध्वगमनेन, ३. अतिनिद्रा। ४. अतिजागरण। इंदियत्यविकोवणयाए। भोजनप्रतिकूलतया,
५. उच्चार [मल] का निरोध । इन्द्रियार्थविकोपनतया।
६.प्रश्रवण का निरोध । ७. पंथगमन । ८. भोजन की प्रतिकूलता। ६. इन्द्रियार्थविकोपन-कामविकार।
दरितणावरणिज्ज-पदं दर्शनावरणीय-पदम्
दर्शनावरणीय-पद १४. णवविधे दरिसणावरणिज्जे कम्मे नवविधं दर्शनावरणीयं कर्म प्रज्ञप्तम्, १४. दर्शनावरणीय कर्म के नौ प्रकार हैंपण्णत्ते, तं जहातद्यथा
१. निद्रा-सोया हुआ व्यक्ति सुख से
जाग जाए, वैसी निद्रा। णिद्दा, गिद्दानिद्दा, पयला, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला.प्रचलाप्रतला.
२. निद्रानिद्रा-घोरनिद्रा, सोया हुआ पयलापयला, थीणगिद्धी, स्त्यानगृद्धिः, चक्षुर्दर्शनावरणं, व्यक्ति कठिनाई से जागे, वैसी निद्रा। चक्खुदंसणावरणे, अचक्षुर्दर्शनावरणं, अवधिदर्शनावरणं, ३. प्रचला–खड़े या बैठे हुए जो निद्रा
आए। अचक्खुदंसणावरणे, केवलदर्शनावरणम् ।
४. प्रचला-प्रचला-चलते-फिरते जो ओहिदसणावरणे,
निद्रा आए। केवलदसणावरणे।
५. स्त्यानद्धि-संकल्प किए हुए कार्य को निद्रा में कर डाले, वैसी प्रगाढतम निद्रा। ६. चक्षुदर्शनावरणीय-चक्ष के द्वारा होने वाले दर्शन [सामान्य ग्रहण] का आवरण। ७. अचक्षुदर्शनावरणीय-चक्षु के सिवाय शेष इन्द्रिय और मन से होने वाले दर्शन का आवरण। ८. अवधिदर्शनावरणीय—मूर्त द्रव्यों के साक्षात् दर्शन का आवरण। ६. केवलदर्शनावरणीय-सर्व द्रव्य-पर्यायों के साक्षात् दर्शन का आवरण।
जोइस-पदं ज्योतिष-पदम्
ज्योतिष-पद १५. अभिई णं णक्खत्ते सातिरेगे णव अभिजित् नक्षत्रं सातिरेकान् नव १५. अभिजित् नक्षत्र चन्द्रमा के साथ नौ मुहूर्त
मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएति। मुहुर्तान् चन्द्रेण साधं योग योजयति। से कुछ अधिक काल तक योग करता है।
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स्थान ६ : सूत्र १६-१६ १६. अभिइआइआ णं णव णक्खत्ताणं अभिजिदादिकानि नव नक्षत्राणि १६. अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं चन्द्रस्योत्तरेण योगं योजयन्ति, उत्तर दिशा से योग करते हैं .... तद्यथा
१. अभिजित्, २. श्रवण, ४. धनिष्ठा, अभिई, सवणो, धणिट्ठा, अभिजित्, श्रवणः, धनिष्ठा, शतभिषक्, ४. शतभिषक, ५. पूर्वभाद्रपद, 'सयभिसया, पुव्वाभद्दवया, पूर्वभाद्रपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा, रेवती, ६. उत्तरभाद्रपद, ७. रेवती, उत्तरापोटुवया, रेवई, अश्विनी, भरणी।
८. अश्विनी, ६. भरणी। अस्सिणी, भरणी। १७. इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसम- १७. इन रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसमरमणीय भू
बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ रमणीयात् भूमिभागात् नव योजन- भाग से नौ सौ योजन की ऊंचाई पर सब णव जोअणसताई उड्ड अबाहाए शतानि ऊर्ध्व अबाधया उपरितनं से ऊंचा तारा [शनैश्चर] गति करता उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति। तारारूपं चारं चरति ।
मच्छ-पदं
मत्स्य-पदम् १८. जंबुद्दीवेणं दीवेणवजोयणिया मच्छा जम्बूद्वीपे द्वापे नवयोजनिका: मत्स्याः
पविसिसु वा पविसंति वा पविसि- प्राविशन् वा प्रविशन्ति वा प्रवेक्ष्यन्ति स्संति वा।
वा।
मत्स्य -पद १८. जम्बूद्वीप द्वीप में नौ योजन के मत्स्यों ने
प्रवेश किया था, करते हैं और करेंगे।
बलदेव वासुदेव-पदं बलदेव-वासुदेव-पदम्
बलदेव-वासुदेव-पद १६. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे अस्यां १६. जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में इस अव
ओस प्पिणीए णव बलदेव-वासुदेव- अवसर्पिण्यां नव बलदेव-वासुदेवपितरः सर्पिणी में बलदेव-वासूदेव के ये नौ पिता पियरो हुत्था, तं जहा- अभवन्, तद्यथा
१. प्रजापति, २. ब्रह्म, ३. रौद्र, ४. सोम, ५. शिव, ६. महासिंह, ७. अग्निसिंह ८. दशरथ, ६. वसुदेव ।
संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाहा १. पयावती य बंभे, १. प्रजापतिश्च ब्रह्मा, रोद्दे सोमे सेवेति य। रुद्र: सोम: शिवइति च। महसोहे अग्गिसोहे, महासिंहोऽग्निसिंहो, दसरहे णवमे य वसुदेवे॥ दशरथः नवमश्च वसुदेवः ।। इत्तो आढत्तं जधा समवाये गिर इतः आरभ्य यथा समवाये निरवशेषं वसेसं जाव... एगा से गम्भवसही, एका तस्य गर्भवसतिः, सिज्झिहिति आगमेसेणं । सेत्स्यति आगमिष्यति ।
यावत्
यहां से आगे शेष सब समवयांग की भांति वक्तव्य है, यावत् वह आगामी काल में एक गर्भावास कर सिद्ध होगा।
मसण।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान : सूत्र २०-२२
की है।
२०. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगम- जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यति २०. जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में आगामी
साए उस्सप्पिणीए णव बलदेव- उत्सपिण्यां नव बलदेव-वासुदेवपितरः उत्सर्पिणी में बलदेव-वासुदेव के नौ मातावासुदेवपितरो भविस्संति, णव भविष्यन्ति, नव बलदेव-वासूदेवमातरो पिता होंगे। बलदेव-वासुदेवमायरो भविस्संति। भविष्यन्ति। एवं जधा समवाए णिरवसेसं एवं यथा समवाये निरवशेषं यावत् शेष सब समवायांग की भांति वक्तव्य है जाव महाभीमसेणे, सुग्गीवे य महाभीमसेनः, सुग्रीवश्च अपश्चिमः । यावत् महाभीमसेन और सुग्रीव । ये अपच्छिमे।
कीर्तिपुरुष वासुदेवों के प्रतिशत्रु होंगे। १. एए खलु पडिसत्तू, १. एते खलु प्रतिशत्रवः, ये सब चक्रयोधी होंगे और ये सब अपने कित्तिपुरिसाण वासुदेवाणं। कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवानाम् । ही चक्र से वासुदेव द्वारा मारे जाएंगे। सव्वे वि चक्कजोही, सर्वेऽपि चक्रयोधिनो, हम्मेहिती सचक्केहि ॥ हनिष्यन्ति स्वचक्रः । महाणिहि-पदं महानिधि-पदम्
महानिधि-पद २१. एगमेगे णं महाणिधी णव-णव एकैक: महानिधिः नव-नव योजनानि २१. प्रत्येक महानिधि की चौड़ाई नौ-नौ योजन
जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ते। विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः । २२. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्क- एकैकस्य राज्ञः चतुरन्तचक्रवर्तिनः नव २२. प्रत्येक चतुरन्त चक्रवर्ती राजा के नौ वट्टिस्स णव महाणिहिओ [णो ?] महानिधयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
महानिधि होते हैंपण्णत्ता, तं जहा.संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. णेसप्पे पंडुयए, १. नैसर्पः पाण्डुकः,
१. नैसर्प, २. पाण्डुक, ३. पिंगल, पिंगलए सव्वरयण महापउमे। पिङ्गलक: सर्वरत्नं महापद्म।
४. सर्वरत्न, ५. महापद्म, ६. काल, काले य महाकाले, कालश्च महाकाल:,
७. महाकाल, ८. माणवक, ह. शंख । माणवग महाणिही संखे ॥ माणवक: महानिधिः शङ्खः ।। २.णेसप्पंमि णिवेसा, २. नैसर्प निवेशाः,
ग्राम, आकर, नगर, पट्टण, द्रोणमुख, मडंब, गामागर-णगर-पट्टणाणं च । ग्रामाकर-नगर-पट्टनानां च ।
स्कंधावार और गृहों की रचना का ज्ञान दोणमुह-मडंबाणं, द्रोणमुख-मडम्बानां,
नैसर्प महानिधि से होता है। खंधाराणं गिहाणं च। स्कन्धावाराणां गृहाणाञ्च ।। ३. गणियस्स य बीयाणं, ३. गणितस्य च बीजानां,
गणित तथा बीजों के मान और उन्मान माणुम्माणस्स जं पमाणं च। मानोन्मानस्य यत प्रमाणं च ।
का प्रमाण तथा धान्य और बीजों की धण्णस्स य बीयाणं, धान्यस्य च बीजानां,
उत्पत्ति का ज्ञान 'पाण्डुक' महानिधि से उप्पत्ती पंडुए भणिया ॥ उत्पत्तिः पाण्डुके भणिता ॥
होता है।
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स्थान : सूत्र २२
स्त्री, पुरुष, घोड़े और हाथियों की समस्त आभारणविधि का ज्ञान पिंगल' महानिधि से होता है।
ठाणं (स्थान)
४. सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं। आसाण य हत्थीण य, पिगलगणिहिम्मि सा भणिया। ५. रयणाई सव्वरयणे, चोद्दस पवराई चक्कवट्टिस्स। उप्पज्जति एगिदियाई, पंचिदियाई च॥ ६. वत्थाण य उत्पत्ती, णिप्फत्ती चेव सवभत्तीणं। रंगाण यधोयाण य, सव्वा एसा महापउमे॥ ७. काले कालण्णाणं, भव्व पुराणं च तीसु वासेसु। सिप्पसत्तं कम्माणि य, तिण्णि पयाए हियकराई॥
४. सर्वः आभारणविधिः, पुरुषाणां या च भवति महिलानां ॥ अश्वानां च हस्तिनां च, पिङ्गलकनिधौ सा भणिता॥ ५. रत्नानि सर्वरत्ने, चतुर्दश प्रवराणि चक्रवत्तिनः । उत्पद्यन्ते एकेन्द्रियाणि पञ्चेन्द्रियाणि च॥ ६. वस्त्राणां च उत्पत्तिः, निष्पत्तिः चैव सर्वभक्तीनां । रङ्गवतां च धौतानां च, सर्वा एषा महापद्म ।। ७. काले कालज्ञानं, भव्यं पुराणं च त्रिषु वर्षेषु । शिल्पशतं कर्माणि च, त्रीणि प्रजायै हितकराणि ॥
चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय और सात पञ्चेन्द्रिय रत्न-इन चौदह रत्नों की उत्पत्ति का वर्णन 'सर्वरत्न' महानिधि से प्राप्त होता है। रंगे हुए या श्वेत सभी प्रकार के वस्त्रों की उत्पत्ति व निष्पत्ति का ज्ञान 'महापद्म' महानिधि से होता है।
अनागत व अतीत के तीन-तीन वर्षों के शुभाशुभ का कालज्ञान, सौ प्रकार के शिल्पों का ज्ञान और प्रजा के लिए हितकर सुरक्षा, कृषि, वाणिज्य ---इन तीन कर्मों का ज्ञान 'काल' महानिधि से होता है। लोह, चांदी तथा सोने के आकर, मणि, मुक्ता, स्फटिक और प्रवाल की उत्पत्ति का ज्ञान महाकाल' महानिधि से होता है।
८. लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकाले आगराणं च।। रुप्पस्स सुवण्णस्स य, मणि-मोत्ति-सिल-प्पवालाणं॥ है. जोधाण य उत्पत्ती, आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वा य जुद्धनीती, माणवए दंडणीती य॥ १०. पट्टविही णाडगविही, कव्वस्स चउब्विहस्स उप्पत्ती।। संखे महाणिहिम्मी, तडियंगाणं च सव्वेसि॥ ११. चक्कट्ठपइट्ठाणा, अठुस्सेहा य णव य विक्खंभे। बारसदीहा मंजूस-संठिया जाह्मवीए मुहे ॥
८. लोहस्य चोत्पत्तिः, भवति महाकाले आकराणाञ्च। रुप्यस्य सुवर्णस्य च, मणि-मुक्ता-शिला-प्रवालानाम् ।। ६. योधानां चोत्पत्तिः, आवरणानां च प्रहरणानाञ्च । सर्वा च युद्धनीतिः, माणवके दण्डनीतिश्च ।। १०. नृत्यविधि: नाटकविधिः, काव्यस्य चतुर्विधस्योत्पत्तिः । शो महानिधौ, त्रुटिताङ्गानां च सर्वेषाम् ।। ११. चक्राष्टप्रतिष्ठानाः, अष्टोत्सेधाश्च नव च विष्कम्भे। द्वादशदीर्घाः मञ्जूषा-संस्थिताः जाह्नव्या मुखे ॥
योद्धाओं, कवचों और आयुधों के निर्माण का ज्ञान तथा समस्त युद्धनीति और दण्डनीति का ज्ञान 'माणवक' महानिधि से होता है। नृत्यविधि, नाटकविधि, चार प्रकार के काव्यों तथा सभी प्रकार के वाद्यों की विधि का ज्ञान 'शंख' महानिधि से होता
है।
प्रत्येक महानिधि आठ-आठ चक्रों पर अवस्थिति है। वे आठ योजन ऊंचे, नौ योजन चौड़े, बाहर योजन लम्बे तथा मंजूषा के संस्थान वाले होते हैं। वे सभी गंगा के मुहाने पर अवस्थित रहते हैं।
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स्थान ६: सूत्र २३-२५
ठाणं (स्थान)
८५४ १२. वेरुलियमणि-कवाडा, १२. वैडूर्यमणि-कपाटाः, कणगमया विविध-रयण-पडिपुण्णा। कनकमयाः विविध-रत्न-प्रतिपूर्णाः । ससि-सूर-चक्क-लक्खण-अणुसम- शशि-सूर-चक्र-लक्षणानुसमजुग-बाहु-वयणा य॥ युग-बाहु-वदनाश्च ॥
१३. पलिओवमद्वितीया, १३. पल्योपमस्थितिकाः, णिहिसरिणामा य तेसु खलु देवा। निधिसदृग्नामानश्च तेषु खलु देवाः। जेसि ते आवासा,
येषां ते आवासाः, अक्किज्जा आहिवच्चा वा। अक्रेयाः आधिपत्याः वा।। १४. एए ते गवणि हिणो, १४. एते ते नव निधयः, पभूतधणरयणसंचयसमिद्धा। प्रभूतधनरत्नसंचयसमृद्धाः । जे वसमुवगच्छंती,
ये वशमुपगच्छन्ति, सव्वेसि चक्कवट्टीणं॥ सर्वेषां चक्रवर्तिनाम् ॥
उन निधियों के कपाट वैडूर्य-रत्नमय और सुवर्णमय होते हैं। उनमें विविध रत्न जड़े हुए होते हैं। उन पर चन्द्र, सूर्य और चक्र के आकार के चिह्न होते हैं। वे सभी समान होते हैं और उनके दरवाजे के मुखभाग में खम्भे के समान वृत्त और लम्बी द्वार-शाखाएं होती हैं। वे सभी निधि एक पल्योपम की स्थितिवाले होते हैं। जो-जो निधियों के नाम हैं उन्हीं नामों के देव उनमें आवास करते हैं। उनका क्रय-विक्रय नहीं होता और उन पर सदा देवों का आधिपत्य रहता है। वे नौ निधि प्रभूत धन और रत्नों के संचय से समृद्धि होते हैं और वे समस्त चक्रवतियों के वश में रहते हैं।
विगति-पदं विकृति-पदम्
विकृति-पद २३. णब विगतीओ पण्णत्ताओ, तं नव विकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २३. विकृतियां नौ हैं
जहाखीरं, दधि, णवणीतं, सप्पि, तेलं, क्षीरं, दधि, नवनीतं, सपिः, तैलं, १. दूध, २. दही, ३. नवनीत,
४. घृत, ५. तैल, ६. गुड़, गुलो, महुं, मज्ज, मंसं। गुडः, मधु, मद्य, मांसम् ।
७. मधु, ८. मद्य, ६. मांस । बोंदी-पदं बोंदी-पदम्
बोंदी-पद २४. णव-सोत-परिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, नव-स्रोत:-परिश्रवा बोन्दी प्रज्ञप्ता, २४. शरीर में नौ स्रोत झर रहे हैं.... तं जहा
तद्यथादो सोत्ता, दो णेत्ता, दो घाणा, द्वे थोत्रे, द्वे नेत्रे, द्वे घ्राणे, मखं, उपस्थं, दो कान, दो नेत्र, दो नाक, मुंह, उपस्थ मुह, पोसए, पाऊ। पायुः ।
और अपान।
पुण्ण-पदं
पुण्य-पदम् २५. णवविधे पुण्णे पण्णत्ते, तं जहा- नवविधं पुण्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा
अण्णपुण्णे, पाणपुण्णे, वत्थपुण्णे, अन्नपुण्यं, पानपुण्यं, वस्त्रपुण्यं, लेणपुग्ण, सयणपुण्णे, मणपुण्णे, लयनपुण्यं, शयनपुण्यं, मनःपुण्यं, वइपुण्णे, कायपुण्णे, वाक्पुण्यं,
कायपुण्यं, णमोक्कारपुण्णे।
नमस्कारपुण्यम् ।
पुण्य-पद २५. पुण्य के नौ प्रकार हैं
१. अन्नपुण्य, २. पानपुण्य, ३. वस्त्रपुण्य, ४. लयनपुण्य, ५. शयनपुण्य, ६. मनपुण्य, ७. वचनपुण्य, ८. कायपुण्य, ६. नमस्कारपुण्य ।
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स्थान ६: सूत्र २६-२८ पावायतण-पदं पापायतन-पदम्
पापायतन-पद २६. णव पावस्सायतणा पण्णत्ता, तं नव पापस्यायतनानि प्रज्ञप्तानि, २६. पाप के आयतन [स्थान] नौ हैंजहातद्यथा
१.प्राणातिपात, २. मृषावाद, पाणातिवाते, मुसावाए,
प्राणातिपात:, मषावादः, अदत्तादानं, ३. अदत्तादान, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, 'अदिण्णादाणे, मेहुणे, मैथुनं, परिग्रहः, क्रोधः, मानं, माया, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, परिग्गहे, कोहे, माणे, लोभः ।
६. लोभ । माया, लोभे।
पावसुयपसंग-पदं पापश्रुतप्रसंग-पदम्
पापश्रुतप्रसंग-पद २७. णवविध पावसुयपसंगे पण्णत्ते, तं नवविधः पापश्रुतप्रसङ्गः प्रज्ञप्तः, २७. पापश्रुत-प्रसंग" के नौ प्रकार हैंजहा
तद्यथासंगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. उप्पाते णिमित्त मते, १. उत्पात: निमित्तं मन्त्रः,
१. उत्पात-प्रकृति-विप्लव और राष्ट्र
विप्लव का सूचक शास्त्र। आइक्खिए तिगिच्छिए। आख्यातं चैकित्सिकं ।
२. निमित्त-अतीत, वर्तमान और कला आवरणे अण्णाणे कला आवरणं अज्ञानं
भविष्य को जानने का शास्त्र ।
३.मंत्र-मंत्र-विद्या का प्रतिपादक शास्त्र मिच्छापवयणे ति य॥ मिथ्याप्रवचनमिति च॥
४. आख्यायिका-मातंग-विद्या-एक विद्या जिससे अतीत आदि की परोक्ष बातें जानी जाती हैं। ५. चिकित्सा आयुर्वेद आदि। ६. कला-७२ कलाओं का प्रतिपादक शास्त्र। ७. आवरण-बास्तुविद्या। ८. अज्ञान-लौकिकश्रुत-भरतनाट्य आदि। ६. मिथ्याप्रवचन--कुतीथिकों के शास्त्र।
उणिय-पदं नैपुणिक-पदम्
नैपुणिक-पद २८. णव उणिया वत्थू पण्णत्ता, तं नव नैपुणिकानि वस्तूनि प्रज्ञप्तानि, २८. नपुणिक" वस्तु [पुरुष] नौ हैं
१. संख्यान-गणित को जानने वाला। जहातद्यथा
२. नैमित्तिक-निमित्त को जानने वाला। १. संखाणे णिमित्ते काइया १. संख्यान: नैमित्तिक: कायिकः ३. कायिक-इडा, पिंगला आदि प्राणपोराणे पारिहथिए।
तत्त्वों को जानने वाला। पुराणः पारिहस्तिकः।
४. पौराणिक-इतिहास को जानने वाला, परपंडिते वाई य, परपण्डितः वादी च,
५. पारिहस्तिक--प्रकृति से ही समस्त भूतिकम्मे तिगिच्छिए॥ भतिकर्मा चैकित्सिकः ॥
कार्यों में दक्ष। ६. परपण्डित-अनेक शास्त्रों को जानने वाला। ७. वादी-वाद-लब्धि से सम्पन्न । ८. भूतिकर्म-भस्मलेप या डोरा बांधकर ज्वर आदि की चिकित्सा करने वाला। ६. चैकित्सिक-चिकित्सा करने वाला।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६: सूत्र २६-३३
गण-पदं गण-पदम्
गण-पद २६. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य नव गणाः २६. श्रमण भगवान् महावीर के नौ गण" थेणव गणा हुत्था, तं जहा- अभवन्, तद्यथा
१. गोदासगण, २. उत्तरबलिस्सहगण, गोदासगणे, उत्तरबलिस्सहगणे, गोदासगणः, उत्तरबलिस्सहगणः, ३. उद्देहगण, ४. चारणगण, उद्देहगणे, चारणगणे, उद्दवाइयगणे, उद्देहगणः, चारणगणः, उद्दवाइयगणः, ५. उद्दवाइयगण [उडुपाटितगण], विस्सवाइयगणे, कामड्डियगणे, विस्सवाइयगणः, कामद्धिकगणः, ६. विस्सवाइयगण [वेशपाटितगण], माणवगणे, कोडियगणे। मानवगणः, कोटिकगणः ।
७. कामद्धिकगण, ८. मानवगण, ६. कोटिकगण।
भिक्खा-पदं भिक्षा-पदम्
भिक्षा-पद ३०. समणेणं भगवता महावीरेणं सम- श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां ३०. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण
णाणं णिग्गंथाणं णवकोडिपरिसुद्धे निर्ग्रन्थानां नवकोटिपरिशुद्धं भक्षं निर्ग्रन्थिों के लिए नौकोटिपरिशुद्ध भिक्षा भिक्खे पण्णत्ते, तं जहा..- प्रज्ञप्तम्, तद्यथा
का निरूपण किया हैण हणइ, ण हणावइ, न हन्ति, न घातयति, घ्नन्तं १. न हनन करता है। हणंतं णाणुजाणइ, ण पयइ, नानुजानाति, न पचति, न पाचयति, २. न हनन करवाता है। ण पयावेति, पयंतं णाणुजाणति, पचन्तं नानुजानाति, न क्रीणाति, ३. न हनन करने वालों का अनुमोदन ण किणति, ण किणावेति, न क्रापयति, क्रीणन्तं नानुजानाति । करता है। किणतं णाणुजाणति।
४. न पकाता है। ५. न पकवाता है। ६. न पकाने वाले का अनुमोदन करता है। ७. न मोल लेता है। ८. न मोल लिवाता है। ६. न मोल लेने वाले का अनुमोदन करता है।
देव-पदम्
देव-पदं
देव-पद ३१. ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वरुणस्य ३१. देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महा
वरुणस्स महारण्णो णव अग्ग- महाराजस्य नव अग्रमहिष्यः
महिसीओ पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ताः । ३२. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य ३२. देवेन्द्र देवराज ईशान की अग्रमहिषियों
अग्गम हिसीणं णव पलिओवमाइं अग्रमहिषीणां नव पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति नौ पल्योपम की है । ठिती पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । ३३. ईसाणे कप्पे उक्कोसेणं देवोणं णव ईशाने कल्पे उत्कर्षेण देवीनां नव पल्यो- ३३. ईशान कल्प में देवियों की उत्कृष्ट स्थिति पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। पमानि स्थितिः प्रज्ञप्ताः ।
नौ पल्योपम की है।
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ठाणं (स्थान)
स्थान : सूत्र ३४-३८ ३४. णव देवणिकाया पण्णत्ता, तं जहा- नव देवनिकायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३४. नौ देवनिकाय हैसंगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. सारस्सयमाइच्चा, १. सारस्वता: आदित्याः,
१. सारस्वत, २. आदित्य, ३. वह्नि, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य। वह्नयः वरुणाश्चः गर्दतोयाश्च । ४. वरुण, ५. गर्दतोय, ६. तुषित, तुसिया अव्वाबाहा, तुपिताः अव्याबाधाः,
७. अव्याबाध, ८. अग्न्यर्च, ६.रिष्ट । अग्गिच्चा चेव रिट्टा य । अग्न्यश्चैिव रिष्टाश्च ।। ३५. अव्वाबाहाणं देवाणं णव देवा णव अव्याबाधानां देवानां नव देवाः नव ३५. अव्याबाध जाति के देव स्वामीरूप में नौ देवसया पण्णत्ता। देवशतानि प्रज्ञप्तानि ।
हैं और उनके नौसी देवों का परिवार है। ३६. 'अग्गिच्चाणं देवाणं णव देवा णव अग्न्यानां देवानां नव देवाः नव ३६. अग्न्यचं जाति के देव स्वामीरूप में नौ हैं देवसया पण्णत्ता। देवशतानि प्रज्ञप्तानि।
और उनके नौ सौ देवों का परिवार है। ३७. रिटाणं देवाणं णव देवा णव देवसया रिष्टानां देवानां नव देवाः नव देवशतानि ३७. रिष्ट जाति के देव स्वामीरूप में नौ हैं पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि ।
और उनके नौ सौ देवों का परिवार है। ३८. णव गेवेज्ज-विमाण-पत्थडा पण्णत्ता, नव ग्रैवेयक-विमान-प्रस्तटाः प्रज्ञप्ताः, ३८. अवेयक विमान के प्रस्तट नौ हैं... तं जहा
तद्यथाहेट्ठिम-हेट्ठिम-गेविज्ज-विमाण- अधस्तन-अधस्तन-प्रैवेयक-विमान
१. निचले त्रिक के निचले देयक विमान पत्थडे, प्रस्तट:;
का प्रस्तट। हेदिम-मज्झिम-गेविज्ज-विमाण- अधस्तन-मध्यम-अवेयक-विमान
२. निचले त्रिक के मध्यम अवेयक विमान पत्थडे, प्रस्तटः,
का प्रस्तट। हेटिम-उवरिम-गेविज्ज-विमाण- अधस्तन-उपरितन-प्रैवेयक-विमान- ३. निचले त्रिक के ऊपर वाले ग्रेवेयक पत्थडे, प्रस्तट:,
विमान का प्रस्तट। मज्झिम-हेट्ठिम-गेविज्ज-विमाण- मध्यम-अधस्तन-गवेयक-विमान
४. मध्यम त्रिक के निचले वेयक विमान पत्थडे,
का प्रस्तट। मझिम-मज्झिम-गेविज्ज-विमाण- मध्यम-मध्यम-वेयक-विमान
५. मध्यम त्रिक के मध्यम ग्रैवेयक विमान पत्थडे, प्रस्तट:,
का प्रस्तट। मज्झिम-उरिम-गेविज्ज-विमाण- मध्यम-उपरितन-वेयक-विमान
६. मध्यम त्रिक के ऊपर वाले प्रबेयक पत्थडे, प्रस्तटः,
विमान का प्रस्तट। उवरिम-हेद्विम-गेविज्ज-विमाण- उपरितन-अधस्तन-प्रैवेयक-विमान- ७. ऊपर वाले त्रिक के निचले प्रेवेयक पत्थडे, प्रस्तटः,
विमान का प्रस्तट। उरिम-मज्झिम-गेविज्ज-विमाण- उपरितन-मध्यम-प्रैवेयक-विमान
८. ऊपर वाले त्रिक के मध्यम ग्रेवेयक पत्थडे, प्रस्तट:,
विमान का प्रस्तट। उवरिम-उवरिम-गेविज्ज-विमाण- उपरितन-उपरितन-अवेयक-विमान ६. ऊपरवाले त्रिक के ऊपर वाले ग्रेवेयक पत्थडे । प्रस्तटः।
विमान का प्रस्तट।
प्रस्तट:,
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ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र ३९-४२ ३६. एतेसि णं णवण्हं गेविज्ज-विमाण- एतेषां नवानां नैवेयक-विमान- ३६. अवेयक विमान के इन नौ प्रस्तटों के नौ पत्थडाणं णवणामधिज्जा पण्णत्ता, प्रस्तटानां नव नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, नाम हैं
तद्यथा
तं जहा
संगहणी-गाहा १. भद्दे सुभद्दे सुजाते, सोमणसे पियदरिसणे। सुदंसणे अमोहे य, सुप्पबुद्धे जसोधरे।
संग्रहणी-गाथा १. भद्रः सुभद्रः सुजातः, सौमनसः प्रियदर्शनः । सुदर्शन: अमोहश्च, सुप्रबुद्धः यशोधरः ॥
१. भद्र, २. सुभद्र, ३. सुजात, ४. सौमनस, ५. प्रियदर्शन, ६. सुदर्शन, ७. अमोह, ८. सुप्रबुद्ध, ६. यशोधर।
आउपरिणाम-पदं आयुःपरिणाम-पदम्
आयुःपरिणाम-पद ४०. णवविहे आउपरिणामे पण्णत्ते, तं नवविधः आयु: परिणामः प्रज्ञप्तः, ४०. आयुपरिणाम के नौ प्रकार हैजहातद्यथा
१. गति परिणाम, गतिपरिणामे, गतिबंधणपरिणामे, गतिपरिणामः, गतिबन्धनपरिणामः, २. गति-बंधन परिणाम, ठितिपरिणामे, ठितिबंधणपरिणामे, स्थितिपरिणामः, स्थितिबन्धनपरिणामः, ३. स्थिति परिणाम, उड्ढगारवपरिणामे, ऊर्ध्वगौरवपरिणामः,
४.स्थिति-बंधन परिणाम, अहेगारवपरिणामे, अधोगौरवपरिणामः,
५. ऊर्ध्व गौरव परिणाम, तिरियंगारवपरिणामे, तिर्यग्गौरवपरिणामः,
६. अधो गौरव परिणाम, दोहंगारवपरिणामे, दीर्घगौरवपरिणामः,
७. तिर्यक् गौरव परिणाम, रहस्संगारवपरिणामे। ह्रस्वगौरवपरिणामः।
८. दीर्घ गौरव परिणाम, ६. ह्रस्व गौरव परिणाण।
पडिमा-पदं प्रतिमा-पदम्
प्रतिमा-पद ४१. णवणवमिया णं भिक्खुपडिमा नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा एकाशीत्या ४१. नव-नवमिका (EXE) भिक्षु-प्रतिमा
एगासीतीए रातिदिएहिं चउहि य रात्रिंदिवः चतुभिः च पञ्चोत्तरैः भिक्षा- ८१ दिन-रात तथा ४०५ भिक्षादत्तियों पंचुत्तरेहि भिक्खासतेहिं अहासुत्तं शतैः यथासूत्रं यथार्थ यथातत्त्वं यथा- द्वारा यथासूत्र, यथाअर्थ, यथातत्त्व, यथा•अहाअत्थं अहातचं अहामग्गं मार्ग यथाकल्पं सम्यक् कायेन स्पृष्टा मार्ग, यथाकल्प तथा सम्यक् प्रकार से अहाकप्पं सम्मं कारणं फासिया पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता काया से आचीर्ण, पालित, शोधित, पूरित, पालिया सोहिया तीरिया आराधिता चापि भवति ।
कीर्तित और आराधित की जाती है। किटिया आराहिया यावि भवति ।
पायच्छित्त-पदं
प्रायश्चित्त-पदम् ४२. णवविध पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं नवविधं प्रायश्चित्तं जहा
तद्यथा
प्रायश्चित्त-पद प्रज्ञप्तम्, ४२. प्रायश्चित्त नौ प्रकार का होता है
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स्थान ६ : सूत्र ४३-४५
ठाणं (स्थान)
८५६ आलोयणारिहे, 'पडिक्कमणारिहे, आलोचनाह, प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयाहं, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विवेकाह, व्युत्सर्गार्ह, तपोर्ह, छेदार्ह, विउसन्गारिहे, तवारिहे, मूलाई, अनवस्थाप्याहम् । छयारिहे, मूलारिहे, अणवट्टप्पारिहे।
१. आलोचना के योग्य, २. प्रतिक्रमण के योग्य, ३. आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों के योग्य, ४. विवेक के योग्य, ५. व्युत्सर्ग के योग्य, ६. तप के योग्य, ७. छेद के योग्य, ८. मूल के योग्य, ६. अनवस्थाप्य के योग्य।
कूड-पदं कूट-पदम्
कूट-पद ४३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पच्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ४३. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के दक्षिण में
दाहिणे णं भरहे दोहवेतड्ड णव भरते दीर्घवैताड्ये नव कूटानि भरत क्षेत्रवर्ती दीर्थ-वैताढ्य के नौ कूट कूडा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा--- संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. सिद्धे भरहे खंडग, १. सिद्धो भरत: खण्डकः, १. सिद्धायतन, २. भरत, माणी वेयर पुण्ण तिमिसगुहा।। माणिः वैतायड्यः पूर्णः तमिस्रगुहा।। ३. खण्डकप्रपातगुहा, ४. माणिभद्र, भरहे वेसमणे या, भरतो वैश्रमणश्च,
५. वैताव, ६. पूर्णभद्र, ७. तमिस्रगृहा, भरहे कूडाण णामाई॥ भरते कुटानां नामानि ।।
८. भरत, ६. वैश्रमण। ४४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे ४४. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के दक्षिण
दाहिणे णं णिसहे वासहरपन्वते निषधे वर्षधरपर्वते नव कूटानि में निपधवर्षधर पर्वत के नौ कूट हैंणव कूडा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि तद्यथा१. सिद्धे णिसहे हरिवस, १. सिद्धो निषधो हरिवर्ष,
१. सिद्धायतन, २. निषध, ३. हरिवर्ष, विदेह हरि घिति असोतोया। विदेहः हीः धृतिश्च शीतोदा।
४. पूर्वविदेह, ५. हरि, ६. धृति, अवरविदेहे रुयगे, अपरविदेहः रुचको,
७. शीतोदा, ८. अपरविदेह, ६. रुचक । णिसहे कडाण णामाणि॥ निषधे कूटानां नामानि ।। ४५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरपन्वते णंदणवणे जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरपर्वते नन्दनवने ४५. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के नन्दनणव कूडा पण्णत्ता, तं जहा- नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
वन में नो कूट हैं१. गंदणे मंदरे चेव, १. नन्दनो मन्दरश्चैव,
१. नन्दन, २. मन्दर, ३. निषध, णिसहे हेमवते रयय रुयए य। निषधो हैमवतः रजतः रुचकश्च । ४. हैमवत, ५. रजत, ६. रुचक, सागरचित्ते वइरे, सागरचित्रं वज्र,
७. सागरचित्र, ८. वज्र, ६. बल । बलकडे चेव बोद्धव्वे ॥ बलकूटं चैव बोद्धव्यम् ।।
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ठाणं (स्थान)
८६०
स्थान : सूत्र ४६-५२ ४६. जंबुद्दीवे दीवे मालवतवक्खार जम्बूद्वीपे द्वीपे माल्यवत्वक्षस्कारपर्वते ४६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के (उत्तर पव्वते णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा- नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
में उत्तरकुरा के पश्चिम पार्श्व में] माल्य
वान् वक्षस्कार पर्वत के नौ कूट हैं१. सिद्धे य मालवंते, १. सिद्धश्च माल्यवान,
१. सिद्धायतन, २. माल्यबान्, उत्तरकुरु कच्छ सागरे रयते।। उत्तरकुरु: कच्छ: सागरः रजतः ।
३. उत्तरकुरु, ४. कच्छ, ५. सागर, सीता य पुण्णणामे, शीता च पूर्णनामा,
६. रजत, ७. शीता, ८. पूर्णभद्र, हरिस्सहकूडे य बोद्धब्वे ॥ हरिस्सहकूटं च बोद्धव्यम् ॥ ६. हरिस्सह। ४७. जंबुट्टीवे दीवे कच्छे दोहवेयड्रेणव जम्बूद्वीपे द्वीपे कच्छे दीर्घवैताठ्ये नव ४७. जम्बूद्वीप द्वीप के कच्छवर्ती दीर्घवैताढ्य कूडा पण्णत्ता, तं जहा- कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
के नौ कूट हैं
१. सिद्धायतन, १. सिद्ध कच्छे खंडग,
२. कच्छ, १. सिद्धः कच्छ: खण्डकः,
३. खण्डकप्रपातगुहा, ४. माणिभद्र, माणी वेयड्ड पुण्ण तिमिसगुहा। माणिः वैताढ्यः पूर्णः तमिस्रगुहा ।
५. वैताढ्य, ६. पूर्णभद्र, कच्छे वेसमणे या, कच्छो वैश्रवणश्च,
७. तमिस्रगृहा, ८. कच्छ, कच्छे कडाण णामाई। कच्छे कूटानां नामानि । ६. वैश्रमण। ४८. जंबुद्दीवे दीवे सुकच्छे दोहवेयड्ड जम्बूद्वीपे द्वीपे सुकच्छे दीर्घवैताढ्ये ४८. जम्बूद्वीप द्वीप के सुकच्छवर्ती दीर्घवैताढ्य णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा- नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
के नौ कूट हैं१. सिद्धे सुकच्छे खंडग, १. सिद्धः सुकच्छः खण्डकः,
१.सिद्धायतन, २. सुकच्छ,
३. खण्डकप्रपातगुहा, ४. माणिभद्र, माणी वेयड्ड पुण्ण तिमिसगुहा। माणिः वैताढ्यः पूर्णः तमिस्रगुहा।
५. वैताढ्य, ६. पूर्णभद्र, सुकच्छे वेसमणे या, सुकच्छो वैश्रमणश्च,
७. तमिस्रगुहा, ८. सुकच्छ, सुकच्छे कूडाण णामाई। सुकच्छे कुटानां नामानि ।। ६. वैश्रमण । ४६. एवं जाव पोक्खलावइम्मि एवम् यावत् पुष्कलावत्यां ४६. इसी प्रकार महाकच्छ, कच्छकावती, दोहवेयड्ड । दीर्घवैताढ्ये।
आवर्त, मंगलावर्त, पुष्कल और पुष्कलावती में विद्यमान दीर्घवैताढ्य के नौ-नौ
कूट हैं। ५०. एवं वच्छे दोहवेयड्ड। एवं वत्से दीर्घवैतादये।
५०. इसी प्रकार वत्स में विद्यमान दीर्घवैताढ्य
के नौ कूट हैं। ५१. एवं जाव मंगलावतिम्मि दोहवेयड्ड। एवं यावत् मङ्गलावत्यां दीर्घ- ५१. इसीप्रकार सुवत्स, महावत्स, वत्सकावती, वैताये।
रम्य, रम्यक, रमणीय और मंगलावती में
विद्यमान दीर्घवैताढ्य के नौ-नौ कुट हैं। ५२. जंबुद्दीवे दीवे विज्जुप्पभे वक्खार- जम्बूद्वीपे द्वीपे विद्युत्प्रभे वक्षस्कार- ५२. जम्बुद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के विद्युत्प्रभ
पन्वते णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा- पर्वते नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- वक्षस्कार पर्वत के नौ कुट हैं१. सिद्धे अ विज्जुणामे, १. सिद्धश्च विद्युन्नामा,
१.सिद्धायतन, २. विद्युत्प्रभ, देवकुरा पम्ह कणग सोवत्थी। देवकुरा पद्म कनकं सौवस्तिकः । ३. देवकुरा, ४. पक्ष्म, ५. कनक, सीओदा य सयजले, शीतोदा च शतज्वलः,
६. स्वस्तिक, ७. शीतोदा, ८. शतज्वल, हरिकूडे चेव बोद्धव्वे ॥ हरिकूट चैव बौद्धव्यम् ।। ६. हरि।
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८६१
ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : सूत्र ५३-५७ ५३. जंबुद्दीवे दीवे पम्हे दीहवेयड्डे णव जम्बूद्वीपे द्वीपे पक्ष्मणि दीर्घवैताढ्ये ५३. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पक्ष्मवर्ती
कूडा पण्णत्ता, तं जहा- नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- दीर्घवैताढ्य के नौ कूट हैं१. सिद्धे पम्हे खंडग, १. सिद्धः पक्ष्म खण्डकः,
१. सिद्धायतन, २. पक्षम, माणी वेयड्ड 'पुण्ण तिमिसगुहा। माणिः वैताढ्यः पूर्णः तमिस्रगुहा। ३. खण्डकप्रपातगुहा, ४. माणिभद्र, पम्हे वेसमणे या, पक्ष्म वैश्रमणश्च,
५. वैताढ्य, ६. पूर्णभद्र, पम्हे कूडाण णामाई॥ पक्ष्मणि कूटानां नामानि ।। ७. तमिस्रगुहा, ८. पक्षम,
६. वैश्रमण। ५४. एवं चेव जाव सलिलावतिम्मि एवं चैव यावत् सलिलावत्यां दीर्घ- ५४. इसी प्रकार सुपक्ष्म, महापक्ष्म, पक्ष्मका. दोहवेयड्ड। वैताढ़ये।
वती, शंख, नलिन, कुमुद और सलिलावती, में विद्यमान दीर्घताढ्य के नौ-नौ
कुट हैं। ५५ एवं वप्पे दीहवेयड्डे । एवं वप्रे दीर्घवैताढ्ये।
५५. इसी प्रकार वप्र में विद्यमान दोघंवैताढ्य
के नौ कूट हैं। ५६. एवं जाव गंधिलावतिम्मि दोह- एवं यावत् गन्धिलावत्यां दीर्घवैताढ्ये ५६. इसी प्रकार सुवप्र, महावप्र, वप्रकावती, वेयड्ड णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा- नव कुटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
वल्गु, सुवल्गु, गंधिल और गंधिलावती में में विद्यमान दीर्घवैताढ्य के नौ-नौ कूट
१.सिद्ध गंधिल खंडग, १. सिद्धो गन्धिलः खण्डकः, माणी वेयड्ड पुण्ण तिमिसगुहा ।। माणिः वैताढ्यः पूर्णः तमिस्रगुहा । गंधिलावति वेसमणे, गन्धिलावती वैश्रमणः, कूडाणं होंति णामाई। कूटानां भवन्ति नामानि ॥ एवं सव्वेसु दोहवेग्रड्ड सु दो कूडा एवं सर्वेषु दीर्घवैताढ्ये द्वे कूट सरिसणामगा, सेसा ते चेव। सदृशनामके, शेषाणि तानि चैव ।
१. सिद्धायतन, २. गंधिलावती, ३. खण्डकप्रपातगुहा, ४. माणिभद्र, ५. वैताढ्य, ६. पूर्णभद्र, ७. तमिस्रगुहा ८. गंधिलावती, ६. वैश्रमण। सभी दीर्घवैताढ्यों के दो-दो [दूसरा और
आठवां] कूट एक ही नाम के [उसी विजय के नाम के हैं और शेष सात कूट सबमें एक रूप हैं।
५७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ५७. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में
उत्तरे णं णेलवते वासहरपवते उत्तरस्मिन् नीलवत् वर्षधरपर्वते नव नीलवान् वर्षधर पर्वत के नो कूट हैंणव कूडा पण्णता, तं जहा- कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा१. सिद्धे लवंते विदेहे, १. सिद्धो नीलवान् विदेहः,
१. सिद्धायतन, २. नीलवान्, सीता कित्ती य णारिकताय । शीता कीर्तिश्च नारीकान्ता च ।
३. पूर्वविदेह, ४. शीता, ५. कीति, अवर विदेहे रम्मगकूडे, अपरविदेहो रम्यककूट,
६. नारिकांता, ७. अपरविदेह, उवदंसणे चेव ॥
उपदर्शनं
चैव ॥ ८. रम्यक, है. उपदर्शन।
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८६२
ऐरवते
ठाणं (स्थान)
स्थान: सूत्र ५८-६१ ५८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्दयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर- ५८. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में
उत्तरे गं एरवते दीहवेतड्ढ णव स्मिन् ऐरवते दीर्घवैताढ्ये नव कूटानि ऐरवत दीर्घवैताढ्य के नौ कूट हैंकडा पण्णता, तं जहा
प्रज्ञप्तानि, तद्यथा१. सिद्धेरवए खंडग, १. सिद्ध ऐरवत: खण्डकः,
१. सिद्धायतन, २. ऐरक्त, माणी वेयड्ड पुण्ण तिमिसगुहा।। माणिः वैताढ्यः पूर्णः तमिस्रगुहा। ३. खण्डकप्रपातगुहा, ४. माणिभद्र,
एरवतो एरवते वेसमणे,
वैश्रमणः,
५. वैताढ्य ६. पूर्णभद्र,
७. तमिस्र गुहा, ८. ऐरवत, एरवते कूडणामाई॥
कुटनामानि॥
६. वैश्रमण। पास-पदं पार्श्व-पदम्
पार्श्व-पद ५६. पासे णं अरहा पुरिसादाणिए पार्श्व: अर्हन पुरषादानीय: वज्रर्पभ- ५६. वचऋषभनाराचसंहनन वाले तथा सम
वजरिसहणारायसंघयणे समच- नागचसंहननः समचतुरस्त्र-संस्थान- चतुरस्र संस्थान वाले पुरुषादानीय अर्हत् उरंस-संठाण-संठिते व रयणोओ संस्थित: नवरत्नी: ऊवं उच्चत्वेन पाश्व की ऊंचाई नौ रत्नि की थी। उड्डे उच्चत्तण हुत्था। अभवत् ।
तित्थगरणामणिवत्तण-पदं तीर्थकरनामनिवर्तन-पदम् तीर्थकरनामनिवर्तन-पद ६०. समणस पं भगवतो महावीरस्त धमणस्य भगवतः महावीरस्य तीर्थे ६०. श्रमण भगवान् महावीर के तीर्थ में नौ
तित्यलिणवाह जीवेहि तित्थार- नदभिः जीवैः तीर्थकर नामगोत्रं कर्म जीवों ने तीर्थकर नामगोत्र कर्म अजित कामगोत्ते कम्मे णिव्दत्तिते, तं निर्वतितम्, तद्यथा
किया था
जहा
सेणिएणं, सुपासेणं, उदाइणा, श्रेणिकेन, सुपार्श्वेण, उदायिना, १. श्रेणिक, २. सुपार्श्व, ३. उदायी, पोट्टिलेणं अणगारेणं, दढाउणा, पोट्टिलेन अनगारेण, दृढायुषा, ४. पोट्टिल अनगार, ५. दृढायु, संखेणं, सतएणं, सुलसाए सावियाए, शवेत, शतकेन, सुलसया श्राविकया, ६. श्रावक शंख, ७. श्रावक शतक, रेवतीए। रेवत्या ।
८. श्राविका सुलसा, ६. श्राविका रेवती। भावितित्थगर-पदं भावितीर्थकर-पदम्
भावितीर्थकर-पद ६१. एस णं अज्जो, १. कण्हे वासुदेवे, एष आर्य ! १. कृष्णः वासुदेवः, ६१. आर्यो ! "
२. रामे बलदेवे, ३. उदए पेढालपुत्ते, २. रामो बलदेवः, ३. उदक: पेढालपुत्रः, १. वासुदेव कृष्ण, २. बलदेव राम, ४. पुट्टिले, ५. सतए गाहावती, ४. पोट्टिलः, ५. शतकः गाहापतिः, ३. उदकपेढालपुत्र, ४. पोट्टिल, ६. दारुए णियंठे, ७. सच्चई ६. दारुकः निर्ग्रन्थः,
५. गृहपति शतक, ६. निर्ग्रन्थ दारुक, णियंठीपुत्ते, ७. सत्यकिः निर्ग्रन्थीपुत्रः,
७. निर्ग्रन्थीपुत्र सत्यकी, ८. सावियबुद्धे अंब[म्म ? ] डे ८. श्राविकाबुद्धः अम्ब (मम्म ? ) ड: ८. श्राविका के द्वारा प्रतिबुद्ध अम्मड परिव्वायए, परिव्राजक:,
परिव्राजक, ९. अज्जावि णं सुपासा पासा- ह. आर्याअपि सुपार्वा पापित्यीया।। ६. पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित वच्चिज्जा।
आर्या सुपाश्र्वा ।
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ठाणं (स्थान)
८६३
स्थान ६ : सूत्र ६२ आगमेस्साए उस्स प्पिणीए आगमिष्यत्यां उत्सपिण्यां चातुर्याम -ये नौ आगामी उत्सर्पिणी में चातुर्याम चाउज्जामं धम्मं पण्णवइत्ता धर्म प्रज्ञाप्य सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते । धर्म की प्ररूपणा कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सिज्झिहिति बुझिहिति मुच्चि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वाष्यन्ति सर्वदुःखानां परिनिर्वृत तथा समस्त दुःखों से रहित हिंति परिणिव्वाइहिति सव्व- अन्तं करिष्यन्ति ।
होंगे। दुक्खाणं अंतं काहिति। महापउम-पदं महापद्म-पदम्
महापद्म-पद ६२. एस णं अज्जो ! सएि राया एष आर्य ! श्रेणिक: राजा भिभिसारः ६२. आर्यो ! भिभिसारे कालमासे कालं किच्चा कालमासे कालं कृत्वा अस्याः रत्न
राजा भिम्भिसार श्रेणिक मरणकाल में इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए प्रभायाः पृथिव्याः, सीमन्तके नरके मृत्यु को प्राप्तकर इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के सीमंतए णरए चउरासीतिवास- चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिके निरये। सीमन्तक नरक के ८४ हजार वर्ष की सहस्स द्वितीयंसि णिरयंसि णेर- नैरयिकता उपपत्स्यते।
स्थिति वाले भाग में नारकीय के रूप में इयत्ताए उववज्जिहिति।
उत्पन्न होगा। से णं तत्थ णेरइए भविस्सति- स तत्र नैरयिको भविष्यति—कालः वह वहां नैरयिक होगा। उसका वर्ण
काला, काली आभा वाला, महान् लोमकाले कालोभासे 'गंभीरलोम- कालावभासः गम्भीरलोमहर्षः भीम:
हर्षक, विकराल, उद्वेगजनक और परमहरिसे भीमे उत्तासणए उत्रासनकः परमकृष्ण: वर्णेन । स कृष्ण होगा । वह वहां ज्वलन्त, मन, परमकिण्हे वणेणं । से णं तत्र वेदनां वेदयिष्यति उज्ज्वलां
वचन और काय–तीनों की कसौटी
करने वाली, अत्यन्त तीव्र, प्रगाढ, कटुक, तत्थ वेयणं वेदिहिती उज्जलं वितुलां प्रगाढां कटुकां कर्कशां चण्डां कर्कश, चण्ड, दुःखकर, दुर्ग की भांति 'तिउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुःखां दुर्गा दिव्यां दुरधिसहाम् ।
अलंध्य, देव-निर्मित, असह्य वेदना का
वेदन करेगा। दुक्खं दुग्गं दिव्वं दुरहियासं। से तं ततो णरयाओ उन्वट्टत्ता स ततः नरकात् उद्वर्य आगमिष्यन्त्यां वह उस नरक से निकलकर आगामी आगमेसाए उस्स प्पिणीए इहेव उत्सपिण्यां इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते उपपिणी काल में इसी जम्बूद्वीप द्वीप के जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ड- वर्षे वैताढ्यगिरिपादमूले पुण्ड्रेषु जन- भरत क्षेत्र के वैताड्य पर्वत के पादमूल में गिरिपायमूले पुंडेसु जणवएसु पदेषु शतद्वारे नगरे सन्मतेः कुलकरस्य 'पुण्ड्र" जनपद के शतद्वार नगर में सन्मति' सतदुवारे णगरे संमुइस्स कुलकरस्स भद्रायाः भार्यायाः कुक्षौ पुंस्तया कुलकर की भद्रा नामक भार्या की कुक्षि भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि पुमत्ताए प्रत्याजनिष्यते ।
में पुरुष के रूप में उत्पन्न होगा। पच्चायाहिती। तए णं सा भद्दा भारिया णवण्हं तदा सा भद्रा भार्या नवानां मासानां वह भद्रा भार्या परिपूर्ण नौ मास तथा मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण बहुप्रतिपूर्णानां अर्धाष्टमानां च रात्रि- साढे सात दिन-रात बीत जाने पर सुकुय राइंदियाणं वोतिक्कंताणं सुकु- दिवानां व्यतिक्रान्तानां सुकुमालपाणि
मार हाथ-पैर वाले, अहीन प्रतिपूर्ण मालपाणिपायं अहीण-पडिपुण्ण- पादं अहीन-प्रतिपूर्ण-पञ्चेन्द्रियशरीरं
पञ्चेन्द्रिय शरीर वाले, लक्षण-व्यंजन"
और गुणों से युक्त अवयव वाले, मान२२. पंचिदियसरीरं लक्खण-वंजण- लक्षण-व्यञ्जन-गुणोपेतं मानोन्मान
उन्मान-प्रमाण आदि से सर्वाङ्ग सुन्दर 'गुणोववेयं माणुम्माण-प्पमाण- प्रमाण-प्रतिपूर्ण-सुजात-सर्वाङ्ग
शरीर वाले, चन्द्रमा की भांति मौन्यापडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंग-सुंदरंग सुन्दराङ्गशशिसौम्याकारं कान्तं प्रिय
कार, कमनीय, प्रियदर्शन वाले मुरूप पुत्र ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं दर्शनं सुरूपं दारकं प्रजनिष्यते।
का प्रसव करेगी। सुरुवं दारगं पयाहिती।
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स्थान: सूत्र ६६-६
जिस रात्रि में वह बालक का प्रसव करेगी, उस रात को सारे शतद्वार नगर में भार और कुम्भ के प्रमाणवाले पद्म और रत्नों की वर्षा होगी।
ग्यारह दिन बीत जाने पर, उस बालक के माता-पिता प्रसव जनित अशुचि कर्म से निवृत्त हो बारहवें दिन उसका यथार्थ गुणनिष्पन्न नामकरण करेंगे। उस बालक के उत्पन्न होने पर समस्त शतद्वार नगर के भीतर-बाहर, भार" और कुम्भ के प्रमाणवाले पद्य और रत्नों की वर्षा हुई थी, अतः हमारे बालक का नाम महापद्म होना चाहिए। यह पर्यालोचन कर उस बालक के माता-पिता उसका नाम महापद्म रखेंगे।
ठाणं (स्थान)
८६४ जंरणिचण से वारए पयाहिती, यस्यां रजन्यां च सदारक: प्रजनिप्यते, तं यणि च पं सतदुवारे गरे तस्यां रजन्यां च शतद्वारे नगरे साभ्यन्तरसभंतरबाहिरए भारगिसो य बाह्यके भाराग्रशश्च कुम्भाग्रशश्च कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे पद्मवर्षश्च रत्नवर्षश्च वर्षः वर्षिष्यति।। य वासे वासिहिति । तए णं तस्स दारयस्स अम्मापियरो तदा तस्य दारकस्य मातापितरौ। एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते निवृत्ते •णिवत्ते असुइजायकम्मकरणे अशुचिजातकर्म करणे संप्राप्ते द्वादशाहे संपत्ते बारसाहे अयमेयारूवं इदं एतद्रूपं गौणं गुणनिप्पन्नं नामधेयं गोणं गुणणिप्फणं णामधिज्ज करिप्यतः, यस्मात् अस्माकं अस्मिन् काहिति, जम्हा णं अम्हमिमंसि दारके जाते सति शतद्वारे नगरे दारगंसि जातंसि समाणंसि सयदुवारे साभ्यन्तरबाह्य के भाराग्रशरच कुम्भाणगरे सभितरबाहिरए भारग्गसो ग्रशश्च पद्मवर्षश्च रत्नवर्षशश्च वर्षः य कुभग्गसो य पउमवासे य रयण- वृष्टः, तत् भवतु आवयोः अस्य दारकस्य । वासे य वासे वु?, तं होउ णमम्ह- नामधेय महापद्मः-महापद्मः । तदा तस्य मिमस्स दारगस्स णामधिज्जं महा- दारकस्य मातापितरो नामधेयं करिष्यतः पउमे-महापउमे। तए णं तस्स महापद्मति । दारगस्स अम्मापियरो णामधिज्जं काहिति महापउमेत्ति। तए णं महापउमं दारगं अम्मा- तदा महापद्म दारक मातापितरौ पितरो सातिरेगं अट्ठवासजातगं सातिरेकं अष्टवर्षजातकं ज्ञात्वा महताजाणित्ता महता-महता रायाभि- महता राज्याभिषेकेन अभिषेक्ष्यत:।। सेएणं अभिर्भासचिहिति।
स तत्र राजा भविष्यति महता-हिमवतसे णं तत्थ राया भविस्सति महता- महा-मलय-मन्दर-महेन्द्रसारः राज्यहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंद- वर्णकः यावत् राज्यं प्रशासयन् सारे रायवण्णओ जाव रज्जं विहरिष्यति । पसासेमाणे विहरिस्सति। तए णं तस्स महापउमस्स रण्णो तदा तस्य महापद्मस्य राज्ञः अन्यदा अण्णदा कयाइ दो देवा महिडिया कदाचिद् द्वौ देवौ महद्धिको महाद्युतिको 'महज्जुइया महाणुभागा महायसा महानुभागौ महायशसौ महाबलौ महाबला महासोक्खा सेणाकम्मं महासोख्यौ सेनाकर्म करयिष्यतः, काहिति, तं जहा
तद्यथापुण्णभद्दे य, माणिभद्दे य। पूर्णभद्रश्च, माणिभद्रश्च ।
बालक महापद्म को आठ वर्ष से कुछ अधिक आयु वाला जानकर उसके मातापिता उसे महान् राज्याभिषेक के द्वारा अभिषिक्त करेंगे। वह महान् हिमालय, महान् मलय, मेरु और महेन्द्र की भांति सर्वोच्च राजा होगा।
अन्यदा कदाचित् महद्धिक, महाद्युति सम्पन्न, महानुभाग, महान् यशस्वी, महान् बली और महान् सुखी पूर्णभद्र और माणिभद्र नामक दो देव राजा महापा को सैनिक शिक्षा देंगे।
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८६५
स्थान ६ : सूत्र ६२ तब उस शतद्वार नगर में अनेक राजा", ईश्वर", तलवर" माडम्बिक", कौटुम्बिक", इम्य", श्रेष्ठि'' सेनापति, सार्थवाह आदि इस प्रकार एक दूसरे को सम्बोधित करेंगे और इस प्रकार कहेंगे"देवानुप्रियो ! महद्धिक, महाद्युतिसंपन्न, महानुभाग, महान् यशस्वी, महान् बली
और महान् सुखी पूर्णभद्र और माणिभद्र नामक दो देव राजा महापद्म को सैनिक शिक्षा दे रहे हैं। इसलिए देवानुप्रियो ! हमारे महापद्म राजा का दूसरा नाम 'देवसेन' होना चाहिए।" तब से उस महापद्म राजा का दूसरा नाम 'देवसेन' होगा।
ठाणं (स्थान)
तएणं सतदुवारेणगरे बहवे राईसर- तदा शतद्वारे नगरे बहवः राजेश्वर- तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इन्भ- तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिक-इभ्य-श्रेष्ठि" सेटि-सेणावति-सत्थवाह-प्पभितयो सेनापति-सार्थवाह-प्रभृतयः अन्योन्यं अण्णमण्णं सद्दावेहिति, एवं शब्दाययिष्यन्ति, एवं वदिष्यन्ति वइस्संति-जम्हाणं देवाणुप्पिया ! यस्मात् देवानुप्रियाः ! अस्माकं महाअम्हं महापउमस्स रण्णो दो देवा पद्मस्य राज्ञः द्वौ देवौ महद्धिको महामहिड्डिया 'महज्जुइया महाणु- द्युतिकौ महानुभागौ महायशसौ महाबलौ । भागा महायसा महाबला महा- महासोख्यौ सेनाकर्म कुर्वतः, तद्यथासोक्खा सेणाकम्मं करेंति, तं जहापुण्णभद्दे य, माणिभद्दे य। पूर्णभद्रश्च, माणिभद्रश्च । तं होउ ण मम्हं देवाणु प्पिया ! तद् भवतु अस्माकं देवानुप्रियाः ! महामहापउमस्स रण्णो दोच्चेवि णाम- पद्मस्य राज्ञः द्वितीयमपि नामधेयं । धेज्जे देवसेणे-देवसेणे । तते णं देवसेनः-देवसेनः । तदा तस्य महातस्स महापउमस्स रण्णो दोच्चेवि पद्मस्य राज्ञः द्वितीयमपि नामधेयं णामधेज्जे भविस्सइ देवसेणेति। भविष्यति देवसेनइति । तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो तदा तस्य देवसेनस्य राज्ञः अन्यदा अण्णया कयाई सेय-संखतल-विमल- कदाचित् श्वेत-शतल-विमलसण्णिकासे चउदंते हत्थिरयणे सन्निकाशं चतुर्दन्तं हस्तिरत्नं समुत्पसमुप्पज्जिहिति । तए णं से देवसेणे त्स्यते । तदा स देवसेनः राजा तं श्वेतं राया तं सेयं संखतल-विमल- शङ्खतल-विमल-सन्निकाशं चतुर्दन्तं सण्णिकासं चउदंतं हत्थिरयणं हस्तिरत्नं आरूढः सन् शतद्वारं नगरं दुरूढे समाणे सतदुवारं गगरं मध्यमध्येन अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णं मझमझेणं अभिक्खणं-अभिक्खणं अतियास्यति च निर्यास्यति च। अतिज्जाहिति य णिज्जाहिति य। तए णं सतदुवारे णगरे बहवे तदा शतद्वारे नगरे बहवः राजेश्वरराईसर-तलवर- माडंबिय-कोडु- तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिक-इभ्यबिय-इब्भ-सेटि-सेणावति-सत्यवाह- श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-प्रभृतयः प्पभितयो अण्णमण्णं सहावेहिति, अन्योन्यं शब्दाययिष्यन्ति, एवं एवं वइस्संति—जम्हाणं देवाणुप्पिया! वदिष्यन्ति—यस्मात् देवानुप्रियाः !
अम्हं देवसेणस्स रण्णो सेते संखतल- अस्माकं देवसेनस्य राज्ञः श्वेतः शङ्खविमल-सण्णिकासे चउरते हल्थि- तल-विमल-सन्निकाशं चतुर्दन्तं हस्ति- रयणे समुप्पण्णे, तं होउ णमम्हं रत्नं समुत्पन्नम्, तद् भवतु अस्माकं
अन्यदा कदाचित् राजा देवसेन के विमल शंखतल के समान श्वेत चतुर्दन्त हस्तिरत्न उत्पन्न होगा। तब वे राजा देवसेन विमल शंखतल के समान श्वेत चतुर्दन्त हस्तिरत्न पर आरूढ होकर शतद्वार नगर के बीचोबीच होते हुए बार-बार प्रवेश और निष्क्रमण करेंगे। तब उस शतद्वार नगर में अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि इस प्रकार एक-दूसरे को सम्बोधित करेंगे और इस प्रकार कहेंगे-"देवानुप्रियो ! हमारे राजा देवसेन के विमल शंखतल के समान श्वेत चतुर्दन्त हस्तिरत्न उत्पन्न हुआ है। अतः देवानुप्रियो ! हमारे राजा देवसेन का तीसरा नाम 'विमलवाहन' होना चाहिए ।" तब से उस देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' होगा।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान : सूत्र ६२ देवाणुप्पिया ! देवसेणस्स तच्चेवि देवानुप्रियाः ! देवसेनस्य तृतीयमपि . णामधेज्जे विमलवाहणे- - नामधेयं विमलवाहनः (विमलवाहनः ? )। [विमलवाहणे?] । तए णं तस्स तदा तस्य देवसेनस्य राज्ञः तृतीयमपि देवसेणस्स रण्णो तच्चेवि णाम- नामधेयं भविष्यति विमलवाहनइति । धेज्जे भविस्सति विमलवाहणेति। .. तए णं से विमलवाहणे राया तीसं तदा स विमलवाहनः राजा त्रिंशत्
राजा विमलवाहन तीस वर्ष तक गृहस्थावासाई अगारवासमझे वसित्ता वर्षाणि अगारवासमध्ये उषित्वा
वास में रहेंगे। माता-पिता के स्वर्गस्थ अम्मापितीहि देवत्तं गतेहिं गुरु- मातापित्रोः देवत्वं गतयोः गुरुमहत्तरकैः
होने पर वे अपने गुरुजनों और महत्तरों महत्तरएहि अब्भणुण्णाते समाणे, अभ्यनुज्ञातः सन्, ऋतौ शरदि, संबुद्धः
की आज्ञा प्राप्त करेंगे। वे शरदऋतु में उदुमि सरए, संबुद्धे अणुत्तरे अनुत्तरे मोक्षमार्गे पुनरपि लोकान्तिकैः
जीतकल्पिक लोकान्तिक देवों द्वारा मोक्खमग्गे पुणरवि लोगंतिएहि जीतकल्पिकैः देवैः, ताभिः इष्टाभिः
अनुत्तर मोक्षमार्ग के लिए संबुद्ध होंगे। जीयकप्पिएहिं देवेहि, ताहिं इटाहिं कान्ताभिः प्रियाभिः मनोज्ञाभिः मन
वे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनःप्रिय, कंताहि पियाहि मणुण्णाहि मणा- आपाभिः उदाराभिः कल्याणाभिः
उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगल, 'श्री' माहि उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं शिवाभिः धन्याभिः मङ्गलाभिः
सहित वाणी से अभिनन्दित और अभिष्टुत धण्णाहि मंगल्लाहि सस्सिरिआहिं सश्रीकाभिः वागभिः अभिनन्द्यमानः
[संस्तुत] होते हुए नगर के बाहर वह अभिणंदिज्जमाणे अभि- अभिष्ट्रयमानश्च बाह्य सुभूमिभागे
'सुभूमिभाग' नामक उद्यान में एक देवथुब्वमाणे य बहिया सुभूमिभागे उद्याने एक देवदूष्यमादाय मुण्डो भूत्वा
दूष्य रखकर, मुण्ड होकर, अगार से अनउज्जाणे एगं देवदूसमादाय मुंडे अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यति ।
गार अवस्था में प्रवजित होंगे। भवित्ता अगाराओ अणगारियं । पन्वयाहिति । से णं भगवं जं चेव दिवसं मुंडे स भगवान् यस्मिश्चैव दिवसे मुण्डो . वे भगवान् जिस दिन मुण्ड होकर, अगार भवित्ता अगाराओ अणगारियं भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यति । से अनगार अवस्था में प्रवजित होंगे, उसी पव्वयाहिति तं चेव दिवसं सयमेय- तस्मिश्चैव दिवसे स्वयमेव एतद्रूपं दिन वे स्वयं निम्न प्रकार का अभिग्रह मेतारूवं अभिग्गहं अभिगिहि- अभिग्रहं अभिग्रहिष्यति—ये केऽपि उप- स्वीकार करेंगेहिति—जे केइ उवसग्गा उप्पज्जि- सर्गा उत्पत्स्यन्ते, तद्यथा--- हिति, तं जहादिव्वा वा माणुसा ता तिरिक्ख- दिव्या वा मानुषा वा तिर्यग्योनिका देवता मनुष्य या तिर्यंच सम्बन्धी जो कोई जोणिया वा ते सव्वे सम्मं सहिस्सइ वा तान् सर्वान् सम्यक् सहिष्यते
उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सबको मैं भली
भांति सहन करूंगा, अहीनभाव से सहन खमिस्सइ तितिक्खिस्सइ अहिया- क्षमिष्यते तितिक्षिष्यति अध्यासिष्यते । करूगा, तितिक्षा करूंगा तथा अविचल सिस्सइ।
भाव से सहन करूंगा। तए णं से भगवं अणगारे भविस्सति तदा स भगवान अनगारः भविष्यति वे भगवान् ईर्यासमित, भाषासमित इरियासमिते भासासमिते एवं जहा ईर्यासमितः भाषासमितः एवं यथा वर्ध- [भगवान् वर्धमान की भांति सम्पूर्ण वद्धमाणसामी तं चेव गिरवसेसं मानस्वामी तच्चैव निरवशेषं यावत् विषय वक्तव्य है, यावत् ] वे अव्यापार जाव अव्वावारविउसजोग जुत्ते। अव्यापारव्युत्सृष्टयोगयुक्तः।
तथा व्युत्सृष्ट योग से युक्त होंगे।
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स्थान : ६२ वे भगवान् इस विहार से विहरण करते हुए बारह वर्ष और तेरह पक्ष बीत जाने पर, तेरहवें वर्ष के अन्तराल में वर्तमान होंगे, उस समय उन्हें अनुत्तरज्ञान [भावना अध्ययन की वक्तव्यता के द्वारा केवलवरज्ञानदर्शन समुत्पन्न होगा। उस समय वे जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर नैरयिक आदि लोकों के पर्यायों को जानेंगे-देखेंगे। ये भावना सहित पांच महाव्रतों, छह जीवनिकायों और धर्म की देशना देते हुए विहार करेंगे।
ठाणं (स्थान)
८६७ तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं तस्य भगवतः एतेन विहारेण विहरतः विहरमाणस्स दुवालसहि संवच्छ- द्वादशैःसंवत्सरैः व्यतिक्रान्तः त्रयोदशश्च रेहि वोतिक्कतेहिं तेरसहि य पक्षः त्रयोदशस्य संवत्सरस्य अन्तरा पोहि तेरसमस णं संवच्छरस्स वर्तमानस्य अनुत्तरेण ज्ञानेन यथा अंतरा वट्टमाणस्स अणुत्तरेणं भावनायां केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पणाणेणं जहा भावणाते केवलवर- त्स्यते । जिनः भविष्यति केवली सर्वज्ञः णाणदंसणे समुप्पज्जिहि ति। सर्वदर्शी सनै रयिक यावत् पञ्चमहाजिणे भविस्सति केवली सव्वण्णू व्रतानि सभावनानि षट् च जीवनिकायान् सव्वदरिसी सणेरइय जाव पंच धर्म दिशन् विहरिष्यति । महव्वयाई सभावणाई छच्च जीवणिकाए धम्म देसेमाणे विहरिस्सति। से जहाणामए अज्जो! मए अथ यथानामकं आर्य! मया श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं एगेआरंभठाणे, निर्ग्रन्थानां एक आरम्भस्थानं पण्णत्ते।
प्रज्ञप्तम्। एवामेव महापउमेवि अरहा सम- एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां णाणं णिग्गंथाणं एगं आरंभठाणं निर्ग्रन्थानां एकं आरम्भस्थानं पण्णवेहिति।
प्रज्ञापयिष्यति। से जहाणामए अज्जो ! मए अथ यथानामकं आर्य ! मया श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं दुविहे बंधणे निर्ग्रन्थानां द्विविधं बन्धनं प्रज्ञप्तम्, पण्णत्ते, तं जहा
तद्यथापेज्जबंधणे य, दोसबंधणे य। प्रेयोबन्धनञ्च, दोषबन्धनञ्च। एवामेव महापउमेवि अरहा एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं दुविहं बंधणं निर्ग्रन्थानां द्विविधं बन्धनं प्रज्ञापयिष्यति. पण्णवेहिती, तं जहा
तद्यथापेज्जबंधणं च, दोसबंधणं च। योबन्धनञ्च, दोषबन्धनञ्च। । से जहाणामए अज्जो ! मए अथ यथानामकं आर्य ! मया श्रमणानां । समणाणं णिग्गंथाणं तओ दंडा निर्ग्रन्थानां त्रयः दण्डा: प्रज्ञप्ताः, पण्णता, तं जहा
तद्यथामणदंडे, वयदंडे, कायदंडे। मनोदण्डः, वचोदण्डः, कायदण्डः। एवामेव महापउमेवि अरहा एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं तओ दंडे निर्ग्रन्थानां त्रीन् दण्डान् प्रज्ञापयिष्यति, पण्णवेहिति, तं जहा
तद्यथामणोदंडं, वयदंडं, कायदंडं। मनोदण्डं, वचोदण्डं, कायदण्डम् ।
आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए एक आरम्भस्थान का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए एक आरम्भस्थान का निरूपण करेंगे।
आर्यो ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के बन्धनों-प्रेयस्-बन्धन और द्वेष-बन्धन—का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के बन्धनों-प्रेयस्बन्धन और द्वेष-बन्धनका निरूपण करेंगे।
आर्यो ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए तीन दण्डों--मनोदण्ड, वचनदण्ड, कायदण्डका निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापम भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए तीन प्रकार के दण्डों-मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्डका निरूपण करेंगे।
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ठाणं (स्थान)
८६८
स्थान ६ : सूत्र ६२
आर्यो! मैंने अमण-निर्ग्रन्थों के लिए चार कषायों-क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय और लोभ कषाय-का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी धमण-निर्ग्रन्थों के लिए चार कषायोंक्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय और लोभ कषाय--का निरूपण करेंगे।
आर्यो ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच कामगुणों— शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श-का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच कामगुणों-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श का निरूपण करेंगे।
से जहाणामए 'अज्जो! मए अथ यथानामकं आर्य ! मया श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं चत्तारि निर्ग्रन्थानां चत्वारः कषायाः प्रज्ञप्ताः, कसाया पण्णत्ता, तं जहा- तद्यथाकोहकसाए, माणकसाए, क्रोधकषायः, मानकषायः, मायाकषायः, मायाकसाए, लोभकसाए। लोभकषायः। एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां णिग्गंथाणं चत्तारि कसाए पण्ण- निर्ग्रन्थानां चतुरः कषायान् प्रज्ञापवेहिति, तं कहा
यिष्यति, तद्यथाकोहकसायं, माणकसायं, क्रोधकषायं, मानकषायं, मायाकषायं, मायाकसायं, लोभकसायं। लोभकषायं। से जहाणामए अज्जो! मए अथ यथानामकं आर्य ! मया श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं पंच कामगुणा निर्ग्रन्थानां पञ्च कामगुणाः प्रज्ञप्ताः, पण्णता, तं जहा
तद्यथासद्दे, रूवे, गंधे, रसे, फासे। शब्दः, रूपं, गन्धः, रसः, स्पर्शः। एवामेव महापउमेवि अरहा एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं पंच कामगुणे निर्ग्रन्थानां पञ्च कामगुणान् प्रज्ञा- पण्णवेहिति, तं जहा
पयिष्यति, तद्यथासई, रूवं, गंध, रसं, फासं। शब्द, रूपं, गन्धं, रसं, स्पर्शम् । से जहाणामए अज्जो! मए अथ यथानामकं आर्य ! मया श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं छज्जीवणि- निर्ग्रन्थानां षट जीवनिकायाः प्रज्ञप्ताः, काया पण्णता, तं जहा
तद्यथापुढविकाइया, आउकाइया, पृथ्वीकायिकाः, अपकायिकाः, तेउकाइया, वाउकाइया, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, वणस्सइकाइया, तसकाइया। वनस्पतिकायिकाः, त्रसकायिकाः । एवामेव महापउमेवि अरहा सम- एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां णाणं णिग्गंथाणं छज्जीवणिकाए निर्ग्रन्थानां षट जीवनिकायान् पण्णवेहिति, तं जहा
प्रज्ञापयिष्यति, तद्यथापुढविकाइए, आउकाइए, पृथ्वीकायिकान्, अप्कायिकान्, तेउकाइए, वाउकाइए, तेजस्कायिकान्, वायुकायिकान्, वणस्सइकाइए, तसकाइए। वनस्पतिकायिकान्, त्रसकायिकान् । से जहाणामए 'अज्जो ! मए अथ यथानाम आर्य ! मया श्रमणानां समणाणं णिग्गंथाणं सत्त भयढाणा निर्ग्रन्थानां सप्त भयस्थानानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा
तद्यथा
आर्यो ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए छह जीवनिकायों-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और वसकाय-का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए छह जीवनिकायों-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और वसकाय-का निरूपण करेंगे।
आर्यो ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए सात भय-स्थानों-इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्भय, देदनाभय,
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स्थान ६ : सूत्र ६२
ठाणं (स्थान)
८६६ 'इहलोगभए, परलोगभए, इयलोकभयं, परलोकभयं, आदानभयं, आदाणभए, अकम्हाभए, अकस्मात्भयं, वेदनाभयं, मरणभयं, वेयणभए, मरणभए, असिलोगभए। अश्लोकभयम् । एवामेव महापउमेवि अरहा सम- एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां णाणं णिग्गंथाणं सत्त भयढाणे निर्ग्रन्थानां सप्त भयस्थानानि प्रज्ञापपण्णवेहिति, तं जहा- यिष्यति, तद्यथाइहलोगभयं, परलोगभयं, इहलोकभयं, परलोकभयं, आदानभयं, आदाणभयं, अकम्हाभयं, अकस्मात्भयं, वेदनाभयं, मरणभयं, वेयणभयं, मरणभयं, अश्लोकभयम्। असिलोगभयं । एवं अट्ट मयटाणे, णव बंभचेर- एवं अष्ट मदस्थानानि, नव गुत्तीओ, दसविधे समणधम्मे, ब्रह्मचर्यगुप्तयः, दशविधः श्रमणधर्मः, एवं जाव तेत्तीसमासातणाउत्ति। एवम् यावत् त्रयस्त्रिंशदासातनाइति । से जहाणामए अज्जो ! मए सम- अथ यथानामकं आर्य ! मया श्रमणानां णाणं णिग्गंथाणं णग्गभावे मुंड- निर्ग्रन्थानां नग्नभावः मुण्डभावः भावे अण्हाणए अदंतवणए अच्छत्तए अस्नानक
अदन्तधावनक अणुवाहणए भूमिसेज्जा फलग- अछत्रकं अनुपानत्कं भूमिशय्या फलकसेज्जा कटुसेज्जा केसलोए बंभचेर- शय्या काष्ठशय्या केशलोच: ब्रह्मचर्यवासे परघरपवेसे लद्धावलद्ध- वासः परगृहप्रवेश: लब्धापलब्धवृत्तयः वित्तीओ पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ताः । एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां णिग्गंथाणं णग्गभावं 'मंडभावं निर्ग्रन्थानां नग्नभावं मूण्डभावं अण्हाणयं अदंतवणयं अच्छत्तयं अस्नानकं अदन्तधावनकं अछत्रकं अणुवाहणयं भूमिसेज्जं फलगसेज्जं अनुपानत्कं भूमिशय्यां फलकशय्यां कट्टसेज्ज केसलोयं बंभचेरवासं काष्ठशय्यां केशलोचं ब्रह्मचर्यवासं परघरपवेसं लद्धावलद्ध वित्ती परगृहप्रवेशं लब्धापलब्धवृत्ती: पण्णवेहिती।
प्रज्ञापयिष्यति ।
मरणभय और अश्लोकभय-का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी सात भय-स्थानों-इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्भय, वेदनाभय, मरणभय और अश्लोकभय--का निरूपण करेंगे। आर्यो! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए आठ मदस्थानों, नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियों, दश श्रमणधर्मों यावत् तेतीस आशातनाओं का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्य भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए आठ मदस्थानों, नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियों, दशश्रमणधर्मों यावत् तेतीस आशातनाओं का निरूपण करेंगे। आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए नग्नभाव, मुण्डभाव, स्नान का निषेध, दतौन का निषेध, छत्र का निषेध, जूतों का निषेध, भूमिशय्या, फलकशय्या, काठशय्या, केशलोंच, ब्रह्मचर्यवास, परघरप्रवेश और लब्धापलब्ध वृत्ति का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए नग्नभाव, मुण्डभाव, स्थान का निषेध, दतौन का निषेध, छत्र का निषेध, जूतों का निषेध, भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या", केशलोंच, ब्रह्मचर्यवास, परधरप्रवेश और लब्धापलब्धवृत्ति का निरूपण करेंगे।
से जहाणामए अज्जो! मए सम- अथ यथानामकं आर्य ! मया श्रमणानां णाणं णिग्गंथाणं आधाकम्मिएति निर्ग्रन्थानां आधार्मिकमिति वा वा उद्देसिएति वा मीसज्जाएति औद्देशिकमिति वा मिश्रजातमिति वा वा अज्झोयरएति वा पूतिए कोते अध्यवतरकमिति वा पूतिकं क्रीतं पामिच्चे अच्छेज्जे अणिस? प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्ट अभिहृत- अभिहडेति वा कतारमत्तेति वा मिति वा कान्तारभक्तमिति वा
आर्यो ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए आधार्मिक", औद्देशिक", मिश्रजात", अध्यवतर", पूतिकर्म, क्रीत", प्रामित्य आच्छेद्य", अनिसृष्ट", अभ्याहृत", कान्तारभक्त, दुभिक्षभक्त", ग्लानभक्त", वार्दलिकाभक्त", प्राघूर्णभक्त,
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ठाणं (स्थान)
भिक्खभत्तेति वा गिलाणभत्तेति दुर्भिक्षभक्तमिति वा ग्लानभक्तमिति वा वावलियाभत्तेति वा पाहुणभत्तेति बार्दलिकाभक्तमिति वा प्राघूर्णभक्तवा मूलभोयणेति वा कंदभोयणेति मिति वा मूलभोजनमिति वा कन्दभोजनवा फलभोयणेति वा बीयभोयणेति मिति वा फलभोजनमिति वा बीजवा हरियभोयणेति वा पडिसिद्धे । भोजनमिति वा हरितभोजनमिति वा प्रतिषिद्धम् ।
एवमेव महापउमेवि अरहा सम णाणं णिग्गंथाणं आधाकम्मियं वा • उद्देसियं वा मीसज्जायं वा अज्झो यrयं वा पूतियं कीतं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिस अभिहडं वा कंतारभत्तं वा दुब्भिक्खभत्तं वा गिलाणभत्तं वा वद्दलियाभत्तं वा पाहुणभत्तं वा मूलभोयणं वा कंदभोयणं वा फलभोयणं वा बीयभोयणं वा हरितभोयणं वा पडसे हिस्सति ।
।
से हाणामए अज्जो ! मए समगाणं णिग्गंथाणं पंचमहव्वतिए सक्किमणे अचेल धम्मे पण्णत्ते एवामेव महापउमेवि अरहा समगाणं णिग्गंथाणं पंचमहब्बतियं • सप डिक्कमणं अचेलगं धम्मं पण्णवेहिती |
से जहाणामए अज्जो ! मए समणोवासगाणं पंचाणुव्वतिए सत्तसिक्खातिए - दुवालसविधे सावगधम्मे पण्णत्ते ।
८७०
एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां निर्ग्रन्थानां आधाकर्मिकं वा औद्देशिकं वा मिश्रजातं वा अध्यव तरकं वा पूतिकं क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्ट अभिहृतं वा कान्तारभक्तं वा दुर्भिक्षभक्तं वा ग्लानभक्तं वा बार्दलिकाभक्तं वा प्राघूर्णभक्तं वा मूलभोजनं वा कंदभोजनं वा फलभोजनं वा बीजभोजनं वा हरितभोजनं वा प्रतिषेत्स्यति ।
अथ यथानामकं आर्य ! मया श्रमणानां निर्ग्रन्थानां पञ्चमहाव्रतिकः सप्रतिक्रमणः अचेलकः धर्मः प्रज्ञप्तः । एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां निर्ग्रन्थानां पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं अचेलकं धर्मं प्रज्ञापयिष्यति ।
अथ यथानामकं आर्य ! माया श्रमणोपासकानां पञ्चाणुव्रतिकः सप्त शिक्षा - व्रतिक: द्वादशविधः श्रावकधर्मः प्रज्ञप्तः ।
वासगाणं पंचाणुव्वतियं सत्तसिक्खावतियं - दुवालसविधं सावगधम्मं पण्णवेस्सति ।
एवमेव महापमेविअरहा समणो- एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणोपासकानां पञ्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं श्रावकधर्मं प्रज्ञापयिष्यति ।
स्थान : सूत्र ६२
मूलभोजन, कन्दभोजन, फलभोजन, बीजभोजन और हरितभोजन का निषेध किया है । इसी प्रकार अर्ह महापद्म भी श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिकर्म, क्रीत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अभ्याहृत, कान्तारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, ग्लानभक्त, बार्दलिकाभक्त, प्राधूर्णभक्त, मूलभोजन, कन्दभोजन, फलभोजन, बीजभोजन और हरितभोजन, का निषेध करेंगे ।
आर्यो ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए प्रतिक्रमण और अचेलतायुक्त पांच महाव्रतात्मक धर्म का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए प्रतिक्रमण और अचलतायुक्त पांच महाव्रतात्मक धर्म का निरूपण करेंगे ।
आर्यो ! मैंने पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत - इस बारह प्रकार के श्रावकधर्म का निरूपण किया हैं। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत - इस बारह प्रकार के श्रावकधर्म का निरूपण करेंगे ।
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ठाणं (स्थान)
८७१
स्थान ६ : सूत्र ६२ आर्यो ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए शय्यातरपिण्ड और राजपिण्ड५८ का निषेध किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए शय्यानरपिण्ड और राजपिण्ड का निषेध करेंगे।
आर्यो ! मेरे नौ गण और ग्यारह गणधर हैं। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म के भी नौ गण और ग्यारह गणधर होंगे।
से जहाणामए अज्जो! मए सम- अथ यथानाम आर्य ! मया श्रमणानां णाणं णिग्गंथाणं सेज्जातरपिंडेति निर्ग्रन्थानां शय्यातरपिण्डमिति वा वा रायपिडेति वा पडिसिद्धे। राजपिण्डमिति वा प्रतिषिद्धम । एवामेव महापउमेवि अरहा सम- एवमेव महापद्मोऽपि अर्हन् श्रमणानां णाणं णिग्गंथाणं सेज्जातरपिडं निर्ग्रन्थानां शय्यातरपिण्डं वा राजपिण्ड वा रायपिडं वा पडिसेहिस्सति। वा प्रतिषेत्स्यति । से जहाणामए अज्जो! मम णव अथ यथानाम आर्य! मम नव गणा: गणा एगारस गणधरा। एवामेव एकादश गणधराः । एवमेव महापद्म महापउमस्सवि अरहतो णव गणा स्यापि अर्हम: नव गणाः एकादश एगारस गणधरा भविस्संति। गणधराः भविष्यन्ति । से जहाणामए अज्जो ! अहं तीसं अथ यथानामकं आर्य ! अह त्रिंशत् वासाइं अगारवासमझ बसित्ता वर्षाणि अगारवासमध्ये उषित्वा मुण्डो मुंडे भवित्ता अगाराओ भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः, अणगारियं पब्वइए, दुवालस द्वादश संवत्सराणि त्रयोदश पक्षान् संवच्छराइं तेरस पक्खा छउमत्थ- छद्मस्थपर्यायं प्राप्य त्रयोदशैः पक्षः परियागं पाउणित्ता तेरसहि पर्खेहि ऊनकानि त्रिशद् वर्षाणि केवलिपर्यायं ऊणगाई तीसं वासाई केवलि- प्राप्य, द्वाचत्वारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यपरियागं पाउणित्ता, बायालीसं पर्यायं प्राप्य, द्विसप्ततिवर्षाणि सर्वायूः वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, पालयित्वा असिधं अबोधिषं अमुचं परिबावत्तरिवासाइं सव्वाउयं पालइत्ता निरवासिषं सर्वदुःखानां अन्तमकार्षम्, सिज्झिस्सं 'बुझिस्सं मुच्चिस्सं परिणिव्वाइस्सं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सं। एवामेव महापउमेवि अरहा एवमेव महापद्मोपि अर्हन् त्रिंशद् । तीसं वासाई अगारवासमझे वर्षाणि अगारवासमध्ये उषित्वा मुण्डो । वसित्ता 'मुंडे भवित्ता अगाराओ भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यति, अणगारियं पव्वाहिती, दुवालस द्वादश संवत्सराणि त्रयोदशपक्षान् संवच्छराई 'तेरसपक्खा छउमत्थ- छद्मस्थपर्यायं प्राप्य, त्रयोदशैः पक्षः परियागं पाउणित्ता, तेरसहि ऊनकानि त्रिंशद् वर्षाणि केवलिपर्यायं पक्खेहि ऊणगाई तीसं वासाइं प्राप्य, द्वाचत्वारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यकेवलिपरियागं पाडणित्ता, बाया- पर्यायं प्राप्य, द्विसप्ततिवर्षाणि सर्वायुः लीसं वासाइं सामण्णपरियागं पालयित्वा सेत्स्यति भोत्स्यते मोक्ष्यति पाउणित्ता, बावत्तरिवासाइं परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानां अन्तं सव्वाउयं पालइत्ता सिज्झिहिती करिष्यति'बुझिहिती मुच्चिहिती परिणिव्वाइहिती सव्वदुक्खाणमंतं काहिती
आर्यो! मैं तीस वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहकर, मुण्ड होकर, अगार से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुआ। मैंने बाहर वर्ष और तेरह पक्ष तक छद्मस्थ-पर्याय का पालन किया, तीस वर्षों में तेरह पक्ष कम काल तक केबली-पर्याय का पालन कियाइस प्रकार बयालीस वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन कर, बहत्तर वर्ष की पूर्णायु पालकर मैं सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत होऊंगा तथा समस्त दुःखों का अंत करूंगा। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी तीस वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहकर, मुण्ड होकर, अगार से अनगार अवस्था में प्रबजित होंगे। वे बारह वर्ष और तेरह पक्ष तक छद्मस्थ-पर्याय का पालन करेंगे, तीस वर्षों में तेरह पक्ष कम काल तक केवली-पर्याय का पालन करेंगे-इस प्रकार बयालीस वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, बहत्तर वर्ष की पूर्णायु पालकर वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त होंगे तथा समस्त दुःखों का अन्त करेंगे।
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Hi III H116 11 H13
ठाणं (स्थान)
८७२
स्थान : सूत्र ६२ संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. जस्सील-समायारो, १. यच्छील-समाचारः, अरहा तित्थंकरो महावीरो। अर्हन तीर्थंकरो महावीरः । तस्सील-समायारो,
तच्छील-समाचारो, होति उ अरहा महापउमो॥ भविष्यति तु अर्हन् महापद्मः ।। णक्खत्त-पदं नक्षत्र-पदम्
नक्षत्र-पद ६३. णव णक्खत्ता चंदस्स पच्छंभागा नव नक्षत्राणि चन्द्रस्य पश्चाद्भागानि ६३. नौ नक्षत्र चन्द्रमा के पृष्ठभाग में होते हैं।" पण्णत्ता, तं जहा.प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
चन्द्रमा उनका पृष्ठभाग से भोग करता संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. अभिई समणो धणिट्टा, १. अभिजित् श्रवणः धनिष्ठा, १. अभिजित, २. श्रवण, ३. धनिष्ठा, रेवती अस्सिणि मग्गसिर पूसो। रेवतिः अश्विनी मृगशिराः पुष्यः । ४. रेवति, ५. अश्विनी, ६. मृगशिर, हत्थो चित्ता य तहा, हस्तः चित्रा च तथा,
७. पुष्य, ८.हस्त, चिना। पच्छंभागा णव हवंति ॥ पश्चाद्भागानि नव भवन्ति । विमाण-पदं विमान-पदम्
विमान-पद ६४. आणत-पाणत-आरणच्चुतेसु कप्पेसु आनत-प्राणत-आरणाच्युतेषु कल्पेषु ६४. आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों
विमाणा णव जोयणसयाई उड्ड विमानानि नव योजनशतानि ऊर्ध्वं में विमान नौ सौ योजन ऊंचे हैं। उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि।
थे।
कुलगर-पदं कुलकर-पदम्
कुलकर-पद ६५. विमलवाहणे णं कुलकरे णव धणु- विमलवाहनः कुलकर: नव धनुशतानि ६५. कुलकर विमलवाहन नौ सौ धनुष्य ऊंचे
सताई उड्ढें उच्चत्तेणं हुत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अभवत् । तित्थगर-पदं तीर्थकर-पदम्
तीर्थकर-पद ६६. उसभेणं अरहा कोसलिएणं इमीसे ऋषभेण अर्हता कौशलिकेन अस्यां ६६. कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने इसी अवसर्पिणी
ओसप्पिणीए णहि सागरोवम- अवप्पिण्यां नवभिः सागरोपमकोटि- के नौ कोटि-कोटि सागरोपम काल व्यतीत कोडाकोडीहि वीइक्कंताहि तित्थे कोटिभिः व्यतिक्रान्ताभिः तीर्थः होने पर तीर्थ का प्रवर्तन किया था। पवत्तिते।
प्रवर्तितः।
दीव-पदं
द्वीप-पदम् ६७. धणदंत-लट्ठदंत-गूढदंत-सुद्धदंत- घनदन्त-लष्टदन्त-गूढदन्त-सुद्धदन्त-
दीचा गं दीवा णव-णव जोयण- द्वीपाः द्वीपाः नव-नव योजनशतानि सताहं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता। आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः।
द्वीप-पद ६७. घनदन्त, लष्टदन्त, गूढदन्त, शुद्धदन्त
ये द्वीप नौ-सौ, नौ-सौ योजन लम्बे-चौड़े
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ठाणं (स्थान)
८७३
स्थान ६ : सूत्र ६८-७२
महरगह-पदं महाग्रह-पदम्
महाग्रह-पद ६८. सुक्कस्स णं महागहस्स णव वीहीओ शुक्रस्य महाग्रहस्य नव वीथयः प्रज्ञप्ताः, ६८. महाग्रह शुक्र के नौ वीथियां हैं--- पण्णत्ताओ, तं जहा
तद्यथाहयवीही, गयवीही, णागवीही, हयवीथिः, गजवीथिः, नागविथिः, १. हयवीथि, २. गजवीथि, वसहवीही, गोवीही, उरगवीही, वृषभवीथिः, गोवीथिः, उरगवीथिः,
३. नागवीथि, ४. वृषभवीथि, अयवीही, मियवीही, वेसाणर- अजवीथिः, मृगवीथिः, वैश्वानरवीथिः।
५. गोवीथि, ६. उरगवीथि,
७. अजवीथि, ८. मृगवीथि, वीही।
६. वैश्वानरवीथि। कम्म-पदं कर्म-पदम्
कर्म-पद ६९. णवविध णोकसायवेयणिज्जे कम्मे नवविधं नोकषायवेदनीयं कर्म प्रज्ञप्तम्, ६६. नोकषायवेदनीय कर्म नौ प्रकार का हैपण्णत्ते, तं जहा
तद्यथाइथिवेए, पुरिसवेए, णपुंसगवेए, स्त्रीवेदः, पुरुषवेद: नपुंसकवेदः, हास्य, १. स्त्रीवेद, २. पुरुषवेद, ३. नपुंसकवेद, हासे, रती, अरती, भये, सोगे, रतिः, अरतिः, भयं, शोकः, जुगुप्सा। ४. हास्य, ५. रति, ६. अरति, दुगछा।
७. भय, ८. शोक, ६. जुगुप्सा।
कुलकोडि-पदं
कुलकोटि-पदम्
कुलकोटि-पद ७०. चरिदियाणं णव जाइ-कुलकोडि- चतुरिन्द्रियाणां नव जाति-कुलकोटि- ७०. चतुरिन्द्रिय जाति के योनि-प्रवाह में होने __ जोणिपमुह-सयसहस्सा पण्णत्ता। योनिप्रमुख-शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि। वाली कुलकोटियां नौ लाख हैं। ७१. भुयगपरिसप्प-थलयर-पंचिदिय- भुजगपरिसर्प-स्थलचर-पञ्चेन्द्रिय- ७१. पञ्चेन्द्रिय तियञ्चयोनिक स्थलचर भुजग
तिरिक्खजोणियाणं णव जाइ- तिर्यग्योनिकानां नव जाति-कुलकोटि- परिसर्प के योनिप्रवाह में होने वाली कुलकुलकोडि-जोणिपमुह-सयसहस्सा योनिप्रमुख-शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । कोटियां नौ लाख हैं। पण्णत्ता।
पावकम्म-पदं पापकर्म-पदम्
पापकर्म-पद ७२. जीवा णवट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले जीवाः नवस्थाननिर्वतितान् पुद्गलान् ७२. जीवों ने नौ स्थानों से निर्वतित पुद्गलों
पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा का पापकर्म के रूप में चय किया है, करते वा चिणिस्संति वा, तं जहा- चेष्यन्ति वा, तद्यथा
हैं और करेंगेपुढविकाइयणिव्वत्तिते, पृथ्वोकायिकनिर्वतितान्,
१. पृथ्वीकायिक निर्ववर्तित पुद्गलों का, 'आउकाइयणिव्वत्तिते, अपकायिकनिर्वतितात्,
२. अप्कायिक निर्वतित पुद्गलों का, तेउकाइयणिव्वत्तिते, तेजस्कायिकनिर्वतितान्,
३. तेजस्कायिक निर्वतित पुद्गलों का, वाउकाइयणिव्वत्तिते, वायुकायिकनिर्वतितान्,
४. वायुकायिक निर्वतित पुद्गलों का, वणस्सइकाइयणिव्वत्तिते, वनस्पतिकायिकनिर्वतितान्,
५. वनस्पतिकायिक निर्वर्तित पद्गलों का, बेइं दियणिव्वत्तिते, द्वीन्द्रिय निर्वतितान्,
६. द्वीन्द्रिय निर्वतित पुद्गलों का, तेइंदियणिव्वत्तिते, त्रीन्द्रियनिर्वतितान्,
७. नीन्द्रिय निर्वतित पुद्गलों का,
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ठाणं (स्थान)
चरिदिय णिव्वत्तिते, पंचिदियणिव्वत्तिते । एवं चिण उवचिण बंध उदीर-वेद तह णिज्जरा चेव ।
पोग्गल - पदं
७३. णवपएसिया खंधा अणता पण्णत्ता जाव णवगुणलुक्खा पोग्गला अणंता
पण्णत्ता ।
८७४
चतुरिन्द्रियनिवर्तितान्, पञ्चेन्द्रियनिर्वर्तितान् ।
एवम् चय - उपचय-बन्ध उदीर - वेदा: तथा निर्जरा चैव ।
पुद्गल-पदम्
नवप्रदेशिकाः स्कन्धाः अनन्ताः प्रज्ञप्ताः यावत् नवगुणरूक्षाः पुद्गलाः अनन्ताः
प्रज्ञप्ता! |
स्थान
: सूत्र ७३
८. चतुरिन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का,
९. पञ्चेन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का।
इसी प्रकार उनका उपचय, बन्धन, उदी
रण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे ।
पुद्गल-पद
७३. नवप्रदेशी स्कंध अनन्त हैं ।
नवप्रदेशावगाढपुद्गल अनन्त हैं ।
नौ समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त
हैं ।
नौ गुण का पुद्गल अनन्त हैं ।
इसी प्रकार शेष वर्ण तथा गंध, रस और स्पर्शो के नौ गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं ।
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१. सांभोगिक विसांभोगिक ( सू० १)
यहां संभोग का अर्थ है -- सम्बन्ध । समवायांग सूत्र में मुनियों के पारस्परिक सम्बन्ध बारह प्रकार के बतलाए गए हैं। जिनमें ये सम्बन्ध चालू होते हैं वे सांभोगिक और जिनके साथ इन सम्बन्धों का विच्छेद कर दिया जाता है वे विसां भोगिक कहलाते हैं। साधारण स्थिति में सांभोगिक को विसांभोगिक नहीं किया जा सकता। विशेष स्थिति उत्पन्न होने पर ही ऐसा किया जा सकता है । प्रस्तुत सूत्र में संभोग विच्छेद करने का एक ही कारण निर्दिष्ट है । वह है- प्रत्यनीकता - कर्तव्य से प्रतिकूल आचरण ।
२. (सू० ३ )
देखें - समवाओ | १ का टिप्पण |
टिप्पणियाँ
स्थान -
३. ( सू० १३ )
प्रस्तुत सूत्र में रोगोत्पत्ति के नौ कारण बतलाए हैं। उनमें से कुछएक की व्याख्या इस प्रकार है
१.
१. अच्चासणयाए - वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-आदि रोग उत्पन्न होते हैं । २. अत्यशन से अति भोजन रोग उत्पन्न हो सकते हैं ।
२. अहियासणयाए वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं
१. अहितासन से -- पाषाण आदि अहितकर आसन पर बैठने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं ।
२. अहित अशन से - अहितकर भोजन करने से ।
३. अभ्यसन से किए हुए भोजन के जीर्ण न होने पर पुनः भोजन करने से – 'अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यसनमुच्यते ।'
३. उसका सतत स्मरण
४. उसका उत्कीर्त्तन ५. उद्वेग
अत्यासन से — निरन्तर बैठे रहने से। इससे मसे करने से। इससे अजीर्ण हो जाने के कारण अनेक
३. इन्द्रियार्थ - विकोपन - इसका अर्थ है - कामविकार । कामविकार से उन्माद आदि रोग हो उत्पन्न नहीं होते किन्तु वह व्यक्तिको मृत्यु के द्वार तक भी पहुंचा देता है । वृत्तिकार ने कामविकार के दस दोषों का क्रमश: उल्लेख किया है
१. काम के प्रति अभिलाषा
२. उसको प्राप्त करने की चिन्ता
६. प्रलाप
७. उन्माद
5. व्याधि
६. जड़ता, अकर्मण्यता
१०. मृत्यु
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ठाणं (स्थान)
८७६
स्थान :: टि०४
ये दोष एक के बाद एक आते रहते हैं।'
४. (सू० १४)
तत्त्वार्थसूत्र ८१७ में भी दर्शनावरणीय कर्म की ये नौ उत्तर प्रकृतियां उल्लिखित हैं। प्रस्तुत सूत्र से उनका क्रम कुछ भिन्न है। वहां पहले चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल है और बाद में निद्रापंचक का उल्लेख है।
तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरीय पाठ और भाष्य में निद्रा आदि के पश्चात् 'वेदनीय' शब्द रखा गया है, जैसे-निद्रावेदनीय, निद्रानिद्रावेदनीय आदि।
दिगम्बरीय पाठ में इन शब्दों के बाद 'वेदनीय' शब्द नहीं है। राजबातिक और सर्वार्थसिद्धि टीका में इनके बाद दर्शनावरण जोड़ने को कहा गया है।
__ स्थानांग के वृत्तिकार अभयदेवसूरी ने निद्रापंचक का जो अर्थ किया है वह मूल अनुवाद में प्रदत्त है। उन्होंने थीणगिद्धी के दो संस्कृत रूपान्तर दिए हैं -
१. स्त्यानद्धि २. स्त्यानगृद्धि। बौद्ध साहित्य में इसका रूप स्त्यानऋद्धि मिलता है। तत्त्वार्थ वार्तिक के अनुसार निद्रापंचक का विवरण इस प्रकार है
१. निद्रा--मद, खेद और क्लम को दूर करने के लिए सोना निद्रा है। इसके उदय से जीव तमःअवस्था को प्राप्त होता है।
२. निद्रा-निद्रा-बार-बार निद्रा में प्रवृत्त होना निद्रा-निद्रा है। इसके उदय से जीव महातम: अवस्था को प्राप्त होता है।
३. प्रचला-जिस नींद से आत्मा में विशेष रूप से प्रचलन उत्पन्न हो उसे प्रचला कहा जाता है। शोक, श्रम, मद आदि के कारण इसकी उत्पत्ति होती है। यह इन्द्रिय-व्यापार से उपरत होकर बैठे हुए व्यक्ति के शरीर और नेत्र आदि में विकार उत्पन्न करती है। इसके उदय से जीव बैठे-बैठे ही खुर्राटे भरने लगता है । उसका शरीर और उसकी आंखें विचलित होती हैं और वह व्यक्ति देखते हुए भी नहीं देख पाता।।
४. प्रचला-प्रचला–प्रचला की बार-बार आवृत्ति से जब मन बासित हो जाता है, तब उसे प्रचला-प्रचला कहा जाता है। इसके उदय से जीव बैठे-बेठे ही अत्यन्त खुर्राटे लेने लगता है और बाण आदि के द्वारा शरीर के अवयव छिन्न हो जाने पर भी वह कुछ नहीं जान पाता।
५. स्त्यानगद्धि -- इसका शाब्दिक अर्थ है स्वप्न में विशेष शक्ति का आविर्भाव होना। इसकी प्राप्ति से जीव सोतेसोते ही अनेक रौद्र कर्म तथा बहुविध क्रियाएं कर डालता है।
गोम्मट्टसार के अनुसार निद्रापंचक का विवरण इस प्रकार है
(१) 'स्त्यानगृद्धि' के उदय से जगाने के बाद भी जीव सोता रहता है। वह उस सुप्त अवस्था में भी कार्य करता है, बोलता है।
(२) निद्रा-निद्रा' के उदय से जीव आंखें नहीं खोल सकता। (३) 'प्रचला-प्रचला' के उदय से लार गिरती है और अंग कांपते हैं। (४) निद्रा' के उदय से चलता हुआ जीव ठहरता है, बैठता है, गिरता है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२३, ४२४ । २. तत्त्वार्थ सूत्र ८७ ३. तत्त्वार्थवात्तिक पु० ५७२ ।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२४ । ५. तत्त्वार्थवात्तिक, पृष्ठ ५७२, ५७३ । ६. गोम्मट्टसार, कर्मकाण्ड, गाथा २३-२५ ।
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ari (स्थान)
स्थान : टि० ५-१०
(५) 'प्रचला' के उदय से जीव के नेत्र कुछ खुले रहते हैं और वह सोते हुए भी थोड़ा-थोड़ा जागता है और बारबार मंद-मंद सोता है।
५-७. ( सू० १५-१८)
मिलाइए - समवाओ | ५-७ ।
८. ( सू० १८ )
यद्यपि लवण समुद्र में पांच सौ योजन के मत्स्य होते हैं किन्तु नदी के मुहाने पर जगती के रंध्र की उचितता से केवल नौ योजन के मत्स्य ही प्रवेश पा सकते हैं। अथवा जागतिक नियम ही ऐसा है कि इससे ज्यादा बड़े मत्स्य उसमें आते ही नहीं।' ये मत्स्य लवण समुद्र से जंबुद्वीप की नदियों में आ जाते हैं ।
मिलाइये - समवाओ हा ।
८७७
६. महानिधि ( सू० २२ )
प्रस्तुत सूत्र में नौ निधियों का उल्लेख है । निधि का अर्थ है --खजाना । वृत्तिकार का अभिमत है कि चक्रवर्ती के अपने राज्य के लिए उपयोगी सभी वस्तुओं की प्राप्ति इन नौ निधियों से होती है, इसीलिए इन्हें नव निधान के रूप में गिनाया जाता है।' प्रचलित परम्परा के अनुसार ये निधियां देवकृत और देवाधिष्ठित मानी जाती हैं। परन्तु वास्तव में ये सभी आकर ग्रन्थ हैं, जिनसे सभ्यता और संस्कृति तथा राज्य संचालन की अनेक विधियों का उद्भव हुआ है। इनमें तत् तत् विषयों का सर्वाङ्गीण ज्ञान भरा था, इसलिए इन्हें निधि के रूप में माना गया। ये आकर ग्रन्थ अपने विषय की पूर्ण जानकारी देते थे । हम इन नौ निधियों को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में इस प्रकार बांट सकते हैं
१. नैसर्प निधि - वास्तुशास्त्र |
२. पांडुक निधि -- गणितशास्त्र तथा वनस्पतिशास्त्र |
३. पिंगल निधि-मंडनशास्त्र |
४. सर्वरत्न निधि - लक्षणशास्त्र |
५. महापद्म निधि वस्त्र - उत्पत्तिशास्त्र ।
६. काल निधि - कालविज्ञान, शिल्पविज्ञान और कर्मविज्ञान का प्रतिपादक महाग्रन्थ ।
७. महाकाल निधि - धातुवाद |
८. माणवक निधि राजनीति व दंडनीतिशास्त्र ।
६. शंख निधि - नाट्य व वाद्यशास्त्र ।
१०. सौ प्रकार के शिल्प ( सू० २२ )
कालनिधि महाग्रन्थ में सौ प्रकार के शिल्पों का वर्णन है । वृत्तिकार ने घट, लोह, चित्र, वस्त्र और नापित — इन पांचों को मूल शिल्प माना है और प्रत्येक के बीस-बीस भेद होते हैं, ऐसा लिखा है। वे बीस-बीस भेद कौन-कौन से हैं, यह
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२५ लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चशतयोजनायामा मत्स्या भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२६ चक्रवत्तराज्योपयोगीनि द्रव्याणि सर्वाण्यपि नवसु निधिष्ववतरन्ति, नव निधानतया व्यवह्रियन्त इत्यर्थः ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२६ : शिल्पशतं कालनिधो वर्तते, शिल्पशतं च घटलोहचित्र वस्त्रशिल्पानां प्रत्येकं विशतिभेदत्वादिति ।
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ठाणं (स्थान)
८७८
इनके पाँच-पाँच विकृतिगत होते हैं। उनका विवरण इस प्रकार है-
अन्वेषणीय है । सूत्रकार को सौ शिल्प कौन से गम्य थे, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता ।
११. चार प्रकार के काव्य ( सू० २२)
वृत्तिकार ने काव्य के चार-चार विकल्प प्रस्तुत किए हैं'
१. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतिपादक ग्रन्थ ।
२. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश या संकीर्ण भाषा [ मिश्रित भाषा ] निबद्ध ग्रन्थ ।
३. सम, विषम, अर्द्ध सम या वृत्त में निबद्ध ग्रन्थ ।
४. गद्य, पद्य, गेय और वर्णपद भेद में निबद्ध ग्रन्थ ।
१२. विकृतियां (सू० २३ )
विकृति का अर्थ है विकार । जो पदार्थ मानसिक विकार पैदा करते हैं उन्हें विकृति कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में नौ विकृतियों का उल्लेख है।
स्थान : टि० ११-१२
प्रवचनसारोद्धार' में दस विकृतियों का कथन है। उनमें अवगाहिम [ पक्वान्न ] विकृति का अतिरिक्त उल्लेख है । जो पदार्थ घी अथवा तेल में तला जाता है, उसे अवगाहिम कहते हैं। स्थानांगवृत्ति में लिखा है कि पक्वान्न कदाचित् अविकृति भी होता है, इसलिए विकृतियां नौ निर्दिष्ट हैं। यदि पक्वान्न को विकृति माना जाए तो विकृतियां दस हो जाती हैं।
प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार ने विकृति के विषय में प्रचलित प्राचीन परंपरा का उल्लेख करते हुए अनेक तथ्य उपस्थित किए हैं। अवगाहिम विकृति के विषय में उन्होंने विशेष जानकारी दी है। उनका कथन है कि घी अथवा तेल से भरी हुई कड़ाही में एक, दो, तीन घाण निकाले जाते हैं तब तक वे सब पदार्थ अवगाहिम विकृति के अन्तर्गत आते हैं। यदि उसी
ते में चौथा घाण निकाला जाता है [ चौथी बार उसी में कोई चीज तली जाती है ] तब वह निर्विकृति हो जाती है। ऐसे पदार्थ योगवहन करनेवाले मुनि भी ले सकते हैं । यदि चल्हे पर चढ़ी हुई उसी कड़ाही में बार-बार घी या तेल डाला जाता है तो चौथे घाण में भी वह वस्तु निर्विकृतिक नहीं होती ।
दूध मिश्रित चावल में यदि चावलों पर चार अंगुल दूध रहता है तो वह निर्विकृतिक माना जाता है । और यदि दूध पांच अंगुल से ज्यादा होता है तो विकृति माना जाता है। इसी प्रकार दही और तेल के विषय में भी जानना चाहिए। गुड़, घी, और तेल से बने पदार्थों में यदि वे एक अंगुल ऊपर तक सटे हुए हों तो बे विकृति नहीं हैं। मधु और मांस के रस से बने हुए पदार्थों में यदि वे रस में आधे अंगुल तक सटे हुए हों तो विकृति के अन्तर्गत नहीं आते। जिन पदार्थों में गुड़, मांस, नवनीत आदि के आर्द्रामलक जितने छोटे-छोटे टुकड़े (शण वृक्ष के मुकुट जितने छोटे ) मिश्रित हों, वे पदार्थ भी निविकृतिक माने जाते हैं । और जिनमें इनके बड़े-बड़े टुकड़े मिश्रित हों वे विकृति में गिने जाते हैं ।
प्राचीन आगम व्याख्या साहित्य में तीन शब्द प्रचलित हैं- विकृति, निर्विकृति और विकृतिगत । विकृति और निर्विकृति की बात हम ऊपर कह चुके हैं।
विकृतिगत का अर्थ है— दूसरे पदार्थों के मिश्रण से जिस विकृति की शक्ति नष्ट हो जाती है उसे विकृतिगत कहा जाता है। इसके तीस प्रकार हैं। दूध, दही, घी, तेल, गुड और अवगाहिम - इनके पांच-पाँच विकृतिगत होते हैं । उनका विवरण इस प्रकार है
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२० : काव्यस्य चतुर्विधस्य धर्मार्थकाममोक्षलक्षण पुरुषार्थ प्रतिबद्ध ग्रन्थस्य अथवा संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसङ्कीर्ण भाषानिबद्धस्य अथवा समविषमार्द्धसमवृत्तबद्ध तया गद्यतया चेति अथवा गद्यपद्यगेयवर्णपदभेदबद्धस्येति । २. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र ५३ विकृतयो- मनसो विकृति
हेतुत्वादिति ।
३. प्रवचनसारोद्वार गाथा २१७ :
दुद्धं दहि नवणीयं घयं तहा तेल्लमेव गुड मज्जं । महु मंसं चेव तहा ओगाहिमगं च विगइओ ||
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२७ पक्वान्नं तु कदाचिदविकृतिरपि तेनैता नव, अन्यथा तु दशापि भवन्तीति ।
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ठाणं (स्थान)
दूध के पांच विकृतिगत -
१. दुग्धकांजिका - दूध की राब ।
२. दुग्धाटी - मावा होना या दही अथवा छाछ के साथ दूध को पकाने से पकने वाला पदार्थ ।
३. दुग्धावलेहिका - चावलों के आटे में पकाया हुआ दूध ।
४. दुग्धसारिका - द्राक्षा डालकर पकाया हुआ दूध ।
५. खीर
दही के पांच विकृतिगत ।
१. घोलबड़े ।
२. घोल - कपड़े से छना हुआ दही।
३. शिखरिणी - हाथ से मथकर चीनी डाला हुआ दही ।
४. करंबक - दही युक्त चावल ।
५. नमक युक्त दही का मट्ठा- इसमें सोगरी आदि न डालने पर भी वह विकृतिगत होता है, उनके डालने पर तो
होता है।
घृत के पांच विकृतिगत -
१. औषधपक्व घृत ।
२. घृतकिट्टिका - घृत का मैल ।
८७६
३. घृत पक्व - औषध के ऊपर तैरता हुआ घृत ।
४. निर्भञ्जन – पक्वान्न से जला हुआ घृत ।
५. विस्यंदन - दही की मलाई पर तैरते हुए घृत-बिन्दुओं से बना पदार्थ ।
तेल के पांच विकृतिगत -
१. तैलमलिका ।
२. तिलकुट्ट ।
३. निर्भञ्जन – पक्वान्न से जला हुआ तैल ।
४. तैल पक्व – औषध के ऊपर तैरता हुआ तेल ।
५. लाक्षा आदि द्रव्य में पकाया गया तैल ।
गुड के पांच विकृतिगत
१. आधा पका हुआ ईक्षु रस ।
२. गुड का पानी ।
स्थान : टि० १२
३. शक्कर ।
४. खांड |
५. पकाया हुआ गुड ।
अवगाहिम के पांच विकृतिगत
१. तवे पर घी डालकर एक रोटी पका ली और पुनः दूसरी बार उसमें घी डाले बिना दूसरी रोटी पकाई जाए वह
विकृतिगत है।
२. बिना नया घी और तेल डाले उसी कढ़ाई में तीन घाण निकल चुकने के पश्चात् चौथे घाण में जो पदार्थ निष्पन्न होते हैं वे विकृतिगत हैं ।
३. गुडधानिका आदि ।
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ठाणं (स्थान)
स्थान : टि० १३-१४
४. कढ़ाही में निष्पन्न सुकुमारिका [ मिष्टान्न ] को निकालने के पश्चात् उसी कढ़ाही में घी या तेल लगा हुआ रह जाता है । उसमें पानी डालकर सिझाई हुई लपसी ( लपनश्री) विकृतिगत है।
५. घी या तेल से संश्लिष्ट बर्तन में पकाई हुई पूपिका ।
वृत्तिकार का अभिमत है कि यद्यपि खीर आदि द्रव्य साक्षात् विकृतियां नहीं हैं, किन्तु विकृतिगत हैं। फिर भी ये विशेष पदार्थ हैं तथा ये भी मनोविकार पैदा करते हैं। जो निर्विकृतिक की साधना करते हैं उनके लिए ये कल्प्य हैं, परन्तु इनके सेवन से उनके कोई विशेष निर्जरा नहीं होती। अतः निविकृतिक तप करनेवाले इनका सेवन नहीं करते ।
जो व्यक्ति विविध तपस्याओं से अपने आप को अत्यन्त क्षीण कर चुका है, वह यदि स्वाध्याय, अध्ययन आदि करने में असमर्थ हो तो वह इन विकृतिगत का आसेवन कर सकता है। उसके महान् कर्म - निर्जरा होती है ।
विकृति विषयक वह परंपरा काफी प्राचीन प्रतीत होती है। प्रवचनसारोद्धार ग्यारहवीं शताब्दी की रचना है, किन्तु यह परम्परा तत्कालीन नहीं है ।
ग्रन्थकार ने इसका वर्णन आवश्यक चूर्णि ( उत्तर भाग, पृष्ठ ३१६, ३२०) के आधार पर किया है। इसकी रचना लगभग चार शताब्दी पूर्व की है। यह परंपरा उससे भी प्राचीन रही है ।
वर्तमान में विकृति संबंधी मान्यताओं में बहुत परिवर्तन हो चुका है।
८८०
१३. पापश्रुतप्रसंग ( सू० २७ )
प्रस्तुत सूत्र में नौ पापश्रुत प्रसंगों का उल्लेख है। जो शास्त्र पापबन्ध का हेतु होता है, उसे पापश्रुत कहा जाता है । प्रसंग का अर्थ है आसेवन' या उसका विस्तार ।
समवायांग २६।१ में उनतीस पापश्रुत प्रसंगों का उल्लेख है। वहां मूल में आठ पापश्रुत प्रसंग माने हैं-भौम, उत्पात, स्वप्न, अन्तरिक्ष अंग, स्वर, व्यंजन और लक्षण । यह अष्टांग निमित्त है । इनके सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से २४ प्रकार होते हैं। शेष पांच अन्य हैं। परन्तु प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित नौ नाम इससे सर्वथा भिन्न हैं। ऐसे तो समवायांग में उल्लिखित 'निमित्त' के अन्तर्गत ये सारे आ जाते हैं। फिर भी दोनों उल्लेखों में बहुत बड़ा अन्तर है ।
वृत्तिकार ने प्रसंग का एक अर्थ विस्तार किया है और वहां सूत्र, वृत्ति और वार्तिक का संकेत दिया है। यदि हम यहां प्रत्येक के ये तीन-तीन भेद करें तो [ex ३] २७ भेद होते हैं ।
वृत्तिकार ने तद्-तद् पापश्रुत प्रसंगों के ग्रन्थों का भी नामोल्लेख किया है '
१. उत्पाद - राष्ट्रोत्पात आदि ग्रन्थ ।
२. निमित्त -- कूटपर्वत आदि ग्रन्थ ।
३. मंत्र - जीवोद्धरण गारुड आदि ग्रन्थ ।
४. आवरण -- वास्तुविद्या आदि ग्रन्थ ।
५. अज्ञान - भारत, काव्य, नाटक आदि ग्रन्थ ।
विस्तृत टिप्पण के लिए देखें - समवायांग, २६, टिप्पण १ ।
१४. नैपुणिक ( सू० २८ )
निपुण का अर्थ है - सूक्ष्मज्ञान । जो सूक्ष्मज्ञान के धनी हैं उन्हें नैपुणिक कहा जाता है। इसका दूसरा अर्थ है-अनुप्रवाद नामक नौवें पूर्व के इन्हीं नामों के नौ अध्ययन ।'
१. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र ५५, ५६ ।
२. प्रवचनसारोद्धार, गाथा २३५:
आवस्सय चुण्णीए परिभणियं एत्थ वण्णियं कहियं । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र, ४२८ प्रसङ्गः - तथासेवारूप: 1 ४. वही पत्र ४२८ : प्रसङ्गः
विस्तरो वा सूत्रवृत्तिवार्तिक
रूप: :
५. वही, पत्र ४२८ ।
६.
वही, पत्र ४२८ : निपुर्ण सूक्ष्मज्ञानं पुरुषा अनुप्रवादाभिधानस्य
इत्यर्थः । ..... अथवा
अध्ययन
विशेषा एवेति ।
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ठाणं (स्थान)
८८१
स्थान :: टि० १५
१. संख्यान-गणितशास्त्र या गणितशास्त्र का सूक्ष्म ज्ञानी । २. निमित्त-चूडामणि आदि निमित्त शास्त्रों का ज्ञाता । ३. कायिक-शरीर में रहे हुए इडा, पिंगला आदि प्राण-तत्त्वों का विशिष्ट ज्ञाता।
४. पौराणिक-—बहुत वृद्ध होने के कारण बहुविध बातों का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अथवा पुराणशास्त्रों का विशिष्ट ज्ञानी।
५. पारिहस्तिक-प्रकृति से ही सभी कार्यों को उचित समय में दक्षता से करने वाला। ६. परपंडित-बहुत शास्त्रों को जानने वाला अथवा पंडित मित्रों के घने संपर्क में रहने वाला। ७. वादी--बाद करने की लब्धि से सम्पन्न अथवा मंत्रवादी, धातुवादी (रसायनशास्त्र को जानने वाला)। ८. भूतिकर्म –मंत्रित राख आदि देकर ज्वर आदि को दूर करने में निपुण। ६. चैकित्सिक-विविध रोगों की चिकित्सा में निपुण ।'
१५. नौ गण (सू० २६)
यह विषय मुलत: कल्पसूत्र में प्रतिपादित है। नौ की संख्या के अनुरोध से इसे आगमन-संकलन काल में प्रस्तुत सूत्र में संकलित किया गया है।
एक सामाचारी का पालन करने वाले साधु-समुदय को गण कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में नौ गणों का उल्लेख है
१. गोदासगण–प्राचीन गोत्री आर्य भद्रबाहु स्थविर के चार शिष्य थे-गोदास, अग्निदत्त, यज्ञदत्त और सोमदत्त। गोदास काश्यपगोत्री थे। उन्होंने गोदास गण की स्थापना की। इस गण से चार शाखाएं निकलीं-तामलिप्तिका, कोटिवषिका, पांडुवर्द्धनिका और दासीखर्वटिका।
२. उत्तरबलिस्सहगण-माठरगोत्री आर्य संभूतविजय के बारह शिष्य थे। उनमें आर्य स्थूलभद्र एक थे। इनके दो शिष्य हुए-आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती। आर्य महागिरि के आठ शिष्य हुए, उनमें स्थविर उत्तर और स्थविर बलिस्सह दो थे। दोनों के संयुक्त नाम से 'उत्तरबलिस्सह' नाम के गण की उत्पत्ति हुई।
३. उद्देहगण-आर्य सुहस्ती के बारह अंतेवासी थे। उनमें स्थविर रोहण भी एक थे। ये काश्यपगोत्री थे। इनसे 'उद्देहगण' की उत्पत्ति हुई।
४. चारणगण-स्थविर श्रीगुप्त भी आर्य सुहस्ती के शिष्य थे। ये हारित गोत्र के थे। इनसे चारणगण की उत्पत्ति हुई।
५. उडुपाटितगण-स्थविर जशभद्र आर्य सुहस्ती के शिष्य थे। ये भारद्वाजगोत्री थे। इनसे उडुपाटितगण की उत्पत्ति हुई।
६. वेशपाटितगण-स्थविर कामिट्ठी आर्य सुहस्ती के शिष्य थे। ये कुंडिलगोत्री थे। इनसे वेशपाटितगण की उत्पत्ति हुई।
७. कामद्धिकगण-यह वेशपाटितगण का एक कुल था। ८. मानवगण-आर्य सुहस्ती के शिष्य ऋषिगुप्त ने इस गण की स्थापना की। ये वाशिष्टगोत्री थे। ६. कोटिकगण-स्थविर सुस्थित और सुप्रतिबद्ध से इस गण की उत्पत्ति हुई।
प्रत्येक गण की चार-चार शाखाएं और उद्देह आदि गणों के अनेक कुल थे। इनकी विस्तृत जानकारी के लिए देखेंकल्पसूत्र, सुत्र २०६-२१६ ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४२८ ।
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स्थान ६ : टि०१६-१७
१६. (सू० ३४)
कृष्णराजी, मघा आदि आठ कृष्णराजिओं के आठ अवकाशान्तरों में आठ लोकान्तिकविमान हैं[स्था० ८।४४, ४५] इनमें सारस्वत आदि आठ लोकान्तिक देव रहते हैं। नौंवा देवनिकाय रिष्ट लोकान्तिक देव कृष्णराजि के मध्यवर्ती रिष्टाभविमान के प्रस्तट में निवास करते हैं। ये नौ लोकान्तिक देव हैं। ये ब्रह्म देवलोक के समीप रहते हैं अतः इन्हें लोकान्तिक देव कहा जाता है। इनकी स्थिति आठ सागरोपम की होती है और ये सात-आठ भव में मुक्त हो जाते हैं। तीर्थकर की प्रव्रज्या से एक वर्ष पूर्व ये स्वयंसंबद्ध भगवान से अपनी रीति को निभाने के लिए कहते हैं-'भगवन् ! समस्त जीवों के हित के लिए आप अब तीर्थ का प्रवर्तन करें।'
१७. (सू० ४०)
आयुष्य के साथ इतने प्रश्न और जुड़े हुए होते हैं कि-- (१) जीव किस गति में जायेगा? (२) वहां उसकी स्थिति कितनी होगी? (३) वह ऊंचा, नीचा या तिरछा -कहां जायेगा?
(४) वह दूरवर्ती क्षेत्र में जायेगा या निकटवर्ती क्षेत्र में ? इन चार प्रश्नों में आयु परिणाम के नौ प्रकार समा जाते हैं, जैसे—प्रश्न १ में (१, २) प्रश्न २ में (३, ४), प्रश्न ३ में (५, ६, ७) प्रश्न ४ में (८, ६)। जब अगले जीवन के आयुष्य का बन्ध होता है तब इन सभी बातों का भी उसके साथ-साथ निश्चय हो जाता है।
वृत्तिकार ने परिणाम के तीन अर्थ किए हैं—स्वभाव, शक्ति और धर्म । आयुष्य कर्म के परिणाम नौ हैं(१) गति परिणाम-इसके माध्यम से जीव मनुष्यादि गति को प्राप्त करता है।
(२) गतिबन्धन परिणाम-इसके माध्यम से जीव प्रतिनियत गतिकर्म का बंध करता है, जैसे-जीव नरकायुस्वभाव से मनुष्यगति, तिर्यग्गति नामकर्म का बंध करता है, देवगति और नरकगति का बंध नहीं करता।
(३) स्थिति परिणाम-इसके माध्यम से जीव भवसंबंधी स्थिति (अन्तर्मुहूर्त से तेतीस सागर तक) का बन्ध करता है।
(४) स्थिति बंधन परिणाम —इसके माध्यम से जीव वर्तमान आयु के परिणाम से भावी आयुष्य की नियत स्थिति का बन्ध करता है, जैसे—तिर्यग आयुपरिणाम से देव आयुष्य का उत्कृष्ट बंध अठारह सागर का होता है।
(५) ऊर्ध्वगौरव परिणाम-गौरव का अर्थ है गमन । इसके माध्यम से जीव ऊर्व-गमन करता है। (६) अधोगौरव परिणाम-इसके माध्यम से जीव अधोगमन करता है। (७) तिर्यग् गौरव परिणाम- इसके माध्यम से जीव को तिर्यक् गमन की शक्ति प्राप्त होती है। (८) दीर्घगौरव परिणाम—इसके माध्यम से जीव लोक से लोकान्त पर्यन्त दीर्घगमन करता है। (E) हस्वगौरव परिणाम- इसके माध्यम से जीव हस्वगमन (थोड़ा गमन) करता है।
वृत्तिकार ने यहां 'अन्यथाप्युह्यमेतद्'-इसकी दूसरे प्रकार से भी व्याख्या की जा सकती है—कहा है। वह दूसरा प्रकार क्या है, यह अन्वेषणीय है।
यहां गति शब्द का वाच्यार्थ किया जाए तो ये परिणाम परमाणु आदि पर भी घटित हो सकते हैं।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३० ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३० : परिणाम:-स्वभावः शक्तिः धर्म
इति ।
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स्थान ६ : टि०१८
१८. (सू० ६०)
भगवान महावीर के तीर्थ में तीर्थकर गोन बांधने वाले नौ व्यक्ति हुए हैं। उनका वर्णन इस प्रकार है
१. श्रेणिक-ये मगध देश के राजा थे। इनका विस्तृत विवरण निरयावलिका सूत्र में प्राप्त है। ये आगामी चौबीसी में पद्मनाम नाम के प्रथम तीर्थकर होंगे।
२. सुपार्श्व-..ये भगवान महावीर के चाचा थे। इनके विषय में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। ये आगामी चौबीसी में सूर देव नाम के दूसरे तीर्थकर होंगे।
३. उदायी-यह कोणिक का पुत्र था। उसने अपने पिता की मृत्यु के बाद पाटलीपुत्र नगर बसाया और वहीं रहने लगा। जैन धर्म के प्रति उसकी परम आस्था थी। वह पर्व-तिथियों में पौषध करता और धर्म-चिन्ता में समय व्यतीत करता था। धार्मिक होने के साथ-साथ वह अत्यन्त पराक्रमी भी था। उसने अपने तेज से सभी राजाओं को अपना सेवक बना दिया था। वे राजा सदा यही चिंतन करते कि उदायी राजा जीवित रहते हुए हम सुखपूर्वक स्वच्छंदता से नहीं जी सकते।
एक बार किसी एक राजा ने कोई अपराध कर डाला। उदायी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर उसका राज्य छीन लिया। राजा वहां से पलायन कर शरण पाने अन्यत्र जा रहा था। बीच में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसका पुत्र भटकता हुआ उज्जयिनी नगरी में गया और राजा के पास रहने लगा। अवन्तीपति भी उदायी से क्रुद्ध था। दोनों ने मिलकर उदायी को मार डालने का षड्यन्त्र रचा।
वह राजपुत्र उज्जयिनी से पाटलीपुत्र आया और उदायी का सेवक बन रहने लगा। उदायी को यह मालूम नहीं था कि यह उसके शत्रु राजा का पुत्र है । वह राजकुमार उदायी का छिद्रान्वेषण करता रहा परन्तु उसे कोई छिद्र न मिला।
उसने जैन मुनियो को उदायी के प्रासाद में बिना रोक-टोक आते-जाते देखा। उसके मन में भी राजकुल में स्वच्छन्द प्रवेश पाने की लालसा जाग उठी। वह एक जैन आचार्य के पास प्रवजित हो गया। अब वह साधु-आचार का पूर्णत: पालन करने लगा। उसकी आचारनिष्ठा और सेवाभावना से आचार्य का मन अत्यन्त प्रसन्न रहने लगा। वे इससे अति प्रभावित हुए। किसी ने उसकी कपटता को नहीं आंका।
महाराज उदायी प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को पौषध करते थे और आचार्य उसको धर्मकथा सुनाने के लिए पास में रखते थे।
एक बार पौषध दिन में आचार्य सायंकाल उदायो के निवास-स्थान पर गए। वह प्रव्रजित राजपुत्र भी आचार्य के उपकरण ले उनके साथ गया। उदायी को मारने की इच्छा से उसने अपने पास एक तीखी कैची रख ली थी। किसी को इसका भेद मालूम नहीं था। वह साथ-साथ चला और उदायी के समीप अपने आचार्य के साथ बैठ गया।
आचार्य ने धर्मप्रवचन किया और सो गए। महाराज उदायी भी थक जाने के कारण वहीं भूमि पर सो गए। वह मुनि जागता रहा। रौद्र ध्यान में वह एकाग्र हो गया और अवसर का लाभ उठाते हुए अपनी कैची राजा के गले पर फेंक दी। राजा का कोमल कंठ छिद गया। कंठ से लहु बहने लगा।
वह पापी श्रमण वहां से बाहर चला गया । पहरेदारों ने भी उसे श्रमण समझकर नहीं रोका।
रक्त की धारा बहते-बहते आचार्य के संस्तारक तक पहुंच गई। आचार्य उठे। उन्होंने कटे हुए राजा के गले को देखा। वे अवाक रह गए। उन्होंने शिष्य को वहाँ न देखकर सोचा-'उस कपटी श्रमण का ही यह कार्य होना चाहिए, इसीलिए वह कहीं भाग गया है।' उन्होंने मन ही मन सोचा-'राजा की इस मृत्यु से जैन शासन कलकित होगा और सभी यह कहेंगे कि एक जैन आचार्य ने अपने ही श्रावक राजा को मार डाला। अतः मैं प्रवचन की ग्लानि को मिटाने के लिए अपने आप की घात कर डालू । इससे यह होगा कि लोग सोचेंगे-राजा और आचार्य को किसी ने मार डाला। इससे शासन बदनाम नहीं होगा।'
आचार्य ने अन्तिम प्रत्याख्यान कर उसी कैची से अपना गला काट डाला। प्रातःकाल सारे नगर में यह बात फैल गई कि राजा और आचार्य की हत्या उस शिष्य ने की है। वह कपटवेशधारी
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स्थान : टि०१८
किसी राजा का पुत्र होना चाहिए। सैनिक उसकी तलाश में गए, परन्तु वह नहीं मिला। राजा और आचार्य का दाहसंस्कार हुआ।
वह उदायीमारक श्रमण उज्जयिनी में गया और राजा से सारा वृतान्त कहा। राजा ने कहा – 'अरे दुष्ट ! इतने समय तक का श्रामण्य पालन करने पर भी तेरी जघन्यता नहीं गई ? तूने ऐसा अनार्य कार्य किया ? तेरे से मेरा क्या हित सध सकता है । चला जा तू मेरी आंखों के सामने मत रह ।' राजा ने उसकी अत्यन्त भर्त्सना की और उसे देश से निकाल डाला।
४ पोट्टिल अनगार - अनुत्तरोपपातिक में पोट्टिल अनगार की कथा है। उसके अनुसार ये हस्तिनागपुर के वासी थे। इनकी माता का नाम भद्रा था । इन्होंने बत्तीस पत्नियों को त्याग कर भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। अन्त में एक मास की संलेखना कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध हो गए। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में उनके भरत क्षेत्र में सिद्ध होने की बात कही है। इससे लगता है कि ये अनगार कोई अन्य हैं ।
५ दृढायु - इनके विषय में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है ।
६, ७ शंख तथा शतक - ये दोनों श्रावस्ती नगरी के श्रावक थे। एक बार भगवान् महावीर श्रावस्ती पधारे और Anta चैत्य में ठहरे। अनेक श्रावक-श्राविकाएं वन्दन करने आईं। भगवान् का प्रवचन सुना और सब अपने-अपने घर की ओर चले गए। रास्ते में शंख ने दूसरे श्रावकों से कहा-'देवानुप्रियो ! घर जाकर आहार आदि विपुल सामग्री तैयार करो । हम उसका उपभोग करते हुए पाक्षिक पर्व की आराधना करते हुए विहरण करेंगे।' उन्होंने उसे स्वीकार किया। बाद में शंख ने सोचा --- अशन आदि का उपभोग करते हुए पाक्षिक पौषध की आराधना करना मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है। मेरे लिए श्रेयस्कर यही होगा कि मैं प्रतिपूर्ण पौषध करूं ।'
वह अपने घर गया और अपनी पत्नी उत्पला को सारी बात बताकर पौषधशाला में प्रतिपूर्ण पौषध कर बैठ गया । इधर दूसरे श्रावक घर गए और भोजन आदि तैयार करा कर एक स्थान में एकत्रित हुए। वे शंख की प्रतीक्षा में बैठे थे। शंख नहीं आया तब शतक' को उसे बुलाने भेजा । पुष्कली शंख के घर आया और बोला- 'भोजन तैयार है । चलो, हम सब साथ बैठकर उसका उपभोग करें और पश्चात् पाक्षिक पौषध करें ।' शंख ने कहा- 'मैं अभी प्रतिपूर्ण पौषध कर चुका हूं अतः मैं नहीं चल सकता।' पुष्कली ने लौटकर श्रावकों को सारी बात कही । श्रावकों ने पुष्कली के साथ भोजन किया ।
प्रातःकाल हुआ । शंख भगवान् के चरणों में उपस्थित हुआ। भगवान् को वन्दना कर वह एक स्थान पर बैठ गया । दूसरे श्रावक भी आए । भगवान् को वन्दना कर उन सबने धर्मप्रवचन सुना ।
पश्चात् वे शंख के पास आकर बोले- इस प्रकार हमारी अवहेलना करना क्या आपको शोभा देता है ? भगवान् ने यह सुन उनसे कहा --शंख की अवहेलना मत करो। यह अवहेलनीय नहीं है। यह प्रियधर्मा और दृढ़धर्मा है । यह सुदृष्टि जागरिका' में स्थित है। *
सुलसा -- राजगृह में प्रसेनजित नामका राजा राज्य करता था। उसके रथिक का नाम नाग था। सुलसा उसकी भार्या थी । नाग सुलसा से पुत्र प्राप्ति के लिए इन्द्र की आराधना करता था। एक बार सुलसा ने उससे कहा- तुम दूसरा विवाह कर लो।' नाग ने कहा- 'मैं तुम्हारे से ही पुत्र चाहता हूं
1
एक बार देवसभा में सुलसा के सम्यक्त्व की प्रशंसा हुई। एक देव उसकी परीक्षा करने साधु का वेश बनाकर आया । सुलसा ने उसके आगमन का कारण पूछा। साधु ने कहा – 'तुम्हारे घर में लक्षपाक तैल है । वैद्य ने मुझे उसके सेवन के
१. परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६, पृष्ट १०४ १०६ । २. वृत्तिकार ने शतक की पहचान पुष्कली से की है( स्थानांगवृत्ति पत्र ४३२ पुष्कली नामा श्रमणोपासकः शतक इत्यपरनाम) भगवती ( १२1१ ) में पुष्कली का शतक नाम प्राप्त नहीं है । वृत्तिकार के सामने इसका क्या आधार रहा है, यह कहा नहीं जा सकता ।
३. जागरिकाएं तीन हैं
१. बुद्ध जागरिका - केवली की जागरणा ।
२. अबुद्ध जागरिका छद्मस्थ मुनियों की जागरणा ।
३. सुदृष्टि जागरिका -- श्रमणोपासकों की जागरणा । ४. विशेष विवरण के लिए देखें- भगवती १२१२०, २१ ।
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स्थान : टि०१६
लिए कहा है। वह मुझे दो।' सुलसा खुशी-खुशी घर में गई और तैल का पात्र उतारने लगी। देव-माया से वह गिरकर टूट गया। दूसरा और तीसरा पात्र भी गिरकर टूट गया। फिर भी सुलसा को कोई खेद नहीं हुआ । साधुरूप देव ने यह देखा और प्रसन्न होकर उसे बत्तीस गुटिकाएं देते हुए कहा-'प्रत्येक गुटिका के सेवन से तुम्हें एक-एक पुत्र होगा।' विशेष प्रयोजन पर तुम मुझे याद करना । मैं आ जाऊंगा।' यह कहकर देव अन्तर्हित हो गया।
सुलसा ने-'सभी गुटिकाओं से मुझे एक ही पूत्र हो'-ऐसा सोचकर सभी गुटिकाएं एक साथ खा ली। अब उदर में बत्तीस पुत्र बढ़ने लगे। उसे असह्य वेदना होने लगी। उसने कायोत्सर्ग कर देव का स्मरण किया, देव आया । सुलसा ने सारी बात कह सुनाई। देव ने पीड़ा शान्त की। उसके बत्तीस पुब हुए।
रेवती-एक बार भगवान् महावीर में ढिकग्राम नगर में आए। वहां उनके पित्तज्वर का रोग उत्पन्न हुआ और वे अतिसार से पीड़ित हुए। यह जनप्रवाद फैल गया कि भगवान महावीर गोशालक की तेजोलेश्या से आहत हुए हैं और छह महीनों के भीतर काल कर जाएंगे।
भगवान् महावीर के शिष्य मुनि सिंह ने अपनी आतापना तपस्या संपन्न कर सोचा--'मेरे धर्माचार्य भगवान् महावीर पित्तज्वर से पीड़ित हैं। अन्यतीथिक यह कहेंगे कि भगवान् गोशालक की तेजोलेश्या से आहत होकर मर रहे हैं। इस चिंता से अत्यन्त दुखित होकर मुनि सिंह मालुकाकच्छ वन में गए और सुबक-सुबक कर रोने लगे। भगवान् ने यह जाना
और अपने शिष्यों को भेजकर उसे बुलाकर कहा-'सिंह ! तूने जो सोचा है वह यथार्थ नहीं है। मैं आज से कुछ कम सोलह वर्ष तक केवली पर्याय में रहूंगा। जा, तू नगर में जा। वहां रेवती नामक श्राविका रहती है। उसने मेरे लिए दो कुष्माण्डफल पकाए हैं। वह मत लाना। उसके घर बिजोरापाक भी बना है। वह वायुनाशक है। उसे ले आना। वही मेरे लिए हितकर है।'
सिंह गया। रेवती ने अपने भाग्य की प्रशंसा करते हुए, मुनि सिंह ने जो मांगा, वह दे दिया। सिंह स्थान पर आया, महावीर ने बिजोरापाक खाया। रोग उपशान्त हो गया।
आगामी चौवीसी में इनका स्थान इस प्रकार होगा१. श्रेणिक का जीव पद्मनाभ नाम के प्रथम तीर्थंकर । २. सुपार्श्व का जीव सूरदेव नाम के दूसरे तीर्थकर । ३. उदायी का जीव सुपार्श्व नाम के तीसरे तीर्थंकर । ४. पोट्टिल का जीव स्वयंप्रभ नाम के चौथे तीर्थंकर । ५. दृढायु का जीव सर्वानुभूति नाम के पांचवें तीर्थकर। ६. शंख का जीव उदय नाम के सातवें तीर्थकर । ७. शतक का जीव शतकीति नाम के दसवें तीर्थकर। ८. सुलसा का जीव निर्ममत्व नाम के पन्द्रहवें तीर्थंकर।
इनमें से शंख और रेवती का वर्णन भगवती में प्राप्त है परन्तु वहां इनके भावी तीर्थकर होने का उल्लेख नहीं है। इनके कथानकों से यह स्पष्ट नहीं होता कि उनके तीर्थकरगोत्र बंधन के क्या-क्या कारण हैं।
१६. (सू० ६१)
उदकपेढालपुत्त-इनका मूल नाम उदक और पिता का नाम पेढाल था। ये उदकपेढालपुत्त के नाम से प्रसिद्ध थे। ये वाणिज्य ग्राम के निवासी थे। ये भगवान् पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए। एक बार ये नालन्दा के उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित हस्तिद्वीपवनषण्ड में ठहरे हुए थे। इन्हें श्रावक विषय पर विशेष संशय उत्पन्न हुआ। गणधर गौतम से संशय
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स्थान :: टि०१६
निवारण कर ये चतुर्याम धर्म को छोड़ पञ्चयाम धर्म में दीक्षित हो गए।
पोट्टिल और शतकइनका वर्णन ६।६० के टिप्पण में किया जा चुका है।
दारुक-वृत्तिकार के अनुसार ये वासुदेव के पुत्र थे तथा अरिष्टनेमि के पास दीक्षित हुए थे। उन्होंने इनके विशेष विवरण के लिए अनुत्तरोपपातिक सूत्र की ओर संकेत किया है। परन्तु उपलब्ध अनुत्तरोपपातिक में 'दारुक' नाम के किसी अनगार का विवरण प्राप्त नहीं है। अन्तकृत सूत्र के तीसरे वर्ग के बारहवें अध्ययन में दारुक अनगार का विवरण है। उनके पिता का नाम वासुदेव और माता का नाम धारणी था। वे यहां विवक्षित नहीं हो सकते। क्योंकि वे तो अन्तकृत हो गए और प्रस्तुत सूत्र में आगामी उत्सपिणी में सिद्ध होने वालों का कथन है। अतः ये कौन अनगार थे-इसको जानने के स्रोत उपलब्ध नहीं हैं।
सत्यकी---वैशाली गणतन्त्र के अधिपति महाराज चेटक की पत्नी का नाम सुज्येष्ठा था। वह प्रव्रजित हुई और अपने उपाश्रय में कायोत्सर्ग करने लगी।
वहां एक पेढाल परिव्राजक रहता था। उसे अनेक विद्याएं सिद्ध थीं। वह अपनी विद्या को देने के लिए योग्य व्यक्ति की खोज कर रहा था। उसने सोचा-यदि किसी ब्रह्मचारिणी स्त्री से पुत्र उत्पन्न हो तो ये विद्याएं बहुत कार्यकर हो सकती हैं। एक बार उसने साध्वी को कायोत्सर्ग में स्थित देखा। उसने मंत्र विद्या से धूमिका व्यामोह (वातावरण को धूमिल बनाकर) से साध्वी में वीर्य का निवेश किया। उसके गर्भ रहा। एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम सत्यकी रखा। एक बार वह साध्वी अपने पुत्र के साथ भगवान् के समवसरण में गई। उस समय वहां कालसंदीप नाम का विद्याधर आया और भगवान् से पूछा- 'मुझे किससे भय है ?' भगवान् ने सत्यकी की ओर इशारा करते हुए कहा-'इस सत्यकी से।' तब कालसंदीप उसके पास आकर अवज्ञा करते हुए बोला- 'अरे! तू मुझे मारेगा?' यह कह कर उसे अपने पैरों में गिराया।
___एक बार पेढाल परिव्राजक ने साध्वियों से सत्यकी को ले जाकर उसे विद्याएं सिखाईं। पांच जन्म तक वह रोहिणी विद्या द्वारा मारा गया। छठे जन्म में जब आयु-काल केवल छह महीनों का रहा तब उसने उसे साधना छोड़ दिया। सातवें जन्म में वह सिद्ध हुई। वह उस सत्यकी के ललाट में छेद कर शरीर में प्रवेश कर गई। देवता ने उस ललाट-विवर को तीसरी आंख के रूप में परिवर्तित कर दिया। सत्यकी ने देवता की स्थापना की। उसने काल सन्दीप को मार डाला और वह विद्याधरों का राजा हो गया। तब से वह सभी तीर्थंकरों को वंदना कर नाटक दिखाता हुआ विहरण कर रहा है।
अम्मड परिव्राजक–एक बार श्रमण भगवान महावीर चम्पा नगरी में समवसृत हुए। परिव्राजक विद्याधर श्रमणोपासक अम्मड ने भगवान् से धर्म सुनकर राजगृह की ओर प्रस्थान किया। उसे जाते देख भगवान् ने कहा- 'श्राविका सुलसा को कुशल समाचार कहना।' अम्मड ने सोचा---'पुण्यवती है सुलसा कि जिसको स्वयं भगवान् अपना कुशल समाचार भेज रहे हैं। उसमें ऐसा कौन-सा गण है ? मैं उसके सम्यक्त्व की परीक्षा करूंगा।'
अम्मड परिव्राजक के वेश में सुलसा के घर गया और बोला-'आयुष्मति ! मुझे भोजन दो, तुम्हें धर्म होगा।' सुलसा ने कहा- 'मैं जानती हूं किसे देने से धर्म होता है।'
अम्मड आकाश में गया, पद्मासन में स्थित होकर विभिन्न लोगों को विस्मित करने लगा। लोगों ने उसे भोजन के लिए निमन्त्रण दिया। उसने निमंत्रण स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। पूछने पर उसने कहा-'मैं सुलसा के यहां भोजन लूंगा।' लोग दौड़े-दौड़े गए और सुलसा को बधाइयां देने लगे। उसने कहा- मुझे पाखंडियों से क्या लेना है। लोगों ने अम्मड से यह बात कही। अम्मड ने कहा--यह परम सम्यग्दृष्टि है। इसके मन में व्यामोह नहीं है। वह तब लोगों को साथ ले सुलसा के घर गया। सुलसा ने उसका स्वागत किया। वह उससे प्रतिबद्ध हुआ।
१. सूवकृतांग २७ में यह विवरण प्राप्त है किन्तु वहां सिद्ध, बुद्ध
होने की बात नहीं है। अनुत्तरोपपातिक के तीसरे वर्ग के आठवें अध्ययन में पेढालपुत्त का वर्णन है। वहां उनका स्वार्थसिद्ध में उपपात, वहां से महाविदेह में सिद्ध होने की बात कही है।
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स्थान ६ : टि० २०-२६
वृत्तिकार ने बताया है कि औपपातिक सूत्र (४०) में अम्मड परिव्राजक के महाविदेह में सिद्ध होने की बात बताई है। वह कोई अन्य है।
सुपार्खा- यह पार्श्व की परम्परा में प्रव्रजित साध्वी थी।
समवायांग सूत्र २५८ में आगामी उत्सपिणी में होने वाले २४ तीर्थंकरों के नाम हैं। उसके अनुसार यहां उल्लिखित नामों में से छठा 'निर्ग्रन्थदारूक' और नौंवा 'आर्या सुपा को छोड़कर शेष सात तीर्थकर होंगे।
वृत्तिकार का अभिमत है कि इनमें से कुछ मध्यम तीर्थकर के रूप में तथा कई केवली के रूप में होंगे।
२०. पुण्ड (सू०६२)
विध्याचल के समीप का भूभाग।
२१. लक्षण-व्यञ्जन (सू० ६२)
लक्षण-सामुद्रिकशास्त्र में उक्त मनुष्य का मान, उन्माद आदि । शरीर पर चक्र आदि के चिह्न तथा रेखाएं। ये जन्मगत होते हैं।
व्यंजन- शरीर पर होने वाले मष, तिल आदि। ये जन्म के साथ या बाद में भी उत्पन्न होते हैं।'
२२-२४. मान-उन्मान-प्रमाण (सू०६२)
जल से भरे कुण्ड में उस पुरुष को उतारा जाता है जिसका 'मान' जानना होता है। उस पुरुष के अन्दर पैठने पर जितना जल कुंड से बाहर निकलता है, वह यदि एक द्रोण [१६ सेर] प्रमाण होता है, तब उस पुरुष को मानोपपन्न कहा जाता है।
उन्मान–तराज में तोलने पर जिस व्यक्ति का भार 'अर्द्धभार' [डेढ मन ढाई सेर] प्रमाण होता है, उस व्यक्ति को उन्मानोपपन्न कहा जाता है।
प्रमाण—जिस व्यक्ति की ऊंचाई अपने अंगुल से एक सौ आठ अंगुल होती है, उसे प्रमाणोपपन्न कहा जाता है।
२५-२६. भार और कुंभ (सू० ६२)
भार–चार तोले का एक पल होता है। दो हजार पलों का एक 'भार' होता है। चौसठ तोले का एक सेर मानने पर तीन मन पांच सेर का एक 'भार' होगा।
भार का दूसरा अर्थ है--एक पुरुष द्वारा उठाया जाने वाला वजन।'
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३४ : यश्चौपपातिकोपाङ्ग महाविदेहे
सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भाव्यते।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३४ : एतेषु च मध्यमतीर्थकरत्वेनो
त्पत्स्यन्ते केचित्केचित्तु केवलित्वेन ।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३८ : मान-जलद्रोणप्रमाणता, सा
ह्य व-जलभृते कुण्डे प्रमातव्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यज्जलं कुण्डान्निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषः
मानोपपन्न इत्युच्यते। ५. स्थानांगवत्ति, पत्र ४३८ : उन्मानं तुलारोपितस्यार्द्धभार
प्रमाणता। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३८ : प्रमाणं-आत्माङ्गुलेनाष्टोत्तर
शताङ्गुलोच्छ्यता। ७. स्थानांगवृत्ति, पब ४३८ : विंशत्या पलशतैर्भारो भवति अथवा
पुरुषोत्क्षेपणीयो भारो भारक इति ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३८ : लक्षणं--पुरुषलक्षणं शास्त्राभिहित...
व्यञ्जनं-मपतिलकादि......
माणुम्माणपमाणादि लक्खणं वंजणं तु मसमाई। सहजं च लक्खणं बंजणं तु पच्छा समुप्पन्न ।
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स्थान :: टि. २७-४०
कुंभ-बत्तीस सेर अथवा ३२४ ६४ = २०४८ तोलों का एक कुंभ होता है।
२७-२८. पूर्णभद्र और माणिभद्र (सू०६२)
पूर्णभद्र-दक्षिण यक्षनिकाय का इन्द्र। माणिभद्र-उत्तर यक्षनिकाय का इन्द्र।'
२६-३७. राजा सार्थवाह (सू० ६२)
राजा---यहां इसके द्वारा 'महामांडलिक' शब्द अभिप्रेत है। आठ हजार राजाओं के अधिपति को महामांडलिक कहा जाता है।
ईश्वर-इसके अनेक अर्थ हैं-युवराज, मांडलिक-चार हजार राजाओं का अधिपति, अमात्य अथवा अणिमा आदि आठ लब्धियों से युक्त ।
तलवर-कोतवाल । प्राचीन काल में राजा परितुष्ट होकर जिसे पट्टबंध से विभूषित करता था उसे तलवर कहा जाता था।"
माडंबिक-मडंब का अधिपति । जिसके आसपास कोई नगर न हो उसे 'मडंब' कहते हैं। कौटुम्बिक-कतिपय कुटुम्बों का स्वामी। इभ्य-धनवान् । जिसके पास इतना धन हो कि उसके धन के ढेर में छिपा हुआ हाथी भी न मिले । श्रेष्ठी--नगरसेठ। इसके मस्तक पर श्रीदेवी से अंकित सोने का एक पट्ट बंधा रहता था। सेनापति-हाथी, अश्व, रथ और पैदल-इन चतुर्विध सेनाओं का अधिपति । इसकी नियुक्ति राजा करता था।" सार्थवाह —सथवाडों का नायक ।
३८. भावना (सू० ६२)
पांच महाव्रत की पचीस भावनाएं हैं। इनके विवरण के लिए देखें-आयारचूला १५।४३-७८%; उत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ २६७, २९८ ।
३६-४०. फलकशय्या, काष्ठशय्या (सू० ६२)
फलकशय्या-पतले और लम्बे काष्ठ से बनी शय्या। काष्ठशय्या-मोटे और लम्बे काष्ठ से बनी शय्या।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३८ : कुम्भ आढकषष्ठ्यादिप्रमाणतः । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : पूर्णभद्रश्च-दक्षिणयक्षनिकायेन्द्रः । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : माणिभद्रश्च-उत्तरयक्ष
निकायेन्द्रः । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६: राजा महामांडलिकः । ५. वही, पन ४३६ : विलोयपण्णत्ती। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : ईश्वरो-युवराजो माण्डलिकोऽ
मात्यो वा, अन्ये च व्याचक्षते -अणिमाद्यष्टविध श्वर्ययुक्त
ईश्वर इति । ७. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : तलवर :--परितुष्टनरपतिप्रदत्त
पट्टबन्धनभूषितः ।
८. स्थानागवत्ति, पत्र ४३६ : माडम्बिक:--छिन्नमडम्बाधिपः । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : कौटुम्बिक:-कतिपयकुटुम्बप्रभुः । १०. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : इभ्यः- अर्थवान् । स च किल
यदीयपुजीकृतद्रव्यराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येता
बताऽर्थनेति भावः । ११. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : श्रेष्ठी-श्री देवताध्यासितसौवर्णपट्ट
भूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक् । १२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : सेनापतिः-नृपतिनिरूपितो हस्त्यश्व
रथपदातिसमुदायलक्षणा या: सेनायाः प्रभुरित्यर्थः । १३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६, सार्थवाहक:-सार्थनायकः ।
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स्थान ६ : टि० ४१-५६
ठाणं (स्थान)
८८६ ४१. लब्धापलब्धवृत्ति (सू० ६२)
सम्मानपूर्वक प्राप्त भिक्षा और असम्मानपूर्वक प्राप्त भिक्षा।
४२. आधार्मिक (सू० ६२)
श्रमण के लिए बनाया गया आहार आदि ।
४३-४८. औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिकर्म, क्रोत, प्रामित्य (सू० ६२)
देखें-दसवेआलियं ३।२ का टिप्पण।
४६-५०. आच्छेद्य, अनितृष्ट (सू० ६२)
आच्छेद्य-बलात् नौकर आदि से छीन कर साधु को देना।'
अनिसृष्ट--जो वस्तु अनेक व्यक्तियों के अधिकार की हो और उन व्यक्तियों में से एक या अधिक व्यक्ति उस वस्त को देना न चाहते हों, ऐसी वस्तु ग्रहण करना अनिसृष्ट दोष है।
५१. अन्याहृत (सू० ६२)
देखें-दसवेआलियं ३।२ का टिप्पण ।
५२-५६. कान्तारभक्त प्राघूर्णभक्त (सू० ६२)
कान्तारभक्त-प्राचीनकाल में मुनियों का गमनागमन सार्थवाहों के साथ-साथ होता था। कभी वे अटवी में साबू पर दया लाकर, उसके लिए भोजन बनाकर दे देते थे। इसे कान्तारभक्त कहा जाता है।
दुभिक्षभक्त-भयंकर दुष्काल होने पर राजा तथा अन्य धनाढ्य व्यक्ति भक्त-पान तैयार कर देते थे। वह दुर्भिक्षभक्त कहलाता था।
ग्लानभक्त-इसके तीन अर्थ हैं(१) आरोग्यशाला [अस्पताल में दिया जाने वाला भोजन। (२) आरोग्यशाला के बिना भी सामान्यत: रोगी को दिया जाने वाला भोजन।' (३) रोग के उपशमन के लिए दिया जाने वाला भोजन ।
बालिकाभक्त-आकाश में बादल छाए हुए हैं। वर्षा गिर रही है। ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जा सकते । यह सोचकर गृहस्थ उनके लिए विशेषत : दान का निरूपण करता है। वह बालिकाभक्त कहलाता है।
निशीथ चूणि में इसका अर्थ इस प्रकार हैसात दिनों तक वर्षा पड़ने पर राजा साधुओं के निमित्त भोजन बनवाता है।" प्राघूर्णभक्त-अतिथि को दिया जाने वाला भोजन। वृत्तिकार ने प्राघूर्णक के दो अर्थ किए हैं(१) आगन्तुक भिक्षुक (२) गृहस्थ ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : 'आच्छेद्य' बलाद् भृत्यादिसत्क
माच्छिद्य यत्स्वामी साध्वे ददाति । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : अनिसृष्टं साधारणं बहूनामेकादिना
अननुज्ञातं दीयमानम् । ३. निशीथ ।।६ चणि:--जंभिक्खं राया देति तं दुभिक्खजातं। ४. निशीथ ।६ चूणिः-आरोग्गसालाए वा विणावि आरोग्ग
सालाए जं गिलाणस्स दिज्जति तं गिलाणभक्तं ।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : रोगोपशान्तये यद्ददाति । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : बईलिका-मेघाडम्बरं तन हि
वृष्ट्या भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकलोको भवतीति गृही तदर्थ विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति । ७. निशीय ३६ चूर्णि:--सत्ताहबद्दले पडते भत्तं करेति राया
अपुब्बाणं वा अविधीण भत्तं करेति राया ।
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ठाणं (स्थान)
इसके आधार पर प्राघूर्ण भक्त के दो अर्थ होते हैं(१) आगन्तुक भिक्षुओं के निमित्त बनाया गया भोजन ।
(२) भिक्षुओं के लिए बनवाकर दूसरे गृहस्थ द्वारा दिया जाने वाला भोजन ।
निशीथ चूर्णि में इसका अर्थ है- राजा के मेहमान के लिए बनाया गया भोजन । '
वृत्तिकार ने कांतारभक्त आदि को आधाकर्म आदि के अन्तर्गत माना है ।
५८. राजपंड (सू०६२)
५७. शय्यातर पिंड ( सू० ६२ )
स्थानदाता का पिंड | इसके अन्तर्गत चारों प्रकार का आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन, सूचि, नखकर्त्तरी और कर्णशोधनी- ये भी स्थानदाता के हों तो वे भी शय्यातर पिंड के अन्तर्गत आते हैं ।'
विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं ३।५ का टिप्पण ।
देखें - दसवेलियं ३।२ का टिप्पण |
'वे ये हैं
५६. (सू०६३)
वृत्तिकार ने यहां मतान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार दस नक्षत्र चन्द्रमा का पश्चिम से योग करते हैं।
८६०
१. अश्विनी २. भरणी ३. श्रवण ४. अनुराधा ५. धनिष्ठा ६. रेवती ७. पुष्य ८. मृगशिर 8. हस्त १०. चिह्ना ।
६०. (सू०
६८)
शुक्र ग्रह समधरणीतल से नौ सौ योजन ऊपर भ्रमण करता है। उसके भ्रमण क्षेत्र को नौ वीथियों [ क्षेत्र विभागों । में विभक्त किया गया है। प्रत्येक वीथि में प्रायः तीन-तीन नक्षत्र होते हैं। भद्रबाहुसंहिता के अनुसार उनका वर्णन इस प्रकार है
-
१. नागवीथी - भरणी, कृत्तिका, अश्विनी ।
२. गजवीथी - मृगशिरा, रोहिणी, आर्द्रा । ३. ऐरावणपथ - पुष्या, आश्लेषा, पुनर्वसु ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : प्राघूर्णका - आगन्तुकाः भिक्षुका एव तदर्थं यद्भवतं तत्तथा, प्राघूर्णको वा गृही स यद्दापयति तदर्थं संस्कृत्य तत् तथा ।
२. निशीथ ६६ चूणिः- रण्णो को ति पाहुणगो आगतो तस्स भत्तं आदेसभत्तं ।
३. स्थानांगवृत्ति पत्र ४४३ : कान्तारभक्तादय आधाकर्मादि भेदा
एव ।
४ स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४४ ।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४४ मतान्तरं पुनरेवम्-
असिणिभरणी समणो अणुराधणिट्ठरेव ईपूसो । चित्ता पच्छिमजोगा मुणेयब्वा ||
स्थान : टि० ५७-६०
६. भद्रबाहु संहिता १५/४४-४८ :
0
• नागवीथीति विज्ञेया, भरणी कृत्तिकाविनी ।
सत्त्वानां रोहिणी चार्द्रा, गजवीथीति निर्दिशेत् ॥
ऐरावणपथं विन्द्यात् फाल्गुनौ च मघा चैव
पुष्याश्लेषा पुनर्वसुः । वृषवीथीसि संज्ञिता ।
• गोवीथी रेवती चैत्र द्वे च प्रोष्ठपदे तथा । जरद्गवपथं विद्याच्छ्रवणं वसु वारुणम् ॥
• अजवीथी विशाखा च चित्रा स्वाति करस्तथा । ज्येष्ठा मूलानुराधासु मृगवीथीति संज्ञिता ।। • अभिजिद्द्वै तथापाढे, वैश्वानरपथः स्मृतः ।
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ठा (स्थान)
४. वृषवीथी - उत्तरफल्गुनी, पूर्व फल्गुनी, मघा । ५. गोवीथी - रेवती, उत्तरप्रोष्ठपद, पूर्वप्रोष्ठपद । ६. जरद्गवपथ - श्रवणा, पुनर्वसु, शतभिषत् ।
७. अजवीथी - विशाखा, चित्रा, स्वाति, हस्त ।
८६१
८. मृगवीथी - ज्येष्ठा, मूला, अनुराधा ।
६. वैश्वानरपथ - अभिजित्, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा ।
स्थानांग वृत्तिकार ने भद्रबाहुकृत आर्याछन्द के श्लोकों का उद्धरण देकर नौ वीथियों के नक्षत्रों का उल्लेख किया है।" ये श्लोक प्रकाशित भद्रबाहु संहिता में उपलब्ध नहीं होते । यह अन्वेष्टव्य है कि वृत्तिकार ने ये श्लोक किस ग्रन्थ से उद्धृत किए हैं।
वृत्तिकार का अभिमत है कि कहीं-कहीं हह्यवीथी के स्थान पर नागवीथी और नागवीथी के स्थान पर ऐरावणपथ भी मिलता है।
विभिन्न वीथियों के नक्षत्रों के विषय में भी सभी एकमत नहीं हैं। वराहमिहिरकृत बृहत्संहिता तथा वाजसनेयी प्रातिसारूप आदि ग्रंथों में नक्षत्र विषयक मतभेद स्पष्ट दृग्गोचर होता है ।
शुक्र ग्रह जब इन वीथियों में विचरण करता है तब होने वाले लाभ अलाभ की चर्चा करते हुए वृत्तिकार ने भद्रबाहुकृत दो ब्लोक उद्धृत किए हैं। उनके अनुसार जब शुक्र ग्रह प्रथम तीन वीथियों में विचरण करता है तब वर्षा अधिक, धान्य सुलभ और धन की वृद्धि होती है । जब वह मध्य की तीन वीथियों में विचरण करता है तब धन-धान्य आदि मध्यम होते हैं और जब वह अन्तिम तीन वीथियों में विचरण करता है, तब लोकमानस पीड़ित होता है, अर्थ का नाश होता है। भद्रबाहुसंहिता के पन्द्रहवें अध्याय में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है ।
स्थान : टि० ६१
६१. ( सू० ६९ )
'नो' शब्द के कई अर्थ होते हैं— निषेध, आंशिक निषेध, साहचर्य आदि । प्रस्तुत प्रसंग में उसका अर्थ है - साहचर्यं । क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चार कषाय हैं । प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं--अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन | इन सोलह कषायों के साहचर्य से जो कर्म उदय में आते हैं, उन्हें नोकपाय कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में वे निर्दिष्ट हैं। जैसे बुध ग्रह स्वयं कुछ भी फल नहीं देता है, किन्तु दूसरे ग्रहों के साथ रहकर अपना फल देता है, इसी प्रकार ये नोकषाय भी मूल कषायों के साथ रहकर फल देते हैं ।
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४४५
जो कर्म नोकषाय के रूप में अनुभूत होते हैं वे नोकषायवेदनीय कहलाते हैं। वे नौ हैं
(१) स्त्रीवेद - शरीर में पित्त के प्रकोप से मीठा खाने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। उसी प्रकार इस कर्म के उदय से स्त्री की पुरुष के प्रति अभिलाषा होती है ।
(२) पुरुषवेद- शरीर में श्लेष्म के प्रकोप से खट्टा खाने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। उसी प्रकार इस कर्म के उदय से पुरुष की स्त्री के प्रति अभिलाषा होती है।
(३) नपुंसकवेद – शरीर में पित्त और श्लेष्म – दोनों के प्रकोप से भुने हुए पदार्थों को खाने की इच्छा उत्पन्न
भरणी स्वत्याग्नेयं नागाख्या वीथिरुत्तरे मार्गे । रोहिण्यादिरिभाख्या चादित्यादिः सुरगजाख्या ।। वृषभाख्या पत्र्यादिः श्रवणादि मध्यमे जरद्गवाख्याः । प्रोष्ठपदादि चतुष्के गोवीथि स्तासु मध्यफलम् ॥ अजवीथी हस्तादि र्मृगवीथी वैन्द्रदेवतादि स्यात् । दक्षिणमार्गे वैश्वानर्ध्यापाढद्वयं
ब्राह्म्यम् ॥
२. वही, पत्र ४४५ या चेह हयवीथी साऽन्यत्न नागवीथीति रूहा नागवीथी चैरावणपदमिति ।
३. वही, पत्र ४४५ :
एतासु भूगुविचरति नागगजैरावतीषु वीथिषु चेत् । बहु वर्षेत् पर्जन्यः सुलभीषधयोऽर्थवृद्धिश्च ॥ पशुसंज्ञासु च मध्यमशस्यफलादियंदा चरेद् भृगुजः । अजमृगवैश्वानरवीथिष्वर्थ'भयादितो लोकः ।।
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ठाणं (स्थान)
८६२
होती है। उसी प्रकार इस कर्म के उदय से नपुंसक व्यक्ति के मन में स्त्री और पुरुष के प्रति अभिलाषा होती है।
( ४ ) हास्य- इस कर्म के उदय से सनिमित्त या अनिमित्त हास्य उत्पन्न होता है। (५) रति- इस कर्म के उदय से पदार्थों के प्रति रुचि उत्पन्न होती है । (६) अरति - इस कर्म के उदय से पदार्थों के प्रति अरुचि उत्पन्न होती है । ( ७ ) भय - इस कर्म के उदय से सात प्रकार का भय उत्पन्न होता है ।
(८) शोक - इस कर्म के उदय से आक्रन्दन आदि शोक उत्पन्न होता है ।
(e) जुगुप्सा - इस कर्म के उदय से जीव में घृणा के भाव उत्पन्न होते हैं । '
तत्त्वार्थं ८।६ में 'नोकषाय' के स्थान पर 'अकषाय' शब्द का प्रयोग है। यहां 'अ' निषेध अर्थ में नहीं किन्तु ईषद्
अर्थ में प्रयुक्त है ।' अकषाय वेदनीय के नौ प्रकारों का वर्णन इस प्रकार है
( १ ) हास्य- इसके उदय से हास्य की प्रवृत्ति होती है।
(२) रति- इसके उदय से देश आदि को देखने की उत्सुकता उत्पन्न होती है ।
स्थान : टि०६१
(३) अरति - इसके उदय से अनोत्सुक्य उत्पन्न होता है।
(४) भय - इसके उदय से उद्वेग उत्पन्न होता है। उद्वेग का अर्थ है भय । वह सात प्रकार का होता है ।
(५) शोक - इसका परिणाम चिन्ता होता है ।
(६) जुगुप्सा -- इसके उदय से व्यक्ति अपने दोषों को ढांकता है।
(७) स्वीवेद - इसके उदय से मृदुता, अस्पष्टता, बलीवता, कामावेश, नेत्रविभ्रम, आस्फालन और पुंस्कामिता आदि स्त्रीभावों की उत्पत्ति होती है ।
(८) पुंवेद - इसके उदय से पुंस्त्वभावों की उत्पत्ति होती है ।
( 8 ) नपुंसक वेद - इसके उदय से नपुंसकभावों की उत्पत्ति होती है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४५
२. तत्त्वार्थवार्तिक, पृष्ठ ५७४ ईपदर्थत्वात् नमः । ३. वही, पृष्ठ ५७४ ।
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दसमं ठाणं
दशम स्थान
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आमुख
इसमें एक सौ अठहत्तर सूत्र हैं। इन सूत्रों में विषयों की बहुविधता है। सूत्र (९३)में दस प्रकार के शस्त्रों का उल्लेख है । अग्नि, विष, नमक, स्नेह, क्षार तथा अम्लता--ये छह द्रव्य शस्त्र हैं तथा मन को दुष्प्रवृत्ति, वचन को दुष्प्रवृत्ति, काया की दुष्प्रवृत्ति तथा मन की आसक्ति-ये चार भावशस्त्र हैं।
इसके पन्द्रहवें सूत्र में प्रव्रज्या के दस प्रकार बतलाए हैं। वास्तव में ये सब प्रव्रज्या के कारण हैं। प्रव्रज्या ग्रहण के अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें से यहां दस कारणों का संकलन किया गया है। आगमकार ने उदाहरणों का कोई उल्लेख नहीं किया है। टीकाकार ने उदाहरणों का नामोल्लेख मान किया है। हमने अन्यान्य स्रोतों से उन उदाहरणों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है, देखें-टिप्पण संख्या ६ ।
इसके सत्तरहवें सूत्र में वैयापृत्य या वयावृत्य का उल्लेख है। वैयावृत्य का अर्थ है-सेवा करना और वयापृत्य का अर्थ है-कार्य में व्याप्त करना । सेवा संगठन का अटूट सूत्र है। सेवा दो प्रकार की होती है- शारीरिक और चैतत्तिक । शारीरिक अस्वस्था को सरलता से मिटाया जा सकता है किन्तु चैतसिक अस्वस्था को मिटाने के लिए धृति और उपाय की आवश्यकता होती है । इस सूत्र में दोनों का सुन्दर वर्णन है, देखें-टिप्पण संख्या ८।।
सूत्र (९६) में वचन के अनुयोग के दस प्रकार बतलाए हैं। इनसे शब्दों के अर्थों को समझने का विज्ञान प्राप्त होता है । एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । उनको समझने के लिए वचन के अनुयोग का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, देखेंटिप्पण संख्या ३६।
भारतीय संस्कृति में दान की परम्परा बहुत प्राचीन है। दान देने के अनेक कारण बनते हैं। कुछ व्यक्ति भय से दान देते हैं, कुछ ख्याति के लिए और कुछ दया से प्रेरित होकर। प्रस्तुत सूत्र (९७) में दस दानों का निरूपण तत्कालीन समाज में प्रचलित प्रेरणाओं का इतिहास प्रस्तुत करता है, देखें-टिप्पण ३७ ।
सूत्र (१०३) में भगवान महावीर के दस स्वप्नों का सुन्दर वर्णन है।
इस स्थान में यत्र-तन्त्र विज्ञान सम्बन्धी तथ्यों का भी उद्घाटन हुआ है। जैन परम्परा में आहारसंज्ञा, भयमंज्ञा आदि दस संज्ञाएँ मान्य रही हैं। संज्ञा के दो अर्थ होते हैं- संवेगात्मक ज्ञान या स्मृति तथा मनोविज्ञान । इन दस संज्ञाओं में आठ संज्ञाएँ संवेगात्मक हैं और दो संज्ञाएँ-लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा ज्ञानात्मक हैं।
आज का विज्ञान छठी इन्द्रिय की कल्पना करता है। उसकी तुलना ओधसंज्ञा से की जा सकती है। विस्तार के लिए देखें-टिप्पण ४४ ।
इस स्थान में विभिन्न आगमों का विवरण प्राप्त होता है. जो आज अप्राप्त है। सून (११०) में दस दशाओं का कथन है, ऐसे दस आगमों का कथन है जिनमें दस-दस अध्ययन हैं। प्रथम छह दशाओं का विवरण आज भी प्राप्त है किन्तु अन्तिम चार-बंधदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा और संक्षेपिकदशा का कोई भी विवरण प्राप्त नहीं है । वृत्तिकार शीलांक सुरि भी 'अस्माकं अप्रतीताः' इतना कहकर विराम ले लेते हैं। इसका अभिप्रायः यही है कि विक्रम की वारहवीं शती तक आतेआते ये चारों ग्रन्थ अविदित हो गए थे।
सूत्र (११६) में प्रश्नव्याकरण सूत्र के दस अध्ययनों का उल्लेख है। इनके आधार पर समूचे सूत्र के विषयों की परिकल्पना की जा सकती है। वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण इससे सर्वथा भिन्न है। इसके रूप का निर्णय कब हुआ,
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ठाणं (स्थान)
८६६
स्थान १० : आमुख किसने किया, यह ज्ञात नहीं है। इतना निश्चित है कि यह अर्वाचीन कृति है और नामसाम्य के कारण इसका समावेश आगम सूची में कर लिया गया।
इसी प्रकार आगम ग्रन्थों की विशेष जानकारी के लिए टिप्पण ४५ से ५५ द्रष्टव्य हैं।
कुछेक सूत्रों में सामाजिक विधि-विधानों का भी सुन्दर निरूपण हुआ है। सूत्र (१३७) में दस प्रकार के पन्नों का उल्लेख है। इनकी व्याख्याएँ विभिन्न प्रकार की सामाजिक विधियों की ओर संकेत करती हैं। 'क्षेत्रज' पुत्र की व्याख्या में बताया गया है कि किसी स्त्री का पति मर गया है, अथवा वह नपुंसक या सन्तानावरोधक व्याधि से ग्रस्त है तो कुल के मुख्यों की आज्ञा से उस स्त्री में, नियोग विधि से, सन्तान उत्पन्न करना भी वैध माना जाता था। इस विधि से उत्पन्न सन्तान को 'क्षेत्रज पुत्र' कहा जाता है । मनुस्मृति में बारह प्रकार के पुत्रों का उल्लेख हुआ है। विशेष विवरण के लिए देखें टिप्पण५८।
सूत्र (१३५) में दस प्रकार के धर्मों का उल्लेख है। 'धर्म' आज चर्चा का विषय बन चुका है। इस सूत्र में धर्म और कर्तव्य का पृथक निर्देश बहुत सुन्दर ढंग से हुआ है।
सूत्र (१६०) में दसों आश्चर्यों का वर्णन है। आश्चर्य का अर्थ है---कभी-कभी घटित होने वाली घटना । इनमें से १, २, ४, और ६ भगवान महावीर के समय में और शेष भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों के समय में हुए हैं। इन दसों आश्चर्यों की पृष्ठभमि में अनेक ऐतिहासिक तथ्य गर्भित हैं। इनमें दूसरा आश्चर्य है-भगवान महावीर का गर्भापहरण । इसके सन्दर्भ में अनेक तथ्यों को जानकारी प्राप्त होती है। विशेष विवरण के लिए देखें-टिप्पण ६१ ।
इस स्थान में भी पूर्ववत् विषयों की बहुविधता है। मुख्य रूप से इसमें न्याय शास्त्र के अनेक स्थल, गणित शास्त्र मुख्य भेदों का उल्लेख, वचनानुयोग के प्रकार तथा गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग के अनेक सूत्र संकलित हैं । दसवां स्थान होने के कारण इसमें प्रत्येक विषय का कुछ विस्तार से वर्णन हुआ है। इसी प्रकार जीव विज्ञान से सम्बन्धित दस प्रकार के सूक्ष्नों का अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । शब्द विज्ञान के विषय में दस प्रकार के शब्द, दस प्रकार के अतीत के इन्द्रिय-विषय, दस प्रकार के वर्तमान के इन्द्रिय-विषय तथा दस प्रकार के अनागत इन्दिय-विषय-ये चारों सूत्र बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । ये इस बात की ओर संकेत करते हैं कि जो भी शब्द बोला जाता है उसकी तरंगें आकाशिक रिकार्ड में अंकित हो जाती हैं। इसके आधार पर भविष्य में उन तरंगों के माध्यम से उच्चारित शब्दों का संकलन किया जा सकता है।
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दसमं ठाणं
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
लोकस्थिति-पद १. लोकस्थिति दस प्रकार की है---
१. जीव बार-बार मरते हैं और वहीं लोक में बार-बार प्रत्युत्पन्न होते हैं....यह एक लोकस्थिति है।
२. जीवों को सदा, प्रशिक्षण पापकम [ज्ञानावरण आदि ] का बंध होता हैयह एक लोकस्थिति है। ३.जीवों के सदा, प्रतिक्षण मोहनीय पापकर्म का वंध होता है-यह एक लोक
लोगट्ठिति-पदं
लोकस्थिति-पदम् १. दस दिवा लोगद्विती पण्णत्ता, तं दशविधा लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता, जहा
तद्यथा१. जगणं जीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता १. यत् जीवा अपद्राय-अपद्राय तत्रैवतत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चा- तत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजायन्ते...एवयंति-एवंप्पेगा लोगडिती मप्येका लोकस्थितिः प्रज्ञता । पण्णत्ता। २. जण जीवाणं सया समितं पावे २. यत जीवैः सदा समितं पापं कर्म कम्मे कज्जति-एवंप्पेगा लोगट्टिती क्रियते एवमप्येका लोकस्थितिः । पणता।
प्रज्ञप्ता । ३. जगणं जीवाणं सया समितं ३. यत् जीवैः सदा समितं मोहनीयं मोहणिज्जे पावे कम्मे कज्जलि- पापं कर्म क्रियते...एवमप्येका लोकएवंपेगा लोगद्वितीपण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ४. ण एवं भतं दा भन्दा ४.न एवं भतं वा भाव्यं वा भविष्यति भविस्सति वा जं जीवा अजीवा वा यज्जीवा अजीवा भविष्यन्ति, भविस्संति, अजीवा वा जीवा अजीवा वा जीवा भविष्यन्ति एवभविस्संति एवंप्पेगा लोगद्विती मप्येका लोकास्थिति: प्रज्ञप्ता। पण्णता। ५. ण एवं भूतं वा भव्वं वा ५. न एवं भूतं वा भाव्यं वा भविष्यति भविस्सति वा जं तसा पाणा वा यत् त्रसाः प्राणा व्यवच्छेत्स्यन्ति वोच्छिज्जिस्संति थावरा पाणा स्थावराः प्राणाः भविष्यन्ति, स्थावराः भविस्संति, थावरा पाणा वोच्छि- प्राणाः व्यवच्छेत्स्यन्ति त्रसा: प्राणाः ज्जिस्संति तसा पाणा भविस्संति- भविष्यन्ति-एवमप्येका लोकस्थितिः एवंप्पेगा लोगद्विती पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । ६. ण एवं भूतं वा भव्वं वा ६.न एवं भूतं वा भविष्यति वा यत् भविस्सति वा जं लोगे अलोगे लोकोऽलोको भविष्यति, अलोको वा भविस्सति, अलोगे वा लोंगे लोको भविष्यति एवमप्येका लोकभविस्सति—एवंप्पेगा लोगड़िती स्थितिः प्रज्ञप्ता । पण्णत्ता।
४. न ऐया कभी हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न ऐसा कभी होगा कि जीव जजीव हो जाए और अजीव जीव हो जाए---यह एक लोकस्थिति है।
५. न ऐसा कभी हुआ, न ऐसा हो रहा है और न ऐसा कभी होगा कि वस जीवों का व्यवच्छेद हो जाए और सब जीव स्थावर हो जाएं, स्थावर जीवों का व्यवच्छेद हो जाए और सब जीव त्रस हो जाएं ---यह एक लोकस्थिति है। ६. न ऐसा कभी हुआ, न ऐसा हो रहा है और न ऐसा कभी होगा कि लोक अलोक हो जाए और अलोक लोक हो जाएयह एक लोकस्थिति है।
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स्थान १०:सूत्र २
७. न ऐसा कभी हुआ, न ऐसा हो रहा है और न ऐसा कभी होगा कि लोक अलोक में प्रविष्ट हो जाए और अलोक लोक में प्रविष्ट हो जाए—यह एक लोकस्थिति
८. जहां लोक है वहां जीव है और जहां जीव है वहां लोक है-यह एक लोकस्थिति है।
ठाणं (स्थान)
८१८ ७. ण एवं भूतं वा भव्वं भविस्सति ७. न एवं भूतं वा भाव्यं वा भविष्यति वा जं लोए अलोए पविस्सति, वा यल्लोक: अलोके प्रवेक्ष्यति, अलोकः । अलोए वा लोए पविस्सति- वा लोके प्रवेक्ष्यति एवमप्येका लोकएवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ८. जाव ताव लोगे ताव ताव ८. यावत् तावत् लोकः तावत्जीवा, जाव ताव जीवा ताव ताव तावज्जीवाः, यावत् तावत् लोए–एवंप्पेगा लोगद्विती जीवास्तावत्तावल्लोक:—एवमप्येका पण्णत्ता।
लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. जाव ताव जीवाण य पोग्ग- ६. यावत् तावज्जीवानां च पुद्गलानाञ्च लाण य गतिपरियाए ताव ताव गतिपर्यायः तावत् तावल्लोकः, यावत् लोए, जाव ताव लोगे ताव ताव तावल्लोक: तावत् तावज्जीवानाञ्च जीवाण य पोग्गलाण य गति- पुद्गलानाञ्च गतिपर्यायः-एवमप्येका परियाए-एवं-पेगा लोगद्विती लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता। पण्णत्ता। १०. सव्वेसुवि णं लोगतेसु अबद्ध- १०. सर्वेष्वपि लोकान्तेषु अबद्धपार्श्वपासपुट्ठा पोग्गला लुक्खत्ताए स्पृष्टाः पुद्गला: रूक्षतया क्रियन्ते, येन कज्जंति, जेणं जीवा य पोग्गला जीवाश्च पुद्गलाश्च नो शक्नुवन्ति य णो संचायति बहिया लोगंता बहिस्ताल्लोकान्तात् गमनतायै—एवगमणयाए–एवंप्पेगा लोगट्टिती मप्येका लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता। पण्णत्ता।
६. जहां जीव और पुद्गलों का गतिपर्याय है वहां लोक है और जहां लोक है वहां जीव और पुद्गलों का गतिपर्याय हैयह एक लोकस्थिति है।
१०. समस्त लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रूक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्धपार्श्वस्पृष्ट [अबद्ध और अस्पृष्ट] होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रूक्ष हो जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते—यह एक लोकस्थिति है।
इन्द्रियार्थ-पद २. शब्द के दस प्रकार हैं
इंदियत्थ-पदं २. दसविहे सद्दे पण्णत्ते, तं जहा
संगह-सिलोगो १. णीहारि पिडिमे लुक्खे, भिण्णे जज्जरिते इ य। दोहे रहस्से पुहत्ते य, काकणी खिखिणिस्सरे ॥
इन्द्रियार्थ-पदम् दशविधः शब्दः प्रज्ञप्तः, तद्यथासंग्रह-श्लोक १. निर्हारी पिण्डिमः रूक्षः, भिन्नः जर्जरितोऽपि च । दीर्घः ह्रस्वः पृथक्त्वश्च, काकणी किंकिणीस्वरः ।।
१. निर्हारी-घोषवान् शब्द, जैसेघण्टा का। २. पिण्डिम-घोषवजित शब्द, जैसे-नगाड़े का।३. रूक्ष-जैसे-कौवे का। ४. भिन्न-वस्तु के टूटने से होने वाला शब्द। ५. जर्जरित—जैसे—तार वाले बाजे का शब्द। ६. दीर्घ'—जो दूर तक सुनाई दे, जैसे—मेघ का शब्द । ७. ह्रस्व-सूक्ष्म शब्द, जैसे-वीणा का। ८.पृथक्त्व-अनेक बाजों का संयुक्त शब्द। ६. काकणी-काकली, सूक्ष्मकण्ठों की गीतध्वनि। १०. किंकिणी स्वर-घूघरों की ध्वनि।
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ठाणं (स्थान)
३. दस इंदियत्था तीता पण्णत्ता, तं दश इन्द्रियार्थाः अतीताः प्रज्ञप्ताः,
जहा ---
देसेणवि एगे सद्दाई सुणिसु । सव्वेणवि एगे सद्दाई सुणिसु । देसेण वि एगे ख्वाइं पासिसु । सव्वेवि एगे रुवाइं पासिसु । • देसेणवि एगे गंधाई जिधिसु । सव्वेणवि एगे गंधाई जिधिसु । देसेणवि एगे रसाई आसादेंसु । सव्वेणवि एगे रसाई आसादेंसु । देवि एगे फासाई पडिवे देंसु । सव्वेण वि एगे फासाई प डिसंवेदसु
।
४. दस इंदियत्था पडुप्पण्णा पण्णत्ता, तं जहा - देसेणवि एगे सद्दाई सुर्णेति । सव्वेणवि एगे सद्दाई सुर्णेति । • देसेणवि एगे रुवाई पासंति । सव्वेणवि एगे रुवाई पासंति । देसेणवि एगे गंधाई जिघंति । सव्वेणवि एगे गंधाई जिघंति । देसेणवि एगे रसाई आसादेति । सव्वेवि एगे रसाई आसादेति । देवि एगे फासाई पडसंवेदेति । सव्वेण वि एगे फासाई पडिसंवेदेति ।
८६६
तद्यथा—
देशेनापि एके शब्दान् अश्रौषुः । सर्वेणापि एके शब्दान् अश्रौषुः । देशेनापि एके रूपाणि अद्राक्षुः । सर्वेणापि एके रूपाणि अद्राक्षुः । देशेनापि एके गन्धान् अघ्रासिषुः । सर्वेणापि एके गन्धान् अघ्रासिषुः । देशेनापि एके रसान् अस्वादिषत । सर्वेणापि एके रसान् अस्वादिषत । देशेनापि एके स्पर्शान् प्रतिसमवेदयन् । सर्वेणापि एके स्पर्शान् प्रतिसमवेदयन् ।
दश इन्द्रियार्थाः प्रत्युत्पन्नाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-देशेनापि एके शब्दान् शृण्वन्ति । सर्वेणापि एके शब्दान् शृण्वन्ति । देशेनापि एके रूपाणि पश्यन्ति । सर्वेणापि एके रूपाणि पश्यन्ति । देशेनापि एके गन्धान् जिघ्रन्ति । सर्वेणापि एके गन्धान् जिघ्रन्ति । देशेनापि एके रसान् आस्वदन्ते । सर्वेणापि एके रसान् आस्वदन्ते । देशेनापि एके स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति । सर्वेणापि एके स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति ।
स्थान १० : सूत्र ६२
३. इन्द्रियों के अतीतकालीन विषय दस हैं ---- १. किसी ने शरीर के एक भाग से भी शब्द सुने थे।
२. किसी ने समस्त शरीर से भी शब्द सुने थे ।
३. किसी ने शरीर के एक भाग से भी रूप देखे थे ।
४. किसी ने समस्त शरीर से भी रूप देखे थे ।
५. किसी ने शरीर के एक भाग से भी गंध सूंघे थे ।
६. किसी ने समस्त शरीर से भी गंध सूंघे थे ।
७. किसी ने शरीर के एक भाग से भी रस चखे थे ।
८. किसी ने समस्त शरीर से भी रस चखे थे ।
६. किसी ने शरीर के एक भाग से भी स्पर्शो का संवेदन किया था।
१०. किसी ने समस्त शरीर से भी स्पर्शो का संवेदन किया था ।
४. इन्द्रियों के वर्तमानकालीन विषय दस हैं-१. कोई शरीर के एक भाग से भी शब्द सुनता है ।
२. कोई समस्त शरीर से भी शब्द सुनता है |
३. कोई शरीर के एक भाग से भी रूप देखता है ।
४. कोई समस्त शरीर से भी रूप देखता है |
५. कोई शरीर के एक भाग से भी गंध सूंघता है।
६. कोई समस्त शरीर से भी गंध संघता है ।
७. कोई शरीर के एक भाग से भी रस चखता है ।
८. कोई समस्त शरीर से भी रस चखता है ।
६. कोई शरीर के एक भाग से भी स्पर्शो
का संवेदन करता है।
१०. कोई समस्त शरीर से भी स्पर्शो का संवेदन करता है ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०: सूत्र ५-६
५. दस इंदियत्था अणागता पण्णत्ता, दश इन्द्रियार्थाः अनागताः प्रज्ञप्ताः, ५-इन्द्रियों के भविष्यत्कालीन विषय दस तं जहा
तद्यथादेसेणवि एगे सद्दाई सुणिस्संति। देशेनापि एके शब्दान् श्रोष्यन्ति । १. कोई शरीर के एक भाग से भी शब्द सव्वेणवि एगे सद्दाई सुणिस्संति। सर्वेणापि एके शब्दान् श्रोष्यन्ति । सुनेगा। 'देसेणवि एगे रूवाई पासिस्संति। देशेनापि एके रूपाणि द्रक्ष्यन्ति । २. कोई समस्त शरीर से भी शब्द सुनेगा। सज्वेणवि एगे रूबाइं पासिस्संति। सर्वेणापि एके रूपाणि द्रक्ष्यन्ति । ३. कोई शरीर के एक भाग से भी रूप देखणवि एगे गंधाई जिधिरसंति। देशेनापि एके गन्धान् घ्रास्यन्ति । देखेगा। सवेणापि एगे गंवाई जिपित्संति। सर्वगापि एके गन्धान प्रास्यन्ति । ४. कोई समस्त शरीर से भी न देखेगा। देसेणवि एगे रसाइं आसादेस्संति। देशेनापि एके रसान् आस्वदिष्यन्ति । ५. कोई शरीर के एक भाग से भी गंध सवेणवि एगे रसाई आसादेस्संति। सर्वेशापि एके रसान् आस्वदिष्यन्ति । सूंधेगा। देसेणनि एगे फासाई पडि- देशेनापि एके स्पर्शान
६. कोई समस्त शरीर से भी गंध सूबेगा। संवेदेस्संति। प्रतिसंवेदयिष्यन्ति !
७. कोई शरीर के एक भाग से भी रस सध्वनि एगे हासाई पडि- सर्वेगापि एके स्पर्शान्
चलेगा। संवेदेति । प्रतिसंवेदयिष्यन्ति।
5. कोई समस्त शरीर से भी रस चलेगा। ६.कोई शरीर के एक भाग से भी स्पों का संवेदन करेगा। १०. कोई समस्त शरीर से भी स्पों का संवेदन करेगा।
अच्छिणा-पोग्गल-चलण-पदं अच्छिन्न-पुद्गल-चलन-पदम् ६. सहि ठाहि अच्छिण्णे पोग्गले दशभिः स्थानः अच्छिन्नः पुद्गलः चलेत, घलेज्जा, तं जहा
तद्यथाआहारिज्जमाणे वा चलेज्जा। आहियमाणो वा चलेत् । परिणामेज्जमाणे वा चलेजा। परिणम्यमानो वा चलेत । उत्सासिज्यमाणे वा चलेज्जा। उच्छ्वस्यमानो वा चलेत् । जिस्सलिज्जमाणे वा चलेज्जा। निःश्वस्यमानो वा चलेत् । वेदेज्जमाणे वा चलेज्जा। वेद्यमानो वा चलेत् । णिज्जरिज्जमाणे वा चलेज्जा। निर्जीर्यमाणो वा चलेत। विउविज्जमाणे वा चलेज्जा। विक्रयमाणो वा चलेत् । परियारिज्जमाणे वा चलेज्जा। परिचार्यमाणो वा चलेत्। जक्खाइ8 वा चलेज्जा। यक्षाविष्टो वा चलेत् । वातपरिगए वा चलेज्जा। वातपरिगतो वा चलेत् ।
अच्छिन्न-पुद्गल-चलन-पद ६. दस स्थानों से अच्छिन्न स्कंध से संलग्न ] पुदाल चलित होता है - १.आहार के रूप में लिया जाता हुआ पुद्गल चलित होता है। २. आहार के रूप में परिणत किया जाता हुआ पुद्गल चलित होता है। ३. उच्छ्वास के रूप में लिया जाता हआ पुद्गल चलित होता है। ४. निश्वास के रूप में लिया जाता हुआ पुद्गल चलित होता है। ५. वेद्यमान पुद्गल चलित होता है। ६. निर्जीयमान पुद्गल चलित होता है। ७. वैक्रिय शरीर के रूप में परिणममान पुद्गल चलित होता है।
परिचारणा संभोग] के समय पुद्गल चलित होता है। ६. शरीर में यक्ष के प्रविष्ट होने पर पुद्गल चलित होता है। १०. देहगत वायु या सामान्य वायु की प्रेरणा से पुद्गल चलित होता है।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०: सूत्र ७
कोधुप्पत्ति-पदं क्रोधोत्पत्ति-पदम्
क्रोधोत्पत्ति-पद ७. दसहि ठाणेहि कोधुप्पत्ती सिया, दशभिः स्थानः क्रोधोत्पत्तिः स्यात्, ७. दस कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती हैतं जहातदयथा
१. अमुक व्यक्ति ने मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, मणुषणाई मे सह-फरिस-रस-रूव- मनोज्ञान् मे शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् रस, रूप और गंध का अपहरण किया गंधाई अवहरिसु। अपाहार्षीत् ।
था। अमणुष्णाई मे सहकरिस-रस- अमनोज्ञान में शब्द-स्पर्श-रस-रूप- २. अमुक व्यक्ति ने अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूद-गंधाई उवहरिनु। गन्धान उपाहापात् ।
रस, रूप और गंध मुझे उपहृत किए हैं। मणुगणाई मे सह-फरिस-रस-व- मनोज्ञान मे शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् ३. अमुक व्यक्ति मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, गंधाई अदहरई। आहाति।
रस, स्प और गंध का अपहरण करता अमण्गुणाई मे सद्द-फरिस-रस- अमनोज्ञान् मे शब्द-स्पर्श-रस-रूपरूव-गंधाइं उवहरति ! गन्धान् उपहरति।
४. अमुक व्यक्ति अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, मणुग्णाईने सह-फारिस-रस-रूब- मनोज्ञान् गे शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् रस, रूप और गंध मुझे उपहृत करता है। गंधाई अवहरिस्तति । अपहरिप्यति।
५. अमुक व्यक्ति मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, अमजण्णाई मे सह- फरिस-रस- अमनोज्ञान् मे शब्द-स्पर्श-रस-रूप- रस, रूप और गंध का अपहरण करेगा। रूव गंधाई° उपहरिस्सति। गन्धान उपहरिष्यति।।
६. अमुक व्यक्ति अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, मणुण्णाइं मे सह-'फरिस-रसा- मनोज्ञान् मे शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् रस, रूप और गंध मुझे उपहृत करेगा। रूव-गंधाइं अवहरिस् वा अवहरइ अपाहार्षीत् वा अपहरति वा अपहरि- ७. अमुक व्यक्ति ने मेरे मनोज्ञ शब्द, वा अवहरिस्सति वा। प्यति वा।
स्पर्श, रस, रूप और गंध का अपहरण अमणुष्णाई मे राह- करिस-रस- अननोजान् मे शब्द-स्पर्श-रस-रूप- किया था, करता है और करेगा। रुच-गंगई स्वहारसुवा उबहरलि गन्धान उपाहापत् वा उपहरति वा ८. अमुक व्यक्ति ने अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, वाउवह रिस्पति वा। अहरिष्यति वा।
रस, रूप और गंध गृझे उपहत किए हैं, एणुणामण्णाईनेशद- फरिस-रस- मनोज्ञाऽमनोज्ञान मे शब्द-स्पर्श-रस-रूप- करता है और करेगा। रूब-गंधाई अपहारसु वा अवहरति गन्धान अपाहार्षीत् वा अपहरति वा ६. अमुक व्यक्ति ने मनोज तथा अमनोज वा अवहरिस्तति वा, उवहरिसु असहरिष्यति वा, आहार्षीत् वा । शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का अपवा उवहरति वा उवहरिस्सति उपहरति वा उपहरिष्यति वा।
हरण किया है, करता है और करेगा तथा वा।
उपहुत किए हैं, करता है और करेगा। अहं च णं आयरिय-उवज्झा- अहं च आचार्योपाध्याययोः सम्यग् वर्ते, १०. मैं आचार्य और उपाध्याय के प्रति याणं सम्मं वद्रालि, ममं च णं मां च आचार्योपाध्यायौ मिथ्या विप्रति- सम्यग् वर्तन [अनुकूल व्यवहार करता आयरिय-उवझाया मिच्छं पन्नौ ।
हूं, परन्तु आचार्य और उपाध्याय मेरे विष्पडिवण्णा।
साथ मिथ्यावर्तन [प्रतिकूल व्यवहार] करते हैं।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : सूत्र ८-१०
संजम-असंजम-पदं संयम-असंयम-पदम् ८. दस विधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधः संयमः प्रज्ञप्तः, तद्यथापुढविकाइयसंजमे,
पृथ्वीकायिकसंयमः, 'आउकाइयसंजमे,
अपकायिकसंयम:, तेउकाइयसंजमे,
तेजस्कायिकसंयमः, वाउकाइयसंजमे,
वायुकायिकसंयमः, वणस्ततिकाइयसंजमे,
वनस्पतिकायिकसंयमः, बेइंदियसंजमे,
द्वीन्द्रियसंयमः, तेइंदियसंजमे,
त्रीन्द्रियसंयमः, चरिदियसंजमे,
चतुरिन्द्रियसंयमः, पंचिदियसंजमे,
पञ्चेन्द्रियसंयम:, अजीवकायसंजमे।
अजीवकायसंयमः। ६. दस विधे असंजमे पण्णत्ते, तं जहा– दशविधः असंयमः प्रज्ञप्तः, तद्यथापुढविकाइयअसंजमे, पृथ्वीकायिकासंयमः, आउकाइयअसंजमे,
अप्कायिकासंयमः, तेउकाइयअसंजमे,
तेजस्कायिकासंयमः, वाउकाइयअसंजमे,
वायुकायिकासंयमः, वणस्स तिकाइयअसंजमे, वनस्पतिकायिकासंयमः, 'बेइंदियअसंजमे,
द्वीन्द्रियासंयमः, तेइंदियअसंजमे,
त्रीन्द्रियासंयमः, चरिदियअसंजमे,
चतुरिन्द्रियासंयमः, पंचिदियअसंजमे,
पञ्चेन्द्रियासंयमः, अजीवकायअसंजमे।
अजीवकायासंयमः।
संयम-असंयम-पद ८. संयम के दस प्रकार हैं---
१. पृथ्वीकायिक संयम, २. अप्कायिक संयम, ३. तेजस्कायिक संयम, ४. वायुकायिक संयम, ५. वनस्पतिकायिक संयम, ६. द्वीन्द्रिय संयम, ५. वीन्द्रिय संयम, ८. चतुरिन्द्रिय संयम, ६. पञ्चेन्द्रिय संयम, १०. अजीवकाय संयम।
६. असंयम के दस प्रकार हैं
१. पृथ्वीकायिक असंयम, २. अप्कायिक असंयम, ३. तेजस्कायिक असंयम, ४. वायुकायिक असंयम, ५. वनस्पतिकायिक असंयम, ६. द्वीन्द्रिय असंयम, ७. तीन्द्रिय असंयम, ८. चतुरिन्द्रिय असंयम, ६. पञ्चेन्द्रिय असंयम, १०. अजीवकाय असंयम।
संवर-असंवर-पदं
संवर-असंवर-पदम् १०. दस विधे संवरे पण्णत्ते, तं जहा. दशविधः संवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
सोतिदियसंवरे, 'चक्खिदियसंवरे, श्रोत्रेन्द्रियसंवरः, चक्षुरिन्द्रियसंवरः, घाणिदियसंवरे, जिब्भिदियसंवरे, घ्राणेन्द्रियसंवरः, जिह्वन्द्रियसंवरः, फासिदियसंवरे, मणसंवरे, स्पर्शेन्द्रियसंवरः, मनःसंवरः, वचःसंवरः, वयसंवरे, कायसंवरे, कायसंवरः, उपकरणसंवरः, उवकरणसंवरे, सूचीकुसग्गसंवरे। शुचीकुशाग्रसंवरः ।
संवर-असंवर-पद १०. संवर के दस प्रकार हैं
१. श्रोत्र-इन्द्रिय संवर, २. चक्षु-इन्द्रिय संवर, ३. घ्राण-इन्द्रिय संवर, ४. रसन-इन्द्रिय संवर, ५. स्पर्शन-इन्द्रिय संवर, ६. मन संवर, ७. वचन संवर, ८. काय संवर, ६. उपकरण संवर, १०. सूचीकुशाग्र संवर।
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स्थान १० : सूत्र ११-१३ ११. दसविधे असंवरे पण्णत्ते,तं जहा- दशविधः असंवरः प्रज्ञप्तः, तदयथा- ११. असंवर के दस प्रकार हैसोति दियअसंवरे, 'चक्खिदियअसंवरे, श्रोत्रेन्द्रियासंवर, चक्षुरिन्द्रियासंवरः, १. श्रोत्र-इन्द्रिय असंवर, घाणिदियअसंवरे, जिभिदियअसंवरे, घ्राणेन्द्रियासंवरः, जिह्वन्द्रियासंवरः, २. चक्षु-इन्द्रिय असंवर, फासि दियअसंवरे, मणअसंवरे, स्पर्शेन्द्रियासंवरः, मनोसंवरः, ३. घ्राण-इन्द्रिय असंवर, वयअसंवरे, कायअसंवरे, वचोसंवरः, कायासंवरः, ४. रसन-इन्द्रिय असंवर, उवकरणअसंवरे,
उपकरणासंवरः, शूचीकुशाग्रासंवरः । ५. स्पर्शन-इन्द्रिय असंवर, सूचीकुसग्गअसंवरे,
६. मन असंवर, ७. वचन असंवर, ८. काय असंवर, ६. उपकरण असंवर,
१०. सूचीकुशाग्र असंवर। अहमंत-पदं अहमन्त-पदम्
अहमन्त-पद १२. दसहि ठामे॒हं अहमतीति थंभिज्जा' दशभिः स्थानः अहमन्तीति स्तभ्नीयात्, १२. दस स्थानों से व्यक्ति अपने-आप को अन्त तं जहातद्यथा
[चरमकोटि का] मानकर स्तब्ध होता
१. जाति के मद से, २. कुल के मद से, ३. बल के मद से, ४. रूप के मद से, ५. तप के मद से, ६. श्रुत के मद से, ७. लाभ के मद से, ८. ऐश्वर्य के मद से, ६. नागकुमार अथवा सुपर्णकुमार मेरे पास दौड़े-दौड़े आते हैं। १०. साधारण पुरुषों के ज्ञान-दर्शन से अधिक अवधिज्ञान और अवधिदर्शन मुझे प्राप्त हुए हैं।
जातिमएण वा, कुलमएण वा, जातिमदेन वा, कुलमदेन वा, 'बलमएण वा, रूवमएण वा, बलमदेन वा, रूपमदेन वा, तवमएण वा, सुतमएण वा, तपःमदेन वा, श्रुतमदेन वा, लाभमएण वा, इस्सरियमएण वा, लाभमदेन वा, ऐश्वर्यमदेन वा, णागसुवण्णा वा मे अंतियं हव्व- नागसुपर्णाः वा ममान्तिकं अर्वाग् मागच्छंति,
आगच्छन्ति, पुरिसधम्मातो वा मे उत्तरिए पुरुषधर्मात् वा मम औतरिकं आधोआहोधिए णाणदंसणे समुप्पण्णे। वधिकं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् ।
समाधि-असमाधि-पदं समाधि-असमाधि-पदम् १३. दसविधा समाधी पण्णता, तं दशविधः समाधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
जहापाणातिवायवेरमणे,
प्राणातिपातविरमणम्, मुसावायवेरमणे,
मृषावादविरमणम्, अदिण्णादाण् वेरमणे, अदत्तादानविरमणम्, मेहुणवेरमणे, परिग्गहवेरमणे, मैथुनविरमणम्, परिग्रहविरमणम्, इरियासमिती, भासासमिती, ईर्यासमितिः, भाषासमितिः, एसणासमिती, आयाण-भंड-मत्त- एषणासमितिः, आदान-भण्ड-अमत्रणिक्खेवणासमिति, उच्चार- निक्षेपणासमितिः, उच्चार-प्रश्रवणपासवण-खेल-सिंघाणग-जल्ल- श्लेष्म-सिंघाणक-जल्लपारिट्ठावणियासमिती। पारिष्ठापनिकासमितिः ।
समाधि-असमाधि-पद १३. समाधि के दस प्रकार हैं
१. प्राणातिपात विरमण, २. मृषावाद-विरमण, ३. अदत्तादान-विरमण, ४. मैथुन-विरमण, ५. परिग्रह-विरमण, ६. ईर्यासमिति, ७. भाषासमिती ८. एषणासमिति, ६. आदान-भण्डअमत्र-निक्षेप-समिति, १०. उच्चारप्रश्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-पारिष्ठापनिका-समिति ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : सूत्र १४-१५
१४. दसविधा असमाधी पण्णत्ता, तं दशविधः असमाधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १४. असमाधि के दस प्रकार हैंजहा
१. प्राणातिपात का अविरमण, पाणातिवाते, 'मुसावाते,
प्राणातिपातः, मृषावादः, अदत्तादानं, २. मृषावाद का अविरमण, अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, मैथुनं,
३. अदत्तादान का अविरमण, परिग्रहः, ईर्याऽसमितिः,
४. मैथुन का अविरमण, इरियाऽसमिती, 'भासाऽसमिती, भाषाऽसमितिः, एषणाऽसमितिः,
५. परिग्रह का अविरमण, एसणाऽसमिती, आदान-भण्ड-अमत्र-निक्षेपणाऽसमितिः,
६. ईर्या की असमिति-असम्यक् प्रवृत्ति आया-संड-मत्त-पिदखेवणाऽ उच्चार-प्रश्रवण-श्लेष्म-सिंघाण क-जल्ल
७. भाषा की असमिति, वणासमिती, पारिष्ठापनिकाऽसमितिः ।
८. एषणाकी असमिति, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग
६.आदान-भण्ड-अमत्र-निक्षेपकी असमिति जल्ल-पारिद्वावणियाऽसमिती।
१०. उच्चार-प्रलवण-श्लेष्म सिधाण-जल्ल
पारिष्टापनिका की असमिति। पव्वज्जा-पदं
प्रजज्या-पदस् १५. दस विधा पच्चज्जा पण्णता, तं दाविधा प्रवज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १५. प्रव्रज्या के दस प्रकार है
जहा
संगहणी-गाहा १. छंदा रोसा परिजण्या, सुविशा पडिस्सुता घेव। सारणिया रोगिणिया, अणादिता देवसम्पत्ती।। वच्छाणुबंधिया।
संग्रहणी-गाथा १. छन्दा रोषा परिघुना, स्वप्ना प्रतिश्रुता चैव। स्मारणिका रोगिणिका, अनाहता देवसंज्ञप्तिः ।। वत्साऽनुबन्धिका।
१. छन्दा-अपनी या दूसरों की इच्छा से ली जाने वाली। २. रोषाध से ली जाने वाली। ३. परिघुना-दरिद्रता से ली जाने वाली। ४. स्वप्ना-स्वप्न के निमित्त से ली जाने वालो या स्वप्न में ली जाने वाली। ५. प्रतिश्रुता---पहले की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली। ६. स्मारणिका-जन्मान्तरों की स्मृति होने पर ली जाने वाली। ७. रोगिणिका--रोग का निमित्त मिलने पर ली जाने वाली। ८. अनादृता-अनादर होने पर ली जाने वाली। ६. देवसंज्ञप्ति-देव के द्वारा प्रतिबुद्ध हो कर ली जाने वाली। १०. वत्सानुबन्धिका-दीक्षित होते हुए पुत्र के निमित्त से ली जाने वाली।
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ठाणं (स्थान)
६०५
स्थान १० : सूत्र १६-१६ समणधम्म-पदं श्रमणधर्म-पदम्
श्रमणधर्म-पद १६. दसविधे समणधम्मे पण्णत्ते, तं दशविधः श्रमणधर्मः प्रज्ञप्तः, १६. श्रमण-धर्म के दस प्रकार हैंजहातद्यथा
१. क्षान्ति, २. मुक्ति-- निर्लोभता,
अनासक्ति। ३.आर्जव, ४. मार्दव, खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, क्षान्तिः, मुक्तिः, आर्जवं, मार्दवं, लाघवं, ५. लाघव, ६. सत्य, ७. संयम, ८. तप, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, सत्यं, संयमः, तपः, त्यागः,
६. त्याग--अपने साम्भोगिक साधुओं को
भोजन आदि का दान, १०. ब्रह्मचर्यबंभचेरवासे। ब्रह्मचर्यवासः ।
वास।
वेयावच्च-पदं वैयावृत्त्य-पदम्
वैयावृत्त्य-पद १७. दसविधे वेयावच्चे पण्णत्ते, तं दशविधं वैयावृत्त्यं प्रज्ञप्तम्, १७. वैयावृत्य के दस प्रकार हैंजहातद्यथा
१. आचार्य का वैयावृत्त्य। आयरियवेयावच्चे,
आचार्यवैयावृत्त्यं, उपाध्यायवैयावृत्त्यं, २. उपाध्याय का वैयावृत्त्य। उवज्झायवेयावच्चे, स्थविरवैयावृत्त्यं, तपस्विवैयावृत्त्यं,
३. स्थविर का वैयावृत्त्य।
४. तपस्वी का वैयावृत्त्य। थेरवेयावच्चे, ग्लानवैयावृत्त्यं, शैक्षवैयावृत्त्यं,
५. ग्लान का वैयावृत्त्य । तवस्सिवेयावच्चे, कुलवैयावृत्त्यं, गणवैयावृत्त्यं,
६. शैक्ष का वैयावृत्त्य। गिलाणवेयावच्चे, संघवयावृत्त्यं,
७. कुल का वैयावृत्त्य । सेहवेयावच्चे, कुलवेयावच्चे, सार्मिकवैयावृत्त्यम्।
८. गण का वैयावृत्त्य । गणवेयावच्चे, संघवेयावच्चे,
६. संघ का वैयावृत्त्य । साहम्मियवेयावच्चे।
१०. सार्मिक का वैयावृत्त्य।
परिणाम-पदं परिणाम-पदम्
परिणाम-पद १८. दसविध जीवपरिणामे पण्णत्ते, तं दशविधः जीवपरिणामः प्रज्ञप्तः, १८. जीव-परिणाम के दस प्रकार हैं
तद्यथा-- गतिपरिणामे, इंदियपरिणामे, गतिपरिणाम:, इन्द्रियपरिणामः, १. गतिपरिणाम, २. इन्द्रियपरिणाम, कसायपरिणामे, लेसापरिणामे, कषायपरिणामः, लेश्यापरिणामः, ३. कपायपरिणाम, ४. लेश्यापरिणाम, जोगपरिणामे, उबओगपरिणामे, योगपरिणामः, उपयोगपरिणामः, ५. योगपरिणाम, ६. उपयोगपरिणाम, णाणपरिणामे, दंसणपरिणामे, ज्ञानपरिणामः, दर्शनपरिणामः, ७. ज्ञानपरिणाम, ८. दर्शनपरिणाम, चरित्तपरिणामे, वेयपरिणामे। चरित्रपरिणामः, वेदपरिणामः ।
६. चारित्रपरिणाम, १०. वेदपरिणाम, १६. दसविधे अजीवपरिणामे पण्णते, दशविधः अजीवपरिणामः प्रज्ञप्तः, १६. अजीव-परिणाम के दस प्रकार हैंतं जहा
तद्यथाबंधणपरिणामे, गतिपरिणामे, बन्धनपरिणामः, गतिपरिणामः,
१. बन्धनपरिणाम–संहत होना।
२. गतिपरिणाम, ३. संस्थानपरिणाम, संडाणपरिणामे, भेदपरिणामे, संस्थानपरिणामः, भेदपरिणामः,
४. भेदपरिणाम-टूटना। वण्णपरिणामे, रसपरिणामे, वर्णपरिणामः, रसपरिणामः, ५. वणंपरिणाम, ६. रसपरिणाम, गंधपरिणामे, फासपरिणामे, गन्धपरिणामः, स्पर्शपरिणामः,
७. गंधपरिणाम, ८. स्पशंपरिणाम,
६. अगुरुलघुपरिणाम, अगुरुलहुपरिणामे, सद्दपरिणामे। अगुरुलघुपरिणामः, शब्दपरिणामः । १०. शब्दपरिणाम ।
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ठाणं (स्थान)
६०६
स्थान १० : सूत्र २०-२२ असज्झाइय-पदं अस्वाध्यायिक-पदम्
अस्वाध्यायिक-पद २०. दसविधे अंतलिक्खए असज्झाइए। दशविधं आन्तरिक्षकं अस्वाध्यायिक २०. अन्तरिक्ष-सम्बन्धी अस्वाध्याय के दस पण्णत्ते, तं जहाप्रज्ञप्तम्, तद्यथा
प्रकार हैउक्कावाते, दिसिदाधे, गज्जिते, उल्कापात:, दिग्दाहः, गजिते, विद्युत्, १. उल्कापात, २. दिग्दाह, ३. गर्जन, विज्जुते, णिग्घाते, जुवए, निर्घातः, यूपकः, यक्षादीप्तं, धूमिका, ४. विद्युत्, ५. निर्घात कौंधना। जक्खालित्ते, धूमिया, महिया महिका, रजउद्घातः।
६. यूपक, ७. यक्षादीप्त, ८. धूमिका, रयुग्धाते।
६. महिका, १०. रजउद्घात। २१. दसविधे ओरालिए असज्झाइए दशविधं औदारिकं अस्वाध्यायिक २१. औदारिक अस्वाध्याय के दस प्रकार हैंपण्णत्ते, तं जहाप्रज्ञप्तम्, तद्यथा
१. अस्थि, २. मांस, ३. रक्त, अट्ठि, मंसे, सोणिते, असुइसामंते, अस्थि, मांसं, शोणितं, अशुचिसामन्तं, ४. अशुचि के पास, ५. श्मशान के पास, सुसाणसामंते,
६. चन्द्रग्रहण, चंदोवराए श्मशानसामन्तं, चन्द्रोपरागः,
७. सूर्य-ग्रहण,
८. पतन-प्रमुख व्यक्ति का मरण । सूरोवराए, पडणे, रायवुग्गहे, सूरोपरागः, पतनं, राजविग्रहः,
६. राज्य-विप्लव, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए उपाश्रयस्यान्तः औदारिक १०. उपाश्रय के भीतर सौ हाथ तक सरीरगे। शरीरकम् ।
कोई औदारिक कलेवर के होने पर। संजम-असंजम-पदं संयम-असंयम-पदम्
संयम-असंयम-पद २२. पंचिदिया णं जीवा असमारभ- पञ्चेन्द्रियान् जीवान् असमारभमाणस्य २२. पञ्चेन्द्रिय जीवों का आरम्भ नहीं करने माणस्स दसविधे संजमे कज्जति, दशविधः संयमः क्रियते, तद्यथा
वाले के दस प्रकार का संयम होता है - तं जहासोतामयाओ सोक्खाओ अववरो- श्रोत्रमयात सौख्यात अव्यपरोपयिता १. श्रोत्रमय सुख का वियोग नहीं करने से, वेत्ता भवति।
भवति । सोतामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता श्रोत्रमयेन दुःखेन असंयोजयिता २. श्रोत्रमय दुःख का संयोग नहीं करने से, भवति।
भवति । 'चक्खुमयाओ सोक्खाओ अववरो- चक्षुर्मयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता ३. चक्षुमय सुख का वियोग नहीं करने से, वेत्ता भवति ।
भवति। चक्खुमएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता चक्षुर्मयेन दुःखेन असंयोजयिता ४. चक्षुमय दुःख का संयोग नहीं करने से, भवति।
भवति। घाणामयाओ सोक्खाओ अववरो- घ्राणमयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता ५. घ्राणमय सुख का वियोग नहीं करने से, वेत्ता भवति।
भवति। घाणामएणं दुक्खणं असंजोगेत्ता घ्राणमयेन दुःखेन असंयोजयिता ६. प्राणमय दुःख का संयोग नहीं करने से, भवति।
भवति । जिब्भामयाओ सोक्खाओ अववरो- जिह्वामयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता ७. रसमय सुख का वियोग नहीं करने से, वेत्ता भवति।
भवति । जिब्भामएणं दुक्खणं असंजोगेत्ता जिह्वामयेन दुःखेन असंयोजयिता ८. रसमय दुःख का संयोग नहीं करने से, भवति।
भवति । फासामयाओ सोक्खाओ अववरो- स्पर्शमयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता ६. स्पर्शमय सुख का वियोग नहीं करने से, वेत्ता भवति ।
भवति। फासामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता स्पर्शमयेन दुःखेन असंयोजयिता १०. स्पर्शमय दुःख का संयोग नहीं करने से। भवति ॥
भवति ।
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ठाणं (स्थान)
१०७
स्थान १० : सूत्र २३-२४ २३. पंचिदिया णं जीवा समारभ- पञ्चेन्द्रियान् जीवान् समारभमाणस्य २३. पञ्चेन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले
माणस्स दसविधे असंजमे कज्जति, दशविधः असंयमः क्रियते, तद्यथा- के दस प्रकार का असंयम होता हैतं जहासोतामयाओ सोक्खाओववरोवेत्ता श्रोत्रमयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता १. श्रोत्रमय सुख का वियोग करने से। भवति।
भवति । सोतामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता श्रोत्रमयेन दुःखेन संयोजयिता । २. श्रोत्रमय दुःख का संयोग करने से। भवति।
भवति। चक्खुमयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता चक्षुर्मयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता ३. चक्षुमय सुख का वियोग करने से। भवति।
भवति। चक्खुमएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता चक्षुर्मयेन दुःखेन संयोजयिता ४. चक्षुमय दुःख का संयोग करने से। भवति।
भवति। घाणामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता घ्राणमयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता ५. घ्राणमय सुख का वियोग करने से। भवति।
भवति । घाणामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता घ्राणमयेन दुःखेन संयोजयिता ६. प्राणमय दुःख का संयोग करने से। भवति ।
भवति । जिब्भामयाओ सोक्खाओ ववरो- जिह्वामयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता ७. रसमय सुख का वियोग करने से। वेत्ता भवति।
भवति। जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता जिह्वामयेन दुःखेन संयोजयिता ८. रसमय दुःख का संयोग करने से। भवति।
भवति । फासामयाओ सोक्खाओ ववरो- स्पर्शमयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता ६. स्पर्शमय सुख का वियोग करने से । वेत्ता भवति ।
भवति। फासामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता स्पर्शमयेन दुःखेन संयोजयिता १०. स्पर्श मय दुःख का संयोग करने से। भवति ।
भवति ।
libililililililili
सुहम-पदं
२४. दस सुहुमा पण्णत्ता, तं जहा
पाणसुहुमे, पणगसुहुमे, 'बीयसहुमे, हरितसुहुमे, पुप्फसुहुमे, अंडसुहुमे, लेणसुहुमे, सिणेहसुहुमे, गणियसुहुमे, भंगसुहुमे।
सूक्ष्म-पदम् दश सूक्ष्माणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- प्राणसूक्ष्म, पनकसूक्ष्म, बीजसूक्ष्म, हरितसूक्ष्म, पुष्पसूक्ष्मं, अण्डसूक्ष्म, लयनसूक्ष्म, स्नेहसूक्ष्मं, गणितसूक्ष्म, भङ्गसूक्ष्मम् ।
सूक्ष्म-पद २४. सूक्ष्म दस हैं
१. प्राणसूक्ष्म-सूक्ष्म जीव। २. पनकसूक्ष्म-काई। ३. बीजसूक्ष्म-चावल आदि के अग्रभाग की कलिका। ४. हरितसूक्ष्म-सूक्ष्म तृण आदि। ५. पुष्पसूक्ष्म-बट आदि के पुष्प । ६. अण्डसूक्ष्म-चीटी आदि के अण्डे । ७. लयनसूक्ष्म-कीडीनगरा। ८. स्नेहसूक्ष्म-ओस आदि। ६. गणितसूक्ष्म--सूक्ष्म बुद्धिगम्य गणित। १०. भंगसूक्ष्म-सूक्ष्म बुद्धिगम्य विकल्प ।
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ठाणं (स्थान)
महानदी -पदं
२५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं गंगा-सिंधु महाणदीओ दस महानदीओ समप्र्पति, तं जहा -
जउणा, सरऊ, आवी, कोसी, मही, सतव, वितत्था, विभासा, एरावती, चंद्रभागा ।
२६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रत्ता-रत्तवतीओ महादीओ दस महानदीओ समप्र्पति, तं जहाकिण्हा, महाकिण्हा, णीला, महाणीला, महातीरा, इंदा, • इंदसेणा, सुसेणा वारिसेणा महाभोगा ।
यहाणी-पदं
२७. जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे दस राय हाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा
संग्रहणी - गाहा
१. चंपा महुरा वाणारसी य
सावत्थि तह य
हत्थणउर मिहिला कोसंबि
साकेतं ।
कंपिल्लं, रायगिहं |
६०८
महानदी -पदम् जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे गङ्गा-सिन्धू- महानद्योः दश महानद्यः समर्पयन्ति, तद्यथा
यमुना, सरय, आवी, कोशी, मही, शतद्रुः, वितरता, विपाशा, ऐरावती,
चन्द्रभागा ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे रवतारक्तवत्यो महानद्योः दश महानद्यः समर्पयन्ति, तद्यथा—
कृष्णा, महाकृष्णा, नीला, महानीला, महातीरा, इन्द्रा, इन्द्रसेना, सुषेणा, वारिषेण, महाभोगा ।
राजधानी-पदम्
जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे दश राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—
संग्रहणी - गाथा
१.
• चंपा मथुरा वाणारसी च श्रावस्तिः तथा च साकेतम् ।
कांपिल्यं,
हस्तिनापुरं
मिथिला कोशाम्बी राजगृहम् ।
स्थान १० : सूत्र २५-२७
महानदी - पद
२५. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के दक्षिण में महानदी गंगा और सिंधू में दस महानदियां मिलती हैं
२. सरयू, ५. मही,
९. यमुना, ३. आपी, ४. कोशी, ६. शतद्र, ७. वितस्ता ८. विपाशा, 8. ऐरावती, १०. चन्द्रभागा ।
२६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में महानदी रक्ता और रक्तवती में दस महानदियां मिलती हैं—
१. कृष्णा, २. महाकृष्णा, ३. नीला, ४. महानीला, ५. तीरा, ६. महातीरा, ७. इन्द्रा, ८. इन्द्रसेना, ६. वारिषेणा, १०. महाभोगा ।
राजधानी - पद
२७. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में दस राजधानियां प्रज्ञप्त हैं".
१. चम्पा - अंगदेश की ।
२. मथुरा - सूरसेन की।
३. वाराणसी - काशी राज्य की ।
४. श्रावस्ती - कुणाल की ।
५. साकेत कोशल की।
६. हस्तिनापुर - कुरु की।
७. कांपिल्य-- पांचाल की।
८. मिथिला - विदेह की ।
६. कौशाम्बी - वत्स की ।
१०. राजगृह - मगध की ।
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ठाणं (स्थान)
९०६
स्थान १० : सूत्र २८-३१
राय-पदं
राज-पदम्
राज-पद २८. एयासु णं दससु रायहाणीसु दस एतासु दशसु राजधानीसु दश राजानः २८. इन दस राजधानियों में दस राजा मुंडित
रायाणो मुंडा भवेत्ता अगाराओ मुण्डाः भूत्वा अगाराद् अनगारितां होकर, अगार से अणगार अवस्था में अणगारियं° पन्वइया, तं जहा- प्रवजिता, तद्यथा
प्रवजित हुए थेभरहे, सगरे, मघवं, सणंकुमारे, भरतः, सगरः, मघवा, सनत्कुमारः, १. भरत, २. सगर, ३. मघवा, संती, कुंथू, अरे, महापउमे, शान्तिः, कुन्थुः, अरः, महापद्मः, ४. सनत्कुमार, ५. शान्ति, ६. कुन्थु, हरिसेणे, जयणामे । हरिषेणः, जयनामः।
७. अर, ८. महापद्म, ६. हरिषेण, १०. जय।
मंदर-पदं मन्दर-पदम्
मन्दर-पद २६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए दस जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरः पर्वतः दश योजन- २६. जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत एक हजार
जोयणसयाइं उन्वेहेणं, धरणितले शतानि उद्वेधेन, धरणितले दश योजन- योजन गहरा है-भूगर्भ में है । भूमितल दस जोयणसहस्साई विखंभेणं, सहस्राणि विष्कम्भेण, उपरि दश योजन- पर उसकी चौड़ाई दस हजार योजन की उरि दस जोयणसयाई विक्खंभेणं, शतानि विष्कम्भेण, दशदशानि योजन- है। ऊपर---पण्डकवन के प्रदेश में-एक दसदसाइं जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं सहस्राणि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तः।
हजार योजन चौड़ा है। उसका सर्व परिपण्णते।
माण एक लाख योजन का है।
दिसा-पदं दिशा-पदम्
दिशा-पद ३०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य बहु- ३०, जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के बहुमध्य
बहुमझदेसभागे इमीसे रयणप्प- मध्यदेशभागे अस्याः रत्नप्रभायाः । देशभाग में इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर भाए पुढवीए उवरिम-हेटिल्लेसु पृथिव्याः उपरितन-अधस्तनेषु क्षुल्लक- के क्षुल्लकप्रतर में गोस्तनाकार चार प्रदेश खुड्डगपतरेसु, एत्थ णं अट्ठपएसिए प्रतरेषु, अत्र अष्टप्रादेशिक: रुचकः ।
हैं तथा निचले क्षुल्लकप्रतर में भी गोस्तरुयगे पण्णत्ते, जओ णं इमाओ प्रज्ञप्तः, यत इमा दश दिशः प्रवहन्ति,
नाकार चार प्रदेश हैं। इस प्रकार यह दसदिसाओ पवहंति, तं जहा- तद्यथा
अष्टप्रादेशिक रुचक हैं। इससे दस दिशाएं पुरत्थिमा, पुरथिमदाहिणा, पौरस्त्या, पौरस्त्यदक्षिणा, दक्षिणा, निकलती हैंदाहिणा, दाहिणपच्चत्थिमा, दक्षिणपाश्चात्या, पाश्चात्या, १. पूर्व, २. पूर्व-दक्षिण, पच्चत्थिमा, पच्चत्थिमुत्तरा, पाश्चात्योत्तरा, उत्तरा, उत्तरपौरस्त्या, ३. दक्षिण, ४. दक्षिण-पश्चिम, उत्तरा, उत्तरपुरत्थिमा, उड्डा, ऊवं, अधः ।
५. पश्चिम, ६. पश्चिम-उत्तर, अहा।
७. उत्तर, ८. उत्तर-पूर्व,
१. ऊर्ध्व. १०. अधस् । ३१. एतासि णं दसण्हं दिसाणं दस एतासां दशानां दिशां दश नामधेयानि ३१. इन दस दिशाओं के दस नाम हैं
णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
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ठाणं (स्थान)
६१०
स्थान १०:सूत्र ३२-३५ संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. इंदा अग्गेइ जम्मा य, १. ऐन्द्री आग्नेयी याम्या च,
१. ऐन्द्री, २. आग्नेयी, ३. याम्या, णेरती वारुणी य वायव्वा । नैऋती वारुणी च वायव्या ।
४. नैऋती, ५. वारुणी, ६. वायव्या, सोमा ईसाणी य, सौम्या ऐशानी च,
७. सोमा, ८. ईशानी, . विमला, विमला य तमा य बोद्धव्वा ॥ विमला च तमा च बोद्धव्या ॥ १०. तमा। लवणसमुद्द-पदं लवणसमुद्र-पदम्
लवणसमुद्र-पद ३२. लवणस्स णं समुद्दस्स दस जोयण- लवणस्य समुद्रस्य दश योजनसहस्राणि ३२. लवण समुद्र का दस हजार योजन क्षेत्र सहस्साइ गोतित्थविरहिते खेत्ते गोतीर्थविरहितं क्षेत्रं प्रज्ञप्तम् ।
गोतीर्थ-विरहित" [समतल] है। पण्णत्ते। ३३. लवणस्स णं समुद्दस्स दस जोयण- लवणस्य समुद्रस्य दश योजनसहस्राणि ३३. लवण समुद्र की उदकमाला" [वेला] सहस्साई उदगमाले पण्णते। उदगमाला प्रज्ञप्ता।
दस हजार योजन चौड़ी है। पायाल-पदं पाताल-पदम
पाताल-पद ३४. सव्वेवि णं महापाताला दसदसाइं सर्वेपि महापातालाः दशदशानि योजन- ३४. सभी महापातालों की गहराई एक लाख
जोयणसहस्साइं उन्हेणं पण्णत्ता, सहस्राणि उद्वेधेन प्रज्ञप्ता:, मूले दश योजन की है। मूल-भाग में उनकी चौड़ाई मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खं- योजनसहस्राणि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः, दस हजार योजन की है। मूल-भाग की भेणं पण्णत्ता, बहुमज्झदेसभागे बहुमध्यदेशभागे एकप्रादेशिक्या श्रेण्या चौड़ाई से दोनों ओर एक प्रदेशात्मक एगपएसियाए सेढीए दसदसाइं दशदशानि योजनसहस्राणि विष्कम्भेण । श्रेणी की वृद्धि होते-होते बहुमध्यदेशभाग जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण्णत्ता, प्रज्ञप्ताः, उपरि मखमले दश योजन- में एक लाख योजन की चौड़ाई हो जाती उरि मुहमूले दस जोयणसहस्साई सहस्राणि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः।
है। ऊपर मुख-भाग में उनकी चौड़ाई दस विक्खंभेणं पण्णत्ता।
हजार योजन की है। तेसि णं महापातालाणं कुड्डा सव्व- तेषां महापातालानां कुड्यानि सर्व- उन महापातालों की भींते वज्रमय और वइरामया सव्वत्थ समा दस जोय- वज्रमयानि सर्वत्र समानि दश योजन- सर्वत्र बराबर हैं। उनकी मोटाई एक णसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। शतानि वाहल्येन प्रज्ञप्तानि।
हजार योजन की है। ३५. सव्वेवि णं खुद्दा पाताला दस सर्वेपि क्षुद्राः पातालः दश योजनशतानि ३५. सभी छोटे पातालों की गहराई एक हजार
जोयणसताई उव्वेहेणं पण्णत्ता, उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः, मूले दशदशानि योजन की है। मूल-भाग में उनकी चौड़ाई मूले दसदसाइं जोयणाई विक्खं- योजनानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः, बहु- सौ योजन की है । मूलभाग की चौड़ाई से भेणं पण्णत्ता, बहुमज्झदेसभागे मध्यदेशभागे एकप्रादेशिक्या श्रेण्या दश दोनों ओर एक प्रदेशात्मक श्रेणी की वृद्धि एगपएसियाए सेढीए दस जोयण- योजनशतानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः, होते-होते बहुमध्यदेशभाग में एक हजार सताई विक्खंभेणं पण्णत्ता, उरि उपरि मुखमूले दशदशानि योजनानि योजन की चौड़ाई हो जाती है । ऊपर मुख मुहमूले दसदसाइं जोयणाई विक्खं- विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
भाग में उनकी चौड़ाई सौ योजन की है। भेणं पण्णत्ता। तेसि णं खुड्डापातालाणं कुड्डा सव्व- तेषां क्षुद्रापातालानां कुड्यानि सर्व- उन छोटे पातालों की समस्त भीते वज्रवइरामया सव्वत्थ समा दस जोय- वज्रमयानि सर्वत्र समानि दश योज- मय और सर्वत्र बराबर हैं। उनकी मोटाई णाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। नानि बाहल्येन प्रज्ञप्तानि ।
दस योजन की है।
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ठाणं (स्थान)
पव्वय-पदं
३६. धायइसंडगा णं मंदरा दस जोयण सयाई उव्वेहेणं, धरणीतले देसूणाई दस जोयणसहस्साइं विवखंभेणं, उवर दस जोयणसयाई विवखंभेणं पण्णत्ता | ३७. पुक्खरवरदीवडगाणं मंदरा दसजोयणसयाई उब्वेहेणं, एवं चेव ।
३८. सव्वेवि णं वट्टवेयड्डूपव्वता दस जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं, दस गाउयसयाइं उब्वेहेणं, सव्वत्थ समा पल्लगसंठिता; दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता |
पव्वय-पदं
४०. माणुसुत्तरे णं पव्वते मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पण्णत्ते ।
४१. सव्वेविणं अंजण पव्वता दस जोय
या उdi, मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, उवर दस जोयणसताई विक्खंभेणं पण्णत्ता । ४२. सब्वेविणं दहिमुहपव्वता दस जोयणसताइं उन्हेणं, सव्वत्थ समा पल्लगसंठिता, दस जोयणसहस्साई विखंभेणं पण्णत्ता ।
११
पर्वत-पदम्
धातकीपण्डका मन्दरा दश योजनशतानि उद्वेधेन, धरणीतले देशोनानि दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेण, उपरि दश योजनशतानि विष्कम्भेण
प्रज्ञप्ताः ।
पुष्करवरद्वीपार्धका मन्दरा दश योजनशतानि उद्वेधेन, एवं चैव ।
सर्वेपि वृत्तवैताद्यपर्वता दश योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन, दश गव्यूतिशतानि उद्वेधेन, सर्वत्र समानि पल्यकसंस्थिताः, दश योजनशतानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
खेत्त-पदं
क्षेत्र -पदम्
क्षेत्र - पद
३६. जंबुद्दीवे दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तं जम्बूद्वीपे द्वीपे दश क्षेत्राणि प्रज्ञप्तानि, ३६. जम्बुद्वीप द्वीप में दस क्षेत्र हैंजहा -
तद्यथा—
भर, एरवते, हेमवते, हेरण्णवते, हरिवस्से, रम्मगवस्से, पुव्व विदेहे, अवरविदेहे, देवकुरा, उत्तरकुरा ।
१. भरत, २ ऐरवत, ३ हैमवत, ४. हैरण्यवत, ५ हरिवर्ष, ६ रम्यकवर्ष, ७. पूर्वविदेह, ८ अपरविदेह, ६. देवकुरा, १०. उत्तरकुरा ।
भरतं, ऐरवतं, हैमवतं, हैरण्यवतं, हरिवर्षं, रम्यकवर्ष, पूर्वविदेहः, अपरविदेहः, देवकुरुः, उत्तरकुरुः ।
पर्वत-पदम्
मानुषोत्तरो पर्वतो मूले दश द्वाविंशति योजनशतं विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः ।
सर्वेपि अञ्जन- पर्वता दश योजनशतानि उद्वेधेन, मूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेण, उपरि दशयोजनशतानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः । सर्वेपि दधिमुखपर्वता दश योजनशतानि उद्वेधेन सर्वत्र समाः पल्यकसंस्थिताः, दश योजन सहस्राणि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
स्थान १० : सूत्र ३६-४२
पर्वत-पद
३६. धातकीपण्ड के मन्दर पर्वत एक हजार योजन गहरे हैं- भूगर्भ में हैं। भूमितल पर उनकी चौड़ाई दस हजार योजन से कुछ कम है । वे ऊपर एक हजार योजन चौड़े हैं ।
३७. अर्द्धपुष्करवर द्वीप के मन्दर पर्वत एक हजार योजन गहरे हैं- भूगर्भ में हैं। शेष पूर्ववत् ।
३८. सभी वृत्तवैताद्य पर्वतों की ऊपर की ऊंचाई एक हजार योजन की है। उनकी गहराई एक हजार गाऊ की है। वे सर्वत्र सम हैं। उनका आकार पल्य जैसा है। उनकी चौड़ाई एक हजार योजन की है।
पर्वत- पद
४०. मानुषोत्तर पर्वत का मूल भाग १०२२ योजन चौड़ा है।
४१. सभी अंजन पर्वतों की गहराई एक हजार योजन की है। मूलभाग में उनकी चौड़ाई दस हजार योजन की हैं। ऊपर के भाग में उनकी चौड़ाई एक हजार योजन की है। ४२. सभी दधिमुख पर्वतों की गहराई एक
हजार योजन की है । वे सर्वत्र सम हैं । उनका आकार पल्य जैसा है । वे दस हजार योजन चौड़े हैं।
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ठाणं (स्थान)
४३.
सव्वेवि णं रतिकरपव्वता दस जोयणसताई उड्ड उच्चत्तेणं, दसगाउयसताई उव्वेहेणं, सव्वत्थ समा भल्लरिसंठिता, दस जोयणसहस्साइं विक्खभेणं पण्णत्ता । ४४. रुयगवरे णं पव्वते दस जोयणसाई उब्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, उर्वार दस जोयणसताई विक्खंभेणं पण्णत्ते । ४५. एवं कुंडलवरेवि ।
वाणुओग-पदं
द्रव्यानुयोग-पदम्
४६. दस वि दविषाणुओगे पण्णत्ते तं दशविधः द्रव्यानुयोगः प्रज्ञप्तः,
जहा
तद्यथा -
दवियाणुओगे, माउयाणुओगे, एगट्टाणुओगे, करणाणुओगे,
अप्पितणप्पिते, भाविताभाविते, बाहिरबाहिरे, सासतासासते, तहणाणे, अतहणाणे । उप्पातपव्त्रय-पदं
४७. चमरस्त णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तिगिछिकडे उत्पात - पव्वते मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पण्णत्ते । ४८. चमरस्त णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो सोमश्स महारणो सोमप्पभे उप्पातपव्वते दस जोयणसाई, उड्ड उच्चतेणं, दस गाउय सताई उबेहेणं, मूले दस जोयणसयाई विकणं पण्णत्ते । ४६. चमरस्स णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो जमस्स महारण्णो जमध्यभे उपातपव्त्रते एवं चेव । ५०. एवं वरुणस्सवि ।
५१. एवं वेसमणस्सवि ।
६१२
सर्वेपि रतिकरपर्वता दश योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन, दशगव्यूतिशतानि उद्वेधेन सर्वत्र समाः भल्लरिसंस्थिताः, दश योजन सहस्राणि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
रुचकरः पर्वतः दश योजनशतानि उद्वेधेन, मूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेण, उपरि दश योजनशतानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः । एवं कुण्डलवरोऽपि ।
द्रव्यानुयोगः, एकाथिकानुयोग:, अर्पितानर्पितः,
बाह्याबाह्य',
तथाज्ञानं, अतथाज्ञानम् । उत्पातपर्वत-पदम्
चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तिगिछिकूट : उत्पातपर्वतः मूले दश द्वाविंशति योजनशतं विष्कम्भेण
मातृकानुयोग:, करणानुयोगः, भाविताभावितः,
शाश्वताशाश्वतं
प्रज्ञप्तः ।
चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य सोमस्य महाराजस्य सोमप्रभः उत्पातपर्वतः दश योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन दश गव्यूतिशतानि उद्वेधेन, मूले दश योजनशतानि विष्कम्भेण
प्रज्ञप्तः ।
चमरस्यः असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य यमस्य महाराजस्य यमप्रभः उत्पातपर्वतः एवं चैव । एवं वरुणस्यापि ।
एवं वैश्रमणस्यापि ।
स्थान १० : सूत्र ४३-५१ ४३. सभी रतिकर पर्वतों की ऊपर की ऊंचाई
एक हजार योजन की है । उनकी गहराई एक हजार गाऊ की है । वे सर्वत्र सम हैं । उनका आकार झालर जैसा है। उनकी चौड़ाई दस हजार योजन की है।
४४. रुचकवर पर्वत की गहराई एक हजार योजन की है। मूलभाग में उसकी चौड़ाई दस हजार योजन की है। ऊपर के भाग की चौड़ाई एक हजार योजन की है। ४५. कुण्डलवर पर्वत रुचकवर पर्वत की भांति वक्तव्य है ।
उत्पात पर्वत-पद
४६. दव्यानुयोग के दस प्रकार हैं
१. द्रव्यानुयोग,
२. मातृकानुयोग, ३. एकाथि कानुयोग, ४. करणानुयोग,
५. अर्पितानर्पित,
६. भाविताभावित,
८. शाश्वत शाश्वत, १०. अतथाज्ञान ।
७. बाह्याबाह्य,
६. तथाज्ञान,
उत्पात पर्वत - पद
४७. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चपर के तिगिछिकूट नामक उत्पात पर्वत" का मूलभाग १०२२] योजन चौड़ा है।
४८-५१. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के लोकपाल महाराज सोम, यक्ष, वरुण और वैश्रमण के स्वनामख्यात - सोमप्रभ, यमप्रभ, वरुणप्रभ और वैश्रमणप्रभ – उत्पात पर्वतों की ऊपर से ऊंचाई एक-एक हजार योजन की है। उनकी गहराई एक-एक हजार गाऊ की है। मूलभाग में उनकी चौड़ाई एक-एक हजार योजन की है।
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ori (स्थान)
१३
५२. बलिस्स णं वइरोर्याणदस्स वइ बलेः वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य रोयणरणो गंदे उप्पातपव्वते रुचकेन्द्रः उत्पातपर्वतः मूले दश मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खं द्वाविंशति योजनशतं विष्कम्भेण भेणं पण्णत्ते ।
५३. बलिस णं वइरोयणिदस्स वइरो - यrरणो सोमस्स एवं चेव, जधा चमरस्त लोगपालाणं तं चैव बलिस्सवि ।
५४. धरणस्स णं णागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो धरणपत्रे उप्पातपव्वते दस जोयणसयाई उड्ड उच्चतेणं, दस गाउयसताई उवेणं, मूले दस जोयणसताई निक्खंभेणं ।
५५. धरणस्स णं णागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो काल - बालस्स महारष्णो कालवालप्पभे उप्पातपव्वते जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं एवं चेव । ५६. एवं जाव संखवालस्स ।
५७. एवं भूताणंदस्स वि ।
प्रज्ञप्तः ।
बलेः वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य सोमस्य एवं चैव यथा चमरस्य लोकपालानां तच्चैव बलेरपि ।
धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य धरणप्रभः उत्पातपर्वतः दश योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन दश गव्यूतिशतानि उद्वेधेन मूले दश योजनशतानि विष्कम्भेण ।
धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कालपालस्य महाराजस्य कालपालप्रभः उत्पातपर्वतः योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन एवं चैव ।
एवं यावत् शङ्खपालस्य ।
एवं भूतानन्दस्यापि ।
५८. एवं लोगपालाणवि से जहा एवं लोकपालानामपि
धरणस्स ।
धरणस्य ।
तस्य यथा
स्थान १० : सूत्र ५२-५८
५२. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के रुचकेन्द्र नामक उत्पात पर्वत का मूलभाग १०२२ योजन चौड़ा है।
५३. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के लोकपाल महाराज सोम, यम, वैश्रमण और वरुण के स्वनामख्यात उत्पात पर्वतों की ऊपर से ऊंचाई एक-एक हजार योजन की है। उनकी गहराई एक-एक हजार गाऊ की है। मूलभाग में उनकी चौड़ाई एक- एक हजार योजन की है ।
५४. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के धरणप्रभ नामक उत्पात पर्वत की ऊपर से ऊंचाई एक हजार योजन की है। उसकी गहराई एक हजार गाऊ की है। मूलभाग में उसकी चौड़ाई एक हजार योजन की है ।
५६. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के लोकपाल महाराज कालपाल, कोलपाल, शैलपाल और शंखपाल के स्वनामख्यात उत्पात पर्वतों की ऊपर से ऊंचाई सौ-सौ योजन की है। उनकी गहराई एक-एक हजार गाऊ की है। मूलभाग में उनकी चौड़ाई एक-एक हजार योजन की है।
५५,
५७. भूतेन्द्र भूतराज भूतानन्द के भूतानन्दप्रभ नामक उत्पात पर्वत की ऊपर से ऊंचाई एक हजार योजन की है । उसकी गहराई एक हजार गाऊ की है। मूलभाग में उसकी चौड़ाई एक हजार योजन की है। ५८. इसी प्रकार इसके लोकपाल महाराज कालपाल, कोलपाल, शंखपाल, शैलपाल के स्वनामख्यात उत्पात पर्वतों की ऊपर से ऊंचाई एक-एक हजार योजन की है। उनकी गहराई एक-एक हजार गाऊ की है। मूलभाग में उनकी चौड़ाई एक-एक हजार योजन की है ।
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ठाणं (स्थान)
६१४
स्थान १० : सूत्र ५६-६५ ५६. एवं जाव थणितकुमाराणं सलोग- एवं यावत् स्तनितकुमाराणां सलोक- ५६. इसी प्रकार सुपर्णकुमार यावत् स्तनित
पालाणं भाणियव्वं, सर्वोस उप्पाय- पालानां भणितव्यम्, सर्वेषां उत्पात- कुमार देवों के इन्द्र तथा उनके लोकपालों पव्वया भाणियव्वा सरिणामगा। पर्वताः भणितव्याः सहगनामकाः।
के स्वनामख्यात उत्पात पर्वतों का वर्णन धरण तथा उसके लोकपालों के उत्पात
पर्वतों की भांति वक्तव्य है। ६०. सक्कस्सणं देविदास देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य शक्रप्रभः ६०. देवेन्द्र देवराज शक्र के शऋषभ नामक
सक्कप्पभे उप्पातपन्वते दस जोय- उत्पातपर्वतः दश योजनसहस्राणि उत्पात पर्वत की ऊपर से ऊंचाई दस णसहस्साई उड्ड उच्चत्तेणं, दस ऊर्ध्व उच्चत्वेन, दश गव्यूतिसहस्राणि हजार योजन की है। उसकी गहराई दस गाउयसहस्साइउवहेणं, मूले दस उद्वेधेन, मूले दश योजनसहस्राणि हजार गाऊ की है । मूलभाग में उसकी जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णते। विष्कम्भण प्रज्ञप्तः ।
चौड़ाई दस हजार योजन की है। ६१. सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देव राजस्य सोमस्य ६१. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज सोमस्स महारणो। . महाराजस्य ।
सोम के सोमप्रभ उत्पात पर्वत का वर्णन जधा सक्कस्स तथा सर्वेसि यथा शत्रस्य तथा सर्वेषां लोकपाला- शक्र के उत्पात पर्वत की भांति वक्तव्य लोगालाणं, ससि च इंदाणं जाव नाम्, सर्वेषां च इन्द्राणां यावत् अच्चुत- है। शेष सभी लोकपालों तथा अच्युत पर्यन्त अच्चुयत्ति । सर्वेसि पमाणमेगं। इति । सर्वेषां प्रमाणमेकम् ।
सभी इन्द्रों के उत्पात पर्वतों का वर्णन शक्र की भांति वक्तव्य है। क्योंकि उन सबका क्षेत्र-प्रमाण एक जैसा है।
ओगाहणा-पदं अवगाहना-पदम्
अवगाहना-पद ६२. बायरवणस्सइकाइयाणं उक्कोसेणं बादरवनस्पतिकायिकानां उत्कर्षेण दश ६२. बादर बनस्पतिकायिक जीवों के शरीर
दस जोयणसयाई सरीरोगाहणा योजनशतानि शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता। की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन पण्णत्ता।
की है। ६३. जलचर-पंचिदियतिरिक्खजोणि- जलचर-पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकानां ६३. तिर्यग्योनिक जलचर पञ्चेन्द्रिय जीवों
याणं उक्कोसेणं दस जोयणसताई उत्कर्षण दश योजनशतानि शरीराव- के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना एक सरीरोगाहणा पण्णत्ता। गाहना प्रज्ञप्ता।
हजार योजन की है। ६४. उरपरिसप्प-थलचर-पंचिदियति- उर:परिसर्प-स्थलचर-पञ्चेन्द्रियतिर्यग- ६४. तिर्यग्योनिक स्थलचर पञ्चेन्द्रिय उररिवखजोणियाणं उक्कोसेणं दिस योनिकानां उत्कर्षेण दश योजनशतानि
परिसों के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना जोयणस ताई सरीरोगाहणा शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता।
एक हजार योजन की है। पण्णत्ता।
तित्थगर-पदं तीर्थकर-पदम्
तीर्थकर-पद ६५. संभवाओ णं अरहातो अभिणंदणे सम्भवाद् अर्हत: अभिनन्दनः अर्हन् ६५. अर्हत् संभव के बाद दस लाख करोड़
अरहा दसहि सागरोवमकोडिसत- दशषु सागरोपमकोटिशतसहस्रेषु व्यति- सागरोपम काल व्यतीत होने पर अर्हत् सहस्सेहि वोतिक्कतेहि समुप्पण्णे। क्रान्तेषु समुत्पन्नः ।
अभिनन्दन समुत्पन्न हुए।
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ठाणं (स्थान)
अनंत-पदं
६६. दसविहे अनंत पण्णत्ते, तं जहा णामाणंतर, ठवणाणंतए, दवात, गणात, पसाणंतए, एगतोणंतए, दुहतोणंतए, देस वित्थाराणंतए, सव्व वित्थाराणंतए, सास ताणंतए ।
पुव्ववत्थु -पदं
६७. उपाय पुसणं दस वत्थू पण्णत्ता । ६८. अस्थि त्थिष्पवाय पुव्वस्स णं दस चूलवत्थू पण्णत्ता ।
६.१५
अनन्त-पदम्
दशविधं अनन्तकं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा—
नामानन्तकं, स्थापनानन्तकं,
द्रव्यानन्तकं, गणनानन्तकं, प्रदेशानन्तकं, एकतोनन्तकं, द्विधानन्तकं, देशविस्तारानन्तकं, सर्वविस्तारानन्तकं, शाश्वतानन्तकम् ।
पडसेवणा-पदं
६६. दस विहा पडिसेवणा पण्णत्ता, तं दशविधा
तद्यथा—
जहा. - संग्रहणी - गाहा
१. दप्प पमायणाभोगे,
आउरे आवतीसु य । संकिते सहसक्कारे, भयप्पओसा य वीमंसा ॥
पूर्ववस्तु-पदम्
उत्पादपूर्वस्य दश वस्तूनि प्रज्ञप्तानि । अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वस्य दश चूलावस्तूनि प्रज्ञप्तानि ।
प्रतिषेवणा-पदम्
प्रतिषेवणा प्रज्ञप्ता,
संग्रहणी - गाथा १. दर्पः प्रमादोनाभोगः, आरे आपत्सु च । शङ्कि
सहसाकारे, भयं प्रदोषाच्च विमर्शः ॥
स्थान १० : सूत्र ६६-६६
अनन्त पद
६६. अनन्तक के दस प्रकार हैं
१. नाम अनन्तक - किसी वस्तु का अनंत ऐसा नाम । २. स्थापना अनन्तक - किसी वस्तु में अनन्तक की स्थापना [ आरोपण ] । ३. द्रव्य अनन्तक - परिणाम की दृष्टि से अनन्त । ४. गणना अनन्तक संख्या की दृष्टि से अनन्त । ५. प्रदेश अनन्तक-अवयवों की दृष्टि से अनन्त । ६. एकतः अनन्तक - एक ओर से अनन्त, जैसे-अतीत काल । ७. उभयतः अनन्तक दो ओर से अनन्त, जैसे- अतीत और अनागत काल | ८. देशविस्तार अनन्तकप्रतर की दृष्टि में अनन्त । ६. सर्वविस्तार अनन्तक व्यापकता की दृष्टि से अनन्त । १०. शाश्वत अनन्तक शाश्वतता की दृष्टि से अनन्त ।
पूर्ववस्तु पद
६७. उत्पाद पूर्व के वस्तु [ अध्याय ] दस हैं । ६८. अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के चूला वस्तु दस
हैं । प्रतिषेवणा-पद
६६. प्रतिवेषणा के दस प्रकार हैं---
१. दर्पप्रतिषेवणा-दर्प [ उद्धतभाव ] से किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । २. प्रमादप्रतिषेवणा- कषाय, विकथा आदि से किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का सेवन । ३. अनाभोग प्रतिषेवणा- विस्मृतिवश किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । ४. आतुरप्रतिषेवणा- भूख-प्यास और रोग से अभिभूत होकर किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । ५. आपत् प्रतिषेवणा-आपदा प्राप्त होने पर किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । ६. शंकित प्रतिषेवणा-एषणीय आहार आदि को भी शंका सहित लेने से होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । ७. सहसाकरणप्रतिषेवणाअकस्मात् होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । ८. भयप्रतिषेवणाभयवश होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । 8 प्रदोषप्रतिषेवणा— क्रोध आदि कषाय से किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का सेवन । १०. विमर्शप्रतिषेवणा- शिष्यों की परीक्षा के लिए किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन
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ठाणं (स्थान)
आलोयणा-पदं
७०. दस आलोयणादोसा पण्णत्ता, तं
जहा -
१. आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता,
दि बायरं च सुमं वा ।
सद्दा उलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ॥
தூர்
७१. दसह ठाणेहिं संपणे अणगारे अरिहति अत्तदोस मालोएत्तए, तं
जहा - जाइसंपणे, कुलसंपणे, • विनयसंपणे, णाणसं पण्णे,
दंसण संपणे, चरितसंपणे, खंते, अच्छा।
दंते, अमायी,
आलोचना-पदम्
दश आलोचना दोषाः प्रज्ञप्ताः,
१६
तद्यथा—
१. आकम्प्य
अनुमन्य,
यद् दृष्टं बादरं च सूक्ष्मं वा । छन्नं
शब्दाकुलकं, बहुजनं अव्यक्तं तत्सेवी ॥
दशभिः स्थानैः संपन्नः अनगारः अर्हति आत्मदोषं आलोचयितुम्, तद्यथा
जातिसम्पन्नः,
विनयसम्पन्नः,
दर्शनसम्पन्नः,
क्षान्तः, अपश्चात्तापी ।
दान्तः,
कुलसम्पन्नः, ज्ञानसम्पन्नः
चरित्र सम्पन्नः, अमायी,
स्थान १० : सूत्र ७०-७१
आलोचना-पद
७०. आलोचना के दस दोष हैं"
१. आकम्प्य सेवा आदि के द्वारा आलो
चना देने वाले की आराधना कर आलो
चना करना । २. अनुमान्य — मैं दुर्बल हूं, मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देना - इस प्रकार अनुनय कर आलोचना करना । ३. यद्दृष्ट - आचार्य आदि के द्वारा जो दोष देखा गया है - उसी की आलोचना करना । ४. बादर - केवल बड़े दोषों की आलोचना करना । ५. सूक्ष्म - केवल छोटे दोषों की आलोचना करना । ६. छन्नआचार्य सुन पाए वैसे आलोचना करना । ७. शब्दाकुल- जोर-जोर से बोलकर दूसरे अगीतार्थं साधु सुने वैसे आलोचना करना । ८. बहुजन - एक के पास आलोचना कर फिर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना । ९. अव्यक्त — अगीतार्थ के पास दोषों की आलोचना करना । १०. तत्सेवी - आलोचना देने वाले जिन दोषों का स्वयं सेवन करते हैं, उनके पास उन दोषों की आलोचना करना । ७१. दस स्थानों से सम्पन्न अनगार अपने दोषों की आलोचना करने के लिए योग्य होता
है
१. जातिसम्पन्न,
३. विनयसम्पन्न,
५. दर्शनसम्पन्न,
७. क्षांत, ८. दांत,
१०. अपश्चात्तापी ।
२. कुल सम्पन्न,
४. ज्ञानसम्पन्न,
६. चारित्र सम्पन्न, ६. अमायावी,
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ठाणं (स्थान)
७२. दसह ठाणेहिं संपणे अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा -
आयारवं, आहारवं ववहारवं ओवीलए, पकुव्वए, अपरिस्साई, णिज्जाव, अवायदंसी, पियधम्मे, दधमे ।
१७
दशभिः स्थानैः सम्पन्नः अनगारः अर्हति आलोचनां प्रतिदातुम्, तद्यथा—
आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अपव्रीडकः, प्रकारी, अपरिश्रावी, निर्यापकः, अपायदर्शी, प्रियधर्मा, दृढधर्मा |
पायच्छित्त-पदं
७३. दसविधे पायच्छिते पण्णत्ते, तं दशविधं
प्रायश्चित्तं
प्रज्ञप्तम्,
जहा -
तद्यथा
आलोया रहे, 'पडिक्कमणारिहे, आलोचना, प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयार्ह, तदुभयारिहे, विवेगार, विवेकार्ह, व्युत्सर्गार्ह, तपोर्ह, छेदार्ह, विग्गार, तवारि, छेयारिहे, मूलारिहे, पारंचियारि ।
अनवस्थाप्यार्ह,
मूलाह, अणवट्टप्पारिहे, पाराञ्चितार्हम् ।
प्रायश्चित्त-पदम्
स्थान १० : सूत्र ७२-७३ ७२. दस स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने के योग्य होता है२४
-
१. आचारवान् — ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - इन पांच आचारों से युक्त । २. आधारवान् - आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोच्यमान समस्त अतिचारों को जानने वाला । ३. व्यवहारवान् - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतइन पांच व्यवहारों को जानने वाला । ४. अपव्रीडक - आलोचना करने वाले व्यक्ति में, वह लाज या संकोच से मुक्त होकर सम्यक् आलोचना कर सके वैसा, साहस उत्पन्न करने वाला । ५. प्रकारीआलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला । ६. अपरिश्रावी - आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रगट न करने वाला । ७. निर्यापक- बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके- ऐसा सहयोग देने वाला । ८. अपायदर्शीप्रायश्चित्त भङ्ग से तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला । ६. प्रियधर्मा - जिसे धर्म प्रिय हो । १०. दृढधर्मा - जो आपत्काल में भी धर्म से विचलित न हो। प्रायश्चित्त-पद
७३. प्रायश्चित्त दस प्रकार का होता है "
१. आलोचना योग्य – गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन |
२. प्रतिक्रमण - योग्य -- मिथ्या मे दुष्कृतम्' - मेरा दुष्कृत निष्फल हो इसका भावना पूर्वक उच्चारण ।
३. तदुभय-योग्य - आलोचना और प्रतिक्रमण ।
४. विवेक-योग्य - अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग |
५. व्युत्सर्ग- योग्य कायोत्सर्ग |
६. तप-योग्य -- अनशन, ऊनोदरी आदि ।
७. छेद- योग्य - दीक्षा पर्याय का छेदन ।
८. मूल योग्य - पुनर्दीक्षा |
६. अनवस्थाप्य योग्य - तपस्या पूर्वक पुनर्दीक्षा |
१०. पाचिक योग्य — भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक पुनर्दीक्षा |
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स्थान १० : सूत्र ७४-७८ मिच्छत्त-पदं मिथ्यात्व-पदम्
मिथ्यात्व-पद ७४. दसविधे मिच्छत्ते पण्णत्ते, तं जहा- दशविध मिथ्यात्व प्रज्ञप्तम, तद्यथा- ७४. मिथ्यात्व के दस प्रकार हैंअधम्मे धम्मसण्णा, अधर्मे धर्मसंज्ञा,
१. अधर्म में धर्म की संज्ञा। धम्मे अधम्मसण्णा, धर्मे अधर्मसंज्ञा,
२. धर्म में अधर्म की संज्ञा। उमग्गे मग्गसण्णा, उन्मार्गे मार्गसंज्ञा,
३. अमार्ग में मार्ग की संज्ञा। मग्गे उम्मग्गसण्णा, मार्गे उन्मार्गसंज्ञा,
४. मार्ग में अमार्ग की संज्ञा । अजीवेसु जीवसण्णा, अजीवेषु जीवसंज्ञा,
५. अजीव में जीव की संज्ञा। जीवेसु अजीवसण्णा, जीवेषु अजीवसंज्ञा,
६. जीव में अजीव की संज्ञा। असाहुसु साहुसण्णा, असाधुषु साधुसंज्ञा,
७. असाधु में साधु की संज्ञा। साहुसु असाहुसण्णा, साधुषु असाधुसंज्ञा,
८. साधु में असाधु की संज्ञा। अमुत्तेसु मुत्तसण्णा, अमुक्तेषु मुक्तसंज्ञा,
६. अमुक्त में मुक्त की संज्ञा। मुत्तेसु अमुत्तसण्णा। मुक्तेषु अमुक्तसंज्ञा।
१०. मुक्त में अमुक्त की संज्ञा। तित्थगर-पदं तीर्थकर-पदम्
तीर्थकर पद ७५. चंदप्पभे णं अरहा दस पुव्वसत- चन्द्रप्रभः अर्हन् दश पूर्वशतसहस्राणि ७५. अर्हत् चन्द्रप्रभ दस लाख पूर्व का पूर्णायु
सहस्साइ सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे सर्वायु: पालयित्वा सिद्धः बुद्ध: मुक्तः पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परि'बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःख- निर्वृत और समस्त दुःखों से रहित हुए। सव्वदुक्खप्पहीणे।
प्रक्षीणः । ७६. धम्मे णं अरहा दस वाससयसह- धर्मः अर्हन् दश वर्षशतसहस्राणि सर्वायुः ७६. अर्हत् धर्म दस लाख वर्ष का पूर्णायु पाल
स्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे पालयित्वा सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे परिनिर्वतः सर्वदुःखप्रक्षीणः ।
और समस्त दुःखों से रहित हुए। सव्वदुक्खप्पहीणे । ७७. णमी णं अरहा दस वाससयसह- नमिः अर्हन् दश वर्षसहस्राणि सर्वायुः ७७. अर्हत् नमि दस हजार वर्ष का पूर्णायु
स्साइ सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे पालयित्वा सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परि'बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिन्वुडे परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रक्षीणः । निर्वृत और समस्त दुःखों से रहित हुए । सव्वदुक्खप्पहीणे ।
वासुदेव-पदं वासुदेव-पदम्
वासुदेव-पद ७८. पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससय- पुरुषसिंहः वासुदेवः दश वर्षशतसहस्राणि ७८. पुरुषसिंह नामक पांचवें वासुदेव दस लाख
सहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सर्वायु: पालयित्वा षष्ठ्यां तमायां वर्ष का पूर्णायु पालकर ‘तमा' नामक छठी छट्ठीए तमाए पुढवीए णेरइयत्ताए पृथिव्यां नैरयिकतया उपपन्नः। पृथ्वी में नरयिक के रूप में उत्पन्न हुए। उववण्णे।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान 20: सूत्र ७६-८२ तित्थगर-पदं तीर्थकर-पदम्
तीर्थकर-पद ७६. णेमी णं अरहा दस धणूई उड्ड नेमिः अर्हन् दश धषि ऊर्ध्व उच्च- ७६. अर्हत् नेमि के शरीर की ऊंचाई दस धनुष्य
उच्चत्तेणं, दस य वाससयाई त्वेन दश च वर्षशतानि सर्वायुः पाल- की थी। वे एक हजार वर्ष का पूर्णायु सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे 'बुद्धे यित्वाः सिद्ध: बुद्धः मुक्तः अन्तकृत: पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिमुत्ते अंतगडे परिणिन्वुडे सव्व- परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रक्षीणः । निर्वत और समस्त दुःखों से रहित हुए। दुक्ख पहीणे। वासुदेव-पदं वासुदेव-पद
वासुदेव-पद ८०. कण्हे णं बासुदेवे दस धणइं उम्र कृष्णः वासुदेवः दश धनूंषि ऊर्ध्व ८०. वासुदेव कृष्ण के शरीर की ऊंचाई दस
उच्चत्तेणं, दस य वाससयाइ उच्चत्वेन, दश च वर्षशतानि सर्वायु: धनुष्य की थी। वे एक हजार वर्ष का सव्वाउयं पालइत्ता तच्चाए वालु- पालयित्वा तृतीयायां बालुकाप्रभायां । पूर्णायु पालकर 'वालुकाप्रभ' नामक यप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए पृथिव्यां नैरयिकतया उपपन्नः। तीसरी पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उत्पन्न उववण्णे।
भवणवासि-पदं भवनवासि-पदम्
भवनवासि-पद ८१. दसविहा भवणवासी देवा पण्णत्ता, दशविधा: भवनवासिनः देवाः प्रज्ञप्ताः, ८१. भवनवासी देव दस प्रकार के हैंतं जहातद्यथा
१. असुरकुमार, २. नागकुमार, असुरकुमारा जाव थणियकुमारा। असुरकुमाराः यावत् स्तनितकुमाराः। ३. सुपर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार,
५. अग्निकुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. दिशाकुमार,
६. वायुकुमार, १०. स्तनितकुमार। ८२. एएसिणं दसविधाणं भवणवासीणं एतेषां दशविधानां भवनवासिनां देवानां ५२. इन भवनवासी देवों के दस चैत्य वृक्ष हैं
देवाणं दस चेइयरुक्खा पण्णत्ता, दश चैत्यरुक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथातं जहा
संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. अस्सत्य सत्तिवण्णे, १. अश्वत्थः सप्तपर्णः, सामलि उंबर सिरीस दहिवणे। शाल्मल्युदुम्बरः शिरीषः दधिपर्णः । वंजुल पलास वग्घा, वंजुल पलाश व्याघ्राः, तते य कणियाररुक्खे ॥ ततश्च कर्णिकाररुक्षः ।।
१. अश्वत्थ-पीपल । २. सप्तपर्ण--सात पत्तों वाला पलाश । ३. शाल्मली-सेमल। ४. उदुम्बर-गूलर। ५. शिरीष। ६. दधिपर्ण। ७. वंजुल-अशोक। ८. पलाश-तीन पत्तों वाला पलाश। ६. व्याघ्र -लाल एरण्ड। १०. कणिकार-कनेर।
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स्थान १० : सूत्र ८३-८४
सोक्ख-पदं ५३. दसविधे सोक्खे पण्णत्ते, तं जहां
१. आरोग्ग दोहमाउं, अड्डेज्जं काम भोग संतोसे। आत्थ सुहभाग णिक्खम्म- मेवतत्तो अणाबाहे ॥
सौख्य-पदम् दशविधं सौख्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा१. आरोग्यं दीर्घमायुः, आढ्यत्वं कामः भोग: संतोषः । अस्ति शुभभोगः निष्क्रम: एव ततोऽनाबाधः ॥
सौख्य-पद ८३. सुख के दस प्रकार हैं
१. आरोग्य, २. दीर्घ आयुष्य, ३. आढयता-धन की प्रचुरता। ४. काम-शब्द और रूप। ५. भोग-गंध, रस और स्पर्श । ६. सन्तोष-अल्पइच्छा। ७. अस्ति-जब-जब जो प्रयोजन होता है उसकी तब-तब पूर्ति हो जाना। ८. शुभभोग-रमणीय विषयों का भोग करना। ९. निष्क्रमण-प्रव्रज्या। १०.अनाबाध-जन्म, मृत्यु आदि की बाधाओं से रहित-मोक्ष-सुख।
उवधात-विसोहि-पदं उपघात-विशोधि-पदम् १४. दसविधे उवधाते पण्णत्ते, तं दशविधः उपघात: प्रज्ञप्तः. तदयथा_
जहाउग्गमोवधाते, उप्पायणोवधाते, उद्गमोपघातः, उत्पादनोपघात:, •एसणोवधाते, परिकम्मोवधाते,° एषणोपघातः, परिकर्मोपघातः, परिहरणोवघाते, णाणोवधाते, परिधानोपघातः, ज्ञानोपघातः, दसणोवघाते, चरित्तोवघाते, दर्शनोपघातः, चरित्रोपघातः, अचियत्तोवघाते, सारक्खणोवधाते। अप्रीत्युपघातः, संरक्षणोपघातः।
उपघात-विशोधि-पद ८४. उपघात के दस प्रकार हैं
१. उद्गम [भिक्षा सम्बन्धी दोषों से होने वाला चारित्र का उपघात । २. उत्पाद [भिक्षा सम्बन्धी दोषों] से होने वाला चारित्न का उपघात । ३. एषणा [भिक्षा सम्बन्धी दोषों से होने वाला चारित्र का उपघात । ४. परिकर्म [वस्त्र-पात्र आदि संवारने] से होने वाला चारित्र का उपघात । ५. परिहरण [अकल्प्य उपकरणों के उपभोग] से होने वाला चारित्र का उपघात । ६.प्रमाद आदि से होने वाला ज्ञान का अपघात । ७. शंका आदि से होने वाला दर्शन का उपघात। ८. समितियों के भंग से होने वाला चारित्र का उपघात । ६. अप्रीति उपघात-अप्रीति से होने वाला विनय आदि का उपघात ।। १०. सरक्षण उपघात-शरीर आदि में मूर्छा रखने से होने वाला परिग्रह-विरति का उपघात ।
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स्थान १०:सूत्र८५-८७ ८५. दसविधा विसोही पण्णत्ता, तं दश विधा विशोधिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- ८५. विशोधि के दस प्रकार हैंजहा
१. उद्गम की विशोधि। उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही, उद्गमविशोधिः, उत्पादनविशोधिः,
२. उत्पादन की विशोधि। •एसणाविसोही, परिकम्मविसोही, एषणाविशोधिः, परिकर्मविशोधिः, ३. एषणा की विशोधि। परिहरणविसोही, णाणविसोही, परिधानविशोधिः, ज्ञानविशोधि:,
४. परिकर्म-विशोधि,
५. परिहरण-विशोधि। दसणविसोही, चरित्तविसोही, दर्शनविशोधिः, चरित्रविशोधि:, ६. ज्ञान की विशोधि। अचियत्तविसोही, अप्रीतिविशोधिः, संरक्षणविशोधिः .
७. दर्शन की विशोधि।
८. चारित्र की विशोधि। सारक्खणविसोही।
६. अप्रीति की विशोधि-अप्रीति का निवारण। १०. संरक्षण-विशोधि-संयम के साधन
भूत उपकरण रखने से होने वाली विशोधि । संकिलेस-असंकिलेस-पदं संक्लेश-असंक्लेश-पदम्
संक्लेश-असंक्लेश-पद ८६. दस विधे संकिलेसे पण्णत्ते, तं दशविधः संक्लेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ८६. संक्लेश के दस प्रकार हैं
१. उपधि-संक्लेश--उपधि विषयक जहा
असमाधि। उवहिसंकिलेसे, उवस्सयसंकिलेसे, उपधिसंक्लेशः, उपाश्रयसंक्लेशः, २. उपाश्रय-संक्लेश-स्थान विषयक कसायसंकिलेसे, भत्तपाणसंकिलेसे, कषायसंक्लेशः, भक्तपानसंक्लेशः,
असमाधि।
३. कषाय-संक्लेश-कषाय से होने वाली मणसंकिलेसे, वइसंकिलेसे, मनःसंक्लेशः, वाक्संक्लेशः,
असमाधि। कायसंकिलेसे, णाणसंकिलेसे, कायसंक्लेशः, ज्ञानसंक्लेशः, ४. भक्तपान-संक्लेश--भक्तपान से होने दसणसंकिलेसे, चरित्तसंकिलेसे। दर्शनसंक्लेशः, चरित्रसंक्लेशः।
वाली असमाधि। ५. मन का संक्लेश। ६. वाणी के द्वारा होने वाला संक्लेश। ७. काया से होने वाला संक्लेश । ८. ज्ञान-संक्लेश-ज्ञान की अविशुद्धता। ६. दर्शन-संक्लेश-दर्शन की अविशुद्धता, १०. चारित्र-संक्लेश-चारित्र की अवि
शुद्धता। ५७. दस विहे असंकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधः असंक्लेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ८७. असंक्लेश के दस प्रकार हैंउवहिअसंकिलेस,
उपध्यसंक्लेशः, उपाश्रयासक्लेशः, १. उपधि-असंक्लेश, 'उवस्सयअसं किलेसे,
कषायासंक्लेशः, भक्तपानासंक्लेशः, २. उपाश्रय-असंक्लेश, कसायअसंकिलेसे,
मनोऽसंक्लेशः, वागसंक्लेशः, ३. कषाय-असंक्लेश, भत्तपाणअसंकिलेसे,
कायासंक्लेशः, ज्ञानासंक्लेशः, ४. भक्तपान-असंक्लेश, मणअसंकिलेसे,
दर्शनासंक्लेशः, चरित्रासंक्लेशः । ५. मन-असंक्लेश, वइअसंकिलेसे,
६. वचन-असंक्लेश, कायअसंकिलेसे,
७. काय-असंक्लेश,
८. ज्ञान-असंक्लेश, णाणअसंकिलेसे.
६. दर्शन-असंक्लेश, दसणअसंकिलेसे,
१०. चारित्न-असंक्लेश । चरित्तअसंकिलेसे।
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स्थान १० : सूत्र ८८-६१
बल-पदं
बल-पदम ८८. दस विधे बले पण्णत्ते, तं जहा- दशविधं बलं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-
सोतिदियबले, 'चक्खिदियबले, श्रोत्रेन्द्रियबलं, चक्षुरिन्द्रियबलं, घाणिदियबले, जिभिदियबले, घ्राणेन्द्रियबलं, जिह्वन्द्रियबलं, फासि दियबले, णाणबले, स्पर्शेन्द्रियबलं, ज्ञानबलं, दर्शनबलं, दसणबले, चरित्तबले, तवबले, चरित्रबलं,
तपोबलं, वीरियबले।
वीर्यबलं ।
बल-पद ८८. बल [सामर्थ्य ] के दस प्रकार हैं
१. श्रोनेन्द्रियवल, २. चक्षुइन्द्रियबल, ३. घ्राणइन्द्रियबल, ४. जिह्वाइन्द्रियबल, ५. स्पर्शइन्द्रियबल, ६. ज्ञानबल, ७. दर्शनबल, ८. चारित्रबल, ६. तपोबल, १०. वीर्यबल ।
भासा-पदं भाषा-पदम्
भाषा-पद ८६. दसविहे सच्चे पण्णत्ते, तं जहा
८६. सत्य के दस प्रकार हैंसंगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. जणवय सम्मय ठवणा, १. जनपद: सम्मतं स्थापना,
१. जनपद सत्य, २. सम्मत सत्य, णामे रूवे पडुच्चसच्चे य। नाम रूपं प्रतीत्यसत्यं च ।
३. स्थापना सत्य, ४. नाम सत्य, ववहार भाव जोगे, व्यवहारः भावः योगः,
५. रूप सत्य, ६. प्रतीत्य सत्य, दसमे ओवम्मसच्चे य॥ दशमं औपम्यसत्यञ्च ।।
७. व्यवहार सत्य, ८. भाव सत्य,
६. योग सत्य, १०. औपम्य सत्य । १०. दसविधे मोसे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधं मृषा प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६०. मृषा-वचन के दस प्रकार हैं१. कोधे माणे माया, १. क्रोधे माने मायायां,
१. क्रोध निश्रित, २. मान निश्रित, लोभे पिज्जे तहेव दोसे य। लोभे प्रेयसि तथैव दोषे च।
३. माया निश्रित, ४. लोभ निश्रित, हास भए अक्खाइय, हासे भये आख्यायिकायां,
५. प्रेयस् निश्रित, ६. द्वेष निश्रित, उवधात णिस्सिते दसमे॥ उपघाते निश्रितं दशमम् ।।
७. हास्य निश्रित, ८. भय निश्रित, ६. आख्यायिका निश्रित,
१०. उपघात निश्रित। ६१. दसविधे सच्चामोसे पण्णत्ते, तं दशविधं सत्यमृषा प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६१. सत्यामृषा [मिश्रवचन] के दस प्रकार
जहाउप्पण्णमीसए, विगतमीसए, उत्पन्न मिश्रक, विगतमिश्रक, उत्पन्न- १. उत्पन्नमिश्रक, २. विगतमिश्रक, उप्पण्ण-विगतमीसए, जीवमीसए, विगतमिश्रक, जीवमिश्रक, अजीवमिश्रको ६. उत्पन्न विगतमिश्रत, ४. जीवमिश्रक, अजीवमीसए, जीवाजीवमीसए, जीवाजीवमिश्रक, अनन्तमिश्रकं, ५. अजीवमिश्रक, ६. जीवअजीवमिश्रक, अणंतमीसए, परित्तमीसए, परीतमिथक, अध्वामिश्रक, ७. अनन्तमिश्रक, ८. परीतमिश्रक, अद्धामीसए, अद्ध द्धामीसए। अध्वाऽध्वामिथकम् ।।
६. अद्धा [काल] मिश्रक, १०. अद्धा-अद्धा [कालांश मिश्रक ।
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स्थान १० : सूत्र ६२-६४ दिट्टिवाय-पदं दृष्टिवाद-पदम्
दृष्टिवाद-पद ६२. दिदिवायस्स णं दस णामधेज्जा दृष्टिवादस्य दश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, ६२. दृष्टिबाद के दस नाम हैं--- एण्णत्ता, तं जहा-
तदयथा_ दिदिवाएति वा, हेउवाएति वा, दृष्टिवाद इति वा, हेतुवाद इति वा,
१. दृष्टिवाद, २. हेतुवाद, भूयवाएति वा, तच्चावाएति वा, भूतवाद इति वा, तत्त्ववाद इति वा, ३. भूतवाद, ४. तत्त्ववाद [तथ्यवाद], सम्मावाएति वा, धम्मावाएति वा, सम्यग्वाद इति वा, धर्मवाद इति वा, ५. सम्यग्वाद, ६. धर्मवाद, भासाविजएति वा, पुव्वगतेति वा, भाषाविचय इति वा, पूर्वगत इति वा, ७. भाषाविचय [भाषाविजय], अणुजोगगतेति वा, अनुयोगगत इति वा,
८. पूर्वगत, ६. अनुयोगगत, सव्वपाणभूतजीवसत्तसुहावहेति वा। सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावह इति वा। १०. सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावह । सत्थ-पदं शस्त्र-पदम्
शस्त्र-पद ६३. दसविधे सत्थे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधं शस्त्रं प्रज्ञप्तम, तद्यथा- ६६. शस्त्र के दस प्रकार हैंसंगह-सिलोगो
संग्रह-श्लोक १. सत्थमग्गी विसं लोणं, १. शस्त्रं अग्निः विषं लवणं,
१. अग्नि, २. विष, ३. लवण, ४. स्नेह,
५.क्षार, ६. अम्ल, ७. दुष्प्रयुक्त मन, सिणेहो खारमंबिलं। स्नेहः क्षारः आम्लम् ।
८. दुष्प्रयुक्त वचन, ६. दुष्प्रयुक्त काया, दुप्पउत्तो मणो वाया, दुष्प्रयुक्तः मनो वाक्,
१०. अविरति
ये चारों [७, ८, ९, १०] भाव-आत्मकाओ भावों य अविरती॥ कायः भावश्च अविरतिः ।।।
परिणामात्मक शस्त्र हैं। दोस-पदं दोष-पदम
दोष-पद ६४. दसविहे दोसे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधः दोषः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
१४. दोष के दस प्रकार हैं
१. तज्जातदोष-वादकाल में प्रतिवादी १. तज्जातदोसे मतिभंगदोसे, १. तज्जातदोषः मतिभङ्गदोषः,
से क्षुब्ध होकर मौन हो जाना। पसत्थारदोसे परिहरणदोसे। प्रशास्तृदोषः परिहरणदोषः ।
३. मतिभंगदोष-तत्त्व की विस्मृति हो सलक्षण-कारण-हेउदोसे, स्वलक्षण-कारण-हेतुदोषः,
जाना।
३. प्रशास्तृदोष-सभ्य या सभानायक संकामणं णिग्गह-वत्थुदोसे॥ संक्रामणं निग्रह-वस्तुदोषः ।।
की ओर से होने वाला दोष। ४. परिहरणदोष-वादी द्वारा उपन्यस्त हेतु का छल या जाति से परिहार करना। ५. स्वलक्षणदोष-वस्तु के निर्दिष्ट लक्षण में अव्याप्त, अतिव्याप्त, असम्भव दोष का होना। ६. कारणदोष-कारण सामग्री के एकांश को कारण मान लेना; पूर्ववर्ती होने मात्र से कारण मान लेना। ७. हेतुदोष-असिद्ध, विरुद्ध, अनेकांतिक आदि दोष। ८. संक्रमणदोष-प्रस्तुत प्रमेय को छोड़ अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना। ६. निग्रहदोष-छल आदि के द्वारा प्रतिवादी को निगृहीत करना। १०. वस्तुदोष-पक्ष के दोष ।
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स्थान १० : सूत्र ६५-६६ विसेस-पदं विशेष-पदम्
विशेष-पद ६५. दसविधे विसेसे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधः विशेषः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ६५. विशेष के दस प्रकार हैं
१. वस्तुदोषविशेष—पक्ष-दोष के विशेष १. वत्थु तज्जातदोसे य, १. वस्तु तज्जातदोषश्च,
प्रकार। दोसे एगट्ठिएति य। दोष एकाथिक इति च।
२. तज्जातदोषविशेष-वादकाल में प्रतिकारेण य पडुप्पण्णे, कारणं च प्रत्युत्पन्नं,
वादी से प्राप्त क्षेत्र के विशेष प्रकार।
३. दोषविशेष—अतिभंग आदि दोषों के दोसे णिच्चेहिय अट्ठमे॥ दोषोनित्यः अधिकोष्टमः॥
विशेष प्रकार। अत्तणा उवणीते य, आत्मना उपनीतं च,
४. एकाथिकविशेष-पर्यायवाची शब्दों विशेषः इति च ते दश ।।
में निरुर्थक्तिभेद से होने वाला अविसेसे ति य ते दस ॥
वैशिष्ट्य । ५. कारणविशेष-कारण के विशेष प्रकार। ६. प्रत्युत्पन्नदोष विशेष----वस्तु को क्षणिक मानने पर कृतनाश शीर आकृत योग नामक दोष। ७. नित्यदोषविशेष-वस्तु को सर्वथा नित्य मानने पर प्राप्त होने वाले दोष के विशेष प्रकार। ८. अधिकदोषविशेष----वादकाल में दृष्टान्त, निगमन आदि का अतिरिक्त प्रयोग। ६. आत्मनाउपनीतविशेष-उदाहरणदोष का एक प्रकार।
१०. विशेष-वस्तु का भेदात्मक धर्म। सुद्धवायाणुओग-पदं शुद्धवागनुयोग-पदम्
शुद्धवागनुयोग-पद ६६. दसविधे सुद्धवायाणुओगे पण्णत्ते, दशविधः शुद्धवागनुयोगः प्रज्ञप्तः, ६६. शुद्धवचन [वाक्य-निरपेक्ष पदों] का अनु
योग दस प्रकार का होता हैतं जहातद्यथा
१. चंकार अनुयोग-चकार के अर्थ का चंकारे, मंकारे, पिंकारे, सेयंकारे, चकारः, मकारः, अपिकारः, सेकारः,
विचार। सायंकारे, एगत्ते, पुषत्ते, संजूहे, सायंकार: एकत्वं, पृथक्त्वं, संयूथं, २. मंकार अनुयोग-मकार का विचार। संकामिते, भिण्णे। संक्रामितं, भिन्नम्।
३. पिंकार अनुयोग–'अपि' के अर्थ का विचार। ४. सेयंकार अनुयोग-'से' अथवा 'सेय' के अर्थ का विचार। ५. सायंकार अनुयोग–'सायं' आदि निपात शब्दों के अर्थ का विचार। ६. एकत्व अनुयोग-'एक वचन' का विचार। ७. पृथक्त्व अनुयोग-बहुवचन का विचार । ८. संयूथ अनुयोग-समास का विचार। ६. संक्रामित अनुयोग-विभक्ति और वचन के संक्रमण का विचार। १०. भिन्न अनुयोग-क्रमभेद, कालभेद आदि का विचार।
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स्थान १० : सूत्र ६७-६९
दाण-पदं दान-पदम्
दान-पद ६७. दसविहे दाणे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधं दानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६७. दान के दस प्रकार हैंसंगह-सिलोगो
संग्रह-श्लोक १. अणुकंपा संगहे चेव, १. अनुकम्पा संग्रहश्चैव,
१. अनुकम्पादान-करुणा से देना। भये कालुणिए ति य। भयं कारुणिक इति च ।
२. संग्रहदान-सहायता के लिए देना।
३. भयदान-भय से देना। लज्जाए गारवेणंच, लज्जया गौरवेण च,
४. कारुण्यकदान-मत के पीछे देना। अहम्मे उण सत्तमे॥ अधर्मः पुनः सप्तमः ॥
५. लज्जादान-लज्जावश देना।
६. गौरवदान-यश के लिए देना, गर्वधम्मे य अट्ठमे वुत्ते, धर्मश्च अष्टमः उक्त:,
पूर्वक देना। काहीति य कतंति य॥ करिष्यतीति च कृतमिति च ॥
७. अधर्मदान-हिंसा, असत्य आदि पापों में आसक्त व्यक्ति को देना। ८. धर्मदान-संयमी को देना। ६. कृतमितिदान-अमुक ने सहयोग किया था, इसलिए उसे देना। १०. करिष्यतिदान-अमुक आगे सहयोग
करेगा, इसलिए उसे देना। गति-पदं गति-पदम्
गति-पद १८. दस विधा गती पण्णता, तं जहा- दशविधा गतिः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ६८. गति के दस प्रकार है
णिरयगती, णिरयविग्गहगती, निरयगतिः, निरयविग्रहगतिः, १. नरकगति, २. नरकविग्रहगति, तिरियगती, तिरियविग्गहगती, तिर्यग्गतिः, तिर्यविग्रहगतिः, ३. तिर्यञ्चगति, ४.तिर्यञ्चविग्रहगति, 'मणुयगती, मणुयविग्गहगती, मनुजगतिः, मनुजविग्रहगतिः,
५. मनुष्यगति, ६. मनुष्यविग्रहगति, देवगती, देवविग्गहगती, देवगतिः, देवविग्रहगतिः,
७. देवगति, . देवबिग्रहगति, सिद्धिगती, सिद्धि विग्गहगती। सिद्धिगतिः, सिद्धिविग्रहगतिः । ६. सिद्धिगति, १०. सिद्धिविग्रहगति। मुंड-पदं मुण्ड-पदम्
मुण्ड-पद ६६. दस मुंडा पण्णत्ता, तं जहा- दश मुण्डाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- ६६. मुण्ड के दस प्रकार हैंसोतिदियमुंडे, 'क्खिदियमुंडे, श्रोत्रेन्द्रियमुण्डः, चक्षुरिन्द्रियमुण्डः, । १. श्रोत्रेन्द्रिय मुण्ड-थोवेन्द्रिय के विकार
का अपनयन करने वाला। धाणिदियमुंडे, जिभिदियमुंडे,° घ्राणेन्द्रियमुण्डः, जिह्वन्द्रियमुण्डः,
२. चक्षुइन्द्रिय मुण्ड-चक्षुइन्द्रिय के फासिदियमुंडे, कोहमुंडे, स्पर्शेन्द्रियमुण्डः, क्रोधमुण्डः, मानमुण्डः, विकार का अपनयन करने वाला। •माणमुंडे, मायामुंडे, लोभमुंडे, मायामुण्डः, लोभमुण्डः, सिरोमुण्डः ।
३. ब्राण इन्द्रिय मुण्ड--प्राणइन्द्रिय के
विकार का अपनयन करने वाला। सिरमुंडे।
४. जिह्वाइन्द्रिय मुण्ड-रसनइन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। ५. स्पर्शइन्द्रिय मुण्ड-स्पर्शनइन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। ६. क्रोध मुण्ड ---क्रोध का अपनयन करने वाला। ७. मान मुण्ड-मान का अपनयन करने वाला । ८. माया मुण्ड-माया का अपनयन करने वाला । ६. लोभ मुण्डलोभ का अपनयन करने वाला।१०.शिर मुण्ड--शिर के केशों का अपनयन करने वाला।
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ठाणं (स्थान)
६२६
स्थान १० : सूत्र १००-१०१
संखाण-पदं संख्यान-पदम
संख्यान-पद १००. दसविधे संखाणे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधं संख्यानं प्रज्ञप्तम, तद्यथा- १००. संख्यान के दस प्रकार हैसंगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. परिकम्मं ववहारो, १. परिकर्म व्यवहारः,
१. परिकर्म, २. व्यवहार, ३. रज्जू, रज्जू रासी कला-सवण्णे य। रज्जुः राशिः कला-सवणं च ।
४. राशि, ५. कलासवर्ण, ६. यावत्तावत्, जावंतावति वग्गो, यावत्तावत् इति वर्गः,
७. वर्ग, ८. घन, ६. वर्गवर्ग, घणो य तह वग्गवग्गोवि।। घनश्च तथा वर्गवर्गोऽपि ॥
१०. कल्प। कप्पो य०।
कल्पश्च०। १०१. दस विधे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं दशविधं प्रत्याख्यानं प्रज्ञप्तम, १०१. प्रत्याख्यान के दस प्रकार हैंजहातद्यथा
१. अनागतप्रत्याख्यान-भविष्य में कर१. अणागयमतिक्कतं, १. अनागतमतिक्रान्तं,
णीय तप को पहले करना।
२. अतिक्रान्तप्रत्याख्यान–वर्तमान में कोडीसहियं णियंटितं चेव । कोटिसहितं नियन्त्रितं चैव।
करणीय तप नहीं किया जा सके, उसे सागारमणागारं, सागारमनागारं,
भविष्य में करना। परिमाणकडंणिरवसेसं। परिमाणकृतं निरवशेषम् ।।
३. कोटिसहितप्रत्याख्यान—एक प्रत्यासंकेयगं चेव अद्धाए, संकेतकं चैव अध्वायाः,
ख्यान का अन्तिम दिन और दूसरे प्रत्यापच्चक्खाणं दसविहं तु॥ प्रत्याख्यानं दशविधं तु ॥
ख्यान का प्रारम्भिक दिन हो, वह कोटि सहित प्रत्याख्यान है। ४. नियन्त्रितप्रत्याख्यान-नीरोग या ग्लान अवस्था में भी 'मैं अमुक प्रकार का तप अमुक-अमुक दिन अवश्य करूंगा'इस प्रकार का प्रत्याख्यान करना। ५. साकारप्रत्याख्यान-[अपवाद सहित प्रत्याख्यान। ६. अनाकारप्रत्याख्यान-[अपवादरहित] प्रत्याख्यान। ७. परिमाणकृतप्रत्याख्यान-दत्ति, कवल, भिक्षा, गृह, द्रव्य आदि के परिमाण युक्त प्रत्याख्यान । ८. निरवशेषप्रत्याख्यान-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का सम्पूर्ण परित्याग युक्त प्रत्याख्यान । ६. संकेतप्रत्याख्यान-संकेत या चिह्न सहित किया जाने वाला प्रत्याख्यान । १०. अध्वाप्रत्याख्यान-मुहूर्त, पौरुषी आदि कालमान के आधार पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान।
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ठाणं (स्थान)
६२७
सामायारी-पदं
सामाचारी-पदम् १०२. दसविहा सामायारी पण्णत्ता, तं दशविधा सामाचारी जहा
तद्यथा
स्थान १० : सूत्र १०२-१०३
सामाचारी-पद प्रज्ञप्ता, १०२. सामाचारी के दस प्रकार हैं
संगह-सिलोगो १. इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिया य णिसीहिया। आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य णिमंतणा॥ उवसंपया य काले, सामायारी दसविहा उ।
संग्रह-श्लोक १. इच्छा मिथ्या तथाकारः, आवश्यकी च नैषेधिकी। आप्रच्छना च प्रतिपृच्छा, छन्दना च निमन्त्रणा ।। उवसंपदा च काले, सामाचारी दशविधा तु ।।
१. इच्छा--कार्य करने या कराने में इच्छाकार का प्रयोग। २. मिथ्या-भूल हो जाने पर स्वयं उसकी आलोचना करना। ३. तथाकार--आचार्य के वचनों को स्वीकार करना। ४. आवश्यकी--उपाश्रय के बाहर जाते समय आवश्यक कार्य के लिए जाता हूं' कहना। ५. नैषेधिकी-कार्य से निवृत्त होकर आए तब मैं निवृत्त हो चुका हूं' कहना। ६. आपृच्छा —अपना कार्य करने की आचार्य से अनुमति लेना। ७. प्रतिपृच्छा-दुसरों का कार्य करने की आचार्य से अनुमति लेना। ८. छन्दना-आहार के लिए सामिक साधुओं को आमंत्रित करना। ६. निमंत्रणा—'मैं आपके लिए आहार आदि लाऊँ'---इस प्रकार गुरु आदि को निमंत्रित करना। १०. उनपसंदा--ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष प्राप्ति के लिए कुछ समय तक दूसरे आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करना।
महावीर-सुमिण-पदं महावीर-स्वप्न-पदम्
महावीर-स्वप्न-पद १०३. समणे भगवं महावीरे छउमत्थ- श्रमण: भगवान महावीरः छद्मस्थ- १०३. श्रमण भगवान् महावीर छद्मस्थकालीन कालियाए अंतिमराइयंसी इमे दस कालिक्यां अन्तिमरात्रिकायां इमान दश ।
अवस्था में रात के अन्तिम भाग में दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, महास्वप्नान् दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः,
महास्वप्न देखकर प्रतिबुद्ध हुए। तं जहा
तद्यथा१. एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं १. एकं च महान्तं घोररूपदीप्तधरं
१. महान् घोररूप वाले दीप्तिमान एक
तालपिशाच [ताड जैसे लम्बे पिशाच] तालपिसायं सुमिणे पराजितं तालपिशाचं स्वप्ने पराजितं दृष्ट्वा
को स्वप्न में पराजित हुआ देखकर प्रतिपासित्ता णं पडिबुद्धे। प्रतिबुद्धः ।
बुद्ध हुए। २. एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं २. एकं च महान्तं शुक्लपक्षकं पुंस्को
२. श्वेत पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल पुसकोइलगं सुमिणे पासित्ता णं किलकं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः।।
को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। पडिबुद्धे।
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स्थान १० : सूत्र १०३
३. चित्रविचित्र पंखों वाले एक बड़े
स्कोकिल को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ४. सर्व रत्नमय दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
५. एक महान् श्वेत गोवर्ग को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ६. चहुं ओर कुसुमित एक बड़े पद्मसरोवर को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
ठाणं (स्थान)
१२८ ३. एगं च णं महं चित्तविचित्त- ३. एकं च महान्तं चित्रविचित्रपक्षक पक्खगं पुंसकोइलं सुविणे पासित्ता पुस्कोकिलं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः । णं पडिबुद्धे । ४. एगं च णं महं दामदुगं सव्व- ४. एकं च महद् दामद्विकं सर्वरत्नमयं रयणामयं सुमिणे पासित्ता णं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः । पडिबुद्धे । ५. एगं च णं महं सेतं गोवरगं ५. एकं च महान्तं श्वेतं गोवर्ग स्वप्ने सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः । ६. एगं च णं महं पउमसरं सव्वओ ६. एक च महत् पद्मसरः सर्वतः समंता कुसुमितं सुमिणे पासित्ता समन्तात् कुसुमितं स्वप्ने दृष्ट्वा णं पडिबुद्ध।
प्रतिबुद्धः। ७. एगं च णं महं सागरं उम्मी- ७. एकं च महान्तं सागरं उम्मि-वीचिवीची-सहस्सकलितं भुयाहिं तिण्णं सहस्रकलितं भुजाभ्यां तीर्ण स्वप्ने दृष्ट्वा सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । प्रतिबुद्धः । ८. एगं च णं महं दिणयरं तेयसा ८. एकं च महान्तं दिनकरं तेजसा जलंतं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ज्वलन्तं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः । ६. एगं च णं महं हरि-वेरुलिय- ६. एकं च महान्तं हरि-वैडूर्य-वर्णाभेन वण्णाभेणं णियएणमंतेणं माणु- निजकेन आन्त्रेण मानुषोत्तरं पर्वतं सुत्तरं पव्वतं सव्वतो समंता सर्वतः समन्तात् आवेष्टितं परिवेष्टितं आवेढियं परिवेढियं सुमिणे स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। पासित्ता णं पडिबुद्ध। १०. एगं च णं महं मंदरे पन्वते १०. एकं च महान्तं मंदरे पर्वते मन्दरमंदरचूलियाए उरि सीहासण- चूलिकायाः उपरि सिंहासनवरगतं वरगयमत्ताणं सुमिणे पासित्ता णं आत्मनं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। पडिबुद्ध। १. जण्णं समणे भगवं महावीरे १. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एक एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं च महान्तं घोररूपदीप्तधरं तालपिशाचं तालपिसायं सुमिणे पराजितं स्वप्ने पराजितं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तत् पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्णं समणेणं श्रमणेन भगवता महावीरेण मोहनीयं भगवता महावीरेणं मोहणिज्जे कर्म मूलत: उद्घातितम् । कम्मे मूलओ उग्घाइते।
७. स्वप्न में हजारों ऊर्मियों और वीचियों से परिपूर्ण एक महासागर को भुजाओं से तीर्ण हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ८. तेज से जाज्वल्यमान एक महान् सूर्य को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ६. स्वप्न में भूरे व नीले वर्ण वाली अपनी आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को चारों ओर से आवेष्टित और परिवेष्टित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
१०. स्वप्न में महान् मन्दर पर्वत की मन्दरचलिका पर अवस्थित सिंहासन के ऊपर अपने आपको बैठे हुए देखकर प्रतिबुद्ध हुए। १. श्रमण भगवान् महावीर महान् घोररूप वाले दीप्तिमान् एक तालपिशाच [ताड जैसे लम्बे पिशाच] को स्वप्न में पराजित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप भगवान् ने मोहनीय कर्म को मूल से उखाड़ फेंका।
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स्थान १० : सूत्र १०३ २. श्रमण भगवान महावीर श्वेत पंखों वाले एक बड़े स्कोकिल को देखकर प्रतिबद्ध हुए, उसके फलस्वरूप भगवान् शुक्लध्यान को प्राप्त हुए।
ठाणं (स्थान)
६२६ २. जण्णं समणे भगवं महावीरे २. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एक एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं च महान्तं शुक्लपक्षकं पुंस्कोकिलकं 'पुंसकोइलगंसुमिणे पासित्ता णं° स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणः । पडिबुद्धे, तणं समणे भगवं भगवान् महावीरः शुक्लध्यानोपगतः । महावीरे सुक्कझाणोवगए विहरइ। विहरति । ३. जण्ण समणे भगवं महावीरे ३. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं च महान्तं चित्र विचित्रपक्षक पुस्कोकिलं 'पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता गं° स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणः पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं भगवान् महावीरः स्वसमय-परसामयिक महावीरे ससमय-परसमयियं चित्रविचित्रकं द्वादशाङ्ग गणिपिटकं चित्तविचित्तं दुवालसंगं गणिपिडगं आख्याति प्रज्ञापयति प्ररूपयति दर्शयति आघवेति पण्णवेति परवेति सेति निदर्शयति, उपदर्शयति तदयथाणिदंसति उवदंसेति, तं जहाआयारं, 'सूयगडं, ठाणं, समवायं, आचारं, सूत्रकृतं, स्थानं, समवायं, विवा [ आ ? ] हपण्णत्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातधर्मकथाः, णायधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, उपासकदशाः, अन्तकृतदशाः, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइय- अनुत्तरोपपातिकदशाः, दसाओ, पण्हावागरणाई', प्रश्नव्याकरणानि, विपाकसूत्रं, विवागसुयं, दिट्ठिवायं । दृष्टिवादम्। ४. जण्णं समणे भगवं महावीरे ४. यत् श्रमण: भगवान् महावीर: एक एगं च णं महं दामदुगं सत्वरयणा- च महद् दामद्विक सर्वरत्नमयं स्वप्ने 'मयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमण: भगवान् तण्णं समणे भगवे महावीरे दुविहं महावीर: द्विविधं धर्म प्रज्ञापयति, धम्म पण्णवेति, तं जहा- तद्यथाअगारधम्म च, अणगारधम्म च। अगारधर्मञ्च, अनगारधर्मञ्च । ५. जण्णं समणे भगवं महावीरे ५. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एक एगं च णं महं सेतं गोवरगं सुमिणे च महान्तं श्वेतं गोवर्ग स्वप्ने दृष्ट्वा 'पासित्ता गं० पडिबुद्धे, तण्णं प्रतिबद्धः, तत् श्रमणस्य भगवतः समणस्स भगवओ महावीरस्स महावीरस्य चातुर्वर्णाकीर्णः संघः, चाउव्वणाइण्णे संघे, तं जहा- तद्यथासमणा, समणीओ, सावगा, श्रमणाः, श्रमण्यः, श्रावकाः, सावियाओ।
श्राविकाः।
३. श्रमण भगवान् महावीर चित्र-विचित्र पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए. उसके फलस्वरूप भगवान् ने स्व-समय और पर-समय का निरूपण करने वाले, द्वादशांग गणिपिटक का आख्यान किया, प्रज्ञापन किया, प्ररूपण, किया, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया। आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, विवाहप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद ।
४. श्रमण भगवान् महावीर सर्वरत्नमय दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप भगवान् ने अगारधर्म [गृहस्थ-धर्म और अनगारधर्म [साधु-धर्म] -इन दो धर्मों की प्ररूपणा की। ५. श्रमण भगवान् महावीर एक महान् श्वेत गोवर्ग को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप भगवान् के चतुर्वर्णात्मक-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका-संघ हुआ।
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स्थान १० : सूत्र १०३
६. श्रमण भगवान् महावीर चहुं ओर कुसुमित एक बड़े पद्मसरोवर को स्वप्न में देखकर प्रतिबद्ध हए. उसके फलस्वरूप भगवान ने भवनपति, वानमन्तर, ज्योतिष और वैमानिक इन चार प्रकार के देवों की प्ररूपणा की।
ठाणं (स्थान)
९३० ६. जण्णं समणे भगवं महावीरे ६. यत् श्रमणः भगवान महावीर: एकं एगं च णं महं पउमसरं 'सव्वओ च महत् पद्मसरः सर्वतः समन्तात् । समंता कुसुमितं सुमिणे पासित्ता कुसुमितं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तत् णं पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं श्रमणः भगवान् महावीरः चतुर्विधान् महावीरे चउविहे देवे पण्णवेति, देवान् प्रज्ञापयति, तद्यथातं जहा-- भवणवासी, वाणमंतरे. जोइसिए, भवनवासिनः, वानमन्तरान्, ज्योतिष्कान्, वेमाणिए।
वैमानिकान् । ७. जण्णं समणे भगवं महावीरे ७. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं एगं च णं महं सागरं उम्मी- च महान्तं सागरं उम्मि-बीचि-सहस्रवीची- सहस्सकलितं भुयाहि कलितं भुजाभ्यां तीर्ण स्वप्ने दृष्ट्वा । तिण्णं सुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धे, प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणेन भगवता तं णं समणेणं भगवता महावीरेणं महावीरेण अनादिक अनवदग्रं दीर्घाद्अणादिए अणवदग्गे दोहमद्धे ध्वानं चातुरन्तं संसारकान्तारं तीर्णम् । चाउरते संसारकतारे तिण। ८. जणं समणे भगवं महावीरे ८. यत् श्रमणः भगवान् महावीर: एकं एगं च णं महं दिणयरं 'तेयसा च महान्तं दिनकरं तेजसा ज्वलन्तं जलंतं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणस्य तण्णं समणस्स भगवओ महावीरस्स भगवतः महावीरस्य अनन्तं अनुत्तरं अणते अणुत्तरे णिव्वाघाए णिरा- निर्व्याघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण वरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवर- केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् । णाणदंसणे समुप्पण्णे। ६. जणं समणे भगवं महावीरे ६. यत् श्रमण: भगवान् महावीर: एकं 'एगं च णं महं हरि-वेरूलिय- च महान्तं हरिवैडूर्यवर्णाभेन निजकेन
वण्णाभेणं णियएणमंतेणं माणु- आन्त्रेण मानुषोत्तरं पर्वत सर्वतः सुत्तरं पव्वतंसवतो समंताआवेढियं समन्तात् आवेष्टितं परिवेष्टितं स्वप्ने परिवेढियं सुमिणे पासित्ता णं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणस्य भगवतो पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स भगवतो महावीरस्य सदेवमनुजासुरे लोके उदारा: महावीरस्स सदेवमणुयासुरे लोगे कीति-वर्ण-शब्द-श्लोकाः परिगुब्बंति' उराला कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगा (परिगुप्यन्ति)-इति खलु श्रमण: 'परिगुवंति–इति खलु समणे भगवान् महावीरः, इति खलु श्रमणः भगवं महावीरे, इति खलु समणे भगवान् महावीरः । भगवं महावीरे।
७. श्रमण भगवान महावीर स्वप्न में हजारों ऊर्मियों और वीचियों से परिपूर्ण एक महासागर को भुजाओं से तीर्ण हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप भगवान् ने अनादि, अनन्त, प्रलम्ब और चार अन्तवाले संसार रूपी कानन को पार किया। ८. श्रमण भगवान् महावीर तेज से जाज्वल्यमान एक महान् सूर्य को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप भगवान् को अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, पूर्ण, प्रतिपूर्ण, केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुए।
६. श्रमण भगवान् महावीर स्वप्न में भूरे व नीले वर्ण वाली अपनी आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को चारों ओर से आवेष्टित और परिवेष्टित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप भगवान् की देव, मनुष्य और असुरों के लोक में प्रधान कीति, वर्ण, शब्द और श्लाघा व्याप्त हुई। 'श्रमण भगवान महावीर ऐसे हैं, श्रमण भगवान महावीर ऐसे हैं'–ये शब्द सर्वत्र फैल गए।
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ठाणं (स्थान)
१०. जण्णं समणे भगवं महावीरे १०. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं एगं च णं महं मंदरे पव्वते मंदर- च महान्तं मन्दरे पर्वते मन्दरचूलिकायाः । चलियाए उरि 'सीहासणवरगय- उपरि सिंहासनवरगतमात्मानां स्वप्ने । मत्ताणं सुमिणे पासित्ता गं° दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणः भगवान् पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीर: सदेवमनुजासुरायां परिषदि । महावीरे सदेवमणुयासुराए मध्यगतः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म आख्याति परिसाए मझगते केवलिपण्णत्तं प्रज्ञापयति प्ररूपयति दर्शयति निदर्शयति धम्मं आघवेति पण्णवेति 'परवेति उपदर्शयति । दसति णिदंसेति उवदंसेति ।
स्थान १० : सूत्र १०४-१०५ १०. श्रमण भगवान् महावीर स्वप्न में महान् मन्दर पर्वत की मन्दरचूलिका पर अवस्थित सिंहासन के ऊपर अपने आपको बैठे हुए देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप भगवान् ने देव, मनुष्य और असुर की परिषद् के बीच में केवलीप्रज्ञप्त धर्म का आख्यान किया, प्रज्ञापन किया, प्ररूपण किया, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया।
रुचि-पदं रुचि-पदम्
रुचि-पद १०४. दसविधे सरागसम्मइंसणे पण्णत्ते, दशविधं सरागसम्यग्दर्शनं प्रज्ञप्तम्, १०४. सराग-सम्यग्दर्शन के दस प्रकार है"---
१. निसर्ग रुचि-नैसर्गिक सम्यग्दर्शन। तं जहातद्यथा
२. उपदेश रुचि--उपदेशजनित सम्यग
दर्शन । संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
३. आज्ञा रुचि --वीतराग द्वारा प्रतिपा
दित सिद्धान्त से उत्पन्न सम्यग्दर्शन । १. णिसग्गुवएसरुई, १. निसर्गोपदेशरुचि:,
४. सूत्र रुचि-सूत्र ग्रन्थों के अध्ययन से आणारुई सुत्तबीयरुइ मेव। आज्ञारुचिः सूत्रबी जरुचिरेव ।
उत्पन्न सम्यग्दर्शन।
५. बीज रुचि--सत्य के एक अंश के अभिगम-वित्थाररुई, अभिगम-विस्ताररुचि:,
सहारे अनेक अंशों में फैलने वाला सम्यग किरिया-संखेव-धम्मरुई॥ क्रिया-संक्षेप-धर्मरुचिः ॥
दर्शन। ६. अभिगम रुचि-विशाल ज्ञानराशि के आशय को समझने पर प्राप्त होने वाला सम्यग्दर्शन। ७. विस्तार रुचि-प्रमाण और नय की विविध भंगियों के बोध से उत्पन्न सम्यगदर्शन। ८. क्रिया रुचि-क्रियाविषयक सम्यगदर्शन। ६. संक्षेप रुचि ---मिथ्या आग्रह के अभाव में स्वल्प ज्ञान जनित सम्यग्दर्शन ।
१०. धर्म रुचि-धर्म विषयक सम्यग्दर्शन। सण्णा -पदं संज्ञा-पदम्
संजा-पद १०५. दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- दश संज्ञाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १०५. संज्ञा के दस प्रकार हैंआहारसण्णा, 'भयसण्णा, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा,
१. आहारसंज्ञा, २. भयसंज्ञा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा,
३. मैथुनसंज्ञा, ४. परिग्रहसंज्ञा, कोहसण्णा, 'माणसण्णा क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा,
५. क्रोधसंज्ञा, ६. मानसंज्ञा, मायासण्णा, लोभसण्णा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा,
७. मायासंज्ञा, ८. लोभसंज्ञा, लोगसपणा, ओहसण्णा। लोकसंज्ञा, ओघसंज्ञा ।
६. लोकसंज्ञा, १०. ओघसंज्ञा।
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ठाणं (स्थान)
९३२
स्थान १० : सूत्र १०६-१०६
१०६. रइयाणं दस सण्णाओ एवं चेव। नैरयिकाणां दश संज्ञा: एवं चैव। १०७. एवं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं। एवं निरन्तरं यावत वैमानिकानाम ।
१०६, १०७. नैरयिकों से लेकर वैमानिक तक के
सभी दण्डकों के जीवों में दस संज्ञाएं होती
वेयणा-पदं वेदना-पदम्
वेदना-पद १०८. रइया णं दसविधं वेयणं पच्चणु- नैरयिका दशविधां वेदनां प्रत्यनुभवन्तः १०८. नै रयिक दस प्रकार की वेदना का अनुभव भवमाणा विहरंति, तं जहा- विहरन्ति, तद्यथा
करते हैंसीतं, उसिणं, खुधं, पिवासं, कंडु, शीतां उष्णां, क्षुधं, पिपासां, कण्डूं, १.शीत, २. ऊष्ण, ३. क्षुधा, परझ, भयं, सोगं, जरं, वाहिं। परज्झ (परतन्त्रतां), भयं, शोक, ४. पिपासा, ५. खुजलाना, ६. परतंत्रता, जरां, व्याधिम् ।
७. भय, ८. शोक, जरा,
१०. व्याधि। छउमत्थ-केवलि-पदं छद्मस्थ-केवलि-पदम्
छद्मस्थ-केवलि-पद १०६. दस ठाणाई छउमत्थे सवभावेणं दश स्थानानि छदमस्थः सर्वभावेन न १०६. दस पदार्थों को छद्मस्थ सम्पुर्ण रूप से न ण जाणति ण पासति, तं जहा- जानाति न पश्यति, तद्यथा
जानता है, न देखता हैधम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायं. १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, आगासस्थिकायं, आकाशास्तिकायं,
३. आकाशास्तिकाय, ४. शरीरमुक्तजीव, जीवं असरीरपडिबद्धं, जीवं अशरीरप्रतिबद्धं,
५. परमाणुयुद्गल, ६. शब्द, ७. गंध, परमाणुपोग्गलं, सई, गंध, वातं, परमाणुपुद्गलं, शब्द, गन्धं, वातं,
८. वायु, ६. यह जिन होगा या नहीं ? अयं जिणे भविस्सति वा ण वा अयं जिनो भविष्यति वान वा भविष्यति,
१०. यह सभी दुःखों का अन्त करेगा या
नहीं? भविस्सति, अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सति अयं सर्वदुःखानां अन्तं करिष्यति वा न वा ण वा करेस्सति।
वा करिप्यति। एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्शनधर: अर्हन विशिष्ट ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले अरहा जिणे केवली सव्वभावेण जिनः केवली सर्वभावेन जानाति अर्हत, जिन, केवली इनको सम्पूर्ण रूप से जाणइ पासइपश्यति
जानते, देखते हैं'धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, धर्मास्तिकायं, अधर्मास्तिकायं, १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, आगासस्थिकार्य, आकाशास्तिकायं,
३. आकाशास्तिकाय, ४. शरीरमुक्तजीव, जीवं असरीरपडिबद्धं, जीवं अशरीरप्रतिबद्धं,
५. परमाणुपुद्गल, ६. शब्द, ७. गंध, परमाणुपोग्गलं, सई, गंध, वातं, परमाणुपुद्गलं, शब्द, गन्धं, वातं, ८. वायु, ६. यह जिन होगा या नहीं? अयं जिणे भविस्सति वा ण वा अयंजिन: भविष्यति वा नवा भविष्यति. १०. यह सभी दु:खों का अन्त करेगा या भविस्सति,
नहीं? अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सति वा अयं सर्वदुःखानां अन्तं करिष्यति वा न ण वा करेस्सति।
वा करिष्यति।
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ठाणं (स्थान)
दसा-पदं
दशा-पदम्
११०. दस दसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा— दश दवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
कर्म विपाकदशा,
कम्मविवागदसाओ, उवासगदसाओ,
अंतगडद साओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ,
पावागरण साओ, बंधदसाओ, दोगिद्विदसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ ।
१११. कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा
पण्णत्ता, तं जहा - संग्रह - सिलोगो
१. मियापुत्ते यगोत्तासे,
अंडे सगडेतियावरे | माहणे दिसेणे,
सोरिए य उदुंबरे ॥
सहसुद्दा आलए, कुमारे लेच्छई इति ॥
११२. उवासगदसाणं दस अज्झयणा
पण्णत्ता, तं जहा
२. आणंदे कामदेवे आ,
गाव तिचूणी पिता । सुरादेवे चुल्लसतए, गावतिकुंड को लिए | सद्दालपुत्ते महासतए, नंदिणीपिया लेइयापिता ॥ ११३. अंतगडदसाणं दस पण्णत्ता, तं जहा १. णमि मातंगे सोमिले, राम सुदंसणे चैव ।
जमाली य भगाली य,
किकसे चिल्लाए ति य ॥
फाले अंबड य एमे दस आहिता ॥
अज्भयणा
६३३
उपसाकदशा,
अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा,
आचारदशा,
प्रश्नव्याकरणदशा,
बन्धदशा द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा, संक्षेपिकदशा ।
माहनः
शौरिकश्च
सहसोद्दाहः
कुमारः उपासकदशानां दश
प्रज्ञप्तानि तद्यथा
कामदेवश्च,
१. आनन्दः गृहपति चूलनीपिता ॥ सुरादेव: चुल्लशतकः,
गृहपति कुण्ड कोलिकः ।
सद्दालपुत्रः महाशतकः, नन्दिनीपिता लेईयकापिता ॥ अन्तकृत दशानां दश प्रज्ञप्तानि तद्यथानमिः : मातङ्गः सोमिलः, रामगुप्तः सुदर्शनश्चैव ।
१.
जमालिश्च भगालिश्च,
किंकषः चिल्वक इति च ॥
उदुम्बरः ।
आमरकः,
लिच्छवीति ॥
पाल:
अम्मडपुत्रश्च,
एवमेते दश आहृताः ॥
८.
द्विगृद्धिदशा,
१०. संक्षेपिकदशा ।
कर्मविपाकदशानां दश अध्ययनानि १११. कर्मविपाकदशा के अध्ययन दस हैं"
प्रज्ञप्तानि तद्यथासंग्रह - श्लोक
१. मृगापुत्रः च गोत्रासः, अण्ड : शकटइति चापरः ।
नन्दिषेणः,
अध्ययनानि
अध्ययनानि
स्थान १० : सूत्र ११०-११३
दशा-पद
११०. दशा - दस अध्ययन वाले आगम दस
हैं ४५
१. कर्मविपाकदशा,
२. उपासकदशा,
३. अन्तकृतदशा,
४. अनुत्तरोपपातिकदशा,
५. आचार दशा — दशाश्रुतस्कन्ध,
६. प्रश्नव्याकरणदशा,
७. बंधदशा,
६. दीर्घदशा,
९. मृगापुत्र, २. गोत्रास,
४. शकट,
७. शौरिक,
६. सहस्रद्दाह आमरक,
१०. कुमारलिच्छवी ।
३. अण्ड,
५. ब्राह्मण, ६. नन्दिषेण,
८. उदुम्बर,
११२. उपासकदशा के अध्ययन दस हैं"
-
२. कामदेव,
१. आनन्द,
३. गृहपति चूलिनीपिता, ४. सुरादेव,
५. चुल्लशतक, ६. गृहपति कुण्ड कोलिक,
७. सद्दालपुत्त, ८. महाशतक,
8. नन्दिनीपिता, १०, लेयिकापिता ।
११३. अन्तकृतदशा के अध्ययन दस हैं
१. नमि. २. मातंग, ३. सोमिल, ४. रामगुप्त, ५. सुदर्शन, ६. जमाली, ९. चिल्वक,
७. भगाली, ८. किंकष,
१०. पाल अम्बडपुत्र ।
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६३४
ठाणं (स्थान) ११४. अणुत्तरोववातियदसाणं दस
अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा- १. इसिदासे य धणे य, सूणक्खते कातिए ति य। संठाणे सालिभद्दे य, आणंदे तेतली ति य॥ दसण्णभद्दे अतिमुत्ते, एमेते दस आहिया ॥
स्थान १० : सूत्र ११४-११६ अनुत्तरोपपातिकदशानां दश अध्ययनानि ११४. अनुत्तरोपपातिकदशा के अध्ययन दस प्रज्ञप्तानि, तद्यथा१. ऋषिदासश्च धन्यश्च,
१. ऋषिदास, २. धन्य, ३. सुनक्षत्र, सुनक्षत्रश्च कार्तिक इति च ।
४. कात्तिक, ५. संस्थान, ६. शालिभद्र, संस्थानः शालिभद्रश्च,
७. आनन्द, ८. तेतली, ६. दशार्णभद्र, आनन्द: तेतलि: इति च ॥
१०. अतिमुक्त। दशार्णभद्रः अतिमुक्तः, एवमेते दश आहृताः।
११५. आयारदसाणं दस अज्झयणा
पण्णत्ता, तं जहावीसं असमाहिट्ठाणा, एगवीसं सबला, तेत्तीसं आसायणाओ, अट्टविहा गणिसंपया, दस चित्तसमाहिट्ठाणा, एगारस उवासगपडिमाओ, बारस भिक्खुपडिमाओ, पज्जोसवणाकप्पो, तीसं मोहणिज्जढाणा, आजाइट्टाणं।
आचारदशानां दश अध्ययनानि ११५. आचारदशा [दशाश्रुतस्कन्ध] के अध्ययन प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
दस हैं -- विंशतिः असमाधिस्थानानि,
१. बीस असमाधिस्थान, एकविंशतिः शबलाः,
२. इक्कीस शबलदोष, त्रयस्त्रिशदाशातनाः,
३. तेतीस आशातना, अष्टविधा गणिसंपद,
४. अष्टविध गणिसम्पदा, दश चित्तसमाधिस्थानानि,
५. दस चित्त-समाधिस्थान, एकादश उपासकप्रतिमाः,
६. ग्यारह उपासकप्रतिमा, द्वादश भिक्षुप्रतिमाः,
७. बारह भिक्षुप्रतिमा, पर्युषणाकल्पः,
८. पर्युषणाकल्प, त्रिंशन्मोहनीयस्थानानि,
६. तीस मोहनीयस्थान, आजातिस्थानम्।
१०. आजातिस्थान।
११६. पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा प्रश्नव्याकरणदशानां दश अध्ययनानि ११६. प्रश्नव्याकरणदशा के अध्ययन दस हैंपण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्तानि, तद्यथाउवमा, संखा, उपमा, संख्या,
१. उपमा, २. संख्या, ३. ऋषिभाषित, इसिभासियाई, ऋषिभाषितानि,
४. आचार्यभाषित, ५. महावीरभाषित, आयरियभासियाई, आचार्यभाषितानि,
६. क्षौमकप्रश्न, ७. कोमलप्रश्न, महावीरभासिआई, महावीरभाषितानि,
८. आदर्शप्रश्न, ६. अंगुष्ठप्रश्न, खोमगपसिणाई, क्षौमकप्रश्नाः,
१०. बाहुप्रश्न। कोमलपसिणाई,
कोमलप्रश्नाः, अहागपसिणाई,
अद्दाग (आदर्श) प्रश्नाः , अंगुट्ठपसिणाइ,
अंगुष्ठप्रश्नाः बाहुपसिणाई।
बाहुप्रश्नाः ।
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ठाणं (स्थान)
११७. बंधदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता,
तं जहा -
बंधे मवखे देव,
दसारमंडलेवि य । आयरियविपडिवत्ती, उवज्झाय विपडिवत्ती,
भावणा, विमुक्ती, सातो, कम्मे । - ११८. दोगेद्धिदसाणं दस अज्झयणा
पण्णत्ता, तं जहा
are, विवाए, उववाते, सुखेत्ते, कसिणे, बायालीसं सुमिणा, तीसं महासु मिणा, बावर्त्तार सव्वसुमिणा,
हारे, रामगुत्ते, य
एमे दस आहिता ।
११६. दीहदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता,
तं जहा -
१. चंदे सूरे य सुक्के य सिरिदेवी पभावती । दीवस मुद्दोववत्ती बहूपुत्ती मंदरेति य ॥ थेरे संभूतविजय,
थेरे पम्ह ऊसासणीसासे ॥ १२०. संखेवियदसाणं दस अज्झयणा
पण्णत्ता, तं जहाखुड्डिया विमाणपविभत्ती, महल्लिया विमाणपविभत्ती, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, विवाहच लिया, अरुणोववाते, वरुणोववाते, गरुलोव वाते, वेलंधरोववाते, वेसमणोववाते । कालचक्क - पदं
१२१. दस
सागरोवमकोडाकोडीओ
कालो ओसपिणी ।
६३५
बन्धदशानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ११७. बंधदशा के अध्ययन दस हैं
तद्यथा
बन्धश्च मोक्षश्च देवद्धिः, दशार मण्डलोऽपि च ।
आचार्यविप्रतिपत्तिः, उपाध्यायविप्रतिपत्तिः,
भावना, विमुक्तिः, सातं, कर्म । द्विगृद्धिदशानां दश प्रज्ञप्तानि तद्यथा—
वाद विवादः उपपातः, सुक्षेत्रं,
कृत्स्नं, द्वाचत्वारिंशत् स्वप्नाः, त्रिशन् महास्वप्नाः,
द्विसप्ततिः सर्वस्वप्नाः हारः, रामगुप्तश्च,
तद्यथा—
९. चन्द्रः सूरश्च शुक्रश्च, श्रीदेवी प्रभावती । द्वीपसमुद्रोपपत्तिः, बहुपुत्री मन्दरा इति च ॥ स्थविरः संभूतविजयश्च,
स्थविरः पक्ष्मा उच्छ्वासनिःश्वासः ॥ संक्षेपिकदशानां दश अध्ययनानि
अध्ययनानि ११८. द्विगृद्धिदशा के अध्ययन दस हैं"
प्रज्ञप्तानि तद्यथा— क्षुद्रिका विमानप्रविभक्तिः,
महती विमानप्रविभक्तिः, अङ्गचूलिका, वर्गचूलिका,
विवाहचूलिका, अरुणोपपातः, वरुणोपपातः, गरुडोपपातः, वेलन्धरोपपातः, वैश्रमणोपपातः ॥
कालचक्र-पदम्
स्थान १० : सूत्र ११७-१२१
एवमेते दश आहृताः ।
दीर्घदशानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ११६. दीर्घदशा के अध्ययन दस हैं
दश
अवसर्पिण्या: ।
१. बंध, २. मोक्ष, ३. देव, ४. दशा मण्डल, ५. आचार्यविप्रतिपत्ति, ६. उपाध्यायविप्रतिपत्ति, ७. भावना, १०. कर्म ।
८.
. विमुक्ति, 8. सात,
२. विवाद, ३ उपपात,
१. वाद, ४. सुक्षेत्र, ५. कृत्स्न, ६. बयालीस स्वप्न, ७. तीस महास्वप्न, ८. बहतर सर्वस्वप्न, ६. हार, १०. रामगुप्त ।
१. चन्द्र, २ सूर्य, ३. शुक्र, ४. श्रीदेवी,
५. प्रभावती,
६. द्वीपसमुद्रोपपत्ति,
७. बहुत मन्दरा
८. स्थविर सम्भूतविजय,
६. स्थविर पक्ष्म,
१०. उच्छ्वास निःश्वास ।
कालचक्र पद
सागरोपमकोटिकोटी: काल: १२१ अवसर्पिणी काल दस कोटि-कोटि सागरो
मका होता है ।
१२०. संक्षेपिकदशा के अध्ययन दस हैं५५ -
१. क्षुल्लिका विमानप्रविभक्ति,
२. महती विमानप्रविभक्ति,
३. अंग चूलिका - आचार आदि अंगों की चूलिका,
४. वर्गचूलिका - अन्तकृतदशा की चूलिका, ५. विवाहचूलिका भगवती की चूलिका, ६. अरुणोपपात, ८. गरुडोपपात,
७. वरुणोपपाति,
६. बेलंधरोपपात,
१०. वैश्रमणोपपात ।
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ठाणं (स्थान)
___६३६
स्थान १० : सूत्र १२२-१२७
१२२. दस सागरोवमकोडाकोडीओ दश सागरोपमकोटिकोटीः कालः १२२. उत्सर्पिणी काल दस कोटि-कोटि सागरोकालो उस्स प्पिणीए। उत्सपिण्याः।
पम का होता है।
अणंतर-परंपर-उववण्णादि-पदं अनन्तर-परम्पर-उपपन्नादि-पदम् अनन्तर-परम्पर-उपपन्नादि-पद १२३. दसविधा णेरइया पण्णता, तं दशविधाः नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः , १२३. नैरयिक दस प्रकार के हैं---
१. अनन्तर उपपन्न-जिन्हें उत्पन्न हुए जहातद्यथा
एक समय हुआ। अणंतरोववण्णा, परंपरोववण्णा, अनन्तरोपपन्नाः, परम्परोपपन्नाः, २. परम्पर उपपन्न-जिन्हें उत्पन्न हुए अणंतरावगाढा, परंपरावगाढा, अनन्तरावगाढाः, परम्परावगाढा:,
दो आदि समय हुए हों।
३. अनन्तर अवगाढ-विवक्षित क्षेत्र से अणंतराहारगा, परंपराहारगा, अनन्तराहारकाः, परम्पराहारकाः,
अव्यवहित आकाश प्रदेश में अवस्थित । अणंतरपज्जत्ता, परंपरपज्जत्ता, अनन्तरपर्याप्ताः, परम्परपर्याप्ताः, ४. परम्पर अवगाढ-विवक्षित क्षेत्र से चरिमा, अचरिमा।
व्यवहित आकाश-प्रदेश में अवस्थित । चरमाः, अचरमाः।
५. अनन्तर आहारक-प्रथम समय के एवं—णिरंतरं जाव वेमाणिया। एवम्—निरंतरं यावत् वैमानिकाः । आहारक।
६. परम्पर आहारक --दो आदि समयों के आहारक। ७. अनन्तर पर्याप्त-प्रथम समय के पर्याप्त। ८. परम्पर पर्याप्त-दो आदि समयों के पर्याप्त। ६. चरम-नरकगति में अन्तिम बार
उत्पन्न होने वाले। १०. अचरम-जो भविष्य में नरकगति में
उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों
के जीवों के दस-दस प्रकार हैं। णरय-पदं नरक-पदम
नरक-पद १२४. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए, चतुर्थ्यां पंकप्रभायां पृथिव्यां दश १२४. चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में दस लाख नरका
दस णिरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता। निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि। वास हैं ।
ठिति-पदं स्थिति-पदम
स्थिति-पद १२५. रयणप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेर- रत्नप्रभायां पृथिव्यां जघन्येन नैरयिकाण १२५. रत्नप्रभा पृथ्वी के नरयिकों की जघन्य
इयाणं दसवाससहस्साई ठितो दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति दस हजार वर्ष की है।
पण्णत्ता। १२६. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां उत्कर्षेण १२६. चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के नरयिकों की
उक्कोसेणं रइयाणं दस सागरो- नैरयिकाणां दश सागरोपमाणि स्थितिः उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है।
वमाइ ठिती पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १२७. पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए पञ्चम्यां धूमप्रभायां पृथिव्यां जघन्येन १२७. पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की
जहणणं णेरइयाणं दस सागरो- नैरयिकाणां दश सागरोपमाणि स्थिति: जघन्य स्थिति दस सागरोपम की है। वमाई ठिती पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ता।
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ठाणं (स्थान)
९३७
स्थान १०: सूत्र १२८-१३४ १२८. असुरकुमाराणं जहण्णेणं दसवास- असुरकुमारणां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि १२८. असुरकुमार देवों की जघन्य स्थिति दस
हजार वर्ष की है। सहस्साई ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता।
इसी प्रकार स्तनितकुमार तक के सभी एवं जाव थणियकुमाराणं। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम् ।
भवनपति देवों की जघन्य स्थिति दस
हजार वर्ष की है। १२६. बायरवणस्स तिकाइयाणं उक्कोसेणं बादरवनस्पतिकायिकानां उत्कर्षेण दश- १२६. बादर वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ताः ।
स्थिति दस हजार वर्ष की है। १३०. वाणमंत राणं देवाणं जहणेणं दस- वानमन्तराणां देवानां जघन्येन दशवर्ष- १३०. वानमन्तर देवों की जघन्य स्थिति दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। सहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्त।
हजार वर्ष की है। १३१.बंभलोगे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं ब्रह्मलोके कल्पे उत्कर्षेण देवानां दश १३१. बदालोककल्प पनि देवलोकन दस सागरोवमाइं ठिती पण्णता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता।
की उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है। १३२. लतए कप्पे देवाणं जहणणं दस लान्तके कल्पे देवानां जघन्येन दश १३२. लान्तककल्प-छठे देवलोक में देवों की सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता।
जघन्य स्थिति दस सागरोपम की है। भाविभद्दत्त-पदं भाविभद्रत्व-पदम्
भाविभद्रत्व-पद १३३. दसहिं ठाणेहिं जीवा आगमेसि- दशभिः स्थानः जीवा: आगमिष्यद्- १३३. दस स्थानों से जीव भावी कल्याणकारी भद्दत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- भद्रताय कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा
कर्म करते हैं
१. अनिदानता–भौतिक समद्धि के लिए अणिदाणताए, दिद्विसंपण्णताए, अनिदानतया, दृष्टिसम्पन्नतया, साधना का विनिमय न करना। जोगवाहिताए, खंतिखमणताए, योगवाहितया, क्षान्तिक्षमणतया, २. दृष्टिसंपन्नता–सम्यक्दृष्टि की
आराधना । ३. योगवाहिता ६ ---समाधिजितिदियताए, अमाइल्लताए, जितेन्द्रियतया, अमायितया,
पूर्ण जीवन । ४. क्षान्तिक्षमणता--समर्थ अपासत्थताए, सुसामण्णताए, अपार्श्वस्थतया, सुश्रमणतया, होते हुए भी क्षमा करना। ५. जितेन्द्रियता ।
६. ऋजुता। ७. अपार्श्वस्थता--ज्ञान, पवयणवच्छल्लताए, प्रवचनवत्सलतया,
दर्शन और चारित्र के आचार की शिथिपवयणउम्भावणताए। प्रवचनोद्भावनतया।
लता न रखना । ८. सुधामण्य । ६. प्रवचन वत्सलता--आगम और शासन के प्रति प्रगाढ अनुराग। १०.प्रवचन-उद्भावनता
आगम और शासन की प्रभावना। आसंसप्पओग-पदं आशंसाप्रयोग-पदम्
आशंसाप्रयोग-पद १३४. दस विहे आसंसप्पओगे पण्णत्ते, तं दशविधः आशंसाप्रयोगः प्रज्ञप्ताः, १३४. आशंसाप्रयोग के दस प्रकार हैंतद्यथा
१. इहलोक की आशंसा करना। इहलोगासंसप्पओगे, इहलोकाशंसाप्रयोगः,
२. परलोक की आशंसा करना । परलोगासंसपओगे, परलोकाशंसाप्रयोगः,
३. इहलोक और परलोक की आशंस।
करना। दुओलोगासंसप्पओगे, द्वयलोकाशंसाप्रयोगः,
४. जीवन की आशंसा करना। जीवियासंसप्पओगे, जीविताशंसाप्रयोगः,
५. मरण की आशंसा करना। मरणासंसप्पओगे, मरणाशंसाप्रयोगः,
६. काम [शब्द और रूप] की आशंसा कानासंसप्पओने, कामाशंसाप्रयोगः,
करना। भोगासंसप्पयोगे, भोगाशंसाप्रयोगः,
७. भोग [गंध, रस और स्पर्श] की
आशंसा करना। लाभासंसप्पओगे, लाभाशंसाप्रयोगः,
८. लाभ की आशंसा करना। प्रयासंसप्पओगे, पूजाशंसाप्रयोगः,
६. पूजा की आशंसा करना। सक्कारासंसप्पओगे। सत्काराशंसाप्रयोगः।
१०. सत्कार की आशंसा करना।
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ठाणं (स्थान)
स्थान १० : सूत्र १३५-१३७
धम्म-पदं धर्म-पदम्
धर्म-पद १३५. दसविधे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा- दशविधः धर्मः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १३५. धर्म के दस प्रकार हैंगामधम्मे, णगरधम्मे, रट्ठधम्मे, ग्रामधर्मः, नगरधर्मः, राष्ट्र धर्मः,
१. ग्रामधर्म— गांव की व्यवस्था
आचार-परम्परा। पासंडधम्मे, कुलधम्मे, गणधम्मे, पाषण्डधर्मः, कुलधर्मः, गणधर्मः,
२. नगरधर्म-नगर की व्यवस्था। संघधम्मे, सुयधम्मे, चरित्तधम्मे, संघधर्मः, श्रुतधर्मः, चरित्रधर्मः, ३. राष्ट्रधर्म - राष्ट्र की व्यवस्था ।
४. पाषण्डधर्म---पापण्डों-श्रमण सम्प्रअस्थिकायधम्मे। अस्तिकायधर्मः।
दायों का आचार। ५. कुलधर्म--उग्र आदि कुलों का आचार। ६. गणधर्म-गण-राज्यों की व्यवस्था। ७. संघधर्म-गोष्टियों की व्यवस्था। ८. श्रुतधर्म-ज्ञान की आराधना, द्वादशाङ्गी की आराधना। ६. चारित्रधर्म-संयम की आराधना। १०. अस्तिकायधर्म-गति सहायक द्रव्य
धर्मास्तिकाय। थेरपदं स्थविर-पदम्
स्थविर-पद १३६. दस थेरा पण्णत्ता, तं जहा- दश स्थविराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- १३६. स्थविर दस प्रकार के होते हैं -
गामथेरा, णगरथेरा, रथैरा, ग्रामस्थविराः, नगरस्थविराः, १. ग्रामस्थविर, २. नगरस्थविर, पसत्थथेरा, कुलथेरा, गणथेरा, राष्ट्रस्थविराः, प्रशास्तृस्थविराः, ३. राष्ट्रस्थविर, ४. प्रशास्तास्थविर
प्रशासक ज्येष्ठ, संघथेरा, जातिथेरा, सुअथेरा, कुलस्थविराः, गणविराः, संघस्थविराः,
५. कुलस्थविर,
६. गणस्थविर, ७. संघस्थविर, परियायथेरा। जातिस्थविराः, श्रुतस्थविराः,
८. जातिस्थविर–साठ वर्ष की आयु पर्यायस्थविराः।
वाला। ६. श्रुतस्थविर–समवाय आदि अंगों को धारण करने वाला। १०. पर्यायस्थविर-बीस वर्ष की दीक्षा
पर्याय वाला। पुत्र-पदम्
पुत्र-पद १३७. दस पुत्ता पण्णत्ता, तं जहा- दश पुत्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
३७, पुत्र दस प्रकार के होते हैं
१. आत्मज-अपने पिता से उत्पन्न । अत्तए, खेत्तए, दिण्णए, विण्णए, आत्मजः, क्षेत्रजः, दत्तकः, विज्ञकः, २. क्षेत्रज-नियोग-विधि से उत्पन्न । उरसे, मोहरे, सोंडीरे, संवड, औरसः, मौखरः, शौण्डीरः, संवर्धितः,
३. दत्तक--गोद लिया हुआ।
४. विज्ञक-विद्या-शिष्य। उवयाइते, धम्मंतेवासी। औपयाचितकः, धर्मान्तेवासी।
५. औरस- स्नेहवश स्वीकृत पुत्र । ६. मौखर- वाक्पटुता के कारण पुत्र रूप में स्वीकृत। ७. शौंडीर-पराक्रम के कारण पुत्र रूप में स्वीकृत। ८. संवद्धित-पोषित अनाथ-गुत्र । ६. औपयाचितक-देवता की आराधना से उत्पन्न पुव अथवा सेवक। १०. धर्मान्तेवासी-धर्म-शिष्य ।
पुत्त-पदं
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ठाणं (स्थान)
स्थान १० : सूत्र ९३८-१४०
अणुत्तरपदं
अनुत्तर-पदम्
अनुत्तर पद
१३८. केवलिस णं दस अणुत्तरा पण्णत्ता, केवलिनः दश अनुत्तराणि प्रज्ञप्तानि १३८. केवली के दस अनुत्तर होते हैं
तं जहा -
तद्यथा—
अनुत्तरं ज्ञानं,
अणुत्तरे णाणे, अणुत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरिते, अणुत्तरे तवे, अणुत्तरे वीरिए, अणुत्तरा खंती, अणुत्तरा मुक्ती, अणुत्तरे अज्जवे, अणुत्तरे मद्दवे, अणुत्त लाघवे । कुरा-पदं
अनुत्तरं दर्शनं, अनुत्तरं चरित्रं, अनुत्तरं तपः, अनुत्तरं वीर्यं, अनुत्तरं क्षान्तिः, अनुत्तरा मुक्तिः, अनुत्तरं आर्जव, अनुत्तरं मार्दवं अनुत्तरं लाघवम् । कुरु-पदम्
१३६. समयखेत्ते णं दसकुराओ पण्णत्ताओ, समयक्षेत्रे तं जहा
पंच देवकुराओ, पंच उत्तरकुराओ तत्थ णं दस महतिमहालया महादुना पण्णत्ता, तं जहा जंबू सुदंसणा धायइरक्खे,
महाधाय रुक्खे, पउमरुक्खे,
६३६
तद्यथा—
।
पञ्च देवकुरवः, पञ्चोत्तरकुरवः । तत्र दश महातिमहान्तः महाद्रुमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा---
जम्बू : सुदर्शना, महाधातकीरुक्षः,
महापउमरुवखे, पंचकूडसामलीओ | महापद्मरुक्षः, पञ्च कूटशाल्मल्यः ।
तत्र दश देवा महर्द्धिकाः यावत् परिवसन्ति, तद्यथा -
तत्थ णं दस देवा महिड्डिया जाव परिवसंति, तं जहा - अणाढिते जंबुद्दीवाधिपती, सुदंसणे, पियदसणे, पोंडरीए, महापडरीए, पंचगरुला वेणुदेवा ।
७. अनुत्तर मुक्ति, ६. अनुत्तर मार्दव, कुरु- पद
दशकुरवः प्रज्ञप्ताः, १३६. समयक्षेत्र में दस कुरा हैं-पांच देवकुरा । पांच उत्तरकुरा । यहां दस विशाल महाद्रुम हैं१. जम्बू सुदर्शना, २. धातकी,
३. महाधातकी, ४. पद्म, ५. महापद्म और पांच कूटशाल्मली ।
धातकीरुक्षः,
पद्मरुक्ष:,
१. अनुत्तर ज्ञान, ३. अनुत्तर चारित्र,
५. अनुत्तर वीर्य,
वहां महद्धक, महाद्युति सम्पन्न, महानुभाग, महान् यशस्वी, महान् बली और महान् सुखी तथा पत्योपम की स्थितिवाले दस देव रहते हैं
१. जम्बुद्वीपाधिपति अनादृत, २. सुदर्शन, ३. प्रियदर्शन, ४. पौंडरीक, ५. महापौंडरीक और पांच गरुड़ वेणुदेव । दुःषमा - लक्षण - पद
दुस्समा लक्खण-पदं
दुःषमा - लक्षण-पदम्
१४०. दसह ठाणेह ओगाढं दुस्समं दशभिः स्थानैः अवगाढां दुःषमां जानी- १४०. दस स्थानों से दुष्षमा काल की अवस्थिति जाणेज्जा, तं जहायात्, तद्यथा
जानी जाती है
अकाले वरिसर, काले ण वरिसइ, अकाले वर्षति, काले न वर्षति,
असाहू इज्जति,
साहू ण पुइज्जति,
गुरुसु जणो सिच्छं पडिवण्णो, अण्णा सद्दा
असाधवः पूज्यन्ते, साधवः न पूज्यन्ते, गुरुषु जनो मिथ्यात्वं प्रतिपन्नः, अमनोज्ञाः शब्दाः, अमनोज्ञानि रूपाणि, अमनोज्ञा: गन्धाः, अमनोज्ञाः रसाः, अमनोज्ञाः स्पर्शाः ।
• अण्णा रुवा, अमणुण्णा गंधा, अण्णा रसा अमगुणा फासा ।
अनादृतः जम्बूद्वीपाधिपतिः, सुदर्शनः प्रियदर्शन:, पौण्डरीकः, महापौण्डरीकः, पञ्च गरुडाः वेणुदेवाः ।
२. अनुत्तर दर्शन,
४. अनुत्तर तप ६. अनुत्तर क्षान्ति,
८. अनुत्तर आर्जव, १०. अनुत्तर लाघव ।
१. असमय में वर्षा होती है, २. समय पर वर्षा नहीं होती, ३. असाधुओं की पूजा होती है, ४. साधुओं की पूजा नहीं होती, ५. मनुष्य गुरुजनों के प्रति मिथ्या व्यवहार करता है, ६. शब्द अमनोज्ञ हो जाते हैं, ७. रस अमनोज्ञ हो जाते हैं, ८. रूप अमनोज्ञ हो जाते हैं,
६. गंध अमनोज्ञ हो जाते हैं, १०. स्पर्श अमनोज्ञ हो जाते हैं ।
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ठाणं (स्थान)
६४०
स्थान १० : सूत्र १४१-१४२
सुसमा-लक्खण-पदं सुषमा-लक्षण-पदम्
सुषमा-लक्षण-पद १४१. दसहि ठाणेहि ओगाढं सुसमं दशभिः स्थानः अवगाढां सुषमां जानी- १४१. दस स्थानों से सुषमा काल की अवस्थिति जाणेज्जा, जहायात्, तद्यथा
जानी जाती हैअकाले ण वरिसति,
अकाले न वर्षति, काले वर्षति, १. असमय में वर्षा नहीं होती, 'काले वरिसति, असाधवो न पूज्यन्ते, साधवः पूज्यन्ते,
२. समय पर वर्षा होती है, असाहू ण पूइज्जति, गुरुषु जनः सम्यक् प्रतिपन्न:,
३. असाधुओं की पूजा नहीं होती,
४. साधुओं की पूजा होती है, साहू पूइज्जति, मनोज्ञाः शब्दाः, मनोज्ञानि रूपाणि,
५. मनुष्य गुरुजनों के प्रति सम्यग्गुरुसु जणो सम्म पडिवण्णो, मनोज्ञाः गन्धाः, मनोज्ञाः रसाः,
व्यवहार करता है, मणुण्णा सद्दा, मणुण्गा रूवा, मनोज्ञाः स्पर्शाः।
६. शब्द मनोज्ञ होते हैं, मणुण्णा गधा, मणुण्णा रसा,
७. रस मनोज्ञ होते हैं, मणुण्णा फासा।
८. रूप मनोज्ञ होते हैं, ६. गंध मनोज्ञ होते हैं, १०. स्पर्श मनोज्ञ होते हैं।
रुक्ख-पदं रुक्ष-पदम्
वृक्ष-पद १४२. सुसमसुसमाए णं समाए दसविहा सुषमसुषमायां समायां दज्ञाविधाः रुक्षाः १४२. सुषम-सुपमा काल में दस प्रकार के वृक्ष
रुक्खा उवभोगत्ताए हवमा- उपभोग्यताय अर्वाग् आगच्छन्ति, उपभोग में आते हैंगच्छंति, तं जहा
तद्यथा
संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. मतंगया य भिंगा, १. मदाङ्गकाश्च भृङ्गाः,
१. मदाङ्गक-मादक रस वाले, तुडितंगा दोव जोति चित्तंगा । त्रुटिताङ्गाः दीपाः ज्योतिषा: चित्राङ्गाः।। २. भृङ्ग-भाजनाकार पत्तों वाले, चित्तरसा मणियंगा, चित्ररमाः मण्यङ्गाः, ३. त्रुटिताङ्ग-वाद्यध्वनि उत्पन्न करने गेहागारा अणियणा य॥ गेहाकारा अनग्नाश्च ॥ वाले, ४. दीपाङ्ग-प्रकाश करने वाले,
५. ज्योतिअङ्ग-अग्नि की भांति ऊष्मा सहित प्रकाश करने वाले, ६. चित्राङ्ग-मालाकार पुष्षों से लदे हुए, ७. चित्ररस-विविध प्रकार के मनोज्ञ रस वाले, ८. मणिअंग—आभरणाकार अवयवोंवाले, ६. गेहाकार--घर के आकार वाले, १०. अनग्न-नग्नत्व को ढांकने के उपयोग में आने वाले।
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ठाणं (स्थान)
६४१
स्थान १०: सूत्र १४३-१४६
कुलगर-पदं कुलकर-पदम्
कुलकर-पद १४३. जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे तीताए जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे अतीतायां उत्स- १४३. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में अतीत
उस्सप्पिणीए दस कुलगरा हत्था, पिण्यां दश कुलकराः अभवन्, तद्यथा- उत्सर्पिणी में दस कुलकर हुए थे---
त जहा
संगहणी-गाहा १. सयंजले सयाऊ य, अणंतसेणे य अजितसेणे य। कक्कसेणे भीमसेणे, महाभीमसेणे य सत्तमे। दढरहे दसरहे, सयरहे।
संग्रहणी-गाथा १. स्वयंजलः शतायुश्च, अनन्तसेनश्च अजितसेनश्च। कर्कसेनो भीमसेनः, महाभीमसेनश्च सप्तमः॥ दृढरथो दशरथः, शतरथः।
१. स्वयंजल, २. शतायु, ३. अनन्तसेन, ४. अजितसेन, ५. कर्कसेन, ६. भीमसेन, ७. महाभीमसेन, ८. दृढ़रथ, ९. दशरथ,
१०. शतरथ ।
१४४. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमी- जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्यां १४४. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में आगामी
साए उस्सप्पिणीए दस कुलगरा उत्सपिण्यां दश कुलकराः भविष्यन्ति, उत्सर्पिणी में दस कुलकर होंगेभविस्संति, तं जहा- तद्यथा
१. सीमंतक, २. सीमंधर, ३. क्षेमंकर, सीमकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, सीमंकरः, सीमंधरः, क्षेमंकरः, क्षेमंधरः, ४. क्षेमंधर, ५. विमलवाहन, ६. सन्मति, खेमंधरे, विमलवाहणे, संमुती, विमलवाहनः, सन्मतिः, प्रतिश्रुतः, ७. प्रतिश्रुत, ८. दृढ़धनु, ६. दशधनु, पडिसुते, दढधणू, दसधणू, दृढधनुः, दशधनुः, शतधनुः ।
१०. शतधनु । सतधणू।
वक्खारपव्वय-पदं वक्षस्कारपर्वत-पदम्
वक्षस्कारपर्वत-पद १४५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य १४५. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में
पुरथिमेणं सीताए महाणईए पूर्वस्मिन् शीतायाः महानद्याः उभतः । महानदी शीता के दोनों तटों पर दस उभओकूले दस वक्खारपन्वता कूले दश वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, वक्षस्कार पर्वत हैंपण्णता, तं जहा-
तद्यथामालवंते, चित्तकूडे, पम्हकूडे, माल्यवान्, चित्रकूटः, पक्ष्मकूट:, १. माल्यवान्, २. चित्रकूट, ३. पक्ष्मकूट *णलिणकूडे, एगसेले, तिकडे, नलिनकूटः, एकशैलः, त्रिकूट:,
४. नलिनकूट, ५. एकशैल, ६. त्रिकूट, वेसमणकूडे, अंजणे, मायंजणे, वैश्रमणकूटः, अञ्जनः, माताञ्जनः,
७. वैश्रमणकूट, ८. अञ्जन, सोमणसे। सौमनसः ।
६. माताजन, १०. सौमनस। १४६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमे १४६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत के पश्चिम
पच्चत्थिमेणं सीओदाए महाणईए शीतोदायाः महानद्याः उभतः कूले दश में महानदी शीतोदा के दोनों तटों पर दस उभओकले दस वक्खारपव्वता वक्षस्कारपर्वता: प्रज्ञप्ता:, तदयथा.
वक्षस्कार पर्वत हैं--- पण्णत्ता, तं जहा
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ठाणं (स्थान)
विज्जुपभे, अंकावती, पम्हावती आसी विसे, सुहावहे, चंदपन्वते,
सूरपवते, नागपव्वते, देवपव्वते, गंधमायणे ।
वाइडर त्यिमद्धे वि वक्खारा भाणियव्या जाव पुक्खर
arata पच्च स्थिमद्धे |
१४७. एवं
कप्प-पदं
१४८. दस कप्पा इंदाहिट्टिया पण्णत्ता,
तं जहासोहम्मे • ईसाणे, सणकुमारे, माहिदे, बंभलोए, लंतए, महासुक्के, सहस्तारे, पाणते, अच्चुते । १४. एतेसु णं दस कप्पेसु दस इंदा पण्णत्ता, तं जहासक्के, ईसाणे, सणकुमारे, माहिदे, बंभे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे, पाणते, अच्चुते । १५०. एतेसि णं दसहं इंदाणं दस परिजाणिया विमाणा पण्णत्ता, तं जहा
पालए, पुष्कए, • सोमणसे, सिरिवच्छे, गंदियावत्ते, कामकमे, पीतिमणे, मणोरमे, विमलवरे, सव्वतोभद्दे ।
पडिमा - पदं
१५१. दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेण रातिदिसतेणं अद्धछट्टो हिय भिक्खा सतेहि अहासुतं अहाअत्थं अहातच्चं अहामगं अहाकप्पं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तोरिया किट्टिया आराहिया यावि भवति ।
६४२
पक्ष्मावती,
विद्युत्प्रभः अङ्कावती, आशीविषः सुखावहः, सूरपर्वतः, नागपर्वतः देशपर्वतः,
चन्द्रपर्वतः
गन्धमादनः ।
५. सुखावह,
७. सूरपर्वत, ६. देवपर्यंत,
१०. गंधमादन ।
एवं धातकीपण्डपौरस्त्यार्धेऽपि वक्षस्काराः १४७. इसी प्रकार धातकीपण्ड के पूर्वार्ध और भणितव्याः यावत् पुष्करवरद्वीपार्धपश्चिमार्ध में तथा अर्द्धपुष्करवर द्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में शीता और शीतोदा महानदियों के दोनों तटों पर दस-दस वक्षस्कार पर्वत हैं ।
पाश्चात्यार्थ ।
स्थान १० : सूत्र ९४७-१५१
१. विद्युत्प्रभ
२. अङ्कावती,
३. पक्ष्मावती,
४. आसीविष,
कल्प-पदम्
कल्प-पद
दश कल्पाः इन्द्राधिष्ठिताः प्रज्ञप्ताः १४५. इन्द्राधिष्ठित कल्प दस हैं
पालकं, पुष्पकं, सौमनसं श्रीवत्सं, नन्द्यावर्त्ती, कामक्रमं प्रीतिमनः, मनोरमं विमलवरं, सर्वतोभद्रम् ।
तद्यथा—
१. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्मलोक, ६. लान्तक, ७. शुक्र, ८. सहस्रार ६. प्राणत, १०. अच्युत ।
२. ईशान, ३. सनत्कुमार,
सौधर्मः, ईशानः, सनत्कुमारः, माहेन्द्रः, ब्रह्मलोकः, लान्तकः, महाशुक्रः, सहस्रारः, प्राणतः, अच्युतः । एतेषु दशसु कल्पेषु दश इन्द्राः प्रज्ञप्ताः, १४९. इन दस कल्पों में इन्द्र दस हैंतद्यथाशक्रः, ईशानः, सनत्कुमारः, माहेन्द्रः, ब्रह्मा, लान्तकः, महाशुक्रः, सहस्त्रारः, प्राणतः, अच्युतः । एतेषां दशानां इन्द्राणां दश पारियानि- १५०. इन दस इन्द्रों के पारियानिक विमान दस कानि विमानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा—
१. शक्र, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. लान्तक,
७. महाशुक्र, ८. सहस्रार, ६. प्राणत,
१०. अच्युत ।
प्रतिमा-पदम्
दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा एकेन रात्रि - दिवशतेन अर्धपष्ठैश्च भिक्षाशतैः यथासूत्रं यथार्थ यथातथ्यं यथामार्ग यथाकल्पं सम्यक् कायेन स्पृष्टा पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आराधिता चापि भवति ।
६. चन्द्रपर्वत,
८. नागपर्वत,
१. पालक, २. पुष्पक, ३. सौमनस, ४. श्रीवत्स, ५. नंद्यावर्त्त, ६. कामक्रम, ७. प्रीतिमान, ८ मनोरम, ६. विमलवर, १०. सर्वतोभद्र ।
प्रतिमा-पद
१५१. दस दशमिका (१०x१०) भिक्षु प्रतिमा सौ दिन-रात तथा ५५० भिक्षा दत्तियों द्वारा यथासूत्र, यथार्थ, यथातथ्य, यथामार्ग, यथाकल्प तथा सम्यक् प्रकार से काया से आचीर्ण, पालित, शोधित, पूरित, कीर्तित और आराधित की जाती है ।
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ठाणं (स्थान)
१४३
स्थान थ : सूत्र १५२-१५३
जीव-पदं जीव-पदम्
जीव-पद १५२. दसविधा संसारसमावण्णगा जीवा दशविधाः संसारसमापन्नका: जीवा: १५२. संसारसमापन्नक जीव दस प्रकार के है पण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्ताः, तद्यथापढमसमयएगिदिया, प्रथमसमयैकेन्द्रियाः,
१. प्रथमसमय एकेन्द्रिय। अपढमसमयएगिदिया, अप्रथमसमयैकेन्द्रियाः,
२. अप्रथमसमय एकेन्द्रिय। 'पढमसमयबेइंदिया, प्रथमसमयद्वीन्द्रियाः,
३. प्रथमसमय द्वीन्द्रिय। अपढमसमयबेइंदिया, अप्रथमसमयद्वीन्द्रियाः,
४. अप्रथमसमय द्वीन्द्रिय। पढमसमयतेइंदिया, प्रथमसमयत्रीन्द्रियाः,
५. प्रथमसमय त्रीन्द्रिय। अपढमसमयतेइंदिया, अप्रथमसमयत्रीन्द्रिया:,
६. अप्रथमसमय तीन्द्रिय। पढमसमयचरिदिया, प्रथमसमयचतुरिन्द्रियाः,
७. प्रथमसमय चतुरिन्द्रिय। अपढमसमयचरिदिया, अप्रथमसमयचतुरिन्द्रियाः,
८. अप्रथमसमय चतुरिन्द्रिय। पढमसमयपचिदिया, प्रथमसमयपञ्चेन्द्रिया:,
६. प्रथमसमय पञ्चेन्द्रिय। अपढमसमयपंचिदिया। अप्रथमसमयपञ्चेन्द्रियाः।
१०. अप्रथमसमय पञ्चेन्द्रिय।
१५३. दसविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं दशविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः , १५३. सर्व जीव दस प्रकार के हैंजहा
तद्यथापुढविकाइया, आउकाइया, पृथिवीकायिकाः, अपकायिकाः, १. पृथ्वीकायिक, २. अकायिक, तेउकाइया, वाउकाइया, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, वणस्सइकाइया, बेदिया, तेइंदिया, वनस्पतिकायिकाः, द्वीन्द्रियाः, ५. वनस्पतिकायिक, ६. द्वीन्द्रिय, चरिदिया, पंचेंदिया, अणिदिया। त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः, ७. वीन्द्रिय ८. चतुरिन्द्रिय, अनिन्द्रिया:।
६. पञ्चेन्द्रिय, १०. अनिन्द्रिय । अहवा-दसविधा सव्वजीवा अथवा दश विधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्ताः,
अथवा-सर्व जीव दस प्रकार के हैंपण्णत्ता, तं जहा
तद्यथापढमसमयणेरइया, प्रथमसमयनै रयिकाः,
१. प्रथमसमय नै रयिक, अपढमसमयणेरइया, अप्रथमसमयनै रयिकाः,
२. अप्रथमसमय नैरयिक, 'पढमसमयतिरिया, प्रथमसमयतिर्यञ्चः,
३. प्रथमसमय तिर्यञ्च, अपढमसमयतिरिया, अप्रथमसमयतिर्यञ्च:,
४. अप्रथमसमय तिर्यञ्च, पढमसमयमणुया, प्रथमसमयमनुजाः,
५. प्रथमसमय मनुष्य, अपढमसमयमणुया, अप्रथमसमयमनुजाः,
६. अप्रथमसमय मनुष्य, पढमसमयदेवा, प्रथमसमयदेवाः,
७. प्रथमसमय देव, अपढमसमयदेवा, अप्रथमसमयदेवाः,
८. अप्रथमसमय देव, पढमसमयसिद्धा, प्रथमसमयसिद्धाः,
६. प्रथमसमय सिद्ध, अपढमसमयसिद्धा। अप्रथमसमयसिद्धाः।
१०. अप्रथमसमय सिद्ध।
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ठाणं (स्थान)
सताउय - दसा-पदं
१५४. वासस्ताउस्स णं पुरिसस्स दस दसाओ पण्णत्ताओ, तं जहासंग्रह - सिलोगो
१. बाला किड्डा मंदा,
पण हायणी ।
पवंचा पदभारा,
मुम्मुही सायणी तथा ॥
तणवणस्सइ-पद
तणवणस्सतिकाइया
पण्णत्ता, तं जहा
मूले, कंदे, खंधे, तया, साले, पवाले, पत्ते, पुणे, फले, बोये ।
१५५. दस विधा
सेढिपदं
१५६. सव्वाओवि णं विज्जाहरसेढीओ दस-दस जोयणाई विक्खंभेणं
पण्णत्ता ।
१५७. सव्वाओवि णं अभिओगसेढीओ दस-दस जोयणाई विक्खंभेणं
पण्णत्ता ।
विज्जग-पदं
१५८. विज्जगविमाणा णं दस जोयण तपाई उड्ड उच्चतेगं पण्णत्ता । तेयसा भासकरण-पदं १५६. दसह ठाणेह सह तेयसा भासं
कुज्जा, तं जहा
१. केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते समाणे परिकुविते तस्स तेयं णिसिरेज्जा | से तं परितावेति, से तं परितावेत्ता तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा ।
स्थान १० : सूत्र १५४-१५६
शतायुष्क- दशा-पद
शतायुष्क- दशा-पदम् वर्षशतायुषः पुरुषस्य दश दशा: प्रज्ञप्ताः १५४. शतायु पुरुष के दस दशाएं होती हैं" -
६४४
तद्यथा
संग्रह - श्लोक
१. बाला क्रीडा मन्दा,
बला प्रज्ञा हायिनी ।
प्रपञ्चा
प्राग्भारा,
मृन्मुखो शायिनी तथा ॥
तृणवनस्पति-पदम्
तृणवनस्पति-पद
दशविधाः तृणवनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः १५५. तृणवनस्पतिकायिक दस प्रकार के होते
तद्यथा—
मूलं कन्दः स्कन्धः त्वक्, शाखा, प्रवालं, पत्र, पुष्पं, फलं, बीजम् ।
श्रेणि-पदम्
सर्वा अपि विद्याधरश्रेण्यः दश दश योजनानि विषकम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
सर्वाअपि आभियोगश्रेण्यः दश दश योजनानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
ग्रैवेयक-पदम्
ग्रैवेयकविमानानि दश योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि ।
१. बाला,
२. क्रीड़ा,
३. मन्दा,
४. बला, ५. प्रज्ञा,
६. हायिनी,
७. प्रपञ्चा 5. प्राग्भारा, ६ मृन्मुखी,
१०. शायिनी ।
हैं
१. मूल, ४. त्वक्,
७. पत्र, १०. बीज ।
२. कन्द,
५. शाखा,
८. पुष्प,
३. स्कन्ध,
६. प्रवाल,
६. फल,
श्रेणि-पद
१५६. दीर्घवैताद्य पर्वत के सभी विद्याधरनगरों की श्रेणियां दस-दस योजन चौड़ी हैं।
*
१५७. दीर्घवैताढ्य पर्वत के सभी अभियोगिक श्रेणियां [आभियोगिक देवों की श्रेणियां ] दस-दस योजन चौड़ी हैं ।
ग्रैवेयक पद
१५८. ग्रैवेयक विमानों की ऊपर की ऊंचाई दस
सौ योजन की है।
तेजसा भस्मकरण-पदम्
तेज से भस्मकरण- पद
दशभिः स्थानैः सह तेजसा भस्म कुर्यात्, १५६. दस कारणों से श्रमण-माहन [ अत्याशाना करने वाले को ] तेज से भस्म कर डालता है
तद्यथा—
१. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा अत्याशात (द) येत्, स च अत्याशाति(दि) तः सन् परिकुपितः तस्य तेजः निसृजेत । स तं परितापयति, स तं परिताप्य तमेव सह तेजसा भस्म कुर्यात् ।
१. कोई व्यक्ति तथारूप – तेजोलब्धिसम्पन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है । वह अत्याशातना से कुपित होकर, उस पर तेज फेंकता है । वह तेज उस व्यक्ति को परितापित करता है, परितापित कर उसे तेज से भस्म कर देता है।
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गणं (स्थान)
६४५ २. केइ तहारूनं समणं वा माहगं २. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा दा अच्वासातेज्जा, से य अच्चा- अत्याशातयेत्, स च अत्याशातितः सन् सातिते समाणे देवे परिकुविए देवः परिकुपितः तस्य तेजः निसृजेत्। तस्स तेयं णिसि रेज्जा। स तं परितापयति.स तं परिताप्य तमेव से तं परितावेति, से तं परिता- सह तेजसा भस्म कुर्यात् । वेत्ता तामेव सह तेयसा भासं . कुज्जा ।
स्थान १० : सूत्र १५६ २. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिसंपन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर कोई देव कुपित होकर अत्याशातना करने वाले पर तेज फेंकता है। वह तेज उस व्यक्ति को परितापित करता है, परितापित कर उसे तेज से भस्म कर देता है।
३. केइ तहारूवं समणं वा माहणं ३. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा । वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चा- अत्याशातयेत्, स च अत्याशातितः सन् सातिते समाणे परिकुविते देवेवि परिकुपितः देवोपि च परिकुपितः तौ य परिकुविते ते दुहओ पडिण्णा द्वौ (कृत) प्रतिज्ञौ तस्य तेज: तस्स तेयं णिसिरेज्जा। ते तं निसृजेताम् । तौ तं परितापयतः, तौ परिताति, ते तं परिताबेत्ता तं परिताप्य तमेव सह तेजसा भस्म तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा। कुर्याताम् ।
३. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिसम्पन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर मुनि व देव दोनों कुपित होकर उसे मारने की प्रतिज्ञा कर उस पर तेज फेंकते हैं। वह तेज उस व्यक्ति को परितापित करता है, परितापित कर उसे तेज से भस्म कर देता है।
४. केइ तहारूवं समणं वा माहणं ४. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा वा अच्चासालेज्जा, से य अच्चा- अत्याशातयेत्, स च अत्याशातितः । सातिते [समाणे ?] परिकुविए (सन् ?) परिकुपितः तस्य तेजः । तस्स तेयं णितिरेज्जा। तत्थ निसृजेत् । तत्र स्फोटा: सम्मूर्च्छन्ति, सोडा संमुच्छंति, ते फोडा भिज्जंति, ते स्फोटाः भिद्यन्ते, ते स्फोटाः भिन्नाः । ते फोडा भिण्णा समाणा तामेव सन्तः तमेव सह तेजसा भस्म कुर्युः । सह तेयसा भासं कुज्जा।
४. कोई व्यक्ति तथारूप तेजोलब्धिसम्पन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है । तब वह अत्याशातना से कुपित होकर, उस पर तेज फेंकता है। तब उसके शरीर में स्फोट (फोड़े) उत्पन्न होते हैं। वे फूटते हैं और फूटकर उसे तेज से भस्म कर देते हैं।
५. केइ तहारूपं समगं वा माहणं ५. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा वा अच्वासातेज्जा, से य अच्चा- अत्याशातयेत्, स च अत्याशातितः । सातिते [समाणे ?] देवे परि- (सन् ?) देवः परिकुपितः तस्य तेजः कुदिए तस्स तेयं णिसिरेज्जा। निसृजेत् । तत्र स्फोटा: सम्मूर्च्छन्ति, तत्य फोडा संमुच्छंति, ते फोडा ते स्फोटा: भिद्यन्ते, ते स्फोटाः भिन्नाः ।। भिज्जंति, ते फोडा भिण्णा समाणा सन्तः तमेव सह तेजसा भस्म कुर्युः । तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा।
५. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिसम्पन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर कोई देव कुपित होकर, आशातना करने वाले पर तेज फेंकता है। तब उसके शरीर में स्फोट उत्पन्न होते हैं। वे फूटते हैं और फूटकर उसे तेज से भस्म कर देते
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ठाणं (स्थान)
स्थान १०:सूत्र १५६
६. केइ तहारूवं समणं वा माहणं ६. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चा- अत्याशातयेत्, स च अत्याशातितः सातिते [समाणे ?] परिकुविए (सन् ?) परिकुपितः देवोपि च परिदेवेवि य परि कुविए ते दुहओ कुपितः तौ द्वौ (कृत) प्रतिज्ञौ तस्य तेजः पडिण्णा तस्स तेयं णिसिरेज्जा। निस जेताम् । तत्र स्फोटाः सम्मूर्च्छन्ति, तत्थ फोडा संमुच्छंति, 'ते फोडा ते स्फोटाः भिद्यन्ते, ते स्फोटाः भिन्नाः भिजनं ति, ते फोडा भिण्णा समाणा सन्तः तमेव सह तेजसा भस्म कुर्युः । तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा। ७. केइ तहारूवं समणं वा माहणं ७. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चा- अत्याशातयेत्, स च अत्याशातितः सातिते [समाणे ?] परिकुविए (सन् ? ) परिकुपितः तस्य तेजः निसृजेत्। तस्स तेयं णिसिरेज्जा। तत्थ तत्र स्फोटा: सम्मूर्च्छन्ति, ते स्फोटा: फोडा संमुच्छंति, ते फोडा भिज्जतिः भिद्यन्ते, तत्र पुला: सम्मूर्च्छन्ति, ते तत्थ पुला संमुच्छंति, ते पुला- पुलाः भिद्यन्ते, ते पुलाः भिन्नाः सन्त: भिज्जंति, ते पुला भिण्णा समाणा तमेव सह तेजसा भस्म कुर्युः । तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा। ८. केइ तहारूवं समणं वा माहणं ८. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चा- अत्याशातयेत्, स च अत्याशातितः सातिते [समाणे ?] देवे परि- (सन् ? ) देवः परिकुपितः तस्य तेज: कुविए तस्स तेयं णिसिरेज्जा। निसृजेत् । तत्र स्फोटाः सम्मूर्च्छन्ति, तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा ते स्फोटाः भिद्यन्ते, तत्र पुलाः सम्मूर्च्छन्ति, भिज्जंति, तत्थ पुला संमुच्छंति, ते ते पुलाः भिद्यन्ते, ते पुलाः भिन्नाः सन्तः । पुला भिज्जति, ते पुला भिण्णा तमेव सह तेजसा भस्म कुर्युः । समाणा तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा। ६. केइ तहारूवं समणं वा माहणं ६. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चा- अत्याशातयेत्, स च अत्याशातितः सातिते [समाणे ?] परिकुविए (सन् ?) परिकुपित: देवोपि च परिदेवेवि य परिकुविए ते दुहओ कपितः तौ द्वौ (कृत) प्रतिज्ञौ तस्य तेज: पडिण्णा तस्स तेयं णिसिरेज्जा। निसृजेताम् । तत्र स्फोटाः सम्मूर्च्छन्ति, तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा ते स्फोटा भिद्यन्ते,तत्र पुलाः सम्मूर्च्छन्ति, भिज्जंति, तत्थ पुला संमुच्छंति, ते ते पुलाः भिद्यन्ते, ते पुलाः भिन्नाः सन्तः पुला भिज्जति, ते पुला भिण्णा तमेव सह तेजसा भस्म कर्यः । समाणा तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा ।
६. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिसम्पन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर मुनि व देव दोनों कुपित होकर उसे मारने की प्रतिज्ञा कर उस पर तेज फेंकते हैं। तब उसके शरीर में स्फोट उत्पन्न होते हैं। वे फूटते हैं और फूटकर उसे तेज से भस्म कर देते हैं। ७. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिसंपन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है । तब वह अत्याशातना से कुपित होकर, उस पर तेज फेंकता है । तव उसके शरीर में स्फोट उत्पन्न होते हैं । दे फूटते हैं । उनमें पुल [फुसियां] निकलती हैं । वे फूटती हैं और फूटकर उसे तेज से भस्म कर देती है। ८. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिसम्पन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर कोई देव कुपित होकर अत्याशातना करने वाले पर तेज फेंकता है । तब उसके शरीर में स्फोट उत्पन्न होते हैं। वे फूटते हैं। उनमें पुल [फुसियां] निकलती हैं। वे फूटती हैं और फूटकर उसे तेज से भस्म कर देती हैं। ६. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिसम्पन्न श्रमण-माहन की अत्यागातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर मुनि व देव-दोनों कुपित होकर उसे मारने की प्रतिज्ञा कर, उस पर तेज फेंकते हैं। तब उसके शरीर में स्फोट उत्पन्न होते हैं, वे फूटते हैं, उनमें पुल फुसियां निकलती हैं। वे फूटतीं हैं और फुटकर उसे तेज से भस्म कर देती है।
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ठाणं (स्थान)
६४७
स्थान १० : सूत्र १६० १०. केइ तहारूवं समणं वा माहणं १०. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा । १०. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिवा अच्चासातेमाणे तेयं णिसिरेज्जा, अत्याशातयन् तेजः निसृजेत्, स च तत्र । सम्पन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना से य तत्थ णो कम्मति, णो नो क्रमते, नो प्रक्रमते, आञ्चिताञ्चितं
करता हुआ उस पर तेज फेंकता है। वह
तेज उसमें घुस नहीं सकता। उसके ऊपरपकम्मति, अंचिअंचियं करेति, करोति, कृत्वा आदक्षिण-प्रदक्षिणां
नीचे, नीचे-ऊपर आता-जाता है, दांए-बांए करेत्ता आयाहिण-पयाहिणं करेति, करोति, कृत्वा ऊवं विहायः उत्पतति,
प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर आकाश में करेत्ता उड्ड वेहासं उप्पतति, उत्पत्य स ततः प्रतिहतः प्रतिनिवर्त्तते,
चला जाता है। वहां से लौटकर उस उप्पतेत्ता से णं ततो पडिहते पडि- प्रतिनिवृत्त्य तदेव शरीरकं अनुदहत्- श्रमण-माहन के प्रबल तेज से प्रतिहत णियत्तति, पडिणियत्तित्ता तमेव अनुदहत् सह तेजसा भस्म कुर्यात्- होकर वापस उसी के पास चला जाता है, सरीरगं अणुदहमाणे-अणुदहमाणे यथा वा गोशालस्य मङ्खलीपुत्रस्य जो उसे फेंकता है। उसके शरीर में प्रवेश सह तेयसा भासं कुज्जा—जहा वा तपस्तेजः ।
कर उसे उसकी तेजोलब्धि के साथ भस्म
कर देता है । जिस प्रकार मंखलीपुत्र गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवे
गोशालक ने भगवान महावीर पर तेज तेए।
का प्रयोग किया था। [वीतरागता के प्रभाव से भगवान् भस्मसात् नहीं हुए। वह तेज लौटा और उसने गोशालक को
ही जला डाला। अच्छेरग-पदं आश्चर्यक-पदम्
आश्चर्यक-पद १६०. दस अच्छेरगा पण्णत्ता, तं जहा- दश आश्चर्यकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- १६०. आश्चर्य दस हैं - संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
१. उपसर्ग-तीर्थकरों के उपसर्ग होना। १. उवसग्ग गब्भहरणं, १. उपसर्गाः गर्भहरणं,
२. गर्भहरण-भगवान् महावीर का इत्थीतित्थं अभाविया परिसा। स्त्रीतीर्थं अभाविता परिषत् ।
गर्भापहरण।
३. स्त्री का तीर्थंकर होना। कण्हस्स अवरकंका, कृष्णस्य अपरकंका,
४. अभावित परिषद्-तीर्थकर के प्रथम उत्तरणं चंदसूराणं॥ उत्तरणं चन्द्रसूरयोः ।।
धर्मोपदेशक की विफलता। २. हरिवंसकुलप्पत्ती, २. हरिवंशकुलोत्पत्तिः,
५. कृष्ण का अपरकंका नगरी में जाना। चमरुप्पातो य अट्ठसयसिद्धा। चमरोत्पातश्च अष्टशतसिद्धः।
६. चन्द्र और सूर्य का विमान सहित पृथ्वी अस्संजतेसु पूआ, असंयतेषु पूजा,
पर आना। दसवि अणंतेण कालेण॥ दशापि अनन्तेन कालेन ।
७. हरिवंश कुल की उत्पत्ति। ८. चमर का उत्पात-चमरेन्द्र का सौधर्म-कल्प प्रथम देवलोक] में जाना। ६. एक सौ आठ सिद्ध-एक समय में एक साथ एक सौ आठ व्यक्तियों का मुक्त होना। १०. असंयमी की पूजा।
-ये दसों आश्चर्य अनन्तकाल के व्यवधान से हुए हैं।
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ठाणं (स्थान)
कंड-पदं
१६१. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणे कंडे दस जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते ।
१६२. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए वइरे कंडे दस जोयणसताई बाले पण्णत्ते । १६३. एवं वेरुलिए लोहितक्खे नसार
गल्ले हंसगन्भे पुलए सोगंधिए जोतिर से अंजणे अंजणपुलए रतयं जातरू अंके फलिहे रिट्ठ । जहा रयणे तहा सोलस विधा
भाणितव्या ।
णाई उन्हे पणा | १६७. सीता-सीतोया णं महाणईओ मुहम्ले दस-दस जोयणाई उब्वेहेणं पण्णत्ताओ ।
णक्खत्त-पदं
१६८. कत्तियाणक्खत्ते सव्वबाहिराओ मंडलाओ दसमे मंडले चारं चरति । १६६. अनुराधाणक्खत् सव्वन्तराओ मंडलाओ दसमे मंडले चारं चरति ।
६४८
काण्ड-पदम्
अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नं काण्डं दश योजनशतानि बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ।
अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः वज्रं काण्डं दश योजनशतानि बाहुल्येन प्रज्ञप्तम् ।
एवं वैडूर्यं लोहिताक्षं मसारगल्लं हंसगर्भ पुलकं सौगन्धिकं ज्योतीरसं अञ्जनं अञ्जनपुलकं रजतं जातरूपं अङ्क स्फटिकं रिष्टम् ।
यथारत्नं तथा षोडशविधाः भणितव्याः ।
उव्वेह-पदं
१६४. सविणं दीव-समुद्दा दस जोयणसताई उच्णं पण्णत्ता ।
१६५. सब्वेवि णं महादहा दस जोयणाई
उठणं पण्णत्ता ।
प्रज्ञप्ताः ।
१६६. सव्वेवि णं सलिलकुंडा दस जोय - सर्वाण्यपि सलिलकुण्डानि दश योजनानि १६६. सभी सलिलकुंड [ प्रपातकुण्ड ] दस-दस
उद्वेधेन प्रज्ञप्तानि ।
योजन गहरे हैं।
उद्वेध-पदम्
उद्वेध पद
सर्वेपि द्वीप - समुद्राः दश योजनशतानि १६४. सभी द्वीप समुद्र दस सौ-दस सी योजना उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः। गहरे हैं । सर्वेपि महाद्रहाः दश योजनानि उद्वेधेन १६५. सभी महाद्रह दस-दस योजन गहरे हैं ।
शीता - शीतोदा : महानद्यः मुखमूले दशदश योजनानि उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः ।
स्थान १० : सूत्र ९६१-१६ε
काण्ड-पद
१६१-१६३. रत्नकाण्ड, वज्रकाण्ड, बैडूर्यकाण्ड, लोहिताक्षकाण्ड, मसारगल्लक काण्ड, हंसगर्भकाण्ड, पुलककाण्ड, सौगन्धिककाण्ड, ज्योतिरसकाण्ड, अञ्जनकाण्ड, अञ्जनपुलककाण्ड, रजतकाण्ड, जातरूपकाण्ड, अङ्ककाण्ड, स्फटिककाण्ड और रिष्टकाण्ड -- इनमें से प्रत्येक काण्ड दस सौदस सौ योजन मोटा है।
नक्षत्र-पदम्
कृत्तिकानक्षत्रं सर्वबाह्यात् मण्डलात् दशमे मण्डले चारं चरति ।
१६७. शीता और शीतोदा महानदियों का सुखमूल [ समुद्र प्रवेश स्थान ] दस-दस योजन गहरा है।
नक्षत्र - पद
१६ ८. कृत्तिका नक्षत्र चन्द्रमा के सर्व वाह्यमंडल से दसवें मंडल में गति करता है।
अनुराधानक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलात् १६६. अनुराधा नक्षत्र चन्द्रमा के अन्तर दशमे मण्डले चारं चरति । मंडल से दसवें मंडल में गति करता है।
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ठाणं (स्थान)
६४६
स्थान १० : सूत्र १७०-१७३ णाणविद्धिकर-पदं ज्ञानवृद्धिकर-पदम्
ज्ञानवृद्धिकर-पद १७०. दस णक्खत्ता णाणस्स विद्धिकरा दश नक्षत्राणि ज्ञानस्य वृद्धिकराणि १७०. ज्ञान की वृद्धि करने वाले नक्षत्र दस हैंपण्णत्ता, तं जहा
प्रज्ञप्तानि, तद्यथासंगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. मिगसिरमद्दा पुस्सो, १. मृगशिरा आर्द्रा पुष्यः,
१. मृगशिरा, २. आर्द्रा, ३. पुष्य, तिण्णि य पुव्वाई मूलमस्सेसा। त्रीणि च पूर्वाणि मूलमश्लेषा।
४. पूर्वाषाढा, ५. पूर्वभाद्रपद, हत्थो चित्ता य तहा, हस्तश्चित्रा च तथा,
६. पूर्वफाल्गुनी, ७. मूल, दस विद्धिकराई णाणस्स ॥ दश वृद्धिकराणि ज्ञानस्य ।
८. अश्लेषा, हस्त, १०. चित्रा। कुलकोडि-पदं कुलकोटि-पदम्
कुलकोटि-पद १७१. चउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्ख- चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रितिर्यग्योनिकानां १७१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक स्थलचर
जोणियाणं दस जाति-कुलकोडि- दश जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख-शत- चतुष्पद के योनिप्रवाह में होने वाली कूलजोणिपमुह-सतसहस्सा पण्णत्ता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि।
कोटियां दस लाख हैं। १७२. उरपरिसप्पथलयरपंचिदियति- . उर:परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्- १७२. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक स्थलचर उर:
रिक्खजोणियाणं दस जाति-कुल- योनिकानां दश जाति-कुलकोटि-योनि- परिसर्प के योनिप्रवाह में होने वाली कुलकोडि-जोणिपमुह-सत्तसहस्सा प्रमुख-शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । कोटियां दस लाख हैं। पण्णत्ता। पावकम्म-पदं पापकर्म-पदम्
पापकर्म-पद १७३. जीवा णं दसठाणणिव्वत्तिते पोग्गले जीवा दशस्थान निर्वतितान् पुद्गलान् १७३. जीवों ने दस स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों
पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति पापकर्मतया अचेषुः वा चिन्वन्ति वा का पापकर्म के रूप में चय किया है, वा चिणिस्संति वा, तं जहा- चेष्यन्ति वा, तद्यथा
करते हैं और करेंगेपढमसमयएगिदियणिन्वत्तिए, प्रथमसमयकेन्द्रियनिर्वतितान्,
१. प्रथमसनय एकेन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों •अपढमसमयएगिदियणिव्वत्तिए, अप्रथमसमयकेन्द्रियनिर्वतितान्, का। २. अप्रथसमय एकेन्द्रियनिर्वर्तित पढमसमयबेइंदियगिव्वत्तिए, प्रथमसमयद्वीन्द्रियनिर्वतितान्,
पुद्गलों का। ३. प्रथमसमय द्वौन्द्रियअपढमसमयबेइंदियणिव्वत्तिए, अप्रथमसमयद्वीन्द्रियनिर्वतितान्,
निर्वतित पुद्गलों का। ४. अप्रथमसमय पढमसमयतेइंदियणिव्वत्तिए, प्रथमसमयत्रीन्द्रियनिर्वतितान्,
द्वीन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का। ५.प्रथम
समय त्रीन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का। अपढमसमयतेइंदियणिव्वत्तिए, अप्रथमसमयत्रीन्द्रियनिर्वतितान्,
६. अप्रथमसमय त्रीन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों पढमसमयचरिदियणिव्वत्तिए, प्रथमसमयचतुरिन्द्रियनिर्वतितान्,
का । ७. प्रथमसमय चतुरिन्द्रिय निर्दतित अपढमसमयचरिदियणिब्वत्तिए, अप्रथमसमयचतुरिन्द्रियनिर्वतितान्, पुद्गलों का। ८. अप्रथमसमय चतुरिपढमसमयपंचिदिय णिव्वत्तिए, प्रथमसमयपञ्चेन्द्रियनिर्वतितान्, न्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का। ६. प्रथमअपढमसमय पंचिदियणिव्वत्तिए। अप्रथमसमयपञ्चेन्द्रियनिर्वतितान् । समय पञ्चेन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का।
१०. अप्रथमसमय पञ्चेन्द्रियनितित पुद्गलों का।
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ठाणं (स्थान)
६५०
स्थान १०: सूत्र १७४-१७८
एवं चिण-उवचिण-बंध एवम्-चय-उपचय-बन्ध
इसी प्रकार उनका इपचय, बंधन, उदीरण, उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव । उदीर-वेदा: तथा निर्जरा चैव। वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और
करेंगे। पोग्गल-पदं पुद्गल-पदम्
पुद्गल-पद १७४. दसपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। दशप्रदेशिकाः स्कन्धाः अनन्ताः १७४. दस प्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं ।
प्रज्ञप्ताः । १७५. दसपएसोगाढा पोग्गला अणंता दशप्रदेशावगाढा: पुद्गलाः अनन्ताः १७५. दस प्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त हैं । पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । १७६. दससमय ठितीया पोग्गला अणंता दशसमयस्थितिका: पुद्गलाः अनन्ताः १७६. दस समय की स्थिति वाले पूदगल पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः ।
अनन्त हैं। १७७. दसगुणकालगा पोग्गला अणंता दशगुणकालकाः पुद्गलाः अनन्ता: १७७. दस गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं । पण्णत्ता।
प्रज्ञप्ताः । १७८. एवं वणेहिं गंहिं रसेहि फासेहिं एवं वर्णैः गन्धैः रसैः स्पर्शः दशगुणरूक्षाः १७८. इसी प्रकार शेष वर्ण तथा गंध, रस और दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पुद्गलाः अनन्ताः प्रज्ञप्ताः ।
स्पर्शो के दस गुण वाले पुद्गल अनन्त पण्णत्ता।
ग्रन्थ परिमाण अक्षर परिमाण-१६५४४८ अनुष्टप् श्लोक परिमाण-५१७० अक्षर
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१२. दीर्घ ह्रस्व ( सू० २ )
वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त दीर्घ ( दोह) और ह्रस्व (रहस्स) शब्दों के दो-दो अर्थ किए हैं'
(१) दीर्घ - दीर्घ वर्णाश्रित शब्द ।
(२) दूरश्रव्य-दूर तक सुनाई देने वाला शब्द, किन्तु इसका अर्थ दूरश्रव्य की अपेक्षा प्रलम्बध्वनि वाला शब्द अधिक संगत लगता है।
ह्रस्व - (१) ह्रस्ववर्णाश्रित शब्द |
(२) लघुध्वनि वाला शब्द ।
टिप्पणियाँ
स्थान - १०
३. (सू० ६)
प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य यह है कि शरीर या किसी स्कंध से संबद्ध पुद्गल दस कारणों से चलित होता हैस्थानान्तरित होता है ।
वृत्तिकार के अनुसार दसों स्थानों की व्याख्या प्रथमा और सप्तमी - दोनों विभक्तियों से की जा सकती है।
१. खाद्यमान पुद्गल अथवा खाने के समय पुद्गल चलित होता है ।
२. परिणत होता हुआ पुद्गल अथवा जठराग्नि के द्वारा खल और रस में परिणत होते समय पुद्गल चलित
होता है।
३. उच्छ्वासवायु का पुद्गल अथवा उच्छ्वास के समय पुद्गल चलित होता है ।
४. नि:श्वासवायु का पुद्गल अथवा निःश्वास के समय पुद्गल चलित होता है ।
५. वेद्यमान कर्म-पुद्गल अथवा कर्मवेदन के समय पुद्गल चलित होता है ।
६. निर्जीर्यमान कर्म-पुद्गल अथवा कर्म निर्जरण के समय पुद्गल चलित होता है ।
७. वैक्रियशरीर के रूप में परिणत होता हुआ पुद्गल अथवा वैक्रिय शरीर की परिणति के समय पुद्गल चलित
होता है।
८. परिचर्यमाण (मैथुन में संप्रयुक्त) वीर्य के पुद्गल अथवा मैथुन के समय पुद्गल चलित होता है ।
C. क्षाविष्टशरीर अथवा यक्षावेश के समय पुद्गल (शरीर) चलित होता है ।
१०. देहगतवायु से प्रेरित पुद्गल अथवा शरीर में वायु के बढ़ने पर बाह्य वायु से प्रेरित पुद्गल चलित होता है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४७ : दीर्घा - दीर्घवर्णाश्रितो दूरश्रव्यो वा ""
ह्रस्वो -- ह्रस्ववर्णाश्रयो विवक्षया लघुर्वा ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४८ ।
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स्थान १०:टि०४-६
४,५. उपकरण संवरसूचीकुशाग्रसंवर (सू० १०)
उपकरणसंव--रउपधि के दो प्रकार हैं—ओध उपधि और उपग्रह उपधि । जो उपकरण प्रतिदिन काम में आते हैं उन्हें 'ओष' और जो कोई विशिष्ट कारण उपस्थित होने पर संयम की सुरक्षा के लिए स्वीकृत किए जाते हैं उन्हें 'उपग्रह उपधि कहा जाता है।
उपकरण संबर का अर्थ है-अप्रतिनियत और अकल्पनीय वस्त्र आदि उपकरणों का अस्वीकार अथवा बिखरे हुए वस्त्र आदि उपकरणों को व्यवस्थित रख देना।
यह उल्लेख औधिक उपधि की अपेक्षा से है।'
सूचौकुशाग्रसंवर-सूई और कुशाग्र का संवरण (संगोपन) कर रखना, जिससे वे शरीरोपघातक न हों। ये उपकरण औधिक नहीं होते किन्तु प्रयोगजनवश कदाचित् रखे जाते हैं।
सूची और कुशाग्र—ये दो शब्द समस्त औपग्रहिक उपकरणों के सूचक हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रथम आठ भाव-संबर और शेष दो द्रव्य-संबर है।'
६. (मू० १५)
प्रस्तुत सूत्र में प्रमज्या के दस प्रकार बतलाए गए हैं। प्रव्रज्या ग्रहण के अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें से कुछेक कारणों का यहाँ उल्लेख है । वृत्तिकार ने दसों प्रकार की प्रव्रज्याओं के उदाहरणों का नामोल्लेख मात्र किया है। उनका विस्तार इस प्रकार है
१. छन्दा-अपनी इच्छा से ली जाने वाली प्रव्रज्या।
(क) एक बौद्ध भिक्षु थे। उनका नाम था गोविंद । एक जैन आचार्य ने उन्हें अठारह बार बाद में पराजित किया। इस पराजय से जिन्न होकर उन्होंने सोचा-'जब तक मैं इनके (जनों के) सिद्धान्तों को पूर्ण रूप से समझ नहीं लेता, तब तक इनको वाद-प्रतिवाद में जीत नहीं सकूगा।'
ऐसा सोचकर वे उन्हीं जैन आचार्य के पास आए, जिन्होंने उन्हें पराजित किया था। उन्होंने ज्ञान सीखना प्रारम्भ किया । धीरे-धीरे उन्होंने सारा ज्ञान सीख लिया। इस चेष्टा से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने पर उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई।
एक बार वे आचार्य के पास गए। अपनी सारी बात उनके समक्ष सरलता से रखते हुए उन्होंने कहा---'आप मुझे व्रत (प्रनज्या) ग्रहण करायें।' आचार्य ने उन्हें दीक्षित कर दिया । अन्त में वे सूरि पद पर अधिष्ठित हुए और वे गोविन्दवाचक के नाम से प्रसिद्ध हुए।
१. ओपनियुक्ति गाथा ६६८, वृत्ति पृष्ठ ४६६ : तन ओघोपधि
नित्यमेष यो गृह्यते, अवग्रहोपधिस्तु कारणे आपन्ने संयमा
यो गृह्यते सोऽवग्रहोषधिरिति । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४८ : उपकरणसंवर :-अप्रतिनियता
कल्पनीयवस्वाद्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वस्त्राद्युपकरणस्य
संवरणमुपकरणसंबरः, अयं चौचिकोपकरणापेक्षः । ३. वही, वृत्ति पन ४४८ : एष तूपलक्षणत्वात्समस्तीपग्रहिकोप
करणापेक्षो द्रष्टव्यः, इह चान्त्यपदद्वयेन द्रव्यसंवरावुक्ताविति । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४६ ।। ५. मुनि पुष्पविजयजी ने गोविवाचक का अस्तित्व काल विक्रम की
पाँचवीं शताब्दी माना है। (महावीर जैन विद्यालय रजत महोत्सव अंक, पृष्ठ १६६-२०१) इन्होंने 'गोविंदनियुक्ति' नामक दार्गनिक ग्रन्थ की रचना की जिसमें एकेन्द्रिय जीवों की सिद्धि की गई है। (निशीथ भाष्य गाथा ३६५६, चूणि)।"
बहुतकल्प के वृतिकार दर्शन-विद्धि कारक ग्रन्थों का नामोल्लेख करते हुए सन्मतितर्क और तत्त्वार्थ के साथ-साथ गोविंदनियुक्ति का भी उल्लेख करते हैं
(क) बृहत्कल्पभाष्य गाथा २८८०, वृत्ति-दर्शनविशुद्धि
कारणीया गोविंदनियुक्तिः, आदि शब्दात् सम्म (न्म)
ति-तत्त्वार्थप्रभृतीनि च, शास्त्राणि । (ख) बही, भाष्य गाथा ५४७३, वृत्ति-आवश्यकचूणि
में भी 'गोविंदनिर्यक्ति' को दर्शन प्रभावक शास्त्र माना है। (आवश्कचूणि),पूर्वभाग, पृष्ठ ३५३ :दरिसणेवि दरिसणप्पभावगाणि । सत्थाणि जहा गोविंदनिज्जुत्तिमादीणि। निशीथभाष्य में गोविंदवाचक का उदाहरण 'भावस्तेन'
के अन्तर्गत लिया है। (क) निशीथभाष्य गाथा ३६५६: गोविंदज्जोणाणे। (ख) वही, गाथा ६२५५ : "गोविंदपवज्जा।
वृत्ति-भावतेणो जहा गोविंदवायगो"। भावस्तेन तीन प्रकार के हैं-ज्ञानस्तेन, दर्शनस्तेन और चारित्रस्तेन । गोविंदवाचक ज्ञानस्तेन थे--अर्थात् ज्ञान लेने के लिए प्रवजित हुए थे।
दशवकालिक नियुक्ति में भी गोविंदवाचक का नामोल्लेख हुआ है।
दशकालिकनियुक्ति गाथा ८२ ।
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ri (स्थान)
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स्थान १० : टि०६
(ख) प्राचीन काल में नासिक्य ( वर्तमान में नासिक) नामका नगर था। वहाँ नंद नामका वणिक् रहता था । उसकी पत्नी का नाम सुन्दरी था। वह उसको अत्यन्त प्रिय थी। क्षणभर के लिए भी वह उससे विलग होना नहीं चाहता था। इस अत्यन्त प्रीति के कारण लोग उसको 'सुन्दरीनंद' के नाम से पुकारने लगे ।
नंदका भाई पहले ही दीक्षित हो चुका था। उसने अपने छोटे भाई की आसक्ति के विषय में सुना और सोचा कि वह नरकगामी न हो जाए, इसलिए उसको प्रतिवोध देने वहाँ आया । सुन्दरीनंद ने उसे भक्त-पान से परिलाभित किया । मुनि ने उसको अपने पात्र साथ लेकर चलने को कहा। सुन्दरीनंद ने सोचा- थोड़े समय बाद मुझे विसर्जित कर देगा, किन्तु मुनि उसे अपने स्थान ( उद्यान ) पर ले गए। मार्ग में लोगों ने सुन्दरीनंद के हाथों में साधु के पात्र देखकर कहासुन्दरीनंद ने दीक्षा ले ली है।
मुनि उद्यान में पहुंचे और सुन्दरीनंद को प्रब्रजित होने के लिए प्रतिबोध दिया । सुन्दरीनंद पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।
मुनि वैकिलब्धि से सम्पन्न थे। उन्होंने सोचा - इसको समझाने का अब कोई दूसरा उपाय नहीं है । मैं इसे कुछ विशेष के द्वारा प्रलोभित करूँ। उन्होंने कहा- चलो, हम मेरु पर्वत पर घूम आएं ।' सुन्दरीनंद अपनी पत्नी को छोड़ जाने लिए तैयार नहीं हुआ। मुनि ने उसे कहा – अभी हम मुहूर्त भर में लौट आयेंगे। उसने स्वीकार कर लिया। मुनि उसे मेरु पर्वत पर ले गए और थोड़े समय बाद लौट आए। परन्तु सुन्दरीनंद का मन नहीं बदला।
तब मुनि ने एक वानरयुगल की विकुर्वणा की और सुन्दरीनंद से पूछा- वानरी और सुन्दरी में कौन सुन्दर है ? उसने कहा - भगवन् ! यह कैसी तुलना ? जितना सरसव और मेरु में अन्तर है, इतना इन दोनों में अन्तर है ।' तदनन्तर मुनि ने विद्याधर युगल की विकुर्वणा की और वही प्रश्न पूछा । सुन्दरीनंद ने कहा- भगवन् ! दोनों तुल्य है' पश्चात् मुनि देवयुगल की विकुर्वणा कर वही प्रश्न पूछा। देवांगना को देखकर सुन्दरीनंद ने कहा- 'भगवन् ! इसके समक्ष सुन्दरी वानरी जैसी लगती है ।' मुनि बोले- 'देवांगना की प्राप्ति थोड़े से धर्माचरण से भी हो सकती है।'
यह सुनकर सुन्दरीनंद का मन लोभ से भर गया और उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली ।
२. रोष से ली जाने वाली प्रव्रज्या-
प्राचीन समय में रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में आचार्य आर्यकृष्ण सबसृत थे। उसी नगर में एक मल्ल भी रहता था। उसका नाम था शिवभूति। वह अत्यन्त पराक्रमी और साहसिक था।
एक बार वह राजा के पास गया और नौकर रख लेने के लिए प्रार्थना की। राजा ने कहा- मैं परीक्षा लूंगा । यदि तू उसमें उत्तीर्ण हो गया तो तुझे रख लूंगा I'
एक दिन राजा ने उसे बुलाकर कहा - 'मल्ल ! आज कृष्ण चतुर्दशी है। श्मशान में चामुंडा का मन्दिर है। वहां जाओ और बलि देकर लौट आओ।' राजा ने उसको बलि चढ़ाने के लिए पशु और मदिरा भरे पात्र दिए।
१. आवश्यक के टीकाकार मलयगिरि ने यहाँ मतान्तर का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वानरयुगल, विद्याधरयुगल और देव
युगल - ये तीनों युगल वहाँ साक्षात् देखे थे ।
आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति पत्र ५३३ :
अन्नेभति सच्चगं चैव दिट्ठं ।
बौद्ध लेखक अश्वघोष ( ई० चौथी शताब्दी) ने 'सौंदरानंद' काव्य लिखा है उसकी कथावस्तु भी इससे मिलती-जुलती है । 'उदान' में आठ वर्ग हैं। उसके तीसरे वर्ग का नाम 'नंदवर्ग' है। इसमें मुख्य रूप से महात्मा बुद्ध के मौसेरे भाई नंद की कथा है। वह बहुत विलासी था। महात्मा बुद्ध ने उसे विविध प्रकार से समझाकर सांसारिक आसक्ति से मुक्त कर अपने धर्म में दीक्षित किया। यह कथा भी इस कथानक के समान प्रतीत होती है।
२. आवश्यक मलयगिरिवृत्ति पत्र, ५३३
आवश्यकचूर्ण, पूर्वभाग पृष्ठ ५६६ ।
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स्थान १० : टि०६
दूसरी ओर राजा ने अपने दूसरे कर्मकरों को बुलाकर कहा- 'तुम छुपकर वहां जाओ और इसे इस-इस प्रकार से डराने का प्रयास करो।'
राजा की आज्ञा पाकर मल्ल शिवभुति श्मशान में गया और बलि दे, पशुओं को मारकर वहीं खा गया।
उधर दूसरे व्यक्ति मिलकर भयंकर शन्द करने लगे किन्तु मल्ल शिवभूति के रोमांच भी नहीं हुआ। अपने कार्य से, निवृत्त हो, वह राजा के पास गया। उसके अनूठे साहस की बात राजा के पास पहले ही पहुंच चुकी थी। राजा ने उसे अपने पास रख लिया।
एक बार राजा ने अपने सेनापति को बुलाकर कहा-'जाओ, मथुरा को जीत आओ।' सेनापति ने अपनी सेना के साथ वहां से प्रस्थान किया। मल्ल शिवभूति भी साथ में था । कुछ दूर जाकर शिवभूति ने सेनापति से कहा-हमने राजा से पूछा ही नहीं कि किस मथुरा को जीतना है-मथुरा या पांडुमथुरा ? सब चिंतित हो गए। राजा को पुनः पूछना अपने सिर पर आपत्ति को लेना है । ऐसा सोचकर शिवभूति ने कहा---'दोनों मथुराओं को साथ ही जीत लेना चाहिए।' सेनापति ने कहा-'दल को दो भागों में नहीं बाँटा जा सकता और एक-एक पर विजय प्राप्त करने में बहुत समय लग सकता है।' शिवभूति ने कहा--'जो दुर्जेय है वह मुझे दी जाए।' पांडुमथुरा को जीतने का कार्य उसे सौंप दिया गया। वह वहां गया और दुर्ग को तोड़कर किनारे पर रहने वाले लोगों को उत्पीड़न करने लगा। उसके भय से सारा नगर खाली हो गया। नगर को जीतकर वह राजा के पास आया। राजा ने प्रसन्न होकर कहा-'बोल, तू क्या चाहता है ?' उसने कहा-'राजन् ! आप मुझे यह छूट दें कि मैं जहां चाहूं वहां घूम-फिर सकू।' राजा ने उसे वह छूट दे दी। अब वह घूम-फिरकर आधी रात गए घर लौटता । कभी घर आता और कभी आता ही नहीं। उसकी पत्नी उसके घर पहुंचे बिना न सोती और न भोजन ही करती। इस प्रकार कुछ दिन बीते । वह अत्यन्त निराश हो गई। एक बार उसने अपनी सासू से सारी बात कही। सासू ने कहा-जा, तू खा-पी ले और सो जा। आज मैं भूखी-प्यासी उसकी प्रतीक्षा में जागती रहूंगी। वह पत्नी सो गई। मां जागती रही।
आधी रात बीत गई थी। शिवभूति आया और द्वार खोलने के लिए कहा। माता ने उपालंभ देते हुए कहा -'जहां इस समय द्वार खुले रहते हों, वहां चला जा।' यह सुन शिवभूति का मन क्रोध से भर गया। वह वहाँ से चला। साधुओं के उपाश्रय के पास आया और देखा कि द्वार खुले हैं। वह भीतर गया। आचार्य बैठे थे। वन्दना कर वह बोला-'आप मुझे प्रबजित करें।' आचार्य ने प्रव्रज्या देने की अनिच्छा प्रगट की। तब उसने स्वयं लुंचन कर डाला। आचार्य ने तब उसे साधु के अन्य उपकरण दिए। अब वे साथ-साथ बिहरण करने लगे।
३. गरीबी के कारण ली जाने वाली प्रव्रज्या
एक बार आचार्य सुहस्ती कौशाम्बी नगरी में आए । मुनिजन भिक्षा के लिए नगरी में घूमने लगे। एक गरीब व्यक्ति ने उन्हें देखा। वह भूखा था। उसने मुनियों के पास जाकर भोजन मांगा। मुनियों ने कहा-'हमारे आचार्य के पास भोजन मांगो। हम वही उपाश्रय में जा रहे हैं।' वह उनके साथ उपाश्रय में गया और उसके आचार्य से भोजन देने की प्रार्थना की। आचार्य ने कहा-वत्स हम ऐसे भोजन नहीं दे सकते। यदि तुम प्रव्रज्या ग्रहण कर लो, तो हम तुम्हें भरपेट भोजन देंगे।
वह क्षुधा से अत्यन्त पीड़ित था। उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। ४. स्वप्न के निमित्त से ली जानेवाली प्रव्रज्या
प्राचीन काल में गगानदी के तट पर पुष्पभद्र नामका एक सुन्दर नगर था। वहां के राजा का नाम पुष्पकेतु और रानी का नाम पुष्पवती था। वह अत्यन्त सुन्दर और सुकुमार थी। एक बार उसने एक युगल का प्रसव किया। पुत्र का नाम पुष्पचूल और पुत्री का नाम पूष्प चला रखा गया। वे दोनों बालक साथ-साथ बढ़ने लगे। दोनों में बहत स्नेह था। एक बार राजा ने
१. आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पत्न, ४१८, ४१६ । २. अभिधानराजेन्द्र, भाग ७, पृष्ठ १६७ ।
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स्थान १०: टि०६
सोचा-"इन दोनों बालकों का परस्पर गाढ़ स्नेह है। यदि ये अलग हो गए तो जीवित नहीं रह सकेंगे। तो अच्छा है, मैं इनको परस्पर विवाह-सूत्र में बांध दूं।"
राजा ने अपने मित्रों, पौरजनों तथा मंत्रियों से पूछा-'अन्तःपुर में जो रत्न उत्पन्न होता है, उसका स्वामी कौन है ?" सभी ने एक स्वर से कहा-'राजा उसका स्वामी है।' राजा ने परस्पर दोनों का विवाह कर डाला। रानी ने इसका विरोध किया, परन्तु राजा ने रानी की बात नहीं सुनी। राजा से अपमानित होने पर रानी ने दीक्षा ग्रहण कर ली। व्रतों का पालन कर वह मृत्यु के बाद देवी बनी।
राजा पुष्पकेतु की मृत्यु के पश्चात् कुमार पुष्पचूल राजा बना और अपनी पत्नी के साथ (वहिन के साथ) भोग भोगता हुआ आनन्द में रहने लगा।
इधर देवने अवधिज्ञान से अकृत्य में नियोजित अपनी पुत्री पुष्पचूला को देखा और सोचा-'यह मेरी प्राणप्रिया पुत्री है। इस कुकर्म से कहीं नरक में न चली जाए। अतः मुझे प्रयत्न करना चाहिए।'
एक बार देव ने पुष्पचूला को नरक के दारुण दुःखों से पीड़ित नारकों को दिखाया। पुष्पचूला का मन कांप उठा। उसने स्वप्न की बात अपने पति से कही। पुष्पचूल ने इस उपद्रव को शान्त करने के लिए शान्तिकर्म करवाया। परन्तु देव प्रतिदिन पुष्पचूला को नरक के दारुण दृश्य दिखाने लगा।
राजा ने अपने नगर के अन्यतीथिकों को बुलाकर नरक के विषय में पूछा। उनसे कोई समाधान न मिलने पर राजा ने आचार्य अन्निकापुत्र को बुला भेजा और वही प्रश्न पूछा। आचार्य ने नरक के यथार्थ स्वरूप का चित्रण किया। रानी का मन आश्वस्त हुआ। उसने नरक गमन का कारण पूछा । आचार्य ने उसके कारणों का निरूपण किया।
कुछ दिन पश्चात् रानी ने स्वप्न में स्वर्ग के दृश्य देखे। आचार्य अन्निकापुत्र से समाधान पाकर वह प्रवजित हो गई।
५. प्रतिश्रुत (प्रतिज्ञा) के कारण ली जाने वाली प्रव्रज्या---
राजगह में धन्यक नामका सार्थवाह रहता था। उसका विवाह शालीभद्र की छोटी बहिन के साथ हुआ था। शालीभद्र दीक्षा के लिए तैयार हुआ। यह समाचार उसकी बहिन तक पहुंचा। उसने सुना कि उसका भाई शालीभद्र प्रतिदिन एकएक पत्नी और एक-एक शय्या का त्याग करता है। वह बहुत दुःखी हुई। उस समय वह अपने पति धन्यक को स्नान करा रही थी। उसकी आंखें डबडबा आई और दो-चार आंसू धन्यक के कंधों पर गिरे। धन्यक ने अपनी पत्नि के विवर्ण मुख को देखा और दुःख का कारण पूछा। उसने कहा-मेरा भाई शालीभद्र दीक्षा लेने की तैयारी कर रहा है और प्रतिदिन एक-एक पत्नी का त्याग करता चला जा रहा है। धन्यक ने कहा---'तुम्हारा भाई कायर है, हीनसत्त्य है। यदि दीक्षा लेनी ही है तो एक साथ त्याग क्यों नहीं कर देता।'
उसने कहा-'कहना सरल है, करना अत्यन्त कठिन । आप दीक्षा क्यों नहीं ले लेते ?'
धन्यक बोला-हां, तुम्हारा कहना ठीक है। आज मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं शीघ्र ही दीक्षा ले लंगा।' इस प्रतिज्ञा के आधार पर बह शालीभद्र के साथ भगवान् के पास दीक्षित हो गया।
६. जन्मान्तरों की स्मृति से ली जाने वाली प्रव्रज्या
विदेह जनपद की राजधानी मिथिला के राजा कुम्भ की पुत्री का नाम मल्लीकुमारी था। उसके पूर्व भव के छह साथी थे । उनकी उत्पत्ति इस प्रकार हुई
१. साकेत नगरी में राजा प्रतिबुद्धि के रूप में। २. चंपा नगरी में राजा चन्द्रच्छाय के रूप में। ३. श्रावस्ती नगरी में राजा रुक्मी के रूप में। ४. वाराणसी नगरी में शंखराज के रूप में। ५. हस्तिनागपुर नगर में राजा अदीनशत्रु के रूप में।
१. परिशिष्टपर्व, सर्ग ६, पृष्ठ ६६-१०१
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स्थान १० : टि०६
६. कांपिल्यपुर में राजा जितशत्र के रूप में।
इन सबको प्रतिबोध देने के लिए कुमारी ने एक उपाय किया ( देखें ७७५ का टिप्पण)। उन्हें अपने-अपने पूर्वभव की स्मारणा कराई। सभी राजाओं की जाति-स्मतिज्ञान उत्पन्न हुआ और वे सब मल्ली के साथ दीक्षित हो गए।
७. रोग के कारण ली जाने वाली प्रवज्या
एक बार इन्द्र ने चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमार के रूप की प्रशंसा की। दो देवों ने इसे स्वीकार नहीं किया और वे परीक्षा करने के लिए ब्राह्मण के रूप में वहां आए। दोनों प्रासाद के अन्दर गए और सीधे राजा के पास पहुंच गए। राजा उस समय तैल-मर्दन कर रहा था । ब्राह्मण रूप देवों ने उसके अनावृत रूप को देखा और अत्यन्त आश्चर्य चकित हुए। वे एकटक उसको निहारने लगे। राजा ने पूछा-आप यहां क्यों आए हैं ? उन्होंने कहा-"तीनों लोक में आपके रूप की प्रशंसा हो रही है। उसे आंखों से देखने के लिए हम यहां आए हैं।" राजा गर्व से उन्मत्त होकर बोला- मेरा वास्तविक रूप आपको देखना हो तो आप राजसभा में आएं। मैं जब राजसभा में सजधज कर बैठता हूं तब मेरा रूप दर्शनीय होता है ।" दोनों सभा भवन में आने का वादा कर चले गए।
राजा शीघ्र ही अभ्यंजन संपन्न कर, शरीर के सभी अंगोपांगों का श्रृंगार कर सभा में गया और एक ऊंचे सिंहासन पर जा बैठा।
दोनों ब्राह्मण आए। राजा के रूप को देख खिन्न स्वर मे बोले-"अहो ! मनुष्यों का रूप, लावण्य और यौवन क्षणभंगुर होता है।"
राजा ने पूछा-यह आपने कैसे कहा ? उन्होंने सारी बात बताई।
राजा ने अपने विभूषित अंग-प्रत्यंगों का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया और सोचा--मेरे यौवन का तेज इतने ही समय में क्षीण हो गया। संसार अनित्य है, शरीर असार है । रूप और यौवन का अभिमान करना मूर्खता है। भोगों का सेवन करना उन्माद है। परिग्रह पाश है, बंधन है। यह सोचकर वह अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप आचार्य विरत के पास प्रवजित हो गया।
उपर्युक्त विवरण उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति (अध्ययन १८) के अनुसार है।
स्थानांगवत्तिकार ने रोग से ली जाने वाली प्रव्रज्या में 'सनत्कुमार' के दृष्टान्त की ओर संकेत किया है। किन्तु उत्तराध्ययन बृहद्वृत्तिगत विवरण में चक्रवर्ती सनत्कुमार के प्रव्रज्या से पूर्व, रोग उत्पन्न होने की बात का उल्लेख नहीं है। प्रव्रज्या के बाद प्रान्त और नीरस आहार करने के कारण उनके शरीर में सात व्याधियां उत्पन्न होती है—ऐसा उल्लेख अवश्य है।
परम्परा से भी यही सुना जाता रहा है कि उनके शरीर में रोग उत्पन्न हुए थे और उन रोगों की ओर ब्राह्मण वेषधारी देवों ने संकेत भी किया था। इस संकेत से प्रतिबुद्ध होकर चक्रवर्ती सनत्कुमार दीक्षित हो जाते हैं।
यह सारा कथानक-भेद है। ८. अनादर के कारण ली जाने वाली प्रव्रज्या
मगध जनपद में नंदि नाम का गांव था। वहां गौतम ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम धारणी था। एक बार वह गर्भवती हुई। गर्भ के छह मास बीते तब गौतम ब्राह्मण मर गया और धारणी भी एक पुत्र का प्रसव कर मर गई। ऐसी स्थिति में बालक का पालन उसका मामा करने लगा। उसने उसका नाम नंदीषेण रखा। जब बड़ा हुआ तब वह अपने मामा के यहां ही नौकर के रूप में रह गया।
गांव के लोग नंदिषेण के विषय में बातचीत करते और उसे बुरा-भला कहते। वे उसको अनादर की दृष्टि से देखने लगे। यह बात नंदिषेण को अखरने लगी। एक दिन उसके मामा ने कहा-वत्स ! लोगों की बातों पर ध्यान मत दे। मैं तुझे कंवारा नहीं रखूगा । यदि दूसरा कोई अपनी पुत्री नहीं देगा तो मैं अपनी पुत्री के साथ तेरा विवाह कराऊंगा। मेरे तीन पुत्रियां है।
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स्थान १० : टि०६
नंदिषेण बहुत कुरूप था । अतः तीनों पुत्रियों ने उसके साथ विवाह करने से इन्कार कर दिया।
नंदिषेण को यह बहुत बुरा लगा। ऐसे तिरस्कृत जीवन से मरना अच्छा है'--ऐसा सोचकर वह घर से निकला और आत्महत्या करने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। उस समय उसका संपर्क एक मुनि से हुआ। उन्होंने उसके विचार परिवर्तित किए और वह नंदीवर्द्धन सूरी के पास प्रबजित हो गया।
६. देवता के प्रतिबोध से ली जाने वाली प्रव्रज्या
इस विषय में मुनि मेतार्य की कथा प्रसिद्ध है। मेतार्य पूर्व भव में पुरोहित पुत्र थे। उनकी राजपुत्र के साथ मैत्री थी। राजपुत्र के चाचा सागरचन्द्र प्रवजित हो चुके थे । सागरचन्द्र ने दोनों-राजपुत्र और पुरोहित पुत्र को कपट से प्रवजित कर दिया। राजपुत्र ने यह सोचकर इस कपट को सहन कर लिया कि चलो, ये मेरे चाचा ही तो हैं। किन्तु पुरोहित पुत्र के मन में आचार्य सागरचन्द्र के प्रति बहुत दुगुंछा पैदा हो गई। एक बार दोनों मित्रों ने आपस में यह प्रतिज्ञा की कि जो देवलोक से च्यूत होकर पहले मर्त्यलोक में जाएगा, उसे प्रतिबोध देने का कार्य दुसरे को करना होगा। दोनों मर कर देव बने । पुरोहित पुत्र का जीव देवलोक से पहले च्युत हुआ और राजगृह नगर के मेय चांडाल की पत्नी के गर्भ में आया।
चांडाल की स्त्री की मंत्री एक सेठानी के साथ थी। वह नगर में मांस बेचने के लिए जाया करती थी। एक दिन सेठानी ने कहा-बहिन ! तु अन्यत्र मत जा । मैं ही सारा मांस खरीद लंगी। चांडालिनी प्रतिदिन वहां आती और मांस देकर चली जाती। दोनों की मंत्री सघन होती गई।
सेठानी भी गर्भवती थी। किन्तु उसके सदा मृत संतान ही उत्पन्न होती थी। इस बार भी उसने एक मृत कन्या का प्रसव किया।
इधर चांडालिनी ने पुत्र का प्रसव किया। सेठानी ने अपनी मृत पुत्री उसे दी और उसका पुत्र ले लिया। अति प्रेम के कारण चांडालिनी ने कुछ भी आनाकानी नहीं की। सेठानी ने बच्चे को लेकर चांडालिनी के पैरों पर रखते हुए कहातेरे प्रभाव से यह जीवित रहे। उसका नाम मेतार्य रखा।
___अब मेतार्य सेठ के घर बढ़ने लगा। उसने अनेक कलाएं सीखीं और यौवन में प्रवेश किया। पूर्वभव के देवमित्र को अपनी प्रतिज्ञा (संकेत) का स्मरण हो आया। वह देवलोक से मेतार्य के पास आया और अपने संकेत का स्मरण कराते हुए उसे प्रतिबोध दिया, किन्तु मेतार्य ने उसकी बात नहीं मानी।
अब उसका विवाह आठ धनी कन्याओं के साथ एक ही दिन होना निश्चित हुआ। वह पालकी में बैठ नगर में घूमने लगा। तब देव मेय के शरीर में प्रविष्ट हुआ। मेय जोर-जोर से रोते हुए कहने लगा-'हाय ! यदि मेरी पुत्री भी आज जीवित होती तो मैं भी उसके विवाह की तैयारी करता।' उसकी पत्नी ने यह सुना। वह आई और बीती हुई सारी घटना उसे सुनाई। यह सुनकर देव के प्रभाव से चांडाल मेय उठा और सीधा मेतार्य की शिविका के पास गया और मेताय को शिविका से नीचे गिराते हुए कहा-'अरे, तुम एक नीच जाति के होते हुए भी उच्च जाति की कन्याओं के साथ विवाह कर रहे हो।' उसने मेतार्य को एक गढ़े में ढकेल दिया। सारे नगर में मेतार्य की निन्दा होने लगी। आठ कन्याओं ने उसके साथ विवाह करने से इन्कार कर दिया। तदन्तर देव ने आकर मेतार्य को सारी बात बताई और प्रव्रज्या के लिए तैयार होने के लिए कहा।
मेतार्य ने कहा- मैं तैयार हूं। किन्तु तुम मेरे अवर्णवाद को धो डालो। मैं बारह वर्ष तक यहां रहकर फिर प्रव्रजित हो जाऊंगा।'
देव ने पूछा-'अवर्णवाद को मिटाने के लिए मैं क्या कर सकता हूं?' मेतार्य ने कहा- मेरा विवाह राजकन्या के साथ करा दो। सारा अवर्णवाद मिट जायेगा।'
देवता ने मेतार्य को एक बकरा दिया। वह प्रतिदिन रत्नमय मींगना करता था। मेतार्य ने उन रत्नों से एक थाल भर कर राजा के पास भेजा और राजकुमारी की मांग की। राजा ने उसकी मांग अस्वीकार कर दी।
१. अभिधानराजेन्द्र, भाग ४, पृष्ठ १७५७ ।
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स्थान १० : टि०६
वह प्रतिदिन रत्नों से भरा थाल राजा के पास भेजता रहा। एक दिन अमात्य अभयकुमार ने पूछा- ये इतने रत्न कहां से आए हैं ? उसने कहा- 'मेरे घर एक बकरा है। वह प्रतिदिन इतने रत्न देता है।' अभयकुमार ने उसे मंगवाया, किन्तु उस बकरे ने वहां गोबर के मिंगने दिए। अभयकुमार ने उसका कारण पूछा, तब मेतार्य ने कहा - 'यह देव प्रभाव से सोने की मिगनिएं देता है। यदि आपको विश्वास न हो तो और परीक्षा कर सकते हैं ।'
अभयकुमार ने कहा - 'हमारे महाराज प्रतिदिन वैभारगिरि पर्वत पर भगवत् वंदन के लिए जाते हैं। उन्हें बड़ी कठिनाइयों से पर्वत पर चढ़ना पड़ता है। अतः ऊपर तक रथ-मार्ग का निर्माण करा दे ।'
तार्य ने अपने देवमित्र से वैसा ही रथ-मार्ग बनवा दिया। (आज भी उसके अवशेष मिलते हैं ।)
दूसरी बार अभयकुमार ने कहा- 'राजगृह नगर के परकोटे को सोने का बनवाओ।' मेतार्य ने वह भी कार्य पूरा
कर डाला ।
तीसरी बार अभयकुमार ने कहा- 'मेतार्य ! अब तुम यहां एक समुद्र लाकर उसमें स्नान कर शुद्ध हो जाओगे तो राजकुमारी को हम तुम्हें सौंप देंगे ।'
देव-प्रभाव से मेतार्य इसमें भी सफल हुआ। राजकुमारी के साथ उसका विवाह संपन्न हुआ। वह अपनी नवोढा पत्नी के साथ शिविका में बैठ कर नगर में गया।
राजकन्या के साथ मेतार्य के परिणय की वार्ता सारे शहर में फैल गई। अब आठ कन्याओं के पिताओं ने भी यह सुना और अपनी-अपनी कन्या पुनः देने का प्रस्ताव किया। मेतार्य ने उन सब कन्याओं के साथ विवाह कर लिया ।
बारह वर्ष बीत गए। देवमित्र आया और प्रव्रजित होने की प्रेरणा दी।
तार्य की सभी पत्नियों ने देव से अनुरोध किया कि और बारह वर्ष तक इनका सहवास रहने दें। देव उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर चला गया ।
बारह वर्ष और बीत जाने पर मेतार्य अपनी सभी पत्नियों के साथ प्रव्रजित हो गया।'
१०. पुत्र के अनुबंध से ली जाने वाली प्रव्रज्या
अवंती जनपद में तुंबवन नाम का गांव था। वहां धनगिरि नाम का इभ्यपुत्र रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुनन्दा था। जब वह गर्भवती हुई तब धनगिरि आर्य सिंहगिरि के पास दीक्षित हो गया। नौ मास पूर्ण होने पर सुनन्दा ने एक बालक को जन्म दिया। बालक को देखने के लिए आगत कुछ महिलाओं ने कहा- 'कितना अच्छा होता यदि इस बालक के पिता दीक्षित नहीं होते ।' बालक (जिसका नाम वज्र रखा गया था) ने यह सुना और वह उन्हीं वाक्यों को बार-बार स्मरण करने लगा। ऐसा करने से उसे जाति-स्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ । वह अपने पूर्वभव को देखकर रोने लगा और रात-दिन खूब रोते ही रहता । माता इससे बहुत कष्ट पाने लगी। छह महीने बीत गए ।
एक बार मुनि धनगरि तथा आर्यसमित उसी नगर में आए और भिक्षा मांगने निकले। वे सुनंदा के घर आए । सुनंदा ने कहा- इस बालक को ले जाओ।' मुनि उसे लेना नहीं चाहते थे। तब सुनंदा ने पुनः कहा- 'इतने समय तक मैंने इस बालक की रक्षा की है. अब आप इसकी रक्षा करें।' मुनि ने कहा- कहीं तुम्हें बाद में पश्चात्ताप न करना पड़े ? सुनंदा ने कहा- नहीं ! आप इसे ले जाएं। मुनि ने साक्ष्यकर उस छह महीने के बालक को ले लिया और अपने पात्र में रख चोलपट्ट से बांध दिया। बालक ने रोना बंद कर दिया।
मुनि धनगिरि उपाश्रय में आए। झोली को भारी देखकर आचार्य ने हाथ पसारा । धनगिरि ने झोली आचार्य के हाथ थमा दी। अति भारी होने के कारण आचार्य ने कहा- अरे ! यह तो वज्र जैसा भारी-भरकम है। आचार्य ने झोली खोली और देवकुमार सदृश सुन्दर बालक को देखकर कहा- 'आर्यो ! इस बालक की रक्षा करो। यह प्रवचन का प्रभावक होगा ।'
अत्यन्त भारी होने के कारण बालक का नाम वज्र रखा और साध्वियों को सौंप दिया। साध्वियों ने उस बालक को शय्यातर के घर रखा और वे शय्यातर उसका भरण-पोषण करने लगे ।
१. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४७७, ४७८ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०: टि०७
एक बार सुनंदा ने उस बालक को मांगा। शय्यातर ने उसे देने से इन्कार करते हुआ कहा कि यह हमारी धरोहर है। इसे हम नहीं दे सकते। वह प्रतिदिन आती और अपने पुत्र को स्तनपान कराकर चली जाती। इस प्रकार तीन वर्ष बीत गए।
___एक बार मुनि धनगिरि विहार करते हुए वहां आए। सुनंदा के मन में पुत्र-प्राप्ति की लालसा तीव्र हुई। वह राजसभा में गई और अपने पुत्र को पुनः दिलाने की प्रार्थना की। राजा ने धनगिरि को बुला भेजा। उसने कहा-'इसीने मुझे दान में दिया था। सारे नगर ने सुनंदा का पक्ष लिया। राजा ने कहा-'मेरा कौन अपना है और कौन पराया ? मेरे लिए सब समान हैं । बालक जिसके पास चला जाए, वह उसीका हो जाएगा। सबने यह बात मान ली। प्रश्न उठा कि पहले कौन बुलायेगा ? किसी ने कहा कि धर्म पुरुषोत्तम होता है अत: पुरुष ही पहले पुकारेगा। किसी ने कहा-नहीं, माता दुष्करकारिणी होती है, अतः उसी का यह अधिकार होना चाहिए।
माता सुनंदा ने बालक को प्रलोभित करने के लिए कुछेक खिलौनों को दिखाते हुए कहा-'वन ! आ, इधर आ !' बालक ने माता की ओर देखा, किन्तु उस ओर पैर नहीं बढ़ाए। माता ने तीन बार उसे पुकारा, वह नहीं आया।
तब पिता मुनि धनगिरि ने कहा- 'वज्र ! ले, कर्मरज का प्रमार्जन करने के लिए यह रजोहरण ग्रहण कर । बालक दौड़ा और रजोहरण हाथ में ले लिया।
राजा ने मुनि धनगिरि को बालक सौंप दिया। उसकी विजय हुई। सुनंदा ने सोचा-मेरे पति, भाई और पुन- 'सभी प्रव्रजित हो गए हैं, तो भला मैं घर में क्यों रहूं।' वह भी प्रवजित हो गई। अब बालक वज्र उसके पास रहने लगा।'
७. (सूत्र १६)
पांचवें स्थान में दो सूत्रों (३४-६५) में दस धर्मों का उल्लेख मिलता है। वहाँ वृत्तिकार से उनका अर्थ इस प्रकार किया है
१. क्षांति-क्रोधनिग्रह। २. मुक्ति-लोभनिग्रह। ३. आर्जव-मायानिग्रह। ४. मार्दव-माननिग्रह। ५. लाघव-उपकरण की अल्पता; ऋद्धि, रस और सात-इन तीनों गौरवों का त्याग । ६. सत्य-काय-ऋजुता, भाव-ऋजुता, भाषा-ऋजुता और अविसंवादनयोग-कथनी-करनी की समानता। ७. संयम-हिंसा आदि की निवृत्ति । ८. तप। १. त्याग—अपने सांभोगिक साधुओं को भक्त आदि का दान। १०. ब्रह्मचर्यवास-कामभोग विरति ।
१. वृत्तिकार ने दस धर्म की एक दूसरी परम्परा का उल्लेख किया है। यह तत्त्वार्थसूत्रानुसारी परम्परा है। उसके अनुसार दस धर्म के नाम और क्रम में कुछ अन्तर है।
१. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ३८७, ३८८ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्न २८२, २८३ । ३. वही, पन्न २८३ :
"रवंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती तवसंजमे व बोद्धब्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ।।
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स्थान १०:टि०७ १. उत्तम क्षमा, २. उत्तम मार्दव, ३. उत्तम आर्जव ४. उत्तम शौच, ५. उत्तम सत्य, ६. उत्तम संयम, ७. उत्तम तप, ८. उत्तम त्याग, ६. उत्तम आकिञ्चन्य, १०. उत्तम ब्रह्मचर्य ।
तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार इनकी व्याख्या इस प्रकार है१. क्षमा-क्रोध के निमित्त मिलने पर भी कलुष न होना। शुभ परिणामों से क्रोध आदि की निवृत्ति ।'
२. मार्दव-जाति, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ आदि का मद नहीं करना; दूसरे के द्वारा परिभव के निमित उपस्थित करने पर भी अभिमान नहीं करना।
३. आर्जव-मन, वचन और काया की ऋजुता।
४. शौच-लोभ की अत्यन्त निवृत्ति। लोभ चार प्रकार का है-जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रियलोभ और उपभोगलोभ । लोभ के तीन प्रकार और हैं-(१) स्वद्रव्य का अत्याग (२) परद्रव्य का अपहरण (३) धरोहर की हड़प।
५. सत्य।
६. संयम-प्राणीपीड़ा का परिहार और इन्द्रिय-विजय। संघम के दो प्रकार हैं-(१) उपेक्षासंयम--रागद्वेषात्मक चित्तवृत्ति का अभाव। (२) अपहृत संयम-भावशुद्धि, कायशुद्धि आदि ।
७. तप। ८. त्याग-सचित्त तथा अचित परिग्रह की निवृत्ति । ६. आकिञ्चन्य-शरीर आदि सभी बाह्य वस्तुओं में ममत्व का त्याग । १०. ब्रह्मचर्य-कामोत्तेजक वस्तुओं तथा दृश्यों का वर्णन तथा गुरु की आज्ञा का पालन ।'
आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित 'द्वादशानुप्रेक्षा' के अन्तर्गत 'धर्म अनुप्रेक्षा' में इन दस धर्मों की व्याख्याएँ प्राप्त हैं। वे उपर्युक्त व्याख्याओं से यत्र-तत्र भिन्न हैं। वे इस प्रकार हैं
१. क्षमा-क्रोधोत्पत्ति के बाह्य कारणों के प्राप्त होने पर भी क्रोध न करना। २. मार्दव-कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील का गर्व न करना। ३. आर्जव-कुटिलभाव को छोड़कर निर्मल हृदय से प्रवृत्ति करना। ४. सत्य - दूसरों को संताप देने वाले वचनों का त्याग कर, स्व और पर के लिए हितकारी वचन बोलना ५. शौच-कांक्षाओं से निवृत्त होकर वैराग्य में रमण करना। ६. संयम-व्रत तथा समितियों का यथार्थ पालन, दण्ड-त्याग तथा इन्द्रिय-जय । ७. तप-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर अपनी आत्मा को ध्यान और स्वाध्याय से भाबित करना। ८. त्याग—आसक्ति को छोड़कर पदार्थों के प्रति वैराग्य रखना। ६. आकिञ्चन्य—निस्संग होकर अपने सुख-दुःख के भावों का निग्रह कर निर्द्वन्द्व रूप से विहरण करना।
१. तत्त्वार्थवातिक पृष्ठ ५२३ । २. वही, पृष्ठ ५२३ । ३. बही, पृष्ठ ५६५-६०० ।
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ठाणं (स्थान)
९६१
स्थान १० : टि०८
१०. ब्रह्मचर्य-स्त्री के अंग-प्रत्यंगों को देखते हुए भी उनमें दुर्भाव न लाना।'
आवश्यक चूणि के अनुसार इन दसों धर्मों का समवतार मूल गुण (महाव्रत) तथा उत्तर गुणों में होता हैसंयम का प्रथम महाव्रत प्राणातिपात विरति में, सत्य का दूसरे महाव्रत मषावाद विरति में, अकिंचनता का तीसरे महाव्रत अदत्त विरति में, ब्रह्मचर्य का चौथे महानत मैथुन विरति में तथा शेष धर्मों का उत्तर गुणों में समावेश होता है।
८. (सूत्र १७)
वृत्तिकार ने 'वेयावच्चे' के दो संस्कृत रूप दिए हैं 'वैयावृत्त्य' और वयापृत्य'। इनका अर्थ है-सेवा करना, कार्य में व्याप्त होना। प्रस्तुत सूत्र में व्यक्ति-भेद व समूह-भेद से उसके दस प्रकार बतलाए गए हैं। केवल संध-वैयावृत्त्य या सार्मिक-वैयावृत्त्य से काम चल सकता था किन्तु विशेष व स्पष्ट अवबोध के लिए इन सभी भेद-प्रभेदों का उल्लेख किया गया है। वास्तव में ये सभी एक ही धर्म-संघ के अंग-प्रत्यंग हैं।
तत्त्वार्थ १।२४ में निर्दिष्ट वैयावृत्त्य के दस प्रकारों तथा प्रस्तुत सूत्र के दस प्रकारों में नाम-भेद तथा क्रम-भेद है। तत्त्वार्थ राजवातिक के अनुसार वैयावृत्त्य का अर्थ तथा भेद और व्याख्या इस प्रकार है
वैयावृत्त्य का अर्थ है--आचार्य, उपाध्याय आदि जब व्याधि, परिषह या मिथ्यात्व से ग्रस्त हों तब इन दोषों का प्रतीकार करना । रोग आदि की स्थिति में उन्हें प्रासुक औषधि, आहार-पान, वसति, पीठ, फलक, संस्तरण आदि धर्मोंपकरण उपलब्ध करना तथा उन्हें सम्यक्त्त्व में पुनः स्थापित करना वैयावत्त्य है। बाह्य द्रव्यों की प्राप्ति के अभाव में अपने हाथ से कफ, श्लेष्म आदि मलों का अपनयन कर अनुकूलता पैदा करना वैयावृत्त्य है।
वह दस प्रकार का है
१. आचार्य का वैयावृत्त्य-भव्य जीव जिनकी प्रेरणा से व्रतों का आचरण करते हैं, उनको आचार्य कहा जाता है। उनका वैयावृत्त्य करना।
२. उपाध्याय का वैयावृत्त्य-जो मुनि व्रत शील और भावना के आधार हैं, उनके पास जाकर विनय से श्रुत का अध्ययन करते हैं उन्हें उपाध्याय कहा जाता है। उनका वैयावृत्त्य करना ।
३. तपस्वी का वैयावृत्त्य–मासोपवास आदि तप करने वाला तपस्वी कहलाता है। उनका बयावृत्त्य करना।
४. शैक्ष का वैयावृत्त्य-जो श्रुतज्ञान के शिक्षण में तत्पर और व्रतों की भावना में निपुण है उसे शैक्ष कहते हैं। उसका वैयावृत्त्य करना। १. षट्नाभृत, द्वादशानुप्रेक्षा, श्लोक ७१-८१ ।
विसयकसायविणिग्गहभाष काऊण झाणसझाए। कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग अदि हवेदि सक्खादं ।
जो भावइ मप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण ॥ ण कुणदि किंचि वि कोह तस्स खमा होदि धम्मोत्ति ।।
णिब्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदज्वेसु । कुलस्वजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किंचि ।
जो तस्स हवे चागो इदि भणिदं जिणरिदेहि ।। जो ण वि कुव्वदि समणो मद्दवधम्म हवे तस्स ।।
होऊण य णिस्संगो णियभावं णिम्गहित्तु सुहृदुहृदं । मोत्तूण कुडिलभावं णिम्मलाहिदयेण चरदि जो समणो।
णिछंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स किंचण्हं ।। अज्जवधम्म तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ।।
सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं । परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं ।
सो बम्हचेरभावं सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि । जो वददि भिक्ख तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ।।
सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जीवो। कंखाभावणिवित्ति किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो।
सो ण य वज्जदि मोक्खं धम्म इदि चिंतये णिच्च ।। जो बट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं ॥ वदसमिदिपालणाए
१. आवश्यकचूणि, उत्तर भाग, पृष्ठ ११७ । दंडच्चाएण इंदियजएण। परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा ॥
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि०८
५. ग्लान का वैयावृत्त्य-जिसका शरीर रोग आदि से आक्रान्त है, वह ग्लान है। उसका वैयावृत्त्य करना। ६. गण का वैयावृत्त्य--स्थविर मुनियों की संगति को गण कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना।
७. कूल का वैयावृत्त्य -दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य-परम्परा को कुल कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना।
८. संघ का वैयावृत्त्य-श्रमण-समूह को संघ कहा जाता है । उसका वैयावृत्त्य करना। ६. साधु का वैयावृत्त्य-चिरकाल से प्रवजित साधक को साधु कहा जाता है । उसका वैयावृत्त्य करना। १०. मनोज्ञ का वैयावृत्त्य—मनोज्ञ के तीन अर्थ हैं
१. अभिरूप-जो अपने ही संघ के साधु के वेश में है। २. जो संसार में अपनी विद्वत्ता, वाक्-कौशल और महाकुलीनता के कारण प्रसिद्ध है।
३. संस्कारी असंयत सम्यक-दृष्टि।
स्थानांग में उक्त सार्मिक और स्थविर 'वैयावृत्त्य' का इसमें उल्लेख नहीं है। उनके स्थान पर साधु और मनोज्ञ ये दो प्रकार निर्दिष्ट हैं । स्थानांग वृत्ति में सार्मिक का अर्थ साधु किया गया है।'
वैयावृत्त्य करने के चार कारण बतलाए गए हैं१. समाधि पैदा करना। २. विचिकित्सा दूर करना, ग्लानि का निवारण करना । ३. प्रवचन वात्सल्य प्रकट करना। ४. सनाथता-निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना।' व्यवहार भाष्य में प्रत्येक वैयावृत्त्य स्थान के तेरह-तेरह द्वार उल्लिखित हैं, वे ये हैं१. भोजन लाकर देना। २. पानी लाकर देना। ३. संस्तारक देना। ४. आसन देना। ५. क्षेत्र और उपधि का प्रतिलेखन करना। ६. पाद प्रमार्जन करना अथवा औषधि पिलाना। ७. आंख का रोग उत्पन्न होने पर औषधि लाकर देना। ८. मार्ग में विहार करते समय उनका भार लेना तथा मर्दन आदि करना। ६. राजा आदि के क्रुद्ध होने पर उत्पन्न क्लेश से निस्तार करना । १०. शरीर को हानि पहुंचाने वाले तथा उपधि को चुरानेवालों से संरक्षण करना । ११. बाहर से आने पर दंड (यष्टि) ग्रहण कर रखना। १२. ग्लान होने पर उचित व्यवस्था करना। १३. उच्चार पात्र, प्रश्रवण पान और श्लेष्म पात्र की व्यवस्था करना।
प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थंकर के वैयावृत्त्य का कोई उल्लेख नहीं है। शिष्य ने आचार्य से पूछा-'क्या तीर्थंकर का वैयावृत्त्य नहीं करना चाहिए? क्या वैसा करने से निर्जरा नहीं होती? आचार्य ने कहा-'दस व्यक्तियों के मध्य में आचार्य का ग्रहण किया गया है। इसमें तीर्थंकर समाविष्ट हो जाते है। यहां आचार्य शब्द केवल निर्देशन के लिए है।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४६ : समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरन्तीति
सार्मिकाः साधवः।
२. तत्त्वार्थराजवातिक (दूसरा भाग) पुष्ठ ६२४ : समाध्याध्यान
विचिकित्साभावप्रवचनवात्सल्याद्यभिव्यक्त्यर्थम् ।।
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ठाणं (स्थान)
स्थान १०:टि०६-१०
आचार्य का अर्थ है-स्वयं आचार का पालन करना तथा दूसरों से उसका पालन करवाना। इस दृष्टि से तीर्थंकर स्वयं आचार्य होते हैं । स्कन्दक ने गौतम गणधर से पूछा-'आपको किसने यह अनुशासन दिया?'
गौतम ने कहा--'धर्माचार्य ने।' यहाँ आचार्य का अभिप्राय तीर्थकर से है।'
पाँचवें स्थान के दो सूत्रों ४४-४५] में अग्लान भाव से दस प्रकार के वैयावत्य करने वाला, महान कर्मक्षय करने वाला और आत्यन्तिक पर्यवसान वाला होता है-ऐसा कहा है।
६. (सू०१८)
परिणाम का अर्थ है-एक पर्याय से दूसरे पर्याय में जाना। इसमें सर्वथा विनाश और सर्वथा अवस्थान-ध्रौव्य नहीं होता। यह कथन द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से है। पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से परिणम का अर्थ है-सत् पर्याय का विनाश और असत् पर्याय का उत्पाद ।
प्रस्तुत सूत्र में जीव के दस परिणाम बतलाए हैं। वे जीव के परिणमनशील अध्यवसाय या अवस्थाएं हैं। इन दस परिणामों के अवान्तर भेद चालीस हैं-- १. गति परिणाम-चार गतियां-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । २. इंद्रिय परिणाम-पांच इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षुः और श्रोत्र। ३. कषाय परिणाम–चार कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ । ४. लेश्या परिणाम-छह लेश्या-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल । ५. योग परिणाम-तीन योग-मन, वचन और काय। ६. उपयोग परिणाम-दो उपयोग--साकार और अनाकार। ७. ज्ञान परिणाम–पाँच ज्ञान-मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यव और केवल । ८. दर्शन परिणाम–तीन दर्शन--चक्षुःदर्शन, अचक्षुःदर्शन और अवधिदर्शन। ६. चारित्र परिणाम-पांच चारित्र-सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात । १०. वेद परिणाम-तीन वेद-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद।
१०. (सू० १९)
पुदगलों के परिणाम (अव्यवस्थान्तर) को अजीव परिणाम कहा जाता है। वह दस प्रकार का है
१. बंधन परिणाम पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध स्निग्धता और रूक्षता के कारण होता है । (देखें-तत्त्वार्थ सूत्र ५।३२-३६) बंधन तीन प्रकार का होता है--
१. प्रयोग बंध--जीव के प्रयोग से होने वाला बंध। २. विस्रसाबंध-स्वभाव से होने वाला बंध ।
३. मिश्र बंध-जीव के प्रयत्न और स्वभाव-दोनों से होने वाला बंध। २. गति परिणाम--पुद्गलों की गति । यह दो प्रकार का है
१. स्पृशद्गतिपरिणाम—प्रयत्न विशेष से क्षेत्र-प्रदेशों का स्पर्श करते हुए गति का होना। २. अस्पृशद्गतिपरिणाम-क्षेत्रप्रदेशों का स्पर्श न करते हुए गति का होना।
१. व्यवहारभाष्य १०१२३-१३३॥ २. स्थानांगवृत्ति, पन्न ४५०, ४५१ ।
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ठाणं (स्थान)
९६४
स्थान १० : टि० ११
जैसे—बहुत ऊंचे मकान से पत्थर गिराने पर उसके गिरने का कालभेद तथा अनवरत गति करने वाले पदार्थों का देशान्तर प्राप्ति का कालभेद प्राप्त होता है-यह अस्पृशद्गति परिणाम है।
विकल्प से इसके दो भेद और होते हैंदीर्घगति परिणाम और हृस्वगति परिणाम । ३. संस्थान परिणाम–संस्थान का अर्थ है-आकृति । उसके दो प्रकार हैं
१. इत्थंस्थ-नियत आकार वाला। इसके पांच प्रकार हैं-परिमंडल, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण और आयात ।
२. अनित्थंस्थ-अनियत आकार वाला। ४. भेद परिणाम-यह पाँच प्रकार का है० खंडभेद-मिट्टी की दरार। • प्रतरभेद—जैसे—अभ्रपटल के प्रतर। • अनुतटभेद-बांस या ईक्षु को छीलना। ० चूर्णभेद-चूर्ण, जैसे-आटा। ० उत्करिकाभेद-काठ आदि का उत्किरण ।
तत्त्वार्थवार्तिक में इसके छह भेद निर्दिष्ट हैं। उनमें इन पांच के अतिरिक्त एक चूणिका को और माना है। चूर्ण और चूणिका का अर्थ इस प्रकार दिया है
१. चूर्ण-जी, गेहूं आदि के सत्तू में होनेवाली कणिका।
२. चूर्णिका-उड़द, मूंग आदि का आटा। ५. वर्णपरिणाम-इसके पांच प्रकार हैं-कृष्ण, पीत, नील, रक्त और श्वेत। ६. गंध परिणाम--इसके दो प्रकार हैं—सुगंध और दुर्गन्ध । ७. रस परिणाम—इसके पांच प्रकार हैं-तिक्त, कट, कसैला, आम्ल और मधुर। ८. स्पर्श परिणाम—इसके आठ प्रकार हैं-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ।
६. अगुरुलघुपरिणाम—अत्यन्त सूक्ष्म परिणाम । भाषा, मन और कर्म वर्गणा के पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म परिणाम वाले होते हैं । यह निश्चय नय की अपेक्षा से है । व्यवहार नय की अपेक्षा से इसके चार भेद होते हैं
१. गुरुक-पत्थर आदि । इसका स्वभाव है नीचा जाना। २. लघुक-धूम आदि। इसका स्वभाव है ऊंचा जाना। ३. गुरुलघुक.....वायु आदि । इसका स्वभाव है-तिर्यग् गति करना।
४. अगुरुलघुक-जो न गुरु होता है और न लघु, जैसे-भाषा आदि की वर्गणाएं। १०. शब्द परिणाम--देखें स्थानांग २।२। इनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये चार पुद्गल के गुण हैं और शेष परिणाम उनके कार्य हैं।
११. (सू० २०, २१)
जैन परम्परा में अस्वाध्यायिक वातावरण में स्वाध्याय करने का निषेध है। आवश्यक सूत्र (४) के अनुसार अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करना ज्ञान का अतिचार है। इस निषेध के पीछे अनेक कारण रहे हैं। उनका आकलन व्यवहारभाष्य, निशीथभाष्य तथा स्थानांगवृत्ति आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त है । निषेध के कुछेक कारण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं
१. श्रुतज्ञान की अभक्ति । २. लोकविरुद्ध व्यवहार । ३. प्रमत्तछलना। ४. विद्या साधन का वैगुण्य । ५. श्रतज्ञान के आचार की विराधना । ६. अहिंसा । ७. उड्डाह । ८. अप्रीति ।
१. तत्त्वार्थवार्तिक ५।२४, पृष्ठ ४८६ : चूर्णो यवगोधूमादीनां
सक्तुकणिकादिः ।"""चूणिका माषमुद्गादीनाम् ।
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प्रथम पाँच कारण उक्त दोनों भाष्यों में निर्दिष्ट हैं और शेष तीन कारण भाष्य तथा फलित रूप में प्राप्त होते हैं। ग्राममहत्तर की मृत्यु के समय स्वाध्याय का वर्जन न करने पर लोक गर्दा करते थे
'हमारे गांव का मुखिया चल बसा है और ये साधु पढ़ने में लगे हुए हैं। इन्हें उसका कोई दुःख ही नही है।' इस लोक गहरे से बचने के लिए ऐसे प्रसंगों पर स्वाध्याय का वर्जन किया जाता था।
इसी प्रकार युद्ध आदि के समय भी स्वाध्याय का वर्जन न करने पर लोक उड्डाह (अपवाद) करते थे----'हमारे शिर पर आपदाओं के पहाड़ टूट रहे हैं, पर ये साधु अपनी पढ़ाई में लीन हैं।' इस उड्डाह से बचने के लिए भी स्वाध्याय का वर्जन किया जाता था।
___ भाष्य-निर्दिष्ट स्वाध्याय-बर्जन के कारणों का अध्ययन करने पर सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि स्वाध्यायवर्जन के बहुत सारे कारण उस समय की प्रचलित लौकिक और अन्य सांप्रदायिक मान्यताओं पर आधृत हैं . व्यवहार पालन की दृष्टि में इन्हें स्वीकार किया गया है। इनमें सामयिक स्थिति की झलक अधिक है।
कुछ कारण ऐसे भी हैं जिनका संबंध लोक व्यवहार से नहीं है, जैसे- कुहासा गिरने पर स्वाध्याय का वर्जन अहिंसा की दृष्टि से किया गया है। कुहासा गिरने के समय सारा वातावरण अप्काय के जीवों से आक्रान्त हो जाता है। उस समय मुनि को किसी प्रकार की कायिकी और वानिकी चेष्टा नहीं करनी चाहिए।
व्यन्तर आदि देवताओं के द्वारा या निर्धात आदि के पीछे भी व्यन्तर आदि देवताओं के हाथ होने की कल्पना की गई है। वे व्यन्त र साधु को ठग सकते हैं, इस संभावना से भी वैसे प्रसंगों में स्वाध्याय का वर्जन किया गया है।
अतीत की बहुत सारी मान्यताएं, गर्दा के मानदंड और अप्रीति के निमित्त आज व्यवहृत नहीं है। इसलिए अस्वाध्यायिक के प्रकरण का जितना ऐतिहासिक मूल्य है उतना व्यावहारिक मूल्य नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में इतिहास के अनेक तथ्य उद्घाटित होते हैं।
इस तथ्य को ध्यान में रखकर इसे विस्तार से प्रस्तुत किया गया है । प्रस्तुत स्थान के बीसवें सूत्र में दस प्रकार के आंतरिक्ष अस्वाध्यायिक बतलाए गए हैं। उनका विवरण इस प्रकार
१. उल्कापात - पुच्छल तारे आदि का टूटना । उल्कापात के समय आकाश में रेखा दीख पड़ती है।
निशीथ भाष्य में निर्दिष्ट है कि कुछ उल्काएँ रेखा खींचती हुई गिरती हैं और कुछ केवल उद्योत करती हुई गिरती हैं।
२. दिग्दाह-पुद्गलों की विचित्र परिणति के कारण कभी-कभी दिशाएं प्रज्वलित जैसी हो उठती हैं। उस समय का प्रकाश छिन्नमूल होता है-भूमि पर स्थित नहीं दिखाई देता। किन्तु आकाश में स्थित दीखता है।
३. गर्जन-बादलों का गर्जन । व्यवहारभाष्य में इसके स्थान पर गुंजित शब्द है। उसका अर्थ है-गुंजमान महाध्वनि।'
१. (क) व्यवहारभाष्य ७।३६६ :
मुयनाणमि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य।
विज्जासाहुणवेगुण धम्मयाए य मा कुणसु ।। (ख) निशीथभाष्य गाथा ६१७१ :
मुयनाणम्मि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य।
विज्जासाहण वइगुण्ण धम्मयाए य मा कुणसु ।। २. निशीथभाष्य गाथा ६०६७ :
महतरपगते बहुपक्खिते, व सत्तघरअंतरमते वा। णिदुक्ख त्ति य गरहा, ण करेंति सणीयगंवा वि ।।
३. निशीथभाष्यगाथा ६०६५:
सेणाहिव भोइ मयर, पुंसित्थीणं च मल्लजुद्धे वा।
लोट्ठादि-भंडणे वा, गुज्झमुड्डाहमचियतं !। चूर्णि-जणोभणेज्ज,--अम्हे आवइपत्ताण इमे सज्झायं करेंतित्ति अचियत्तं हवेज्ज: ४. व्यवहारभाष्य ७२७६ :
पढममि सव्वचिठ्ठा सज्झातो वा निवारतो नियमा।
सेसेसु असज्जाती चेट्ठा न निवारिया अण्णा ।। ५. निशीथभाष्य गाथा ६०८६ :
उक्का सरेहा पगासजुता वा । ६. व्यवहारभाष्य ७।२८८ :
निग्धायगुंजिते । वृत्ति-गुञ्जमानो महाध्वनिगुं. जितम् ।
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४. विद्युत्-बिजली का चमकना ।
५. निर्घात-बादलों से आच्छादित या अनाच्छादित आकाश में व्यन्तरकृत महान् गर्जन की ध्वनि । यहां गजित और विद्युत् की भांति निर्धात भी स्वाभाविक पौद्गलिक परिणति होना चाहिए। इस आधार पर इसका अर्थ होगा--- प्रचण्ड शब्द युक्त वायु।
६. यूपक-इसका अर्थ है-चन्द्र-प्रभा और सन्ध्या-प्रभा का मिश्रण। व्यवहारभाष्य में इसका अर्थ संध्याच्छेदावरण [संध्या के विभाग का आवरण] किया है।'
इसकी भावना यह है कि शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया और चतुर्थी को चन्द्रमा संध्यागत होता है इसलिए संध्या का यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाता । फलतः रात्रि में स्वाध्याय-काल का ग्रहण नहीं किया जा सकता। अतः उस समय कालिक सूत्रों का अस्वाध्यायिक रहता है।
कई आचार्यों का अभिमत है कि शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया-इन तीन तिथियों में, सूर्य के उदय और अस्त के समय, ताम्रवर्ण जैसे लाल और कृष्णश्याम अमोघ मोघा [आकाश में प्रलम्ब श्वेत श्रेणियां होते हैं, उन्हें यूपक कहा जाता है। कुछ आचार्य इसमें अस्वाध्यायिक नहीं मानते और कुछ मानते हैं। जो मानते हैं उनके अनुसार यूपक में दो प्रहर तक अस्वाध्यायिक रहता है।"
७. यक्षादिप्त--स्थानांगवृत्ति में इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है। व्यवहार भाष्य की वृत्ति के अनुसार इसका अर्थ हैकिसी एक दिशा में कभी-कभी दिखाई देने वाला विद्युत् जैसा प्रकाश।
८. धूमिका-यह महिका का ही एक भेद है। इसका वर्ण धूम की तरह काला होता है। ६. महिका-तुषारापात, कुहासा। ये दोनों [धूमिका और महिका] कार्तिक आदि गर्भ मासों [कार्तिक, मृगशिर, पौष और माघ] में गिरती हैं। १०. रज उद्घात स्वाभाविक रूप से चारों ओर धल का गिरना।
प्रस्तुत स्थान के इक्कीसवें सूत्र में औदारिक अस्वाध्याय के दस भेद बतलाए हैं। उनमें प्रथम तीन-अस्थि, मांस और रक्त की विचारणा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से इस प्रकार की है।
(१) द्रव्य से-अस्थि, मांस और शोणित । क्वचित्, चर्म, अस्थि, मांस और शोणित । (२) क्षेत्र से—मनुष्य संबंधी हो तो सौ हाथ और तिर्यञ्च सम्बन्धी हो तो साठ हाथ । (३) काल से-मनुष्य सम्बन्धी-मृत्यु का एक अहोरात्र । लड़की उत्पन्न हो तो आठ दिन । लड़का उत्पन्न हो तो सात दिन। हड्डियां यदि सौ हाथ के भीतर स्थित हों तो मनुष्य की मृत्यु दिन से लेकर बारह वर्षों तक । यदि हड्डियां चिता में दग्ध या वर्षा से प्रवाहित हों तो अस्वाध्यायिक नहीं होता। यदि हड्डियां भूमि से खोदी गई हों तो अस्वाध्यायिक होता है। तिर्यञ्च सम्बन्धी हो तो जन्म-काल से तीसरे प्रहर तक । यदि बिल्ली चहे आदि का घात करती हो तो एक अहोरात्र तक अस्वाध्यायिक रहता है।
(४) भाव से-नंदी आदि सूत्रों के अध्ययन का वर्जन। ४. अशुचिसामन्त-रक्त, मूत्र और मल की गन्ध आती हो और वे प्रत्यक्ष दीखते हों तो अस्वाध्यायिक होती है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४५१ : निर्घात:-साधे निरभ्रे वा गगने
व्यन्तरकृतो महाजितध्वनिः । २. स्थानांगवृत्ति, पन ४५१ : संध्या प्रभा चन्द्रप्रभा च यद् युगपद्
भवतस्तत् जुयगोत्ति भणितम् । ३. व्यवहारभाष्य ७।२८६ ।
संज्झाच्छेयोवरणो उ जुवतो......।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४५१ । ५. व्यवहारभाष्य ७।२८६, वृत्तिपत्र ४६ । ६. व्यवहारभाष्य ७।२८४ वृत्ति पन ४६ : यक्षालिप्तं नाम
एकस्यांदिशि अन्तरान्तरा यद् दृश्यते विद्युत् सदृशः प्रकाशः । ७. व्यवहारभाष्य ७।२७८ वृत्ति पत्र ४८ : गर्भमासो नाम काति
कादि यावत् माघमासः ।
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५. श्मशानसामन्त-शवस्थान के समीप अस्वाध्यायिक होता है। ६-७. चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण-चन्द्र ग्रहण में जघन्यतः आठ प्रहर और उत्कृष्टतः बारह प्रहर तक अस्वाध्यायिक रहता है। सूर्यग्रहण में जघन्यतः बारह प्रहर और उत्कृष्टतः सोलह प्रहर तक अस्वाध्यायिक रहता है। इनका विस्तार इस प्रकार है
१. जिस रात्री में चन्द्रग्रहण होता है उसी रात्री के चार प्रहर और दूसरे दिन के चार प्रहर-इस प्रकार जघन्यतः आठ प्रहर का अस्वाध्यायिक होता है। यदि प्रातःकाल में चन्द्रग्रहण होता है और चन्द्रग्रहण-काल में अस्त हो जाता है तो उस दिन के चार प्रहर, उस रात के चार प्रहर और दूसरे दिन के चार प्रहर-इस प्रकार बारह प्रहर होते हैं।
२. यदि सूर्य ग्रहण-काल में ही अस्त होता है तो उस रात्री के चार प्रहर, चार दूसरे दिन के और चार प्रहर उस रात्री के इस प्रकार जघन्यतः बारह प्रहर होते हैं।
___ यदि सूर्य-ग्रहण प्रातःकाल ही प्रारम्भ हो जाता है तो उस दिन-रात के चार-चार प्रहर तथा दूसरे दिन-रात के चारचार प्रहर-इस प्रकार उत्कृष्टत: १६ प्रहर होते हैं।
कई यह मानते हैं कि सूर्य-ग्रहण जिस दिन होता है वह दिन और रात अस्वाध्याय-काल है तथा चन्द्रग्रहण जिस रात में होता है और उसी रात में समाप्त हो जाता है, तो वह रात और जब तक दूसरा चन्द्र उदित नहीं हो जाता तब तक अस्वाध्याय काल है।
व्यवहार भाष्य में चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण को सदैव अस्वाध्याय । (अन्तरिक्ष अस्वाध्याय) में गिनाया है। स्थानांग सूत्र में वे औदारिक वर्ग में गृहीत हैं । वृत्तिकार ने बताया है कि ये यद्यपि अन्तरिक्ष से संबंधित हैं फिर भी इनके विमान पृथिवीकायिक होने के कारण इन्हें औदारिक माना है।
अन्तरिक्ष वर्ग में उक्त उल्का आदि आकस्मिक होते हैं और चन्द्र आदि के विमान शाश्वत होते हैं। इस विलक्षणता के कारण ही उन्हें दो भिन्न वर्गों में रखा गया है। किन्तु पाठ का अवलोकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि आन्तरिक्ष वर्ग वाले सूत्र में दस की संख्या पूर्ण हो जाती है, अतः चन्द्रोपराग और सूर्योपराग भी औदारिकता को ध्यान में रखकर उनका समावेश औदारिक वर्ग में किया गया।
८. पतन----राजा, अमात्य, सेनापति, ग्रामभोगिक आदि विशिष्ट व्यक्तियों का मरण।
दंडिक के मर जाने पर, जब तक क्षोभ नहीं मिट जाता तबतक अस्वाध्यायिक रहता है। दूसरे दण्डिक की नियुक्ति हो जाने पर भी एक अहोरात्र तक अस्वाध्याय-काल रहता है। इसी प्रकार दूसरे-दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों के मर जाने पर भी एक अहोरात्र का अस्वाध्याय काल जानना चाहिए।
६. राज-व्युद्ग्रह-राजा आदि के परस्पर विग्रह हो जाने पर जब तक विग्रह उपशान्त नहीं होता तब तक अस्वाघ्याय-काल रहता है।
वृत्तिकार ने सेनापति, ग्राममहत्तर, प्रसिद्ध स्त्री-पुरुष आदि के परस्पर कलह हो जाने पर भी अस्वाध्याय-काल माना है।'
व्यवहार भाष्य के वृत्तिकार ने यह भी बताया है कि जब दो ग्रामों के बीच परस्पर वैमनस्य हो जाने पर नवयुवक अपने-अपने ग्राम का पक्ष लेकर पथराव करते हैं अथवा हाथापाई करते हैं, तब स्वाध्याय नहीं करना चाहिए तथा मल्लयुद्ध आदि प्रवर्तित होते समय भी अस्वाध्याय-काल रहता है। व्युद्ग्रह के प्रारंभ से लेकर उपशान्त न होने तक अस्वाध्याय-काल है। जब सारा वातावरण भयमुक्त हो जाता है तब भी एक अहोरात्र तक अस्वाध्याय-काल रहता है।"
१. व्यवहारभाष्य, सप्तमभाग वृत्ति पत्र ४६,५०। २. वही, वृत्तिपन ५०। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५२ ।।
४. वही, पन ४५२ । ५. व्यवहारभाष्य, सप्तमभाग, पन ५१ ।
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१०. बस्ती के अन्दर मनुष्य आदि का उद्भिन्न कलेवर हो तो सौ हाथ तक अस्वाध्यायिक रहता है और अनुद्भिन्न होने पर भी, गंध आदि के कारण सौ हाथ तक अस्वाध्यायिक रहता है। जब उसका परिष्ठापन हो जाता है तब वह स्थान शुद्ध हो जाता है।
व्यवहार सूत्र [उद्देशक ७] में बतलाया गया है कि मुनि अस्वाध्यायिक वातावरण में स्वाध्याय न करे, किन्तु स्वाध्यायिक वातावरण में ही स्वाध्याय करे । भाष्यकार ने अस्वाध्यायिक के दो प्रकार बतलाए हैं—आत्म-समुत्थित और पर-समुत्थित।'
अपने शरीर में व्रण आदि से रक्त झरना—यह आत्म-समुत्थित अस्वाध्यायिक है। परसमुत्थ अस्वाध्यायिक पांच प्रकार का होता है१. संयमघाती २. औत्पातिक ३. देवप्रयुक्त ४. व्युद्ग्रह ५. शरीर संबंधी। १. संयमघाती—इसके तीन भेद हैं
१. महिका २. सचित्त रज ३. वर्षा – इसके तीन प्रकार हैं० बुबुद्-जिस वर्षा से पानी में बुलबुले उठते हों। • बुबुद् सहित वर्षा।
० फुआरवाली वर्षा।
निशीथ चूर्णि के अनुसार महिका सूक्ष्म होने के कारण गिरने के समय ही सर्वत्र व्याप्त होकर सब कुछ अप्काय से भावित कर देती है। इसलिए महिका-पात के समय ही स्वाध्याय, गमनागमन आदि चेष्टाएं वर्जनीय हैं।'
सचित्त रज यदि निरंतर गिरता है तो वह तीन दिन के पश्चात् सब कुछ पृथ्वीकाय से भावित कर देता है अतः तीन दिन के पश्चात् जितने समय तक सचित्त रजःपात हो उतने समय तक स्वाध्याय वजित है।'
वर्षा के तीनों प्रकार क्रमश: तीन, पांच और सात दिनों के पश्चात् सब कुछ अकायभावित कर देते हैं । अतः तीन, पांच और सात दिनों के पश्चात् जितने दिनों तक वर्षापात हो उतने समय तक स्वाध्याय वजित है।'
इनका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार दृष्टियों से वर्जन किया गया है। द्रव्य दृष्टि से--महिका, सचित्त रज और वर्षा—ये वर्जनीय हैं। क्षेत्र दृष्टि से—जिस क्षेत्र में ये गिरते हैं, वह क्षेत्र वर्जनीय है। कालदृष्टि से-जितने समय तक गिरते हैं, उतने समय तक स्वाध्याय आदि वर्जनीय हैं। भाव दृष्टि से-गमनागमन, स्वाध्याय, प्रतिलेखन आदि वर्जनीय हैं।' २. औत्पातिक-इसके पांच प्रकार हैं
(१) पांशुवृष्टि (२) मांस वृष्टि (३) रुधिरवृष्टि (४) केशवृष्टि (५) शिलावृष्टि ।
मांस और रुधिर वृष्टि के समय एक अहोरात्र और शेष तीनों में जब तक उनकी वृष्टि होती हो तब तक सूत्र का स्वाध्याय वर्जित है।
३. देवप्रयुक्त
(१) गन्धर्वनगर-चक्रवर्ती आदि के नगर में उत्पात होने की संभावना होने पर उस उत्पात का संकेत देने के लिए देव उसी नगर पर एक दूसरे नगर का निर्माण करते हैं और वह स्पष्ट दिखाई देता रहता है। (२) दिग्दाह (३) विद्युत्
(४) उल्का (५) गजित (६) यूपक (७) चन्द्रग्रहण (८) सूर्यग्रहण (६) निर्घात (१०) गुञ्जित। इनमें गन्धर्व नगर निश्चित ही देवकृत होता है, शेष दिग्दाह आदि देवकृत भी होते हैं और स्वाभाविक भी। देवकृत
१. व्यवहार भाष्य ७१२६८ : असज्झाइयं च दुविहं आयसमुत्थं च
परसमुत्वं च ।। २. निशीयभाष्य गाथा ६०८२, ६०८३ चूर्णि
३, ४. वही, गाथा ६०८२, ६०८३ । ५. निशीथभाष्य गाथा ६०८३ । ६. व्यवहारभाष्य ७।२८५ ।
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में स्वाध्याय का निषेध है किन्तु जो स्वाभाविक होते हैं उनमें स्वाध्याय का वर्जन नहीं होता। अमुक गर्जन आदि देवकृत हैं अथवा स्वाभाविक इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। इसलिए स्वाभाविक गर्जन आदि में भी स्वाध्याय आदि का वर्जन किया जाता है।
इसी प्रकार सूर्य के अस्त होने पर (एक मुहर्त तक), आधी रात में सूर्योदय से एक मुहर्त पूर्व और मध्यान्ह में भी स्वाध्याय वजित है।
चैत्र की पूर्णिमा, आषाढ़ की पूर्णिमा, आसोज की पूर्णिमा और कार्तिक की पूर्णिमा तथा उनके साथ आने वाली प्रतिपदा को भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन चार तिथियों में बड़े उत्सवों का आयोजन होता है। साथ-साथ जिस देश में जो-जो महान उत्सव जितने दिन तक होते हैं, उतने दिनों तक स्वाध्याय का वर्जन करना चाहिए। जिस उत्सव में अनेक प्राणियों का वध होता हो, उस महोत्सब के आरम्भ से लेकर पूर्ण होने तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
४. व्युद्ग्रह-दो राजा परस्पर लड़ते हों, दो सेनापति लड़ते हों, मल्लयुद्ध होता हो, दो ग्रामों के बीच कलह होता हो, अथवा लोग परस्पर लड़ते हों-मारपीट करते हों तथा रजःपर्व [होली जैसे पर्व ] के दिनों में भी स्वाध्याय का वर्जन करना चाहिए।
राजा की मृत्यु के पश्चात् जब तक दूसरे राजा का अभिषेक नहीं हो जाए, तब तक स्वाध्याय का वर्जन करना चाहिए। क्योंकि लोगों के मन में, विशेषतः राजवर्गीय लोगों के मन में यह विचार उत्पन्न हो सकता है कि आज हम तो विपत्ति से गुजर रहे है और ये पठन-पाठन कर रहे हैं। राजा की मृत्यु का इन्हें शोक नहीं है।
इन सभी व्युद्ग्रहों में, जितने काल तक व्युद्ग्रह रहे उतने दिन तक, तथा व्युद्ग्रह के उपशान्त होने पर एक अहोरात्र तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
ग्राम का स्वामी, ग्राम का प्रधान, बहुपरिवार वाले व्यक्ति अथवा शय्यातर की मृत्यु होने पर [अपने उपाश्रय से यदि सात घर के भीतर हों तो] एक अहोरात्र तक अस्वाध्यायिक रहता है। ऐसी वेला में स्वाध्याय आदि करने पर लोगों में गर्हा होती है, अप्रीति होती है।
५. शरीर सम्बन्धी-शारीरिक अस्वाध्याय के दो प्रकार हैं--(१) मनुष्य सम्बन्धी, (२) तिर्यञ्च सम्बन्धी।
मनुष्य या तिर्यञ्च का कलेवर, रुधिर आदि पड़ा हो तो स्वाध्याय का वर्जन करना चाहिए। कुछ विशेष
प्रकृति में अनेक प्रकार की विचित्र घटनाएं घटित होती हैं। इन घटनाओं की अद्भुतता तथा ग्रह, उपग्रह और नक्षत्रों में होने वाले अस्वाभाविक परिवर्तनों को शुभ-अशुभ मानने की प्रवृत्ति समूचे संसार में रही है। इसके साथ-साथ विभिन्न प्रकार की वृष्टियों, आकाशगत अनेक दृश्यों एवं बिजली से सम्बन्धित घटनाओं से भी शुभ-अशुभ की कल्पनाएं होती हैं।
ग्रीस तथा रोम में भूकम्प, रक्तवर्षा, पाषाणवर्षा तथा दुग्धवर्षा को अत्यन्त अशुभ माना गया है। जापान में भूकम्प, बाढ़ तथा आंधी को युद्ध का सूचक माना जाता रहा है। बेबीलोन में वर्ष के प्रथम मास में नगर पर धूलि का गिरना तथा भूकम्प अशुभ माने जाते हैं। ईरान में मेघ गर्जन, बिजली की चमक तथा धूलि मेघों को अशुभ माना जाता है। दक्षिण पूर्वी अफ्रीका में अशनिवृष्टि, करकावृष्टि को अशुभ का द्योतक माना जाता रहा है।
इङ्गलैण्ड के देहातों में कड़क के साथ बिजली का चमकना ग्राम के प्रमुख व्यक्ति की मृत्यु का सूचक माना जाता है।
1. Dictionary of Greek and Roman anti
quities, Page, 417. 2. Encyclopedia of Religion and Ethics, Vol.
4, Page 806. 3. The Book of the Zodiac, page 119.
4. The wild Rue, Pages 99-100. 5. The History of the Mankind, Vol. I
Page 56. 6. Encylopedia of Superstitions, Page 196.
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स्थान १० : टि० १२-१३
अफ्रीका और पोलण्ड' तथा रोम एव चीन में उल्कादर्शन को अशुभ माना जाता है। इस्लाम धर्म में उल्का को भूत-पिशाच तथा दैत्य के रूप में माना गया है। अथर्ववेदसंहिता में भूकम्प, भूमि का फटना, उल्का, धूमकेतु, सूर्यग्रहण आदि को अशुभ माना है। ब्राह्मण ग्रन्थों में धूलि, मांस, अस्थि एवं रुधिर की वर्षा, आकाश में गन्धर्व-नगरों का दर्शन अशुभ के द्योतक माने
बाल्मीकि रामायण में रुधिरवृष्टि को अत्यन्त अशुभ माना गया है।
इसी प्रकार उत्तरवर्ती संस्कृत काव्यों में भूप्रकम्पन, उल्कापात, रुधिरवृष्टि, करकवृष्टि, दिग्दाह, महावात, वज्रपात, धूलिवर्षा आदि-आदि को अशुभ माना गया है।
लगता है, इन लौकिक मान्यताओं के आधार पर अस्वाध्यायिक की मान्यता का प्रचलन हुआ है। अस्वाध्यायिक के विशेष विवरण के लिए देखें• व्यवहार भाष्य ७।२६६-३२० ।
निशीथभाष्य गाथा ६०७४-६१७६ ।
• आवश्यकनियुक्ति गाथा १३६५-१३७५ । १२. (सू० २४)
देखें-दसवेआलियं ८।१५ के टिप्पण ।
१३. (सू० २५)
प्रस्तुत सूत्र में गंगा-सिंधू में मिलने वाली दस नदियों के नामोल्लेख हैं। प्रथम पांच गंगा में और शेष पांच सिंधू में मिलने वाली नदियां हैं। उनका परिचय इस प्रकार है----
१. गंगा-इसका उद्गम स्थल हिमालय में गंगोत्री है। यह १५२० मील लम्बी है। यह पश्चिमोत्तर बिहार और बंगाल में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है।
२. सिंधू-इसका उद्गम-स्थल कैलाश पर्वत का उत्तरीय अंचल है। इसकी लम्बाई १८०० मील है और यह भारत के पश्चिम-उत्तर और पश्चिम-दक्षिण में बहती हुई अरब समुद्र में जा मिलती है। प्राचीन समय में यह नदी जिन क्षेत्रों से होकर बहती थी उसे सप्तसिन्धु कहते थे क्योंकि इसमें उस समय छह अन्य नदियां मिलती थीं। उनमें शतद्र आदि पांच नदियां तथा छठी नदी सरस्वती थी।
३. यमुना-यह गंगा में मिलने वाली सबसे लम्बी नदी है। उद्गम से संगम तक इसकी लम्बाई ८६० मील है। इसका उद्गम हिमालय के यमुनोत्री से हुआ है। यह प्रायः विन्ध्य क्षेत्र के पार्वत्य प्रान्तों की उत्तरी सीमा तथा संयुक्त प्रान्त के उपजाऊ मैदानों में बहती हुई इलाहाबाद (प्रयाग) के पास गंगा में जा मिलती है। इसका जल स्वच्छ तथा कुछ हरा है।
४. सरयू-इसे घाघरा, घग्घर भी कहते हैं। यह ६०० मील लम्बी है और छपरे से १४ मील पूर्व गंगा में जा मिलती है।
1. The Golden Bough, Part 3, Page, 65-66. 2. Encyclopedia of Religion and Ethics,
Vol. X, Page 371. 3. The Golden Bough, Part 3, Page 53. ४. अथर्ववेद-संहिता १९९८ ।
५. षट्विंशब्राह्मण प्रपाठक ५, खंड ८ । ६. (क) बाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड २३१
तस्मिन् याते जनस्थानादशिवं शोणितोदकम् ।
अभ्यवर्षन् महामेघस्तुमुलो गर्दभारुणः ।। (ख) वही, युद्धकांड ३५२२५, २६; ५१।३३, ५७।३८%
६६।४१; १०८२१ ।
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स्थान १०: टि०१४
५. आपी (राप्ती ?)-राप्ती का उद्गम नेपाल राज्य के उत्तरी ऊंची पर्वतमाला से होता है। यह बरहज (?) के पास घाघरा नदी में जा मिलती है।
६. कोशी—इसके दो नाम और हैं-कौशिकी और सप्त-कौशिकी। सम्भव है, इसका नाम किसी ऋषिकन्या के आधार पर पड़ा हो। नेपाल के पूर्वी भाग में हिमालय से निकली हुई अनेक नदियों के योग से इसका निर्माण हुआ है। यह कुल ३०० मील लम्बी है, परन्तु भारत में केवल ८४ मील तक प्रवाहित होकर, कोलगांव से कुछ उत्तर में गंगा में जा मिलती है। यह नदी अपने वेग, बाढ़ और मार्ग बदलने के लिए प्रसिद्ध है।
७. मही—यह एक छोटी नदी है जो पटना के पास हाजीपुर में गंगा से मिलती है। गण्डक नदी भी वहीं गंगा में मिलती है।
८. शतद्रु-इसको 'सतलज' भी कहते हैं। यह नौ सौ मील लम्बी है। इसका उद्गम स्थल मानसरोवर है। यह अनेक धाराओं से मिलती हुई पीठनकोट के पास सिन्धु नदी में जा मिलती है।
वितस्ता-इसका वर्तमान नाम झेलम है। यह नदी कश्मीर घाटी के उत्तरपूर्व में सीमास्थित पहाड़ों से निकल कर उत्तर-पश्चिम की ओर प्रवाहित होती है। कई छोटी नदियों को साथ लिए, कश्मीर और पंजाब में बहती हुई, यह नदी झंग जिले में चिनाब नदी में जा मिलती है और उसके साथ सिन्धू में जा गिरती है। इसकी लम्बाई ४५० मील है।
१०. विपासा-इसे वर्तमान में व्यास कहते हैं। यह २६० मील लम्बी है और पंजाब की पांचों नदियों में सबसे छोटी है। यह कपूरथला की दक्षिण सीमा पर सतलज नदी में जा मिलती है। कहा जाता है कि व्यास की सुन्दर स्तुति सुनकर इस नदी ने सुदामा की सेना को रास्ता दिया था। अतः इसका नाम व्यास पड़ा।
११. ऐरावती—इसका प्राचीन नाम परुष्णी' भी था। वर्तमान में इसे 'रावी' कहते हैं। यह हिमालय के दक्षिण अञ्चल से निकलकर कश्मीर और पंजाब में बहती है। यह ४५० मील लम्बी है। यह सरायसिन्धू से कुछ ही आगे बढ़ने पर चिनाब नदी में जा मिलती है।
१२. चन्द्रभागा—इसको वर्तमान में 'चिनाब' कहते हैं। चन्द्रा और भागा-इन दो नदियों से मिलकर यह नदी बनी है। यह अनेक नदियों को अपने साथ मिलाती हुई मुल्तान की दक्षिणी सीमा पर सतलज नदी में जा मिलती है। इसकी लम्बाई लगभग ६०० मील है।
१४. (सू० २७)
१. चंपा-यह अंग जनपद की राजधानी थी। इसकी आधुनिक पहिचान भागलपुर से २४ मील दूर पर स्थित 'चम्पापुर' और चम्पानगर से की है।
देखें उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ ३८०, ३५१।
२. मथुरा-यह सूरसेन देश की राजधानी थी। वर्तमान मथुरा के नैऋत्य कोण में पांच माइल पर बसे हुए महोली गांव से इसकी पहचान की गई है।
मद्रास प्रान्त में 'बैगई' नदी के किनारे बसे हुए गाँव को भी मथुरा कहा जाता था। वहां पांड्यराज की राजधानी थी। वर्तमान में जो 'मदुरा' नाम से प्रसिद्ध है, उसका प्राचीन नाम मथुरा था।
३. वाराणसी-यह काशी जनपद की राजधानी थी। नौवें चक्रवर्ती महापद्म यहाँ से प्रवजित हुए थे। देखें--उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ ३७६, ३७७ । ४. श्रावस्ती-यह कुणाल जनपद की राजधानी थी। इसकी आधूनिक पहचान सहेर-महेर से की जाती है। तीसरे चक्रवर्ती 'मघवा' यहां से प्रवजित हुए थे। देखें-उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ ३८४, ३८५। ५. साकेत-यह कोशल जनपद की राजधानी थी। प्राचीन काल में यह जनपद दो भागों में विभक्त था-उत्तर
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स्थान १० : टि० १४
कोशल और दक्षिण कोशल । सरयू नदी पर बसी हई अयोध्या नगरी दक्षिण कोशल की राजधानी थी और राप्ती नदी पर बसी हुई श्रावस्ती नगरी उत्तर कोशल की राजधानी थी।
बौद्ध ग्रन्थों में यह माना गया है कि प्रसेनजित कोशल राजा बिम्बिसार से महापुण्य श्रेष्ठी धनंजय को साथ ले अपने नगर श्रावस्ती की ओर जा रहा था। उसकी इच्छा थी कि ऐसे पुण्यवान व्यक्ति को अपने नगर में बसाया जाए। जब वे श्रावस्ती से सात योजन दूर रहे तब संध्या का समय हो गया। वे वहीं रुक गए। धनंजय ने राजा प्रसेनजित से कहा- मैं नगर में बसना नहीं चाहता। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं यहीं बस जाऊं।' राजा ने आज्ञा दे दी। धनंजय ने वहां नगर बसाया। वहां सायं ठहरा गया था, इसलिए उस नये नगर का नाम साकेत रखा गया। भरत और सगर ये दो चक्रवर्ती यहां से प्रत्नजित हुए।
६. हस्तिनापुर---यह कुरु जनपद की राजधानी थी। इसकी पहचान मेरठ जिले के मवाना तहसील में मेरठ से २२ मील उत्तर-पूर्व में स्थित हस्तिनापुर गांव से की गई है। इसका दूसरा नाम नागपुर था।
सनत्कुमार चक्रवर्ती तथा शांति, कुंथु और अर-ये तीन चक्रवर्ती तथा तीर्थकर यहां से प्रवजित हुए थे। देखें-उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ ३७४।
७. कांपिल्य—यह पाञ्चाल जनपद की राजधानी थी। कन्निंघम ने इसकी पहचान उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद जिले में फतेहगढ से २८ मील उत्तर-पूर्व, गंगा के समीप में स्थित 'कांपिल' से की है। कायमगंज रेलवे स्टेशन से यह केवल पांच मील दूर है। दसवें चक्रवर्ती हरिषेण यहां से प्रवजित हुए थे।
देखें-उत्तरध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ ३७३, ३७४ । ८. मिथिला-देखें उत्तराध्ययन एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ ३७१, ३७२, ३७३ ।
६. कौशाम्बी-यह वत्स जनपद की राजधानी थी। इसकी आधुनिक पहचान इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'कोसम' गांव से की है।
देखें उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ ३७६, ३८०।
१०. राजगृह-यह मगध जनपद की राजधानी थी। महाभारत के सभापर्व में इसका नाम 'गिरिव्रज' भी दिया है। महाभारतकार तथा जैन ग्रन्थकार यहां पांच पर्वतों का उल्लेख करते हैं । किंतु उनके नामों में मतभेद है
महाभारत-वैहार [वैभार], वाहार, वृषभ, ऋषिगिरि, चैत्यक । वायुपुराण-वैभार, विपुल, रत्नकूट, गिरिव्रज, रत्नाचल । जैन--वैभार, विपुल, उदय, सुवर्ण, रत्नगिरि।
सम्भव है इन्हीं पर्वतों के कारण राजगृह को 'गिरिव्रज' कहा गया हो। जयधवला में उद्धृत श्लोकों तथा तिलोयपण्णत्ती में राजगृह का एक नाम 'पंचशैलपुर' और 'पंचशैलनगर मिलता है। उनमें कुछ पर्वतों के नाम भी भिन्न हैं
विपुल, ऋषि, वैभार, छिन्न और पांडु।'
वर्तमान में इसका नाम 'राजगिर' है। यह बिहार से लगभग १३-१४ मील दक्षिण में है। आवश्यक चूणि में यह वर्णन है कि पहले यहां क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। उसके क्षीण होने पर जितशत्रु राजा ने इसी स्थान पर 'चनकपुर' नगर बसाया। तदनन्तर वहां ऋषभपुर नगर बसाया गया। बाद में 'कुशाग्रपुर' । इसके पूरे जल जाने के बाद श्रेणिक के पिता प्रसेनजित ने राजगृह नगर बसाया। भगवती २।११२, ११३ में राजगृह में उष्ण झरने का उल्लेख आता है और उसका नाम 'महातपोपतीरप्रभ' है। चीनी प्रवासी फाहियान और हयुयेन्सान ने अपनी डायरी में इन उष्ण झरनों को देखने का उल्लेख करते हैं । बौद्ध ग्रन्थों में इन उष्ण झरनों को 'तपोद' कहा है।
ग्यारहवें चक्रवर्ती 'जय' यहां से प्रवजित हुए थे।
१. धम्मपद, अट्टकथा । २. कषायपाहुड़ १, पृष्ठ ७३; तिलोयपण्णत्ती १।६४-६७ ।
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१५. (सू० २८)
प्रस्तुत सूत्र में दस राजधानियों में दस राजाओं ने मुनिदीक्षा ली, इस प्रकार का सामान्य उल्लेख किया है। किन्तु किस राजा ने कहां दीक्षा ली, इसका कोई उल्लेख नहीं है और न ही राजधानियों तथा राजाओं का क्रमश: उल्लेख है। बृत्तिकार ने आवश्यक नियुक्ति और निशीथ भाष्य के आधार पर प्रस्तुत सूत्र की स्पष्टता की है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार चक्रवतियों के जन्म-स्थान इस प्रकार हैं
१. भरत–साकेत । २. सगर-साकेत। ३. मघवा-श्रावस्ती। ४-८. सनत्कुमार, शांति, कुंथु अर और सुभूम-हस्तिनागपुर । ६. महापद्म-वाराणसी । १०. हरिषेण-कांपिल्य । ११. जय-राजगृह । १२. ब्रह्मदत्तकांपिल्य।
इनमें सुभूम और ब्रह्मदत्त प्रव्रजित नहीं हुए थे।
निशीथभाष्य में प्रस्तुत विषय भिन्न प्रकार से वणित है। उसके अनुसार बारह चक्रवर्ती दस राजधानियों में उत्पन्न हुए थे। कौन चक्रवर्ती किस राजधानी में उत्पन्न हुआ उसका स्पष्ट निर्देश वहां नहीं है। वहां केवल इतना सा उल्लेख प्राप्त है कि शांति, कथ और अर.---ये तीन एक राजधानी में उत्पन्न हुए थे और शेष नौ चक्रवर्ती नौ राजधानियों में उत्पन्न हुए, यह स्वतः प्राप्त हो जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में दस चक्रवर्ती राजाओं के प्रव्रज्या-नगरों का उल्लेख है, किन्तु उनके जन्म-नगरों का उल्लेख नहीं है। वृत्तिकार ने लिखा है कि जो चक्रवर्ती जहां उत्पन्न हुए वहीं प्रव्रजित हुए। इस नियम के आधार पर निशीथभाष्य का निरूपण समीचीन प्रतीत होता है। प्रस्तुत सूत्र में दस प्रव्रज्या-नगरों का उल्लेख है और उक्त नियम के अनुसार उनके उत्पत्ति-नगर भी वे ही हैं, तब वे दस होने ही चाहिएं। आवश्यक निर्यक्ति में किस अभिप्राय से चक्रवतियों के छह उत्पत्ति नगरों का उल्लेख किया है-यह कहना कठिन है।
उत्तराध्ययन में इन दसों की प्रव्रज्या का उल्लेख है, किन्तु प्रव्रज्या नगरों का उल्लेख नहीं है।'
१६. गोतीर्थ विरहित (सू० ३२)
गोतीर्थ का अर्थ है-तालाब आदि में गायों के उतरने की भूमि। यह क्रमशः निम्न, निम्नतर होती है। लवण समुद्र के दोनों पाश्वों में पिचानवें-पिचानवें हजार योजन तक पानी गोतीर्थाकार (क्रमश: निम्न, निम्नतर) है। उनके बीच में दस हजार योजन तक पानी समतल है। उसी को 'गोतीर्थ विरहित' कहा गया है।'
१. आवश्यकनियुक्ति गाथा ३९७ :
जम्मण विणीअउज्झा सावत्थी पंच हत्यिणपुरंमि ।
वाणारसि कंपिल्ले रायगिहे चेव कंपिल्ले ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४५४ : द्वौ च सुभूमब्रह्मदत्ताभिधानी न
प्रवजितौ। ३. (क) निशीथभाष्य गाथा २५६०, २५६१ :
चंपा महुरा वाणारसी य सावत्थिमेव साएतं । हत्यिणपुर कंपिल्लं, मिहिला कोसंबि रायगिहं ।। सती कुंथू य अरो, तिग्णि वि जिणचक्की एकहिं जाया।
तेण दस होति जत्थ व, केसव जाया जणाइण्णा ।। (ख) स्थानांगवृत्ति, पन ४५४ ।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५४ : ये च यत्रोत्पन्नास्ते तनव प्रव्रजिताः। ५. उत्तराध्ययन १८६३४-४३ ।। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५५ : गवां तीर्थ-तडागादाववतारमार्गो
गोतीर्थं, ततो गोतीर्थमिव गोतीर्थ-अवतारवती भूमिः, तद्विरहित सममित्यर्थः, एतच्च पञ्चनवतियोजनसहस्राण्यग्भिागत: परभागतश्च गोतीर्थरूपां भूमि विहाय मध्ये भवतीति ।
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१७. उदकमाला (सू० ३३)
उदकमाला का अर्थ है—पानी की शिखा–वेला। यह समुद्र के मध्य भाग में होती है। इसकी चौड़ाई दस हजार योजन की और ऊंचाई सोलह हजार योजन की है।'
१८. (सू० ४६)
अनुयोग का अर्थ है व्याख्या । व्याख्येय वस्तु के आधार पर अनुयोग चार प्रकार का है१. चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग । द्रव्यानुयोग के दस प्रकार हैं
१. द्रव्यानुयोग—जीव आदि पदार्थों के द्रव्यत्व की व्याख्या। द्रव्य का अर्थ है-गुण-पर्यायवान पदार्थ । जो सहभावी धर्म है वे गुण कहलाते हैं और जो काल या अवस्थाकृत धर्म होते हैं वे पर्याय कहलाते हैं। जीव में ज्ञान आदि सहभावी गुण और मनुष्यत्व, बालत्व आदि पर्याय कृत धर्म होते हैं, अतः वह द्रव्य है।
२. मातृकानुयोग-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को मातृकापद कहते हैं। इसके आधार पर द्रव्यों की विचारणा करना मातृकानुयोग है।
___३. एकाथिकानुयोग-एकार्थवाची या पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या। जैसे—-जीव, प्राणी, भूत और सत्त्व-ये एकार्थवाची हैं।
४. करणानुयोग-साधनों की व्याख्या । एक द्रव्य की निष्पत्ति में प्रयुक्त होने वाले साधनों का विचार जैसे-घड़े की निष्पत्ति में मिट्टी, कभकार, चक्र, चीवर, दंड आदि कारण साधक होते हैं, उसी प्रकार जीव की क्रियाओं में काल, स्वभाव, नियति, कर्म आदि साधक होते हैं।
५. अर्पित-अनर्पित-इस अनुयोग के द्वारा द्रव्य के मुख्य और गौण धर्म का विचार किया जाता है।
द्रव्य अनेक धर्मात्मक होता है, किन्तु प्रयोजनवश किसी एक धर्म को मुख्य मानकर उसकी विवक्षा की जाती है। वह 'अर्पणा' है और शेष धर्मों की अविवक्षा होती है वह 'अनपर्णा' है। उमास्वाति ने अनेक धर्मात्मक द्रव्य की सिद्धि के लिए इस अनुयोग का प्रतिपादन किया है।
६. भावित-अभावित-द्रव्यान्तर से प्रभावित या अप्रभावित होने का विचार।
भावित-जैसे-जीव प्रशस्त या अप्रशस्त वातावरण से भावित होता है। उसमें संसर्ग से दोष या गुण आते हैं। यह जीव की भावित अवस्था है।
___अभावित --वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या में वज्रतंडुल का उदाहरण दिया है। यह या तो संसर्ग को प्राप्त नहीं होता या संसर्ग प्राप्त होने पर भी उससे भावित नहीं होता।
७. बाह्य-अबाह्य-वृत्तिकार ने बाह्य और अबाह्य के दो अर्थ किए हैं
(१) बाह्य-असदृश या भिन्न। जैसे-जीव द्रव्य आकाश से बाह्य है-चैतन्य धर्म के कारण उससे विलक्षण है। वह आकाश से अबाह्य भी है-अमूर्त धर्म के कारण उससे सदृश है।
(२) जीव के लिए घट आदि द्रव्य बाह्य हैं तथा कर्म और चैतन्य आन्तरिक (अबाह्य) है।'
नंदी सूत्र में अवधिज्ञान का बाह्य और अबाह्य की दृष्टि से विचार किया गया है । इससे इस अनुयोग का यह अर्थ फलित होता है कि द्रव्य के सार्वदिक (अबाह्य) और असार्वदिक (बाह्य) धर्मों का विचार करना।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४५५ : उदकमाला-उदकशिखा वेलेत्यर्थः,
दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भतः उच्चस्त्वेन षोडशसहस्राणीति, समुद्रमध्यभागादेवोत्थितेति।
२. तत्त्वार्थसूत्र ५।३१ : अपितानपित सिद्धेः । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५७ । ४. नंदीसूत्र (पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ३१ ।
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८. शाश्वत अशाश्वत - द्रव्य के शाश्वत, अशाश्वत का विचार ।
६. तथाज्ञान- द्रव्य का यथार्थ विचार |
१०. अतथाज्ञान- द्रव्य का अयथार्थ विचार ।
१६. उत्पात पर्वत (सू० ४७ )
नीचे लोक से तिरछे लोक में आने के लिए चमर आदि भवनपति देव जहां से ऊर्ध्वगमन करते हैं उन्हें उत्पात पर्वत कहा जाता है।
२०. अनन्तक ( सू० ६६)
जिसका अन्त नहीं होता उसे अनन्त कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में उसका अनेक संदर्भों में प्रयोग किया गया है। संदर्भ के साथ प्रत्येक शब्द का अर्थ भी आंशिक रूप में परिवर्तित हो जाता है। नाम और स्थापना के साथ अनन्त शब्द का प्रयोग किसी विशेष अर्थ का सूचक नहीं है। इनमें नामकरण और आरोपण की मुख्यता है, किन्तु 'अनन्त' के अर्थ की कोई मुख्यता नहीं है ।
वृत्तिकार ने नामकरण के विषय में एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। सामयिक भाषा ( आगमिक संकेत ) के अनुसार वस्त्र का नाम अनन्तक है ।'
द्रव्य के साथ अनन्त का प्रयोग द्रव्यों की व्यक्तिश: अनन्तता का सूचक है। गणना के साथ अनन्त शब्द के प्रयोग का संबंध संख्या से है। जैन गणित में गणना के तीन प्रकार हैं-संख्यात, असंख्यात और अनन्त । संख्यात की गणना होती है । असंख्यात की गणना नहीं होती, पर वह सान्त होता है । अनन्त की न गणना होती है और न उसका अन्त होता है । प्रदेश के साथ अनन्त शब्द द्रव्य के अवयवों का निर्धारण करता है । जीव के प्रदेश असंख्य होते हैं । आकाश और अनन्तप्रदेशी पुद्गलस्कंधों के प्रदेश अनन्त होते हैं। एकतः और उभयतः इन दोनों के साथ अनन्त शब्द का प्रयोग काल-विस्तार को सूचित करता है ।
पांचवें स्थान (सूत्र - २१७) में वृत्तिकार ने एकत: अनन्तक का अर्थ - आयाम लक्षणात्मक अनन्त ( एक श्रेणीक क्षेत्र) और उभयतः अनन्त का अर्थ — आयाम और विस्तार लक्षणात्मक अनन्त ( प्रतर क्षेत्र ) किया है। ' तथा सूत्र की व्याख्या में एकत: अनन्तक का उदाहरण-अतीत या अनागत काल और उभयतः अनन्तक का उदाहरण – सर्वकाल दिया है। वस्तुतः इनमें कोई विरोध नहीं है । इनकी व्याख्या देश और काल – दोनों दृष्टियों से की जा सकती है ।
देशविस्तार और सर्वविस्तार के साथ अनन्त शब्द का प्रयोग दिग् और क्षेत्र के विस्तार को सूचित करता है। पांचवें स्थान में वृत्तिकार' ने देश विस्तार का अर्थ दिगात्मक विस्तार तथा प्रस्तुत सूत्र में उसका अर्थ एक आकाश प्रतर किया है। "
इस प्रकार विभिन्न संदर्भों के साथ अनन्त शब्द विभिन्न अर्थों की सूचना देता है । यह अनन्त शब्द की निक्षेप पद्धति का एक उदाहरण है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३२९ : नामानन्तकं अतनष्कमिति यस्य नाम, यथा समयभाषया वस्त्रमिति ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३२६ : एकत: - एकेनांशेनायामलक्षणेनानन्तकमेकतोऽनन्तकम् — एकश्रेणीक क्षेत्रं द्विधा - आयामविस्ताराभ्यामनन्तकं द्विधानन्तकं – प्रतरक्षेत्रम् ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५६ एकतोऽनन्तकमतीताद्धा अनागताद्धा वा, द्विधाऽनन्तकं सर्वाद्धा ।
स्थान १० : टि०१६-२०
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३२९ : क्षेत्रस्य यो रुचकापेक्षया पूर्वाधन्यतरदिग्लक्षणो देशस्तस्य विस्तारो - विष्कम्भस्तस्य प्रदेशापेक्षया अनन्तकं देशविस्तारानन्तकम् ।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५६ : देशविस्तारानन्तकं एक आकाशप्रतरः ।
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स्थान १० : टि० २१
२१ (सू० ६६)
निशीथभाष्य में प्रतिषेवणा के दो प्रकार बतलाए गए हैं-दर्प प्रतिषेवणा और अल्प प्रतिषेवणा।'
दर्प का अर्थ है-व्यायाम, वल्गन और धावन । निशीथभाष्य की चूणि में व्यायाम के अर्थ की स्पष्टता दो उदाहरणों से की गई है, जैसे-लाठी चलाना, पत्थर उठाना। वल्गन का अर्थ कूदना और धावन का अर्थ दौड़ना है। बाहुयुद्ध आदि भी इसी प्रकरण में सम्मिलित हैं। भाष्यकार ने दर्प का एक अर्थ प्रमाद किया है। दर्प से होने वाली प्रतिषेवणा दपिका प्रतिषेवणा कहलाती है। यह प्रमाद या उद्धतता से होने वाला दोषाचरण है। दपिका प्रतिवेषणा मूलगुण और उत्तरगुण दोनों की होती है।
दर्प प्रतिषेवणा निष्कारण की जाने वाली प्रतिषेवणा है। कल्प प्रतिषेवणा किसी विशेष प्रयोजन के उपस्थित होने पर की जाती है। भाष्यकार ने दपिका और कल्पिका-इन दोनों को प्रमाद प्रतिषेवणा और अप्रमाद प्रतिषेवणा से अभिन्न माना है। उसके अनुसार प्रमादप्रतिषेवणा ही दपिका प्रतिषेवणा है और अप्रमादप्रतिषेवणा ही कल्पिका प्रतिषेवणा है।
प्रस्तुत गाथा में कल्पिका प्रतिषेवणा या अप्रमाद प्रतिषेवणा का उल्लेख नहीं है किन्तु इसमें आए हुए अनाभोग और और सहसाकार उसी के दो प्रकार हैं।
अनाभोग का अर्थ है-अत्यन्त विस्मृति ।
अनाभोग प्रतिसेवी किसी भी प्रमाद से प्रमत्त नहीं होता। किंतु कदाचित् उसे ईर्यासमिति आदि के समाचरण की विस्मृति हो जाती है। यह उसकी अनुपयुक्तता (उपयोग शून्यता) की प्रतिवेषणा है । सद्साकार प्रतिषेबणा में उपयुक्त अवस्था होने पर भी दैहिक चंचलता की विवशता के कारण प्राणातिपात आदि का समाचरण हो जाता है।"
कंटकाकीर्ण पथ में चलने वाला मनुष्य सावधान होते हुए भी कहीं न कहीं पैर को पूर्ण नियन्त्रित न रखने के कारण बींध लेता है। इसी प्रकार सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए मुनि से भी शारीरिक चंचलता के कारण कहीं न कहीं प्राणातिपात आदि का समाचरण हो जाता है। इसमें न प्रमाद है और न विस्मृति, किन्तु शारीरिक विवशता है।
आतुर प्रतिषेषणाभाष्यकार ने आतुर के तीन प्रकार बतलाए हैं(१) क्षुधातुर (२) पिपासातुर (३) रोगातुर। इससे कामातुर और क्रोधातुर आदि का वर्णन सहज ही प्राप्त हो जाता है।
१. निशीथभाष्य गाथा ८८:
दप्पे सकारणंमि य, दुविधा पडिसेवणा समासेणं ।
एक्केक्का वि य दुविधा मूलगुणे उत्तरगुणे य ।। २. निशीथभाष्य गाथा ४६४ :
वायामवग्गणादी, णिक्कारणधावणं तु दप्पो तु । ३. निशीथभाष्य गाथा ४६४ : चूर्णि-वायामो जहा लगुडि
भमाडणं, उवलयकडणं, वग्गणं मल्लवत् । आदि सद्दगहणा बाहु
जुद्धकरणं चीवरडेवणं वा धावणं खड्डयप्पवणं ।। ४. निशीथभाष्य गाथा ६१ : दप्पो तु जो पमादो। ५. निशीथभाष्य गाथा ८८ : चूर्णि-सकारणमि य त्ति णाण
दसणाणि अहिकिच्च संजमादि-जोगेसु य असरमाणेसु पडिसेव
त्ति, सा कप्पे। ६. निशीथभाष्य गाथा ६०:
दप्पे कप्प पमत्ताणभोग आहच्चतो य चरिमा तु । पडिलोम-परवणता, अत्थेणं होति अणुलोमा ।।
७. निशीथभाष्यगाथा १० : चूर्णि
जा सा अपमन्त-पडिसेवा सा दुविहा-अणाभोगा आहच्चओ य । ८. निशीथभाष्य गाथा ६५: चूणि-अणाभोगो णाम अत्यंतविस्मृतिः १. निणीयभाष्यगाथा ६५ :
ण पमादो कातब्बो, जतण-पडिसेवणा अतो पढमं ।
सा तु अणाभोगेणं, सहसक्कारेण वा होज्जा ॥ १०. निशीथभाष्य गाथा ६७ : चूणि-सहस्साकरणमेयं ति सहसा
करणं सहसक्करणं जाणमाणस्स परायत्तस्सेत्यर्थः । ११. निशीथभाष्य गाथा १००:
असि कंटकविसमादिसु, गच्छंतो सिक्खिओ वि जत्तेणं ।
चुक्कइ एमेव मुणी, छलिज्जति अप्पमत्तो वि॥ १२. निशीथभाष्य गाथा ४७६ :
पढम-बितिषदुतो वा वाधितो वा जं सेवे आतुरा एसा। दब्वादिअलंभे पुण, चउविधा आवती होति ॥
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ठाणं (स्थान)
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आप प्रतिषेवणा-- आपत् की व्याख्या चार दृष्टियों से की गई है । '
१. द्रव्यतः आपत् - मुनि योग्य आहार आदि की अप्राप्ति ।
२. क्षेत्रतः आपत् - अरण्यविहार आदि की स्थिति ।
३. कालतः आपत् -- दुर्भिक्ष आदि का समय ।
४. भावतः आपत् - शरीर की रुग्णावस्था ।
शंकित प्रतिषेवणा- प्रस्तुत सूत्र की संग्रह गाथा में 'शंकितप्रतिषेवणा' का उल्लेख है । निशीथ भाष्य में इसके स्थान पर 'तितिण' प्रतिषेवणा का उल्लेख है । शंकित प्रतिषेवणा का अर्थ वही है जो अनुवाद में प्राप्त है । तितिण प्रतिषेवणा का आहार आदि प्राप्त न होने पर गिड़गिड़ाना ।"
विमर्श प्रतिषेवणा - चूर्णिकार के अनुसार शिष्यों की परीक्षा के लिए गुरुजन सचित्त भूमि आदि पर चलने लग जाते थे। इस कार्य पर शिष्य की प्रतिक्रिया जान वे उसकी श्रद्धा या अश्रद्धा का निर्णय करते थे । *
निशीथभाष्य में प्रतिषेवणा का प्रकरण बहुत विस्तृत है। तात्कालिक धारणा की जानकारी के लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
२२. (सू०७० )
प्रस्तुत सूत्र में जो संग्रहीत गाथा है वह निशीथभाष्य चूर्णि में भी मिलती है।" मूलाचार में भी कुछ शाब्दिक परिवर्तन के साथ यही गाथा प्राप्त है।' निशीथ चूर्णि स्थानांगवृत्ति, तत्त्वार्थवार्तिक, मूलाचार की वसुनन्दि कृत वृत्ति आदि का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोषों की अर्थ- परम्परा कहीं कहीं विस्मृत हुई है। उस विस्मृत परम्परा का अर्थ शाब्दिक आधार पर किया गया है। इस मत की पुष्टि के लिए दो शब्द - अणुमाणइत्ता' और 'छन्न' प्रस्तुत किए जा सकते हैं। अभयदेवसूरि ने 'अणुमाणइत्ता' का अर्थ - आलोचनाचार्य मृदु दंड देने वाले हैं या अमृदु दंड देने वाले हैं ऐसा 'अनुमान कर' मृदु प्रायश्चित्त की सम्भावना होने पर 'आलोचना करना' - किया है।
निशीथभाष्य चूर्णि में इसका अर्थ-अनुनय कर — किया गया है।"
तत्त्वार्थवार्तिक और मूलाचार के अर्थ आगे दिए गए हैं। इनमें 'अनुनय कर' या 'आलोचनाचार्य को करुणार्द्र बनाकर' – यह अर्थ अधिक प्रासंगिक लगता है।
स्थानांगवृत्ति' और निशीथभाष्यचूर्णि" में 'छन्न' का अर्थ है— इतने धीमे स्वर में आलोचना करना, जिसे वह स्वयं ही सुन सके, आलोचनाचार्यं न सुन पाएं।
तत्वार्थवार्तिक तथा मूलाचार में 'छन्न' का आशय उक्त अर्थ से भिन्न है ।
१. निशीथभाष्य, गाथा ४७६, चूर्णि ।
२. निशीथभाष्य गाथा ४७७ :
दप्पपमादाणा भोगा आतुरे आवतीसु य । तितिणे सहस्वकारे भयप्पदोसा य वीमंसा ॥
३. निशीथभाष्य गाथा ४८० : चूर्णि आहारादिसु अलब्भमाणेसु तिडितिडे ।
४. निशीथभाष्य गाथा ४८० : चूर्णि
५. निशीथभाष्य भाग ४, पृष्ठ ३६३ ।
६. मूलाचार, शीलगुणाधिकार, गाथा १५ :
स्थान १० : टि० २२
आकंपिय अणुमणिय जं दिट्ठं बाद रंच सुहुमं च । छष्णं सद्दाकुलियं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥
७. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६० : 'अणुमाणइत्ता' अनुमानं कृत्वा, किमयं मृत्युदण्ड उतोग्रदण्ड इति ज्ञात्वेत्यर्थः, अयमभिप्रायोऽस्य – यद्ययं मृदुदण्डस्ततो दास्याम्यालोचनामन्यथा नेति । ८. निशीथ भाष्य भाग ४, पृष्ठ ३६३: "चरमं थोवं एसपच्छितं दाहिति ण वा दाहिति ॥
पुब्वामेव आयरियं अणुणेति दुब्बलो हं थोवं में पच्छित्तं देज्जह ॥"
९. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६०: प्रच्छन्नमालोचयति यथात्मनैव शृणोति नाचार्यः ।
१०. निशीथभाष्य भाग ४ पृष्ठ ३६३ : चूर्णि छष्णं" ति - तहा अबराहे अप्पसद्देण उच्चरइ जहा अप्पणा चेव सुणेति णो गुरु ।
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स्थान १० : टि० २२
हमने प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद स्थानांगवृत्ति और निशीथभाष्यचूणि के आधार पर किया है । इसलिए उनके आधार पर शेष शन्दों पर विचार नहीं किया गया है। तत्वार्थवार्तिक में आलोचना के दस दोषों का विवरण प्राप्त है किन्तु उसमें सब दोषों का नामोल्लेख नहीं है। केवल तीसरे दोष का नाम 'मायाचार और चौथे का स्थूल' दिया है। मूलाचार तथा उसकी वृत्ति में इन सभी दोषों का नामोल्लेख पूर्वक विवरण दिया गया है। इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन हम नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं
१. 'गुरु को उपकरण देने से वे मुझे लघु प्रायश्चित्त देंगे'—ऐसा सोचकर उपकरण देना। यह पहला दोष है।
मूलाचार में पहला दोष 'आकंप्य' है। इसका अर्थ है-आचार्य को भक्त, पान, उपकरण आदि दे अपना आत्मीय बनाकर दोष निवेदन करना।
२. 'मैं प्रकृति से दुर्बल हूं, ग्लान हूँ, उपवास आदि करने में असमर्थ हूं, यदि आप लघु प्रायश्चित्त दें तो मैं दोष निवेदन करूं'—यह कह कर दोष निवेदन करना। यह दूसरा दोष है।
मूलाचार में दूसरा दोष 'अनुमान्य' है। इसका अर्थ है-शरीर की शक्ति, आहार और बल की अल्पता दिखाकर, दीन वचनों से आचार्य को अनुमत कर उनके मन में करुणा पैदा कर दोष निवेदन करना।
३. दूसरे द्वारा अज्ञात दोषों को छुपाकर केवल ज्ञान दोषों का निवेदन करना - यह मायाचार नाम का तीसरा दोष है।
मूलाचार में इसे तीसरा 'दष्ट' दोष माना है। ४. आलस्य या प्रमादवश अन्य अपराधों की परवाह न कर केवल स्थूल दोषों का निवेदन करना। मूलाचार में इसे चौथा 'बादर' दोष माना है।
५. महादुश्चर प्रायश्चित्त प्राप्त होने के भय से महान दोषों का संवरण कर छोटे प्रमाद का निवेदन करना। यह पांचवां दोष है।
मूलाचार में इसे पांचवां 'सूक्ष्म' दोष माना है।
६. इस प्रकार का दोष हो जाने पर क्या प्रायश्चित प्राप्त हो सकता है, इसको उपायों द्वारा जानकर गुरु की उपासना कर दोष का निवेदन करना। यह छठा दोष है।
मुलाचार में छठा दोष 'प्रच्छन्न' है। इसका अर्थ है --किसी मिस से दोष-कयन कर स्वयं प्रायश्चित्त ले लेना।
७. पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के समय अनेक साधु आलोचना करते हैं। उस समय कोलाहलपूर्ण वातावरण में दोष-कथन करना। यह सातवां दोष है।
मूलाचार में इसे सातवां शब्दाकुलित' दोष माना है।
८. गुरु के द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त युक्त है या नहीं, आगम विहित है या नहीं इस प्रकार शंकाशील होकर दूसरे साधुओं से पूछताछ करना । यह आठवां दोष है।
मूलाचार में आठवां दोष 'बहुजन' है। इसका अर्थ है-एक आचार्य को अपने दोष का निवेदन कर, प्रायश्चित लेकर उसमें श्रद्धा न करते हुए पुनः दूसरे आचार्य के पास उस दोष का निवेदन करना।
६. जिस किसी उद्देश्य से अपने जैसे ही अगीतार्थ के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना।
मूलाचार में नौंवा दोष 'अव्यक्त' है। इसका अर्थ हैं— लघु प्रायश्चित्त के निमित्त अव्यक्त (प्रायश्चित्त देने में अकुशल) के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना।
१०. 'मेरा दोष इसके दोष के समान है। उसको यही जानता है। इसको जो प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है वही मेरे लिए भी युक्त है'--ऐसा सोचकर अपने दोषों का संवरण करना यह दसवां दोष है।
मूलाचार में दसवां दोष 'तत्सेवी' है। इसका अर्थ है -जो व्यक्ति अपने समान ही दोषों से युक्त है उसको अपने दोष का निवेदन करना, जिससे कि वह बड़ा प्रायश्चित्त न दे।
इन दोनों ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर अर्थ-भेद स्पष्ट परिलक्षित होता है।
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स्थान १०: टि० २३-२५ षट्प्राभूत की श्रुतसागरीय वृत्ति में आलोचना के दस दोषों का संग्रह गाथा में उल्लेख है । वह गाथा मूलाचार की है, किन्तु इन दोषों की मूलाचारगत व्याख्या और श्रुतसागरीय व्याख्या में कहीं-कहीं बहुत बड़ा मत-भेद है।
मूलाचार की वृत्ति का अर्थ ऊपर दिया जा चुका है। श्रुतसागरीय की व्याख्या निम्न प्रकार से है१. आकंपित-आचार्य मुझे दंड न दे दें--इस भय से आलोचना करना।
२. अनुमानित-यदि इतना पाप किया जाएगा तो उससे निस्तार नहीं होगा, ऐसा अनुमान कर आलोचना करना।
३. यदृष्ट-जो दोष किसी के द्वारा देखा गया है, उसी की आलोचना करना। ४. बादर-केवल स्थूल दोषों का प्रकाशन करना। ५. सूक्ष्म-केवल सूक्ष्म दोषों का प्रकाशन करना। ६. छन्न-गुप्त रूप से केवल आचार्य के पास अपना दोष प्रकट करना, दूसरे के पास नहीं। ७. शन्दाकुल-जब शोरगुल हो तब अपने दोष को प्रगट करना। ८. बहुजन-जब बहुत बड़ा संघ एकत्रित हो, तब दोष प्रगट करना। ६. अव्यक्त-दोष को अव्यक्त रूप से प्रगट करना। १०. तत्सेवी-जिस दोष का प्रकाशन किया है, उसका पूनः सेवन करना।'
२३. (सू०७१)
मिलाइए-स्थानांग ८।१८; तुलना के लिए देखें निशीथभाष्य, भाग ४, पृष्ठ ३६२ आदि ।
२४. (सू०७२)
प्रस्तुत सूत्र में आलोचना देने वाले अनगार के दस गुणों का उल्लेख है। आठवें स्थान के अठारहवें सूत्र में आठ गुणों का उल्लेख हुआ है और यहां उनके अतिरिक्त दो गुण और उल्लिखित हैं।
इन दस गुणों में सातवां गुण है--निर्यापक'। आठवें स्थान में वृत्तिकार ने इसका अर्थ- 'बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके'ऐसा सहयोग देने वाला, किया है। प्रस्तुत सूत्र में उसका अर्थ'—ऐसा प्रायश्चित्त देने वाला जिसे प्रायश्चित्त लेने वाला निभा सके-किया है। ये दोनों अर्थ भिन्न हैं।
निर्यापक' प्रायश्चित्त देने वाले का विशेषण है, इसलिए प्रथम अर्थ ही संगत लगता है।
२५. (सू०७३)
प्रस्तुत सूत्र में दस प्रकार के प्रायश्चित्त निर्दिष्ट हैं। इनका निर्देश दोषों की लघुता और गुरुता के आधार पर किया गया है। कई दोष आलोचना प्रायश्चित्त द्वारा, कई प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त द्वारा है और कई पारांचिक प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होते हैं। इसी आधार पर प्रायश्चित्तों का निरूपण किया गया है।
आचार्य अकलंक ने बताया है कि जीव के परिणाम असंख्येय लोक जितने होते हैं। जितने परिणाम होते हैं उतने ही अपराध होते हैं और जितने अपराध होते हैं उतने ही उनके प्रायश्चित्त होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। प्रायश्चित्त के जो
१. षट्प्राभूत १।६, श्रुतसागरीय वृत्ति पृष्ठ है । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०२ : 'निज्जवए त्ति निर्यापयति तथा
करोति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापक
इति। ३. वही, वृत्ति, पन ४६१ : 'निज्जवए' यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते
यथा परो निर्वोढुमलं भवतीति ।
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स्थान १० : टि० २५
प्रकार निर्दिष्ट हैं वे व्यवहार नय की दृष्टि से पिंडरूप में निर्दिष्ट हैं।'
दिगंबर परम्परानुसारी तत्त्वार्थ सूत्र तथा उसकी व्याख्या-तत्त्वार्थवात्तिक में प्रायश्चित्त के नौ ही प्रकार निर्दिष्ट
१. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. तदुभय ४. विवेक ५. व्युत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. परिहार :. उपस्थापना।
इनमें दसवें प्रायश्चित्त-पारांचिक का उल्लेख नहीं है। 'मूल' प्रायश्चित्त के स्थान पर 'उपस्थापना' का उल्लेख है। वहां इसका वही अर्थ किया गया है, जो श्वेताम्बर आचार्यों ने 'मूल' का किया है।'
तत्त्वार्थवार्तिक में 'अनवस्थाप्य' का भी उल्लेख नहीं है, किन्तु उसमें 'परिहार' नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख है, जो श्वेताम्बर परम्परा में प्राप्त नहीं है। इसका अर्थ है-पक्ष, मास आदि काल-मर्यादा के अनुसार प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि को संघ से बाहर रखना।
प्रायश्चित्त प्राप्ति के प्रकरण में अनुपस्थापन और पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। किन्तु उनका अर्थ श्वेताम्बर परम्परा से भिन्न है।
अपकृष्ट आचार्य के पास प्रायश्चित्त ग्रहण करना अनुपस्थापन है और तीन आचार्यों तक, एक आचार्य से अन्य आचार्य के पास प्रायश्चित्त ग्रहण के लिए भेजना पारांचिक है।'
तत्त्वार्थवातिक में प्रायश्चित्त प्राप्ति का विवरण इस प्रकार है
१. विद्या और ध्यान के साधनों को ग्रहण करने आदि में विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त है आलोचना।
२. देश और काल के नियम से अवश्य करणीय विधानों को धर्म-कथा आदि के कारण भूल जाने पर पुनः करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त।
__३. भय, शीघ्रता, विस्मरण, अज्ञान, अशक्ति और आपत्ति आदि कारणों से महाव्रतों में अतिचार लग जानाइसके लिए छेद के पहले के छहों प्रायश्चित्त हैं।
४. शक्ति का गोपन न कर प्रयत्न से परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने या ग्रहण कराने में, त्यक्त प्रासुक का विस्मरण हो जाए और ग्रहण करने पर उसका स्मरण हो जाए तो उसका पुन: उत्सर्म (विवेक) करना ही प्रायश्चित्त है।
५. दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्र का अतिचार, महानदी और महा अटवी को पार करने में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त
६. बार-बार प्रमाद, बहुदृष्ट अपराध, आचार्य आदि के विरुद्ध वर्तन करना, सम्यग्दर्शन की विराधना होने पर क्रमश: छेद, मूल अनुपस्थापन और पारांचिक प्रायश्चित्त दिया जाता है।
प्रायश्चित्त के निम्न निर्दिष्ट प्रयोजन हैं
१. प्रमादजनित दोषों का निराकरण । २. भावों की प्रसन्नता। ३. शल्य रहित होना। ४. अव्यवस्था का निवारण। ५. मर्यादा का पालन । ६. संयम की दृढ़ता । ७. आराधना।
प्रायश्चित्त एक प्रकार की चिकित्सा है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं की जाती, किन्तु रोग निवारण के लिए की जाती है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त भी राग आदि अपराधों के उपशमन के लिए दिया जाता है।
१. तत्त्वार्थवातिक ६।२२ : जीवस्यासंख्येयलोकपरिणामाः परि
णामविकल्पाः, अपराधाश्च तावन्त एव, न तेषां तावद्विकल्पं
प्रायश्चित्तमस्ति। २. वही : ६।२२। ३. बही ६२२ : पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना।
४. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२२ : पक्ष मासादिविभागेन दूरत : परिवर्जनं
परिहारः । ५. वही ६।२२। ६. वही ६।२२ । ७. बही ६।२२।
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स्थान १० : टि० २६-२८
निशीथभाष्यकार ने तीर्थंकर की धनवंतरी से, प्रायश्चित्त प्राप्त साधु की रोगी से, अपराधों की रोगों से और प्रायश्चित्त की औषध से तुलना की है।'
२६. मार्ग (सू०७४ )
प्रस्तुत सूत्र में 'मार्ग' शब्द मोक्ष मार्ग का सूचक है। सूत्रकृतांग [ प्रथम श्रुतस्कंध ] के ग्यारहवें अध्ययन का नाम 'मार्ग' है । उसमें अहिंसा को 'मार्ग' बताया गया है। उत्तराध्ययन के अठाईसवें अध्ययन का नाम 'मोक्षमार्गगति' है । उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मार्ग कहा गया है।"
तत्वार्थ के प्रथम सूत्र में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष मार्ग कहा है। इन व्याख्या - विकल्पों में केवल प्रतिपादन पद्धति का भेद है, किन्तु आशय-भेद नहीं है ।
२७. व्याघ्र (सू०८२)
प्रस्तुत सूत्र में दस भवनपति देवों के दस चैत्यवृक्षों का उल्लेख है । उसमें वायुकुमार के चैत्यवृक्ष का नाम 'वप्प' है। आदर्शों तथा मुद्रित पुस्तकों में 'वप्पा' 'वप्पो' 'वप्पे' ये शब्द मिलते हैं। किन्तु उपलब्ध कोषों में वृक्षवाची 'वप्र' शब्द नहीं मिलता। यहां 'वग्घ' [सं० व्याघ्र ] शब्द होना चाहिए था। पाइयसद्दमहण्णव में व्याघ्र शब्द के दो अर्थ किए हैं
१. लाल एरण्ड का वृक्ष । २. करंज का पेड़ ।
आप्टे की संस्कृत इंगलिश डिक्शनेरी में भी 'व्याघ्र' शब्द का अर्थ 'रक्त एरंड' किया है । अत: यहां 'वाघ' [ व्याघ्र ] शब्द ही उपयुक्त लगता है ।
२८. ( सू० ८३ )
बौद्ध परम्परा में तेरह प्रकार के सुख-युगलों की परिकल्पना की गई है। उन युगलों में एक को अधम और एक को
श्रेष्ठ माना है।
१. गृहस्थ सुख, प्रव्रज्या सुख ।
२. कामभोग सुख, अभिनिष्क्रमण सुख ।
३. लौकिक सुख, लोकोत्तर सुख ।
४. सास्रव सुख, अनास्रव सुख ।
५. भौतिक सुख, अभौतिक सुख ।
६. आर्य सुख, अनार्य सुख ।
७. शारीरिक सुख, चैतसिक सुख ।
८. प्रीति सुख, अप्रीति सुख ।
६. आस्वाद सुख, उपेक्षा सुख ।
१०. असमाधि सुख, समाधि सुख ।
११. प्रीति आलंबन सुख, अप्रीति आलंबन सुख । १२. आस्वाद आलंबन सुख, उपेक्षा आलंबन सुख । १३. रूप आलंबन सुख, अरूप आलंबन सुख ।
१. निशीथभाष्य गाथा ६५०७ :
घण्णंतरितुल्लो जिणो णायब्वो आतुरोवमो साहू । रोगा इव अवराहा, ओसहसरिसा य पच्छित्ता ॥
२. उत्तराध्ययन २५८।१ :
मोक्खमग्गगई तच्च, सुणेह जिणभासियं । चउकारण संजुत्तं, नाणदंसणलक्खणं ॥
३. तत्त्वार्थं १।१ : सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । ४. अंगुत्तरनिकाय, प्रथमभाग, पृष्ठ ८१-८३ ।
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स्थान १०: टि० २६-३१
२६. सन्तोष (सू० ८३)
इसका अर्थ है-अल्पेच्छता । वह आनन्दरूप होती है, इसलिए सुख है । संसार के सभी सुख संतोष-प्रसूत होते हैं।
अपने सामर्थ्य के अनुसार पुरुषार्थ करने के पश्चात् जो फलप्राप्ति होती है उस में तथा प्राप्त अवस्था में प्रसन्नचित्त रहना और सब प्रकार की तृष्णाओं को छोड़ देना संतोष है।
मनुस्मृति में संतोष को सुख का मूल और असंतोष को दुख का मूल माना है।
संतोष और तुष्टि में अन्तर है। संतोष चित्त की प्रसन्नता है और तुष्टि चित्त का आलस्य और प्रमाद आवरण। सांख्यकारिका में तुष्टि के नौ प्रकार बतलाए हैं । उनमें चार आध्यात्मिक और पांच बाह्य हैं।
'प्रकृति से आत्मा सर्वथा पृथक् है'-ऐसा समझकर भी जो साधक असद् उपदेश से सन्तुष्ट होकर आत्मा के श्रवण, मनन आदि द्वारा उसके विवेकज्ञान के लिए प्रयत्न नहीं करता, उसके चार आध्यात्मिक तुष्टियाँ होती हैं---
१. प्रकृति-तुष्टि--प्रकृति स्वयमेव विवेक उत्पन्न कराकर कैवल्य प्रदान करेगी, इस आशा से धारणा, ध्यान आदि का अभ्यास न करना, यह प्रकृतितुष्टि है।
२. उपादान-तुष्टि-विवेकख्याति संन्यास से उत्पन्न होती है। इसलिए ध्यान से संन्यास ग्रहण उत्तम है। यह उपादान-तुष्टि है । इसका दूसरा नाम 'सलिल' है।
३. काल-तुष्टि-फलोत्पत्ति के लिए काल की अपेक्षा होती है। प्रव्रज्या से भी तत्काल निर्वाण नहीं होता। काल के परिपाक से सिद्धि होती है, अत: उद्विग्ननता: से कोई लाभ नहीं है। यह काल-तुष्टि है।
४. भाग्य-तुष्टि ---विवेकज्ञान न प्रकृति से, न काल से और न प्रव्रज्या ग्रहण से उत्पन्न होता है । मुक्त होने में भाग्य ही हेतु है, अन्य नहीं-इस उपदेश से जो तुष्टि होती है, उसे भाग्यतुष्टि कहते हैं।
आत्मा से भिन्न प्रकृति, महान् अहंकार आदि को आत्मस्वरूप समझते हुए जीव को वैराग्य होने पर जो तुष्टियाँ होती हैं, वे बाह्य हैं । वे पांच प्रकार की हैं
१. पार-तुष्टि—'धनोपार्जन के उपाय दुःखद हैं'-इस विचार से विषयों के प्रति वैराग्य होना पार-तुष्टि है। २. सुपार-तुष्टि--'धन के रक्षण में महान् कष्ट होता है'-इस विचार से विषयों से उपरत होना सुपार-तुष्टि है। ३. पारापार-तुष्टि-धन भोग से नष्ट हो जाएगा'-इस विचार से विषयों से उपरत होना पारापार-तुष्टि है।
४. अनुत्तमाम्भ-तुष्टि-'विषयों के प्रति वासना भोग से वृद्धिंगत होती है और उनकी अप्राप्ति में कष्ट होता हैइस विचार से विषयों से उपरत होना अनुत्तमाम्भ-तुष्टि कहलाती है।
५. उत्तमाम्म-तुष्टि-'भूतों को पीड़ा दिए बिना विषयों का उपभोग नहीं हो सकता-इस विचार से हिसा से उपरत होना उत्तमाम्भ-तुष्टि है।
३०. (सू०८६)
देखें--३।४३८ का टिप्पण।
३१. (सू० ८६)
भगवान ने कहा-'आर्यो ! सत्य दस प्रकार का होता है
१. स्थानांगवृत्ति' पत्न ४६३ : संतोष:-अल्पेच्छता तत् सुखमेव
आनन्दानुरूपत्वात् संतोषस्य, उक्तं चआरोगसारियं माणसुत्तणं सच्चसारिओ धम्मो । विज्जा निच्छयसारा सुहाई सन्तोससराई ।।
२. मनुस्मृति ४११२ : संतोषमूलं हि सुखं, दुःखमूलं विपर्ययः । ३. सांख्यकारिका ५०, तत्त्वकौमुदीव्याख्या, पृष्ठ १४५-१४८ ।
आध्यात्मिकाश्चतस्रः प्रकृत्युपादानकालभाग्याख्याः । बाह्या विषयोपरमात् पञ्च च नवतुष्टयोभिमताः ॥
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स्थान १० : टि० ३१
१. जनपद सत्य २. सम्मत सत्य ३. स्थापना सत्य ४. नाम सत्य ५. रूप सत्य ६. प्रतीत्य सत्य ७. व्यवहार सत्य ८. भाव सत्य ६. योग सत्य १०. औपम्य सत्य।
१. आर्यों ! किसी जनपद के निवासी पानी को 'नीरु' (कन्नड़) कहते हैं और किसी जनपद के निवासी पानी को 'तण्णी' (तमिल) कहते हैं।
आर्यो ! नीरु और तण्णी के अर्थ दो नहीं है। केवल जनपद के भेद से ये शब्द दो हैं। पानी को नीरु और तण्णी कहना जनपद सत्य है।
२. आर्यो ! कमल और मेंढक-दोनों कीचड़ में उत्पन्न होते हैं, फिर भी कमल को पंकज कहा जाता है, मेंढक को नहीं कहा जाता।
आर्यों ! जिस अर्थ के लिए जो शब्द रूढ़ होता है वही उसके लिए प्रयुक्त होता है। आर्यों ! यह सम्मत सत्य है।
३. आर्यो ! एक वस्तु में दूसरी वस्तु का आरोपण किया जाता है। शतरंज के मोहरों को हाथी, ऊंट, वजीर आदि कहा जाता है । आर्यो! यह स्थापना सत्य है।
४, आर्यों ! किसी का नाम लक्ष्मीपति है और किसी का नाम अमरचन्द । लक्ष्मीपति को भीख मांगते और अमरचन्द को मरते देखा है।
आर्यो ! गुणविहीन होने पर भी किसी व्यक्ति या वस्तु को उस नाम से अभिहित किया जाता है। आर्यो ! यह नाम सत्य है।
५. आर्यो ! एक स्त्रीवेषधारी पुरुष को स्त्री, नट वेषधारी पुरुष को नट और साधु वेषधारी पुरुष को साधु कहा जाता है।
आर्यो ! किसी रूप विशेष के आधार पर व्यक्ति को वही मान लेना रूप सत्य है।
६. आर्यों ! अनामिका अंगुलि कनिष्टा की अपेक्षा से बड़ी है और वह मध्यमा की अपेक्षा से छोटी है। छोटा होना और बड़ा होना सापेक्ष है। पत्थर लोह से हल्का है और काठ से भारी है। हल्का होना और भारी होना सापेक्ष है। एक वस्तु की तुलना में छोटी-बड़ी या हल्की-भारी होती है। आर्यो ! यह प्रतीत्य सत्य है।
७. आर्यो ! कहा जाता है-पर्वत जलता है, मार्ग जाता है, गांव आ गया । परन्तु यथार्थ में ऐसा कहां होता है। आर्यो ! क्या पर्वत कभी जलता है ? क्या मार्ग चलता है ? क्या गांव एक स्थान से दूसरे स्थान पर आता है ?
आर्यों ऐसा नहीं होता। पर्वत पर रहा ईधन जलता है, मार्ग पर चलने वाला पथिक जाता है, गांव की ओर जाने वाला मनुष्य वहां पहुंच जाता है । आर्यों! यह व्यवहार सत्य है।
८. आर्यो ! प्रत्येक वस्तु में अनन्त पर्याय होते हैं। कुछ पर्याय व्यक्त होते हैं और शेष अव्यक्त। काल-मर्यादा के अनुसार व्यक्त पर्याय अव्यक्त हो जाते हैं और अव्यक्त पर्याय व्यक्त । वस्तु का प्रतिपादन व्यक्त पर्याय के आधार पर किया जाता है। दूध सफेद है । क्या उसमें दूसरे वर्ण नहीं हैं ? उसमें पांचों वर्ण हैं। किन्तु वे सब व्यक्त नहीं है। केवल श्वेत वर्ण व्यक्त है। इसलिए कहा जाता है कि दूध सफेद है । आर्यो ! यह भाव सत्य है।
6. आर्यो ! एक आदमी इधर से आ रहा है। दूसरा उसे पुकारता है-'दंडी' इधर आओ, और वह आ जाता है। ऐसा क्यों होता है ? उसके पास दंड है, इसलिए वह अपने आप को दंडी समझता है , दूसरे भी उसे दंडी समझते हैं आर्यो ! यह योग सत्य है।
१०. आर्यो ! कहा जाता है-आंखें कमल के समान हैं। आँखें विकस्वर हैं और कमल भी विकस्वर होता है। इस समान धर्म के आधार पर आंखों को कमल से उपमित किया गया है । आर्यो! यह औपम्य सत्य है।
तत्वार्थवातिक में दस प्रकार के सत्य-सदभावों के नाम और विवरण प्राप्त हैं। उनमें क्रमभेद, नामभेद और व्याख्या
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ठाणं (स्थान)
९८४
स्थान १० : टि० ३२
वह इस प्रकार है
स्थानांग
तत्वार्थवातिक
१. जनपद सत्य २. सम्मत सत्य ३. स्थापना सत्य ४. नाम सत्य ५. रूप सत्य ६. प्रतीत्य सत्य ७. व्यवहार सत्य ८. भाव सत्य ६. योग सत्य १०. औपम्य सत्य
नाम सत्य रूप सत्य स्थापना सत्य प्रतीत्य सत्य संवृति सत्य संयोजना सत्य जनपद सत्य देश सत्य भाव सत्य समय सत्य
तत्वार्थवार्तिक के अनुसार उनकी व्याख्या इस प्रकार है
१. नाम सत्य-किसी भी सचेतन या अचेतन वस्तु के गुणविहीन होने पर भी, व्यवहार के लिए उसकी वह संज्ञा करना।
२. रूप सत्य-वस्तु की अनुपस्थिति में भी रूप मात्र से उसका उल्लेख करना, जैसे--पुरुष के चित्र को देखकर उसमें चैतन्य गुण न होने पर भी उसे पुरुष शब्द से व्यवहृत करना।
३. स्थापना सत्य-मूल वस्तु के न होने पर भी किसी में उसका आरोपण करना। जैसे-शतरंज में हाथी, घोड़े, वजीर की कल्पना कर मोहरों को उन-उन नामों से बुलाना।
४. प्रतीत्य सत्य-आदि-अनादि औपशमिक आदि भावों की दृष्टि से कहा जाने वाला वचन ।
५. संवृति सत्य-लोक व्यवहार में प्रसिद्ध प्रयोग के अनुसार कहा जाने वाला वचन । जैसे—पृथ्वी, पानी आदि अनेक कारणों से उत्पन्न होने पर भी कमल को पंकज कहना।
६. संयोजना सत्य-धूप, उबटन आदि में तथा कमल, मकर, हंस, सर्वतोभद्र, क्रौंचव्यूह आदि में सचेतन, अचेतन द्रव्यों के भाव, विधि आकार आदि की योजना करने वाला वचन।
७. जनपद सत्य–आर्य और अनार्य रूप में विभक्त बत्तीस देशों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला वचन ।
८. देश सत्य-ग्राम, नगर, राज्य, गण, मन, जाति, कुल, आदि धर्मों के उपदेशक वचन ।
६. भाव सत्य-छद्मस्थता के कारण यथार्थ न जानते हुए भी संयती या श्रावक को सर्व धर्म पालन के लिए यह प्रासुक है' 'यह अप्रासुक है'—ऐसा बताने वाला वचन ।
१०. समय सत्य-आगमों में वर्णित पदार्थों का यथार्थ निरूपण करने वाला वचन।
३२. (सू०६०)
आर्यो ! झूठ बोलने के दस कारण हैं
१. तत्त्वार्थवार्तिक १।२०॥
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ori (स्थान)
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स्थान १० : टि० ३२
१. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ ५. प्रेम ६. द्व ेष ७. हास्य ८. भय ६. आख्यायिका १० उपघात । आर्यो ! कुछ मनुष्य क्रोध के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे कभी-कभी अपने मित्र को भी शत्रु बता देते हैं । ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! क्रोध के आवेश में उन्हें यह भान नहीं रहता कि यह मेरा मित्र है या शत्रु ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य मान के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे निर्धन होने पर भी अपने आपको धनवान् बता देते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! वे मान के आवेश में उद्धत होकर अपने को धनवान् बताते हैं ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य माया के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। एक नकटा यह कहते हुए घूम रहा है -- नाक कटालो, भगवान् का दर्शन हो जाएगा।' एक मद्य विक्रेता यह कहते हुए घूम रहा है— मद्यपान करो, सब चिन्ताओं से मुक्ति मिल जाएगी। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! माया के आवेश में मनुष्यों को यह भान नहीं रहता कि दूसरों को ठगना कितना बुरा होता है।
आर्यो ! कुछ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं । एक मनुष्य अल्पमूल्य वस्तु को बहुमूल्य बताता है । ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! लोभ के आवेश में वह भूल जाता है कि दूसरों के हित का विघटन करना कितना बड़ा पाप है।
आर्यो ! कुछ मनुष्य प्रेम के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे अपने व्यक्ति के समक्ष यह कह देते हैं- "मैं तो आपका दास हूं।" ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! प्रेम में व्यक्ति अंधा हो जाता है। उसे नहीं दीखता कि मैं किसके सामने क्या कह रहा हूं ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य द्वेष के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे कभी-कभी गुणवान् को निर्गुण बता देते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! द्वेष में व्यक्ति दूसरे को नीचा दिखाने में ही अपना गौरव समझता है।
आर्यो ! कुछ मनुष्य हास्य के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे कभी-कभी मजाक में एक दूसरे की चीज उठा लेते हैं और पूछने पर नकार जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! वे मन बहलाने के लिए ऐसा करते हैं ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य भय के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे यह सोचते हैं कि यदि मैं ऐसा करूंगा तो वह मुझे मार डालेगा। इस भय से वे सत्य नहीं बोलते। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! भय मनुष्य को असमंजस में डाल देता है ।
आर्यो कुछ मनुष्य आख्यायिका के माध्यम से झूठ बोलते हैं । ये आख्यायिका में अयथार्थ का गुंफन कर झूठ बोलते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! वे सरसता के सहारे असत् को सत् रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य उपघातकारक (प्राणी पीड़ाकारक) वचन बोलते हैं। वे चोर को चोर कहकर उसे पीड़ा पहुंचाने का यत्न करते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! दूसरों को पीड़ा देने की भावना जाग जाने पर वे ऐसा करते हैं ।
उमास्वाती ने असत् के प्रतिपादन को अनृत कहा है। '
अनृत के दो अंग होते हैं - विपरीत अर्थ का प्रतिपादन और प्राणी- पीडाकर अर्थ का प्रतिपादन । प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित मृषा के दस प्रकारों में प्रारम्भ के नौ प्रकार विपरीत अर्थ के प्रतिपादक हैं और दसवां प्रकार प्राणी पीडाकर अर्थ का प्रतिपादक है।
स्थानांग के वृत्तिकार ने अभ्याख्यान के संदर्भ में उपघात मिश्रित की व्याख्या की है। इसलिए उन्होंने अचोर को चोर कहना - इस अभ्याख्यान वचन को उपघात निश्रित मृषा माना है। हमने उपघात निश्रित की व्याख्या दशवै कालिक ७/११ के सन्दर्भ में की है । उसके अनुसार अचोर को चोर कहना उपघात निश्रित मृषा नहीं है, किन्तु चोर को चोर कहना उपघात निश्रित मृषा है।"
१. तत्त्वार्थ सूत्र ७ १४ : असदभिधानमनृतम् ।
२. तत्त्वार्थराजवार्तिक ७ १४ : असदिति पुनरुच्यमाने अप्रशस्तार्थं यत् तत्सर्वमनृतमुक्तं भवति । तेन विपरीतार्थस्य प्राणिपीडाकरस्य चानृतत्वमुपपन्नं भवति ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६५ उवघायनिस्सिए ति उपघातेप्राणिवधे निश्रितं - आश्रितं दशमं मृषा, अचौरेऽयमित्यभ्याख्यानवचनम् ।
४. दशवेकालिक ७ १२, १३ :
तहेव काणं काणे ति पंडगं पंडगे त्ति वा । वाहियं वा वि रोगि ति तेणं चोरे त्ति नो वए । एएणनेण बट्टेण परो जेहमई । आयार-भाव-दोसन्नू न तं भासेज्ज पन्नवं ॥
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ठाणं (स्थान)
३३ शस्त्र (सू० ३ )
वध या हिंसा के साधन को शस्त्र कहा जाता है। वह दो प्रकार का होता है-द्रव्य शस्त्र और भाव शस्त्र । प्रस्तुत सूत्र में दोनों प्रकार के शस्त्रों का संकलन है। इनमें प्रथम छह द्रव्य शस्त्र हैं, शेष चार भाव शस्त्र हैं—आन्तरिक शस्त्र हैं ।
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३४. (सू० १४ )
वाद का अर्थ है गुरु-शिष्य के बीच होने वाली ज्ञानवर्धक चर्चा अथवा वादी और प्रतिवादी के बीच जयलाभ के लिए होने वाला विवाद ।'
प्रस्तुत सूत्र में वादकाल में होने वाले दोषों का निरूपण है ।
१. तज्जातदोष - वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
(१) गुरु आदि के जाति, आचरण आदि विषयक दोष बतलाना ।
(२) वादकाल में प्रतिवादी से क्षुब्ध होकर मौन हो जाना।' अनुवाद द्वितीय अर्थानुसारी है। इसकी तुलना न्याय दर्शन सम्मत 'अननुभाषण' नामक निग्रहस्थान से की जा सकती है। तीन बार सभा के कहने पर भी वादी द्वारा विज्ञान तत्त्व का उच्चारण न करना 'अननुभाषण' नामक निग्रह स्थान है।"
२. मतिभंगदोष — इसकी तुलना 'अप्रतिभा' नामक निग्रह स्थान से की जा सकती है। प्रतिपक्षी के आक्षेप का उत्तर न सुझने पर वादी का मौन रह जाना अथवा भय, प्रमाद, विस्मृति या संकोचवश उत्तर न दे पाना 'अप्रतिभा' नामक निग्रहस्थान है।
३. प्रशास्तृदोष – सभानायक और सभ्य - ये प्रशास्ता कहलाते हैं। वे झुकाव या अपेक्षा के वश प्रतिवादी को विजयी बना देते हैं । प्रमेय की विस्मृति होने पर उसे याद दिला देते हैं । इस प्रकार के कार्य प्रशास्ता के लिए अनावरणीय होते हैं । इसलिए इन्हें प्रशास्तृदोष कहा जाता है।
४. परिहरणदोष - वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
(१) अपने दर्शन की मर्यादा या लोकरूढ़ि के अनुसार अनासेव्य का आसेवन नहीं करना ।
(२) वादी द्वारा उपन्यस्त हेतु का सम्यक् परिहार न करना । उदाहरण स्वरूप बौद्ध तार्किक ने पक्ष की स्थापना की
'शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृत है, जैसे घट । इस पर मीमांसक का परिहार यह है-तुम शब्द की अनित्यता सिद्ध करने के लिए घटगत कृतत्व को साधन बता रहे हो या शब्दगत कृतकत्व को ? यदि घटगत कृतकत्व को साधन बता रहे हो तो वह शब्द में नहीं है, इसलिए तुम्हारा हेतु असाधारण अनैकांतिक हैं। '
इस प्रकार का परिहरण सम्यक् परिहार नहीं है। यह (परिहरण दोष) मतानुज्ञा निग्रहस्थान से तुलनीय है । उसका अर्थ है – अपने पक्ष में लगाए गए दोष का समाधान किए बिना दूसरे पक्ष में उसी प्रकार के दोष का आरोपण करना मतानुज्ञा निग्रह स्थान है। "
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६७ ।
२. वही, वृत्तिपत्र ४६७ : तस्य गुर्वादिजति जातिः प्रकारो वा जन्ममर्मकर्मादिलक्षणः तज्जातं तदेव दूषणमितिकृत्वा दोषस्तज्जातदोषः तथाविधकुलादिनां दूषणमित्यर्थः अथवा तस्मात्प्रतिवाद्यादेः सकाशाज्जातः क्षोभान्मुखस्तम्भादि लक्षणो दोषस्तज्जातदोषः ।
३. न्यायदर्शन ५।२।१७ विज्ञातस्य परिषदातिरभिहितस्याप्यनुच्चारणमननुभाषणम् ।
४. न्यायदर्शन ५।२।१६ :
स्थान १० : टि० ३३-३४
उत्तरस्याऽप्रतिपत्तिरप्रतिभा ।
५. स्थानांगवृत्ति पत्र ४६७ :
परिहरणं- आसेवा स्वदर्शनस्थित्या लोकरूड्या वा अनासेव्यस्य तदेव दोषः परिहरणदोषः, अथवा परिहरणंअनासेवनं सभारूढ्या सेव्यस्य वस्तुनस्तदेव तस्माद्वा दोष: परिहरणदोष, अथवा वादिनोपन्यस्तस्य दूषणस्य असम्यक् - परिहारो जात्युत्तरं परिहरण दोष इति ।
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६७
७. न्यायदर्शन ५ २ २१ स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षदोषप्रसंग
मतानुज्ञा ।
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ठाणं (स्थान)
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५. लक्षणदोष
अव्याप्त - जो लक्षण लक्ष्य के एक देश में मिलता है, वह अव्याप्त लक्षणदोष है। जैसे पशु का लक्षण विषाण । अतिव्याप्त—जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में मिलता है वह अतिव्याप्त लक्षणदोष है। जैसे - वायु का
लक्षण गतिशीलता ।
असंभव - जो लक्षण अपने लक्ष्य में अंशतः भी नहीं मिलता, वह असंभव लक्षण-दोष है। जैसे-- पुद्गल का लक्षण
चैतन्य ।
६. कारण दोष – मुक्त जीव का सुख निरुपम होता है - इस वाक्य में सर्वविदित साध्य और साधन धर्म से अनुगत दृष्टान्त नहीं है, इसलिए यह उपपत्ति मान है। परोक्ष अर्थ का निर्णय करने के लिए प्रयुक्त उपपत्ति को कारण कहाजाता है। ७. हेतुदोष -
असिद्ध - अज्ञान, संदेह या विपर्यय के कारण जिस हेतु के स्वरूप की प्रतीति नहीं होती, वह असिद्ध हेतुदोष है । जैसे- शब्द अनित्य है, क्योंकि वह चाक्षुष है।
विरुद्ध-विवक्षित साध्य से विपरीत पक्ष में व्याप्त हेतु विरुद्ध हेतु दोष है । जैसे शब्द नित्य है, क्योंकि वह
स्थान १० : टि० ३५
कृतक है।
अनैकान्तिक— जो हेतु साध्य के अतिरिक्त दूसरे साध्य में भी घटित होता है, वह अनैकान्तिक हेतु दोष है । जसे यह असर्वज्ञ है, क्योंकि बोलता है ।'
८. संक्रमण दोष – प्रस्तुत प्रमेय को छोड़कर अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना, परमत द्वारा असम्मत तत्त्व को उसका मान्य तत्व बतलाना या प्रतिवादी के पक्ष को स्वीकार करना ।
यह हेत्वन्तर और अर्थान्तर निग्रहस्थान से तुलनीय है। हेत्वन्तर का अर्थ है-अपने पहले हेतु को छोड़कर दूसरे हेतु को उपस्थित करना । अथन्तिर का अर्थ है - प्रस्तुत अर्थ से असम्बद्ध अर्थ का प्रतिपादन करना ।
६. निग्रह दोष ---इसका अनुवाद वृत्ति के आधार पर किया गया है। न्याय दर्शन के अभिप्राय से भी इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है। वादी के निग्रहस्थान में न पड़ने पर भी प्रतिवादी द्वारा उसको निग्रहस्थान में पड़ा हुआ कहना निग्रहदोष है । न्यायदर्शन की भाषा में इसे 'निरनुयोज्यानुयोग' कहा जाता है। *
--पक्ष के दोष पाँच हैं
१०. वस्तुदोष -
१. प्रत्यक्षनिराकृत - शब्द अश्रावण है (श्रवण का विषय नहीं है) । २. अनुमान निराकृत - शन्द नित्य है ।
३. प्रतीति निराकृत -- शशी चंद्र नहीं है। ४. स्त्रवचन निराकृत मैं कहता हूं वह मिथ्या है।
५. लोकरूढिनिराकृत मनुष्य की खोपड़ी पवित्र है ।
१. भिक्षुन्यायकणिका १।७, ८, ९ २. भिक्षुन्यायकणिका ३।१७,१८,१२ ।
३. न्यायदर्शन ५/२/६, ७ ।
३५. ( सूत्र ६५ )
जिस धर्म के द्वारा अभिन्नता का बोध होता है उसे सामान्य और जिससे भिन्नता का बोध होता है उसे विशेष कहा जाता है । सामान्य संग्राहक और विशेष विभाजक होता है। प्रस्तुत सूत्र में दस विशेष संगृहीत हैं। मूल पाठ में दस विशेषों
नाम उल्लिखित नहीं हैं। उनका प्रतिपादन एक संग्रह गाथा के द्वारा किया गया है। वह गाथा कहाँ से संगृहीत है, यह अभी ज्ञात नहीं हो सका है। इसलिए इसके संक्षिप्त नामों का ठीक-ठीक अर्थ लगाना बड़ा जटिल है । वृत्तिकार ने इनके अर्थ किए हैं, किन्तु स्थान-स्थान पर प्रदर्शित विकल्पों से ज्ञात होता है कि उनके सामने इनकी निर्णायक अर्थ - परम्परा नहीं
४. वही, ५२।२३ : अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०:टि०३६
थी। उदाहरण के लिए हम 'अत्तणा उवणीते य' इस पद को लेते हैं। वृत्तिकार ने दोनों में शेष का अध्याहार कर इनकी व्याख्या की है। किन्तु अन्य स्थलों के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि 'अत्तणा उवणीते' (सं० आत्मना उपनीतं) यह विशेष का एक ही प्रकार होना चाहिए। चौथे स्थान (सूत्र ५०२) से आहरणतद्दोष (साध्यविकल उदाहरण) का तीसरा प्रकार 'अत्तोवणीत' (सं० आत्मोपनीत) है । परमत में दोष दिखाने के लिए दृष्टान्त प्रस्तुत किया जाए और उससे स्वमत दूषित हो जाए, उसे 'आत्मोपनीत' नामक आहरणतद्दोष कहा जाता है।
ऐसा करने पर विशेष की संख्या नौ रह जाती है। इस संग्रहगाथा के चतुर्थ चरण में विसेसे' और 'ते' ये दो शन्द हैं। वृत्तिकार ने इस विशेष को भावनावाक्य माना है और 'ते' को विशेष का सर्वनाम।' उन्होंने 'अत्तणा' और 'उवणीत' को पृथक् माना इसलिए उन्हें ऐसा करना पड़ा। यदि इन्हें दो नहीं माना जाता तो विशेष का दसवां प्रकार 'विशेष' होता। इसका अर्थ विशेष नामक वस्तु-धर्म किया जा सकता है । वस्तु में दो प्रकार के धर्म होते हैं-सामान्य और विशेष । विशेष के दो प्रकार हैं-गुण और पर्याय ।
___ इसी प्रकार प्रत्युत्पन्न का वृत्तिगत अर्थ भी विचारणीय है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-वस्तु को केवल वार्तमानिक या प्रत्युत्पन्न मानने पर कृतकर्म के प्रणाश और अकृत कर्म के भोग की आपत्ति होना । गाथा में पड़पन्न' शब्द पडुप्पन्नविणासी' का संक्षिप्त रूप हो सकता है। 'पडुष्पन्नविणासी' आहारण का एक प्रकार है। उसका अर्थ है-उत्पन्न दूषण का परिहार करने के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला दृष्टान्त ।
प्रस्तुत सूत्र में विशेष का वर्गीकरण है। विशेष सामान्य के प्रतिपक्ष में होता है। इससे यह फलित होता है कि इन दसों विशेषों के प्रतिपक्ष में दस सामान्य होने चाहिए जैसेवस्तुदोषविशेष
वस्तुदोषसामान्य तज्जातदोषविशेष
तज्जातदोषसामान्य दोषविशेष
दोषसामान्य एकाथिकविशेष
एकाथिक सामान्य आदि-आदि। सूत्रकार के सामने निर्दिष्ट वर्गीकरण के सामान्य और विशेष क्या रहे हैं, इसे जानने के साधन सुलभ नहीं हैं। फिर भी यह अनुसंधेय अवश्य है । वृत्तिकार ने दोष विशेष के अन्तर्गत पूर्व सूत्र निर्दिष्ट मतिभंग, प्रशास्तृ, परिहरण, स्वलक्षण, कारण, हेतु, संक्रमण, निग्रह आदि दोषों का संग्रह किया है। उनके अनुसार प्रस्तुत सूत्र में ये विशेष की कोटि में आते हैं।
एकाथिक विशेष की व्याख्या समभिरूढ नय की दृष्टि से की जा सकती है । साधारणतया शब्दकोषों में एक वस्तु के अनेक नामों को एकार्थक या पर्यायवाची माना जाता है। किन्तु समभिरूढ नय की दृष्टि से शब्द एकार्थक नहीं होते। वह निरुक्ति की भिन्नता के आधार पर प्रत्येक शब्द का स्वतंत्र अर्थ स्वीकार करता है। जैसे—भिक्षा करने वाला भिक्ष, मौन करने वाला वाचंयम, इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला दान्त।
अधिक दोष विशेष न्यायदर्शन के 'अधिक' नामक निग्रहस्थान से तुलनीय है। ३६. (सू० ९६)
१. चंकार अनुयोग-चकार शब्द के अनेक अर्थ हैं
(३) समाहार-संहति, एक ही तरह हो जाना। (२) इतरेतरयोग-मिलित व्यक्तियों या वस्तुओं का सम्बन्ध । (३) समुच्चय-शब्दों या वाक्यों का योग ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६६ :
अत्तणत्ति आत्मना कृतमिति शेषः ।
उपनीतं प्रापितं परेणेति शेषः ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६६ : चकारयोविशेषशब्दस्य च प्रयोगो
भावनावाक्ये दर्शितः ।
३. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार ५१६ : विशेषोऽपि द्विरूपो गुणः
पर्यायश्च । ४. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार ७१३६ : पर्यायशब्देषु निरुक्ति
भेदेन भिन्नमर्थमभिरोहन समभिरूढः । ५. न्यायदर्शन ५२।१३ 'हेतूदाहरणाधिकमधिकम् ।
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ठाणं (स्थान)
६८
(४) अन्वाचय - मुख्य काम या विषय के साथ गौण काम या विषय जोड़ना ।
(५) अवधारण- निश्चय ।
(६) पादपूरण - पदपूर्ति ।
जैसे -' इत्थियो समणाणि य' २. मंकार अनुयोग - जेणामेव से सिद्ध नहीं है। उसके अनुसार इसका रूप 'जेणेव' 'तेणेव' होता है।
३. पिंकार अनुयोग ( अपि' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे—सम्भावना, निवृत्ति, अपेक्षा, समुच्चय, गर्हा, शिष्यामर्षण - विचार, अलंकार तथा प्रश्न । एवंपि एंगे आसासे' - यहाँ 'अपि का प्रयोग, ऐसे भी' और, अन्यथा भी' -- इन दो प्रकारान्तों का समुच्चय करता है।
४. सेयंकार अनुयोग - ' से ' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे- अथ, वह, उसका आदि। ' से भिक्खु' – यहाँ से का अर्थ
अथ है।
स्थान १० : टि० ३६
यहाँ 'च' शब्द समुच्चय के अर्थ में प्रयुक्त है।
तेणामेव यहाँ 'मकार' का प्रयोग आगमिक है, अलाक्षणिक है- प्राकृत व्याकरण
'न से चाइति वुच्चई' - यहाँ से का अर्थ वह (वे ) है ।
अथवा 'सेय' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे—श्रेयस कल्याण ।
एष्यत्काल- भविष्यत काल आदि ।
'सेयं मे अहिज्जिकं अज्झयणं' - यहाँ 'सेय' शब्द 'श्रेयस' के अर्थ में प्रयुक्त है।
'सेय काले अकम्मं वावि भवइ' - यहाँ 'सेय' शब्द भविष्यत काल का द्योतक है।
५. सायंकार अनुयोग - 'सायं' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे -- सत्य, सद्भाव, प्रश्न आदि |
६. एकत्व अनुयोग
'नाणं च दंसणं चेव, चरिते य तवो तहा ।
एस मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदसिहि । उत्तरा ||२८|२
यहाँ ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप के समुदितरूप को ही मोक्ष मार्ग कहा है। इसलिए बहुतों के लिए भी 'मग्ग' यह एकवचन का प्रयोग है।
७. पृथक्त्व अनुयोग - जैसे - धम्मत्थिकाये, धम्पत्थिकायदे से, धम्मत्थिकायप्पदेसा
यहाँ — धम्मत्थिकायप्पदेसा — इसमें दो के लिए बहुवचन नहीं है किन्तु धर्मास्तिकाय के प्रश्नों का असंख्यत्व बतलाने
के लिए है ।
८. संयूथ अनुयोग — सम्मत्तदंसणसुद्ध' इस समासान्त पद का विग्रह अनेक प्रकार से किया जा सकता है, जैसे -
(१) सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध (तृतीया )
(२) सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध ( चतुर्थी)
(३) सम्यग्दर्शन से शुद्ध (पंचमी)
६. संक्रामित अनुयोग -- जैसे - 'साहूणं वंदणेणं नासति पावं असंक्रिया भावा' साधु को वंदना करने से पाप का नाश होता है और साधु के पास रहने से भाव अशंकित होते हैं । यहाँ वंदना के प्रसंग में 'साहूणं' वष्ठी विभक्ति है। उसका भाव अशंकित होने के सम्बन्ध में पंचमी विभक्ति के रूप में संक्रमण कर लेना चाहिए।
वचन-संक्रमण --- जैसे - अच्छंदा जे न भुंजति, न से चाइत्ति वुच्चई' – यहाँ से चाई' यह बहुवचन के स्थान में एक
वचन है ।
१०. भिन्न अनुयोग - जैसे - तिविहं तिविहेणं' - यह संग्रह वाक्य है। इसमें (२) मणेणं वायाए कायेणं (२) न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजागामि- इन दो खंडों का संग्रह किया गया है। द्वितीय खंड 'न करेमि' आदि तीन वाक्यों में 'तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है और प्रथम खंड 'मणेणं' आदि तीन वाक्यांशों में 'तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है। यहाँ 'न करेमि' आदि बाद में हैं और 'मणेणं' आदि पहले यह क्रम भेद है।
कालभेद - जैसे 'सक्के देविदे देवराया वंदति नम॑सति' - यहाँ अतीत के अर्थ में वर्तमान की क्रिया का प्रयोग है।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० ३७
वृत्तिकार ने लिखा है कि १० ६४, ५५, ६६ - - ये तीन सूत्र अत्यन्त गम्भीर होने के कारण दूसरे प्रकार से भी विमर्शनीय हैं। यह दूसरा प्रकार क्या हो सकता है यह अन्वेषणीय है । '
३७. ( सू० ६७ )
भारतीय संस्कृति में दान की परम्परा बहुत प्राचीन है। दान का अर्थ है - देना । इस देने की पृष्ठभूमि में अनेक प्रेरणाएं काम करती रही हैं। वे प्रेरणाएं एक जैसी नहीं हैं। कुछ व्यक्ति दूसरों की दीन-दशा से द्रवित होकह दान देते हैं, भय से प्रेरित होकर दान देते हैं और कुछ अपनी ख्याति के लिए दान देते हैं ।
प्रस्तुत सूत्रगत दस दानों का निरूपण तत्कालीन समाज में प्रचलित प्रेरणाओं का इतिहास है ।
वाचकमुख्य उमास्वाति ने उनकी व्याख्या इस प्रकार की है।
१. अनुकम्पादान -
'कृपणेऽनाथदरिद्रे व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते । यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पा तद्भवेद्दानम् ॥
-- कृपण, अनाथ, दरिद्र, दुःखी, रोगी और शोकग्रस्त व्यक्ति पर करुणा लाकर जो दान दिया जाता है, वह अनुकम्पा दान है।
२. संग्रहृदान
'अभ्युदये व्यसने वा यत्किञ्चिद्दीयते सहायार्थम् ।
तत् संग्रहतोऽभिमतं मुनिभिर्दानं न मोक्षाय ||
किसी भी व्यक्ति को उसके अभ्युदयकाल या कष्टदशा में सहायता देने के लिए जो दान दिया जाता है, वह संग्रह
दान है।
३. भयदान
'राजा रक्ष पुरोहितमधु मुखमावल्ल दण्डपाशिषु च ।
यद्दीयते भयार्थात् तद्भयदानं बुधैर्ज्ञेयम् ॥'
- जो दान राजा, आरक्षक, पुरोहित, मधुमुख, चुगलखोर और कोतवाल आदि के भय से दिया जाता है, वह भय -
दान है ।
४. कारुण्यदान — कारुण्य का अर्थ शोक है। अपने प्रियजन का वियोग होने पर उसके उपकरण - वस्त्र खटिया, आदि दान में देते हैं। इसके पीछे एक लौकिक मान्यता है कि उसके उपकरण दान में देने पर वह जन्मान्तर में सुखी होता है। इस प्रकार का दान कारुण्यदान कहलाता है। वास्तव में यह कारुण्यजन्य ( शोकजन्य ) दान है। फिर भी कार्यकारण का अभेद मानकर इसकी संज्ञा कारुण्यदान की गई है।
५. लज्जादान -
"अभ्यर्थितः परेण तु यद्दानं जनसमूहमध्यगतः । परचित्तरक्षणार्थं लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ।।”
जनसमूह के बीच कोई किसी से याचना करता है तब बह दाता दूसरे की बात रखने के लिए दान देता है, यह लज्जादान है।
६. गौरवदान -
'नट्टत्तंमुष्टिकेभ्यो दानं संबंधिबंधुमितेभ्यः । यद्दीयते यशोर्थं गर्वेण तु तद् भवेद्दानम् ॥'
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७० इदं च दोषादि सूत्रत्रयमन्यथापि विमर्शनीयं गम्भीरत्वादस्येति ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० ३८
दान अपने यश के लिए नट, नृत्यकार, मुक्केबाजों तथा अपने सम्बन्धि, बन्धु और मित्रों को दिया जाता है, वह
गौरव दान है ।
७. अधर्मदान
'हिसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः । यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय ।।'
जो व्यक्ति हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और संग्रह में आसक्त हैं, उन्हें जो दान दिया जाता है, वह अधर्म दान है। ८. धर्मदान
'समतृणमणिमुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः ।
अक्षयमतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्माय ॥ '
जो तृण, मणि और मुक्ता में समभाव वाले हैं, जो सुपात हैं, उन्हें दिया जाने वाला दान धर्मदान है । यह दान अक्षय है, अतुल है और अनन्त है ।
६. करिष्यतिदान—भविष्य में यह मेरा उपकार करेगा, इस बुद्धि से किया जाने वाला दान करिष्यतिदान है। १०. कृतमिति दान -
'शतशः कृतोपकारो दत्तं च सहस्रशो ममानेन ।
अहमपि ददामि किञ्चित् प्रत्युपकाराय तद्दानम् 12'
‘इसने मेरा सैंकड़ों बार उपकार किया है और इसने मुझे हजारों बार दिया है। मैं भी इसका कुछ प्रत्युपकार करूं ।' इस भावना से दिया जाने वाला दान कृतमिति दान है ।
३८. ( सू० १८ )
विग्रहगति — यहाँ वृत्तिकार ने इसका अर्थ - आकाश विभाग का अतिक्रमण कर होने वाली गति - किया है।
भगवती में एक सामयिक, द्वि-सामयिक, त्रि-सामयिक और चनुःसामयिक विग्रहगति का उल्लेख मिलता है।' एकसामयिक विग्रहगति में जो विग्रह शब्द है उसका अर्थ वक्र या घुमाव नहीं है । वहाँ बताया है कि एक सामयिक विग्रहगति से वही जीव उत्पन्न होता है जिसका उत्पत्ति-स्थान ऋजु आयात श्रेणी में होता है । *
ऋजु श्रेणी में उत्पन्न होने वाले की गति ऋजु होती है । उसमें कोई घुमाव नहीं होता । तत्वार्थ टीका में इस विग्रह का अर्थ अवच्छेद या विराम किया गया है।"
प्रथम चार गतियों में उत्पन्न होने वाले जीव ऋजु और वक्र- इन दोनों गतियों से गमन करते हैं । वृत्तिकार का यह आशय है कि प्रत्येक गति के दूसरे पद में 'विग्रह' का प्रयोग है, इसलिए प्रथम पद की व्याख्या ऋजु गति के आधार पर की जानी चाहिए ।
सिद्धगति में उत्पन्न होने वाले जीव केवल ऋजु गति से ही गमन करते हैं। उनके विग्रहगति नहीं होती । फलत: 'सिद्धि विग्गगति' यह दसवां पद ही नहीं बनता । वृत्तिकार ने इसका अर्थ - सिद्धि अविग्गहगती' इस पाठ के आधार पर
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७०, ४७१ ।
२. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७१ : विग्रहान् क्षेत्र विभागान् अतिक्रम्य
गतिः गमनम् ।
३. भगवती ३४५२: गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा ।
४. भगवती ३४ | ३ उज्जुआ पाए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइणं विग्गणं उववज्जेज्जा ।
५. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र २२६, वृत्ति पत्र १८३, १८४ : एक समयेन
वा विग्रहेणोत्पद्येतेति विग्रहशब्दोऽतावच्छेदवचनो न वत्रताभिधायीत्यतोऽयमर्थः - एक समयेन वाऽवच्छेदेन विरामेण । कस्यावच्छेदेनेति चेत् ? सामर्थ्याद् गतेरेव, एकसमय परिणामगतिकालोत्तरभाविनाऽवच्छेदेनोत्पद्येत ।
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स्थान १० : टि० ३६ किया है । इस अर्थ को स्वीकार करने पर सिद्धि गति के दोनों पदों का एक ही अर्थ हो जाता है। इस समस्या का समाधान हमें भगवती सूत्र के उक्त पाठ से ही मिल सकता है। वहाँ विग्रह शब्द ऋजु और विग्रह गति वाली परम्परा से सम्बन्धित नहीं है। वह उस परम्परा से सम्बन्धित है जिसमें पारलौकिक गति के लिए केवल विग्रह शब्द ही प्रयुक्त होता है। जहाँ ऋज और विग्रह-ये दोनों गतियाँ विवक्षित हैं, वहाँ एक-समय की गति को ऋजुगति और द्विसमय आदि की गति को वक्रगति माना जाता है। इस परम्परा में एक सामयिक गति को भी विग्रह गति माना गया है।
उक्त अर्थ-परम्परा को मान्य करने पर नरकगति का अर्थ नरक नामक पर्याय और नरकविग्रहगति का अर्थ नरक में उत्पन्न होने के लिए होनेवाली गति-होगा। शेष सभी गतियों की अर्थ-योजना इसी प्रकार करणीय है।
३६. (सू० १००)
प्रस्तुत सूत्र में गणित के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं
१. परिकर्म-यह गणित की एक सामान्य प्रणाली है। भारतीय प्रणाली में मौलिक परिकर्म आठ माने जाते हैं(१) संकलन [जोड़ ] (२) व्यवकलन [बाकी], (३) गुणन [ गुणन करना], (४) भाग [भाग करना], (५) वर्ग [वर्ग करना] (६) वर्गभूल [वर्गमूल निकालना] (७) घन [घन करना] (८) घनमूल [घनमूल निकालना] । परन्तु इन परिकर्मों में से अधिकांश का वर्णन सिद्धान्त ग्रन्थों में नहीं मिलता।
ब्रह्मगुप्त के अनुसार पाटी गणित में बीस परिकर्म हैं--(१) संकलित (२) व्यवकलित अथवा व्युत्कलिक (३) गुणन (४) भागहर (५) वर्ग (६) वर्गमूल (७) घन (८) घनमूल (६-१३) पांच जातियां' (अर्थात् पांच प्रकार के भिन्नों को सरल करने के नियम) (१४) त्रैराशिक (१५) व्यस्तवैराशिक (१६) पंचराशिक (१७) सप्तराशिक (१८) नवराशिक (१६) एकदसराशिक (२०) भाण्ड-प्रति-भाण्ड' ।
प्राचीन काल से ही हिन्दू गणितज्ञ इस बात को मानते रहे हैं कि गणित के सब परिकर्म मूलतः दो परिकर्मों-संकलित और व्यवकलित--पर आश्रित हैं । द्विगुणीकरण और अर्धीकरण के परिकर्म जिन्हें मिस्र, यूनान और अरब वालों ने मौलिक माना हैं। ये परिकर्म हिन्दू ग्रन्थों में नहीं मिलते। ये परिकम उन लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण थे जो दशमलव पद्धति से अनभिज्ञ थे।
२. व्यवहार- ब्रह्मदत्त के अनुसार पाटीगणित में आठ व्यवहार हैं
(१) मिश्रक-व्यवहार (२) श्रेढी-व्यवहार (३) क्षेत्र-व्यवहार (४) खात-व्यवहार (५) चिति-व्यवहार (६) क्राकचिक व्यवहार (७) राशि-व्यवहार (८) छाया-व्यवहार।।
पाटीगणित-यह दो शब्दों से मिलकर बना है-(१) पाटी और (२) गणित । अतएव इसका अर्थ है । वह गणित जिसको करने में पाटी की आवश्यकता पड़ती है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्ततक कागज की कमी के कारण प्रायः पाटी का ही प्रयोग होता था और आज भी गांवों में इसकी अधिकता देखी जाती है। लोगों की धारणा है कि यह शब्द भारतवर्ष के संस्कृतेतर साहित्य से निकलता है, जो कि उत्तरी भारतवर्ष की एक प्रान्तीय भाषा थी। 'लिखने की पाटी' के प्राचीनतम संस्कृत पर्याय 'पलक' और 'पट्ट' हैं, न कि पाटी।' 'पाटी', शब्द का प्रयोग संस्कृत साहित्य में प्रायः ५वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। गणित-कर्म को कभी-कभी धूली कर्म भी कहते थे, क्योंकि पाटी पर धूल बिछा कर अंक लिखे जाते थे। बाद के कुछ लेखकों ने 'पाटी गणित' के अर्थ में व्यक्त गणित' का प्रयोग किया है, जिसमें कि बीजगणित से, जिसे वे अव्यक्त गणित कहते थे पृथक् समझा जाए। जब संस्कृत ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद हुआ तब पाटीगणित और धूली कर्म शब्दों का भी अरबी में अनुवाद कर लिया गया। अरबी के संगत शब्द क्रमशः 'इल्म-हिसाब-अलतख्त' और 'हिसाब-अलगुबार है।
१. पांच जातियां ये हैं-१. भाग जाति, २. प्रभाग जाति,
३. भागानुबन्ध जाति, ४. भागापवाद जाति, ५. भाग-भाग
जाति । २. बाह्यस्फुटसिद्धान्त, अध्याय १२, श्लोक १।
३. हिंदून्गणित, पृष्ठ ११८ । ४. बाह्यस्फुटसिद्धान्त, अध्याय १२, श्लोक १ । ५. अमेरिकन मैथेमेटिकल मंथली, जिल्द ३५, पृष्ठ ५२६ । ६. हिन्दूगणितशास्त्र का इतिहास भाग १ : पृष्ठ ११७, ११६,
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स्थान १० : टि० ३६ पाटीगणित के कुछ उल्लेखनीय ग्रन्थ - (१) वक्षाली हस्तलिपि ( लगभग ३०० ई० ), ( २ ) श्रीधरकृत पाटी गणित और त्रिशतिका (लगभग ७५० ई०), (३) गणित सार संग्रह (लगभग ८५० ई०), (४) गणित तिलक (१०३६ ई० ), (५) लीलावती ( ११५० ई०) (६) गणितकौमुदी (१३५६ ई० ) और मुनिश्वर कृत पाटीसार ( १६५८ ई० ) – इन ग्रन्थों में उपर्युक्त बीस परिकर्मों और आठ व्यवहारों का वर्णन है। सूत्रों के साथ-साथ अपने प्रयोग को समझाने के लिए उदाहरण भी दिए गए हैं - भास्कर द्वितीय ने लिखा है कि लल्ल ने पाटीगणित पर एक अलग ग्रन्थ लिखा है ।
यहां श्रेणी व्यवहार का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। सीढ़ी की तरह गणित होने से इसे सेढी व्यवहार या श्रेणी-व्यवहार कहते हैं। जैसे - एक व्यक्ति किसी दूसरे को चार रुपये देता है, दूसरे दिन पांच रुपये अधिक, तीसरे दिन उससे पांच रुपये अधिक । इस प्रकार पन्द्रह दिन तक वह देता है। तो कुल कितने रुपये दिये ?
प्रथम दिन देता है उसे 'आदि घन' कहते हैं। प्रतिदिन जितने रुपये बढ़ाता है उसे 'चय' कहते हैं। जितने दिनों तक देता है उसे 'गच्छ' कहते हैं। कुल धन को श्रेणी-व्यवहार या संवर्धन कहते हैं । अन्तिम दिन जितना देता है उसे 'अन्त्यधन' कहते है । मध्य में जितना देता है उसे 'मध्यधन' कहते हैं ।
विधि – जैसे - गच्छ ३५ हैं । इनमें एक घटाया १५- १ = १४ रहे। आये। इसमें आदि धन मिलाया ७० + ४ = ७४ । यह अन्त्य धन हुआ । ७४ धन हुआ।
३६ × १५ गच्छ=५८५ संवर्धन हुआ ।
इसी प्रकार विजातीय अंक एक से नौ या उससे अधिक संख्या की जोड़, उस जोड़ की जोड़, वर्गफल और घनफल की जोड़, इसी गणित के विषय हैं।
३. रज्जु - इसे क्षेत्र - गणित कहते हैं। इससे तालाब की गहराई, वृक्ष की ऊंचाई आदि नापी जाती है।
भुज, कोटि, कर्ण, जात्यतिस्र, व्यास, वृत्तक्षेत्र और परिधि आदि इसके अंग हैं ।
४. राशि – इसे राशि व्यवहार कहते हैं। पाटीगणित में आए हुए आठ व्यवहारों में यह एक है । इससे अन्त की ढेरी की परिधि से उसका 'घनहस्तफल' निकाला जाता है ।
अन्न के ढेर में बीच की ऊंचाई को वेध कहते हैं। मोटे अन्न चना आदि में परिधि का १/१० भाग वेध होता है । छोटे अन्न में परिधि का १/११ भाग वेध होता है । शूर धान्य में परिधि का १ / २ भाग वेध होता है। परिधि का १/६ करके उसका वर्ग करने के बाद परिधि से गुणन करने से घनहस्तफल निकलता है । जैसे - एक स्थान पर मोटे अन्न की परिधि ६० हाथ की है । उसका घनहस्तफल क्या होगा ?
इसको चय से १४४ ५ गुणा किया- ७० ४ आदि धन = ७८ का आधा ३६ मध्य
६० ÷ १० = ६ बेध हुआ ।
परिधि ६० : ६ = १० इसका वर्ग १०×१० = १०० हुआ। १०० x ६ वेध = ६०० घनहस्तफल होगा ।
५. कलासवर्ण – जो संख्या पूर्ण न हो, अंशों में हो - उसे समान करना 'कलासवर्ण' कहलाता है। इसे समच्छेदीकरण,
सवर्णन और समच्छेदविधि भी कहते हैं ( हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास, पृष्ठ १७९) । संख्या के ऊपर के भाग को 'अंश' और नीचे के भाग को 'हर' कहते हैं ।
जैसे - १/२ और १/३ है । इसका अर्थ कलासवर्ण ३/६२ / ६ होगा ।
६. यावत् तावत् - इसे गुणकार भी कहते हैं'।
पहले जो कोई संख्या सोची जाती है उसे गच्छ कहते हैं। इच्छानुसार गुणन करने वाली संख्या को वाञ्छ या इष्टसंख्या कहते हैं ।
गच्छ संख्या को इष्ट-संख्या से गुणन करते हैं । उसमें फिर इष्ट मिलाते हैं । उस संख्या को पुनः गच्छ से गुणा करते हैं । तदनन्तर गुणनफल में इष्ट के दुगुने का भाग देने पर गच्छ का योग आता है। इस प्रक्रिया को 'यावत् तावत्' कहते हैं
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७१: जावं तावति वा गुणकारोति वा एगट्ठा ।
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स्थान १० : टि० ४०
जैसे – कल्पना करो कि इष्ट १६ है, इसको इष्ट १० से गुणा किया - १६ १०- १६० । इसमें पुनः इष्ट १० मिलाया (१६० + १० = १७०) । इसको गच्छ से गुणा किया ( १७० X १६ = २७२० ) इसमें इष्ट की दुगुनी संख्या से भाग दिया २७२० ÷ २०=१३६, यह गच्छ का योगफल है। इस वर्ग को पाटी गणित भी कहा जाता है' ।
७. वर्ग – वर्ग शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'पंक्ति' अथवा 'समुदाय' । परन्तु गणित में इसका अर्थ 'वर्गघात' तथा ‘वर्गक्षेत्त्र' अथवा उसका क्षेत्रफल होता है । पूर्ववर्ती आचार्यों ने इसकी व्यापक परिभाषा करते हुए लिखा है कि 'समचतुरस्र' (अर्थात् वर्गाकार क्षेत्र) और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है । दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग है । परन्तु परवर्ती लेखकों ने इसके अर्थ को सीमित करते हुए लिखा है - "दो समान संख्याओं का गुणनफल वर्ग है । वर्ग के अर्थ में कृति शब्द का प्रयोग भी मिलता है, परन्तु बहुत कम । इसे समद्विराशिघात भी कहा जाता है । भिन्न-भिन्न विद्वानों ने इसकी भिन्नभिन्न विधियों का निरूपण किया है।
८. घन - इसका प्रयोग ज्यामितीय और गणितीय - दोनों अर्थों में अर्थात् ठोस घन तथा तीन समान संख्याओं के गुणनफल को सूचित करने में किया गया है। आर्यभट्ट प्रथम का मत है - तीन समान संख्याओं का गुणनफल तथा बारह बरावर कोणों (और भुजाओं) वाला ठोस भी घन है। श्रीधर, महावीर" और भाष्कर द्वितीय' का कथन है कि तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है। घन के अर्थ में 'वृन्द' शब्द का भी यत्र कुत्र प्रयोग मिलता है । इसे 'समत्रिराशिघात' भी कहा जाता है। घन निकालने की विधियों में भी भिन्नता है ।
६. वर्ग वर्ग – वर्ग को वर्ग से गुणा करना । इसे 'समचतुर्घात' भी कहते हैं। पहले मूल संख्या को उसी संख्या से गुणा करना। फिर गुणनफल की संख्या को गुणनफल की संख्या से गुणा करना । जो संख्या आती है उसे वर्ग वर्ग फल कहते हैं । जैसे - ४ x ४ = १६४१६ = २५६ । यह वर्ग वर्ग फल है।
१०. कला गणित में इसे 'क्रकच व्यवहार' कहते हैं। यह पाटीगणित का एक भेद है। इससे लकड़ी की चिराई और पत्थरों की चिनाई आदि का ज्ञान होता है। जैसे- एक काष्ठ मूल में २० अंगुल मोटा है और ऊपर में १६ अंगुल मोटा है। वह १०० अंगुल लम्बा है । उसको चार स्थानों में चीरा तो उसकी हस्तात्मक चिराई क्या होगी ? मूल मोटाई और ऊपर की मोटाई का योग किया - २०१६ = ३६ । इसमें २ का भाग दिया ३६ : २ १८ | इसको लम्बाई से गुणा किया - १०० X १८ = १८०० | फिर इसे चीरने की संख्या से गुणा किया १८०० x ४ = ७२०० । इसमें ५७६ का भाग दिया ७२०० ÷ ५७६ = १२१ / २ । यह हस्तात्मक चिराई है।
स्थानांग वृत्तिकार ने सभी प्रकारों के उदाहरण नहीं दिए हैं। उनका अभिप्राय यह है कि सभी प्रकारों के उदाहरण मन्द बुद्धि वालों के लिए सहजतया ज्ञातव्य नहीं होते अतः उनका उल्लेख नहीं किया गया है।"
सूत्रकृतांग २११ की व्याख्या के प्रारंभ में 'पौंडरीक' शब्द के निक्षेप के अवसर पर वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत की है, उसमें गणित के दस प्रकारों का उल्लेख किया है"। वहां नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं। केवल एक प्रकार भिन्न रूप से उल्लिखित है। स्थानांग का कल्प शब्द उसमें नहीं है। वहां 'पुद्गल' शब्द का उल्लेख है, जो स्थानांग में प्राप्त नहीं है।
४०. ( सू० १०१ )
प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न परिस्थितियों के निमित्त से होने वाले प्रत्याख्यान का निर्देश किया गया है। मूलाचार में कुछ
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७१ : इदं च पाटीगणितं तं श्रूयते ।
२. आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक ३ ।
३. विशतिका, पृष्ठ ५।
४. हिन्दूगणितशास्त्र का इतिहास, पृष्ठ १४७ ।
५. आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक ३ । ६. त्रिशतिका, पृष्ठ ६ ।
७. गणित - सारसंग्रह, पृष्ठ १४
८. लीलावती, पृष्ठ ५।
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७२ ।
१० सूत्रकृतांग २१, वृत्तिपत्र ४ :
परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कलासवण्णे य । पुग्गल जावं तावं घणे य घणवस्ग वग्गे य ॥
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स्थान १० : टि० ४०
नाम-परिवर्तन के साथ इनका निर्देश मिलता है। उसकी अर्थ- परम्परा भी कुछ भिन्न है। स्थानांग वृत्तिकार अभय देवसूरि अनागत प्रत्याख्यान का प्रयोजन इस प्रकार बतलाया है
पर्युषण पर्व के समय आचार्य, तपस्वी, ग्लान आदि के वैयावृत्य में संलग्न रहने के कारण मैं प्रत्याख्यान तपस्या नहीं कर सकूंगा' - इस प्रयोजन से अनागत तप वर्तमान में किया जाता है ।
मूलाचार के वृत्तिकार वसुनंदि श्रमण के शब्दों में चतुर्दशी आदि को किया जाने वाला तप तयोदशी आदि को कर लिया जाता है ।
इसी प्रकार विशिष्ट प्रयोजन उपस्थित होने पर पर्युषण पर्व आदि में करणीय तप नहीं किया जा सका, उसे बाद में किया जाता है।
सुनंदि श्रमण के शब्दों में चतुर्दशी आदि को किया जाने वाला उपवास प्रतिपदा आदि तिथियों में किया जा सकता है । यह अतिक्रान्त प्रत्याख्यान भी सम्मत रहा है ।
कोटि सहित प्रत्याख्यान की अर्थ-परम्परा दोनों में भिन्न है । अभयदेवसूरि के अनुसार इसका अर्थ है - प्रथम दिन के उपवास की समाप्ति और दूसरे दिन के उपवास के प्रारंभ के बीच समय का व्यवधान न होना ।
वसुनंदि श्रमण के अनुसार यह संकल्प समन्वित प्रत्याख्यान की प्रक्रिया है। किसी मुनि ने संकल्प किया- 'अगले दिन स्वाध्याय - वेला पूर्ण होने पर यदि शक्ति ठीक रही तो मैं उपवास करूंगा, अन्यथा नहीं करूँगा ।'
स्थानांग में प्रत्याख्यान के चौथे प्रकार का नाम 'नियंत्रित' है मूलाचार में चौथे प्रत्याख्यान का नाम 'विखंडित'
है ।
यहाँ नाम-भेद होने पर भी अर्थ -भेद नहीं है । स्थानांग वृत्ति में एक सूचना यह प्राप्त होती है कि यह प्रत्याख्यान वज्रऋषभनाराच संहनन वाले चौदह पूर्वधर, जिनकल्पी और स्थविरों के होता था । वर्तमान में यह व्युच्छिन्न माना जाता है ।
पाँचवें और छठे प्रत्याख्यान का दोनों में अर्थ भेद है । अभयदेवसूरि ने 'आकार' का अर्थ अपवाद और वसुनंदि श्रमण ने उसका अर्थ भेद किया है। अनाभोग ( विस्मृति), सहसाकार ( आकस्मिक ) महत्तर की आज्ञा आदि प्रत्याख्यान के अपवाद होते हैं । अभयदेवसूरि ने बताया है कि साकार प्रत्याख्यान में सभी अपवाद व्यवहार में लाए जा सकते हैं । अनाकार प्रत्याख्यान में ‘महत्तर' की आज्ञा आदि अपवाद व्यवहार में नहीं लाए जा सकते। अनाभोग और सहसाकार की छूट उसमें भी रहती है ।
वसुनंदी श्रमण ने भेद का आशय इस प्रकार स्पष्ट किया है—'अमुक नक्षत्र में अमुक तपस्या करनी है' इस प्रकार नक्षत्र आदि के भेद के आधार पर दीर्घकालीन तपस्याएं करना साकार प्रत्याख्यान है । नक्षत्र आदि का विचार किए विना स्वेच्छा से उपवास आदि करना अनाकार प्रत्याख्यान है। मूलाचार में 'परिणामकृत' के स्थान पर 'परिणामगत' शब्द है । स्थानांग वृत्तिकार ने इसे दत्ति, कवल आदि के उदाहरण से समझाया है और मूलाचार वृत्तिकार ने इसे तपस्या के कालपरिणाम के उदाहरण के द्वारा समझाया है। इनके मूल आशय में कोई भेद प्रतीत नहीं होता ।
स्थानांग में आठवें प्रत्याख्यान का नाम 'निरवशेष' है और मूलाचार में 'अपरिशेष' है । वसुनंदि श्रमण ने इसका अर्थ -- यावज्जीवन संपूर्ण आहार का परित्याग किया है। श्वेताम्बर साहित्य में यावज्जीवन का अर्थ अभिहित नहीं है।
स्थानांग में प्रत्याख्यान का नवां प्रकार है 'संकेतक' और दसवां प्रकार है 'अध्वा' । मूलाचार में नवां प्रत्याख्यान है 'अध्वानगत' और दसवां है 'सहेतुक' ।
नवें और दसवें प्रत्याख्यान के विषय में दोनों परंपराओं में क्रमभेद, नामभेद और अर्थभेद - तीनों हैं। अभयदेवसूरी ने ‘संकेतक' की जो व्याख्या की है, उसके आधार पर यह फलित होता है कि उन्होंने मूलपाठ 'संकेतक' माना है।' संकेत
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७३ : केतनं केतः - चिह्नमङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्थगृहादिकं स एव केतकः सह केतकेन सकेतकं ग्रन्थादिसहितमित्यर्थः ।
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स्थान १०: टि०४१-४२
प्रत्याख्यान की व्याख्या इस प्रकार मिलती है--कोई गृहस्थ खेत पर गया हुआ है। उसके प्रहर दिन तक का प्रत्याख्यान है। प्रहर दिन बीत गया। भोजन न मिलने पर वह सोचता है—मेरा एक भी क्षण बिना त्याग के न जाए; इसलिए वह प्रत्याख्यान करता है कि-'जब तक यह दीप नहीं बुझेगा या जब तक मैं घर नहीं जाऊंगा या जब तक पसीने की बूंदें नहीं सुखेंगी या जब तक मेरी मुट्ठी नहीं खलेगी तब तक मैं कुछ भी न खाऊँगा और न पीऊंगा।
अभयदेवसूरि ने अध्वा प्रत्याख्यान का अर्थ-पौरुषी आदि कालमान के आधार पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान किया है। वसुनंदि श्रमण ने अध्वान जगत प्रत्याख्यान का अर्थ मार्ग विषयक प्रत्याख्यान किया है । यह अटवी, नदी आदि पार करते समय उपवास आदि करने की पद्धति का सूचक है। सहेतुक प्रत्याख्यान का अर्थ है-उपसर्ग आदि आने पर किया जाने वाला उपवास।
___ इस प्रकार की पूर्ण जानकारी के लिए स्थानांग वृत्ति पत्र ४७२, ४७३, भगवती ७।२, आवश्यक नियुक्ति अध्ययन ६ और मूलाचार षड् आवश्यकाधिकार गाथा १४०, १४१ द्रष्टव्य हैं।
दोनों परंपराओं में कुछ पाठों और अर्थों का भेद सचमुच आश्चर्यजनक है। इसकी पृष्ठभूमि में पाठ-परम्परा का परिवर्तन और अर्थ-परंपरा की विस्मति अन्वेषणीय है । संकेत और अध्वा प्रत्याख्यान के स्थान पर सहेतुक पाठ और उसका अर्थ तथा अध्वानजगत का अर्थ जितना स्वाभाविक और उस समय की परंपरा के निकट लगता है उतना सकेत और अध्वा का नहीं लगता।
४१. (सू० १०२)
भगवती (२५५५५५) में इन सामाचारियों का क्रम यही है, किन्तु उत्तराध्ययन [अध्ययन २६] में उनका क्रम भिन्न है । क्रमभेद के अतिरिक्त एक नाम भेद भी है। निमंत्रणा' के स्थान पर 'अभ्युत्थान' है। किन्तु इनके तात्पर्यार्थ में कोई अन्तर नहीं है। उत्तराध्ययन की नियुक्ति में 'निमंतणा' ही है। अभ्युत्थान का अर्थ है—गुरुपूजा। शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ गौरवाह आचार्य, ग्लान, बाल आदि मुनियों के लिए यथोचित आहार, भेषज आदि लाना-किया है।
मूलाराधना तथा मूलाचार में 'आवस्सिया' के स्थान पर 'आसिया' शब्द का प्रयोग मिलता है। अर्थ में कोई भेद नहीं है।
मूलाचार में निमंतणा' के स्थान पर 'सनिमंतणा' का प्रयोग मिलता है। विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि २६:१-७ का टिप्पण।
४२. (सू० १०३)
भगवान् महावीर अपने जन्मस्थान कुण्डपुर से अभिनिष्क्रमण कर ज्ञातखंड उपवन में एकाकी प्रवजित हुए। वह मगशीर्ष कृष्णा दशमी का दिन था। पाठ मास तक विहार कर वे अपने पिता के मित्र के आश्रम में पर्युषणाकल्प के लिए ठहरे। वहां दो महीने रहकर, वे अकाल में ही वहां से निकल कर अस्थिग्राम सन्निवेश के बाहिर शूलपाणि यक्षायतन में ठहरे। वहां शूलपाणि ने उन्हें अनेक कष्ट दिए। तब व्यन्तर देव सिद्धार्थ ने उसे भगवान महावीर का परिचय दिया। शूलपाणि का क्रोध उपशांत हुआ। वह भगवान् की भक्ति करने लगा।
शुलपाणि यक्ष ने भगवान को रात्री के [कुछ समय कम] चारों प्रहर तक परितापित किया। अंतिम रात्री में भगवान् को कुछ नींद आई और तब उन्होंने दस स्वप्न देखे ।
१. उत्तराध्ययन निर्युत्ति गाथा ४८२ : २. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ५३४,५३५ । ३. (क) मूलाराधना गाथा २०५६ ।
(ख) मूलाचार, समाचाराधिकार गाथा १२५ ।
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यहां अंतिम रात्रि का अर्थ है - रात्री का अवसान, रात्री का अंतिम भाग ।
'छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि – इस पाठ को देखने पर यही धारणा बनती है कि छद्मस्थकाल की अंतिम रानी में भगवान् महावीर ने दस स्वप्न देखे । किंतु आवश्यकनियुक्ति आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों तथा व्याख्याग्रन्थों के साथ इस धारणा की संगति नहीं बैठती । वृत्तिकार ने जो अर्थ किया है वह प्रस्तुत पाठ और उत्तरवर्ती ग्रन्थों की संगति बिठाने का प्रयत्न है।
एक बार भगवान् महावीर अस्थिग्राम गए। वहां एक वाणव्यन्तर का मंदिर था । उसमें शूलपाणि यक्ष की प्रभावशाली प्रतिमा थी। जो व्यक्ति उस मन्दिर में राविवास करता, वह यक्ष द्वारा मारा जाता था। लोग वहां दिनभर रहते और रात को अन्यत्र चले जाते । वहाँ इन्द्रशर्मा नामक ब्राह्मण पुजारी रहता था। वह भी दिन - दिन में मंदिर में रहता और रात में पास वाले गांव में अपने घर चला जाता ।
भगवान् महावीर वहां आए। बहुत सारे लोग एकत्रित हो गए। भगवान् ने मंदिर में रात्रिवास करने की आज्ञा मांगी । देवकुलिक (पुजारी) ने कहा- मैं आज्ञा नहीं दे सकता । गाँववाले जानें । भगवान् ने गांववालों से पूछा। उन्होंने कहा - 'यहां नहीं रहा जा सकता। आप गाँव में चलें ।' भगवान् ने कहा - 'नहीं, मुझे तुम आज्ञा मात्र दे दो। मैं यहीं रहना चाहता हूं ।' तब गांववालों ने कहा- अच्छा, आप जहां चाहें वहां रहें ।' भगवान् मंदिर के अंदर गए और एक कोने में कायोत्सर्ग मुद्रा कर स्थित हो गए।
पुजारी इन्द्रशर्मा मंदिर के अंदर गया। प्रतिमा की पूजा की और भगवान् को संबोधित कर कहा - 'चलो, यहाँ क्यों खड़े हो ? अन्यथा मारे जाओगे ।' भगवान् मौन रहे । व्यन्तर देव ने सोचा- 'देवकुलिक और गांव के लोगों द्वारा कहने पर भी यह भिक्षु यहाँ से नहीं हट रहा है । मैं भी इसे अपने आग्रह का मजा चखाऊँ ।'
सांझ की वेला हुई । शूलपाणि ने भीषण अट्टहास कर महावीर को डराना चाहा । लोग इस भयानक शब्द से कांप उठे। उन्होंने सोचा --- ' आज देवार्य मौत के कवल बन जाएँगे ।'
स्थान १० : टि० ४२
उसी गांव में एक पावपित्यिक परिव्राजक रहता था। उसका नाम उत्पल था । वह अष्टांग निमित्त का जानकार था। उसने सारा वृत्तान्त सुना । किन्तु रात में वहां जाने का साहस उसने भी नहीं किया ।
शूलपाणि यक्ष ने जब देखा कि उसका पहला वार खाली गया है, तब उसने हाथी, पिशाच और भयंकर सर्प के रूप धारण कर भगवान् को डराना चाहा। भगवान् अब भी अडोल खड़े थे । यह देख यक्ष का क्रोध उभर आया । उसने एक साथ सात वेदनाएं उदीर्ण कीं । अब भगवान् के सिर, नासा, दांत, कान, आंख, नख और पीठ में भयंकर वेदना होने लगी । एक-एक वेदना भी इतनी तीव्र थी कि उससे मनुष्य मृत्यु पा सकता था। सातों का एक साथ आक्रमण अत्यन्त अनिष्टकारी था किन्तु भगवान् अडोल थे। वे ध्यान की श्रेणी में ऊपर चढ़ रहे थे ।
यक्ष अत्यन्त श्रान्त हो गया। वह भगवान् के चरणों में गिर पड़ा और बोला- 'भट्टारक ! मुझ पापी को आप क्षमा करें ।' भगवान् अब भी वैसे ही मौन खड़े थे ।
इस प्रकार उस रात के चारों प्रहरों में भगवान् को अत्यन्त भयानक कष्टों का सामना करना पड़ा। रात के पिछले प्रहर के अंतिम भाग में भगवान् को नींद आ गई। उसमें उन्होंने दस महास्वप्न देखे । स्वप्न देख वे प्रतिबुद्ध हो गए।
प्रस्तुत सूत्र में दस स्वप्न तथा उनकी फलश्रुति निर्दिष्ट है।
प्रातःकाल हुआ। लोग आए । अष्टांग निमित्तज्ञ उत्पल तथा देवकुलिक इन्द्रशर्मा भी वहाँ आए। वहाँ का सारा वातावरण सुगंधमय था । वे मंदिर में गए। भगवान् को देखा । सब उनके चरणों में गिर पड़े।
उत्पल आगे बढ़ा और बोला- 'स्वामिन् ! आपने रात के अंतिम भाग में दस स्वप्न देखे हैं। उनकी फलश्रुति मैं अपने ज्ञान-बल से जानता हूँ । आप स्वयं उसके ज्ञाता हैं । भगवान् ! आपने जो दो मालाएँ देखी थी उस स्वप्न की फलश्रुति मैं नहीं जान पाया। आप कृपा कर बताएं ।'
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७६ प्रतिमराइयंसि ति अन्तिमा - अन्तिम भागरूपा अवयव समदायोपचारात् सा चासो रात्रिका चान्तिमरात्रिका तस्यां रावन इत्यर्थः ।
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स्थान १०:टि ४० ३-४४
भगवान् ने कहा- 'उत्पल ! जो तुम नहीं जानते, वह मैं जानता हूं ! इस स्वप्न का अर्थ यह है कि मैं दो प्रकार के धर्मों की प्ररूपणा करूँगा—सागार धर्म और अनगार धर्म ।'
उत्पल भगवान को वंदन कर चला गला । भगवान् ने वहां पहला वर्षावास बिताया।' बौद्ध साहित्य में भी बुद्ध के पांच स्वप्नों का उल्लेख है। जिस समय तथागत बोधिसत्व ही थे, बुद्धत्व लाभ नहीं हुआ था, तब उन्होंने पाँच महान् स्वप्न देखे
१. यह महापृथ्वी उनकी महान शैय्या बनी हुई थी; पर्वतराज हिमालय उनका तकिया था; पूर्वीय समुद्र बायें हाथ से पश्चिमीय समुद्र दाहिने हाथ से और दक्षिण समुद्र दोनों पांवों से ढंका था।
२. उनकी नाभी से तिरिया नामक तिनकों ने उगकर आकाश को जा छुआ था। ३. कुछ काले सिर तथा श्वेत रंग के जीव पांव से ऊपर की ओर बढ़ते-बढ़ते घुटनों तक ढंककर खड़े हो गए। ४. विभिन्न वर्गों के चार पक्षी चारों दिशाओं से आए और उनके चरणों में गिरकर सभी सफेद वर्ण के हो गए। ५. तथागत गूथ पर्वत पर ऊपर-ऊपर चलते हैं और चलते समय उससे सर्वथा अलिप्त रहते हैं। इनकी फलश्रुति इस प्रकार है१. अनुपम सम्यक् संबोधि को प्राप्त करना। २. आर्य अष्टांगिक मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर, उसे देव-मनुष्यों तक प्रकाशित करना। ३. बहुत से श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ प्राणान्त होने तक तथागत के शरणागत होना।
४. क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र-चारों वर्ण वाले तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म-विनय के अनुसार प्रवजित हो अनुपम विमुक्ति को साक्षात् करेंगे।
५. तथागत चीवर, भिक्षा, शयनासन, ग्लान-प्रत्यय और भैषज्य-परिष्कारों को प्राप्त करने वाले हैं। तथागत इनके प्रति अनासक्त, मूच्छित रहते हैं। वे इनमें बिना उलझे हुए, इनके दुष्परिणामों को देखते हुए मुक्त-प्रज्ञ हो इनका उपभोग करते हैं।
दोनों श्रमण नेताओं द्वारा दृष्ट स्वप्नों में शब्द-साम्य नहीं है, किन्तु उनकी पृष्ठभूमि और तात्पर्य में बहत सामीप्य प्रतीत होता है।
४३. (सू० १०४)
देखें-उत्तरज्झयणाणि २८।१६ का टिप्पण।
४४. (सू० १०५)
प्रस्तुत प्रकरण में संज्ञा के दो अर्थ किए गए हैं—आभोग [संवेगात्मक ज्ञान या स्मृति ] और मनोविज्ञान । संज्ञा के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनमें प्रथम आठ प्रकार संवेगात्मक तथा अंतिम दो प्रकार ज्ञानात्मक हैं। इनकी उत्पत्ति बाह्य और आन्तरिक उत्तेजना से होती है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं की उत्पत्ति के चार-चार कारण चतुर्थ स्थान में निर्दिष्ट है। क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार संज्ञाओं की उत्पत्ति के कारणों का निर्देश भी प्राप्त होता है।'
ओघसंज्ञा-वृत्तिकार ने इसका अर्थ-सामान्य अवबोध क्रिया, दर्शनोपयोग या सामान्य प्रवृत्ति-किया है। तत्वार्थ भाष्यकार ने ज्ञान के दो निमित्तों का निर्देश किया है। इन्द्रिय के निमित्त से होने वाला ज्ञान और अनिन्द्रिय के
१. आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति, पन २६६, २७० । २. अंगुत्तरनिकाय, द्वितीय भाग, पृष्ठ ४२५-४२७ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन ४७८ : संज्ञानं संज्ञा आभोग इत्यर्थः मनो
विज्ञानमित्यन्ये । ४. स्थानांग ४१५७६-५८२
५. स्थानांग ४।८०-८३ ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७६ : मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमाच्छब्दाद्य
गोचरा सामान्यावबोधक्रियव संज्ञायतेऽनयेत्योघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावबोधक्रियव संज्ञायते ऽनयेति लोकसंज्ञा ।
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ठाणं (स्थान)
BEE
स्थान १० : टि० ४४
निमित्त से होने वाला ज्ञान। स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का ज्ञान स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र इन्द्रिय से होता है। यह इन्द्रिय निमित्त से होनेवाला ज्ञान है। अनिन्द्रिय के निमित्त से होने वाले ज्ञान के दो प्रकार हैं-मामसिक ज्ञान और ओघज्ञान । इन्द्रियज्ञान विभागात्मक होता है, जैसे—नाक से गंध का ज्ञान होता है, चक्ष से रूप का ज्ञान होता है । ओघज्ञान निविभाग होता है। वह किसी इन्द्रिय या मन से नहीं होता। किन्तु वह चेतना की, इन्द्रिय और मन से पृथक्, एक स्वतंत्र क्रिया है।
सिद्धसेनगणि ने ओघज्ञान को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है-बल्ली वृक्ष आदि पर आरोहण करती है। उसका यह आरोहण-ज्ञान न स्पर्शन इन्द्रिय से होता है और न मानसिक निमित्त से होता है । वह चेतना के अनावरण की एक स्वतंत्र क्रिया है।
वर्तमान के वैज्ञानिक एक छठी इन्द्रिय की कल्पना कर रहे हैं। उसकी तुलना ओघसंज्ञा से की जा सकती है। उनकी कल्पना का विवरण इन शब्दों में है -
सामान्यतया यह माना जाता है कि हमारे पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं,-आंख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा । वैज्ञानिक अब यह मानने लगे हैं कि इन पांच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त एक छठी ज्ञानेन्द्रिय भी है। इसी छठी इन्द्रिय को अंग्रेजी में ई-एस-पी' (एक्स्ट्रासेन्सरी पर्सेप्शन) अथवा अतीन्द्रिय अंत: करण कहते हैं।
कई वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि प्रकृति ने यह इन्द्रिय बाकी पांचों ज्ञानेन्द्रियों से भी पहले मनुष्य को उसके पूर्वजों को तथा अनेक पशु-पक्षियों को प्रदान की थी। मनुष्य में तो यह शक्ति जब तक ही प्राकृतिक रूप में पाई जाती है, क्योंकि सभ्यता के विकास के साथ-साथ उसने इसका अभ्यास' त्याग दिया। अनेक पशु-पक्षियों में यह अब भी देखने में आती है। उदाहरण के लिए
१. भूकंप या तूफान आने से पहले पशु-पक्षी उसका आभास पाकर अपने बिलों, घोंसलों या अन्य सुरक्षित स्थानों में पहुंच जाते हैं।
२. कई मछलियां देख नहीं सकतीं, परन्तु सूक्ष्म विद्युत् धाराओं के जरिए पानी में उपस्थित रुकावटों से बचकर संचार करती हैं।
आधुनिक युग में आदिम जातियों के मनुष्यों में भी यह छठी इन्द्रिय काफी हद तक पायी जाती है। उदाहरण के लिए
१. आस्ट्रेलिया के आदिवासियों का कहना है कि वे धुंए के संकेत का प्रयोग तो केवल उद्दिष्ट व्यक्ति का ध्यान खींचने के लिए करते हैं और इसके बाद उन दोनों में विचारों का आदान-प्रदान मानसिक रूप से ही होता है।
२. अमरीकी आदिवासियों में तो इस छटी इन्द्रिय के लिए एक विशिष्ट नाम का प्रयोग होता है और वह है
शुम्फो।'
लोकसंज्ञा-वृत्तिकार ने इसका अर्थ--विशेष अवबोध क्रिया, ज्ञानोपयोग और विशेष प्रवृत्ति किया है। ओघसंज्ञा के संदर्भ में इसका अर्थ विभागात्मक ज्ञान [इन्द्रियज्ञान और मानसज्ञान] किया जा सकता है।
शीलांकसूरी ने आचारांग वृत्ति में लोकसंज्ञा का अर्थ लौकिक मान्यता किया है। किन्तु वह मूलस्पर्शी प्रतीत नहीं होता।
१. तत्वार्थभाप्य १।१४ : ननेन्द्रियनिमित्तं स्पर्शनादीनां पञ्चानां सादिषु पञ्चस्वेव स्वविषयेषु । अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्ति
रोषज्ञान च। २. तत्त्वार्थसूत्र, भाष्यानुसारिणी टीका ११४, ०७२ .
ओघ:-मामान्य अप्रविभक्तरुपं यत्र न स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तानि मनोनिमित्तमा जीवन्ते, केवलं मत्यावरणीयक्षयोपमम एव तस्य ज्ञानस्योत्पत्ती निमित्तं, यथा-वल्लयादीनां नीबाचभिसंगमानं न सननिमित्तं न मनोनिमित्तमिति, तस्मात नव मत्यज्ञानावरणक्षयोपशम एव केवलो निमित्तीत्रियते ओघज्ञानस्य।
३. नवभारत टाइम्स (बम्बई) २४ मई १९७०। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७६ । ५. आचारांग वृत्ति पत्र ११ : लोक संज्ञा स्वच्छन्दघटित विकल्परूपा.
लौकिकाचरिता।
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ठाणं (स्थान)
१०००
स्थान १० : टि० ४५
आचारांग नियुक्ति में संज्ञा के चौदह प्रकार मिलते हैं१. आहार संज्ञा, २. भय संज्ञा, ३. परिग्रह संज्ञा, ४. मैथुन संज्ञा, ५. सुख-दुःख संज्ञा, ६. मोह संज्ञा, ७. विचिकित्सा संज्ञा, ८. क्रोध संज्ञा, ६. मान संज्ञा १०. माया संज्ञा, ११. लोभ संज्ञा, १२. शोक संज्ञा, १३. लोक संज्ञा, १४. धर्म संज्ञा ।
प्रस्तुत प्रसंग में कुछ मनोवैज्ञानिक तथ्य भी ज्ञातव्य हैं । मनोविज्ञान ने मानसिक प्रतिक्रियाओं के दो रूप माने हैंभाव (Feeling) और संवेग [Emotion].
भाव सरल और प्राथमिक मानसिक प्रतिक्रिया है। संवेग जटिल प्रतिक्रिया है।
भय, क्रोध, प्रेम, उल्लास, ह्रास, ईर्ष्या आदि को संवेग कहा जाता है। उसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक परिस्थिति में होती है और वह शारीरिक और मानसिक यंत्र को प्रभावित करता है।
संवेग के कारण बाह्य और आन्तरिक परिवर्तन होते हैं । बाह्य परिवर्तनों में ये तीन मुख्य हैं१. मुखाकृति अभिव्यंजन (Facial expression) २. स्वराभिव्यंजन (Vocal expression) ३. शारीरिक स्थिति (Bodily posture) आन्तरिक परिवर्तन१. श्वास की गति में परिवर्तन (Changes in respiration) २. हृदय की गति में परिवर्तन (Changes in hcart beat) ३. रक्तचाप में परिवर्तन (Changes in blood pressure) ४. पाचनक्रिया में परिवर्तन (Changes in gastro intestinal or digestvie function) ५. रक्त में रासायनिक परिवर्तन (Chemical Changes in blood)
६. त्वक प्रतिक्रियाओं तथा मानस-तरंगों में परिवर्तन (Changes in psychogalvanic responses and Brain waves)
७. ग्रन्थियों की क्रियाओं में परिवर्तन (Changes in the activities of the glands)
मनोविज्ञान के अनुसार संवेग का उद्गम स्थान हाइपोथेलेमस (Hypothalamus) माना जाता है। यह मस्तिष्क के मध्य भाग में होता है। यही संवेग का संचालन और नियन्त्रण करता है। यदि इसको काट दिया जाए तो सारे संवेग नष्ट हो जाते हैं।
भाव रागात्मक होता है । उसके दो प्रकार हैं-सुखद और दुःखद । उसकी उत्पत्ति के लिए बाह्य उत्तेजना आवश्यक नहीं होती।
४५. (सू० ११०)
दशा---यह शब्द दस से निष्पन्न हुआ है। जिसके ग्रन्थ में दस अध्ययन हैं उसे दशा कहा गया है। इसका अर्थ हैशास्त्र । प्रस्तुत सूत्र में दस दशाओं [दस अध्ययन वाले शास्त्रों का उल्लेख है और इसके अगले सूत्र में उनके अध्ययनों के नाम हैं।
१. कर्म विपाक दशा-ग्यारहवें अंग का प्रथम श्रुतस्कंध । इसमें अशुभ कर्मों के विपाक का प्रतिपादन है। २. उपासकदशा-यह सातवां अंग है । इसमें भगवान् महा दौर के प्रमुख दस उपासकों-श्रावकों का वर्णन है।
१. आचारांग नियुक्ति गाथा ३६ :
आहार भय परिगह मेहण सुखदख मोह वितिगिरुछा।
कोह माण माया लोहे सोगे लोगे य धम्मोहे ॥ २. स्थानांगबत्ति, पत्र ४८० : दशाधिकाराभिधायकत्वादृशाः...
शास्त्रस्याभिधानमिति ।
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ri (स्थान)
१००१
स्थान १० : टि० ४६
३. अन्तकृतदशा - यह आठवां अंग है। इसके आठ वर्ग हैं। इसके प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं। इसमें अन्तकृत — संसार का अन्त करने वाले व्यक्तियों का वर्णन है ।
४. अनुत्तरोपपातिकदशा - यह नींवा अंग है। इसमें पांच अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले जीवों का वर्णन है । ५. आचारदशा — इसका रूढ नाम है- दशाश्रुतस्कंध । इसमें पांच प्रकार के आचारों- ज्ञानआचार, दर्शनआचार, तपआचार और वीर्य आचार का वर्णन है ।
६. प्रश्नव्याकरणदशा - यह दसवां अंग है। इसमें अनेकविध प्रश्नों का व्याकरण है।
७-१०--- -वृत्तिकार ने शेष चार दशाओं का विवरण नहीं दिया है। 'अस्माकं अप्रतीता' - 'हमें ज्ञात नहीं हैं - ऐसा कहकर छोड़ दिया है।
४६. ( सू० १११ )
कर्मविपाकदशा -- वृत्तिकार के अनुसार यह ग्यारहवें अंग 'विपाक' का प्रथम श्रुतस्कंध है ।"
विपाक के दो श्रुतस्कंध हैं – दुःखविपाक और सुखविपाक । प्रत्येक में दस-दस अध्ययन हैं। वर्तमान में उपलब्ध विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध [दुःखविपाक ] के दस अध्ययन ये हैं
१. मृगापुत्र २. उज्झितक ३. अभग्नसेन ४. शकट ५. बृहस्पतिदत्त ६. नंदिवर्द्धन [ नदिषेण ] ७. उम्बरदत्त ८. शौरिकदत्त 8. देवदत्त १०. अंजू ।
दूसरे श्रुतस्कंध [ सुखविपाक ] के दस अध्ययन ये हैं
१. सुबाहु २. भद्रनंदी ३. सुजात ४. सुवासव ५. जिनदास ६. वैश्रमण ७. महाबल ८. भद्रनंदि ९. महश्चन्द्र
१०. वरदत्त ।
प्रस्तुत सूत्र में आए हुए नाम विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध ( दुःख विपाक ) के दस अध्ययनों के हैं। दूसरे श्रुतस्कंध के अध्ययनों की यहां विवक्षा नहीं की है। इससे पूर्ववर्ती सूत्र (१०।११० ) की वृत्ति में वृत्तिकार ने इसका उल्लेख करते हुए द्वितीय श्रुतस्कंध के अध्ययनों की अन्यत्र चर्चा की बात कही है।'
पूर्ववर्ती सूत्र की वृत्ति से यह भी प्रतीत होता है कि विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध का नाम 'कर्म विपाकदशा है।" कर्मविपाक दशा के अध्ययन उपलब्धविपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के अध्ययन
१. मृगापुत्र २. गोतास
३. अण्ड
४. शकट
५. ब्राह्मण
६. नंदिषेण
७. शौरिक
८.
उदुंबर ६. सहस्रोद्दाह आभरक १०. कुमार लिच्छई
१. दस्थानांगवृत्ति पत्र ४८० तथा बन्धदशा द्विगृद्धिदशा दीर्घदशा संदीपक शाश्चास्माकमप्रतीता इति ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८० : कर्मविपाकदशाः विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धः ।
३. वही, पत्र ४८० : द्वितीयश्रुतस्कन्धोऽप्यस्प दशाध्ययनात्मक एव, न चासाविहाभिमतः उत्तरत्र विवरिष्यमाणत्वादिति ।
मृगापुत्र उज्झितक
अभग्नसेन
शकट
बृहस्पतिदत्त
नंदिवर्द्धन
उम्बरदत्त
शौरिकदत्त
देवदत्ता
अंजू
४. स्थानांग वृत्ति ४८० : कर्म्मण:- अशुभस्य विपाक : फलं कर्मविपाकः तत्प्रतिपादका दशाध्ययनात्मकत्वादृशाः कर्म्म. विपाकदशाः विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमभूतस्कन्धः ।
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ठाणं (स्थान)
१००२
स्थान १० : टि०४६
दोनों के अध्ययन से नामों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। विपाक सूत्र में अध्ययनों के कई नाम व्यक्ति परक और कई नाम वस्तुपरक [ घटना परक ] हैं।
प्रस्तुत सूत्र में वे नाम केवल व्यक्ति परक हैं। दो अध्ययनों में क्रम भेद हैं। प्रस्तुत सूत्र में जो आठवां अध्ययन है वह विपाक का सातवां अध्ययन है और इसका जो सातवां अध्ययन है वह विपाक का आठवां अध्ययन है। सभी अध्ययनों से सम्बन्धित घटनाएं इस प्रकार है
१. मृगापुत्र - प्राचीन समय में मृगगाम नाम का नगर था। वहां विजय नाम का क्षत्रिय राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम मृगा था। उसके एक पुत्र हुआ। उसका नाम मृगापुत्र रखा गया ।
एक बार महावीर के समवसरण में एक जात्यन्ध व्यक्ति आया। उसे देखकर गौतम ने भगवान् से पूछा- 'भदन्त ! क्या इस नगर में भी कोई जात्यन्ध व्यक्ति है ? ' भगवान् ने उन्हें मृगापुत्र की बात कही, जो जन्म से अन्धा और आकृति रहित था । गौतम के मन में कुतुहल हुआ और वे भगवान की आज्ञा ले उसे देखने के लिए उसके घर गए । गौतम का आगमन सुन मृगादेवी बाहर आई । वन्दना कर आगमन का कारण पूछा। गौतम ने कहा- 'मैं तेरे पुत्न को देखने के लिए आया हूं।' मृगावती ने भौंहरे का द्वार खोला और गौतम को अपना पुत्र दिखाया। गौतम उस अत्यन्त घृणास्पद प्राणी को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। वे भगवान् के पास आए और पूछा --- 'भगवन् ! यह पिछले जन्म में कौन था ?' भगवन् ने कहा - 'पुराने जमाने में विजयवर्द्धमान' नाम का एक सेट (क्षुद्र गांव) था। वहां मकायी नाम का राष्ट्रकूट ( गवर्नर ) था। वह रिश्वत, भेंट आदि लेता था। लोगों को वह बहुत पीड़ित करता था। एक बार वह अनेक रोगों से ग्रस्त हुआ और मरकर नरक गया । वहाँ से च्युत होकर वह यहां मृगावती के गर्भ से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ है । वह केवल लोढे के आकारका इन्द्रिय-विहीन और अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त है। यहां से मरकर यह पुन: नरक में जाएगा ।
२. गोत्रास - हस्तिनागपुर में भीम नाम का पशु चौर ( कूटग्राह) रहता था। उसकी भार्या का नाम उत्पला था । एक बार वह गर्भवती हुई। तीन मास पूर्ण होने पर उसे पशुओं के विभिन्न अकषायों का मांस खाने का दोहद उत्पन्न हुआ । उसने अपने पति भीम से यह बात कही। पति ने उसे आश्वासन दिया । एक रात्रि में वह भीम घर से निकला और नगर में जहां गौबाड़ा था वहां आया। उसने अनेक पशुओं के विभिन्न अवयव काटे और घर आ उन्हें अपनी स्त्री को खिलाया । दोहृद पूरा हुआ। नौ मास व्यतीत होने पर उसने एक पुत्र का प्रसव किया। जन्मते ही बालक जोर-जोर से चिल्लाने लगा। उसकी आवाज सुनकर अनेक पशु भयभीत हो, इधर-उधर दौड़ने लगे। माता-पिता ने उसका नाम “गोलास” रखा। युवा अवस्था में उसने अनेक बार गोमांस खाया, अनेक दुराचार सेवन किए और अनेक पशुओं के अवयवों से अपनी भूख शांत की । इन पाप कर्मों से वह दूसरे नरक में नारक के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर वह वाणिज्यग्राम नगर के सार्थवाह विजय की भार्या भद्रा के गर्भ में आया। उसका नाम उज्झितक रखा गया। युवा अवस्था में वह कामध्वज गणिका में आसक्त हो गया। एक बार वह गणिका के साथ काम भोग भोग रहा था। राजा भी वहां जा पहुंचा। उसने 'उज्झितक' को देखा। उसका क्रोध उभर आया। उसने उसे पकड़ कर खूब पीटा। तिल-तिल कर उसके मांस का छेदन कर उसे खिलाया और चौराह पर उसकी विडम्बना कर उसे मार डाला । मरकर वह नरक में गया ।
प्रस्तुत सूत्र में इस अध्ययन का नाम पूर्वभव के नाम के आधार पर 'गोवास' रखा गया और विपाक सूत्र में अगले भव के नाम के आधार पर उज्झितक रखा गया है।
३. अंड - पुरिमतालपुर में निन्नक नाम का एक व्यापारी रहता था। वह अनेक प्रकार के अंडों का व्यापार करता था। उसके पुरुष जंगल में जाते और अनेक प्रकार के अंडे चुरा ले आते थे। इस प्रकार निन्नक ने बहुत पाप संचित किए । मरकर वह नरक में गया। वहां से निकलकर वह चोरों के सरदार विजय की पत्नी खंड श्री के गर्भ में आया। नौ मास पूर्ण होने पर खंड श्री ने पुत्र का प्रसव किया। उसका नाम 'अभग्नसेन' रखा गया। युवा होने पर उसका विवाह आठ सुन्दर
१. विवागसूर्य पृष्ठ
राष्ट्रकूट - A royal officer who is the head of the province is the Governer.
२. यहां 'गौ' शब्द सामान्य पशुवाची है । इसका अर्थ है - पशुओं को त्रास देनेवाला ।
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ठाणं (स्थान)
१००३
स्थान १० : टि०४६
कन्याओं से किया। पिता की मृत्यु के पश्चात् वह चोरों का अधिपति हुआ। वह लूट-खसोट करने लगा। जनता त्राहि-त्राहि करने लगी। पुरिमताल की जनता अपने राजा महाबल के पास गई और सारी बात कही। राजा ने युक्ति से अभग्नसेन को पकड़वाया। उसके तिल-तिल मांस का छेदन कर उसे खिलाया और उसे उसी का रक्त पिलाकर उसकी कदर्थना की। वह मरकर नरक गया।
प्रस्तुत सूत्र में अध्ययन का 'अंड' नाम पूर्वभव के व्यापार के आधार पर किया गया है और विपाक सूत्र में अग्रिमभव के नाम के आधार पर 'अभग्नसेन' रखा है।
४. शकट--शाखांजनी नगर में सुभद्रा नाम का सार्थवाह रहता था। उसकी भार्या का नाम भद्रा था। उसके पुत्र का नाम 'शकट' था। यूवा अवस्था में वह सूदर्शना नाम की गणिका में अनुरक्त हो गया। एक बार वहाँ के अमात्य सुषेण ने उसे वहां से भगा कर स्वयं सुदर्शना गणिका के साथ भोग भोगने लगा। एक बार शकट पुनः वहां आया और गणिका के साथ भोग भोगने लगा। अमात्य ने यह देखा। उसने गणिका और शकट को पकड़वा कर मरवा डाला। वह नरक में गया।
५. ब्राह्मण-प्राचीन काल में सर्वतोभद्र नाम का नगर था। वहां जितशत्र नाम का राजा राज्य करता था। उसके पुरोहित का नाम महेश्वरदत्त था। राजा ने अपने शत्रुओं पर विजय पाने के लिए यज्ञ प्रारम्भ किया। उस यज्ञ में अनेक ब्राह्मण नियुक्त किए गए। महेश्वरदत्त उसमें प्रमुख था । उस यज्ञ में प्रतिदिन चारों वर्ण का एक-एक लड़का, अष्टमी आदि में दो-दो लड़के, चातुर्मास में चार-चार छह मास में आठ-आठ और वर्ष में सोलह-सोलह तथा प्रतिपक्ष की सेना आने पर आठ सौ-आठ सौ लड़कों की बलि दी जाती थी। इस प्रकार का पाप-कर्म कर महेश्वरदत्त नरक में उत्पन्न हुआ।
वहां से निकल कर वह कौशाम्बी नगरी में सोमदत्त पुरोहित की भार्या वसुदता के गर्भ में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम बृहस्पतिदत्त रखा।
कुमार बृहस्पतिदत्त वहां से राजा उदयन का पुरोहित हआ। यह रनिवास में आने-जाने लगा। उसके लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं था। एक बार राजा ने उसे पद्मावती रानी के साथ सहवास करते देख लिया। अत्यन्त क्रुद्ध होकर राजा ने उसे मरवा डाला।
६. नंदोषेण–प्राचीन काल में सिंहपुर नाम का नगर था। वहां सिंहरथ राजा राज्य करता था। दुर्योधन उसका काराध्यक्ष था। वह चोरों को बहुत कष्ट देता था और उन्हें विविध प्रकार की यातनाएं देता था। उस क्रूरता के कारण वह मरकर नरक में गया।
वहां से निकल कर वह मथुरा नगरी के राजा श्रीदाम के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम नदिषेण (नंदिवर्द्धन) रखा। एक बार उसने राजा को मारकर स्वयं राजा बनने का षडयंत्र रचा। षडयंत्र का पता लगने पर राजा ने उसे राजद्रोह के अपराध के कारण दंडित किया। राजा ने उसे पकड़वाकर नगर के प्रमुख चौराहे पर भेजा। वहां राजपुरुषों ने उसे गरम पिघले हुए लोहे से स्नान कराया; गरम सिंहासन पर उसे बिठाया और क्षारतेल से उसका अभिषेक किया और मरकर नरक में गया।
७. शौरिक...पुराने जमाने में नंदीपुर नाम का नगर था। वहां मित्र नाम का राजा राज्य करता था। उसके रसोइए का नाम श्रीक था। वह हिंसा में रत, मांसप्रिय और लोलुपी था। मरकर वह नरक में गया।
वहां से निकलकर वह शौरिक नगर में शौरिकदत्त नाम का मछुआ हुआ। उसे मछलियों का मांस बहुत प्रिय था। एक बार उसके गले में मछली का कांटा अटक गया। उसे अतुल वेदना हुई। उस तीव्र वेदना में मरकर वह नरक में गया।
विपाक सूत्र में यह आठवां अध्ययन है और सातवां अध्ययन है.---."उंबरदत्त' ।
८. उंबरदत्त—प्राचीन काल में विजयपुर नगर में कनकरथ नाम का राजा राज्य करता था। उसके वैद्य का नाम धन्वन्तरी था। वह मांसप्रिय और मांस खाने का उपदेश देता था। मरकर वह नरक में गया।
वहां से निकलकर वह पाडलीषण्ड नगर के सार्थवाह सागरदत्त के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम उदुम्बर
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१००४
ठाणं (स्थान)
स्थान १० :टि० ४७ रखा। एक बार उसे सोलह रोग' हुए। उनकी तीव्र वेदना से मरकर वह नरक में गया।
६. सहस्रोद्दाह-प्राचीन समय में सुप्रतिष्ठ नगर में सिंहसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके पांच सौ रानियां थीं। वह श्यामा नाम की रानी में बहुत आसक्त था। इससे अन्य ४६६ रानियों की माताओं ने श्यामा को मार डालने का षड्यन्त्र रचा। राजा सिंहसेन को इस षड्यंत्र का पता चला। उसने अपने नगर के बाहर एक बड़ा घर बनवाया। उसमें खान-पान की सारी सुविधाएं रखी। एक दिन उसने उन ४६६ रानी-माताओं को आमन्त्रित किया और उस घर में ठहराया। जब सब आ गई तब उसने उस घर में आग लगवा दी। सब जल कर राख हो गईं। राजा मरकर नरक में गया।
वहां से निकल कर वह जीव रोहितक नगर में दत्तसार्थवाह के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम देवदत्त रखा गया। पुष्पनंदी राजा के साथ उसका विवाह सम्पन्न हुआ। राजा पुष्पनंदी अपनी माता का बहुत विनीत था। वह हर समय उसकी भक्ति करता और उसी के कार्य में रत रहता था। देवदत्ता ने अपनी सास को अपने आनन्द में विघ्न समझकर उसे मार डाला। राजा को यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ। उसने विविध प्रकार से देवदत्ता की कदर्थना कर उसे मरवा डाला।
सैकड़ों व्यक्तियों को एक साथ जला देने के कारण, अथवा सहसा अग्नि लगाकर जला देने के कारण उसका नाम 'सहस्रोद्दाह' अथवा सहसोदाह है।
इस कथानक की मुख्य नायिका देवदत्ता होने के कारण विपाक सूत्र में इस अध्ययन का नाम 'देवदत्ता' है।
१०. कुमार लिच्छई-प्राचीन समय में इन्द्रपुर नगर में पृथिवीश्री नाम की गणिका रहती थी। वह अनेक राजकुमारों और वणिक पूत्रों को मंत्र आदि से वशीभूत कर उसके साथ भोग भोगती थी। वह मरकर छठी नरक में गई। वहां से निकल कर वह वर्द्धमान नगर के सार्थवाह धनदेव के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई। उसका नाम अंजू रखा। उसका विवाह राजा विजय के साथ हुआ। वह कुछ वर्ष जीवित रही और योनिशूल से मृत्यु को प्राप्त कर नरक में गई।
इस अध्ययन का नाम 'कुमार लिच्छई। मीमांसनीय है। प्रस्तुत सूत्र में इसका नाम लिच्छवी कुमारों के आचार पर रखा गया है। विपाक सूत्र में इसका नाम 'अंजू' है। जो कथानक की मुख्य नायिका है। इन सबका विस्तृत विवरण विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध से जानना चाहिए।
४७. (सू० ११२)
___ भगवान महावीर के दस प्रमुख श्रावक थे। उनका पूरा विवरण उपासकदशा सूत्र में प्राप्त है। संक्षेप में वह इस प्रकार है
१. आनन्द-यह वाणिज्यग्राम [बनियाग्राम] में रहता था। यह अतुल वैभवशाली और साधन-सम्पन्न था। भगवान महावीर से बोधि प्राप्त कर इसने बारह व्रत स्वीकार किए तदनन्तर श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं सम्पन्न की। उसे अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। गौतम गणधर ने इस पर विश्वास नहीं किया और वे आनन्द से इस विषय में विवाद कर बैठे। भगवान् ने गौतम को आनन्द से क्षमायाचना करने के लिए भेजा।
२. कामदेव-यह चम्पानगरी का वासी श्रावक था। एक देवता ने इसकी धर्म-दृढ़ता की परीक्षा करने के लिए उपसर्ग किए। यह अविचलित रहा।
१. सोलह रोग ये हैं
१. श्वास, २. खांसी, ३. ज्वर, ४. दाह, ५. उदरशूल, ६. भगंदर, ७. अर्श, ८. अजीर्ण, ६. अंधापन, १०. शिरःशूल, ११. अरुचि, १२, अक्षिवेदना, १३. कर्णवेदना, १४. खुजली, १५. जलोदर , १६. कोढ़।
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ठाणं (स्थान)
१००५
स्थान २२: टि०४७
सगा
३. चुलनीपिता-यह वाराणसी [बनारस] का वासी धनाढ्य श्रावक था। एक बार यह भगवान के पास धर्म प्रवचन सुन प्रतिबुद्ध हुआ। बारह व्रत स्वीकार किए। तत्पश्चात् प्रतिमाओं का वहन किया।
एक बार पूर्वरान में उसके सामने एक देव प्रकट हुआ और अपनी प्रतिज्ञाओं का त्याग करने के लिए कहा। चलनीपिता ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। तब देव ने उसकी दृढ़ता की परीक्षा करने के लिए उसके सामने उसके छोटे-बड़े पुत्रों को मार डाला। अन्त में देवता ने उसकी माता को मार डालने की धमकी दी। तब चुलनीपिता अपने व्रत से विचलित हो गया और उसको पकड़ने के लिए दौड़ा। देव आकाशमार्ग से उड़ गया। चुलनीपिता के हाथ में केवल खम्भा आया और वह जोर से चिल्ला उठा। यथार्थता का ज्ञान होने पर उसने अतिचार की आलोचना की।
४. सुरादेव-यह वाराणसी में रहने वाला श्रावक था। इसकी पत्नी का नाम धन्ना था। इसने भगवान महावीर से श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किए। एक बार वह पौषध में स्थित था। अर्द्ध रात्रि के समय एक देव प्रकट हुआ और बोला'देवानुप्रिय ! यदि तू अपने व्रतों को भंग नहीं करेगा तो मैं तेरे सभी पुत्रों को मारकर उबलते हुए तेल की कड़ाही में डाल दूंगा और एक साथ सोलह रोग उत्पन्न कर तुझे पीड़ित करूंगा।' यह सुन सुरादेव विचलित हो गया और वह उसे पकड़ने दौड़ा । देव अन्तहित हो गया। वह चिल्लाने लगा। यथार्थ ज्ञात होने पर उसने आलोचना कर शुद्धि की।
५. चुल्लशतक---यह आलंभीनगरी का वासी था। एक बार यह पौषधशाला में पौषध कर रहा था। एक देव ने उसे धर्म छोड़ने के लिए कहा। चुल्लशतक अपने धर्म में दृढ़ रहा। जब देवता उसका सारा धन अपहरण कर ले जाने लगा तब वह च्युत हुआ और उसे पकड़ने दौड़ा। अन्त में देवमाया को समझ वह आश्वस्त हुआ। वह प्रायश्चित्त ले शुद्ध हुआ।
६. कुण्डकोलिक-यह कांपिल्यपुर का वासी श्रावक था। एक बार वह मध्याह्न में अशोकवन में आया और शिलापट पर बैठ धर्मध्यान में स्थित हो गया। उस समय एक देव आया और उसे गोशालक का मत स्वीकार करने के लिए कहाकुण्डकोलिक ने इसे अस्वीकार कर डाला। वाद-विवाद हुआ। अन्त में देव पराजित होकर चला गया। कुण्डकोलिक अपने सिद्धान्त पर बहुत ही दृढ़ हुआ।
७. सद्दालपुत्त-यह पोलासपुर का निवासी कुम्भकार आजीवक मत का अनुयायी था। एक बार मध्याह्न के समय अशोकवन में धर्म्यध्यान में स्थित था। उस समय एक देव प्रगट होकर बोला-'कल यहाँ निकालज्ञाता, केवलज्ञानी और केवलदर्शनी महामानव आयेंगे। तुम उनकी भक्ति करना। दूसरे दिन भगवान महावीर वहाँ आये। वह उनके दर्शन करने गया और प्रतिबुद्ध हो उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। गोशालक को यह बात मालूम हुई। वह पुनः उसे अपने मत में लाने के लिए प्रयास करने लगा। शकडाल तनिक भी विचलित नहीं हुआ।
एक बार वह प्रतिमा में स्थित था। एक देव उसकी दृढ़ता की परीक्षा करने आया और उसकी भार्या को मार डालने की बात कही। उससे डरकर वह व्रतच्युत हो गया।
८. महाशतक-यह राजगृह नगर का निवासी श्रावक था। इसके तेरह पत्नियां थीं। इसकी प्रधान पत्नी रेवती ने अपनी बारह सौतों को मार डाला।
एक बार महाशतक पौषध कर रहा था। रेवती वहाँ आई और कामभोग की प्रार्थना करने लगी। महाशतक ने उसे कोई आदर नहीं दिया।
एक वार वह थावक की ग्यारह प्रतिमाओं का पालन कर रहा था। उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। इसी बीच रेवती पुनः वहाँ आई और उसने भोग की प्रार्थना की, किन्तु वह विचलित नहीं हुआ।
६. नन्दिनीपिता--यह श्रावस्ती का निवासी धावक था। चौदह वर्ष तक श्रावक के व्रतों का पालन कर पन्द्रहवें वर्ष में वह गृहस्थी से विलग हो धर्ना-ध्यान में समय बिताने लगा। उसने बीस वर्ष पर्यन्त श्रावक-पर्याय का पालन किया।
१०. लेयिकापिता-यह श्रावस्ती नगरी का निवासी था। इसने बीस वर्ष पर्यन्त श्रावक-पर्याय का पालन किया।
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ठाणं (स्थान)
४८. ( सू० ११३ )
१००६
प्रस्तुत सूत्र में अन्तकृतदशा के दस अध्ययनों के नाम दिये गये हैं।
वर्तमान में उपलब्ध इस सूत्र के आठ वर्ग हैं। पहले दो वर्गों में दस-दस, तीसरे में तेरह, चौथे-पांचवें में दस-दस, छठे में सोलह सातवें में तेरह और आठवें में दस अध्ययन हैं ।
वृत्तिकार के अनुसार नमि आदि दस नाम प्रथम दस अध्ययनों के नाम हैं। ये नाम अन्तकृत साधुओं के हैं, किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृतदशा के प्रथम वर्ग के अध्ययन-संग्रह में ये नाम नहीं पाए जाते। वहाँ इनके बदले ये नाम उपलब्ध होते हैं
१. गौतम,
४. गम्भीर,
५. स्तिमित,
६. अचल,
६. प्रसेनजित्,
१०. विष्णु ।
२. समुद्र, ३. सागर, ७. कांपिल्य, ८. अक्षोभ्य, इसलिए सम्भव है कि प्रस्तुत सूत्र के नाम किसी दूसरी वाचना के हैं। ये नाम जन्मान्तर की अपेक्षा से भी नहीं होने चाहिए, क्योंकि उनके विवरणों में जन्मान्तरों का कथन नहीं हुआ है ।
छठे वर्ग के सोलह उद्देशकों में 'विकर्मा' और 'सुदर्शन' ये दो नाम आए हैं। ये दोनों यहाँ आए हुए आठवें और पांचवें नाम से मिलते हैं। चौथे वर्ग में जाली और मयाली नाम आये हैं जो कि प्रस्तुत सूत्र में जमाली और भगाली से बहुत निकट हैं ।
तत्त्वार्थवार्तिक में अन्तकृतदशा के विषयवस्तु के दो विकल्प प्रस्तुत हैं - ( १ ) प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले उन दस-दस केवलियों का वर्णन है जिन्होंने दस-दस भीषण उपसर्ग सहन कर सभी कर्मों का अन्त कर अन्तकृत हुए थे । (२) इसमें अर्हत् और आचार्यों की विधि तथा सिद्ध होने वालों की अन्तिम विधि का वर्णन है। महावीर के तीर्थ में अन्तकृत होने वालों के दस नाम ये हैं-नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कम्बल, पाल और अम्बष्ठपुत्र । प्रस्तुत सूत्र के कुछ नाम इनसे मिलते हैं ।
स्थान १० : टि० ४८-४६
४६. [सू० ११४]
अनुत्तरोपपातिक दशा के तीन वर्ग हैं। प्रथम वर्ग में दस, दूसरे में तेरह और तीसरे में दस अध्ययन हैं।
प्रस्तुत सूत्र में दस अध्ययनों के नाम हैं- ये सम्भवतः तीसरे वर्ग के होने चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिक सूत्र के तीसरे वर्ग के दस अध्ययनों के प्रथम तीन नाम प्रस्तुत सूत के प्रथम तीन नामों से मिलते हैं । उनमें क्रम-भेद अवश्य है। शेष नाम नहीं मिलते। उपलब्ध अनुत्तरोपपातिक के तीसरे वर्ग के दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं
३. ऋषिदास,
४. पेल्लक,
५. रामपुत्र,
१. धन्य, २. सुनक्षत्र, ६. चन्द्रमा, ७. प्रोष्ठक पेढालपु ६. पोट्टिल, १०. विल्ल [ वेल्ल ] | प्रस्तुत सूत्र के नाम तथा अनुत्तरोपपातिक के नाम किन्हीं दो भिन्न-भिन्न वाचनाओं के होने चाहिए। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में ये दस नाम इस प्रकार हैं-ऋषिदास, वान्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, उभय, वारिषेण और चिलातपुत्र । विषयवस्तु के दो विकल्प हैं
८.
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८३ : इह चाष्टौ वर्गास्तव प्रथमवर्गे दशाध्ययनानि तानि चामूनि 'नमी' त्यादि सार्द्ध रूपकम्, एतानि च नमोत्यादिकान्यन्तकृत्साधनामानि अन्तकृद्दशाङ्ग प्रथमवर्गेऽध्ययनसंग्रहेनोपलभ्यन्ते यतस्तत्राभिधीयते
"गोयम, १ समृद्द, २ सागर, ३ गंभीरे, ४ देव होइ थिमिए ५ य ।
अयले ६ कंपिल्ले ७ खलु अक्खोभ = पसेणई विष्ह १०|| इति ततो वाचनान्तरापेक्षाणीमानीति संभावयामः, न च जन्मान्तरनामापेक्षयैतानि भविष्यन्तीति वाच्यं, जन्मान्तराणां तत्वानभिधीयमानत्वादिति ॥
२. तत्त्वार्थराजवार्तिक १२० ।
३. वृत्तिकार ने पोट्टिके इय' पाठ मानकर उसका संस्कृत रूप 'पोष्ठक इति' दिया है। प्रकाशित पुस्तक में पिट्टिमाइय' पाठ और उसका अर्थ 'पृष्टिमातृक' मिलता है।
४. इसके स्थान पर 'धन्य' पाठान्तर दिया हुआ है। वस्तुतः मूलपाठ धन्य ही होना चाहिए। ऐसा होने पर दोनों परम्पराओं में एक ही नाम हो जाता है।
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ठाणं (स्थान)
१००७
१. महावीर के तीर्थ से अनुत्तरोपपातिक विमानों में उत्पन्न होने वाले दस मुनियों का वर्णन ।
२. अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले जीवों का आयुष्य, विक्रिया आदि का वर्णन ' ।
दस मुमुक्षुओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१. ऋषिदास - यह राजगृह का निवासी था । इसकी माता का नाभ भद्रा था। इसने ३२ कन्याओं के साथ विवाह किया तथा प्रव्रज्या ग्रहण कर, मासिक संलेखना से देहत्याग कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुआ ।
२. धन्य - काकंदी में भद्रा नामक सार्थवाह रहती थी । उसके एक पुत्र था। उसका नाम था धन्य । उसका विवाह ३२ कन्याओं के साथ हुआ। भगवान् महावीर से धर्म श्रवण कर वह दीक्षित हो गया । प्रव्रज्या लेकर वह तपोयोग में संलग्न हो गया। उसने बेले-बेले (दो-दो दिन के उपवास) की तपस्या और पारण में आचाम्ल प्रारंभ किया। विकट तपस्या के कारण उसका शरीर केवल ढांचा मात्र रह गया। एक बार भगवान् महावीर ने मुनि धन्य को अपने चौदह हजार शिष्यों में 'दुष्कर करनी' करने वाला बताया ।
स्थान १० : टि० ४६
३. सुनक्षत्र -- यह काकंदी का निवासी था। इसकी माता का नाम भद्रा था। भगवान् महावीर से प्रव्रज्या ग्रहण कर इसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन किया ।
४. कार्तिक भगवती १८३८ ५४ में हस्तिनागपुरवासी कार्तिकसेठ का वर्णन है । उसने प्रव्रज्या ग्रहण की और वह मरकर सौधर्म कल्प में उत्पन्न हुआ । वृत्तिकार का कथन है कि वह कोई अन्य है और प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित कार्तिक कोई दूसरा होना चाहिए। इसका विवरण प्राप्त नहीं है।
५. सट्ठाण [ स्वस्थान ] - विवरण अज्ञात है ।
६. शालिभद्र - यह राजगृह का निवासी था। इसके पिता का नाम गोभद्र और माता का नाम भद्रा था । शालिभद्र ने ३२ कन्याओं के साथ विवाह किया और बहुत ऐश्वर्यमय जीवन जीया। इसके पिता गोभद्र मरकर देवयोनि में उत्पन्न हुए और शालिभद्र के लिए विविध भोग सामग्री प्रस्तुत करने लगे ।
एक बार नेपाल का व्यापारी रत्नकंबल बेचने वहां आया। उनका मूल्य अधिक होने के कारण किसी ने उन्हें नहीं खरीदा। राजा ने भी उन्हें खरीदने से इन्कार कर दिया।
हताश होकर व्यापारी अपने देश लौट रहा था । भद्रा ने सारे कंबल खरीद लिए। कंबल सोलह थे और भद्रा की पुत्र- वधुएं ३२ थीं। उसने कंबलों के बत्तीस टुकड़े कर उन्हें पोंछने के लिए दे दिए।
राजा ने यह बात सुनी। वह कुतूहलवश शालिभद्र को देखने आया । माता ने कहा- पुत्र ! तुम्हें देखने स्वामी घर आए हैं।' स्वामी की बात सुन उसे वैराग्य हुआ और जब भगवान् महावीर राजगृह आए तब वह दीक्षित हो गया।
प्रस्तुत सूत्र में इसी शालिभद्र का उल्लेख होना संभव है, किन्तु उपलब्ध अनुत्तरोपपातिक सूत्र में इस नाम का अध्ययन प्राप्त नहीं है । तत्त्वार्थवार्तिक से भी अनुत्तरोपपातिक के 'शालिभद्र' नामक अध्ययन की पुष्टि होती है। *
७. आनंद - भगवान् के एक शिष्य का नाम 'आनंद' था। वह बेले बेले की तपस्या करता था। एक बार वह पारणा के दिन गोचरी के लिए निकला । गोशाल ने उससे बातचीत की। भिक्षा से निवृत्त हो आनंद भगवान् के पास आया और सारी बातें उन्हें कही ।
इसका विशेष विवरण प्राप्त नहीं है ।
आनंद नामक मुनि का एक उल्लेख निरयावलिका के 'कप्पवडसिया' के नौंवें अध्ययन में प्राप्त होता है। किन्तु वहाँ उसे दशवें देवलोक में उत्पन्न माना है तथा महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होने की बात कही है। अतः यह प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित आनंद से भिन्न है ।
८. तेतली - ज्ञाताधर्मकथा [ १|१४] में तेतलीपुत्र के दीक्षित होने और सिद्धगति प्राप्त करने की बात मिलती है।
१. तत्वार्थराजवार्तिक १।२० ।
२. स्थानांगवृत्ति पत्र ४८३ यो भगवत्यां श्रूयते सोऽन्य एव अयं पुनरन्योऽनुत्तर सुरेषूपपन्न इति ।
३. स्थानांगवृत्ति पत्र ४८३ सोऽयमिह सम्भाव्यते, केवलमनुत्तरोपपातिका नाधीत इति ।
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ठाणं (स्थान)
१००८
स्थान १० : टि० ५०
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित 'तेतली' से यह भिन्न है। इसका विशेष विवरण प्राप्त नहीं है।
६. दशार्णभद्र-दशार्णपुर नगर के राजा का नाम दशार्णभद्र था। एक बार भगवान् महावीर वहां आए। राजा अपने ठाट-बाट के साथ दर्शन करने गया। उसे अपनी ऋद्धि और ऐश्वर्य पर बहुत गर्व था। इन्द्र ने इसके गर्व को नष्ट करने की बात सोची। इन्द्र भी अपनी ऋद्धि के साथ भगवान् को वन्दन करने आया। राजा दशार्णभद्र ने इन्द्र की ऋद्धि देखी। उसे अपनी ऋद्धि क्षीण प्रतीत हुई। वैराग्य बढ़ा और वह वहीं भगवान् के पास दीक्षित हो गया।
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित यही दशार्णभद्र होना चाहिए ! अनुत्तरोपपातिक सूत्र में इसका नामोल्लेख नहीं है। कहींकहीं इसके सिद्धगति प्राप्त करने का उल्लेख भी मिलता है।
१०. अतिमुक्तक-पोसालपुर नगर में विजय नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम 'श्री' था। उसके पुत्र का नाम अतिमुक्तक था। जब वह छह वर्ष का था, तब एक बार गणधर गौतम को भिक्षा-चर्या के लिए घमते देखा। वह उनकी अंगुली पकड़ अपने घर ले गया। भिक्षा दी और उनके साथ-साथ भगवान के पास आ दीक्षित हो गया।
उपर्युक्त विवरण अन्तकृतदशा के छठे वर्ग के पन्द्रहवें अध्ययन में प्राप्त है।
प्रस्तुत सूत्र का अतिमुक्तक मुनि मरकर अनुत्तरोपपातिक में उत्पन्न होता है। अत: दोनों दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति होने चाहिए।
अनुत्तरोपपातिक सूत्र के तीनों वर्गों में कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है।
५०. (सू० ११५)
प्रस्तुत सूत्र में दशाश्रुतस्कंध के दस अध्ययनों के विषयों का सूचन है। इनमें से कई एक विषय समवायांग में भी आए हैं। १. बीस असमाधिस्थान
समवाय २० २. इक्कीस सबल
समवाय २१ ३. तेतीस आशातना
समवाय ३३ ४. दस चित्तसमाधिस्थान
समवाय १० ५. ग्यारह उपासक-प्रतिमा
समवाय ११ ६. बारह भिक्षु-प्रतिमा
समवाय १२ ७. तीस मोहनीय स्थान
समवाय ३० दशाश्रुतस्कंध गत इन विषयों के विवरणों में तथा समवायांग गत विवरणों में कहीं-कहीं क्रम-भेद, नाम-भेद तथा व्याख्या-भेद प्राप्त होता है। इन सबकी स्पष्ट मीमांसा हम समवायांग सूत्र के सानुवाद संस्करण में तत्-तत् समवाय के अन्तर्गत कर चुके हैं।
१. असमाधिस्थान-असमाधि का अर्थ है-अप्रशस्तभाव । जिन क्रियाओं से असमाधि उत्पन्न होती है वे अस. माधिस्थान हैं । वे बीस हैं।
देखें-समवायांग, समवाय २० ।
२. शबल---जिस आचरण द्वारा चरित्र धब्बों वाला होता है, उस आचरण या आचरणकर्ता को 'शबल' कहा जाता है। वे इक्कीस हैं।
देखें-समवायांग, समवाय २१ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पन ४८४ : इह त्वयमनुत्तरोपपातिकेषु दश
माध्ययनतयोक्तस्तदपर एवायं भविष्यतीति ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८३ : तेतलिसुत इति यो ज्ञाताध्ययनेषु
श्रूयते, स नाय, तस्य सिद्धिगमनश्रवणात् । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८४ : सोऽयं दशार्णभद्रः सम्भाव्यते, पर
मनुत्तरोपपातिकांगे नाधीतः, क्वचित् सिद्धश्च श्रूयते इति ।
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ठाणं (स्थान)
१००६
स्थान १०:टि०५१
३. आशातना-जिन क्रियाओं से ज्ञान आदि गुणों का नाश किया जाता है, उन्हें आशातना कहते हैं। अशिष्ट और उदंड व्यवहार भी इसी के अन्तर्गत है। आशातना के तेतीस प्रकार हैं।
देखें-समवायांग, समवाय ३३ ।
४. गणि संपदा-इसका अर्थ है-आचार्य की अतिशायी विशेषताएं अर्थात् आचार्य के आचार, ज्ञान, शरीर, वचन आदि विशेष गुण।
५. चित्त-समाधि- इसका अर्थ है-चित्त की प्रसन्नता। इसकी विद्यमानता में चित्त की प्रशस्त परिणति होती है। देखें-समवायांग, समवाय १० । ६. उपासक-प्रतिमा--श्रावकों के विशेष व्रत । देखें--समवायांग, समवाय ११ । ७. भिक्षु-प्रतिमा---मुनियों के विशेष अभिग्रह । देखें-समवायांग, समवाय १२ ॥ ८. पर्युषणाकल्प-मूल प्राकृत शब्द है 'पज्जोसवणाकप्प'। वृत्तिकार ने 'पज्जोसवणा' के तीन संस्कृत रूप दिये हैं(१) पर्यासवना-जिससे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी ऋतुबद्ध-पर्यायों का परित्याग किया जाता है। (२) पर्युपशमना-जिसमें कषायों का उपशमन किया जाता है। (३) पर्यषणा--जिसमें सर्वथा एक क्षेत्र में जघन्यत: सतरह दिन और उत्कृष्टत: छह मास रहा जाता है।' ९. मोहनीयस्थान-मोहनीय कर्म बंध की क्रियाएं । ये तीस हैं। देखें-समवायांग, समवाय ३० । १०. आजातिस्थान-आजाति का अर्थ है-जन्म । वह तीन प्रकार का होता है—सम्मूर्छन, गर्भ और उपपात ।
५१. (सू० ११६)
स्थानांग में निर्दिष्ट प्रश्नव्याकरण का स्वरूप वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण से सर्वथा भिन्न है।'
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित दस अध्ययनों के नामों से समूचे सूत्र के विषय की परिकल्पना की जा सकती है। इस सूत्र में प्रश्न-विद्याओं का प्रतिपादन था। इन विद्याओं के द्वारा वस्त्र, कांच, अंगुष्ठ, हाथ आदि-आदि में देवता को बुलाया जाता था और उससे अनेक विध प्रश्न हल किए जाते थे।
इस विवरण वाला सूत्र कब लुप्त हुआ यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता और वर्तमान रूप का निर्माण किसने, कब किया यह भी स्पष्ट नहीं है। यह तो निश्चित है कि वर्तमान में उपलब्ध रूप 'प्रश्नव्याकरण' नाम का वाहक नहीं हो सकता।
उपलब्ध प्रश्नव्याकरण के अध्ययन ये हैं---- १. प्राणातिपात
६. प्राणातिपात विरमण २. मृषावाद
७. मृषावाद विरमण ३. अदत्तादान
८. अदत्तादान विरमण ४. मैथुन
६. मैथुन विरमण ५. परिग्रह
१०. परिग्रह विरमण दिगंबर साहित्य में भी प्रश्नव्याकरण का वर्ण्य-विषय वही निर्दिष्ट है जिसका निर्देश यहां किया गया है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४८५ । २. स्थानांगवृत्ति, पन ४८५ : प्रश्नव्याकरणदशा इहोक्तरूपा न
दश्यन्ते दृश्यमानास्तु पञ्चाश्रवपञ्चसंवरात्मिका इति।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४८५ : प्रश्नविद्या: यकाभिः क्षोमकादिषु
देवतावतारः क्रियते इति । ४. तत्वार्थवार्तिक १।२०।
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शुक्र
ठाणं (स्थान)
१०१०
स्थान १० : टि०५२-५४ ५२, ५३, ५४ (सू० ११७-११६)
वृत्तिकार ने बंधदशा के विषय में लिखा है कि वह श्रौत-अर्थ से व्याख्येय है। द्विगृद्धिदशा और दीर्घदशा को उन्होंने स्वरूपतः अज्ञात बतलाया है और दीर्घदशा के अध्ययनों के विषय में कुछ संभावनाएं प्रस्तुत की हैं। नंदी की आगम सूची में भी इनका उल्लेख नहीं है । दीर्घदशा में आये हुए कुछ अध्ययनों का निरयावलिका के कुछ अध्ययनों के नाम साम्य हैं । जैसे --- दीर्घदशा
निरयावलिका चन्द्र
चन्द्र [तीसरा वर्ग पहला अध्ययन] सूर्य [ , , दूसरा अध्ययन]
शुक्र [ , , तीसरा अध्ययन] श्रीदेवी
श्रीदेवी [चौथा वर्ग पहला अध्ययन] प्रभावती द्वीपसमुद्रोपपत्ति बहुपुत्रीमंदरा
बहुपुत्रिका तीसरा वर्ग चौथा अध्ययन] संभूतविजय पक्ष्म
उच्छ्वास निःश्वास वृत्तिकार ने निरयावलिका के नाम-साम्य वाले पांच तथा अन्य दो अध्ययनों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने के बाद शेष तीन अध्ययनों को [छठा द्वीपसमुद्रोपपत्ति, नौंवा स्थविर पक्ष्म तथा दसवां उच्छवासनिःश्वास ] 'अप्रतीत' कहा है-शेषाणि त्रीण्यप्रतीतानि ।।
उनके अनुसार सात अध्ययनों का विवरण इस प्रकार है
१. चन्द्र-एक बार भगवान् महावीर राजगृह में समसवृत थे। ज्योतिष्कराज चन्द्र वहां आया। भगवान् को वंदन कर, नाट्य-विधि का प्रदर्शन कर चला गया । गणधर गौतम ने भगवान् से उसके विषय में पूछा। तब भगवान् बोले-यह पूर्वभव में श्रावस्ती नगरी में अंगजित् नाम का श्रावक था । यह पार्श्वनाथ के पास दीक्षित हुआ। श्रामण्य की एक बार विराधना की। वहां से मरकर यह चन्द्र हुआ है।
२. सूर्य ---यह पूर्व भव में श्रावस्ती नगरी में सुप्रतिष्ठित नाम का श्रावक था। इसने भी पार्श्वनाथ के पास संयम ग्रहण किया, किन्तु उसे कुछ विराधित कर सूर्य हुआ।
३. शुक्र—एक बार शुक्र ग्रह राजगृह में भगवान् को वंदना कर लौटा। गौतम के पूछने पर भगवान् ने कहा—'यह पूर्व भव में वाराणसी में सोमिल नामक ब्राह्मण था। एक बार यह लौकिक धर्म-स्थानों का निर्माण करा कर दिक्प्रोक्षक' तापस बना। विविध तप करने लगा। एक बार इसने यह प्रतिज्ञा की कि जहाँ कहीं मैं गड्ढे में गिर जाऊंगा वहीं प्राण छोड़ दूंगा। इस प्रतिज्ञा को ले, काष्ठमुद्रा से मुंह को बांध उत्तर दिशा की ओर इसने प्रस्थान किया। पहले दिन एक अशोक वृक्ष के नीचे होम आदि से निवृत्त हो बैठा था। एक देव ने वहां आवाज दी-'अहो सोमिल ब्राह्मण महर्षे ! तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।' पांच दिन तक भिन्न-भिन्न स्थानों में यही आवाज सुनायी दी। पांचवें दिन इसने देव से पूछा-मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८५ बन्धदशानामपि बन्धाद्यध्ययनानि
धौतेनार्थेन व्याख्यातव्यानि । २. वही, पत्र ४८५ : द्विगृद्धिदशाश्चस्वरूपतो ऽप्यनवसिताः। दीर्घ
दशाः स्वरूपतोऽवनगता एव, तदध्ययनानि तु कानिचिन्नर
कावलिकाश्रुतस्कन्धे उपलभ्यन्ते ।। ३. वही, वृत्ति पत्र ४८६ ।
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ठाणं (स्थान)
१०११
स्थान १० : टि० ५५
-
क्यों है ? देव ने कहा तूने अपने गृहीत अणुव्रतों की विराधना की है। अभी भी तू पुनः उन्हें स्वीकार कर ।' तापस ने वँसे ही किया । श्रावकत्व का पालन कर वह शुक्र देव हुआ है।
४. श्रीदेवी - एक बार श्रीदेवी सौधर्म देवलोक से भगवान् महावीर को वंदना करने राजगृह में आई । नाटक दिखाकर जब वह लौट गई तब गौतम ने इसके पूर्वभव के विषय में पूछा । भगवान् ने कहा - इस राजगृह में सुदर्शन सेठ रहता था। उसकी पत्नी का नाम 'प्रिया' था। उसकी सबसे बड़ी पुत्री का नाम 'भूता' था। वह पार्श्वनाथ के पास प्रव्रजित हुई, किन्तु उसका अपने शरीर के प्रति बहुत ममत्व था। वह उसकी सार-संभाल में लगी रहती थी। उसने अतिचार की आलोचना नहीं की। मरकर वह देवलोक में उत्पन्न हुई।
५. प्रभावती - यह चेटक महाराजा की पुत्री थी। इसका विवाह वीतभयनगर के राजा उद्रायण के साथ हुआ । यह निरयावलिका सूत्र में उपलब्ध नहीं है।
६. बहुपुत्रिका - यह सौधर्म देवलोक से भगवान् को वंदना करने राजगृह में आई। भगवान् ने इसका पूर्वभव बताते हुए कहा - वाराणसी नगरी में भद्र नाम का सार्थवाद रहता था। उसकी यह भार्या यह सुभद्रा थी। यह वंध्या थी। इसके मन में संतान की प्रबल इच्छा रहती थी। एक बार कई साध्वियां इसके घर भिक्षा लेने आईं। इसने पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। उन्होंने धर्म की बात कही। वह प्रव्रजित हो गई। दीक्षित हो जाने पर भी वह दूसरों की सन्तानों की देख-रेख में दिलचस्पी लेने लगी। इस अतिचार का उसने सेवन किया । मरकर वह सौधर्म में देवी हुई ।
७. स्थविर संभूतविजय – ये भद्रबाहु स्वामी के गुरुभ्राता और स्थूलभद्र तथा शकडालपुत्र के दीक्षा-गुरु थे ।
५५. ( सू० १२० )
वृत्तिकार ने संक्षेपिकदशा सूत्र के स्वरूप को अज्ञात माना है ।"
नंदीसूत्र में कालिक श्रुत की सूची में इन सभी अध्ययनों के नाम मिलते हैं। "
ऐसा प्रतीत होता है कि नंदी में प्राप्त दस ग्रन्थों का एक श्रुतस्कंध के रूप में संकलन कर उन्हें अध्ययनों का रूप दिया गया है।
१. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति
२. महतीविमानप्रविभक्ति - जिस ग्रन्थपद्धति में आवलिका में प्रविष्ट तथा इतर विमानों का विभाजन किया जाता है उसे विमानप्रविभक्ति कहा जाता है । ग्रन्थ के छोटे और बड़े रूप के कारण इन्हें 'क्षुल्लिका' और 'महती' कहा गया है।
३. अंगचूलिका - आचार आदि अंगों की चूलिका ।
४. वर्गचूलिका - अन्तकृतदशा की चूलिका ।
५. व्याख्याचूलिका - भगवती सूत्र की चूलिका ।
व्यवहारभाष्य की वृत्ति में अंगचूलिका और वर्गचूलिका का अर्थ भिन्न किया है । उपासकदशा आदि पांच अंगों की चूलिका को अंगचूलिका और महाकल्पश्रुत की चूलिका को वर्ग चूलिका माना है।"
इन पांचों – दो विमान प्रविभक्तियां तथा तीन चूलिकाओं को ग्यारह वर्ष की संयम पर्याय वाला मुनि ही अध्ययन कर सकता है। "
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८६ संक्षेपिकदशा अप्यनवगतस्वरूपा एव । २. नंदी सूत्र ७८ ।
३. नंदी, मलयगिरीयावृत्ति, पत्र २०६ : आवलिकाप्रविष्टानामितरेषां वा विमानानां प्रविभक्तिः प्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धती सा विमानप्रविभक्तिः ।
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४. व्यवहार उद्देशक १०, भाष्यगाथा १०७, वृत्ति पत्र १०८ : अंगाणमंगचूली महकप्पसुयस्स वग्गचूलिओ.......
अंगानामुपासकदशाप्रभृतीनां पञ्चानां चूलिका निराafter अंगचूलिका, महाकल्पश्रुतस्य चूलिका वर्गचूलिका । ५. व्यवहारभाष्य १०।२६ ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० ५६-५७
इसके अनुसार निरयावलिका के पांच वर्गों का नाम अंगचूलिका होता है।
६. अरुणोपपात [अरुण+ अवपात] - अरुण नामक देव का वर्णन करने वाला ग्रन्थ । इस ग्रन्थ का परावर्तन करने से अरुण देव का उपपात (अवपात) होता है-वह परावर्तन करनेवाले व्यक्ति के समक्ष उपस्थित हो जाता है।
नंदी के चूर्णिकार ने एक घटना से इसे स्पष्ट किया है
एक बार श्रमण अरुणोपपात ग्रन्थ के अध्ययन में संलग्न होकर उसका परावर्तन कर रहा था। उस समय अरुणदेव का आसन चलित हआ। उसने त्वरता के साथ अवधिज्ञान का प्रयोग कर सारा वृतान्त जान लिया । वह अपने पूर्ण दिव्य ऐश्वर्य के साथ उस श्रमण के पास आया; उसे वन्दना कर हाथ जोड़ कर, भूमि से कुछ ऊंचा अधर में बैठ गया। उसका मन वैराग्य से भरा था और उसके अध्यवसाय विशुद्ध थे। वह उस ग्रन्थ का स्वाध्याय सुनने लगा। ग्रन्थ का स्वाध्याय समाप्त होने पर उसने कहा-'भगवन् ! आपने बहुत अच्छा स्वाध्याय किया; बहुत अच्छा स्वाध्याय किया। आप कुछ वर मांगे।' मुनि ने कहा- 'मुझे वर से कोई प्रयोजन नहीं है।' यह सुन अरुण देव के मन में वैराग्य की वृद्धि हुई और वह नि को वन्दना-नमस्कार कर पुनः अपने स्थान पर लौट गया।'
इसी प्रकार शेष चार-वरुणोपपात, गरुडोपपात, वेलंधरोपपात और वैश्रमणोपपात-के विषय में भी वक्तव्य है।'
५६. योगवाहिता (सू० १३३)
वृत्तिकार ने योगवहन के दो अर्थ किए है१. श्रुतउपधान करना, २. समाधिपूर्वक रहना।
प्राचीन समय में प्रत्येक आगम के अध्ययन-काल में एक निश्चित विधि से 'योगवहन' करना होता था। उसे श्रतउपधान' कहते थे।
देखें-३।८८ का टिप्पण।
५७. (सू० १३६)
स्थविर का अर्थ है-ज्येष्ठ । वह जन्म, श्रुत, अधिकार, गुण आदि अनेक संदों में होता है।
ग्राम, नगर और राष्ट्र की व्यवस्था करनेवाले बुद्धिमान, लोकमान्य और सशक्त व्यक्तियों को क्रमशः ग्रामस्थविर, नगरस्थविर और राष्ट्रस्थविर कहा जाता है।
४. प्रशस्तास्थविर-धर्मोपदेशक ।
५-७. कुलस्थविर, गणस्थविर, संघस्थविर-वृत्तिकार ने सूचित किया है कि कुल, गण और संघ की व्याख्या लौकिक और लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से की जा सकती है। कुल, गण और संघ ये तीनों शासन की इकाइयां रही हैं । सर्वप्रथम कुल की व्यवस्था थी। उसके पश्चात् गणराज्य और संघराज्य की व्यवस्था भी प्रचलित हुई थी। इसमें जिस व्यक्ति पर कुल आदि की व्यवस्था तथा उसके विघटनकारी का निग्रह करने का दायित्व होता, वह स्थविर कहलाता था। यह लौकिक व्यवस्था-पक्ष है।
लोकोत्तर व्यवस्था के अनुसार एक आचार्य के शिष्यों को कुल, तीन आचार्य के शिष्यों को गण और अनेक आचाय के शिष्यों को संघ कहा जाता है।
१. (क) नंदी, चूणि पृष्ठ ४६ ।
(ख) नंदी, मलयगिरीयावृत्ति, पत्र २०६, २०७ ।
(ग) स्थानांगवत्ति, पत्र ४८६ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४८६ : एवं वरुणोपपातादिष्वपि भणितव्य
मिति।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८७ । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४८६ : ये कुलस्य गणस्य संघस्य लौकिकस्य
लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकारिणस्तद्भक्तुश्च निक्राहकास्ते तथोच्यन्ते ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि०५८
इनमें जिस व्यक्ति पर शिष्यों में अनुत्पन्न श्रद्धा उत्पन्न करने और उनकी श्रद्धा विचलित होने पर उन्हें पूनः धर्म में स्थिर करने का दायित्व होता है वह स्थविर कहलाता है।
८. जाति स्थविर–जन्म पर्याय से जो साठ वर्ष का हो। ६. श्रुत स्थविर .....स्थानांग और समवायांग का धारक। १०. पर्याय स्थविर-बीस वर्ष की संयम-पर्याय वाला।
व्यवहार भाष्य में इन तीनों स्थविरों की विशेष जानकारी देते हुए बताया है कि - जाति स्थविरों के प्रति अनुकम्पा; श्रुत स्थविर की पूजा और पर्याय स्थविर की वन्दना करनी चाहिए।
जाति स्थविर को काल और उनकी प्रकृति के अनुकूल आहार, आवश्यकतानुसार उपधि और वसति देनी चाहिए। उनका स्तारक मदु हो और जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना पड़े तो दूसरा व्यक्ति उसे उठाए। उन्हें यथास्थान पानी पिलाए।
श्रत स्थविर को कृतिकर्म और वन्दनक देना चाहिए तथा उनके अभिप्राय के अनुसार चलना चाहिए। जब वे आयें तब उठना, उन्हें बैठने के लिए आसन देना तथा उनका पाद-प्रमार्जन करना, जब वे सामने हों तो उन्हें योग्य आहार ला देना, यदि परोक्ष में हों तो उनकी प्रशंसा और गुणकीर्तन करना तथा उनके सामने ऊंचे आसन पर नहीं बैठना चाहिए।
पर्याय स्थविर चाहे फिर वे गुरु, प्रव्राजक या वाचनाचार्य न भी हों, फिर भी उनके आने पर उठना चाहिए तथा उन्हें वन्दना कर उनके दंड (लाठी) को ग्रहण करना चाहिए।' ५८. (सू० १३७)
प्रस्तुत सूत्र में दस प्रकार के पुत्रों का उल्लेख है। वृत्तिकार ने उनकी व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं। उन्होंने आत्मज पुत्र की व्याख्या में आदित्ययशा का उदाहरण दिया है। इससे आत्मज का आशय स्पष्ट होता है।
क्षेत्रज की व्याख्या में उन्होंने पांडवों का उदाहरण दिया है। लोकरूढि के अनुसार युधिष्ठिर आदि कुन्ति के पुत्र नियोग तथा धर्म आदि के द्वारा उत्पन्न माने जाते हैं।
वत्ति में 'उवजाइय' पाठ उद्धृत है। उसकी व्याख्या औपयाचितक और आवपातिक-इन दो रूपों में की है। औपयाचितक का अर्थ वही है जो अनुवाद में दिया हुआ है। आवपातिक का अर्थ होता है-सेवा से प्रसन्न होकर स्वीकार किया हुआ पुत्र ।
- मनुस्मृति में बारह प्रकार के पुत्र बतलाए गए हैं-औरस, क्षेत्रज, दत्त, कृत्रिम, गूढोत्पन्न, अपविद्ध, कानीन, सहोड, क्रीत, पौनर्भव, स्वयं दत्त और शौद्र । इसकी व्याख्या इस प्रकार है
१. औरस--विवाहित पत्नी से उत्पन्न पुत्र ।
५. क्षेत्रज-मृत, नपुंसक अथवा सन्तानावरोधक व्याधि से पीड़ित मनुष्य की स्त्री में, नियोग विधि से कुल के मुख्यों की आज्ञा प्राप्त कर उत्पन्न किया जाने वाला पुत्र ।
बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार पति के मृतक, नपुंसक अथवा रोगी होने पर उसकी पत्नी नियोग-विधि से पुत्र प्राप्त कर सकती थी, यह नियोग दो पुत्रों की प्राप्ति तक ही सम्मत था। विधवा को सम्पत्ति पर अधिकार करने के लिए भी लोग कभी-कभी नियोग स्थापित कर लेते थे, किन्तु यह सम्मत नहीं था, नियोग द्वारा प्राप्त पूत्र वैध व धम्र्य नहीं माना जाता।'
१. स्थानांग सूत्र ३।१८७ में स्थानांग और समवायांग के धारक
को श्रुत स्थविर कहा है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में वृत्तिकार ने 'श्रुतस्थविरा:-समवायाद्यङ्गधारिणः' (वत्तिपत्र '४८६) समवाय आदि अंगों को धारण करनेवाला श्रत स्थविर होता है-ऐसा लिखा है आदि से उन्हें क्या अभिप्रेत था यह स्पष्ट नहीं है।
व्यवहार सूत्र में भी स्थानांग और समवायांगधर को श्रुतस्थविर माना है। (ठाणसमवायधरे सुयथेरे--व्यवहार १०॥ सूत्र १५)
२. व्यवहार १०।१५, भाष्यगाथा ४६-४६; वृत्तिपन्न १०१। ३. स्थानांगवृत्ति पत्र ४८६ : 'उवजाइय' त्ति उपयाचिते-देवता
राधने भव: औपया चितकः, अथवा अवपात:-सेवा सा
प्रयोजनमस्येत्यावपातिक:--सेवक इति हृदयम् । ४. मनुस्मृति ।।१६५-१७८ । ५. बोधायन धर्मसूत्र रा२।१७, २।२।६८-७० । ६. वसिष्ठ धर्मसूत्र १७१५७ । ७. आपस्तम्ब धर्मसूत्र २।१०।२७।४-७ ।
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ठाणं (स्थान)
कृत्रिम पुत्र कहलाता है।
३. दत्त ( दत्रिम ) - गोद लिया हुआ पुत्र ।
४. कृत्रिम - जो गुण-दोष में विचक्षण. पुत्रगुणयुक्त समान जातीय है उसे अपना पुत्र बना लिया जाता है वह
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५. गूढोत्पन्न - जिसका उत्पादक बीज ज्ञात न हो वह गूढोत्पन्न पुत्र कहलाता है ।
६. अपविद्ध माता-पिता के द्वारा त्यक्त अथवा दोनों में से किसी एक के मर जाने पर किसी एक द्वारा व्यक्त पुत्र को पुत्र रूप में स्वीकृत किया जाता है, वह अपविद्ध पुत्र कहलाता है ।
७. कानीन - कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र ।
८. सहोढ —ज्ञात या अज्ञात अवस्था में जिस गर्भवती का विवाह संस्कार किया जाता है, उससे उत्पन्न पुत्र को महोढ कहा जाता है ।
६. श्रीतक — खरीदा हुआ पुत्र ।
१०. पौनर्भव - - पति द्वारा परित्यक्त, विधवा या पुनर्विवाहित स्त्री के पुत्र को पौनर्भव कहा जाता है।
११. स्वयंदत्त --- जिसके माता-पिता मर गए हों, अथवा माता-पिता ने बिना ही कोई कारण जिसका त्याग कर दिया हो, वह पुत्र स्वयंदत्त कहलाता है।
१२. शौद्र ( पारशव) - ब्राह्मण के द्वारा शूद्र स्त्री से उत्पन्न पुत्र को शौद्र कहा जाता है।
स्थान १० : टि०५६
प्रस्तुत सूत्र में गिनाए गए दस नाम तथा मनुस्मृति के १२ नामों में केवल तीन नाम समान हैं-क्षेत्रज, दत्तक और औरस । प्रस्तुत सूत्र का 'संवद्धित पुत्र' और मनुस्मृति का 'अपविद्धपुत्र' – इन दोनों की व्याख्या समान है । 'दत्तक' की व्याख्या में दोनों एकमत हैं, किन्तु क्षेत्रज और औरस की व्याख्या भिन्न भिन्न है ।
कौटलीय अर्थशास्त्र में भी प्रायः मनुस्मृति के समान ही पुत्रों के प्रकार निर्दिष्ट हैं ।'
१. कौटलीय अर्थशास्त्र ३२६; पृष्ठ १७५ ।
२. ऋग्वेद, १०।१६१।४ : शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्ता
ञ्छतमुवसन्तान् ।
५६ ( सू० १५४)
भारतीय साहित्य में सामान्यतया मनुष्य को शतायु माना गया है। वैदिक ऋषि जिजीविषा के स्वर में कहता हैहम वर्धमान रहते हुए सौ शरद्, सौ हेमन्त और सौ वसन्त तक जीएं। प्रस्तुत सूत्र में शतायु मनुष्य की दस दशाओं का प्रतिपादन है । प्रत्येक दशा दस-दस वर्ष की है। दशवैकालिक नियुक्ति ( गाथा १० ) में भी इन दस दशाओं का निरूपण प्राप्त है । इनकी व्याख्या के लिए हरिभद्रसूरि ने दशवैकालिक की टीका में पूर्व मुनि रचित दस गाथाएं उद्धृत की हैं। वे ही गाथाएं अभयदेवसूरि ने स्थानांग वृत्ति में उद्धृत की हैं। उनके अनुसार दस दशाओं के स्वरूप और कार्य का वर्णन इस प्रकार है
१. बाला -- यह नवजात शिशु की दशा है। इसमें सुख-दुःख की अनुभूति तीव्र नहीं होती ।
२. क्रीड़ा - इसमें खेलकूद की मनोवृत्ति अधिक होती है; कामभोग की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती ।
३. मन्दा – इस दशा में मनुष्य में काम-भोग भोगने का सामर्थ्य हो जाता है। वह विशिष्ट बल बुद्धि के कार्य-प्रदर्शन में मन्द रहता है ।
४. बला- इसमें बल-प्रदर्शन की क्षमता प्राप्त हो जाती है।
५. प्रज्ञा- इसमें मनुष्य स्त्री, धन आदि की चिन्ता करने लगता है और कुटुम्बवृद्धि का विचार करता है।
६. हायनी --- इसमें मनुष्य भोगों से विरक्त होने लगता है और इन्द्रियबल क्षीण हो जाता है ।
७. प्रपञ्चा – इसमें मुंह से थूक गिरने लगता है, कफ बढ़ जाता है और बार-बार खांसना पड़ता है।
८. प्राग्भारा- इसमें चमड़ी में झुर्रियां पड़ जाती हैं और बुढ़ापा घेर लेता है। मनुष्य नारी वल्लभ नहीं रहता ।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०:टि० ६०-६१
६. मृन्मुखी---इसमें शरीर जरा से आक्रान्त हो जाता है, जीवन-भावना नष्ट हो जाती है।
१०. शायनी-इसमें व्यक्ति हीनस्वर, भिन्नस्वर, दीन, विपरीत, विचित्त (चित्तशून्य), दुर्बल और दुःखित हो जाता है । यह दशा व्यक्ति को निद्राघूणित जैसा बना देती है।'
हरिभद्रसूरि ने नवी दशा का संस्कृत रूप मन्मुखी' और दसवीं का 'शायिनी' किया है। अभयदेबसूरि ने नवी दशा का संस्कृतरूप 'मुङ्मुखी' और दसवीं का 'शायनी' और 'शयनी' किया है।
६०. आभियोगिक श्रेणियां (सू० १५७)
ये आभियोगिक देव सोम आदि लोकपालों के आज्ञावर्ती हैं। विद्याधर श्रेणियों से दस योजन ऊपर जाने पर इनकी श्रेणियां हैं।
६१. (सू० १६०)
प्रस्तुत सूत्र में दस आश्चयों का वर्णन है। आश्चर्य का अर्थ है-कभी-कभी घटित होने वाली घटना। जो घटना सामान्यतया नहीं होती, किन्तु स्थिति-विशेष में अनन्तकाल के बाद होती है, उसे आश्चर्य कहा जाता है। जैन शासन में आदिकाल से भगवान महावीर के काल तक दस ऐसी अदभुत घटनाएं घटी, जिन्हें आश्चर्य की संज्ञा दी गई है। वे घटनाएं भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों के समय में घटित हुई हैं। इनमें १,२,४,६, और ८ भगवान महावीर से तथा शेष भिन्न-भिन्न तीर्थकरों के शासनकाल से सम्बन्धित हैं। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१. उपसर्ग-तीर्थकर अत्यन्त पुण्यशाली होते हैं। सामान्यतया उनके कोई उपसर्ग नहीं होते। किन्तु इस अवसपिणीकाल में तीर्थंकर महावीर को अनेक उपसर्ग हुए । अभिनिष्क्रमण के पश्चात् उन्हें मनुष्य, देव और तिर्यञ्च कृत उपसों का सामना करना पड़ा । अस्थिक ग्राम में शूलपाणि यक्ष ने महावीर को अट्टहास से डराना चाहा; हाथी, पिशाच और सर्प का रूप धारण कर डराया और अन्त में भगवान् के शरीर के सात अवयवों-सिर, कान, नाक, दांत, नख, आँख और पीठ-में भयंकर वेदना उत्पन्न की।
एक बार महावीर म्लेच्छदेश दृढ़भूमि 'के' बहिर्भाग में आए। वहां पेढाल उद्यान के पोलासचैत्य में ठहरे और तेले की तपस्या कर एक रात्रि की प्रतिमा में स्थित हो गए। उस समय 'संगम' नामक देव ने एक रात में २० मारणान्तिक कष्ट दिए।
१. दसवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति, पत्न८६ आसां च स्वरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभि :
जा यमितस्स जतुस्स जा सा पदमिया दसा । ण तत्थ सुहदुक्खाई, बहु जाणंति बालया ।।१।। बियई च दस पत्तो, गाणाकिड्डाहिं किड्डइ । न तस्थ कामभोगेहि, तिव्वा उप्पज्जई मई ॥२॥ तयइ च दसं पत्तो पंच कामगुणे नरो। समत्यो भुजिउं भोए, जइ से अत्यि घरे धुवा ॥३॥ चउत्थी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्यो बलं दरिसिऊं जइ होइ निरुवद्दवो ॥४॥ पंचमि तु दस पत्तो, आणुपुब्वीइ जो नरो। इच्छियत्थं विचितेइ, कुटुंबं वाऽभिकंखई ॥५॥ छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। विरज्जइ य कामेसु, इंदिएसु य हायई ॥६॥
सत्तमि च दस पत्तो, आणुपुव्वीइ जो नरो। निहइ चिक्कणं खेल, खासइ य अभिक्खणं ॥७॥ संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमि दसं । णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ ॥८॥ णवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो, जीवो वसई अकामओ । हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ।
दृब्बलो दुखिओ सुवइ, संपत्तो दसमि दसं ॥१०॥ २. दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति, पन ८ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन ४६३ : मोचनं मुक् जराराक्षसी समा.
क्रान्तशरीरगृहस्य जीवस्य मुचं प्रति मुख-आभिमुख्य यस्यां सा मुङमुखीति, शाययति स्वापयति निद्रावन्तं करोति या शेते वा यस्यां सा शायनी शयनी वा।
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०: टि०६१
केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद तीर्थकरों के कोई उपसर्ग नहीं होते। किन्तु भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्ति के बाद गोशालक ने अपनी तेजोलब्धि से बहुत पीड़ित किया—यह एक आश्चर्य है।
२. गर्भापहरण-भगवान् महावीर देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में आषाढ शुक्ला ६ को आए, तब उसने चौदह स्वप्न देखे थे। बयासी दिन के बाद सौधर्म देवलोक के इन्द्र ने अपने पैदल सेना के अधिपति 'हरिनैगमेषी' को बुला कर कहा'तीर्थकर सदा उग्र, भोग, क्षत्रिय, इक्ष्वाकू, ज्ञात, कौरव्य और हरिवंश आदि विशाल कुलों में उत्पन्न होते हैं। भगवान महावीर अपने पूर्व कर्मों के कारण ब्राह्मण कुल में आए हैं । तुम जाओ, और उस गर्भ को सिद्धार्थ क्षत्रिय की पत्नी त्रिशला के गर्भ में रख दो।' वह देव तत्काल वहां गया। उस दिन आश्विन कृष्णा त्रयोदशी थी। रात्रि का प्रथम प्रहर बीत चुका था। दूसरे प्रहर के अन्त में उसने हस्तोत्तरा नक्षत्र में गर्भ का संहरण कर त्रिशला के गर्भ में रख दिया।
गर्भ-संहरण का उल्लेख स्थानांग', समवयांग, कल्पसूत्र', आचारचूला और रायपसेणइय-इन आगमों तथा नियुक्ति साहित्य में मिलता है । भगवतीसूत्र में गर्भ-संहरण की प्रक्रिया का उल्लेख है, किन्तु महावीर के गर्भ-संहरण का उल्लेख नहीं है। देवानंदा के प्रकरण में भगवान महावीर ने देवानंदा को अपनी माता और स्वयं को उसका आत्मज बतलाया है। इसमें गर्भ-संहरण का संकेत अवश्य मिलता है फिर भी उसका प्रत्यक्ष उल्लेख वहां नहीं है।
दिगम्बर साहित्य में इस घटना का कोई उल्लेख नहीं है।
इस घटना का प्रथम स्रोत कल्पसूत्र प्रतीत होता है। अन्य सभी आगमों में वही स्रोत सक्रान्त हुआ है। कल्पसूत्रकार ने किस आधार पर इस घटना का उल्लेख किया, इसका पता लगाना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, किन्तु उसके शोध के उपादान अभी प्राप्त नहीं हैं । इस घटना का वर्णन कल्पसूत्र जितना प्राचीन तो है ही। कल्पसूत्र की रचना वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में हुई है। यह काल श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के पृथक्करण का काल है । यह सम्भव है कि इस काल में लिखित आगम की घटनाओं को दिगम्बर आचार्यों ने महत्त्व न दिया हो। यह भी हो सकता है कि आगमों के अस्वीकार के साथ-साथ दिगम्बर साहित्य में अन्य घटनाओं की भांति इस घटना का विलोप हो गया हो । यह भी हो सकता है कि इस पौराणिक घटना का आगमों में संक्रमण हो गया हो। क्षत्रियों और ब्राह्मणों के बीच स्पर्धा चलती थी। ब्राह्मणों के जातिमद को खंडित करने के लिए इस घटना की कल्पना की गई हो, जैसा कि हरमन जेकोबी ने माना है।"
इस प्रकार इस घटना के विषय में अनेक सम्भावित विकल्प किये जा सकते हैं।
यहां गर्भ-संहरण का विषय विचारणीय नहीं है। उसकी पुष्टि आगम-साहित्य, आयुर्वेद-साहित्य, वैदिक-साहित्य और वर्तमान के वैज्ञानिक-साहित्य से भी होती है। यहां विचारणीय विषय है- महावीर का गर्भ-संहरण।
भगवान् महावीर का जीवनवृत्त किसी भी प्राचीन आगम में उल्लिखित नहीं है। आचारांग में उनके साधक जीवन का संक्षेप में बहुत व्यवस्थित वर्णन है। उनके गृहस्थ जीवन की घटनाओं का उस में वर्णन नहीं है । आयारचूला के 'भावना अध्ययन' में भगवान महावीर के गृहस्थ जीवन का वृत्त उल्लिखित है, पर वह कल्पसूत्र का ही परिवर्तित संस्करण प्रतीत होता है। क्योंकि भावनाध्ययन का वह मुख्य विषय नहीं है। कल्पसूत्र पहला आगम है, जिसमें महावीर का जीवनवृत्त संक्षिप्त किन्नु व्यवस्थित ढंग से मिलता है।
बौद्ध और वैदिक विद्वान अपने-अपने अवतारी पुरुषों के साथ दैवी चमत्कारों की घटनाएं जोड़ रहे थे। इस कार्य में जैन विद्वान् भी पीछे नहीं रहे। सभी परम्परा के विद्वानों ने पौराणिक साहित्य की सृष्टि की और अपने अवतारी पुरुषों को अलौकिक रूप प्रदान किया। हरिनगमेषी देवता के द्वारा भगवान् महावीर का गर्भ-संहरण होना उस पौराणिक युग का एक प्रतिविम्ब प्रतीत होता है।
१. विशेष विवरण के लिए देखें-आचारांग १।६; आवश्यक
नियुक्ति, अवचूणि, भाग १, पृष्ठ २७३-२६३ । २. आवश्यकनियुक्ति, अवचूर्णि, प्रथमभाग, पृष्ठ २६२, २६३ । ३. स्थानांग १०।१६० । ४. समवायांग, ८२,८३१ । ५. कल्पसूत्र, सू० २७ ।
६. आचारचूला १२१,३,५,६ । ७. रायपसेणियं, सूत्र ११२ । ८. भगवती, ५२७६,७७ ।। ६. भगवती, ६१४८ । 10. The Sacred Book. of the East, Vol.XXII:
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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० ६१
भगवान् महावीर देवानंदा को अपनी माता और स्वयं को उसका आत्मज बतलाते हैं - यह एक विचारणीय प्रश्न हैं । यह हो सकता है कि देवानंदा महावीर के पालन-पोषण में धायमाता के रूप में रही हो और गर्भ-संहरण की पुष्टि के लिए अर्थवादी शैली में उसे माता के रूप में निरूपित किया गया हो। आगम-संकलन काल में इस प्रकार के प्रयत्न की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
३. स्त्रीतीर्थंकर – सामान्यतः तीर्थंकर पुरुष ही होते हैं, ऐसा माना जाता है। इस अवसर्पिणी में मिथिला नगरी के अधिपति कुंभकराज की पुत्री मल्ली उन्नीसवें तीर्थंकर के रूप में विख्यात हुई। उसने तीर्थ का प्रवर्तन किया । दिगम्बर आचार्य इससे सहमत नहीं हैं वे मल्ली को पुरुष मानते हैं ।
४. अभावित परिषद् - बारह वर्ष और साढ़े छह मास तक छद्यस्थ रहने के पश्चात् भगवान् को वैशाख शुक्ला दशमी को जृम्भिका गांव के बहिर्भाग में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उस समय महोत्सव के लिए उपस्थित चतुविध देवनिकाय ने समवसरण की रचना की। भगवान ने देशना दी। किसी के मन में विरति के भाव उत्पन्न नहीं हुए। तीर्थकरों की देशना कभी खाली नहीं जाती । किन्तु यह अभूतपूर्व घटना थी । '
उनकी दूसरी देशना मध्यमपापा में हुई और वहां गौतम आदि गणधर दीक्षित हुए।
५. कृष्ण का अपरकंका नगरी में जाना- धातकीखंड की अपरकंका नगरी में राजा पद्मनाभ राज्य करता था । एक बार नारद ने उससे द्रौपदी की बहुत प्रशंसा की। उसने अपने मित्र देव की सहायता से द्रौपदी का अपहरण कर दिया। इधर नारद ने इस अपहरण का वृत्तान्त कृष्ण वासुदेव को सुनाया। कृष्ण ने लवण समुद्र के अधिपतिदेव सुस्थित की आराधना की और पांचों पांडवों को साथ ले अपरकंका की ओर चल पड़े। वहां पद्मनाभ के साथ घोर संग्राम हुआ। वहां वासुदेव कृष्ण शंखनाद किया। तत्पश्चात् पद्मनाभ को युद्ध में हराकर द्रौपदी को ले द्वारका में आ गए।
उसी धातकीखंड में चंपा नाम की नगरी थी। वहां कपिल वासुदेव रहते थे। एक बार अर्हत् मुनिसुव्रत वहां पुण्यभद्र चैत्य में समवसृत हुए। वासुदेव कपिल धर्मदेशना सुन रहे थे। इतने में ही उन्हें कृष्ण का शंखनाद सुनाई दिया। तब उन्होंने मुनिसुव्रत से शंखनाद के विषय में पूछा। मुनिसुव्रत ने उन्हें कृष्ण संबंधी जानकारी देते हुए कहा – एक ही क्षेत्र में, एक ही समय में दो अरहंत, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव और दो वासुदेव नहीं हुए, नहीं हैं और नहीं होंगे ।
उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। तब वासुदेव कपिल वासुदेव कृष्ण को देखने गए। तब तक कृष्ण लवण समुद्र में बहुत दूर तक चले गए थे । वासुदेव कपिल ने कृष्ण के ध्वज के अग्रभाग को देखा और शंखनाद किया। जब कृष्ण ने यह शंखनाद सुना तब उन्होंने इसके प्रत्युत्तर पुनः शंखनाद किया। दो भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के दो वासुदेवों का शंखनाद से मिलना हुआ ।
इस प्रसंग में प्रस्तुत सूत्र में वासुदेव कृष्ण का अपरकंका राजधानी में जाने को आश्चर्य माना है। सामान्य विधि यह है कि वासुदेव अपनी क्षेत्र मर्यादा को छोड़कर दूसरे वासुदेव की क्षेत्र मर्यादा में नहीं जाते। भरत क्षेत्र के वासुदेव कृष्ण का धातकीखंड के वासुदेव कपिल की क्षेत्र मर्यादा में जाना एक अनहोनी घटना थी, इसलिए इसे आश्चर्य माना गया है।
ज्ञाताधर्मकथा ( अ० १६ ) के आधार पर दो वासुदेवों का परस्पर मिलन भी एक आश्चर्य है। धातकीखंड के वासुदेव कपिल के पूछने पर मुनिसुव्रत कहते हैं - यह कभी नहीं हुआ, न है और न होगा कि दो अरंहत, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव और दो वासुदेव कभी परस्पर मिलते हों। कपिल ने कहा- 'मैं उनसे मिलना चाहता हूं । मेरे घर आए अतिथि का मैं स्वागत करना चाहता हूं।'
मुनिसुव्रत ने कहा -- एक ही स्थान में दो अर्हत्, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव और दो वासुदेव नहीं होते । यदि कारणवश एक दूसरे की सीमा में आ जाते हैं तो वे कभी मिलते नहीं। किंतु कपिल का मन कुतूहल से भरा था। वह कृष्ण को देखने समुद्रतट पर गया और समुद्र के मध्य जाते हुए कृष्ण के वाहन की ध्वजा को देखा। तब कपिल ने शंखनाद किया। संख-शब्द से कृष्ण को यह स्पष्टतया जताया कि मैं कपिल वासुदेव तुम्हें देखने के लिए उत्कंठिन हूं अतः पुनः लौट आओ।' कृष्ण ने
१. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ५३६ अवचूर्णि प्रथमभाग पृ० २६६ ।
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ठाणं (स्थान)
१०१८
स्थान १० : टि० ६१
शंख-शब्द के माध्यम से यह बात जानी। तब उन्होंने शंखनाद कर उसे यह बताया कि 'हम बहुत दूर आ गए हैं। तुम कुछ मत कहो ।' इस प्रकार शंख-समाचारी के माध्यम से दोनों का मिलन हुआ।
स्थानांग में वासुदेव के क्षेत्रातिक्रमण को आश्चर्य माना है। और ज्ञाताधर्मकथा में दो वासुदेवों के परस्पर मिलन को आश्चर्य माना है ।
६. चन्द्र और सूर्य का विमान सहित पृथ्वी पर आना - एक बार भगवान् महावीर कौशाम्बी नगरी में विराज रहे थे। उस समय दिन के अन्तिम प्रहर में चन्द्र और सूर्य अपने-अपने मूल शाश्वत - विमानों सहित समवसरण में भगवान् महावीर को वंदना करने आए । शाश्वत विमानों सहित आना - एक आश्चर्य है । अन्यथा वे उत्तरवैकिय द्वारा निर्मित
विमानों में आते हैं।'
७. हरिवंश कुल की उत्पत्ति - प्राचीन समय में कौशांबी नगरी में सुमुख नाम का राजा राज्य करता था। एक बार बसंत ऋतु में वह क्रीड़ा करने के लिए उद्यान में गया। रास्ते में उसने माली वीरक की पत्नी वनमाला को देखा । वह अत्यन्त सुन्दर और रूपवती थी। दोनों एक दूसरे में आसक्त हो गए। राजा उसे एकटक निहारने लगा और वहीं स्तब्ध सा खड़ा हो गया। तब उसके सचिव सुमति ने उसे आगे चलने के लिए कहा। ज्यों-त्यों वह लीला नामक उद्यान में आया और अपनी सारी मनोकामना सचिव के समक्ष रखी। सचिव ने उसे आश्वस्त किया और आगेयिका नामकी परिव्राजिका को वनमाला के पास भेजा। परिव्राजिका वनमाला के पास गई और उसे भी चिन्तामग्न दशा में देखकर उससे सारी बात जान ली । उसने सचिव से आकर कहा- राजा और वनमाला का मिलन प्रातः काल हो जाएगा। सचिव ने राजा से यह बात कही । वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ ।
प्रातःकाल परिव्राजिका वनमाला को लेकर राजा के पास आई। राजा ने वनमाला को अपने महलों में रखा और उसके साथ सुख भोग करने लगा ।
वनमाला को घर में न पाकर उसका पति वीरक ग्रथिल सा इधर-उधर घूमने लगा। एक बार वह महलों के नीचे से गुजर रहा था। उस समय राजा वनमाला के पास बैठा था। उसके कानों में 'हा! वनमाला ! हा! वनमाला ! ' ये शब्द पड़े । उसने सोचा, अहो ! हमने बहुत दुष्कर्म किए हैं। इसके फलस्वरूप हमें नरक प्राप्ति होगी । इस प्रकार वह आत्मनिंदा करने लगा । इतने में ही आकाश में बिजली चमकी और वह महलों पर आ गिरी। राजा-रानी दोनों मर गए ।
ין
वहां से मरकर दोनों हरिवर्ष क्षेत्र में हरि और हरिणी के नाम से – युगलरूप में उत्पन्न हुए। वे दोनों वहां सुखपूर्वक रहने लगे।
इधर वनमाला का पति वीरक भी मरकर सौधर्म देवलोक में किल्विषिक देव हुआ। उसने अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव देखा और अपने शत्रु हरि और हरिणो को जाना । उसने सोचा -- यदि ये दोनों यहां मरेंगे तो यौगलिक होने के कारण अवश्य ही देवलोक में जायेंगे । अत: मैं इन्हें दूसरे क्षेत्र में रख दूं ताकि वे यहां दुःख भोगें - यह सोचकर उसने दोनों को उठाकर भरतक्षेत्र के चम्पापुरी में ला छोड़ा ।
उस समय चम्पापुरी के राजा चन्द्रकीर्ति की मृत्यु हो गई थी। मंत्री दूसरे राजा की टोह में इधर-उधर घूम रहे थे । उस समय आकाशस्थित देव ने कहा - 'पुरुषो! मैं आपके लिए हरिवर्ष से एक युगल लाया हूं। वह राजा-रानी होने के लिए योग्य हैं। इस युगल को आप लोग कल्पद्रुम के फलों के साथ-साथ पशु और पक्षियों का मांस भी देना ।'
प्रजा ने देव की बात स्वीकार कर हरि को अपना राजा स्वीकार किया। देव ने अपनी शक्ति से उस युगल की आयुःस्थिति कम कर दी तथा उनकी अवगाहना भी केवल सौ धनुष्यमात्र रखी । देव अन्तर्हित हो गया ।
हरि राजा हुआ। उसने बहुत वर्षों तक राज्य किया। उसके नाम से हरिवंश का प्रचलन हुआ ।
1
१. प्रवचनसारोद्धार, पत्र २५७, २५८ ।
२. वही, पत्र २५८ |
३. क - प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र २५८, २५६ ।
ख - वसुदेवहिण्डी, दूसरा भाग, पृष्ठ ३५६, ३५७ ।
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ठाणं (स्थान)
१०१६
स्थान १० : टि०६१ ८. चमर का उत्पात-प्राचीन समय में विभेल सन्निवेश में पूरण नाम का एक धनाढ्य गृहपति रहता था। एक बार उसने सोचा-'पूर्वभव में किए हुए तप के प्रभाव से मुझे यह सारा ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है, सम्मान मिला है। अत: भविष्य में और विशेष फल की प्राप्ति के लिए मुझे गृहह्वास छोड़कर विशेष तप करना चाहिए।' उसने अपने संबंधियों से पूछा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकार देकर दाणाम' नामक तापसव्रत स्वीकार कर लिया। उस दिन से वह यावज्जीवन तक दो-दो दिन की तपस्या में संलग्न हो गया। पारने के दिन वह चार पुट वाले लकड़ी के पात्र को लेकर मध्याह्न वेला में भिक्षा के लिए जाता । पात्र के प्रथम पुट में पड़ी भिक्षा वह पथिकों को बांट देता, दूसरे पुट की भिक्षा कौए आदि पक्षियों को खिला देता, तीसरे पुट की भिक्षा मछली आदि जलचरों को खिला देना और चौथे पुट में प्राप्त भिक्षा को स्वयं खाता। इस प्रकार उसने बारह वर्ष तक कठोर तप तपा और अंत में एक माल का अनशन कर चमरचंपा में असुरकुमारों के इंद्ररूप में उत्पन्न हआ। उसने अवधिज्ञान से ऊपर स्थित सौधर्मावतंसक विमान में सौधर्मेन्द्र को देखा। उसका क्रोध प्रबल हो उठा। उसने अपने अनुचर देवों से कहा --'अरे ! यह दुरात्मा कौन है जो मेरे शिर पर बैठा हुआ है ! उन्होंने कहा--स्वामिन् ! यह सौधर्मदेवलोक का इन्द्र है, जिसने अपने पूर्व अजित पुण्यों के प्रभाव से विपुल ऋद्धि और अतुल पराक्रम प्राप्त किया है। इतना सुनते ही चमरेन्द्र का क्रोध और अधिक प्रबल हो गया। उसने उसके साथ युद्ध करने के लिए उत्सुक हो वहां से अपना शस्त्र ले प्रस्थान किया। सभी देवों ने ऐसा न करने के लिए आग्रह किया, परन्तु उसने अपना हठ नहीं छोड़ा।
'वह पराक्रमी है। यदि मैं किसी भी प्रकार से उससे पराजित हो जाऊंगा तो किसकी शरण लंगा' - यह सोचकर चमरेन्द्र सुसुमारपुर में आया। वहाँ भगवान् महावीर प्रतिमा में स्थित थे। वह भगवान् के पास आकर बोला- भगवन् ! मैं आपके प्रभाव से इन्द्र को जीत लूंगा - ऐसा कहकर उसने एक लाख योजन का वैक्रिय रूप बनाया। चारों ओर अपने शस्त्र को घुमाता हुआ, गर्जन करता हुआ, उछलता हुआ, देवों को भयभीत करता हुआ, दर्प से अन्धा होकर सौधर्मेन्द्र की ओर लपका। एक पैर उसने सौधर्मावतंसक विमान की वेदिका पर और दूसरा पैर सुधर्मा (सभा) में रखा। उसने अपने शस्त्र से इन्द्रकील पर तीन बार प्रहार किया और सौधर्मेन्द्र को बुरा-भला कहा।
सौधर्मेन्द्र ने अवधिज्ञान से सारी बात जान ली। उसने चमरेन्द्र पर प्रहार करने के लिए वज्र फेंका। चमरेन्द्र उसको देखने में भी असमर्थ था। वह वहाँ से डर कर भागा । वैक्रिय शरीर का संकोच कर भगवान् के पास आया और दूर से ही'आपकी शरण है, आपकी शरण है' - ऐसा चिल्लाता हुआ, अत्यन्त सूक्ष्म होकर भगवान् के पैरों के बीच में प्रवेश कर गया। शक्र ने सोचा- 'अर्हद् आदि की निश्रा के बिना कोई भी असुर वहाँ नहीं जा सकता' । उसने अवधिज्ञान से सारा पूर्व वृत्तान्त जान लिया। वज्र भगवान् के अत्यन्त निकट आ गया। जब वह केवल चार अंगुल मात्र दूर रहा, तब इन्द्र ने उसका संहरण कर डाला। भगवान् को वंदना कर वह बोला- 'चमर ! भगवान् की कृपा से तुम बच गए । अब तुम मुक्त हो, डरो मत ! इस प्रकार चमर को आश्वासन देकर शक अपने स्थान पर चला गया। शक के चले जाने पर चमर बाहर आया और अपने स्थान की ओर लौट गया।
६. एक सौ आठ सिद्ध-वृत्तिकार ने इसका कोई विवरण नहीं दिया है।
वसुदेवहिण्डी के अनुसार भगवान् ऋषभ अपने ६६ पुत्र तथा आठ पौत्रों के साथ परिनिर्वृत हुए थे। इस प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक साथ एक सौ आठ (६६++१) सिद्ध हुए।
उत्तराध्ययन सूत्र में तीन प्रकार से एक साथ एक सौ आठ सिद्ध होने की बात कही है - १. निर्ग्रन्थ वेश में एक साथ एक सौ आठ (३६।५२) । २. मध्यम अवगाहना में एक साथ एक सौ आठ (३६।५३) । ३. तिरछे लोक में एक साथ एक सौ आठ (३६।५४) । प्रस्तुत सूत्र में जो आश्चर्य माना गया है, वह इसलिए कि भगवान् ऋषभ के समय में उत्कृष्ट अवगाहना थी। उत्कृष्ट
१. प्रवचनसारोद्धार, पत्र २५६, २६० । १. वसुदेवहिण्डी, भाग १, पृष्ठ १८५ : एगूणपुत्तसएव अट्ठहि य
वत्तुएहिं सह एगसमयेण निव्वुओ।
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ठाणं (स्थान)
१०२०
स्थान १० : टि० ६१
अवगाहना में एक साथ केवल दो ही व्यक्ति सिद्ध हो सकते हैं। प्रस्तुत सूत्र में एक सौ आठ व्यक्ति उत्कृष्ट अवगाहना में मुक्त हुए इसलिए उसे आश्चर्य माना है ।
आवश्यक निर्युक्ति में ऋषभ के दस हजार व्यक्तियों के साथ सिद्ध होने का उल्लेख मिलता है । इसकी आगमिक संदर्भ के साथ कोई संगति नहीं बैठती । वसुदेवहिण्डी के एक प्रसंग के संदर्भ में एक अनुमान किया जा सकता है कि नियुक्तिकार ने संक्षिप्त और सापेक्ष प्रतिपादन किया, इसलिए वह भ्रामक लगता है।
वसुदेवहिण्डी के अनुसार ऋषभ के दस हजार अनगार [ १०८ कम ] भी उसी नक्षत्र में, बहुत समय बाद तक सिद्ध
हुए हैं।
प्रवचनसारोद्धार में भी वसुदेवहिण्डी को उद्धृत करते हुए इसी तथ्य की पुष्टि की गई हैं ।
इन उद्धरणों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि दस हजार अनगारों के एक ही नक्षत्र में सिद्ध होने के कारण उनका भगवान् ऋषभ के साथ सिद्ध होना बतलाया गया है।
१०. असंयति पूजा - तीर्थंकर सुविधि के निर्वाण के बाद, कुछ समय बीतने पर हुण्डावसर्पिणी के प्रभाव से साधुपरम्परा का विच्छेद हुआ। तब लोगों ने स्थविर श्रावकों को, धर्म के ज्ञाता समझकर धर्म के विषय में पूछा । श्रावकों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार धर्म की प्ररूपणा की । लोगों को कुछ समाधान मिला। वे धर्म-कथक स्थविर श्रावकों को दान देने लगे; उनकी पूजा, सत्कार करने लगे। अपनी पूजा और प्रतिष्ठा होते देख धर्म कथक स्थविरों के मन में अहंभाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने नये शास्त्रों की रचना की और भूमि, शय्या, सोना, चांदी, गो, कन्या, हाथी, घोड़े आदि के दान की प्ररूपणा की तथा यह भी घोषित किया कि 'संसार में दान के अधिकारी हम ही हैं, दूसरे नहीं।' लोगों ने उनकी बात मान ली। धर्म के नाम पर पाखण्ड चलने लगा। लोग विप्रतारित हुए। दूसरे धर्म - प्ररूपकों के अभाव में वे गृहस्थ ही धर्मगुरु का विरुद वहन करते हुए अपनी-अपनी इच्छानुसार धर्म की व्याख्या करने लगे। तीर्थंकर शीतल के तीर्थ- प्रवर्तन से पूर्व तक यही स्थिति रही असंयति पूजा का बोल-बाला रहा।
प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार का अभिमत है कि उपरोक्त दस आश्चर्य केवल उपलक्षण मात्र हैं। इनके अतिरिक्त इसी प्रकार की विशेष घटनाएं समय-समय पर होती रही है। दस आश्चर्यों में से कौन-कौन से किसके समय में हुए, इसका विवरण इस प्रकार है -
प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के समय में एक साथ १०८ सिद्ध होना । दसवें तीर्थंकर शीतल के समय में - हरिवंश की उत्पत्ति ।
उन्नीसवें तीर्थंकर मल्ली का स्त्री के रूप में तीर्थंकर होता ।
बावीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के समय में -- कृष्ण वासुदेव का कपिल वासुदेव के क्षेत्र [ अपरकङ्का ] में जाना अथवा दो वासुदेवों का मिलन |
चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के समय में -
१. गर्भापहरण, २. उपसर्ग, ३. चमरोत्पाद, ४. अभावित परिषद ५. चन्द्र और सूर्य का अवतरण ।
[ ये पांचों क्रमशः हुए हैं ]
नौवें तीर्थंकर सुविधि से सोलहवें तीर्थकर शान्ति के काल तक - असंयति पूजा ।
वृत्तिकार का अभिमत है कि असंयति पूजा प्रायः सभी तीर्थंकरों के समय में होती रही है, किन्तु नौवें तीर्थंकर सुविधि से सोलहवें तीर्थंकर शान्ति के समय तक सर्वथा तीर्थ च्छेदरूप असंयति पूजा हुई है' ।
१. उत्तराध्ययन ३६।५३ ।
२. प्रवचनसारोद्धार पत्र २६० : एतदाश्चर्यमुत्कृष्टावगाहतायामेव
ज्ञातव्यम् ।
३. आवश्यकनिक्ति, गाथा ३११:
दसहि सहस्सेहि उस भो.."
४. वसुदेवहिण्डो, भाग १, पृष्ठ १८५: सेसाण विय अणगाराणं दस सहस्राणि असयऊणगाणि सिद्धाणि तम्मि चेव रिवखे समयंतरेसु बहुसु ।
५. प्रवचनसारोद्धार, पत्र २६० ।
६. प्रवचनसारोद्वारवृत्ति पत्र २६१ उपलक्षणं चैतान्याश्चर्याणि, अतोऽन्येऽप्येवमादयो भावा अनन्तकालभाविनः आश्चर्यरूपा द्रष्टव्याः ।
७. प्रवचनसारोद्धार, गाथा:
रिस असयं सिद्धं सीयल जिर्णमि हरिवंसो । नेमि जिणेऽवर कंकागमणं कण्णहस्स संपन्नं ॥ इत्थीतित्थ मल्ली या असंजयाण नवमजिणे । अवसेसा अछेचा वीरजिणिदस्स तित्थंनि ॥
८. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र २६१ ।
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परिशिष्ट
१. विशेषनामानुक्रम २. प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची
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अउअंग
अजय
अंक
अंकुस
अंग
अंग
अंगचूलिया
ग्रन्थ का एक अध्ययन
अंगद
आभूषण
आगम का एक वर्ग
अंगविट्ठ अंगबाहिर (रिय) आगम का एक वर्ग अंगबाहिरिय
ग्रन्थ
अंगार
अंगारय
अंगिरस
अंगुट्ठपण
अंगुल
अंचिय
अंजण
अंजण
अंजणग
अंजणपुलय
अंड अंडय (ग, ज )
अंतगडदसा अंतचरय
अंतजीवि
अंतरंजि
अंतरणदी
समय के प्रकार
समय के प्रकार
धातु और रत्न
गृह
जनपद और ग्राम
प्राच्यविद्या
ग्रह
ग्रह
जाति, कुल और गोत्र
ग्रन्थ का एक अध्ययन
मान के प्रकार
नाटय
पर्वत
धातु और रत्न
पर्वत
धातु और रत्न
ग्रन्थ का एक अध्ययन
प्राणी
ग्रन्थ
मुनि
मुनि
ग्राम
नदी
२३८६
२३८६
१०।१६३
४३३६
७া७५
८२३
परिशिष्ट - १
विशेषनामानुक्रम
६॥७
७।३२
अंतरदीव
अंतरदीवग
अंतरदीवग
अंतलिख
१०।११६
१२४८
४/६३३
२३३६, ४१३११,५१५१,
८६७,१०/४१,१४५
१०।१६३
४१३३८-३४३
१०।१६३
१०।१११।१
३।३६.३७, ३९, ४०, ४२,
४३,४५,४६, ७ ३, ४
८१२,३
१०११०३, ११०,११३
५।३६
५/४१
७१४२
अंताहार
अंतेउर
१०।१२०
८६०
२/१०४
२।१०४, १०५ ४। १८६ अंबटू
४१८६
४१३३४,८३१
अंतेमुहुत
अंतोवाहिणी
अंब (म्म ? ) ड अंबडपुत
अंब
अकडूयय
अकम्मभूमग
अम्मभूमि
अगड
अगस्थि
अग्गबीय
अगिल्ल
afrate
अग्गेइ
अग्गेय
अजित सेण
अज्जम
३।४५६-४६३; ६।९१, अट्ठट्ठमिया
६२,९४
अमी
जनपद
प्राणी
प्राणी
प्राच्यविद्या
मुनि
गृह
समय के प्रकार
नदी
जाति, कुल और गोत्र
व्यक्ति
अकम्मभूमिय
प्राणी
अरियावादि (इ) अन्यतीर्थिक
अक्खाडग
गृह
ग्रन्थ का एक अध्ययन
वनस्पति
मुनि
प्राणी
जनपद
जलाशय
ग्रह
वनस्पति
ग्रह
व्यक्ति
दिशा
गोत्र
व्यक्ति
नक्षत्रदेव
भिक्षु प्रतिमा तिथी
४३२१-३२८
६।२०,२२
३।५०, ५३, ५६
८२३
५/४०
५१०२
३।१२५ ५ २०६७/६०
२।३३६; ३।४६१;
६१६२
६।३४।१
६१६१
१०।११३११
४/४५
५।४३
६।२०
३१४४६, ४५०, ४६३;
४१३०७ ६१८३,६३
३१५०,५३,५६
४१५३०८।२२
३।३६७, ४३३६;
८६२४३
२३६०
२।३२५
४।५७ ५।१४६; ६ १२
२३२५
१६१
१०:३१।१
७३३
१०।१४३।१
२३२४
८।१०४
४।३६२
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________________
१०२२
परिशिष्ट-१
ग्रह
अट्टविहा गणिसंपया ग्रन्थ का एक अध्ययन
शरीरधातु
अट्टि
राजधानी
निन्हव
अभिइ
नक्षत्र
अट्टिमिजा शरीरधातु अट्ठिसेण जाति, कुल और गोत्र
समय के प्रकार अडडंग समय के प्रकार अड्डरत्त समय के प्रकार अणंत
व्यक्ति भणंतसेण व्यक्ति अणागतद्धा समय के प्रकार अणियट्रि ग्रह अणियण वनस्पति अणुजोगगत ग्रन्थ अणुत्तरोववाइयदसा ग्रन्थ अणुराहा (धा) नक्षत्र
व्यक्ति व्यक्ति गृह स्वर परिवार सदस्य
१०१११५
अपराजित २।१५६-१६०,३।४६४; अप (ब) राजिया ४।२८३; १०१२१
अद्विय ३।४६४ ७।३३ ८।३८६
अभिचंद २१३८६
अभिणंदण ४।२५७
अभिसेयसभा ५.८८
अभीर १०११४३।१
अम्मा ८।३६ २।३२५
अय ७.६५।११०११४२।१ अयकरग १०१६२
अयण १०।१०३,११०,११४
अयागर २२३२३,४१६५४७११४६ अर ८।११६१०१६६
अरंजर ५।३७
अरय ६।२७११
अरसजीवि ५७५.७६
अरसाहार ४१५३०
अरिटणेमि
२।३४१,८७४-७६ ७१४० २३२३:३१५२८%, ७.१४६, ६।१५,१६,६३१ ६१७६, ७।६२१ ६।५; १०१६५ ५।२३५.२३६ ७।४६।१ ३८७,४।४३०,५३८% ६।६२
नक्षत्रदेव
समय के प्रकार खान व्यक्ति पात्र ग्रह
२।३२५ २०३६ ८।१० ३१५३५3,५९२,१०२८ ४।६०७ २२३२५
मुनि मुनि
व्यक्ति
१०।११४१
ग्रह
गृह
अण्णइयालचरय मुनि अण्णाण
लौकिकग्रन्थ अण्णागमरण मरण अण्णाणियवादि अन्यतीथिक अपणातचरय मुनि अतिमुत्त अतियाणगिह अतिहिवणीमग याचक अत्थणिकुर समय के प्रकार अत्थणिकुरंग समय के प्रकार अधिणत्थिप्पवायपुव्व ग्रन्थ अदसी
वनस्पति अदिति नक्षत्रदेव अदीणसन्तु व्यक्ति
नक्षत्र
पर्वत ग्रन्थ गृह
५१२०० २०३८६ २॥३८६ १०।६८ ७।१० २१३२४ ७७५ १६२५१, २२३२३, ७।१४७; १०।१७०।१ १०।११६
अरुण अरुणप्पभ अरुणोवदात अलंकारियसभा अवज्झा अवत्तिय अवरकंका अवरोह अवरविदेह
५।४० २०४३८,४।६४७,५१२३४; ८।४०,५३,११३ २।३२५ ४६३३१ १००१२० ५।२३५,२३६ २१३४०, ८७६ ७।१४० १०।१६०१ ४।२५४२२५ २।२७०,३१६,३३३; ४१३०८; १०३६
राजधानी निन्हव राजधानी समय के प्रकार जनपद
अद्दा
ग्रन्थ मान के प्रकार समय के प्रकार
अद्दागपसिण अद्धंगुलग अद्धपलिओवन अद्धपलियंका अद्धभरह अद्धोवमिय
अवरा अवव अववंग अवाउड्य अवादाण
राजधानी समय के प्रकार समय के प्रकार मुनि व्याकरण
६२५-२८ ५१५० ४१५१४ २।४०५८।३६
२२३८६ २२३८४ ५।४३ ८२४२५ ३३१७-२०७४/२७४, २८८,५१२८१४२
असण
जनपद समय के प्रकार
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ठाणं
असि
असिरयण
असिलेसा
असोग
असोगवण
असोय
असोया
अस्स
अस्सत्थ
अस्सिणिय
अस्सिणी
अस्सेसा अस्सोकंता
अह
अहा (धा)
अहासंथड
अहोरत्त
आइक्खिय
आउ
आउर
आउवेद
आगमण गह
आगर
आगार
आजाइट्ठाण
आडंबर
आणद
आणापाण
आदिच्चजस
आभंकर
आभरण
आभरणालंकार
आम
आमंतणी
आमलग
आमलय
शस्त्र
चक्रवर्तीरत्न
नक्षत्र
ग्रह
वन
वनस्पति
राजधानी
नक्षत्रदेव
वनस्पति
नक्षत्र
नक्षत्र
नक्षत्र
स्वर
समय के प्रकार
दिशा
संस्तारक
समय के प्रकार
लौकिक ग्रन्थ
नक्षत्रदेव
चिकित्सा
चिकित्सा
गृह
वसति के प्रकार
स्वर
ग्रन्थ का एक अध्ययन
वाद्य
ग्रन्थ
समय के प्रकार
व्यक्ति
ग्रह
अलंकार
अलंकार
वनस्पति
व्याकरण
वनस्पति
ग्रन्थ
४|५४८
७/६७
६।१२७७११४८
२/३२५
४ ३३६ १,३४०११
८११७२
२|३४१ ८ ७५
२/३२४
१०१८२११
७। १४७
२।३२३, ३।५२६;
७११४७ ६ १६; ६३।१
६१७४; १०११७०११
७१४६।१
६६२
३।३२०-३२३, ६।३७
३६, १०१३०
३।४२२-४२४
२।३८६,३१४२७
६२७/१
२।३२४
४|५१६
८२६
३४१-४२१
२।३६०, ५।२१,२२,
१०७,६२२२, ८
७१४८।१-३
१०।११५
७१४२२
१०।११२।१; ११४|१
२१३८८३।४२७
१०२३
आयंबिलिय
आयरिय
आयरियभासिय
आयामय
आयार
आयारदसा
आयावणता
आरभड
आराम
आरिट्ठ
आलिसंदग
आवंती
आवरण
आवस्सय
ग्रन्थ
आवस्यवतिरित्त ग्रन्थ
आवी
आस
आवास
गृह आवासपव्वय पर्वत
आसपुरा
आसम
आसमित्त
आसरयण
आसाढ
आसाढपडिवया
आसासण
आसिणी
आसीविस
आहुणिय
८।३६
इंगाल
२/३२५
इंगालग
३।३६५ ४|५०८८।१० इंदग्गि
४६३६
४११०१
८२४५२,६
४/४११
१०/१११।१
मुनि
पद
ग्रन्थ का एक अध्ययन
पानक
ग्रन्थ
ग्रन्थ
तपः कर्म
नाटय
उद्यान - वन
गोत्र
वनस्पति
इंदग्गीव
इंदमह
इंदसेणा
इंदा
इंदा
ग्रन्थ
लौकिक ग्रन्थ
नदी
प्राणी
राजधानी
वसति के प्रकार
व्यक्ति
चक्रवर्ती रत्न
व्यक्ति
मास
ग्रह
नक्षत्र
पर्वत
ग्रह
སྠཽ ལཱྀ ལཱྀ སྠཽ ལིཾ སྠཽ ལིཾ ཀིཾ
ग्रह
नक्षत्र देव
उत्सव
नदी
नदी
दिशा
५।३६
४|४|३४
१०।११६
३।३७८
१०।१०३
१०१११०,११५
३।३८६
४/६१३
२३६०५।१०२
७/३६
५२०६
हार
६/२७/१
२/१०५
२1१०५.१०६
७।२२।१३
४/३३०,३३१
५।२३०१०/२५
२।२७६२७७ ६२२२४
२।३४१८७५
२३६०५१२१,२२,
१०७
७। १४१
७६८
७१४१
४२५६
२/३२५
५।६४
परिशिष्ट- १
२/३३६,४।३१२; ५।१५२;१०।१४६८।६८;
२१३२५
४।१७७
२।३२५
२/३२४
२३८५
४२५६ ५।२३३; १०।२६ ५।२३३; १०।२६
१०।३१।१
Page #1067
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
इक्खाग
इक्खाग
इट्टावाय
इत्थीरयण
इब्भ
इतिदास
इतिभासिय
ईसर
ईसाणी
उंजायण
उंबर
उक्कालिय
उक्कुडुआ
सणिअ
उक्
उक्खित्तचरय
उक्खित्तय
उग्ग
उग्गतव
उच्चत्तभयय
उज्जाण
उज्जाणगिह
उट्टिय
उडु
उड्डा
उष्णिय
उत्तरकुरा
जाति, कुल और गोत
जनपद
कारखाना
चत्रवर्ती रत्न
राजपरिकर
ग्रन्थ का एक अध्ययन
ग्रन्थ का एक अध्ययन
राजपरिकर
दिशा
जाति, कुल और गोत्र ७३७
वनस्पति
ग्रन्थ का प्रकार
आसन
आसन
मुनि
गेय
५४२; ७१४६
५।५०
५।३६
४/६३४
जाति, कुल और गोत्र ३।३४, ६।३५
तपकर्म
४।३५०
कर्मकर
४।१४७
उद्यान, वन
गृह
रजोहरण
समय के प्रकार
दिशा
रजोहरण
जनपद
६।३५
७७५
८|१०
उत्तरकुरु उत्तरकुरूदह
उत्तरकुरुमदुम उत्तरगंधारा स्वर उत्तरपच्चत्थिमिल्ल दिशा उत्तरपुरथिम दिशा उत्तरपुरथिमिल्ल दिशा
उत्तरवलिल्सहगण जैनगण उत्तरमंदा
स्वर
जनपद
ब्रह वनस्पति
३।१०३७/६८
हा६२
१०।११४।१
१०।११६
६२
१०३१।१
१०1८२१
२।१०६
१०२४
२३६०५ | १०२ ६६२
२।३६१
५।१६१
२३८६ ५।१०६,२१२,
२१३१, ५, ६।६५; १/६२
३।३२०-३२३ ६ ३७-३६; १०/३०
५।१६१
२२७१, २७७, ३१६, ३४८; ३।४५० ४।३०८ ५।१५५; ६१८३, ९३ १०1३६,१३६ ३।११५ ४।३०७ ६१२८
५। १५५
२/३३३
७१४७११
४ | ३४४, ३४८
१०/३०
४ | ३४४,३४५
२६
७/४६।१
उत्तरा उत्तरापोवया
उत्तराफग्गुणी
उत्तराभद्दवय
नक्षत्र
उत्तरा (र) भद्दवया नक्षत्र
उत्तरायत्ता
स्वर
उत्तरायत्ता (कोडिमा) स्वर
उत्तरासाढा
नक्षत्र
उदहि (धि)
उदाइ
उदुंबर
उद्दवाइयगण
उद्दायण
उद्दिट्ठा
उद्देहगण
उप्पल
उप्पलंग
उप्पात
उप्पायपव्वय
उप्पायपुञ्च उप्फेस
उब्भिग
उम्मत्तज (य) ला उम्मिमालिणी
उरग
उरपरिसप्प
उल्ल गातीर
उवज्झाय
उवणिहिय
उवमा
उववात
उबवातसभा
उववातिय
उवस्तय
स्वर
नक्षत्र
नक्षत्र
उवाणपडिमा
जलाशय
व्यक्ति
ग्रन्थ
जैनगण
व्यक्ति
तिथी
जैनगण
समय के प्रकार
समय के प्रकार
लौकिक ग्रन्थ
पर्वत
ग्रन्थ
राजचिन्ह
प्राणी
नदी
नदी
प्राणी
प्राणी
ग्राम
पद
मुनि
ग्रन्थ
ग्रन्थ
गृह
प्राणी
गृह
प्रतिमा
७/४६।१
१६
२/३२३, ४४६; ६।७५;
७। १४८
५।८७
२१३२३,४४४; ५१८७;
६।७५ ७११४६
७/४६।१
७२४७२
२।३२३ ४ ६५६; ६।७५;
७१४२
२/३६० ३।३१६, ४/२५६,
५८६,५८७
६१३६;
८।१४
परिशिष्ट - १
६६०
१०।१११।१
२६
८४१११
४३६२
६२६
२३८६
२३८६
६२७/१
१०/४७-४६, ५२, ५४, ५५.
५६,६०
४१६४३; १०१६७
५।७२
७१३-५८१२,३
२/३३६; ३/४६०; ६ ६१
२१३३६; ३।४६२, ६६२
४|५१४
३।४२-४४ १० १६४,१७२
७।१४२।१
४४३४
५।३६
१०।११६
१०।११८
५।२३५.२३६
८२,३
३१४१६-४२१५११०७,
१६६ ७ ८ ९ १०।२१ २१२४३, ४ ६६
Page #1068
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
उवासगदसा उवासगपडिमा
उसभकूड
उसभपुर
उसुगारपव्वय
उसुयार
उस्सप्पिणी
उस्सास
उस्सेइम
ऊसास
ऊसासणीसास
एगल्ल
विहारपडिमा
एगखुर
एगजडि
एगवीस सबला
एगसेल
एलावच्च
ओभास
ओमोय (द) रिया
ओय
ओसध
ओसधि
ओसप्पिणी
कंग
कंडय
कंडिल्ल
कंतारभत्त
कंथग
कद
कंप्पिल
कंबल
ग्रन्थ
ग्रन्थ
पर्वत
ग्राम
पर्वत
पर्वत
समय के प्रकार
समय के प्रकार
प्रतिमा
प्राणी
पाणग
समय के प्रकार
ग्रन्थ का एक अध्ययन १० | ११६ १
एगावाइ
अन्यतीर्थिक
एगारस
उवासगपडि माओ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११५ एगिदियरयण
चक्रवतिरत्न
७६७
एणिज्जय
८४१११
एरंड
४/५४२, ५४३, ५४३।१-३
एरवय (त)
एरावणदह
एरावती
ग्रह
तप
ग्रह
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११५
पर्वत
शरीरधातु
चिकित्सा
१०।१०३, ११०,११२
१०१११५
८८१-८४
७।१४२।१
२।३३६
५।१५८
राजधानी
समय के प्रकार
२०३०३३।६१,६२
व्यक्ति
वनस्पति
जनपद
द्रह
नदी
जाति, कुल और गोत्र ७१३६
२३२५
३।३८१, ६/६५
४/६४२।१,२
४/५१६
धान्य
वनस्पति
७४८१
३।३७६
७१४८२
भक्त
प्राणी
३|४६६ ७ १ ८।१
४।५५०
२।३२५
वनस्पति
राजधानी
साधु के उपकरण
२।३३६, ४ | ३१० ; ५ । १५० ;
८/६७ १० १४५
८२२
५।१५५
५३८,२३११०/२५
२।३४१८।७३
२१३०४३८६,६०
जाति, कुल और गोत्र ७ ३६
७६०
८११७/१
१०२५
हा६२ ४१४७२, ४७३ ८।३२; ६६२; १०।१५५ १०।२७।१
५।७३,७४
कंबलकड
कंस
कंसवण्ण
कंसवण्णाभ
कक्कंध
कक्कसेण
कच्चायण
कच्छ
कच्छ
कच्छगावती
कच्छभ
कच्छावती
कज्जोवग
कट्ट सिला
कडक
कण
कणकणग
कणग
कणगरह कणगविताणग
कणगसंताणग
कणियार
कण्णपीढ
कण्ह
कत्तवीरिय
कत्तियपाडिया
कत्तिया
कप्प रुकव
कप्परुक्खग
कब्बड
कब्बडग
कब्बालभयय
कम्म
कम्मभूमि कम्मविवागदसा
करंडग
करकरिंग
करण
करपत्त
कल
कलंद
उपकरण
ग्रह
ग्रह
ग्रह
ग्रह
व्यक्ति
जाति,
विजय
पर्वत
विजय
प्राणी
विजय
कुल और गोत्र ७१३५
ग्रह
संस्तारक
आभूषण
ग्रह
ग्रह
ग्रह व्यक्ति
ཝཱལེལཾཝཱལཾ།
ग्रह
ग्रह
वनस्पति
आभूषण
व्यक्ति
व्यक्ति
तिथि
नक्षत्र
वनस्पति
वनस्पति
वसति के प्रकार
४५४६
२।३२५
२।३२५
२/३२५
२/३२५
१०११४३।१
ग्रह
कर्मकर
२३४०८६६
६१४७
८६६
३।१३४
२१३४०
२।३२५ ३।४२२-४२४
८।१०
२।३२५
२।३२५
२।३२५
८५२
२।३२५
२१३२५
१०/८२।१
८|१०
८५३६६११०८०, १६०११
८३६
४/२५६
५६१,६७३,१२६८/११६;
१०/१६८
७ ६५।१
३।३६५
परिशिष्ट - १
२३६०५।२१,२२,१०७
२।३२५
४१४७
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११७।१
जनपद
३३६०
ग्रन्थ
१०१११०,१११
उपकरण
४|५४१
ग्रह
२।३२५
व्याकरण
८२४१, ४
शस्त्र
४|५४८
धान्य
५।२०६
जाति, कुल और गोत्र ६ । ३४।१
Page #1069
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
कलंब
कलंबचीरिया
कला
कल्लुआ वाय कसिण
काइय
काक
काकणिरयण
कातिय
कामडियगण
कामदेव
कायतिगिच्छा
काल
काल
कालवालप्पभ
कालिय
कालोद (य)
कास
कासव
कासी
किंकस
किन्हा
कित्तिया
किरियवादि
haraणीमग कंडकोलिय
कुंडल
कुंडलवर
कुंडला
कुंथु
कुथु
कुंभ
कुंभग्गसो
कुंभारावाय
कुक्कुड
कुणाल
कुमार
कुमारभिच्च
कुमुय
वनस्पति
वनस्पति
लौकिक ग्रन्थ
ग्रह
चक्रवतिरत्न
कारखाना
८1१०
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११८ प्राच्यविद्या
६२८१
२।३२५
७ ६७८६१
१०।११४।१
२६
ग्रन्थ
जैनगण
ग्रह
व्यक्ति
पर्वत
ग्रन्थ का प्रकार
समुद्र
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।१९२।१
चिकित्सा
ग्रन्थ का एक अध्ययन
नदी
नक्षत्र
अन्यतीर्थिक
८११७१
४|५४८
२७/१
आभूषण
पर्वत
राजधानी
व्यक्ति
प्राणी
ग्रह
जाति, कुल और गोल ७ ३०,३१
जनपद और ग्राम
७७५ १०।१९३।१
५।२३२; १०/२६
२/३२३४/३३२; ७११४७
पात्र
धातु और रत्न
कारखाना
प्राणी
जनपद और ग्राम
ग्रन्थ का एक अध्ययन
चिकित्सा
विजय
८२६
२।३२५
४।३६३
१०/५५
२१०६
४|५३
याचक
५१२००
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११२ १
८1१०
२/३४६,४४७,३।१३३,१३४;
७१५६-६०, १११, ८१८ २।३२५
३१४८०१०१४५
२|३४१८।७४
३१५३५ ५। ६१; १०1२८
५।२१,२२
४१५६०-५२६
हा६२
८। १०
७।४१।१
७१७५
१०।१११११
२६ २२३४०८७१
१०२६
कुरा
कुलत्थ
कुसुमसंभव
कुसुम्भ कूडसामलि
कूडागार
कूडागारसाला
केतु ( उ )
केसरिदह
केसरिद्दह
केसालंकार
कोइला
कोंच
कोंडिण
कोच्छ
को (कु) ट्ठ
कोडिण
कोडियगण
कोडुंबि
कोडुंबिय
कोद्दव
कोसँग
कोमलपसिण
कोरव्व
कोरीया
कोस
कोसंबी
कोसिय
कोसी
खंड
खंडगप्पवायगुहा
खंडवाया
खंधीय
खग्ग
खग्गपुरा
खग्गी
खण
जनपद और ग्राम
धान्य
मास
धान्य
वनस्पति
गृह
गृह
ग्रह
द्रह
दह
स्वर
मान के प्रकार
राजधानी
१०।१३६
५।२०६
७।४१।२
७०
अलंकार
प्राणी
प्राणी
जाति,
, कुल और गोत्र ७|३७
जाति, कुल और गोत्र ७३०,३४ गृह
३।१२५ ५।२०६७६० जाति, कुल और गोत्र ७१३४ जैन गण
परिवार
हार ३११३५ ६२
राजपरिकर
७६०
७६०
धान्य
धान्य
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११६
जाति, कुल और गोत्र ६।३५
७।४५।१
११२४८
गुफा
वनस्पति
२।२७०,३३०,३३२, ३४८, ३४६; ८।६४;
राजचिन्ह
राजधानी
राजधानी
समय के प्रकार
१०।१३६
२१३६० ४।१८६
४|१८७
६।७ ८३१
३४५६
२२८६,२६२ ६८८
४/६३६
७२४१२
७२४१२
१०।२७११
जाति, कुल और गोत्र ७३०,३५
नदी
खाद्य
गुफा
परिशिष्ट-१
५।२३०१०१२५
४४११
२१२७६; ८८१
८६६
४ ५७ ५१४६; ६।१२
५।७२
२१३४१ ८ ७६
२३४१, ८७३
२३८६ ५१२१३५
Page #1070
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०२७
परिशिष्ट-१
प्राणी
खहच (य)र खहचरी खाइम
गणिपिडग
खारतंत खारायण खीर खीरोया (दा) खुद्दिमा
खाद्य
प्राणी
खेड
ग्रह
व्यक्ति
खेमंकर खेमंकर खेमंधर खेमपुरी
खेमा
खोमगपसिण खोमिय गंग गंगप्पवायह गंगा
३१५२,५५
गणावच्छेद प्राणी ३१४६
गणि खाद्य
३।१७-२०४।२७४,२८८, ५१२८१४२
गय चिकित्सा ८।२६
गयमूमाल जाति, कुल और ग्राम ७३६
गल्लोवबात ४।१८३,४११; ६।२३
गवेलग नदी
२०३३६३।४६१६।६२ गह स्वर
७।४।१ वसति के प्रकार २१३६०२२१,
गाउय २२,१०७ २२३२५
१०।१४४ व्यक्ति
१०११४४ राजधानी २०३४१८१७३ राजधानी २।३४१८७३
गाम ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११६ वस्त्र ३१३४५
गाहवती व्यक्ति ७।१४१
गाहावति २२६६,३३८ नदी
२२३०१,३१४५७,५१८, गाहावतिरयण २३०,६८९७१५२,५६% गाहावती ८.५६, ८१,८३,१०।२५
४१५५० माल्य ४।६३५
गिरिकंदरा पर्वत
२।२७७,३३६; ४११३४; गिरिपडण
५।१५३; ७११५११०११४६ गिलाणभत्त स्वर
७१३६१,४०११,४१५१,४२११, गिह ४३।३
गीत स्वर ७.४१,४६
गुत्तागार व्यक्ति ८१५३।१
गुल पर्वत
२२७५,३३५४१३०७ २।३४०८७२
गेहागार विजय
२।३४०, ८१७२, ६५६ गो नदी
२१३३६३१४६२६६२ गोट्टामाहिल जाति, कुल और गोत्र ७३२
गोत (य) म प्राणी ७१४१०२
गोतम (गोतम) पद
३१३६२, ४१४३४,८१३७; गोतम (गौतम) ६।६२
गोत्तास
द्रह
पद
३।३६२, ४१४३४
३१३६२४१४३४ ग्रन्थ
१०.१०३ प्राणी
४१३८४-३८७; १०२ व्यक्ति
११ गन्थ
१०।१२०
७१४१११८१० ग्रह मान के प्रकार ४।३०६; २१५६ मान के प्रकार २।३०६,३२६,३२८,३४५,
३४६,३५१,३५२,३।११३, ११५, ४१३४४; १०३८,
४३,४८,५४,६० वसति के प्रकार २१३६०; ५।२१,२२,१०७
२२।२ स्वर
७१४४,४८।१४ प्राणी
७.४३३१ नदी
२।३३३ परिकर
५।१६२,६।६१;
१००११२।१ चक्रवति रत्न
७।६८ नदी
३३४५६, ६६१ मरण
२०४१३ ऋतु
६१६५ गुफा
५१२१,२२ मरण
२१४१२ भक्त
३।६२
हा२।२ स्वर
७।४८1१,२ ५।२१,२२
२३ स्वर
७।४८१३,५-७ वनस्पति
१०:१४२११
८।१० व्यक्ति
७१४१
३।३३६,२२०६310 जाति, कुल और गोत्र ७१३०,३२ जाति, कुल और गोत्र ७१३२ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।१११११
गिद्धपट्ट गिम्ह
प्राणी
गडीपद गंथिम गंधमाय (द)ण
गंधार
गृह
गह
खाद्य
विजय
गंधारगाम गंधारी गंधावाति गंधिल गंधिलावती गंभीरमालिणी गग्ग गज गणध (है)र
प्राणी
व्यक्ति
,
Page #1071
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
गोभ
गोदासगण
गोदोहिया
गोधूम
गोमुही
गोरी
गोल
गोलिकायण
गोलियालिछ
गोसाल
गोहिया
घण
घय
घुण
घोरतव
घोस
चउक्क
चउत्थभत्तिय
चउदंत
च उप्पय
चउम्मुह
चंद
चंद चंदकता
चंदच्छाय
चंदजसा
चंददह चंदपडिमा
चंदपण्णत्ति
चंदपब्बत (य)
चंदप्पभ
चंद्रभागा
चंपगवण
पर्वत
जैन गण
आसन
धान्य
वाच
व्यक्ति
जाति, कुल और गोत्र
जाति, कुल और गोत्र
कारखाना
व्यक्ति
वाद्य
वाद्य
खाद्य
प्राणी
लब्धि
वमति के प्रकार
पथ
मुनि
प्राणी
प्राणी
पथ
ग्रह
व्यक्ति
व्यक्ति
द्रह तपः कर्म
ग्रन्थ
पर्वत
व्यक्ति
४३३०
२६
नदी
उद्यान
५।५०
३११२५
७१४२११
८५३|१
७१३१
७ ३५
८१०
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०/११६ १
व्यक्ति
७/६३|१
७७५
७/६३।१
५। १५५
२१२४८
३|१३६, ४|१८६ २।३३६, ४।३१३ ५।१५३
८) ६८ १०११४६
२|४४१ ६ ८० १०/७५
५/२३१; १०/२५ ४/३३६११,३४०११
१०/१५६
७/४२१२
२।२१६,२१७, ४६३२;
१०२८
८/१०
४|१८४
४|५६
४ | ३५०
२३६०
५।२१,२२
३/३७६
६२
४/५५०१०११७१
५।२१,२२
२१३२१,३७६, ३११५५;
४/१७५,३३२, ५०७; ५।५२; ६/७३-७५ ८।३१,११६;
१५,१६,६३; १०।१६०११
चंपय
चंपा
चक्क जोहि
चक्कपुरा
चक्करयण
चक्कता
चक्खुम
चच्चर
चम्मकड
चम्मपक्खि
चम्मरयण
चाउदसी
चाउलधोवण
चारणगण
चारय
चित्त
चित्तंग
चित्तकूड
चित्तरस
चित्ता
चिल्लय
चीवर
चुंचुण
चुत (य) वन
चुल्लसतय
चुल्ल हिमवंत
चूलणीपिउ
चूलवत्थु
चलियंग
चूलिया
चेय
चेइयथूभ
वनस्पति
राजधानी
व्यक्ति
राजधानी
चक्रवतरत्न
व्यक्ति
व्यक्ति
पथ
उपकरण
प्राणी
चक्रवतिरत्न
तिथी
पाणक
जैनगण
राज्यनीति
मास
वनस्पति
पर्वत
वनस्पति
नक्षत्र
ग्रन्थ का एक अध्ययन
ग्रन्थ का एक अध्ययन
समय के प्रकार
समय के प्रकार
गृह
परिशिष्ट- १.
स्तूप
८११७/२
१०/२७११
हा२०११
२/३४१ ८७६
७।६७
७/६३|१
७।६२।१
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।१९३।१ वस्त ५१०७ जाति, कुल और गोत्र ६।३४।१
उद्यान ४ ३३६ १,३४० १,३४० ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११२।१ पर्वत
५।२१२२
४५४६
४/४५१
७६७
४३६२
३१३७६
२६
७/६६
४१६४१|१
७।६५।१:१० ११४२।१
२/३३६४।३१०;
५ १५० ८६७१०/१४५.
७६५।१; १०।१४२।१
११२५२; २१३२३; ४१२७ १७६ ५८४, ६५, ७ १४८;
८११६, ६६३|१; १०।१७०११
२।२७२,२८१,२८७, ३३४; ३।४५३, ४५७ ४।३२१ ; ६८५ ७ ५१,५५
१०।११२।१
४ ६४३ ८ | ५४; १०1६८
२३८६
२३८६
३।३६२; ४३४; ६।११७११ ४/३३६
Page #1072
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०२६
परिशिष्ट-१
चेइयरुक्ख
वनस्पति
मुनि
चोदसपुवि छउमत्थमरण छट्टभत्तिय
३८५,४१३३६,४४८% ८.११७:१०१८२ ४।६४७ ५१७७-८० ३।३७७
जाम जारुकण्ह जियसत्तु जीवपएसिय जुग जुमसंवच्छर
मरण
मुनि
५७२
राजचिन्ह चक्रवतिरत्न व्यक्ति राज्यनीति
जुग्ग
७।६७ ७/१४१
जेट्टा
नदी
छत्तरयण छलुय छविच्छेद जउणा जउब्वेद जंगिय जंगोली जंतवाडचुल्ली जंबवती
जोयण झल्लरी
झुसिर
लौकिक ग्रंथ वस्त्र चिकित्सा कारखाना व्यक्ति
श६८,२३०,१०१२५ ३।३९८ ३।३४५,५२१६० ८।२६ ८.१० ८.५३।१
मुनि
जंबुद्दीवपण्णत्ति
ठाणं ठाणपडिमा ठाणसमवायधर ठाणातिय गई(दी) ण उअंग णउय णंदणवण गंदिणीपिउ पंदिसेण णदी णक्खत्तसंवच्छर पगर
ग्रह
जंबूदीव जडियाइलग जणवय जत्ताभयय जमप्पभ जमालि जमालि जय जयंती जराउज जलच (य)र जलचरी जलणपवेस जलपवेस जलवीरिय जव
स्वर
समय के प्रकार ३१६१-१७२ जाति कुल और गोत्र ॥३७ व्यक्ति
७७५ निन्व
७१४० समय के प्रकार २।३०६-३१५,३८६ समय के प्रकार ५।२१०,२१३ वाहन
४:३७५४-३७८ नक्षत्र
२१३२३; ३१५२६; ६।७४;
७१४६८।११६ मान के प्रकार वाद्य
४।३४४,७१४२।११०१४३ वाद्य
४५६३२ ग्रन्थ
१०।१०३ प्रतिमा
४१४६०
३११८७ आसन
५२४२७४६ जलाशय
२।३०२२३०६ समय के प्रकार २२३८६ समय के प्रकार उपवन
२।३४२,४१३१६६४५ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११२।१ अन्य का एक अध्ययन १०११११११
ઉl૪ફો? समय के प्रकार ५२१० वसति के प्रकार २।३६०,५२१,२२,१०२,
१०७,७११४२,१४२११
६२।२,६२ व्यक्ति
५१९४; १०७७ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११३६१
२।२६८ नदी
२०२६३, ६१९०,७५२,५६ विजय
२।३४०,८७१ समय के प्रकार २२३८६ व्यक्ति
८.५२ समय के प्रकार व्यक्ति
८.५२ प्रतिमा खाद्य
४।१८३-१८५६२३ अन्यतीथिक
६।२२
ग्रन्थ
४११८६ वनस्पति
२।२७१८।६३,१०११३६ जनपद
८८७,६२,६।१६
२१३२५ वसति के प्रकार ६।६२,१०८६१ कर्मकर
४११४७ पर्वत
१०।४६ निव
७१४१ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११३३१ व्यक्ति
१०१२८ राजधानी २१३२१,८७६ प्राणी
७।३,४,८।२-४ प्राणी
३।५२,५५; १०।६३
३१४६ मरण
२६४१२ मरण
२।४१२ व्यक्ति धान्य
३३१२५ धान्य
३।१२५ तप
२।२४८, ४६८ व्यक्ति
७.६२।१ व्यक्ति
८।३७ नदी
बा२२।११
प्राणी
णमि णमि णरकंतप्पवायद्दह णरकता णालिण णलिण पालिण णलिणंग णलिणगुम्म णवणमिया णवणीत णसंतपरलोगबाइ
जवजव जवमज्झा जसम जसोभद्द जवी
८४१
Page #1073
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०३०
परिशिष्ट-१
णेसाद(य)
स्वर
तउआगर
खान तंती
वाद्य तंबागर
खान तच्चावाय ग्रन्थ तज्जातसंसठ्ठकप्पिय मुनि त?
नक्षत्रदेव
७॥३६॥१,४०।२,४१।२, ४३७ ८.१० ८.१० ८।१० १०६२
२३२४
वाहन
तणवणस्सइकाइय वनस्पति
तत तत्तज (य)ला तब्भवमरण
३३१०४; ४१५७; ५।१४६; ६।१२, ८।३२; १०१५५ २२१५, २१६; ४१६३२ २१३३६ ३४६०, ६६१ २१४१२
तमा
तया
वाद्य नदी मरण दिशा वनस्पति वाद्य राजपरिकर जलाशय स्वर
तल तलवर
णागकुमारावास गृह
४१३६२५२१०७ पागपब्वत पर्वत
११३३६,४।३१३,५।१५३;
८।६८१०।१४६ गागमक्ख
वनस्पति ८।११७६१ णात
जाति, कुल और गोत्र ६।३५ पाभि व्यक्ति
७।६२।१ णायधम्मकहा ग्रन्थ
१०।१०३ णारिकतप्पवायदह द्रह
२।२६८ णागिरी)कता नदी
२२२६२, ६।६०,७५३,५७ णावा
५११६५ मिक्खित्तचरय मुनि णिगम
वसति के प्रकार २।३६० णितावाइ
अन्यतीथिक ८।२२; १०७ णिद्धमण मार्ग
५।२१,२२ णिप्फाव धान्य
५।२०६ णिमित्त लौकिक ग्रन्थ
६।२०११ णिमित्त
प्राच्य विद्या हा२०११ णिम्मितवाइ अन्यतीथिक ८.२२ णियल्ल
२२३२५ णियाणमरण मरण
२१४१२ णिरति
नक्षत्रदेव २॥३२४ णिसढ(ह) पर्वत
२।२७३,२८३,२८६,२६१, ३३४,३१४५३; ४१३०६%
६/८५,७१५१,५५,६।४४ णिसहदह
५११५४ णिसिज्जा आसन
५१५० णील
२।३२५ णीलवंत
२।२७३,२८४,२८६,२६२, ३३४,३१४५४,४॥३०६%
६८५७/५१-५५ णीलवंतदह
५२१५५ णीला नदी
५।२३२,१०१२६ णीलुप्पल वनस्पति
२१४३८ णीलोभास ग्रह
२१३२५ णे उणियवत्थु दक्ष पुरुष
२८ णेमि व्यक्ति
५६५१०१६६ णेरती
१०।३१११ णेलवंत पर्वत
६।५७ णेसज्जिय आसन
५।४२,७४६
८.३२,१०११५५ ८.१० ६।६२ २।३६० ७१४८११४ ६७
ग्रह
तलाग ताण
तारग्गह
ग्रह
ताल
वनस्पति
४५५
द्रह
वाद्य
ताल तिकूड
पर्वत
पर्वत
तिग
८.१० २३३६, ४१३११, ५।१५१ ८.६७; १०११४५ श२१,२२ ३१४५५ १०१४७ २।२८६; २६१,६८८ ४/५१७
पर्वत
द्रह
द्रह
तिगिछदह तिगिछिकूड तिगिछद्दह तिगिच्छग तिगिच्छा तिगिच्छय तिगिच्छय तिणिसलता तित्थंकर तित्थग (य) र
चिकित्सा चिकित्सा लौकिक ग्रन्थ प्राच्यविद्याविद् वनस्पति
है।२७।१ ६।२८१ ४१२८३ ६।६२।१ श२४६; २।४३८-४४१ ३१५३५; १२३४
दिशा
पद
Page #1074
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०३१
परिशिष्ट-१
ग्रह
वस्त्र
ग्रह
दढरह
तिल
दसा
ग्रन्थ
दहिमुह
पर्वत
तिमासिया प्रतिमा
३१३८७
दग ग्रह
२।३२५ तिमिसगुहा गुफा २।२७६; ८.६५,८१ दगपंचवण्ण
२।३२५ तिरीडपट्टय
५।१६०
दढधणु व्यक्ति
१०।१४४ तिल २।३२५
व्यक्ति
१०।१४३१ धान्य ५।२०६
दढाउ व्यक्ति
६।६० तिलपुप्फवण्ण ग्रह
२।३२५
दत्त व्यक्ति
७.६४.१ तिलोदय पानक ३।३७७ दधिमुहग पर्वत
४१३४०, ३४१ तीसं मोहणिज्जट्ठाणा ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११५
दस चित्तसमाट्ठिाणा ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११५ तीसगुत्त व्यक्ति
७.१४१
दसण्णभद्द ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११४।१ तुडित (बुटित) आभूषण ८.१०
दसदसमिया प्रतिमा
१०१५१ तुडित (य) (तूर्य) वाद्य ८.१०; ६।२२।१० दसधणु
व्यक्ति
१०११४४ तुडितंग वनस्पति
१०।१४२११
दसपुर ग्राम
७.१४२।१ तुडिय (त्रुटित) समय के प्रकार २१३८६
दसरह व्यक्ति
६।१९६१; १०११४३६१ तुडियंग समय के प्रकार २।३८६
१०।११० तुलसी वनस्पति ८.११७४१
दसारमंडल ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११७११ तुसोदय पानक ३।३७७
जलाशय
२।२६०-२६३ तेंदुय वनस्पति ८।११७४२ दहवती नदी
२।३३६, ३४५६ ६९१ तेतीस आसायणाओ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११५
दहि (धि) खाद्य
४।१८३; ६।२३ तेयवीरिय व्यक्ति ८।३६
१०१४२ तेतली ग्रन्थ १०।११४१ दहिवण्ण वनस्पति
१०।२।१ तेरासिय निन्हव
७.१४०
दारग (य) परिवार का सदस्य ६।६२ जाति, कुल और गोत्र ७१३६
दारुपाय पात्र
३१३४६ खाच ६।२३
दास्य
व्यक्ति तेल्ल खाद्य ३८७; ४११८४
दास कर्मकर
३।२५; ८।१० तेल्लापूय खाद्य १०२४८
कर्मकर
८।१० तोरण २।३६०; ४१३४० दाहिणपच्चत्थिम दिशा
१०१३० थलच (य)र प्राणी ३३५२,५५,६७१,१०१६४, दाहिणपच्चथिमिल्ल दिशा
४।३४४,३४७ १७१, १७२ दाहिणपुरथिमिल्ल दिशा
४१३४४, ३४६ थलचरी प्राणी
३।४६ दितिय अभिनय
४१६३७ थालीपाग खाद्य
३१८७ दिटुलाभिय
१३८ ३३३६२,४८८, ४१४३४; दिट्टिवाय ग्रन्थ
४११३१, १०१६२, ५२४४,४६६११०।२७,
१०३ दिवस
समय के प्रकार ५।२१३१५६।६२ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११६१
दिवसभयय कर्मकर
४।१४७ थोब समय के प्रकार ३८८, ३१४२७
दीव वनस्पति
१०।१४२।१ राज्यनीति ३१४००
दीवसमुद्दोववत्ति ग्रन्थ
१०।११।१ दंडरयण चक्रवतिरत्न ७१६७
दीवसागरपण्णत्ति ग्रन्थ
३।१३६ ४१८६ दंडवीरिय व्यक्ति
८।३६ दोहदसा ग्रन्थ
१०१११०,११६ दंडायतिय आसन
५१४३; ७१४६
तेल
तेल
है।६१
दासी
मुनि
१३६
Page #1075
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०३२
परिशिष्ट-१
पर्वत
राज्यनीति
ग्रह
दुंदुभग
धेवत
परिवार सदस्य स्वर स्वर
ग्रह
ग्रन्थ
समय के प्रकार समय के प्रकार समय के प्रकार व्यक्ति समय के प्रकार व्यक्ति
२।३२५ २२३२५ ३१३६२, ४१४३४ ७।३६१,४०२ ७१४२२२ २३२५ २०३८६ २२३८६ २२३८६ ८.५२ २।३८६ ८.५२ ३।४५५, ४५७ २।२८७,३३७, ६८८ ८.५२ २०४४०५८४ २।३४८, ८1८६; १०११३६
द्रह
द्रह
व्यक्ति
व्यक्ति वनस्पति
देवदूस
वस्त्र
दोहवेयड्ड
२१२७८-२८०,८८१-८४; धिक्कार ६।४३, ४७-५१, ५३-५६, धुर ५८,६७
धूमकेउ ग्रह २३२५
ध्या दुखुर प्राणी
४१५५० दुजडि
धेवतिय दुभिक्खभत्त भक्त
६।६२ दुवलसंग
१०।१०३
पउत दुस्समदुस्समा समय के प्रकार १११३५; ३।६२; ६।२४ पउतंग दुस्सममुसमा समय के प्रकार १११३७; ३१६२, ६।२४ पउम दुस्समा
समय के प्रकार १११३६, ३१६२, ६।२४ पउम दूसमदूसमा समय के प्रकार १।१३१; ३६०; ६।२३
पउमंग दूसमसुसमा समय के प्रकार १११३३; ३१६०; ६१२३ पउमगुम्म दूसमा
समय के प्रकार १।१३२; ३६०; ६२३ पउमदह देवकुरा जनपद
३१४६६; ४३०८ पउमद्दह देवकुरुदह
५११५४
पउमद्धय देवकुरुमहद्दुम वनस्पति
पउमप्पह ६।६२
पउमरुक्ख देवपब्वत पर्वत
२०३३६,४१३१३,५११५३; पउमवास
८।६८; १०।१४६ पउमसर देवसेण व्यक्ति
पउमावती दोकिरिय निन्हव
७११४०
पओस दोगिद्धिदसा ग्रन्थ
१०।११०,११८
पंकवती दोणमुह वसति के प्रकार २।३६०५।२१,२२, १०७, पंचम
८।२२।२ धणिट्ठा नक्षत्र
२१३२३, ५२२३७; ७१४६; पंचमासिया ६।१६, ६३।१
पंचाल मान के प्रकार ११२४८; १५६-१६३; पंडियमरण
६।२५-२८, ७६; ७१७४; पंतचरय
८.६२, ६।६५; १०७६८० पंतजीवि धणुद्धय व्यक्ति ८.५२
पंताहार धण्ण वनस्पति
३।१२५; श२०६; 180 पकंथग घण्ण ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११४११
पक्ख धम्म व्यक्ति
३१५३०, ५८६ १०७६ पक्खिकायण धम्मावाय
१०।६२
पच्चूस धरणप्पभ
१०१५४
पज्जोसवणाकप्प धायइड जनपद और ग्राम ३१४६३
पट्टण धायई (इ) रुख बनस्पति २१३३०; ८८६.८७%;
१०११३६
पडागा
नदी
घणु
जलाशय
१०११०३ व्यक्ति
८.५३।१ समय के प्रकार ४।२५८
२०३३६; ३४५६; ६६१ स्वर
७।३६१,४०१२,४१२२
४४.२ प्रतिमा
५।१३० जनपद
७७५ मरण
३१५१६, ५२१ मुनि
५१४१
५१४० प्राणी
४१४६८-४७१,४७४-४७६ समय के प्रकार २।३८६६६२ जाति, कुल और गोत्र ७३५ समय के प्रकार ४१२५८ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११५ वसति के प्रकार २०३६०५।२१,२२,१०७%,
६।२२।२ उपकरण
४१४३१
मुनि
मुनि
ग्रन्थ
पर्वत
Page #1076
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
परिशिष्ट-१
१०।१४४
ऋतु
भाषा
पडिग्गह साधु के उपकरण ५७३, ७४
पल्ल पडिबुद्धि व्यक्ति
७१७५
पल्लग पडिमट्ठार (ठा)इ आसण
५।४२, ७१४६
पवत्ति पडिरूवा व्यक्ति ७१६३३१
पवाय (त) दह पडिसुत्त व्यक्ति
पवाल पडी(डि)णा दिशा
६।३७-३६; ७२
पवाल पणग वनस्पति
पवालि पणगसुहुम प्राणी
८.३५; १०।२४
पव्वति पण्णत्ति
३।१३६; ४१८६ पसेणइय पण्हावागरण ग्रन्थ
१०१०३
पहरण पण्हावागरणदसा ग्रन्थ
१०१११०, ११६
पाईणा पत्त वनस्पति
८।३२,१०११५५ पत्तय गेय ४१६३४
पाउस पदाण व्याकरण ८।२४।४
पाओवगमण पभंकर
२।३२५
पागत पभावती ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११६१
पागार पमाणसंवच्छर समय के प्रकार श२१०,२१२
पाणहा पमुह
२१३२५
पायपडिमा पम्ह विजय २१३४०, ८१७१; ६५३
पायपुंछण ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११६१
पारासर पम्हकड पर्वत
२।३३६ : ४३१०; ११५०; पारिहत्थिय ८१६७; १०११४५
पावसुयपसंग पम्हगावती विजय
२०३४०८१७१
पास पम्हावती (ई) पर्वत
२।३३६४१३१२,५।१३२;
८.६८,१०११४६ पम्हावती (ई) राजधानी २१३४१८१७४
पाहुणभत्त पयावति नक्षत्रदेव २।३२४
पाहुणिय पयावति व्यक्ति
६११
पिउ परपंडित प्राच्य विद्याविद ६।२८१
पिंगल परिभास राज्यनीति
७१६६
पिंगालायण परिमितपिंडवातिय मुनि
पिंडेसणा परियारय चिकित्सा
पिद्विवडेंसिया पलंब ग्रह २।३२५
पिति पलंब आभूषण ८।१०
पिति वनस्पति
८।६११०१८२११ पित्त पलिओवम समय के प्रकार
पित्तिय पलिमंथग धान्य
५।२०६ पलियंका आसन
५२५०
पियर पल्ल
समय के प्रकार २१४०।।१-३
३।१२५:२२०६७/६० संस्थान
१०.३८% पद
३।३६२,४३४
२।२६४-३००,३०२ वनस्पति
८.३२; १०।१५५ धातु और रत्न वनस्पति
५।२१३३ जाति, कुल और गोत्न ७।३१ व्यक्ति
७१६२५१ शस्त्र
हाराह दिशा
२११६७.१६६६।३७-३६%3 ७२
६१६५ मरण
२।४१४, ४१५
७१४८.१० सुरद्धा साधन राजचिन्ह
श७२ प्रतिमा
४।४८8 साधु के उपकरण ५७३, ७४ जाति, कुल और गोत्र ७।३७ प्राच्य विद्या और विद् ६२८१ लौकिक ग्रन्थ ६।२७ व्यक्ति
२२४३६३१५३३,५।६६, २३४, ६७८,८।३७;
५६ भत्त
६।६२
२।३२५ परिवार सदस्य
२२३२५ जाति, कुल और गोत्र ७१३४ भिक्षा वाहन
३२८७ नक्षत्रदेव परिवार सदस्य शरीर धातु
५।१०६ चिकित्सा
४१५१५
२२४३६ परिवार सदस्य ३८७, ४१५३७, ६।१६,
२०,६२
ग्रह
ग्रह
७1८
४१५१६
२०३२४
पलास
पियंगु
धान्य
Page #1077
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०३४
परिशिष्ट-१
पीढ
पुख
पुंडरीगिणी पुंडरीयद्दह पुंसकोइल पुसकोइलग पुक्खरणी पुक्खरद्ध पुक्खरवर पुक्खरवरदीव पुक्खरवरदीवड्ढ
साधु के उपकरण जनपद और ग्राम राजधानी द्रह प्राणी प्राणी जलाशय जनपद जनपद जनपद जनपद
पूरिम
पुक्खरिणी पुक्खल पुक्खलावई (ती) पुट्टिल पुट्ठलाभिय पुणव्वसु
जलाशय विजय विजय व्यक्ति
गृह
मुनि
५।१०२
समय के प्रकार २२३८६३४२७, ६१७७; ६।६२
१०७५ ८७३
पुव्वंग समय के प्रकार २२३८६३।४२७ २२३३७, ६।८८ पुन्वगत ग्रन्थ
१०६२ १०११०३
पुवह समय के प्रकार
४।२५८ पुन्वरत्त समय के प्रकार ४२५४,२५५ १०११०३
पुन्वविदेह जनपद २॥३६०
२२७०,३१९,३३३,४।३०५
१०११३६ ८।५६, ६० पुन्वा (ब्व) फरगुणी नक्षत्र
२।३२३, ४४५,६७३ २१३५१; ४:३१६१
७।१४८ ४।३१६ पुन्वा (व्व) भद्दवया नक्षत्र
२३३३, ४४३, ६७३, २।३४७,३४६,३५०; ३३१०८
७।१४६, ६।१६ ११२,११६,११८,१२०, पुवासाढा नक्षत्र
२२३२३; ४१६५५; ५।८६; ३६१,४६३; २१५७; ६२०
६।७३,७४१४६ २६,६४; ७१५६ पुस्स (पूषण) नक्षत्रदेव
२०३२४ ८.८६,६०; १०।१४७ पुस्स (पुष्य) नक्षत्र
७।१४८,१०।१७०११ ४१३३६-३४३
माल्य
४१६३५ २।३४०, ८६६
पूरिमा स्वर
७१४७११ २॥३४०, ८१६६
नक्षत्र
२२३२३,३५२६६६३३१ पेच्छाघरमंडब
४१३३६ पेढालपुत्त व्यक्ति
६६१ ५३८ पोंडरिगिणी राजधानी
२।३४१ २॥३२३; ५२३७; ६७५;
३।४५६ ७।१४७; ८.११६ पोंडरीयद्दह
२।२८७,३१४५८ ४.३६२ पोक्खरवर जनपद
७।११० ५।२१३।१ पोक्खलावई विजय
६।४६ ३१३६२, ४१४३४; १०६ पोग्गलपरियट्ट समय के प्रकार ३१४२८,८१३६ ७।४३।१; १०११३७ पोट्टिल व्यक्ति
है।६० ४।३८६; ५२१३।३,४; पोत्तिय
५।१६० ८।३२; १०११५५ पोरबीय वनस्पति
४१५७,५२१४६, ६।१२ २।३२५
पोराण प्राच्य विद्याविद् ६२८१ २१४४१; १८५
धार्मिक आचरण
४१३६२ ८।३५,१०१२४
पोसहोववास धार्मिक आचरण ४।३६२ ५।२१,२२ फरगुण मास
४१६४१६१ फल वनस्पति
४।१०१,४११, ५२२१३१३,४; ५।३६
६।६२,१०।१५५ १०७६
फलग
साधु के उपकरण ५१०२६।६२ ७।१४२११
फलिह
धातु और रत्न १०।१६३ ७६८
फाल
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११३।१ १०११६३ फेणमालिणी नदी
२३३६३२४६२,६९२ २२७६,२७७,४१३१६।१, बंध
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११७११ ३३६।१,३४०११
बंधदसा ग्रन्थ
१०१११०, ११७
नक्षत्र
पोंडरीयदह
द्रह
तिथि
पुण्णमासिणी पुण्णमासी
तिथि परिवार सदस्य
पुत्त
पुष्फ
वनस्पति
वस्त्र
ग्रह
पोसह
पुप्फकेतु पुप्फदंत पुप्फसुहुम पुर पुरिमड्डिय पुरिससीह
व्यक्ति प्राणी वसति के प्रकार
मुनि
पुरी
पुरोहितरयण
व्यक्ति वसति के प्रकार चक्रवतिरत्न धातु और रत्न दिशा
पुलय
पुव्व
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
बंभ
बंभचारि
बंभर
बंभदत्त
बंभी
बम्ह
बलदेव
बहस्सति
बहस्सति
बहुरत
बहूपुत्ती
बारस
भिक्खुपडिमाओ
बालपंडियमरण
बालमरण
बहुपसि
बाहुबल
बीयरूह
बहुम
बीसं
असमाहिट्ठाणा
भंगिय
भग
भगालि
भगिणी
भज्जा
भट्टि
भणिति
भद्दा
भद्दा
भद्दा भयग
भरणी
भरह
व्यक्ति
व्यक्ति
ग्रन्थ
व्यक्ति
व्यक्ति
नक्षत्रदेव
व्यक्ति
नक्षत्रदेव
ग्रह
निह्नव
ग्रन्थ
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११५
मरण
१६१
८।३७
हार
२/४४८; ४ | ३६३; ७७४
५।१६२
२/३२४
१६
२।३२४
२।३२५ ६ ७ ८।३१
७१४०
१०।११।१
मरण
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११६
व्यक्ति
५।१६१
वनस्पति
५।१४६; ६।१२
वनस्पति
८१३५.१० २४
ग्रन्थ का एक अध्ययन
परिवार सदस्य
परिवार सदस्य
पद
स्वर
प्रतिमा
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११५
वस्त्र
नक्षत्रदेव
नक्षत्र
व्यक्ति
कर्मकर
नक्षत्र
जनपद
३१५१६,५२२
३।५१६,५२०
३।३४५ ५।१६०
२।३२४
१०।१९३।१ ३।३६२४।४३४
३।३६२, ४/४३४
३।८७
१०३५
७४८१४१०
२ २४५ ४१६७ ५१८
६।७४
हा६२
३।३५ ४ । १४७
२।३२३; ३।५२६, ४/३३२; ५।६० ६ ७४, ७ १४७ ६ १६ २२६८, २४, ३०१, ३०३३०६, ३०६, ३१५, ३२०, ३२-३३३, ३४७, ३५० ३॥ १०-१११,११३,११७,११९ ३६०, ४५१, ४।१३६, ३०४३०६, ३३७,५१४; ५।१५८; ६।२५-२७, ८४ ७ ५०, ५४; १४३, ६२ १०२७, ३६, १४३
भरह
भवगिह
भसोल
भाइल्लग
भाति
भारग्गसो
भारद्द
भारह
भारिया
भावकेउ
भावणा
भास
भासरासि
भिंग
भिभिसार
भिक्खाग
भिक्खुपडिमा
भीमसेण
भुजपरिसप्प
भुयगपरिसप्प
भूतवेज्जा
भूतिकम्म
भूयवाय
भेद
भोग
भोम
मंखलिपुत्त
मंगालावती
मंगलावत्त
मंगी
मंच
मंजूसा
मंजूसा
व्यक्ति
भिण्णपिंडवातिय मुनि
व्यक्ति
प्राणी
प्राणी
गृह
नाट्य
कर्मकर
परिवार सदस्य
धातु और रत्न
जाति, कुल और गोत्र ७१३२
जनपद
याचक
प्रतिमा
परिवार सदस्य
ग्रह
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११७।१
ग्रह
ग्रह
वनस्पति
व्यक्ति
चिकित्सा
प्राच्यविद्या
४१, ३६३ ५।१६०; ६ | ७७
८३६, ५२ १०।२८
५२१, २२
४।६३३
३।३५
४१४३०
६१६२
स्वर
गृह
परिशिष्ट १
राजधानी
उपकरण
२२७८ ३।१०५ ७/६१,
६२, ६४; १६, २०;
१०/१४४
७१६३; १६२
२३२५ ४१७८, ३३४
२/३२५
२३२५
७६५१; १० १४२।१
५२
४१५६, ५४४, ५५३ ५।१६६
२८१
ग्रन्थ
१०/२
राज्यनीति
३|४००
जाति, कुल और गोत्र ३१३४; ६ ३५
प्राच्य विद्या
८२३ १०/१५६
व्यक्ति
विजय
२१३४० ८ ७०; ६५१
विजय
३1३८७-३८६ ५।१३०;
७ १३ ८ १०४ ६४१; १०/१५१
ve
१०।१४३।१
३१४५-४७
६७१
२६
२।३४० : ८।६६
७१४५११
३।१२५; ५२०६; ७६० २।३४१ ८ ७३
हा२२।११
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
परिशिष्ट- १.
मंडलबंध मंडलि मंडव मंडव
१०।१६३ ५।२०६
राजा
मंडलीय मंडुक्क
मंत
मंदय मंदर मंदरा
विजय
मंस
ग्रह
५।१५६ २।२८७,२८८3 ५१५४; ६।८८ २१३४०, ८७१ ६।१६१ २।३२३, ६।७३, ७१४५, १४८; ८/११६ २२३४०; ८।२६ २१३२५ ५।२३२, १०२६ ७.६११ ८।२३ ५२२३२; १०१२६ ५।२३२; १०।२६ ३१४५५, ४५७, ४५८ ५१५५; १०।१६५ २१३३२, ८1८८
मक्कार मग (ग) सिर मघव मच्छ
नदी
राज्यनीति ७.६६
मसारगल्ल धातु और रत्न जाति, कुल और गोत्र ७१३४
मसूर
धान्य जाति, कुल और गोन ७३०, ३६
महज्झयण ग्रन्थ वसति के प्रकार २॥३६०; ५२१, २२,१०७; ।
महणई
जलाशय ६।२२२२
महद्दह
जलाशय ३।१३५ प्राणी ४१५१४
महपम्ह
विजय लौकिक ग्रन्थ हा२७१
महसीह व्यक्ति गेय ४।६३४
महा (घ) नक्षत्र पर्वत
४१३१६-३१६ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११।१
महाकच्छ शरीर धातु २११५६-१६०; ३।४६५;
महाकालग ४१८५; हा२३; १०।२१। महाकिण्हा नदी राज्यनीति
महाघोस व्यक्ति नक्षत्र
२२३२३; ३३५२६; १।६३३१ महाणिमित्त प्राच्यविद्या व्यक्ति १०।२८
महाणीला प्राणो ३।३६-३८, १३४; ४१५४४;
महातीरा नदी ५।१६५; ६।१८
महादह जलाशय कर्मकर
७.४३१६ खाद्य ४।१८५६।२३
महाधायईरुक्ख वनस्पति स्वर
७/३४१,४०११,२४।१,४२११ स्वर ७।४४,४६
महापउम व्यक्ति धातु और रत्न ४१५०७; ६२२१८ आसन ४॥३३६
महापउमद्द (द)ह द्रह वनस्पति
७.६५।१; १०११४२११ चक्रवति रत्न
महापउमरुक्ख वनस्पति जनपद
२।४४७ वनस्पति ७६५।१; १०.१४२।१ महापह
पथ नदी
२०३३६, ३३४६, ६६१ महापडिवया तिथि प्राणी ७।४११
महापुरा
राजधानी व्यक्ति
महापोंडरीयद्दह द्रह व्यक्ति व्यक्ति ७६३३१
महाबल व्यक्ति पर्वत
महाभद्दा प्रतिमा माल्य
४।६३५ आभूषण ८.१०
महाभीमसेण व्यक्ति अलंकार
वाद्य व्यक्ति
२२४३६,३१५३२,५।२३४; । महाभोगा नदी ७/७५
महावच्छ
विजय
मच्छबंध मज्ज मज्झिम मज्झिमगाम मणि मणिपेढिया मणियंग मणिरयण मणुस्सखेत्त
८.५२, हा६२, ६२।१ १०२८ २२८८,२६०,३३७; ६१४५५; ६८ २१३४६, ८1803 १०।१३६ ५।२१, २२ ४।२५६ १३४१; ८७५ २।२८८, २६३, ३।४५६; ६८८
मतंगय
४१
मत्तज (य)ला मयूर मरुदेव मरुदेवा मरुदेवी मलय मल्ल मल्ल मल्लालंकार मल्लि
२१२४६; ४।६७;
५११८
महाभेरी
हा२०; १०११४३।१ ७१४२१२ ५।२३३; १०।२६ २२३४०, ८७०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०३७
परिशिष्ट-१
मास (मास)
महावाप महाविदेह
मास (माष)
महावीर
माह
माहण माहणवणीमग मिर्गासर मितवाइ मित्तदाम मितवाहण
मित्तेय
महावीरभासिय महासतय महासुमिण महाहिमवंत
विजय
२१३४०८७२ जनपद
२१२६७३।१०७, ३६० ४।१३७,३०८,३१५
७।५०-५४ व्यक्ति
११२४६; २१४११, ४१३, ४१४; ३।३३६, ५३१,५३४ ४|४३२, ६४८, ५।३४-४३, ६७,६१०४-१०६; ७१७६, १४०, ८१४१, ११५; ६।२६,३०, ६०, ६२११;
१०।१०३ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११६ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११।१ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०.१८१ पर्वत
२२७३, २८२, २८८, २६०, ३३४,३१४५३,६८५ ७।५१, ५५, ८।६३
RI૬૨ उपकरण
४१३३६ प्राणी
८.१०
५११८, २३०; १०१२५ खाद्य
४१६८५, ६।२३ राजधानी १०१२७।१ प्राणी
३१४६४,श२१,२२ परिवारसदस्य ३।१०३ राजपरिकर ग्रह
२१३२५ जैनगण
२६ पर्वत
३१४८०४।३०३:१०४०,
पर्वत
महिंद महिंदज्झय महिस मही
मियापुत्त मिहिला मुइंग मुंजइ मुंजापिच्चिय मुग मुन्छणा मुच्छा मुट्टिय मुणिसुव्वय मुद्दिया
समय के प्रकार श८९; ३१८६५२६८;
६१८०,११२-११५,११६,
१२१,१२२;६।६२ धान्य
५२०६ मास
४१६४१६१ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११११ याचक
५२०० नक्षत्र
७.१४७; १०।१७०११ अन्यतीथिक ८।२२ व्यक्ति
७१६११ व्यक्ति
७१६४।१ जाति, कुल और गोत्र ७१३३ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०११११११ राजधानी
७.१४२१११०।२७।१ वाद्य
७.१४२११,८।१० जाति, कुल और गोत्र ७३१ रजोहरण
५।१६१ धान्य
५२२०६ स्वर
७।४५-४७,४८,४८।१४
७।४।१,२ जाति
७४३१७ व्यक्ति
२।४३८; १९३ वनस्पति
४।४११ समय के प्रकार २३८९ ३।३६१,४२७,
४१४३३, ६७३-७५;
८।१२३,१२४; ११५ नक्षत्र
२१३२३, ५८५६।७३,
७।१४६१०११७०११ वनस्पति ८१३२,९।६२,१०।१५५ वनस्पति
७६० वनस्पति ४१५७; ५११४६,६।१२ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११७६१ जाति, कुल और गोन ७:३४ मुनि धातु और रत्न हा२।८ तपः कर्म २२४०, ४९९ नक्षत्रदेव
२१३२४ धातु और रत्न १०.१६३
स्वर
नदी
महुरा महोरग माउ माडंबिय
माणवग
माणवगण माणुसुत्तर
मातंग मातं(यं)जण
मूलगबीय मूलबीय मोक्ख मोग्गलायण मोणचरय मोत्ति मोयपडिमा
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११३।१ पर्वत
२।३३६,४।३११५५१५१;
८.६७,१०।१४५ परिवार सदस्य ३१३६२,४।४३४,६।२०
२२७७,३३६,४।३१४; ५।१५०,१५७,९४६ १०।१४५ ५।१५५
माता(या) मालवंत
पर्वत
यम
मालवंतदह
रतय
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०३८
परिशिष्ट
रतिकर रतिकरग रत्त रत्तप्पवायद्दह रत्तवती
पर्वत पर्वत शरीर धातु
राम
नदी
रत्ता
रालग
ग्रह
रनाकुंड रत्तावइपवायद्दह रत्तावतिकुंड रत्तावती (ई)
जलाशय द्रह जलाशय नदी
रम्म
विजय रम्मगवरिस जनपद रम्मगवस्स जनपद रम्मय
जनपद रम्मय (ग) विजय रम्मय (ग) वास जनपद
गृह
१०१४३
राइण्ण
जाति, कुल और गोत्र ३१३४६१३५ ४१३४४.३४८
रात
समय के प्रकार ५१६६७।८१ ४।६४२।२
व्यक्ति
६६१ २।३००
रामगुत्त ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११३।१,११८ ३।४५८; ६१९०८।५६; रायकरंडय (ग) उपकरण
४१५४१ १०२६
रायगिह राजधानी १०।२७।१ २।३०२,३।४५८,५२३२, रायग्गल ग्रह
२॥३२५ ६१६०,७१५२,५६,८१५६,८२, रायभिसेय अनुष्ठान હાર ८४१०२६
धान्य
७६० ८८४
२।३२५ २३००,३३८
रिटुपुरी राजधानी
२।३४१,८७३ ८८४
रिट्ठा
राजधानी २।३४१८७३ २।३०२, ५२२३३,७५३, रिभिय
नाट्य
४१६३३,७१४८१७ ५७,८८२,८४
रिव्वेद लौकिक ग्रन्थ
३१३९८ २१३४०८१७०
रिसभ स्वर
७।३६१,४०।१,४१।१,४२११, ४१३०७
४३१२ रुक्खमूलगिह
३।४१६-४२१ २।२७५,२६८
नक्षत्रदेव
२१३२४ २२३४०,८७०
रुप्प
धातु और रत्न हा२।८ २।२६६,३१७,३३३,४५०, रुप्पकूलप्पवायदह द्रह
२।२६६ ४५२,६८३,८४,६३, रुप्पकूला नदी
२२२६३,३३६६।६० ७.५०,५४,
७१५३,५७ ६।२।५,१२,१४;
रुप्पागर खान
८।१० १०११६१,१६३ रुप्पाभास
२।३२५ २।३४१,८७४
पर्वत
२।२७३,२८५,२८८,२६३, ११२५०
३३४; ३।४५४,६।८५,७१५१, २।३८६३११३८,४१६३६)
५५,८।६४ ५।२२७, ६।१०७,७१७६, १०६-१०६%381५६
रुप्पि ग्रह
२३२५ હાર
रुप्पि व्यक्ति
७७५ ७।४।१,४६।१ रुप्पिणी व्यक्ति
८१५३११ ८।१० रुय (अ)गवर पर्वत
३१४८०,८६५-६८१०१४४ ५२१६१ रुयगिद पर्वत
१०१५२ ७।३,४;८।२.३ रेवती (ई) नक्षत्र
२।३२३:५८८,६२,७११४६, ८।२६
६।१६।६३।१ ३।१२३,१८६,७११३,
व्यक्ति
६६० ८.१०४,६।४१,६२,
व्यक्ति
६।१६१ १०११५१ रोविदिय
४१६३४
रयण
धातु और रत्न
ग्रह
रुप्पि
रयणसंचया रयणि (रनि) रवणी (रत्नी)
राजधानी मान के प्रकार मान के प्रकार
रयणी (रजनी) रयणी रयय (त) स्यहरण रसज रसायण राई (ति)दिय
समय के प्रकार स्वर धातु और रत्न साधु के उपकरण प्राणी चिकित्सा समय के प्रकार
रेवती
रोद्द
गेय
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
रोहिणी
रोहितंसा
नदी
रोहियं सप्पवाद्दह द्रह
द्रह
रोहिणवाद्दह
रोहिया (ता)
लक्खण
लक्खणसं वच्छर
लक्खणा
लगंडसाइ
लव
लवण
लवण समुद्द
लवणोद
लाउयपाद
लूचरय
लूहजीवि
लूहाहार
लेइयापिउ
लेच्छइ
लोग मज्यावसित
लोगविजय
लोमपक्खि
लोह
लोहारं बरिस
लोहिच्च
लोहितख
लोहितक्ख
वइर वइरमज्झा
बाइसाह
बंजण
बजुल
बंसीमूल
वाचूलिया
नक्षत्र
नदी
प्राच्यविद्या
समय के प्रकार
व्यक्ति
आसन
समय के प्रकार
समुद्र
समुद्र
समुद्र
पात
मुनि
मुनि
२।३२३: ५।२३७६ ७५
७। १४७८११६
३४५७६ १८६७१५३, ५७
२१२६५
२१२६५
ग्रह
धातु और रत्न
धातु और रत्न
तपः कर्म
मास
२।२६०,३३६,६८६;
प्राच्यविद्या
वनस्पति
वनस्पति
ग्रन्थ
७१५२,५६
८२३
५१२१०,२१३
८५३|१
५४३७४२
२१३८६३/४२७; ५।२१३/५
२३२७, ३२८, ४४७; ३ । १३४;
४/३३२, ३३५,७११११;
१०।३२,३३
४/३२१-३३१;
मुनि
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।१९२।१
७१५२, ५३, ५८
४,६५२
३३४९
५।३६
५/४१
५।४०
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११।१
अभिनय
४,६३७
ग्रन्थ का एक अध्ययन २
प्राणी
धातु और रत्न
कारखाना
८।१०
जाति, कुल और गोत्र ७ ३५
२३२५
४५५१
२२15
१०३६
१०।१६३
१०।१६२
२१२४८; ४ ६८
४,६४१।१
८२३
१०1८२/१
४२८२
१० १२०
वग्गु
वग्गुरिय
वग्घ
वग्धावच्च
वच्छ
वच्छ
वच्छगावती
वज्ज
वे
वड
वड्डरयण
वर्णमाला
वणसड
वणीमग
वत्थपडिमा
वत्थालंकार
वत्थु (वस्तु)
बलियाभत्त
वद्दामणग
बप्प
पगावती
वयणविभत्ति
वरट्ट
वरिसकण्ह
वरिसारत
वरुण
वरुणोववात
वलय मरण
वल्लि
ववसायसभा
वसंत
सट्टमरण
सिट्ठ
वसु
वसुदेव
वाउ
विजय
कर्मकर
वनस्पति
जाति, कुल और गोत्र ७३७
विजय
जाति, • कुल
विजय
वाद्य
पर्वत
वनस्पति
चक्रवतिरत्न
आभूषण
वन
याचक
प्रतिमा
अलंकार
भक्त
ऋतु नक्षत्रदेव
ग्रन्थ
मरण
वनस्पति
२१३४०५८/७२
७/४३६
गृह
ऋतु
१०१८२१
भरण
व्यक्ति
नक्षत्रदेव
व्यक्ति
नक्षत्रदेव
२१३४०८१७०
और गोत्र ७१३०,३३
४,६३६
ग्रन्थ का एक अध्ययन २२४४२; ८ १५४;
१०१६७ ६२
२१३४०८ ७०
४।६३२
२१२७४, २७५ ४/३०७;
||१०|३=
८११७१
परिशिष्ट - १
७।६८
51१०
२३६० ४।२७३,३३६
४४३
४/२००
४४८८
ग्रह
विजय
विजय
व्याकरण
८।२४ ७६०
धान्य
जाति, कुल और गोत्र ७३१
६।६५
२३२४
१०।१२०
२४११
४५५
५।२३५, २३६
२२४०१५; ६।६५
२४११
८३७
२१३२५
२१३४० ८ ७२६५५
२१३४०८७२
२।३२४
६ १६ १
२३२४
Page #1083
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०४०
परिशिष्ट-१
वाणारसी वातिय वादि वायव्वा वारिसेणा वारुणी बाल वालवीअणी वावी वासावास
राजधानी १०।२७:१ चिकित्सा
४१५१५ प्राच्य विद्याविद् हा२८१ दिशा
१०३१११ नदी
५।२३३; १०।२६ दिशा
१०:३११ जाति, कुल और गोत्र ७.३१ राजचिन्ह
५७२ जलाशय
२१३६० धार्मिक अनुष्ठान ११०० जाति, कुल और गोत्र ७१३०,३७ व्यक्ति
२४४०,५२३४६१७६ चिकित्सा
४/५१५ तपः कर्म २।२४४,४१६६
२१३२५ राजधानी
२३४१
पर्वत
वासिट्ठ
ग्रह
मुनि
वासुपुज्ज वाहि विउसगपडिमा विगतसोग विगयसोगा विच्छ्य
प्राणी
४१५१४
विजय
जनपद
२।३६०,३३१०७, ८।६६-७२
विजयदूसग विजयपुरा विजया बिज्ज विज्जुप्पभ
ग्रह
विमलघोस व्यक्ति
७१६१११ बिमलवाहण व्यक्ति
७।६२।१,६५,६।६२,६५;
१०।१४४ विमला दिशा
१०।३१११ विमाणपविभत्ति ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।१२० विमुत्ति
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११७:१ वियड
ग्रन्थ का एक अध्ययन २।३२५ वियडगिह
३।४१६-४२१ वियडदत्ति तपःकर्म
३१३४८ वियडावाति
२२२७४,३३५४।३०७ वियर जलाशय
४१६०७ वियालग विरसजीवि
१४१ विरसाहार
५।४० विवागसुय ग्रन्थ
१०११०३ विवाय ग्रन्थ
१०।११८ विवाहलिया ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।१२० विवा(आ)हपण्णत्ति ग्रन्थ
१०।१०३ विविद्धि नक्षत्रदेव २१३२४ विवेगपडिमा तपःकर्म
२।२४४,४१६६ विसंधि
२३२५ विस भक्षण मरण
२१४१२ विसाल
२३२५ नक्षत्र
२३२३,५९६,२३७,६७५;
७.१४६८।११६ नक्षत्रदेव
२।३२४ विस्सवाइयगण जैन गण
२६ वीतसोगा राजधानी ८७५ बीयकण्ह
जाति, कुल और गोत्र ७१३३ वीर व्यक्ति
५१२३४ वीरंगय व्यक्ति
८१४१०१ वीरजस व्यक्ति
८.४१।११ वीरभद्द व्यक्ति
८३७ वीरासणिय आसन
५१४२७:४६ वीरियपुब्ध ग्रन्थ
८.५४ वीहि धान्य
३।१२५ वैजयंती राजधानी
२१३४१९७६ बेहिम माल्य
४।६३५ देणइयावादि अन्यतीथिक
४१५३०
वस्त्र राजधानी राजधानी चिकित्सा पर्वत
ग्रह
विसाहा
विज्जप्पभदह
विस्स
वितत वितत
नक्षत्रदेव वाद्य ग्रह प्राणी
२।३४१,८७५ २।३४१,८७६ ४१५१६ २१२७६,३३६,४१३१४, ५।१५२,६।५२,१०।१४६ ५।१५४ २१३२४ २।२१५,२१७, ४१६३२ २३२५ ४१५५१ २२३२५ ५।२३१; १०१२५ ७४८१४६ ४:५४९ ७७५ ८।२४.३ ५२३११०२५
मह
विततपक्खि दितत्य वितत्था वित्त विदलकड
नदी
स्वर उपकरण
विदेह
जनपद
व्याकरण नदी
विभत्ति विभासा विमल विमल
गह
व्यक्ति
५८७
Page #1084
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
वेदिग
देह
वे रुलिय
वेरुलियमणि
वेसमणोववात
वेसियाकरंड (ग) उपकरण
वहाणस
मरण
संघ
संख
संख
संख
संखवण्ण
संखवण्णाभ
संखा
संखाण
संखादत्तिय
संसेवियदसा
संघाडी
संघातिम
संज्ञा
संठाण
संडिल्ल
संति
संति
संथारंग
संपदावण
संपलियंक
संबाह
संभव
संभूतविजय
मुइ (ति)
संमुत
संलेण
संच्छर
संबुक्क
जाति, कुल और गोत्र
जाति, कुल और गोत्र
धातु और रत्न
धातु और रत्न
ग्रन्थ का एक अध्ययन
ग्रह
विजय
वाद्य
व्यक्ति
मुनि
ग्रन्थ
साधु के उपकरण
माल्य
समय के प्रकार
ग्रन्थ का एक अध्ययन
जाति,
और गोत्र
व्यक्ति
ग्रह
२।३२५
ग्रह
२।३२५
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११६
प्राच्यविद्याविद्
६२८१
५।३८
कुल
गृह साधु के उपकरण
व्याकरण
आसन
वसति के प्रकार
व्यक्ति
६ |३४|१
६।३४।१
१०११०३,१६३
२२।१२
समय के प्रकार
१०।१२०
४५४१
२४१३
२।३२५
२।३४० ८७१
७१४२११
७/७५ ८।४१।१६:६०
उपकरण
१०१११०,१२०
४५६
४/६३५
४।२५७
१०।११४।१
७।३१
२०५३०, ५३५ ५।६० ;
१०१२८
५।२१,२२
३।४२२-४२४; ५।१०२
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११६ १ व्यक्ति
८२४/२
४३३६
२१३६० ५।२१,२२
१०/६५
जाति, कुल और गोत्र ७ ३६
तप: कर्न
६२; १०।१४४
१०४१
२।१६६; ३।४६६, ४६७, ४३६२
२।३८६; ३ १२५; ५।२०६,
२१०, २१३३ ७ १०;
८।११२, ६६२
४२६६
संकप्पिय
संसेइम
संसेवग
सक्कत
सक्कराम
सगड
सगर
सच्चइ
सच्चप्पवाय पुन्व
सच्चभामा
सज्ज
सज्जगान
सण
सणकुमार
सणप्फ
सणिचर
सरिसं वच्छर
सणिच्चर
सणिच्छर
सण्णिवातिय
सण्णिवेस
सणिहाणत्व
सतदुवार
सतदु
सतधणु
सतय
सतीणा
सत्तवण्णवण
सत्तसत्तमिया
सत्तिक्कय
सत्तिवण्ण
सत्यपरिणा
सत्यवाह
सत्थोवाडण
सद्दालपुत्त
सद्दावाति
सदुद्देश्य
सतदु
पानक
प्राणी
ग्रन्थ
व्यक्ति
स्वर
भाषा
जाति, कुल और गोत्र ७ ३२
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।१११।१
व्यक्ति
व्यक्ति
स्वर
धान्य
व्यक्ति
प्राणी
ग्रह
समय के प्रकार
ग्रह
ग्रह
चिकित्सा
वसति के प्रकार
व्याकरण
जनपद और ग्राम
नदी
५।३७
३।३७६
व्यक्ति
व्यक्ति
धान्य
उपवन
प्रतिमा
७१३,४८१२,३
७१४५१०
१०/२८
६१
२१४४२
८।५३|१
७३६१, ४०११, ४१११,
४२।१, ४३।१
७१४४, ४५
७१६०
४|११०१२८
४।५५०
८।३१
५।२१०
२।३२५
६।७
४१५१५
२३६०: ५।२१,२२,१०७
८२४५२
हा६२
१०/२५
१०।१४४
|६०, ६१
५२०६
४१३३६११,३४०११
७|१३
ग्रन्थ का एक अध्ययन ७।११
वनस्पति
परिशिष्ट १
१०/८२१
ग्रन्थ का एक अध्ययन हार राजपरिकर
हा६२
२४१२
मरण
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११२।१
पर्वत
२।२७४,३३५, ४।३०७
ग्रन्थ का एक अध्ययन ४।३३७
नदी
५२३१
"
Page #1085
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
१०४२
परिशिष्ट-१
गृह
सप्प सप्पि सभा समणवणीमग समपायपुत्ता समयक्वेत्त
सव्वसुमिण सस्सामिवादण सहमुद्दाह सहस्सपाग सहिय साइम
समवाय
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११८ व्याकरण
८/२४।२ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।१११११ खाद्य
३२५ खाद्य
३.१७-२०, ४१२७४,२८८
४१५१२८१४२ कर्मकर
७१४३१६ राजधानी
१०।२७११ जलाशय
४।६०७; १०११०३ समय के प्रकार २।४०५ वस्त्र
१९० रजोहरण
५।१६१ याचक
५२०० ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११७१ नक्षत्र
७/१४६ राज्यनीति ३।४००
प्राणी
समाहिपडिमा समुग्गपक्खि समुच्छेदवाइ सम्मत्त सम्मावाय सयजल सर्वपभ सयंपभ सयंभुरमण सयपाग सय (त) भिसया
मह
समुद्र
नक्षत्रदेव
२१३२४ खाद्य
४।१८३,६।२३
५१२३५,२३६ याचक
५१२०० आसन
५२५० जनपद
३।१३२,४१४८२,५१४;
५।१५८; १०११३३ ग्रन्थ
६।१६,२०;
१०।१०३ तपःकर्म २।२४३; ४६६
४।५५१ अन्यतीथिक ८।२२ ग्रन्थ का एक अध्ययन ६२ ग्रन्थ
१०१६२ व्यक्ति
१०.१४३।१
२।३२५ व्यक्ति
७।६१११,६४।१
३।१३३,१३४ खाद्य नक्षत्र
२।३२।३, ६।७४,७१४६
है।११६ व्यक्ति
१०११४३।१ व्यक्ति
१०।१४३३१ जलाशय
५६८,२३०,१०।२५ ऋतु
४/२४०1५,६।९५
६।६२ धान्य
७६० जलाशय
१०।१४६ विजय
२।३४०,८७१,६५४ चिकित्सा
८।२६ नक्षत्र
२२३२३,३१५२६ ५/६३
७।१४६, ९।१६६३१ नक्षत्रदेव
१३२४ तपःकर्म
२।२४६,४।९७
५।१८ समय के प्रकार ८।३६
सयरह सयाउ सर सरऊ सरय
साउणिय साकेत सागर सागरोवम साणय साणय साणवणीमग सात सातिय साम सामण्णओविणिवाइय सामलि सामलि सामवेद सामिसंबंध सामुच्छेइय सायवाइ सारकंता सारस सारस सारहि साल साल सालंकायण सालाइ सालि सालिभद्द सावत्थी (त्थि) सास सिंघाडक सिंधुकुंड
नदी
प्राणी
सरिसव सलिलकुंड सलिलावती सल्लहत्त सब (म) ण
अभिनय ४।६३७ जाति, कुल और गोत्र ७३३३ वनस्पति १०१८२।१ लौकिक ग्रन्थ ३।३९८ व्याकरण
८/२४१५ निन्हव
७/१४० अन्यतीथिक
८२२ रचर
७/४५१
७४१२ स्वर
७१४५१ कर्मकर
४।३७६
२१३२५ वनस्पति
४१५४२,५४३,५४३।१,३ जाति, कुल और गोत्र ७:३५ चिकित्सा
८१२६ धान्य
३११२५ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०.११४.१ राजधानी ७१४२११,१०१२७११ बनस्पति पथ
३१३६७,५२२१,२२ जलाशय
८८१,८३
ग्रह
सवितु
सव्वतोभद्दा
सव्वद्धा सब्बपाणभूतजीवसत्तसुहावह
ग्रन्थ
१०६२
Page #1086
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
सिंधुष्पवायद्दह
सिंधू
सिभिय सिणेहविर्गात
सिणेहम
सिद्धायत (य) ण
सिप्प
सिप्पाजीव
सिरिकंता
सिरिदेवी
सिरिधर
सिरीस
सिव
सिहरि
सीओसणिज्ज
सीतपवायद्दह
सीता (या)
सीमंकर सीमंधर
सी पहेलियंग
सी पहेलिया
सीसागर
सीहपुरा
環
नदी
चिकित्सा
खाद्य
प्राणी
मन्दिर
कला
कलाजीवी
व्यक्ति
सीतोदप्पवायद ह सीतोदा नदी
४|५१५
४|१६४
८३५; १०।२४
४१३३६, ४४२, ४४३
९४२२/७
५।७१
७६३।१
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११६ १
व्यक्ति
८।३७
१०1८२११
वनस्पति
व्यक्ति
पर्वत
२।२६४
२।३०१, ३।४५७
५।२३१ ६८६ ७।५३,
५७८८१,८३१०।२५
ग्रन्थ का एक अध्ययन ६२
द्रह नदी
व्यक्ति
व्यक्ति
समय के प्रकार
समय के प्रकार
खान
राजधानी
८/४११११६१६१
२१२७२,२८६,२८७, ३३४;
३१४५४, ४५८ ४/३२८
६१८५, ७१५१,५५
१०४३
૨૨૩
२१२६२: ३।४५६, ४६०, ४।३१०, ३११५ १५०, १५१,१५६,१५७, ६।६१ ; ७१५२,५६६८।६७,६६,७०,
७३,७४,७७, ७८ ८१,८२ १०/१४५,१६७
१६७
१०।१४४
१०/१४४
२३८६
२३६६
८1१०
२१३४१८१७५
सीहसोता
सीहासण
सुन्दरी
सुबकड
सुकच्छ
सुक्क
सुक्क
सुक्क
सुर्खेत
सुग्गीव
सुघोस
सुट्टुत्तरमायामा
सुणक्खत्त
सुष्णागार
ग्रन्थ
सुगिम्हगपाडिया तिथि
व्यक्ति
व्यक्ति
लुहा
सुत
सुदंसण
सुदंसणा
सुदाम
सुद्धगंधारा
सुद्धवियड
सुद्धसज्जा
सुद्धेणिय
सुध (ह) म्मा
२।२६७
सुषम्ह
२।२६१; ३।४६१, ४६२;
सुपास
४।३१२.३१३ ५।१५२,
सुपासा
सुष्पभ
१५३, १५६; ६६२; ७५३, ५७८६८,७१,७२, ७५, सुबंधु ७६,७६,८३,८४,१०।१४६, सुभद्दा
सुमा
सुभूम
सुभूमिभाग
सुभोम
सुमति
सुरादेव
सुरुबा
नदी
आसन
व्यक्ति
उपकरण
विजय
शरीरधातु
ग्रह
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११६।१
१०।११८
४।२५६
२०
७।६१।१
स्वर
७२४७२ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११४।१ गृह ५।२१,२२
परिवार सदस्य परिवार सदस्य
ग्रन्थ
वनस्पति
व्यक्ति
स्वर
पानक
स्वर
मुनि
गृह
विजय
व्यक्ति
व्यक्ति
व्यक्ति
व्यक्ति
तर: कर्म
राजधानी
व्यक्ति
उद्यान
व्यक्ति
व्यक्ति
२३३६; ३४६१ ६२ ४३३६१०११०३
५।१६३
४|५४६
२/३४०; ६६; ३४८
२१२५८ ४१६४२११,२
२३२५ ६।७ ८३१;
६।६८
३।३६२ ४ ४३४
४|३४
१०।१९३।१
परिशिष्ट.
२२७१/८/६३,१०।१३
७६१।१
७२४७ १
३।३७८
७१४५।१
५।३८
५।२३५, २३६
२।३४०८७१
७/६१।१६६०
६१
७६४।१
७।६४।१
२।२४५ : ४।६७ : ५१८
२१३४१ ८ /७४
२।४४८
६२ ७।६४।१
हापू
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११२।१
व्यक्ति
७६३/१
Page #1087
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
परिशिष्ट-१
सेट्टि
विजय
गृह
नदी
शरीर धातु
सुब्बत
सोम
दिशा
सुलभदह ५।१५४
राजपरिकर ६।६२ सुलसा व्यक्ति
सेणावति
राजपरिकर २।१३६; ६।६२ सुबग्गु विजय
२।३४०, ८७२
सेणावतिरयण चक्रवर्तिरत्न ७६८ सुवच्छ
२॥३४०; ८७०
सेणिय व्यक्ति
६।६०,६२ सुवष्ण धातु और रत्न ६।२२।८
सेयंकर ग्रह
२।३२५ सुवष्णकुमारवास गृह ४१३६२, ५३१०७ सेयविया ग्राम
७।१४२।१ गुवष्णकूलप्पवायदह द्रह
४।२६६ सेलोवट्ठाण
५।२१,२२ सुवण्णकूला
३।४५८६६०,७१५२,५६ । सेलयय जाति, कुल और गोत्न ७।३३ सुवण्णागर खान
८।१०
सोगंधिय धातु और रत्न १०।१६१ सुबप्प दिजय २।३४०: ८७२ सोणित (य)
२।१५६-१६०,२५८, ३।४६५ मुविण ग्रन्थ का एक अध्ययन १०१११८
५।१०६; १०१२१ ग्रह २३२५ सोत्थिय ग्रह
२।३२५ सुसमदुस्समा समय के प्रकार १६१६८; ३।६२, ६।२४ ।
सोम नक्षत्रदेव
२।३२४ नुसमदूसमा समय के प्रकार १११३०,२।३०३,३०५३१८, सोम
ग्रह ३।६० ६१२३
व्यक्ति
८।३७; ६।१७१ सुस मसुसमा समय के प्रकार १।१२८,१४०; २।३१६; सोमणस पर्वत
२।२७६.३३६; ४।३१६; ३१६०,६२,११३, ४५३०४.
५।१५१, ७१५०१०११४५ ३०६६।२३-२७; १०।१४२ सोमय जाति, कुल और गोत्र ७३४ सुसमा समय के प्रकार १११२६,१३६२१३०६,३१७; सोमा
१०।३११ ३१६०,६२,१०६-१११, सोमिल ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११३११ ६।२३,२४; ७१७०; १०।१४१ सोयरिय कर्मकर
४।३६३, ७१४३१६ सुसिर वाद्य २१२१६,२१७
सोरिय
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०११११११ सुसीमा राजधानी
२०३४१; ८७४
सोवणिय
कर्मकर व्यक्ति ८.५३।१
सोवत्थिय नदी
श२३३; १०१२६ सोवागकरंडय (ग) उपकरण सुहावह पर्वत
२२३३६,४।३१२,५।१५२, सोवीरय पानक ८.६८; १०।१४६ सोवीरा स्वर
७।४६१ व्यक्ति
प्राणी
७१४११ ग्रन्थ १०११०३
हंसगम्भ धातु और रत्न १०।१६३ सूर २०३७६३११५७; ४११७६, हक्कार
राजनीति
७१६६ ५०७; ५१५२; ८।३१; हत्थ
२१३२३; ५।२३७; ७११४८; हा२२।१२; १०११६०११
१।६३,१०११७०११ ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११३।१
हत्थ
मान के प्रकार ४१५३ सुरदह ५।१५४
प्राणी
४२३६-२४०, २४०१४; सूरपण्यत्ति ग्रन्थ ३।१३६ ४११८६
६।२२।४ मूरपव्वत (य) पर्वत २।३३६४।३१३,५१५३; हत्थिणउर राजधानी
१०।२७।१ १६८; १०।१४६ हत्थिरयण चक्रवतिरत्न ७/६८
२२३२२, ४।३३२ हत्थत्तरा नक्षन सेज्जपडिमा प्रतिमा
४।४७७
य प्राणी
४१३८०-३८३; ५१०२
ग्रह
सुसीमा सुसेणा
हंस
सूयगड
मह
नक्षत्र
हत्थि
सूरिय
Page #1088
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४५
परिशिष्ट-१
पर्वत
ऋतु
हरिएसबल हरिकंतप्पवायदह हरिकंता हरित हरित सुहुम हरिपवायद्दह हरिवंस हरिवरिस हरिवस्स हरिवास
नदी
२।२६१, ६८६ ७.५२,५६ हार ग्रह २१३२५
हारित स्वर ७१४५११
हिमवंत व्यक्ति ४।३६३
हूहूअंग २१२६६ नदी
२।२६०, ६८६७१५३,५७ हेउवाय जाति, कुल और गोत्र ६।३४११
हेमंत वनस्पति ८।३५; १०।२४ हेमवत (य)
२।२६६ जाति, कुल और गोन्न १०।१६०१ जनपद
४।३०७ जनपद
६।८३.६३; १०३६ हेरण्णवत (य) जनपद
२२२६६,२७५,२६६,३१७, ३३३; ३।४४६,४५१;
६१८४; ७१५०,५४ व्यक्ति
१०।२८
ग्रन्थ का एक अध्ययन १०।११८ जाति, कुल और गोत्र ७१३४
३।६२ समय के प्रकार २।३८६ समय के प्रकार २३८६ ग्रन्थ
१०।६२
४।२४०१५, ६६५ जनपद
२२२६६,२७४,२६५,३१८, ३३३; ३।४४६,४५१; ४।३०७, ६८३,८४,६३
७.५०,५४; १०३६ जनपद २२६६,२७४,२६६.३१८,
३३३; ३।४५०,४५२ ४।३०७; ६।८३,८४,६३; ७१५०,५४; १०३६
हरिसेण
Page #1089
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #1090
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२
प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची
अथर्ववेद अनुयोगद्वार अनुयोगद्वार चणि अनुयोगद्वार वृत्ति अभिधानचिन्तामणि अभिधान राजेन्द्र अल्प परिचित शब्दकोष आचारांग आचारांग चूणि आचारांग नियुक्ति आचारांग वृत्ति आप्टे डिक्शनरी आयारचूला आयारो आर्यभट्टीय गणितपाद आवश्यक चूणि आवश्यकनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति अवणि आवश्यकनियुक्ति दीपिका आवश्यकनियुक्ति भाष्य आवश्यक भाष्य आवश्यक मलयगिरि वृत्ति इसिभासिय उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन नियुक्ति उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति उपासकदशा वृत्ति उवासगदसाओ ओघनियुक्ति ओघनियुक्ति वृत्ति
औपपातिक (ओबाइय) औपपातिक वृत्ति अंगसुत्ताणि अंगुत्तरनिकाय कठोपनिषद् कल्पसूत्र कल्याण कसायपाहुड काललोकप्रकाश कौटिल्य अर्थशास्त्र गणितसार संग्रह गोम्मट्टसार चरक छान्दोग्य उपनिषद् जीवाभिगम तत्त्वार्थ तत्त्वार्थभाष्य तत्त्वार्थराजवार्तिक तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थसूत्र तत्त्वार्थसूत्र भाष्य तत्त्वार्थसूत्र भाष्यानुसारिणी टीका तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति तत्त्वार्थाधिगम सूत्र तत्त्वानुशासन तत्त्वोपप्लवसिंह विंशतिका तुलसी रामायण थेरगाथा दशवकालिक दशवैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्ययन
Page #1091
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाणं
दशवेकालिक चूर्णि दशवैकालिक हारिभद्रीयावृत्ति दसवे आलिय
दीघनिकाय
देशी नाममाला
धम्मपद
ध्यानशतक
न्यायदर्शन
न्यायसूत्र
नयोपदेश
नारदोशिक्षा
निशीथ
निशीथ चूर्णि निशीथ भाष्य
निसीहज्झयण नीतिवाक्यामृत नंदी
नंदी वृत्ति परिशिष्ट पर्व
पाइयसद्द महण्णव पातंजल योगदर्शन
पातंजल योगप्रदीप
पंचसंग्रह
प्रज्ञापना
प्रमाणनयतत्वालोकालंकार
प्रवचनसारोद्धार
प्रवचनसारोद्धार वृत्ति प्राचीन भारत के वाद्ययंत्र
वाह्य स्फुटसिद्धान्त
बृहत्कल्प
बृहत्कल्पचूर्णि
बृहत्कल्पभाष्य
वृहदारण्यक
वृहदारण्यकभाष्य
बौद्धधर्मदर्शन
भगवती
भगवद्गीता भद्रबाहुसंहिता
भरत
भरत का संगीत सिद्धान्त
भरत कोश (प्रो० रामकृष्ण कवि )
१०४८
भरत कोश ( मतंग )
भरत नाट्य भारतीय ज्योतिष
भारतीय संगीत का इतिहास
भावसंग्रह
भिक्षु न्यायकणिका
मज्झिमनिकाय
मनुस्मृति
महावीर चरित्र (श्री गुणचन्द्र कृ
माण्डुक्यकारिका भाष्य
मूलाचार
मुलाचार दर्पण
मूलाराधना
यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्यय
याज्ञवल्क्यस्मृति
योगदर्शन
रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ
राजप्रश्नीय
लीलावती लोकप्रकाश
लंकावतार सूत्र
वसुदेवहिण्डी
बाल्मीकि रामायण
विवाग सुर्य
विशुद्धि मग्ग
विशेषावश्यक भाष्य
विष्णु पुराण
वैशेषिक दर्शन
व्यवहार भाष्य
व्यवहार सूत्र
शतपथ ब्राह्मण
शांकर भाष्य ब्रह्म सूत्र
षट्खंडागम
षट्प्राभृत
षट्प्राभृत (श्रुतसागरीय वृत्ति ) षट्प्राभृतादि संग्रह षट्विंश ब्राह्मण
सन्मति प्रकरण समवायांग
समवायांग वृत्ति साहित्यदर्पण
परिशिष्ट २
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ठाणं
१०४६
सांख्यकारिका सांख्यकारिका (तत्त्वकौमुदी व्याख्या) सुश्रुतसंहिता सूत्रकृतांग सूत्रकृतांग नियुक्ति सूत्रकृतांग वृत्ति संगोतदामोदर संगीतरत्नाकर (मल्लीनाथ कीक) स्थानांग स्थानांग वृत्ति स्थाद्वाद मंजरी स्वरूप संबोधन हिन्दु गणित हिन्दु गणित शास्त्र का इतिहास
• American Mathematical Monthly. • A Sanskrit English Dictionary. • Dictionary of Greck and Roman Antiquities. • Encyclopedia of Religion and Ethics. • Encyclopedia of Superstitions. • Journal of Music Academy, Madras. • Mackrindle. • The Book of the Zodiac. • The History of Mankind. o The Wild Rule. • The Sacred Books of the East, Vol. 22.
The Golden Bough.
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