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ठाणं (स्थान)
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ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत मन
• एक गाँव में एक भिक्षुक अपने बाल-बच्चों सहित रहता था। प्रति दिन वह गांव में जाता और जो कुछ पैसा, अन्न आदि मिलता, उससे अपना भरण-पोषण करता था । उसका मन अत्यन्त कृपण था। दूसरों की सहायता की बात तो दूर रही, वह किसी दूसरे को दान देते हुए देखता तो भी उसके मन पर चोट-सी लगती थी।
एक दिन की घटना है । वह घर पर आया, तब पत्नी ने उसके उदास चेहरे को देखकर पूछा
'क्या गांठ से गिर पड़ा, क्या कछु किसको दीन ।
नारी पूछे सूमसू, क्यों है बदन मलीन ।।
( क्या आज कुछ गिर पड़ा है या किसी को कुछ दिया है, जिससे कि आपका चेहरा उदासीन है) ।
स्थान ४ : टि० ६-१५
वह बोला- तुम ठीक कहती हो । मेरा चेहरा उदास है, किन्तु इसलिए नहीं कि मैंने कुछ दिया है या मेरी गांठ से कुछ गिर पड़ा है, किन्तु इसलिए कि मैंने आज एक व्यक्ति को कुछ दान देते हुए देख लिया है-
'नहीं गांठ से गिर पड़ा, ना कुछ किसको दीन । देवत देख्या और को, ताते बदन मलीन ॥
ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत संकल्प
भगवान् ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भरत था। वे चक्रवर्ती बने । उनके पास अतुल ऐश्वर्य और साधन-सामग्री थी। इतना होने पर भी उनके विचार बहुत उन्नत थे । वे अपने ऐश्वर्य में कभी मूढ़ नहीं बने। उन्होंने अपने मंगलपाठकों को यह आदेश दे रखा था कि प्रातः काल में जागरण के समय वे 'मा हन, मा हन' (किसी को पीड़ित मत करो, किसी को मत मारो) इन शब्दों की ध्वनि करते रहें । भरत के जागते ही वे मंगलपाठक इस प्रकार की ध्वनि सतत करते रहते । इसके फलस्वरूप चक्रवर्ती भरत में अप्रमत्तता का विकास हुआ और वे चक्रवर्तित्व का पालन करते हुए भी उसी भव में मुक्त हो गये । वे ऐश्वर्य और संकल्प - दोनों से उन्नत थे।
ऐश्वर्य से उन्नत और प्रणत संकल्प
महापद्म नाम के राजा की रानी का नाम पद्मावती था। उनके पुण्डरीक और कुण्डरीक नाम के दो । पुत्र थे महापद्म अपने पुत्र पुण्डरीक को राज्य भार सौंप दीक्षित हो गये। एक बार नगर में एक आचार्य का आगमन हुआ। दोनों भाई आचार्य अभिवंदना के लिए आये। उन्होंने धर्मोपदेश सुना। दोनों की आत्मा स्वविकास की ओर उन्मुख हो गई। छोटा भाई साधु बन गया और बड़ा भाई श्रावक-धर्म स्वीकार कर पुनः राजधानी लौट आया।
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कठोर साधनारत हो आत्म-विकास के क्षेत्र में प्रगति करने लगे । कठोर तपश्चर्या से उनका शरीर कृश ही नहीं हुआ, अपितु रोगग्रस्त भी हो गया। वे विहार करते-करते अपने ही नगर 'पुण्डरीकिणी' में आ गये। राजा पुण्डरीक मुनि वंदन के लिए आए। उन्होंने कुण्डरीक मुनि की हालत देखी तो आचार्य से औषधोपचार के लिए प्रार्थना की। उपचार प्रारम्भ हुआ । शनैः शनैः रोग शान्त होने लगा। मुनि स्वस्थ हो गये, किन्तु इसके साथ-साथ उनका मन अस्वस्थ हो गया ।
सुखी बन गये। वहां से विहार करने का उनका मन नहीं रहा। भाई ने अव्यक्त रूप से उन्हें समझाया। एक बार तो वे विहार कर चले गये । कुछ दिनों के बाद फिर उनका मन शिथिल गया। वे पुनः अपने नगर में चले आये। राजा पुण्डरीक ने बहुत समझाया, किन्तु इस बार निशाना खाली गया । आखिर पुण्डरीक ने अपनी राजसिक पोशाक उतार कर भाई को दे दी और भाई की पोशाक स्वयं पहन ली। 'एक भोगासक्त हो गया और एक योगासक्त हो गये। एक राजगद्दी पर सुशोभित हो गये और एक साधनारत हो आत्म-ऐश्वर्य से सुसम्पन्न हो गये। सातवें दिन दोनों ही आयुष्य पूर्ण कर परलोक के पथिक बन गये। साधुत्व को छोड़कर राज्यासन्न होने वाला भाई सातवें नरक गया और योगरत होने वाला स्वर्ग में गया ।
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