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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० ६-१५
६-१५ (सू० ५-११)
इन सात सूत्रों में मन, संकल्प, प्रज्ञा और दृष्टि-इन चार बोधात्मक दृष्टिबिन्दुओं तथा शील, व्यवहार और पराक्रम- इन तीन क्रियात्मक दृष्टिबिन्दुओं से पुरुष की विविध अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। इन सूत्रों में उपमा-उपमेय या उदाहरण-शैली का प्रतिपादन नहीं है।
वृत्तिकार ने एक सूचना दी है कि एक परंपरा के अनुसार शील और आचार ये भिन्न हैं। इनको भिन्न मान लेने पर बोधात्मक-पक्ष की भांति क्रियात्मक-पक्ष के भी चार प्रकार हो जाते हैं । शील और आचार के दो स्वतन्त्र आकार इस प्रकार होंगे----
१. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत शील वाले होते हैं। २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु प्रणत शील वाले होते हैं। ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नत शील वाले होते हैं। ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत शील वाले होते हैं। १. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत आचार वाले होते हैं। २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत, किन्तु प्रणत आचार वाले होते हैं। ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत, किन्तु उन्नत आचार वाले होते हैं। ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत और प्रणत आचार वाले होते हैं।
ऐश्वर्य से उन्नत और उन्नत मन उज्जयिनी का राजा भो जऐश्वर्य, विद्वत्ता और उदारता में अद्वितीय था। उसकी उदारता की घटनाएं इतिहास में आज भी लिपिबद्ध हैं । एक बार अमात्य ने सोचा कि यदि राजा इसी प्रकार दान देते रहे तो 'कोश' शीघ्र खाली हो जाएगा। वह राजा को दान से निवृत्त करने के उपाय सोचने लगा। एक बार अमात्य ने राजा के शयनघर पर एक पट्ट लगा दिया। उस पर लिखा था--'आपदर्थे धनं रक्षेत्' (आपत्ति के लिए धन को सुरक्षित रखना चाहिए)। राजा भोज सोने के लिए आये। उन्होंने पट्ट पर अंकित वाक्य को पढ़ा और उसके नीचे लिख दिया--'श्रीमतामापदः कुतः?' (ऐश्वर्य-सम्पन्न व्यक्तियों के लिए आपत्ति कहां है ?) दूसरे दिन मंत्री ने देखा तो उसका चेहरा विषाद से भर गया। उसने फिर एक वाक्य नीचे लिख डाला-'कदाचिद् रुष्ट ति दैवः' (कभी भाग्य भी एट हो जाता है)। राजा ने जब इसे पढ़ा तो तत्काल समाधान की वाणी में स्वर फूट पड़ा--'संचतिमपि नश्यति' (संचित धन भी नहीं रहता)। मंत्री इसे पढ़ समझ गया कि राजा की प्रवृत्ति में अन्तर आने वाला नहीं है।
राजा भोज ऐश्वर्य से उन्नत थे तो उनके मन की उदारता भी कम नहीं थी।
ऐश्वर्य से प्रणत और उन्नत मन संस्कृत का महान् कवि माघ अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण था। एक दिन की घटना है---एक ब्राह्मण अवन्ति से माप के पास आया और अपनी लाचारी के स्वर में बोला-मेरी कन्या की शादी है, मेरे पास कुछ नहीं है, कुछ सहायता दीजिए। माघ ने जब यह सुना तो वे बड़े असमंजस में पड़ गए। देने को पास में कुछ नहीं था। 'ना' भी कैसे कहा जाए। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। कवि ने देखा-पत्नी सोई है। उसके हाथ में पहने हुए हैं कंगण । मन ने कहा-क्यों न यह निकाल कर दे दिया जाए। वे चुपके से उठे और एक हाथ से कंगण निकाल कर जाने लगे तो पत्नी की नींद टूट गई। वह बोली-'एक से क्या होगा? यह दूसरा भी ले जाइए, बेचारे का काम हो जायेगा।' माघ स्तब्ध रह गये। उन्होंने कंगण देकर ब्राह्मण को बिदा किया।
पास में ऐश्वर्य न होते हुए भी माघ और उनकी पत्नी का मन कितना उन्नत था।
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