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आमुख
प्रस्तुत स्थान में चार की संख्या से संबद्ध विषय संकलित हैं। यह स्थान चार उद्देशकों में विभक्त है। इस वर्गीकरण में तात्त्विक, भौगोलिक, मनोवैज्ञानिक और प्राकृतिक आदि अनेक विषयों की अनेक चतुर्भगियां मिलती हैं। इसमें वृक्ष, फल, वस्त्र आदि व्यावहारिक वस्तुओं के माध्यम से मनुष्य की मनोदशा का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है, जैसे
कुछ वृक्ष मूल में सीधे रहते हैं परन्तु ऊपर जाकर टेढ़े बन जाते हैं और कुछ सीधे ही ऊपर बढ़ जाते हैं। कुछ वृक्ष मूल में भी सीधे नहीं होते और ऊपर जाकर भी सोधे नहीं रहते, और कुछ मूल में सीधे न रहने वाले ऊपर जाकर सीधे बन जाते हैं।
व्यक्तियों का स्वभाव भी इसी प्रकार का होता है । कुछ व्यक्ति मन से सरल होते हैं और व्यवहार में भी सरल होते हैं। कुछेक व्यक्ति सरल हृदय के होने पर भी व्यवहार में कुटिलता करते हैं। मन में सरल न रहने वाले भी बाह्य परिस्थितिवश सरलता का दिखावा करते हैं। कुछ व्यक्ति अन्तर में कुटिल होते हैं और व्यवहार में भी कुटिलता दिखाते हैं।
विचारों की तरतमता व पारस्परिक व्यवहार के कारण मन की स्थिति सबकी, सब समय समान नहीं रहती। जो व्यक्ति प्रथम मिलन में सरस दिखाई देते हैं, वे आगे चलकर अपनी नीरसता का परिचय दे देते हैं। कुछ लोग प्रथम मिलन में इतने सरस नहीं दीखते परन्तु सहवास के साथ-साथ उनकी सरसता भी बढ़ती जाती है। कुछ लोग प्रारम्भ से लेकर अंत तक सरस ही रहते हैं। कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिनमें प्रारम्भ मिलन से लेकर सहवास तक कभी सरसता के दर्शन नहीं होते।
व्यक्ति की योग्यता अपनी होती है। कुछ व्यक्ति अवस्था में छोटे होकर भी शांत होते हैं तो कुछ बड़े होकर भी शांत नहीं होते। छोटी अवस्था में शांत नहीं होने वाले मिलते हैं तो कुछ अवस्था के परिपाक में भी शांत रहते हैं।
इस स्थान में सूत्रकार ने प्रसंगवश कुछ कथा-निर्देश भी किए हैं। अन्तक्रिया के सूत्र (४१) में चार कथाओं के निर्देश मिलते हैं, जैसे(१) भरत चक्रवर्ती
(३) सम्राट सनत्कुमार (२) गजसुकुमाल
(४) मरुदेवा वृत्तिकार ने भी अनेक स्थलों पर कथाओं और घटनाओं की योजना की है। सूत्र में बताया गया है कि पुत्र चार प्रकार के होते हैं(१) पिता से अधिक
(३) पिता से हीन (२) पिता के समान
(४) कुल के लिए अंगारे जैसा वृत्तिकार ने इस सूत्र को लौकिक और लोकोत्तर उदाहरणों द्वारा इसकी स्पष्टता को है-ऋषभ जैसा पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति को बढ़ाता है तो कण्डरीक जैसा पुत्र कुल की सम्पदा को ही नष्ट कर देता है। महायश जैसा पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति को बनाए रखता है तो आदित्ययश जैसा पुत्र अपने पिता की तुलना में अल्प वैभववाला होता है।
आचार्य सिंहगिरि की अपेक्षा वज्रस्वामी ने अपनी गण-सम्पदा को बढ़ाया तो कुलबालक ने उदायी राजा को मारकर गण की प्रतिष्ठा को गंवा दिया। यशोभद्र ने शय्यंभव की सम्पदा को यथावस्थित रखा तो भद्रबाहु स्वामी को तुलना में स्थूलभद्र को ज्ञान-गरिमा कम हो गई।
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