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________________ ठाणं (स्थान) ७०१ स्थान ६ :टि० ३८ उस समय अवमरात्निक कहता है-'ये गृहस्थ हैं। ये झूठ बोलते हैं या सच-इसका क्या विश्वास ?' ऐसा कहने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह आठवां प्रायश्चित्त-स्थान है। यदि अवमरात्निक कहे कि 'ये साधु और गृहस्थ मिले हुए हैं, मैं अकेला रह गया हूं', तो उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह नौवां प्रायश्चित्त-स्थान है। वह यदि यह कहे कि 'तुम सब प्रवचन से बाहर हो—जिनशासन से विलग हो', तब उसे पाराञ्चिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह दसवां प्रायश्चित्त-स्थान है। इस प्रकार ज्यों-ज्यों वह अपने आरोप को सिद्ध करता है त्यों-त्यों उसका प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है और वह अन्तिम प्रायश्चित्त 'पाराञ्चित' तक पहुंच जाता है। जो अपने अपराध का निन्दवन करता है और जो अपने झूठे आरोप को साधने का प्रयत्न करता है—दोनों के उत्तरोत्तर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। यदि कोई आरोप लगाकर उसको साधने की चेष्टा नहीं करता और जो आरोप लगाने वाले पर रुष्ट नहीं होतादोनों के प्रायश्चित्त की वृद्धि नहीं होती और यदि आरोप लगाने वाला बार-बार आरोप को साधने की चेष्टा करता है और दूसरा जिस पर आरोप लगाया गया है वह, उस पर बार-बार रुष्ट होता है----दोनों के प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। प्राणातिपात के विषय में होने वाली प्रायश्चित्त की वृद्धि के समान ही शेष मृषावाद आदि पांचों स्थानों में प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। विशेष विवरण के लिए देखेंवृहत्कल्पभाष्य, गाथा ६१२६-६१६२ । ३८ (सू० १०२) : कौकुचित—इसका अर्थ है--चपलता। वह तीन प्रकार की होती है..... १. स्थान से। २. शरीर से। ३. भाषा से। स्थान से--- अपने स्थान से इधर-उधर घूमना; यन्त्र और नर्तक की भांति अपने शरीर को नचाना। शरीर से हाथ या गोफण से पत्थर फेंकना; भौंह, दाढ़ी, स्तन और पुतों को कम्पित करना। भाषा से-सीटी बजाना, लोगों को हंसाने के लिए विचित्र प्रकार से बोलना, अनेक प्रकार की आवाजें करना और भिन्न-भिन्न देशी भाषाओं में बोलना। २. तितिणक--- इसका अर्थ है-वस्तु की प्राप्ति न होने पर खिन्न हो बकवास करना। साधु जब गोचरी में जाता है और किसी वस्तु का लाभ न होने पर खिन्न हो जाता है तो वह एषणा की शुद्धि नहीं रख सकता। वह वैसी स्थिति में एषणीय या अनेषणीय की परवाह न कर ज्यों-त्यों वस्तु की प्राप्ति करना चाहता है। इसलिए यह एषणा का प्रतिपक्षी है। भिध्या निदान करण-भिध्या का अर्थ है-लोभ और निदान का अर्थ है-प्रार्थना या अभिलाषा। लोभ से की जाने वाली प्रार्थना आतध्यान को पोषण देती है, अत: वह मोक्ष मार्ग की पलिमन्थ है। भ० महावीर ने निदानता को सर्वत्र अप्रशस्त कहा है, फिर निदान के साथ भिध्या' [लोभ ] शब्द का प्रयोग क्योंयह सहज ही प्रश्न उठता है। वृत्तिकार का अभिमत है कि वैराग्य आदि गुणों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले निदान में आसक्ति भाव नहीं होता। वह वजित नहीं है । इस तथ्य को सूचित करने के लिए ही निदान के साथ भिध्या' शब्द का प्रयोग किया गया है। १. (क) स्थानांमवृत्ति, पत्न ३५४ । (ख) देखें--उत्तरज्झयणाणि, भाग २। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३५५ । विशेष विवरण के लिए देखें-बृहत्कल्पसूत्र ४।१६, भाष्यगाथा-६३११-६३४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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