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ठाणं (स्थान)
३६. अवधिज्ञान (सू० हह )
इसका शाब्दिक अर्थ है - मर्यादा से होने वाला मूर्त पदार्थों का ज्ञान । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से इसकी अनेक अवधियां - मर्यादाएं हैं, इसलिए इसे अवधिज्ञान कहा जाता है ।
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स्थान ६ : टि० ३६-३७
प्रस्तुत सूत्र में इसके छह प्रकारों का उल्लेख है
१. आनुगामिक – जो ज्ञान अपने स्वामी का सर्वत्र अनुगमन करता है उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहा जाता है । इसमें क्षेत्र की प्रतिबद्धता नहीं होती ।
२. अनानुगामिक -- जो ज्ञान अपने उत्पत्ति क्षेत्र में ही बना रहता है उसे अनानुगामिक अवधिज्ञान कहा जाता है । यह एक स्थान पर रखे दीपक की भांति स्थित होता है। स्वामी जब उस क्षेत्र को छोड़ चला जाता है तब उसका ज्ञान भी लुप्त हो जाता है ।
३. वर्धमानक - जो ज्ञान उत्पत्तिकाल में छोटा हो और क्रमशः बढ़ता रहे, उसे वर्धमानक अवधिज्ञान कहा जाता है । यह वृद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों में होती है।
४. हीयमानक -- जो ज्ञान उत्पत्तिकाल में वडा हो और बाद में क्रमशः घटता जाए, उसे हीयमानक अवधिज्ञान कहा जाता है। इसमें विषय का ह्रास होता जाता है।
५. प्रतिपाति - जो ज्ञान एक बार उत्पन्न होकर पुनः चला जाए, उसे प्रतिपाति अवधिज्ञान कहा जाता है ।
६. अप्रतिपाति - जो ज्ञान एक बार उत्पन्न हो जाने पर नष्ट न हो, उसे अप्रतिपाति अवधिज्ञान कहा जाता है । अवधिज्ञान के दो प्रकार प्रस्तुत सूत्र के २६६-६८ में बतलाए गए हैं।
विशेष विवरण के लिए देखें- समवायांग, प्रकीर्ण समवाय १७२ तथा प्रज्ञापना पद ३३ ।
३७ (सू० १०१ ) :
कल्प का अर्थ है - साधु का आचार और प्रस्तार का अर्थ है - प्रायश्चित्त की उत्तरोत्तर वृद्धि । प्रस्तुत सूत्र में छह प्रस्तारों का उल्लेख है । उनका वर्णन इस प्रकार है-
कहीं जा रहे थे। बड़े साधु का पैर एक मरे हुए मेंढक पर पड़ा। तब छोटे साधु ने आरोप की भाषा में कहा - 'आपने इस मेंढक को मार डाला ?' उसने कहा - 'नहीं'। तब छोटे साधु ने कहा- आपका दूसरा व्रत [ सत्यव्रत ] भी टूट गया।' इस प्रकार किसी साधु पर आरोप लगाकर वह गुरु के समीप आता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह पहला प्रायश्चित्त-स्थान है ।
वह गुरु से कहता है - इसने मेंढक की हत्या की है।' तब उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । यह दूसरा प्रायश्चित स्थान है।
तब आचार्य बड़े साधु से कहते हैं क्या तुमने मेंढक को मारा है ?' वह कहता है नहीं ।' तब आरोप लगाने वाले को चतुधु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । यह तीसरा प्रायश्चित स्थान है। वह अवमरानिक पुनः अपनी बात दोहराता है और जब रालिक मुनि पुनः यही कहता है कि मैंने में इक को नहीं 'मारा' तब उसे चतुर्गुरु प्रायश्वित्त प्राप्त होता है । यह चौथा प्रायश्चित्त स्थान है।
तब अवमरालिक आचार्य से कहता है- 'यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो आप गृहस्थों से पूछ लें ।' आचार्य अपने वृषभों [सेवारत साधुओं ] को भेजते हैं । वे जाकर पूछताछ करते हैं, तब उस काल में अवमरात्निक को षड्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह पांचवां प्रायश्चित्त- स्थान है ।
उनके पूछने पर गृहस्थ कहें कि हमने इसको मेंढक मारते नहीं देखा है तब अवमरानिक को षड्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । यह छठा प्रायश्चित्त-स्थान है।
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वे वृषभ वापस आकर आचार्य से निवेदन करते हैं कि उस साधु ने कोई प्राणातिपाति नहीं किया तब आरोप लगाने वाले को छेद प्रायश्चित प्राप्त होता है। यह सातवां प्रायश्चित्त-स्थान है।
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