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________________ ठाणं (स्थान) ६६६ ३. द्वयर्द्ध समक्षेत्र–चन्द्रमा द्वारा ४५ मुहूर्त्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र-क्षेत्र । समक्षेत्र में भोग में आने वाले छह नक्षत्र' चन्द्र द्वारा पूर्व भाग - अग्र से सेवित होते हैं । चन्द्र इन नक्षत्रों को प्राप्त किए बिना ही इनका भोग करता है। ये चन्द्र के अग्रयोगी माने जाते हैं । अर्द्धसमक्षेत्र में भोग में आने वाले छह नक्षत्र चन्द्र द्वारा पहले तथा पीछे सेवित होते हैं। ये चन्द्र के समयोगी माने जाते हैं । लोकश्री सूत्र में 'भरणी' नक्षत्र के स्थान पर 'अभिजित् ' नक्षत्र का उल्लेख है । ' डेढ समक्षेत्र के नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त्त तक चन्द्र के साथ योग करते हैं। ये नक्षत्र चन्द्र द्वारा आगे-पीछे दोनों ओर से भोगे जाते हैं । वृत्तिकार ने यहां एक संकेत देते हुए बताया है कि निर्धारित क्रम के अनुसार नक्षत्रों द्वारा युक्त होता हुआ चन्द्रमा सुभिक्ष करने वाला होता है और इसके विपरीत योग करने वाला दुर्भिक्ष उत्पन्न करता है' । समवायांग १५।५ में १५ मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्रों का, तथा ४५।७ में ४५ मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्रों का उल्लेख है। ३४. ( सू० ८० ) आवश्यकनिर्युक्ति में चन्द्रप्रभ का छद्यस्थ- काल तीन मास का और पद्म प्रभ का छह मास का बतलाया है । वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत उल्लेख मतान्तर का है । ३५. ( सू० ६५) प्रस्तुत सूत्र में छह ऋतुओं का प्रतिपादन है । प्रत्येक ऋतु का कालमान दो-दो मास का है— प्रावृट् — आषाढ और श्रावण । वर्षा भाद्रपद और आश्विन । शरद् – कार्तिक और मृगशिर । हेमन्त – पौष और माघ । वसन्त-- फाल्गुन और चैत्र । ग्रीष्म-वैसाख और ज्येष्ठ । लौकिक व्यवहार के अनुसार छह ऋतुएं ये हैं १. वर्षा, २. शरद्, ३. हेमन्त, ४. शिशिर, ५. वसन्त और ६. ग्रीष्म । ऋतुएं भी दो-दो महीने की हैं और इनका प्रारम्भ श्रावण से होता है । ' यह क्रम और व्याख्या आगमिक क्रम और व्याख्या से भिन्न है । १. बृहत्कल्प, भाष्यगाथा ५५२७ की वृत्ति में समक्षेत्र के १५ नक्षत्र माने हैं- अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वभाद्रपदा और रेवती । स्थान ६ : टि० ३४-३५ २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४९ ३. वही, पत्न ३४९ : Jain Education International उक्तक्रमेण नक्षत्रैर्युज्यमानस्तु चन्द्रमाः । सुभिक्षद्विपरीतं युज्यमानोऽन्यथा भवेत् ॥ ४. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा २६०, मलयगिरिवृत्ति पत्र २०६ : पद्मप्रभस्य षण्मासा, चन्द्रप्रभस्य त्रयः । ५. स्थानांगवृत्ति, पन ३५० : चन्द्रप्रभस्य तु नीनिति मतान्तरमिदमिति । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३५१: द्विमासप्रमाणकाल विशेष ऋतुः, तत्राषाढश्रावणलक्षणा प्रावृट् एवं शेषाः क्रमेण, लौकिकव्यवहारस्तु श्रावणाद्याः वर्षा- शरद्धेमन्त शिशिरवसन्त ग्रीष्माच्या तव इति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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