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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि० ३६
३९. (सू० १०३)
इस सूत्र में विभिन्न संयमों व साधना के स्तरों की सूचना दी गई है। मुनि के लिए पांच संयम होते हैं ---सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात ।'
भगवान पार्श्व के समय में सामायिक संयम की व्यवस्था थी। भगवान महावीर ने उसके स्थान पर छेदोपस्थापनीय संयम की व्यवस्था की। इन दोनों संयमों की मर्यादाएं अनेक दृष्टिकोणों से भिन्न थीं। पृथक-पृथक स्थानों में उनके संकेत मिलते हैं। भाष्यकारों ने दस कल्पों के द्वारा इन दोनों संयमों की मर्यादाओं की पृथक्ता प्रदर्शित की है। दस कल्प श्वेताम्बर और दिगम्बर–दोनों परम्पराओं द्वारा सम्मत हैं
१. आचेलक्य-वस्त्र न रखना अथवा अल्प वस्त्र रखना। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इसका अर्थ है-सकल परिग्रह का त्याग।
२. औद्देशिक-एक साधु के लिए बनाए गए आहार का दूसरे सांभोगिक साधु द्वारा अग्रहण। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इसका अर्थ है--साधु को उद्दिष्ट कर बनाए हुए भक्त-पान का अग्रहण।'
३. शय्यातरपिंड---स्थानदाता से भक्त-पान लेने का त्याग । ४. राजपिंड—राजपिंड का वर्जन। ५. कृतिकर्म-प्रतिक्रमण के समय किया जाने वाला बन्दन आदि । ६. ब्रत-चतुर्याम या पंचमहाव्रत। ७. ज्येष्ठ-दीक्षा पर्याय की ज्येष्ठता का स्वीकार। ८. प्रतिक्रमण। ६. मास- शेषकाल में मासकल्प का विहार। १०. पर्युषणाकल्प-वर्षावासीय आवास की व्यवस्था ।
भगवान् पार्श्व के समय में (१) शय्यातरपिंड का वर्जन, (२) चतुर्याम, (३) पुरुपज्येष्ठत्व और (४) कृतिकर्मये चार कल्प अनिवार्य तथा शेष छह कल्प ऐच्छिक होते हैं। यह सामायिक संयम की भर्यादा है। भगवान महावीर ने उक्त दसों कल्पों को श्रमण के लिए अनिवार्य बना दिया। फलतः छेदोपस्थापनीय संयम की मर्यादा में ये दसों कल्प अनिवार्य हो गए।
परिहारविशुद्धिक संयम तपस्या की विशेष साधना का एक स्तर है। निविशमानकल्प और निविष्टकल्प-ये दोनों परिहारविशुद्धिक संयम के अंग हैं।
निविशमानकल्पस्थिति-परिहारविशुद्ध चरित्र की साधना में अवस्थित चार तपोभिमुख साधुओं की आचार संहिता को निर्विशमानकल्प कहा जाता है। वे मुनि ग्रीष्म, शीत तथा वर्षा ऋतु में जघन्यतः क्रमश: चतुर्थभक्त (एक उपवास), षष्ठ भक्त (दो उपवास) तथा अष्टमभक्त (तीन उपवास), मध्यमतः क्रमशः षष्ठभक्त, अष्टमभक्त तथा दशमभक्त (चार उपवास) और उत्कृष्टतः अष्टमभक्त, दशमभक्त तथा द्वादशभक्त (पांच उपवास) तपस्या करते हैं । पारणा में भी अभिग्रह सहित आयंबिल की तपस्या करते हैं। सभी तपस्वी जघन्यतः नव पूर्वो तथा उत्कृष्टतः दस पूर्वो के ज्ञाता होते हैं।
१. स्थानांग ५१३६। २. मूलाराधना, पष्ठ ६०६ :
संकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते । ३. वही, पृष्ठ ६०६ ।
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