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________________ ठाणं (स्थान) ७०३ स्थान ६ : टि० ३६ निविष्टकल्पस्थिति- इसका अर्थ है-परिहारविशुद्ध चरित्र में पूर्वाभिहित तपस्या कर लेने के बाद जो पूर्व परिचारकों की सेवा में संलग्न रहते हैं, उनकी आचार-विधि। परिहारविशुद्ध चरित्र की साधना में नौ साधु एक-साथ अवस्थित होते हैं। उनमें चार साधुओं का पहला वर्ग तपस्या करता है । उस वर्ग को निर्विशमानकल्प कहा जाता है। चार साधुओं का दूसरा वर्ग उसकी परिचर्या करता है तथा एक साधु आचार्य होता है। उन चारों की तपस्या पूर्ण हो जाने पर शेष चार साधु तपस्या करते हैं तथा जो तपस्या कर चुके, बे तपस्या में संलग्न साधुओं की परिचर्या करते हैं। दोनों वर्गों की तपस्या पूर्ण हो जाने के बाद आचार्य तपस्या में अव्यवस्थित होते हैं और आठों ही साधु उनकी परिचर्या करते हैं।' जिनकल्पस्थिति-विशेष साधना के लिए जो संघ से अलग होकर रहते हैं, उनकी आचार-मर्यादा को जिनकल्पस्थिति कहा जाता है। वे अकेले रहते हैं। वे शारीरिक शक्ति और मानसिक दृढ़ता से सम्पन्न होते हैं। वे धृतिमान् और अच्छे संहनन से युक्त होते हैं । वे सभी प्रकार के उपसर्ग सहने में समर्थ तथा परीषहों का सामना करने में निडर रहते हैं।' प्रवचनसारोद्धार के अनुसार जिनकल्पस्थिति का वर्णन इस प्रकार है आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक-इन पांचों में से जो जिनकल्प को स्वीकार करना चाहते हैं, वे पहले तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच तुलाओं से अपने-आप को तौलते हैं और इनमें पूर्ण हो जाने पर जिनकल्प स्वीकार करते हैं । इनके अतिरिक्त जो मुनि इस कल्प को अपनाना चाहते हैं, उनके लिए इन पांच तुलाओं का अभ्यास अनिवार्य नहीं होता। वे गच्छ के अन्दर रहते हुए आगमोक्त विधि से अपनी आत्मा का परिकर्म करते हैं और जब जिनकल्प स्वीकार करना होता है तब सबसे पहले वे सारे संघ को एकत्रित करते हैं। यदि ऐसा संभव न हो सके तो अपने गण को अवश्य ही एकत्रित करते हैं। पश्चात् तीर्थकर, गणधर, चतुर्दशपूर्वधर या संपूर्ण दशपूर्वधर के पास जिनकल्प स्वीकार करते हैं। इनमें से कोई उपलब्ध न होने पर वे वट, अश्वत्थ, अशोक आदि वृक्षों के समीप जाकर जिनकल्प स्वीकार करते हैं । यदि वे गणी होते हैं तो अपने गण में गणधर की नियुक्ति कर सारे संघ से क्षमायाचना करते हैं। यदि वे गणी नहीं हैं, सामान्य साधु हैं, तो वे किसी की नियुक्ति नहीं करते किन्तु समूचे गण से क्षमायाचना करते हैं। यदि समूचा गण उपस्थित न हो तो अपने गच्छ वाले श्रमणों से क्षमायाचना करते हैं। वे कहते हैं-'यदि प्रमादवश मैंने आपके प्रति सद्व्यवहार नहीं किया हो तो आप मुझे क्षमा करें। मैं निःशल्य और निष्कषाय होकर आपसे क्षमायाचना करता हूं।' तब सभी साधु आनन्द के आंसू बहाते हए हाथ जोड़कर, भूमि पर सिर को टिकाए, छोटे-बड़े के क्रम से क्षमायाचना करते हैं। इस क्षमायाचना से निम्न गुणों का उद्दीपन होता है। १. निःशल्यता। २. विनय। ३. दूसरों को क्षमायाचना की प्रेरणा। ४. हल्कापन । ५. क्षमायाचना के कारण अकेलेपन का स्थिर ध्यान या अनुभव। ६. ममत्व का छेद। १. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ६४४७-६४८१ । २. वही, गाथा ६४८४, वृत्ति३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा १३७० : खामितस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे । लावियं एगतं, अप्पडिबंधो अ जिणकप्पे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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