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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४: टि०११३-११५
हेतु- क्योंकि एकान्त स्वभाव ही अनुपलब्धि है। ४. विरुद्ध-व्यापक-अनुपलब्धिसाध्य—यहां छाया है। हेतु-क्योंकि उष्णता नहीं है। ५. विरुद्ध-सहचर-अनुपलब्धिसाध्य ---इसे मिथ्या ज्ञान प्राप्त है। हेतु -क्योंकि इसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं है।
११३ (सू० ५११) :
प्रस्तुत सूत्र में तिर्यञ्चजाति के आहार के प्रकार निर्दिष्ट हैं । उसका जो आहार सुखभक्ष्य सुखपरिणाम वाला होता है, उसे कंक के आहार की उपमा से समझाया गया है। कंक नाम का पक्षी दुर्जर आहार को भी सुख से खाता है और वह उसके सुख से पच जाता है। उसका जो आहार तत्काल निगल जाने वाला होता है, उसे बिल में प्रविष्ट होती हई वस्तु की उपमा के द्वारा समझाया गया है।
११४ (सू० ५१४) :
आशी का अर्थ दाढ (दंष्ट्रा) है। जिसकी दाढ में विष होता है, वह आशीविष कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है
१. कर्म-आशीविष (कर्म से आशीविष) २. जाति-आशीविष (जाति से आशीविष) । प्रस्तुत सूत्र में जातीय आशीविष के प्रकार और उनकी क्षमता का निरूपण है।
११५ प्रविभावक (सू० ५२७) :
___वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं—प्रविभावयिता और प्रविभाजयिता। इसके अनुसार प्रस्तुत सूत्र के दो अर्थ फलित होते हैं---
१. कुछ पुरुष आख्यायक (प्रज्ञापक) होते हैं, किन्तु उदार क्रिया और प्रतिभा आदि गुणों से रहित होने के कारण धर्मशासन के प्रविभावयिता (प्रविभावक) नहीं होते।
२. कुछ पुरुष सूत्र-पाठ के आख्यायक होते हैं, किन्तु अर्थ के प्रविभाजयिता (विवेचक) नहीं होते।'
प्रविभावक का अर्थ हिंसा से विरमण या आचरण भी हो सकता है। इस अर्थ के आधार पर प्रस्तुत सूत्र का अर्थ इस प्रकार होगा
१. कुछ पुरुष वक्ता होते हैं, किन्तु आचारवान् नहीं होते।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५१ : कङ्क-पक्षिविशेष : तस्याहारेणो
पमा यत्र स मध्यपदलोपात् कोषमः, अयमों-यथा हि कङ्कस्य दुर्जरोऽपि स्वरूपेणाहार: सुखभक्ष्यः सुखपरिणामश्च भवति एवं यस्तिरश्चा सुभक्षः सुखपरिणामश्च स कङ्कोपम
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५१ : आश्यो-दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते
आशीविषाः, ते च कर्मतो जातितश्च, तत्र कर्मतस्तियंङ मनुष्याः कुतोऽपि गुणादाशीविषाः स्युः, देवाश्चासहस्राराच्छापादिना परव्यापादनादिति, उक्तञ्च
आसी दाढा तग्गयमहाविसाऽऽसीविसा दुबिह भया ।
ते कम्मजाइभेएण, णेगहा चउबिहविगप्पा ॥ ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५४ ।
इति।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५१ : बिले प्रविशद्रव्यं बिलमेव तेनोपमा
यत्र स तथा, बिले हि अलब्धरसास्वाद झगिति यथा किल किञ्चित् प्रविशति एवं यस्तेषां गलबिले प्रविशति स तथोच्यते।
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