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ठाणं (स्थान)
५३२
स्थान ४ : टि० ११६-११८
२. कुछ पुरुष आचारवान् होते हैं, किन्तु वक्ता नहीं होते। ३. कुछ पुरुष वक्ता भी होते हैं, और आचारवान् भी होते हैं। ४. कुछ पुरुष न वक्ता होते हैं और न आचारवान् ही होते हैं।
११६ (सू० ५३०)
इस वर्गीकरण में भगवान् महावीर के समसामयिक सभी धार्मिक मतवादों का समावेश होता है। वृत्तिकार ने क्रियावादियों को आस्तिक और अक्रियावादियों को नास्तिक कहा है। किन्तु यह ऐकान्तिक निरूपण नहीं है। अक्रियावादी भी आस्तिक होते हैं। विशेष जानकारी के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि १८।२३ का टिप्पण।
प्रस्तुत आलापक में नरक और स्वर्ग में भी चार वादि-समवसरणों का अस्तित्व प्रतिपादित किया है, यह उल्लेखनीय बात है।
कर
११७ (सू० ५४१)
करण्डक ----वस्त्र, आभरण आदि रखने का एक भाजन। यह वंश-सलाका को गूंथकर बनाया जाता है। इसके मुख की ऊंचाई कम और चौड़ाई अधिक होती है। प्रस्तुत सूत्र में करण्डक की उपमा के द्वारा आचार्य के विभिन्न कोटियों का प्रतिपादन किया गया है।
श्वपाक-करण्डक में चमड़े का काम करने के उपकरण रहते हैं, इसलिए वह असार (सार-रहित) होता है। वेश्या-करण्डक-लाक्षायुक्त स्वर्णाभरणों से भरा होता है, इसलिए वह श्वपाक-करण्डक की अपेक्षा सार होता है।
गृहपति-करण्डक-विशिष्ट मणि और स्वाभरणों से भरा होने के कारण वेश्या-करण्डक की अपेक्षा सारतर होता है।
राज-करण्डक-अमूल्य रत्नों से भृत होने के कारण गृहपति-करण्डक की अपेक्षा सारतम होता है।
इसी प्रकार कुछ आचार्य श्रुत-विकल और आचार-विकल होते हैं, वे श्वपाक-करण्डक के समान असार (सार रहित) होते हैं।
कुछ आचार्य अल्पश्रुत होने पर भी वाणी के आडम्बर से मुग्धजनों को प्रभावित करने वाले होते हैं, उनकी तुलना वेश्या-करण्डक से की गई है।
कुछ आचार्य स्व-समय और पर-समय के ज्ञाता और आचार-सम्पन्न होते हैं, उनकी तुलना गृहपति-करण्डक से की गई है।
कुछ आचार्य सर्वगुण सम्पन्न होते हैं, वे राज-करण्डक के समान सारतम होते हैं।'
११८ (सू० ५४५)
मोम का गोला मृदू, लाख का गोला कठिन, काष्ठ का गोला कठिनतर और मिट्टी का गोला कठिनतम होता है। इसी प्रकार सत्त्व की तरतमता के कारण कष्ट सहने में कुछ पुरुष मदु, कुछ पुरुष दृढ़, कुछ पुरुष दृढ़तर और कुछ पुरुष दृढ़तम होते हैं।
आचार्य भिक्षु ने इस दृष्टांत को बड़े रोचक ढंग से विकसित किया है
चार व्यक्ति साधु के पास गए। उनका उपदेश सुन वे धर्म से अनुरक्त हो गए और मन वैराग्य से भर गया। जब वे बाहर आए तो कुछ लोग उनकी आलोचना करने लगे कि तुम व्यर्थ ही भीतर जाकर बैठ गए, केवल समय ही गंवाया।
३ स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६ ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५४ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५८ ।
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