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________________ ठाणं (स्थान) ११५ स्थान २ : टि० ४१ ऐर्याथिक क्रिया केवल शुभयोग के कारण होती है'। बौद्धों के कायानुपश्यनागत ईर्यापथ का स्वरूप भी लगभग ऐसा ही है। सांपरायिकी क्रिया - यह कषाय और योग के कारण होती है।' इन दोनों क्रियाओं में जीव का व्यापार निश्चित रूप से रहता है, किन्तु कर्म-बंध की दो अवस्थाओं पर प्रकाश के लिए जीव के व्यापार को गौण मानकर इन्हें अजीव क्रिया कहा गया है'। कर्म -बंध की दृष्टि से क्रिया के सभी प्रकारों का ऐर्यापथिकी और सांपरायिकी - इन दो प्रकारों में समावेश हो जाता है। ऐर्यापथिकी क्रिया - वीतराग के होने वाला कर्म-बंध । सांप रायिकी क्रिया — कषाय युक्त जीव के होने वाला कर्म-बंध । कायिकी क्रिया - शरीर की प्रवृत्ति से होने वाली क्रिया कायिकीक्रिया है । यह इसका सामान्य शब्दार्थ है । इसकी परिभाषा इसके दो प्रकारों से निश्चित होती है। इसके दो प्रकार ये हैं- अनुप र काय क्रिया और दुष्प्रयुक्तकाय क्रिया । अविरत व्यक्ति (भले फिर वह मिथ्यादृष्टि हो या सम्यकदृष्टि ) कर्म-बंध की हेतुभूत कायिक प्रवृत्ति करता है वह अनुप र कायिकी क्रिया है । स्थानांग, भगवती और प्रज्ञापना की वृत्तियों का यह अभिमत हैं । हरिभद्र सूरि का मत इससे . भिन्न है । उनके अनुसार अनुपरत कायिकीक्रिया मिथ्यादृष्टि के शरीर से होने वाली क्रिया है और दुष्प्रयुक्तकायिकीक्रिया प्रमत्तसंयति के शरीर से होने वाली क्रिया है। यदि अनुपरतकायिकीक्रिया मिथ्यादृष्टि के ही मानी जाए तो अविरतसम्यक्दृष्टि देश विरति के लिए कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता, इसलिए यही अर्थ संगत लगता है कि मिथ्यादृष्टि अविरतसम्यक्दृष्टि और देशविरति की कायिकी क्रिया अनुपरतकायिकी क्रिया और प्रमत्तसंयति की कायिकी क्रिया दुष्प्रयुक्तकायिकीक्रिया है । आचार्य अकलंक ने कायिकीक्रिया का अर्थ प्रद्वेष-युक्त व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला शारीरिक उद्यम किया है । अधिकरिणी की क्रिया - इस प्रवृत्ति का सम्बन्ध शस्त्र आदि हिंसक उपकरणों के संयोजन और निर्माण से है । इसके दो प्रकार हैं संयोजनाधिकरणिकी - पूर्वनिर्मित शस्त्र आदि के पुर्जों का संयोजन करना । निर्वर्तनाधिकरणिकी शस्त्र आदि का नए सिरे से निर्माण करना । तत्त्वार्थवृत्ति के अनुसार इसका अर्थ है - हिंसक उपकरणों का ग्रहण करना'। इस अर्थ में प्रस्तुत क्रिया के दोनों प्रकार सूचित नहीं हैं। प्रादोषिकी क्रिया — स्थानांगवृत्तिकार ने प्रदोष का अर्थ मत्सर किया है। उससे होने वाली क्रिया प्रादोषिकी कहलाती हैं' । आचार्य अकलंक के अनुसार प्रदोष का अर्थ क्रोधावेश है" । क्रोध अनिमित्तक होता है और प्रदोष निमित्त १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७: यत्केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातावेदनीयकर्म्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं सा ऐर्यापथिकी क्रिया । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७: संपराया : - कषाया स्तेषु भवा सांपरायिकी । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७ : (क) इह जीवव्यापारेऽप्यजीव प्रधानत्वविवक्षयाऽजी व क्रियेयमुक्ता, कर्म्मविशेषो वैर्यापथिकी क्रियोच्यते । (ख) सा (सांपरायिकी) ह्यजीवस्य पुद्गलराशेः कर्मतापरिणतिरूपा जीवव्यापारस्याविवक्षणादजीवक्रियेति । ४. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८ । (ख) भगवती, ३।१३५; वृत्ति, पत्र १८१ । Jain Education International (ग) प्रज्ञापना, पद २२, वृत्ति । ५. तत्त्वार्थ सूत्रवृत्ति, ६६ : काय क्रिया द्विविधा — अनुपरतकाय क्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया, आधा मिध्यादृष्टे : द्विताया प्रमत्तसंयतस्य । ६. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५ : प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिकी क्रिया । ७. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८ ॥ ८. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५ : हिसोप करणादानादाधिकरणिकीक्रिया । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८ : प्रद्वेषो - मत्सरा स्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी । १०. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५ : क्रोधावेशात् प्रादोषिकी क्रिया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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