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________________ ठाणं (स्थान) ११४ स्थान २ : टि० ४१ (८) प्रदोष ( 8 ) परितापन (१०) प्राणातिपात ( ११ ) दर्शन ( १२ ) स्पर्शन (१३) प्रत्यय ( १४ ) समन्तानुपात (१५) अनाभोग (१६) स्वहस्त ( १७ ) निसर्ग (१८) विदारण ( १६ ) आनयन (२०) अनवकांक्षा (२१) आरम्भ (२२) परिग्रह ( २३ ) माया (२४) मिथ्यादर्शन (२५) अप्रत्याख्यान । प्रज्ञापना का बाईसवां पद क्रिया-पद है । उसमें कुछ क्रियाओं पर विस्तार से विचार किया गया है। भगवती सूत्र के अनेक स्थलों में क्रिया का विवरण मिलता है, जैसे-- भगवती शतक १, उद्देशक २ शतक ८, उद्देशक ४ ; शतक ३, उद्देशक ३ । प्रस्तुत वर्गीकरण पर समीक्षात्मक अर्थ-मीमांसा जीव क्रिया और अजीवक्रिया- ये दोनों क्रिया के सामान्य प्रकार हैं। इनके द्वारा सूत्रकार यह बताना चाहते हैं कि क्रियाकारित्व जीव और अजीव दोनों का समान धर्म है। प्रस्तुत प्रकरण में वही अजीव क्रिया विवक्षित है, जो जीव के निमित्त से अजीव (पुद्गल) का कर्मबंध के रूप में परिणमन होता है। पचीस क्रिया के वर्गीकरण में इन दोनों क्रियाओं का उल्लेख नहीं है । जीव क्रिया के दो भेद - सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया वहां उल्लिखित हैं। अभयदेव सूरि ने सम्यक्त्वक्रिया का अर्थ तत्त्व में श्रद्धा करना और मिथ्यात्वक्रिया का अर्थ तत्त्व में श्रद्धा करना किया है।' आचार्य अकलंक ने सम्यक्त्वक्रिया का अर्थ सम्यक्त्ववधिनीप्रवृत्ति और मिथ्यात्व क्रिया का अर्थ मिथ्यात्व हेतुकप्रवृत्ति किया है।' ऐर्यापथिकी – ईर्यापथ शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध दोनों के साहित्य में मिलता है। बौद्धपिटकों में कायानुपश्यानु का दूसरा प्रकार ईर्यापथ है । उसकी व्याख्या इस प्रकार हैं फिर भिक्षुओ ! भिक्षु जाते हुए 'जाता हूं' -- जानता है । बैठे हुए 'बैठा हूं' – जानता है। सोये हुए 'सोया हूं' - जानता है । जैसे-जैसे उसकी काया अवस्थित होती है, वैसे ही उसे जानता है। इसी प्रकार काया के भीतरी भाग में कायानुपश्यी हो विहरता है; काया के बाहरी भाग में कायानुपश्यी विहरता है। काया के भीतरी और बाहरी भागों में कायानुपश्यी विहरता है । काया में समुदय - ( = उत्पत्ति) धर्म देखता विहरता है, काया में व्यय - ( = विनाश) धर्म देखता विहरता है, काया में समुदय-व्ययधर्म देखता विहरता है । भगवती सूत्र में उल्लिखित एक चर्चा से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के युग में ईर्यापथिकी और सांपरायिकी क्रिया का प्रश्न अनेक धर्म-सम्प्रदायों में चर्चित था । भगवान् से पूछा गया - भंते! अन्यतीर्थिक यह मानते हैं कि एक ही समय में एक जीव ऐर्यापथिकी और सांपरायिकी दोनों क्रियाएं करता है, क्या यह सही है ? भगवान् ने कहा- यह सही नहीं है। मैं इसे इस प्रकार कहता हूं कि जिस समय एक जीव ऐर्यापथिकी क्रिया करता है उस समय वह सांपरायिकी क्रिया नहीं करता है और जिस समय वह सांपरायिकी क्रिया करता है उस समय वह ऐर्याथिक क्रिया नहीं करता। एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है।' जीवाभिगम सूत्र में सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्वक्रिया के विषय में भी इसी प्रकार की चर्चा मिलती है। वहां भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि एक समय में दो क्रियाएं नहीं की जा सकतीं।" सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों विरोधी क्रियाएं हैं। इसलिए वे दोनों एक समय में नहीं की जा सकतीं। ऐर्यापथिकी क्रिया उस जीव के होती है जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ विच्छिन्न हो जाते हैं। सांपरायिकी क्रिया उस जीव के होती है, जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ विच्छिन्न नहीं होते । १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७ : सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया सम्यक्त्वक्रिया, एवं मिध्यात्वक्रियाऽपि नवरं मिथ्यात्वम् अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापारएव । २. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५: चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया सम्यक्त्व Jain Education International क्रिया । अन्यदेवतास्तवनादिरूपा मिथ्यात्वहेतुका प्रवृत्तिमिथ्यात्व क्रिया । ३. दीर्घनिकाय, पृ० १६१ । ४. भगवती, १/४४४, ४४५ ५. जीवाभिगम, प्रतिपत्ति ३, उद्देशक २ । ६. भगवती, ७ २०, २१, ७ १२५, १२६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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