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________________ ठाणं (स्थान) ४-५ - धर्म-अधर्म (सू० १ ) धर्मास्तिकाय - जीव और पुद्गल की गति का उदासीन किन्तु अनिवार्य माध्यम । अधर्मास्तिकाय — जीव और पुद्गल की स्थिति का उदासीन किन्तु अनिवार्य माध्यम । ६-४१ - क्रिया ( सू० २-३७ ) प्रस्तुत आलापक में प्राणी की मुख्य-मुख्य सभी प्रवृत्तियां संकलित हैं । प्राणी जगत् में सर्वाधिक प्रवृत्तिशील मनुष्य है। उसकी मुख्य प्रवृत्तियां तीन हैं— कायिक, वाचिक और मानसिक । प्रयोजन के आधार पर इनके अनेक रूप बन जाते हैं। जीवन का अनिवार्य प्रश्न है जीविका। उसके लिए मनुष्य आरम्भ और परिग्रह की प्रवृत्ति करता है। आरम्भ और परिग्रह की प्रवृत्ति के साथ सुरक्षा का प्रश्न उपस्थित होता है। उसके लिए शस्त्र निर्माण की प्रवृत्ति विकसित होती है। मनुष्य में मानसिक आवेग होते हैं । सामाजिक जीवन में उन्हें प्रस्फुट होने का अवसर मिलता है। एक मनुष्य का किसी के साथ प्रेयस् का सम्बन्ध होता है और किसी के साथ द्वेष-पूर्ण । इस प्रवृत्ति चक्र में वह किसी के प्रति अनुरक्त होता है और किसी को परितप्त करता है। किसी को शरण देता है और किसी का हनन करता है । Jain Education International ११३ मनुष्य कुछ प्रवृत्तियां ज्ञानवश करता है और कुछ अज्ञानवश कुछ आकांक्षा से प्रेरित होकर करता है और कुछ आकस्मिक ढंग से कर लेता है । २. अनर्थदण्ड ३. हिंसादण्ड मनुष्य अज्ञान या मोह की अवस्था में असमीचीन प्रवृत्ति करता है । सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर वह उनसे निवृत्त होता है । निवृत्ति-काल में प्रमाद और आलस्य द्वारा बाधा उपस्थित किए जाने पर वह फिर असमीचीन प्रवृत्ति करता है । इस प्रकार आत्यन्तिक निवृत्ति के पूर्व प्रवृत्ति का चक्र चलता रहता है। प्रस्तुत प्रकरण में प्रवृत्ति की प्रेरणा, प्रकार और परिणाम - तीनों उपलब्ध होते हैं। अप्रत्याख्यान, आकांक्षा और प्रेयस् - ये प्रवृत्ति की प्रेरणाएं हैं। ईर्यापथिक और सांपरायिक - ये कर्म-बंध उसके परिणाम हैं। इनके मध्य में उसके प्रकार संगृहीत हैं। प्रवृत्तियों का इतना बड़ा संकलन कर सूत्रकार ने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की अवस्थाओं का एक सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है। प्रथम स्थान के चौथे सून के टिप्पण में क्रिया के विषय में संक्षिप्तसा लिखा गया है । प्रस्तुत प्रकरण में उसके वर्गीकरणों पर विस्तार से विचार-विमर्श करना है । क्रिया के तीन वर्गीकरण मिलते हैं। प्रथम वर्गीकरण सूत्रकृतांग का है। उसमें तेरह क्रियाएं निर्दिष्ट हैं'१. अर्थदण्ड ८. अध्यात्म ( मन ) प्रत्ययिक ६. मानप्रत्ययिक १०. मित्रद्वेषप्रत्ययिक ४. अकस्मात् दण्ड ५. दृष्टिदोषदण्ड ६. मृषाप्रत्ययिक ७. अदत्तादानप्रत्ययिक स्थान २ : टि० १. सूत्रकृतांग, २२२ । २. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।६ : अव्रत कषायेन्द्रियक्रियाः पञ्च चतुः पञ्च पञ्चविशति संख्याः पूर्वस्य भेदाः । ११. मायाप्रत्ययिक १२. लोभप्रत्ययिक १३. ऐर्यापथिक ० ४-४१ दूसरा वर्गीकरण प्रस्तुत सूत्र ( स्थानांग ) का है। इसमें क्रियाओं के मुख्य और गौण भेद बहत्तर हैं । तीसरा वर्गीकरण तत्त्वार्थ सूत्र का है। उसमें पचीस क्रियाओं का निर्देश है'। वे इस प्रकार हैं (१) सम्यक्त्व ( २ ) मिथ्यात्व ( ३ ) प्रयोग ( ४ ) समादान ( ५ ) ईर्यापथ ( ६ ) काय ( ७ ) अधिकरण ३. तत्त्वार्थ सूत्रभाष्य, ६।६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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