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________________ स्थान : सूत्र २२ स्त्री, पुरुष, घोड़े और हाथियों की समस्त आभारणविधि का ज्ञान पिंगल' महानिधि से होता है। ठाणं (स्थान) ४. सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं। आसाण य हत्थीण य, पिगलगणिहिम्मि सा भणिया। ५. रयणाई सव्वरयणे, चोद्दस पवराई चक्कवट्टिस्स। उप्पज्जति एगिदियाई, पंचिदियाई च॥ ६. वत्थाण य उत्पत्ती, णिप्फत्ती चेव सवभत्तीणं। रंगाण यधोयाण य, सव्वा एसा महापउमे॥ ७. काले कालण्णाणं, भव्व पुराणं च तीसु वासेसु। सिप्पसत्तं कम्माणि य, तिण्णि पयाए हियकराई॥ ४. सर्वः आभारणविधिः, पुरुषाणां या च भवति महिलानां ॥ अश्वानां च हस्तिनां च, पिङ्गलकनिधौ सा भणिता॥ ५. रत्नानि सर्वरत्ने, चतुर्दश प्रवराणि चक्रवत्तिनः । उत्पद्यन्ते एकेन्द्रियाणि पञ्चेन्द्रियाणि च॥ ६. वस्त्राणां च उत्पत्तिः, निष्पत्तिः चैव सर्वभक्तीनां । रङ्गवतां च धौतानां च, सर्वा एषा महापद्म ।। ७. काले कालज्ञानं, भव्यं पुराणं च त्रिषु वर्षेषु । शिल्पशतं कर्माणि च, त्रीणि प्रजायै हितकराणि ॥ चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय और सात पञ्चेन्द्रिय रत्न-इन चौदह रत्नों की उत्पत्ति का वर्णन 'सर्वरत्न' महानिधि से प्राप्त होता है। रंगे हुए या श्वेत सभी प्रकार के वस्त्रों की उत्पत्ति व निष्पत्ति का ज्ञान 'महापद्म' महानिधि से होता है। अनागत व अतीत के तीन-तीन वर्षों के शुभाशुभ का कालज्ञान, सौ प्रकार के शिल्पों का ज्ञान और प्रजा के लिए हितकर सुरक्षा, कृषि, वाणिज्य ---इन तीन कर्मों का ज्ञान 'काल' महानिधि से होता है। लोह, चांदी तथा सोने के आकर, मणि, मुक्ता, स्फटिक और प्रवाल की उत्पत्ति का ज्ञान महाकाल' महानिधि से होता है। ८. लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकाले आगराणं च।। रुप्पस्स सुवण्णस्स य, मणि-मोत्ति-सिल-प्पवालाणं॥ है. जोधाण य उत्पत्ती, आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वा य जुद्धनीती, माणवए दंडणीती य॥ १०. पट्टविही णाडगविही, कव्वस्स चउब्विहस्स उप्पत्ती।। संखे महाणिहिम्मी, तडियंगाणं च सव्वेसि॥ ११. चक्कट्ठपइट्ठाणा, अठुस्सेहा य णव य विक्खंभे। बारसदीहा मंजूस-संठिया जाह्मवीए मुहे ॥ ८. लोहस्य चोत्पत्तिः, भवति महाकाले आकराणाञ्च। रुप्यस्य सुवर्णस्य च, मणि-मुक्ता-शिला-प्रवालानाम् ।। ६. योधानां चोत्पत्तिः, आवरणानां च प्रहरणानाञ्च । सर्वा च युद्धनीतिः, माणवके दण्डनीतिश्च ।। १०. नृत्यविधि: नाटकविधिः, काव्यस्य चतुर्विधस्योत्पत्तिः । शो महानिधौ, त्रुटिताङ्गानां च सर्वेषाम् ।। ११. चक्राष्टप्रतिष्ठानाः, अष्टोत्सेधाश्च नव च विष्कम्भे। द्वादशदीर्घाः मञ्जूषा-संस्थिताः जाह्नव्या मुखे ॥ योद्धाओं, कवचों और आयुधों के निर्माण का ज्ञान तथा समस्त युद्धनीति और दण्डनीति का ज्ञान 'माणवक' महानिधि से होता है। नृत्यविधि, नाटकविधि, चार प्रकार के काव्यों तथा सभी प्रकार के वाद्यों की विधि का ज्ञान 'शंख' महानिधि से होता है। प्रत्येक महानिधि आठ-आठ चक्रों पर अवस्थिति है। वे आठ योजन ऊंचे, नौ योजन चौड़े, बाहर योजन लम्बे तथा मंजूषा के संस्थान वाले होते हैं। वे सभी गंगा के मुहाने पर अवस्थित रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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