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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि०३६-३८
समशीतोष्ण, अतिवायुरहित, वर्षा, आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफ से बाह्य-आभ्यन्तर बाधाओं से शून्य और पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यङ्कासन में बैठना चाहिए। उस समय शरीर को सम, ऋजु और निश्चल रखना चाहिए। बाएं हाथ पर दाहिना रखकर न खुले हुए और न बन्द, किन्तु कुछ खुले हुए दांतों पर दांतों को रखकर, कुछ ऊपर किये हुए सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किये हुए प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्द-मन्द श्वासोच्छ्वास लेने वाला साधु ध्यान की तैयारी करता है । वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है । इस तरह एकाग्रचित्त होकर राग, द्वेष, मोह का उपशम कर कुशलता से शरीर क्रियाओं का निग्रह कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुआ निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो बाह्य-आभ्यन्तर द्रव्य पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्य से युक्त हो अर्थ
और व्यञ्जन तथा मन, वचन, काय की पृथक्-पृथक् संक्रान्ति करता है। फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर और व्यञ्जन से व्यञ्जनान्तर में संक्रमण करता है।" धर्म्यध्यान की विशेष जानकारी के लिए देखें-- 'अतीत का अनावरण' (पृष्ठ ७६-८६) ध्यान का प्रथम सोपान-धHध्यान नामक लेख ।
३६ क्रोध (सू०७६)
क्रोध की उत्पत्ति के निमित्तों के विषय में वर्तमान मनोविज्ञान की जानकारी जितनी आकर्षक है, उतनी ही ज्ञानवर्धक है । कुछ प्रयोगों का विवरण इस प्रकार है---
व्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह चेतन अथवा अवचेतन मस्तिष्क के निर्देश पर ही होता है । साधारणतया हम जब भी मस्तिष्क की बात करते हैं, हमारा तात्यर्य चेतन मस्तिष्क से ही होता है, तार्किक बुद्धि से। पर क्रोध और हिंसा के बीज इस चेतन मस्तिष्क से नीचे कहीं और गहरे हुआ करते हैं । वैज्ञानिकों का कहना है कि चेतन मस्तिष्क-सैरेबियन कोरटेक्स तो मस्तिष्क के सबसे ऊपर की परत है, जो मनुष्य के विकास की अभी हाल की घटना है। इसके बहुत नीचे 'आदिम मस्तिष्क' है-हिंसा और क्रोध की जन्मभूमि।
और वैज्ञानिकों का यह कथन जानवरों पर किये गये अनेकानेक परीक्षणों का परिणाम है। मस्तिष्क के वे विशेष बिन्दु खोजे जा चुके हैं, जहां क्रोध का जन्म होता है। इस दिशा में प्रयोग करने वालों में डाक्टर जोस एम० आर० डेलगाडो अग्रणी हैं। उन्होंने अपने परीक्षणों द्वारा दूर शांत बैठे बन्दरों को विद्युत्धारा से उनके उन विशेष बिन्दुओं को छूकर लड़वाकर दिखला दिया है। सचमुच, यह सब जादू का-सा लगता है। कल्पना कीजिए.-सामने एक बड़े से पिंजड़े में एक बंदर बैठा केला खा रहा है और आप बिजली का बटन दबाते हैं--अरे यह क्या, बंदर तो केला छोड़कर पिंजड़े की सलाखों पर झपट पड़ा है। दांत किटकिटा रहा है। हां, हिंसक हो गया है। और यह प्रयोग डाक्टर डेलगाडो ने मस्तिष्क के उस विशेष बिन्दु को विद्युत्धारा द्वारा उत्तेजित करके किया है। यही क्यों, उनके सांड़ वाले प्रयोग ने तो कमाल ही कर दिखाया था। क्रोधित सांड़ उनकी ओर झपटा, और उन तक पहुंचने से पहले ही शांत होकर रुक गया। उन्होंने विद्युत्धारा से सांड का क्रोध शांत कर दिया था।
पर आदमी जानवर से कुछ भिन्न होता है। हम तभी हिंसक होते है, जब हम हिंसक होना चाहते हैं। क्योंकि साधारण स्थितियों में ही हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं। पर कुछ लोगों का यह नियंत्रण काफी कमजोर होता है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानशास्त्री डाक्टर इविन तथा डाक्टर मार्क के अनुसार, 'ऐसे व्यक्तियों के मस्तिष्क के आदिम हिस्से में कुछ विशेष घटता रहता है।" .
३७-३८ आभोगनिर्वतित, अनाभोगनिर्वतित (सू० ८८)
आभोगनिर्वतित—जो मनुष्य क्रोध के विपाक आदि को जानता हआ क्रोध करता है, उसका क्रोध आभोगनिर्वर्तित
१. नवभारत टाइम्स, बम्बई, ११ मई, १९७० ।
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