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________________ ठाणं (स्थान) ५०२ स्थान ४ : टि० ३५ संप्रज्ञातसमाधि से की है। संप्रज्ञातसमाधि के चार प्रकार हैं-वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। उन्होंने शुक्लध्यान के शेष दो चरणों की तुलना असंप्रज्ञातसमाधि से की है। प्रथम दो चरणों में आए हुए वितर्क और विचार शब्द जैन, योगदर्शन और बौद्ध तीनों को ध्यान-पद्धतियों में समान रूप से मिलते हैं। जैन साहित्य के अनुसार वितर्क का अर्थ श्रुतज्ञान और विचार का अर्थ संक्रमण है। वह तीन प्रकार का होता है१. अर्थविचार ____ अभी द्रव्य ध्येय बना हुआ है, उसे छोड़ पर्याय को ध्येय बना लेना। पर्याय को छोड़ फिर द्रव्य को ध्येय बना लेना अर्थ का संक्रमण है। २. व्यञ्जनविचार ___अभी एक श्रुतवचन ध्येय बना हुआ है, उसे छोड़ दूसरे श्रुतवचन को ध्येय बना लेना। कुछ समय बाद उसे छोड़ किसी अन्य श्रुतवचन को ध्येय बना लेना व्यञ्जन का संक्रमण है। ३. योगविचार काययोग को छोड़कर मनोयोग का आलम्बन लेना, मनोयोग को छोड़कर फिर काययोग का आलम्बन लेना योगसंक्रमण है। यह संक्रमण श्रम को दूर करने तथा नए-नए ज्ञान-पर्यायों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, जैसे—हम लोग मानसिक ध्यान करते हुए थक जाते हैं, तब कायिकध्यान (कायोत्सर्ग, शरीर का शिथिलीकरण) प्रारम्भ कर देते हैं। उसे समाप्त कर फिर मानसिकध्यान प्रारम्भ कर देते हैं। पर्यायों के सूक्ष्मचिन्तन से थककर द्रव्य का आलम्बन ले लेते हैं। इसी प्रकार श्रुत के एक वचन से ध्यान उचट जाए तब दूसरे वचन को आलम्बन बना लेते हैं। नई उपलब्धि के लिए ऐसा करते हैं। योगदर्शन के अनुसार वितर्क का अर्थ स्थूलभूतों का साक्षात्कार और विचार का अर्थ सूक्ष्मभूतों और तन्मात्राओं का साक्षात्कार है। बौद्धदर्शन के अनुसार वितर्क का अर्थ है आलम्बन में स्थिर होना और विकल्प का अर्थ है उस (आलम्बन) में एकरस हो जाना। इन तीनों परम्पराओं में शब्द-साम्य होने पर भी उनके संदर्भ पृथक्-पृथक् हैं। आचार्य अकलंक ने ध्यान के परिकर्म (तैयारी) का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है - "उत्तमशरीरसंहनन होकर भी परीषहों के सहने की क्षमता का आत्मविश्वास हुए बिना ध्यान-साधना नहीं हो सकती। परीषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है। पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी, तट, पुल, श्मशान, जीर्ण उद्यान और शन्यागार आदि किसी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु, १. जैनदृष्ट्यापरीक्षित पातञ्जलयोगदर्शनम्, १।१७, १८ : तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारकत्ववितर्काविचाराख्य शुक्लध्यान भेदद्वये संप्रज्ञातः समाधिवं त्यर्थानां सम्यग्ज्ञानात । तदुक्तम्-समाधिरेष एवान्यः संप्रज्ञातोभिधीयते । सम्यक् प्रकर्षरूपेण वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा। (योगबिन्दु ४१८) २. पातञ्जलयोगदर्शन, १।१७ : वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः । ३. जनदृष्ट्यापरीक्षित पातञ्जलयोगदर्शनम्, १।१७,१८: क्षपक श्रेणिपरिसमाप्ती केवलज्ञानलाभस्त्वसंप्रज्ञात: समाधिः, भावमनोवृत्तीनां ग्राह्यग्रहणाकारशालिनीनामवग्रहादि क्रमेण तन्न सम्यक् परिज्ञानाभावात् । अतएव भावमनसा संज्ञाऽभवाद् द्रव्यमनसा च तत्सद्भावात् केवली नो संज्ञोत्युच्यते । तदिदमुक्तं योगविन्दौ असं प्रज्ञात एषोपि, समाधिगीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादि-तस्वरूपानवेधतः ।। धर्ममेघोऽमृतात्मा च, भवशन्नुः शिवोदयः । सत्त्वानन्दः परश्चेति,योज्योनवार्ययोगतः।। (योगबिन्दु ४२०,४२१) ४. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।४४: विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः । ५. पातञ्जलयोगदर्शन, १।४२-४४ । ६. विशुद्धिमार्ग, भाग १, पृष्ठ १३४ । ७. तत्त्वार्थवार्तिक, ६४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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