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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि०३५
ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक होती है, अहंकार और ममकार का विसर्जन आवश्यक होता है। इस स्थिति की प्राप्ति के लिए चार अनुप्रेक्षाओं का निर्देश किया गया है। एकत्वभावना का अभ्यास करने वाला अहं के पाश से मुक्त हो जाता है । अनित्यभावना का अभ्यास करने वाला ममकार के पाश से मुक्त हो जाता है। धर्म्यध्यान का शब्दार्थ
जो धर्म से युक्त होता है, उसे धर्म्य कहा जाता है। धर्म का एक अर्थ है आत्मा की निर्मल परिणति--मोह और क्षोभरहित परिणाम। धर्म का दूसरा अर्थ है -सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। धर्म का तीसरा अर्थ हैवस्तु का स्वभाव । इन अथवा इन जैसे अन्य अर्थों में प्रयुक्त धर्म को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है। धर्म्यध्यान के अधिकारी
अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयति और अप्रमत्तसंयति- इन सबको धHध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो सकती है। शुक्लध्यान के अधिकारी
शुक्लध्यान के चार चरण हैं। उनमें प्रथम दो चरणों-पृथक्त्ववितर्क-सविचारी और एकत्ववितर्क-अविचारी के अधिकारी श्रुतकेवली (चतुर्दशपूर्वी) होते हैं। इस ध्यान में सूक्ष्म द्रव्यों और पर्यायों का आलम्बन लिया जाता है, इसलिए सामान्य श्रुतधर इसे प्राप्त नहीं कर सकते। १. पृथक्त्ववितर्क-सविचारी
जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों.-नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की उस स्थिति को पृथक्त्ववितर्क-सबिचारी कहा जाता है। २. एकत्ववितर्क-अविचारी
जब एक द्रव्य के किसी एक पर्याय का अभेद दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द, अर्थ एवं मन, वचन, काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की उस स्थिति को एकत्ववितर्क-अविचारी कहा जाता है। ३. सूक्ष्मक्रिय-अनिवृत्ति
जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होताश्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है। इसका निवर्तन-ह्रास नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है। ४. समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति
____ जब सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को समुच्छिन्नक्रिय कहा जाता है । इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाति है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने हरिभद्रसूरिकृत योगबिन्दु के आधार पर शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों की तुलना
१. तत्त्वार्थभाग्य, ९२८ : धर्मादनपेतं धय॑म् । २. तत्त्वानुशासन, ५२, ५५:
आत्मनः परिणामो यो, मोह-क्षोभ-विवजितः । स च धर्मोऽनपेतं यत्तस्माद्धय॑मित्यपि ।। यश्चोत्तमक्षमादिः स्याद्धर्मो दशतयः परः।
ततोऽनपेतं यद्ध्यानं. तद्वा धम्यं मितीरितम् ।। ३. तत्त्वानुशासन, ५१:
सदुष्टि-ज्ञान-वृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि, धम्यं तद्ध्यानमभ्यधुः ।।
४. तत्त्वानुशासन, ५३, ५४ :
शून्यीभवदिदं विश्वं, स्वरूपेण धृतं यतः । तस्माद्वस्तुस्वरूपं हि, प्रादुर्घम महर्षयः ।। ततोऽनपेतं यज्ज्ञानं, तक्षHध्यानमिष्यते ।
धमों हि वस्तुयाथात्म्यमित्यारेऽप्यभिधानतः।। ५. तत्त्वार्थसूत्र, ६।३७ : शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ।
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