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________________ ठाणं (स्थान) ५०० स्थान ४ : टि०२४-३५ बहुलदोष ध्यान के वर्गीकरण में प्रथम दो ध्यान-आर्त और रौद्र उपादेय नहीं हैं। अन्तिम दो ध्यान-धर्म्य और शुक्ल उपादेय हैं । आर्त और रौद्र ध्यान शब्द की समानता के कारण ही यहां निर्दिष्ट हैं। २४-२७ (सू० ६१-६४) प्रस्तुत चार सूत्रों में आर्त और रौद्र ध्यान के स्वरूप तथा उनके लक्षण निर्दिष्ट हैं । आत ध्यान में कामाशंसा और भोगाशंसा की प्रधानता होती है, और रौद्रध्यान में क्रूरता की प्रधानता होती है। ध्यानशतक में रौद्र ध्यान के कुछ लक्षण भिन्न प्रकार से निर्दिष्ट हैं। --स्थानांग--- -ध्यानशतकउत्सन्नदोष उत्सन्नदोष बहुदोष अज्ञानदोष नानाविधदोष आमरणान्तदोष आमरणदोष इनमें दूसरे और चौथे प्रकार में केवल शब्द भेद है। तीसरा प्रकार सर्वथा भिन्न है। नानाविधदोष का अर्थ है-- चमड़ी उखेड़ने, आंखें निकालने आदि हिंसात्मक कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना। हिंसाजनित नाना विध क्रूर कर्मों में प्रवृत्त होना अज्ञानदोष से भी फलित होता है। अज्ञान शब्द इस तथ्य को प्रगट करता है कि कुछ लोग हिंसा प्रतिपादक शास्त्रों से प्रेरित होकर धर्म या अभ्युदय के लिए नाना विध क्रूर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। २८-३५ (सू० ६५-७२) इन आठ सूत्रों में धर्म्य और शुक्ल ध्यान के ध्येय, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षाएं निर्दिष्ट हैं। धर्म्यध्यान धर्म्यध्यान के चार ध्येय बतलाए गए हैं। ये अन्य ध्येयों के संग्राहक या सूचक हैं। ध्येय अनंत हो सकते हैं। द्रव्य और उनके पर्याय अनन्त हैं। जितने द्रव्य और पर्याय हैं, उतने ही ध्येय हैं। उन अनन्त ध्येयों का उक्त चार प्रकारों में समासीकरण किया गया है।। आज्ञाविचय प्रथम ध्येय है। इसमें प्रत्यक्ष-ज्ञानी द्वारा प्रतिपादित सभी तत्त्व ध्याता के लिए ध्येय बन जाते हैं। ध्यान का अर्थ तत्त्व की विचारणा नहीं है। उसका अर्थ है तत्त्व का साक्षात्कार । धर्म्यध्यान करने वाला आगम में निरूपित तत्त्वों का आलम्बन लेकर उनका साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है। दूसरा ध्येय है अपायविचय। इसमें द्रव्यों के संयोग और उनसे उत्पन्न विकार या वैभाविक पर्याय ध्येय बनते हैं। तीसरा ध्येय है विपाकविचय। इसमें द्रव्यों के काल, संयोग आदि सामग्रीजनित परिपाक, परिणाम या फल ध्येय बनते हैं। चौथा ध्येय है संस्थानविचय। यह आकृति-विषयक आलम्बन है। इसमें एक परमाणु से लेकर विश्व के अशेष द्रव्यों के संस्थान ध्येय बनते हैं। धर्म्यध्यान करने वाला उक्त ध्येयों का आलम्बन लेकर परोक्ष को प्रत्यक्ष की भूमिका में अवतरित करने का अभ्यास करता है। यह अध्ययन का विषय नहीं है, किन्तु अपने अध्यवसाय की निर्भलता से परोक्ष विषयों के दर्शन की साधना है। ध्यान से पूर्व ध्येय का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक होता है। उस ज्ञान की प्रक्रिया में चार लक्षणों और चार आलम्बनों का निर्देश किया गया है।' १. क-लक्षणों की जानकारी के लिए देखें-स्थानांग १०।१०४ का टिप्पण। वृत्तिकार ने अवगाढ़रुचि का अर्थ द्वादशांगी का अवगाहन किया है-स्थानांग वृत्ति, पन १७६ : अवगाहनमवगाढम्-द्वादशाङ्गावगाहो विस्तराधिगम इति सम्भाव्यते तेन रुचिः । तत्त्वार्थवार्तिक में भी इसका यही अर्थ मिलता है। देखें-उत्तराध्ययन २८१६ का टिप्पण । ख-आलम्बनों की जानकारी के लिए देखें-स्थानांग ५।२२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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