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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० २०-२३
२० (सू० ५५)
जो पुरुष सेवा करने वाले को उचित काल में उचित फल देता है, वह आम्रफल की कलि के समान होता है। जो पुरुष सेवा करने वाले को बहुत लम्बे समय के बाद फल देता है, वह ताड़फल की कलि के समान होता है । जो पुरुष सेवा करने वाले को तत्काल फल देता है, वह वल्लीफल की कलि के समान होता है।
जो पुरुष सेवा करने वाले का कोई उपकार नहीं करता केवल सुन्दर शब्द कह देता है, वह मेषशन की कलि के समान होता है। क्योंकि मेषशृङ्ग की कलि का वर्ण सोने जैसा होता है, किन्तु उससे उत्पन्न होने वाला फल अखाद्य होता है । यहां मेषशृङ्ग शब्द का अर्थ ज्ञातव्य है
मेषशृङ्ग के फल मेढ़े के सीग के समान होते हैं, इसलिए इसे मेष-विषाण कहा जाता है। वृत्ति में इसका नाम आउलि बताया गया है
मेषशृङ्गसमानफला वनस्पतिजातिः, आउलिविशेष इत्यर्थः-स्थानांगवृत्ति, पत्र १७४ ।
२१ (सू० ५६)
जिस घुण के मुंह की भेदन-शक्ति जितनी अल्प या अधिक होती है उसी के अनुसार वह त्वचा, छाल, काष्ठ या सार को खाता है।
जो भिक्षु प्रान्त आहार करता है, उसमें कर्मों के भेदन की शक्ति-सार को खाने वाले धुण के मुंह के समान अधिकतर होती है।
जो भिक्षु विगयों से परिपूर्ण आहार करता है, उसमें कर्मों के भेदन की शक्ति–त्वचा को खाने वाले घुण के मुंह के समान अत्यल्प होती है।
... जो भिक्षु रूखा आहार करता है, उसमें कर्मों के भेदन की शक्ति-काष्ठ को खाने वाले घुण के मुंह के समान अधिक होती है।
__ जो भिक्षु दूध-दही आदि विगयों का आहार नहीं करता, उसमें कर्मों के भेदन की शक्ति-छाल को खाने वाले घुण के मुंह के समान अल्प होती है।
२२ (सू० ५७)
तृणवनस्पति-कायिक (तणवणस्सइकाइया) वनस्पतिकाय के दो प्रकार हैं--सूक्ष्म और बादर । बादर वनस्पतिकाय के दो प्रकार हैं१. प्रत्येकशरीरी। २. साधारणशरीरी। प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पतिकाय के बारह प्रकार हैं
१. वृक्ष, २. गुच्छ, ३. गुल्म, ४. लता, ५. वल्ली, ६. पर्वग, ७. तृण, ८. वलय, ६. हरित, १०. औषधि, ११. जलरूह, १२. कुहण। इनमें तृण सातवां प्रकार है । सभी प्रकार की घास का तृण वनस्पति में समावेश हो जाता है।
२३ (सू० ६०)
ध्यान शब्द की विशद जानकारी के लिए ध्यान-शतक द्रष्टव्य है । उसके अनुसार चेतना के दो प्रकार हैं-चल और स्थिर । चल चेतना को चित् और स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है।'
१. प्रज्ञापना- पद ।
२. ध्यानशतक, २ : जं थिरमज्झवसाणं, झाणं जं चलं तयं चित्तं ।
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