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________________ ठाणं (स्थान) ४६८ स्थान ४ : टि०१७-१६ आई। उन्होंने कहा-'बुढ़िया ! तुम कहो तो मैं तुम्हारी 'कुबड़' (कुब्जापन) ठीक कर दूं, जिससे तुम अच्छी तरह चल सको?' बुढ़िया ने कहा---'भगवन् ! आपकी दया है। इसके लिए मैं आपकी कृतज्ञ हूं। किन्तु मुझे मेरे इस कुब्जेपन का इतना दु:ख नहीं है, जितना दुःख है पड़ोसियों का मेरे साथ मखौल करने का । मैं चाहती हूं कि मेरे इन पड़ोसियों को आप कुबड़े बना दें जिससे मैं देख लूं कि इन पर क्या बीतती है ?' नारदजी ने देखा कि इसका शरीर ही टेढ़ा नहीं है, किन्तु मन भी टेढ़ा है। १७ (सू० २३) विशेष जानकारी के लिए देखें-दसवेआलियं ७१ से ६ तक के टिप्पण। १८ (सू० २४) प्रकृति से शुद्ध--जिस वस्त्र का निर्माण निर्मल तन्तुओं से होता है, वह प्रकृति से शुद्ध होता है। स्थिति से शुद्ध-जो वस्त्र मैल से मलिन नहीं हुआ है, वह स्थिति से शुद्ध है। प्रकृति और स्थिति की दृष्टि से शुद्धता का प्रतिपादन उदाहरणस्वरूप है। शुद्धता की व्याख्या अन्य दृष्टिकोणों से भी की जा सकती है, जैसे १. कुछ वस्त्र पहले भी शुद्ध होते हैं और बाद में भी शुद्ध होते हैं। २. कुछ वस्त्र पहले शुद्ध होते हैं, किन्तु बाद में अशुद्ध होते हैं। ३. कुछ वस्त्र पहले अशुद्ध होते हैं, किन्तु बाद में शुद्ध होते हैं। ४. कुछ वस्त्र पहले भी अशुद्ध होते हैं और बाद में भी अशुद्ध होते हैं। उक्त दृष्टान्त की तरह दार्टान्तिक की व्याख्या भी अनेक दृष्टिकोणों से की जा सकती है। १६ (सू० ३६) प्रस्तुत सूत्र की चतुर्भङ्गी में प्रथम और चतुर्थ भंग--सत्य और सत्यपरिणत तथा असत्य और असत्यपरिणत---घटित हो जाते हैं, किन्तु द्वितीय और तृतीय भङ्ग घटित नहीं होते। उनका आकार यह है कुछ पुरुष सत्य, किन्तु असत्यपरिणत होते हैं। कुछ पुरुष असत्य, किन्तु सत्यपरिणत होते हैं। सत्य असत्यपरिणत और असत्य सत्यपरिणत कैसे हो सकता है ? सत्य की व्याख्या एक नय से की जाए तो निश्चित ही यह समस्या हमारे सामने उपस्थित होती है। यहां उसकी व्याख्या दो नयों से की गई है, इसलिए यथार्थ में कोई जटिलता नहीं है । वृत्तिकार ने सत्य के दो अर्थ किए हैं। पहले अर्थ का सम्बन्ध वचन से है और दूसरे अर्थ का सम्बन्ध क्रिया से है। एक आदमी वस्तु या घटना जैसी होती है, उसी रूप में उसका प्रतिपादन करता है। वह वचन की दृष्टि से सत्य होता है। वही आदमी प्रतिज्ञा करता है कि मैं अप्रामाणिक व्यवहार नहीं करूंगा, किन्तु कुछ समय बाद वह अप्रामाणिक व्यवहार करने लग जाता है। वह अपनी प्रतिज्ञा-भंग के कारण असत्यपरिणत हो जाता है। इस प्रकार वचन की दृष्टि से जो सत्य होता है, वह प्रतिज्ञा का अतिक्रमण करने के कारण क्रिया-पक्ष में असत्यपरिणत हो जाता है। इसी प्रकार एक आदमी वस्तु या घटना के विषय में यथार्थभाषी नहीं होता, किन्तु प्रतिज्ञा करने पर उसका निष्ठा के साथ निर्वाह करता है। वह वचन-पक्ष में असत्य होकर भी क्रिया-पक्ष में सत्यपरिणत होता है। इनकी अन्य नयों से भी मीमांसा की जा सकती है। मनुष्य की प्रकृति और चिन्तन-प्रवाह की असंख्य धाराएँ हैं। अतः उन्हें किसी एक ही दिशा में बांधा नहीं जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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