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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि० ३६
करें, इनका न करें। गाय आदि पशुओं की देख-भाल करें, मकान की उपेक्षा न करें, उसकी सार-संभाल करते रहें तथा इसी प्रकार के अन्य नियंत्रणों की बातें कहे तो जिनकल्पिक मुनि ऐसे स्थान में कभी न रहे।
१०. जिस वसति में बलि दी जाती हो, दीपक जलता हो, अग्नि आदि का प्रकाश हो तथा गृहस्वामी कहे कि मकान का भी थोड़ा ध्यान रखें या बह पूछे कि आप इस मकान में कितने व्यक्ति रहेंगे ?-ऐसे स्थान में भी वे नहीं रहते। वे दूसरे के मन में सूक्ष्म अप्रीति भी उत्पन्न करना नहीं चाहते, इसलिए इन सबका वर्जन करते हैं।
११. भिक्षाचर्या के लिए तीसरे प्रहर में जाते हैं। १२. सात पिडैषणाओं में से प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच एषणाओं से अलेपकृत भक्त-पान लेते हैं।
१३. मल-भेद आदि दोष उत्पन्न होने की संभावना के कारण वे आचामाम्ल नहीं करते। वे मासिकी आदि भिक्षु प्रतिमा तथा भद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा आदि प्रतिमाएं स्वीकार नहीं करते।
१४. जहां मासकल्प करते हैं, वहां उस गांव या नगर को छह भागों में विभक्त कर, प्रतिदिन एक-एक विभाग में भिक्षा के लिए जाते हैं।
१५. वे एक ही वसति में सात (जिनकल्पिकों) से अधिक नहीं रहते। वे एक साथ रहते हुए भी परस्पर संभाषण नहीं करते । भिक्षा के लिए एक ही वीथि में दो नहीं जाते।
१६. क्षेत्र—जिनकल्प मुनि का जन्म और कल्पग्रहण कर्मभूमि में ही होता है। देवादि द्वारा संहरण किए जाने पर वे अकर्मभूमि में भी प्राप्त हो सकते हैं।
१७. काल—अवसर्पिणी काल में उत्पन्न हों तो उनका जन्म तीसरे-चौथे अर में होता है और जिनकल्प का स्वीकार तीसरे, चौथे और पांचवें में भी हो सकता है। यदि उत्सपिणी काल में उत्पन्न हों तो दूसरे, तीसरे और चौथे अर में जन्म लेते हैं और जिनकल्प का स्वीकार तीसरे और चौथे अर में ही करते हैं।
१८. चारित्र--सामायिक अथवा छेदोपस्थानीय संयम में वर्तमान मुनि जिनकल्प स्वीकार करते हैं। उसके स्वीकार के पश्चात् वे सूक्ष्मसंपराय आदि चारित्न में भी जा सकते हैं।
१६. तीर्थ-वे नियमतः तीर्थ में ही होते हैं।
२०. पर्याय-जघन्यतः उनतीस वर्ष की अवस्था में (E गृहवास के और २० श्रमण-पर्याय के) और उत्कृष्टतः गृहस्थ और साधु-पर्याय की कुछ न्यून करोड़ पूर्व में, इस कल्प को ग्रहण करते हैं।
२१. आगम—जिनकल्प स्वीकार करने के बाद वे नए श्रुत का अध्ययन नहीं करते, किन्तु चित्त-विक्षेप से बचने के लिए पहले पढ़े हुए श्रुत का स्वाध्याय करते हैं।
२२. वेद—स्त्रीवेद के अतिरिक्त पुरुषवेद तथा असंक्लिष्ट नपंसकवेद वाले व्यक्ति इसे स्वीकार करते हैं । स्वीकार करने के बाद वे सवेद या अवेद भी हो सकते हैं। यहां अवेद का तात्पर्य उपशान्त वेद से है। क्योंकि वे क्षपकश्रेणी नहीं ले सकते, उपशमश्रेणी लेते हैं। उन्हें उस भव में केवलज्ञान नहीं होता।
२३. कल्प-वे दोनों कल्प-स्थितकल्प अथवा अस्थितकल्प वाले होते हैं।
२४. लिंग-कल्प स्वीकार करते समय वे नियमतः द्रव्य और भाव-दोनों लिंगों से युक्त होते हैं। आगे भावलिंग तो निश्चय ही होता है । द्रव्य लिंग जीर्ण या चोरों द्वारा अपहृत हो जाने पर हो भी सकता है और नहीं भी।
२५. लेश्या-उनमें कल्प स्वीकार के समय तीन प्रशस्त लेश्याएं (तंजस, पद्म और शुक्ल) होती हैं। बाद में उनमें छहों लेश्याएं हो सकती हैं, किन्तु वे अप्रशस्त लेश्याओं में बहुत समय तक नहीं रहते और वे अप्रशस्त लेश्याएं अति संक्लिष्ट नहीं होती।
२६. ध्यान-वे प्रवर्द्ध मान धर्य ध्यान में कल्प का स्वीकरण करते हैं, किन्तु बाद में उनमें आतं-रौद्र ध्यान की सद्भावना भी हो सकती है। उनमें कुशल परिणामों की उद्दामता रहती है, अत: ये आर्त्त-रौद्र ध्यान भी प्रायः निरनुबंध होते हैं।
२७. गणना-एक समय में इस कल्प को स्वीकार करने वालों की उत्कृष्ट संख्या शतपृथक्त्व (९००) और पूर्व स्वीकृत के अनुसार यह सख्या सहस्रपृथक्त्व (६०००) होती है। पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्कृष्टतः इतने ही जिनकल्पी प्राप्त हो सकते हैं।
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