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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि० ३६ २८. अभिग्रह-वे अल्पकालिक कोई भी अभिग्रह स्वीकार नहीं करते। उनके जिनकल्प अभिग्रह जीवन पर्यन्त होता है। उसमें गोचर आदि प्रतिनियत व निरपवाद होते हैं, अतः उनके लिए जिनकल्प का पालन ही परम विशुद्धि का स्थान है।
२६. प्रव्रज्या-वे किसी को दीक्षित नहीं करते, किसी को मुंड नहीं करते। यदि ये जान जाए कि अमुक व्यक्ति अवश्य ही दीक्षा लेगा, तो वे उसे उपदेश देते हैं और उसे दीक्षा-ग्रहण करने के लिए संविग्न गीतार्थ साधु के पास भेज देते हैं।
३०. प्रायश्चित्त-मानसिक सूक्ष्म अतिचार के लिए भी उनको जघन्यतः चतुर्गुरुक मासिक प्रायश्चित्त लेना होता है।
३१. निष्प्रतिकर्म-वे शरीर का किसी भी प्रकार से प्रतिकर्म नहीं करते। आंख आदि का मैल भी नहीं निकालते और न कभी किसी प्रकार की चिकित्सा ही करवाते हैं।
३२. कारण--वे किसी प्रकार के अपवाद का सेवन नहीं करते।
३३. काल-वे तीसरे प्रहर में भिक्षा करते हैं और विहार भी तीसरे प्रहर में ही करते हैं। शेष समय में वे प्रायः कायोत्सर्ग में स्थित रहते हैं।
३४. स्थिति--विहरण करने में असमर्थ होने पर वे एक स्थान पर रहते हैं, किन्तु किसी प्रकार के दोष का सेवन नहीं करते।
३५. सामाचारी–साधु-सामाचारी के दस भेद हैं। इनमें से वे आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्याकार, आपृच्छा और उपसंपद्-इन पांच सामाचारियों का पालन करते हैं।
स्थविरकल्पस्थिति—जो संघ में रहकर साधना करते हैं, उनकी आचार-मर्यादा को स्थविरकल्पस्थिति कहा जाता है। उनके मुख्य अंग ये हैं
(१) सतरह प्रकार के संयम का पालन। (२) ज्ञान, दर्शन, चारित्र की परम्परा का विच्छेद न होने देना। इसके लिए शिष्यों को ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निपुण करना। (३) वृद्धा अवस्था में जंघाबल क्षीण होने पर स्थिरवास
करना। भावसंग्रह के अनुसार जिनकल्पी और स्थविरकल्पी का स्वरूपचित्रण इस प्रकार है
जिनकल्पी--जिनकल्प में स्थित श्रमण बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थियों से रहित, निस्नेह, निस्पृह और वाग्गुप्त होते हैं । वे सदा जिन भगवान् की भांति विहरण करते रहते हैं।
यदि उनके पैरों में कांटा चुभ जाए या आंखो में धूलि गिर जाए तो भी वे अपने हाथों से न कांटा निकालते हैं और न धूल ही पोंछते हैं । यदि कोई दूसरा व्यक्ति वैसा करता है तो वे मौन रहते हैं।
वे ग्यारह अंगों के धारक होते हैं। वे अकेले रहते हैं और धर्म्य-शुक्ल ध्यान में लीन रहते हैं। वे सम्पूर्ण कषायों के त्यागी, मौनव्रती और कन्दराओं में रहते हैं।
स्थविरकल्पी---इस दुःषमकाल में संहनन और गुणों की क्षीणता के कारण मुनि पुर, नगर और ग्राम में रहने लगे हैं, वे तप की प्रभावना करते हैं। वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं।
वे मुनि समुदाय रूप में विहार कर अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की प्रभावना करते हैं। वे भव्य व्यक्तियों को धर्म का श्रवण कराते हैं तथा शिष्यों का ग्रहण और पालन करते हैं ।
१. बहत्कल्पभाष्य, गाथा ६४८५ । २. भावसंग्रह, गाथा १२३:
बहिरंतरंगथचुवा णिणेहा णिप्पिहा य ज इवइणो।
जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणा ।। ३. वही, गाथा १२०
जत्थ य कटयभग्गो पाए णयणम्मि रयपविम्मि ।
फेडंति सयं मुणिणा परावहारे य तुहिक्का । ४. वही, गाथा १२२:
एगारसंगधारी एआई धम्मसुक्क झाणी य। चत्तासेसकसाया मोणबई कंदरावासी ॥
५. वही, गाथा १२७:
संहणणस्स य, दुस्समकालस्स तवपहावेण ।
पुरनयरगामवासी, थविरे कप्पे ठिया जाया। ६. वही, गाथा १२६:
समुदायेण विहारो, धम्मस्स पहावणं ससत्तीए। भवियाणं धम्मसवणं, सिस्साणं च पालणं गहणं ॥
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