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________________ ठाणं (स्थान) ७०७ स्थान ६ : टि० ४०-४२ पहले मुनिगण जितने कमों को हजार वर्षों में क्षीण करते थे, उतने कमों को वर्तमान में हीन संहनन वाले, स्थविरकल्पी मुनि, एक वर्ष में क्षीण कर देते हैं। ४०. परिणाम (सू० १०६) : वृत्तिकार ने परिणाम के चार अर्थ किए हैं...१. पर्याय, २. स्वभाव, ३. धर्म, ४. विपाक । प्रस्तुत सूत्र में परिणाम शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है—पर्याय और विपाक । प्रथम दो विभाग पर्याय के और शेष चार विपाक के उदाहरण हैं। ४१. (सू० ११६): एक साथ जितने कर्म-पुद्गल जिस रूप में भोगे जाते हैं उस रूप-रचना का नाम निषेक है। निधत्त का अर्थ हैकर्म का निषेक के रूप में बन्ध होना । जिस समय आयु का बन्ध होता है तब वह जाति आदि छहों के साथ निधत्त—निषिक्त होता है। अमुक आयु का बन्ध करने वाला जीव उसके साथ-साथ एकेन्द्रिय आदि पांच जातियों में से किसी एक जाति का, नरक आदि चार गतियों में से किसी एक गति का, अमुक समय की स्थिति-काल-मर्यादा का, अवगाहना----औदारिक या वक्रिय शरीर में से किसी एक शरीर का तथा आयुष्य के प्रदेशों-परमाणु-संचयों का और उसके अनुभाव--विपाकशवित का भी बन्ध करता है। ४२. भाव (सू० १२४) : कर्म आठ हैं—ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, देदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनके मुख्य दो वर्ग हैं-- घात्य और अघात्य । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घात्य-कोटि और शेष चार अघात्य-कोटि के कर्म हैं। इनके उदय आदि से तथा काल-परिणमन से होने वाली जीव की अवस्था को भाव कहा जाता है। भाव छह हैं औदयिक-कर्मों के उदय से होने वाली जीव की अवस्था। औपशमिक---मोह कर्म के उपशम से होने वाली जीव की अवस्था। क्षायिक-कर्मों के क्षय से होने वाली जीव की अवस्था। क्षायोपशमिक—घात्य कर्मों के क्षयोपशम [उदित कर्मों के क्षय और अनुदित कर्मों के उपशम] से होने वाली जीव की अवस्था। पारिणामिक-काल-परिणमन से होने वाली जीव की अवस्था । सान्निपातिक-दो या अधिक भावों के योग से होने वाली जीव की अवस्था। इसके २६ विकल्प होते हैंदो के संयोग से १० विकल्प तीन के संयोग से १० विकल्प चार के संयोग से ५ विकल्प पांच के संयोग से-- १ विकल्प इनके विस्तार के लिए देखें-अनुयोगद्वार, सूत्र २८६-२६७ । १. भावसंग्रह, गाथा १३१ : बरिससहस्सेण पुरा जं कम्म हणइ तेण काएण। तं संपइ वरिसैण हु णिज्जरयइ होणसंहणणे ॥ २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३५६ : परिणाम :-पर्यायः स्वभावो धर्म इति यावत् । "परिणामो-विपाकः। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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