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________________ ठाणं (स्थान) तथ्य को समझा जा सकता है। एक कोष्ठ कूष्मांड से पूर्ण भरा हुआ है। स्थूल दृष्टि में वह भरा हुआ प्रतीत होता है परन्तु उसमें बहुत छिद्र रहते हैं । उन छिद्रों में बिजोरे समा सकते हैं। बिजोरों के छिद्रों में बेल समा जाती है। बेल के छिद्रों में सरसों के दाने समा जाते हैं। सरसों के दानों में गंगा की मिट्टी समा सकती है। इस प्रकार भरे हुए कोष्ठक में भी स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम छिद्र रह जाते हैं । प्रश्न होता है— सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम में बालखण्डों से स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों आकाश-प्रदेशों का ग्रहण किया गया है । बादरक्षेत्रपल्योपम में बालखण्डों से स्पृष्ट आकाश-प्रदेश का ही ग्रहण किया गया है । जब स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों आकाश-प्रदेशों का ग्रहण किया गया है, तब केवल स्पृष्ट आकाश-प्रदेशों के ग्रहण का क्या प्रयोजन है ? दृष्टिवाद में द्रव्यों के मान का उल्लेख है । उसमें से कई द्रव्य बालाग्र से स्पृष्ट आकाश-प्रदेशों से मापे जाते हैं और कई द्रव्य बाला से अस्पृष्ट आकाश-प्रदेशों से मापे जाते हैं। इसलिए इनकी भिन्न-भिन्न उपयोगिता है । सागरोपम सागरोपम के तीन भेद हैं- उद्धारसागरोपम, अद्धासागरोपम और क्षेत्रसागरोपम । प्रत्येक के दो-दो भेद हैंबादर ( व्यावहारिक) और सूक्ष्म । करोड़ X करोड़ X १० = १००००००००००००००० १ पद्म (१०००००००००००००००) पल्योपम का एक सागरोपम होता है। सागरोपम के सारे भेदों की व्याख्यापद्धति पत्योपम की भांति ही है। १३३ (सू० ४१० ) १४८ १३२ ( सू० ४०६ ) इस सूत्र में सूत्रकार ने एक मनोवैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन किया है। एक समस्या दीर्घकाल से उपस्थित होती रही है कि क्रोध का सम्बन्ध मनुष्य के अपने मस्तिष्क से ही है या बाह्य परिस्थितियों से भी है। वर्तमान के वैज्ञानिक भी इस शोध में लगे हुए हैं । उन्होंने मस्तिष्क के वे बिन्दु खोज निकाले हैं, जहां क्रोध का जन्म होता है। डॉक्टर जोस० एम० आर० डेलगाडो ने अपने परीक्षणों द्वारा दूर शान्त बैठे बन्दरों के विद्युत्-धारा से उन विशेष बिन्दुओं को छूकर लड़वा दिया। यह विद्युत्-धारा के द्वारा मस्तिष्क के विशेष बिन्दु की उत्तेजना से उत्पन्न क्रोध है । इसी प्रकार अन्य बाह्य निमित्तों से भी मस्तिष्क का क्रोध बिन्दु उत्तेजित होता है और क्रोध उत्पन्न हो जाता है । यह पर प्रतिष्ठित क्रोध है । आत्म-प्रतिष्ठित अपने ही आन्तरिक निमित्तों से उत्पन्न होता है । स्थान २ : टि० १३२-१३५ देखें २।१५१ का टिप्पण | १३४ मरण ( सू० ४११ ) मरण के प्रकारों की जानकारी के लिए देखें - उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन ५ का आमुख | १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ११ ज्ञानं मोहयति - आच्छादयतीति ज्ञानमोहो— ज्ञानावरणोदयः, एवं 'दंसणमोहे चेव' सम्यग्दर्शन मोहोदय इति । Jain Education International १३५ (सू० ४२२) प्रस्तुत सुन में मोह के दो प्रकार बतलाए गए हैं। तीसरे स्थान ( ३।१७८) में इसके तीन प्रकार निर्दिष्ट हैंज्ञानमोह, दर्शनमोह और चारित्रमोह । वृत्तिकार ने ज्ञानमोह का अर्थ ज्ञानावतरण का उदय और दर्शनमोह का अर्थ सम्यग्दर्शन का मोहोदय किया है।' दोनों स्थलों में बोधि और बुद्ध के निरूपण के पश्चात् मोह और मूढ़ का निरूपण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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