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________________ ठाणं (स्थान) १४६ स्थान २: टि०१३६-१४० है। इससे प्रतीत होता है कि मोह बोधि का प्रतिपक्ष है । यहां मोह का अर्थ आवरण नहीं किन्तु दोष है । ज्ञानमोह होने पर मनुष्य का ज्ञान अयथार्थ हो जाता है। दृष्टिमोह होने पर उसका दर्शन भ्रान्त हो जाता है। चरित्रमोह होने पर आचारमूढता उत्पन्न हो जाती है । चेतना में मोह या मूढता उत्पन्न करने का कार्य ज्ञानावरण नहीं, किन्तु मोह कर्म करता है। १३६ (सू० ४२८) देखें २।२५६-२६१ का टिप्पण। १३७ (सू० ४३१) उत्तराध्ययन सूत्र' (३३।१५) में अन्तराय कर्म के पांच प्रकार बतलाए गए हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । प्रस्तुत सूत्र में उसके दो प्रकार निर्दिष्ट हैं१. प्रत्युत्पन्न विनाशित—इसका कार्य है, वर्तमान लब्ध वस्तु को विनष्ट करना, उपहत करना। २. पिधत्ते आगामि पथ-इसका कार्य है, भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करना। ये दोनों प्रकार अनन्तराय कर्म के व्यापक स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं, दानान्त राय आदि इसके उदाहरण मात्र हैं। १३८ कैवलिको आराधना (सू० ४३५) कैवलिकी आराधना का अर्थ है-केवली द्वारा की जाने वाली आराधना। यहां केवली शब्द के द्वारा श्रुतकेवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी-इन चारों का ग्रहण किया गया है। श्रुतकेवली और केवली ये दो शब्द आगम-साहित्य में अनेक स्थानों में प्रयुक्त हैं, परन्तु अवधिकेवली और मनःपर्यवकेवली इनका प्रयोग विशेष नहीं मिलता। केवल स्थानांग में एक जगह मिलता है। स्थानांग के तीसरे स्थानक में तीन प्रकार के जिन बतलाए गए हैं-अवधिजिन, मनःपर्यवजिन और केवलीजिन । जिस प्रकार अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी को प्रत्यक्षज्ञानी होने के कारण जिन कहा गया है उसी प्रकार उन्हें प्रत्यक्षज्ञानी होने के कारण केवली कहा गया है। १३६ (सू० ४३७) कैवलिकी आराधना दो प्रकार की होती है१. अन्तक्रिया-(देखें टिप्पण ४११) २. कल्पविमानोपपत्तिका-प्रवेयक अनुत्तरविमान में उत्पन्न होने योग्य ज्ञान आदि की आराधना । यह श्रुतकेवली आदि के ही होती है।' १४०-सुभूम (सू० ४४८) परशुराम के पिता को कार्तवीर्य ने मार डाला। इससे परशुराम का क्रोध तीव्र हो गया और उसने युद्ध में कार्तवीर्य को मारकर उसका राज्य ले लिया। उस समय महारानी तारा गर्भवती थी। उसने वहां से पलायन कर एक आश्रम में शरण ली। एक दिन उसने पुत्र का प्रसव किया। उस बालक ने अपने दांतों से भूमि को काटा। इससे उसका नाम सुभूम रखा। अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए परशुराम ने सात बार पृथ्वी को निःक्षत्रिय बना डाला। जिन राजाओं १. उत्तराध्ययनसूत्र, ३३।१५ : दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे बीरिए तहा । पंचविहमन्तराय, समासेण वियाहियं ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६३: । केवलिना-श्रुतावधिमनःपर्याय केवलज्ञानिनामिय कैवलिकी सा चासावाराधना चेति कैवलिक्याराधनेति । ३. स्थानांग सूत्र ३१५१३ ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ६३ : कल्पाश्च–सौधर्मादयो विमानानि च तदुपरिवत्तिअवेयकादीनि कल्पविमानानि तेषूपपत्तिः-उपपातो जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमानोपपत्ति का ज्ञानाद्याराधना, एष । च श्रुतकेवल्यादीनां भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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