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________________ ठाणं (स्थान) १५० स्थान २ : टि० १४१ को वह मार डालता, उनकी दाढ़ाओं को एकत्रित कर रखता था। इस प्रकार दाढ़ाओं के ढेर लग गए। सुभूम उसी आश्रम में बढ़ने लगा। मेघनाद विद्याधर ने उससे मित्रता कर ली। जब विद्याधर ने यह जाना कि सुभूम भविष्य में चक्रवर्ती होगा, तब उसने अपनी पुत्री पद्मश्री का विवाह उससे करना चाहा। इस निमित्त से वह वहीं रहने लगा। एक बार परशुराम ने नैमित्तिक से पूछा-मेरा विनाश किससे होगा? नैमित्तिक ने कहा---'जो व्यक्ति इस सिंहासन पर बैठेगा और थाल में रखी हुई इन दाढ़ाओं को खा लेगा वही तुमको मारने वाला होगा।' परशराम ने उस व्यक्ति की खोज के लिए एक उपाय ढंढ़ निकाला। उसने एक दानशाला खोल दी। वहां प्रत्येक आगंतुक को भोजन दिया जाने लगा। उसके द्वार पर एक सिंहासन रखा और उस पर दाढ़ाओं से भरा थाल रख दिया। इस प्रकार युछ काल बीता । एक बार सुभूम ने अपनी माता से पूछा-मां ! क्या संसार इतना ही है (इस आश्रम जितना ही है)? या दूसरा भी है ? मां ने अपने पति की मृत्यु से लेकर घटित सारी घटनाएं उसे एक-एक कर बता दी। सुभूम का अहंभाव जाग उठा ! वह उसी क्षण आश्रम से चला और हस्तिनागपुर में आ पहुंचा। उसने एक परिव्राजक का रूप बनाया और परशुराम की दानशाला में दान लेने गया। वहां द्वार पर रखे हुए सिंहासन पर जा बैठा। उसका स्पर्श पाते ही वे दाढ़ाएं पकवान के रूप में परिणत हो गई। यह देख वहां के ब्राह्मणों ने उस पर प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया। विद्याधर मेघनाद के विद्या के बल से वे प्रहार उन्हीं पर होने लगे। ___ सुभूम विश्वस्त होकर भोजन करने लगा। वहां के ब्राह्मणों ने परशुराम से जाकर सारी बात कही। परशुराम का क्रोध जाग उठा । वह सन्नद्ध होकर वहां आया। उसने विद्याबल से अपने पशु को सुभूम पर फेंका। सुभूम ने भोजन का थाल अपने हाथ में लिया। वह चक्र के रूप में परिणत हो गया। उसने उस चक्र को परशुराम पर फेंका। परशुराम का सिर कटकर धड़ से अलग हो गया। सुभम का अभिमान और अधिक उत्तेजित हुआ और उसने इक्कीस बार भूमि को निःब्राह्मण बना डाला। मरकर वह नरक में गया। १४१–ब्रह्मदत्त (सू० ४४८) कांपिल्यपुर में ब्रह्म नाम का राजा राज्य करता था। उसकी भार्या का नाम चुलनी और पुत्र का नाम ब्रह्मदत्त था। जब राजा की मृत्यु हुई तब ब्रह्मदत्त की अवस्था छोटी थी। अतः राजा के मित्र कोशलदेश के नरेश दीर्घ ने राज्यभार संभाला और व्यवस्था में संलग्न हो गया। रानी चुलनी के साथ उसका अवैध सम्बन्ध हो गया। यह बात कुमार ब्रह्मदत्त ने अपने मंत्री धनु से जान ली। उसने प्रकारान्तर से यह बात अपनी मां चुलनी से कही। दीर्घ और चुलनी को इससे आघात पहुंचा। उन्होंने ब्रह्मदत्त को मारने का षड्यन्त्र रचा। किन्तु मन्त्री के पुत्र वरधनु की बुद्धि-कौशल से वह बच गया। वाराणसी के राजा कटक से मिलकर ब्रह्मदत्त ने अनेक राजाओं को अपने पक्ष में कर लिया। जब सारी शक्ति जुट गई तब एक दिन कांपिल्यपुर पर चढ़ाई कर दी। राजा दीर्घ के साथ घमासान युद्ध हुआ। दीर्घ युद्ध में मारा गया। ब्रह्मदत्त वहाँ का राजा हो गया। एक बार मधुकरी गीत नामक नाट्य-विधि को देखते-देखते उसे जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने पूर्वभव देखा और अपने महामात्य वरधनु से कहा---'आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा'---इस श्लोकार्द्ध का सर्वत्र प्रसार करो और यह घोषणा करो कि जो कोई इसकी पूर्ति करेगा उसे आधा राज्य दिया जाएगा। कांपिल्यपुर के बाहर मनोरम नामक कानन में एक मुनि ध्यानस्थ खड़े थे। वहां एक रहट चलाने वाला व्यक्ति घोषित श्लोकार्द्ध को बार-बार दुहराने लगा। मुनि ने कायोत्सर्ग सम्पन्न किया और ध्यानपूर्वक श्लोकार्द्ध को सुना। उन्हें मारी घटनाए स्मृत हो गई। उन्होंने उस श्लोक की पूर्ति करते हुए कहा 'एषा नोः षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः।। रहट चलाने वाले ने ये दोनों चरण एक पत्ते पर लिख दिए और दौड़ा-दौड़ा वह राज्यसभा में पहुंचा। श्लोक का अवशिष्ट भाग सुनाया। सुनते ही राजा मूच्छित हो गया। सचेत होने पर वह कानन में आया और अपने भाई को मुनि देश में देख गद्गद् हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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