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ठाणं (स्थान)
स्थान २ : टि० १४२-१४३
मुनि ने राजा को संसार की अनित्यता और भोगों की क्षणभंगुरता का उपदेश दिया और उसे प्रवजित हो जाने के लिए कहा। राजा ब्रह्मदत्त ने कहा-'मुने ! आपका कथन यथार्थ है। भोग आसक्ति पैदा करते हैं, यह मैं जानता हूं। किन्तु आर्य ! हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए वे दुर्जेय हैं। मेरा कर्म बंधन निकाचित है। पिछले भव में मैं चक्रवर्ती सनत्कुमार की अपार ऋद्धि को देखकर भोगों में आसक्त हो गया था। उस समय मैंने अशुभ निदान (भोग-संकल्प) कर डाला कि यदि मेरी तपस्या और संयम का फल है तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती बनें । इसका मैंने प्रायश्चित्त नहीं किया। उसी का यह फल है कि मैं धर्म को जानता हुआ भी काम-भोगों में मूच्छित हो रहा हूं। जैसे दलदल में फंसा हुआ हाथी स्थल को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता, वैसे ही काम-गुणों में फंसे हुए हम श्रमण-धर्म को जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं कर सकते।' मुनि राजा के गाढ़ मोहावरण को जान मौन हो गए।
राजा ब्रह्मदत्त बारहवां चक्रवर्ती हुआ। उसने अनुत्तर काम-भोगों का सेवन किया और अन्त में मरकर नरक में उत्पन्न हुआ।
१४२ असुरेन्द्र वजित (सू० ४४६)
असुरेन्द्र चमर और बली के सामानिक देवों की आयु भी उन्हीं के समान होती है, इसलिए चमर और बलि के साथ उनको भी वणित समझना चाहिए।
१४३ दो इन्द्र (सू० ४६०)
आनत और आरण तथा प्राणत और अच्युत--इन चारों देवलोकों के दो इन्द्र हैं। इसलिए चारों कल्पों के देवों का दो इन्द्रों में संग्रह किया है।
१. विस्तृत कथानक के लिए देखें
उत्त रज्झयणाणि तेरहवें अध्ययन का आमुख ।
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