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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : टि०६२
वे प्रतिदिन आयंबिल करते हैं, एकाकी रहते हैं, दस गुणोपेत स्थंडिल में ही उच्चार तथा जीर्ण वस्त्रों का परित्याग करते हैं, विशेष धति वाले होते है, भिक्षा तीसरे प्रहर में ग्रहण करते हैं, मासकल्पविहार करते हैं, एक गली में छह दिनों से पहले भिक्षा के लिए नहीं जाते तथा इनके ठहरने का स्थान एकान्त होता है। स्थविरकल्पस्थिति--
जो संघ में रहकर साधना करते हैं, उनकी आचारविधि को स्थविरकल्पस्थिति कहा जाता है। वे पठन-पाठन करते हैं, शिष्यों को दीक्षा देते हैं, उनका वास अनियत रहता है तथा वे दस सामाचारी का सम्यक अनुपालन करते हैं।
देखें ६।१०३ का टिप्पण
६२-प्रत्यनीक (सू० ४८८-४६३) :
प्रत्यनीक का अर्थ है प्रतिकूल । प्रस्तुत आलापक में प्रतिकूल व्यक्तियों के विभिन्न दृष्टियों से वर्गीकरण किए गए हैं।
प्रथम वर्गीकरण तत्त्व-उपदेष्ट या ज्येष्ठा की अपेक्षा से है। आचार्य और उपाध्याय तत्त्व के उपदेष्टा होते हैं। स्थविर तत्त्व के उपदेष्टा भी हो सकते हैं या जन्मपर्याय आदि से बड़े भी हो सकते हैं। जो व्यक्ति अवर्णवाद, छिद्रान्वेषण आदि के रूप में उनके प्रतिकूल व्यवहार करता है, वह गुरु की अपेक्षा से प्रत्यनीक होता है।
दूसरा वर्गीकरण जीवन-पर्याय की अपेक्षा से है। इहलोक और परलोक के दो-दो अर्थ किए जा सकते हैं-वर्तमान जीवनपर्याय और आगामी जीवनपर्याय तथा मनुष्य जीवन और तिर्यंचजीवन।
जो मनुष्य वर्तमान जीवन के प्रतिकूल व्यवहार करता है-पंचाग्नि साधक तपस्वी की भांति इंद्रियों को अज्ञानपूर्ण तप से पीड़ित करता है या इहलोकोपकारी भोग-साधनों के प्रति अविवेक पूर्ण व्यवहार करता है या मनुष्य जाति के प्रति निर्दय व्यवहार करता है, वह इहलोक प्रत्यनीक कहलाता है।
जो मनुष्य इंद्रियों के विषयों में आसक्त होता है या ज्ञान आदि लोकोत्तर गुणों के प्रति उपद्रवपूर्ण व्यवहार करता है या पशु-पक्षी जगत् के प्रति निर्दय व्यवहार करता है, वह परलोक प्रत्यनीक कहलाता है।
___ जो मनुष्य चोरी आदि के द्वारा इंद्रिय विषयों का साधन करता है या मनुष्य और तिर्यच दोनों जातियों के प्रति निर्दय व्यवहार करता है, वह उभयप्रत्यनीक कहलाता है ।
उक्त निरूपण से स्पष्ट होता है कि जैनधर्म इंद्रिय-संताप और इन्द्रिय-आसक्ति दोनों के पक्ष में नहीं है।
तीसरा वर्गीकरण समूह की अपेक्षा से है। कुल से गण और गण से संघ वृहत् होता है। ये लौकिक और लोकोत्तर दोनों पक्षों में होते हैं । जो मनुष्य इनका अवर्णवाद बोलता है, इन्हें विघटित करने का प्रयत्न करता है, वह कुल आदि का प्रत्यनीक होता है।
चौथा वर्गीकरण अनुकम्पनीय व्यक्तियों की अपेक्षा से है। तपस्वी (मासोपवास आदि तप करने वाला), ग्लान (रोग, वृद्धता आदि से असमर्थ) और शैक्ष (नव दीक्षित)-ये अनुकम्पनीय माने जाते हैं। जो मुनि इनको उपष्टम्भ नहीं देता, इनकी सेवा नहीं करता, वह तपस्वी आदि का प्रत्यनीक होता है।
पांचवां वर्गीकरण कर्मविलय-जनित पर्याय की अपेक्षा से है। जो व्यक्ति ज्ञान को समस्याओं की जड़ और अज्ञान को सुख का हेतु मानता है, वह ज्ञान-प्रत्यनीक होता है। इसी प्रकार दर्शन और चारित्न की व्यर्थता का प्रतिपादन करने वाला दर्शन और चरित्र का प्रत्यनीक होता है । इनकी वितथ व्याख्या करने वाला भी इनका प्रत्यनीक होता है।
छठा वर्गीकरण शास्त्र-ग्रन्थों की अपेक्षा से है। संक्षिप्त मूलपाठ को सूत्र, उसकी व्याख्या को अर्थ, पाठ और अर्थ मिश्रित रचना को तदुभय (सूत्रार्थात्मक) कहा जाता है। सूत्रपाठ का यथार्थ उच्चारण न करने वाला सूत्र-प्रत्यनीक और उसकी तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करने वाला अर्थ-प्रत्यनीक कहलाता है।
इस प्रतिकूलता का प्रतिपादन सूत्र और अर्थ की प्रामाणिकता नष्ट न हो, इस दृष्टि से किया गया प्रतीत होता । इस प्रकार के प्रयत्न का उल्लेख बौद्ध साहित्य में भी मिलता है
भगवान् बुद्ध ने कहा-भिक्षुओ! दो बातें सद्धर्म के नाश का, उसके अन्तर्धान का कारण होती है। कौन सी दो बातें ?
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