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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३: टि०६३-६६
पाली के शब्दों का व्यतिक्रम तथा उनके अर्थ का अनर्थ करना।
भिक्षुओ! पाली के शब्दों का व्यतिक्रम होने से उनके अर्थ का भी अनर्थ होता है। भिक्षुओ! ये दो बातें सद्धर्म के नाश का, उसके अन्तर्धान का कारण होती हैं।
भिक्षुओ ! दो बातें सद्धर्म की स्थिति का, उसके नाश न होने का, उसके अन्तर्धान न होने का कारण होती हैं। कौन सी दो बातें?
पाली के शब्दों का ठीक-ठीक क्रम तथा उनका सही-सही अर्थ । भिक्षुओ! पाली के शब्दों का क्रम ठीक-ठीक रहने से उनका अर्थ भी सही-सही रहता है। भिक्षुओ ! ये दो बातें सद्धर्म की स्थिति का, उसके नाश न होने का, उसके अन्तर्धान न होने का कारण होती हैं।'
६३-(सू. ४६६) :
महानिर्जरा-निर्जरा नवसद्भाव पदार्थों में एक पदार्थ है। इसका अर्थ है बंधे हुए कर्मों का क्षीण होना। कर्मों का विपुल मात्रा में क्षीण होना महानिर्जरा कहलाता है।
महापर्यवसान-इसके दो अर्थ होते हैं-समाधिमरण और अपुनर्मरण। जिस व्यक्ति के महानिर्जरा होती है वह समाधिपूर्ण मरण को प्राप्त होता है । यदि सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाती है तो वह अपुनर्मरण को प्राप्त होता है-जन्ममरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
एकल विहारप्रतिमादेखें-८१ का टिप्पण।
६४–प्रतियानऋद्धि (सू. ५०३) :
अतियान ऋद्धि-अतियान का अर्थ है नगर-प्रवेश। ऋद्धि का अर्थ है शोभा या सजावट । जब राजा या राजा के अतिथि आदि विशिष्ट व्यक्ति नगर में आते थे उस समय नगर के तोरण-द्वार सज्जित किए जाते थे, दुकानें सजाई जाती धी और राजपथ पर हजारों आदमी एकत्रित होते थे, इसे अतियानऋद्धि कहा जाता था।
६५---निर्याणऋद्धि (सू. ५०३) :
निर्याणऋद्धि-इसका अर्थ है नगर से निर्गमन के समय साथ चलने वाला वैभव । जब राजा आदि विशिष्ट व्यक्ति नगर से निर्गमन करते थे उस समय हाथी, सामन्त, परिवार आदि के लोग उनके साथ चलते थे।'
६६-(सू. ५०७)
प्रस्तुत मूत्र में धर्म के तीन अंगों-अध्ययन, ध्यान और तपस्या का निर्देश है । इनमें पौर्वापर्य का संबंध है । अध्ययन के बिना ध्यान और ध्यान के बिना तपस्या नहीं हो सकती। पहले हम किसी बात को अध्ययन के द्वारा जानते हैं, फिर उसके आशय का ध्यान करते हैं। चिंतन, मनन और अनुप्रेक्षा करते हैं। फिर उसका आचरण करते हैं । स्वाख्यात धर्म का यही श्रम है। भगवान् महावीर ने इसी क्रम का प्रतिपादन किया था। दूसरे स्थान में धर्म के दो प्रकार बतलाए गए हैं - श्रुतधर्म और चारित्रधर्म। यहां निर्दिष्ट तीन प्रकारों में से सु-अधीत और सु-ध्यात श्रुतधर्म के प्रकार हैं और सु-तपस्थित चरित्नधर्म का प्रकार है।
१. अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृ०६१। २. स्थानांगवृत्ति पन १६२ : अतियानं- नगरप्रवेश , तत्र ऋद्धिः
-तोरणहट्टशोभाजनसम्मदिलक्षणा ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १६२ : निर्यानं–नगरान्निर्गमः, तत्र ऋद्धिः
हस्ति कल्पनसामन्तपरिवारादिका । ४. स्थानांग २।१०७१
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