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________________ ठाणं (स्थान) ६७-६६--- जिन, केवली, अर्हत् (सू० ५१२ - ५१४) इन तीन सूत्रों में जिन, केवली और अर्हत के तीन-तीन विकल्प निर्दिष्ट हैं । अर्हत् और जिन ये दोनों शब्द जैन और दोनों के साहित्य में प्रयुक्त हैं । केवली शब्द का प्रयोग मुख्यतः जैन साहित्य में मिलता है। ज्ञान की दृष्टि से दो प्रकार के मनुष्य होते हैं १. परोक्षज्ञानी २. प्रत्यक्षज्ञानी । जो मनुष्य इंद्रियों के माध्यम से ज्ञेय वस्तु को जानते हैं, वे परोक्षज्ञानी होते हैं। प्रत्यक्षज्ञानी इंद्रियों का आलम्बन लिए बिना ही ज्ञेय वस्तु को जान लेते हैं । वे अतीन्द्रियज्ञानी भी कहलाते हैं। यहां प्रत्यक्षज्ञानी या अतीन्द्रियज्ञानी को ही जिन, केवली और अहं कहा गया है। १०० - ( सू० ५२० ) : जिस समय कृष्ण आदि अशुद्ध लेश्याएं न शुद्ध होती हैं और न अधिक संक्लिष्टता की ओर बढ़ती है, उस समय स्थितलेश्य मरण होता है । कृष्णलेश्या वाला जीव मरकर कृष्णलेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता हैं, तब यह स्थिति होती है। २८३ संक्लिष्ट लेश्य जब अशुद्ध लेश्या अधिक संक्लिष्ट होती जाती है, तब संक्लिष्टलेश्यमरण होता है । नील आदि लेश्या वाला जीव मरकर जब कृष्णलेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता है तब यह स्थिति होती है । पर्यवजातलेश्य -- अशुद्धलेश्या जब शुद्ध बनती जाती है, तत्र पर्यवजातमरण होता है । कृष्ण या नीललेश्या वाला जीव जब मरकर कापोतलेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता है, तब यह स्थिति होती है । १०२ - ( सू० ५२३ ) : स्थान ३ : टि० ६७-१०३ १०१ - ( सू० ५२२ ) : प्रस्तुत सूत्र में दूसरा [असंक्लिष्टलेश्य ] और तीसरा [ अपर्यवजातलेश्य ] — ये दोनों भेद केवल विकल्प रचना की दृष्टि से ही है। Jain Education International प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं अक्षम -- असंगतता । अनानुगामिकता -- अशुभअनुबंध, अशुभ की शृंखला । शंकित - ध्येय या कर्तव्य के प्रति संशयशील । १०३ - विग्रहगति ( सू० ५२६ ) : देखें -- २०१६१ का टिप्पण । कांक्षित - ध्येय या कर्त्तव्य के प्रतिकूल सिद्धान्तों की आकांक्षा करने वाला । विचिकित्सित - ध्येय या कर्त्तव्य से प्राप्त होने वाले फल के प्रति संदेह करने वाला । भेदसमापन्न - संदेहशीलता के कारण ध्येय या कर्त्तव्य के प्रति जिसकी निष्ठा खंडित हो जाती है, वह भेदसमापन्न कहलाता है। कलुषसमापन्न – संदेहशीलता के कारण ध्येय या कर्तव्य को अस्वीकार कर देता है, वह कलुषसमापन्न कहलाता हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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