SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) २८० स्थान ३ : टि०८६-६१ ८६-(सू० ४३८) : ___ संक्लेश शब्द के कई अर्थ होते हैं, जैसे--असमाधि, चित्त की मलिनता, अविशुद्धि, अरति और रागद्वेष की तीव्र परिणति। आत्मा की असमाधिपूर्ण या अविशुद्ध परिणामधारा से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पतन होता है, उनकी विशुद्धि नष्ट होती है, इसलिए उसे क्रमशः ज्ञानसंक्लेश, दर्शनसंक्लेश और चारित्रसंक्लेश कहा जाता है। ८७-६०-(सू० ४४०-४४३) : ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आठ-आठ आचार होते हैं। उनके प्रतिकूल आचरण करने को अनाचार कहा जाता है। उसके चार चरण हैं। चतुर्थ चरण में वह अनाचार कहलाता है। उसका प्रथम चरण है प्रतिकूल आचरण का संकल्प, यह अतिक्रम कहलाता है। उसका दूसरा चरण है प्रतिकुल आचरण का प्रयत्न, यह व्यतिक्रम कहलाता है। उसका तीसरा चरण है प्रतिकूल आचरण का आंशिक सेवन, यह अतिचार कहलाता है। प्रतिकूल आचरण का पूर्णतः सेवन अनाचार की कोटि में चला जाता है। ६१-(सू० ४८२) : सामायिक कल्पस्थिति यह कल्पस्थिति प्रथम तथा अंतिम तीर्थकर के समय में अल्पकाल की होती है तथा शेष बाईस तीर्थंकरों के समय में और महाविदेह में यावत्कथिक जीवन पर्यन्त तक होती है। इस कल्प के अनुसार शय्यातरपिंडपरिहार, चातुर्यामधर्म का पालन, पुरुषज्येष्ठत्व तथा कृतिकर्म-ये चार आवश्यक होते हैं तथा श्वेतवस्त्र का परिधान, औद्देशिक (एक साधु के उद्देश्य से बनाए हुए) आहार का दूसरे सांभोगिक द्वारा अग्रहण, राजपिंड का अग्रहण, नियत प्रतिक्रमण, मास-कल्पविहार तथा पर्युषणाकल्प-ये वैकल्पिक होते हैं। छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति यह कल्पस्थिति प्रथम तथा अन्तिम तीर्थकर के समय में ही होती है। इस कल्प के अनुसार उपरोक्त दस कल्पों का पालन करना अनिवार्य है। निर्विशमान कल्पस्थिति, निविष्ट कल्पस्थिति परिहारविशुद्धचरित्र में नव साधु एक साथ अवस्थित होते हैं। उनमें चार साधु पहले तपस्या करते हैं। उन्हें निर्विशमान कल्पस्थिति साधु कहा जाता है। चार साधु उनकी परिचर्या करते हैं तथा एक साधु आचार्य होते हैं । पूर्व चार साधुओं की तपस्या के पूर्ण हो जाने पर शेष चार साधु तपस्या करते हैं तथा पूर्व तपोभितप्त साधु उनकी परिचर्या करते हैं। उन्हें निविष्टकल्प कहा जाता है। दोनों दलों की तपस्या हो जाने के बाद आचार्य तपोवस्थित होते हैं और शेष आठों ही साधू उनकी परिचर्या करते हैं। नवों ही साधु जघन्यतः नवें पूर्व की तीसरी आचार नामक वस्तु तथा उत्कृष्टतः कुछ न्यून दस पूर्वो के ज्ञाता होते हैं। निविंशमान साधुओं की कल्पस्थिति का क्रम निम्ननिर्दिष्ट रहता है-वे ग्रीष्म, शीत तथा वर्षाऋतु में जघन्य में क्रमश: चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त और अष्टमभक्त ; मध्यम में क्रमशः षष्ठभक्त, अष्टभक्त और दशमभक्त ; उत्कृष्ट में क्रमशः अष्टमभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त की तपस्या करते हैं। पारणा में भी साभिग्रह आयम्बिल की तपस्या करते हैं। शेष साधु भी इस चरित्रावस्था में आयम्बिल करते हैं। जिनकल्पस्थिति विशेष साधना के लिए जो संघ से अलग होकर रहते हैं, उनकी आचार-मर्यादा को जिनकल्प स्थिति कहा जाता है। १. देखें ५११४७ का टिप्पण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy