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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : टि०८१-८५
प्रदान के पांच प्रकार
१. धनोत्सर्ग-धन का विसर्जन। २. प्रतिदान-गृहीतधन का अनुमोदन । ३. अपूर्वद्रव्यदान-अपूर्वद्रव्य का दान करना। ४. स्वयंग्राहप्रवर्तन-दूसरे के धन के प्रति स्वयं ग्रहणपूर्वक प्रवर्तन करना। ५. देयप्रतिमोक्ष-ऋण चुकाना।
८१-(सू० ४०२):
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के आशय इस प्रकार हैंशुद्धतरदृष्टि से सभी वस्तुएं आत्म-प्रतिष्ठित होती हैं। शुद्धदृष्टि से सभी वस्तुएं आकाश-प्रतिष्ठित होती हैं। अशुद्धदृष्टि-लोक व्यवहार से सब वस्तुएं पृथ्वी प्रतिष्ठित होती हैं।
५२-मिथ्यात्व (सू० ४०३) :
प्रस्तुत सूत्र में मिथ्यात्व का प्रयोग मिथ्यादर्शन या विपरीततत्त्वश्रद्धान के अर्थ में नहीं है। यहां इसका अर्थ असमीचीनता है।
८३-(सू० ४०४) :
प्रस्तुत सूत्र में अक्रिया के तीन प्रकार बतलाए गए हैं और उनके प्रकारों में क्रिया शब्द का व्यवहार हुआ है । वृत्तिकार ने उसी का समर्थन किया है। ऐसा लगता है यहां अकार लुप्त है। प्रयोग क्रिया का अर्थ प्रयोग अक्रिया अर्थात् असमीचीन प्रयोगक्रिया होना चाहिए। वृत्तिकार ने देसणाण आदि तीनों पदों की देश अज्ञान और देशज्ञान-इन दोनों रूपों में व्याख्या की है। उनमें जैसे अकार का प्रश्लेष माना है, वैसे पओगकिरिया आदि पदों में क्यों नहीं माना जा सकता?
८४-(सू० ४२७) :
देखें १३८७-३८६ का टिप्पण।
८५-(सू० ४३२) :
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैंउद्गमउपघात-आहार की निष्पत्ति से सम्बन्धित भिक्षा-दोष, जो गृहस्थ द्वारा किया जाता है। उत्पादनउपघात-आहार के ग्रहण से सम्बन्धित भिक्षा-दोष, जो साधु द्वारा किया जाता है। एषणाउपघात-आहार लेते समय होने वाला भिक्षा-दोष, जो साधु और गृहस्थ दोनों द्वारा किया जाता है।
१. स्थानांगवृत्ति, पन १४३ : अक्रिया हि प्रशोभना क्रियवा
तोऽक्रिया त्रिविधेत्यभिधायापि प्रयोगेत्यादिना क्रियेवोक्ता। २. स्थानांगवृत्ति, पन १४४ : ज्ञानं हि द्रव्यपर्यायविषयो बोधस्तनिषेधोजानं तत्र विवक्षितद्रव्यं देशतो यदा न जानाति तदा
देशाज्ञानमकारप्रश्लेषात्, यदा च सर्वतस्तदा सर्वाज्ञानं, यदा विवक्षितपर्यायतो न जानाति तदा भावाज्ञानमिति, अथवा देशादिज्ञानमपि मिथ्यात्वविशिष्टमज्ञानमेवेति अकारप्रश्लेष विनापि न दोष इति ।
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