________________
ठाणं (स्थान)
२७८
स्थान ३ : टि०८०
हैं। सूत्रकार ने किन ग्रन्थों की ओर संकेत किया है, यह उनकी उपलब्धि के अभाव में निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता; पर इस कोटि के ग्रंथों की परम्परा रही है, इसकी पुष्टि आचार्य कुंदकुंद के बोधप्राभृत, दर्शनप्राभूत और चरित्रप्राभूत से होती है। ३।५११ में तीन प्रकार के अन्त (निर्णय) बतलाए गए हैं, वे प्रस्तुत विषय से ही सम्बन्धित हैं।
८०-(सू० ४००):
प्रस्तुत सूत्र में साम, दण्ड और भेद-ये तीन अर्थयोनि के रूप में निर्दिष्ट हैं। चाणक्य ने शासनाधीन संधि और विग्रह के अनुष्ठानोपयोगी उपायों का निर्देश किया है । वे चार हैं-साम, उपप्रदातन, भेद और दण्ड ।' वृत्तिकार ने बताया है-किसी पाठ-परंपरा में दण्ड के स्थान पर प्रदान पाठ माना जाता है। इस पाठान्तर के आधार पर चाणक्य-निर्दिष्ट उपप्रदान भी इसमें आ जाता है।
चाणक्य ने साम के पांच, भेद के दो और दण्ड के तीन प्रकार बतलाए हैं। साम के पांच प्रकार
१. गुणसंकीर्तनं-स्तुति। २. सम्बन्धोपाख्यानं-सम्बन्ध का कथन करना। ३. परस्परोपकारसन्दर्शनं-परस्पर किए हुए उपकारों का वर्णन करना। ४. आपत्तिप्रदर्शनं भविष्य के सुनहले स्वप्न का प्रदर्शन करना।
५. आत्मोपनिधानं-सामने वाले व्यक्ति के साथ अपनी एकता प्रदर्शित करना। भेद के दो प्रकार
१. शंकाजननं-संदेह उत्पन्न कर देना।
२. निर्भर्त्सनं-भर्त्सना करना। दण्ड के तीन प्रकार
१. वध । २. परिक्लेश। ३. अर्थहरण ।
वृत्तिकार ने कुछ श्लोक उद्धृत किए हैं। उनके आधार पर साम के पांच, दण्ड और भेद के तीन-तीन तथा पाठान्तर के रूप में प्राप्त प्रदान के पांच प्रकार बतलाए हैं। साम के पांच प्रकार--
१. परस्परोपकारदर्शन । २. गुणकीर्तन । ३. सम्बन्धसमाख्यान । ४. आयतिसंप्रकाशन । ५. अर्पण। दण्ड के तीन प्रकार
१. वध । २. परिक्लेश । ३. धनहरण । भेद के तीन प्रकार
१. स्नेहरागापनयन-स्नेह, राग का अपनयन करना। २. संहर्षोत्पादन-स्पर्धा उत्पन्न करना । ३. संतर्जन-तर्जना देना।
१. कौटलीयाऽर्थशास्त्रम्, अध्याय ३१, प्रकरण २८, पृ० ८३ :
उपायाः सामोपप्रदानभेददण्डाः । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र १४१, १४२ : १. परस्परोपकाराणां, दर्शनं गुणकीर्त्तनम् ।
सम्बन्धस्य समाख्यान, मायत्याः संप्रकाशनम् ।। २. वाचा पेशलया साधु, तवाहमिति चार्पणम् । इति सामप्रयोगः, साम पञ्चविघं स्मृतम् ॥
३. वधश्चव परिक्लेशो, धनस्य हरणं तथा ।
इति दण्डविधानॉर्दण्डोऽपि निविधः स्मृतः ।। ४. स्नेहरागापनयन, संहर्षोत्पादनं तदा।
सन्तर्जनं च भेद दस्तु विविधः स्मृतः ।। ५. यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः, उत्तमाधममध्यमः ।
प्रतिदानं तथा तस्य, गृहीतस्यानुमोदनम् ।। ६. द्रव्यदानमपूर्वं च, स्वयंग्राहप्रवर्तनम् ।
देयस्य प्रतिमोक्षश्च, दानं पञ्चविघं स्मृतम् ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org