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________________ ठाणं (स्थान) २७७ स्थान ३ : टि० ७६ श्रद्धा और श्रद्धानुसारीप्रयोग। दृष्टिकोण यदि सम्यक होता है तो श्रद्धा और प्रयोग दोनों सम्यक होते हैं। उसके मिथ्या और मिश्रित होने पर श्रद्धा और प्रयोग भी मिश्रित होते हैं। १. सम्यकदर्शन मिथ्यादर्शन सम्यमिथ्यादर्शन २. सम्यक्रुचि मिथ्यारुचि सम्यक्मिथ्यारुचि ३. सम्यक्प्रयोग मिथ्याप्रयोग सम्यमिथ्याप्रयोग ७६–व्यवसाय (सू० ३६५) : इन पांच सूत्रों का (३६५-३६६) विभिन्न व्यवसायों का उल्लेख है। व्यवसाय का अर्थ होता है--निश्चय, निर्णय और अनुष्ठान । निश्चय करने के साधनभूत ग्रन्थों को भी व्यवसाय कहा जाता है। प्रस्तुत पांच सूत्रों में विभिन्न दृष्टिकोणों से व्यवसाय का वर्गीकरण किया गया है। प्रथम वर्गीकरण धर्म के आधार पर किया गया है। दूसरा वर्गीकरण ज्ञान के आधार पर किया गया है। इसे देखते ही वैशेषिकदर्शन-सम्मत तीन प्रमाणों की स्मृति हो आती है। वैशेषिक सम्मत प्रमाण : प्रस्तुत वर्गीकरण १. प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष २. अनुमान प्रात्ययिक-आगम ३. आगम आनुगामिक-अनुमान वृत्तिकार ने प्रत्यक्ष और प्रात्ययिक के दो-दो अर्थ किए हैं। प्रत्यक्ष के दो अर्थ-यौगिक प्रत्यक्ष और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष । यहां ये दोनों अर्थ घटित होते हैं। प्रात्ययिक के दो अर्थ१. इन्द्रिय और मन के योग से होने वाला ज्ञान (व्यावहारिक प्रत्यक्ष)। २. आप्तपुरुष के वचन से होने वाला ज्ञान । तीसरा वर्गीकरण वर्तमान और भावी जीवन के आधार पर किया गया है। मनुष्य के कुछ निर्णय वर्तमान जीवन की दृष्टि से होते हैं, कुछ भावी जीवन की दृष्टि से और कुछ दोनों की दृष्टि से। ये क्रमश: इहलौकिक, पारलौकिक और इहलौकिक-पारलौकिक कहलाते हैं। चौथा वर्गीकरण विचार-धारा या शास्त्र-ग्रन्थों के आधार पर किया गया है। इस प्रकरण में मुख्यतः तीन विचारधाराएं प्रतिपादित हुई हैं-लौकिक, वैदिक और सामयिक।। लौकिक विचारधारा के प्रतिपादक होते हैं--अर्थशास्त्री, धर्मशास्त्री (समाजशास्त्री) और कामशास्त्री। ये लोग अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र (समाजशास्त्र) और कामशास्त्र के माध्यम से अर्थ, धर्म (सामाजिक कर्त्तव्य) और काम के औचित्य तथा अनौचित्य का निर्णय करते हैं। सूत्रकार ने इसे लौकिक व्यवसाय माना है। इस विचारधारा का किसी धर्म-दर्शन से सम्बन्ध नहीं होता। इसका सम्बन्ध लोकमत से होता है। वैदिक विचारधारा के आधारभूत ग्रन्थ तीन वेद हैं--ऋक्, यजु और साम । यहां व्यवसाय के निमित्तभूत ग्रन्थों को ही व्यवसाय कहा गया है। वृत्तिकार ने सामयिक व्यवसाय का अर्थ सांख्य आदि दर्शना के समय (सिद्धान्त) से होने वाला व्यवसाय किया है। प्राचीनकाल में सांख्यदर्शन श्रमण-परम्परा का ही एक अंग रहा है। उसी दृष्टि के आधार पर वृत्तिकार ने यहाँ मुख्यता से सांख्य का उल्लेख किया है। सामयिक व्यवसाय के तीन प्रकारों का दो नयों से अर्थ किया जा सकता है। ज्ञानव्यवसाय-ज्ञान का निश्चय या ज्ञान के द्वारा होने वाला निश्चय । दर्शनव्यवसाय-दर्शन का निश्चय । चरित्रव्यवसाय-चरित्र का निश्चय । दूसरे नय के अनुसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये श्रमणपरम्परा (या जैनशासन) के तीन मुख्य ग्रंथ माने जा सकते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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