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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३: टि० ६५-७८ ___ आचार्य, उपाध्याय और गणी भी विशिष्ट प्रजयोन उपस्थित होने पर अपने पद का त्याग कर देते थे। इसे विहान कहा जाता था।
६५-अल्पायुष्क (सू० ३६१) :
डा० बोरीक्लोसोन्सकी ने सोवियत अर्थ-पत्रिका में लिखा है---अन्तरिक्ष में पृथ्वी की अपेक्षा समय बहुत धीमी गति से बढ़ता है। यह तथ्य इसी तथ्य की ओर संकेत करता है कि देवता का मुहूर्त बीतता है और मनुष्य का जीवन ही बीत जाता है।
६६-७२-(सू० ३६२):
आचार्य-अर्थ की वाचना देने वाला-अनुयोगाचार्य । उपाध्याय-सूत्र पाठ की वाचना देने वाला। प्रवर्तक-वैयावृत्त्य तपस्या आदि में साधुओं की नियुक्ति करने वाला। स्थविर--संयम में अस्थिर होने वालों को पुन: स्थिर करने वाला। गणी-गणनायक। गणधर-साध्वियों के विहार आदि की व्यवस्था करने वाला।' गणावच्छेदक-प्रचार, उपाधि-लाभ आदि कारणों से गण से अन्यत्र विहार करने वाला।
७३-पानक (सू० ३७६) :
पानक को हिन्दी में पना कहा जाता है। प्राचीनकाल में आयुर्वेदिक-पद्धति के अनुसार द्राक्षा आदि अनेक द्रव्यों का पानक तैयार किया जाता था। यहां पानक शब्द धोबन तथा गर्म पानी के लिए भी प्रयुक्त किया गया है।
मूलाराधना' में पानक के छह प्रकार मिलते हैं१. स्वच्छ-उष्णोदक, सौवीर आदि। २. बहल-कांजी, द्राक्षारस तथा इमली का सार। ३. लेवड-लेपसहित (दही आदि)। ४. अलेवड-लेपरहित, मांड आदि । ५. ससिक्थ-पेया आदि। ६. असिक्थ-मंग का सूप आदि।
७४-७५–फलिकोपहृत, शुद्धोपहृत (सू० ३७६) :
फलिकोपहृत-कोई अभिग्रहधारी साधु उठाया हुआ लेता है, कोई परोसा हुआ लेता है और कोई पुनः पाकपात्र में डाला हुआ लेता है
देखें--आयारचूला १।१४५ ।
शुद्धोपहृत-देखें आयारचूला १।१४४ ७६-७८- (सू० ३६२-३९४) :
इन तीन सूत्रों में मनुष्यों के व्यवहार की कमिक भूमिकाओं का निर्देश है। मनुष्य में सर्वप्रथम दृष्टिकोण का निर्माण होता है। उसके पश्चात् उसमें रुचि या श्रद्धा उत्पन्न होती है। फिर वह कार्य करता है। इसका अर्थ होता है-दर्शनानुसारी१. विशेष जानकारी के लिए देखें वृहत्कल्पभाष्य ।
३. मूलाराधना, आश्वास २७०० । २. देखें-दसवेजालियं, ११।४७ का टिप्पण।
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