SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) २७५ स्थान ३ : टि० ६०-६४ है-अञ्जलि।' ग्लान अवस्था में भी मुनि तीन अञ्जलि से अधिक मादक द्रव्य नहीं ले सकता। निशीथसूत्र में ग्लान के लिए तीन अञ्जलि से अधिक मादक द्रव्य लेने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया है जे भिक्खू गिलाणस्सट्टाए परं तिण्हं वियडदत्तीणं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।। यह अपवाद सूत्र छेद सूत्रों की रचना के पश्चात् स्थानांगसूत्र में संक्रान्त हुआ, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उन्होंने विकट का अर्थ पानक और दत्ति का अर्थ एक धार में लिया जा सके उतना द्रव्य किया है। उन्होंने उत्कृष्ट, मध्य और जघन्य के अर्थ मात्रा और द्रव्य इन दोनों दृष्टियों से किए हैंउत्कृष्ट-(१) पर्याप्त जल, जिससे दिन-भर प्यास बुझाई जा सके। (२) कलमी चावल की कांजी। मध्यम-(१) अपर्याप्त जल, जिससे कई बार प्यास बुझाई जा सके। (२) साठी चावल की कांजी। जघन्य-(१) एक बार पिए उतना जल । (२) तृणधान्य की कांजी या गर्म पानी। वृत्तिकार ने अपने सामयिक वातावरण के अनुसार प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या की है, किन्तु 'गिलायमाणस्स' इस पाठ के सन्दर्भ में यह व्याख्या संगत नहीं लगती। पानक का विधान अग्लान के लिए भी है फिर ग्लान के लिए सूत्र रचना का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। दूसरी बात निशीय सूत्र के उन्नीसवें उद्देशक के सन्दर्भ में इस व्याख्या की संगति नहीं बिठाई जा सकती। ६०--सांभोगिक (सू० ३५०) : देखो समवाओ १२१२ का टिप्पण । ६१-६४–अनुज्ञा, समनुज्ञा, उपसंपदा, विहान (सू० ३५१-३५४) : इन चार सूत्रों में अनुज्ञा, समनुज्ञा, उपसंपदा और विहान-ये चार शब्द विमर्शनीय हैं। आचार्य, उपाध्याय और गणी-ये तीनों साधुसंघ के महत्त्वपूर्ण पद हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार ये आचार्य या स्थविरों के अनुमोदन से प्राप्त होते थे। वह अनुमोदन सामान्य और विशिष्ट दोनों प्रकार का होता था। सामान्य अनुमोदन को अनुज्ञा और विशिष्ट अनुमोदन को समनुज्ञा कहा जाता था। अनुमोदनीय व्यक्ति असमग्र गुणयुक्त और समग्र गुणयुक्त दोनों प्रकार के होते थे। असमग्र गुणयुक्त व्यक्ति को दिए जाने वाले अधिकार को अनुज्ञा तथा समग्रगुणयुक्त व्यक्ति को दिये जाने वाले अधिकार को समनुज्ञा कहा जाता था। प्राचीनकाल में ज्ञान, दर्शन और चारित की विशेष उपलब्धि के लिए अपने गण के आचार्य, उपाध्याय और गणी को छोड़कर दूसरे गण के आचार्य, उपाध्याय और गणी के शिष्यत्व स्वीकार करने की परम्परा प्रचलित थी। इसे उपसंपदा कहा जाता था। १. निशीथचूणि, १९६५, भाग ४, पृ० २२१; दत्तीए पमाणं पसती। २. निसोहज्झयण १९।५। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १३१ : तओ ति तिस्रः 'वियड' त्ति पानकाहार , तस्य दत्तय:-एकप्रक्षेपप्रदानरूपा: प्रतिग्रहीतुम् --आधयितु वेदनोपशमायेति, उत्कर्ष:-प्रकर्ष तद्योगादुत्कर्षा उत्कर्षतीति वोत्कर्षा उत्कृष्टेत्यर्थः, प्रचुरपानकलक्षणा, यया दिनमपि यापयति, मध्यमा ततो हीना, जघन्या यया सकृदेव वितृष्णो भवति यापनामानं वा लभते, अथवा पानकविशेषादुत्कृष्टाद्यावाच्याः, तथाहि-कलमकाञ्जिकावश्रावणादे; द्राक्षापानकादेर्वा प्रथमा १ षष्ठिका [दि] काञ्जिकादेमध्यमा २ तृणधान्यकाञ्जिकादेष्णोदकस्य वा जघन्येति, देशकालस्वरचिविशेषाद्वोत्कर्षादि नेयमिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy