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________________ ठाणं (स्थान) २७४ स्थान ३ : टि० ५८-५९ की क्रिया होती है, वे गतित्रस बहलाते हैं। जो जीव इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट निवारण के लिए इच्छापूर्वक गति करते वे लब्धिनस कहलाते हैं। प्रथम परिभाषा के अनुसार अग्नि और वायु बस हैं, किन्तु दूसरी परिभाषा के अनुसार वे त्रस नहीं हैं। प्रस्तुत सूत्र (३२६) में उनकी गति को लक्ष्य कर उन्हें नस कहा गया है। ५८ (सू० ३३७) : प्रस्तुत सूत्र का पूर्वपक्ष अकृततावाद है । आगम-रचनाशैली के अनुसार इसमें अन्ययूथिक शब्द का उल्लेख है, किन्तु इस वाद के प्रवर्तक का उल्लेख नहीं है। आगम साहित्य में प्रायः सभी वादों का अन्ययूथिक या अन्यतीथिक ऐसा मानते हैंइस रूप में प्रतिपादन किया गया है। बौद्ध पिटकों में विभिन्न वादों के प्रवर्तकों का प्रत्यक्ष उल्लेख मिलता है। दीघनिकाय के सामञ्जफल-सुत्त से पता चलता है कि प्रक्रुधकात्यायन अकृततावाद का प्रतिपादन करते थे। उसके अनुसार सुख और दुःख अकृत, अनिर्मित, अकूटस्थ और स्तंभवत् अचल हैं। भगवान् महावीर का कोई मुनि या श्रावक प्रक्रुधकात्यायन के इस मत को सुनकर आया और उसने भगवान् से इस विषय में पूछा तब भगवान् ने उसे मिथ्या बतलाया और दु.ख कृत होता है, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इसके पूर्ववर्ती सूत्र में भी दुःख कृत होता है, यह प्रतिपादित है। ये दोनों संवादसूत्र किसी अन्य आगम के मध्यवर्ती अंश हैं। तीन की संख्या के अनुरोध से ये यहां संकलित किए गए, ऐसा प्रतीत होता है। भगवान् बुद्ध ने इस अहेतुवाद की आलोचना की थी। अंगुत्तर-निकाय में इसका उल्लेख मिलता है भिक्षुओ ! जिन श्रमण-ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख, दुःख या अदुखअसुख अनुभव करता है, वह सब बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के, उनके पास जाकर मैं उनसे प्रश्न करता हूंआयुष्मानो ! क्या सचमुच तुम्हारा यह मत है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख, दुःख या अदुख-असुख अनुभव करता है, वह सब बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के ? मेरे ऐसा पूछने पर वे "हां" उत्तर देते हैं। तब मैं उनसे कहता हूं- तो आयुष्मानो! तुम्हारे मत के अनुसार बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी प्राणी-हिंसा करने वाले होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी चोरी करने वाले होते हैं, विना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी अब्राह्मचारी होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी झूठ बोलने वाले होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी चुगलखोर होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी कठोर बोलने वाले होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी व्यर्थ बकवास करने वाले होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी लोभी होते हैं, बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी क्रोधी होते हैं तथा बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी मिथ्यादृष्टि वाले होते हैं। भिक्षुओ! इस अहेतुवाद, इस अकारणवाद को ही साररूप ग्रहण कर लेने से यह करना योग्य है, और यह करना अयोग्य है, इस विषय में संकल्प नहीं होता, प्रयत्न नहीं होता। जब यह करना योग्य है और यह करना अयोग्य है, इस विषय में ही यथार्थ-ज्ञान नहीं होता तो इस प्रकार के मूढ़-स्मृति असंयत लोगों का अपने-आप को धार्मिक-श्रमण कहना सहेतुक नहीं होता। ५६-(सू० ३४६) : प्रस्तुत सूत्र अपवादसूत्र है । साधारणतया (उत्सर्ग मार्ग में ) मुनि के लिए मादक द्रव्यों का निषेध है । ग्लान अवस्था में आपवादिक मार्ग के अनुसार मुनि आसव आदि ले सकता है। प्रस्तुत सूत्र में उसकी मर्यादा का विधान है। दत्ति का अर्थ १. तत्त्वार्थसूत्रभाष्यानुसारिणी टीका, २०१४ : वसत्वं च द्विविध क्रियातो लब्धितश्च । २. दीघनिकाय, १२, १० २१ । ३. अंगुत्तरनिकाय, भाग १,पृ० १७६-१८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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