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________________ ठाणं (स्थान) २७३ स्थान ३ : टि० ५३-५७ ५३ स्थविर (सूत्र १८७) : देखें स्थान, १०।१३६ का टिप्पण। ५४-(सूत्र १८८): सूत्र १८८ से ३१४ तक में मनुष्य की विभिन्न मानसिक दशाओं का चित्रण किया गया है। यहाँ मन की तीन अवस्थाएं प्रतिपादित हैं १. सुमनस्कता-मानसिक हर्ष । २. दुर्मनस्कता-मानसिक विषाद । ३. मानसिक तटस्थता। इन सूत्रों से यह फलित होता है कि परिस्थिति का प्रभाव सब मनुष्यों पर समान नहीं होता। एक ही परिस्थिति मानसिक स्तर पर विभिन्न प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करती हैं। उदाहरण के लिए युद्ध की परिस्थिति को प्रस्तुत किया जा सकता है कुछ पुरुष युद्ध करता हूँ इसलिए सुमनस्क होते हैं। कुछ पुरुष युद्ध करता हूँ इसलिए दुर्मनस्क होते हैं। कुछ पुरुष युद्ध करता हूँ इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। ५५- (सूत्र ३२२) प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द ज्ञातव्य हैं-- १. अवक्रान्ति-उत्पन्न होना, जन्म लेना। २. हानि-यह निबुड्ढि (निवृद्धि) शब्द का अनुवाद है। गतिपर्याय और कालसंयोग :-देखें २।२५६ का टिप्पण समुद्घात : देखें ८।११४ का टिप्पण दर्शनाभिगम-प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा होने वाला बोध । ज्ञानाभिगम-प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा होने वाला बोध । जीवाभिगम-जीवबोध । ५६-५७ -त्रस, स्थावर (सूत्र ३२६, ३२७) पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पांच प्रकार के जीव स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहलाते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय--ये चार प्रकार के जीव त्रस नामकर्म के उदय से त्रस कहलाते हैं। यह स्थावर और त्रस की कर्मशास्त्रीय परिभाषा है । प्रस्तुत सूत्र [३२६, ३२७] तथा उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्ययन में स्थावर और त्रस का वर्गीकरण भिन्न प्रकार से प्राप्त होता है। इस वर्गीकरण के अनुसार पृथ्वी, पानी और वनस्पति--ये तीन स्थावर हैं। अग्नि, वायु और उदार वसप्राणी-ये तीन त्रस हैं। दिगम्बर परम्परा-सम्मत तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पांचों स्थावर हैं। श्वेताम्बर परम्परा-सम्मत तत्त्वार्थसूत्र में स्थावर और बस का विभाग प्रस्तुत सूत्र जैसा ही है।' इन दोनों परम्पराओं में कोई विरोध नहीं है। वस दो प्रकार के होते हैं-गतिवस और लम्धिनस । जिनमें चलने १. उत्तराध्ययन, ३६।६६ । २. उत्तराध्ययन, ३६।१०७ । ३. तत्त्वार्थसूत्र, २।१३ : पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावराः । ४. तत्त्वार्थमूत्र, २०१३, १४ : पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः। तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च वसाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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