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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : टि० ५०-५२
करुण शब्दों में दशपुर आने के लिए आर्य रक्षित से कहा। आर्यरक्षित ने अपने गुरु वज्रस्वामी से पूछा । आचार्य ने कहाअभी नहीं, अध्ययन में वाधा मत डालो। आर्यरक्षित अध्ययन में पुनः संलग्न हो गए। फल्गुरक्षित ने कहा-भ्रात ! तुम घर चलो और अपने कुटुम्बियों को दीक्षित कर अपना कर्त्तव्य निभाओ । आर्यरक्षित ने कहा--- यदि सभी दीक्षित होना चाहते हैं तो पहले तुम प्रव्रज्या ग्रहण करो।'
फल्गुरक्षित ने तत्काल कहा - भगवान् ! मैं तैयार हूं। आप मुझे व्रत की दीक्षा दें। आर्यरक्षित ने उसे प्रव्रजित कर दिया।
५०- परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध हो ली जाने वाली दीक्षा (सूत्र १८३ )
देखें-- १०११५ के टिप्पण के अन्तर्गत मेतार्य का कथानक ।
५१ - ( सूत्र १८४ )
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं
पुलाक - यह एक प्रकार की तप-जनित शक्ति है। इसे प्राप्त करने वाला बहुत शक्ति सम्पन्न हो जाता है। इस शक्ति का प्रयोग करना मुनि के लिए निषिद्ध होता है। किन्तु कभी क्रुद्ध होने पर वह उसका प्रयोग करता है और उस शक्ति के द्वारा दंडों का निर्माण कर बड़ी से बड़ी सेना को हत-प्रहृत कर देता है ।"
घात्यकर्म - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घात्यकर्म कहलाते हैं ।
५२ - शैक्ष भूमियां (सूत्र १८६ )
शैक्ष का अर्थ है - शिक्षा प्राप्त करने वाला ' तत्त्वार्थवात्र्तिक के अनुसार जो मुनि श्रुतज्ञान की शिक्षा में तत्पर और सतत व्रतभावना में निपुण होता है, वह शैक्ष कहलाता है। * प्रस्तुत सूत्र से उसका अर्थ सामायिक चारित्र वाला मुनि, नवदीक्षित मुनि फलित होता है ।
शैक्षभूमि का अर्थ है - सामायिक चारित्र का अवस्था काल । दीक्षा के समय सामायिक चारित्र स्वीकार किया जाता है । उसमें सर्व सावद्य प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान होता है। उसके पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र अंगीकार किया जाता है। उसमें पांच महाव्रत और रात्रिभोजन-विरमणव्रत को विभागशः स्वीकार किया जाता है।
सामायिक चारित्र की तीन भूमियां ( कालमर्यादाएं) प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित हैं। छह महीनों के पश्चात् निश्चित रूप से छेदोपस्थानीय चारित्र स्वीकार करना होता है।
व्यवहारभाष्य में शैक्षभूमियों की प्राचीन परम्परा का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार — कोई मुनि प्रव्रज्या से पृथक होकर पुनः प्रव्रजित होता है, वह पूर्व विस्मृत सामाचारी आदि की एक सप्ताह में पुनः स्मृति या अभ्यास कर लेता है, इसलिए उसे सातवें दिन में उपस्थापित कर देना चाहिए। यह शैक्ष की जघन्य भूमिका है ।
कोई व्यक्ति प्रथम बार प्रव्रजित होता है, उसकी बुद्धि मंद है और श्रद्धा शक्ति भी मंद है, उसे सामाचारी व इंद्रियविजय का अभ्यास छह मास तक करना चाहिए। यह शैक्ष की उत्कृष्ट भूमिका है ।
मध्यस्तरीय बुद्धि और श्रद्धा वाले को सामाचारी व इंद्रियविजय का अभ्यास चार मास तक कराना चाहिए। यदि कोई भावनाशील श्रद्धा संपन्न और मेधावी व्यक्ति प्रव्रजित हो तो उसे भी सामाचारी व इंद्रियविजय का अभ्यास चार मास तक कराना चाहिए। यह शैक्ष की मध्यम भूमिका है ।"
१. परिशिष्टपर्व, सर्ग १३, पृष्ठ १०७, १०८ ।
२. देखें - विशेषावश्यकभाष्य ८०६ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२४ : शिक्षां वाऽधीत इति शैक्षः ।
४. तत्त्वार्थवार्तिक, ६२४ श्रुतज्ञानशिक्षणपरः अनुपरतव्रतभावनानिपुण: शैक्षक इति लक्ष्यते ।
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५. व्यवहारभाष्य १०१५३, ५४ :
पुश्वोवपुराणे, करणजयट्ठा जहणियाभूमी । उनकोसा दुम्मेहं, पडुच्च असहाणं च ।। एमेव य मज्झमिया, अणहिज्जेते य सद्दहंते य । भाविय मेहाविस्तवि, करण जयट्ठा य मज्झमिया ॥
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