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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : टि० ४६-४६
इसलिए इस भूमिका से भी स्पष्ट होता है कि धर्म-प्रतिपत्ति के प्रसंग में जो 'जाम' शब्द आया है वह वय का ही द्योतक है, व्रत या काल-विशेष का नहीं।
४६–बोधि (सूत्र १७६) :
वृत्तिकार ने बोधि का अर्थ सम्यकबोध किया है। इस अर्थ में चारित्रबोधि नहीं हो सकता। वृत्तिकार ने इसका समाधान इस भाषा में दिया है-चारित्न बोधि का फल है, इसलिए अभेदोपचार से उसे बोधि कहा गया है। उन्होंने दूसरा तर्क यह प्रस्तुत किया है-ज्ञान और चारित्र-ये दोनों ही जीव के उपयोग हैं, इसलिए उन्हें बोधि शब्द के द्वारा अभिहित किया गया है।
आचार्य कुंदकुंद ने बोधि शब्द की सुन्दर परिभाषा दी है। जिस उपाय से सद्ज्ञान उत्पन्न होता है उस उपाय-चिंता का नाम बोधि है। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञानबोधि का अर्थ ज्ञानप्राप्ति की उपायचिंता, दर्शनबोधि का अर्थ दर्शनप्राप्ति की उपायचिता और चारिवबोधि का अर्थ चरित्र प्राप्ति की उपायचिंता फलित होता है।
बोधि शब्द बुघ धातु से निष्पन्न हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है-ज्ञान या विवेक । धर्म के सन्दर्भ में इसका अर्थ होता है-आत्मबोध या मोक्षमार्ग का बोध । आत्मा को जानना सम्यक्ज्ञान, आत्मा को देखना सम्यकदर्शन और आत्मा में रमण करना सम्यक् चारित्न है। एक शब्द में तीनों की संज्ञा आत्मबोध है। और, यह आत्मबोध ही मोक्ष का मार्ग है। यहाँ बोधि शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया गया है।
४७–मोह (सूत्र १७८) :
देखें २।४२२ का टिप्पण।
४८-दूसरे स्थान पर ले जाकर दी जाने वाली दीक्षा (सूत्र १८२) :
दशनपुर नगर के राजपुरोहित का नाम सोमदेव था। उसके पुत्र का नाम आर्यरक्षित और पत्नी का नाम रुद्रसोया था। आर्यरक्षित पाटलीपुत्र में जा चारों वेदों का सांगोपांग अध्ययन कर घर लौटे। माता के कहने पर वे दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए तोसलिपुत्र आचार्य के पास गए । उन दिनों आचार्य दशपुर नगर के इक्षुगृह में ठहरे हुए थे। आचार्य ने कहा-जो प्रवजित होता है उसी को दृष्टिवाद का अध्ययन कराया जाता है। क्या तुम दीक्षा लोगे ? आर्यरक्षित ने स्वीकारात्मक उत्तर दिया । आचार्य ने कहा-उसका अध्ययन क्रमपूर्वक कराया जायेगा। आर्यरक्षित ने कहा-हां, मैं उसका क्रमपूर्वक अध्ययन करूंगा। किन्तु मैं यहां प्रवजित होने में असमर्थ हूं। क्योंकि राजा का तथा दूसरे लोगों का मेरे पर बहुत बड़ा अनुराग है । प्रवजित हो जाने पर भी वे मुझे बलात् घर ले जा सकते हैं । अतः अन्यत्र कहीं जाकर दीक्षा प्रदान करें।
आचार्य तोसलिपुत्र आर्यरक्षित को लेकर अन्यत्र गए और उसको प्रवजित किया।
४६-उपदेश से ली जाने वाली दीक्षा (सूत्र १८३) :
आर्यरक्षित को प्रवजित हुए अनेक वर्ष हो चुके थे। एक बार उनके माता-पिता ने एक संदेश में कहा-क्या तुम हम सबको भूल गए? हम तो समझते थे कि तुम हमारे लिए प्रकाश करने वाले हो। तुम्हारे अभाव में यहाँ अन्धकार ही अन्धकार है । तुम शीघ्र घर आकर हमें सम्हाल लो। आर्यरक्षित अपने अध्ययन में तन्मय थे, अतः इस संदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया । तब माता-पिता ने अपने छोटे पुत्र फल्गुरक्षित को संदेश देकर भेजा । फल्गुरक्षित शीघ्र ही वहाँ गया और
१. स्यानांगवृत्ति, पत्र १२३ : बोधि:--सम्यक्त्वोधः।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२३ : इह च चारित्रं बोधिफलत्वात्
वोधिरुच्यते, जीवोपयोगरूपत्वाद्वा । ३. षट्प्राभूतादिसंग्रहः, पृष्ठ ४४०, द्वादशानुप्रेक्षा ८३ : उप्पज्जदि
सण्णाणं, जेण उबाएण तस्सुवायस्स चिता हवेइ बोही, अच्चत दुलह होदि। ४. पूरे कथानक के लिए देखें
आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, पत्र ३६४-३६६ ।
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