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________________ ठाणं (स्थान) २७० स्थान ३ : टि० ४४-४५ प्रज्ञप्ति । दृष्टिवाद कालिक सूत्र है, अतः इन प्रज्ञप्तियों का कालिक होना स्वतः प्राप्त है। श्वेताम्बर आगमों में प्रज्ञप्तिसुन्न दृष्टिवाद के अंग के रूप में निरूपित नहीं है, फिर भी पांच प्रज्ञप्ति सूत्रों की मान्यता रही है, यह वृत्ति से ज्ञात होता है । वृत्तिकार ने लिखा है कि यह तीसरा स्थान है, इसलिए इसमें तीन ही प्रज्ञप्तियों का उल्लेख है, व्याख्याप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का उल्लेख नहीं है।' स्थानांग और नंदीसूत्र के इस परम्परा-भेद का आधार अभी अन्वेषणीय है। ४४–परिषद् (सू० १४३) : इन्द्र की परिषद् निकटता की दृष्टि से तीन प्रकार की हैसमिता-आन्तरिक परिषद् । इसके सदस्य प्रयोजनवशात् इन्द्र के द्वारा बुलाने पर ही आते हैं। चंडा-मध्यमा परिषद् । इसके सदस्य इन्द्र के द्वारा बुलाने और न बुलाने पर भी आते हैं। जाता-बाह्यपरिषद् । इसके सदस्य इन्द्र के द्वारा बिना बुलाये ही आ जाते हैं। प्रकारान्तर से इसका यह भी अर्थ है-- १. जिनके सम्मुख प्रयोजन की पर्यालोचना की जाए वह आभ्यन्तर या समितापरिषद् है। २. जिनके सम्मुख पर्यालोचित विषय को विस्तार से बताया जाए वह मध्यमा या चंडापरिषद् है। ३. जिनके सम्मुख पर्यालोचित विषय का वर्णन किया जाए वह बाह्य या जातापरिषद् है। ४५-याम (सू० १६१): यहां वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने 'याम' का अर्थ दिन और रात्रि का तृतीय भाग किया है। इससे आगे एक पाठ और है-तिहिं वतेहि आया केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए तं जहा-- पढमे वते, मज्झिमे वते, पच्छिमे वते (३।१६२) । प्रथम, मध्यम और पश्चिम-तीनों वय में धर्म की प्राप्ति होती है। आचारांग में भी धर्म प्रतिपत्ति के प्रसंग में ऐसा ही पाठ हैजामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आयरिया संबुज्झमाणा समुट्टिया अर्थात् याम तीन हैं, जिनमें आर्य संबुद्ध होते हैं। आचारांगचूणि में 'जाम' और 'वय' को एकार्थक स्वीकार किया है। किन्तु स्थानांगसूत्र में 'जाम' और 'वय' के भिन्न पाठ हैं। फिर भी इससे आचारांगण का मत खण्डित नहीं होता। क्योंकि स्थानांग एक संग्राहक सूत्र है, इसीलिए इसमें सदृश पाठों का भी संकलन कर लिया गया है। जाम का वयवाची अर्थ भी एक परम्परा का संकेत देता है। उस समय संन्यास-विषयक यह प्रश्न प्रबल था कि किस अवस्था में संन्यास लेना चाहिए । वर्णाश्रम व्यवस्था में चतुर्थ आश्रम में संन्यास-ग्रहण का विधान था परन्तु भगवान् महावीर की मान्यता इससे भिन्न थी। वे दीक्षा के साथ वय का योग नहीं मानते थे। उन्होंने कहा-प्रथम, मध्यम और पश्चिम–तीनों ही वय धर्म-प्रतिपत्ति के लिए योग्य हैं। तीनों वयों का काल-मान इस प्रकार हैं--- प्रथम वय-८ वर्ष से ३० वर्ष तक। मध्यम वय-३० वर्ष से ६० वर्ष तक। पश्चिम वय-६० वर्ष से आगे। १. कषायपाहुड, भाग १, पृ० १५० । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२० : व्याख्याप्रज्ञप्तिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिश्च न विवक्षिता, विस्थानकानुरोधात् । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२२ : यामो रात्रंदिनस्य च चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धः तथाऽपोह विभाग एव विवक्षितः । ४. आचारांग, १।।१।१५। ५. आचारांगचुणि, पत्र २४४ : जामोत्ति वा क्योत्ति वा एगट्ठा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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