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ठाणं (स्थान)
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६. धीमे-धीमे शब्दों में बोलना, जोर-जोर से नहीं बोलना ।
७. काम, क्रोध आदि का निग्रह करना ।
तपस्या की विधि प्रत्येक शास्त्र ग्रंथ के लिए निश्चित थी। इसकी जानकारी के लिए विधिप्रपा आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं ।
यह योगवहन की पद्धति भगवान् महावीर के समय में प्रचलित नहीं थी। उस समय के उल्लेखों में अंगों के अध्ययन का उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु योगवहन पूर्वक अध्ययन का उल्लेख नहीं मिलता। अध्ययन के साथ योगवहन की परम्परा भगवान् महावीर के निर्वाण के उत्तरकाल में स्थापित हुई प्रतीत होती है। यदि योगवाहिताका अर्थ श्रुत के अध्ययन के साथ की जाने वाली तपस्या या विशिष्ट चर्या हो तो यह उत्तरकालीन संक्रमण है । और, यदि इसका अर्थ चित्तसमाधि की विशिष्ट साधना हो तो इसे महावीरकालीन माना जा सकता है। प्रसंग की दृष्टि से दोनों अर्थ संगत हो सकते हैं।
३८-४०—पल्य, माल्य, अन्तर्मुहूर्त ( सू० १२५ )
३७ - प्रणिधान ( सू० १६) :
प्रणिधान का अर्थ है - एकाग्रता । वह केवल मानसिक ही नहीं होती वाचिक और कायिक भी होती है। एकाग्रता का उपयोग सत् और असत् दोनों प्रकार का होता है। इसी आधार पर प्रणिधान के सुप्रणिधान और दुष्प्रणिधान - ये दो भेद किए गए हैं।
४१ - ( सू० १२१ ) :
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार हैं
पल्य- बांस आदि से बनाई हुई टोकरी ।
माल्य - दूसरी मंजिल का मकान ।
अन्तर्मुहूर्त --- दो समय से लेकर अड़तालीस मिनट में से एक समय कम तक का कालमान ।
प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के आशय इस प्रकार हैं
समान - प्रमाण की दृष्टि से एक लाख योजन।
सपक्ष - समश्रेणी की दृष्टि से सपक्ष- दाएं बाएं पार्श्व समान । सप्रतिदिश - विदिशाओं में सम ।
४२ - ( सू० १३२ ) :
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प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं
सीमांतक नरकावास - पहली नरकभूमि के पहले प्रस्तर का नरकावास ।
ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी - सिद्धशिला । इसका क्षेत्रफल पैंतालीस लाख योजन है ।
स्थान ३ :
१. नंदी सूत्र, ७८ ।
४३ - ( सू० १३९ ) :
प्रस्तुत सूत्र में तीन कालिक प्रज्ञप्ति सूत्रों का निरूपण है । नंदीसून में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति - इन दोनों को कालिक' तथा सूर्यप्रज्ञप्ति को उत्कालिक के वर्ग में समाविष्ट किया गया है। जयधवला में परिकर्म (दृष्टिवाद के प्रथम अंग) के पांच अर्थाधिकार निरूपित हैं-- चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्या
टि० ३७-४३
२. नंदीसूत ७७ ॥
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