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________________ ठाणं (स्थान) ८७६ स्थान :: टि०४ ये दोष एक के बाद एक आते रहते हैं।' ४. (सू० १४) तत्त्वार्थसूत्र ८१७ में भी दर्शनावरणीय कर्म की ये नौ उत्तर प्रकृतियां उल्लिखित हैं। प्रस्तुत सूत्र से उनका क्रम कुछ भिन्न है। वहां पहले चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल है और बाद में निद्रापंचक का उल्लेख है। तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरीय पाठ और भाष्य में निद्रा आदि के पश्चात् 'वेदनीय' शब्द रखा गया है, जैसे-निद्रावेदनीय, निद्रानिद्रावेदनीय आदि। दिगम्बरीय पाठ में इन शब्दों के बाद 'वेदनीय' शब्द नहीं है। राजबातिक और सर्वार्थसिद्धि टीका में इनके बाद दर्शनावरण जोड़ने को कहा गया है। __ स्थानांग के वृत्तिकार अभयदेवसूरी ने निद्रापंचक का जो अर्थ किया है वह मूल अनुवाद में प्रदत्त है। उन्होंने थीणगिद्धी के दो संस्कृत रूपान्तर दिए हैं - १. स्त्यानद्धि २. स्त्यानगृद्धि। बौद्ध साहित्य में इसका रूप स्त्यानऋद्धि मिलता है। तत्त्वार्थ वार्तिक के अनुसार निद्रापंचक का विवरण इस प्रकार है १. निद्रा--मद, खेद और क्लम को दूर करने के लिए सोना निद्रा है। इसके उदय से जीव तमःअवस्था को प्राप्त होता है। २. निद्रा-निद्रा-बार-बार निद्रा में प्रवृत्त होना निद्रा-निद्रा है। इसके उदय से जीव महातम: अवस्था को प्राप्त होता है। ३. प्रचला-जिस नींद से आत्मा में विशेष रूप से प्रचलन उत्पन्न हो उसे प्रचला कहा जाता है। शोक, श्रम, मद आदि के कारण इसकी उत्पत्ति होती है। यह इन्द्रिय-व्यापार से उपरत होकर बैठे हुए व्यक्ति के शरीर और नेत्र आदि में विकार उत्पन्न करती है। इसके उदय से जीव बैठे-बैठे ही खुर्राटे भरने लगता है । उसका शरीर और उसकी आंखें विचलित होती हैं और वह व्यक्ति देखते हुए भी नहीं देख पाता।। ४. प्रचला-प्रचला–प्रचला की बार-बार आवृत्ति से जब मन बासित हो जाता है, तब उसे प्रचला-प्रचला कहा जाता है। इसके उदय से जीव बैठे-बेठे ही अत्यन्त खुर्राटे लेने लगता है और बाण आदि के द्वारा शरीर के अवयव छिन्न हो जाने पर भी वह कुछ नहीं जान पाता। ५. स्त्यानगद्धि -- इसका शाब्दिक अर्थ है स्वप्न में विशेष शक्ति का आविर्भाव होना। इसकी प्राप्ति से जीव सोतेसोते ही अनेक रौद्र कर्म तथा बहुविध क्रियाएं कर डालता है। गोम्मट्टसार के अनुसार निद्रापंचक का विवरण इस प्रकार है (१) 'स्त्यानगृद्धि' के उदय से जगाने के बाद भी जीव सोता रहता है। वह उस सुप्त अवस्था में भी कार्य करता है, बोलता है। (२) निद्रा-निद्रा' के उदय से जीव आंखें नहीं खोल सकता। (३) 'प्रचला-प्रचला' के उदय से लार गिरती है और अंग कांपते हैं। (४) निद्रा' के उदय से चलता हुआ जीव ठहरता है, बैठता है, गिरता है। १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२३, ४२४ । २. तत्त्वार्थ सूत्र ८७ ३. तत्त्वार्थवात्तिक पु० ५७२ । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२४ । ५. तत्त्वार्थवात्तिक, पृष्ठ ५७२, ५७३ । ६. गोम्मट्टसार, कर्मकाण्ड, गाथा २३-२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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