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ari (स्थान)
स्थान : टि० ५-१०
(५) 'प्रचला' के उदय से जीव के नेत्र कुछ खुले रहते हैं और वह सोते हुए भी थोड़ा-थोड़ा जागता है और बारबार मंद-मंद सोता है।
५-७. ( सू० १५-१८)
मिलाइए - समवाओ | ५-७ ।
८. ( सू० १८ )
यद्यपि लवण समुद्र में पांच सौ योजन के मत्स्य होते हैं किन्तु नदी के मुहाने पर जगती के रंध्र की उचितता से केवल नौ योजन के मत्स्य ही प्रवेश पा सकते हैं। अथवा जागतिक नियम ही ऐसा है कि इससे ज्यादा बड़े मत्स्य उसमें आते ही नहीं।' ये मत्स्य लवण समुद्र से जंबुद्वीप की नदियों में आ जाते हैं ।
मिलाइये - समवाओ हा ।
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६. महानिधि ( सू० २२ )
प्रस्तुत सूत्र में नौ निधियों का उल्लेख है । निधि का अर्थ है --खजाना । वृत्तिकार का अभिमत है कि चक्रवर्ती के अपने राज्य के लिए उपयोगी सभी वस्तुओं की प्राप्ति इन नौ निधियों से होती है, इसीलिए इन्हें नव निधान के रूप में गिनाया जाता है।' प्रचलित परम्परा के अनुसार ये निधियां देवकृत और देवाधिष्ठित मानी जाती हैं। परन्तु वास्तव में ये सभी आकर ग्रन्थ हैं, जिनसे सभ्यता और संस्कृति तथा राज्य संचालन की अनेक विधियों का उद्भव हुआ है। इनमें तत् तत् विषयों का सर्वाङ्गीण ज्ञान भरा था, इसलिए इन्हें निधि के रूप में माना गया। ये आकर ग्रन्थ अपने विषय की पूर्ण जानकारी देते थे । हम इन नौ निधियों को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में इस प्रकार बांट सकते हैं
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१. नैसर्प निधि - वास्तुशास्त्र |
२. पांडुक निधि -- गणितशास्त्र तथा वनस्पतिशास्त्र |
३. पिंगल निधि-मंडनशास्त्र |
४. सर्वरत्न निधि - लक्षणशास्त्र |
५. महापद्म निधि वस्त्र - उत्पत्तिशास्त्र ।
६. काल निधि - कालविज्ञान, शिल्पविज्ञान और कर्मविज्ञान का प्रतिपादक महाग्रन्थ ।
७. महाकाल निधि - धातुवाद |
८. माणवक निधि राजनीति व दंडनीतिशास्त्र ।
६. शंख निधि - नाट्य व वाद्यशास्त्र ।
१०. सौ प्रकार के शिल्प ( सू० २२ )
कालनिधि महाग्रन्थ में सौ प्रकार के शिल्पों का वर्णन है । वृत्तिकार ने घट, लोह, चित्र, वस्त्र और नापित — इन पांचों को मूल शिल्प माना है और प्रत्येक के बीस-बीस भेद होते हैं, ऐसा लिखा है। वे बीस-बीस भेद कौन-कौन से हैं, यह
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२५ लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चशतयोजनायामा मत्स्या भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२६ चक्रवत्तराज्योपयोगीनि द्रव्याणि सर्वाण्यपि नवसु निधिष्ववतरन्ति, नव निधानतया व्यवह्रियन्त इत्यर्थः ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२६ : शिल्पशतं कालनिधो वर्तते, शिल्पशतं च घटलोहचित्र वस्त्रशिल्पानां प्रत्येकं विशतिभेदत्वादिति ।
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