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________________ ठाणं (स्थान) ८७८ इनके पाँच-पाँच विकृतिगत होते हैं। उनका विवरण इस प्रकार है- अन्वेषणीय है । सूत्रकार को सौ शिल्प कौन से गम्य थे, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता । ११. चार प्रकार के काव्य ( सू० २२) वृत्तिकार ने काव्य के चार-चार विकल्प प्रस्तुत किए हैं' १. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतिपादक ग्रन्थ । २. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश या संकीर्ण भाषा [ मिश्रित भाषा ] निबद्ध ग्रन्थ । ३. सम, विषम, अर्द्ध सम या वृत्त में निबद्ध ग्रन्थ । ४. गद्य, पद्य, गेय और वर्णपद भेद में निबद्ध ग्रन्थ । १२. विकृतियां (सू० २३ ) विकृति का अर्थ है विकार । जो पदार्थ मानसिक विकार पैदा करते हैं उन्हें विकृति कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में नौ विकृतियों का उल्लेख है। स्थान : टि० ११-१२ प्रवचनसारोद्धार' में दस विकृतियों का कथन है। उनमें अवगाहिम [ पक्वान्न ] विकृति का अतिरिक्त उल्लेख है । जो पदार्थ घी अथवा तेल में तला जाता है, उसे अवगाहिम कहते हैं। स्थानांगवृत्ति में लिखा है कि पक्वान्न कदाचित् अविकृति भी होता है, इसलिए विकृतियां नौ निर्दिष्ट हैं। यदि पक्वान्न को विकृति माना जाए तो विकृतियां दस हो जाती हैं। प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार ने विकृति के विषय में प्रचलित प्राचीन परंपरा का उल्लेख करते हुए अनेक तथ्य उपस्थित किए हैं। अवगाहिम विकृति के विषय में उन्होंने विशेष जानकारी दी है। उनका कथन है कि घी अथवा तेल से भरी हुई कड़ाही में एक, दो, तीन घाण निकाले जाते हैं तब तक वे सब पदार्थ अवगाहिम विकृति के अन्तर्गत आते हैं। यदि उसी ते में चौथा घाण निकाला जाता है [ चौथी बार उसी में कोई चीज तली जाती है ] तब वह निर्विकृति हो जाती है। ऐसे पदार्थ योगवहन करनेवाले मुनि भी ले सकते हैं । यदि चल्हे पर चढ़ी हुई उसी कड़ाही में बार-बार घी या तेल डाला जाता है तो चौथे घाण में भी वह वस्तु निर्विकृतिक नहीं होती । Jain Education International दूध मिश्रित चावल में यदि चावलों पर चार अंगुल दूध रहता है तो वह निर्विकृतिक माना जाता है । और यदि दूध पांच अंगुल से ज्यादा होता है तो विकृति माना जाता है। इसी प्रकार दही और तेल के विषय में भी जानना चाहिए। गुड़, घी, और तेल से बने पदार्थों में यदि वे एक अंगुल ऊपर तक सटे हुए हों तो बे विकृति नहीं हैं। मधु और मांस के रस से बने हुए पदार्थों में यदि वे रस में आधे अंगुल तक सटे हुए हों तो विकृति के अन्तर्गत नहीं आते। जिन पदार्थों में गुड़, मांस, नवनीत आदि के आर्द्रामलक जितने छोटे-छोटे टुकड़े (शण वृक्ष के मुकुट जितने छोटे ) मिश्रित हों, वे पदार्थ भी निविकृतिक माने जाते हैं । और जिनमें इनके बड़े-बड़े टुकड़े मिश्रित हों वे विकृति में गिने जाते हैं । प्राचीन आगम व्याख्या साहित्य में तीन शब्द प्रचलित हैं- विकृति, निर्विकृति और विकृतिगत । विकृति और निर्विकृति की बात हम ऊपर कह चुके हैं। विकृतिगत का अर्थ है— दूसरे पदार्थों के मिश्रण से जिस विकृति की शक्ति नष्ट हो जाती है उसे विकृतिगत कहा जाता है। इसके तीस प्रकार हैं। दूध, दही, घी, तेल, गुड और अवगाहिम - इनके पांच-पाँच विकृतिगत होते हैं । उनका विवरण इस प्रकार है १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२० : काव्यस्य चतुर्विधस्य धर्मार्थकाममोक्षलक्षण पुरुषार्थ प्रतिबद्ध ग्रन्थस्य अथवा संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसङ्कीर्ण भाषानिबद्धस्य अथवा समविषमार्द्धसमवृत्तबद्ध तया गद्यतया चेति अथवा गद्यपद्यगेयवर्णपदभेदबद्धस्येति । २. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र ५३ विकृतयो- मनसो विकृति हेतुत्वादिति । ३. प्रवचनसारोद्वार गाथा २१७ : दुद्धं दहि नवणीयं घयं तहा तेल्लमेव गुड मज्जं । महु मंसं चेव तहा ओगाहिमगं च विगइओ || ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४२७ पक्वान्नं तु कदाचिदविकृतिरपि तेनैता नव, अन्यथा तु दशापि भवन्तीति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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