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________________ स्थान ८:सूत्र ४-६ ठाणं (स्थान) ७८८ से चेव णं से अंडए अंडगत्तं विप्प- स चैव असौ अण्डज: अण्डजत्वं विप्रजहमाणे अंडगत्ताए वा, पोतगत्ताए जहत् अण्डजतया वा, पोतजतया वा, वा, 'जराउजत्ताए वा, रसजत्ताए जरायुजतया वा, रसजतया वा, वा, संसेयगत्ताए वा, संमुच्छिमत्ताए संस्वेदजतया वा, सम्मूच्छिमतया वा, वा,उब्भियत्ताएवा, उववातियत्ताए उद्भिज्जतया वा, औपपातिकतया वा वा गच्छेजा। गच्छेत् । ४. एवं पोतगावि जराउजावि सेसाणं एवं पोतजा अपि जरायुजा अपि शेषाणां गतिरागति णत्थि। गतिः आगतिः नास्ति। जो जीव अण्डज योनि को छोड़कर दूसरी योनि में जाता है वह अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूच्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक-इन आठों योनियों में जाता है। ४. इसी प्रकार पोतज और जरायुज जीवों की भी गति और आगति आठ प्रकार की होती है। शेष रसज आदि जीवों की गति और आगति आठ प्रकार की नहीं होती। कम्म-बंध-पदं कर्म-बन्ध-पदम् ५. जीवा णं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसु जीवा अष्ट कर्मप्रकृती: अचिन्वन् वा वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा, तद्यथातं जहाणाणावरणिज्जं, दरिसणावरणिज्ज, ज्ञानावरणीयं, दर्शनावरणीयं, वेयणिज्ज, मोहणिज्ज, आउयं, वेदनीयं, मोहनीयं, आयुः, णाम, गोतं, अंतराइयं । नाम, गोत्रं, अन्तरायिकम् । ६. जेरइया णं अट्ठ कम्मपगडीओ नैरयिका अष्ट कर्मप्रकृती: अचिन्वन् चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा एवं चैव। वा एवं चेव। कर्म-बन्ध-पद ५. जीवों ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय--इन आठ कर्म-प्रकृतियों का चय किया है, करते हैं और करेंगे। ७. एवं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं। एवं निरन्तरं यावत् वैमानिकानाम्। ६. नैरकियों ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्म-प्रकृतियों का चय किया है, करते हैं और करेंगे। ७. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डको ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय किया है, करते हैं और करेंगे। ८. जीवों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय, उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे। नैरयिक से वैमानिक तक के सभी दण्डकों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय, उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे। ८. जीवा णं अट्ठ कम्मपगडीओ उव- जीवा अष्ट कर्मप्रकृतीः उपाचिन्वन् चिणिसु वा उवचिणंति वा उव- वा उपचिन्वन्ति वा उपचेष्यन्ति वा चिणिस्संति वा एवं चेव। एवं चैव। एवं_विण-उवचिण-बंध एवम्-चय-उपचय-बन्ध उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव। उदीर-वेदाः तथा निर्जरा चैव । एते छ चउवीसा दंडगा भाणियव्वा। एते षट् चतुर्विशति दण्डका भणितव्याः। आलोयणा-पदं आलोचना-पदम् ६. अहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु- अष्टभिः स्थानैः मायी मायां कृत्वा- आलोचना-पद ६. आठ कारणों से मायावी माया करके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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