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________________ स्थान ८: सूत्र १० उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, ब्यावर्तन तथा विशुद्धि नहीं करता, 'फिर ऐसा नहीं करूंगा'-ऐसा नहीं कहता, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार नहीं करता१. मैंने अकरणीय कार्य किया है, २. मैं अकरणीय कार्य कर रहा हूं, ३. मैं अकरणीय कार्य करूंगा, ४. मेरी अकीर्ति होगी, ५. मेरा अवर्ण होगा, ६. मेरा अविनय होगा-पूजा सत्कार नहीं होगा, ७. मेरी कीर्ति कम हो जाएगी, ८. मेरा यश कम हो जाएगा। ठाणं (स्थान) ७८६ णो आलोएज्जा, णो पडिक्कमेज्जा, नो आलोचयेत्, नो प्रतिक्रामेत्, । *णो णिदेज्जा, णो गरिहेज्जा, नो निन्देत्, नो गर्हेत, । णो विउद्देज्जा, णो विसोहेज्जा, नो व्यावर्तेत, नो विशोधयेत्, णो अकरणयाए अन्भटुज्जा, नो अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, णो अहारिहं पायच्छित्तंतवोकम्मं नो यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म पडिवज्जेज्जा, तं जहा- प्रतिपद्येत, तद्यथाकरिसु वाहं, करेमि वाहं, अकार्ष वाहं, करोमि वाहं, करिस्सामि वाहं, करिष्यामि वाह, अकित्ती वा मे सिया, अकीतिः वा मे स्यात्, अवण्णे वा मे सिया, अवर्णो वा मे स्यात्, अविणए वा मे सिया, अविनयो वा मे स्यात, कित्ती वा मे परिहाइस्सइ, कीतिः वा मे परिहास्यति, जसे वा मे परिहाइस्सइ। यशो वा मे परिहास्यति। १०. अहि ठाणेहि मायी मायं कट- अष्टभिः स्थानः मायी मायां कृत्वा आलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, आलोचयेत, प्रतिक्रामेत. निन्देत. णिदेज्जा, गरिहेज्जा, विउट्टेज्जा, गहेंत, व्यावर्तेत, विशोधयेत्, विसोहेज्जा, अकरणयाए अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, अन्भुट्ठज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्येत, पडिवज्जेज्जा, तं जहा तद्यथा१. मायिस्स णंअस्सि लोए गरहिते १. मायिनः अयं लोकः गहितो भवति । भवति। २. उववाए गरहिते भवति। २. उपपातः गहितो भवति । ३. आयाती गरहिता भवति। ३. आजातिः गहिता भवति। ४. एगमवि मायी मायं कटट. ४. एकामपि मायी मायां कृत्वाणोआलोएज्जा, णो पडिक्कमेज्जा, नो आलोचयेत्, नो प्रतिक्रामेत्, । णो णिदेज्जा, णो गरिहेज्जा, नो निन्देत्, नो गहेत, णो विउद्देज्जा, णो विसोहेज्जा, नो व्यावर्तेत, नो विशोधयेत्, णो अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा, नो अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं नो यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म पडिवज्जेजा, प्रतिपद्येत, णत्थि तस्स आराहणा। नास्ति तस्य आराधना। ५. एगमवि मायो मायं कट्ट - ५. एकामपि मायो मायां कृत्वा.. आलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, आलोचयेत्, प्रतिक्रामेत्, निन्देत्, उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, 'फिर ऐसा नहीं करूंगा'—ऐसा कहता है, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करता है १. मायावीं का इहलोक गहित होता है, २. उपपात गहित होता है, ३. आजाति-जन्म गहित होता है, ४. जो मायावी एक भी माया का आचरण कर उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि नहीं करता, 'फिर ऐसा नहीं करूंगा'—ऐसा नहीं कहता, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार नहीं करता उसके आराधना नहीं होती। ५. जो मायावी एक भी माया का आचरण कर उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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