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________________ स्थान ८: सूत्र १० निन्दा, गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, फिर से ऐसा नहीं करूंगा'-- ऐसा कहता है, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती है। ठाणं (स्थान) ७६० णिदेज्जा, गरिहेज्जा, विउद्देज्जा, गर्हेत, व्यावर्तेत, विशोधयेत्, विसोहेज्जा, अकरणायाए अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, अब्भुज्जा, यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्यत, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा, अस्थि तस्स आराहणा। अस्ति तस्य आराधना। ६. बहुओवि मायी मायं कटु- ६. बह्वीमपि मायी मायां कृत्वाणो आलोएज्जा, नो आलोचयेत्, •णो पडिक्कमेज्जा, नो प्रतिक्रामेत्, णो णिदेज्जा, णो गरिहेज्जा, नो निन्देत्, नो गर्हेत, णो विउट्टे ज्जा, णो विसोहेज्जा, नो व्यावर्तेत, नो विशोधयेत्, णो अकरणाए अब्भुट्ठज्जा, नो अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म० नो यथाई प्रायश्चित्तं तपःकर्म पडिवज्जेज्जा, प्रतिपद्येत, णत्थि तस्स आराहणा। नास्ति तस्य आराधना। ७. बहुओवि मायी मायं कटु- ७. बह्वीमपि मायी मायां कृत्वाआलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, आलोचयेत्, प्रतिक्रामेत्, निन्देत्, । णिदेज्जा, गरिहेज्जा, गहेत, व्यावर्तेत, विशोधयेत्, विउद्देज्जा, विसोहेज्जा, अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत, अकरणयाए अब्भुट्ठज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्येत, पडिवज्जेज्जा, अस्थि तस्स आराहणा। अस्ति तस्य आराधना। ८. आयरिय-उवज्झायस्स वा मे ८. आचार्य-उपाध्यायस्य वा मे अतिशेष अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जेज्जा, ज्ञानदर्शनं समुत्पद्येत, स च मां से य मममालोएज्जा मायी णं आलोकयेत मायी एषः । ६. जो मायावी बहुत माया का आचरण कर उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि नहीं करता, 'फिर ऐसा नहीं करूंगा'—ऐसा नहीं कहता, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार नहीं करता, उसके आराधना नहीं होती। ७. जो मायावी बहुत माया का आचरण कर उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्यावर्तन तथा विशुद्धि करता है, 'फिर से ऐसा नहीं करूंगा'—ऐसा कहता है, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती एसे। मायो णं मायं कटु से जहाणामए- मायी मायां कृत्वा स यथानामकःअयागरेति वा तंबागरेति वा अयआकरः इति वा ताम्राकर: इति वा तउआगरेति वा सीसागरेति वा त्रपुआकर: इति वा शीशाकरः इति वा रुप्पागरेति वा सुवण्णागरेति वा रूप्याकरः इति वा सुवर्णाकरः इति वा तिलागणीति वा तुसागणीति वा तिलाग्निरिति वा तुषाग्निरिति वा बुसागणीति वा णलागणीति वा बुसाग्निरिति वा नलाग्निरिति वा दलागणीति वा सोंडियालिछाणि दलाग्निरिति वा शुण्डिकालिञ्छाणि वा ८. मेरे आचार्य या उपाध्याय को अतिशायी ज्ञान और दर्शन प्राप्त होने पर कहीं ऐसा जान न लें कि 'यह मायावी है।' अकरणीय कार्य करने के बाद मायावी उसी प्रकार अन्दर ही अन्दर जलता है, जैसेलोहे को गालने की भट्टी, ताम्बे को गालने की भट्टी, वपु को गालने की भट्टी, शीशे को गालने की भट्टी, चांदी को गालने की भट्टी, सोने को जलाने की भट्टी, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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