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स्थान ८: सूत्र १०
भूसे की अग्नि, नलाग्नि-नरकट की अग्नि, पत्तों की अग्नि, सुण्डिका का चूल्हा', भण्डिका का चूल्हा, गोलिका का चूल्हा', घड़ों का कजावा, खपरैलों का कजावा, ईंटों का कजावा, गुड़ बनाने की भट्टी, लोहकार, की भट्टीतपती हुई, अग्निमय होती हुई, किंशुकफूल के समान लाल होती हुई, सहस्रों उल्काओं और सहस्रों ज्वालाओं को छोड़ती हुई, सहस्रों अग्निकणों को फेंकती हुई, अन्दर ही अन्दर जलती है, इसी प्रकार मायावी माया करके अन्दर ही अन्दर जलता है।
ठाणं (स्थान)
७६१ वा भंडियालिछाणि वा गोलिया- भण्डिकालिञ्छाणि वा गोलिकालिञ्छाणि लिछाणि वा कुंभारावाएति वा वा कुम्भकारापाकः इति वा कवेल्लुआवाएति वा इट्टावाएति कवेल्लुकापाकः इति वा इष्टापाकः इति वा जंतवाडचुल्लीति वा लोहारं वा यंत्रपाटचुल्लीति वा लोहका राम्बरीषा बरिसाणि वा।
वा। तत्ताणि समजोतिभूताणि किसुक- तप्तानि समज्योतिर्भूतानि किंशुकपुष्पफुल्लसमाणाणि उक्कासहस्साई समानानि उल्कासहस्राणि विनिर्मुञ्चन्ति विणिम्मयमाणाई विणिम्मुयमा- विनिर्मुञ्चन्ति, ज्वालासहस्राणि णाई, जालासहस्साइं पहुंचमाणाई प्रमुञ्चन्ति-प्रमुञ्चन्ति, अङ्गारसहस्राणि पमुंचमाणाई, इंगालसहस्साई प्रविकिरन्ति-प्रविकिरन्ति, अन्तरन्तः पविक्खिरमाणाई-पविक्खिरमाणाई, ध्मायन्ति, एवमेव मायी मायां कृत्वा अंतो-अंतो झियायंति, एवामेव अन्तरन्त: मायति । मायी मायं कटु अंतो-अंतो भियाइ। जंवि य णं अण्णे केइ वदंति तंपि यद्यपि च अन्ये केपि वदन्ति तमपि च यणं मायी जाणति अहमेसे अभि- मायी जानाति अहमेषोऽभिशङक्येसंकिज्जामि-अभिसंकिज्जामि। अभिशये । मायी णं मायं कटु अणालोइय- मायी मायां कृत्वा अनालोचिताप्रतिपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा क्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए देवलोकेषु देवतया उपपत्ता भवति, उववत्तारो भवंति, तं जहा- तद्यथाणो महिडिएसु णो महज्जुइएसु नो महद्धिकेषु, नो महाद्युतिकेषु, णो महाणुभागेसु णो महायसेसु नो महानुभागेसु, नो महायशस्सु, णो महाबलेसु णो महासोक्खेसु० नो महाबलेषु, नो महासौख्येषु, णो दुरंगतिएसु, णो चिरहितिएसु। नो दूरंगतिकेषु, नो चिरस्थितिकेषु । से णं तत्थ देवे भवति णो महिड्डिए स तत्र देवः भवति नो महद्धिकः •णो महज्जुइए णो महाणुभागे नो महाद्युतिक: नो महानुभागः नो महाणो महायसे णो महाबले णो महा- यशा: नो महाबल: नो महासौख्यः सोक्खे णो दुरंगतिए णो नो दूरंगतिकः नो चिरस्थितिकः । चिरदितिए। जावि य से तत्थ बाहिरभंतरिया यापि च तस्य तत्र बाह्याभ्यन्तरिका परिसा भवति, सावि य णं णो परिषद् भवति, साऽपि च नो आद्रियते आढाति णो परिजाणाति णो नो परिजानाति नो महार्हेन आसनेन महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, उपनिमन्त्रयते, भाषामपि च तस्य भाष
यदि कोई आपस में बात करते हैं तो मायावी समझता है कि 'ये मेरे बारे में ही शंका करते हैं।' कोई मायावी माया करके उसकी आलोचना या प्रतिक्रमण किए बिना ही मरणकाल में मरकर किसी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होता है। किन्तु वह महान् ऋद्धिवाले, महान् द्युतिवाले, वैक्रियादि शक्ति से युक्त, महान् यशस्वी, महान् बलवाले, महान् सौख्यवाले, ऊंची गति वाले और लम्बी स्थिति वाले देवों में उत्पन्न नहीं होता। वह देव होता है किन्तु महान् ऋद्धिवाला, महान् द्युतिवाला, वैक्रिय आदि शक्ति से युक्त, महान् यशस्वी, महान् बलवाला, महान् सौख्यवाला ऊंची गति वाला और लम्बी स्थिति वाला देव नहीं होता।
वहां देवलोक में उसके बाह्य और आभ्यन्तर परिषद्' होती है। परन्तु इन दोनों परिषदों के सदस्य न उसको आदर देते हैं, न उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं और न महान व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमन्त्रित करते हैं ।
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